स्वामी स्वरूपानन्द (2 सितम्बर, 1924 - )
परिचय -
स्वामी स्वरूपानन्द सरस्वती, आद्य शंकराचार्य द्वारा स्थापित चार मठों पर पीठासीन शंकराचार्यो में से हैं। स्वामी स्वरूपानन्द सरस्वती जी का जन्म ग्राम दीघोरी, जिला सिवनी, मध्य प्रदेश में सन् 1924 में हुआ था। 9 वर्ष की उम्र में वे घर छोड़ कर भारत के पवित्र स्थानों में भ्रमण करने के उपरान्त वे वाराणसी में स्वामी करपात्री (स्वामी हरिहरानन्द), गुरूदेव स्वामी ब्रह्मानन्द सरस्वती के शिष्य के साथ अध्ययन किये। भारतीय स्वतन्त्रता आन्दोलन 1942 में वे 19 वर्ष की उम्र में स्वतन्त्रता सेनाना बनें। क्रान्तिकारी साधु के रूप में दो बार 9 महीने और 6 महीने के लिए जेल गये। 1950 में गुरूदेव ने उन्हें एक दण्डी स्वामी बनाया। गुरूदेव के 1953 में ब्रह्मलीन होने के बाद स्वामी स्वरूपानन्द, एक नये गुरू कृष्णबोधाश्रम जी महाराज के साथ हो लिये। स्वामी करपात्री जी द्वारा स्थापित ”रामराज्य परिषद्“ के अध्यक्ष के रूप में स्वामी स्वरूपानन्द जी नियुक्त हुए। श्री कृष्णबोधाश्रम जी के निधन पर ज्योतिर्मठ के शकराचार्य के पद पर स्वामी स्वरूपानन्द जी को स्थापित किया गया। 1982 में स्वामी स्वरूपानन्द को द्वारिका के शंकराचार्य का पद विरासत में मिला।
‘‘हिन्दू धर्म की जो पकड़ थी, वह इस समय कमजोर पड़ गयी है क्योंकि भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलन के समय से राजनेताओं का वर्चस्व बढ़ा और उन्होंने धर्म रक्षको को दबा दिया, जिसके परिणामस्वरूप 163 साल तक शंकराचार्य की पदवी खाली रही। इसलिए आवश्यक है कि शिक्षा के क्षेत्र में धर्म की स्थापना हो। स्वस्थ एवं श्रेष्ठ साहित्य का सृजन हो। महापुरूषों को घूम-घूम कर सनातन धर्म का प्रचार-प्रसार करना चाहिए जिससे लोगो के हृदय में भारतीय धर्म-शास्त्र के प्रति आस्था-विश्वास बढ़े।’’
- स्वामी स्वरूपानन्द (द्वारिका पीठाधीश्वर जगद्गुरू शंकराचार्य)
साभार - आज, वाराणसी, दि0 10-5-97
‘‘सांई को भगवान कहना शास्त्र और वेद सम्मत नहीं है। इसलिए उनको भगवान, संत और गुरू नहीं माना जा सकता। सनातन धर्म ने देश को एक बनाया है। गंगा ने पूरे देश में एकता का पाठ सिखाया। लोग सांई को अवतार मान रहे हैं, जबकि अवतार उसे माना जाता है जो अपनी इच्छा से शरीर का धारण करते हैं।’’ (कबीरधाम, कवर्धा, छत्तीसगढ़, में आयोजित धर्म संसद का निर्णय)
- स्वामी स्वरूपानन्द (द्वारिका पीठाधीश्वर जगद्गुरू शंकराचार्य एवं संरक्षक, काशी विद्वत परिषद्)
श्री लव कुश सिंह ”विश्वमानव“ द्वारा स्पष्टीकरण
‘ईश्वर के मानवीयकरण व मानव के ईश्वरीयकरण के लिए आपके भौतिक शरीर से व्यक्त विश्वात्मा की इच्छा को ”विश्वशास्त्र“ के रूप में पूर्ण किया जा चुका है। धर्म क्षेत्र से नाम कर्मवेद: प्रथम, अन्तिम तथा पंचम वेद है। जिसमें पुराणों का धर्मनिरपेक्ष और सर्वधर्मसमभाव रूप भी सम्पूर्ण मानव जाति को स्पष्ट दृष्टिगत होगा। परिणामस्वरूप भारतीय धर्म शास्त्रो के प्रति विश्वव्यापी आस्था बढ़ना स्वाभाविक है। साथ ही अनेक सत्य-साहित्यों की रचना के लिए भी मार्ग प्रशस्त कर दिये गये हैं। परिणामस्वरूप सत्य-साहित्यों की रचना की वातावरण भी बनेगा। परन्तु समर्पण वही करायेगा जो अन्तिम सार्वभौम और मूल सत्य-साहित्य होगा। स्वामी जी मेरी दृष्टि में स्वस्थ व श्रेष्ठ शास्त्र-साहित्य का नाम 01.कर्मवेद 02.शब्दवेद 03.सत्यवेद 04.सूक्ष्मवेद 05.दृश्यवेद 06. पूर्णवेद 07.अघोरवेद 08.विश्ववेद 09.ऋृषिवेद 10.मूलवेद 11.शिववेद 12.आत्मवेद 13.अन्तवेद 14.जनवेद 15.स्ववेद 16.लोकवेद 17. कल्किवेद 18.धर्मवेद 19.व्यासवेद 20.सार्वभौमवेद 21.ईशवेद 22.ध्यानवेद 23.प्रेमवेद 24.योगवेद 25.स्वरवेद 26.वाणीवेद 27.ज्ञानवेद 28.युगवेद 29.स्वर्णयुगवेद 30.समर्पणवेद 31.उपासनावेद 32. शववेद 33.मैंवेद 34.अहंवेद 35.तमवेद 36.सत्वेद 37.रजवेद 38.कालवेद 39.कालावेद 40.कालीवेद 41.शक्तिवेद 42.शून्यवेद 43.यथार्थवेद 44.कृष्णवेद सभी प्रथम, अन्तिम तथा पंचम वेद इत्यादि भी गुणों के नाम से अच्छे नाम है।
सत्य से सार्वभौम सत्य-सिद्धान्त तक का मार्ग अवतारों का मार्ग है। सार्वभौम सत्य-सिंद्धान्त की अनुभूति ही अवतरण है। इसके अंश अनुभूति को अंश अवतार तथा पूर्ण अनुभूति को पूर्ण अवतार कहते है। ग्रन्थों में अवतारों की कई कोटि बतायी गई है जैसे अंशाशावतार, अंशावतार, आवेशावतार, कलावतार, नित्यावतार, युगावतार इत्यादि, जो भी सार्वभौम सत्य-सिद्धान्त को व्यक्त करता है वे सभी अवतार कहलाते हैं। व्यक्ति से लेकर समाज के सर्वोच्च स्तर तक सार्वभौम सत्य-सिद्धान्त को व्यक्त करने के क्रम में ही विभिन्न कोटि के अवतार स्तरबद्ध होते है। अवतार मानव मात्र के लिए ही कर्म करते हैं न कि किसी विशेष मानव समूह या सम्प्रदाय के लिए। अवतार, धर्म, धर्मनिरपेक्ष व सर्वधर्मसमभाव से युक्त अर्थात एकात्म से युक्त होते है। इस प्रकार अवतार से उत्पन्न शास्त्र मानव के लिए होते हैं, न कि किसी विशेष मानव समूह के लिए। उत्प्रेरक, शासक और मार्गदर्शक आत्मा सर्वव्यापी है। इसलिए एकात्म का अर्थ संयुक्त आत्मा या सार्वजनिक आत्मा है। अवतारों के प्रत्यक्ष और प्रेरक दो कार्य विधि हैं। प्रत्यक्ष अवतार वे होते हैं जो स्वयं अपनी शक्ति का प्रत्यक्ष प्रयोग कर समाज का सत्यीकरण करते हैं। यह कार्य विधि समाज में उस समय प्रयोग होता है जब अधर्म का नेतृत्व एक या कुछ मानवों पर केन्द्रित होता है। प्रेरक अवतार वे होते हैं जो स्वयं अपनी शक्ति का अप्रत्यक्ष प्रयोग कर समाज का सत्यीकरण जनता एवं नेतृत्वकर्ता के माध्यम से करते हैं। यह कार्य विधि समाज में उस समय प्रयोग होता है जब समाज में अधर्म का नेतृत्व अनेक मानवों और नेतृत्वकर्ताओं पर केन्द्रित होता है।
इन विधियों में से कुल दस अवतारों में से प्रथम सात (मत्स्य, कूर्म, वाराह, नृसिंह, वामन, परशुराम, राम) अवतारों ने समाज का सत्यीकरण प्रत्यक्ष विधि के प्रयोग द्वारा किया था। आठवें अवतार (श्रीकृष्ण) ने दोनों विधियों प्रत्यक्ष ओर प्रेरक का प्रयोग किया था। नवें (भगवान बुद्ध) और अन्तिम दसवें अवतार की कार्य विधि प्रेरक ही है।
महाविष्णु के 24 अवतारों (1. सनकादि ऋषि (ब्रह्मा के चार पुत्र), 2. नारद, 3. वाराह, 4. मत्स्य, 5. यज्ञ (विष्णु कुछ काल के लिये इंद्र रूप में), 6.नर-नारायण, 7. कपिल, 8. दत्तात्रेय, 9. हयग्रीव, 10. हंस पुराण, 11. पृष्णिगर्भ, 12. ऋषभदेव, 13. पृथु, 14. नृसिंह, 15. कूर्म, 16. धनवंतरी, 17. मोहिनी, 18. वामन, 19. परशुराम, 20. राम, 21. व्यास, 22. कृष्ण, बलराम, 23. गौतम बुद्ध (कई लोग बुद्ध के स्थान पर बलराम को कहते है, अन्यथा बलराम शेषनाग के अवतार कहलाते हैं), 24. कल्कि) में एक मात्र शेष 24वाँ तथा प्रमुख 10 अवतारों (1.मत्स्य, 2.कूर्म, 3.वाराह, 4.नृसिंह, 5.वामन, 6.परशुराम, 7.राम, 8.श्रीकृष्ण, 9.बुद्ध और 10.कल्कि) में एक मात्र शेष दसवाँ और अन्तिम कल्कि अवतार, महाअवतार क्यों कहलायेगें इसे समझना आवश्यक है।
सभी अवतार अपने शारीरिक-आर्थिक-मानसिंक कर्म द्वारा ही पहचाने जाते हैं। किसी मनुष्य या सिंद्ध पुरूष-गुरू के अन्दर इतनी दृष्टि क्षमता किसी भी युग में नहीं रही कि वे देखते ही पहचान लें। प्रत्येक अवतार ने अपना परिचय शारीरिक-आर्थिक-मानसिंक कर्म द्वारा स्वंय दिया है।
वह अवतार जो युग के आवश्यकतानुसार युग परिवर्तन के लिए सत्य-सिद्धान्त व्यक्त करता है उसे अंश युगावतार तथा जो काल सहित युग परिवर्तन के लिए अन्तिम सार्वभौम सत्य-सिद्धान्त व्यक्त करता है वह दृश्य पूर्ण महाअवतार कहलाता है।
सनातन अद्वैत दर्शन के अनुसार यह जगत ही ईश्वर का दृश्य रूप है। ऐसे में सभी ईश्वर हैं। सभी ईश्वर के बहुरूप हैं और सभी में प्रकाशित वही ईश्वरीय सत्ता है। सार्वभौम एकात्म की ओर ले जाने वाले सभी प्रक्षेपित मानक चरित्र सनातन हैं जैसे ब्रह्मा परिवार, विष्णु परिवार और महेश परिवार। इस सार्वभौम एकात्म की ओर विचार व्यक्त करने वाला अर्थात उसी का प्रचार-प्रसार व स्थापना करने वाला युगावतार तो नहीं हो सकता लेकिन वह अवतार अवश्य होता है क्योंकि उसने भी उस सार्वभौम सत्य-सिद्धान्त का साक्षात्कार किया है।
आपने कहा कि-”अवतार उसे माना जाता है जो अपनी इच्छा से शरीर का धारण करते हैं“ यह मान भी लिया जाये तो कैसे सिद्ध होगा कि अपनी इच्छा से कोई शरीर धारण किया है कि नहीं। इसे सिद्ध करने के लिए स्वामी विवेकानन्द जी के इस वाणी से शायद कुछ सहायता प्राप्त हो सकती है-
”फलानुमेयाः प्रारम्भाः संस्कराः प्राक्तना इव“ फल को देखकर ही कार्य का विचार सम्भव है। जैसे कि फल को देखकर पूर्व संस्कार का अनुमान किया जाता है। - स्वामी विवेकानन्द
एक विशेष प्रवृत्ति वाला जीवात्मा ‘योग्य योग्येन युज्यते’ इस नियमानुसार उसी शरीर में जन्म ग्रहण करता है जो उस प्रवृत्ति के प्रकट करने के लिए सबसे उपयुक्त आधार हो। यह पूर्णतया विज्ञान संगत है, क्योंकि विज्ञान कहता है कि प्रवृत्ति या स्वभाव अभ्यास से बनता है और अभ्यास बारम्बार अनुष्ठान का फल है। इस प्रकार एक नवजात बालक की स्वाभाविक प्रवृत्तियों का कारण बताने के लिए पुनः पुनः अनुष्ठित पूर्व कर्मो को मानना आवश्यक हो जाता है और चूंकि वर्तमान जीवन में इस स्वमाव की प्राप्ति नहीं की गयी, इसलिए वह पूर्व जीवन से ही उसे प्राप्त हुआ है। - स्वामी विवेकानन्द
शास्त्र कहते है कि कोई साधक यदि एक जीवन में सफलता प्राप्त करने में असफल होता है तो वह पुनः जन्म लेता है और अपने कार्यो को अधिक सफलता से आगे बढ़ाता है। - स्वामी विवेकानन्द
सार्वभौम सत्य-सिद्धान्त का कोई शरीर नहीं होता, वह अपनी इच्छा से जिस शरीर में अवतरित होता है उसे ही अवतार कहते हैं। और इसको ही स्वयं अपनी इच्छा से शरीर धारण करना कहते हैं। उसका स्थिति के अनुसार रूपान्तरण ही उसे अंशाशावतार, अंशावतार, आवेशावतार, कलावतार, नित्यावतार, युगावतार इत्यादि के रूप में व्यक्त करता है।
साई बाबा ने अपने जीवन काल में कुछ ही व्यक्ति के बीच अपने विचार ”सबका मालिक एक है“ का मंत्र दिया। कुछ व्यक्तियों के लिए व्यक्तिगत प्रमाणित चमत्कृत घटनायें भी हुई होगी। लेकिन इन सबसे उन्हें युगावतार तो नहीं माना जा सकता। संत माना जा सकता है। गुरू भी माना जा सकता है क्योंकि -
भक्त वही, जो भगवान को बेच सके,
चेला वही, जो गुरू से कुछ ले सके,
संत वही, जो समाज को कुछ दे सके,
और
अवतार वही, जो पृथ्वी की आवाज सुन सके।
वर्तमान में साई बाबा को लोग बेच रहे हैं इसलिए भक्त बहुत हैं क्योंकि साई बाबा को विभिन्न प्रकार से बेचने पर उन्हें लाभ हो रहा है। उनके चेले हैं क्योंकि वे बाराबर साई बाबा से प्राप्त कर रहे हैं। साई बाबा ने समाज को ”सबका मालिक एक है“ का मंत्र दिया है-ये सभी को जानना, समझना चाहिए। वे युगावतार नहीं हैं इसलिए कि अगर होते तो अवतारों का कार्य ही समाप्त हो गया होता।
स्वामी जी साईं बाबा ने अपने जीवन काल में कोई समाज, सम्प्रदाय, मत नहीं चलाया जिससे समाज बँट रहा हो। समाज को बाँटने वाले जो अलग-अलग रंग के वस्त्र, भोजन विधि, मंत्र, मत बनाकर जातिवाद से भी घातक समाज बना डाले हैं और अपना खेती-बारी अपने भक्तों से करवा रहें है। उनके बारे में सोचें जो आपका धर्म-कत्र्तव्य है। मेरा तो स्वरूप ही अलग है -
सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड देख चुका हूँ,
अक्षय-अनन्त है मेरी हाला।
कण-कण में हूँ-”मैं ही मैं“,
क्षयी-ससीम है तेरी प्याला ।
जिस भी पथ-पंथ-ग्रन्थ से गुजरेगा तू,
हो जायेगा, बद्ध-मस्त और मत वाला।
”जय ज्ञान-जय कर्मज्ञान“ की आवाज,
सुनाती, मेरी यह अक्षय-अनन्त मधुशाला।
और अब स्थिति तो ये है कि अपने-अपने धर्म शास्त्र-उपनिषद्-पुराण इत्यादि का अध्ययन करें कहीं ऐसा तो नहीं कि-
1. नये मनवन्तर - 8वें सांवर्णि के प्रारम्भ के लिए ”सार्वभौम“ गुण से युक्त होकर मनु का आगमन हो चुका है।
2. नये काल - दृश्य काल के प्रारम्भ के लिए ”सार्वभौम“ गुण से युक्त होकर काल का आगमन हो चुका है।
3. नये युग - स्वर्ण युग के प्रारम्भ के लिए ”सार्वभौम“ गुण से युक्त होकर कल्कि अवतार का आगमन हो चुका है।
4. नये धर्म - विश्वधर्म के प्रारम्भ के लिए ”सार्वभौम“ गुण से युक्त होकर धर्म स्थापक का आगमन हो चुका है।
5. नये शास्त्र - विश्वशास्त्र के प्रारम्भ के लिए ”सार्वभौम“ गुण से युक्त होकर व्यास का आगमन हो चुका है।
यदि ऐसा नहीं तो -
1. तुम्हारे शास्त्रों में दिये वचन और शास्त्र झूठे हो जायेंगे।
2. तुम्हारे भविष्यवक्ताओं की भविष्यवाणीयाँ झूठी हो जायेंगी।
3. तुम्हारे युग और काल गणना झूठे हो जायेंगे।
4. तुम्हारे अवतार-ईशदूत-ईशपुत्र-पुनर्जन्म सिद्धान्त झूठे हो जायेगें।
5. तुम्हारे ईश्वर सम्बन्धी अवधारणा झूठे हो जायेंगे।