महात्मा गाँधी (2 अक्टुबर, 1869 - 30 जनवरी, 1948)
परिचय -
बापू व राष्ट्रपिता की उपाधियों से सम्मानित महात्मा गाँधी 19वीं शताब्दी के ऐसे महापुरूष हुए, जिन्होंने सत्य और अंहिसा के शस्त्र से, जिनके राज्य में कभी सूर्यास्त नहीं होता था, उस महाशक्तिशाली अंग्रेजी शासन को भारत से खदेड़ दिया। उन्होंने सत्य को ही ईश्वर माना और कहा कि ईश्वर ही सत्य है।
आश्विन, कृष्ण पक्ष, द्वादशी, सं.1926 तद्नुसार 2 अक्टुबर, 1869 ई0 को मोहनदास करमचन्द गाँधी ने जन्म लेकर, गुजरात राज्य के पोरबन्दर की धरती को धन्य किया। सात वर्ष की उम्र में उन्हें पाठशाला भेजा गया। अपनी सत्यनिष्ठा से अध्यापक को प्रभावित किया। रामायण, महाभारत का प्रभाव बचपन से ही जीवन पर पड़ा। गीता और नरसी मेहता के पदांे की जीवन पर गहरी छाप लग गई। नरसी जी का ”वैष्णवजण तो तेणे कहिये जे पीड़ पराई जाणे रे“, यह भजन जीवन में समा गया और नित्य प्रार्थना का अंग बन गया। उनके पिता करमचन्द गाँधी मोध समुदाय से सम्बन्ध रखते थे और अंग्रेजों के अधीन वाले भारत के कठियावाड़ एजेन्सी में एक छोटी सी रियासत पोरबन्दर प्रांत के दीवान अर्थात प्रधान मंत्री थे। परनामी वैष्णव हिन्दू समुदाय की उनकी माता पुतलीबाई, करमचन्द की चैथी पत्नी थीं। उनकी पहली तीन पत्नियां प्रसव के समय मर गई थीं। छोटी उम्र में ही कस्तुरबा गाँधी के साथ इनका विवाह हो गया। बचपन में पढ़ते समय, बुरी संगत के कारण कुछ बुरी आदतें पड़ गई। 19 वर्ष की उम्र में बैरिस्टर बनने के लिए इंग्लैण्ड गये और माँ से की हुई प्रतिज्ञा के कारण सदैव कुसंग से बचे रहे। बैरिस्टर बनने के बाद भारत आये। यहाँ बैरिस्ट्री नहीं चली, तो दक्षिण अफ्रीका चले गये। काले-गोरे के भेद से उनका दिल दहल गया और अंग्रेजों के विरूद्ध आवाज उठाई। एक मुकदमें की पैरवी में उनको बड़ी ख्याति मिली। अफ्रीका से लौटने पर मुम्बई के अपोलो बन्दरगाह पर कठियावाड़ वेशभूषा में देखते ही असंख्य लोगों ने स्वागत किया। गाँधी जी, गोखले के साथ पूना आये। बाद में रेल के तीसरे दर्जे में बैठकर सारे देश का भ्रमण कर लोगों को पास से देख-समझा।
बिहार राज्य के चम्पारन जिले में नील की खेती करने वाले किसानों को सत्याग्रह की प्रेरणा देकर अंग्रेजों से मुक्ति दिलाई। ”जलियाँवाला बाग“ के नृशंस हत्याकाण्ड से गाँधी जी का हृदय द्रवित हो गया और सम्पूर्ण देश में असहयोग आन्दोलन की योजना क्रियान्वित करने का संकल्प लिया। जैसे ही आन्दोलन ने जोर पकड़ा, अंग्रेज सरकार ने गाँधी जी को पकड़कर बन्द करने की ठानी और ”यंग इण्डिया“ में प्रकाशित लेख के आधार पर बन्दी बनाकर ”यरवदा“ जेल भेज दिया गया। सत्यवादी, निश्छल भाव के कारण अंग्रेजों के दिल में गाँधी के प्रति सम्मान बढ़ रहा था। जेल के नियमों का गाँधी जी पूरा पालन करते थे। चरखा कातकर, महान लेखकों के ग्रन्थ पढ़कर अपना समय व्यतीत करते थे। वे अपनी छोटी भूल को भी हिमालय जैसी भूल मानते थे। हरिजन उद्धार, सादा और श्रमपूर्ण नैतिक जीवन, अपने दोष देखकर दूसरों को क्षमा करने और सेवा करने के सिद्धान्त को अपनाया। जीवन पर्यन्त राम-नाम के जापक रहे।
1924 ई0 में हिन्दू-मुसलमानों के साम्प्रदायिक संघर्ष से उन्हें आन्तरिक पीड़ा हुई। दिल्ली में इक्कीस दिन का उपवास करना पड़ा। हिन्दू-मुसलमानों की ओर से मिलकर रहने का आश्वासन मिलने पर उपवास तोड़ा। चरखा और खादी आन्दोलन की प्रेरणा देकर स्वदेशी-स्वालम्बन का रास्ता दिखाया और विदेशी वस्त्रों का बहिष्कार कर होली जलाई। 12 मार्च, 1930 में नमक कानून तोड़ने के लिए दाण्डी यात्रा कर लाखों लोगों को आन्दोलन से जोड़ा अन्ततः सफलता प्राप्त की। लन्दन सरकार के गोलमेज परिषद् के आमंत्रण पर गाँधीजी अपने फकीरी देश में गये। परिषद् की बैठक के बाद गाँधी जी सम्राट जार्ज से मिले और भारत के विषय में अपनी बात कही।
भारत लौटकर आने पर मालूम हुआ कि वाइसराय इरविन के स्थान पर लार्ड विलिंगटन की नियुक्ति हुई है, जो गाँधी विरोघी हैं। उसने गाँधी-इरविन समझौते को तोड़ने की प्रक्रिया प्रारम्भ कर दी और 4 फरवरी, 1932 को गिरफ्तार कर यरवदा जेल भेज दिया। द्वितीय विश्वयुद्ध की घोषणा होने पर कांग्रेस ने अंग्रेज सरकार को सहायता देना अस्वीकार कर दिया। उस समय चर्चिल ब्रिटीश सरकार के प्रधानमंत्री थे तथा स्वतन्त्रता आन्दोलन के विरोधी थे। जापान की बढ़ती शक्ति को देखकर गाँधी जी ने सत्याग्रह आन्दोलन करने का निश्चय किया कि भारत स्वाधीन हो जाता है, तो शत्रु का खुलकर मुकाबला करेगें। उन्होंने चर्चिल के औपनिवेशक स्वराज्य के प्रस्ताव को ठुकरा दिया।
8 अगस्त, 1942 को ”भारत छोड़ो आन्दोलन“ का बिगुल बजा दिया गया। गाँधी जी को पकड़कर आगाखाँ महल में रखा गया। महादेव भाई देसाई ओर कस्तूरबा की मृत्यु के पश्चात् गाँधी जी एकाकी रह गये। स्वास्थ्य गिरने लगा, तो सरकार ने 7 मई, 1944 को जेल से रिहा कर दिया। सन् 1945 में विश्व युद्ध समाप्त हो गया। चर्चिल चुनाव में हार गया और उसके स्थान पर मजदूर नेता लार्ड एटली की सरकार बनी। एटली सरकार ने भारत को स्वाधीन करने का निश्चय कर लिया था और उन्होंने अपनी पार्लियामेन्ट में घोषणा की कि जून, 1948 को अंग्रेज भारत छोड़ देगें। लार्ड माउन्टबेटन को भारत का वायसराय बनाकर भेजा गया। लार्ड माउन्टबेटन ने मुस्लिम लीग के नेता जिन्नां और कांग्रेसी नेताओं से बातचीत की। जिन्ना पाकिस्तान की बात पर अडिग रहे। स्वाधीनता की दृष्टि से एक वर्ष पूर्व 15 अगस्त, 1947 को भारत को स्वतन्त्र करने की बात स्वीकार की गई। गाँधी जी कांग्रेसी नेताओं के बात से सहमत नहीं थे। दुःखी मन से नियति का विधान मानकर गाँधी जी मौन हो गये। 2 अक्टुबर को उनके जन्म दिन राष्ट्रीय पर्व ”गाँधी जयंती“ के नाम से मनाया जाता है और दुनियाभर में इस दिन अतंर्राष्ट्रीय अहिंसा दिवस के नाम से मनाया जाता है।
हिन्दुस्तान-पाकिस्तान के बँटवारे ने हिन्दू-मुस्लिम में परस्पर झगड़े की आग भड़का दी और खून से देश की धरती लाल हो गई। गाँधी जी प्रार्थना को बहुत महत्व देते थे। उन्हें पक्का विश्वास था कि प्रार्थना और राम-राम से बड़ी से बड़ी समस्या का समाधान मिल सकता है। शुक्रवार, 30 जनवरी, 1948 का वह काला दिन आया। बिड़ला हाउस में प्रार्थना सभा में उपस्थित भीड़ गाँधी जी की प्रतीक्षा कर रही थी। गाँधी जी मंच पर चढ़ ही रहे थे कि भीड़ में से निकल कर एक युवक ने उनके सीने पर पिस्तौल दाग दी। ”हे राम“ के साथ गाँधी जी की श्वास अंतरिक्ष में विलीन हो गई और वे अलौकिक ज्योति का प्रकाश विकीर्ण कर अनन्त ज्योति में समा गये।
गाँधी का विश्वास
गाँधी का जन्म हिन्दू धर्म में हुआ, उनके पूरे जीवन में अधिकतर सिद्धान्तों की उत्पत्ति हिन्दूत्व से हुआ। साधारण हिन्दू की तरह वे सारे धर्मो को समान रूप से मानते थे। और सारे प्रयास जो उन्हें धर्म परिवर्तन के लिए कोशिश किये जा रहें थे, उसे अस्वीकार कर दिया। वे ब्रह्मज्ञान के जानकार थे और सभी प्रमुख धर्मों को विस्तारपूर्वक पढ़ते थे। उन्होंने कहा कि हिन्दू धर्म के बारे में मै जितना जानता हूँ यह मेरी आत्मा को सन्तुष्ट करती है। और सारी कमियों को पूरा करती है। जब मुझे सन्देह घेर लेती है। जब निराशा मुझे घूरने लगती है और जब मुझे आशा की कोई किरण नजर नहीं आती है तब मंै भगवद्गीता को पढ़ लेता हूँ। और तब मेरे मन को असीम शान्ति मिलती है और तुरन्त ही मेरे चेहरे से निराशा के बादल छंट जाते हैं। और मै खुश हो जाता हूँ। मेरा पूरा जीवन त्रासदियों से भरा है और यदि वो दृश्यात्मक और अमिट प्रभाव मुझ पर नहीं छोड़ता, मै इसके लिए भगवद्गीता के उपदेशों का ऋणी हूँ।
गाँधी के लेखन
गाँधी जी एक सफल लेखक थे। कई दशकों तक वे अनेक पत्रों का संपादन कर चुके थे जिसमें गुजराती, हिन्दी और अंग्रेजी में हरिजन, इण्डियन ओपिनियन और यंग इण्डिया। जब वे भारत आये तब उन्होंने नवजीवन नामक मासिक पत्रिका निकाली। बाद में नवजीवन का प्रकाशन हिन्दी में भी हुआ। इसके अलावा उन्होंने लगभग हर रोज व्यक्तियों और समाचार पत्रों को पत्र लिखा। गाँधी का पूरा कार्य महात्मा गाँधी के संचित लेख नाम से 1960 में भारत सरकार द्वारा प्रकाशित किया गया है। यह लेखन लगभग 50 हजार पृष्ठों में समाविष्ट है और तकरीबन 100 खण्डों में प्रकाशित है। सन् 2000 में गाँधी के पूरे कार्यो का संशोधित संस्करण विवादों के घेरे में आ गया क्योंकि गाँधी के अनुयायियों ने सरकार पर राजनीतिक उद्देश्यों के लिए परिवर्तन शामिल करने का आरोप लगाया।
गाँधी के सिद्धान्त
सत्य - गाँधी जी ने अपना जीवन सत्य या सच्चाइ्र्र की व्यापक खोज में समर्पित कर दिया। उन्होंने इस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए अपनी स्वयं की गलतियों और खुद पर प्रयोग करते हुए सीखने की कोशिश की। उन्होंने अपनी आत्म कथा को ”द स्टोरी आॅफ माइ एकसपेरिमेण्ट विथ ट्रूथ“ का नाम दिया। गाँधी जी ने कहा कि सबसे महत्वपूर्ण लड़ाई लड़ने के लिए अपने दुष्टात्माओं, भय और असुरक्षा जैसे तत्वों पर विजय पाना है। गाँधी जी ने अपने विचारों को सबसे पहले उस समय संक्षेप में व्यक्त किया जब उन्होंने कहा ”भगवान ही सत्य है“, बाद में उन्होंने अपने इस कथन को ”सत्य ही भगवान है“ में बदल दिया। इस प्रकार, सत्य में गाँधी के दर्शन हैं-परमेश्वर।
अहिंसा - हालांकि गाँधी जी अहिंसा के सिद्धान्त के प्रवर्तक विल्कुल नहीं थे फिर भी इसे बड़े पैमाने पर राजनैतिक क्षेत्र में प्रयोग करने वाले पहले व्यक्ति थे। अहिंसा और प्रतिकार का भारतीय धार्मिक विचारों में एक लम्बा इतिहास है और इसके हिन्दू, बौद्ध, यहूदी और ईसाई समुदाय में बहुत सी अवधारणाएं हैं। गाँधी जी ने अपनी आत्मकथा में अपने दर्शन और जीवन के मार्ग का वर्णन किया है। जिसमें लिखा है- जब मैं निराश होता हूँ तब मैं याद करता हूँ कि हालाँंकि इतिहास सत्य का मार्ग होता है किन्तु प्रेम इसे सदैव जीत लेता है। यहाँ अत्याचारी और हत्यारे भी हुए हैं और कुछ समय के लिए वे अपराजेय लगते थे किन्तु अंत में उनका पतन ही होता है, इसका सदैव विचार करें।
गाँधी के विचार
1. विज्ञान का युद्ध किसी व्यक्ति को तानाशाही, शुद्ध और सरलता की ओर ले जाता है। अहिंसा का विज्ञान अकेले ही किसी व्यक्ति को शुद्ध लोकतन्त्र के मार्ग की ओर ले जा सकता है। प्रेम पर आधारित शक्ति सजा के डर से उत्पन्न शक्ति से हजार गुना अधिक और स्थायी होती है। यह कहना निन्दा करने जैसा होगा कि अहिंसा का अभ्यास केवल व्यक्तिगत तौर पर किया जा सकता है और व्यक्तिवादिता वाले देश इसका कभी भी अभ्यास नहीं कर सकते हैं। शुद्ध अराजकता का निकटतम दृष्टिकोण अहिंसा पर आधारित लोकतन्त्र होगा। सम्पूर्ण अहिंसा के आधार पर संगठित और चलने वाला कोई समाज शुद्ध अराजकता वाला समाज होगा।
2. मैंने भी स्वीकार किया कि एक अहिंसक राज्य में भी पुलिस बल की जरूरत अनिवार्य हो सकती है। पुलिस रैंकों का गठन अहिंसा में विश्वास रखने वालों से किया जायेगा। लोग उनकी हर सम्भव मदद करेंगे और आपसी सहयोग के माध्यम से वे किसी भी उपद्रव का आसानी से समाना कर लेंगे। श्रम और पूंजी तथा हड़तालों के बीच हिंसक झगड़ें बहुत कम होंगें और हिसंक राज्यों में तो बहुत कम होंगे क्योंकि अहिंसक समाज की बाहुलता का प्रभाव समाज में प्रमुख तत्वों का सम्मान करने के लिए महान होगा। इसी प्रकार साम्प्रदायिक अव्यवस्था के लिए कोई जगह नहीं होगी।
3. आध्यात्मिक और व्यवहारिक शुद्धता बड़े पैमाने पर ब्रह्मचर्य और वैराग्यवाद से जुदा होता है। गाँधी जी ने ब्रह्मचर्य को भगवान के करीब आने और अपने को पहचानने का प्राथमिक आधार के रूप में देखा था। अपनी आत्मकथा में वे बचपन की दुल्हन कस्तुरबा के साथ अपनी कामेच्छा और इष्र्या के संघर्षो को बताते हैं। उन्होंने महसूस किया कि यह उनका व्यक्तिगत दायित्व है कि उन्हें ब्रह्मचर्य रहना है ताकि वे बजाय हवस के प्रेम को सिख पायें। गाँधी के लिए ब्रह्मचर्य का अर्थ था- इन्द्रियों के अन्तर्गत विचारों, शब्द और कर्म पर नियंत्रण।
4. गाँधी जी का मानना था कि अगर एक व्यक्ति समाज सेवा में कार्यरत है तो उसे साधारण जीवन की ओर ही बढ़ना चाहिए जिसे वे ब्रह्मचर्य के लिए आवश्यक मानते हैं। उनकी सादगी ने पश्चिमी जीवन शैली को त्यागने पर मजबूर करने लगा और वे दक्षिण अफ्रीका में फैलने लगे थे इसे वे - खुद को शून्य के स्थिति में लाना, कहते हैं। जिसमें अनावश्यक खर्च, साधारण जीवन शैली को अपनाना और अपने वस्त्र स्वयं धोना आवश्यक है। अपने साधारण जीवन को दर्शाने के लिए उन्होंने बाद में अपनी बाकी जीवन में धोती पहनी।
5. गाँधी सप्ताह में एक दिन मौन धारण करते थे। उनका मानना था कि बोलने के परहेज से उन्हें आन्तरिक शान्ति मिलती है। उन पर यह प्रभाव हिन्दू मौन सिद्धान्त का है। वैसे दिनों में वे कागज पर लिखकर दूसरों के साथ सम्पर्क करते थे। 37 वर्ष की आयु से साढ़े तीन वर्षो तक गाँधी जी ने अखबारों को पढ़ने से इन्कार कर दिया जिसके जबाब में उनका कहना था कि जगत की आज जो स्थिर अवस्था है, उसने अपनी स्वयं का आन्तरिक अशान्ति की तुलना में अधिक भ्रमित किया है।
6. नियम के रूप में गाँधी विभाजन की अवधारणा के खिलाफ थे क्योंकि उनके धार्मिक एकता के दृष्टिकोण के प्रतिकूल थी। 6 अक्टुबर, 1946 में हरिजन में उन्होंने भारत का विभाजन, पाकिस्तान बनाने के लिए, के बारे में लिखा- पाकिस्तान की मांग जैसा कि मुस्लीम लीग द्वारा प्रस्तुत किया गया है, गैर इस्लामी है और मैं इसे पापयुक्त कहने से नहीं हिचकूँगा। इस्लाम मानव जाति के भाईचारे ओर एकता के लिए खड़ा है, न कि मानव परिवार के एक्य का अवरोध करने के लिए। इस वजह से जो यह चाहते हैं कि भारत दो युद्ध समूहों में बदल जाये, वे भारत और इस्लाम दोनों के दुश्मन हैं। वे मुझे टुकड़ों में काट सकते हैं, पर मुझे उस चीज के लिए राजी नहीं कर सकते जिसे मै गलत समझता हूँ।
भारत के स्वतन्त्रता संग्राम में बिना शस्त्र, और सुरक्षा के अहिंसा का सत्य के बल पर व्यवहारिक जीवन में प्रत्यक्ष करने वाला महात्मा जिसने रामराज्य का सपना देखा था जिसे सम्पूर्ण विश्व सम्मान करता है तथा भारत में राष्ट्रपिता के रुप में स्थापित हैं। इनके नाम पर समर्थन कर तथा समर्थन मांग कर लोग स्वार्थ सिद्धि इतनी आसानी से करते आए हैं कि जनता भी अब इन स्वार्थियों को पहचानने लगी है। इनकी दिशा से शेष कार्य यह है कि जो अहिंसा का नाम बेचते हैं वे जरा अपने सुरक्षा घेरे से बाहर निकलकर अहिंसा का प्रदर्शन करें तथा रामराज्य अर्थात् ”परशुराम परम्परा“ की स्थापना करें।
श्री लव कुश सिंह ”विश्वमानव“ द्वारा स्पष्टीकरण
सार्वभौम आत्मतत्व से साक्षात्कार या अनुभव कर लेने के बाद कोई भी व्यक्ति एकत्व, अहिंसा और सत्य का ही समर्थक और व्यवहार करने वाला बन जाता है। और यह वहीं समझ सकता है जिसने सार्वभौम आत्मतत्व से साक्षात्कार या अनुभव किया हो। वर्तमान समाज में समस्या है कि बिना ऊँचाई (सार्वभौम आत्मतत्व से साक्षात्कार या अनुभव) पर पहुँचे ही व्यक्ति ऐसे ऊँचाई पर पहुँचे व्यक्ति के बारे में अपनी राय/मत को व्यक्त करने से तनिक भी नहीं हिचकते। वे ये नहीं समझते कि किसी पर्वत की चोटी पर जाकर ही अधिकतम देखा जा सकता है न कि पर्वत की तलहटी में खड़े होकर।
ईश्वर के आठवें अवतार भगवान श्रीकृष्ण के हिसंात्मक काल के उपरान्त अहिंसा का मार्ग का ही विकास प्रारम्भ हुआ। उनके बाद आये ईश्वर के आठवें अवतार भगवान बुद्ध ने उस अहिंसा के ही मार्ग को आगे बढ़ाया। परन्तु उनके उपरान्त भी हजारों वर्षो तक हिंसक काल ही रहा। निराकार संविधान आधारित लोकतन्त्र के आने के बाद भी विश्व ने विश्व युद्ध तक को देखा है। लेकिन इतने युद्ध के बाद अब स्वतः ही संसार ने अहिंसा के मार्ग को उचित ठहराया है। उसी दौर में आपका (गाँधी जी) सत्य-अहिंसा का सफल प्रयोग, उसी अहिंसा के मार्ग को ही विकास की ओर गति प्रदान किया। अब स्थिति यह है कि जहाँ तक हो सके मानव युद्ध से बचना ही चाहता है और उसी ओर उसके विकास की गति भी है।
जो ऊँचाई (सार्वभौम आत्मतत्व से साक्षात्कार या अनुभव) पर पहुँच जाता है, उसके सम्बन्ध में आचार्य रजनीश ”ओशो“ की वाणी है - ”कृष्ण शान्तिवादी नहीं हैं, कृष्ण युद्धवादी नहीं है। असल में वाद का मतलब ही होता है कि दो में से हम एक चुनते है। एक अन्य वादी है। कृष्ण कहते हैं, शान्ति में शुभ फलित होता हो तो स्वागत है, युद्ध में शुभ फलित होता हो तो स्वागत है। कृष्ण जैसे व्यक्तित्व की फिर जरुरत है जो कहे कि शुभ को भी लड़ना चाहिए, शुभ को भी तलवार हाथ में लेने की हिम्मत चाहिए निश्चित ही शुभ जब हाथ में तलवार लेता है, तो किसी का अशुभ नहीं होता। अशुभ हो नहीं सकता क्योंकि लड़ने के लिए कोई लड़ाई नहीं है। लेकिन अशुभ जीत न पाये इसलिए लड़ाई है तो धीरे-धीरे दो हिस्सा दुनियाँ के बट जायेंगे, जल्दी ही जहाँ एक हिस्सा भौतिकवादी होगा और एक हिस्सा स्वतंत्रता, लोकतन्त्र, व्यक्ति और जीवन के और मूल्यों के लिए होगा। लेकिन क्या ऐसे दूसरे शुभ के वर्ग को कृष्ण मिल सकते है? मिल सकते हैं। क्योंकि जब भी मनुष्य की स्थितियाँ इस जगह आ जाती है। जहाँ कि कुछ निर्णायक घटना घटने को होती है, तो हमारी स्थितियाँ उस चेतना को भी पुकार लेती हैं, उस चेतना को भी जन्म दे देती है वह व्यक्ति भी जन्म जाता है। इसलिए मैं कहता हूँ कि कृष्ण का भविष्य के लिए बहुत अर्थ है।“
”रामराज्य“, का प्रारूप ”परशुराम परम्परा“ है। ईश्वर के सातवें अवतार भगवान श्रीराम ने ईश्वर के छठें अवतार भगवान परशुराम द्वारा दी गई व्यवस्था का ही प्रसार किये थे। छठें अवतार भगवान परशुराम द्वारा दी गई व्यवस्था इस प्रकार थी-
1. प्रकृति में व्याप्त तीन गुण- सत्व, रज और तम के प्रधानता के अनुसार मनुष्य का चार वर्णों में निर्धारण। सत्व गुण प्रधान - ब्राह्मण, रज गुण प्रधान- क्षत्रिय, रज एवं तम गुण प्रधान- वैश्य, तम गुण प्रधान- शूद्र।
2. गणराज्य का शासक राजा होगा जो क्षत्रिय होगा जैसे- ब्रह्माण्डीय गणराज्य में प्रकृति जो रज गुण अर्थात् कर्म अर्थात् शक्ति प्रधान है।
3. गणराज्य में राज्य सभा होगी जिसके अनेक सदस्य होंगे जैसे- ब्रह्माण्डीय गणराज्य में प्रकृति के सत्व, रज एवं तम गुणों से युक्त विभिन्न वस्तु हैं।
4. राजा का निर्णय राजसभा का ही निर्णय है जैसे- ब्रह्माण्डीय गणराज्य में प्रकृति का निर्णय वहीं है जो सत्व, रज एवं तम गुणों का सम्मिलित निर्णय होता है।
5. राजा का चुनाव जनता करे क्योंकि वह अपने गणराज्य में सर्वव्यापी और जनता का सम्मिलित रुप है जैसे- ब्रह्माण्डीय गणराज्य में प्रकृति सर्वव्यापी है और वह सत्व, रज एवं तम गुणों का सम्मिलित रुप है।
6. राजा और उसकी सभा राज्य वादी न हो इसलिए उस पर नियन्त्रण के लिए सत्व गुण प्रधान ब्राह्मण का नियन्त्रण होगा जैसे- ब्रह्माण्डीय गणराज्य में प्रकृति पर नियन्त्रण के लिए सत्व गुण प्रधान आत्मा का नियन्त्रण होता है।
यह व्यवस्था जब तक निराकार आधारित लोकतन्त्र में संविधान का स्वरूप ग्राम से लेकर विश्व तक नहीं होता तब तक रामराज्य नहीं बन सकता। वर्तमान में ईश्वर के अन्तिम और दसवें अवतार द्वारा इसी को अहिंसक मार्ग से दृढ़ता प्रदान की जा रही है। और मानक आधारित समाज का निर्माण ही सत्यरूप में ईश्वरीय व्यवस्था है।
पूर्ण ईश्वरीय कर्म मार्ग है - पूर्ण प्रत्यक्ष अवतार से पूर्ण प्रेरक अवतार तक। प्रत्यक्ष अवतरण में शारीरिक शक्ति का प्रयोग होता है जबकि पूर्ण प्रेरक अवतरण में आध्यात्मिक सत्य ज्ञान शक्ति का प्रयोग होता है। इस मार्ग का मध्य श्रीकृष्ण थे जिनका जीवन आधा-आधा प्रत्यक्ष और प्रेरक का था।