Action Plan of New Human, New India, New World based on Universal Unified Truth-Theory. According to new discovery World Standard of Human Resources series i.e. WS-0 Series like ISO-9000, ISO-14000 etc series
स्वामी विवेकानन्द जी ने कहा है-”हमारे सम्मुख दो शब्द है-क्षुद्र ब्रह्माण्ड और बृहत ब्रह्माण्ड, अन्त-और बहिः। हम अनुभूति के द्वारा ही इन दोनों से सत्य लाभ करते है, आभ्यन्तर अनुभूति और बाह्य अनुभूति। अभ्यान्तर अनुभूति के द्वारा संग्रहित सत्य समूह मनोविज्ञान, दर्शन और धर्म के नाम से परिचित है, और बाह्य अनुभूति से भौतिक विज्ञान की उत्पत्ति हुई है। अब बात यह है कि जो सम्पूर्ण सत्य है उसका इन दोनों जगत की अनुभूति के साथ समन्वय होगा। क्षुद्र ब्रह्माण्ड, बृहत् ब्रह्माण्ड के सत्य को साक्षी प्रदान करेगा, उसी प्रकार बृहत् ब्रह्माण्ड भी क्षुद्र ब्रह्माण्ड के सत्य को स्वीकार करेगा। चाहे जिस विद्या में हो प्रकृत सत्य मंें कभी परस्पर अवरोध रह नहीं सकता, आभ्यन्तर सत्य समूह के साथ बाह्य सत्य समूह का समन्वय है। (धर्म विज्ञान, रामकृष्ण मिशन, पृष्ठ-10-11)“
आभ्यन्तर अनुभूति से व्यक्त भारत के सर्वप्राचीन दर्शनों (बल्कि विश्व के) में से एक और वर्तमान तक अभेद्य सांख्य दर्शन में ब्रह्माण्ड विज्ञान की विस्तृत व्याख्या उपलब्ध है। स्वामी विवेकानन्द जी के व्याख्या के अनुसार-”प्रथमत-अव्यक्त प्रकृति (अर्थात् तीन आयाम-सत, रज, और तम), यह सर्वव्यापी बुद्धितत्व (1.महत्) में परिणत होती है, यह फिर सर्वव्यापी अंहतत्व (2.अहंकार) में और यह परिणाम प्राप्त करके फिर सर्वव्यापी इंद्रियग्राह्य भूत (3.तन्मात्रा-सूक्ष्मभूत-गंध, स्वाद, स्पर्श, दृष्टि, ध्वनि 4.इन्द्रिय ज्ञान-श्रोत, त्वचा, नेत्र, जिह्वा, घ्राण) में परिणत होता है। यही भूत समष्टि इन्द्रिय अथवा केन्द्र समूह (5.मन) और समष्टि सूक्ष्म परमाणु समूह (6.इन्द्रिय-कर्म-वाक, हस्त, पाद, उपस्थ, गुदा) में परिणत होता है। फिर इन सबके मिलने से इस स्थूल जगत प्रपंच (7.स्थूल भूत-आकाश, वायु, अग्नि, जल, पृथ्वी) की उत्पत्ति होती है। सांख्य मत के अनुसार यही सृष्टि का क्रम है और बृहत् ब्रह्माण्ड में जो है-वह व्यष्टि अथवा क्षूद्र ब्रह्माण्ड में भी अवश्य रहेगा। (धर्म विज्ञान, पृष्ठ-33)“ ”जब साम्यावस्था भंग होती है, तब ये विभिन्न शक्ति समूह विभिन्न रूपों में सम्मिलित होने लगते है और तभी यह ब्रह्माण्ड बहिर्गत होता है। और समय आता है जब वस्तुओं का उसी आदिम साम्यावस्था में फिर से लौटने का उपक्रम चलता है। (अर्थात् एक तन्त्र का अन्त) और ऐसा भी समय आता है कि सब जो कुछ भावापन्न है, उस सब का सम्पूर्ण अभाव हो जाता है। (अर्थात् सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड का अन्त)। फिर कुछ समय पश्चात् यह अवस्था नष्ट हो जाती है तथा शक्तियों के बाहर की ओर प्रसारित होने का उपक्रम आरम्भ होता है। तथा ब्रह्माण्ड धीरे-धीरे तंरगाकार में बहिर्गत होता है। जगत् की सब गति तरंग के आकार में ही होता है-एक बार उत्थान, फिर पतन। (धर्म विज्ञान, पृष्ठ-13)“, ”प्रलय और सृष्टि अथवा क्रम संकोच और क्रम विकास (अर्थात् एक तन्त्र या सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड का अन्त और आरम्भ) अनन्त काल से चल रहे है।ं अतएव हम जब आदि अथवा आरम्भ की बात करते है तब हम एक कल्प (अर्थात् चक्र) आरम्भ की ओर ही लक्ष्य रखते है, (धर्म विज्ञान, पृष्ठ-14)“, ”समग्र प्रकृति के पश्चात् निश्चित रूप से कोई ऐसी सत्ता है, जिसका आलोक उन पर पड़कर महत्, अहंज्ञान और सब नाना वस्तुओं के रूप में प्रतीत हो रहा है और इस सत्ता को कपिल (साख्ंय दर्शन के व्याख्याता) पुरूष अथवा आत्मा कहते है वेदान्ती भी उसे आत्मा कहते है कपिल के मत के अनुसार पुरूष अमिश्र पदार्थ है-वह यौगिक पदार्थ नहीं है वही एक मात्र अजड़ पदार्थ और सब प्रपंच विकार की जड़ है पुरूष ही एक मात्र ज्ञाता है (धर्म विज्ञान, पृष्ठ-52)“, ”यदि हम एक मानव का विश्लेषण कर सके तो समग्र जगत् का विश्लेषण हमने कर लिया क्योंकि वे सब एक ही नियम से निर्मित हैं अतएव यदि यह सत्य हो कि इस व्यष्टि श्रेणी के पीछे ऐसे व्यक्ति विद्यमान हैं, जो समस्त प्रकृति से अतीत हैं, जो किसी प्रकार के उपादान से निर्मित नहीं है अर्थात् पुरूष, तो यह एक ही युक्ति समष्टि ब्रह्माण्ड पर भी घटित होगी तथा उसके पश्चात् भी एक चैतन्य स्वीकार करने का प्रयोजन होगा। जो सर्वव्यापी चैतन्य प्रकृति के समग्र विकारो के पश्चात् भाग में विद्यमान है उसे वेदान्त सब का नियन्ता-ईश्वर कहता है। (धर्म विज्ञान, पृष्ठ-63)“ इस प्रकार आभ्यन्तर अनुभूति से हम पाते है कि एक ईश्वर (आत्मा) है, जिसकी उपस्थिति में तीन आयामी प्रकृति अपने सात आयामों में मूल रूप से व्यक्त है और इसी के उल्टे क्रम से अव्यक्त होती है।
बाह्य अनुभूति से व्यक्त भौतिक विज्ञान के नवीनतम आविष्कार के आविष्कारक महान वैज्ञानिक एवम् ब्रिटिश ब्रह्माण्ड वैज्ञानिक स्टीफेन विलियम हाकिंग (जिन्हें दूसरा आईन्सटाइन कहा जाता है) के अनुसार-”ब्लैक होल (सर्वोच्च गुरूत्वाकर्षण की ब्रह्माण्डीय अति सघन वस्तु) के पी-ब्रेन्स माॅडल में पी-ब्रेन स्थान के तीन आयामों और अन्य सात आयामों में चलती है जिनके बारे में हमें कुछ पता नहीं चलता। यदि हम सभी बलों के एकीकरण का एक सार्वभौम समीकरण विकसित करें तो हम ईश्वर के मश्तिष्क को जान जायेगें क्योंकि हम भविष्य के कार्य का निर्धारण कर सकेगें, और यह मनुष्य के मस्तिष्क के द्वारा सर्वोच्च अविष्कार होगी। (प्रो0 स्टीफेन हाकिंग के भारत यात्रा पर राष्ट्रीय सहारा समाचार पत्र के 27 जनवरी ”2001 को प्रकाशित ”हस्तक्षेप“ अंक से)“ । भौतिक विज्ञान के वर्तमान ब्रह्माण्ड व्याख्या के अनुसार ब्लैक होल एक तन्त्र या ब्रह्माण्ड के अन्त का प्रतीक है अर्थात्् वह एक तन्त्र या ब्रह्माण्ड के प्रारम्भ का भी प्रतीक होगा। इस प्रकार बाह्य अनुभूति से हम पाते है कि एक सिंगुलारिटी (एकलता) है तथा तीन और सात आयाम है।
उपरोक्त दोनो में एकीकरण करते हुये दर्शन शास्त्र के सार्वजनिक प्रमाणित विकास/विनाश दर्शन के अनुसार-सृष्टि में, सृष्टि का कारण मानक अर्थात् आत्मा अर्थात् ब्लैक होल से सत्व गुण युक्त मार्गदर्शक दर्शन ;ळनपकमत च्ीपसवेवचीलद्ध से प्रारम्भ होकर स्थिति में रज गुण युक्त क्रियान्वयन दर्शन ;व्चमतंजपदह च्ीपसवेवचीलद्ध से होते हुये प्रलय में तम गुण युक्त विकास/विनाश दर्शन ;क्मेजतवलमत ध् क्मअमसवचउमदज च्ीपसवेवचीलद्ध को व्यक्त करता है। जिससे आदान-प्रदान ;ज्तंदेंबजपवदद्धए ग्रामीण ;त्नतंसद्धए आधुनिकता/अनुकलनता ;।कअंदबमउमदज ध् ।कंचजंइपसपजलद्धए विकास ;क्मअमसवचउमदजद्धए शिक्षा ;म्कनबंजपवदद्धए प्राकृतिक सत्य ;छंजनतंस ज्तनजीद्ध व धर्म ;त्मसपहपवदद्ध या एकत्व या केन्द्र व्यक्त होता है।
एक सिंगुलारिटी (एकलता) आत्मा है तथा तीन आयाम सत्व, रज और तम है। सात आयाम आदान-प्रदान ;ज्तंदेंबजपवदद्धए ग्रामीण ;त्नतंसद्ध, आधुनिकता/अनुकलनता ;।कअंदबमउमदज ध् ।कंचजंइपसपजलद्ध, विकास ;क्मअमसवचउमदजद्ध, शिक्षा ;म्कनबंजपवदद्ध, प्राकृतिक सत्य ;छंजनतंस ज्तनजीद्ध व धर्म ;त्मसपहपवदद्ध है।
कोई भी विकास दर्शन अपने अन्दर पुराने सभी दर्शनों को समाहित कर लेता है अर्थात् उसका विनाश कर देता है और स्वयं मार्गदर्शक दर्शन का स्थान ले लेता है। अर्थात् सृष्टि-स्थिति-प्रलय फिर सृष्टि। चक्रीय रूप में ऐसा सोचने वाला ही नये परिभाषा में आस्तिक और सिर्फ सीधी रेखा में सृष्टि-स्थिति-प्रलय सोचने वाला नास्तिक कहलाता है।
दोनो अनुभूति (दर्शन और भौतिक विज्ञान) के द्वारा चक्रीय क्रिया बीज से वृक्ष के क्रम विकास तथा वृक्ष से बीज के क्रम संकुचन के रूप में हैं। दूसरें शब्दों में बीज से बीज या वृक्ष से वृक्ष चक्र है। यदि ब्लैक होल का माॅडल बाह्य अनुभूति का सत्य है तो निश्चित रूप से यह अभ्यान्तर अनुभूति का भी प्रमाण होना चाहिए, और यह इसलिए आश्चर्यजनक है क्योंकि यह वास्तव में एक समान है। अर्थात् आभ्यान्तर तथा बाह्य दोनों अनुभूतियों में सृष्टि और प्रलय का मूल तीन और सात आयामों के रूप में है। दोनों अनुभूतियों ब्रह्माण्ड की व्याख्या तथा उसके भविष्य को निश्चित करने मे भी सक्षम हंै अर्थात् दैनिक जीवन में उसकी कोई उपयोगिता नहीं है। लेकिन यह स्पष्ट है कि ईश्वर (आत्मा या एकलता) की उपस्थिति को जानने के लिए एक ही आयाम काफी है परन्तु उसके क्रियाकलाप या ईश्वर के मस्तिष्क को जानने के लिए अधिकतम आयामों केा एक साथ जानना आवश्यक है न कि केवल एक आयाम को। इस प्रकार निश्चितता (फिक्सींग) का सार्वभौम सिद्धान्त यह है कि-”अधिकतम आयामों के ज्ञान से भविष्य का निर्धारण या अधिकतम आयामों के परिणाम के अनुसार कार्य करना“। अधिकतम आयामों को आविष्कृत करना वैज्ञानिक (भौतिक या दर्शन) का कार्य है तथा अधिकतम आयामों के परिणाम के अनुसार स्वयं के विकास के लिए कार्य करना मनुष्यों का कार्य है।
सांख्य दर्शन के अनूसार-”एक मनुष्य अथवा कोई भी प्राणी जिस नियम से गठित है, समग्र विश्व ब्रह्माण्ड भी ठीक उसी नियम से विरचित है इसलिए हमारा जेसे एक मन है, उसी प्रकार एक विश्वमन भी है। (धर्म विज्ञान, पृष्ठ-25)“। दोनों सत्य समूह (आभ्यन्तर और बाह्य) यदि एक समान है तब यह निश्चित है कि दैनिक जीवन के लिए उपयोगी सम्पूर्ण सत्य, मानवीय सत्य के अनुभूति के साथ समन्वय में होगा क्यांेकि जिस प्रकार एक मन है उसी प्रकार एक विश्वमन है। यही सम्पूर्ण सत्य ब्रह्माण्ड तथा मनुष्य जीवन के प्रत्येक वस्तु की व्याख्या करने में सक्षम होगा क्योंकि बीज सभी शाखाओं, पत्तों, फूलों, फलों और अन्त में बीज को विकसित करने में सक्षम होता है। यदि सृष्टि और प्रलय के माॅडल (भौतिक विज्ञान और दर्शन) में तीन और सात आयाम हैं तब ये निश्चित है कि सम्पूर्ण सत्य के मूल माॅडल में भी तीन और सात आयाम होंगे। और यह आश्चर्यजनक इसलिए है कि यह ऐसा ही है। इस प्रकार यह निश्चित होता है। कि ईश्वर का मस्तिष्क तीन और सात आयामों में कार्य करता है। अर्थात् इन आयामों को एक साथ देखने पर ही ईश्वर के मस्तिष्क को वास्तविक दृष्टि अर्थात् दिव्य दृष्टि द्वारा देखा जा सकता है। और ये आयाम मनुष्य के विभिन्न रूपों सहित विश्वस्तरीय भविष्य, विश्वस्तरीय क्रियाकलाप, विश्वस्तरीय परिभाषा, विश्वस्तरीय निर्माण, विश्वस्तरीय प्रबन्ध, विश्वस्तरीय विकास, विश्वस्तरीय शिक्षा, विश्वस्तरीय मानव संसाधन इत्यादि को निश्चित (फिक्स) करने में सक्षम होगा। और यही अन्तिम सम्पूर्ण क्रान्ति तथा मानव मस्तिष्क के द्वारा मानव के लिए सर्वोच्च तथा अन्तिम आविष्कार होगा।
मानव के विकास क्रम की दिशा से देखने पर भी हम पाते है कि मनुष्य पहले कर्म करना प्रारम्भ किया और कर्म करते करते अन्त-जगत की ओर से एकत्व ज्ञान का आविष्कार किया। यही एकत्व ज्ञान सत्य का बीज अर्थात् आत्मा या पुरूष या सिंगुलरिटी (एकलता) है। फिर बाह्य जगत से कर्म करते करते सिद्धान्तो का आविष्कार करते हुुये वर्तमान में सार्वभौम सिद्धान्त अर्थात् सिद्धान्त के बीज की ओर बढ़ रहा है। और अन्तत-उसे सार्वभौम सिद्धान्त विवशतावश चाहिए ही क्योंकि यही मनुष्य की पूर्णता अर्थात् वैश्विक मानव निर्माण का समीकरण होगा।
अभ्यान्तर अनुभूति बाह्य अनुभूति तथा मानव के विकास क्रम की दिशा के अलावा भारतीय समाज में एक ऐसा क्षेत्र और है जिसपर सर्वाधिक चिंतन व्यक्त किया जाता है। वह है-निर्गुण या निराकार तथा सगुण या साकार ब्रह्म। इस सम्बन्ध में स्वामी विवेकाननद जी कहते हैं-”हमारे शास्त्रों मे परमात्मा के दो रूप कहे गये है।-सगुण और निगुण। सगुण ईश्वर के अर्थ में सर्वव्यापी-संसार की सृष्टि स्थिति और प्रलय के कत्र्ता हैं संसार के अनादि जनक तथा जननी हैं। उनके साथ हमारा नित्यभेद है। मुक्ति का अर्थ-उनके समीप और सालोक्य की प्राप्ति है। सगुण ब्रह्म के ये सब विशेषण निर्गुण ब्रह्म के सम्बन्ध में अनावश्यक और अयौक्तिक है इसलिए त्याज्य कर दिये गये। वह निर्गुण और सर्वव्यापी पुरूष ज्ञानवान् नहीं कहा जा सकता क्योंकि ज्ञान मन का धर्म है। इस निगुर्ण पुरूष के साथ हमारा क्या सम्बन्ध है? सम्बन्ध यह है कि हम उससे अभिन्न है-वह और हम एक है। हर एक मनुष्य उसी निर्गुण पुरूष का-जो सब प्राणियों का मूल कारण है, अलग अलग प्रकाश है। जब हम इस अनन्त और निर्गुण पुरूष से अपने को पृथक सोचते है तभी हमारे दुःख की उत्पत्ति होती है और इस अनिर्वचनीय निर्गुण सत्ता के साथ अभेद ज्ञान ही मुक्ति है। सक्षेपत-हम अपने शास्त्रों में ईश्वर के इन्हीं दोनों ”भावो“ का उल्लेख देखते है। यहाँ यह कहना आवष्यक है कि निर्गुण बह्मवाद ही सब प्रकार के नीति-विज्ञानों की नींव है। (हिन्दु धर्म, पृष्ठ-40-41)“ और ”जैसा कि यह स्थूल शरीर स्थूल शक्तियों का आधार है, वैसे ही सूक्ष्म शरीर सूक्ष्म शक्तियो का आधार है जिन्हें हम-विचार कहते है। यह विचार शक्ति विभिन्न रूपों में प्रकाशित हेाती रहती है इनमें कोई भेद नहीं है, केवल इतना ही है कि एक उसी वस्तु का स्थूल और दूसरा सूक्ष्म रूप है। इस सूक्ष्म शरीर और स्थूल शरीर में भी कोई पार्थक्य नहीं है। सूक्ष्म शरीर भी भौतिक है, केवल इतना ही कि वह अत्यन्त सूक्ष्म जड़ वस्तु है। (हिन्दु धर्म, पृष्ठ-107)“
स्वामी विवेकानन्द जी के उपरोक्त व्याख्या से यह स्पष्ट है कि प्रत्येक मनुष्य शरीर का एक निराकार या निर्गुण रूप है जिन्हें विचार कहते है। मनुष्य का यही निराकार या निर्गुण रूप जब सत्य-सिद्धान्त होता है तब वह अवतार तथा अवतरण कहलाता है। और उसे ईश्वर के साकार या सगुण रूप में जाना जाता है। अर्थात् मनुष्य, मनुष्य जनित विचारों का साकार रूप है तो अवतार, सर्वव्यापी अजन्मा नित्य-सार्वभौम सत्य-सिद्धान्त का साकार रूप हैं। मनुष्य और अवतार के शरीर तो मानव के ही होते है परन्तु मानव, विचार के अनुसार तथा अवतार, सार्वभौम सत्य-सिद्धान्त के अनुसार कार्य करते है केवल यही अन्तर है। चूँकि जगत की सब गति तरंगाकार अर्थात् उत्थान और पतन के रूप में होती है इसलिए जब जगत पतन अर्थात् विचारों की अधिकता के अधीन हो जाता है तब उसे उत्थान अर्थात् सार्वभौम सत्य-सिद्धान्त की अधिकता के अधीन करते के लिए ही युगावतार का अवतरण होता हैं। व्यक्तिगत प्रमाणित पूर्णावतार श्री कृष्ण और उनका निराकार निर्गुण रूप-गीतोपनिषद् इसका उदाहरण है। जो सत्य का पूर्ण व्यक्त व्यक्तिगत प्रमाणित रूप है। जबकि सार्वजनिक प्रमाणित पूर्णावतार और उसका निराकार रूप सार्वभौम सत्य-सिद्धान्त का पूर्ण व्यक्त सार्वजनिक प्रताणित रूप का व्यक्त होना अगला चरण है।
इस प्रकार प्रत्येक दिशाओं-आभ्यन्तर (दर्शन), बाह्य (भौतिक विज्ञान), मानव विकास क्रम, सगुण ब्रह्म (अवतार) तथा निर्गुण बह्म (सार्वभौम सत्य-सिद्धान्त) की ओर से हम यही पाते है कि ईश्वर का मस्तिष्क सार्वभौम सिद्धान्त से युक्त तीन और सात आयामों में ही क्रियाशील है। जो अगला और अन्तिम चरण है। स्वामी विवेकानन्द जी इसी सम्पूर्ण वास्तविक सार्वभौम सत्य-सिद्धान्त की ओर केन्द्रीत करते हुये कहे है-”अन्त में देश-काल बद्ध ज्ञान का महामिलन उस ज्ञान से होगा जो इन दोनों से परे है, जो मन तथा इन्द्रियों के पहुॅच से परे है, जो निरपेक्ष है, अद्वितीय है। (विज्ञान और आध्यमिकता, रामकृष्ण मिशन, पृष्ठ-36)“ इस प्रकार हम यह भी पाते है कि किसी एक महापुरूष या अंशअवतार के विचार या सत्य से समाज या देश या विश्व का कल्याण असम्भव है इसके लिए सभी के समन्वयक सिद्धान्त और पूर्वावतार की आवश्यकता होगी, जिसमें सभी हो और सब मंे सार्वभौम सत्य-सिद्धान्त का अंश हो।
अब कल्पना करें ऐसे साकार मानव शरीर की जो सार्वभौम सत्य-सिद्धान्त सहित सभी आयामों का अविष्कारकत्र्ता और उससे युक्त हो, तो उसकी शक्ति क्या होगी? उसकी शक्ति प्रत्येक विषय पर विश्वस्तरीय व्याख्या, विश्वस्तरीय साहित्य, विश्वस्तरीय योजना और उसकी स्थापना के लिए विश्वस्तरीय नीति सहित सभी आयामों एवम् उसकी अनन्त शाखाओं द्वारा एक साथ समानान्तर कार्य होगी। उसके व्यक्त करने की शैली मूल जड़ (बीज) से शाखाओं की ओर होगी तथा उसका सन्देश होगा-”तुम अपने रूप को उसमें देखों, तुम उस जड़ (बीज) अर्थात् सार्वभौम सत्य-सिद्धान्त को समझो फिर तुम्हें कुछ भी समझने की जरूरत न रहेगी, फिर तुम स्वयं समस्त शाखाओं के व्याख्याता, साहित्यकार, योजनाकार इत्यादि बन जाओगें।“ वह अपने आपको किसी विशेष क्षेत्र में बद्ध नहीं करेगा क्यांेकि उसके पास असीम कार्यक्षेत्र और व्यक्त होने के लिए असीम विश्वस्तरीय विषय क्षेत्र होंगे जिस पर वह सामानान्तर कार्य करेगा। उस असीम मनुष्य का विजय तो उसी दिन हो गया होगा जिस दिन वह साहित्यों व योजनाओं में व्यक्त हो गया होगा, जो मानव समाज के विभिन्न क्षेत्रों से मनुष्यों को प्राथमिकता से लाभ उठाने के लिए स्वतन्त्र होगा, जो कल्याण के सत्य अर्थ का मार्ग होगा। फलस्वरूप इन्हें आत्मसात् करने के उपरान्त ही मनुष्य अपने सत्य स्वरूप में स्थापित हो कह सकेगा-”सर्वव्यापी हम इतने असीम है कि यह समग्र ब्रह्माण्ड भी मेरा अंश मात्र है।“ तब प्रत्येक मनुष्य ब्रह्माण्ड के प्रत्येक वस्तु को अपने शरीर का अंग समझ उसके प्रभावों से स्वत-स्फूर्त चेतना से युक्त रहेगा। और जब तक ऐसा नहीं होता तब तक सभी जागरण, सभी वादे, सभी आन्दोल, स्व प्रेरणा से युक्त न हो सकेगें और न ही कल्याण या व्यवस्था परिवर्तन या क्रान्ति या आर्थिक स्वतन्त्रता का दावा स्थापित हो सत्यार्थ हो सकेगा। स्वामी विवेकानन्द जी ने कहा है-”सुधारको से मैं कहूॅगा कि मैं स्वयं उनसे कहीं बढ़कर सुधारक हूँ। वे लोग ईधर-उधर थोड़ा सुधार करना चाहते है-और मैं चाहता हूॅ आमूल सुधार। हम लोगों का मतभेद है केवल सुधार प्रणाली में उनकी प्रणाली विनाशात्मक है और मेरी संघटनात्मक। मैं सुधार में विश्वास नहीं करता मैं विश्वास करता हॅॅँ स्वाभाविक उन्नति में। (मेरी समर नीति, पृष्ठ-13)।
सामान्य मानव अपने विषय क्षेत्र से मूल जड़ (बीज) की ओर देखते है अर्थात् वे एक आयाम (दिशा) की दृष्टि रखते है इसलिए उस असीम मानव को अपनी दिशा से सीमित कर देखेगें और अपनी दिशा से साहित्यकार, दार्शनिक, राजनीतिज्ञ, धार्मिक इत्यादि विशेषण निर्धारित कर देगें जो सत्य तो होगा परन्तु उस असीम मानव के लिए अंश मात्र होगा। ऐसे में वे अपने विषय क्षेत्र से अपूर्ण दृष्टि रखते हुये उस असीम मानव को अपने पद के लिए खतरे का अनुभव करेगें फलस्वरूप उसी दृष्टि के कारण संघर्ष करेगें जिसे वे अपने लिए खतरा या अनुपयोगी समझेगें। जबकि शारीरिक स्वतन्त्रता के लिए आर्थिक, आर्थिक स्वतन्त्रता के लिए आध्यात्मिक स्वतन्त्रता का विकासोन्मुख औषधि युक्त चक्र व्यक्ति तथा देश के लिए हमेशा प्रभावी होता है।
समाज को यह सोचना होगा कि उस असीम मनुष्य को वह क्या नाम देगा? जो सार्वभौम सत्य-सिद्धान्त सहित सभी आयामों से युक्त व्याख्याता और उसका स्थापक होगा ज्ञानीयो व बुद्धिजीवियों को ”कालजयी साहित्य“ व ”जीवन साहित्य“ में अन्तर, ”प्रासंगिक विचार“ व ”सत्य विचार“ में अन्तर, ”मानक जीवन“ व ”दर्पण जीवन“ में अन्तर इत्यादि पर सोचना होगा। और वे समाचार पत्रों के संपादकगण जो यह समझते है कि उन्हें जो समझ में आये सिर्फ वही समाचार है। क्या नाम देगें? उन्हे यह स्वीकार करना चाहिए कि वे ज्ञानी है परन्तु ध्यानी अर्थात् सर्वज्ञ नही। उन्हें यह समझना चाहिए कि आत्मज्ञ पुरूषों की दृष्टि सार्वदेशीय तथा अनात्मज्ञ पुरूषों की दृष्टि एकदेशीय होती है। दैनिक जीवन में ईश्वर के मस्तिष्क की सार्वजनिक प्रमाणित खोज का सबसे बड़ा लाभ यही होगा कि मनुष्य में सत्य दृष्टि का प्रकाश होगा अर्थात् ”उपयोगिता को देखना मूल दृष्टि, एक आयाम से देखना सांसारिक दृष्टि, अनेक आयामों को एक साथ देखना दिव्य दृष्टि तथा सिर्फ विद्वता को देखना दृष्टि दोष है“ में स्थापित मनुष्य होंगे तब मनुष्य अपने कल्याण के मार्ग को पहचानने में चेतना से युक्त हो सकेगा। क्योकि अधिकतम व्यक्ति इस सार्वभौम सिद्धान्त से अनभिज्ञ है कि-”विभिन्न प्रकार के केन्द्रीयकृत कार्य के संयोग से एक परिणाम उत्पन्न होता है न कि एक कार्य से।“
मेरा सम्पूर्ण कार्य उसी असीम मानव का कार्य है तथा व्यक्त साहित्य और योजना सत्य-सिद्धान्त सहित सभी आयामों पर निश्चित है। जो मनुष्य को विश्वस्तरीय रूप में व्यक्त करने के लिए निश्चित हैं। प्रो0 हाकिंग के अनुसार-सूचना कभी भी मुफ्त में नहीं ढोई जाती, इसका एहसास हर किसी को उस वक्त होता है जब उसके घर टेलीफोन बिल आता है।“ अर्थात् किसी कार्य के प्रारम्भ में जुड़ने वाले व्यक्ति सूचना व योजना का लाभ जितना सम्मानित व सरलता से पाते हैं, ठीक उतना ही कठिनता से कार्य पूर्ण होने के बाद प्राप्त होता है क्योंकि प्रारम्भ में निःस्वार्थ बाद मे स्वार्थ का स्पष्ट रूप होता है। ”फिक्सींग“ अर्थात् ”निश्चितता“ का आध्यात्मिक अर्थ सत्य चेतना अर्थात् ”भूतकाल का अनुभव और भविष्य की आवश्यकता के अनुसार वर्तमान में कार्य करना है“ और मेरा कार्य सार्वभौम सिद्धान्त पर आधारित ”फिक्स“ है। इसलिए मेरी चुनौतिपूर्ण घोषणा है-बढा़े समाज के कल्याण करने वालो बढ़ोगे तो हमें ही पाओंगे, न बढोगे तो जनता से तुम्हारा विश्वास उठेगा और मेरा बढे़गा। मैं चक्रान्त हूँ किसी भी और से आओंगे मैं ही मिलूगाँ।“
01.ट्रस्ट भारत सहित विश्व के लिए ”जय-जवान, जय-किसान, जय-विज्ञान“ के बाद उसके पूर्णरुप ”जय-जवान, जय-किसान, जय-विज्ञान, जय-ज्ञान, जय-कर्मज्ञान“ में से ”जय-ज्ञान, जय-कर्मज्ञान“ पर आधारित है।
02.ट्रस्ट ”ईश्वर“ को सर्वशक्तिमान, निराकार, र्निविवाद, अदृश्य स्वीकार करते हुये भी उसके होने और न होने पर कोई बहस नहीं करना चाहता। ट्रस्ट ”ईश्वर“ को निराकार रुप में ”एकीकृत सार्वभौम सत्य-सिद्धान्त“ का रुप मानता है जिसके सामने सभी का समर्पण हमेशा से होता आया है। समय-समय पर कालानुसार इसी निराकार ”एकीकृत सार्वभौम सत्य-सिद्धान्त“ को प्रत्यक्ष या प्रेरक, अंश या पूर्ण रुप से स्थापित करने वाले मानव शरीर को ट्रस्ट ”साकार ईश्वर“ या ”अवतार“ मानता है। ट्रस्ट इसी निराकार “एकीकृत सार्वभौम सत्य-सिद्धान्त“ को ईश्वर का मस्तिष्क मानता है और इसी की उपयोगिता को आवश्यक समझता है न कि ईश्वर को। क्योकि मानव यदि ईश्वर के मस्तिष्क को अपना ले तो वह अपने इष्ट तक असानी से उठ सकता है जो मानव जीवन का लक्ष्य है।
03.ट्रस्ट का मूल प्रकृति के दृश्य, एक, अपरिवर्तनीय, सार्वजनिक प्रमाणित, विवादमुक्त नियम आदान-प्रदान को बढ़ावा देना है। ट्रस्ट का सम्पूर्ण ज्ञान व कार्य इसी मुक्त आदान-प्रदान की शिक्षा पर आधारित है। मनुष्य प्रकृति पर विजय प्राप्त करने के लिए उत्पन्न है न कि उसके अधीन होने के लिए इसलिए ट्रस्ट की शिक्षा आदान-प्रदान को मनुष्य के अधीन करने की शिक्षा है जिसे सत्य चेतना कहते है और जो सभी मनुष्य की आवश्यकता है जिससे प्रत्येक मनुष्य स्वयं को अपने-अपने इष्ट तक उठा सकें।
04.ट्रस्ट किसी सम्प्रदाय का संस्थापक नहीं है न ही उसके पास किसी विशेष वस्त्र का प्रचलन, किसी विशेष मूर्ति की पूजा, गुरु-शिष्य परम्परा, गुरु दक्षिणा, गुरु मंत्र, जीवन शैली का प्रविधान है न ही उसका संचालन इसका उद्देश्य है। ट्रस्ट ज्ञान-कर्मज्ञान-दृश्य कर्मज्ञान के प्रसार एवं उसे प्रमाणित करने के लिए कर्म करने का संस्था मात्र है जिससे मानव, मानव से जुड़कर स्वयं अपने सहित जहाँ भी वह रहे, वहाँ स्वत-स्फूर्त सत्य-चेतना से संतुलित कार्य कर सके जो ब्रह्माण्डीय विकास की दिशा में हो।
05.कर्म, अदृश्य ज्ञान का दृश्य रुप है। अर्थात्् दृश्य क्रिया या व्यापार या आदान-प्रदान या परिवर्तन या अनेक या चक्र या ज्त्।क्म् या प्राकृतिक सत्य का अदृश्य रुप आत्मा या ब्म्छज्त्म् या केन्द्र या सत्य या धर्म या ईश्वर या ब्रह्म है। पिछले चारो वेदों के ज्ञान काण्ड अर्थात्् उपनिषद् ज्ञान अपने चरम विकास को प्राप्त कर चुका है जिसे वेदान्त कहते हैं। अब ज्ञान के दृश्य रुप अर्थात्् कर्म-ज्ञान का क्रम विकास चल रहा है। जिसे प्रथमतया भगवान कृष्ण ने फल की इच्छा से मुक्त होकर कर्म करने की शिक्षा देकर की। और अब उसका पूर्णरुप फल को जानकर कर्म करने की शिक्षा है। जो अदृश्य पूर्णज्ञान का दृश्य पूर्ण कर्म के रुप में परिवर्तन है। जो देश-काल मुक्त ज्ञान ब्रह्माण्डीय सीमा तक सत्य है वहीं वेद है और जो देश-काल मुक्त कर्मज्ञान ब्रह्माण्डीय सीमा तक प्रभावी है वहीं कर्मवेद है।
06.ट्रस्ट अपने साहित्य एवं विचार को व्यक्त करने के लिए प्रयोग में लाये गये शब्द या नाम जिन्हें वर्तमान समाज में व्यक्ति किसी सम्प्रदाय विशेष का समझते हैं, किसी भी परिस्थितियों में उन शब्दों का प्रयोग कर किसी भी मानव अविष्कृत सम्प्रदाय को सर्वोच्च प्राथमिकता देना ट्रस्ट की नीति नहीं है। उन शब्दों या नामों का प्रयोग ट्रस्ट मात्र अपने विचार को व्यक्त करने के लिए करता है। यदि कोई यह सोचे कि ट्रस्ट किसी विशेष सम्प्रदाय का समर्थक है तो वह उसका स्वयं का विचार होगा जो उसके मन द्वारा ही भ्रमवश या अल्पज्ञता के कारण उत्पन्न हुआ होगा। ट्रस्ट केवल प्रकृति अविष्कृत सम्प्रदाय मानव एवं प्रकृति सम्प्रदाय का समर्थक है।
07.जिस प्रकार उन शब्दों का प्रयोग जिन्हें वर्तमान समय में साम्प्रदायिक समझा जाता हैं, स्वयं को व्यक्त करने के लिए उनका प्रयोग हमारी मजबूरी है। उसी प्रकार यह भी हमारी मजबूरी है कि हम ऐसे विषय को किसी ऐसे विषय से नहीं जोड़ सकते जो अव्यक्त हो, अदृश्य हो और जो अन्धभक्ति उत्पन्न करे और जिसे हम सार्वजनिक प्रमाणित न कर सकें। क्योकिं किसी भी व्यक्ति का व्यक्त रुप उसके ज्ञान व कर्मज्ञान के व्यक्त करने के उपरान्त ही स्थापित होता है। ट्रस्ट का सम्पूर्ण क्रियाकलाप एक ही भौतिक शरीर जिसका नाम ”लव कुश सिंह “ हैं, के द्वारा व्यक्त हो रहा है और इस नाम का प्रयोग भी हमारी मजबूरी है।
08.व्यक्ति से व्यक्ति के बीच सम्बन्ध में एक न्यूनतम एवं अधिकतम् साझा कार्यक्रम है, पुन-एक संगठन का उस संगठन से जुड़े सभी व्यकितयों का एक न्यूनतम् एवं अधिकतम साझा कार्यक्रम है। इसी प्रकार संगठन से संगठन एवं देश से देश के बीच एक न्यूनतम एवं अधिकतम साझा कार्यक्रम होगा। यह यदि मानव के लिए होगा तो मानव व्यवस्था का तथा मानव सहित सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड का कार्यक्रम होगा तो वह क्रियाकलापों का विश्व मानक कहा जायेगा और उस ज्ञान से युक्त मन, मन का विश्व मानक कहा जायेगा और इस मन से युक्त मानव, विश्वमानव। यहीं आई0 एस0 ओ0/डव्ल्यू0 एस0 ओ0 शून्य श्रृंखला अर्थात्् मन का अन्तर्राष्ट्रीय/विश्व मानक है। यहीं एकता या धर्मनिरपेक्ष या सर्वधर्मसमभाव रुप में आई0 एस0 ओ0/डव्ल्यू0 एस0 ओ0 शून्य श्रृंखला की उत्पत्ति की दिशा है।
09.ट्रस्ट व्यक्ति के जीवन शैली पर नहीं बल्कि व्यक्ति द्वारा आविष्कृत/उत्पादित, उत्पाद पर ध्यान देता है। यह उसी प्रकार है जिस प्रकार एक वैज्ञानिक द्वारा आविष्कृत उत्पाद का लाभ सभी प्राप्त करते है जवकि वैज्ञानिक के जीवन शैली को कोई नहीं अपनाता। कहने का तात्पर्य यह है कि कर्मवेद या मन का विश्व मानक के आविष्कार का लाभ समाज व राष्ट्र उठाये, न कि आविष्कारक के जीवन शैली को जानने की कोशिश करें क्योकि कोई भी आविष्कारक, आविष्कार एवं उसकी स्थापना के लिए स्वयं को अनेक विचित्र परिस्थितियो से गुजारता है। और आविष्कार पूर्ण हो जाने पर प्रयोग के परिस्थितियो से गुजरने की आवश्यकता नहीं रह जाती।
पाँच ट्रस्ट निम्नलिखित हैं-
1.साधु एवं सन्यासी के लिए
- सत्ययोगानन्द मठ (ट्रस्ट)
2.राजनीतिक उत्थान व विश्वबन्धुत्व के लिए
- प्राकृतिक सत्य मिशन (ट्रस्ट)
3.श्री लव कुश सिंह के रचनात्मक कार्यों के संरक्षण के लिए
-विश्वमानव फाउण्डेशन (ट्रस्ट)
4.व्यावहारिक ज्ञान पर शोध के लिए
-सत्यकाशी ब्रह्माण्डीय एकात्म विज्ञान विश्वविद्यालय (ट्रस्ट)
डब्ल्यू.एस. (WS)-00000: उपासना और उपासना स्थल का विश्वमानक
(WSO–00000 : World Standard of
Worship & Worship Place)
आध्यात्मिक आधार
समस्त जगत का एकत्व-यही श्रेष्ठ धर्ममत हैं। मैं अमुक हँू व्यक्ति विशेष-यह बहुत ही संकीर्ण भाव है। यथार्थ ”अहम्“ लिए, यह सत्य नहीं है। मैं विश्व व्यापक हँू-इस धारणा पर प्रतिष्ठित हो जाओ और श्रेष्ठ की उपासना सदा श्रेष्ठ रूप में करोे, कारण ईश्वर चैतन्य स्वरूप है, आत्म स्वरूप है, चैतन्य एवम् सत्य में ही उसकी उपासना करनी होगी। मानव चैतन्य स्वरूप है, और इसलिए मानव भी अनन्त है। और केवल अनन्त ही अनन्त की उपासना में समर्थ है। हम अनन्त की उपासना करेगें, वही सर्वोच्च आध्यात्मिक उपासना है।
डब्ल्यू.एस. (WS)-0000 : मानव (सूक्ष्म तथा स्थूल) के प्रबन्ध और क्रियाकलाप का विश्वमानक
(WS
– 0000 : World Standard of Management&Activity of
Human
(Micro&Macro))
आध्यात्मिक आधार
क्रियाकलापों के विश्वमानक के अनुसार कर्मशील प्रत्येक कत्र्ता स्वायत्तशासी इकाई एकल मन के रूप में क्रियाकलापों के विश्वमानक के अनुसार कर्मशील अपने से बड़े स्वायत्तशासी इकाई एकल मन जो उसमें व्याप्त है के प्रति समर्पित व केन्द्रित रहते हुये आवश्यकता और समयानुसार क्रियाकलापों के विश्वमानक के अनुसार स्वायत्तशासी इकाई एकल मन के रूप मे संयुग्मन और विखण्डन, मानव (सूक्ष्म एवम् स्थूल) के प्रबन्ध और क्रियाकलाप का विश्वमानक कहलाता है। यदि कर्मोपनिषद्-व्यष्टि का मूल सूत्र है।
क्षुद्र ब्रह्माण्ड अर्थात्् मानव अथवा कोई भी प्राणी एक एकल मन है जिसके निम्नलिखित दो रूप है।
क. व्यक्तिगत प्रमाणित सूक्ष्म एकल मन या सूक्ष्म क्षुद्र ब्रह्माण्ड या सूक्ष्म मानव
इसका उदाहरण निराकार विचार या मन है। जो पूर्ण सूक्ष्म एकल मन तथा मानव के प्रबन्ध और क्रियाकलाप के विश्वमानक से युक्त होता है। विखण्डन की क्रिया में प्रबन्ध और क्रियाकलाप के विश्वमानक से युक्त स्वायत्तशासी इकाई एकल मन के अंशमन तथा संयुग्मन की क्रिया में प्रबन्ध और क्रियाकलापों के विश्वमानक से युक्त स्वायत्तषासी इकाई एकल मन का पूर्ण रूप होता है। ये ही निराकार, सर्वव्यापी, अन्तिम, मूल और सर्वोच्च स्वायत्तशासी इकाई एकल मन है। जिससे स्थूल एकल मन या स्थूल क्षुद्र ब्रह्माण्ड व्यक्त है अर्थात् सम्पूर्ण व्यक्तिगत तन्त्र की समावेश है। जैसे-व्यक्तिगत
ख. सार्वजनिक प्रमाणित स्थूल एकल मन या स्थूल क्षुद्र ब्रह्माण्ड या स्थूल मानव
इसका उदाहरण साकार पुनर्जन्म मानव शरीर तथा अन्य प्राणी है। जो पूर्ण स्थूल एकल मन तथा मानव के प्रबन्ध और क्रियाकलाप के विश्वमानक से युक्त होता है। विखण्डन की क्रिया में प्रबन्ध और क्रियाकलाप के विश्वमानक से युक्त स्वायत्तशासी इकाई पुनर्जन्म के अंश पुर्नजन्म तथा संयुग्मन की क्रिया मे प्रबन्ध और क्रियाकलापों के विश्वमानक से युक्त स्वायत्तशासी इकाई पुनर्जन्म का पूर्ण रूप होता है। ये ही साकार, सर्वव्यापी, अन्तिम, मूल और सर्वोच्च स्वायत्तशासी इकाई पुनर्जन्म है। जिससे एकल मन से युक्त संकल्पित कर्म और मानव तथा अन्य प्राणी व्यक्त है।
डब्ल्यू.एस.(WS)-00: विषय एवम् विशेषज्ञों की परिभाषा का विश्वमानक
(WS-00 : World Standard of Defination of
Subject & Specialist)
आत्यात्मिक आधारः
1.सत् का कारण असत् कभी नहीं हो सकता। शून्य से किसी वस्तु का उद्भव नही, कार्य-कारणवाद सर्वशक्तिमान है और ऐसा कोई देश-काल ज्ञात नहीं, जब इसका अस्तित्व नहीं था। यह सिद्धान्त भी उतना ही प्राचीन है, जितनी आर्य जाति। इस जाति के मन्त्र द्रष्टा कवियों ने उसका गौरव गान गया है। इसके दार्शनिकों ने उसको सूत्रबद्ध किया और उसको वह आधारशिला बनायी, जिस पर आज का भी हिन्दू अपने जीवन का समग्र योजना स्थिर करता है। -स्वामी विवेकानन्द (भारत का ऐतिहासिक क्रम विकास, पृष्ठ-1)
2.चाहे जिस विद्या में हो, प्रकृत सत्य में कभी परस्पर विरोध रह नहीं सकता। आभ्यन्तर सत्य समूह के साथ बाह्य सत्य समूह का समन्वय है।-स्वामी विवेकानन्द (धर्म विज्ञान, पृष्ठ-11)
3.क्रिया-कारण सिद्वान्त ही सर्वशक्तिमान है। सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड क्रिया का क्षेत्र है तथा इसके अतीत, कारण का ज्ञान ही देश-काल मुक्त अदृश्य व्यक्तिगत प्रमाणित सत्य-धर्म का सर्वस्व है एवम् क्रिया देश-काल मुक्त सार्वजनिक प्रमाणित सत्य ज्ञान है। क्रिया की प्रक्रिया का ज्ञान ही विज्ञान है। क्रिया ही प्राकृतिक सत्य, सर्वव्यापी, अटलनीय, अपरिवर्तनीय, विवादमुक्त और सर्वमान्य है। सार्वजनिक प्रमाणित सत्य है जिसे भगवान योगेश्वर श्री कृष्ण ने ”परिवर्तन ही संसार का नियम है“ से सम्बोधित किया। दृश्य पदार्थ वैज्ञानिक आइन्सटाइन ने म्त्रडब्2 से सिद्व किया और वर्तमान भौतिक युग ने ”इस ब्रह्माण्ड में कुछ भी स्थिर नही है“ को व्यक्त किया। यह पुन-”आदान-प्रदान के शब्द से व्यक्त किया जा रहा है। यही शब्द सम्पूर्ण मानक का विषय व सूत्र है।-लव कुश सिंह ”विश्वमानव“
इस प्रकार ”आदान-प्रदान“ शब्द सम्पूर्ण मानक का विषय अर्थात् विषय एवम् विशेषज्ञों की परिभाषा का विश्व मानक का मूल सार्वजनिक प्रमाणित सूत्र है जिससे सभी विषयों एवम् विशेषज्ञों को परिभाषित किया जा सकता है।
रूप या मार्ग या प्रमाण या काल या सत्य
प्रत्येक विषय के सत्य अर्थ को प्रकाशित होने के चार चरण होते है जिन्हें रूप या प्रमाण या मार्ग या काल कहते हैं। ये चरण एक ही व्यक्ति के मन स्तर के रूप में सर्वप्रथम व्यक्त होते हुए सम्पूर्ण विश्व में व्यक्त होते हैं। सम्पूर्ण विश्व की चरण की स्थिति के अनुसार व्यक्ति का होना ही व्यक्ति का वर्तमान में होना कहा जाता है तथा विशयों का वर्तमान सत्य अर्थ होता है।
दैनिक जीवन में प्रमाणिकता के लिए सामान्यत-दो गवाहों को आवश्यक बताया जाता है। इसी प्रकार समिति, विधानसभा, संसद इत्यादि के माध्यम से कोई भी नियम बनाने के लिए कुल सदस्यों की संख्या का दो तिहाई संख्या का समर्थन आवश्यक होता है। ऐसा क्यों है? क्या ऐसा निर्धारण करने वाले व्यक्ति ने अनायास ही ऐसा निर्धारण कर दिया है या इसके कुछ मानवीय-प्राकृतिक आधार हैं? प्राय-जो नियम बन जाते हैं, हम उसका पालन और उसी रुप में उसे स्वीकार कर लेते हैं। हम ये नहीं जानना चाहते कि उसका आधार क्या है? जबकि उसका आधार ही सत्य जीने की कला प्रदान करता है। यहाँ हम गवाह में दो तथा नियम बनाने में दो तिहाई बहुमत की संख्या ही क्यों मान्य होती है? उसके मानवीय-प्राकृतिक आधार को प्रस्तुत कर रहे हैं जिससे मनुष्य अपनी वास्तविक छवि को इच्छानुसार छुपा या स्थापित कर सकता है। साथ ही किसी भी स्तर के समिति के भविष्य के समय को पहचानने में सक्षम हो सकता है।
प्रमाण के मूलत-दो प्रकार हैं-अदृश्य तथा दृश्य। तथा प्रत्येक प्रकार के प्रमाणों में पुन-दो प्रकार होते हैं-व्यक्तिगत प्रमाणित तथा सार्वजनिक प्रमाणित। इस प्रकार से कुल चार प्रकार के प्रमाण होते हैं। जो क्रमश-निम्नलिखित रुप से विस्तृत है।
व्यक्तिगत प्रमाणित अदृश्य प्रमाण की स्थिति वह स्थिति है जिसमें नितान्त एकाकी व्यक्तिगत दृष्टि या सोच या कर्म हो या दो व्यक्तियों का आपसी व्यवहार जिसमें तीसरा व्यक्ति प्रमाण स्वरुप उपलब्ध नहीं होता है। ऐसी स्थिति में या तो एक ही व्यक्ति कर्ता या वक्ता व द्रष्टा या श्रोता होता है या दो व्यक्ति एक दूसरे के लिए कर्ता या वक्ता व द्रष्टा व श्रोता होते हैं। परिणामस्वरुप ऐसी स्थिति के तथ्य सर्वाधिक विवादास्पद होते हेैं उदाहरण रुप में
प्रथम-ऐसी स्थिति हो सकती है कि कोई व्यक्ति किसी व्यक्ति के समक्ष अपना वास्तविक रुप दिखाए तथा किसी अन्य के समक्ष ऐसा व्यवहार करे जिससे उसकी छवि नकारात्मक दिखाई दे परिणामस्वरुप देखने वाला व्यक्ति आजीवन अंधेरे में ही पड़ा रह सकता है या उसे पूर्ण रुप से जानने वाला बन सकता है।
द्वितीय-ऐसी स्थिति हो सकती है कि कोई व्यक्ति अन्य किसी व्यक्तिगत प्रमाणित अदृश्य स्थिति के कर्म से प्राप्त सूचना के आधार पर उस व्यक्ति को देखेगा और समझेगा।
तीसरी-ऐसी स्थिति हो सकती है कि दो व्यक्तियों के बीच मौखिक व्यवहार हो और उसमें से एक व्यक्ति अपनी नैतिकता खोकर लाभ के लिए लेन-देन में परिवर्तित बात करता हो। ऐसी स्थिति में वास्तविक बात का कोई प्रमाण नहीं रहता परिणामस्वरुप विवाद की स्थिति आ जाती है। परन्तु यदि कोई तीसरा व्यक्ति वहाँ होेता या लिखित प्रमाण होता तो ऐसी स्थिति की सम्भावना नहीं बन पाती। इसलिए ही प्राय-गम्भीर मामलों में प्रामाणिकता के लिए प्रत्येक संविदा या घटना के साथ दो गवाहों की अनिवार्यता निर्धारित की गयी है। परन्तु साधारण व्यवहार में नैतिकता ही सर्वोपरि है क्योंकि छोटी-छोटी बातों का प्रत्येक के लिए गवाह न तो सम्भव होता है, न ही मानवीय दृष्टि से विश्वसनीयता के लिए उचित।
सार्वजनिक प्रमाणित अदृश्य प्रमाण की स्थिति वह स्थिति है जिसमें प्रकृति या ब्रह्माण्ड की दृष्टि या कर्म हो जो सार्वजनिक प्रमाणित रुप से दिखाई तो पड़ती है। परन्तु प्रमाणिक रुप से प्रत्येक व्यक्ति अलग-अलग अपने मन स्तर से अनुभव करता है। उदाहरण स्वरुप-प्रकृति या ब्रह्माण्ड द्वारा अपने सन्तुलन को बनाये रखने के लिए विभिन्न क्रियाकलाप जिसे प्राकृतिक आपदा कहते हैं। यह क्यों होता है? यह सार्वजनिक रुप से प्रमाणित नहीं है। परन्तु व्यक्तिगत रुप से यह प्रमाणित है कि प्रकृति में व्याप्त तीन गुण सत्व, रज और तम में से जब रज और तम का संयुक्त बल अधिक होता है तब सत्व अपना हस्तक्षेप करके सन्तुलन बनाये रखता है। मानवीय प्रकृति में भी ये तीन गुण व्याप्त हैं। किसी भी समिति, विधानसभा, संसद इत्यादि के सदस्यों में ये तीनों गुण न्यूनाधिक प्राथमिकता लिए विद्यमान रहती है। इसलिए जब भी कोई नियम बनाने की आवश्यकता होती है तब नियम पर अपनी सहमति देने के लिए कुल तीन में से दो अर्थात् दो तिहाई समर्थन आवश्यक होता है। अर्थात् सदस्य सत्व-रज, या सत्व-तम, या रज-तम की संयुक्त शक्ति से समर्थन प्रदान करते हैं। परन्तु रज-तम गुण प्रधान बनने की स्थिति में सत्व-सत्व गुण प्रधान (राष्ट्रपति, राज्यपाल, अध्यक्ष इत्यादि यदि वे इस योग्य होते हैं तब) का हस्तक्षेप हो जाता है। प्रकृति में व्याप्त तीन गुण के कारण ही नियम बनाने में दो तिहाई बहुमत की आवश्यकता अनिवार्य मानी गयी है। प्रत्येक समिति, विधानसभा, संसद में नियमों पर सहमति के आधार पर यह जाना जा सकता है कि वह समिति, सभा या संसद किन गुणों की प्राथमिकता में चल रहा है। और सत्व-सत्व गुण का हस्तक्षेप का समय क्या हो सकता है। सत्व-रज गुण आधारित सभा उच्चस्तरीय, सत्व-तम गुण आधारित सभा मध्यम तथा रज-तम आधारित सभा निम्नस्तरीय होती है। सत्व गुण एकात्म प्रधान, रज गुण कर्म प्रधान तथा तम गुण शरीर प्रधान गुण है।
व्यक्तिगत प्रमाणित दृश्य प्रमाण की स्थिति वह स्थिति है जिसमें व्यक्ति की दृष्टि या कर्म हो जो सार्वजनिक प्रमाणिक रुप से दिखाई तो पड़ती है परन्तु प्रमाणिक रुप से प्रत्येक व्यक्ति अलग-अलग अपने मन स्तर से अनुभव करता है। इस प्रमाण में कर्ता व्यक्ति स्वयं को आत्मीय सत्य केे अनुसार समझते हुए कर्म करता है तथा व्यक्ति को नियमबद्ध करने के लिए सार्वजनिक रुप से समर्थन प्राप्त नहीं करता क्योंकि सम्बन्धित प्रत्येक व्यक्तियों की प्रकृति का व्यक्तिगत रुप से अलग-अलग वह परीक्षण कर चुका होता है। इस प्रमाण का उदाहरण श्रीकृष्ण का जीवन है। जिनसे ”महाभारत“ सम्पन्न हुआ और ”गीता“ उपदेश व्यक्त हुआ। गीता का उपदेश अर्थात्् श्रीकृष्ण-अर्जुन संवाद व्यक्तिगत प्रमाणित दृश्य प्रमाण का ही उदाहरण है। क्योंकि घटना सार्वजनिक प्रमाणित रुप से दिख रही थी परन्तु संवाद को एक साथ दो या अधिक व्यक्ति नहीं सुन रहे थे। यदि सुन भी रहे थे तो वे एक साथ नहीं थे अर्थात्् सुनने वाले भी एक दूसरे से अलग थे। इस उपदेश को देखने व सुनने में
पहला स्थान-सिर्फ अर्जुन अकेले देख व सुन रहा था।
दूसरा स्थान-वृक्ष पर धड़ से अलग बरबरीक का सिर सिर्फ देख रहा था।
तीसरा स्थान-दिव्य दृष्टि के द्वारा संजय अकेले देखकर साथ बैठे अन्धे धृतराष्ट्र व अन्धी बनीं गान्धारी को वर्णन सुना रहा था।
चैथा स्थान-दोनों पक्षों की सेना सिर्फ श्रीकृष्ण और अर्जुन को देख पा रही थी परन्तु कुछ सुन नहीं पा रही थी ।
पाँचवां स्थान-महाभारत शास्त्र साहित्य के रचयिता महर्षि व्यास जी अकेले देख, सुन व लिपिबद्ध कर रहे थे।
इन पाँचों स्थितियों में कहीं भी ऐसी स्थिति नहीं है जिससे यह कहा जा सके कि गीता का उपदेश सार्वजनिक प्रमाणित रुप से दिया गया था बल्कि यह व्यक्तिगत प्रमाणित रुप से सिर्फ अर्जुन को व्यक्तिगत रुप सेे दिया गया था और विश्वरुप भी सिर्फ व्यक्तिगत प्रमाणित रुप से ही देखा गया था। इस प्रकार व्यक्त आत्म ज्ञान सत्य होते हुए भी व्यक्तिगत प्रमाणित ही है। यहाँ यह विचार करने योग्य विषय अवश्य है कि जब आत्म ज्ञान व्यक्तिगत रूप से ही प्रमाणित होने वाला विषय है। तबं ”महाभारत“ व ”गीता“ के व्यक्तकत्र्ता उस घटना को ऐसी स्थिति में कैसे प्रस्तुत कर सकते थे जो सार्वजनिक प्रमाणित हो? केवल बुद्धि व मस्तिष्क देखिये शेष आस्था व श्रद्धा में तो मानव समाज पूरा जीवन व्यतीत कर ही रहा है।
सार्वजनिक प्रमाणित दृश्य प्रमाण की स्थिति वह स्थिति है जिसमें व्यक्ति की दृष्टि व कर्म सार्वजनिक प्रमाणित रुप से दिखाई पड़ती है तथा सार्वजनिक रुप से एक साथ व्यक्ति अनुभव भी करता है। इस प्रमाण में कर्ता व्यक्ति स्वयं को सार्वभौम सत्य-सिद्धान्त के अनुसार समझते हुए कर्म करता है तथा व्यक्ति को नियमबद्ध करने के लिए सार्वजनिक रुप से समर्थन प्राप्त नहीं करता इस प्रमाण का उदाहरण श्री लव कुश सिंह ”विश्वमानव“ का जीवन है। जिनसे समष्ठि धर्म शास्त्र ”कर्मवेद-प्रथम, अन्तिम तथा पंचमवेद“ तथा समष्ठि धर्म निरपेक्ष, सर्वधर्मसमभाव धर्म शास्त्र मन का विश्वमानक और पूर्ण मानव निर्माण की तकनीकी समाहित ”विश्वभारत“ शास्त्र-साहित्य व्यक्त हुआ। जो सार्वजनिक रुप से व्यक्त सार्वभौम सत्य-सिद्धान्त है। और सार्वजनिक प्रमाणित दृश्य है। क्योंकि यहाँ कोई भी कर्म व्यक्तिगत रूप से व्यक्त नहीं हो रहा है। यदि है भी तो वह नहीं के बराबर है अर्थात् श्री कृष्ण में जो सार्वजनिक प्रमाणित सूक्ष्म था और व्यक्तिगत प्रमाणित व्यापक था वह श्री लव कुश सिंह ”विश्वमानव“ में विपरीत होकर सार्वजनिक प्रमाणित व्यापक और व्यक्तिगत प्रमाणित सूक्ष्म होकर व्यक्त हुआ है।
रूप या प्रमाण या मार्ग
आदान-प्रदान की क्रिया या कर्म जिससे परिणाम या फल प्राप्त होता है। रूप या प्रमाण या मार्ग कहलाती है। इसके निम्न रूप है।
1.अदृश्य रूप या प्रमाण या मार्ग-व्यक्तिगत प्रमाणित आदान-प्रदान की क्रिया या कर्म जिससे परिणाम या फल प्राप्त होता है। अदृश्य रूप या प्रमाण या मार्ग कहलाता है। इसके निम्न रूप हैं।
क. व्यक्तिगत प्रमाणित अदृश्य रूप या प्रमाण या मार्ग-व्यक्तिगत प्रमाणित आदान-प्रदान की क्रिया या कर्म जिससे व्यक्तिगत प्रमाणित परिणाम या फल प्राप्त होता है। व्यक्तिगत प्रमाणित अदृश्य रूप या प्रमाण या मार्ग कहलाता है। जैसे-आत्मीय आदान-प्रदान।
ख. सार्वजनिक प्रमाणित अदृश्य रूप या प्रमाण या मार्ग-व्यक्तिगत प्रमाणित आदान-प्रदान की क्रिया या कर्म जिससे सार्वजनिक प्रमाणित परिणाम या फल प्राप्त होता है। सार्वजनिक ¬प्रमाणित अदृश्य या प्रमाण या मार्ग कहलाता है। जैसे-ब्रह्माण्डीय और प्राकृतिक आदान-प्रदान।
2.दृश्य रूप या प्रमाण या मार्ग-सार्वजनिक प्रमाणित आदान-प्रदान की क्रिया या कर्म जिससे परिणाम या फल प्राप्त होता है। दृश्य रूप या प्रमाण या मार्ग कहलाता है। इसके निम्न रूप है।
क. व्यक्तिगत प्रमाणित दृश्य रूप या प्रमाण या मार्ग-सार्वजनिक प्रमाणित आदान-प्रदान की क्रिया या कर्म जिससे व्यक्तिगत प्रमाणित परिणाम या फल प्राप्त होता है। व्यक्तिगत प्रमाणित दृश्य रूप या प्रमाण या मार्ग कहलाता है। जैसे-व्यक्तिगत प्रमाणित पूर्णावतार द्वारा आदान-प्रदान और व्यक्तिगत रूप से आदान-प्रदान।
ख. सार्वजनिक प्रमाणित दृश्य रूप या प्रमाण या मार्ग-सार्वजनिक प्रमाणित आदान-प्रदान की क्रिया या कर्म जिससे सार्वजनिक प्रमाणित परिणाम या फल प्राप्त होता है। सार्वजनिक प्रमाणित दृश्य रूप या दप्रमाण या मार्ग कहलाता है। जैसे-सार्वजनिक प्रमाणित पूर्णावतार द्वारा आदान-प्रदान और सार्वजनिक रूप से आदान-प्रदान।
डब्ल्यू.एस. (WS-0) : शून्य-विचार एवम् साहित्य का विश्वमानक
(WS-0 : World Standard of Thoughts & Literature)
आध्यात्मिक आधार
1.चाहे हम उसे वेदान्त कहें या किसी और नाम से पुकारें, परन्तु सत्य तो यह है कि धर्म और विचार में अद्वैत ही अन्तिम शब्द है, और केवल उसी के दृष्टिकोण से सब धर्मो और सम्प्रदायों को प्रेम से देखा जा सकता है। हमें विश्वास है कि भविष्य के प्रबुद्ध मानवी समाज का यही धर्म होगा।
-स्वामी विवेकानन्द (जितने मन उतने पथ, पृष्ठ-52)
2.ऋग्वेद, ज्ञान आधारित है। सामवेद, ज्ञान और गायन आधारित है। यजुर्वेद, ज्ञान तथा प्रकृति एवम् मानव के सन्तुलन के लिए अदृश्य व्यक्तिगत प्रमाणित कर्म अर्थात्् अदृश्य यज्ञ आधारित है। अथर्ववेद, ज्ञान तथा औषधि आधारित है। अगला वेद जब भी होगा वह ज्ञान तथा प्रकृति एवम् मानव के सन्तुलन के लिए दृश्य सार्वजनिक प्रमाणित कर्म अर्थात् दृश्य यज्ञ आधारित होगा क्योंकि इसके अलावा और कोई मार्ग नहीं है। -लव कुश सिंह ”विश्वमानव“
3.मानव एवम् प्रकृति के प्रति निष्पक्ष, सन्तुलित एवम् कल्याणार्थ कर्मज्ञान के साहित्य से बढ़कर आम आदमी से जुड़ा कोई भी साहित्य कभी आविष्कृत नहीं किया जा सकता। यही एक विषय है जिससे एकता, पूर्णता एवम् रचनात्मकता एकात्मभाव से लायी जा सकती है। संस्कृति से राज्य नहीं चलता। कर्म से राज्य चलता है। संस्कृति तभी तक एकात्म बनी रहती है जब तक पेट में अन्न हो, व्यवस्थाएँ सार्वभौम सत्य-सिद्धान्त युक्त हो, दृष्टि पूर्ण मानव के निर्माण पर केन्द्रीत हो। संस्कृति कभी एकात्म नहीं हो सकती लेकिन रचनात्मक दृष्टिकोण एकात्म होता है जो कालानुसार कर्मज्ञान और कर्म है। अदृश्य काल में अनेकात्म और दृश्यकाल में एकात्म कर्मज्ञान होता है। और यही कर्म आधारित भारतीय संस्कृति है जो सभी संस्कृतियों का मूल है।-लव कुश सिंह ”विश्वमानव“
इस प्रकार विचार में ”अद्वैत अर्थात् एकत्व“ का विचार एवम् साहित्य में ”कर्मवेद-प्रथम, अन्तिम तथा पंचमवेद श्रंृखला अर्थात् WS-0 : मन की गुणवत्ता का विश्व मानक श्रृंखला“ शास्त्र-साहित्य क्रमश-विचार एवम् साहित्य का विश्व मानक है।
विश्व मानक.शून्य (WS-0) : मन की गुणवत्ता का विश्व मानक श्रृखंला
(WS-0 : World Standard of Mind Series)
आत्यात्मिक आधार
1.अथर्ववेद संहिता की एक विलक्षण ऋचा याद आ गयी जिसमें कहा गया है, ”तुम सब लोग एक मन हो जाओ, सब लोग एक ही विचार के बन जाओ। एक मन हो जाना ही समाज का गठन का रहस्य है बस इच्छाशक्ति का संचय और उनका समन्वय कर उन्हें एकमुखी करना ही सारा रहस्य है। -स्वामी विवेकानन्द (नया भारत गढ़ो, पृष्ठ-55)
2.समग्र संसार का अखण्डत्व, जिसकें ग्रहण करने के लिए संसार प्रतीक्षा कर रहा है, हमारे उपनिषदों का दूसरा भाव है। प्राचीन काल के हदबन्दी और पार्थक्य इस समय तेजी से कम होते जा रहे हैं। हमारे उपनिषदों ने ठीक ही कहा है-”अज्ञान ही सर्व प्रकार के दुःखो का कारण है।“ सामाजिक अथवा आध्यात्मिक जीवन की हो जिस अवस्था में देखो, यह बिल्कुल सही उतरता है। अज्ञान से ही हम परस्पर घृणा करते है, अज्ञान से ही एक एक दुसरे को जानते नहीं और इसलिए प्यार नहीं करते। जब हम एक दुसरे को जान लेगे, प्रेम का उदय हेागा। प्रेम का उदय निश्चित है क्योंकि क्या हम सब एक नहीं हैं? इसलिए हम देखते है कि चेष्टा न करने पर भी हम सब का एकत्व भाव स्वभाव से ही आ जाता है। यहाँ तक की राजनीति और समाजनीति के क्षेत्रो में भी जो समस्यायें बीस वर्ष पहले केवल राष्ट्रीय थी, इस समय उसकी मीमांसा केवल राष्ट्रीयता के आधार पर और विशाल आकार धारण कर रही हैं। केवल अन्तर्राष्ट्रीय संगठन, अन्तर्राष्ट्रीय विधान ये ही आजकल के मूलतन्त्र स्वरूप है।
-स्वामी विवेकानन्द (मानवतावाद, पृष्ठ-48)
3.शिक्षा का मतलब यह नहीं है कि तुम्हारे दिमाग में ऐसी बहुत सी बातें इस तरह से ठूंस दी जाये, जो आपस में लड़ने लगे और तुम्हारा दिमाग उन्हें जीवन भर हजम न कर सकें। जिस शिक्षा से हम अपना जीवन निर्माण कर सकंे, मनुष्य बन सके, चरित्र गठन कर सकें और विचारों का सांमजस्य कर सके, वही वास्तव में शिक्षा कहलाने योग्य है। यदि तुम पाँच ही भावों को हजम कर तद्नुसार जीवन और चरित्र गठन कर सके तो तुम्हारी शिक्षा उस आदमी की अपेक्षा बहुत अधिक है जिसने एक पुरी की पुरी लाइब्रेरी ही कठंस्थ कर ली है
-स्वामी विवेकानन्द (राष्ट्र का आह्वान, पृष्ठ-31)
सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में व्याप्त एक ही सत्य-सिद्धान्त द्वारा व्यक्तिगत व संयुक्त मन को एकमुखी कर सर्वोच्च, मूल और अन्तिम स्तर पर स्थापित करने के लिए WS-0 श्रृंखला की निम्नलिखित पाँच शाखाएं है।
01.डब्ल्यू.एस.(WS)-0 : विचार एवम् साहित्य का विश्वमानक
02.डब्ल्यू.एस.(WS)-00 :विषय एवम् विशेषज्ञों की परिभाषा का विश्वमानक
03.डब्ल्यू.एस.(WS)-000 :ब्रह्माण्ड (सूक्ष्म एवम् स्थूल) के प्रबन्ध और क्रियाकलाप का विश्वमानक
04.डब्ल्यू.एस.(WS)-0000 :मानव (सूक्ष्म तथा स्थूल) के प्रबन्ध और क्रियाकलाप का विश्वमानक
05.डब्ल्यू.एस.(WS)-00000 :उपासना और उपासना स्थल का विश्वमानक
विश्व सरकार के लिए पुन-भारत द्वारा शून्य आधारित अन्तिम आविष्कार
मानक का अर्थ है-”वह सर्वमान्य पैमाना, जिससे हम उस विषय का मूल्यांकन करते है। जिस विषय का वह पैमाना होता है।“ इस प्रकार मन की गुणवत्ता का मानक व्यक्ति तथा संयुक्त व्यक्ति (अर्थात् संस्था, संघ, सरकार इत्यादि) के मूल्याकंन का पैमाना है चूँकि आविष्कार का विषय सर्वव्यापी ब्रह्माण्डीय नियम पर आधारित है। इसलिए वह प्रत्येक विषयों से सम्बन्धित है जिसकी उपयोगिता प्रत्येक विषय के सत्यरूप को जानने में है। चूँकि मानव कर्म करते-करते ज्ञान प्राप्त करते हुऐ प्रकृति के क्रियाकलापों को धीरे-धीरे अपने अधीन करने की ओर अग्रसर है इसलिए पूर्णत-प्रकृति के पद पर बैठने के लिए प्रकृति द्वारा धारण की गई सन्तुलित कार्यप्रणाली को मानव द्वारा अपनाना ही होगा अन्यथा वह सन्तुलित कार्य न कर अव्यवस्था उत्पन्न कर देगा। यह वैसे ही है जैसे किसी कर्मचारी को प्रबन्धक (मैनेजर) के पद पर बैठा दिया जाये तो सन्तुलित कार्य संचालन के लिए प्रबन्घक की सन्तुलित कार्यप्रणाली को उसे अपनाना ही होगा अन्यथा वह सन्तुलित कार्य न कर अव्यवस्था उत्पन्न कर देगा। आविष्कार की उपयोगिता व्यापक होते हुए भी मूल रूप से व्यक्ति स्तर से विश्व स्तर तक के मन और संयुक्त मन के प्रबन्ध को व्यक्त करना एवम् एक कर्मज्ञान द्वारा श्रृंखला बद्ध करना है जिससे सम्पूर्ण शक्ति एक मुखी हो विश्व विकास की दिशा में केन्द्रित हो जाये। परिणामस्वरूप एक दूसरे को विकास की ओर विकास कराते हुऐ स्वयं को भी विकास करने के लिए पूर्ण स्वतन्त्रता प्राप्त हो जायेगी। सम्पूर्ण क्रियाकलापों को संचालित करने वाले मूल दो कत्र्ता-मानव (मन) और प्रकृति (विश्वमन) दोनों का कर्मज्ञान एक होना आवश्यक है। प्रकृति (विश्वमन) तो पूर्ण धारण कर सफलतापूर्वक कार्य कर ही रही है। मानव जाति में जो भी सफलता प्राप्त कर रहे हैं वे अज्ञानता में इसकें आंशिंक धारण में तथा जो असफलता प्राप्त कर रहे हैं, वे पूर्णत-धारण से मुक्त है। इसी कर्मज्ञान से प्रकृति, मानव और संयुक्त मन प्रभावित और संचालित है। किसी मानव का कर्मक्षेत्र सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड हो सकता है और किसी का उसके स्तर रूप में छोटा यहाँ तक कि सिर्फ स्वयं व्यक्ति का अपना स्तर परन्तु कर्मज्ञान तो सभी का एक ही होगा।
शून्य का प्रथम आविष्कार का परिचय
शून्य (0), दशमलव संख्या प्रणाली में संख्या है। यह दशमलव प्रणाली का मूलभूत आधार भी है। किसी भी संख्या को शून्य से गुणा करने से शून्य प्राप्त होता है। किसी भी संख्या को शून्य से जोड़ने या घटाने पर वही संख्या प्राप्त होती है।
शून्य का आविष्कार किसने और कब किया यह आज तक अंधकार के गर्त में छुपा हुआ है परन्तु सम्पूर्ण विश्व में यह तथ्य स्थापित हो चुका है कि शून्य का आविष्कार भारत में ही हुआ है। ऐसी भी कथाएँ प्रचलित हैं कि पहली बार शून्य का आविष्कार बाबिल में हुआ और दूसरी बार माया सभ्यता के लोगों ने इसका आविष्कार किया पर दोनों ही बार के आविष्कार संख्या प्रणाली को प्रभावित करने में असमर्थ रहे तथा विश्व के लोगों ने इसे भुला दिया। फिर भारत में हिन्दुओं ने तीसरी बार शून्य का आविष्कार किया। हिन्दुओं ने शून्य के विषय में कैसे जाना यह आज भी अनुत्तरित प्रश्न है। अधिकतम विद्वानों का मत है कि पाँचवीं शताब्दी के मध्य में शून्य का आविष्कार किया गया। सन् 498 में भारतीय गणितज्ञ एवं खगोलवेक्ता आर्यभट्ट ने कहा ”स्थानं स्थानं दसा गुणम्“ अर्थात् दस गुना करने के लिए संख्या के आगे शून्य रखो। और शायद यही संख्या के दशमलव सिद्धान्त का उद्भव रहा होगा। आर्यभट्ट द्वारा रचित गणितीय खगोलशास्त्र ग्रन्थ आर्यभट्टीय के संख्या प्रणाली में शून्य तथा उसके लिए विशिष्ट संकेत सम्मिलित था। इसी कारण से उन्हें संख्याओं को शब्दों में प्रदर्शित करने का अवसर मिला। प्रचीन बक्षाली लिपि में, जिसका कि सही काल अब तक निश्चित नहीं हो पाया है परन्तु निश्चित रूप से उसका काल आर्यभट्ट के काल से प्राचीन है, शून्य का प्रयोग किया गया है और उसके लिए उसमें संकेत भी निश्चित है। उपरोक्त उदाहरणों से स्पष्ट है कि भारत में शून्य का प्रयोग ब्रह्मगुप्त रचित ग्रन्थ ब्रह्मस्फुट सिद्धान्त में पाया गया है। इस ग्रन्थ में नकारात्मक संख्याओं और बीजगणितीय सिद्धान्तो का भी प्रयोग हुआ है। 7वीं शताब्दी जो ब्रह्मगुप्त का काल था, शून्य से सम्बन्धित विचार कम्बोडिया तक पहुँच चुके थे और दस्तावेजों से ज्ञात होता है कि बाद में ये कम्बोडिया से चीन तथा अन्य मुस्लिम संसार में फैल गये। इस बार भारत में हिन्दुओं के द्वारा आविष्कृत शून्य ने समस्त विश्व की संख्या प्रणाली को प्रभावित किया और सम्पूर्ण विश्व को जानकारी मिली। मध्य-पूर्व में स्थित अरब देशों ने भी शून्य को भारतीय विद्वानों से प्राप्त किया। अन्तत-12वीं शताब्दी में भारत का यह शून्य पश्चिम में यूरोप तक पहुँचा।
शून्य आधारित अन्तिम आविष्कार का परिचय
आविष्कार विषय ”व्यक्तिगत मन और संयुक्तमन का विश्व मानक और पूर्णमानव निर्माण की तकनीकी है जिसे धर्म क्षेत्र से कर्मवेद-प्रथम, अन्तिम तथा पंचमवेदीय श्रृंखला तथा शासन क्षेत्र से WS-0:मन की गुणवत्ता का विश्व मानक श्रृंखला तथा WCM-TLM-SHYAM.C तकनीकी कहते है। सम्पूर्ण आविष्कार सार्वभौम सत्य-सिद्वान्त अर्थात् सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में व्याप्त अटलनीय, अपरिवर्तनीय, शाश्वत व सनातन नियम पर आधारित है, न कि मानवीय विचार या मत पर आधारित।“
सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में व्याप्त एक ही सत्य-सिद्धान्त द्वारा व्यक्तिगत व संयुक्त मन को एकमुखी कर सर्वोच्च, मूल और अन्तिम स्तर पर स्थापित करने के लिए शून्य पर अन्तिम आविष्कार WS-0 श्रृंखला की निम्नलिखित पाँच शाखाएँ है।
01.डब्ल्यू.एस.(WS)-0 : विचार एवम् साहित्य का विश्वमानक
02.डब्ल्यू.एस. (WS)-00 : विषय एवम् विशेषज्ञों की परिभाषा का विश्वमानक
03.डब्ल्यू.एस. (WS)-000 : ब्रह्माण्ड (सूक्ष्म एवम् स्थूल) के प्रबन्ध और क्रियाकलाप का विश्वमानक
04.डब्ल्यू.एस. (WS)-0000 : मानव (सूक्ष्म तथा स्थूल) के प्रबन्ध और क्रियाकलाप का विश्वमानक
05.डब्ल्यू.एस. (WS)-00000 : उपासना और उपासना स्थल का विश्वमानक
वर्तमान समय के भारत तथा विश्व की इच्छा शान्ति का बहुआयामी विचार-अन्तरिक्ष, पाताल, पृथ्वी और सारे चराचर जगत में एकात्म भाव उत्पन्न कर अभय का साम्राज्य पैदा करना और समस्याओं के हल में इसकी मूल उपयोगिता है। साथ ही विश्व में एक धर्म-विश्वधर्म-सार्वभौम धर्म, एक शिक्षा-विश्व शिक्षा, एक न्याय व्यवस्था, एक अर्थव्यवस्था, एक संविधान स्थापित करने में है। भारत के लिए यह अधिक लाभकारी है क्योंकि यहाँ सांस्कृतिक विविधता है। जिससे सभी धर्म-संस्कृति को सम्मान देते हुए एक सूत्र में बाॅधने के लिए सर्वमान्य धर्म उपलब्ध हो जायेगा साथ ही संविधान, शिक्षा व शिक्षा प्रणाली व विषय आधारित विवाद को उसके सत्य-सैद्धान्तिक स्वरूप से हमेशा के लिए समाप्त किया जा सकता है। साथ ही पूर्ण मानव निर्माण की तकनीकी से संकीर्ण मानसिकता से व्यक्ति को उठाकर व्यापक मानसिकता युक्त व्यक्ति में स्थापित किये जाने में आविष्कार की उपयोगिता है। जिससे विध्वंसक मानव का उत्पादन दर कम हो सके। ऐसा न होने पर नकारात्मक मानसिकता के मानवो का विकास तेजी से बढ़ता जायेगा और मनुष्यता की शक्ति उन्हीं को रोकने में खर्च हो जायेगी। यह आविष्कार सार्वभौम लोक या गण या या जन का निराकार रूप है इसलिए इसकी उपयोगिता स्वस्थ समाज, स्वस्थ लोकतन्त्र तथा स्वस्थ उद्योग की प्राप्ति में है अर्थात् मानव संसाधन की गुणवत्ता का विश्वमानक की प्राप्ति में है। साथ ही ब्रह्माण्ड की सटीक व्याख्या में है।