Wednesday, March 25, 2020

विश्वमानव और स्वामी स्वरूपानन्द (2 सितम्बर, 1924 - )

स्वामी स्वरूपानन्द (2 सितम्बर, 1924 - )

परिचय -
स्वामी स्वरूपानन्द सरस्वती, आद्य शंकराचार्य द्वारा स्थापित चार मठों पर पीठासीन शंकराचार्यो में से हैं। स्वामी स्वरूपानन्द सरस्वती जी का जन्म ग्राम दीघोरी, जिला सिवनी, मध्य प्रदेश में सन् 1924 में हुआ था। 9 वर्ष की उम्र में वे घर छोड़ कर भारत के पवित्र स्थानों में भ्रमण करने के उपरान्त वे वाराणसी में स्वामी करपात्री (स्वामी हरिहरानन्द), गुरूदेव स्वामी ब्रह्मानन्द सरस्वती के शिष्य के साथ अध्ययन किये। भारतीय स्वतन्त्रता आन्दोलन 1942 में वे 19 वर्ष की उम्र में स्वतन्त्रता सेनाना बनें। क्रान्तिकारी साधु के रूप में दो बार 9 महीने और 6 महीने के लिए जेल गये। 1950 में गुरूदेव ने उन्हें एक दण्डी स्वामी बनाया। गुरूदेव के 1953 में ब्रह्मलीन होने के बाद स्वामी स्वरूपानन्द, एक नये गुरू कृष्णबोधाश्रम जी महाराज के साथ हो लिये। स्वामी करपात्री जी द्वारा स्थापित ”रामराज्य परिषद्“ के अध्यक्ष के रूप में स्वामी स्वरूपानन्द जी नियुक्त हुए। श्री कृष्णबोधाश्रम जी के निधन पर ज्योतिर्मठ के शकराचार्य के पद पर स्वामी स्वरूपानन्द जी को स्थापित किया गया। 1982 में स्वामी स्वरूपानन्द को द्वारिका के शंकराचार्य का पद विरासत में मिला।

‘‘हिन्दू धर्म की जो पकड़ थी, वह इस समय कमजोर पड़ गयी है क्योंकि भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलन के समय से राजनेताओं का वर्चस्व बढ़ा और उन्होंने धर्म रक्षको को दबा दिया, जिसके परिणामस्वरूप 163 साल तक शंकराचार्य की पदवी खाली रही। इसलिए आवश्यक है कि शिक्षा के क्षेत्र में धर्म की स्थापना हो। स्वस्थ एवं श्रेष्ठ साहित्य का सृजन हो। महापुरूषों को घूम-घूम कर सनातन धर्म का प्रचार-प्रसार करना चाहिए जिससे लोगो के हृदय में भारतीय धर्म-शास्त्र के प्रति आस्था-विश्वास बढ़े।’’  
- स्वामी स्वरूपानन्द (द्वारिका पीठाधीश्वर जगद्गुरू शंकराचार्य)    
साभार - आज, वाराणसी, दि0 10-5-97

‘‘सांई को भगवान कहना शास्त्र और वेद सम्मत नहीं है। इसलिए उनको भगवान, संत और गुरू नहीं माना जा सकता। सनातन धर्म ने देश को एक बनाया है। गंगा ने पूरे देश में एकता का पाठ सिखाया। लोग सांई को अवतार मान रहे हैं, जबकि अवतार उसे माना जाता है जो अपनी इच्छा से शरीर का धारण करते हैं।’’  (कबीरधाम, कवर्धा, छत्तीसगढ़, में आयोजित धर्म संसद का निर्णय)
- स्वामी स्वरूपानन्द (द्वारिका पीठाधीश्वर जगद्गुरू शंकराचार्य एवं संरक्षक, काशी विद्वत परिषद्) 

श्री लव कुश सिंह ”विश्वमानव“ द्वारा स्पष्टीकरण 
‘ईश्वर के मानवीयकरण व मानव के ईश्वरीयकरण के लिए आपके भौतिक शरीर से व्यक्त विश्वात्मा की इच्छा को ”विश्वशास्त्र“ के रूप में पूर्ण किया जा चुका है। धर्म क्षेत्र से नाम कर्मवेद: प्रथम, अन्तिम तथा पंचम वेद है। जिसमें पुराणों का धर्मनिरपेक्ष और सर्वधर्मसमभाव रूप भी सम्पूर्ण मानव जाति को स्पष्ट दृष्टिगत होगा। परिणामस्वरूप भारतीय धर्म शास्त्रो के प्रति विश्वव्यापी आस्था बढ़ना स्वाभाविक है। साथ ही अनेक सत्य-साहित्यों की रचना के लिए भी मार्ग प्रशस्त कर दिये गये हैं। परिणामस्वरूप सत्य-साहित्यों की रचना की वातावरण भी बनेगा। परन्तु समर्पण वही करायेगा जो अन्तिम सार्वभौम और मूल सत्य-साहित्य होगा। स्वामी जी मेरी दृष्टि में स्वस्थ व श्रेष्ठ शास्त्र-साहित्य का नाम 01.कर्मवेद 02.शब्दवेद 03.सत्यवेद 04.सूक्ष्मवेद 05.दृश्यवेद 06. पूर्णवेद 07.अघोरवेद 08.विश्ववेद 09.ऋृषिवेद 10.मूलवेद 11.शिववेद 12.आत्मवेद 13.अन्तवेद 14.जनवेद 15.स्ववेद 16.लोकवेद 17. कल्किवेद 18.धर्मवेद 19.व्यासवेद 20.सार्वभौमवेद 21.ईशवेद 22.ध्यानवेद 23.प्रेमवेद 24.योगवेद  25.स्वरवेद 26.वाणीवेद 27.ज्ञानवेद 28.युगवेद 29.स्वर्णयुगवेद 30.समर्पणवेद 31.उपासनावेद 32. शववेद 33.मैंवेद 34.अहंवेद 35.तमवेद 36.सत्वेद 37.रजवेद 38.कालवेद 39.कालावेद 40.कालीवेद 41.शक्तिवेद 42.शून्यवेद 43.यथार्थवेद 44.कृष्णवेद सभी प्रथम, अन्तिम तथा पंचम वेद इत्यादि भी गुणों के नाम से अच्छे नाम है।
सत्य से सार्वभौम सत्य-सिद्धान्त तक का मार्ग अवतारों का मार्ग है। सार्वभौम सत्य-सिंद्धान्त की अनुभूति ही अवतरण है। इसके अंश अनुभूति को अंश अवतार तथा पूर्ण अनुभूति को पूर्ण अवतार कहते है। ग्रन्थों में अवतारों की कई कोटि बतायी गई है जैसे अंशाशावतार, अंशावतार, आवेशावतार, कलावतार, नित्यावतार, युगावतार इत्यादि, जो भी सार्वभौम सत्य-सिद्धान्त को व्यक्त करता है वे सभी अवतार कहलाते हैं। व्यक्ति से लेकर समाज के सर्वोच्च स्तर तक सार्वभौम सत्य-सिद्धान्त को व्यक्त करने के क्रम में ही विभिन्न कोटि के अवतार स्तरबद्ध होते है। अवतार मानव मात्र के लिए ही कर्म करते हैं न कि किसी विशेष मानव समूह या सम्प्रदाय के लिए। अवतार, धर्म, धर्मनिरपेक्ष व सर्वधर्मसमभाव से युक्त अर्थात एकात्म से युक्त होते है। इस प्रकार अवतार से उत्पन्न शास्त्र मानव के लिए होते हैं, न कि किसी विशेष मानव समूह के लिए। उत्प्रेरक, शासक और मार्गदर्शक आत्मा सर्वव्यापी है। इसलिए एकात्म का अर्थ संयुक्त आत्मा या सार्वजनिक आत्मा है। अवतारों के प्रत्यक्ष और प्रेरक दो कार्य विधि हैं। प्रत्यक्ष अवतार वे होते हैं जो स्वयं अपनी शक्ति का प्रत्यक्ष प्रयोग कर समाज का सत्यीकरण करते हैं। यह कार्य विधि समाज में उस समय प्रयोग होता है जब अधर्म का नेतृत्व एक या कुछ मानवों पर केन्द्रित होता है। प्रेरक अवतार वे होते हैं जो स्वयं अपनी शक्ति का अप्रत्यक्ष प्रयोग कर समाज का सत्यीकरण जनता एवं नेतृत्वकर्ता के माध्यम से करते हैं। यह कार्य विधि समाज में उस समय प्रयोग होता है जब समाज में अधर्म का नेतृत्व अनेक मानवों और नेतृत्वकर्ताओं पर केन्द्रित होता है।
इन विधियों में से कुल दस अवतारों में से प्रथम सात (मत्स्य, कूर्म, वाराह, नृसिंह, वामन, परशुराम, राम) अवतारों ने समाज का सत्यीकरण प्रत्यक्ष विधि के प्रयोग द्वारा किया था।  आठवें अवतार (श्रीकृष्ण) ने दोनों विधियों प्रत्यक्ष ओर प्रेरक का प्रयोग किया था। नवें (भगवान बुद्ध) और अन्तिम दसवें अवतार की कार्य विधि प्रेरक ही है।
महाविष्णु के 24 अवतारों (1. सनकादि ऋषि (ब्रह्मा के चार पुत्र), 2. नारद, 3. वाराह, 4. मत्स्य, 5. यज्ञ (विष्णु कुछ काल के लिये इंद्र रूप में), 6.नर-नारायण, 7. कपिल, 8. दत्तात्रेय, 9. हयग्रीव, 10. हंस पुराण, 11. पृष्णिगर्भ, 12. ऋषभदेव, 13. पृथु, 14. नृसिंह, 15. कूर्म, 16. धनवंतरी, 17. मोहिनी, 18. वामन, 19. परशुराम, 20. राम, 21. व्यास, 22. कृष्ण, बलराम, 23. गौतम बुद्ध (कई लोग बुद्ध के स्थान पर बलराम को कहते है, अन्यथा बलराम शेषनाग के अवतार कहलाते हैं), 24. कल्कि) में एक मात्र शेष 24वाँ तथा प्रमुख 10 अवतारों (1.मत्स्य, 2.कूर्म, 3.वाराह, 4.नृसिंह, 5.वामन, 6.परशुराम, 7.राम, 8.श्रीकृष्ण, 9.बुद्ध और 10.कल्कि) में एक मात्र शेष दसवाँ और अन्तिम कल्कि अवतार, महाअवतार क्यों कहलायेगें इसे समझना आवश्यक है।
सभी अवतार अपने शारीरिक-आर्थिक-मानसिंक कर्म द्वारा ही पहचाने जाते हैं। किसी मनुष्य या सिंद्ध पुरूष-गुरू के अन्दर इतनी दृष्टि क्षमता किसी भी युग में नहीं रही कि वे देखते ही पहचान लें। प्रत्येक अवतार ने अपना परिचय शारीरिक-आर्थिक-मानसिंक कर्म द्वारा स्वंय दिया है। 
वह अवतार जो युग के आवश्यकतानुसार युग परिवर्तन के लिए सत्य-सिद्धान्त व्यक्त करता है उसे अंश युगावतार तथा जो काल सहित युग परिवर्तन के लिए अन्तिम सार्वभौम सत्य-सिद्धान्त व्यक्त करता है वह दृश्य पूर्ण महाअवतार कहलाता है।
सनातन अद्वैत दर्शन के अनुसार यह जगत ही ईश्वर का दृश्य रूप है। ऐसे में सभी ईश्वर हैं। सभी ईश्वर के बहुरूप हैं और सभी में प्रकाशित वही ईश्वरीय सत्ता है। सार्वभौम एकात्म की ओर ले जाने वाले सभी प्रक्षेपित मानक चरित्र सनातन हैं जैसे ब्रह्मा परिवार, विष्णु परिवार और महेश परिवार। इस सार्वभौम एकात्म की ओर विचार व्यक्त करने वाला अर्थात उसी का प्रचार-प्रसार व स्थापना करने वाला युगावतार तो नहीं हो सकता लेकिन वह अवतार अवश्य होता है क्योंकि उसने भी उस सार्वभौम सत्य-सिद्धान्त का साक्षात्कार किया है।
आपने कहा कि-”अवतार उसे माना जाता है जो अपनी इच्छा से शरीर का धारण करते हैं“ यह मान भी लिया जाये तो कैसे सिद्ध होगा कि अपनी इच्छा से कोई शरीर धारण किया है कि नहीं। इसे सिद्ध करने के लिए स्वामी विवेकानन्द जी के इस वाणी से शायद कुछ सहायता प्राप्त हो सकती है-
”फलानुमेयाः प्रारम्भाः संस्कराः प्राक्तना इव“ फल को देखकर ही कार्य का विचार सम्भव है। जैसे कि फल को देखकर पूर्व संस्कार का अनुमान किया जाता है। - स्वामी विवेकानन्द
एक विशेष प्रवृत्ति वाला जीवात्मा ‘योग्य योग्येन युज्यते’ इस नियमानुसार उसी शरीर में जन्म ग्रहण करता है जो उस प्रवृत्ति के प्रकट करने के लिए सबसे उपयुक्त आधार हो। यह पूर्णतया विज्ञान संगत है, क्योंकि विज्ञान कहता है कि प्रवृत्ति या स्वभाव अभ्यास से बनता है और अभ्यास बारम्बार अनुष्ठान का फल है। इस प्रकार एक नवजात बालक की स्वाभाविक प्रवृत्तियों का कारण बताने के लिए पुनः पुनः अनुष्ठित पूर्व कर्मो को मानना आवश्यक हो जाता है और चूंकि वर्तमान जीवन में इस स्वमाव की प्राप्ति नहीं की गयी, इसलिए वह पूर्व जीवन से ही उसे प्राप्त हुआ है। - स्वामी विवेकानन्द
शास्त्र कहते है कि कोई साधक यदि एक जीवन में सफलता प्राप्त करने में असफल होता है तो वह पुनः जन्म लेता है और अपने कार्यो को अधिक सफलता से आगे बढ़ाता है। - स्वामी विवेकानन्द
सार्वभौम सत्य-सिद्धान्त का कोई शरीर नहीं होता, वह अपनी इच्छा से जिस शरीर में अवतरित होता है उसे ही अवतार कहते हैं। और इसको ही स्वयं अपनी इच्छा से शरीर धारण करना कहते हैं। उसका स्थिति के अनुसार रूपान्तरण ही उसे अंशाशावतार, अंशावतार, आवेशावतार, कलावतार, नित्यावतार, युगावतार इत्यादि के रूप में व्यक्त करता है।
साई बाबा ने अपने जीवन काल में कुछ ही व्यक्ति के बीच अपने विचार ”सबका मालिक एक है“ का मंत्र दिया। कुछ व्यक्तियों के लिए व्यक्तिगत प्रमाणित चमत्कृत घटनायें भी हुई होगी। लेकिन इन सबसे उन्हें युगावतार तो नहीं माना जा सकता। संत माना जा सकता है। गुरू भी माना जा सकता है क्योंकि - 
भक्त वही, जो भगवान को बेच सके,
चेला वही, जो गुरू से कुछ ले सके,
संत वही, जो समाज को कुछ दे सके,
और 
अवतार वही, जो पृथ्वी की आवाज सुन सके।
वर्तमान में साई बाबा को लोग बेच रहे हैं इसलिए भक्त बहुत हैं क्योंकि साई बाबा को विभिन्न प्रकार से बेचने पर उन्हें लाभ हो रहा है। उनके चेले हैं क्योंकि वे बाराबर साई बाबा से प्राप्त कर रहे हैं। साई बाबा ने समाज को ”सबका मालिक एक है“ का मंत्र दिया है-ये सभी को जानना, समझना चाहिए। वे युगावतार नहीं हैं इसलिए कि अगर होते तो अवतारों का कार्य ही समाप्त हो गया होता।
स्वामी जी साईं बाबा ने अपने जीवन काल में कोई समाज, सम्प्रदाय, मत नहीं चलाया जिससे समाज बँट रहा हो। समाज को बाँटने वाले जो अलग-अलग रंग के वस्त्र, भोजन विधि, मंत्र, मत बनाकर जातिवाद से भी घातक समाज बना डाले हैं और अपना खेती-बारी अपने भक्तों से करवा रहें है। उनके बारे में सोचें जो आपका धर्म-कत्र्तव्य है। मेरा तो स्वरूप ही अलग है - 
सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड देख चुका हूँ, 
अक्षय-अनन्त है मेरी हाला।
कण-कण में हूँ-”मैं ही मैं“, 
क्षयी-ससीम है तेरी प्याला ।
जिस भी पथ-पंथ-ग्रन्थ से गुजरेगा तू, 
हो जायेगा, बद्ध-मस्त और मत वाला।
”जय ज्ञान-जय कर्मज्ञान“ की आवाज,  
सुनाती, मेरी यह अक्षय-अनन्त मधुशाला।
और अब स्थिति तो ये है कि अपने-अपने धर्म शास्त्र-उपनिषद्-पुराण इत्यादि का अध्ययन करें कहीं ऐसा तो नहीं कि-
1. नये मनवन्तर - 8वें सांवर्णि के प्रारम्भ के लिए ”सार्वभौम“ गुण से युक्त होकर मनु का आगमन हो चुका है।
2. नये काल - दृश्य काल के प्रारम्भ के लिए ”सार्वभौम“ गुण से युक्त होकर काल का आगमन हो चुका है।
3. नये युग - स्वर्ण युग के प्रारम्भ के लिए ”सार्वभौम“ गुण से युक्त होकर कल्कि अवतार का आगमन हो चुका है।
4. नये धर्म - विश्वधर्म के प्रारम्भ के लिए ”सार्वभौम“ गुण से युक्त होकर धर्म स्थापक का आगमन हो चुका है।
5. नये शास्त्र - विश्वशास्त्र के प्रारम्भ के लिए ”सार्वभौम“ गुण से युक्त होकर व्यास का आगमन हो चुका है।

यदि ऐसा नहीं तो -
1. तुम्हारे शास्त्रों में दिये वचन और शास्त्र झूठे हो जायेंगे।
2. तुम्हारे भविष्यवक्ताओं की भविष्यवाणीयाँ झूठी हो जायेंगी।
3. तुम्हारे युग और काल गणना झूठे हो जायेंगे।
4. तुम्हारे अवतार-ईशदूत-ईशपुत्र-पुनर्जन्म सिद्धान्त झूठे हो जायेगें।
5. तुम्हारे ईश्वर सम्बन्धी अवधारणा झूठे हो जायेंगे।

विश्वमानव और श्री अटल बिहारी वाजपेयी ( 25 दिसम्बर, 1926 - )

श्री अटल बिहारी वाजपेयी ( 25 दिसम्बर, 1926 - )

परिचय -
उत्तर प्रदेश के आगरा जनपद के प्राचीन स्थान बटेश्वर में 25 दिसम्बर, 1926 को ब्रह्ममुहूर्त में अटल बिहारी वाजपेयी का जन्म हुआ था। पिता पं0 कृष्ण बिहारी मिश्र ग्वालियर में अध्यापन का कार्य करते थे। महात्मा रामचन्द्र वीर द्वारा रचित अमर कृति ”विजय पताका“ पढ़कर अटल जी के जीवन की दिशा ही बदल गयी। अटल जी की बी0ए0 की शिक्षा ग्वालियर के विक्टोरिया कालेज (वर्तमान में लक्ष्मीबाई कालेज) में हुई। छात्र जीवन से वे राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के स्वयंसेवक बने और तभी से राष्ट्रीय स्तर की वाद-विवाद प्रतियोगिताओं में भाग लेते रहे। कानपुर के डी.ए.वी. कालेज से राजनीति शास्त्र में प्रथम श्रेणी में एम.ए. की परीक्षा उत्तीर्ण की। फिर एल.एल.बी. की पढ़ाई शुरू की लेकिन उसे बीच में ही विराम देकर संघ कार्य में जुट गये। डाॅ0 श्यामा प्रसाद मुखर्जी और पं0 दीनदयाल उपाध्याय के निर्देशन में राजनीति का पाठ पढ़ा। सम्पादक के रूप में पांचजन्य, राष्ट्रधर्म, दैनिक स्वदेश और वीर अर्जुन का कार्यभार संभाला। वह भारतीय जन संघ की स्थापना करने वाले में से एक हैं और 1968 से 1973 तक वह उसके अध्यक्ष भी रह चुके हैं। 1955 में पहली बार लोकसभा चुनाव लड़े लेकिन सफलता नहीं मिली लेकिन 1957 में बलरामपुर, गोण्डा, उत्तर प्रदेश से जनसंघ के प्रत्याशी के रूप में विजयी होकर लोकसभा पहुँचे। 1957 से 1977 तक (जनता पार्टी की स्थापना तक) जनसंघ के संसदीय दल के नेता रहे। 1968 से 1973 तक वे भारतीय जनसंघ के राष्ट्रीय अध्यक्ष पद पर आसीन रहे। मोरारजी देसाई की सरकार में वह 1977 से 1979 तक विदेश मंत्री रहे और विदेशों में भारत की छवि बनाई। 1980 में जनता पार्टी से असंतुष्ट होकर जनता पार्टी छोड़ दी और भारतीय जनता पार्टी की स्थापना में मदद की। 6 अप्रैल, 1980 में बनी भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष पद का दायित्व श्री वाजपेयी को सौंपा गया। दो बार राज्यसभा के लिए भी निर्वाचित हुए। लोकतन्त्र के सजग प्रहरी अटल बिहारी वाजपेयी ने 1997 में प्रधानमंत्री के रूप में देश की बागडोर संभाली। 19 अप्रैल, 1998 को पुनः प्रधानमंत्री पद की शपथ ली और उनके नेतृत्व में 13 दलों की गठबन्धन सरकार ने 5 वर्षो में देश ने प्रगति के नये आयाम छुए। सन् 2004 के लोकसभा चुनावों में भाजपा के नेतृत्व वाले राष्ट्रीय लोकतांत्रिक गठबन्धन (एन.डी.ए) ने वाजपेयी के नेतृत्व में चुनाव लड़ा और भारत उदय (इण्डिया शाइनिंग) का नारा दिया। इस चुनाव में किसी भी पार्टी को बहुमत नहीं मिला। ऐसी स्थिति में वामपंथी दलों के समर्थन से कांग्रेस ने भारत की केन्द्रीय सरकार पर कायम होने में सफलता प्राप्त की और भाजपा विपक्ष में बैठने को मजबूर हुई। सम्प्रति वे राजनीति से सन्यास ले चुके हैं।
श्री अटल बिहारी वाजपेयी राजनीतिज्ञ होने के साथ-साथ एक कवि भी हैं। ”मेरी इक्यावन कविताएँ“ वाजपेयी जी का प्रसिद्ध काव्यसंग्रह है। अटल बिहारी वाजपेयी को काव्य रचनाशीलता एवं रसास्वाद विरासत में मिले हैं। उनके पिता कृष्ण बिहारी वाजपेयी ग्वालियर रियासत में अपने समय के जाने-माने कवि थे। वे ब्रज भाषा और खड़ी बोली में काव्य रचना करते थे। उनकी सर्व प्रथम कविता ”ताजमहल“ थी। इसमें श्रृंगार, प्रेम प्रसून न चढ़ाकर ”एक शहनशाह ने बनावा के हंसी ताजमहल, मोहब्बत करने वालों का उड़ाया है मजाक“ की तरह उनका भी ध्यान शोषण पर ही गया। कवि हृदय कभी कविता से वंचित नहीं रह सकता। राजनीति के साथ-साथ समष्टि एवं राष्ट्र के प्रति उनकी व्यक्तिगत संवेदनशीलता प्रकट होती रही। उनके संघर्षमय जीवन, परिवर्तनशील परिस्थितियाँ, राष्ट्रव्यापी आन्दोलन, जेलवास सभी हालातों के प्रभाव एवं अनुभूति ने काव्य में अभिव्यक्ति पायी। उनकी कुछ प्रकाशित रचनाएँ है- मृत्यु या हत्या, अमर बलिदान (लोकसभा में अटल जी के वक्तव्यों का संग्रह), कैदी कविराय की कुण्डलियाँ, संसद में तीन दशक, अमर आग है, कुछ लेख कुछ भाषण, सेक्युलरवाद, राजनीति की रपटीली राहें, बिन्दु-बिन्दु विचार इत्यादि।
अटल जी एक ऐसे नेता हैं जिन्होंने जो देशहित में था वो ही किया। आजीवन अविवाहित रहे। वे एक ओजस्वी एवं पटुवक्ता एवं हिन्दी कवि हैं। परमाणु शक्ति सम्पन्न देशों की सम्भावित नाराजगी से विचलित हुए बिना उन्होंने अग्नि-दो और परमाणु परीक्षण कर देश की सुरक्षा के लिए दृढ़ कदम भी उठाए। सन् 1998 में पोखरण में भारत का द्वितीय परमाणु परीक्षण किया जिसे अमेरिका की सी.आई.ए. को भनक नहीं लगने दी। अटल सबसे लम्बे समय तक सांसद रहे हैं। अटल ही पहले प्रधानमंत्री हैं जिन्होंने गठबन्धन सरकार को स्थायित्व और सफलता से संचालित किया और वे पहले विदेश मंत्री थे जिन्होंने संयुक्त राष्ट्र संघ में हिन्दी में भाषण देकर भारत को गौरवान्वित किया था। भारत को लेकर उनकी दृष्टि थी- ”ऐसा भारत जो भूख और डर से, निरक्षरता और अभाव से मुक्त हो“

‘‘कुछ लोग कहते हैं कि हमारी सरकार भूमण्डलीकरण के खिलाफ है, लेकिन मैं आपको विश्वास दिलाना चाहता हूॅ कि मैं गीता के संन्देश को सारे भूमण्डल में प्रसारित करने का हिमायती हूॅ।’’ (दिल्ली के एक सार्वजनिक सभा में)
- श्री अटल विहारी वाजपेयी (पूर्व प्रधानमंत्री, भारत)
साभार - आज, वाराणसी, दि0-11-4-98

श्री लव कुश सिंह ”विश्वमानव“ द्वारा स्पष्टीकरण 
‘‘गीता का सन्देश ‘समभाव (अद्वैत) में स्थित होकर कर्म करो और परिणाम की इच्छा मुझ (आत्मा) पर छोड़ दो।’ जिसे आप सारे भूमण्डल में फैलाना चाहते हैं। वह कर्म वेदान्त के विकास का प्रथम चरण था। जिसे बहुत से धार्मिक संगठन, ज्ञानी जन लगातार सारे भूमण्डल में फैला रहे है। गीता का सन्देश व्यष्टि (व्यक्ति) के लिए था। कर्म वेदान्त का अगला चरण स्वामी विवेकानन्द द्वारा वेदान्त की व्यावहारिकता पर जोर था। तथा अन्तिम चरण कर्मवेदान्त का पूर्ण रूप- कर्मवेदः प्रथम, अन्तिम तथा पंचमवेद है। जो कालानुसार व्यष्टि के लिए है। भूमण्डलीकरण ‘भूमण्डलीकरण’ शब्द से नहीं बल्कि सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में व्याप्त विषय कर्म और ज्ञान आधारित सार्वभौम सत्य-सिद्धान्त या विश्व व्यवस्था का न्यूनतम एवम् अधिकतम साझा कार्यक्रम या विकास दर्शन या निर्माण का आध्यात्मिक न्यूट्रान बम से होगा। वही पूर्ण रूप से विवादमुक्त होगा। वह है-कर्मवेदः प्रथम, अन्तिम तथा पंचमवेद (धर्मयुक्त नाम) अर्थात् विश्वमानक-शून्य श्रंृखलाः मन की गुणवत्ता का विश्वमानक (धर्मनिरपेक्ष एवम् सर्वधर्म समभाव नाम) और उसका सन्देश- ‘परिणाम के ज्ञान से युक्त एवम् समभाव (अद्वैत) में स्थित होकर कर्म करो और परिणाम की इच्छा मुझ (आत्मा) पर छोड़ दो ।’ जिसकी घोषणा भारत की ओर से करने पर ही ‘‘गीता का सन्देश‘ विश्वव्यापी रूप से प्रसारित होगा न कि गीता पुस्तक को भेंट करने से। गीता पुस्तक तो अनेक संस्थाओं द्वारा बहुत वर्षो से व्यापारिक माध्यम से फैल ही रही है।
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”हिन्दुत्व महज धर्म नहीं, जीवन शैली है, आने वाली सदी में हिन्दुत्व ही विश्व को रास्ता दिखाएगा।”
- श्री अटल बिहारी वाजपेयी (पूर्व प्रधानमंत्री, भारत)
साभार - दैनिक जागरण, वाराणसी, दि0 28-9-98

लव कुश सिंह ”विश्वमानव“ द्वारा स्पष्टीकरण 
‘‘समस्त विषयों को व्यक्त, मूल्यांकित और वर्गीकृत कर्ता मानव ही है। मानव ने ही मन (व्यक्तिगत सत्य या मत) को व्यक्त किया तथा मानव ने ही मन की चरम विकसित स्थिति-आत्मा (सार्वजनिक सत्य या धर्म या मानक) को व्यक्त करेगा। सत्य भाव जो व्यक्तिगत और सार्वजनिक सत्य का संयुक्त भाव है, जिस मानव सम्प्रदाय के द्वारा आविष्कृत हुआ उन्हें हिन्दू तथा आविष्कृत भाव हिन्दू धर्म के रूप में व्यक्त हुआ। व्यक्तिगत सत्य या मन या मत से जुड़ना योग है तथा व्यक्तिगत सत्य सहित सार्वजनिक सत्य या आत्मा या सत्य-धर्म-ज्ञान से जुड़ना योगेश्वर है। योगेश्वर, योग का ही चरम विकसित और अन्तिम बाह्य चक्र है। सत्य-धर्म-ज्ञान अर्थात् एकता- शान्ति- स्थिरता- ईश्वर- मानवता- समता- समभाव- अद्वैत- वेदान्त। जो सर्वव्याप्त है, शाश्वत से पीठासीन है। धर्म कोई भी हो उसमें सत्य का होना उसकी शाश्वतता है अन्यथा नश्वरता। धर्म का ही दृश्यरूप जीवन शैली है। व्यक्तिगत सत्य से जुड़ी जीवनशैली भोग है तथा व्यक्तिगत सत्य सहित सार्वजनिक सत्य या आत्मा या सत्य-धर्म-ज्ञान से जुड़ना भोगेश्वर है। भोगेश्वर, योगेश्वर का ही दृश्य रूप है। योगेश्वर व्यक्तिगत सत्य तो भोगेश्वर सार्वजनिक सत्य-सिद्धान्त है, मानक है, अन्त है, उसी योगेश्वर भाव अर्थात सत्य-र्धम- ज्ञान- एकता- स्थिरता- ईश्वर- मानवता- समता- समभाव- अद्वैत- वेदान्त का दृश्य रूप भोगेश्वर भाव अर्थात सिद्धान्त- कर्मज्ञान- कर्मवेद- क्रियाकलापों का विश्वमानक- विकास दर्शन- निर्माण का आध्यात्मिक न्यूट्रान बम- विश्वमानक: शून्य श्रृंखला-मन की गुणवत्ता का विश्वमानक -विश्व व्यवस्था का न्यूनतम एवम् अधिकतम साझा कार्यक्रम-ऐजेन्डा 2012$ -शिक्षा  2012$-विवादमुक्त तन्त्रों पर आधारित संविधान है। सत्य चर्चा का विषय नहीं आत्मासात् का विषय होता है। सत्यभाव जिस प्रकार सर्वव्याप्त है उसी प्रकार सिद्धान्त भी सर्वव्यापी है। सिद्धान्त से ही सिद्धान्त को व्यक्त करने वाला सिद्धान्त को व्यक्त कर रहा है। भोगेश्वर, उपलब्ध संसाधनों का ईश्वरत्व भाव से भोग है। एक सर्वोच्च अन्तिम सार्वभौम सत्य-सिद्धान्त चक्र में सम्पूर्ण को समभाव से समेट लेना जिससे भोगकत्र्ता और भोग विषय दोनों ही ईश्वरत्व की ओर बढ़े। जब जब जिस मानव शरीर से ये सिद्धान्त स्तरीय रूप में व्यक्त हुआ वे ही महानता का प्राप्त हुये। यह सत्य है कि ‘हिन्दुत्व महज धर्म नहीं, जीवन शैली है’ लेकिन इस सम्पूर्ण सत्य में जो भाग अभी पूर्ण रूप से व्यक्त नहीं हुआ है वह है- ‘जीवन शैली’ । इस श्रृंखला में धर्मज्ञान का अन्त हो चुका है। अब उसके दृश्य रूप कर्मज्ञान के व्यक्त होने का समय चल रहा है। अर्थात् ‘सम्पूर्ण जीवन शैली’, भोगेश्वर रूप में व्यक्त होने की ओर है। जिसमें गति और और विश्व व्यापी स्थापना की घोषणा करना ही भारत का सत्यरूप और भारत का धर्म है। धर्म वही है जो समस्त ब्रह्माण्ड में व्याप्त है और ब्रह्माण्ड उसे धारण किये हुये है। उसी का आविष्कार करना ऋषियों का कार्य है। वर्तमान रूप में धर्म कोई भी हो लेकिन ब्रह्माण्ड में व्याप्त उसी धर्म को व्यक्ति धारण किये हुये हैं बस उन्हें उनका ज्ञान नहीं है। वह धर्म ही विश्वधर्म के रूप में व्यक्त हुआ है।’’    
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‘‘जय जवान, जय किसान, जय विज्ञान’’
- श्री अटल विहारी वाजपेयी (पूर्व प्रधानमंत्री, भारत)
परमाणु बम परीक्षण ‘मई’ 98 के बाद भारत के लिए 

श्री लव कुश सिंह ”विश्वमानव“ द्वारा स्पष्टीकरण 
‘‘जय जवान, जय किसान, जय विज्ञान से अभी भारत का पूर्ण रूप व्यक्त नहीं हुआ है। भारत का पूर्ण रूप ‘जय जवान, जय किसान, जय विज्ञान, जय ज्ञान, जय कर्मज्ञान’ है। विवाद और बेरोजगारी के मूल दो कारण है- जय ज्ञान और जय कर्मज्ञान का उपलब्ध न होना । अज्ञान के कारण ही व्यक्ति अपने कर्मो के कारण को व्यक्त और विवाद मुक्त नहीं कर पाता तथा कर्मज्ञान के न होने के कारण ही कार्य कुशलता और योजना निर्माण का ज्ञान शक्तिशाली नहीं जिससे संसाधन होते हुये भी बेरोजगारी और निर्भरता बढ़ रही है। जय ज्ञान और जय कर्मज्ञान के लिए ही भारत अधुरा है और विश्व भूखा है।’’ 
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”अकेेले राजशक्ति के सहारे समाजिक बदलाव सम्भव नहीं“
- श्री अटल विहारी वाजपेयी (पूर्व प्रधानमंत्री, भारत)
(30 जून, 1999 को लखनऊ मंे राष्ट्रीय पुर्ननिर्माण वाहिनी के शुभारम्भ मंे)

श्री लव कुश सिंह ”विश्वमानव“ द्वारा स्पष्टीकरण 
सतयुग में एक विचित्र स्थिति उत्पन्न हो गयी, हुआ यह कि एक प्रतापी, धर्मपरायण, प्रजावत्सल, सेवाभावी, दानवीर, सौम्य, सरल यानी सर्वगुण सम्पन्न राजा हुआ-बलि। लोग इसके गुण गाने लगे और समाजवादी राज्यवादी होने लगे। राजा बलि का राज्य बहुत अधिक फैल गया। समाजवादियों के समक्ष यानी मानवजाति के समक्ष एक गम्भीर संकट पैदा हो गया कि अगर राज्य की अवधारणा दृढ़ हो गयी तो मनुष्य जाति को सदैव दुःख, दैन्य व दारिद्रय में रहना होगा क्योंकि अपवाद को छोड़कर राजा स्वार्थी होगें, परमुखपेक्षी व पराश्रित होगे। अर्थात अकर्मण्य व यथास्थिति वादी होगे। यह भयंकर स्थिति होगी परन्तु समाजवादी असहाय थे। राजा बलि को मारना संभव न था और उसके रहते समाजवादी विचारधारा का बढ़ना सम्भव न था। ऐसी स्थिति में एक पुरूष की आत्मा अदृश्य प्राकृतिक चेतना द्वारा निर्मित परिस्थितियों में प्राथमिकता से वर्तमान में कार्य करना, में स्थापित हो गयी। वह राजा बलि से थोड़ी सी भूमि समाज या गणराज्य के लिए माॅगा। चूँकि राजा सक्षम और निश्ंिचत था कि थोड़ी भूमि में समाज या गणराजय स्थापित करने से हमारे राज्य पर कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा। इसलिए उस पुरूष को राजा ने थोड़ी भूमि दे दी। जिस पर उस पुरूष ने स्वतन्त्र, सुखी, स्वराज आधारित समाज-गणराज्य स्थापित किया और उसका प्रभाव धीरे-धीरे बढ़ता गया और वह राजा बलि के सुराज्य को भी समाप्त कर दिया और समाज या गणराज्य की स्थापना की गयी। चूँकि यह पुरूष बौना अर्थात् छोटे कद का तथा स्वभाव और ज्ञान में ब्राह्मण गुणों से युक्त था इसलिए कालान्तर में इसे ”समाज“ शब्द का जन्मदाता बामन अवतार का नाम दिया गया। राजा बलि द्वारा इस अवतार को दी गई भूमि का क्षेत्र ही वर्तमान का उ0प्र0 के मीरजापुर जनपद का चुनार क्षेत्र है। जिस पर इस अवतार के कार्य का प्रथम चरण प्रारम्भ हुआ था जिसके कारण ही चुनार का प्रचीन नाम चरणाद्रिगढ़ था। जहाॅ आज भी मूल मानव जाति कूर्मि का बाहुल्य हैं।
महोदय आपके विचार सत्य हैं। राजशक्ति को ये भ्रम है कि वही जनता का कल्याणकर्ता है। जबकि पृथ्वी पर बहुत से ऐसे देश हैं जो राजशक्ति पर कम औद्योगिक व व्यवसायिक घरानों पर अधिक विश्वास रखती है। जब तक समाज शक्ति अपने देश-राष्ट्र के प्रति जिम्मेदारी ना निभाये, राजशक्ति केवल एक देश-राष्ट्र के प्रबन्धक के सिवा कुछ नहीं हैं। राजशक्ति को सदैव अपने नागरिक के बौद्धिक शक्ति को बढ़ाने पर अधिक ध्यान देना चाहिए नहीं तो राजशक्ति पर रोजगार देने का बोझ बढ़ता जायेगा और राजशक्ति की क्षमता से बाहर होने पर उससे विश्वास ही हटेगा। प्रत्येक देश के राजशक्ति को चाहिए कि वो अपने देश के प्रति समर्पित नागरिक के निर्माण के लिए शिक्षा पाठ्यक्रम को संविधान का अंग बनाये जिससे एक समान बौद्धिक शक्ति का निर्माण हो और देश-राष्ट्र शक्तिशाली बने।
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”लोकनायक का सम्पूर्ण जीवन एक प्रयोगशाला था। उन्होंने विचारों से अधिक मूल्यों को महत्व दिया। - श्री अटल बिहारी वाजपेयी (पूर्व प्रधानमंत्री, भारत)

श्री लव कुश सिंह ”विश्वमानव“ द्वारा स्पष्टीकरण 
”महोदय जिन्हें समाज को कुछ देना होता है वे अपने जीवन को प्रयोगशाला की भाँति ही संचालित करते हैं।  और जिन्हें कुछ पाना होता है वे ऐसे प्रयोगशाला से खोजे गये सूत्रों को लाभ उठाने के लिए पकड़ते हैं न कि उनके जीवन शैली को। और जिन्हें समाज कांे कुछ देना नहीं होता वे आजीवन उसी विषय क्षेत्र में रहकर भी कुछ नहीं दे पाते हैं। और अपने स्वार्थ की पूर्ति करते रहते हैं। विचार तो प्रत्येक व्यक्ति के हो सकते हैं जैसे- ओसामा बिन लादेन के, जार्ज डब्ल्यू0 बुश के, कोफी अन्नान के, वी0 एस0 नायपाल के और आपके भी, परन्तु किसी के विचार को आतंकवादी, किसी को नोबेल पुरस्कार, किसी को सही कदम तथा किसी को स्त्रीयोचित कह दिया जाता है। क्योंकि निम्नतम स्तर-विध्वंसक विचार से सर्वोच्च स्तर- सकारात्मक, रचनात्मक, समन्वयात्मक के जितना करीब होता है। उसमें उतना ही मूल्य होता है।“


विश्वमानव और श्री लाल कृष्ण आडवाणी (8 नवम्बर, 1927-)

श्री लाल कृष्ण आडवाणी (8 नवम्बर, 1927-)

परिचय -
श्री लालकृष्ण आडवाणी का जन्म 8 नवम्बर, 1927 को वर्तमान पाकिस्तान के कराची में हुआ था। उनके पिता श्री के.डी.आडवाणी और माँ ज्ञानी आडवाणी थीं। विभाजन के बाद भारत आ गए आडवाणी ने 25 फरवरी, 1965 को कमला आडवाणी को अपनी अर्धांगिनी बनाया। आडवाणी के दो बच्चे हैं। लालकृष्ण आडवाणी की शुरूआती शिक्षा लाहौर में ही हुई पर बाद में भारत आकर उन्होंने मुम्बई के गवर्नमेन्ट लाॅ कालेज से लाॅ में स्नातक किया। आज वे भारतीय राजनीति में एक बड़ा नाम हैं। गाँधी के बाद वे दूसरे जननायक हैं जिन्होंने हिन्दू आन्दोलन का नेतृत्व किया औा पहली बार भारतीय जनता पार्टी (बी.जे.पी) की सरकार बनावाई। लेकिन पिछले कुछ समय से अपनी मौलिकता खोते हुए नजर आ रहे हैं। जिस अक्रामकता के लिए वे जाने जाते थे, उस छवि के ठीक विपरीत आज वो समझौतावादी नजर आते हैं। हिन्दुओं में नई चेतना का सूत्रपात करने वाले आडवाणी में लोग नब्बे के दशक का आडवाणी ढंूढ रहे हैं। अपनी बयानबाजी की वजह से उनकी काफी फजीहत हुई। अपनी किताब और ब्लाॅग से भी वो चर्चा में आए और आलोचना भी हुई। वर्ष 1951 में डाॅ0 श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने जनसंघ की स्थापना की, तब से लेकर सन् 1957 तक आडवाणी पार्टी के सचिव रहे। वर्ष 1973 से 1977 तक आडवाणी ने भारतीय जनसंघ के अध्यक्ष का दायित्व सम्भाला। वर्ष 1980 में भारतीय जनता पार्टी की स्थापना के बाद से 1986 तक श्री लाल कृष्ण आडवाणी पार्टी के महासचिव रहे। इसके बाद 1986 से 1991 तक पार्टी के अध्यक्ष पद का उत्तरदायित्व भी उन्हीेंने सम्भाला। इसी दौरान वर्ष 1990 में राममन्दिर आन्दोलन के दौरान उन्होंने सोमनाथ से अयोध्या के लिए रथयात्रा निकाली। हालांकि आडवाणी को बीच में ही गिरफ्तार कर लिया गया, पर इस यात्रा के बाद आडवाणी का राजनीतिक कद और बड़ा हो गया। 1990 की रथयात्रा ने श्री लाल कृष्ण आडवाणी की लोकप्रियता को चरम पर पहुँचा दिया था। वर्ष 1992 में बाबरी मस्जिद विध्वंश के बाद जिन लोगों को अभियुक्त बनाया गया है उनमें आडवाणी का नाम भी शामिल है। श्री लाल कृष्ण आडवाणी 3 बार भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष पद पर रह चुके हैं। श्री लाल कृष्ण आडवाणी 4 बार राज्यसभा के और 5 बार लोकसभा के सदस्य रहे। वर्ष 1977 से 1979 तक पहली पहली बार केन्द्रीय सरकार में कैबिनेट मंत्री की हैसियत से श्री लाल कृष्ण आडवाणी ने दायित्व संम्भाला। श्री लाल कृष्ण आडवाणी इस दौरान सूचना प्रसारण मंत्री रहे। श्री लाल कृष्ण आडवाणी ने अभी तक के राजनीतिक जीवन में सत्ता का जो सर्वोच्च पद सम्भाला है वह है- एन.डी.ए. शासनकाल के दौरान उपप्रधानमंत्री का। श्री लाल कृष्ण आडवाणी वर्ष 1999 में एन.डी.ए. की सरकार बनने के बाद अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में केन्द्रीय गृहमंत्री बने और फिर इसी सरकार में उन्हें 29 जून, 2002 को उपप्रधानमंत्री का दायित्व सौंपा गया। भारतीय संसद में एक अच्छे सांसद के रूप में श्री लाल कृष्ण आडवाणी अपनी भूमिका के लिए कभी सराहे गए तो कभी पुरस्कृत किये गये। श्री लाल कृष्ण आडवाणी किताबों, संगीत और सिनेमा में खासी रूचि रखते हैं। श्री लाल कृष्ण आडवाणी, भारतीय जनता पार्टी के वरिष्ठ नेता हैं। भारतीय जनता पार्टी को भारतीय राजनीति में एक प्रमुख पार्टी बनाने में उनका योगदान सर्वोपरि कहा जा सकता है। वे कई बार भा.ज.पा. के राष्ट्रीय अध्यक्ष रह चुके हैं। लाल कृष्ण आडवाणी कभी पार्टी के कर्णधार कहे गए, कभी लौहपुरूष और कभी पार्टी का असली चेहरा। कुल मिलाकर पार्टी के आजतक के इतिहास का अहम अध्याय हैं- लाल कृष्ण आडवाणी।

-शासन में फैले भ्रष्टाचार के खिलाफ छात्र आगे आएं।
- लाल कृष्ण आडवाणी, केन्द्रीय गृह मन्त्री, भारत

श्री लव कुश सिंह ”विश्वमानव“ द्वारा स्पष्टीकरण  
महोदय, मान लिजिए छात्र आगे आ गये, अब वे क्या करेंगे यह भी तो बताएं? आप सरकार में हैं। आपका शासन है। तो भ्रष्टाचार को छात्र कैसे दूर करेंगे? यदि आप छात्र द्वारा भ्रष्टाचारीयों की पिटाई को अपराध से मुक्त रखने की घोषणा भी कर देंगे तो भी भ्रष्टाचार नहीं मिट सकता। कारण, भ्रष्टाचारी के घर भी तो छात्र हैं फिर अपनों के विरुद्ध आवाज उठाने से तो उनका चरित्र ही गिर जायेगा जो आपके श्रीराम के चरित्र के विरुद्ध हो जायेगा। क्योंकि आपके श्रीराम के अनुसार बड़ों का आदर (चाहें वे कैसे भी हों?) करना ही तो धर्म है। हाँ, भ्रष्टाचार मिटाने का यह उपाय है कि- जिस प्रकार आप लोगों ने 18 वर्ष की उम्र को वोट (मत) देने का अधिकार दिया है उसी प्रकार 25 वर्ष के उम्र पर पैत्रिक सम्पत्ति का अधिकार तथा नैतिक उत्थान के लिए पूर्ण ज्ञान - कर्म ज्ञान आधारित विश्वमानक शून्य: मन (मानव संसाधन) की गुणवत्ता का विश्वमानक की शिक्षा सहित ‘शिक्षा का सही अर्थ धन अर्जित कर लेना ही नहीं है बल्कि समाज को उचित आवश्यकता प्रदान करना, अन्याय और भ्रष्टाचार के विरुद्ध आवाज उठानी भी है जो अपनत्व की भावना से पूर्णतया मुक्त हो।“ का प्रसार करना पड़ेगा। परन्तु क्या आप यह करेंगे, नहीं। क्योंकि यह तो सत्य कार्य हो जायेगा और इससे आपको लगेगा कि यह तो मेरा कार्य हो गया।
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”शिक्षा का स्वदेशी माॅडल चाहिए” (गुरूकुल कांगड़ी विश्वविद्यालय के दीक्षांत समारोह में)
- लाल कृष्ण आडवाणी, केन्द्रीय गृह मन्त्री, भारत
साभार - दैनिक जागरण, वाराणसी, दि0 8-06-2008

श्री लव कुश सिंह ”विश्वमानव“ द्वारा स्पष्टीकरण 
भारत यदि पूर्णता व विश्व गुरूता की ओर बढ़ना चाहता है तब उसे मात्र कौशल विकास ही नहीं बल्कि राष्ट्रीय बौद्धिक विकास की ओर भी बढ़ना होगा। बौद्धिक विकास, व्यक्ति व राष्ट्र का इस ब्रह्माण्ड के प्रति दायित्व है और उसका लक्ष्य है।
राष्ट्र के पूर्णत्व के लिए पूर्ण शिक्षा निम्नलिखित दो शिक्षा का संयुक्त रूप है-
अ - सामान्यीकरण (Generalisation) शिक्षा - यह शिक्षा व्यक्ति और राष्ट्र का बौद्धिक विकास कराती है जिससे व्यक्ति व राष्ट्रीय सुख में वृद्धि होती है।
ब - विशेषीकरण (Specialisation) शिक्षा - यह शिक्षा व्यक्ति और राष्ट्र का कौशल विकास कराती है जिससे व्यक्ति व राष्ट्रीय उत्पादकता में वृद्धि होती है।
वर्तमान समय में विशेषीकरण की शिक्षा, भारत में चल ही रहा है और वह कोई बहुत बड़ी समस्या भी नहीं है। समस्या है सामान्यीकरण शिक्षा की। व्यक्तियों के विचार से सदैव व्यक्त होता रहा है कि - मैकाले शिक्षा पद्धति बदलनी चाहिए, राष्ट्रीय शिक्षा नीति व पाठ्यक्रम बनना चाहिए। ये तो विचार हैं। पाठ्यक्रम बनेगा कैसे?, कौन बनायेगा? पाठ्यक्रम में पढ़ायेगें क्या? ये समस्या थी। और वह हल की जा चुकी है। जो भारत सरकार के सामने सरकारी-निजी योजनाओं जैसे ट्रांसपोर्ट, डाक, बैंक, बीमा की तरह निजी शिक्षा के रूप में पुनर्निर्माण - सत्य शिक्षा का राष्ट्रीय तीव्र मार्ग द्वारा पहली बार इसके आविष्कारक द्वारा प्रस्तुत है। जो शिक्षा का स्वदेशी माॅडल है।
मानव एवम् संयुक्त मानव (संगठन, संस्था, ससंद, सरकार इत्यादि) द्वारा उत्पादित उत्पादों का धीरे-धीरे वैश्विक स्तर पर मानकीकरण हो रहा है। ऐसे में संयुक्त राष्ट्र संघ को प्रबन्ध और क्रियाकलाप का वैश्विक स्तर पर मानकीकरण करना चाहिए। जिस प्रकार औद्योगिक क्षेत्र अन्तर्राष्ट्रीय मानकीकरण संगठन (International Standardisation Organisation-ISO) द्वारा संयुक्त मन (उद्योग, संस्थान, उत्पाद इत्यादि) को उत्पाद, संस्था, पर्यावरण की गुणवत्ता के लिए ISO प्रमाणपत्र जैसे- ISO-9000, ISO-14000 श्रंृखला इत्यादि प्रदान किये जाते है उसी प्रकार संयुक्त राष्ट्र संघ को नये अभिकरण विश्व मानकीकरण संगठन (World Standardisation Organisation-WSO) बनाकर या अन्र्तराष्ट्रीय मानकीकरण संगठन को अपने अधीन लेकर ISO/WSO-0 का प्रमाण पत्र योग्य व्यक्ति और संस्था को देना चाहिए जो गुणवत्ता मानक के अनुरूप हों। भारत को यही कार्य भारतीय मानक व्यूरो (Bureau of Indiand Standard-BIS) के द्वारा IS-0 श्रंृखला द्वारा करना चाहिए। भारत को यह कार्य राष्ट्रीय शिक्षा प्रणाली (National Education System-NES) व विश्व को यह कार्य विश्व शिक्षा प्रणाली (World Education System-WES) द्वारा करना चाहिए। जब तक यह शिक्षा प्रणाली भारत तथा संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा जनसाधारण को उपलब्ध नहीं हो जाती तब तक यह ”पुनर्निर्माण - सत्य शिक्षा का राष्ट्रीय तीव्र मार्ग (RENEW - Real Education National Express Way)“ द्वारा उपलब्ध करायी जा रही है। 
वैसे तो यह कार्य भारत सरकार को राष्ट्र की एकता, अखण्डता, विकास, साम्प्रदायिक एकता, समन्वय, नागरिकों के ज्ञान की पूर्णता इत्यादि जो कुछ भी राष्ट्रहित में हैं उसके लिए सरकार के संस्थान जैसे- विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यू.जी.सी.), एन.सी.ई.आर.टी, राष्ट्रीय ज्ञान आयोग, राष्ट्रीय नवोन्मेष परिषद्, भारतीय मानक ब्यूरो के माध्यम से ”राष्ट्रीय शिक्षा आयोग“ बनाकर पूर्ण करना चाहिए जो राष्ट्र के वर्तमान और भविष्य के लिए अति आवश्यक और नागरिकों का राष्ट्र के प्रति कर्तव्य निर्धारण व परिभाषित करने का मार्ग भी है।



विश्वमानव और डाॅ0 कर्ण सिंह (9 मार्च, 1931 - )

डाॅ0 कर्ण सिंह (9 मार्च, 1931 - )

परिचय -
कर्ण सिंह का जन्म सन् 1931 में हुआ है। वे भारतीय राजनेता, लेखक और कूटनीतिज्ञ हैं। जम्मू और कश्मीर के महाराजा हरि सिंह और महारानी तारा देवी के प्रत्यक्ष उत्तराधिकारी (युवराज) के रूप में जन्में डाॅ0 कर्ण सिंह ने 18 वर्ष की ही उम्र में राजनीतिक जीवन में प्रवेश कर लिया था और वर्ष 1949 में प्रधानमंत्री पं0 जवाहरलाल नेहरू के हस्तक्षेप पर उनके पिता ने उन्हें राजप्रतिनिधि (रीजेंट) नियुक्त कर दिया था। इसके पश्चात् अगले 18 वर्षो के दौरान वे राजप्रतिनिधि, निर्वाचित सदर-ए-रियासत और अन्ततः राज्यपाल के पदों पर रहे। 1967 में डाॅ0 कर्ण सिंह प्रधानमंत्री इन्दिरा गाँधी के नेतृत्व में केन्द्रीय मन्त्रिमण्डल में शामिल किये गये। इसके तुरन्त बाद वे भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के प्रत्याशी के रूप में जम्मू और कश्मीर के उधमपुर संसदीय क्षेत्र से भारी बहुमत से लोक सभा के सदस्य निर्वाचित हुए। इसी क्षेत्र से वे वर्ष 1971, 1977 और 1980 में पुनः चुने गये। डाॅ0 कर्ण सिंह पर्यटन और नगर विमानन, स्वास्थ्य और परिवार नियोजन, शिक्षा और संस्कृति मन्त्री के रूप में कार्य कर चुके हैं। डाॅ0 कर्ण सिंह देशी रजवाड़े के अकेले ऐसे पूर्व शासक थे, जिन्होंने स्वेच्छा से प्रिवीपर्स का त्याग किया। उन्होंने अपनी सारी राशि अपने माता-पिता के नाम पर भारत में मानव सेवा के लिए स्थापित ”हरि-तारा धर्मार्थ न्यास“ को दे दी। उन्होंने जम्मू के अपने अमर महल (राजभवन) को संग्रहालय एवं पुस्तकालय में परिवर्तित कर दिया। इसमें पहाड़ी लघुचित्रों और आधुनिक भारतीय कला का अमूल्य संग्रह तथा बीस हजार से अधिक पुस्तकों का निजी संग्रह है। डाॅ0 कर्ण सिंह धर्मार्थ न्यास के अन्तर्गत चल रहे 100 से अधिक हिन्दू तीर्थ-स्थलों तथा मन्दिरों सहित जम्मू और कश्मीर के अन्य कई न्यासों का काम-काज देखा जाता है। हाल ही में उन्होंने अन्तर्राष्ट्रीय विज्ञान, संस्कृति और चेतना केन्द्र की स्थापना की है। यह केन्द्र सृजनात्मक दृष्टिकोण से एक महत्वपूर्ण केन्द्र के रूप में उभर रहा है। डाॅ0 कर्ण सिंह ने देहरादून स्थित दून स्कूल से सीनियर कैम्ब्रिज परीक्षा प्रथम श्रेणी के साथ उत्तीर्ण की और इसके बाद जम्मू और कश्मीर विश्वविद्यालय से स्नातक उपाधि प्राप्त की। वे इसी विश्वविद्यालय के कुलाधिपति भी रह चुके हैं। वर्ष 1957 में उन्होंने दिल्ली विश्वविद्यालय से राजनीतिक विज्ञान में एम.ए. उपाधि हासिल की। उन्होंने श्री अरविन्द की राजनीतिक विचारधारा पर शोध प्रबन्ध लिख कर दिल्ली विश्वविद्यालय से डाॅक्टरेट उपाधि का अलंकरण प्राप्त किया। डाॅ0 कर्ण सिंह कई वर्षो तक जम्मू और कश्मीर विश्वविद्यालय और बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के कुलाधिपति रहे हैं। वे केन्द्रीय संस्कृत बोर्ड  अध्यक्ष, भारतीय लेखक संघ, भारतीय राष्ट्र मण्डल सोसायटी और दिल्ली संगीत सोसायटी के सभापति रहें हैं। वे जवाहरलाल नेहरू स्मारक निधि के उपाध्यक्ष, टेम्पल आॅफ अण्डरस्टेंडिंग (एक अन्तर्राष्ट्रीय अन्तर्विश्वास संगठन) के अध्यक्ष, भारत पर्यावरण और विकास जनायोग के अध्यक्ष, इण्डिया इन्टरनेशनल सेन्टर और विराट हिन्दू समाज के सभापति हैं। उन्हें अनेक मानद उपाधियों और पुरस्कारों से सम्मानित किया गया है। इनमें बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय, अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय और सोका विश्वविद्यालय, टोक्यो से प्राप्त डाॅक्टरेट की मानद उपाधियाँ उल्लेखनीय हैं। वे कई वर्षो तक भारतीय वन्यजीव बोर्ड के अध्यक्ष और अत्यधिक सफल प्रोजेक्ट टाइगर के अध्यक्ष रहने के कारण उसके आजीवन संरक्षी हैं। उनके महत्वपूर्ण संग्रह ”वन मैन्स वल्र्ड (एक आदमी की दुनिया)“ और हिन्दूवाद पर लिखे निबन्धों की काफी सराहना हुई है। उन्होंने अपनी मातृ भाषा डोगरी में कुछ भक्तिपूर्ण गीतों की रचना भी की है। भारतीय सांस्कृतिक परम्परा में अपनी गहन अन्तर्दृष्टी ओर पश्चिमी साहित्य और सभ्यता की विस्तृत जानकारी के कारण वे भारत और विदेशों में एक विशिष्ट विचारक और नेता के रूप में जाने जाते हैं। संयुक्त राज्य अमेरिका में भारतीय राजदूत के रूप में उनका कार्यकाल हालंाकि कम ही रहा है, लेकिन इस दौरान उन्हें दोनों ही देशों में व्यापक और अत्यधिक अनुकूल कवरेज मिली।

”विश्व एक परिवार है न कि बाजार। भारतीय मानको में गुरू-शिष्य परम्परा की  अवधारणा को मजबूती देने की जरूरत है। शैक्षणिक संस्थानों में नई चेतना, विचारधारा निकालनी होगी जिससे सामाजिक व राष्ट्रीय उत्थान को बल मिले। शान्ति, मूल्यों की शिक्षा ही आज की आवश्यकता है“
”महामना की सोच मानवीय मूल्य के समावेश वाले युवाओं के मस्तिष्क का विकास था, चाहे वह इंजिनियर हो, विज्ञान या शिक्षाविद्। यहाँ के छात्र दुनिया में मानवीय मूल्य के राजदूत बनें ताकि देश में नम्बर एक बना बी.एच.यू. अब दुनिया के लिए आदर्श बने। इस विश्वविद्यालय सरीखा दूसरा कोई उत्कृष्ट संस्थान ही नहीं जहाँ संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा यूनेस्को चेयर फार पीस एंड इंटरकल्चर अंडरस्टैण्डिंग की स्थापना हुई। विश्वविद्यालय का दक्षिणी परिसर मुख्य परिसर की सिर्फ कापी भर नहीं है, बल्कि यह तो भविष्य में“ नये विश्वविद्यालय का रूप लेगा“
-डाॅ0 कर्ण सिंह, 
साभार - दैनिक जागरण, वाराणसी, दि0 26 दिसम्बर, 2010

श्री लव कुश सिंह ”विश्वमानव“ द्वारा स्पष्टीकरण
भौतिकवादी समाज विश्व को एक बाजार समझता है लेकिन आध्यात्मवादी समाज विश्व को परिवार समझता है। इस समझ के कारण ही भारत ने ”वसुधैव-कुटुम्बकम्“, ”बहुजन हिताय-बहुजन सुखाय“, ”विश्वबन्धुत्व“, ”एकात्म मानवतावाद“ जैसे शब्दो का प्रयोग किया है। गुरू-शिष्य परम्परा की अवधारणा-भावना तभी स्वतः स्फूर्त होगी जब शिक्षा पाठ्यक्रम मस्तिष्क को विश्व व्यापक बनाने वाली हो, जिससे ऐसे मनुष्य का निर्माण हो जो सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को अपना स्वरूप समझता हो, और शिक्षा को मात्र रोजगार पाने की सीमा तक न समझता हो। और जब ऐसा होगा तभी शैक्षणिक संस्थानों में नई चेतना, विचारधारा निकलेगी जिससे सामाजिक व राष्ट्रीय उत्थान को बल मिलेगा।
महामना की सोच बहुत व्यापक थी परन्तु संस्थापक के जाने के बाद अक्सर ऐसा होता है कि संस्था अपने मार्ग से भटक जाती है। जहाँ समन्वयात्मक मस्तिष्क का निर्माण करना था वहाँ विशेषीकृत मस्तिष्क का निर्माण प्रारम्भ हो गया। काशी हिन्दू विश्वविद्यालय (बी.एच.यू), देश का नम्बर एक विश्वविद्यालय है इसमें कोई शक नहीं परन्तु जो शोध-आविष्कार इस विश्वविद्यालय को करना था वह माधव विद्या मन्दिर इण्टरमीडिएट कालेज, पुरूषोत्तमपुर, मीरजापुर, उ0प्र0 (दसवीं -1981, 13 वर्ष 6 माह में), प्रभु नारायण राजकीय इण्टर कालेज, रामनगर, वाराणसी, उ0प्र0 (बारहवीं-1983, 15 वर्ष 6 माह में) और हरिश्चन्द्र स्नातकोत्तर महाविद्यालय, वाराणसी, उ0प्र0 (बी.एससी.ं, सन्-1985, 17 वर्ष 6 माह में) के कालेज, के मार्ग से शिक्षित व्यक्ति ने कर डाला। 
अब महामना को सच्ची श्रद्धांजली तभी मिलेगी जब विश्वविद्यालय का दक्षिणी परिसर को ”सत्यकाशी हिन्दू विश्ववि़द्यालय (एस.एच.यू)“ के रूप में नये विश्वविद्यालय का रूप दिया जाये।


विश्वमानव और श्री वी.एस.नाॅयपाल (17 अगस्त, 1932 - )

श्री वी.एस.नाॅयपाल (17 अगस्त, 1932 - )

परिचय -
विद्याधर सूरजप्रसाद नैपाल का जन्म 17 अगस्त, 1932 को ट्रिनिडाड के चगवानस में हुआ। इनका परिवार नाम नेपाल देश पर आधारित है, अतः नैपाल, ”जो नेपाल से हो“। ऐसी धारणा है कि इनके पूर्वज गोरखपुर के भूमिहार ब्राह्मण थे जिन्हें ट्रिनिडाड ले जाया गया इसलिए इस परिवार का नेपाल का छोड़ना, इससे पहले हुआ होगा। ट्रिनिडाड में जन्में भारतीय मूल के साहित्य क्षेत्र से नोबेल पुरस्कार (2001 में) विजेता लेखक हैं। उनकी शिक्षा ट्रिनिडाड और इंग्लैण्ड में हुई। वे दीर्घकाल से ब्रिटेन के निवासी हैं। उनके पिताजी श्रीप्रसाद नैपाल, छोटे भाई शिव नैपाल, भतीजे नील बिसुनदत्त, चचेरे भाई कपिलदेव सभी नामी लेखक रहे हैं। पहले पत्रकार रह चुकीं श्रीमती नादिरा नैपाल उनकी पत्नी हैं। इनके अनुज शिव नैपाल भी बहुत अच्छे लेखक थे। इनका सबसे महान उपन्यास ”ए हौस फार मिस्टर बिस्वास“ है। नैपाल परिवार और कपिलदेव परिवार ट्रिनिडाड में बहुत प्रभावशाली रहे हैं। विद्याधर सूरजप्रसाद नैपाल को नूतन अंग्रेजी छंद का गुरू कहा जाता है। वे कई साहित्यिक पुरस्कार से सम्मानित किये जा चुके हैं, इनमें जोन लिलवेलीन रीज पुरस्कार (1958), दी सोमरसेट मोगम अवार्ड (1980), दी होवथोरडन पुरस्कार (1964), दी डबलु एच स्मिथ साहित्यिक अवार्ड (1968), दी बुकर पुरस्कार (1971) तथा दी डेविड कोहेन पुरस्कार (1993) ब्रिटीश साहित्य में जीवन पर्यन्त कार्यो के लिए, प्रमुख है। विद्याधर सूरजप्रसाद नैपाल को 2008 में दी टाइम्स ने अपनी 50 महान ब्रिटिश साहित्यकारों की सूची में सातवाँ स्थान दिया।

उपन्यास - The Mystic Masseur - (1957) , The Suffrage of Elvira - (1958) , Miguel Street - (1959) , A House for Mr Biswas (1961) , Mr. Stone and the Knights Companion - (1963) , A Flag on the Island - (1967) , The Mimic Men - (1967) , In a Free State - (1971) , Guerillas - (1975) , A Bend in the River (1979) , Finding the Centre - (1984) , The Enigma of Arrival - (1987) , A Way in the World - (1994) , Half a Life - (2001) , Magic Seeds - (2004) 

अन्य कृति - The Middle Passage: Impressions of Five Societies - British, French and Dutch in the West Indies and South America (1962) , An Area of Darkness (1964) , The Loss of El Dorado - (1969) , The Overcrowded Barracoon and Other Articles (1972) , India: A Wounded Civilization (1977) , A Congo Diary (1980) , The Return of Eva Perón and the Killings in Trinidad (1980) , Among the Believers: An Islamic Journey (1981) , Finding the Centre (1984) , A Turn in the South (1989) , India: A Million Mutinies Now (1990) , Beyond Belief: Islamic Excursions among the Converted Peoples (1998) , Between Father and Son: Family Letters (1999, edited by Gillon Aitken) 

”भारत बौद्धिक विस्फोट के मुहाने पर खड़ा है। हर क्षेत्र में भारतीयों का दखल हो रहा है। वह दिन समय नहीं, जब भारत भी पूरी दुनिया में अपना लोहा मनवाएगा। हालांकि इसका लाभ उठाने के लिए भारत को अतीत की पहेलीयों को सुलझाना होगा।“
-वी. एस. नाॅयपाल, (साहित्य के नोबेल पुरस्कार से सम्मानित) 
साभार - अमर उजाला, वाराणसी, दि0 31 अक्टूबर 2000

श्री लव कुश सिंह ”विश्वमानव“ द्वारा स्पष्टीकरण 
महोदय, आपकी दूरदृष्टि बिलकुल सत्य है। भारत बौद्धिक विस्फोट और अपने विश्व गुरूता के लिए अपने सभी अतीत के पहेलीयों को सुलझा चुका है। और वह ”विश्वधर्म“ के लिए ”विश्वशास्त्र“ के रूप में प्रकाशित है। स्वामी विवेकानन्द जी ने कहा था -
”हिन्दू भावों को अंग्रेजी में व्यक्त करना, फिर शुष्क दर्शन, जटिल पौराणिक कथाएं और अनूठे आश्चर्यजनक मनोविज्ञान से ऐसे धर्म का निर्माण करना, जो सरल, सहज और लोकप्रिय हो और उसके साथ ही उन्नत मस्तिष्क वालों को संतुष्ट कर सके- इस कार्य की कठिनाइयों को वे ही समझ सकते हैं, जिन्होंने इसके लिए प्रयत्न किया हो। अद्वैत के गुढ़ सिद्धान्त में नित्य प्रति के जीवन के लिए कविता का रस और जीवन दायिनी शक्ति उत्पन्न करनी है। अत्यन्त उलझी हुई पौराणिक कथाओं में से जीवन प्रकृत चरित्रों के उदाहरण समूह निकालने हैं और बुद्धि को भ्रम में डालने वाली योगविद्या से अत्यन्त वैज्ञानिक और क्रियात्मक मनोविज्ञान का विकास करना है और इन सब को एक ऐसे रुप में लाना पड़ेगा कि बच्चा-बच्चा इसे समझ सके।“ - स्वामी विवेकानन्द 
”यदि कभी कोई सार्वभौमिक धर्म हो सकता है, तो वह ऐसा ही होगा, जो देश या काल से मर्यादित न हो, जो उस अनन्त भगवान के समान ही अनन्त हो, जिस भगवान के सम्बन्ध में वह उपदेश देता है, जिसकी ज्योति श्रीकृष्ण के भक्तों पर और ईसा के प्रेमियों पर, सन्तों पर और पापियों पर समान रूप से प्रकाशित होती हो, जो न तो ब्राह्मणों का हो, न बौद्धों का, न ईसाइयों का और न मुसलमानों का, वरन् इन सभी धर्मों का समष्टिस्वरूप होते हुए भी जिसमें उन्नति का अनन्त पथ खुला रहे, जो इतना व्यापक हो कि अपनी असंख्य प्रसारित बाहूओं द्वारा सृष्टि के प्रत्येक मनुष्य का प्रेमपूर्वक आलिंगन करें।... वह विश्वधर्म ऐसा होगा कि उसमें किसी के प्रति विद्वेष अथवा अत्याचार के लिए स्थान न रहेगा, वह प्रत्येक स्त्री और पुरूष के ईश्वरीय स्वरूप को स्वीकार करेगा और सम्पूर्ण बल मनुष्यमात्र को अपनी सच्ची, ईश्वरीय प्रकृति का साक्षात्कार करने के लिए सहायता देने में ही केन्द्रित रहेगा। हमें दिखलाना है- हिन्दुओं की आध्यामिकता, बौद्धो की जीवदया, ईसाइयों की क्रियाशीलता एवं मुस्लिमों का बन्धुत्व, और ये सब अपने व्यावहारिक जीवन के माध्यम द्वारा। हमने निश्चय किया- हम एक सार्वभौम धर्म का निर्माण करेंगें।“ - स्वामी विवेकानन्द
”हमें ऐसे धर्म की आवश्यकता है, जिससे हम मनुष्य बन सकें। हमें ऐसे सिद्धान्तों की आवश्यकता है, जिससे हम मनुष्य हो सकें। हमें ऐसी सर्वांगसम्पन्न शिक्षा चाहिए, जो हमें मनुष्य बना सके और यह रही सत्य की कसौटी-जो भी तुम्हे शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक दुर्बलता लाए, उसे जहर की भांति त्याग दो; उसमें जीवन-शक्ति नहीं है, वह कभी सत्य नहीं हो सकता। सत्य तो बलप्रद है, वह पवित्रता स्वरूप है, ज्ञान स्वरूप है। सत्य तो वह है जो शक्ति दे, जो हृदय के अन्धकार को दूर कर दे, जो हृदय में स्फूर्ति भर दें। उसी मूल सत्य की फिर से शिक्षा ग्रहण करनी होगी, जो केवल यहीं से, हमारी इसी मातृभूमि से प्रचारित हुआ था। फिर एक बार भारत को संसार में इसी मूल तत्व का-इसी सत्य का प्रचार करना होगा। ऐसा क्यों है? इसलिए नहीं कि यह सत्य हमारे शास्त्रों में लिखा है वरन् हमारे राष्ट्रीय साहित्य का प्रत्येक विभाग और हमारा राष्ट्रीय जीवन उससे पूर्णतः ओत-प्रोत है। इस धार्मिक सहिष्णुता की तथा इस सहानुभूति की, मातृभाव की महान शिक्षा प्रत्येक बालक, स्त्री, पुरुष, शिक्षित, अशिक्षित सब जाति और वर्ण वाले सीख सकते हैं। तुमको अनेक नामों से पुकारा जाता है, पर तुम एक हो। मैं जिस आत्मतत्व की बात कर रहा हूँ वहीं जीवन है, शक्तिप्रद है और अत्यन्त अपूर्व है। केवल वेदान्त में ही वह महान तत्व है जिससे सारे संसार की जड़ हिल जायेगी और जड़ विज्ञान के साथ धर्म की एकता सिद्ध होगी।“    - स्वामी विवेकानन्द
यह सनातन धर्म का देश है। देश गिर अवश्य गया है, परन्तु निश्चय फिर उठेगा। और ऐसा उठेगा कि दुनिया देखकर दंग रह जायेगी। (विवेकानन्दजी के संग में, पृष्ठ-159) - स्वामी विवेकानन्द

विश्वमानव और श्री मुरली मनोहर जोशी (5 जनवरी, 1934-)

श्री मुरली मनोहर जोशी (5 जनवरी, 1934-)

परिचय -
डाॅ0 मुरली मनोहर जोशी, भारतीय जनता पार्टी के प्रमुख नेता हैं। राष्ट्रीय जनतान्त्रिक गठबन्धन के शासनकाल में वे भारत के मानव संसाधन विकास मंत्री थे। इनका जन्म 5 जनवरी, 1934 को दिल्ली में हुआ था। उनका पैत्रिक निवास स्थान वर्तमान उत्तराखण्ड के कुमायूँ क्षेत्र में है। उनकी प्राथमिक शिक्षा चांदपुर जिला बिजनौर और अल्मोड़ा में हुई। उन्होंने अपना बी.एससी. मेरठ कालेज और एम.एससी. इलहाबाद विश्वविद्यालय से किये यहाँ उनके एक शिक्षक प्रोफेसर राजेन्द्र सिंह थे जो बाद में राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के सरसंघचालक बन गये। यहीं से उन्होंने अपनी डाॅक्टरेट की उपाधि भी अर्जित की। उनका शोधपत्र स्पेक्ट्रोस्कोपी पर था। अपना शोधपत्र हिन्दी भाषा में प्रस्तुत करने वाले वे प्रथम शोधार्थी हैं। अपनी पीएच.डी पूरी करने के बाद वे इलाहाबाद विश्वविद्यालय में भौतिकी में अध्यापन शुरू कर दिये। बाद में वे राष्ट्रीय राजनीति में आ गये।
वे युवा उम्र में ही दिल्ली में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सम्पर्क में आये और 1953-1954 में गाय संरक्षण आन्दोलन में भाग लिये। 1955 में कुंभ, इलाहाबाद के भू-राजस्व आकलन की मांग के किसान आन्दोलन में भाग लिए। भारत के आपातकाल की अवधि 1975-1977 के दौरान आप 26 जून, 1975 से 1977 में लोकसभा चुनाव तक जेल में रहे। आप अल्मोड़ा से जनता दल के उम्मीदवार बनकर लोकसभा सदस्य चुने गये थे और दल के संसदीय महासचिव चुने गये थे। 1980 में जनता दल के सरकार के पतन के बाद गठित भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के पहले महासचिव फिर कोषाध्यक्ष के रूप में भी आपने कार्य किया। भाजपा के महासचिव के रूप में बिहार, बंगाल और पूर्वोत्तर राज्यों के प्रभारी भी थे। जब अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में सरकार बनी तब आप मानव संसाधन विकास मन्त्री के रूप में देश की सेवा की। आपको वीर सावरकर, श्री गुरूजी और दीनदयाल उपाध्याय के जीवन और कर्म से प्रभावित हुआ माना जाता है। 1996 में अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में बनी 13 दिनों की सरकार में आप गृहमंत्री भी थे। 2009 के आम चुनाव के भाजपा के घोषणा पत्र तैयार करने वाले बोर्ड के अध्यक्ष के रूप में भी आप नियुक्त थे। 2009 के 15वीं लोकसभा में आप वाराणसी, उत्तर प्रदेश संसदीय क्षेत्र से संसद सदस्य भी है।

‘‘काल का बोध न रखने वाले राष्ट्र का आत्मबोध व दिशाबोध भी समाप्त हो जाता है।’’
- श्री मुरली मनोहर जोशी, 
साभार - दैनिक जागरण, वाराणसी, दि0 10-7-98

श्री लव कुश सिंह ”विश्वमानव“ द्वारा स्पष्टीकरण  
‘‘जब व्यष्टि मन की शान्ति, स्थिरता और एकता अन्तः अदृश्य विषयों पर केन्द्रित होता है तो उसे व्यष्टि अदृश्य काल कहते हैं। जब व्यष्टि मन की शान्ति, स्थिरता और एकता बाह्य दृश्य विषयों पर केन्द्रित होती है तो उसे व्यष्टि दृश्य काल कहते हैं। इसी प्रकार जब अधिकतम व्यष्टि के मन की शान्ति, स्थिरता और एकता अन्तः अदृश्य विषयों पर केन्द्रित होती है तो उसे समष्टि अदृश्य काल कहते हैं और बाह्य दृश्य विषयों पर केन्द्रित होती है तो उसे समष्टि दृश्य काल कहते हैं। अदृश्य काल के लिए अनेक ईश्वर नाम तथा दृश्य काल के लिए एक ईश्वर नाम होते हैं। इस ईश्वर नाम या शब्द का दर्शन ही मानव तथा राष्ट्र को आत्मबोध वा दिशाबोध प्रदान करता है। अदृश्य काल से दृश्य काल में परिवर्तन की सूचना व्यक्तिगत स्तर से सार्वजनिक पत्र मुद्रित कराकर केन्द्रिय सचिवालय, दिल्ली, पी0 टी0 आई0 भवन, दिल्ली, मथुरा व वाराणसी के मन्दिरों व पत्र द्वारा सम्पूर्ण देश में वितरित किये गये थे और समष्टि स्तर से ब्रह्माण्ड द्वारा दिंनाक -18-11-97 से 22-11-97 (पाॅच दिन) खगोल विज्ञान द्वारा प्रमाणित सभी ग्रहों का एक सीध में आना द्वारा सूचित किया जा चुका है। कालानुसार ज्ञान द्वारा मानव को पूर्ण मानव में विकसित न करना मानवाधिकार का स्पष्ट हनन है। यह सत्य है कि काल का बोध न रखे वाले राष्ट्र का का आत्मबोध व दिशाबोध भी समाप्त हो जाता है। परन्तु इस काल की वर्तमान स्थिति से जन साधारण को परिचित कौन करायेगा? सरकार और मानव संसाधन मंत्री तो आप हैं। वेद या ज्ञान या सत्य की बातें सत्य होती हैं परन्तु व्यावहारिक नहीं। मात्र व्यावहारिक सत्य ही आत्मबोध या दिषाबोध दे सकता है।’’
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‘‘मैं आवाहन करता हूॅ-देश की युवा पीढ़ी का, जो इस महान गौरवशाली देश का नेतृत्व करें और संकीर्णता, भय, आसमानता, असहिष्णुता से ऊपर उठकर राष्ट्र को ज्ञान-विज्ञान के ऐसे धरातल पर स्थापित करे कि लोग कहें यही तो भारत महान है।’’ (विज्ञापन द्वारा प्रकाशित अपील)
- श्री मुरली मनोहर जोशी
साभार - दैनिक जागरण, वाराणसी, दि0 11-8-98

श्री लव कुश सिंह ”विश्वमानव“ द्वारा स्पष्टीकरण 
‘‘देश में युवा हैं जो इस गौरवशाली देश का नेतृत्व बिना किसी पद पर बैठे ही सकीर्णता, भय, असमानता, असहिष्णुता से ऊपर उठकर राष्ट्र को ज्ञान-विज्ञान के ऐसे धरातल पर स्थापित कर सकते हैं, जिससे भारत की महानता सार्वजनिक रूप से सिद्ध हो सकती है। या यूॅ कहें कि भारत का वर्तमान रूप राम, कृष्ण, आादि शंकर, स्वामी विवेकान्द, स्वामी दयानन्द, भगत सिंह, रजनीश इत्यादि जैसे युवाओं ने वैचारिक और प्रत्यक्ष क्रान्ति द्वारा ही, अपने जीवन को अन्य जीवन के लोगो से अलग रखकर व्यक्त किया है। और जब भी भारत अपनी महानता को स्थापित करेगा वह युवा के द्वारा ही होगा क्योंकि कोई भी यहाॅ जन्म लेकर और पुस्तकों से ज्ञान प्राप्त कर भारत को महानता नहीं दिला सकता क्योंकि फिर इतने बड़े कार्य के लिए एक जीवन तो ज्ञान की खोज में ही निकल जायेगा-फिर कर्म कब होगा? ऐसे युवा जिन्होनें अपने जीवन को बलिदान स्वरूप रखकर भारत को सतत महानता की ओर ले जाने के लिए प्रयत्न किये है वे तो सिर्फ कर्म करने आये, ज्ञान तो, उन्हें पूर्वजन्म से ही प्राप्त था। आपने आवाहन किया जो एक अच्छा कदम है लेकिन समस्या है कि कोई युवा आपसे मिलने आये तो आपके पास समय न होगा और उस युवा के चेहरे पर लिखा भी न होगा कि भारत को महानता दिलाने वाला यही युवा है। यदि पत्र दे तो भी वह कुड़ेदान में चला जायेगा लेकिन भारत के कार्यो में यदि भारत के नेतृत्व कत्र्ता ही साथ न दे तो भी कोई अन्तर नहीं पड़ता। हाॅ पत्रों के प्रति निष्क्रियता-आपके निष्क्रियता का प्रमाणपत्र अवश्य बन जाती है। ऐसा ही पत्र आपको आपके आवाहन के जवाव में भेजा गया था’’         
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‘‘देश के सभी विद्यालयों में वेद की शिक्षा दी जायेगी’’ 
- श्री मुरली मनोहर जोशी
साभार - आज, वाराणसी, दि0 10/12/98

श्री लव कुश सिंह ”विश्वमानव“ द्वारा स्पष्टीकरण 
”सत्य के अनुभूति का साहित्य वेद है। ऋगवेद-ज्ञान से सत्य की ओर, सामवेद-गायन से सत्य की ओर, यजर्वुेद-व्यक्तिगत प्रमाणित अदृश्य कर्म से सत्य की ओर, अथर्ववेद-औषधि से सत्य की ओर और कर्मवेद-सार्वजनिक प्रमाणित दृश्य कर्म से सत्य की ओर जाने का साहित्य है। प्रथम चार वेद में ज्ञान, विज्ञान और व्यक्तिगत प्रमाणित मानव एवम् प्रकृति के सन्तुलन के लिए कर्मज्ञान हैं। जिस पर आधारित और सत्य की ओर ले जाने वाले अनेकों साहित्य-संहिता, ब्राह्मण, अरण्यक, पुराण, उपनिषद् आदि हैं। इतने साहित्यों के उपरान्त वेदो और उपनिषदों के सत्य के मूलरूप को व्यक्त करता और कर्म की ओर प्रेरित करता साहित्य गीता है। उसके उपरान्त कर्म ज्ञान पर आधारित शुद्ध और अन्तिम सार्वजनिक सत्य-सिद्धान्त का साहित्य कर्मवेदः प्रथम, अन्तिम तथा पंचमवेद अर्थात् विश्वमानक -शून्य श्रंृखला: मन की गुणवत्ता का विश्वमानक है। हजारों वर्षो से समयानुसार आवश्यकतानुसार परिष्कृत होकर व्यक्त हुआ सत्य जो व्यक्ति को सीधे पूर्ण ज्ञान से जोड़ सकता है, वह वेद विद्यालयों में शिक्षा देने योग्य है कि वह जो हजारों वर्ष पूर्व का वेद है जिसकी एक एक ऋचा को समझने में और सत्य की अनुभूति करने में अधिकतम समय लगता हैै। यह सोचने का विषय है- वर्तमान समय में व्यक्ति इतने अधिक नियम, कानून, समस्या, दायित्व और कत्र्तव्यों से घिरा है कि वह न्यूनतम समय में अधिकतम प्राप्त करना चाहता है। ऐसे में समयानुसार और आवश्यकतानुसार ही सम्पूर्ण मानव समाज को सर्वाधिक विवादस्पद सत्य-धर्म-ज्ञान से विवादमुक्त करने और कर्मज्ञान-दृश्य कर्मज्ञान को स्थापित करने के लिए कर्मवेद व्यक्त हुआ है। जिसकी शिक्षा आने वाली पीढ़ी और वर्तमान के व्यक्तियों के बीच नेतृत्व कर्ताओं को स्वेच्छा से स्थापित उसी भाॅति करना चाहिए जिस प्रकार एक माता-पिता अपने अबोध सन्तान को आवश्यकतानुसार एवम समयानुसार विषयों को उपलव्ध कराते हैं। जिसके प्रति किसी प्रकार का आन्दोलन स्वयं माता-पिता और नेतृत्वकत्र्ताओं के नैतिकता पर प्रश्न उठा सकता है। इसलिए इसके प्रति आन्दोलन न करना ही मेरा मार्ग है।’’ 
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”प्रधानमंत्री ने भी भारत के कायाकल्प के लिए अंतरनिहित सिद्धांतों को स्पष्ट किया है। उन्होंने हजारों वर्षों से चली आ रही भारतीय परंपराओं से अनुभव हासिल करने वाले विशेषज्ञों, जनता के सुझावों और विपरीत विचारों को ध्यानपूर्वक सुनने का सुझाव दिया है। यदि हमने ऐसा कर दिया तो हम नीतियों और योजनाओं को न सिर्फ विफल होने से बचा लेंगे, बल्कि भविष्य के जोखिमों से भी इन्हें सुरक्षित कर देंगे। इन सबका अर्थ है भविष्य की योजनाओं और विकास के लिए जरूरी बुनियादी बातों को फिर से परिभाषित करना और उन्हें नए रूप में रचना। इसके लिए सोच के एक नए स्तर की जरूरत होती है। यह किस तरह होगा, यह बहुत कुछ आयोग की टीम की रूपरेखा और दृष्टिकोण पर निर्भर करेगा। प्रधानमंत्री ने नीति आयोग की टीम के लिए महत्वपूर्ण दिशानिर्देश तय किए हैं। अब नीति आयोग पर निर्भर करता है कि वह आशाओं के अनुरूप आचरण करे और परिणाम दे। (”अगली सदी की तैयारी“ शीर्षक से दैनिक जागरण में प्रकाशित लेख) 
- डॉ. मुरली मनोहर जोशी, भाजपा के पूर्व अध्यक्ष और पूर्व केंद्रीय मंत्री
श्री लव कुश सिंह ”विश्वमानव“ द्वारा स्पष्टीकरण 
महोदय, नीति आयोग के लिए एकदम सत्य दृष्टि। ”आध्यात्मिक विरासत के आधार पर एक भारत - श्रेष्ठ भारत“ का निर्माण इस विचार के बिना नहीं हो सकता। और यह ईश्वर के अवतारों के अधीन है। ये कार्य नौकरी पेशा विद्वानों के वश का है ही नहीं क्योंकि भारत ऐसे लागों से निर्मित नहीें बल्कि ऋषि निर्मित है।
नीति आयोग, भारत सरकार के पास क्या ऐसे अनुभवी व्यक्ति हैं यदि नहीं तो आध्यात्मिक विरासत के आधार पर एक भारत - श्रेष्ठ भारत का सपना छोड़ दें- ये है हमारे ”एक“ का सृष्टि के प्रारम्भ से अब तक के 10 जन्मों का अनुभव -
मछलियों ंके स्वभाव जल की धारा के विपरीत दिशा (राधा) में गति करने से ज्ञान (अर्थात राधा का सिद्धान्त) प्रथम अवतार मत्स्य अवतार का गुण था जो अगले अवतार में संचरित हुई। एक सहनशील, शांत, धैर्यवान, लगनशील, दोनों पक्षो के बीच मध्यस्थ की भूमिका वाला गुण सहित प्रथम अवतार के गुण सहित वाला गुण द्वितीय अवतार कूर्म अवतार का गुण था जो अगले अवतार में संचरित हुई। एक मेधावी, सूझ-बुझ, सम्पन्न, पुरूषार्थी, धीर-गम्भीर, निष्कामी, बलिष्ठ, सक्रिय, शाकाहारी, अहिंसक और समूह प्रेमी, लोगों का मनोबल बढ़ाना, उत्साहित और सक्रिय करने वाला गुण सहित द्वितीय अवतार के समस्त गुण से युक्त वाला गुण तृतीय अवतार वाराह अवतार का गुण था जो अगले अवतार में संचरित हुई। प्रत्यक्ष रूप से एका-एक लक्ष्य को पूर्ण करने वाले गुण सहित तृतीय अवतार के समस्त गुण से युक्त वाला गुण चतुर्थ अवतार नरसिंह अवतार का गुण था जो अगले अवतार में संचरित हुई। भविष्य दृष्टा, राजा के गुण का प्रयोग करना, थोड़ी सी भूमि पर गणराज्य व्यवस्था की स्थापना व व्यवस्था को जिवित करना, उसके सुख से प्रजा को परिचित कराने वाले गुण सहित चतुर्थ अवतार के समस्त गुण से युक्त गुण पाँचवें अवतार का गुण था जो अगले अवतार में संचरित हुई। गणराज्य व्यवस्था को ब्रह्माण्ड में व्याप्त व्यवस्था सिद्धान्तों को आधार बनाने वाले गुण और व्यवस्था के प्रसार के लिए योग्य व्यक्ति को नियुक्त करने वाले गुण सहित पाँचवें अवतार के समस्त गुण से युक्त वाला गुण छठें अवतार परशुराम का गुण था जो अगले अवतार में संचरित हुई। आदर्श चरित्र के गुण तथा छठें अवतार तक के समस्त गुण को प्रसार करने वाला गुण सातवें अवतार श्रीराम का गुण था जो अगले अवतार में संचरित हुई। आदर्श सामाजिक व्यक्ति चरित्र के गुण, समाज मंे व्याप्त अनेक मत-मतान्तार व विचारों के समन्वय और एकीकरण से सत्य-विचार के प्रेरक ज्ञान को निकालने वाले गुण सहित सातवें अवतार तक के समस्त गुण आठवें अवतार श्रीकृष्ण का गुण था। जिससे व्यक्ति, व्यक्ति पर विश्वास न कर अपने बुद्धि से स्वयं निर्णय करें और प्रेरणा प्राप्त करता रहे। प्रजा को प्रेरित करने के लिए धर्म, संघ और बुद्धि के शरण में जाने की मूल शिक्षा देना नवें अवतार भगवान बुद्ध का गुण था। आदर्श वैश्विक व्यक्ति चरित्र सहित सभी अवतारों का सम्मिलित गुण व मन निर्माण की प्रक्रिया से निर्मित अन्तिम मन स्वामी विवेकानन्द के मन के गुण मिलकर दसवें अन्तिम अवतार श्री लव कुश सिंह ”विश्वमानव“ में व्यक्त हुआ। 
पुराण पढें और देखें है न, पृथ्वी की समस्या पहले ब्रह्मा के पास जाती है। यदि वह उनसे हल नहीं हो पाती तो अपने उच्च अधिकारी विष्णु के पास फाइल फरवार्ड की जाती है। यदि उनसे भी नहीं हल होती तो मुख्य कार्यालय शिव-शंकर के कार्यालय में भेज दी जाती है। जब सभी अन्धे होते हैं तो काना (एक आॅख) वाला शासन करता है। जब सभी काने होते हैं तो दो आॅख वाला शासन करता है। जब सभी दो आॅख वाले होते हैं तब तीसरे नेत्र वाले का शासन आता है। जबकि सभी शासक अपने समय के अनुसार सर्वश्रेष्ठ ही होते हैं। नीति आयोग दो आॅख वालों का समूह है, अब उसे काशी-सत्यकाशी से तीसरे नेत्र का प्रकाश माॅगना चाहिए। ससम्मान निवेदन करें या अपनी क्षमता-बौद्धिकता पेश करें।


विश्वमानव और श्री केशरी नाथ त्रिपाठी (10 नवम्बर, 1934 - )

श्री केशरी नाथ त्रिपाठी (10 नवम्बर, 1934 - )
परिचय -
श्री केशरी नाथ त्रिपाठी जी का जन्म 10 नवम्बर, 1934 को इलाहाबाद में हुआ था। आपने बी.ए. और एल.एल.बी. की डिग्री इलाहाबाद विश्वविद्यालय से पूरी कर इलाहाबाद उच्च न्यायालय में वरिष्ठ अधिवक्ता के रूप में कार्य किया। अपने छात्र जीवन में कश्मीर आन्दोलन के लिए आप जेल गये। आप कई साहित्यिक और समाजिक सेवा संगठनों के साथ जुड़े रहे।
इलाहाबाद उच्च न्यायालय बार एशोसिएशन के अध्यक्ष पद पर 1987-1989 तक आप रहें। आप 1977-1980, 1989-1991, 1991-1992, 1993-1995, 1996-2002 और 2002 के उत्तर प्रदेश विधानसभा में सदस्य रहे। 1977-1979 में आप मन्त्री संस्थागत वित्त भी रहे। उत्तर प्रदेश विधान सभा के अध्यक्ष पद पर आप 1991-1993, 1997-2002, फिर 14 मई 2002 से 19 मार्च 2004 तक रहें। अध्यक्ष उत्तर प्रदेश शाखा, राष्ट्रमण्डल संसदीय एशोसिएशन के पद पर आप 1991-1993 और 1997 में रहें। 1991, 1992, 1997, 1998, 2000, 2001 में राष्ट्रमण्डल संसदीय संघ के सम्मेलन में आपकी भागीदारी हुई। आप उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान के कार्यवाहक अध्यक्ष भी रहें। भाजपा के अखिल भारतीय कार्य समिति के सदस्य और उत्तर प्रदेश के पार्टी अध्यक्ष भी रहें।
कानून, शिक्षा, साहित्य और संस्कृति में आपकी रूचि सहित आप एक लेखक व कवि भी हैंे। आपके दो काव्य पुस्तके ”मनोनुकृति“ और ”आयुपंख“ प्रकाशित हैं। आपने एक ”लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951“ भी लिखा है। आप बर्लिन, बहामा, टोरंटो, टोक्यो, बीजिंग, बैंकाॅक, हांगकांग, माॅरीशस, लंदन, लाॅस एंजिल्स, न्यूयार्क, यूनाइटेड किंगडम, फ्रांस, स्विटजरलैण्ड, जर्मनी, आॅस्ट्रिया, कनाडा, माल्टा, नेपाल, ग्रीस, नीदालैण्ड, इटली, रूस की विदेश यात्रा कर चुके हैं। आप उत्तर प्रदेश रत्न, विश्व भारती सम्मान, अभिषेक श्री और भारत गौरव से सम्मानित किये जा चुके हैं।


‘‘शिक्षा में दूरदृष्टि होनी चाहिए तथा हमारी शिक्षा नीति और शिक्षा व्यवस्था ऐसी होनी चाहिए जिससे हम भविष्य देख सके और भविष्य की आवश्यकताओं को प्राप्त कर सकें।
- श्री केशरीनाथ त्रिपाठी 
साभार - आज, वाराणसी, दि0-25-12-98

श्री लव कुश सिंह ”विश्वमानव“ द्वारा स्पष्टीकरण 
‘‘बिल्कुल सत्य दृष्टि है परन्तु व्यावहारिक और स्थापना स्तर तक लाने के लिए उसका प्रारूप क्या होगा? उसके विषय क्या होंगे? विवादमुक्त कैसे होगा? उसके प्रारूप की उत्पति किस विवादमुक्त सूत्र से होगी? इन सब का उत्तर ही कर्मवेदः प्रथम, अन्तिम तथा पंचमवेद अर्थात् विश्वमानक -शून्य श्रंृखलाः मन की गुणवत्ता का विश्वमानक है और उस पर पर आधारित विवादमुक्त तन्त्रों पर आधारित भारत का संविधान भाग-2 होगा। यह सब नव काल, नव युग, इक्कीसंवीं सदी और भविष्य के लिए नव अविष्कृत है। सत्य वाणी सत्य होती है। लेकिन व्यावहारिक सिद्धान्त को कौन प्रस्तुत करेगा? यदि प्रस्तुत हो भी गया तो उसके स्थापना में आपका योगदान क्या होगा?’’           


विश्वमानव और श्री हामिद अंसारी (1 अप्रैल, 1934 - )

श्री हामिद अंसारी (1 अप्रैल, 1934 - )

परिचय -
श्री मोहम्मद हामिद अंसारी का जन्म 1 अप्रैल, 1934 को पश्चिम बंगाल की राजधानी कोलकाता में हुआ था। हालंाकि उनके माता-पिता गाजीपुर, उत्तर प्रदेश से हैं। उनकी शिक्षा-दीक्षा सेंट एडवर्डस हाई स्कूल, शिमला, सेंट जेवियर्स महाविद्यालय, कोलकाता और अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में हुई। श्री अंसारी ने अपने कैरियर की शुरूआत भारतीय विदेश सेवा के एक नौकरशाह के रूप में 1961 में की थी, जब उन्हें संयुक्त राष्ट्र संघ में भारत का स्थायी प्रतिनिधि नियुक्त किया गया था। वे आस्ट्रेलिया में भारत के उच्चायुक्त भी रहे। बाद में उन्होंने अफगानिस्तान, संयुक्त अरब अमीरात तथा ईरान में भारत के राजदूत के तौर पर भी काम किया। 1984 में उन्हें पद्मश्री पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया। वे मई, 2000 से मार्च, 2004 तक अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के उपकुलपति भी रहे। उन्हें गुजरात दंगों के पीड़ितों को मुआवजा दिलाने और सद्भावना के लिए उनकी भूमिका के लिए भी सराहा जाता है। वे भारतीय अल्पसंख्यक आयोग के अघ्यक्ष भी रह चुके हैं। वे एक शिक्षाविद् तथा प्रमुख राजनेता हैं। वे 10 अगस्त, 2007 को भारत के 13वें उपराष्ट्रपति चुने गये।

”पिछली सदी में राष्ट्रवाद की अवधारणा काफी प्रबल रही। यह अलग बात है कि सदी के बीच में ही परस्पर अंतर निर्भरता ने विश्वग्राम की चेतना को जन्म दिया। इस चेतना ने राष्ट्रवाद की अवधारणा को काफी हद तक बदल दिया है। आज निरपेक्ष व सम्पूर्ण संप्रभुता का युग समाप्त हो गया है। राजनीतिक प्रभुता को भी विश्व के साथ जोड़ दिया है। आज मामले अन्तर्राष्ट्रीय न्यायालय को सौंपे जा रहे हैं। मानवाधिकारों के नये मानक लागू हो रहे हैं। इन सबसे ऐसा लगता है जैसे राज्यों का विराष्ट्रीकरण हो रहा है। आज समस्याएं राष्ट्रीय सीमाओं के बाहर चली गई है। महामारी, जलवायु परिवर्तन, आर्थिक संकट आदि पूरे विश्व को प्रभावी कर रहा है। इनका हल वैश्विक स्तर पर बातचीत व सहयोग से ही संभव है। इसको देखते हुए हमें राष्ट्रवाद व अन्तर्राष्ट्रीयतावाद के विषय में गंभीरता से विचार करने की जरूरत है। इन स्थितियों को देखते हुए नई सदी में विज्ञान, प्रौद्योगिकी व नवप्रवर्तन राष्ट्र की सम्पन्नता के लिए खासे महत्वपूर्ण साबित होगें। छात्रों से इस दिशा में प्रयास करने व लीक से हटकर  नया सोचने का  आह्वान करता हूँ। “ (बी.एच.यू के 93वें दीक्षांत समारोह व कृष्णमूर्ति फाउण्डेशन, वाराणसी में बोलते हुए)
- श्री हामिद अंसारी 
साभार - दैनिक जागरण, वाराणसी, दि0 13 मार्च, 2011

श्री लव कुश सिंह ”विश्वमानव“ द्वारा स्पष्टीकरण 
इस पृथ्वी का अब आगे का समय वैश्विक मानक आधारित है जिसमें ”विश्वमानक व्यक्ति“, ”विश्वमानक शिक्षा“, ”विश्वमानक संविधान“, ”विश्वमानक प्रबन्ध“, ”विश्वमानक क्रियाकलाप“, ”विश्वमानक देश“, ”विश्वमानक ग्राम“, ”विश्वमानक नगर“ इत्यादि का है। और सब आविष्कृत किया जा चुका है। जिसका आधार ही लीक से हटकर नयी सोच है। इसलिए ही कहा गया है - ”एक आइडिया जो बदल दे पूरी दुनिया, जोश सत्य का और तरक्की के लिए नया और अन्तिम नजरिया“। जो एक मात्र शेष दसवें और अन्तिम अवतार - कल्कि अवतार द्वारा अहिंसक और शान्ति रूप से इसलिए व्यक्त किया गया है क्योंकि वर्तमान समाज में मनुष्य को मानव बुद्धि व विश्व-राष्ट्र के विकास की सभी उम्मीद धर्म गुरूओं और राजनेताओं से ही है। उन्हें ईश्वर और उनके अवतारों की कोई आवश्यकता नहीं है।
”ग्लोबलाईज्ड“ दृष्टि ही ”दिव्य दृष्टि“ है। जिसका मात्र विरोध हो सकता है नकारा नहीं जा सकता, क्योंकि यह प्राकृतिक बल के अधीन है जो मानव से विश्वमानव तक के विकास के लिए अटलनीय है। दृष्टि, अहंकार है, अंधकार है, अपूर्ण मानव है तो दिव्य दृष्टि, सिद्धान्त है, प्रकाश है, पूर्णमानव-विश्वमानव है। तुम मानव की अवस्था से विश्वमानव की अवस्था में आने का प्रयत्न करो न कि विश्वमानव का विरोध। विरोध से तुम्हारी क्षति ही होगी। जिस प्रकार ”कृष्ण“ नाम है ”योगेश्वर“ अवस्था है, ”गदाधर“ नाम है ”रामकृष्ण परमहंस“ अवस्था है, ”सिद्धार्थ“ नाम है ”बुद्ध“ अवस्था है, ”नरेन्द्र नाथ दत्त“ नाम है ”स्वामी विवेकानन्द“ अवस्था है, ”रजनीश“ नाम है ”ओशो“ अवस्था है। उसी प्रकार व्यक्तियों के नाम, नाम है ”भोगेश्वर विश्वमानव“ उसकी चरम विकसित, सर्वोच्च और अन्तिम अवस्था है। ”दृष्टि“ से युक्त होकर विचार व्यक्त करना निरर्थक है, प्रभावहीन है, यहाँ तक की विरोध करने का भी अधिकार नहीं क्योंकि वर्तमान और भविष्य के समय में इसका कोई महत्व नहीं, अर्थ नहीं क्योंकि वह व्यक्तिगत विचार होगा न कि सार्वजनिक संयुक्त विचार। यह सार्वजनिक संयुक्त विचार ही ”एकात्म विचार“ है और यही वह अन्तिम सत्य है, यहीं ”सार्वभौम सत्य-सिद्धान्त“ है। यहीं धर्मनिपरपेक्ष और सर्वधर्मसमभाव नाम से विश्वमानक - शून्य श्रंृखला: मन की गुणवत्ता का विश्वमानक तथा धर्म नाम से कर्मवेद: प्रथम, अन्तिम और पंचमवेदीय श्रंृखला है जिसकी शाखाएं सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में व्याप्त है और सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड व्यक्त है जिसकी स्थापना चेतना के अन्तिम रुप-दृश्य सत्य चेतना के अधीन है। यहीं ”मैं“ का दृश्य रुप है। यहीं ”विश्व-बन्धुत्व“, ”वसुधैव-कुटुम्बकम्“, ”बहुजनहिताय-बहुजनसुखाय“, ”एकात्म-मानवतावाद“, ”सर्वेभवन्तु-सुखिनः“ की स्थापना का ”एकात्म कर्मवाद“ आधारित अन्तिम मार्ग है।
युग के अनुसार सत्यीकरण का मार्ग उपलब्ध कराना ईश्वर का कर्तव्य है आश्रितों पर सत्यीकरण का मार्ग प्रभावित करना अभिभावक का कर्तव्य हैै। और सत्यीकरण के मार्ग के अनुसार जीना आश्रितों का कर्तव्य है जैसा कि हम सभी जानते है कि अभिभावक, आश्रितों के समझने और समर्थन की प्रतिक्षा नहीं करते। अभिभावक यदि किसी विषय को आवश्यक समझते हैं तब केवल शक्ति और शीघ्रता से प्रभावी बनाना अन्तिम मार्ग होता है। विश्व के बच्चों के लिए यह अधिकार है कि पूर्ण ज्ञान के द्वारा पूर्ण मानव अर्थात् विश्वमानव के रुप में बनना। हम सभी विश्व के नागरिक सभी स्तर के अभिभावक जैसे- महासचिव संयुक्त राष्ट्र संघ, राष्ट्रों के राष्ट्रपति- प्रधानमंत्री, धर्म, समाज, राजनीति, उद्योग, शिक्षा, प्रबन्ध, पत्रकारिता इत्यादि द्वारा अन्य समानान्तर आवश्यक लक्ष्य के साथ इसे जीवन का मुख्य और मूल लक्ष्य निर्धारित कर प्रभावी बनाने की आशा करते हैं। क्योंकि लक्ष्य निर्धारण वक्तव्य का सूर्य नये सहस्त्राब्दि के साथ डूब चुका है। और कार्य योजना का सूर्य उग चुका है। इसलिए धरती को स्वर्ग बनाने का अन्तिम मार्ग सिर्फ कर्तव्य है। और रहने वाले सिर्फ सत्य-सिद्धान्त से युक्त संयुक्तमन आधारित मानव है, न कि संयुक्तमन या व्यक्तिगतमन के युक्तमानव।