Action Plan of New Human, New India, New World based on Universal Unified Truth-Theory. According to new discovery World Standard of Human Resources series i.e. WS-0 Series like ISO-9000, ISO-14000 etc series
गाँधी युगीन स्वतन्त्रता संग्राम के महान प्रहरी, नवीन भारत के निर्माता और देश के प्रथम प्रधानमन्त्री जवाहरलाल नेहरू का जन्म इलाहाबाद (प्रयाग) में मोतीलाल जी के घर 14 नवम्बर, 1889 को हुआ था। नेहरू ने बी.ए. आनर्स एवं कानून की पढ़ाई इंग्लैण्ड में की। 1912 ई. में नेहरू वापस भारत आये और इसी वर्ष बांकीपुर में हुए कांग्रेस के अधिवेशन में पहली बार कांग्रेस के प्रतिनिधि के रूप में हिस्सा लिया। 1921 ई. में उन्हें कांग्रेस का महासचिव बनाया गया। 1929, 1936, 1937 एवं 1951-56 ई. तक वे कांग्रेस के अध्यक्ष पद पर रहे। 1921 ई. में एक किसान आन्दोलन में भाग लेने के कारण नेहरू को लखनऊ में अपने जीवन की प्रथम जेल यात्रा करनी पड़ी, तत्पश्चात् देश के आजाद होने तक उन्हें कुल 9 बार जेल जाना पड़ा, जहाँ उन्होंने कुल 9 वर्ष का समय बिताया। 1930 ई. के नमक सत्याग्रह एवं 30 अक्टुबर, 1940 के व्यक्तिगत सत्याग्रह में नेहरू ने हिस्सा लिया। 1946 ई. में बनी अन्तरिम सरकार में वे प्रधानमन्त्री बनें। भारत के आजाद होने पर भी स्वतन्त्र भारत के प्रथम प्रधानमन्त्री बनने का सौभाग्य जवाहरलाल नेहरू को ही मिला और इस पद पर वे मृत्यु पर्यन्त अर्थात 27 मई, 1964 ई. तक बने रहे। नेहरू के बारे में गाँधी जी ने कहा है कि- ”वे नितान्त उज्जवल हैं और उनकी सच्चाई सन्देह से परे है, राष्ट्र उनके हाथों में सुरक्षित है।“ नेहरू में पूर्ण विश्वास करते हुए गाँधी जी ने यहाँ तक कहा कि नेहरू उनके राजनीतिक उत्तराधिकारी हैं।
गाँधी जी के विचारों के प्रतिकूल नेहरू ने देश में औद्योगिकरण को महत्व देते हुए भारी उद्योगों की स्थापना को प्रोत्साहन दिया। विज्ञान के विकास के लिए 1947 ई. में नेहरू ने ”भारतीय विज्ञान कांग्रेस“ की स्थापना की। उन्होंने कई बार भारतीय विज्ञान कांग्रेस के अध्यक्ष पद से भाषण दिया। भारत के विभिन्न भागों में स्थापित वैज्ञानिक व औद्योगिक अनुसंधान परिषद् के अनेक केन्द्र इस क्षेत्र में उनकी दूरदर्शिता के स्पष्ट प्रतीक हैं। खेलों में नेहरू की व्यक्तिगत रूचि थी। उन्होंने खेलों को शारीरिक व मानसिक विकास के लिए आवश्यक बताया। वे एक देश से दूसरे देश से मधुर सम्बन्ध कायम करने के लिए 1951 ई. में दिल्ली में प्रथम एशियाई खेलों का आयोजन करवाया। समाजवादी विचारधारा से प्रभावित नेहरू ने भारत में लोकतान्त्रिक समाजवाद की स्थापना का लक्ष्य रखा। उन्होंने आर्थिक योजना की आवश्यकता पर बल दिया। वे 1938 ई. में कांग्रेस द्वारा नियोजित ”राष्ट्रीय योजना समिति“ के अध्यक्ष भी थे। स्वतन्त्रता पश्चात् वे राष्ट्रीय योजना आयोग के प्रधान बनें। नेहरू ने साम्प्रदायिकता का विरोध करते हुए धर्मनिरपेक्षता पर बल दिया। उनके व्यक्तिगत प्रयास से ही भारत को एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र घोषित किया गया।
जवाहरलाल नेहरू ने भारत को तत्कालीन विश्व की दो महान शक्तियों का पिछलग्गू न बनाकर तटस्थता की नीति का पालन किया। नेहरू ने निर्गुटता एवं पंचशील जैसे सिद्धान्तों का पालन कर विश्व-बन्धुत्व एवं विश्व शान्ति को प्रोत्साहन दिया। नेहरू ने पूंजीवाद, साम्राज्यवाद, जातिवाद एवं उपनिवेशवाद के खिलाफ जीवनपर्यन्त संघर्ष किया। अपने कैदी जीवन में नेहरू ने ”डिस्कवरी आॅफ इण्डिया“, ”ग्लिम्पसेज आॅफ वल्र्ड हिस्ट्री“ एवं ”मेरी कहानी“ नामक पुस्तकों की रचना की।
”यदि हम संसार का मार्ग ग्रहण करेंगे और संसार को और अधिक विभाजित करेंगे तो शान्ति, सहिष्णुता और स्वतन्त्रता के अपने उद्देश्य में सफल नहीं हो सकते। यदि हम इस युद्ध- विक्षिप्त दुनियाँ को शान्ति और सत्य का प्रकाश दिखाएं तो सम्भव है कि हम संसार में कोई अच्छा परिवर्तन कर सकें। लोकतन्त्र से मेरा मतलब समस्याओं को शान्तिपूर्वक हल करने से है। अगर हम समस्याओं को शान्तिपूर्वक हल नहीं कर पाते तो इसका मतलब है कि लोकतन्त्र को अपनाने में हम असफल रहें हैं।“ - पं0 जवाहर लाल नेहरु
”हम अपनी योजनाओं को सक्रिय रुप से क्रियान्वित करंे, इसके लिए मानकों का होना अत्यन्त आवश्यक है तथा यह जरुरी है कि मानकों के निर्धारण व पालन हेतु प्रयत्नशील रहें।“- पं0 जवाहर लाल नेहरु
इनके नाम को बेचने वालों के समक्ष इनकी दिशा से शेष कार्य यह है कि दुनिया को शान्ति और सत्य का प्रकाश दिखाने के लिए सत्य का प्रसार करें तथा समस्याओं को शान्तिपूर्वक हल करना सीखें।
श्री लव कुश सिंह ”विश्वमानव“ द्वारा स्पष्टीकरण
वर्तमान समय के भारत तथा विश्व की इच्छा शान्ति का बहुआयामी विचार-अन्तरिक्ष, पाताल, पृथ्वी और सारे चराचर जगत में एकात्म भाव उत्पन्न कर अभय का साम्राज्य पैदा करना और समस्याओं के हल में इसकी मूल उपयोगिता है। साथ ही विश्व में एक धर्म- विश्वधर्म-सार्वभौम धर्म, एक शिक्षा-विश्व शिक्षा, एक न्याय व्यवस्था, एक अर्थव्यवस्था, एक संविधान, एक शास्त्र स्थापित करने में है। भारत के लिए यह अधिक लाभकारी है क्योंकि यहाँ सांस्कृतिक विविधता है। जिससे सभी धर्म-संस्कृति को सम्मान देते हुए एक सूत्र में बाँधने के लिए सर्वमान्य धर्म उपलब्ध हो जायेगा। साथ ही संविधान, शिक्षा व शिक्षा प्रणाली व विषय आधारित विवाद को उसके सत्य-सैद्धान्तिक स्वरूप से हमेशा के लिए समाप्त किया जा सकता है। साथ ही पूर्ण मानव निर्माण की तकनीकी से संकीर्ण मानसिकता से व्यक्ति को उठाकर व्यापक मानसिकता युक्त व्यक्ति में स्थापित किये जाने में आविष्कार की उपयोगिता है। जिससे विध्वंसक मानव का उत्पादन दर कम हो सके। ऐसा न होने पर नकारात्मक मानसिकता के मानवो का विकास तेजी से बढ़ता जायेगा और मनुष्यता की शक्ति उन्हीं को रोकने में खर्च हो जायेगी। यह आविष्कार सार्वभौम लोक या गण या या जन या स्व का निराकार रूप है इसलिए इसकी उपयोगिता स्वस्थ समाज, स्वस्थ लोकतन्त्र, स्वस्थ उद्योग तथा व्यवस्था के सत्यीकरण और स्वराज की प्राप्ति में है अर्थात मानव संसाधन की गुणवत्ता का विश्वमानक की प्राप्ति और ब्रह्माण्ड की सटीक व्याख्या में है। मनुष्य किसी भी पेशे में हो लेकिन उसके मन का भूमण्डलीयकरण, एकीकरण, सत्यीकरण, ब्रह्माण्डीयकरण करने में इसकी उपयोगिता है जिससे मानव शक्ति सहित संस्थागत और शासन शक्ति को एक कर्मज्ञान से युक्त कर ब्रह्माण्डीय विकास में एकमुखी किया जा सके।
व्यक्ति आधारित समाज व शासन से उठकर मानक आधारित समाज व शासन का निर्माण होगा। अर्थात जिस प्रकार हम सभी व्यक्ति आधारित राजतन्त्र में राजा से उठकर व्यक्ति आधारित लोकतन्त्र में आये, फिर संविधान आधारित लोकतन्त्र में आ गये उसी प्रकार पूर्ण लोकतन्त्र के लिए मानक व संविधान आधारित लोकतन्त्र में हम सभी को पहुँचना है।
दो या दो से अधिक माध्यमों से उत्पादित एक ही उत्पाद के गुणता के मापांकन के लिए मानक ही एक मात्र उपाय है। सतत् विकास के क्रम में मानकों का निर्धारण अति आवश्यक कार्य है। उत्पादों के मानक के अलावा सबसे जरुरी यह है कि मानव संसाधन की गुणता का मानक निर्धारित हो क्योंकि राष्ट्र के आधुनिकीकरण के लिए प्रत्येक व्यक्ति के मन को भी आधुनिक अर्थात् वैश्विक-ब्रह्माण्डीय करना पड़ेगा। तभी मनुष्यता के पूर्ण उपयोग के साथ मनुष्य द्वारा मनुष्य के सही उपयोग का मार्ग प्रशस्त होगा। उत्कृष्ट उत्पादों के लक्ष्य के साथ हमारा लक्ष्य उत्कृष्ट मनुष्य के उत्पादन से भी होना चाहिए जिससे हम लगातार विकास के विरुद्ध नकारात्मक मनुष्योें की संख्या कम कर सकें। भूमण्डलीकरण सिर्फ आर्थिक क्षेत्र में कर देने से समस्या हल नहीं होती क्योंकि यदि मनुष्य के मन का भूमण्डलीकरण हम नहीं करते तो इसके लाभों को हम नहीं समझ सकते। आर्थिक संसाधनों में सबसे बड़ा संसाधन मनुष्य ही है। मनुष्य का भूमण्डलीकरण तभी हो सकता है जब मन के विश्व मानक का निर्धारण हो। ऐसा होने पर हम सभी को मनुष्यों की गुणता के मापांकन का पैमाना प्राप्त कर लेगें, साथ ही स्वयं व्यक्ति भी अपना मापांकन भी कर सकेगा। जो विश्व मानव समाज के लिए सर्वाधिक महत्व का विषय होगा। विश्व मानक शून्य श्रृंखला मन का विश्व मानक है जिसका निर्धारण व प्रकाशन हो चुका है जो यह निश्चित करता है कि समाज इस स्तर का हो चुका है या इस स्तर का होना चाहिए। यदि यह सार्वभौम सत्य-सिद्धान्त आधारित होगा तो निश्चित ही अन्तिम मानक होगा।
भीमराव रामजी आम्बेडकर का जन्म 14 अप्रैल, 1891 को एक गरीब अस्पृश्य परिवार में हुआ था। ब्रिटीशों द्वारा केन्द्रीय प्रान्त (अब मध्य प्रदेश) में स्थापित नगर व सैन्य छावनी मऊ में हुआ था। वे रामजी मालोजी सकपाल और भीमाबाई मुरबादकर की 14वीं व अन्तिम संतान थे। उनका परिवार मराठी था और वो अम्बावडे नगर जो आधुनिक महाराष्ट्र के रत्नागिरी जिले में है, से सम्बन्धित था। वे हिन्दू महार जाति से सम्बन्ध रखते थे, जो अछूत कहे जाते थे और उनके साथ समाजिक व आर्थिक रूप से गहरा भेदभाव किया जाता था। अम्बेडकर के पूर्वज लम्बे समय तक ब्रिटीश ईस्ट इण्डिया कम्पनी की सेना में कार्यरत थे, और उनके पिता, भारतीय सेना की मऊ छावनी में सेवा में थे और यहाँ काम करते हुए वे सूबेदार के पद तक पहुँच गये थे। उन्होंने मराठी और अंग्रेजी में औपचारिक शिक्षा की डिग्री प्राप्त की थी। उन्होंने अपने बच्चों को स्कूल में पढ़ने और कड़ी मेहनत के लिए हमेशा प्रोत्साहित किया।
कबीरपन्थ से सम्बन्धित इस परिवार में, रामजी सकपाल, अपने बच्चों को हिन्दू ग्रन्थों को पढ़ने के लिए, विशेष रूप से महाभारत और रामायण प्रोत्साहित किया करते थे। उन्होंने सेना में अपनी हैसियत का उपयोग अपने बच्चों को सरकारी स्कूल से शिक्षा दिलाने में किया, क्योंकि अपनी जाति के कारण उन्हें इसके लिए सामाजिक प्रतिरोध का सामना करना पड़ रहा था। स्कूली पढ़ाई में सक्षम होने के बावजूद आम्बेडकर और अन्य अस्पृश्य बच्चों को विद्यालय में अलग बिठाया जाता था और अध्यापकों द्वारा न तो ध्यान दिया जाता था, न ही कोई सहायता दी जाती थी। उनको कक्षा के अन्दर बैठने की अनुमति नहीं थी, साथ ही प्यास लगने पर कोई ऊँची जाति का व्यक्ति ऊँचाई से पानी उनके हाथों पर पानी डालता था, क्योंकि उनको न तो पानी, न ही पानी के पात्र को स्पर्श करने की अनुमति थी। लोगों के मुताबिक ऐसा करने से पात्र और पानी दोनों अपवित्र हो जाते थे। आमतौर पर यह काम स्कूल के चपरासी द्वारा किया जाता था जिसकी अनुपस्थिति में बालक आम्बेडकर को बिना पानी के ही रहना पड़ता था।
1894 में रामजी सकपाल के सेवानिवृत हो जाने के बाद सपरिवार सतारा चले गये और दो साल बाद अम्बेडकर की माँ की मृत्यु हो गई। बच्चों की देखभाल उनकी चाची ने कठिन परिस्थितियों में रहते हुए की। रामजी सकपाल के केवल तीन बेटे- बलराम, आनन्दराव और भीमराव और दो बेटियाँ मंजुला और तुलसा ही इन कठिन हालातों में जीवित बच पाये। अपने भाईयों और बहनों में केवल अम्बेडकर ही स्कूल की परीक्षा में सफल हुए और इसके बाद बड़े स्कूल में जाने में सफल हुए। अपने एक देशस्त ब्राह्मण शिक्षक महादेव अम्बेडकर जो उनसे विशेष स्नेह रखते थे, के कहने पर अम्बेडकर ने अपने नाम से सकपाल हटाकर अम्बेडकर जोड़ लिया जो उनके गाँव के नाम ”अम्बावडे“ पर आधारित था। रामजी सकपाल ने 1898 में पुनर्विवाह कर लिया और परिवार के साथ मुम्बई (तब बम्बई) चले आये। यहाँ अम्बेडकर एल्फिंस्टन रोड पर स्थित हाई स्कूल के पहले अछूत छात्र बने। पढ़ाई में अपने उत्कृष्ट प्रदर्शन के बावजूद, अम्बेडकर लगातार अपने विरूद्ध हो रहे इस अलगाव और भेदभाव से व्यथित रहे। 1907 में मैट्रिक पास करने के बाद अम्बेडकर ने बम्बई विश्वविद्यालय में प्रवेश लिया और इस तरह वो भारत में कालेज के प्रवेश लेने वाले पहले अस्पृश्य बन गये। उनकी इस सफलता से उनके पूरे समाज में एक खुशी की लहर दौड़ गयी, और बाद में एक सार्वजनिक समारोह में उनके एक शिक्षक कृष्णजी अर्जुन केलूसकर ने उन्हें महात्मा बुद्ध की जीवनी भेंट की। श्री केलूसकर, एक मराठा जाति के विद्वान थे। अम्बेडकर की सगाई एक साल पहले हिन्दू रीति से दापोली की एक 9 वर्षीय लड़की रमाबाई से तय की गयी थी। 1908 में उन्होंने एलिफिंस्टोन कालेज में प्रवेश लिया और बड़ौदा के गायकवाड़ शासक सहयाजी राव तृतीय से संयुक्त राज्य अमेरिका में उच्च अध्ययन के लिए एक पच्चीस रूपये प्रति माह का वजीफा प्राप्त किया। 1912 में उन्होंने राजनीतिक विज्ञान और अर्थशास्त्र में अपनी डिग्री प्राप्त की और बड़ौदा राज्य सरकार की नौकरी को तैयार हो गये। उनकी पत्नी ने पहले बेटे यशवन्त को इसी वर्ष जन्म दिया। अम्बेडकर अपने परिवार के साथ बड़ौदा चले आये पर जल्द ही उन्हें पिता की बीमारी के चलते बम्बई लौटना पड़ा, जिनकी मृत्यु 2 फरवरी, 1913 को हो गयी। डाॅ0 भीम राव रामजी अम्बेडकर एक भारतीय विधिवेक्ता थे। वे एक बहुजन राजनीतिक नेता और एक बुद्ध पुनरूत्थानवादी होने के साथ-साथ, भारतीय संविधान के मुख्य वास्तुकार भी थे। उन्हें बाबासाहेब के नाम से भी जाना जाता है। बाबासाहेब आम्बेडकर ने अपना सारा जीवन हिन्दू धर्म की चतुवर्ण प्रणाली और भारतीय समाज में सर्वव्यापित जाति व्यवस्था के विरूद्ध के सघ्ंार्ष में बिता दिया। हिन्दू धर्म में मानव समाज को चार वर्णो में वर्गीकृत किया है। उन्हें बौद्ध महाशक्तियों के दलित आन्दोलन को प्रारम्भ करने का श्रेय भी जाता है।
1990 में उन्हें मरणोपरान्त भारत के सर्वोच्च नागरिक सम्मान भारत रत्न से सम्मानित किया गया है। कई सार्वजनिक संस्थान का नाम उनके सम्मान में उनके नाम पर रखा गया है जैसे हैदराबाद व आन्ध्रप्रदेश का डाॅ0 अम्बेडकर मुक्त विश्वविद्यालय, बी.आर. अम्बेडकर बिहार विश्वविद्यालय-मुजफ्फरपुर, डाॅ0 बाबासाहेब अम्बेडकर अन्तर्राष्ट्रीय हवाई अड्डा-नागपुर में है। अम्बेडकर का एक बड़ा आधिकारिक चित्र भारतीय संसद भवन में प्रदर्शित किया गया है। मुम्बई में उनके स्मारक पर हर साल 5 लाख लोग उनकी वर्षगाँठ (14 अप्रैल), पुण्यतिथि (6 दिसम्बर) और धम्म चक्र परिवर्तन दिन 14 अक्टुबर नागपुर में, उन्हें श्रद्धांजलि अर्पित करने के लिए इकट्ठे होते हैं। सैकड़ों पुस्तकालय स्थापित हो गये हैं और लाखों रूपये की पुस्तकें बेची जाती है। कई समाजिक और वित्तीय बाधाएँ पार कर, आम्बेडकर उन कुछ पहले अछूतों में से एक बन गये जिन्होंने भारत में कालेज की शिक्षा प्राप्त की। आम्बेडकर ने कानून की उपाधि प्राप्त करने के साथ ही विधि, अर्थशास्त्र व राजनीतिक विज्ञान में अपने अध्ययन और अनुसंधान के कारण कोलम्बिया विश्वविद्यालय और लन्दन स्कूल आॅफ इकोनामिक्स से कई डाॅक्टरेट डिग्रीयाँ भी अर्जित की। आम्बेडकर वापस अपने देश एक प्रसिद्ध विद्वान के रूप में लौट आये और इसके बाद कुछ साल तक उन्होंने वकालत का अभ्यास किया, जिनके द्वारा उन्होंने भारतीय अस्पृश्यों के राजनैतिक अधिकारों और सामाजिक स्वतन्त्रता की वकालत की। डाॅ0 अम्बेडकर को भारतीय बौद्ध भिक्षु ने बोधिसत्व की उपाधि प्रदान की है।
अम्बेडकर, महात्मा गाँधी और भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के उग्र आलोचक थे। उनके समकालीनों और आधुनिक विद्वानों ने उनके महात्मा गाँधी (जो कि पहले भारतीय नेता थे जिन्होंने अस्पृश्यता और भेदभाव करने का मुद्दा सबसे पहले उठाया था) के विरोध की आलोचना है। गाँधी का दर्शन भारत के पारम्परिक ग्रामीण जीवन के प्रति अधिक सकारात्मक, लेकिन रूमानी था, और उनका दृष्टिकोण अस्पृश्यों के प्रति भावनात्मक था। उन्होंने उन्हें हरिजन कह कर पुकारा। अम्बेडकर ने इस विशेषण को सिरे से अस्वीकार कर दिया। उन्होंने अपने अनुयायियों को गाँव छोड़कर शहर जाकर बसने और शिक्षा प्राप्त करने के लिए प्रेरित किया। अपने विवादास्पद विचारों, और गाँधी और कांग्रेस की कटु आलोचना के बावजूद अम्बेडकर की प्रतिष्ठा एक अद्वितीय विद्वान और विधिवेत्ता की थी जिसके कारण जब, 15 अगस्त, 1947 में भारत की स्वतन्त्रता के बाद, कांग्रेस के नेतृत्व वाली नई सरकार अस्तित्व में आई तो उसने अम्बेडकर को देश का पहला कानून मंत्री के रूप में सेवा करने के लिए आमंत्रित किया, जिसे उन्होंने स्वीकार कर लिया।
29 अगस्त, 1947 को अम्बेडकर को स्वतन्त्र भारत के नये संविधान की रचना के लिए बनी संविधान मसौदा समिति के अध्यक्ष पद पर नियुक्त किया गया। अम्बेडकर ने मसौदा तैयार करने के इस काम में अपने सहयोगियों और समकालिन प्रेक्षकों की प्रशंसा अर्जित की। इस कार्य में अम्बेडकर का शुरूआती बौद्ध संघ रीतियों और अन्य बौद्ध ग्रन्थों का अध्ययन बहुत काम आया। संघ रीति में मतपत्रों द्वारा मतदान, बहस के नियम, पूर्ववर्तिता और कार्यसूची के प्रयोग, समितियाँ और काम करने के लिए प्रस्ताव लाना शामिल है। संघ रीतियाँ स्वयं प्राचीन गणराज्यों जैसे शाक्य और लिच्छवी की शासन प्रणाली के निर्देश (माॅडल) पर आधारित थी। अम्बेडकर ने हालांकि संविधान को आकार देने के लिए पश्चिमी माॅडल का उपयोग किया है पर उनकी भावना भारतीय है। अम्बेडकर द्वारा तैयार किया गया संविधान पाठ में संवैधानिक गारण्टी के साथ व्यक्तिगत नागरिकों को एक व्यापक श्रेणी की नागरिक स्वतन्त्रताओं की सुरक्षा प्रदान की जिनमें धार्मिक स्वतन्त्रता, अस्पृश्यता का अंत और सभी प्रकार के भेदभावों को गैर कानूनी करार दिया गया। अम्बेडकर ने महिलाओं के लिए व्यापक आर्थिक और सामाजिक अधिकारों की वकालत की, और अनुसूचित जाति और अनूसूचित जनजाति के लोगों के लिए सिविल सेवाओं, स्कूलों ओर कालेजों की नौकरियों में आरक्षण प्रणाली शुरू करने के लिए सभा का समर्थन भी प्राप्त किया, भारत के विधि निर्माताओं ने इस सकारात्मक कार्यवाही के द्वारा दलित वर्गो के लिए समाजिक और आर्थिक असमानताओं के उन्मूलन और उन्हें हर क्षेत्र में अवसर प्रदान कराने की चेष्टा की जबकि मूल कल्पना में पहले इस कदम को अस्थायी रूप से और आवश्यकता के आधार पर शामिल करने की बात कही गयी थी। 26 नवम्बर, 1949 को संविधान सभा ने संविधान को अपना लिया। अपने काम को पूरा करने के बाद, बोलते हुए अम्बेडकर ने कहा- ”मैं महसूस करता हूँ कि संविधान, साध्य (काम करने लायक) है, यह लचीला है पर साथ ही यह इतना मजबूत भी है कि देश को शान्ति और युद्ध दोनांे के समय जोड़ कर रख सके। वास्तव में, मैं कह सकता हूँ कि अगर कभी कुछ गलत हुआ तो इसका कारण यह नहीं होगा कि हमारा संविधान खराब था बल्कि इसका उपयोग करने बाला मनुष्य अधम था।“ अम्बेडकर ने 1952 में लोकसभा का चुनाव निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में लड़ा पर हार गये। मार्च, 1952 में उन्हें संसद के ऊपरी सदन यानि राज्यसभा के लिए नियुक्त किया गया और इसके बाद उनकी मृत्यु तक वो इस सदन के सदस्य रहे। 6 दिसम्बर, 1956 को उनकी मृत्यु अपने दिल्ली स्थित आवास पर मधुमेह रोग के कारण हुई।
सन् 1950 के दशक में अम्बेडकर बौद्ध धर्म के प्रति आकर्षित हुए और बौद्ध भिक्षुओं व विद्वानों के एक सम्मेलन में भाग लेने के लिए श्रीलंका (तब सीलोन) गये। पुणे के पास एक नया बौद्ध विहार को समर्पित करते हुए अम्बेडकर ने घोषणा की कि वे बौद्ध धर्म पर एक पुस्तक लिख रहे है। और जैसे ही यह समाप्त होगी वो औपचारिक रूप से बौद्ध धर्म अपना लेगें। 1955 में उन्होंने भारतीय बुद्ध महासभा या बौद्ध सोसाइटी आॅफ इण्डिया की स्थापना की। उन्होंने अपने अन्तिम लेख, द बुद्ध एण्ड हिज धम्म को 1956 में पूरा किया जो उनकी मृत्यु के पश्चात् प्रकाशित हुआ। 14 अक्टुबर, 1956 को नागपुर में अम्बेडकर ने खुद और उनके समर्थकों के लिए एक औपचारिक सार्वजनिक समारोह का आयोजन किया। अम्बेडकर ने एक बौद्ध भिक्षु का पारम्परिक तरीके से तीन रत्न ग्रहण और पंचशील को अपनाते हुए बौद्ध धर्म ग्रहण किया। इसके बाद उन्होंने एक अनुमान के अनुसार लगभग 5 लाख समर्थकों को बौद्ध धर्म में परिवर्तित किया। नवयान लेकर अम्बेडकर और उनके समर्थकों ने हिन्दू धर्म और हिन्दू दर्शन की स्पष्ट निन्दा की और उसे त्याग दिया। उन्होंने अपनी अन्तिम पाण्डुलिपि ”बुद्ध या कार्ल माक्र्स“ को 2 दिसम्बर 1956 को पूरा किया।
”शोषित वर्ग की सुरक्षा उसके सरकार और कांग्रेस दोनों से स्वतन्त्र होने में है। हमें अपना रास्ता स्वयं बनाना होगा और स्वयं। राजनीतिक शक्ति शोषितों की समस्याओं का निवारण नहीं हो सकती, उनका उद्धार समाज में उनका उचित स्थान पाने में निहित हे। उनको अपना रहने का बुरा तरीका बदलना होगा। उनको शिक्षित होना चाहिए। एक बड़ी आवश्यकता उनकी हीनता की भावना को झकझोरने, और उनके अन्दर उस दैवीय असंतोष की स्थापना करने की है जो सभी ऊँचाइयों का स्रोत है।“ अपने अनुयायियों को उनका सन्देश था- ”शिक्षित बनो!!!, संगठित रहो!!!, संघर्ष करो!!!“ - बाबा साहेब भीम राव अम्बेडकर
”सामाजिक क्रान्ति साकार बनाने के लिए किसी महान विभूति की आवश्यकता है या नहीं यह प्रश्न यदि एक तरफ रख दिया जाय, तो भी सामाजिक क्रान्ति की जिम्मेदारी मूलतः समाज के बुद्धिमान वर्ग पर ही रहती है, इसे वास्तव में कोई भी अस्वीकार नहीं कर सकता। भविष्य काल की ओर दृष्टि रखकर वर्तमान समय में समाज को योग्य मार्ग दिखलाना यह बुद्धिमान वर्ग का पवित्र कर्तव्य है। यह कर्तव्य निभाने की कुशलता जिस समाज के बुद्धिमान लोग दिखलाते हैं। वहीं जीवन कलह में टिक सकता है।“ - बाबा साहेब भीम राव अम्बेडकर
”सही राष्ट्रवाद है, जाति भावना का परित्याग। सामाजिक तथा आर्थिक पुनर्निर्माण के आमूल परिवर्तनवादी कार्यक्रम के बिना अस्पृश्य कभी भी अपनी दशा में सुधार नहीं कर सकते। राष्ट्रवाद तभी औचित्य ग्रहण कर सकता है जब लोगो के बीच जाति, नस्ल या रंग का अन्तर भुलाकर उसमें सामाजिक समरसता व मातत्व को सर्वोच्च स्थान दिया जाय। राष्ट्र का सन्दर्भ में राष्ट्रीयता का अर्थ होना चाहिए- सामाजिक एकता की दृढ़ भावना, अन्तर्राष्ट्रीय सन्दर्भ में इसका अर्थ है - भाईचारा। शिक्षा प्रत्येक व्यक्ति का जन्मसिद्ध अधिकार है अतः शिक्षा के दरवाजे प्रत्येक भारतीय नागरिक के लिए खुले होने चाहिए। एक व्यक्ति के शिक्षित होने का अर्थ है- एक व्यक्ति का शिक्षित होना लेकिन एक स्त्री के शिक्षित होने का अर्थ है कि एक परिवार का शिक्षित होना।“ - बाबा साहेब भीम राव अम्बेडकर
श्री लव कुश सिंह ”विश्वमानव“ द्वारा स्पष्टीकरण
भगवान बुद्ध, महात्मा कबीर व महात्मा फूले से प्रेरित बाबा साहेब भीम राव अम्बेडकर संविधान के मार्ग से समानता, समता तथा दलितोद्धार का महानतम कार्य किये। परन्तु समर्थक द्वारा मूर्ति लगवाकर स्वार्थ सिद्धि। उन्हें यह नहीं पता जिनकी मूर्तियां अधिक लग जाती हैं। दुर्गति भी उन्हीं की अधिक होती है। इनकी दिशा से शेष कार्य यह है कि ”सामाजिक क्रान्ति“ के लिए बुद्धिमता दिखायें तथा संविधान के माध्यम से समता लाने के लिए संविधान में संशोधन कराकर ग्राम पंचायत तथा नगर पंचायत अध्यक्ष की भाँति जिला पंचायत अध्यक्ष, मुख्यमन्त्री तथा प्रधानमन्त्री का चुनाव सीधे जनता द्वारा करवाये जो ”परशुराम परम्परा“ के अनुसार है। साथ ही 90 प्रतिशत बहुजन की आवाज उठाने वालों की सीधे सर्वोच्च पद प्राप्त हो जायेगा।
किसी देश का संविधान, उस देश के स्वाभिमान का शास्त्र तब तक नहीं हो सकता जब तक उस देश की मूल भावना का शिक्षा पाठ्यक्रम उसका अंग न हो। इस प्रकार भारत देश का संविधान भारत देश का शास्त्र नहीं है। संविधान को भारत का शास्त्र बनाने के लिए भारत की मूल भावना के अनुरूप नागरिक निर्माण के शिक्षा पाठ्यक्रम को संविधान के अंग के रूप में शामिल करना होगा। जबकि राष्ट्रीय संविधान और राष्ट्रीय शास्त्र के लिए हमें विश्व के स्तर पर देखना होगा क्योंकि देश तो अनेक हैं राष्ट्र केवल एक विश्व है, यह धरती है, यह पृथ्वी है। भारत को विश्व गुरू बनने का अन्तिम रास्ता यह है कि वह अपने संविधान को वैश्विक स्तर पर विचार कर उसमें विश्व शिक्षा पाठ्यक्रम को शामिल करे। यह कार्य उसी दिशा की ओर एक पहल है, एक मार्ग है और उस उम्मीद का एक हल है। राष्ट्रीयता की परिभाषा व नागरिक कर्तव्य के निर्धारण का मार्ग है। जिस पर विचार करने का मार्ग खुला हुआ है।
आचार्य रजनीश ”ओशो“ की वाणी है- ”जो एक गुरू बोल रहा है, वह अनन्त सिद्धों की वाणी है। अभिव्यक्ति में भेद होगा, शब्द अलग होगें, प्रतीक अलग होगें मगर जो एक सिद्ध बोलता है, वह सभी सिद्धो की वाणी है। इनसे अन्यथा नहीं हो सकता है। इसलिए जिसने एक सिद्ध को पा लिया, उसने सारे सिद्धो की परम्परा को पा लिया। क्यांेकि उनका सूत्र एक ही है। कुंजी तो एक ही है, जिसमें ताला खुलता है अस्तित्व का।“ इसलिए उन लोगों को सदैव यह ध्यान में रखना चाहिए कि सिद्ध (आध्यात्मिक आविष्कारक) को नहीं बल्कि सिद्ध की वाणी (आविष्कार) को पकड़ना-समझना चाहिए। परन्तु सदैव होता यह इसका उल्टा। लोग सिद्ध की वाणी को नहीं, सिद्ध को पकड़ लेते हैं। विज्ञान में ऐसा नहीं होता। विज्ञान में वैज्ञानिक (भौतिक आविष्कारक) को नहीं पकड़ते बल्कि उत्पाद (आविष्कार) को पकड़ते हैं। इसी कारण पिछड़े-दलित वहीं के वहीं रह जाते हैं और सामाजिक क्रान्ति मात्र भीड़ बनकर ही रह जाती है।
दृश्य काल के व्यक्तिगत प्रमाणित काल में सार्वजनिक प्रमाणित अंश दृश्य सत्य चेतना से युक्त संघ और योजना आधारित कलियुग के प्रारम्भ में नवें अवतार - बुद्ध अवतार के समय तक एकतन्त्रात्मक राज्यों का विकास, विभिन्न नेतृत्व मनों आधारित जातियों, हिंसा, कर्म का प्राथमिता का विकास हो उसकी दिशा प्रसार की ओर ही थी। कृष्ण के अंश अपूर्ण मन अर्थात् अंश सूक्ष्म शरीर के स्थूल शरीर ही बुद्ध थे परिणामस्वरूप वे स्वयं को पहचानकर कालानुसार आवश्यक मुख्य कार्य अर्थात् जनता द्वारा लोक धर्म शिक्षा और गणराज्य की स्थापना का शुभारम्भ का कार्य कर्मयोगी-वैरागी-सन्यासी की भाॅति पूर्ण किये। लोकधर्म शिक्षा के अन्तर्गत वे व्यक्तिगत कर्म के लिए -सत्यपात्र को दान नैतिकता के नियमों का पालन, अपने पुण्य का भाग दूसरों को देना, दूसरे द्वारा दिये गये पुण्य के भाग को स्वीकारना अपने त्रुटियों का सुधार, सम्यक-सिद्धान्त का श्रवण और प्रसार: सम्यक सिद्धान्त के अन्तर्गत - अन्धविश्वास तथा भ्रम रहित सम्यक दृष्टि, उच्च तथा बुद्धियुक्त सम्यक संकल्प, नम्रता-उत्सुक्तता-सत्यनिष्ठ युक्त सम्यक वचन, शान्तिपूर्ण-निष्ठापूर्ण-पवित्रता युक्त सम्यक कर्म, अहिंसा युक्त सम्यक आजीवन, आत्म निग्रह और आत्म प्रशिक्षण युक्त सम्यक व्यायाम, सक्रीय सचेतन मन युक्त सम्यक स्मृति, जीवन की यर्थाथता पर गहन अध्ययन युक्त सम्यक समाधि तथा यह लोक धर्म शिक्षा अनवरत चलती रहे इसलिए लोक शिक्षकों के रूप में साधुओं और भिक्षुओं का निर्माण सहित ‘‘बुद्धं शरणं गच्छामि’’ अर्थात् बुद्धि या प्रबुद्धों के शरण मंे जाओ और ‘‘धर्मम् शरणं गच्छामि’’ अर्थात् धर्म के शरण में जाओ का उपदेश देने का कार्य किये। गणराज्य स्थापना के शुभारम्भ के अन्तर्गत ग्राम, सभा, संघ या पंचायत से जुड़ने के लिए ‘‘संघ शरणं गच्छामि’’ का उपदेश देने का कार्य किये।
कृष्णावतार के समय गणराज्य स्थापना के लिए व्यक्तिगत प्रमाणित दृश्य सत्य चेतना द्वारा अदृश्य मन में तय की गई सम्पूर्ण नीति का वह हिस्सा अर्थात् वह अपूर्ण मन जो कृष्ण पूर्ण नहीं कर पाये थे उसके कुछ प्राथमिक अंश जैसे -सन्यास, लोकधर्म, ध्यान अर्थात् काल चिन्तन और गणराज्य व्यवस्था का बीज जो मानव समाज का नये सिरे से सृष्टि का प्रथम चरण था वही कार्य बुद्धावतार में पूर्व कृष्णावतार से प्राप्त कर्मयोगी मन द्वारा ही बुद्ध ने पूर्ण किया था। बुद्ध द्वारा दिया गया ‘‘सम्यक’’ शब्द एकात्म ध्यान अर्थात् समभाव युक्त काल चिन्तन का ही बीज था जो कृष्ण के जीवन में समाहित था और गीतोपनिषद् में अव्यक्त रहा। चूॅकि एकात्म ध्यान, भगवान शिव-शंकर का स्वरूप है इसलिए वे अगले अवतार की दृष्टि रखते हुये अपने प्रचार का समस्त केन्द्र शिव-शंकर से जुड़ी स्थली के निकट ही रखें। बुद्ध अपने समस्त कार्यो को स्वयं जानते हुये कोई दार्शनिक आधार इसलिए नहीं दिये कि दार्शनिक आधार देने पर वह गीतोपनिषद् और कृष्ण में समाहित हो जाता परिणामस्वरूप कृष्ण का विवशतावश ही सही हिंसक जीवन और हिंसा कर्म की प्रधानता की ओर बढ़ते समाज में अहिंसा आधारित नये मानव समाज की सृष्टि कार्य असफल हो जाता। बुद्ध की कार्यप्रणाली दार्शनिक न होकर व्यावहारिक थी जो कर्मज्ञान अर्थात् कर्मवेद का सूक्ष्म बीज था। जिसकी व्यापकता के लिए उन्होंने हिंसक राजा सम्राट अशोक को अपने शरण में कर आन्दोलन का रूप दिये जो उस समय तक का दार्शनिक दृष्टि से पूर्णमुक्त सबसे बड़ा धर्मिक आन्दोलन था जो उनके महानिर्वाण के बाद इमारतों, मन्दिरों और बौद्ध धर्म में परिणत हो गया। बुद्ध का पूर्व नाम ‘‘सिद्धार्थ’’ अर्थात् ‘‘वह जिसने अपना उद्देश्य पूर्ण कर लिया हो।“ बुद्ध, मन की एक व्यावहारिक अवस्था अर्थात् बुद्धि है जो ज्ञान के साथ काल चिन्तन के संयोग से उत्पन्न होती है। छः वर्षो की साधना उन्होनें उम्र की परिपक्वता, सामाजिक विश्वसनीयता, कालानुसार कार्य और कार्यनीति के निर्धारण के लिए की थी। यदि बुद्ध व्यक्तिगत प्रमाणित दृश्य सत्य चेतना युक्त कृष्ण के अपूर्ण मन न होते तो वे बाह्य कारणों से प्रेरित होकर निष्काम कर्म की ओर बढ़ते परन्तु वे तो स्वयं अन्तः कारणों से प्रेरित थे जो उनमे कृष्ण के अपूर्ण मन का अंश था, से स्वयं अहैतुक कार्य के लिए कर्मयोगी बने थे।
जय प्रकाश नारायण ”जे.पी.“ का जन्म 11 अक्टुबर, 1902 को ग्राम सिताबदियारा, बलिया, उत्तर प्रदेश में हुआ था। उनका विवाह बिहार के मशहूर गाँधीवादी बृज किशोर प्रसाद की पुत्री प्रभावती के साथ अक्टुबर, 1920 में हुआ। प्रभावती विवाह के उपरान्त कस्तुरबा गाँधी के साथ गाँधी आश्रम में रहीं। वे भारतीय स्वतन्त्रता सेनानी और राजनेता थे। उनहें 1970 में इन्दिरा गाँधी के खिलाफ विपक्ष का नेतृत्व के लिए जाना जाता है। वे समाज-सेवक थे, जिन्हें ”लोकनायक“ के नाम से भी जाना जाता है। पटना में अपने विद्यार्थी जीवन में जय प्रकाश नारायण ने स्वतन्त्रता संग्राम में हिस्सा लिया। प्रतिभाशाली युवाओं को प्रेरित करने के लिए डाॅ0 राजेन्द्र प्रसाद और सुप्रसिद्ध गाँधीवादी डाॅ0 अनुग्रह नारायण सिन्हा, जो गाँधी के एक निकट सहयोगी रहे द्वारा स्थापित ”बिहार विद्यापीठ“ में जय प्रकाश नारायण शामिल हो गए। 1922 में वे उच्च शिक्षा के लिए अमेरिका गये, जहाँ उन्होंने 1922-1929 के बीच कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय, बरकली, विसकांसन विश्वविद्यालय में समाज शास्त्र का अध्ययन किया। पढ़ाई के महंगे खर्चे को वहन करने के लिए उन्होंने खेतों, कम्पनियों, रेस्टोरेन्टों में काम किया। वे माक्र्स के समाजवाद से प्रभावित हुए। उन्होंने एम.ए. की डिग्री हासिल की। उनकी माताजी की तबियत ठीक न होने की वजह से वे भारत वापस आ गए और पीएच.डी. पूरी न कर सके।
1929 में जब वे अमेरिका से लौटे, भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम तेजी पर था। उनका सम्पर्क गाँधी जी के साथ काम कर रहे जवाहरलाल नेहरू से हुआ। वे भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम का हिस्सा बने। 1932 में गाँधी, नेहरू और अन्य महत्वपूर्ण कांग्रेसी नेताओं के जेल जाने के बाद, उन्होंने भारत के अलग-अलग हिस्सों में संग्राम का नेतृत्व किया। अन्ततः उन्हें भी मद्रास में सितम्बर, 1932 में गिरफ्तार कर लिया गया और नासिक के जेल में भेज दिया गया। यहाँ उनकी मुलाकात एम.आर.मासानी, अच्युत पटवर्धन, एन.सी.गोरे, अशोक मेहता, एम.एच,दांतवाला, चाल्र्स मास्कारेन्हास औा सी.के.नारायणशास्त्री जैसे उत्साही कांग्रेसी नेताओं से हुई। जेल में इनके द्वारा की गई चर्चाओं ने कांग्रेस सोसलिस्ट पार्टी (सी.एस.पी.) को जन्म दिया। सी.एस.पी. समाजवाद में विश्वास रखती थी। जब कांग्रेस ने 1934 में हिस्सा लेने का फैसला किया तो जेपी और सी.एस.पी. ने इसका विरोध किया।
1939 में उन्होंने द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान, अंग्रेज सरकार के खिलाफ लोक आन्दोलन का नेतृत्व किया। उन्होंने सरकार को किराया और राजस्व रोकने के अभियान चलाए। टाटा स्टील कम्पनी में हड़ताल कराकर यह प्रयास किया कि अंग्रेजों को इस्पात न पहुँचे। उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया और 9 महिने की कैद की सजा सुनाई गई। जेल से छूटने के बाद उन्होंने गाँधी और सुभाष चन्द्र बोस के बीच सुलह का प्रयास किया। 1942 के भारत छोड़ो आन्दोलन के दौरान वे आर्थर जेल से फरार हो गये। उन्होंने स्वतन्त्रता संग्राम के दौरान हथियारों के उपयोग को सही समझा। उन्होंने नेपाल जाकर आजाद दस्ते को गठन किया और उसे प्रशिक्षण दिया। उन्हें एक बार फिर पंजाब में चलती ट्रेन में सितम्बर 1943 को गिरफ्तार कर लिया गया। 16 माह बाद जनवरी 1945 में उन्हें आगरा जेल में स्थानान्तरित कर दिया गया। इसके उपरान्त गाँधी जी ने साफ कर दिया था कि डाॅ0 लोहिया और जेपी की रिहाई के बिना अंग्रेज सरकार से कोई समझौता नामुमकिन है। दोनों को अप्रैल 1946 को आजाद कर दिया गया। 1948 में उन्होंने कांग्रेस के समाजवादी दल का नेतृत्व किया, और बाद में गाँधीवादी दल के साथ मिलकर समाजवादी सोशलिस्ट पार्टी की स्थापना की। 19 अप्रैल, 1954 में गया, बिहार में उन्होंने विनोबा भावे के सर्वोदय आन्दोलन के लिए जीवन समर्पित करने की घोषणा की। 1957 में उन्होंने लोकनिति के पक्ष में राजनीति छोड़ने का निर्णय लिया। 1960 के दशक के अन्तिम भाग में वे राजनीति में पुनः सक्रिय रहे। 1974 में किसानों के बिहार आन्दोलन में उन्होंने तत्कालीन राज्य सरकार से इस्तीफे की मांग की। वे इन्दिरा गाँधी की प्रशासनिक नीतियों के विरूद्ध थे। गिरते स्वास्थ्य के बावजूद उन्होंने बिहार में सरकारी भ्रष्टाचार के खिलाफ आन्दोलन किया। उनके नेतृत्व में पीपुल फ्रंट ने गुजरात राज्य का चुनाव जीता। 1975 में इन्दिरा गाँधी ने आपातकाल (इमरजेंसी) की घोषणा की जिसके अन्तर्गत जेपी सहित 600 से भी अधिक विरोधी नेताओं को बंदी बनाया गया और प्रेस पर सेंसरशिप लगा दी गई। जेल में जेपी की तबीयत और खराब हुई। 7 महीने बाद उनको मुक्त कर दिया गया। 1977 जेपी के प्रयासों से एकजुट विराध्ेा पक्ष ने इन्दिरा गाँधी को चुनाव हरा दिया। जेपी का निधन उनके निवास स्थान पटना में 8 अक्टुबर, 1979 को हृदय की बीमारी और मधुमेह के कारण हुआ। उनके सम्मान में तत्कालीन प्रधानमंत्री चरण सिंह ने 7 दिन के राष्ट्रीय शोक की घोषणा की। उनके सम्मान में कई हजार लोग उनकी शव यात्रा में शामिल हुए।
जेपी का ”सम्पूर्ण क्रान्ति“
पटना के गाँधी मैदान पर लगभग 5 लाख लोगों के अतिउत्साही भीड़ भरी सभा में देश की गिरती हालत, प्रशासनिक भ्रष्टाचार, महंगाई, अनुपयोगी शिक्षा पद्धति और प्रधानमंत्री द्वारा अपने ऊपर लगाये गए आरोपों का सविस्तार उत्तर देते हुए 5 जून, 1975 की विशाल सभा में जे.पी. ने घोषणा की- ”भ्रष्टाचार मिटाना, बेरोजगारी दूर करना, शिक्षा में क्रान्ति लाना आदि ऐसी चीजें हैं जो आज की व्यवस्था से पूरी नहीं हो सकती, क्योंकि वे इस व्यवस्था की ही उपज हैं। वे तभी पूरी हो सकती है जब सम्पूर्ण व्यवस्था बदल दी जाए। और, सम्पूर्ण व्यवस्था परिवर्तन के लिए क्रान्ति-सम्पूर्ण क्रान्ति आवश्यक है। यह क्रान्ति है मित्रों और सम्पूर्ण क्रान्ति है। विधान सभा का विघटन मात्र इसका उद्देश्य नहीं है। यह तो महज मील का पत्थर है। हमारी मंजिंल तो बहुत दूर है और हमें अभी बहुत दूर तक जाना है। केवल मन्त्रिमण्डल का त्याग पत्र या विधानसभा का विघटन काफी नहीं है, आवश्यकता एक बेहतर राजनीतिक व्यवस्था का निर्माण करने की है। छात्रों की सीमित मांगें जैसे भ्रष्टाचार एवं बेरोजगारी का निराकरण, शिक्षा में क्रान्तिकारी परिवर्तन आदि बिना सम्पूर्ण क्रान्ति के पूरी नहीं की जा सकती। इस व्यवस्था ने जो संकट पैदा किया है वह सम्पूर्ण और बहुमुखी (टोटल एण्ड मल्टीडायमेन्सनल) है, इसलिए इसका समाधान सम्पूर्ण और बहुमुखी ही होगा। व्यक्ति का अपना जीवन बदले, समाज की रचना बदले, राज्य की व्यवस्था बदले, तब कहीं बदलाव पूरा होगा, और मनुष्य सुख और शान्ति का मुक्त जीवन जी सकेगा। हमें सम्पूर्ण क्रान्ति चाहिए, इससे कम नहीं।“
विशाल जनसभा में जे.पी. ने पहली बार ”सम्पूर्ण क्रान्ति“ के दो शबदों का उच्चारण किया। क्रान्ति शब्द नया नहीं था, लेकिन ”सम्पूर्ण क्रान्ति“ नया था। गाँधी परम्परा में ”समग्र क्रान्ति“ का प्रयोग होता था। जे.पी. का ”सम्पूर्ण“, गाँधी का ”समग्र“ है।
आजीवन पद-प्रतिष्ठा से दूर रहकर ”सम्पूर्ण क्रान्ति“ के उद्घोषक और लोक साहित्य को जिवित रखने के लिए प्रयत्नशील महानतम व्यक्तित्व। इनकी दिशा से शेष कार्य यह है कि व्यक्ति के पूर्णता के लिए साहित्य तथा सम्पूर्ण, सर्वोच्च और अन्तिम व्यवस्था का सूत्र व व्याख्या प्रस्तुत हो ताकि लोक साहित्य तथा सम्पूर्ण क्रान्ति का इनका सपना पूर्ण हो जाये।
श्री लव कुश सिंह ”विश्वमानव“ द्वारा स्पष्टीकरण
क्रान्ति के प्रति विचार यह है कि- ”राजनीतिक, आर्थिक व सामाजिक परिस्थिति में उसकी स्वस्थता के लिए परिवर्तन ही क्रान्ति है, और यह तभी मानी जायेगी जब उसके मूल्यों, मान्यताओं, पद्धतियों और सम्बन्धों की जगह नये मूल्य, मान्यता, पद्धति और सम्बन्ध स्थापित हों। अर्थात क्रान्ति के लिए वर्तमान व्यवस्था की स्वस्थता के लिए नयी व्यवस्था स्थापित करनी होगी। यदि व्यवस्था परिवर्तन के आन्दोलन में विवेक नहीं हो, केवल भावना हो तो वह आन्दोलन हिंसक हो जाता है। हिंसा से कभी व्यवस्था नहीं बदलती, केवल सत्ता पर बैठने वाले लोग बदलते है। हिंसा में विवेक नहीं उन्माद होता है। उन्माद से विद्रोह होता है क्रान्ति नहीं। क्रान्ति में नयी व्यवस्था का दर्शन - शास्त्र होता है अर्थात क्रान्ति का लक्ष्य होता है और उस लक्ष्य के अनुरुप उसे प्राप्त करने की योजना होती है। दर्शन के अभाव में क्रान्ति का कोई लक्ष्य नहीं होता।“
सम्पूर्ण क्रान्ति के लिए ही आविष्कृत है निम्न आविष्कार जिससे आपका सपना पूरा हो सके।
सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में व्याप्त एक ही सत्य-सिद्धान्त द्वारा व्यक्तिगत व संयुक्त मन को एकमुखी कर सर्वोच्च, मूल और अन्तिम स्तर पर स्थापित करने के लिए शून्य पर अन्तिम आविष्कार WS-0 श्रृंखला की निम्नलिखित पाँच शाखाएँ है।
1. डब्ल्यू.एस. (WS)-0 : विचार एवम् साहित्य का विश्वमानक
2. डब्ल्यू.एस. (WS)-00 : विषय एवम् विशेषज्ञों की परिभाषा का विश्वमानक
3. डब्ल्यू.एस. (WS)-000 : ब्रह्माण्ड (सूक्ष्म एवम् स्थूल) के प्रबन्ध और क्रियाकलाप का विश्वमानक
4. डब्ल्यू.एस. (WS)-0000 : मानव (सूक्ष्म तथा स्थूल) के प्रबन्ध और क्रियाकलाप का विश्वमानक
5. डब्ल्यू.एस. (WS)-00000 : उपासना और उपासना स्थल का विश्वमानक
और पूर्णमानव निर्माण की तकनीकी WCM-TLM-SHYAM.C है।
और यह कार्य भी आपके जीवन की भाँति पद-प्रतिष्ठा से दूर रहकर एक आम नागरिक का अपने देश के प्रति कर्तव्य के आधार पर सम्पन्न किया गया है।
लाल बहादुर शास्त्री (2 अक्टुबर, 1904 - 11 जनवरी 1966)
परिचय -
लालबहादुर शास्त्री का जन्म 2 अक्टुबर, 1904 में मुगलसराय, उत्तर प्रदेश के कूड़कला ग्राम में लाल बहादुर श्रीवास्तव के रूप में हुआ था। उनके पिता शारदा प्रसाद एक गरीब शिक्षक थे, जो बाद में राजस्व कार्यालय मंे लिपिक (क्लर्क) बनें। अपने पिता मीरजापुर के श्री शारदा प्रसाद और अपनी माता श्रीमती रामदुलारी देवी के तीन पुत्रों में से वे दूसरे थे। शास्त्री जी की दो बहनें भी थी। शास्त्री जी के शैशव में ही उनके पिता का निधन हो गया। 1928 में उनका विवाह श्री गणेश प्रसाद की पुत्री ललिता देवी से हुआ और उनके 6 सन्तान हुई। उनकी प्रारम्भिक शिक्षा मुगलसराय के ईस्ट इण्डिया रेलवे हेडेन स्कूल (वर्तमान में पूर्व मध्य रेलवे इण्टर, कालेज) से तथा आगे की शिक्षा हरिश्चन्द्र उच्च विद्यालय और काशी विद्यापीठ में हुई थी। यहीं से उन्हें ”शास्त्री“ की उपाधि भी मिली जो उनके नाम के साथ जुड़ी रही। स्नातक की शिक्षा प्राप्त करने के पश्चात् वो भारत सेवक संघ से जुड़ गये और देश सेवा का व्रत लेते हुए यहीं से अपने राजनैतिक जीवन की शुरूआत की। शास्त्री जी विशुद्ध गाँधीवादी थे वो सारा जीवन सादगी से रहे और गरीबों की सेवा में अपनी पूरी जिन्दगी को समर्पित किया।
भारतीय स्वाधीनता संग्राम के सभी महत्वपूर्ण कार्यक्रमों में उनकी भागीदारी रही, और जेलों में रहना पड़ा। जिसमें 1921 का असहयोग आन्दोलन और 1941 का सत्याग्रह आन्दोलन सबसे प्रमुख है। उनके राजनैतिक दिग्दर्शकों में से श्री पुरूषोत्तमदास टण्डन, पं0 गोविन्द वल्लभ पंत, जवाहरलाल नेहरू इत्यादि प्रमुख हैं। 1929 में इलाहाबाद आने के बाद उन्होंने श्री टण्डनजी के साथ भारत सेवक संघ के इलाहाबाद इकाई के सचिव के रूप में काम किया। यहीं उनकी नजदीकी नेहरू से बढ़ी। इसके बाद से उनका कद निरंतर बढ़ता गया। भारत की स्वतन्त्रता के पश्चात् शास्त्री जी को उत्तर प्रदेश के संसदीय सचिव के रूप में नियुक्त किया गया था। वो गोविन्द बल्लभ पंत के मुख्यमंत्री के कार्यकाल में प्रहरी एवं यातायात मंत्री बने। यातायात मंत्री के समय में उन्होंने प्रथम बार किसी महिला को संवाहक (कंडक्टर) के पद पर नियुक्त किया। प्रहरी विभाग के मंत्री होने के बाद उन्होंने भीड़ को नियंत्रण में रखने के लिए लाठी के जगह पानी की बौछार का प्रयोग प्रारम्भ कराया। 1951 में जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व में अखिल भारत कांग्रेस कमेटी के महासचिव नियुक्त किये गये। उन्होंने 1952, 1957 व 1962 के चुनावों में कांग्रेस का जिताने के लिए बहुत परिश्रम किया। नेहरू मन्त्रिमण्डल में गृहमंत्री के तौर पर वे शामिल थे। इस पद पर वे 1951 तक बने रहे। जवाहरलाल नेहरू का उनके प्रधानमंत्री के कार्यकाल के दौरान 27 मई, 1964 को देहावसान हो जाने के बाद, शास्त्री जी ने 9 जून, 1964 को भारत के दूसरे प्रधानमंत्री का पदभार ग्रहण किया। ताशकन्द में सोवियत मध्यस्थता में पाकिस्तान के अयूब खान के साथ शान्ति समझौते पर हस्ताक्षर करने के कुछ घंटे बाद ही लाल बहादुर शास्त्री का निधन हो गया। शास्त्री जी को उनकी सादगी, देशभक्ति और इमानदारी के लिए भारत श्रद्धापूर्वक याद करता है। उन्हें वर्ष 1966 में भारत रत्न से सम्मानित किया गया।
शास्त्री जी ने ”जय जवन, जय किसान“ का नारा दिया था। शास्त्री जीे के प्रेरणा से फिल्म अभिनेता व निर्माता मनोज कुमार के कई देश भक्ति पर आधारित फिल्में बनाईं।
श्री लव कुश सिंह ”विश्वमानव“ द्वारा स्पष्टीकरण
विश्व का मूल मन्त्र- ”जय जवान-जय किसान-जय विज्ञान-जय ज्ञान-जय कर्मज्ञान“
प्रगतिशील मानव समाज में मानव का विकास जैसे-जैसे होता गया उसके परिणामस्वरूप विभिन्न सामाजिक-असामाजिक विषय क्षेत्रों का भी विकास होता गया। समाज में प्रत्येक विषय क्षेत्रों की एक महत्वपूर्ण भूमिका है। जिसमें किसी भी क्षेत्र को पूर्ण रूप में महत्वहीन नहीं कह सकते न ही पूर्ण रूप से महत्वपूर्ण कह सकते है। क्योंकि क्षेत्र कोई भी हो मानव की अपनी दृष्टि ही उसके उपयोग और दुरूपयोग से उस क्षेत्र को महत्वहीन, महत्वपूर्ण या सामाजिक-असामाजिक रूप में निर्धारण करती है। इसलिए मानव की दृष्टि जब तक विषय क्षेत्र के गुण, अर्थ, उपयोगिता और दुरूपयोगिता के ज्ञान पर केन्द्रीत नहीं होगी तब तक किसी भी क्षेत्र को निश्चित रूप से पूर्ण-महत्वपूर्ण निर्धारण कर पाना असम्भव है। यहाँ यह कहा जा रहा है कि वाह्य विषय क्षेत्र चाहे कोई भी हो वह मूलतः मानव द्वारा ही संचालित, आविष्कृत, नियमित और स्थापित की जाती है। इसलिए मानव का ज्ञान और कर्मज्ञान ही प्रत्येक विषय क्षेत्र की उपयोगिता और दुरूपयोगिता का निर्धारण करता है।
प्रत्येक विषय का विकास सतत होता रहता है। आज हम जो कुछ भी उत्पाद व्यावहार में देखते है वह और यहाँ तक कि मानव का निर्माण भी एक लम्बे प्रक्रिया, सुधार, परीक्षण, रखरखाव इत्यादि का ही परिणाम है। सतत विकास के परिणामस्वरूप ही वह अपनी पूर्णता और अन्तिम स्वरूप को प्राप्त होता है। भारत के विकास का मूल मन्त्र भी विकास की प्रक्रिया को पार करते हुऐ अपने पूर्ण और अन्तिम स्वरूप में व्यक्त हो चुका है। भारत के पूर्ण मूलमन्त्र के स्वरूप का बीज भूतपूर्व प्रधानमन्त्री स्व0 लाल बहादुर शास्त्री ने ”जय जवान-जय किसान“ का नारा देकर कियेे। यह बीज समयानुसार भारत की मूल आवश्यकता थी, जो आज भी है और आगे भी रहेगी। यहाँ से भारत के मूलमन्त्र के स्वरूप का विकास प्रारम्भ होता है। मई 1998 में परमाणु बम परीक्षण के उपरान्त प्रधानमंन्त्री श्री अटल बिहारी बाजपेयी ने इस मूलमंन्त्र के स्वरूप के विकास क्रम में ”जय विज्ञान“ जोड़कर मूलमन्त्र के स्वरूप को ”जय जवान-जय किसान-जय विज्ञान“ के रूप में प्रस्तुत किये। जो समयानुसार आज की आवश्यकता है। जो आगे भी रहेगी।
”जय जवान-जय किसान-जय विज्ञान“ तक ही भारत के मूलमन्त्र का पूर्ण विकसित अर्थात अन्तिम स्वरूप नहीं है क्योंकि जवान-किसान-विज्ञान तीनों स्थान पर मानव ही बैठा है इसलिए मूलमन्त्र के स्वरूप में जब तक मानव के निर्माण का सूत्र नहीं होगा तब तक मूलमन्त्र का स्वरूप भी पूर्ण नहीं हो सकता। इसी कमी को पूर्ण कर पूर्णता प्रदान करने के लिए ”विश्वबन्धुत्व“, ”वसुधैव-कुटुम्बकम्“, ”बहुजन हिताय-बहुजन सुखाय“, ”एकात्म मानवतावाद“ की स्थापना के लिए एकात्मकर्मवाद आधारित सार्वभौम सत्य-सिद्धान्त (धर्मयुक्त नाम - कर्मवेदः प्रथम, अन्तिम तथा पंचमवेदीय श्रृखला अर्थात धर्मनिरपेक्ष-सर्वधर्मसम्भाव नाम- विश्वमानक - शून्य श्रृखंला: मन की गुणवता का विश्व मानक) का आविष्कार कर ”जय ज्ञान-जय कर्मज्ञान“ को जोड़कर भारत के मूलमन्त्र को पूर्ण और अन्तिम स्वरूप- ”जय जवान-जय किसान-जय विज्ञान-जय ज्ञान-जय कर्मज्ञान“ को व्यक्त किया गया है। जो समयानुसार आज की आवश्यकता है जो आगे भी रहेगी। चूँकि भारत का सर्वोच्च और अन्तिम व्यापक रूप ही विश्व है। अर्थात भारत ही विश्व है और विश्व ही भारत है। इसलिए यह मूलमन्त्र भारत का ही नहीं सम्पूर्ण विश्व का अन्तिम मूलमन्त्र है।
”ज्ञान“ जिससे हम अपने विचारो को एकता-समभाव-बन्धुत्व-धैर्य रूप में प्रस्तुत करने में सक्षम होते है। जैसा कि मई 1998 में भारत ने परमाणु बम परीक्षण के उपरान्त उठे विश्वव्यापी विवाद को समाप्त करने के लिए ”ज्ञान“ का प्रयोग कर अपने विचारों की समभाव रूप में विश्व में समक्ष रखने में सफल हुआ। ”कर्मज्ञान“ जिससे हम समभाव में स्थित हो कर्म करते है। अर्थात ईश्वरत्व भाव से उपलब्ध संसाधनों पर आधारित हो कर्म करते हैं। ”ज्ञान“ से हम सिर्फ एकता-समभाव-बन्धुत्व-धैर्य की भाषा बोल सकते हैं जबकि ”कर्मज्ञान“ से कार्य करते हुए एकता-समभाव-बन्धुत्व-धैर्य की भाषा बोल सकते है। ”ज्ञान“ यथावत् स्थिति बनाये रखते हुए शान्ति का प्रतीक है। तो ”कर्मज्ञान“ विकास करते हुये शान्ति बनाये रखने का प्रतीक है। ज्ञानावस्था में कर्म प्राकृतिक चेतना अर्थात शुद्धरूप से वर्तमान स्थिति में प्राथमिकता से कर्म करना, के अन्तर्गत होता है जबकि कर्मज्ञानावस्था में कर्म प्राकृतिक चेतना समाहित सत्य चेतना अर्थात भूतकाल का अनुभव, भविष्य की आवश्यकता के साथ प्राथमिकता के साथ वर्तमान में कार्य करना, के अन्तर्गत होता है। वर्तमान और भविष्य की आवश्यकताओ को देखते हुऐ मात्र ”ज्ञान“ से ही अब विकास सम्भव नहीं है। क्यांेकि यह अवस्था ”नीतिविहीन“ अवस्था है। अब ”नीतियुक्त“ अवस्था कर्मज्ञानावस्था की आवश्यकता है। जिसके अभाव के कारण ही संसाधनों के होते हुये भी बेरोजगारी, अपराधों का विकास, विखण्डन इत्यादि विनाशक स्थिति उत्पन्न हो रही है। इस कर्मज्ञान का आविष्कार सम्पूर्ण विश्व के मानवजाति के लिए महानतम उपलब्धि हैं।
राम मनोहर लोहिया (23 मार्च, 1910 - 12 अक्टुबर, 1967)
परिचय -
डाॅ0 राममनोहर लोहिया का जन्म 23 मार्च, 1910 को उत्तर प्रदेश के फैजाबाद जनपद में अकबरपुर नामक गाँव में हुआ था। पिताजी श्री हीरालाल पेशे से अध्यापक व हृदय से सच्चे राष्ट्रभक्त थे। ढाई वर्ष की आयु में ही उनकी माताजी (चन्दा देवी) का देहान्त हो गया। उन्हें दादी के अलावा सरयूदेई (परिवार की नाईन) ने पाला। टण्डन पाठशाला में चैथी तक पढ़ाई करने के बाद विश्वेश्वरनाथ हाईस्कूल में दाखिल हुए। उनके पिताजी गाँधीजी के अनुयायी थे। जब वे गाँधी जी से मिलने जाते तो राममनोहर को भी अपने साथ ले जाया करते थे। इसके कारण गाँधी जी के विराट व्यक्तित्व का उन पर गहरा असर हुआ। पिताजी के साथ 1918 में अहमदाबाद कांग्रेस अधिवेशन में पहली बार शामिल हुए। बम्बई के मारवाड़ी स्कूल में पढ़ाई की। लोकमान्य गंगाधर तिलक के मृत्यु के दिन विद्यालय के लड़कों के साथ 1920 में 1 अगस्त को हड़ताल की। गाँधी जी की पुकार पर 10 वर्ष की आयु में स्कूल त्याग दिया। पिताजी को विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार के आन्दोलन के चलते सजा हुई। 1921 में फैजाबाद किसान आन्दोलन के दौरान जवाहरलाल नेहरू से मुलाकात हुई। 1924 में प्रतिनिधि के रूप में कांग्रेस के गया अधिवेशन में शामिल हुए। 1925 में मैट्रिक की परीक्षा दी। कक्षा मे1 61 प्रतिशत अंक लाकर प्रथम आये। इण्टर की 2 वर्ष की पढ़ाई काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी में हुई। कालेज के दिनों से ही खद्दर पहनना शुरू कर दिया। 1926 में पिताजी के साथ गौहाटी कांग्रेस अधिवेशन में गये। 1927 में इण्टर पास किया तथा आगे की पढ़ाई के लिए कलकत्ता जाकर ताराचन्द दत्त स्ट्रीट पर स्थित पोद्दर छात्र हाॅस्टल में रहने लगे। विद्यासागर कालेज में दाखिला लिया।
अखिल बंग विद्यार्थी परिषद् के सम्मेलन में सुभाष चन्द्र बोस के न पहुँचने पर उन्होंने सम्मेलन की अध्यक्षता की। 1928 में कलकत्ता में कांग्रेस अधिवेशन में शामिल हुए। 1928 से अखिल भारतीय विद्यार्थी संगठन में सक्रिय हुए। साइमन कमीशन के बहिष्कार के दिए छात्रों के साथ आन्दोलन किया। कलकत्ता में युवकों के सम्मेलन में जवाहरलाल नेहरू अध्यक्ष तथा सुभाष चन्द्र बोस और लोहिया जी विषय निर्वाचन समिति के सदस्य चुने गये। 1930 में द्वितीय श्रेणी में बी.ए. की परीक्षा पास की। 30 सितम्बर, 1967 को लोहिया को नई दिल्ली के विलिंग्डन अस्पताल अब जिसे लोहिया अस्पताल कहा जाता है, को पोरूष ग्रन्थि के आपरेशन के लिए भर्ती किया गया जहाँ 12 अक्टुबर, 1967 को उनका देहान्त 57 वर्ष की आयु में हीे गया।
डाॅ0 लोहिया का समाजवाद
लोहिया के समाजवादी आन्दोलन की संकल्पना के मूल में अनिवार्यतः ”विचार और कर्म“ की उभय उपस्थिति थी जिसके मूर्तिमंत स्वरूप स्वयं डाॅ0 लोहिया थे और आजन्म उन्होंने ”विचार और कर्म“ की इस संयुक्ति को अपने आचरण से जीवन्त उदाहरण भी प्रस्तुत किया। अंग्रेजों के खिलाफ भारत के स्वाधीनता आन्दोलन में भाग लेने वाले तमाम व्यक्तियों की भाँति लोहिया भी प्रभावित थे। वे जेल भी गये और वैसी ही यातनाएँ भी सही। आजादी से पूर्व ही कांग्रेस के भीतर उनका सोशलिस्ट ग्रुप था, लेकिन 15 अगस्त, 1947 को अंग्रेजों से मुक्ति पाने पर वे उल्लसित तो थे लेकिन विभाजन की कीमत पर पाई गई इस स्वतन्त्रता के कारण नेहरू और नेहरू की कांग्रेस से उनका रास्ता हमेशा के लिए अलग हो गया। स्वतन्त्रता के नाम पर सत्ता की लिप्सा का यह खुला खेल लोहिया ने अपनी नंगी आँखों से देखा था और इसलिए स्वतन्त्रता के बाद की कांग्रेस पार्टी और कांग्रेसियों के प्रति उनमें इतना रोष और क्षोभ था कि उन्हें धुर दक्षिणपंथी और बामपंथियों को साथ लेना भी उन्हें बेहतर विकल्प ही प्रतीत हुआ। स्वतन्त्रता बाद के राजनेताओं में लोहिया मौलिक विचारक थे। लोहिया के मन में भारतीय गणतन्त्र को लेकर ठेठ देसी सोच थी। अपने इतिहास, अपनी भाषा के सन्दर्भ में वे कतई पश्चिम से कई सिद्धान्त उधार लेकर व्याख्या करने को राजी नहीं थे। सन् 1932 में जर्मनी से पीएच.डी. की उपाधि प्राप्त करने वाले राममनोहर लोहिया ने साठ के दशक में देश से अंगे्रजी हटाने का जो आह्वान किया, वह अंग्रेजी हटाओ आन्दोलन की गणना अब तक के कुछ इने गिने आन्दोलनों में की जा सकती है। उनके लिए स्वभाषा राजनीति का मुद्दा नहीं बल्कि अपने स्वाभिमान का प्रश्न और लाखों-करोड़ों को हीन ग्रन्थि से उबारकर आत्मविश्वास से भर देने का स्वप्न था- ”मैं चाहूँगा कि हिन्दुस्तान के साधारण लोग अपने अंग्रेजी के अज्ञान पर लजाएँ नहीं, बल्कि गर्व करें। इस सामंती भाषा को उन्हीं के लिए छोड़ दें जिनके माँ-बाप अगर शरीर से नही ंतो आत्मा से अंग्रेज रहें हैं।“
हालांकि लोहिया भी जर्मनी यानी विदेश से पढ़ाई कर के आये थे, लेकिन उन्हें उन प्रतीकों का अहसास था जिनसे इस देश की पहचान है। शिवरात्रि पर चित्रकूट में ”रामायण मेला“ उन्हीं की संकल्पना थी, जो सौभाग्य से अभी तक अनवरत चला आ रहा है। आज भी चित्रकूट के उस मेले में हजारों भूखे-नगें-निर्धन भारतवासीयों की भीड़ स्वयंमेव जुटती है तो लगता है कि ये ही हैं जिनकी चिंता लोहिया को थी, लेकिन आज इनकी चिंता करने के लिए लोहिया के लोग कहाँ है? लोहिया ही थे जो राजनीति की गंदी गली में शुद्ध आचरण की बात करते थे। वे एकमात्र ऐसे राजनेता थे जिन्होंने अपनी पार्टी की सरकार से खुलेआम त्यागपत्र की माँग की, क्योंकि उस सरकार के शासन में आन्दोलनकारियों पर गोली चलाई गई थी।
ध्यान रहे स्वाधीन भारत में किसी राज्य में यह पहली गैर कांग्रेसी सरकार थी- ”हिन्दुस्तान की राजनीति में तब सफाई और भलाई आएगी जब किसी पार्टी के खराब काम की निन्दा उसी पार्टी के लोग करें। और मैं यह याद दिला दूँ कि मुझे यह कहने का हक है कि हम ही हिन्दुस्तान में एक राजनीतिक पार्टी हैं जिन्होेंने अपनी सरकार की भी निन्दा की थी और सिर्फ निन्दा ही नहीं बल्कि एक मायने में उसको इतना तंग किया कि उसे हट जाना पड़ा।“ गाँधी जी के साथ एक सप्ताह रहकर लोहिया ने गाँधी जी को वाइसराय के नाम पत्र लिखने के लिए प्रेरित किया। जिसमें गाँधी जी ने लिखा कि- ”अहिंसानिष्ठ सोशलिस्ट डाॅ0 लोहिया ने भारतीय शहरों को बिना पुलिस व फौज के शहर घोषित करने की कल्पना निकाली है।“
लोहिया जी के द्वारा दुनिया की सभी सरकारों को नई दुनिया की बुनियाद बनाने की योजना की कल्पना गाँधी जी के सामने रखी गई, जिसमें एक देश की दूसरे देश में जो पूँजी लगी है उसे जब्त करना, सभी लोगों को संसार में कहीं भी आने-जाने व बसने का अधिकार देना, दुनिया के सभी राष्ट्रों को राजनैतिक आजादी तथा विश्व नागरिकता की बात कही गई थी। गाँधी जी ने इसे ”हरिजन“ में छापा और अपनी ओर से समर्थन भी किया तथा अंग्रेजों के खिलाफ जल्दी लड़ाई छेड़ने को लेकर गाँधी जी ने दस दिन रूकने के लिए लोहिया को कहा। दस दिन बाद 7 अगस्त, 1942 को गाँधी जी ने तीन घंटे तक भाषण देकर कहा, कि ”हम अपनी आजादी लड़कर प्राप्त करेंगे।“ अगले दिन 8 अगस्त, 1942 को ”भारत छोड़ो“ प्रस्ताव बम्बई में बहुमत से स्वीकृत हुआ। गाँधी जी ने ”करो या मरो“ का सन्देश दिया।
एक समाजवादी विचारक। इनकी दिशा से शेष कार्य यह हैै कि समाजवाद कहने से नहीं बल्कि समाजवाद का बीज मानव के मन में विविधताओं के एकीकरण से उगता है। इसलिए मन के एकीकरण का सिद्धान्त प्रस्तुत कर समाजवाद के इनके सपने को पूरा करें।
श्री लव कुश सिंह ”विश्वमानव“ द्वारा स्पष्टीकरण
”समाजवाद“, एक राजनीतिक शब्द। जिसका अर्थ है - एक समान भाव से रहन-सहन की पद्धति। यह फल है। जब तक मानव के अन्दर एकात्मक विचार का बीज नहीं बोया जायेगा, वह समाजवाद नामक फल नहीं दे सकता। इसके सम्बन्ध में स्वामी विवेकानन्द जी के निम्न विचार विचारणीय हैं-
”भारत और समाजवाद विषयक अथवा राजनितिक विचारों से प्लावित करने से पहले यह आवश्यक है कि उसमें आध्यात्मिक विचारों की बाढ़ ला दी जाये। सर्वप्रथम, हमारे उपनिषदों, पुराणों और अन्य सब शास्त्रों में जो अपूर्व सत्य निहित है, उन्हें इन सब ग्रंथों के पृष्ठों से बाहर लाकर, मठों की चहारदिवारियाँ भेदकर, वनों की नीरवता से दूर लाकर, कुछ-सम्प्रदाय-विशेषों के हाथों से छीनकर देश में सर्वत्र बिखेर देना होगा, ताकि ये सत्य दावानल के समान सारे देश को चारो ओर से लपेट लें- उत्तर से दक्षिण और पूरब से पश्चिम तक सब जगह फैल जायें- हिमालय से कन्याकुमारी और सिन्धु से ब्रह्मपुत्रा तक सर्वत्र वे धधक उठे।“ - स्वामी विवेकानन्द
”भारत के शिक्षित समाज में मैं इस बात पर सहमत हूँ कि समाज का आमूल परिवर्तन करना आवश्यक है। पर यह किया किस तरह जाये? सुधारकों की सब कुछ नष्ट कर डालने की रीति व्यर्थ सिद्ध हो चुकी है। मेरी योजना यह है, हमने अतीत में कुछ बुरा नहीं किया। निश्चय ही नहीं किया। हमारा समाज खराब नहीं, बल्कि अच्छा है। मैं केवल चाहता हूँ कि वह और भी अच्छा हो। हमे असत्य से सत्य तक अथवा बुरे से अच्छे तक पहुँचना नहीं है। वरन् सत्य से उच्चतर सत्य तक, श्रेष्ठ से श्रेष्ठतर और श्रेष्ठतम तक पहुँचना है। मैं अपने देशवासियों से कहता हूँ कि अब तक जो तुमने किया, सो अच्छा ही किया है, अब इस समय और भी अच्छा करने का मौका आ गया है।“ - स्वामी विवेकानन्द
शासक और मार्गदर्शक आत्मा सर्वव्यापी है। इसलिए एकात्म का अर्थ संयुक्त आत्मा या सार्वजनिक आत्मा है। जब एकात्म का अर्थ संयुक्त आत्मा समझा जाता है तब वह समाज कहलाता है। जब एकात्म का अर्थ व्यक्तिगत आत्मा समझा जाता है तब व्यक्ति कहलाता है। व्यक्ति (अवतार) संयुक्त आत्मा का साकार रुप होता है जबकि व्यक्ति (पुनर्जन्म) व्यक्तिगत आत्मा का साकार रुप होता है। शासन प्रणाली में समाज का समर्थक दैवी प्रवृत्ति तथा शासन व्यवस्था प्रजातन्त्र या लोकतन्त्र या स्वतन्त्र या मानवतन्त्र या समाजतन्त्र या जनतन्त्र या बहुतन्त्र या स्वराज कहलाता है और क्षेत्र गण राज्य कहलाता है ऐसी व्यवस्था सुराज कहलाती है। शासन प्रणाली में व्यक्ति का समर्थक असुरी प्रवृत्ति तथा शासन व्यवस्था राज्यतन्त्र या राजतन्त्र या एकतन्त्र कहलाता है और क्षेत्र राज्य कहलाता है ऐसी व्यवस्था कुराज कहलाती है। सनातन से ही दैवी और असुरी प्रवृत्तियों अर्थात् दोनों तन्त्रों के बीच अपने-अपने अधिपत्य के लिए संघर्ष होता रहा है। जब-जब समाज में एकतन्त्रात्मक या राजतन्त्रात्मक अधिपत्य होता है तब-तब मानवता या समाज समर्थक अवतारों के द्वारा गणराज्य की स्थापना की जाती है। या यूँ कहें गणतन्त्र या गणराज्य की स्थापना-स्वस्थता ही अवतार का मूल उद्देश्य अर्थात् लक्ष्य होता है शेष सभी साधन अर्थात् मार्ग।
समाज व्यक्ति के शारीरिक-आर्थिक-मानसिक विकास केन्द्रित है जबकि राजनीति सत्ता प्राप्ति केन्द्रित है। उसके बाद वह विकास की बात करेगी। अब यह उस पर निर्भर है कि एक समान भाव से करती है या पक्षपातपूर्ण या केवल सत्ताधारी स्वंय के लिए। व्यक्तिवाद से बड़ा चक्र समाजवाद है। समाजवाद से बड़ा चक्र राष्ट्रवाद है। राष्ट्रवाद से बड़ा चक्र विश्वराष्ट्रवाद है। यह व्यक्ति के अन्दर व्यापक सोच और मस्तिष्क का विस्तार भी है और व्यापक समाज का निर्माण भी। बढ़ते बौद्धिक-ज्ञान के इस युग में छोटे चक्र से निकलना मनुष्य की प्रकृति है। बड़े लक्ष्य के सामने हमेशा छोटा चक्र विलीन हो जाता है, यह प्राकृतिक नियम है।
सत्य समाजवाद लाने की एक प्रक्रिया ही है हमारा - ”मानक ग्राम“ और ”मानक नगर वार्ड“ का व्यावहारिक सिद्धान्त और उसका क्रियान्वयन।
रामस्वामी वेंकटरमण का जन्म 4 दिसम्बर, 1910 को तमिलनाडु में तंजौर के निकट पट्टुकोट्टय में हुआ था। उनकी ज्यादातर शिक्षा-दीक्षा राजधानी चेन्नई (तत्कालीन मद्रास) में ही हुई। उन्होंने अर्थशास्त्र से स्नातकोत्तर उपाधि मद्रास विश्वविद्यालय से प्राप्त की। इसके बाद उन्होंने मद्रास के ही लाॅ काॅलेज से कानून की पढ़ाई की। शिक्षा पूरी करने के बाद उन्होंने मद्रास उच्च न्यायालय में सन् 1935 से वकालत शुरू की और 1951 से उन्होंने उच्चतम न्यायालय में वकालत शुरू की। वकालत के दौरान ही उन्होंने देश के स्वतन्त्रता आन्दोलन में भाग लिया और 1942 के भारत छोड़ो आन्दोलन में सक्रिय भूमिका निभाई। स्वतन्त्रता के बाद वकालत में उनकी श्रेष्ठता को देखते हुए भारत सरकार ने उन्हें देश के श्रेष्ठ वकीलों की टीम में स्थान दिया। 1947 से 1950 तक ये मद्रास प्रान्त की बार फेडरेशन के सचिव पद पर रहे। कानून की जानकारी और छात्र राजनीति में सक्रिय होने के कारण वे जल्द ही राजनीति में आ गये। सन् 1950 में उन्हें आजाद भारत की अस्थायी संसद के लिए चुना गया। उसके बाद 1952 से 1957 तक वे देश की पहली संसद के सदस्य रहे। वे सन् 1953 से 1954 तक कांग्रेस पार्टी में सचिव पद पर भी रहे। 1957 में संसद के लिए चुने जाने के बावजूद रामस्वामी वेंकटरमन ने लोकसभा सीट से इस्तीफा देकर मद्रास सरकार में एक मंत्री पद भार ग्रहण किया। इस दौरान उन्होंने उद्योगों, समाज, यातायात, अर्थव्यवस्था व जनता की भलाई के लिए कई विकासपूर्ण कार्य किये। 1967 में उन्हें योजना आयोग का सदस्य नियुक्त किया गया और उन्हें उद्योग, यातायात व रेलवे जैसे प्रमुख विभागों का उत्तरदायित्व सौंपा गया। 1977 में दक्षिण मद्रास की सीट से उन्हें लोकसभा का सदस्य चुना गया। जिसमें उन्होंने विपक्षी नेता की भूमिका निभाई। 1980 में वे लोकसभा का सदस्य चुने जाने के बाद इन्दिरा गाँधी सरकार में उन्हें वित्त मंत्रालय का कार्यभार सौंपा गया और उसके बाद उन्हें रक्षा मंत्री बनाया गया। उन्होंने पश्चिमी और पूर्वी यूरोप के साथ ही सोवियत यूनियन, अमेरिका, कनाडा, दक्षिण-पश्चिम एशिया, जापान, आस्ट्रेलिया, न्यूजीलैण्ड, यूगोस्लाविया और माॅरीशस की आधिकारिक यात्राएँ कीं। वे अगस्त 1984 में देश के उप राष्ट्रपति बने। इसके साथ ही वे राज्यसभा के अध्यक्ष भी रहे। इस दौरान वे इन्दिरा गाँधी शान्ति पुरस्कार व जवाहरलाल नेहरू अवार्ड फाॅर इन्टरनेशनल अण्डरस्टैण्डिग के निर्णायक पीठ के अध्यक्ष रहे। उन्होंने 25 जुलाई 1987 को देश के 8वें राष्ट्रपति के रूप में शपथ ली। उनका कार्यकाल 1987 से 1992 तक रहा। राष्ट्रपति पद पर आसीन होने से पूर्व वंेकटरमन 4 वर्ष देश के उपराष्ट्रपति भी रहे। 98 वर्ष की अवस्था में मंगलवार, 27 जनवरी, 2009 को लम्बी बीमारी के बाद उनका निधन हो गया।
‘‘ भारत के लिए फ्रांस की राष्ट्रपति प्रणाली ज्यादा उपयुक्त’’
- श्री आर0 वेंकटरामन,
साभार - दैनिक जागरण, वाराणसी, दि0-13-7-98
लव कुश सिंह ”विश्वमानव“ द्वारा स्पष्टीकरण
‘‘लोकतन्त्र विचारों को बद्ध कर सार्वजनिक सत्य को उपर करने का तन्त्र है जो विश्व व्यवस्था का अन्तिम सफल तन्त्र है। प्रणाली कोई भी हो जब तक समष्टि मन (विश्वमन या संयुक्तमन या लोकतन्त्र मन) के सभी तन्त्रों को विवादमुक्त करके शिक्षा द्वारा व्यक्ति में स्थापित नहीं किया जाता, तब तक न ही स्वस्थ समाज, स्वस्थ उद्योग और स्वस्थ लोकतन्त्र की प्राप्ति हो सकती है, न ही कोई भी प्रणाली सफल हो सकती है। प्रणाली कोई भी हो, वर्तमान की कार्यप्रणाली-कार्य के उपरान्त ज्ञान प्राप्त करने पर आधारित है, इसलिए यह आवश्यक नहीं है कि प्रत्येक विकास का कार्य विकास की ओर ही जाता हो, वह विनाश की ओर भी जा सकता है। इसलिए यह आवश्यक है कि नैतिक उत्थान, आत्मनिर्भरता, नेतृत्व क्षमता, प्रबन्धकीय क्षमता इत्यादि गुणों पर आधारित कार्यप्रणाली - ज्ञान के उपरान्त कार्य करने पर आधारित को स्थापित किया जाये जिससे प्रणाली और नेतृत्व कत्र्ता चाहे जैसे भी क्यों न हों, विकास को सतत विकास की ओर तथा भविष्य के नेतृत्वकत्र्ताओं को नैतिकता युक्त बनाया जा सके। इसके लिए आवश्यक है कि विकास दर्शन या विश्व व्यवस्था का न्यूनतम एवम् अधिकतम साझा कार्यक्रम या क्रियाकलपों का विश्वमानक या विश्वमानक-शून्य श्रंृखला: मन की गुणवत्ता का विश्वमानक की स्थापना भारत तथा विश्व में हों।’’
दीनदयाल उपाध्याय का जन्म 25 सितम्बर, 1916 को मथुरा जिले के छोटे से गाँ नगला चन्द्रभान में हुआ था। इनके पिता का नाम भगवती प्रसाद उपाध्याय था। माता रामप्यारी धार्मिक वृत्ति की थीं। रेल की नौकरी होने के कारण उनके पिता का अधिक समय बाहर बीतता था। कभी-कभी छुट्टी मिलने पर ही घर आते थे। थोड़े समय बाद ही दीनदयाल के भाई ने जन्म लिया जिसका नाम शिवदयाल रखा गया। पिता भगवती प्रसाद ने बच्चों को ननिहाल भेज दिया। उस समय उनके नाना चुन्नीलाल शुक्ल धनकिया में स्टेशन मास्टर थे। मामा का परिवार बहुत बड़ा था। दीनदयाल अपने ममेरे भाईयों के साथ खाते-खेलते बड़े हुए। 3 वर्ष की मासूम उम्र में दीनदयाल पिता के प्यार से वचिंत हो गये। पति की मृत्यु से माँ रामप्यारी को अपना जीवन अंधकारमय लगने लगा। वे अत्यधिक बीमार रहने लगी। उन्हें क्षय रोग लग गया। 8 अगस्त, 1924 को माँ रामप्यारी बच्चों को अकेला छोड़कर ईश्वर को प्यारी हो गयीं। 7 वर्ष की कोमल अवस्था में दीनदयाल माता-पिता के प्यार से वंचित हो गये। उपाध्याय जी ने पिलानी, आगरा तथा प्रयाग में शिक्षा प्राप्त की। बी.एससी., बी.टी. करने के बाद उन्होंने नौकरी नहीं की। छात्र जीवन से ही वे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सक्रिय कार्यकर्ता हो गये थे। अतः कालेज छोड़ने के तुरन्त बाद वे उक्त संस्था के प्रचारक बना दिये गये और एकनिष्ठ भाव से अपने दल का संगठन कार्य करने लगे। सन् 1951 ई. में अखिल भारतीय जनसंघ का निर्माण होने पर वे उसके मंत्री बनाए गये। दो वर्ष बाद सन् 1953 ई. में उपाध्याय जी अखिल भारतीय जनसंघ के महामंत्री निर्वाचित हुए और लगभग 15 वर्ष तक इस पद पर रहकर उन्होंने अपने दल की अमूल्य सेवा की। दिसम्बर, 1967 ई. में हुए कालीकट अधिवेशन में वे अखिल भारतीय जनसंघ के अध्यक्ष निर्वाचित हुए। पं. दीनदयाल उपाध्याय महान चिंतक और संगठक थे। वे भारतीय जनसंघ के अध्यक्ष भी रहे। उन्होंने भारत की सनातन विचारधारा को युगानूकूल रूप में प्रस्तुत करते हुए देश को ”एकात्म मानव दर्शन“ जैसी प्रगतिशील विचारधारा दी। उपाध्याय जी नितांत सरल और सौम्य स्वभाव के व्यक्ति थे। राजनीति के अतिरिक्त साहित्य में भी उनकी गहरी अभिरूचि थी। उनके हिन्दी और अंग्रेजी के लेख विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होते रहते थे। केवल एक बैठक में ही उन्होंने ”चन्द्रगुप्त नाटक“ लिख डाला था। 11 फरवरी, 1968 की रात में रेलयात्रा के दौरान उनकी हत्या कर दी गई थी और उनका शरीर मुगलसराय के रेलवे यार्ड में पायी गई थी।
दीनदयाल उपाध्याय के विचार
”स्वराज्य“ और ”एकात्म मानवतावाद“ के उद्घोषक जिन्होंने ”स्व“ के तन्त्रों पर आधारित होकर भारत के निर्माण का सपना देखा था। इनकी दिशा से शेष कार्य यह है कि ”स्व“ के वैश्विक, ब्रह्माण्डीय, सार्वभौम रुप को व्यक्त करें तभी ”स्वराज्य“, ”एकात्म मानवतावाद“, ”स्वदेशी“, ”स्वतन्त्र“ का स्वस्थ स्वरुप स्थापित हो सकेगा अन्यथा नहीं। इनके मुख्य विचार निम्नवत् हैं-
1- मनुष्य पशु नहीं है केवल पेट भर जाने से वह सुखी और संतुष्ट हो जायेगा। उसकी जीवन यात्रा ”पेट“ से आगे ”परमात्मा“ तक जाती है। उसके मन उसकी बुद्धि और उसकी आत्मा का भी कुछ तकाजा है। इस तकाजे को ध्यान में रखे बिना बनाई गई प्रत्येक व्यवस्था अल्पकालिक ही नही घातक भी होगी।
2- पूंजीवादी और समाजवादी व्यवस्था परस्पर प्रेम और ममता पर नहीं, स्वार्थ, लोभ और कुतर्क पर आधारित विखण्डित व्यवस्थायें है। इनमें एकात्मता और परस्पर पूरकता नहीं प्रतिद्वन्द्विता शोषक वृत्तियों की प्रबलता और प्रभाव है।
3- कम्युनिस्टो के नारे ”कमाने वाला खायेगा“ - यह नारा यद्यपि कम्युनिस्ट लगाते है। किन्तु पुंजीवादी भी इस नारे के मूल में निहित सिद्वान्त से असहमत नहीं हैं। यदि दोनों में झगड़ा है तो केवल इस बात का कि कौन कितना कमाता है, कौन कितना कमा सकता है। पूंजीवादी साहस और पूंजी को महत्व देते है तो कम्युनिस्ट श्रम को। पूंजीवादी स्वयं के लिए अधिक हिस्सा माँगते है और कम्युनिस्ट अपने लिए। यह नारा अनुचित, अन्यायपूर्ण और समाजघाती है। हमारा नारा होना चाहिए- ”कमाने वाला खिलायेगा और जो जन्मा है वह खायेगा।“ खाने का अधिकार जन्म से प्राप्त होता है कमाने की पात्रता शिक्षा से आती है। यदि केवल कमाने वाला ही खायेगा तो बच्चो, बूढ़ो, रोगियों और अपाहिजो का क्या होगा? ”कमाने वाला खायेगा“ का दृष्टिकोण आसुरी और ”कमाने वाला खिलायेगा“ का विचार मानवीय है।
4- समाजिकता और संस्कृति का मापदण्ड समाज में कमाने वाला द्वारा अपने कत्र्तव्य के निर्वाह की तत्परता है। अर्थव्यवस्था का कार्य इस कत्र्तव्य के निर्वाह की क्षमता पैदा करना है। मात्र धन कमाने के साधन तथा तरीके बताना-पढ़ाना ही अर्थव्यवस्था का कार्य नहीं है। यह मानवता बढ़ाना भी उसका काम है। कि कत्र्तव्य भावना के साथ कमाने वाला खिलाये भी। यहाँ यह स्पष्ट समझ लिया जाना चाहिए कि वह कार्य और दायित्व की भावना से करें कि दान देने या चंदा देने की भावना से।
5- पूंजीवादी व्यवस्था ने केवल अर्थपरायण मानव का विचार किया तथा अन्य क्षेत्रों से उसे स्वतन्त्र छोड़ दिया तो समाजवादी व्यवस्था केवल ”जाति वाचक मानव“ का ही विचार करती है। उसमें व्यक्ति की रूचि, प्रकृति गुणो की विविधता और उसके आधार पर विकास करने के लिए कोई स्थान नहीं है इन दोनों अवस्थाओं-व्यवस्थाओं में मनुष्य के सत्य और उसकी पूर्णता को नहीं समझा गया। एक व्यवस्था उसे स्वार्थी, अर्थपरायण, संघर्शशील, प्रतिस्पर्धी, प्रतिद्वन्दी और मात्स्यन्याय प्रवण प्राणी मानती है तो दूसरी उसे व्यवस्थाओं और परिस्थितियों का दास बेचारा और नास्तिक- अनास्थामय प्राणी। शाक्तियों का केन्द्रिकरण दोनों व्यवस्थाओं में अभिप्रेत है। अतएव पूंजीवादी एवम् समाजवादी दोनो ही अमानवीय व्यवस्थाएँ हैं।
6- धन का अभाव मनुष्य को निष्करूण और क्रूर बना देता है। तो धन का प्रभाव उसे शोषक सामाजिक दायित्व निरपेक्ष, दम्भी और दमनकारी।
7- भारत और विश्व की समस्याओं का समाधान और प्रश्नों का उत्तर विदेशी राजनीतिक नारों या वादो (समाजवादी, पूंजीवादी आदि) में नहीं अपितु स्वयं भारत के सनातन विचार परम्परा में से उपजे हिन्दूत्व अर्थात भारतीय जीवन दर्शन में है। केवल यही एक ऐसा जीवन दर्शन है जो मनुष्य जीवन का विचार करते समय उसे टुकड़ों में नही बाँटता उसके सम्पूर्ण जीवन को इकाई मानकर उसका विचार करता है।
8-यह समझना भारी भूल होगी कि हिन्दूत्व वर्तमान वैज्ञानिक उन्नति का विरोधी है। आधुनिक विज्ञान और प्रौद्योगिक का प्रयोग इस पद्धति से होना चाहिए कि वे हमारे सामाजिक और सांस्कृतिक जीवन पद्धति के प्रतिकूल नहीं, अनुकूल हो। हमारा राष्ट्रीय लक्ष्य धर्मराज्य, जिसे गाँधी जी रामराज्य कहा करते थे, लोकतन्त्र, सामाजिक समरसता और राजनीतिक आर्थिक शाक्तियों के विकेन्द्रियकरण का होना चाहिए। आप इसे हिन्दूत्ववाद, मानवता अथवा अन्य कोई भी नया ”वाद“ या किसी भी नाम से पुकारें किन्तु केवल यही ही भारत की आत्मा के अनुकूल होगा। यही देशवासियों में नवीन उत्साह संचारित कर सकेगा। विनाश और विभ्रन्ति के चैराहे पर खड़े विश्व के लिए भी यह मार्गदर्शक का काम करेगा।
9- यदि धर्म का आधार त्याग दिया जाय तो अर्थ का अनर्थ हो सकता है। और धर्म उसमें जोड़ दिया जायेगा तो ”अर्थ“ हमारे ”काम“ की प्राप्ति का भी साधन बन जायेगा। धर्म और अर्थ दोनों एक दुसरे के पोषक और पूरक हो सकता है।
10- अपने ”स्व“ को विस्मृत करेगें तो हम पुनः परतन्त्र हो जायेगें। स्वदेशी को भावात्मक रूप से समझ कर उसे ही हमें अर्थ सृजन का आधार एवम् अवलम्ब बनाना चाहिए।
11- ग्रामों और वनांचलो में वास करने वाले मैले-कुचैले, अनपढ़ और पिछड़े बन्धु हमारे देवता है। हमें इनकी सेवा करनी है। यह हमारा सामाजिक दायित्व अर्थात धर्म है। जिस दिन हम इनके लिए अच्छे सुविधाजनक घर बनाकर देगें, जिस दिन इनके बच्चों और स्त्रियों को जीवन दर्शन का ज्ञान देंगें जिस दिन हम इनके हाथ और पाँव के विवाइयों को भरेंगें और जिस दिन इनको उद्योग धन्धों की शिक्षा देकर इनकी आय को ऊचाँ उठा देगें उसी दिन हमारा मातृ भाव व्यक्त होगा। आर्थिक योजनाओं तथा आर्थिक प्रगति की माप समाज की उपर की पीढ़ी पर पहुँचे व्यक्ति से नहीं बल्कि सबसे नीचे की सीढ़ी पर विद्यमान व्यक्ति से होगी। ग्रामों में जहाँ समय अचल खड़ा है जहाँ माता और पिता अपने बच्चों के भविष्य को बनाने में असमर्थ है, वहाँ जब तक हम आशा और पुरूषार्थ का संदेश नहीं पहुँचायेगें तब तक राष्ट्र का चैतन्य जागृत नहीं होगा।
श्री लव कुश सिंह ”विश्वमानव“ द्वारा स्पष्टीकरण
जब-जब व्यक्ति अपने मन को एकात्मवाद के सर्वोच्च स्तर पर केन्द्रित कर उसे सत्यार्थ करने का प्रयत्न किया तब-तब वह व्यक्ति महापुरूष के रूप में व्यक्त हुए। जबकि औषधि आधारित अर्थववेद में इस एकात्मवाद की उपयोगिता का ज्ञान पहले से ही विद्यमान है। जिसके सम्बन्ध में स्वामी विवेकानन्द जी कहते हैं- ‘‘अतः यदि भारत को महान बनाना है, तो इसके लिए आवश्यकता है संगठन की, शक्ति संग्रह की और बिखरी हुई इच्छाशक्ति को एकत्र कर उसमें समन्वय लाने की। अथर्ववेद संहिता की एक विलक्षण ऋचा याद आ गयी जिसमें कहा गया है, ‘‘तुम सब लोग एक मन हो जाओ, सब लोग एक ही विचार के बन जाओ। एक मन हो जाना ही समाज गठन का रहस्य है बस इच्छाशक्ति का संचय और उनका समन्वय कर उन्हें एकमुखी करना ही सारा रहस्य है।’’ (देखें ‘‘नया भारत गढ़ो’’ पृष्ठ संख्या-55) एकात्म भाव के सम्बन्ध में स्वामी विवेकानन्द जी कहते हैं- ‘‘यह भी न भूलना चाहिए कि हमारे बाद जो लोग आएंगे, वे उसी तरह हमारे धर्म और ईश्वर सम्बन्धी धारणा पर हँसेंगे, जिस तरह हम प्राचीन लोगों के धर्म और ईश्वर की धारणा पर हँसते हैं। यह सब होने पर भी, इन सब ईश्वर सम्बन्धित धारणाओं का संयोग करने वाला एक स्वर्ण सूत्र है और वेदान्त का उद्देश्य है - इस सूत्र की खोज करना। भागवान कृष्ण ने कहा है-‘‘भिन्न भिन्न मणियाँ जिस प्रकार एक सूत्र में पिरोयी जा सकती हैं, उसी प्रकार इन सब विभिन्न भावों के भीतर भी एक सूत्र विद्यमान है।’’ (देखें ‘‘ज्ञानयोग’’, पृष्ठ संख्या - 65) और स्वर्ण सूत्र के सम्बन्ध में स्वामी जी कहते हैं - एक शब्द में वेदान्त का आदर्श है - मनुष्य के सच्चे स्वरूप को जानना।’’ (देखें ‘‘विवेकानन्द राष्ट्र को आह्वान’’, पृष्ठ सं0 - 48)। पं0 दीनदयाल उपाध्याय जी की अनुभूति भी एकात्मभाव के सर्वोच्च स्तर पर केन्द्रित थी जिसे ‘‘एकात्म मानवतावाद’’ के रूप में जाना जाता है।
श्री लव कुश सिंह ”विश्वमानव“ द्वारा इस सम्बन्ध में अधिक स्पष्ट कहा गया है- ”यदि तुम समग्र जगत के ज्ञान से पूर्ण होना चाहते हो तो पाँच भाव- विचार एवं साहित्य, विषय एवं विशेषज्ञ, ब्रह्माण्ड (स्थूल एवं सूक्ष्म) के प्रबन्ध और क्रियाकलाप, मानव (स्थूल एवं सूक्ष्म) के प्रबन्ध और क्रियाकलाप तथा उपासना स्थल का सामंजस्य कर एक मुखी कर लो। यही समग्र जगत का ज्ञान है, भविष्य है, रहस्य है, पूर्ण ज्ञान है, समाज गठन है, पुस्तकालय के ज्ञान से सर्वोच्च है।“ विचार के सम्बन्ध में कहा गया है- ”यह अद्वैत (एकत्व) ही धर्मनिरपेक्ष है, सर्वधर्मसमभाव है। वेदान्त तथा मानव का सर्वोच्च दर्शन है। जहाँ से मानव विशिष्टाद्वैत, द्वैत एवं वर्तमान में मतवाद के मानसिक गुलामी में गिरा है परन्तु मानव पुनः इसी के उल्टे क्रम से उठकर अद्वैत में स्थापित हो जायेगा। तब वह धर्म में स्थापित एवं विश्वमन से युक्त होकर पूर्ण मानव अर्थात् ईश्वरस्थ मानव को उत्पन्न करेगा।“ साहित्य के सम्बन्ध में कहा गया है कि- ”मानव एवं प्रकृति के प्रति निष्पक्ष, संतुलित एवं कल्याणार्थ कर्म ज्ञान के साहित्य से बढ़कर आम आदमी से जुड़ा साहित्य कभी भी आविष्कृत नहीं किया जा सकता। यही एक विषय है जिससे एकता, पूर्णता एवं रचनात्मकता एकात्म भाव से लाई जा सकती है। संस्कृति से राज्य नहीं चलता कर्म ज्ञान से राज्य चलता है। संस्कृति तभी तक स्वस्थ बनी रहती है जब तक पेट में अन्न हो, व्यवस्थाएं सार्वभौम सत्य-सिद्धान्त युक्त हों, दृष्टि पूर्ण मानव निर्माण पर केन्द्रित हो। संस्कृति कभी एकात्म नहीं हांे सकती लेकिन रचनात्मक दृष्टिकोण एकात्म होता है जो कालानुसार कर्म ज्ञान और कर्म है। अदृश्य काल में अनेकात्म तथा दृश्य काल में एकात्म कर्म ज्ञान अर्थात् एकात्म रचनात्मक दृष्टिकोण होता है यहीं कर्म आधारित भारतीय संस्कृति है जो प्रारम्भ में भी था और अन्त में पुनः स्पष्ट हो रहा है यहीं सभी संस्कृतियों का मूल भी है।“ काल के सम्बन्ध में कहा गया है- ”जब व्यष्टिमन की शान्ति अन्तः विषयों जो सिर्फ अदृश्य विषय मन द्वारा ही प्रमाणित होता है, पर केन्द्रित होती है तो उसे व्यष्टि अदृश्य काल कहते हंै तथा जब व्यष्टि मन की शान्ति दृश्य विषयों अर्थात् वाह्य विषयों, जो सार्वजनिक रुप से प्रमाणित है पर केन्द्रित होता है तो उसे व्यष्टि दृश्यकाल कहते हैं इसी प्रकार सम्पूर्ण समाज का मन जब अदृश्य विषयों पर केन्द्रित होती है तो उसे समष्टि अदृश्य काल कहते हंै तथा जब सम्पूर्ण समाज का मन जब दृश्य विषयों पर केन्द्रित होता है तो उसे समष्टि दृष्यकाल कहते हैं“ कर्म ज्ञान के सम्बन्ध में कहा गया है कि- ”व्यक्ति जब सम्पूर्ण समष्टि अदृश्य काल में हो तो उसे अदृश्य कर्म ज्ञान के अनुसार तथा जब सम्पूर्ण समष्टि दृश्य काल में हो तो उसे दृश्य कर्म ज्ञान के अनुसार कर्म करने चाहिए तभी वह ब्रह्माण्डीय विकास के लिए धर्मयुक्त या एकता बद्ध होकर कार्य करेगा।“ स्वर्ण सूत्र के सम्बन्ध में कहा गया है कि- ”मानक अर्थात् आत्मा अर्थात् सत्य-धर्म-ज्ञान स्थिर रहता है लेकिन मन को इस ओर लाने वाले सूत्र भिन्न-भिन्न होंगे क्योंकि जो उत्पन्न है वह स्थिर नहीं है। अदृश्य काल में यह सूत्र अनेक होंगे लेकिन दृश्य काल के लिए हमेशा एक ही होगा क्योंकि वह सार्वजनिक प्रमाणित होगा।“ स्वर्ण सूत्र के गुण के सम्बन्ध में कहा गया है कि- ”अतः यदि भारत को महान बनना है, विश्वगुरु बनाना है, भारतीय संविधान को विश्व संविधान में परिवर्तित करना है तो एकात्मकर्मवाद पर आधारित दृश्य काल के लिए एक शब्द चाहिए जो परिचित हो, केवल उसकी शक्ति का परिचय कराना मात्र हो, स्वभाव से हो, स्थिर हो, समष्टि हो, दृश्य हो, सम्पूर्ण हो, विवादमुक्त हो, विश्वभाषा में हो, आध्यात्मिक एवं भौतिक कारण युक्त हो, सभी विश्वमन के तन्त्रों, व्यक्ति से संयुक्त राष्ट्र संघ के सच्चे स्वरुप एवं विश्व के न्यूनतम एवं अधिकतम साझा कार्यक्रम को प्रक्षेपित करने में सक्षम हो, मानव एवं प्रकृति के विकास में एक कड़ी के रुप मंे निर्माण के लिए सक्षम हो, मानव एवं प्रकृति के विकास के कल्याणार्थ, निष्पक्ष, सर्वोच्च दृश्य ज्ञान व दृश्य कर्म ज्ञान का संगम हो अदृश्य काल के विकास के सात चक्रों (पाँच अदृश्य कर्म चक्र एवं दो अदृश्य ज्ञान कर्म चक्र जो सभी सम्प्रदायों और धर्मों का मूल है) को दृश्य काल के सात चक्रों (पाँच दृश्य कर्म चक्र, एक दृश्य ज्ञान कर्म चक्र और एक अदृश्य ज्ञान कर्म चक्र) को प्रक्षेपित करने में सक्षम हो, को स्थापित करना पड़ेगा। यह भारत सहित नव विश्व निर्माण का सूत्र है, अन्तिम रास्ता है और उसका प्रस्तुतीकरण प्रथम प्रस्तुतीकरण होगा।“
वर्तमान समय में विवादास्पद शब्द ”सेक्युलर“ को स्पष्ट करते हुए लव कुश सिंह ”विश्वमानव“ द्वारा कहा गया है कि- ”जब सभी सम्प्रदायों को धर्म मानकर हम एकत्व की खोज करते हैं तब दो भाव उत्पन्न होते हैं। पहला-यह कि सभी धर्मों को समान दृष्टि से देखें तब उस एकत्व का नाम सर्वधर्मसमभाव होता है। दूसरा-यह कि सभी धर्मों को छोड़कर उस एकत्व को देखें तब उसका नाम धर्म निरपेक्ष होता है। जब सभी सम्प्रदायों को सम्प्रदाय की दृष्टि से देखते हैं तब एक ही भाव उत्पन्न होता है और उस एकत्व का नाम धर्म होता है। इन सभी भावों में हम सभी उस एकत्व के ही विभिन्न नामों के कारण विवाद करते हैं अर्थात् सर्वधर्मसमभाव, धर्मनिरपेक्ष एवं धर्म विभिन्न मार्गों से भिन्न-भिन्न नाम के द्वारा उसी एकत्व की अभिव्यक्ति है। दूसरे रुप में हम सभी सामान्य अवस्था में दो विषयों पर नहीं सोचते, पहला- वह जिसे हम जानते नहीं, दूसरा- वह जिसे हम पूर्ण रुप से जान जाते हैं। यदि हम नहीं जानते तो उसे धर्मनिरपेक्ष या सर्वधर्मसमभाव कहते हैं जब जान जाते हैं तो धर्म कहते हैं। इस प्रकार आई0 एस0 ओ0/डब्ल्यू0 एस0- शून्य श्रृंखला उसी एकत्व का धर्मनिरपेक्ष एवं सर्वधर्मसमभाव नाम तथा कर्मवेद: प्रथम, अन्तिम तथा पंचमवेदीय श्रृंखला उसी एकत्व का धर्मयुक्त नाम है तथा इन समस्त कार्यों को सम्पादित करने के लिए जिस शरीर का प्रयोग किया जा रहा है उसका धर्मयुक्त नाम-लव कुश सिंह है तथा धर्मनिरपेक्ष एवं सर्वधर्मसमभाव सहित मन स्तर का नाम विश्वमानव है जब कि मैं (आत्मा) इन सभी नामों से मुक्त है।“
विचार प्रसार एवं विचार स्थापना के लिए कहा गया है कि- ”विचार प्रसार एवं विचार स्थापना में एक मुख्य अन्तर है। विचार प्रसार, विचाराधीन होता है। वह सत्य हो भी सकता है और नहीं भी हो सकता परन्तु विचार स्थापना सत्य होता है। विचार स्थापना में नीति प्रयोग की जाती है जिससे उसका प्रभाव सत्य के पक्ष में बढ़ता रहता है और यह विचार स्थापक एवं समाज पर निर्भर करता है जबकि विचार प्रसार में किसी नीति का प्रयोग नहीं होता है जिससे उसका प्रभाव पक्ष पर एवं विपक्ष दोनों ओर हो सकता है और वह सिर्फ समाज के उपर निर्भर करता हैै।“
इस प्रकार एकात्मकर्मवाद सत्य अर्थों में प्राच्य एवं पाश्चात्य, समाज एवं राज्य, धर्म, धर्मनिरपेक्ष एवं सर्वधर्मसमभाव की एकता के साथ स्वस्थ लोकतन्त्र, स्वस्थ समाज, स्वस्थ उद्योग, नैतिक उत्थान, विश्व व्यवस्था, विश्वएकता, विश्व शान्ति, विश्व विकास, विश्व के भविष्य और उसके नवनिर्माण का प्रथम माॅडल है जो वर्तमान समाज की आवश्यकता ही नहीं अन्तिम मार्ग है।
इन्दिरा प्रियदर्शिनी गाँधी वर्ष 1966 से 1977 तक लगातार 3 पारी के लिए भारत गणराज्य की प्रधानमंत्री रहीं और उसके बाद चैथी पारी में 1980 से लेकर 1984 में उनकी राजनैतिक हत्या तक भारत की प्रधानमंत्री रहीं। वे भारत की प्रथम और अब तक की एकमात्र महिला प्रधानमंत्री रहीं।
इन्दिरा प्रियदर्शिनी का जन्म 19 नवम्बर, 1917 में पं0 जवाहर लाल नेहरू और उनकी पत्नी कमला नेहरू के यहाँ हुआ। वे उनकी एक मात्र संतान थीं। नेहरू परिवार अपने पुरखों की खोज जम्मू और कश्मीर तथा दिल्ली के ब्राह्मणों में कर सकते हैं। इन्दिरा के पितामह मोती लाल नेहरू, उत्तर प्रदेश के इलाहाबाद से एक धनी बैरिस्टर थे। जवाहर लाल नेहरू पूर्व समय में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के बहुत प्रमुख सदस्यों में से थे। उनके पिता मोती लाल नेहरू भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम के एक लोकप्रिय नेता रहे। इन्दिरा के जन्म के समय महात्मा गाँधी के नेतृत्व में जवाहर लाल नेहरू का प्रवेश स्वतन्त्रता आन्दोलन में हुआ।
उनकी परवरिश अपनी माँ की सम्पूर्ण देखरेख में, जो बीमार रहने के कारण नेहरू परिवार के गृह सम्बन्धी कार्यो से अलग रहीं, होने से इन्दिरा में मजबूत सुरक्षात्मक प्रवृत्तियों के साथ-साथ एक निःसंग व्यक्तित्व विकसित हुआ। इन्दिरा ने युवा लड़के-लड़कियों के लिए वानर-सेना बनाई, जिसने विरोध, प्रदर्शन और झण्डा जुलूस के साथ-साथ कांग्रेस के नेताओं की मदद में संवेदनशील प्रकाशनों तथा प्रतिबन्धित सामग्रीयों का परिसंचरण कर भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम में छोटी लेकिन उल्लेखनीय भूमिका निभाई थी। सन् 1936 में उनकी माँ कमला नेहरू तपेदिक से एक लम्बे संघर्ष के बाद अंततः स्वर्गवासी हो गई। इन्दिरा तब 18 वर्ष की थीं और इस प्रकार अपने बचपन में उन्हें कभी भी एक स्थिर पारिवारिक जीवन का अनुभव नहीं मिल पाया था। उन्होंने प्रमुख भारतीय, यूरोपीय तथा ब्रिटीश स्कूलों में अध्ययन किया, जैसे शान्तिनिकेतन, बैडमिंटन स्कूल और आॅक्सफोर्ड। 1930 के दशक के अन्तिम चरण में आॅक्सफोर्ड विश्वविद्यालय, इंग्लैण्ड के सोमरविल्ले काॅलेज में अपनी पढ़ाई के दौरान वे लन्दन में आधारित स्वतन्त्रता के प्रति कट्टर समर्थक भारतीय लीग की सदस्य बनीं।
महाद्वीप यूरोप और ब्रिटेन में रहते समय उनकी मुलाकात एक पारसी कांग्रेस कार्यकर्ता फिरोज गाँधी से हुई और अंततः 16 मार्च, 1942 को आनन्द भवन, इलाहाबाद में एक नीजी आदि धर्म ब्रह्म वैदिक समारोह में उनसे विवाह किया। ठीक भारत छोड़ो आन्दोलन की शुरूआत से पहले जब महात्मा गाँधी और कांग्रेस पार्टी द्वारा चरम एवं पुरजोर राष्ट्रीय विद्रोह शुरू की गई। सितम्बर 1942 में वे ब्रिटीश अधिकारियों द्वारा गिरफ्तार की गई और बिना कोई आरोप के हिरासत में डाल दिये गये थे। अंततः 243 दिनों से अधिक जेल में बिताने के बाद उन्हें 13 मई 1943 को रिहा किया गया। 1944 में उन्होंने फिरोज गाँधी के साथ राजीव गाँधी और इसके दो साल बाद संजय गाँधी को जन्म दिया। गाँधीगण बाद में इलाहाबाद में बस गये, जहाँ फिरोज ने एक कांग्रेस पार्टी समाचार पत्र और एक बीमा कम्पनी के साथ काम किया। उनका वैवाहिक जीवन प्रारम्भ ठीक रहा लेकिन बाद में जब इन्दिरा अपने पिता के पास नई दिल्ली चली गयीं, उनके प्रधानमंत्रीत्व काल में जो अकेले तीन मूर्ति भवन में एक उच्च मानसिक दबाव के माहौल में जी रहे थे, वे उनकी विश्वस्त, सचिव और नर्स बनीं। उनके बेटे उनके साथ रहते थे लेकिन वो अंततः फिरोज से स्थायी रूप से अलग हो गईं, यद्यपि विवाहित का तमगा जुटा रहा। तनाव की चरम सीमा की स्थिति में इन्दिरा अपने पति से अलग हुईं। हालांकि सन् 1958 में उप निर्वाचन के थोड़े समय के बाद फिरोज को दिल का दौरा पड़ा जो नाटकीय ढंग से उनके टृटे हुए वैवाहिक बंन्धन का अंत किया। कश्मीर में उन्हें स्वास्थोद्धार में साथ देते हुए उनकी परिवार निकटवर्ती हुई परन्तु 8 सितम्बर, 1960 को जब इन्दिरा अपने पिता के साथ एक विदेश दौरे पर गयीं थी, फिरोज की मृत्यु हुई।
जब भारत का पहला आम चुनाव 1951 में समीपवर्ती हुआ, इन्दिरा अपने पिता एवं अपने पति जो रायबरेली निर्वाचन क्षेत्र से चुनाव लड़ रहे थे, दोनों के प्रचार प्रबन्ध में लगी रहीं। फिरोज अपने प्रतिद्ववंदिता चयन के बारे में नेहरू से सलाह मशविरा नहीं किये थे और यद्यपि वह निर्वाचित हुए, दिल्ली में अपना अलग निवास का विकल्प चुना। फिरोज ने बहुत ही जल्द एक राष्ट्रीयकृत बीमा उद्योग में घटे प्रमुख घोटोले को उजागर कर अपने राजनैतिक भ्रष्टाचार के विरूद्ध लड़ाकू होने की छवि को विकसित किया जिसके परिणामस्वरूप नेहरू के एक सहयोगी वित्तमंत्री को इस्तीफा देना पड़ा। 1959 और 1960 के दौरान इन्दिरा चुनाव लड़ी और भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की अध्यक्ष चुनी गईं। उनका कार्यकाल घटनाविहीन था। वो अपने पिता के कर्मचारियों के प्रमुख की भूमिका निभा रहीं थीं। नेहरू का देहांत 27 मई, 1964 को हुआ और इन्दिरा नए प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री के प्रेरणा पर चुनाव लड़ी और तत्काल सूचना और प्रसारण मंत्री के लिए नियुक्त हो सरकार में शामिल हुई।
ताशकन्द में सावियत मध्यस्थता में पाकिस्तान के अयूब खान के साथ शान्ति समझौते पर हस्ताक्षर करने के कुछ घंटे बाद ही लाल बहादुर शास्त्री का निधन हो गया। तब कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष के. कामराज ने शास्त्री ने इन्दिरा गाँधी के प्रधानमंत्री बनने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। गाँधी ने शीघ्र ही चुनाव जीतने के साथ-साथ जनप्रियता के माध्यम से विराधियों के ऊपर हावी होने की योग्यता दर्शायी। वह अधिक बामवर्गी आर्थिक नीतियाँ लायीं ओर कृषि उत्पादकता को बढ़ावा दिया। 1971 के भारत-पाक युद्ध में एक निर्णायक जीत के बाद की अवधि में अस्थिरता की स्थिति में उन्होंने सन् 1975 में आपातकाल लागू किया। उन्होंने एवं कांग्रेस पार्टी ने 1977 के आम चुनाव में पहली बार हार का सामना किया। शुरू में संजय गाँधी उनका वारिस चुना गया था लेकिन एक उड़ान दुर्घटना में उनकी मृत्यु के बाद, उनकी माँ ने अनिच्छुक राजीव गाँधी को पायलट की नौकरी परित्याग कर फरवरी, 1981 में राजनीति में प्रवेश के लिए प्रेरित किया। सन् 1980 में सत्ता में लौटने के बाद वह अधिकतर पंजाब के अलगाववादियों के साथ बढ़ते हुए द्वन्द में उलझी रहीं जिसमें आगे चलकर 31 अक्टुबर, सन् 1984 में अपने ही अंगरक्षकों द्वारा उनकी राजनैतिक हत्या हुई। उनका अन्तिम संस्कार 3 नवम्बर, 1984 को राजघाट के समीप हुआ और यह जगह शक्ति स्थल के रूप में जानी गई। उनके मौत के बाद नई दिल्ली के साथ-साथ भारत के अन्य शहरों, जिनमें कानपुर, आसनसोल और इन्दौर शामिल है में साम्प्रदायिक अशांति घिर गई और हजारों सिखों के मौत दर्ज किये गये।
इन्दिरा गाँधी के मृत्यु के बाद राजीव गाँधी प्रधानमंत्री बनें। मई 1991 में उनकी भी राजनैतिक हत्या लिबरेशन टाइगर्स आॅफ तमिल ईलम के आतंकवादियों के हाथों हुई। राजीव की विधवा सोनिया गाँधी ने संयुक्त प्रगतिशील गंठबंधन को 2004 के लोकसभा निर्वाचन में एक आश्चर्य चुनावी जीत का नेतृत्व दिया। सोनिया गाँधी ने प्रधानमंत्री कार्यालय का अवसर को अस्वीकार कर दिया लेकिन कांग्रेस की राजनैतिक उपकरणों पर उनका लगाम है। राजीव के सन्तान राहुल गाँधी और प्रियंका गाँधी भी राजनीति में प्रवेश कर चुके हैं। संजय गाँधी की विधवा मेनका गाँधी, के पुत्र वरूण गाँधी राजनीति में भारतीय जनता पार्टी में सक्रिय हैं।
”राष्ट्र के आधुनिकीकरण के लिए मानकीकरण एवं गुणता नियन्त्रण अनिवार्य है। ये उत्पाद को उसकी सामग्री और मानवीय साधनों के पूर्ण उपभोग में सहायता करते हैं उपभोक्ता का बचाव करते हैं और आंतरिक व्यवहार तथा निर्यात का स्तर ऊँचा उठाते हैं। इस प्रकार से ये आर्थिक विकास में भागीदार बनते हैं।“
दो या दो से अधिक माध्यमों से उत्पादित एक ही उत्पाद के गुणता के मापांकन के लिए मानक ही एक मात्र उपाय है। सतत् विकास के क्रम में मानकों का निर्धारण अति आवश्यक कार्य है। उत्पादों के मानक के अलावा सबसे जरुरी यह है कि मानव संसाधन की गुणता का मानक निर्धारित हो क्योंकि राष्ट्र के आधुनिकीकरण के लिए प्रत्येक व्यक्ति के मन को भी आधुनिक अर्थात् वैश्विक-ब्रह्माण्डीय करना पड़ेगा। तभी मनुष्यता के पूर्ण उपयोग के साथ मनुष्य द्वारा मनुष्य के सही उपयोग का मार्ग प्रशस्त होगा। उत्कृष्ट उत्पादों के लक्ष्य के साथ हमारा लक्ष्य उत्कृष्ट मनुष्य के उत्पादन से भी होना चाहिए जिससे हम लगातार विकास के विरुद्ध नकारात्मक मनुष्योें की संख्या कम कर सकें। भूमण्डलीकरण सिर्फ आर्थिक क्षेत्र में कर देने से समस्या हल नहीं होती क्योंकि यदि मनुष्य के मन का भूमण्डलीकरण हम नहीं करते तो इसके लाभों को हम नहीं समझ सकते। आर्थिक संसाधनों में सबसे बड़ा संसाधन मनुष्य ही है। मनुष्य का भूमण्डलीकरण तभी हो सकता है जब मन के विश्व मानक का निर्धारण हो। ऐसा होने पर हम सभी को मनुष्यों की गुणता के मापांकन का पैमाना प्राप्त कर लेगें, साथ ही स्वयं व्यक्ति भी अपना मापांकन भी कर सकेगा। जो विश्व मानव समाज के लिए सर्वाधिक महत्व का विषय होगा। विश्व मानक शून्य श्रृंखला मन का विश्व मानक है जिसका निर्धारण व प्रकाशन हो चुका है जो यह निश्चित करता है कि समाज इस स्तर का हो चुका है या इस स्तर का होना चाहिए। यदि यह सार्वभौम सत्य-सिद्धान्त आधारित होगा तो निश्चित ही अन्तिम मानक होगा।
मानव एवम् संयुक्त मानव (संगठन, संस्था, ससंद, सरकार इत्यादि) द्वारा उत्पादित उत्पादों का धीरे-धीरे वैश्विक स्तर पर मानकीकरण हो रहा है। ऐसे में संयुक्त राष्ट्र संघ को प्रबन्ध और क्रियाकलाप का वैश्विक स्तर पर मानकीकरण करना चाहिए। जिस प्रकार औद्योगिक क्षेत्र अन्तर्राष्ट्रीय मानकीकरण संगठन (International Standardisation Organisation-ISO) द्वारा संयुक्त मन (उद्योग, संस्थान, उत्पाद इत्यादि) को उत्पाद, संस्था, पर्यावरण की गुणवत्ता के लिए ISO प्रमाणपत्र जैसे- ISO-9000 श्रंृखला इत्यादि प्रदान किये जाते है उसी प्रकार संयुक्त राष्ट्र संघ को नये अभिकरण विश्व मानकीकरण संगठन (World Standardisation Organisation-WSO) बनाकर या अन्र्तराष्ट्रीय मानकीकरण संगठन को अपने अधीन लेकर ISO/WSO-0 का प्रमाण पत्र योग्य व्यक्ति और संस्था को देना चाहिए जो गुणवत्ता मानक के अनुरूप हों। भारत को यही कार्य भारतीय मानक व्यूरो (Bureau of Indiand Standard-BIS) के द्वारा IS-0 श्रंृखला द्वारा करना चाहिए। भारत को यह कार्य राष्ट्रीय शिक्षा प्रणाली (National Education System-NES) व विश्व को यह कार्य विश्व शिक्षा प्रणाली (World Education System-WES) द्वारा करना चाहिए। जब तक यह शिक्षा प्रणाली भारत तथा संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा जनसाधारण को उपलब्ध नहीं हो जाती तब तक यह ”पुनर्निर्माण“ द्वारा उपलब्ध करायी जा रही है।