Saturday, March 14, 2020

कालजयी, जीवन और व्यर्थ साहित्य

कालजयी, जीवन और व्यर्थ साहित्य
सम्पूर्ण जगत् का सत्य-एकात्म की व्याख्या करने वाला प्रत्येक साहित्य कालजयी साहित्य कहलाता है। जो सत्य ज्ञान, आत्म ज्ञान, एकात्म ज्ञान, ब्रह्माण्डीय एकात्म, मानवीय एकात्म, समभाव की ओर प्रेरित करता है। जबकि सम्पूर्ण जगत् का सैद्धान्तिक सत्य-एकात्म सिद्धान्त की व्याख्या करने वाला प्रत्येक साहित्य जीवन साहित्य कहलाता है। जो सिद्धान्त ज्ञान, एकात्म कर्मज्ञान, ब्रह्माण्डीय कर्मज्ञान, मानवीय एकात्म कर्मज्ञान, एकात्म कर्मभाव की ओर प्रेरित करता है। कालजयी साहित्य अनेक हो सकता है। परन्तु जीवन साहित्य सिर्फ एक ही हो सकता है। जीवन साहित्य कालजयी साहित्य होता है। परन्तु कालजयी साहित्य आवश्यक नहीं कि वह जीवन साहित्य हो। कालजयी का अर्थ है- जो देश काल से मुक्त, सार्वकालिक, सर्वव्यापी, सर्वग्राही, सर्वमान्य, सार्वजनिक हो। जीवन का अर्थ है- जो देश काल से मुक्त, सर्वकालिक, सर्वव्यापी, सर्वग्राही, सर्वमान्य, सार्वजनिक, क्रियाकलाप हो। कालजयी साहित्य का उदाहरण- वेद उपनिषद्, संतो का साहित्य इत्यादि है तो जीवन साहित्य का उदाहरण व्यक्तिगत प्रमाणित गीता तथा सार्वजनिक प्रमाणित कर्मवेदः प्रथम अन्तिम तथा पंचमदेव एवम् आधारित उपनिषद् है इसलिए कर्मवेदीय साहित्य को मात्र कालजयी साहित्य सम्बोधित कर नजर अन्दाज कर देना सत्य नहीं है और न ही उसके सत्य अर्थ को समझना है। ऐसा साहित्य जो न तो कालजयी है और न ही जीवन साहित्य है - व्यर्थ साहित्य या देश काल बद्ध साहित्य कहलाता है। 

प्रत्येक व्यापार एक विशेष विचार पर आधारित होता है। साधारणतया लोग यही सोचते हैं कि ज्ञान की बातों से क्या होगा, परन्तु ज्ञान ही समस्त व्यापार का मूल होता है। किसी विचार पर आधारित होकर आदान-प्रदान का नेतृत्वकर्ता व्यापारी और आदान-प्रदान में शामिल होने वाला ग्राहक होता है। ”रामायण“, ”महाभारत“, ”रामचरितमानस“ इत्यादि किसी विचार पर आधारित होकर ही लिखी गई है। यह वाल्मिीकि, महर्षि व्यास और गोस्वामी तुलसीदास का दुर्भाग्य है कि वे ऐसे समय में जन्म लिये जब काॅपीराइट और रायल्टी जैसी व्यवस्था नहीं थी अन्यथा वे वर्तमान समय के सबसे धनवान व्यक्ति होते। परन्तु इसी को दूरदर्शन पर दिखाकर रामानन्द सागर और बी.आर.चोपड़ा ने इसे सिद्ध किया। ”विश्वशास्त्र“ इसी श्रंृखला की अगली कड़ी है जिसका बाजार विश्वभर में मानव सृष्टि रहने तक है 
- लव कुश सिंह “विश्वमानव”

हे भारत के मानवों, क्या तुम जानते हो भारत में असुरी प्रवृत्तियों के बढ़ने का क्या कारण है? तो सुनो आज के पूर्व जितने विदेशी व देशी स्थूल शरीर धारी सूक्ष्म शरीर भारत को नष्ट-भ्रष्ट कर डालने की अन्तिम इच्छा रखते हुये अपने स्थूल शरीर का त्याग भारत में कर चुके है। उन का सम्पूर्ण मन, अपने मन की पूर्णता के लिए योग्य वातावरण पाकर पुनः स्थूल शरीर धारण कर व्यक्त हो चुके हैं, भले ही वे भारतीय भूमि पर क्यों न जन्म ग्रहण किये हों परन्तु उनमें सूक्ष्म शरीर उन्हीं इच्छाओं को धारण कर व्यक्त है। जो भारत के परतन्त्रता के समय विदेशीयों की थी। यही नहीं उनका प्रभुत्व इस समय इतना बढ़ चुका है। कि वे भारतीय दैवी प्रवृत्त्यिों को भी असुरी प्रवृत्तियों में बदलने में सफलता भी प्राप्त करने लगी हैं। क्योंकि जिनका मन पर नियंत्रण नहीं होता उनका मन वातावरण के अनुसार बदल जाते है। और वर्तमान में सर्वत्र असुरी प्रवृत्ति का ही वातावरण प्रभावी है। इससे बचने का एक मात्र और अन्तिम उपाय है। दैवी प्रवृत्ति का वातावरण निर्माण जो मात्र आध्यात्मिक ज्ञान के प्रसार और प्रभुत्व द्वारा ही सम्भव है।
- लव कुश सिंह “विश्वमानव”

हे अपनी पहचान बनाने के लिए संघर्षरत मानवों, तुम तो अपनी पहचान बनाने का मार्ग भी नहीं जानते। तुम अपनी पहचान का मार्ग बनाने के लिए इस प्रकार मार्गों को पहचानों। पहचान के ये मूल विषय है शारीरिक-निम्नतम, आर्थिक-मध्यम, मानसिक और आध्यात्मिक-सर्वोच्च तथा ऐतिहासिक आध्यात्मिक-अन्तिम एवम् क्रमशः उत्तरोत्तर बढ़ते हुये ये स्तर है- ग्राम या मुहल्ला, विकास क्षेत्र या नगर, अनुमण्डल, जनपद, मण्डल, प्रदेश, देश, विश्व और मध्यस्थ अन्य स्तर। शारीरिक पहचान सबसे कठिन पहचान का मार्ग है। आर्थिक पहचान, शारीरिक से थोड़ा कम कठिन मार्ग है। मानसिक और आध्यात्मिक पहचान सरल मार्ग है तथा ऐतिहासिक आध्यात्मिक पहचान दुर्लभ मार्ग है जो एक युग में एक बार ही आता है। हे मानव, जब ऐतिहासिक आध्यात्मिक दुर्लभ पहचान का मार्ग प्राप्त हो तब तुम किस पहचान के लिए संघर्ष कर रहे हो। तुम्हें इस मार्ग से जुड़कर ही पहचान प्राप्त करना चाहिए क्यांेकि सदा उच्च और व्यापक स्तरीय पहचान ही निम्न और सीमित स्तरीय पहचान को पहचान प्रदान करता है। निम्न और सीमित स्तरीय पहचान सदा उच्च और व्यापक पहचान का माध्याम या साधन होता है। इसलिए हे मानव, तू व्यापक स्तरीय ऐतिहासिक आध्यात्मिक पहचान में अपने निम्न स्तरीय पहचान को विलीन कर उसी भाॅति व्यापक पहचान को प्राप्त कर जिस प्रकार मृत्यु के बाद पुनः जीवन प्राप्त होता है। ऐसा न कर तू तो स्वयं अपनी पहचान खो देगा क्यांेकि जो पहचान व्यक्त अर्थात रेकार्डेड इत्यादि नहीं हो पाता वह तो वैसे ही कुछ समय बाद या तुम्हारी मृत्यु के बाद विलीन हो जाता है। फिर तू किस पहचान की बात करता है?
 - लव कुश सिंह “विश्वमानव”


श्री स्टीफेन हाॅकिंग - ”समय का संक्षिप्त इतिहास“

श्री स्टीफेन हाॅकिंग - ”समय का संक्षिप्त इतिहास“
         
परिचय - वे चल-फिर नहीं पाते लेकिन स्टीफन हाकिंग्स (जिन्हें दूसरा आइन्स्टाइन कहा जाता है) की निगाह रहती है-आकाश गंगा की चाल पर। वे बोल नहीं पाते लेकिन उनकी बातों को जमाना खामोश होकर सुनता है। जी हाँ, ये हैं महान वैज्ञानिक गैलीलियो गैलिली की मौत 8 जनवरी, 1642 के ठीक 300 वर्ष बाद जन्में इस महान वैज्ञानिक को न तो पूरी तरह लकवाग्रस्त शरीर रोक पाता है और न ही खामोश जुबान।
8 जनवरी 1942 को आक्सफोर्ड (इग्लैण्ड) में जन्में हाकिंग्स में बचपन से ही भौतिकी और गणित के कठिन प्रश्नों को असानी से हल करने की क्षमता थी। यही प्रतिभा उन्हें विज्ञान के क्षेत्र में ले गई। आज ब्रह्माण्ड, भौतिकी और गणित में उनका योगदान अतुलनीय है। हाकिंग के जन्म के समय उनके माता-पिता लंदन वासी थे। स्टीफेन हाकिंग के पितामह यार्कशायर के एक धनी किसान थे, मगर बाद में उनकी हालत काफी खस्ता हो गई थी। फिर भी अपने बेटे को अर्थात हाकिंग के पिता फ्रैन्क हाकिंग को चिकित्सा के अध्ययन के लिए आॅक्सफोर्ड भेजा। स्टीफेन की माँ इसोबेल हाकिंग भी सामान्य परिवार से आयीं थीं, मगर उसने भी आॅक्सफोर्ड में शिक्षा पायीं थी। हाॅकिंग के माता-पिता पहले लंदन के उस हाइगेट इलाके में रहते थे जो वैज्ञानिकों और विद्वानों के आवास के लिए प्रसिद्ध था। 
17 वर्ष की उम्र में स्टीफेन ने छात्रवृत्ति की परीक्षा पास करके आॅक्सफोर्ड विश्वविद्यालय में प्रवेश लिया। यहाँ उन्होंने 3 वर्ष तक अध्ययन करके अन्तिम परीक्षा प्रथम श्रेणी में पास की और उसके बाद विश्वोत्पत्ति विज्ञान में शोध कार्य करने के लिए कैम्ब्रिज में दाखिल हुए। आॅक्सफोर्ड के अन्तिम वर्ष में ही स्टीफेन अपने शरीर के विकार को महसूस करना शुरू कर दिया था। हाकिंग्स की जिजीविषा का असली सफर तब शुरू हुआ, जब वह अपने शरीर पर नियंत्रण खो चुके थे। 21 वर्ष की उम्र में ही इम्युट्रोफिक लेटर्नल सीलेरोसिस नामक असाध्य बीमारी ने उन्हें व्हील चेयर पर ला दिया। शरीर ने भले ही उनका साथ छोड़ दिया, लेकिन इच्छाशक्ति बनी रही। हाकिंग्स ने पढ़ाई जारी रखी। 1965 में उन्होंने जेन वाइल्ड से विवाह कर ली और उनके तीन बच्चे हुये। सन् 1974 तक वे खुद अपना भोजन करने और बिस्तर पर लेटने में समर्थ थे। 1980 से 1985 तक उन्हें सुबह-शाम नर्सो की सेवा लेनी पड़ गयी। 
कैम्ब्रिज से पीएच.डी प्राप्त करने के बाद यहाँ उन्होंने कई पदों पर काम किया। सन् 1977 में यहाँ उन्हें गुरूत्वीय भौतिकी का प्राध्यापक बनाया गया और 1979 में गणित का ल्यूकाशियन प्राध्यापक। यह वही प्रख्यात पद है जिसे हाकिंग के पहले आइजेक न्यूटन और पाॅल डिराक जैसे वैज्ञानिकों ने सुशोभित किया था। इस पद पर नियुक्ति के 5 वर्ष पूर्व ही हाकिंग 32 वर्ष की उम्र में लंदन की राॅयल सोसायटी के फैलो चुने गये थे। सन् 1980 में स्टीफेन का अपनी पहली पत्नी जेन से विवाह विच्छेद हो गया। उसके बाद उन्होंने अपनी एक नर्स एलईन से विवाह कर लिया।
हाकिंग्स की ज्यादातर खोजें ब्रह्माण्ड से जुड़े रहस्यों पर आधारित रहीं। ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति और ब्लैक होल जैसे विषयों पर उन्होंने कई प्रयोग किये व सिद्धान्त प्रस्तुत किये। हाकिंग्स की शारीरिक स्थिति जैसे-जैसे खराब होती गई, उनकी बुद्धिजीविता का प्रदर्शन और उपलब्धियों का क्रम बढ़ता गया। बोलने की क्षमता खोने के बाद इलेक्ट्रानिक वाॅइस सेंथेसाइजर की सहायता से उन्होंने ब्रह्माण्ड के रहस्य दुनिया को बताए। हाथ में कलाम उठाये बिना और बिना मुख एक शब्द भी बोले उन्होंने पाँच किताबें लिख दी। लम्बे समय तक हाकिंग की माली हालत भले ही बहुत अच्छी न रही हो मगर अब वे एक सम्पन्न व्यक्ति है। 1998 में आयी उनकी किताब ”ए हिस्ट्री आॅफ टाइम: फ्राम द बिग बैंग टू ब्लैक होल्स“ वर्ष की सबसे ज्यादा बिकने वाली नाॅनफिक्शन किताबों की सूची में शामिल हुई। इसकी 10 लाख से भी ज्यादा प्रतियां बिकीं। जिससे उन्हें बहुत धन मिला। वे अपने व्याख्यान व टेलिविजन शो के लिए 50 हजार से 1 लाख पाउण्ड तक की माँग करते हैं। लेकिन उनके खर्चे भी बहुत अधिक हैं। 
वर्ष 2009 में उन्हें ”प्रेसिडेंसियल मैडल आॅफ फ्रीडम“ से सम्मानित किया गया, जो अमेरिका का सर्वोच्च नागरिक सम्मान है।

”ब्लैक होल (सर्वोच्च गुरूत्वाकर्षण की ब्रह्माण्डीय अति सघन वस्तु) के पी-ब्रेन्स माॅडल में पी-ब्रेन स्थान के तीन आयामों और अन्य सात आयामों में चलती है जिनके बारे में हमें कुछ पता नहीं चलता। यदि हम सभी बलों के एकीकरण का एक सार्वभौम समीकरण विकसित करें तो हम ईश्वर के मस्तिष्क को जान जायेगें क्योंकि हम भविष्य के कार्य का निर्धारण कर सकेगें, और यह मनुष्य के मस्तिष्क के द्वारा सर्वोच्च अविष्कार होगी।“, ”एक प्रभावपरक सिद्धान्त को बहुत ज्यादा इसके शाब्दिक अर्थ में ग्रहण करने से बचा जाना चाहिए“, ”दर्शन शास्त्र के महान परम्परा का अन्त“ (बीसवीं शताब्दी के सबसे बड़े दार्शनिक विटगेंस्टीन के कहे शब्द- दर्शनशास्त्र के लिए एक मात्र शेष कार्य - भाषा का विश्लेषण करना ही बचा है पर वक्तव्य) -प्रो0 स्टीफेन हाकिंग 
”भारत यात्रा पर राष्ट्रीय सहारा, हस्तक्षेप, 27 जनवरी ‘2001 

श्री लव कुश सिंह ”विश्वमानव“ द्वारा स्पष्टीकरण

”भौतिक विज्ञान के वर्तमान ब्रह्माण्ड व्याख्या के अनुसार ब्लैक होल एक तन्त्र या ब्रह्माण्ड के अन्त का प्रतीक है अर्थात् वह एक तन्त्र या ब्रह्माण्ड के प्रारम्भ का भी प्रतीक होगा। इस प्रकार बाह्य अनुभूति से हम पाते है कि एक सिंगुलारिटी (एकलता) है तथा तीन और सात आयाम है।
दर्शन शास्त्र के व्यक्तिगत प्रमाणित मार्गदर्शक दर्शन के अनुसार - दर्शन शास्त्र से व्यक्त भारत के सर्वप्राचीन दर्शनों (बल्कि विश्व के) में से एक और वर्तमान तक अभेद्य सांख्य दर्शन में ब्रह्माण्ड विज्ञान की विस्तृत व्याख्या उपलब्ध है। स्वामी विवेकानन्द जी के व्याख्या के अनुसार- ‘‘प्रथमतः अव्यक्त प्रकृति (अर्थात तीन आयाम- सत, रज, और तम), यह सर्वव्यापी बुद्धितत्व (1. महत्) में परिणत होती है, यह फिर सर्वव्यापी अंहतत्व (2. अहंकार) में और यह परिणाम प्राप्त करके फिर सर्वव्यापी इंद्रियग्राह्य भूत (3. तन्मात्रा- सूक्ष्मभूतः गंध, स्वाद, स्पर्श, दृष्टि, ध्वनि 4. इन्द्रिय ज्ञानः श्रोत, त्वचा, नेत्र, जिह्वा, घ्राण) में परिणत होता है। यही भूत समष्टि इन्द्रिय अथवा केन्द्र समूह (5. मन) और समष्टि सूक्ष्म परमाणु समूह (6. इन्द्रिय-कर्मः वाक, हस्त, पाद, उपस्थ, गुदा) में परिणत होता है। फिर इन सबके मिलने से इस स्थूल जगत प्रपंच (7. स्थूल भूतः आकाश, वायु, अग्नि, जल, पृथ्वी) की उत्पत्ति होती है। सांख्य मत के अनुसार यही सृष्टि का क्रम है और बृहत् ब्रह्माण्ड में जो है-वह व्यष्टि अथवा क्षूद्र ब्रह्माण्ड में भी अवश्य रहेगा। जब साम्यावस्था भंग होती है, तब ये विभिन्न शक्ति समूह विभिन्न रूपों में सम्मिलित होने लगते है और तभी यह ब्रह्माण्ड बहिर्गत होता है। और समय आता है जब वस्तुओं का उसी आदिम साम्यावस्था में फिर से लौटने का उपक्रम चलता है। (अर्थात एक तन्त्र का अन्त) और ऐसा भी समय आता है कि सब जो कुछ भावापन्न है, उस सब का सम्पूर्ण अभाव हो जाता है। (अर्थात सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड का अन्त)। फिर कुछ समय पश्चात् यह अवस्था नष्ट हो जाती है तथा शक्तियों के बाहर की ओर प्रसारित होने का उपक्रम आरम्भ होता है। तथा ब्रह्माण्ड धीरे-धीरे तंरगाकार में बहिर्गत होता है। जगत् की सब गति तरंग के आकार में ही होता है- एक बार उत्थान, फिर पतन। प्रलय और सृष्टि अथवा क्रम संकोच और क्रम विकास (अर्थात एक तन्त्र या सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड का अन्त और आरम्भ) अनन्त काल से चल रहे है।ं अतएव हम जब आदि अथवा आरम्भ की बात करते है तब हम एक कल्प (अर्थात चक्र) आरम्भ की ओर ही लक्ष्य रखते है।’’
उपरोक्त दोनो में एकीकरण करते हुये दर्शन शास्त्र के सार्वजनिक प्रमाणित विकास / विनाश दर्शन के अनुसार - सृष्टि में, सृष्टि का कारण मानक अर्थात आत्मा अर्थात ब्लैक होल से सत्व गुण युक्त मार्गदर्शक दर्शन (Guider Philosophy) से प्रारम्भ होकर स्थिति में रज गुण युक्त क्रियान्वयन दर्शन (Operating Philosophy) से होते हुये प्रलय में तम गुण युक्त विकास / विनाश दर्शन(Destroyer / Development Philosophy) को व्यक्त करता है। जिससे आदान-प्रदान (Transaction), ग्रामीण (Rural), आधुनिकता / अनुकलनता (Advancement/Adaptability), विकास (Development), शिक्षा (Education), प्राकृतिक सत्य (Natural Truth)  व धर्म (Religion)  या एकत्व या केन्द्र व्यक्त होता है।
कोई भी विकास दर्शन अपने अन्दर पुराने सभी दर्शनों को समाहित कर लेता है अर्थात उसका विनाश कर देता है और स्वयं मार्गदर्शक दर्शन का स्थान ले लेता है। अर्थात सृष्टि-स्थिति-प्रलय फिर सृष्टि। चक्रीय रूप में ऐसा सोचने वाला ही नये परिभाषा में आस्तिक और सिर्फ सीधी रेखा में सृष्टि-स्थिति-प्रलय सोचने वाला नास्तिक कहलाता है।
एक सिंगुलारिटी (एकलता) आत्मा है तथा तीन आयाम सत्व, रज और तम है। सात आयाम आदान-प्रदान (Transaction), ग्रामीण (Rural), आधुनिकता / अनुकलनता (Advancement/Adaptability), विकास (Development), शिक्षा (Education), प्राकृतिक सत्य (Natural Truth) व धर्म (Religion)  या एकत्व या केन्द्र है।
कोई भी विकास दर्शन अपने अन्दर पुराने सभी दर्शनों को समाहित कर लेता है अर्थात उसका विनाश कर देता है और स्वयं मार्गदर्शक दर्शन का स्थान ले लेता है। अर्थात सृष्टि-स्थिति-प्रलय फिर सृष्टि। चक्रीय रूप में ऐसा सोचने वाला ही नये परिभाषा में आस्तिक और सिर्फ सीधी रेखा में सृष्टि-स्थिति-प्रलय सोचने वाला नास्तिक कहलाता है।
हिन्दी व्याकरण शब्द विन्यास के अनुसार ब्रह्माण्ड शब्द ब्रह्म + अण्ड से मिलकर बना है। ब्रह्म, ब्रह्मा से सम्बन्धित है। और एकात्म ज्ञान से सम्बन्धित हैं। इसी प्रकार विष्णु, एकात्म कर्म से और शंकर, एकात्म ध्यान से सम्बन्धित हैं। इसी क्रम में उनका अस्त्र ब्रह्मास्त्र, सु-दर्शन और पशुपास्त्र है अर्थात क्रमशः ज्ञान का अस्त्र, अच्छे विचार का अस्त्र और सार्वभौम सत्य-सिद्धान्त का अस्त्र है। इस प्रकार ब्रह्माण्ड का अर्थ ज्ञान के अण्डे से है। ब्रह्म के साथ अण्ड जोड़ने के पीछे ये रहस्य था कि ज्ञान का प्रारम्भ और अन्त एक चक्र है जैसे क्रिया-कारण, जन्म-मृत्यु-जन्म। अर्थात एक चक्र या गोला। ब्रह्माण्ड के सभी ग्रह-तारे सब गोल रूप में हैं। यह ब्रह्माण्ड, ईश्वर की दृश्य कृति हैं जो उससे निकला है और इसमें वह स्वयं है। जिस प्रकार यह ”विश्वशास्त्र“ श्री लव कुश सिंह ”विश्वमानव“ से निकला है और इसमें वे स्वयं है। यह ब्रह्माण्ड, ज्ञान का अण्डा हैं, अनन्त है, इसका कोई निश्चित आकार और सीमा नहीं हैं, यह एक बड़े वट वृक्ष के समान है। बस, कुछ नहीं।
यह ब्रह्माण्ड, ईश्वर का दृश्य रूप है। इसमें क्रियाशील सार्वभौम सत्य-सिद्धान्त उसके मस्तिष्क का कर्मज्ञान और प्रबन्ध प्रणाली है। मन का विश्वमानक शून्य श्रृंखला उसी का मानवीय व्यवस्था द्वारा व्यावहारिकरण के लिए रूपान्तरण है। ये एक प्रभावपरक सिद्धान्त है। मानवीय समाज में अधिकतर लोग ”शब्दार्थ“ को नहीं बल्कि ”शब्द“ को पकड़ बैठे हैं। ईश्वर के सम्बन्ध में वैदिक साहित्य ने ”ब्रह्म“ या ”आत्मा“, गीता ने ”मैं“, पुराण ने ”शिव“, कपिल मुनि ने ”कारण“, संतों ने ”एक“, हिन्दुओं ने ”ईश्वर“, सिखों ने ”वाहे गुरू“, इस्लाम ने ”अल्ला“, ईसाई ने ”यीशु“ इत्यादि कहा। इसे ही पूर्ण, धर्म, ज्ञान, सम, सार्वभौम, चैतन्य, केन्द्र, GOD, सत्य, अद्वैत, सर्वव्यापी, अनश्वर, अजन्मा, शाश्वत, सनातन इत्यादि भी कहा गया है। इन शब्दों के यथार्थ सत्य के वर्तमान प्रचलित शब्द में CENTRE कहा जा रहा है जो एक समष्टि शब्द है। जो शब्द किसी मानव समूह से सम्बन्धित हो जाये, उसे व्यष्टि शब्द कहते हैं। इसी प्रकार यह ब्रह्माण्ड एक अनन्त व्यापार केन्द्र या क्षेत्र (TRADE CENTRE or TRADE AREA) के रूप में है जहाँ प्रत्येक क्षण व्यापार या आदान-प्रदान (TRADE or TRANSACTION) चल रहा है और यह स्थिर नहीं है। इस प्रकार ब्रह्माण्ड के लिए समष्टि शब्द के रूप में TRADE CENTRE शब्द उपयोग किया जा सकता है।

श्री बिल गेट्स - ”बिजनेस @ द स्पीड आॅफ थाॅट

श्री बिल गेट्स  -  ”बिजनेस @ द स्पीड आॅफ थाॅट
      
परिचय -
विलियम हेनरी गेट्स-।।। का जन्म 28 अक्टुबर, 1955 ई0 को सिएटल, वाॅशिग्टन में विलियम एच. के यहाँ हुआ था। उनका परिवार धनी था। उनके पिता एक प्रमुख वकील थे, उनकी माँ प्रथम इन्टरस्टेट बैंक सिस्टम और यूनाइटेड वे के निदेशक मण्डल में सेवारत थीं, और उनकी पिता जे. डब्ल्यू मैक्सवेल एक राष्ट्रीय बैंक के अध्यक्ष थे। गेट्स की एक बड़ी बहन, क्रिस्टी और एक छोटी बहन लिब्बी हैं, वे अपने परिवार में सम नाम के चैथे व्यक्ति थे, लेकिन विलियम गेट्स - ।।। या ”ट्रे“ के नाम से जाने जाते थे क्योंकि उनके पिता ने अपने नामांत में ।।। जोड़ना छोड़ दिया था। उनके जीवन के प्रारम्भिक काल में उनके माता - पिता के मन में उनके लिए कानून का कैरियर था। वह 13 वर्ष की उम्र में लेकसाइड स्कूल नामक विद्यालय में भर्ती हुए। जब वे आठवीं कक्षा में थे, विद्यालय के मदर क्लब ने लेकसाइड स्कूल के रद्दी सामानों से प्राप्ति का उपयोग विद्यालय के छात्रों के लिए एक ए.एस.आर.-33 टेलिटाइप टर्मिनल तथा जनरल इलेक्ट्रिक कम्प्यूटर पर एक कम्प्यूटर खरीदने के लिए किया। गेट्स ने इस कम्प्यूटर पर बेसिक में सिस्टम प्रोग्रामिंग में रूचि दिखाई और उनकी इस रूचि के लिए गणित की कक्षाओं से छूट दी गई। उन्होंने अपना पहला कम्प्यूटर प्रोग्राम इस मशीन पर लिखा जो था टिक-टैक-टो का कार्यान्वयन और उपयोगकर्ता को कम्प्यूटर से खेल खेलने का अवसर प्रदान करता था।
गेट्स की शादी फ्रांसीसी मेलिंडा के साथ डलास, टेक्सास में जून 1, 1994 को हुआ। उनके तीन बच्चे हैं - जेनिफर कैथेराइन गेट्स (1996), रोरी जाँन गेट्स (1999) एवं फोएबे अदेले गेट्स (2002)। बिल गेट्स का घर लेक वाॅशिंगटन की ओर झाँकती हुई एक पहाड़ी के पास है। किंग काउंटी के अनुसार वर्ष 2006 में इस सम्पत्ति का सार्वजनिक मूल्यांकन 1250 लाख डाॅलर और वार्षिक सम्पत्ति कर 991 हजार डाॅलर है। इसके आलावा गेट्स के नीजी संग्रह में लियोनार्दो दा विन्ची द्वारा लिखित कोडेक्स लेस्टर, जो गेट्स ने वर्ष 1994 की एक निलामी में 308 लाख डाॅलर में खरीदी थी। गेट्स एक गहरे अध्ययनकारी के रूप में भी जाने जाते हैं। उनके घर में एक विशाल पुस्तकालय भी है। 
गेट्स ”फोब्र्स 400“ सूची में 1993 से लगातार 2007 तक और फोब्र्स के ”विश्व के सबसे अमीर लोग“ की सूची में 1995 से 2007 तक नम्बर एक पर रहे। संक्षेप में वर्ष 1999 में गेट्स की सम्पत्ति 101 अरब डाॅलर पार कर गया, जिससे खबरों में उनका नाम ”सेंटीबिलेनायर“ में आ गया। सन् 2000 से, डाॅट काॅम बुलबुले के फटने से माइक्रोसाफ्ट के शेयर की कीमत में गिरावट के बाद तथा कई अरब डाॅलर अपने दातव्य संस्थानों में दान करने से उनके माइक्रोसाफ्ट होल्डिंग्स के अंकित मूल्य में कमी आयी है। मई 2006 के एक साक्षात्कार में गेट्स ने टिप्पणी की कि उनकी यह कामना नहीं रही कि वे विश्व में सबसे धनी व्यक्ति बनें क्योंकि इस प्रकार नजरों पर चढ़ना उन्हें नापसंद है। गेट्स का माइक्रोसाफ्ट से बाहर कई निवेश हैं जिससे उन्हें वर्ष 2006 में वेतन के मद में 6,16,667 डाॅलर और बोनस के मद में 3,50,000 डाॅलर, कुल 9,66,667 डाॅलर का भुगतान मिला। उन्होंने 1989 में एक डिजीटल इमेंिजंग कम्पनी कोर्बिस की स्थापना की। 2004 में वे उनके पुराने मित्र वाॅरेन बुफे के नेतृत्व वाले एक निवेशक कम्पनी बर्कशायर हैथवे में निदेशक बनें। वे कास्केड इन्वेस्टमेन्ट समूह, जो एक विविध होल्डिंग वाला धन प्रबन्धन फर्म है, के ग्राहक हैं।
विलियम हेनरी गेट्स - ।।। , जिन्होंने पाॅल एलेन के साथ साॅफ्टवेयर कम्पनी माइक्रोसाफ्ट की स्थापना की, के अध्यक्ष, एक परोपकारी एवं प्रभावशाली व्यवसायी तथा विश्व में तीसरा धनवान व्यक्ति (सन् 2008 के अनुसार) हैं। गेट्स अपने कैरियर के दौरान माइक्रोसाफ्ट में सी.ई.ओ़ एवं मुख्य साफ्टवेयर वास्तुकार पदों पर रहे तथा उसकी साधारण पूंजी के 9 प्रतिशत से अधिक की हिस्सेदारी लेकर सबसे बड़े व्यक्तिगत शेयरधारक हैं। वे कई पुस्तकों के लेखक या सह-लेखक भी रहे। गेट्स निजि कम्प्यूटर क्रान्ति के सबसे बड़े प्रसिद्ध उद्यमियों में से रहे, यद्यपि बहुतों ने उनकी प्रशंसा की, बड़ी संख्या में उद्योग जगत के अंदरूनी व्यक्तियों ने उनके व्यवसाय रणनीति, जो उनके नजरों में प्रतिस्पर्धी विरोधी हैं और कुछ मामलों में अदालतों द्वारा भी वैध ठहराये गये हैं, की आलोचना की। अपने कैरियर के बाद के चरणों में, गेट्स के सन् 2000 में स्थापित बिल और मेलिंडा गेट्स संस्थान के माध्यम से, विभिन्न दातव्य संगठनों और वैज्ञानिक अनुसंधान कार्यक्रमों में बड़ी मात्रा में दान करने के कई लोकोपकारी प्रयास रहे हैं। बिल गेट्स ने जनवरी 2000 में माइक्रोसाफ्ट के मुख्य कार्यकारी अधिकारी का पद छोड़ दिया। वे अध्यक्ष एवं मुख्य साफ्टवेयर वास्तुकार के पद पर बने रहे। जून 2006 में गेट्स ने घोषणा की कि वह माइक्रोसाफ्ट में पूर्णकालिक कार्यावधि में परिवर्तन कर, माइक्रोसाफ्ट में अंशकालिक कार्य और बिल एंड मेलिंडा गेट्स फाउण्डेशन में पूर्णकालिक कार्य करेगें। वे अपने कत्र्तव्यों को क्रमशः रे ओज्जी (मुख्य वास्तुकार) और क्रेग मुडी (मुख्य अनुसंधान सह योजना अधिकारी) के बीच तबादला कर करते गये। 27 जून, 2009 गेट्स के लिए माइक्रोसाफ्ट में अन्तिम पूर्ण दिवस था। वे माइक्रोसाफ्ट में अंशकालिक अकार्यकारी अध्यक्ष के रूप में रहते हैं।
जनता की यह अभिमत तीव्रतर होने पर कि वे अपने धन में से और अधिक दान कर सकते थे, गेट्स महसूस करने लगे कि अन्य लोगों की उनसे क्या अपेक्षाएँ थी, गेट्स ने ऐंड्रू कार्नेगी और जाॅन डी. राॅकफेलर के कार्यो पर अध्ययन किया। राकफेलर और अपनी माइक्रोसाफ्ट के कुछ शेयरों को 1994 में विलियम एच. गेट्स फाउण्डेशन बनाने के लिए बेच डाला। वर्ष 2000 में गेट्स और उनकी पत्नी ने तीन पारिवारिक संस्थानों को संयुक्त कर बिल एवं मेलिंडा गेट्स फाउण्डेशन के नाम से एक दातव्य संस्थान (चेरिटेबल फाउण्डेशन) बनाया, जो कि विश्व में सबसे बड़ी पारदर्शी तरीके से संचालित दातव्य संस्थान है। अन्य प्रमुख दातव्य संस्थानों जैसे वेलकम ट्रस्ट से भिन्न, स्थापित संस्थान अपने पृष्ठपोशकों को यह जानकारी प्राप्त करने की अनुमति देती है कि मुद्रा किस प्रकार खर्च किया जा रहा है। यह डेविड राॅकफेलर की उदारता और परोपकारधर्मिता का एक विशेष प्रभाव माना गया। गेट्स और उनके पिता, राॅकफेलर के साथ कई बार मिले और अपने विभिन्न दानकार्यो को राॅकफेलर परिवार के परोपकारिता आधारित कार्यो के ढांचे पर, जैसे कि विश्व के उन समस्याओं पर जिन्हें सरकारों और अन्य संस्थाओं द्वारा नजरअंदाज किया जाता है, संगठित किया। और कृषिकार्य, कम प्रतिनिधित्व वाले अल्पसंख्यक समुदायों के लिए कालेज छात्रवृत्तियाँ, ऐड्स निवारण, तीसरी दुनिया के देशों में फैले रोग और अन्य कारण जैसे मदो में कोष प्रदान किये गये।
वर्ष 2000 में, गेट्स फाउण्डेशन ने कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय को 210 मिलियन डाॅलर गेट्स कैम्ब्रिज स्कालरशिप प्रदान करने के लिए समर्पित किया। फाउण्डेशन ने 1 बिलियन डाॅलर संयुक्त निग्रो कालेज कोष सहित 7 बिलियन डाॅलर से ज्यादा की राशि विभिन्न उद्देश्यों के लिए देने का संकल्प लिया। वर्ष 2004 में फोब्र्स पत्रिका में प्रकाशित एक लेख के अनुसार वर्ष 2000 से अबतक गेट्स ने 29 बिलियन डाॅलर से अधिक राशि दातव्य कार्यो के लिए प्रदान कर चुका है। ये दानराशियाँ अक्सर अधिक अमीरों के नजरिया में उद्दीपक तथा पर्याप्त परोपकारी बदलाव के तौर पर उधृत की जाती है जिससे परोपकार कार्य आधार बनते नजर आते हैं। 
वाॅरेन बुफे, जो कि दुनिया के समृद्ध व्यक्तियों में दूसरे थे, ने 25 जून, 2006 को घोषणा की कि उन्होंने फाउण्डेशन को कई वर्षो में 10 मिलियन डाॅलर देने का संकल्प किया है। गेट्स ने 15 जून, 2006 को घोषणा की कि माइक्रोसाफ्ट में उनकी अंशकालिक भूमिका रहेगी, और जुलाई 2008 से दैनिक परिचालन प्रबन्धन कार्य छोड़कर, परन्तु अध्यक्ष एवं सलाहकार के रूप में बने रहने के साथ, परोपकार में पूर्ण कालिक भूमिका निभायेंगे। गेट्स ने उनके दातव्य उद्देश्यों में योगदान के लिए लिये गये निर्णयों को प्रभावित करने का श्रेय वाॅरेन बुफे को दिया। कुछ दिनों बाद वाॅरेन बुफे ने घोषणा की कि वे गेट्स फाउण्डेशन में गेट्स के बराबर 1.5 बिलियन डाॅलर तक प्रति वर्ष शेयर के माध्यम से योगदान प्रारम्भ करेंगे। 
टाइम पत्रिका ने गेट्स का उल्लेख उन 100 लोगों में, जिन्होंने 20वीं सदी को सबसे अधिक प्रभावित किया तथा साथ ही साथ उन 100 लोगों में जो 2004, 2005 एवं 2006 में सबसे अधिक प्रभावशाली व्यक्ति रहे, में किया। टाइम सामूहिक रूप से भी गेट्स उनकी पत्नी मेलिंडा और वैकल्पिक राॅक बैंड यू-2 के प्रमुख गायक बोनो को 2005 में उनके मानवीय प्रयासों के लिए, वर्ष के चर्चित व्यक्तियों में किया। वर्ष 2006 में हीरोज आॅफ आवर टाइम की सूची में उनका आंकलन 8वें नम्बर पर किया गया। टाइम ने 1998 में टाॅप 50 साइबर एलिट में एक नम्बर का दर्जा दिया। इत्यादि अनेक पुरस्कार व पदक से गेट्स सम्मानित किये जा चुके हैं। गेट्स 2 पुस्तकों के लेखक रहें- 1. आगे की योजना (The Road Ahead-1975) और 2. बिजनेस @ द स्पीड आॅफ थाॅट (Business @ the speed of thought-1999)

श्री लव कुश सिंह ”विश्वमानव“ द्वारा स्पष्टीकरण
मनुष्य शरीर, प्रकृति के अदृश्य एकीकृत सार्वभौम सत्य-सिद्धान्त को प्रकृति के दृश्य एकीकृत सार्वभौम सत्य-सिद्धान्त में परिवर्तित करने का माध्यम मात्र है। मनुष्य एक स्वतंत्र इकाई नहीं बल्कि एक स्वायत्तशासी शरीर (अन्तः चक्र) है जो प्रकृति (बाह्य अन्तिम चक्र) के लिए समर्पित है क्योंकि अन्ततः उसका शरीर व विचार, प्राकृतिक बल व सिद्धान्त द्वारा आसानी से हार जाता है।
मनुष्य का शरीर इसी प्रकृति के पदार्थो से निर्मित है इसलिए प्रकृति के प्रत्येक वस्तु से वह प्रभावित होता है और उसके रोग ग्रस्त होने पर सभी उपाय इसी प्रकृति के वस्तुओं में ही उपलब्ध है। प्रत्येक वस्तु में औषधि है इसलिए औषधि के आविष्कार को मैं अधिक महत्व नहीं देता। क्योंकि मैं जानता हूँ कि स्त्री हो या पुरूष सभी को सार्वभौम आत्मा से जुड़कर हृदय और बुद्धि के तल पर ही जीना चाहिए। शरीर और आवश्यकता के तल पर जीने से भोग ही होता है, समभोग नहीं। सार्वभौम आत्मा से जुड़कर हृदय और बुद्धि के तल पर जीने से शरीर की स्वस्थता और दीर्घायु भी प्राप्त होती है। प्रकृति से जितना दूर भागेगें, उतना ही औषधि की जरूरत आयेगी। प्राकृतिक रहें -स्वस्थ रहें।  हिन्दू धर्म शास्त्रो में सृष्टि के प्रारम्भ के सम्बन्ध में कहा गया है कि- ”ईश्वर ने इच्छा व्यक्त की कि मैं एक हूँ, अनेक हो जाऊँ“। इस प्रकार जब वही ईश्वर सभी में है तब निश्चित रूप से जब तक सभी मानव ईश्वर नहीं हो जाते तब तक दुनिया के अन्त होने का कोई प्रश्न ही नहीं उठता और विकास क्रम चलता रहेगा। मानव, ईश्वर निर्मित उसका प्रतिरूप है। इसलिए मनुष्य का लक्ष्य ”पावर और प्राफिट (शक्ति और धन लाभ)“ नहीं, बल्कि मस्तिस्क का सर्वोच्च विकास है।
मेरी दृष्टि में विज्ञान ने मनुष्य जीवन में सबसे बड़ा आविष्कार ”माइक्रोप्रोसेसर“ का किया है। क्योंकि वह मनुष्य के मस्तिष्क का प्रतिरूप है। इस मस्तिष्क रूपी ”माइक्रोप्रोसेसर“ में अंग जोड़े जाते हैं जिससे वह कम्प्यूटर या रोबोट (मशीनी मनुष्य) बनता है। कम्प्यूटर भी जब रोग ग्रस्त होता है तो वह भी उन्हीं वस्तु से औषधि पाता है जिससे वह बना है। मनुष्य भी एक प्रणाली है और कम्प्यूटर भी एक प्रणाली है। जिस प्रकार मनुष्य के शरीर में अंग जोड़ देने से वह काम करना शुरू नहीं करता उसी प्रकार कम्प्यूटर में मानीटर, प्रिंटर, स्कैनर इत्यादि जोड़ देने से वह काम नहीं करता। मनुष्य शरीर में यह तन्त्रिका तन्त्र (Nurvous System) है तो कम्प्यूटर में यह चालक साफ्टवेयर (Driver Software) हैं जिसे आपने अपनी पुस्तक बिजनेस @ द स्पीड आॅफ थाॅट (Business @ the speed of thought-1999) में (Digital Nurvous System) नाम दिया है। मनुष्य जिससे चलता है वह भी साफ्टवेयर (Software) ही है जिसे विचार-सि़द्धान्त कहते हैं। साफ्टवेयर भी नहीं दिखता और विचार-सि़द्धान्त भी नहीं दिखते।
मनुष्य निर्मित हार्डवेयर ”माइक्रोप्रोसेसर“ युक्त कम्प्यूटर को आपरेटिंग मोड में लाने के लिए उसमें दो प्रकार के मेमोरी हैं, एक रीड ओनली मेमोरी (Read Only Memory-ROM) जिसकी उपयोगिता है केवल पढ़ने के लिए। ये ”माइक्रोप्रोसेसर“ निर्माता द्वारा पहले से ही ”माइक्रोप्रोसेसर“ में ही होता है। दूसरा रैण्डम एक्सेस मेमोरी (Random  Access Memory-RAM) जिसकी उपयोगिता है कहीं से पढ़ने और लिखने के लिए। ये आपरेटिंग सिस्टम (Operating System) अर्थात परिचालन प्रणाली, साफ्टवेयर निर्माता द्वारा दिया जाता है। कम्प्यूटर जब आॅन किया जाता है तब पहले RAM के साफ्टवेयर के अनुसार स्वयं को तैयार करता है फिर ROM से आपरेटिंग सिस्टम (Operating System) अर्थात परिचालन प्रणाली के अनुसार स्वयं को तैयार कर वह काम करने के लिए तैयार हो जाता है। ये आपरेटिंग सिस्टम (Operating System) कईं प्रकार के हैं जिसमें अधिक प्रयोग किया जाने वाला एक आपका (Micro Soft) आपरेटिंग सिस्टम (Operating System) है जो पहले डिस्क आपरेटिंग सिस्टम (Disk Operating System) के रूप में आया फिर Windows के रूप में सामने है। इन आपरेटिंग सिस्टम (Operating System) के कईं संस्करण (Version) आपकी ओर से आये। प्रत्येक बार अधिक सुविधाओं और अधिक कम्प्यूटर अंगों के जोड़ने के लिए डिजिटल तन्त्रिका तन्त्र (Digital Nurvous System) सहित कार्य को आसान बनाने की सुविधा के साथ। आपरेटिंग सिस्टम (Operating System) कईं आये लेकिन जो अधिक सुविधाजनक, व्यावहारिक और अधिक कम्प्यूटरों तक पहुँच बना सकी, उसमें से एक Windows Operating System, जिसका Windows-10 संस्करण (Version) अभी तक का वर्तमान है।
ईश्वर निर्मित हार्डवेयर ”मस्तिष्क“ युक्त मनुष्य को आपरेटिंग मोड में लाने के लिए उसमें भी दो प्रकार के मेमोरी हैं, एक रीड ओनली मेमोरी (Read Only Memory-ROM) जिसकी उपयोगिता है केवल पढ़ने के लिए। ये ”मस्तिष्क“ निर्माता द्वारा पहले से ही ”मस्तिष्क“ में ही होता है। दूसरा रैण्डम एक्सेस मेमोरी (Random Access Memory-RAM) जिसकी उपयोगिता है कहीं से पढ़ने और लिखने के लिए। ये आपरेटिंग सिस्टम (Operating System) अर्थात परिचालन प्रणाली, विचार-सि़द्धान्त निर्माता (अवतार, संत, गुरू, माता-पिता, मित्र, सहयोगी, दल, संगठन इत्यादि) द्वारा दिया जाता है। मनुष्य जब सोये से जागता है तब पहले RAM के साफ्टवेयर के अनुसार स्वयं को तैयार करता है फिर ROM से आपरेटिंग सिस्टम (Operating System) अर्थात परिचालन प्रणाली जैसा उसके मस्तिष्क में डाला गया है, के अनुसार स्वयं को तैयार कर वह काम करने के लिए तैयार हो जाता है। ये आपरेटिंग सिस्टम (Operating System) कईं प्रकार के हैं जिसमें अधिक प्रयोग किया जाने वाला ”पावर और प्राफिट (शक्ति और धन लाभ)” वाला विचार-सिद्धान्त है।
जिस प्रकार डिजिटल तन्त्रिका तन्त्र (Digital Nurvous System) से सभी कम्प्यूटर प्रणाली कार्यशील हैं और इन्टरनेट से कम्प्यूटर-मोबाइल जुड़े हुये हैं उसी प्रकार विचार-सि़द्धान्त से सभी मनुष्य जुड़े हुए हैं। दानों ही प्रकार में बहुत से लोग इस ज्ञान से युक्त होकर संचालन कर रहें हैं या संचालित हैं और बहुत से लोग बिना ज्ञान के केवल संचालन कर रहें हैं या संचालित हैं।
जिस प्रकार कम्प्यूटर के संचालन के लिए आपरेटिंग सिस्टम के कईं संस्करण (Version) आये, उसी प्रकार मनुष्य के संचालन के लिए आपरेटिंग सिस्टम के कईं संस्करण (Version) आये। जिस प्रकार कम्प्यूटर के संचालन के लिए आपरेटिंग सिस्टम के कईं संस्करण (Version) आने का कारण उसे अधिक पूर्ण बनाना था उसी प्रकार मनुष्य के संचालन के लिए आपरेटिंग सिस्टम के कईं संस्करण (Version) आने का कारण उसे अधिक पूर्ण बनाना था। बस दोनों में अन्तर यह है कि कम्प्यूटर के संचालन के लिए नया आपरेटिंग सिस्टम संस्करण (Version) आने पर लोग अपने कम्प्यूटर को आधुनिक/अनुकूल (Advance/Adapt) करने में कोई संकोच नहीं करते वहीं मनुष्य के संचालन के लिए नया आपरेटिंग सिस्टम संस्करण (Version) आने पर लोग अपने मस्तिष्क को आधुनिक/अनुकूल (Advance/Adapt) नहीं बनाते बल्कि जो जिस  आपरेटिंग सिस्टम में उसके निर्माता द्वारा फँसाया गया है वो वहीं पड़ा है और वो वहीं हैं इस उम्मीद में कि वह पूरी तरह, पूरी सुविधाओं के साथ काम करेगा और उसके अनुसार परिणाम देगा।
मनुष्य को अधिक पूर्ण बनाने और संचालन के लिए अवतार द्वारा आये मुख्य आपरेटिंग सिस्टम (Avatar’s Operating System- AOS) संस्करण (Version) इस प्रकार हैं-
मानव-1 (AOS : Human-1)
मुख्य-गुण सिद्धान्त - इसमें धारा के विपरीत दिशा (राधा) में गति करने का विचार-सिद्धान्त मानव मस्तिष्क में डाला गया।
मानव-2 (AOS : Human-2)
मुख्य-गुण सिद्धान्त - इसमें सहनशील, शांत, धैर्यवान, लगनशील, दोनों पक्षांे के बीच मध्यस्थ की भूमिका वाला गुण (समन्वय का सिद्धान्त) का विचार-सिद्धान्त मानव मस्तिष्क में डाला गया।
मानव-3 (AOS : Human-3)
मुख्य-गुण सिद्धान्त - इसमें सूझ-बुझ, सम्पन्न, पुरूषार्थी, धीर-गम्भीर, निष्कामी, बलिष्ठ, सक्रिय, शाकाहारी, अहिंसक और समूह प्रेमी, लोगों का मनोबल बढ़ाना, उत्साहित और सक्रिय करने वाला गुण (प्रेरणा का सिद्धान्त) का विचार-सिद्धान्त मानव मस्तिष्क में डाला गया।
मानव-4 (AOS : Human-4)
मुख्य-गुण सिद्धान्त - प्रत्यक्ष रूप से एका-एक लक्ष्य को पूर्ण करने वाले (लक्ष्य के लिए त्वरित कार्यवाही का सिद्धान्त) का विचार-सिद्धान्त मानव मस्तिष्क में डाला गया।
मानव-5 (AOS : Human-5)
मुख्य-गुण सिद्धान्त - भविष्य दृष्टा, राजा के गुण का प्रयोग करना, थोड़ी सी भूमि पर गणराज्य व्यवस्था की स्थापना व व्यवस्था को जिवित करना, उसके सुख से प्रजा को परिचित कराने वाले गुण (समाज का सिद्धान्त) का विचार-सिद्धान्त मानव मस्तिष्क में डाला गया।
मानव-6 (AOS : Human-6)
मुख्य-गुण सिद्धान्त - गणराज्य व्यवस्था को ब्रह्माण्ड में व्याप्त व्यवस्था सिद्धान्तों को आधार बनाने वाले गुण और व्यवस्था के प्रसार के लिए योग्य व्यक्ति को नियुक्त करने वाले गुण (लोकतन्त्र का सिद्धान्त और उसके प्रसार के लिए योग्य उत्तराधिकारी नियुक्त करने का सिद्धान्त) का विचार-सिद्धान्त मानव मस्तिष्क में डाला गया।
मानव-7 (AOS : Human-7)
मुख्य-गुण सिद्धान्त - आदर्श चरित्र के गुण के साथ प्रसार करने वाला गुण (व्यक्तिगत आदर्श चरित्र के आधार पर विचार प्रसार का सिद्धान्त) का विचार-सिद्धान्त मानव मस्तिष्क में डाला गया।
मानव-8 (AOS : Human-8)
मुख्य-गुण सिद्धान्त - आदर्श सामाजिक व्यक्ति चरित्र के गुण, समाज मंे व्याप्त अनेक मत-मतान्तर व विचारों के समन्वय और एकीकरण से सत्य-विचार के प्रेरक ज्ञान को निकालने वाले गुण (सामाजिक आदर्श व्यक्ति का सिद्धान्त और व्यक्ति से उठकर विचार आधारित व्यक्ति निर्माण का सिद्धान्त) का विचार-सिद्धान्त मानव मस्तिष्क में डाला गया।
मानव-9 (AOS : Human-9)
मुख्य-गुण सिद्धान्त - प्रजा को प्रेरित करने के लिए धर्म, संघ और बुद्धि के शरण में जाने का गुण (धर्म, संघ और बुद्धि का सिद्धान्त) का विचार-सिद्धान्त मानव मस्तिष्क में डाला गया।
मानव-10 (AOS : Human-10)
मुख्य-गुण सिद्धान्त - आदर्श मानक सामाजिक व्यक्ति चरित्र समाहित आदर्श मानक वैश्विक व्यक्ति चरित्र अर्थात सार्वजनिक प्रमाणित आदर्श मानक वैश्विक व्यक्ति चरित्र का विचार-सिद्धान्त मानव मस्तिष्क में डालने का मानव-10 (AOS : Human-10)  संस्करण (Version) अभी तक का वर्तमान है और वो अन्तिम संस्करण भी है।
उपरोक्त मुख्य मूल संस्करण के उपरान्त अनेक अन्य मनुष्यों (संत, गुरू, माता-पिता, मित्र, सहयोगी, दल, संगठन इत्यादि) द्वारा मनुष्य के संचालन के लिए नया आपरेटिंग सिस्टम संस्करण आते गये और मनुष्य उससे संचालित होते गये। परन्तु उन्हें पता ही नहीं चल पा रहा कि कौन सा संस्करण उनके लिए उपयोगी है।
जैसे आपके आपरेटिंग सिस्टम (Operating System) में अनके सुविधाएँ हैं उसी प्रकार मानव-10 (AOS : Human-10) संस्करण में भी अनेक सुविधाएँ जैसे - काटना (Cut), चिपकाना (Paste), नकल बनाना (Copy), रद्द करना (Delete), सुधारना (Edit), नाम बदलना (Rename), रचना करना (Create), भेजना (Send), पढ़ना (Read), लिखना (Write), वाइरस (Virus), एण्टी-वाइरस (Anti-Virus) इत्यादि हैं।
जिस प्रकार एक रोबोट, वैसे ही रोबोट का निर्माण कर सकता है जैसा कि उसमें साफ्टवेयर डाला गया है उसी प्रकार एक मनुष्य, मनुष्य, वैसे ही मनुष्य का निर्माण कर सकता है जैसा कि उसमें साफ्टवेयर (विचार-सिद्धान्त) डाला गया है। 
कुछ भी हो साफ्टवेयर में जितनी अधिक सुविधा, उतना ही वह परिणाम देने में सक्षम। सब कुछ ”माइक्रोप्रोसेसर/मस्तिष्क“ के साफ्टवेयर पर ही निर्भर होता है। और साफ्टवेयर उतना ही उच्च स्तर का बन सकता है जितना विचार का विस्तार होता है। जितना विचार का विस्तार होता है वह उतना ही व्यापारिक लाभ दे सकता है। जिसके जीवन्त उदाहरण आप हैं। 
मनुष्य के संचालन के लिए नया आपरेटिंग सिस्टम मानव-10 (AOS : Human-10) संस्करण ही ”विश्वशास्त्र” है। आपके आपरेटिंग सिस्टम साफ्टवेयर से कम्प्यूटर चलता है। मेरे आपरेटिंग सिस्टम मानव-10 (AOS : Human-10) संस्करण से मनुष्य और उसके संगठन चलेंगे। यही योजना है।


श्री मनु शर्मा - ”कृष्ण की आत्मकथा“

श्री मनु शर्मा  -  ”कृष्ण की आत्मकथा“
  
परिचय -
सन् 1928 की शरत् पूर्णिमा को अकबरपुर (अब अम्बेडकर नगर), फैजाबाद (उ0प्र0) में जन्में श्री हनुमान प्रसाद शर्मा जो लेखन जगत् में ”मनु शर्मा“ के नाम से विख्यात है। लगभग डेढ़ दर्जन उपन्यास, दो सौ कहानियों और कविताओं के प्रणेता श्री मनु शर्मा की साहित्य साधना हिन्दी की किसी खेमेबंदी से दूर, अपनी ही बनाई पगडंडी पर इस विश्वास के साथ चलती रही है कि ”आज नहीं तो कल, कल नहीं तो परसों, परसों नहीं तो बरसों बाद मैं डाइनासोर के जिवाश्म की तरह पढ़ा जाऊँगा।“
गोरखपुर विश्वविद्यालय द्वारा डी.लिट. की मानद उपाधि और उत्तर प्रदेश हिन्दी समिति द्वारा ”साहित्य भूषण“ सहित अनेक सम्मानों और पुरस्कारों से विभूषित श्री मनु शर्मा ने साहित्य की लगभग सभी विधाओं में लिखा है, पर कथा आपकी मुख्य विधा है। ”तीन प्रश्न“, ”मरीचिका“, ”के बोले माँ तुमि अबले“, ”विवशिता“ एवं ”लक्षण रेखा“ आपके प्रसिद्ध उपन्यास हैं। ”पोस्टर उखड़ गया“ सामाजिक कहानियों का संग्रह है। ”मुंशी नवनीतलाल“ और अन्य कहानियों में सामाजिक विकृतियों तथा विसंगतियों पर कटाक्ष करनेवाले तीखे व्यंग हैं। ”द्रोपदी की आत्मकथा“, ”अभिशप्त कथा“, ”कृष्ण की आत्म कथा“ (आठ भागों में), ”द्रोण की आत्मकथा“, ”कर्ण की आत्मकथा“ और ”गान्धारी की आत्मकथा“ आपकी आश्चर्यजनक यथार्थ रोचक कृति है जहाँ चमत्कारी कम यथार्थ के धरातल पर सबकुछ घटित होता हुआ दिखता है।
यहाँ प्रस्तुत है आपके ”कृष्ण की आत्मकथा“ का परिचय एवं प्रत्येक खण्ड के कुछ अंश।
परिचय - कृष्ण के अनगिनत आयाम (डायमेन्सन) हैं। दूसरे उपन्यासों में कृष्ण के किसी विशिष्ट आयाम को लिया गया है। किन्तु आठ खण्डों में विभक्त इस औपन्यासिक श्रृंखला में कृष्ण को उनकी सम्पूर्णता और समग्रता में उकेरने का सफल प्रयास किया गया है। किसी भी भाषा में कृष्णचरित को लेकर इतने विशाल और प्रशस्त कैनवस का प्रयोग नहीं किया गया है। यथार्थ कहा जाये तो ”कृष्ण की आत्मकथा“ एक उपनिषदीय ग्रन्थ है। श्रृंखला के आठ खण्ड इस प्रकार है। 1. नारद की भविष्यवाणी 2. दुरभिसंधि 3. द्वारका की स्थापना 4. लाक्षागृह 5. खंाडव दाह 6. राजसूय यज्ञ 7. संघर्ष 8. प्रलय।
1. ”नारद की भविष्यवाणी“ के कुछ अंश 
”युद्धस्थल में मोहग्रस्त एवं भ्रमित अर्जुन से ही मैंने नहीं कहा था कि तुम निमित्त मात्र हो वरन् इस पुस्तक के लेखक से भी कहा हूँ कि तुम निमित्त मात्र हो, कत्र्ता तो मैं हूँ।... अन्यथा तुम आज की आँखों से उस अतीत को कैसे देख सकोगे, जिसे मैंने भोगा है? उस संत्रास का कैसे अनुभव करोगे, जिसे मेरे युग ने झेला है? उस मथुरा को कैसे समझ सकोगे, जो मेरे अस्तित्व की रक्षा के लिए नट की डोर की तनाव पर केवल एक पैर से चली है?.... और दुःखी ब्रज के उस प्रेमोन्माद का तुम्हें क्या आभास लगेगा, जो मेरे वियोग में आकाश के जलते चंद्र को आँचल में छिपाकर करील के कुंजो में विरहाग्नि बिखेर रहा था?“
2. ”दुरभिसंधि“ के कुछ अंश 
”मेरी अस्मिता दौड़ती रही। नियति की अँगुली पकड़कर आगे बढ़ती गई-उस क्षितिज की ओर, जहाँ धरती और आकाश मिलते हैं। नियति भी मुझे उसी ओर संकेत करती रही, पर मुझे आजतक वह स्थान नहीं मिला और शायद नहीं मिलेगा। फिर भी मैं दौड़ता ही रहूँगा, क्योंकि यही मेरा कर्म है। मैंने युद्ध में मोहग्रस्त अर्जुन से यह नहीं कहा था, अपितु जीवन में बारम्बार स्वयं से भी कहता रहा हूँ-”कर्मण्येवाधिकारस्ते“।
वस्तुतः क्षितिज मेरा गन्तव्य नहीं, मेरे गन्तव्य का आदर्श है। आदर्श कभी पाया नहीं जाता। यदि पा लिया जाता तो वह आदर्श नहीं। इसलिए न पाने की निश्चिन्तता के साथ भी कर्म में अटल आस्था ही मुझे दौड़ाये लिये जा रही है। यही मेरे जीवन की कला है। इसे लोग ’लीला’ भी कह सकते है, क्योंकि वे मुझे भगवान मानते हैं।.... और भगवान का कर्म ही तो लीला है।“
3. ”द्वारका की स्थापना“ के कुछ अंश 
”मैंने जीवन भर कभी तर्क में विश्वास नहीं किया, क्योंकि तर्क अपने विरूद्ध स्वयं खड़ा हो जाता है। वह मानव बुद्धि का परम चतुर किंतु आदर्शहीन शिशु है। उसका जन्म भी उस समय हुआ था जब सत्य और झूठ की पहली लड़ाई हुई थी। तब से वह झूठ का ही प्रवक्ता रहा है। कभी-कभी वह सत्य के पक्ष में भी खड़ा हो जाता है। केवल इसलिए कि वह सत्य से प्रतिष्ठा पाता है और झूठ से जीवन रस।
वस्तुतः सत्य को उसकी आवश्यकता भी नहीं है। सत्य तो स्वयं भासित है, स्वयं प्रमाण है। कभी-कभी वह बादलों के घेरे में आ जाता है, तब हम उसे छिपता हुआ देखते हैं। वास्तव में वह हमारा बुद्धि भ्रम है। बादलों के छँटते ही उसकी ज्योति अपने स्थान पर स्वतः चमकती दिखाई देने लगती है।“
4. ”लाक्षागृह“ के कुछ अंश 
”मैं नियति के तेज वाहन पर सवार था। सब कुछ मुझसे पीछे छुटता जा रहा था। वृन्दावन और मथुरा, राधा और कुब्जा- सब कुछ मार्ग के वृक्ष के तरह छूट गये थे। केवल उनकी स्मृतियाँ मेरे मन से लिपटी रह गई थी। कभी-कभी वर्तमान की धूल उन्हें ऐसा घेर लेती है कि वे उनसे निकल नहीं पाती थी। मैं अतीत से कटा हुआ केवल वर्तमान का भोक्ता रह जाता।
माना कि भविष्य कुछ भी नहीं; वह वर्तमान की कल्पना है, मेरी आकांक्षाओं का चित्र है- और यह वह है, जिसे मैंने अभी तक पाया नहीं है, इसलिए उसे मैं एक आदर्श मानता हूँ। आदर्श कभी पाया नहीं जाता। जब तक मैं उसके निकट पहुँचता हूँ, हाथ मारता हूँ तब तक हाथ में आने के पहले झटककर और आगे चला जाता है। एक लुभावनी मरीचिका के पीछे दौड़ना भर रह जाता है।“
5. ”खंाडव दाह“ के कुछ अंश
”जीवन को मैंने उसकी समग्रता में जीया है। न लोभ को छोड़ा; न मोह को; न काम को; न क्रोध को; न मद को; न मत्सर को। शास्त्रो में जिसके लिए वर्जना थी, वे भी मेरे लिए वर्जित नहीं रहे। सब वंशी की तरह मेरे साथ लगे रहे। यदि इन्हें भी छोड़ देता तो जीवन एकांगी हो जाता। तब मैं यह नहीं कह पाता कि करील की कुंजो में रास रचाने वाला मैं ही हूँ और व्रज के जंगलो में गायें चराने वाला मैं ही हूँ। चाणूर आदि का वधक मैं ही हूँ और कलिय नाग का नाथक भी मैं ही हूँ। मेरी एक मुठ्ठी में योग है और दूसरी में भोग। मैं रथी भी हूँ और सारथि भी। अर्जुन के मोह में मैं ही था और उसकी मोह मुक्ति में भी मैं ही था।
जब मेघ दहाड़ते रहे, यमुना हाहाकार करती रही ओर तांडव करती प्रकृति की विभिषिका किसी को कँपा देने के लिए काफी थी, तब भी मैं अपने पूज्य पिता की गोद में किलकारी भरता रहा। तब से नियति न मुझ पर सदय रही, न पूरी तरह निर्दय। मेरे निकट आया हर वर्ष एक संघर्ष के साथ था।“
6. ”राजसूय यज्ञ“ के कुछ अंश
”मेरी मनुजात की वास्तविकता पर जब चमत्कारों का कुहासा छा जाता था तब लोग मुझमें ईश्वरत्व का अनुभव करने लगते हैं। मैं भी अपने में ईश्वरत्व की तलाश में लग जाता हूँ। शिशुपाल के वध के समय भी मेरी मानसिकता कुछ ऐसे ही भ्रम में पड़ गई थी; पर जब उसके रक्त के प्रवाह में मुझे अपना ही रक्त दिखाई पड़ा तब मेरी मानसिकता धुल चुकी थी। उसका अहं अदृश्य हो चुका था। मेरा वह साहस छूट चुका था कि मैं यह कहूँ कि मैने इसे मारा है। मारने वाला तो कोई और ही था। वस्तुतः उसके कर्मो ने ही उसे मारा। वह अपने शापों से मारा गया।
संसार में सारे पापो से मुक्त होने का कोई न कोई प्रायश्चित है; पर जब अपने कर्म ही शापित करते हैं तब उसका कोई प्रायश्चित नहीं। आखिर वह मेरा भाई था। मैं उसे शाप मुक्त भी नहीं करा पाया। मेरा ईश्वरत्व उस समय कितना सारहीन, अस्तित्वहीन, निरूपाय और असमर्थ लगा।“
7. ”संघर्ष के कुछ अंश“ 
”नियति ने मुझ पर हमेशा युद्ध थोपा- जन्म से लेकर जीवन के अन्त तक। यद्यपि मेरी मानसिकता सदा युद्ध विरोधी रही; फिर भी मैंने उन युद्धों का स्वागत किया। उनसे घृणा करते हुये भी मैंने उन्हें गले लगाया। मूलतः मैं युद्धवादी नहीं था। जब से मनुष्य पैदा हुआ तब से युद्ध पैदा हुआ- और शान्ति की ललक भी। यह ललक ही उसके जीवन का सहारा बनी। इस शान्ति की ललक की हरियाली के गर्भ में सोये हुये ज्वाला मुखी की तरह युद्ध सुलगता रहा और बीच-बीच में भड़कता रहा।
लोगों ने मेरे युद्धवादी होने का प्रचार भी किया; पर मैंने कोई परवाह नहीं की, क्योंकि मेरी धारणा थी- और है कि मानव का एक वर्ग वह, जो वैमनस्य और ईष्र्या-द्वेष के वशीभूत होकर घृणा और हिंसा का जाल बुनता रहा - युद्धक है वह, युद्धवादी है वह। पर जो उस जाल को छिन्न-भिन्न करने के लिए तलवार उठाता रहा, वह कदापि युद्धवादी नहीं है।...... और यही जीवन भर मैं करता रहा।“
8. ”प्रलय“ के कुछ अंश
”मुझे देखना हो तो तूफानी सिंघु की उत्ताल तरंगो में देखो। हिमालय के उत्तुंग शिखर पर मेरी शीतलता अनुभव करो। सहस्त्रों सूर्यो का समवेत ताप ही मेरा ताप है। एक साथ सहस्त्रों ज्वालामुखियों का विस्फोट मेरा ही विस्फोट है। शंकर के तृतीय नेत्र की प्रलयकंर ज्वाला मेरी ही ज्वाला है। शिव का तांडव मैं ही हूँ; प्रलय में मैं हूँ; लय में मैं हूँ; विलय में मैं हूँ। प्रलय के वात्याचक्र का नर्तन मेरा ही नर्तन है। जीवन और मृत्यु मेरा ही विवर्तन है। ब्रह्माण्ड में मैं हूँ, ब्रह्माण्ड मुझमें है। संसार की सारी क्रियमाण शक्ति मेरी भुजाओं में है। मेरे पगो की गति धरती की गति है। आप किसे शापित करेगें, मेरे शरीर को? यह तो शापित है ही- बहुतो द्वारा शापित है; और जिस दिन मैंने यह शरीर धारण किया था उसी दिन यह मृत्यु से शापित हो गया था“
”प्रलय“ खण्ड के अन्त में निम्नलिखित अंतिका
आखिरकार इस आत्मकथा का अन्त हो ही गया। जिसका आदि होता है उसका अंत भी होता है; पर जो अनन्त है उसका आदि-अन्त क्या! उस अनन्त को इस आदि अन्त की आत्मकथा में बाँधने का प्रयास वैसा ही है जैसा सिन्धु को एक बड़े पात्र में समेटने का या हिमगिरि को पगों से नापने का अथवा समय को भूत और भविष्य से अलग कर केवल वर्तमान में ही रखने का।
फिर क्या मेरी यह चेष्टा व्यर्थ है? शायद नहीं। सागर भले ही पात्र में न समाए; पर पात्र में जो कुछ होगा, वह सागर का जल ही होगा। हिमगिरि भले ही पगों से न नापा जा सके; पर जो यात्रा होगी, वह हिमगिरि की ही होगी। समय भले ही भूत-भविष्य से अलग न हो सके; पर वर्तमान तो रहेगा ही और वर्तमान को जीने का आनन्द भी।
इस आत्मकथा के पहले भी कथा थी और बाद में भी कथा चलती रहेगी - ”हरि अनन्त हरि कथा अनन्ता“।
यह उपन्यास है, शास्त्र नहीं। फिर भी यदि आपकी मानसिकता इसे या इसके किसी अंश को शास्त्र समझ बैठती है तो भी मुझे प्रसन्नता ही होगी; क्योंकि इसमें जो कुछ है, वह शास्त्र सम्मत ही है। कथा की बनावट, बुनावट तथा रूपाकंन मेरा है; पर सही तो यह है कि मेरे द्वारा किया गया है, कत्र्ता तो कोई और है।
कृष्ण के साथ छाया की तरह लगा छंदक काल्पनिक चरित्र है; जैसे सुदामा और राधा। सुदामा का जिक्र तो ”श्रीमद्भागवत“ मे थोड़ा सा आता है- और कहीं नहीं है; पर राधा तो कहीं दिखाई ही नहीं देती। फिर भी कृष्ण के साथ कैसे आ गई, उनपर इतनी कैसे छा गई- आज भी शोध का विषय है; यद्यपि इसपर शोध हुए हैं और हो रहे हैं।
कृष्ण कथा के अनेक अंश अनेक ग्रन्थों में अनेक तरह से है। किसी विशेष ग्रन्थ में उसकी तलाश करना उचित न होगा। कथाएँ आपस में इतनी उलझी हैं कि उन्हें सुलझाकर एक सूत्र में लाना कठिन है। स्वयं महाभारत में अनेक बातें अनेक स्थलो पर अनेक तरह से कहीं गयी है। उदाहराणार्थ केवल धृतराष्ट्रपुत्रों के नामों की तीन सूचियाँ बनती हैं, जिनमें काफी भिन्नता है।
शायद इन्हीं कारणों से कृष्ण पर अब तक जितनी पुस्तकें आई हैं, उनके रचयिताओं ने कृष्ण की समग्रता को नहीं छुआ है। कोई बाल कृष्ण पर मुग्ध है तो कोई रासबिहारी कृष्ण पर, तो कोई महाभारत के कृष्ण पर। किसी ने कुरूक्षेत्र पर स्वयं को सीमित रखा है तो किसी का मन वृन्दावन में रमा है, तो कोई यशोदा के आँगन में रस लेता रह गया है।
क्या यह छोटे मुँह बड़ी बात होगी, यदि मैं यह कहूँ कि आठ खण्डों की इस आत्मकथा में मैंने समग्र कृष्ण को अपने दृष्टि-पथ में रखा है?


श्री लव कुश सिंह ”विश्वमानव“ द्वारा स्पष्टीकरण
आपकी आठ भागों की कृति ”कृष्ण की आत्मकथा“ सत्य रूप में कथा के माध्यम से शास्त्र ही है। भाग्यवादी और चमत्कार प्रेमियों के मस्तिष्क में भरे कूड़े की सफाई में यह सदैव एसिड (कूड़ों और गन्दगी को जलाने वाला एक रासायनिक द्रव पदार्थ) का काम करता रहेगा। प्रत्येक अवतार-महापुरूष या जीवन में सफल या सफलता प्राप्त कर रहे व्यक्ति का एक ही सूत्र होता है -”कर्मण्येवाधिकारस्ते“। परन्तु निकम्मे भाग्यवादी उनके जीवन से शिक्षा प्राप्त न करके एक पंक्ति में ”किस्मत की बात है, ये सब चमत्कार है“ कहकर स्वयं तो निकम्मे बने ही रहते हैं अन्य को भी शिक्षा दे डालते हैं। 
चमत्कार और भाग्यवादी बाहुल्य भारतीय नागरिक कृष्ण के जीवन में इतने चमत्कार डाल दिये कि उनका सत्य व्यक्तित्व ही खो गया। भारत में चमत्कार आसानी से बिकता है। इसी प्रकार आशीर्वाद भी बिकता है। फटाफट मुझे सब मिल जाये, उसका सरल रास्ता है ये - चमत्कार और आशीर्वाद। 
कृष्ण के जीवन की कथा आपके माध्यम से जो व्यक्त (लिखा) हुआ है वह जीवनभर संघर्षरत एक व्यक्ति की कथा है। उनके जीवन में जिसे लोग चमत्मकार समझते है वह कैसे योजनाबद्ध तरीके से घटीत हुआ, वह बेमिसाल सत्य तरीके से आप द्वारा व्यक्त है। जब व्यक्ति इसे पढ़ता है तो निश्चित ही उसे ऐसा लगता है कि यह मेरी अपनी कथा है। जब तक मानव सृष्टि रहेगी, तब तक यदि मनुष्य स्वयं को समझना चाहेगा तो आपकी आठ भागों की कृति ”कृष्ण की आत्मकथा“ ही उसका मार्गदर्शन करने में पूर्णतया सक्षम है। और यह सदैव पढ़ा जायेगा क्योंकि जहाँ तक ”विश्वशास्त्र“ पहुँचेगा, वहाँ तक आप भी पहुँचेंगे। आखिर ”विश्वशास्त्र“ के व्यक्तकर्ता का ही जीवन है आपकी कृति। परमात्मा को समझने का और उसे मनुष्य शरीर से व्यक्त होने के लिए परमात्मा ने अनेकों मनुष्य जीवन से कृति व्यक्त करवाया है जिनमें से उच्चस्तरीय रूप में आप भी है।
आपने लिखा कि - ”कृष्ण के साथ छाया की तरह लगा छंदक काल्पनिक चरित्र है; जैसे सुदामा और राधा। सुदामा का जिक्र तो ”श्रीमद्भागवत“ मे थोड़ा सा आता है- और कहीं नहीं है; पर राधा तो कहीं दिखाई ही नहीं देती। फिर भी कृष्ण के साथ कैसे आ गई, उनपर इतनी कैसे छा गई- आज भी शोध का विषय है; यद्यपि इसपर शोध हुए हैं और हो रहे हैं।“ 
यहाँ मैं यह व्यक्त करना चाहता हूँ कि - राधा एक विचार है। जिस प्रकार गायत्री मंत्र एक विचार है। भारत माता एक विचार है। इन विचारों को ही आकार देकर साकार मूर्ति में व्यक्त किया गया है। जिस प्रकार गायत्री मंत्र के विचार को पं0 श्री राम शर्मा ने आकार देकर साकार गायत्री की मूर्ति प्रकट किये, जिस प्रकार भारत माता के विचार से स्वामी सत्यमित्रानन्द जी के भारत माता मन्दिर में भारत माता की मूर्ति स्थापित है। उसी प्रकार राधा की मूर्ति भी प्रकट की गई है। 
कृष्ण के जीवन में राधा, उम्र में बड़ी, विवाहित और उनकी प्रेमिका के रूप में दिखाया गया है। अर्थात राधा का जन्म कृष्ण से पहले, वह किसी और की लेकिन कृष्ण को प्रिय दिखाया गया है।
जिस प्रकार प्रत्येक व्यक्ति, पुनर्जन्म अवस्था में ही होता है उसी प्रकार अवतारी श्रृंखला भी अपने पूर्व के अवतार के पुनर्जन्म की अवस्था का ही होता है। विचारों का पुनर्जन्म, पुनर्जन्म तथा सार्वभौम सत्य-सिद्धान्त का पुनर्जन्म, अवतरण कहलाता है। एक ही विचार के दो पुनर्जन्म एक साथ हो सकते हैं उसी प्रकार सार्वभौम सत्य-सिद्धान्त के भी दो पुनर्जन्म (अवतरण) एक साथ हो सकते हैं 
ईश्वर (सार्वभौम सत्य-सिद्धान्त) के प्रथम अवतरण - मत्स्यावतार में धारा के उलट (धा रा - रा धा) चलने से ही मानव सभ्यता का संरक्षण हुआ था। इस प्रकार राधा विचार का जन्म तो प्रथम अवतार के समय ही हो गया था। और श्रीकृष्ण आठवें अवतार थे। अर्थात राधा, श्रीकृष्ण से बड़ी थीं। राधा, मत्स्यावतार से व्यक्त हुईं थी इसलिए उनकी थीं। और धारा से उलट चलने पर ही सृष्टि होती है जो कृष्ण को प्रिय थी। इस सम्बन्ध गाॅव-देहात में एक कहावत है-
लीक-लीक गाड़ी चले, लीक ही चले सपूत।
लीक छोड़ तीन ही चले, शायर, सिंह कपूत।
अर्थात गाड़ी (बैल गाड़ी, रथ, मोटर वाहन) और जिन्हें सपूत (पिता का कार्य सम्भालने वाला) कहा जाता है वे परम्परा वाले रास्ते (धारा) पर चलते हैं अर्थात इन्हें धारा प्रिय होती है। लेकिन शायर (ऋषि, कवि, आविष्कारक, स्थापक), सिंह (शेर) और कपूत (कु-पुत्र) परम्परा के उलट (राधा) में चलते हैं, वे अपना रास्ता स्वयं बनाते हैं। अर्थात इन्हें राधा प्रिय होती है। 
कृष्ण, एक स्थापक थे, इसलिए उन्हें राधा प्रिय थी, उससे ही वे प्रेम करते थे। और जिससे प्रेम किया जाता है उसे जीवन में उतारा नहीं जाता बल्कि वो जीवन की कला के रूप में प्रयोग किया जाता है। जीवन में उतारने से तो मिलन हो जाता है। फिर प्रेम की सर्वोच्च अवस्था वह नहीं रह जाती। प्रेम की सर्वाेच्च अवस्था के सम्बन्ध में स्वामी विवेकानन्द जी की प्रेम योग में व्याख्या है- ”दैवी प्रेम के- (1) शान्त (2) दास्य (3) सख्य (4) वात्सल्य (5) मधुर (6) अवैध (परकीय) छः रूप है। प्रेमान्माद की यही (मधुर प्रेम) चरम अवस्था है। पर सच्चा भगवत्प्रेमी यहां पर भी नहीं रूकता; उसके लिए तो पति और पत्नी की प्रेमोन्मत्तता भी यथेष्ट नहीं। अतएव ऐसे भक्त ‘‘अवैध (परकीय)’’ प्रेम का भाव ग्रहण करते हैं, क्योंकि वह अत्यन्त प्रबल होता है। फिर देखो, उसकी अवैधता उनका लक्ष्य नहीं है। इस प्रेम का स्वभाव ही ऐसा है कि उसे जितनी बाधा मिलती है, वह उतना ही उग्र रूप धारण करता है। पति-पत्नी का प्रेम अबाध रहता है-उसमें किसी प्रकार की विध्नबाधा नहीं आती। इसलिए भक्त कल्पना करता है, मानो कोई स्त्री परपुरुष में आसक्त है और उसके माता, पिता या स्वामी उसके इस प्रेम का विरोध करते हैं।”
श्रीकृष्ण के जीवन में प्रेम के सभी रूप व्यक्त हुए हैं। और प्रेम की सर्वोच्च अवस्था अवैध (परकीय) प्रेम का विचार ”राधा“ की मूर्ति द्वारा वह उनके जीवन में छा गईं। अब वह विचार व्यापारिक रूप लेकर गहराई से व्याप्त हो चुका है। आवश्यकता इसके सही अर्थ को समझना व जीवन में उतारना है। जब कोई विचार-नाम व्यापारिक रूप में परिवर्तित हो जाता है तब उसे लोग समझने में कम, उससे धन लाभ के कारण प्रयोग करते रहते हैं। कृष्ण के बिना मथुरा, वृन्दावन, द्वारिका इत्यादि का क्या अस्तित्व? वैष्णों देवी के बिना कटरा का क्या अस्तित्व? साईं बाबा के बिना शिरडी का क्या अस्तित्व? लव कुश सिंह ”विश्वमानव“ के बिना ”सत्यकाशी“ का क्या अस्तित्व? भगवान श्रीकृष्ण के मथुरा-वृन्दावन को भी लोग उनके जाने के 4000 वर्ष बाद ही जाने जब चैतन्य महाप्रभु का आगमन हुआ और वह ”महाभारत“ शास्त्र साहित्य में लिखा था।


स्वामी अड़गड़ानन्द - ”यथार्थ गीता“

स्वामी अड़गड़ानन्द - ”यथार्थ गीता“
                    

परिचय - स्वामी अड़गड़ानन्द महाराज, श्री परमानन्द परमहंस महाराज के शिष्य हैं। श्री परमानन्द परमहंस महाराज उत्तर प्रदेश के देवरिया जिले के रामकोला गांव के एक साधारण परिवार में सम्वत् विक्रम 1969 (सन् 1911 ई0) में जन्म लिये थे। इनकी माँ का नाम श्रीमती फुलमनी देवी तथा पिता का नाम श्री जगरूप शर्मा था। जब एक प्रख्यात ज्योतिषि ने उनको बाल्यकाल में देखा तो उनकी माँ से कहा कि- जिसे बच्चे को तुमने जन्म दिया है वह या तो एक राजा या एक निपुण गुरू के रूप में जाना जायेगा। यह सुनकर उनकी माँ ने बच्चे को बुरी नजर से बचाने के लिए सिर पर मिर्च और नमक द्वारा क्रिया की। 5 वर्ष की उम्र में जब स्कूल में भेजा गया तब उन्हें एक दिन शिक्षक द्वारा हल्का दण्ड मिलने पर, बच्चा स्कूल से बाहर आकर रोया। तब माँ ने कहा- स्कूल के साथ नरक, मेरा बेटा अब से अध्ययन नहीं करेगा। यह उनकी शिक्षा का आकस्मिक अन्त ही था। श्री श्री 1008 श्री स्वामी परमानन्द परमहंस जी महाराज दिनांक 23 मई, 1969 (ज्येष्ठ शुक्ल सप्तमी, वि0सं0 2026) को महाप्रयाण हो गये।
श्री परमानन्द परमहंस महाराज का परमहंस आश्रम अनुसूईया, चित्रकूट, सतना (मध्य प्रदेश) में स्थित है। यह आश्रम जंगली जानवरों और जंगलों से घिरे हुए स्थान में स्थित था। इस आश्रम की स्थिति ही व्यक्त करता था कि यहाँ कोई महान ऋषि रहते होगें। स्वामी अड़गड़ानन्द जी 23 वर्ष की उम्र में नवम्बर, 1955 में सत्य की खोज में यहाँ आये। अपने गुरू के प्रति अनन्त भक्ति और सत्य की खोज की तीव्रता ने श्री अड़गड़ानन्द जी को सत्य के साक्षात्कार की उपलब्धि करायी। श्री अड़गड़ानन्द महाराज जी की लेखन में कोई रूचि नहीं थी। वे केवल धार्मिक उपदेश व सामाजिक कल्याण के हल का ही उपदेश देते थे। इस पर उनका पहला प्रकाशन ”जीवनादर्श और आत्मानुभूति“ जो अपने गुरू के आध्यात्मिक खोज पर आधारित है, प्रकाशित हुई। यह उनके जीवन के अनुभव और अनेक आश्चर्यजनक घटनाओं का एक संग्रह है। लोगों में से अनेक आज भी हैं जिन्होंने ऐसे अद्वितीय व्यक्तित्व को देखा है और इसके लिए महाराज जी खुद को बहुत भाग्यशाली मानते हैं। महाराज जी अपने गुरू के निकटता और गहरे ध्यान में 15 वर्ष व्यतीत किये। महाराज जी के नाम से ”श्री परमहंस स्वामी अड़गड़ानन्दजी आश्रम ट्रस्ट“ पंजीकृत है जिसका कार्यालय चैपाटी, मुम्बई में स्थित है। ”यथार्थ गीता“ का प्रकाशक यही ट्रस्ट है। महाराज जी का आश्रम चुनार क्षेत्र, मीरजापुर जिला, उत्तर प्रदेश के सक्तेशगढ़ के पास जौगढ़ नामक स्थान पर स्थित एक पुराने किले का नवीनीकरण कर बनाया गया है।

गीता मानव मात्र का धर्म शास्त्र है- वेदव्यास
श्रीकृष्णकालीन महर्षि वेदव्यास से पूर्व कोई भी शास्त्र पुस्तक के रूप में उपलब्ध नहीं था। श्रुतज्ञान की इस परम्परा को तोड़ते हुए उन्होंने चार वेद, ब्रह्मसूत्र, महाभारत, भागवत एवं गीता जैसे ग्रन्थों में पूर्वसंचित भौतिक एवं आध्यात्मिक ज्ञानराशि को संकलित कर अन्त में स्वयं कहा कि-
गीता सुगीता कर्तव्या किमन्यैः शास्त्रविस्तरैः।
या स्वयं पद्य्मनाभस्य मुखपद्य्माद्विनिःसुता।। (महाभारत, भीष्म पर्व, 43.1)
गीता भली प्रकार मनन करके हृदय में धारण करने योग्य है, जो पद्य्मनाभ भगवान के श्रीमुख से निःसृत वाणी है। फिर अन्य शास्त्रों के संग्रह की क्या आवश्यकता? मानव सृष्टि के आदि में भगवान् श्रीकृष्ण के श्रीमुख से निःसृत अविनाशी योग अर्थात् श्रीमद्भगवदगीता, जिसकी विस्तृत व्याख्या वेद और उपनिषद् हैं, विस्मृति आ जाने पर उसी आदिशास्त्र को भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन के प्रति पुनः प्रकाशित किया, जिसकी यथावत् व्याख्या ”यथार्थ गीता“ है।
गीता का सारांश ”गीता माहात्म्य“ के इस श्लोक से प्रकट होता है-
एकं शास्त्रं देवकीपुत्र गीतम्, एको देवो देवकीपुत्र एव।
एको मंत्रस्तस्य नामानि यानि, कर्माप्येकं तस्य देवस्य सेवा।।
अर्थात एक ही शास्त्र है जो देवकीपुत्र भगवान ने श्रीमुख से गायन किया-गीता। एक ही प्राप्त करने योग्य देव है। उस गायन में जो सत्य बताया- आत्मा। सिवाय आत्मा के कुछ भी शाश्वत नहीं है। उस गायन में उन महायोगेश्वर ने क्या जपने के लिए कहा? ओम्। अर्जुन अक्षय परमात्मा का नाम है, उसका जप कर और ध्यान मेरा धर। एक ही कर्म है- गीता में वर्णित परमदेव एक परमात्मा की सेवा। उन्हें श्रद्धा से अपने हृदय में धारण करें। अस्तु, आरम्भ से ही गीता आपका शास्त्र रहा है। भगवान श्रीकृष्ण के हजारों वर्ष पश्चात् परवर्ती जिन महापुरूषों ने एक ईश्वर को सत्य बताया, गीता के ही सन्देश वाहक हैं। ईश्वर से ही लौकिक एवं परलौकिक सुखों की कामना, ईश्वर से डरना, अन्य किसी को ईश्वर न मानना- यहाँ तक तो सभी महापुरूषों ने बताया, किन्तु ईश्वरीय साधना, ईश्वर तक की दूरी तय करना- यह केवल गीता में ही सांगोपांग क्रमबद्ध सुरक्षित है। गीता से सुख-शान्ति तो मिलती ही है, यह अक्षय अनामय पद भी देती है। देखिये श्रीमद्भगवदगीता की टीका - ”यथार्थ गीता“।
यद्यपि विश्व में सर्वत्र गीता का समादर है फिर भी यह किसी मजहब या सम्प्रदाय का सहित्य नहीं बन सकी, क्योंकि सम्प्रदाय किसी न किसी रूढ़ि से जकड़े हैं। भारत में प्रकट हुई गीता विश्व-मनीषा की धरोहर है, अतः इसे राष्ट्रीय शास्त्र का मान देकर ऊँच-नीच, भेदभाव तथा कलह-परम्परा से पीड़ित विश्व की सम्पूर्ण जनता को शान्ति देने का प्रयास करें। (पुस्तक - ”यथार्थ गीता“ से साभार)

”श्रीकृष्ण जिस स्तर की बात करते हैं, क्रमशः चलकर उसी स्तर पर खड़ा होने वाला कोई महापुरूष ही अक्षरशः बता सकेगा कि श्रीकृष्ण ने जिस समय गीता का उपदेश दिया था, उस समय उनके मनोगत भाव क्या थे? मनोगत समस्त भाव कहने में नहीं आते। कुछ तो कहने में आ पाते हैं, कुछ भाव-भंगिमा से व्यक्त होते हैं और शेष पर्याप्त क्रियात्मक हैं-जिन्हें कोई पथिक चलकर ही जान सकता है। जिस स्तर पर श्रीकृष्ण थे, क्रमशः चलकर उसी अवस्था को प्राप्त महापुरूष ही जानता है कि गीता क्या कहती है। वह गीता की पंक्तियाँ ही नहीं दुहराता, बल्कि उनके भावों को भी दर्शा देता है क्योंकि जो दृश्य श्रीकृष्ण के सामने था, वही उस वर्तमान पुरूष के समक्ष भी है। इसलिए वह देखता है, दिखा देगा, आपमें जागृत भी कर देगा, उस पथ पर चला भी देगा। पूज्य श्री परमहंस जी महाराज भी उसी स्तर के महापुरूष थे। उनकी वाणी तथा अन्तः प्रेरणा से मुझे गीता का जो अर्थ मिला, उसी का संकलन यथार्थ गीता है।“ - अड़गड़ानन्द महाराज

गीता राष्ट्रीय साहित्य घोषित हो“
-स्वामी अड़गड़ानन्द, परमहंस आश्रम, सक्तेशगढ़, चुनार क्षेत्र 
(विभिन्न प्रवचनों में बोले गये और अनेकों समाचार पत्र में प्रकाशित शब्द)

श्री लव कुश सिंह ”विश्वमानव“ द्वारा स्पष्टीकरण
यद्यपि कि गीता की व्याख्या अनेकों बार हुई है परन्तु श्री अड़गड़ानन्द महाराज जी द्वारा प्रस्तुत ”यथार्थ गीता“ इस संसार में उपलब्ध गीता के अनेक व्याख्याओं में से सर्वोच्च, अन्तिम, यथार्थ और प्रथम व्याख्या है। 
”निश्चित ही गीता शास्त्र है परन्तु पूर्ण शास्त्र नहीं। गीता में सत्य-ज्ञान है परन्तु कर्म-ज्ञान नहीं। गीता में सत्य-सिद्धान्त है परन्तु सार्वभौम सत्य-सिद्धान्त नहीं। गीता में प्रकृति की व्याख्या है परन्तु ब्रह्माण्ड की व्याख्या नहीं। गीता व्यक्ति (व्यक्तिगत मन) की पूर्णता का शास्त्र है परन्तु समष्टि (संयुक्त मन) की पूर्णता का शास्त्र नहीं। गीता में ज्ञान की परिभाषा है परन्तु ध्यान की परिभाषा नहीं। गीता व्यक्तिगत प्रमाणित है परन्तु सार्वजनिक प्रमाणित नहीं। गीता व्यक्ति को कैसे चलना चाहिए यह आंशिक रुप से बताती है परन्तु व्यक्ति सहित सम्पूर्ण राष्ट्र को पूर्ण रुप से कैसे चलना चाहिए यह नहीं बताती। गीता ज्ञान व सिद्धान्त का बीज शास्त्र है न कि वृक्ष शास्त्र। गीता में योग है परन्तु ध्यान व चेतना नहीें। गीता में दर्शन है परन्तु विकास दर्शन नहीें। गीता में ईश्वर की व्याख्या है परन्तु अवतार की व्याख्या नहीें। गीता चेला बनाने में उपयोगी है परन्तु गुरू बनाने में नहीें। गीता अर्जुन बनाने में उपयोगी है परन्तु कृष्ण बनाने में नहीं। 
महात्मन आदि शंकराचार्य के समय में न तो आज की तरह मोटर वाहन, रेलगाड़ी व हवाई जहाज था न ही मुद्रण व प्रसारण की आधुनिक तकनीकी। फिर भी वे भारत में गीता ज्ञान द्वारा अद्वैत की ज्योति जलाए थे। परन्तु आज सभी कुछ है साथ ही अनेकों गीता के प्रवचन कर्ता व मानस मर्मज्ञ। फिर भी प्रत्येक व्यक्ति अलगाववाद की भाषा तथा पशु की भाँति स्वयं के दायरे से उपर नहीं उठ पा रहा है व्यक्ति की स्थिति की भाँति प्रवचनकर्ता तथाकथित स्वघोषित गुरुओं की भी है। वे शास्त्रों के प्रमाण स्वरुप अवतार को भी नहीं पहचानते जिनके विषय में प्रवचन कर अपनी रोजी-रोटी चला रहे हैं। इसका क्या कारण है? कारण है तो सिर्फ यह कि ज्ञान नाम की वस्तु को व्यवहारिकता से नहीं जोड़ा गया। जिससे व्यक्ति को यह विषय निरर्थक और सिर्फ मान लेने में विश्वास है न कि जान लेने में। ध्यान रहे आस्था के विकास से बुद्धि का विकास नहीं होता और बिना बुद्धि के विकास के कर्म ज्ञान समझ में आना तो असम्भव ही है।
व्यक्तिगत प्रमाणित अदृश्य बिजली और हवा पर हम प्रवचन कितना भी करते रहें वह व्यक्ति को तब तक अनुभव में नहीं आ सकती जब तक की बिजली से प्रकाश और हवा से हिलने और स्पर्श की क्रिया सम्भव न हो। इसी प्रकार आत्मा पर प्रवचन कितना भी क्यों न हो वह तब तक अनुभव में नहीं आ सकती जब तक की व्यक्ति से एकात्म ज्ञान, वाणी, मन, कर्म, प्रेम, ध्यान व समर्पण संयुक्त रुप से व्यक्त न हो। आत्मा के सार्वजनिक प्रमाणित व्यक्त होने के क्रम में ही श्री विष्णु (एकात्म ज्ञान, वाणी, प्रेम व कर्म) के पूर्णावतार श्रीकृष्ण हो चुके हैं। इस प्रकार अब श्री विष्णु समाहित शिवशंकर (एकात्म ध्यान व समर्पण) की आवश्यकता है। तभी पूर्ण शिवत्व की झलक सहित उनके दिव्यरुप पंचमुखी अर्थात् पंचमवेद का रुप व्यक्त होगा। अन्यथा अन्तिम अवतार की उपयोगिता क्या होगी। जबकि आप लोग अवतार को मानते हैं और अन्तिम अवतार आप लोगों की दृष्टि में शेष भी है। 
राष्ट्रीय साहित्य के रुप में स्थापित होने के लिए शास्त्र में गुण का होना आवश्यक है और यह गुण है- व्यक्ति स्तर से ब्रह्माण्ड स्तर को मार्गदर्शन देने की क्षमता। और यह मात्र वहीं है- जो शिवशंकर के पूर्णावतार से व्यक्त है अर्थात्- यह मात्र ”गीता“ समाहित ”विश्वशास्त्र“ है जिसमें व्यक्ति का धर्मयुक्त धर्मशास्त्र कर्मवेदः प्रथम, अन्तिम तथा पंचमवेद और राष्ट्र का धर्मनिरपेक्ष धर्मशास्त्र विश्वमानक-शून्य श्रंृखला है, न कि उपनिषद् समाहित गीता। आप के शब्दों की क्या गलती ? प्रायः व्यक्ति उन्हीं में से सर्वोच्चता का निर्धारण करता है जितनी उसके जानकारी में होती है। परन्तु कमी या तो तब पता चलता है जब तत्व की जानकारी हों।
व्यक्तिगत प्रमाणित विश्वशास्त्र ”गीता“ राष्ट्रीय शास्त्र-साहित्य कभी नहीं हो सकती, एक मात्र धर्म नाम से ”कर्मवेद: प्रथम, अन्तिम तथा पंचमवेद“ अर्थात सर्वधर्मसमभाव या धर्मनिरपेक्ष नाम से मन की गुणवत्ता का विश्व/अन्र्तराष्ट्रीय मानक समाहित सार्वजनिक प्रमाणित ”विश्वशास्त्र“ शास्त्र-साहित्य ही राष्ट्रीय शास्त्र-साहित्य के योग्य है। 
”गीता“ और ”विश्वशास्त्र“ दोनों एक ही शास्त्राकार से व्यक्त हुए शास्त्र आपस में टकरायेगें तो अपने आप दोनों राष्ट्रीय शास्त्र के रूप में स्थापित हो जायेंगे। बस एक व्यक्तिगत प्रमाणित रूप में होगा दूसरा सार्वजनिक प्रमाणि रूप में। बस राम पक्ष और लव-कुश युद्ध की तरह, स्थापित तो दोनों ही हो गये। श्रीराम कथा पहले ही पूर्ण हो चुकी है लव-कुश की अब शुरू हो चुकी है।
”राम सेतू (राम से तू)“ का समाज से सम्बन्ध मात्र आस्था व भावनात्मक है इस रुप में उसकी रक्षा होनी ही चाहिए क्योंकि वह हमारे मूल व अस्तित्व का प्रमाण है। परन्तु वह आम जनता के शारीरिक, आर्थिक व मानसिक विकास के लिए कालानुसार उपयोगी नहीं है। आम जनता के शारीरिक, आर्थिक व मानसिक विकास के लिए कालानुसार उपयोगी “लव कुश सेतू (लव कुश से तू)“ अर्थात सार्वजनिक प्रमाणित ”विश्वशास्त्र“ शास्त्र-साहित्य की स्थापना है। हे भारत यदि तुम वास्तव में अपना विकास चाहता है तो यही एक मात्र मार्ग है। चाहे तो अन्य मार्ग के लिए प्रयत्न करके देख लो, परन्तु अभी तक तो तुम प्रयत्न ही तो कर रहेे थे। हम कोई और नहीं व्यष्टि मन (व्यक्तिगत मन) का समष्टि मन (संयुक्त/विश्व मन) से योग कराने के लिए ही व्यक्त हुए हैं।

महर्षि वेदव्यास का शास्त्र लेखन कला (संक्षिप्त, विस्तार अध्याय-तीन में है) 
मानव सभ्यता के विकास के कालक्रम में कर्म कर अनुभव के ज्ञान सूत्र का संकलन ही वेद के रूप में व्यक्त हुआ जिससे आने वाली पीढ़ी मार्गदर्शन को प्राप्त कर सके और अपना समय बचाते हुए कर्म कर सके। अर्थात प्रत्येक साकार सफल नेतृत्व के साथ उसके अनुभव का निराकार ज्ञान सूत्र के संकलन की समानान्तर प्रक्रिया भी चलती रही। और यह सभी प्रक्रिया मानव जाति के श्रेष्ठतम विकास के लिए ही की जा रही थी। मनुष्य को युगानुसार शास्त्र का अध्ययन करना चाहिए लेकिन समाज पुराने में ही उलझ जाता है इसलिए ही विकास अवरूद्ध होता है। समाज को एकात्म करने के लिए शास्त्र की रचना करना व उसका प्रचार-प्रसार करने वाले व्यास कहलाये। जिनके द्वारा शास्त्र रचना के युगानुसार निम्न चरण पूरे हुए।
1. सार्वभौम आत्मा के ज्ञान द्वारा समाज को एकात्म करने के लिए शास्त्र - वेद 
वेदों को मूलतः सार्वभौम ज्ञान का शास्त्र समझना चाहिए। जिनका मूल उद्देश्य यह बताना था कि ”एक ही सार्वभौम आत्मा के सभी प्रकाश हैं अर्थात बहुरूप में प्रकाशित एक ही सत्ता है। इस प्रकार हम सभी एक ही कुटुम्ब के सदस्य है।“
जब वेद लोंगो के समझ में कम आने लगा या समाज उसी में उलझ गया और उससे समाज को एकात्म करना कठिन होने लगा तब उसके व्याख्या का शास्त्र उपनिषद् की रचना की गई।

2. सार्वभौम आत्मा के नाम द्वारा समाज को एकात्म करने के लिए शास्त्र - उपनिषद् 
उपनिषद्ों की शिक्षा उस सार्वभौम आत्मा के नाम के अर्थ की व्याख्या के माध्यम से उस सार्वभौम आत्मा को समझाना है।
जब उपनिषद् लोंगो के समझ में कम आने लगा या समाज उसी में उलझ गया और उससे समाज को एकात्म करना कठिन होने लगा तब पौराणिक वंशावली में हुए साकार विष्णु कर्तार, कमल कर्तार, ब्रह्मा कर्तार और रूद्र-शिव के निराकार एवं साकार रूप को प्रक्षेपित कर मानक चरित्र (व्यक्तिगत, सामाजिक और वैश्विक) का शास्त्र पुराण की रचना की गई। 

3. सार्वभौम आत्मा के कृति कथा द्वारा समाज को एकात्म करने के लिए शास्त्र - पुराण
पुराण लिखने का मुख्य आधार -
जब उस सार्वभौम आत्मा का ही सब प्रकाश है, तब यह ब्रह्माण्ड ही ईश्वर का दृश्य रूप है। इसलिए पुराण की रचना कई चरणों में हुयी और प्रत्येक चरण की अलग-अलग शिक्षा है। 
प्रथम चरण - इस चरण में पुराण की शिक्षा मूलतः उस सार्वभौम एक आत्मा से ब्रह्माण्ड के विकास को कथा के माध्यम से समझाया गया है।
द्वितीय चरण - इस चरण में पुराण की शिक्षा मूलतः उस सार्वभौम एक आत्मा से सौर मण्डल के विकास को कथा के माध्यम से समझाया गया है।
तृतीय चरण - इस चरण में पुराण की शिक्षा मूलतः उस सार्वभौम एक आत्मा से प्रकृति के विकास को कथा के माध्यम से समझाया गया है।
चतुर्थ चरण - इस चरण में पुराण की शिक्षा मूलतः उस सार्वभौम एक आत्मा से जीवों के विकास को कथा के माध्यम से समझाया गया है।
पंचम चरण - इस चरण में पुराण की शिक्षा मूलतः उस सार्वभौम एक आत्मा से मनुष्य के विकास को कथा के माध्यम से साथ ही मनुष्य को व्यक्तिगत, सामाजिक और वैश्विक मनुष्य तक उठने के उन गुणों को समझाया गया है। जो इस प्रकार हैं-
1. वैश्विक/ब्रह्माण्डिय (मानक वैश्विक चरित्र) मनुष्य के लिए - एकात्म ज्ञान, एकात्म वाणी, एकात्म कर्म, एकात्म प्रेम, एकात्म सर्मपण और एकात्म ध्यान से युक्त जीवन और वस्त्राभूषण का प्रक्षेपण शिव-शंकर परिवार।
2. सामाजिक (मानक सामाजिक चरित्र) मनुष्य के लिए - एकात्म ज्ञान, एकात्म वाणी, एकात्म कर्म, एकात्म प्रेम से युक्त जीवन और वस्त्राभूषण का प्रक्षेपण विष्णु परिवार।
3. व्यक्तिगत (मानक व्यक्ति चरित्र) मनुष्य के लिए - एकात्म ज्ञान, एकात्म वाणी से युक्त जीवन और वस्त्राभूषण का प्रक्षेपण ब्रह्मा परिवार।
जब पुराण लोंगो के समझ में कम आने लगा या समाज उसी में उलझ गया और उससे समाज को एकात्म करना कठिन होने लगा तब मानवीय वंशावली में हुए अनेक विभिन्न प्रकृति-चरित्र के साकार मानव और उनके निराकार एवं साकार रूप को प्रक्षेपित कर प्रकृति-चरित्र (व्यक्तिगत, सामाजिक और वैश्विक) का शास्त्र महाभारत की रचना की गई। 

4. सार्वभौम आत्मा के प्रकृति द्वारा समाज को एकात्म करने के लिए शास्त्र - महाभारत
महाभारत की शिक्षा अपनी प्रकृति में स्थित रहकर व्यक्तिगत प्रमाणित स्वार्थ (लक्ष्य) को प्राप्त करने के अनुसार सम्बन्धों का आधार बनाने की शिक्षा है। गीता कीे शिक्षा - गीता की मूल शिक्षा प्रकृति में व्याप्त मूल तीन सत्व, रज और तम गुण के आधार पर व्यक्त विषयों जिसमें मनुष्य भी शामिल है, की पहचान करने की शिक्षा दी गयी है और उससे मुक्त रहकर कर्म करने को निष्काम कर्मयोग तथा उसमें स्थित रहने को स्थितप्रज्ञ और ईश्वर से साक्षात्कार करने का मार्ग समझाया गया।
जब महाभारत लोंगो के समझ में कम आने लगा या समाज उसी में उलझ गया और उससे समाज को एकात्म करना कठिन होने लगा तब काल, चेतना, कर्मज्ञान एवं सार्वभौम सत्य-सिद्धान्त और मानवी सिद्धान्त के एकीकरण सहित पूर्व के शास्त्र रचना का उद्देश्य का शास्त्र विश्वभारत समाहित विश्वशास्त्र की रचना की गई जिसका मुख्य गुण ”सार्वभौम“ है और महायोग-महामाया का अन्तिम उदाहरण बनाया गया।

5. सार्वभौम आत्मा के काल, चेतना और कर्मज्ञान द्वारा समाज को एकात्म करने के लिए शास्त्र -विश्वशास्त्र: द नाॅलेज आॅफ फाइनल नाॅलेज 
विश्वशास्त्र की शिक्षा, उपरोक्त सभी को समझाना है और पूर्ण सार्वजनिक प्रमाणित काल, चेतना और ज्ञान-कर्मज्ञान से युक्त होकर कर्म करने की शिक्षा है। जिससे भारतीय शास्त्रों की वैश्विक स्वीकारीता स्थापित हो और देवी-देवताओं के उत्पत्ति के उद्देश्य से भटक गये मनुष्य को शास्त्रों के मूल उद्देश्य की मुख्यधारा में लाया जा सके। विश्वभारत कीे शिक्षा - विश्वभारत, विश्वशास्त्र के स्थापना की योजना का शास्त्र है, जो विश्वशास्त्र का ही एक भाग है। विश्वभारत, की शिक्षा अपनी प्रकृति में स्थित रहकर सार्वजनिक प्रमाणित स्वार्थ (लक्ष्य) को प्राप्त करने के अनुसार सम्बन्धों का आधार बनाने की शिक्षा है।
”कल्कि“ अवतार के सम्बन्ध में कहा गया है कि उसका कोई गुरू नहीं होगा, वह स्वयं से प्रकाशित स्वयंभू होगा जिसके बारे में अथर्ववेद, काण्ड 20, सूक्त 115, मंत्र 1 में कहा गया है कि ”ऋषि-वत्स, देवता इन्द्र, छन्द गायत्री। अहमिद्धि पितुष्परि मेधा मृतस्य जग्रभ। अहं सूर्य इवाजिनि।।“ अर्थात ”मैं परम पिता परमात्मा से सत्य ज्ञान की विधि को धारण करता हूँ और मैं तेजस्वी सूर्य के समान प्रकट हुआ हूँ।“ जबकि सबसे प्राचीन वंश स्वायंभुव मनु के पुत्र उत्तानपाद शाखा में ब्रह्मा के 10 मानस पुत्रों में से मन से मरीचि व पत्नी कला के पुत्र कश्यप व पत्नी अदिति के पुत्र आदित्य (सूर्य) की चैथी पत्नी छाया से दो पुत्रों में से एक 8वें मनु - सांवर्णि मनु होगें जिनसे ही वर्तमान मनवन्तर 7वें वैवस्वत मनु की समाप्ति होगी। ध्यान रहे कि 8वें मनु - सांवर्णि मनु, सूर्य पुत्र हैं। अर्थात कल्कि अवतार और 8वें मनु - सांवर्णि मनु दोनों, दो नहीं बल्कि एक ही हैं और सूर्य पुत्र हैं।
”सार्वभौम“ गुण 8वें सांवर्णि मनु का गुण है।  अवतारी श्रृंखला अन्तिम होकर अब मनु और मनवन्तर श्रृंखला के भी बढ़ने का क्रम है क्योंकि यही क्रम है। वैदिक-सनातन-हिन्दू धर्म के पुराणों में 14 मनुओं का वर्णन किया गया है। इन्हीं के नाम से मन्वन्तर चलते हैं। जो निम्नलिखित हैं-
1. मनुर्भरत वंश की प्रियव्रत शाखा 
अ. पौराणिक वंश  
वंश  अवतार काल
01. स्वायंभुव मनु यज्ञ  भूतकाल
02. स्वारचिष मनु विभु भूतकाल
03. उत्तम मनु सत्यसेना भूतकाल
04. तामस मनु हरि भूतकाल
05. रैवत मनु वैकुण्ठ भूतकाल
2. मनुर्भरत वंश की उत्तानपाद शाखा 
06. चाक्षुष मनु अजित भूतकाल
ब. ऐतिहासिक वंश  
07. वैवस्वत मनु वामन वर्तमान
स. भविष्य के वंश
08. सांवर्णि मनु सार्वभौम भविष्य
09. दत्त सावर्णि मनु रिषभ भविष्य
10. ब्रह्म सावर्णि मनु विश्वकसेन          भविष्य
11. धर्म सावर्णि मनु धर्मसेतू  भविष्य
12, रूद्र सावर्णि मनु सुदामा भविष्य
13. दैव सावर्णि मनु योगेश्वर भविष्य
14. इन्द्र सावर्णि मनु वृहद्भानु भविष्य
पहले मनु - स्वायंभुव मनु से 7वें मनु - वैवस्वत मनु तक शारीरिक प्राथमिकता के मनु का कालक्रम हैं। 8वें मनु - सांवर्णि मनु से 14वें और अन्तिम - इन्द्र सांवर्णि मनु तक बौद्धिक प्राथमिकता के मनु का कालक्रम है इसलिए ही 9वें मनु से 14वें मनु तक के नाम के साथ में ”सांवर्णि मनु“ उपनाम की भाँति लगा हुआ है। अर्थात 9वें मनु से 14वें मनु में सार्वभौम गुण विद्यमान रहेगा और बिना ”विश्वशास्त्र“ के उनका प्रकट होना मुश्किल होगा। 
मात्र एक विचार- ”ईश्वर ने इच्छा व्यक्त की कि मैं एक हूँ, अनेक हो जाऊँ“  और ”सभी ईश्वर हैं“ , यह प्रारम्भ और अन्तिम लक्ष्य है। मनुष्य की रचना ”पाॅवर और प्राफिट (शक्ति और लाभ)“ के लिए नहीं बल्कि असीम मस्तिष्क क्षमता के विकास के लिए हुआ है। फलस्वरूप वह स्वयं को ईश्वर रूप में अनुभव कर सके, जहाँ उसे किसी गुरू की आवश्यकता न पड़ें, वह स्वंयभू हो जाये, उसका प्रकाश वह स्वयं हो।  एक गुरू का लक्ष्य भी यही होता है कि शिष्य मार्गदर्शन प्राप्त कर गुरू से आगे निकलकर, गुरू तथा स्वयं अपना नाम और कृति इस संसार में फैलाये, ना कि जीवनभर एक ही कक्षा में (गुरू में) पढ़ता रह जाये। एक ही कक्षा में जीवनभर पढ़ने वाले को समाज क्या नाम देता है, समाज अच्छी प्रकार जानता है। ”विश्वशास्त्र“ से कालक्रम को उसी मुख्यधारा में मोड़ दिया गया है। एक शास्त्राकार, अपने द्वारा व्यक्त किये गये पूर्व के शास्त्र का उद्देश्य और उसकी सीमा तो बता ही सकता है परन्तु व्याख्याकार ऐसा नहीं कर सकता। स्वयं द्वारा व्यक्त शास्त्र के प्रमाण से ही स्वयं को व्यक्त और प्रमाणित करूँगा- शास्त्राकार महर्षि व्यास (वर्तमान में लव कुश सिंह ”विश्वमानव“)
शब्द से सृष्टि की ओर...
सृष्टि से शास्त्र की ओर...
शास्त्र से काशी की ओर...
काशी से सत्यकाशी की ओर...
और सत्यकाशी से अनन्त की ओर...
                  एक अन्तहीन यात्रा...............................
वर्तमान सृष्टि चक्र की स्थिति भी यही हो गयी है कि अब अगले अवतार के मात्र एक विकास के लिए सत्यीकरण से काल, मनवन्तर व मनु, अवतार, व्यास व शास्त्र सभी बदलेगें। इसलिए देश व विश्व के धर्माचार्यें, विद्वानों, ज्योतिषाचार्यों इत्यादि को अपने-अपने शास्त्रों को देखने व समझने की आवश्यकता आ गयी है क्योंकि कहीं श्री लव कुश सिंह ”विश्वमानव“ और ”आध्यात्मिक सत्य“ आधारित कार्य ”विश्वशास्त्र“ वही तो नहीं है? और यदि नहीं तो वह कौन सा कार्य होगा जो इन सबको बदलने वाली घटना को घटित करेगा?
शनिवार, 22 दिसम्बर, 2012 से  प्रारम्भ हो चुका है-
1. काल के प्रथम रूप अदृश्य काल से दूसरे और अन्तिम दृश्य काल का प्रारम्भ।
2. मनवन्तर के वर्तमान 7वें मनवन्तर वैवस्वत मनु से 8वें मनवन्तर सांवर्णि मनु का प्रारम्भ।
3. अवतार के नवें बुद्ध से दसवें और अन्तिम अवतार-कल्कि महावतार का प्रारम्भ।
4. युग के चैथे कलियुग से पाँचवें युग स्वर्ण युग का प्रारम्भ।
5. व्यास और द्वापर युग में आठवें अवतार श्रीकृष्ण द्वारा प्रारम्भ किया गया कार्य “नवसृजन“ के प्रथम भाग ”सार्वभौम ज्ञान“ के शास्त्र ”गीता“ से द्वितीय अन्तिम भाग ”सार्वभौम कर्मज्ञान“, पूर्णज्ञान का पूरक शास्त्र“, लोकतन्त्र का ”धर्मनिरपेक्ष धर्मशास्त्र“ और आम आदमी का ”समाजवादी शास्त्र“ द्वारा व्यवस्था सत्यीकरण और मन के ब्रह्माण्डीयकरण और नये व्यास का प्रारम्भ।
सन् 1997 में जब आपके सक्तेशगढ आश्रम का निर्माण कार्य चल रहा था तब मेरे दो मामा (श्री बैजनाथ सिंह एवं श्री महंगी सिंह, निवासी-बकियाबाद, दोनों चचेरे भाई) ने कहा कि चलों आपके (सक्तेशगढ़ आश्रम) यहाँ चलते हैं। उनके बहुत कहने पर मैं तैयार हुआ शर्त यह थी कि आप लोग ”एक गुरू” के साथ (अर्थात मैं) जा रहें हैं इसलिए आश्रम के किसी भी नियम का पालन नहीं करना है क्योंकि नियम का पालन तो अधीनस्थ करते हैं, यह ध्यान रखेंगे। हम लोग पहुँचे, उस समय आप विश्राम में थे। 4 बजे दोपहर आप बाहर आये, हल्के मुस्कराहट के साथ प्रणाम हुआ। आपके आश्रम के मुख्य आॅगन से मुख्य द्वार के बाहर फव्वारे तक आपके साथ हमलोग चलकर आये। शेष मिलने वाले तो जमीन पर लम्बे धूल में ही लेट जा रहे थे। फव्वारे के पास आपको उस समय उपलब्ध मेरे द्वारा अंग्रेजी में लिखा कुछ सारांश कागजात दिये थे और निवेदन किया कि समय मिले तो देख लिजियेगा। तब आपने कहा था कि ”सब धर्म अंग्रेजी हो गया है।“ फिर हम लोग श्री बलवन्त सिंह (अब स्वर्गवासी, जो मेरे मामा श्री बैजनाथ सिंह से परिचित थे) जो पहले से शायद दोपहर में आपके साथ थे, उनके जीप मोटरगाड़ी से वापस लौट आये। 
स्वामी जी, एक आश्चर्य ये है कि नरायनपुर-जमुई-अहरौरा के त्रिकोण के बीच कभी आपके श्री मुख से प्रवचन का कार्यक्रम होते नहीं देखा, और ना सुना। यहाँ के लोग आपको बुलाते नहीं या आप आना नहीं चाहते? अभी 2 साल पहले आपने बाबतपुर एयरपोर्ट पर कहे थे कि लव कुश से कोई नहीं जीत सकता और हवाई जहाज से निकल गये। यह समाचार, समाचार पत्र में पढ़ा था, उस समय मैं वाराणसी में ही था। 
कहने का कुल तात्पर्य यह है कि किसी भी युग में अवतार, महापुरूष, संत या किसी भी व्यक्ति के गुण को सीधे देखकर पहचानने की क्षमता किसी भी व्यक्ति के अन्दर नहीं रही है। उस व्यक्ति को, स्वयं के अपने गुणों को ज्ञान, कर्म, जीवन के माध्यम द्वारा व्यक्त करना होता है। उसके बाद ही कुछ लोग उन्हें पहचानते हैं और उनके साथ एक-दूसरे के सदुपयोग के लिए साथ आते रहे हैं। प्राचीन समय में यह कार्य बहुत कठिन होता था इसके लिए वे अनेक प्रकार के आयोजन करते थे।
स्वामी जी, ”आकाश शब्द मंय“ अर्थात आकाश शब्द रूप में है। विचार ही आविष्कार का जन्मदाता है। फिर वही व्यापार का मूल होता है। आध्यात्म जगत हो या भौतिक जगत विचार द्वारा ही आविष्कार और व्यापार चल रहे हैं। आविष्कारकों के साथ निम्न विचार अवश्य जुड़ जाते हैं। उनके सत्य अर्थ को जानना आवश्यक है-
1. ”बहुत पहुँचे हुये हैं“ - इसका अर्थ होता है- पहला अन्तर्जगत के सम्बन्ध में - आध्यात्मिक सार्वभौम सत्य-सिद्धान्तों का अनुभव, दूसरा बाह्य जगत के सम्बन्ध में - उच्च पीठासीन राजनेता और धर्माचार्य से सम्बन्ध। जिससे कल्याण व स्वार्थ का कार्य सम्पन्न कर सकें। तीसरा कोई अर्थ नहीं होता।
2. ”दर्शन“ -  इसका अर्थ होता है- पहला अन्तर्जगत के सम्बन्ध में - उनके सम्पूर्ण रूप जीवन, ज्ञान व कर्म को देखना, दूसरा बाह्य जगत के सम्बन्ध में - केवल शरीर, संसाधन और महिमामण्डन को देखना। तीसरा कोई अर्थ नहीं होता। दूसरे प्रकार के दर्शन से दर्शन करने वाले को कोई लाभ नहीं होता।
3. ”आशीर्वाद“ - इसका अर्थ होता है- पहला अन्तर्जगत के सम्बन्ध में - उनसेे अपने कल्याणार्थ शब्द सुनना।, दूसरा बाह्य जगत के सम्बन्ध में - उनसेे अपने कल्याण के लिए कार्य लेना या उनके ज्ञान को अपने कल्याण के लिए जीवन में उपयोग करना। तीसरा कोई अर्थ नहीं होता। पहलेे प्रकार के आशीर्वाद से आशीर्वाद लेने वाले को कोई लाभ नहीं होता।
स्वामी जी, अब दृश्य ईश्वर नाम अंग्रेजी में ही उपलब्ध है जो उस सारांश कागजात में भी लिखा था। फिर मैं कभी आपके आश्रम नहीं गया। 
स्वामी जी, भगवान बुद्ध के ज्ञान प्राप्ति वाले प्रदेश बिहार के जिले बेगूसराय में कूर्म क्षत्रिय जाति में जन्म लिया। श्रीराम, श्रीकृष्ण और शिव की नगरी काशी (वाराणसी) वाले प्रदेश उत्तर प्रदेश के मीरजापुर जिला, विन्ध्य क्षेत्र के भगवान विष्णु के 5वें वामन अवतार के कर्मक्षेत्र चुनार क्षेत्र के ग्राम नियामतपुर कलाँ (काशी चैरासी कोस यात्रा और सत्यकाशी के उभय क्षेत्र में स्थित) का निवासी हूँ। जो काशी (वाराणसी)-सोनभद्र-शिवद्वार-विन्ध्याचल से घिरा है जिसे मैं सत्यकाशी क्षेत्र कहता हूँ क्योंकि इसी क्षेत्र में इस जीवनदायिनी विश्वशास्त्र की अधिकतम रचना हुई। कितना विचित्र संयोग है कि विन्ध्य क्षेत्र से ही भारत का मानक समय निर्धारित होता है और इसी क्षेत्र से ही काल, मनवन्तर, युग, अवतार  और शास्त्र परिवर्तन की घोषणा हो रही है। यह भी विचित्रता ही है कि व्यासजी द्वारा काशी को शाप देने के कारण विश्वेश्वर ने व्यासजी को काशी से निष्कासित कर दिया था और वे गंगा पार आ गये और गंगा पार से ही उनके बाद विश्वशास्त्र रचना हुई है। इस घटना का उल्लेख काशी खण्ड में इस प्रकार है-
लोलार्कादं अग्निदिग्भागे, स्वर्घुनी पूर्वरोधसि। 
स्थितो ह्यद्यापि पश्चेत्सः काशीप्रासाद राजिकाम्।। - स्कन्दपुराण, काशी खण्ड 96/201
महर्षि व्यास द्वारा रचित और श्रीकृष्ण के मुख से व्यक्त गीता के उसी मनस्तर पर स्थित होकर उसकी व्याख्या ”यथार्थ गीता“ से व्यक्त करने वाले आप का सक्तेशगढ़ आश्रम जरगो नदी के उद्गम स्थल पर स्थित है तो द्वापर युग में आठवें अवतार श्रीकृष्ण द्वारा प्रारम्भ किया गया कार्य ”नवसृजन“ के प्रथम भाग ”सार्वभौम ज्ञान“ के शास्त्र ”गीता“ के बाद कलियुग में शनिवार, 22 दिसम्बर, 2012 से काल व युग परिवर्तन कर दृश्य काल व पाँचवें युग का प्रारम्भ, व्यवस्था सत्यीकरण और मन के ब्रह्माण्डीयकरण के लिए दसवें और अन्तिम अवतार-कल्कि महावतार श्री लव कुश सिंह ”विश्वमानव“ द्वारा व्यक्त द्वितीय और अन्तिम भाग ”सार्वभौम कर्मज्ञान“ और ”पूर्णज्ञान का पूरक शास्त्र“, ”विश्वशास्त्र: द नाॅलेज आॅफ फाइनल नाॅलेज“ के व्यक्त करने वाले का निवास ग्राम नियामतपुर कलाँ गंगा-जरगो संगम के पास स्थित है। संत श्री स्वामी अड़गड़ानन्द जी प्रारम्भ हैं तो श्री लव कुश सिंह ”विश्वमानव“ अन्त हैं। ”गीता“ बीज है तो ”विश्वशास्त्र“ वृक्ष है।
स्वामी जी, आप, आपका आश्रम और मैं और मेरे शास्त्र और हमारे जीवन का सम्बन्ध सत्यकाशी क्षेत्र जो काशी (वाराणसी)- सोनभद्र-शिवद्वार-विन्ध्याचल से घिरा है, से है। इस क्षेत्र में ”सत्यकाशी पीठ“ पाँचवें शंकराचार्य पीठ की स्थापना होनी चाहिए। क्योंकि यह क्षेत्र अदृश्य काल के पाँचवें और अन्तिम तथा दृश्य काल के प्रथम और अन्तिम युग स्वर्णयुग का तीर्थ है। आपका आश्रम पाँचवें शंकराचार्य पीठ के पूर्णतः योग्य है।

कहिए
”ऊँ परमात्मने नमः“