Friday, April 10, 2020

जनमत से अलग सर्वेक्षण के आधार

जनमत से अलग सर्वेक्षण के आधार


जनमत आधारित सर्वेक्षण किसी विषय/बिन्दु पर पक्ष और विपक्ष आधारित हो सकता है। एक निर्माता चाहे वह किसी उत्पाद का हो या समाज का, वह जनमत से अलग दृष्टि रखकर सर्वेक्षण करता है। इस प्रकार के सर्वेक्षण जनता को छूते भी नहीं और उनके लिए उत्पाद/योजना तैयार कर ली जाती है।
जनमत से अलग होकर सर्वेक्षण के लिए आॅकड़े समाचारों और उस क्षेत्र के संसाधन के उपलब्ध आॅकड़े द्वारा प्राप्त होते हैं। भारतीय शास्त्रों में ऐसे आॅकड़ों को प्रसारित करने वाले मानक चरित्र के रूप में नारद मुनि का प्रक्षेपण है।
एक ही पक्ष को जानना/सुनना/देखना, एक नेत्र से देखना कहा जाता है। दूसरे पक्ष को भी जानना/सुनना/देखना, दो नेत्र से देखना कहा जाता है। दोनों पक्षों को जानना/सुनना/देखना, और संतुष्टि के लिए समन्वय स्थापित करना समन्वायात्मक दृष्टि कही जाती है जबकि संतुष्टि सहित दोनों पक्षों की शक्ति को रचनात्मकता की ओर लगा देना तीसरे नेत्र की दृष्टि कही जाती है। चूंकि यह दृष्टि रचनात्मक होती है इसलिए दोनों पक्षों को अपने विचार पर उनके ही दिशा से व्यापक विचार होता है इसलिए पक्षों को उनके अंहकार पर चोट जैसा अनुभव कराता है। उन्हें लगता है कि हमारा अस्तित्व नहीं रहा। इसी को तीसरे नेत्र से भस्म कर देना कहते हैं। पौराणिक कथाओं में नारद मुनि और शिव-शंकर द्वारा रचनात्मक विकास दर्शन के प्रयोग के अनेक घटनाएँ उपलब्ध हैं। कोई भी रचनात्मक विकास दर्शन अपने अन्दर पुराने सभी दर्शनों को समाहित कर लेता है अर्थात् उसका विनाश कर देता है और स्वयं रचनात्मक मार्गदर्शक दर्शन का स्थान ले लेता है। अर्थात् सृष्टि-स्थिति-प्रलय फिर सृष्टि। चक्रीय रूप में ऐसा सोचने वाला ही नये परिभाषा में आस्तिक और सिर्फ सीधी रेखा में सृष्टि-स्थिति-प्रलय सोचने वाला नास्तिक कहलाता है। 
तीसरे नेत्र के दृष्टि सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में व्याप्त कर्मज्ञान की दृष्टि है। कर्मज्ञान की दृष्टि ही रचनात्मक विकास दर्शन की दृष्टि होती है। जो सभी प्रकार के विचार के उपर स्वयं को स्थापित कर लेता है। इस दृष्टि के निम्नलिखित बिन्दु है (विस्तार के लिए अध्याय-तीन देखें)

सूत्र-1. ज्ञानातीत चक्र: चक्र-0-धर्म ज्ञान से बिना युक्त के मुक्त अर्थात् अपना मालिक अन्य और धर्म ज्ञान से युक्त होकर मुक्त अर्थात् अपना मालिक स्वंय की स्थिति। ज्ञानावस्था से होकर यही चक्र 7 भी कहलाता है। यह स्थिति शिशु और ज्ञानी की होती है।

सूत्र-2. भौतिकवाद या भोगवाद कर्म चक्र: 
चक्र-1. TRANSACTION-आदान-प्रदान चक्र। यही ज्ञानावस्था में चक्र-6 कहलाता है।
उपचक्र 1.1-शारीरिक
उपचक्र 1.2-आर्थिक/संसाधन
उपचक्र 1.3-मानसिक
चक्र-2. RURAL-ग्रामीण चक्र
उपचक्र 2.1-शारीरिक
उपचक्र 2.2-आर्थिक/संसाधन
उपचक्र 2.3-मानसिक
चक्र-3.ADVANCEMENT या ADAPTABILITY आधुनिकता या अनुकूलन चक्र
उपचक्र 3.1-शारीरिक
उपचक्र 3.2-आर्थिक/संसाधन
उपचक्र 3.3-मानसिक
चक्र-4. DEVELOPMENT -विकास चक्र
उपचक्र 4.1-शारीरिक
उपचक्र 4.2-आर्थिक/संसाधन
उपचक्र 4.3-मानसिक
चक्र-5. EDUCATION-शिक्षा चक्र
उपचक्र 5.1-शारीरिक
उपचक्र 5.2-आर्थिक/संसाधन
उपचक्र 5.3-मानसिक

सूत्र-3. आध्यात्मवाद-ज्ञानचक्र: 
चक्र-6. NATURAL TRUTH -प्राकृतिक सत्य चक्र: यही चक्र अज्ञानावस्था में चक्र-1 कहलाता है।
उपचक्र-1.1-अदृश्य प्राकृतिक अर्थात् अदृश्य आत्मा
उपचक्र 1.2-दृश्य प्राकृतिक अर्थात् दृश्य आत्मा

सूत्र-4. ज्ञानातीत चक्र: चक्र-7-RELIGION-धर्मचक्र: अपना मालिक स्वंय की स्थिति। यही अज्ञानावस्था में चक्र-0 भी कहलाता है।

इस प्रकार-to step up TRADE through CENTRE (सभी कर्म व्यापार को सार्वभौम आत्मा केन्द्र के ज्ञान द्वारा आगे बढ़ाना) अर्थात् विस्तार में to step up Transaction, Rural, Advancement (Adaptability), Development, Education through Center for Enhancement of Natural Truth & Religious Education  (सभी कर्म आदान-प्रदान, ग्रामीण, आधुनिकता-अनुकूलन, विकास, शिक्षा को प्राकृतिक सत्य और धार्मिक शिक्षा के ज्ञान द्वारा आगेे बढ़ाना) हुआ अर्थात् जो व्यक्ति और संस्था समभाव और निष्पक्ष में स्थित होकर सभी शारीरिक, आर्थिक व मानसिंक कर्म आदान-प्रदान, ग्रामीण, आधुनिकता-अनुकूलन, विकास, शिक्षा को सदैव एक साथ करता है वही मानक व्यक्ति और संस्था कहलाता है। 
किसी भी व्यक्ति (व्यष्टि मन), संस्था (समष्टि मन) और भौगोलिक क्षेत्र के लिए उपरोक्त सर्वेक्षण के आधार बिन्दु के अनुसार देखना, तीसरे नेत्र द्वारा देखना और कमी के पूर्ति हेतु रचनात्मक योजना बनाना, स्वयं की सर्वोच्चता स्थापित करते हुये अन्य को भस्म कर देने जैसा ही होता है। उपरोक्त बिन्दुओ।के आधार पर सर्वेक्षण एक सत्य मानक सर्वेक्षण और रचनात्मक योजना ब्रह्माण्डीय विकास की दिशा के मुख्य धारा की ओर होता है।



भारत में अध्ययन/सर्वेक्षण/प्रतिवेदन

भारत में अध्ययन/सर्वेक्षण/प्रतिवेदन


भारत में अनेक अभिकरण और संगठन अध्ययन और सर्वेक्षणों का आयोजन करते हैं, साथ ही अर्थव्यवस्था की विविध पहलुओं शामिल करते हुए एक नियमित आधार पर रिपोर्ट प्रकाशित करते हैं। प्रत्येक अनुसंधान और प्रकाशन देश के एक विशेष खंड पर केन्द्रित होता है तथा इसके निष्पादन और घटनाओं का विश्लेषण करता है।
भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) सबसे महत्वपूर्ण संगठन है जो अपने वार्षिक, तिमाही, मासिक, साप्ताहिक और यदाकदा होने वाले प्रकाशनों में अर्थव्यवस्था के सभी क्षेत्रों पर सूचना और आंकड़े प्रकाशित करता है। 
सांख्यिकीय और कार्यक्रम कार्यान्वयन मंत्रालय यह अंतरराष्ट्रीय मानकों के साथ विश्वसनीय और साखपूर्ण सांख्यिकीय आंकड़ों के प्रसार हेतु एक शीर्ष संगठन है। इस प्रयोजन के लिए मंत्रालय ने ”सांख्यिकीय स्कंध“ बनाया है जिसमें केन्द्रीय सांख्यिकीय संगठन (सीएसओ) और राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण संगठन (एनएसएसओ) शामिल हैं। केन्द्रीय सांख्यिकीय संगठन (सीएसओ) यह देश में सांख्यिकीय गतिविधियों के समन्वय तथा सांख्यिकीय मानकों के रखरखाव हेतु उत्तरदायी है। इसकी गतिविधियों में शामिल हैं राष्ट्रीय आय लेखा, उद्योगों के वार्षिक सर्वेक्षण आयोजित करनाय आर्थिक जनगणना और इसके अनुपालन सर्वेक्षण, औद्योगिक उत्पादन के सूचकांक का संकलन, शहरी नॉन-मैनुअल कर्मचारियों के लिए उपभोक्ता मूल्य सूचकांक।
राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण संगठन (एनएसएसओ) यह आर्थिक सर्वेक्षण करता है, उद्योगों के वार्षिक सर्वेक्षण के लिए क्षेत्र कार्य करता है और आर्थिक जनगणना के अनुपालन सर्वेक्षणकर्ता है, क्षेत्र की गणना पर और फसल आकलन सर्वेक्षणों पर नियंत्रण रखता है तथा ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों से मूल्य आंकड़ों के संग्रह के अलावा शहरी नमूने लेने में उपयोगी शहरी रूपरेखा तैयार करता है। एनएसएसओ में चार प्रभाग हैं नामतः सर्वेक्षण डिजाइन और अनुसंधान प्रभाग (एसडीआरडी), क्षेत्र प्रचालन प्रभाग (एफओडी), आंकड़ा प्रक्रमण प्रभाग (डीपीडी) तथा समन्वय एवं प्रकाशन प्रभाग (सीपीडी)। एनएसएसओ के प्रतिवेदन और प्रकाशन ये हैं-सामाजिक-आर्थिक सर्वेक्षण, मूल्य संग्रह सर्वेक्षण, उद्योगों का वार्षिक सर्वेक्षण, कृषि सांख्यिकीय सर्वेक्षण, शहरी रूपरेखा सर्वेक्षण
अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अनेक प्रतिवेदन तैयार किए और प्रकाशित किए जाते हैं, जो विश्व के अन्य देशों की तुलना में भारत के निष्पादन का विश्लेषण करते हैं। इनमें से प्रमुख इस प्रकार हैं-
1. विश्व बैंक की वार्षिक पत्रिका वर्ल्ड डेवलपमेंट रिपोर्ट (डब्ल्यूडीआर) वर्तमान में दुनिया की आर्थिक, सामाजिक और पर्यावरण की स्थिति जानने का एक अनमोल मार्गदर्शक है। प्रति वर्ष ये विकास के किसी एक विशिष्ट पक्ष का गहराई से विश्लेषण प्रस्तुत करते हैं। इन प्रतिवेदनों में अनेक विषयों को शामिल किया जाता है जैसे राज्य की भूमिका, संक्रमण अर्थव्यवस्घ्था, श्रम, मूलसंरचना, स्वास्थ्य, पर्यावरण और गरीबी।
2. ह्यूमन डेवलपमेंट रिपोर्ट (एचडीआर) इसे 1990 में लोगों को आर्थिक वाद विवाद, नीति और समर्थन के संदर्भ में विकास प्रक्रिया के मध्य में रखने के एक मात्र लक्ष्य के साथ आरंभ किया गया था। इस स्वतंत्र प्रतिवेदन की स्थापना यूनाइटेड नेशन्स डेवलपमेंट प्रोग्राम ;यूएनडीपीद्ध द्वारा की गई है। इस प्रतिवेदन का अनुवाद एक दर्जन से अधिक भाषाओं में किया गया है और हर वर्ष 100 से अधिक देशों में आरंभ किया जाता है। 16 अन्य राज्यों ने अपने उप राष्ट्रीय मानव विकास प्रतिवेदन बनाने आरंभ किए हैं-जो हैं-असम, अरुणाचल प्रदेश, दिल्ली, तमिलनाडु, हिमाचल प्रदेश, कर्नाटक, सिक्किम, महाराष्ट्र, राजस्थान, पश्चिम बंगाल, पंजाब, नागालैंड, ओडिशा, गुजरात छत्तीसगढ़, केरल।
सर्व प्रथम विश्व स्वास्थ्य प्रतिवेदन विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) द्वारा वर्ष 1995 में प्रकाशित किया गया है। हर वर्ष सभी देशों से संबंधित आंकड़ों के साथ वैश्विक स्वास्थ्य के एक विशेषज्ञ आकलन को लेकर यह प्रतिवेदन एक विशिष्ट विषय पर केन्द्रित होता है। इस प्रतिवेदन का मुख्य प्रयोजन देशों, दाता अभिकरणों, अंतरर्राष्ट्रीय संगठनों तथा अन्य सभी को जानकारी प्रदान करना है, जिसकी सहायता से वे नीतियां बनाते हैं और निधिकरण के निर्णय लेते हैं। 
विश्व निवेश प्रतिवेदन (डब्ल्यूआईआर) संयुक्त राष्ट्र व्यापार और विकास सम्मेलन (यूएनसीटीएडी) का एक प्रमुख प्रकाशन है जो 1991 से हर वर्ष प्रकाशित किया जाता है। इस प्रतिवेदन के हर अंक में होता है-पिछले वर्ष के दौरान विदेशी प्रत्यक्ष निवेश में रूझानों का विश्लेषण, जिसमें विकास निहितार्थों पर विशेष बल दिया जाता है, विश्व में सबसे बड़े लेन-देन करने वाले निगमों की रैंकिंग, प्रत्यक्ष विदेशी निवेश से संबंधित चुने हुए विषयों का गहराई से विश्लेषण, नीति विश्लेषण और सिफारिशें, प्रत्यक्ष विदेशी निवेश प्रवाहों पर आंकड़ों सहित सांख्यिकीय परिशिष्ट तथा विश्व अर्थव्यवस्थाओं के लिए भंडार।



आधुनिक जीवन में सर्वेक्षण का प्रयोग व उपयोगिता

आधुनिक जीवन में सर्वेक्षण का प्रयोग व उपयोगिता

मानव सभ्यता के विकास के साथ जनसंख्या में भी बढ़ोत्तरी होती गई। हम सभी परिवार, कुनबे-कबीले से होते हुये गाॅव, राज्य, जिला, प्रदेश, देश और अब विश्व-राष्ट्र तक आ गये हैं। ये स्तर मानव के सामूहिक सोच के क्षेत्र हैं। प्रत्येक सोच-क्षेत्र की अपनी आवश्यकता और व्यवस्था संचालन है। छोटे स्तर पर व्यक्ति का व्यक्ति से सम्पर्क होता है इसलिए वहाँ सर्वेक्षण की बहुत आवश्यकता नहीं पड़ती क्योंकि वहाँ सम्पर्क के द्वारा ही राय-मत-विचार के आॅकड़े मिल जाते हैं। सोच के बड़े क्षेत्र में व्यवस्था संचालन के लिए योजना बनानी पड़ती है। ये योजनाएँ वर्तमान के लिए तथा साथ ही साथ भविष्य की आवश्यकतानुसार भी होती हैं। 
वर्तमान तथा भविष्य की आवश्यकतानुसार योजना बनाने के लिए उस क्षेत्र के स्तर के आॅकड़ों की आवश्यकता होती है। ये आॅकड़ें उस विषय क्षेत्र के लिए होते हैं जिस क्षेत्र के लिए वर्तमान तथा भविष्य की आवश्यकतानुसार योजना बनानी होती है।
आधुनिक जीवन में सर्वेक्षण के बिना कोई योजना बनानी मुश्किल है क्योंकि हम सभी इतने विशाल जनसंख्या की ओर बढ़ते जा रहें कि उनकी व्यवस्था के लिए बिना सर्वेक्षण से प्राप्त आॅकड़ों के बिना व्यवस्था सम्भालना असम्भव है। वर्तमान समय में सर्वेक्षण और आॅकड़ा हमारे जीवन का अंग है और व्यष्टि रूप से जिससे हम सभी संचालित हैं वह अब व्यक्त होकर समष्टि रूप से संचालित हो रहे हैं। जीवन के हर क्षेत्र में सर्वेक्षण का प्रयोग व उपयोगिता प्रवेश कर चुकी है।
वर्तमान आधुनिक जीवन की अधिकतम योजनाएँ वैश्विक दृष्टि से अर्थात् अपने मन को इस पृथ्वी से बाहर स्थित कर सम्पूर्ण पृथ्वी के लिए सर्वेक्षण कर योजनाएँ, कानून-नियम इत्यादि बन रहें हैं। जिस प्रकार व्यक्ति स्वयं और परिवार के लिए वर्तमान और भविष्य के लिए योजना संकलित आॅकड़े के आधार पर बनाता है उसी प्रकार वैश्विक नेतृत्व पूरे पृथ्वी पर रहने वाले मनुष्य, जीवन, पर्यावरण और पृथ्वी की सुरक्षा के लिए योजना बनाते है और यह सर्वेक्षण और संकलित आॅकड़ों के बिना असम्भव है। 
जिस प्रकार नदी में जल का सतत प्रवाह होता रहता है उसका उपयोग सिंचाईं में हो सकता है। परन्तु बाँध बनाकर जल का उपयोग करने से बिजली भी बनायी जा सकती है। उसी प्रकार मानव समाज में आॅकड़ो ;डाटाद्ध का सदैव प्रवाह हो रहा है उसे अपने मस्तिष्क में रोककर इकट्ठा करने से ही उसका विश्लेषण हो सकता है। जितने अधिक आॅकड़ों से विश्लेषण होगा परिणाम उतना ही सटीक होगा। यही बुद्धि है। कम्प्यूटर में भी यदि आॅकड़े कम होंगे तो विश्लेषण भी कम ही प्राप्त किये जा सकते हैं। जितने बड़े क्षेत्र के लिए कार्य करना हो उतने बड़े क्षेत्र से सम्बन्धित आॅकड़े जुटाये जाते हैं। यही बुद्धि है। कोई भी कार्य सिर्फ एक कारण से नहीं होता। अधिक से अधिक कारणों को जानना, कर्म की सटीक व्याख्या है।
इस प्रकार हमारा संचालक इच्छा नहीं बल्कि आॅकड़े हैं और मन से किसी वस्तु को देखना सत्य नहीं है बल्कि आॅकड़ों की दृष्टि से देखना सत्य है। पृथ्वी के बाहर अपने मन को स्थित कर सम्पूर्ण पृथ्वी के कल्याण के लिए क्रियाकलापों का सर्वेक्षण और आॅकड़ो के प्रमाण के फलस्वरूप ही श्री लव कुश सिंह ”विश्वमानव“ और उनका यह शास्त्र ”विश्वशास्त्र“ व्यक्त हुआ है। इसलिए मनुष्य जीवन में सर्वेक्षण और आॅकड़ो का बहुत महत्व है। भविष्य के बौद्धिक मनुष्य का यही अस्त्र है।



सर्वेक्षण (Survey)-अर्थ एवं प्रकार

सर्वेक्षण (Survey)-अर्थ एवं प्रकार

शब्द ßSurveyÞ दो शब्दों Sur (Sor) + Vey (Veeir)  से मिलकर बना है जिसका अर्थ ऊपर देखना या ऊपर से निरीक्षण करना है। इस विधि का प्रयोग सामान्यतया सामाजिक तथा शैक्षिक समस्याओं के अध्ययन के लिए किया जाता है। जब अनुसंधानकत्र्ता किसी सामाजिक व्यवहार का अध्ययन कम समय में करना चाहता है या कम समय में लोगों के मत का सर्वेक्षण करना चाहता है, तो वह सर्वेक्षण विधि का प्रयोग करता है। Chaplin (1975) का मत हैै कि ”सर्वेक्षण विधि का तात्पर्य निदर्शन तथा प्रश्नावली विधि द्वारा जनमत के मापन से है।“ (Survey method refers to the measurement of public opinion by the use of A sampling And questionnaire technique.)। सर्वेक्षण विधि को परिभाषित करते हुए Kerlinger (1973) ने अपना मत इस प्रकार प्रकट किया है-”सर्वेक्षण अनुसंधान सामाजिक वैज्ञानिक अनुसंधान की वह शाखा है जो छोटी तथा बड़ी जनसंख्याओं का अध्ययन चयन किये गये प्रतिदर्शो के द्वारा सापेक्षिक घटनाओं, वितरणों, अन्तर्सम्बन्धों तथा सामाजिक मनोवैज्ञानिक परिवत्र्यों के माध्यम से किया जाता है।“ (Survey research is that branch of social scientific investigation that studies large And small population by selecting And studying small samples chosen from the population to discover the relative incidents, distributions of sociological And psychological variables.)
सामाजिक सर्वेक्षण एक वैज्ञानिक अध्ययन है, एक प्रक्रिया है जिसके द्वारा किसी निश्चित भौगोलिक क्षेत्र में घटित होने वाली घटनाओं के विषय में विश्वसनीय तथ्यों का विस्तृत संकलन किया जाता है। इसकी सहायता से किसी भी पक्ष, विषय या समस्या का खोजपूर्ण निरीक्षण किया जाता है तथा उससे संबंधित विश्वसनीय विस्तृत तथ्यों का संकलन करके वास्तविक एवं प्रयोग से निष्कर्ष निकाले जाते हैं। इन निष्कर्षों के आधार पर रचनात्मक योजनाओं का निर्माण करके समाज सुधार और समाज कल्याण की दिशा में महत्वपूर्ण कार्य किए जाते हैं। 

सर्वेक्षण के प्रकार (Types of Survey)
Kerlinger के अनुसार यह चार प्रकार का होता है-

1. वैयक्तिक साक्षात्कार एवं अनुसूची (Personal Interview And Schedules)- सामाजिक विज्ञान अनुसंधानों में यह विधि सर्वाधिक लोकप्रिय है। प्रदत्त संकलन की यह एक प्रमुख विधि है। इसके लिए प्रश्नावली या अनुसूची का निर्माण करना होता है। इसके लिए अनुसंधानकर्ता को प्रश्नावली या अनुसूची का निर्माण करने में अधिक परिश्रम होता है जिसमें कई सूचनाएँ यथा-आयु, यौन, शिक्षा, आय, मत, अभिवृत्ति, व्यवहार का कारण आदि सम्मिलित होती है। यद्यपि साक्षात्कार अनुसूची की रचना में धन व समय अधिक लगता है। इस विधि में प्राप्त सूचनाओं की प्रकृति समाजशास्त्री होती है जैसे-यौन, वैवाहिक स्थिति, आय, राजनीतिक वरीयता, धार्मिक वरीयता आदि। यह सूचनाएँ अति आवश्यक होती हैं। इनके द्वारा दो परिवत्र्यों के बीच पाए जाने वाले सम्बन्धों का अध्ययन किया जाता है। इन सूचनाओं को थ्ंबम ैीममज प्दवितउंजपवद कहते हैं। यह सूचनाएँ साक्षात्कार प्रारम्भ करने के पहले प्राप्त कर ली जाती है। यह सूचनाएँ तटस्थ होती हैं। इन्हीं के आधार पर अनुसंधानकर्ता प्रारम्भिक सम्पर्क स्थापित करता है। प्राप्त सूचनाओं के आधार पर भूत, वर्तमान एवं भविष्य के व्यवहार का विश्लेषण कर सकते हैं। इस विधि के द्वारा संज्ञानात्मक वस्तुओं के प्रति उत्तरदाता के अभिवृत्ति, मत और विश्वास को ज्ञात कर सकते हैं।

2. चयनक विधि (Panel Technique)इसमें उत्तरदाताओं के प्रतिदर्श का चयन किया जाता है और उनका साक्षात्कार लिया जाता है। तत्पश्चात् प्राप्त प्रदत्त का विश्लेषण किया जाता है। मुख्य बात यह है कि इसमें कई निरीक्षक एक साथ होते हैं।

3. दूरभाष सर्वेक्षण (Telephone Survey)- इस विधि में विस्तृत विवरण नहीं प्राप्त होता है। इसलिए इस विधि का प्रयोग भी कम किया जाता है। यद्यपि इस विधि में समय भी कम लगता है और गति से कार्य होता है। इस विधि का प्रयोग उस समय किया जाता है जब
अ. साक्षात्मकारकत्र्ता उत्तरदाता से अपरिचित होता है।
ब. जब उत्तरदाता सरल प्रश्नों का ही उत्तर देना चाहता है।
स. जब उत्तरदाता अ-सहयोगी और अ-अनुक्रियाशील होते हैं।

4. डाक प्रश्नावली (Mail Questionnaire)- डाक प्रश्नावली शिक्षा के क्षेत्र में बहुत लोकप्रिय है परन्तु इसकी कुछ कमियाँ भी है-
अ. इसमें समस्त प्रश्नों के उत्तर प्राप्त करने की सम्भावना कम पायी जाती है।
ब. दिये गये उत्तरों की जाँच करने में अनुसंधानकर्ता अक्षम होता है।
स. कम लोग ही प्रश्नावलीयों को वापस करते हैं।
द. 40 से 50 प्रतिशत प्रश्नावलीयाँ ही वापस होती हैं।
य. प्रश्नावलीयों के वापसी की संख्या बढ़ाने के लिए प्रश्नावलीयों को पुनः भेजने चाहिए, टिकट लगा लिफाफा भेजना चाहिए।

सर्वेक्षण विधि के लाभ (Advantage of Survey Research)
1. सर्वेक्षण प्रदत्त की जाँच आसानी से की जा सकती है।
2. उत्तरदाता का पुनः साक्षात्कार करके उनके दोनों अनुक्रियाओं की तुलना की जा सकती है।
3. कम पैसे में ही विशाल जनसंख्या से प्रदत्त संकलित किया जाता है।
4. इस विधि में प्राप्त की गई सूचनाएँ अधिक परिशुद्ध होती हैं।
5. इस विधि के द्वारा सैद्धान्तिक, व्यवहारिक तथा शैक्षिक समस्याओं का समाधान होता है।



आँकड़ा (Data)

आँकड़ा (Data)

गुणात्मक या मात्रात्मक चर के मानों के समुच्चय को आँकड़ा, दत्त या डेटा (Data) कहते हैं। आँकड़े मापे जाते हैं, एकत्र किये जाते हैं, रिपोर्ट किये जाते हैं तथा उनका विश्लेषण किया जाता है। विश्लेषण के पश्चात आंकड़ों को ग्राफ या छबि ;इमेजद्ध के रूप में प्रस्तुत किया जा सकता है। आँकड़े अपने आप में सूचना नहीं होते, उनका प्रसंस्करण ;प्रोसेसिंगद्ध करके उनसे सूचना निकाली जाती है।

आँकड़ा + प्रसंस्करण -> सूचना -> ज्ञान

आँकड़ा विज्ञान
आँकड़ा विज्ञान (Data Science) आँकड़ों का विश्लेषण करके उनसे ज्ञान ;जानकारीद्ध बाहर निकालता है। आँकड़ा विज्ञान गणित, सांख्यिकी, सूचना सिद्धान्त, सूचना प्रौद्योगिकी आदि अनेकों क्षेत्रों के सिद्धान्तों तथा तकनीकों का प्रयोग करता है। वे विधियाँ जो विशाल आँकड़ों के लिये भी काम करती हैं वे आँकड़ा विज्ञान के क्षेत्र में विशेष महत्व रखतीं हैं। कृत्रिम बुद्धि की मशीन अधिगम (Machine Learning) नामक शाखा के विकास से इस क्षेत्र के विकास को नयी गति और महत्व मिला है।

आंकड़ा संरचना
आंकड़ा संरचना एक तरीका है, जिससे कुशलतापूर्वक आंकड़ो को संयोजित रखा जाता है। यह मुख्य रूप से किसी जानकारी को तालिका में एक संख्या देकर रख के उसे स्मृति ;मेमोरीद्ध में डाल देता है। जिससे कभी भी उसकी आवश्यकता होती है, तो हम सरलता पूर्वक उसे खोज सकते है, या पल में ही उस संख्या द्वारा उसे देख सकते है।

इच्छा और आँकड़ा
स्वामी विवेकानन्द के अनुसार-ज्ञान की निन्म भूमि हम पशुओं में देखते हैं और उसे-सहजात ज्ञान कहते हैं। सहजात ज्ञान में प्रायः कभी भूल नहीं होती। एक पशु इस सहजात ज्ञान के प्रभाव से कौन सी घास खाने योग्य है, कौन सी घास विषाक्त है, यह सुविधापूर्वक समझ लेता है। उनके पश्चात् हमारा ;मानव काद्ध साधारण ज्ञान आता है-यह सहजात ज्ञान की अपेक्षा उच्चतर अवस्था है। हमारा साधारण ज्ञान भ्रान्तिमय है, यह पग-पग पर भ्रम में जा पड़ता है। इसे ही आप युक्ति अथवा विचारशक्ति कहते हैं। अवश्य सहजात ज्ञान की अपेक्षा उसका प्रसार अधिक दूर तक है, किन्तु सहजात ज्ञान की अपेक्षा युक्ति विचार में अधिक भ्रम की आशंका है। मन की और एक उच्चतर अवस्था विद्यमान है,-ज्ञानातीत अवस्था-इस अवस्था में केवल योगीगण का ही अर्थात् जिन्होंने यत्न करके इस अवस्था को प्राप्त किया है, उनका ही अधिकार है। वह सहजात ज्ञान के समक्ष भ्रान्ति से विहिन है और युक्तिविचार से भी उसका अधिक प्रसार है। वह सर्वोच्च अवस्था है। जिस प्रकार मनुष्य के भीतर महत् ही ज्ञान की निम्नभूमि, साधारण ज्ञानभूमि और ज्ञानातीत भूमि है, उसी प्रकार इस वृहत् ब्रह्माण्ड में भी यही सर्वव्यापी बुद्धितत्व अथवा महत्-सहजात ज्ञान, युक्ति विचार से उत्पन्न ज्ञान और विचार से अतीत ज्ञान, इन तीन प्रकारों से स्थित है। ज्ञान का अर्थ है-सदृश वस्तु के साथ उसका मिलन। कोई नया संस्कार आने पर यदि आप लोगों के मन में उसके सदृश सब संस्कार पहले से ही वर्तमान रहे, तभी आप तृप्त होते हैं, और इस मिलन अथवा सहयोग को ही ज्ञान कहते हैं। अतएव ज्ञान का अर्थ, पहले से ही हमारी जो अनुभूति-समष्टि विद्यमान है, उसके साथ और एक सजातीय अनुभूति को एक ही कोष में प्रतिष्ठित कर देना है। तथा पहले से ही आपका एक ज्ञान भण्डार न रहने पर कोई नया ज्ञान ही आपका नहीं हो सकता, यही उसका सर्वोत्तम प्रबल प्रमाण है।
उपरोक्त वाणी का अर्थ है-मनुष्य के लिए ज्ञान वह है जो हमारे मस्तिष्क के यादों में पहले से विद्यमान रहता है और कुछ नया विषय मिलने पर जब उससे, उसका मिलान होता है तब ज्ञान प्रमाणित होती है या ज्ञान का विकास होता है। 
प्रत्येक व्यक्ति के लिए अपने मस्तिष्क के लिए यह विश्लेषण का विषय है कि वह वह इच्छा से संचालित है या आँकड़ा से? किसी भी व्यक्ति को यदि चाय पीने की इच्छा कर रही हो तो वह किस ओर निकलेगा? 
अगर इच्छा कर दिया और वह किसी भी दिशा में निकल लिया तो उसे जीव कहते हैं, इस स्थिति में चाय मिल भी सकती है और नहीं भी। अगर मिल गई तो भाग्य या किस्मत जैसी वाली बात पर विश्वास की ओर वह चला जायेगा। और ना भी मिला तो भी भाग्य या किस्मत जैसी वाली बात पर विश्वास की ओर वह चला जायेगा। इस प्रकार के संचालन को जीव संचालन विधि कहते हैं। जीव, पूर्णतः प्राकृतिक रूप से रहते हैं और संचालित रहते हैं। किसी भी ओर निकल लिए, मिल गया खा लिए, मिल गया पी लिये, कहीं भी उसका निस्तारण भी कर दिये। उनका सम्पूर्ण संचालन वातावरण और परिस्थितियों के अनुसार है। इतना होने के बावजूद भी जीव भी अपने मस्तिष्क में आॅकड़ों का संचय करते हैं और उसके अनुसार उनका संचालन होता हैं।
अगर इच्छा कर दिया और वह उस दिशा में निकल लिया जिस ओर चाय मिलने का आॅकड़ा ;डेटा या डाटाद्ध उसके मस्तिष्क में पहले से विद्यमान है उसे मनुष्य कहते हैं, इस स्थिति में चाय मिलेगी ही मिलेगी अगर नहीं मिलती तो उस चाय के स्थान पर चाय बनाने के सामानो में कुछ कमी हो सकती है लेकिन वह वहीं पहुँचेगा जहाँ पहले चाय मिलती रही है और उसका पहले आना हुआ था या किसी ने यह आॅकड़ा पहले से उसे दे रखा था। इस प्रकार के संचालन को मानव संचालन विधि कहते हैं।
मनुष्य को इस विषय पर सूक्ष्म दृष्टि से चिंतन करना चाहिए। मनुष्य हमेशा अपने प्रत्येक गतिविधि में इच्छा से नहीं बल्कि आॅकड़ों से संचालित होता है जो उसके ज्ञान में पहले से विद्यमान है या उन आॅकड़ों के संग्रह के लिए संचालित रहता है जो उसे चाहिए जिसे खोज या तलाश कहते हैं। 
मनुष्य के मस्तिष्क में जितने अधिक आॅकड़ें रहेंगे, उसका संचालन उन आॅकड़ों के अनुसार उतने ही व्यापक क्षेत्र में होगा। इसलिए ही ज्ञान ही सर्वस्व है। ज्ञान का संकलन अपने मस्तिष्क में सदैव करते रहना चाहिए। कुछ इस जीवन में कभी भी काम आ सकता है। कुछ अगले जन्म में, जब हम नया शरीर पाते हैं। 
स्वामी विवेकानन्द के अनुसार-”फलानुमेयाः प्रारम्भाः संस्कराः प्राक्तना इव“ फल को देखकर ही कार्य का विचार सम्भव है। जैसे कि फल को देखकर पूर्व संस्कार का अनुमान किया जाता है। एक विशेष प्रवृत्ति वाला जीवात्मा ”योग्य योग्येन युज्यते“ इस नियमानुसार उसी शरीर में जन्म ग्रहण करता है जो उस प्रवृत्ति के प्रकट करने के लिए सबसे उपयुक्त आधार हो। यह पूर्णतया विज्ञान संगत है, क्योंकि विज्ञान कहता है कि प्रवृत्ति या स्वभाव अभ्यास से बनता है और अभ्यास बारम्बार अनुष्ठान का फल है। इस प्रकार एक नवजात बालक की स्वाभाविक प्रवृत्तियों का कारण बताने के लिए पुनः पुनः अनुष्ठित पूर्व कर्मो को मानना आवश्यक हो जाता है और चूंकि वर्तमान जीवन में इस स्वमाव की प्राप्ति नहीं की गयी, इसलिए वह पूर्व जीवन से ही उसे प्राप्त हुआ है। यदि प्रवृत्ति बारम्बार किये हुये कर्म का परिणाम है, तो जिन प्रवृत्तियों को साथ लेकर हम जन्म धारण करते है, उनको समझने के लिए उस कारण का भी उपयोग करना चाहिए। यह तो स्पष्ट है कि वे प्रवृत्तियाँ हमें इस जन्म में प्राप्त हुई नहीं हो सकती;अतः हमें उनका मूल पिछले जन्म में ढूंढना चाहिए। अब यह भी स्पष्ट है कि हमारी प्रवृत्तियों में से कुछ तो मनुष्य के ही जान-बूझकर किये हुए प्रयत्नों के परिणाम है, और यदि यह सच है कि हम उन प्रवृत्तियों को अपने साथ लेकर जन्म लेते हैं, तब तो बिल्कुल यही सिद्ध होता है कि उनके कारण गतजन्म में जान-बूझकर किये हुये प्रयत्न ही है-अर्थात् इस वर्तमान जन्म के पूर्व हम उसी मानसिक भूमिका में रहे होंगे, जिसे हम मानव भूमिका कहते हैं।
हम सभी अपने पूर्व जन्म के अधूरी इच्छा को पूर्ण करने के लिए योग्य माता-पिता सहित वातावरण के अनुसार शरीर धारण किये हैं इसलिए अपने उपलब्ध संसाधन का अध्ययन करें और अपने पूर्व जन्म के अधूरी इच्छा को पूर्ण करने के लिए उन आॅकड़ों को जानने व उसके अनुसार संचालित होने की कोशिश करें जो हमारे मस्तिष्क में संचित है।
सर्वोच्च आॅकड़ा तो ये है कि हम सभी ईश्वर बनने के मार्ग पर हैं और उस ओर की ही हमारी यात्रा है। चाहे कई जन्म क्यों न लेना पड़े। हमारा शरीर धारण के कत्र्तव्य से अलग मस्तिष्क में अधिक से अधिक आॅकड़ों का संग्रह भी है जो ज्ञान का जन्मदाता है।
इस प्रकार हमारा संचालक इच्छा नहीं बल्कि आॅकड़े हैं और मन मन से किसी वस्तु को देखना सत्य नहीं है बल्कि आॅकड़ों की दृष्टि से देखना सत्य है। आॅकड़ो का प्रमाण के फलस्वरूप व्यक्त हुये है श्री लव कुश सिंह ”विश्वमानव“।




क्या आपकों वस्तु खरीदने पर कम्पनी रायल्टी देती है जबकि कम्पनी आपके कारण हैं?

क्या आपकों वस्तु खरीदने पर कम्पनी रायल्टी देती है जबकि कम्पनी आपके कारण हैं?


मनुष्य समाज व सरकार में व्यापार के प्रणाली से रायल्टी शब्द का जन्म हुआ है जो किसी व्यक्ति/संस्था के मौलिक खोज/कृति इत्यादि के प्रति उसकी रक्षा व व्यापारीकरण के लिए उसे धनराशि के रूप में भुगतान का अधिकार देता है। रायल्टी संपत्ति, पेटेंट, काॅपीराइट किए गए कार्य या मताधिकार (फ्रैन्चाइजी) के कानूनी मालिक को उनके द्वारा भुगतान किया जाता है जो इसका उपयोग करना चाहते हैं। ज्यादातर मामलों में, रायल्टी संपत्ति के उपयोग के लिए मालिक की भरपाई करने के लिए दिया जाता हैं, जो कानूनी तौर पर बाध्यकारी हैं। 
इस संसार में प्रत्येक जीव का अपना मौलिक कर्म-इच्छा है और वह उसी अनुसार कर्म कर रहा है। ईश्वर और पुनर्जन्म के सार्वभौम सत्य-सिद्धान्त के अनुसार हम यह पाते हैं कि हम जो भी कर्म-इच्छा करते हैं वह हमें उस अनुसार जन्म-जन्मान्तर तक कर्म-इच्छा के परिणाम/फल के रूप में प्राप्त होता रहता है। 
इस ब्रह्माण्ड में जिस प्रकार उत्प्रेरक सार्वभौम आत्मा की उपस्थिति में समस्त क्रिया का संचालन चल रहा है उसी प्रकार मानव समाज में उत्प्रेरक मुद्रा की उपस्थिति में मानव के समस्त व्यापार चल रहे हैं। 
जिस प्रकार हमारे सभी कर्म-इच्छा का परिणाम/फल रायल्टी के रूप में सार्वभौम आत्मा द्वारा प्रदान किये जा रहे है। उसी प्रकार मानव समाज के वस्तुओं से सम्बन्धित व्यापार में भी उसके साथ किये गये कर्म के भी परिणाम/फल रायल्टी के रूप में प्राप्त होनी चाहिए। मौलिक खोज/आविष्कार के साथ रायल्टी का प्राविधान बढ़ते बौद्धिक विकास के साथ तो है ही परन्तु यदि किसी कम्पनी के उत्पाद का प्रयोग हम करते हैं तो ये उस कम्पनी के साथ किया गया हमारा कर्म भी रायल्टी के श्रेणी में आता है क्योंकि हम ही उस कम्पनी के विकास में योगदान देने वाले हैं। रायल्टी का सीधा सा अर्थ है-हमारे कर्मो का परिणाम/फल हमें मिलना चाहिए। जिस प्रकार ईश्वर हमें जन्म-जन्मान्तर तक परिणाम/फल देता है, उसी प्रकार मनुष्य निर्मित व्यापारिक संस्थान द्वारा भी हमें उसका परिणाम/फल मिलना चाहिए।
वर्तमान समय में स्थिति यह है कि भले ही कच्चा माल (राॅ मैटिरियल) ईश्वर द्वारा दी गई है लेकिन उसके उपयोग का रूप मनुष्य निर्मित ही है और हम उससे किसी भी तरह बच नहीं सकते। जिधर देखो उधर मनुष्य निर्मित उत्पाद से हम घिरे हुए हैं। हमारे जीवन में बहुत सी दैनिक उपयोग की ऐसी वस्तुएँ हैं जिनके उपयोग के बिना हम बच नहीं सकते। बहुत सी ऐसी निर्माता कम्पनी भी है जिनके उत्पाद का उपयोग हम वर्षो से करते आ रहे हैं लेकिन उनका और हमारा सम्बन्ध केवल निर्माता और उपभोक्ता का ही है जबकि हमारी वजह से ही ये कम्पनी लाभ प्राप्त कर आज तक बनी हुयी हैं, और हमें उनके साथ इतना कर्म करने के बावजूद भी हम सब को रायल्टी के रूप में कुछ भी प्राप्त नहीं होता। जबकि स्थायी ग्राहक बनाने के लिए रायल्टी देना कम्पनी के स्थायित्व को सुनिश्चित भी करता है।
जबकि होना यह चाहिए कि कम्पनी द्वारा ग्राहक के खरीद के अलग-अलग लक्ष्य के अनुसार छूट (डिस्काउन्ट) का अलग-अलग निर्धारित प्रतिशत हो। और एक निर्धारित खरीद लक्ष्य को प्राप्त कर लेने के बाद कम्पनी द्वारा उस ग्राहक को पीढ़ी दर पीढ़ी के लिए रायल्टी देनी चाहिए।
और ऐसा नहीं है लेकिन कुछ कम्पनी ऐसी हैं जो ऐसा कर रहीं है और अनेक देशों में उनका व्यापार कम समय में तेजी से बढ़ा हैं, वहीं उनके उत्पाद भी वैश्विक गुण्वत्ता स्तर के भी हैं। 
अपने जीवकोपार्जन के लिए शारीरिक गुलामी से चला आर्थिक स्वतन्त्रता का सफर अभी पेंशन तक ही पहुँचा है। जब हम रायल्टी तक पहुँच जायेंगे तब हम सभी सत्य आर्थिक स्वतन्त्रता के अन्तिम लक्ष्य को प्राप्त कर लेंगे।



रायल्टी-अर्थ और प्रकार, ईश्वर, पुनर्जन्म और रायल्टी

रायल्टी-अर्थ और प्रकार, ईश्वर, पुनर्जन्म और रायल्टी 


रायल्टी का अर्थ
मनुष्य समाज व सरकार में व्यापार के प्रणाली से रायल्टी शब्द का जन्म हुआ है जो किसी व्यक्ति/संस्था के मौलिक खोज/कृति इत्यादि के प्रति उसकी रक्षा व व्यापारीकरण के लिए उसे धनराशि के रूप में भुगतान का अधिकार देता है। रायल्टी संपत्ति, पेटेंट, काॅपीराइट किए गए कार्य या मताधिकार (फ्रैन्चाइजी) के कानूनी मालिक को उनके द्वारा भुगतान किया जाता है जो इसका उपयोग करना चाहते हैं। ज्यादातर मामलों में, रायल्टी संपत्ति के उपयोग के लिए मालिक की भरपाई करने के लिए दिया जाता हैं, जो कानूनी तौर पर बाध्यकारी हैं। 
इस संसार में प्रत्येक जीव का अपना मौलिक कर्म-इच्छा है और वह उसी अनुसार कर्म कर रहा है। ईश्वर और पुनर्जन्म के सार्वभौम सत्य-सिद्धान्त के अनुसार हम यह पाते हैं कि हम जो भी कर्म-इच्छा करते हैं वह हमें उस अनुसार जन्म-जन्मान्तर तक कर्म-इच्छा के परिणाम/फल के रूप में प्राप्त होता रहता है। 
इस ब्रह्माण्ड में जिस प्रकार उत्प्रेरक सार्वभौम आत्मा की उपस्थिति में समस्त क्रिया का संचालन चल रहा है उसी प्रकार मानव समाज में उत्प्रेरक मुद्रा की उपस्थिति में मानव के समस्त व्यापार चल रहे हैं। 
जिस प्रकार हमारे सभी कर्म-इच्छा का परिणाम/फल रायल्टी के रूप में सार्वभौम आत्मा द्वारा प्रदान किये जा रहे है। उसी प्रकार मानव समाज के वस्तुओं से सम्बन्धित व्यापार में भी उसके साथ किये गये कर्म के भी परिणाम/फल रायल्टी के रूप में प्राप्त होनी चाहिए। मौलिक खोज/आविष्कार के साथ रायल्टी का प्राविधान बढ़ते बौद्धिक विकास के साथ तो है ही परन्तु यदि किसी कम्पनी के उत्पाद का प्रयोग हम करते हैं तो ये उस कम्पनी के साथ किया गया हमारा कर्म भी रायल्टी के श्रेणी में आता है क्योंकि हम ही उस कम्पनी के विकास में योगदान देने वाले हैं। रायल्टी का सीधा सा अर्थ है-हमारे कर्मो का परिणाम/फल हमें मिलना चाहिए। जिस प्रकार ईश्वर हमें जन्म-जन्मान्तर तक परिणाम/फल देता है, उसी प्रकार मनुष्य निर्मित व्यापारिक संस्थान द्वारा भी हमें उसका परिणाम/फल मिलना चाहिए।
अपने जीवकोपार्जन के लिए शारीरिक गुलामी से चला आर्थिक स्वतन्त्रता का सफर अभी पेंशन तक ही पहुँचा है। जब हम रायल्टी तक पहुँच जायेंगे तब हम सभी सत्य आर्थिक स्वतन्त्रता के अन्तिम लक्ष्य को प्राप्त कर लेंगे।

रायल्टी के प्रकार (Types of royalties)
01. गैर अक्षय स्रोत रायल्टी (Non-renewable resource royalties)
02. पेटेंट रायल्टी (Patent royalties)
03. ट्रेड मार्क रायल्टी-(Trade mark royalties-Franchises)
04. काॅपीराइट  (Copyright)
05. पुस्तक प्रकाशन रायल्टी (Book publishing royalties)
06. संगीत रायल्टी (Music royalties)
6.1 प्रिंट अधिकार (Print rights)
6.2 प्रिंट रायल्टी (संगीत) (Print royalties (music))
6.3 विदेश प्रकाशन (Foreign publishing)
6.4 यांत्रिक रायल्टी (Mechanical royalties)
6.5 प्रदर्शन रायल्टी (Performance royalties)
6.6 डिजीटल वितरण रायल्टी (Royalties in digital distribution)
6.7 तुल्यकालन रायल्टी (Synchronization royalties)
07. कला रायल्टी (Art royalties)
        7.1 पुनर्विक्रय रायल्टी (Resale royalties)
        7.2 कलाकृति रायल्टी (Artwork royalties)
08. सॉफ्टवेयर रायल्टी (Software royalties)
09. अन्य रायल्टी व्यवस्था-गठबंधन और भागीदारी प्रौद्योगिकी हस्तांतरण में तकनीकी सहायता और सेवा रायल्टी की दर से (Other royalty arrangements-Alliances and partnerships, Technical assistance and service in technology transfer)
10. प्रयास (Approaches)
       10.1 बौद्धिक संपदा (Intellectual property)
     10.2 दर निर्धारण और निदर्शी रायल्टी-लागत दृष्टिकोण, तुलनीय बाजार दृष्टिकोण, आय दृष्टिकोण (Rate determination and illustrative royalties-Cost approach, Comparable market approach, Income approach)

ईश्वर
विभिन्न मतों या विचारों का अन्त और मूल ”एक का विचार“ है। इस ”एक का विचार“ से हम सभी और ऊपर नहीं जा सकते। इस एक को वेदान्त में ”अद्वैत“ या ”अव्यक्त एकेश्वर“ कहा गया और उसी का प्रत्येक में प्रकाश अर्थात् ”बहुरुप में प्रकाशित एक सत्ता“ आत्मसात् किया गया, जो अदृश्य आध्यात्म विज्ञान ही नहीं वर्तमान के दृश्य पदार्थ विज्ञान के नवीनतम अविष्कार के फलस्वरुप सिद्ध हो चुका है। इसी एक अदृश्य सत्य को शिव या आत्मा या ईश्वर या ब्रह्म या भगवान कहा गया तथा उसके अदृश्य व्यक्तिगत प्रमाणित अदृश्य गुण और दृश्य सार्वजनिक प्रमाणित सिद्धान्त को दृश्य गुण कहा गया। जिस प्रकार सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड की ”बहुरुप में प्रकाशित एक सत्ता है।“ उसी प्रकार सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में उसका अदृश्य और दृश्य गुण का एक ही सिद्धान्त व्याप्त है। सिद्ध अर्थात् प्रमाणित विषयों और नियमों का अन्त ही सिद्धान्त है। जब अदृश्य आध्यात्म विज्ञान की ओर से सिद्ध विषयों और नियमों को व्यक्त करते हुए एक की ओर जाते हैं, तब वह अदृश्य व्यक्तिगत प्रमाणित सिद्धान्त तथा जब दृश्य पदार्थ विज्ञान की ओर से सिद्ध विषयों और नियमों को व्यक्त करते हुये उस एक की ओर जाते हैं, तब वह दृश्य सार्वजनिक या ब्रह्माण्डीय प्रमाणित सिद्धान्त कहलाता है। आध्यात्म की ओर से उस एक तक पहुँचने के बाद सिर्फ ज्ञान और वाणी रुप ही व्यक्त हो पाता है। और वह ”सभी एक ही हैं“, ”बहुरुप में प्रकाशित एक सत्ता“, ”समस्त विश्व एक परिवार है“, ”विश्व-बन्धुत्व“, ”बसुधैव-कुटुम्बकम्“, ”बहुजन हिताय बहुजन सुखाय“, ”एक आत्मा के ही तुम प्रकाश हो“, ”आपस में प्रेम से रहो“, ”एकात्म मानवतावाद“ इत्यादि सत्य शब्द व्यक्त होते हैं, लेकिन यह व्यवहारिक नहीं हो पाते क्योंकि ये ज्ञान का एक फल है, ज्ञान का बीज नहीं जिससे प्रत्येक व्यक्ति इसके महत्व को समझ सके। परिणामस्वरुप ये व्यावहारिक नहीं बन पाते। इसे व्यावहारिकता में लाने के लिए ज्ञान का बीज अर्थात् दृश्य ज्ञान और कर्म ज्ञान अर्थात् सार्वजनिक प्रमाणित एकात्म कर्म-सिद्धान्त की आवश्यकता पड़ती है। ये सार्वजनिक प्रमाणित सार्वभौम सत्य-सिद्धान्त ही ईश्वर है। सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में व्याप्त है। इसको आविष्कृत करने वाले ऋषि या अवतार हैं और इसके द्वारा सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को नियमित करने वाला ब्राह्मण है। इसी सार्वजनिक या ब्रह्माण्डीय प्रमाणित अदृश्य सिद्धान्त को दृश्य करने के लिए समय-समय पर उपयुक्त वातावरण मिलने पर यह सिद्धान्त, सिद्धान्तानुसार ही मानव शरीर धारण, जीवन, कर्म, ज्ञान, ध्यान और सिद्धान्त को व्यक्त करता है जब तक की वह सिद्धान्त स्वयं को पूर्ण रुप में व्यक्त न कर ले। ऐसा क्यों है? ऐसा इसलिए है कि जिस प्रकार साधारण मानव अपनी इच्छा के लिए कर्म कर व्यक्त होता है उसी प्रकार सिद्धान्त स्वयं की इच्छा से स्वयं को व्यक्त करने के लिए कर्म कर व्यक्त होता है। वह शरीर जिसमें ईश्वर या सिद्धान्त का अवतरण होता है उसे ईश्वर का सगुण-साकार-दृश्य रुप कहा जाता है। परन्तु किसी भी स्थिति में शरीर ईश्वर नहीं होेता है क्योंकि प्रत्येक मानव शरीर सिद्धान्तानुसार ही व्यक्त होता है जो सिद्धान्त के ज्ञान से युक्त हो जाते है वे आत्म प्रकाश में होकर सफल जीवन व्यतीत करते हैं जो अज्ञान में रहते हैं वे अपने संकीर्ण ज्ञान व विचार के कारण सीमित चक्र में उलझकर रह जाते हैं। यही ज्ञान, कर्म ज्ञान या सत्य-सिद्धान्त की उपयोगिता है। 

ईश्वर के सम्बन्ध में स्वामी विवेकानन्द जी की आध्यात्मिक सत्य दृष्टि-
01. सत् का कारण असत् कभी नहीं हो सकता। शून्य से किसी वस्तु का उद्भव नहीं, कार्य-कारणवाद सर्वशक्तिमान है और ऐसा कोई देश-काल ज्ञात नहीं, जब इसका अस्तित्व नहीं था। यह सिद्धान्त भी उतना ही प्राचीन है, जितनी आर्य जाति। इस जाति के मन्त्र द्रष्टा कवियों ने उसका गौरव गान गया है। इसके दार्शनिकों ने उसको सूत्रबद्ध किया और उसकी वह आधारशिला बनायी, जिस पर आज का भी हिन्दू अपने जीवन का समग्र योजना स्थिर करता है। 
02. सत्य के दो अंग है। पहला जो साधारण मानवों को पांचेन्द्रियग्राह्य एवम् उसमें उपस्थापित अनुमान द्वारा गृहीत है और दूसरा-जिसका इन्द्रियातीत सूक्ष्म योगज शक्ति के द्वारा ग्रहण होता है। प्रथम उपाय के द्वारा संकलित ज्ञान को ”विज्ञान“ कहते है, तथा द्वितीय प्रकार के संकलित ज्ञान को ”वेद“ संज्ञा दी है। वेद नामक अनादि अनन्त अलौकिक ज्ञानराशि सदा विद्यमान है। स्वंय सृष्टिकत्र्ता उसकी सहायता से इस जगत के सृष्टि-स्थिति-प्रलय कार्य सम्पन्न कर रहे हैं। जिन पुरूषों में उस इन्द्रियातीत शक्ति का आविर्भाव है, उन्हें ऋषि कहते है और उस शक्ति के द्वारा जिस अलौकिक सत्य की खोज उन्होंने उपलब्धि की है, उसे ”वेद“ कहते हैं। इस ऋषित्व तथा वेद दृष्टत्व को प्राप्त करना ही यथार्थ धर्मानुभूति है। साधक के जीवन में जब तक उसका उन्मेष नहीं होता तब तक ”धर्म“ केवल कहने भर की बात है एवम् समझना चाहिए कि उसने धर्मराज्य के प्रथम सोपान पर भी पैर नहीं रखा है। समस्त देश-काल-पात्र को व्याप्त कर वेद का शासन है अर्थात वेद का प्रभाव किसी देश, काल या पात्र विशेष द्वारा सीमित नहीं हैं। सार्वजनिन धर्म का व्याख्याता एक मात्र ”वेद“ ही है।
03. हमारे शास्त्रों में परमात्मा के दो रूप कहे गये हैं-सगुण और निर्गुण। सगुण ईश्वर के अर्थ से वे सर्वव्यापी है। संसार की सृष्टि, स्थिति और प्रलय के कत्र्ता हैं। संसार के अनादि जनक तथा जननी हैं उनके साथ हमारा नित्य भेद है। मुक्ति का अर्थ-उनके समीप्य और सालोक्य की प्राप्ति है। सगुण ब्रह्म के ये सब विशेषण निर्गुण ब्रह्म के सम्बन्ध में अनावश्यक और अयौक्तिक है इसलिए त्याज्य कर दिये गये। वह निर्गुण और सर्वव्यापी पुरूष ज्ञानवान नहीं कहा जा सकता क्योंकि ज्ञान मन का धर्म है। इस निर्गुण पुरूष के साथ हमारा क्या सम्बन्ध है? सम्बन्ध यह है कि हम उससे अभिन्न हैं। वह और हम एक हैं। हर एक मनुष्य उसी निर्गुण पुरूष का-जो सब प्राणियों का मूल कारण है- अलग-अलग प्रकाश है। जब हम इस अनन्त और निर्गुण पुरूष से अपने को अलग सोचते हैं तभी हमारे दुःख की उत्पत्ति होती है और इस अनिर्वचनीय निर्गुण सत्ता के साथ अभेद ज्ञान ही मुक्ति है। संक्षेपतः हम अपने शास्त्रों में ईश्वर के इन्हीं दोनों ”भावों“ का उल्लेख देखते हैं। यहाँ यह कहना आवश्यक है कि निर्गुण ब्रह्मवाद ही सब प्रकार के नीति विज्ञानोें की नींव है।
04. जिस प्रकार मानवी शरीर एक व्यक्ति है और उसका प्रत्येक सूक्ष्म भाग जिसे हम ”कोश“ कहते हैं एक अंश है। उसी प्रकार सारे व्यक्तियों का समष्टि ईश्वर है, यद्यपि वह स्वयं भी एक व्यक्ति है। समष्टि ही ईश्वर है, व्यष्टि या अंश जीव है। इसलिए ईश्वर का अस्तित्व जीवों के अस्तित्व पर निर्भर है जैसे कि शरीर का उसके सूक्ष्म भाग पर और सूक्ष्म भाग का शरीर पर। इस प्रकार जीव और ईश्वर परस्परावलम्बी हैं। जब तक एक का अस्तित्व है तब तक दूसरे का भी रहेगा। और हमारी इस पृथ्वी को छोड़कर अन्य सब उँचे लोकों में शुभ की मात्रा अशुभ से अधिक होती है। इसलिए वह समष्टि स्वरुप ईश्वर शिव स्वरुप, सर्वशक्तिमान और सर्वज्ञ कहा जा सकता है। ये गुण प्रत्यक्ष प्रतीत होते हैं। ईश्वर से सम्बद्ध होने के कारण उन्हें प्रमाण करने के लिए तर्क की आवश्यकता नहीं होती। ब्रह्म इन दोनों से परे है और वह कोई विशिष्ट अवस्था नहीं है वह एक ऐसी वस्तु है जो अनेकों की समष्टि से नहीं बनी है। वह एक ऐसी सत्ता है जो सूक्ष्मातित-सूक्ष्म से लेकर ईश्वर तक सब में व्याप्त है और उसके बिना किसी का अस्तित्व नहीं हो सकता सभी का अस्तित्व उसी सत्ता या ब्रह्म का प्रकाश मात्र है। जब मैं सोचता हूँ ”मैं ब्रह्म हूँ“ तब मेरा यथार्थ अस्तित्व होता है ऐसा ही सबके बारे में है विश्व की प्रत्येक वस्तु स्वरुपतः वही सत्ता है।
05. सबका स्वामी (परमात्मा) कोई व्यक्ति विशेष नहीं हो सकता, वह तो सबकी समष्टि स्वरुप ही होगा। वैराग्यवान मनुष्य आत्मा शब्द का अर्थ व्यक्तिगत ”मैं“ न समझकर, उस सर्वव्यापी ईश्वर को समझता है जो अन्तर्यामी होकर सबमें वास कर रहा हो। वे समष्टि के रुप में सब को प्रतीत हो सकते हैं ऐसा होते हुए जब जीव और ईश्वर स्वरुपतः अभिन्न हैं, तब जीवों की सेवा और ईश्वर से प्रेम करने का अर्थ एक ही है। यहाँ एक विशेषता है। जब जीव को जीव समझकर सेवा की जाती है तब वह दया है, किन्तु प्रेम नहीं। परन्तु जब उसे आत्मा समझकर सेवा करो तब वह प्रेम कहलाता है। आत्मा ही एक मात्र प्रेम का पात्र है, यह श्रुति, स्मृति और अपरोक्षानुभूति से जाना जा सकता है। भगवान चैतन्यदेव ने इसलिए यह ठीक कहा था- ”ईश्वर से प्रेम और जीवों पर दया“ वे द्वैतवादी थे, इसलिए उनका अन्तिम निर्णय जिसमें वे जीव और ईश्वर में भेद करते हैं उनके लिए ठीक है परन्तु हम अद्वैतवादी हैं हमारे लिए जीव को परमात्मा से पृथक करना बन्धन का कारण है इसलिए मूल तत्व दया न होना चाहिए परन्तु प्रेम। हमारा धर्म करुणा नहीं वरन् सेवा धर्म है और सब में आत्मा ही को देखना है।
06. ”स ईशोऽनिर्वचनीयप्रेमस्वरुपः“- ईश्वर अनिर्वचनीय प्रेम स्वरुप है। नारद द्वारा वर्णन किया हुआ ईश्वर का यह लक्षण स्पष्ट है और सब लोगों को स्वीकार है। यह मेरे जीवन का दृढ़ विश्वास है। बहुत सेे व्यक्तियों के समूह कांे समष्टि कहते हैं और प्रत्येक व्यक्ति, व्यष्टि कहलाता है आप और मैं दोनों व्यष्टि हैं, समाज समष्टि है आप और मैं, पशु, पक्षी, कीड़ा, कीड़े से भी तुक्ष प्राणी, वृक्ष, लता, पृथ्वी, नक्षत्र और तारे यह प्रत्येक व्यष्टि है और यह विश्व समष्टि है जो कि वेदान्त में विराट, हिरण गर्भ या ईश्वर कहलाता है। और पुराणों में ब्रह्मा, विष्णु, देवी इत्यादि। व्यष्टि को व्यक्तिशः स्वतन्त्रता होती है या नहीं, और यदि होती है तोे उसका नाम क्या होना चाहिए। व्यष्टि को समष्टि के लिए अपनी इच्छा और सुख का सम्पूर्ण त्याग करना चाहिए या नहीं, वे प्रत्येक समाज के लिए चिरन्तन समस्याएँ हैं। सब स्थानों में समाज इन समस्याओं के समाधान में संलग्न रहता है। ये बड़ी-बड़ी तरंगों के समान आधुनिक पश्चिमी समाज में हलचल मचा रही हैं। जो समाज के अधिपत्य के लिए व्यक्तिगत स्वतन्त्रता का त्याग चाहता है वह सिद्धान्त समाजवाद कहलाता है और जो व्यक्ति के पक्ष का समर्थन करता है वह व्यक्तिवाद कहलाता है।
07. यन्त्र कभी नियम को उल्लंघन करने की कोई इच्छा नहीं रखता। कीड़ा नियम का विरोध करना चाहता है और नियम के विरुद्ध जाता है चाहे उस प्रयत्न में वह सिद्धि लाभ करे या असिद्धि, इसलिए वह बुद्धिमान है। जिस अंश में इच्छाशक्ति के प्रकट होने में सफलता होती है उसी अंश में सुख अधिक होता है और जीव उतना ही उँचा होता है। परमात्मा की इच्छा शक्ति पूर्ण रुप से सफल होती है इसलिए वह उच्चतम है।
08. ईश्वर उस निरपेक्ष सत्ता की उच्चतम अभिव्यक्ति है, या यों कहिए, मानव मन के लिए जहाँ तक निरपेक्ष सत्य की धारणा करना सम्भव है, बस वही ईश्वर है। सृष्टि अनादि है और उसी प्रकार ईश्वर भी अनादि है।
09. यह सारा झगड़ा केवल इस ”सत्य“ शब्द के उलटफेर पर आधारित है। ”सत्य“ शब्द से जितने भाव सूचित होते हैं वे समस्त भाव ”ईश्वर भाव“ में आ जाते हैं। ईश्वर उतना ही सत्य है जितनी विश्व की कोई अन्य वस्तु। और वास्तव में, ”सत्य“ शब्द यहाँ पर जिस अर्थ में प्रयुक्त हुआ है, उससे अधिक ”सत्य“ शब्द का कोई अर्थ नहीं। यही हमारी ईश्वर सम्बन्धी दार्शनिक धारणा है।

पुनर्जन्म
भारतीय दर्शन का मूल आधार कपिल मुनि का क्रिया-कारण सिद्धान्त जो आज तक ब्रह्माण्डीय या सार्वजनिक रूप से विवादमुक्त सार्वजनिक प्रमाणित रहा और वह कभी भी विवादग्रस्त हो भी सकता क्योंकि वर्तमान का दृश्य पदार्थ विज्ञान भी सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में झांककर यह देख चुका है कि कहीं भी कुछ भी स्थिर नहीं है। अर्थात वह क्रिया के अधीन है और जो कारण है वह ही स्थिर है। भारतीय चिन्तन में इसी कारण को आत्मा-शिव-ईश्वर-ब्रह्म कहा गया है। जो क्रिया में भी है लेकिन ऐसा है कि नहीं जैसा है। जैसे सूर्यास्त के उपरान्त हम यह कह सकते हैं कि सूर्य नहीं है परन्तु वह है। इसके लिए बाह्य नेत्र नहीं, अन्तः नेत्र की आवश्यकता पड़ जाती है। भारतीय चिन्तकों ने इस क्रिया को भी दो रूपों में देखा था-अदृश्य रूप एवम् दृश्य रूप। जो प्रत्येक विषय के साथ है और दोनों रूप देश-काल बद्ध सत्य है। जीव के लिए यह स्थूल शरीर और सूक्ष्म शरीर है। मानव जीव के लिए जो कारण यथार्थ आत्मा से युक्त अर्थात मन से मुक्त अर्थात इन्द्रिय इच्छाओं से मुक्त स्थूल एवम् सूक्ष्म शरीर है। वह दैवी या शिव मानव स्थूल एवम् सूक्ष्म शरीर है जिसे मानव जीवन में आध्यत्मिकता युक्त दैवी भौतिक शरीर कहते है तथा जो कारण अर्थात् आत्मा से मुक्त अर्थात् मन से बद्ध अर्थात् इन्द्रिय इच्छाओं से बद्ध स्थूल एवम् सूक्ष्म शरीर हैं, वह जीव मानव स्थूल एवम् सूक्ष्म शरीर हैं। जिसे मानव जीवन में भौतिकता युक्त असुरी शरीर कहते है। प्रत्येक सूक्ष्म शरीर अपने स्थूल शरीर त्याग के बाद सूक्ष्म शरीर अवस्था में रहता है। पुनः प्रत्येक सूक्ष्म शरीर अपने उद्देश्य अर्थात् स्थूल शरीर त्याग के अन्तिम समय में मूल इच्छा की पूर्णता हेतु उचित वातावरण के मिलने पर स्थूल शरीर ग्रहण कर पुनः अपनी चेतना शक्ति से दैवी शरीर, जीव मानव या निम्न जीव शरीर की प्राप्ति के लिए कर्म करने के लिए स्वतन्त्र हो जाता है। एक ही उद्देश्य के अनेक सूक्ष्म शरीरों का एकीकरण और एक ही सूक्ष्म शरीर का अपने उद्देश्य के प्राप्ति हेतु अनेक स्थूल शरीरों का विभिन्न समयों में धारण भी होता है। अर्थात् प्रत्येक स्थूल शरीर ही पुनर्जन्म है चाहे वह शरीर उसे पहचाने या न पहचाने। यह बिल्कुल दृश्य पदार्थ विज्ञान की क्रिया परमाणु से अणु, अणु से यौगिक पदार्थ और पुनः यौगिक पदार्थ से अणु, अणु से परमाणु के एकीकरण और विखण्डन की क्रिया के अनुसार ही होता है। जो स्थूल शरीर आत्मतत्व को व्यक्त करने के लिए क्रमशः एकात्म ज्ञान, एकात्म ज्ञान सहित एकात्म कर्म, एकात्म ज्ञान और एकात्म कर्म सहित एकात्म ध्यान की श्रंृखला में व्यक्त होता है, वह अवतारी स्थूल शरीर कहलाता है। अवतारी शरीर भी अपने अवतारी श्रंृखला का पुनर्जन्म ही होता है। पुनर्जन्म और अवतार में बस अन्तर इतना होता है कि पुनर्जन्म शरीर अपने पूर्व जीवन को सार्वजनिक रूप से सिद्ध नहीं कर पाता है क्योंकि उसके जैसे उद्देश्यों को लेकर अन्य भी पुनर्जन्म में ही होते है। जबकि अवतारी शरीर व्यक्तिगत एवम् सार्वजनिक रूप से आसानी से पुनर्जन्म सिद्ध कर देता है क्योंकि वह पूर्व के सर्वोच्च कार्य की श्रंृखला की अगली कड़ी होता है। जिसका उद्देश्य उस समय में व्यक्त अन्य पुनर्जन्म शरीरों में सिर्फ एक और अकेला होता है परिणामस्वरूप अवतारी शरीरों का सूक्ष्म शरीर भी स्पष्ट रूप से व्यक्त हो जाता है। 
प्रत्येक अपूर्ण मन ही स्थूल शरीर त्याग के बाद सूक्ष्म शरीर कहलाता है। वही अपनी पूर्णता के लिए योग्य वातावरण में पुनः स्थूल शरीर धारण करता है। परन्तु ऐसा भी होता है कि अपनी पूर्णता के लिए स्थूल शरीर धारण किया हुआ सूक्ष्म शरीर परिस्थितिवश किसी दूसरे सूक्ष्म शरीर द्वारा धारण किये गये स्थूल शरीर के प्रभाव में आकर अपने उद्देश्य से अवनति या उन्नति की ओर बढ़ जाये और पुनः उसका मन नये उद्देश्य के लिए अपूर्ण रह जाये। यह नया उद्देश्य सर्वोच्चता और निम्नता अर्थात् उन्नति और अवनति अर्थात् दैवी और असुरी दोनों दिशाओं की ओर हो सकती है। यह उस प्रभावी स्थूल शरीरधारी सूक्ष्म शरीर की दिशा पर निर्भर करता है। कि उसकी पूर्णता किस ओर है। 

पुनर्जन्म के सम्बन्ध में स्वामी विवेकानन्द जी की आध्यात्मिक सत्य दृष्टि-
01. यदि प्रवृत्ति बारम्बार किये हुये कर्म का परिणाम है, तो जिन प्रवृत्तियों को साथ लेकर हम जन्म धारण करते है, उनको समझने के लिए उस कारण का भी उपयोग करना चाहिए। यह तो स्पष्ट है कि वे प्रवृत्तियाँ हमें इस जन्म में प्राप्त हुई नहीं हो सकती; अतः हमें उनका मूल पिछले जन्म में ढूंढना चाहिए। अब यह भी स्पष्ट है कि हमारी प्रवृत्तियों में से कुछ तो मनुष्य के ही जान-बूझकर किये हुए प्रयत्नों के परिणाम है, और यदि यह सच है कि हम उन प्रवृत्तियों को अपने साथ लेकर जन्म लेते हैं, तब तो बिल्कुल यही सिद्ध होता है कि उनके कारण गतजन्म में जान-बूझकर किये हुये प्रयत्न ही है-अर्थात् इस वर्तमान जन्म के पूर्व हम उसी मानसिक भूमिका में रहे होंगे, जिसे हम मानव भूमिका कहते हैं। 
02. पुनर्जन्मवादी लोग यह मानते हैं कि सभी अनुभव प्रवृत्तियों के रूप में अनुभव करने वाली जीवात्मा में संगृहीत रहते हैं और उसे अविनाशी जीवात्मा के पुनर्जनम द्वारा संक्रमित किये जाते हैं, भौतिकवाद वाले मस्तिष्क को सभी कर्मों के आधार होने के और बीजाणुओं के द्वारा उनके संक्रमण का सिद्धान्त मानते हैं। यदि बीजाणुओं द्वारा आनुवंशिक संक्रमण समस्या को हल करने के लिए पूर्णतः पर्याप्त है, तब तो भौतिकता ही अपरिहार्य है और आत्मा के सिद्धान्त की कोई आवश्यकता नहीं है। यदि वह पर्याप्त नहीं है, तो प्रत्येक आत्मा अपने साथ इस जन्म में अपने भूतकालिक अनुभवों को लेकर आती है, यह सिद्धान्त पूर्णतः सत्य है। पुनर्जन्म या भौतिकता-इन दो में से किसी एक को मानने के सिवा और कोई गति नहीं है। प्रश्न यह है कि हम किसे मानें? 
03. ”फलानुमेयाः प्रारम्भाः संस्कराः प्राक्तना इव“ फल को देखकर ही कार्य का विचार सम्भव है। जैसे कि फल को देखकर पूर्व संस्कार का अनुमान किया जाता है।
04. शास्त्र कहते है कि कोई साधक यदि एक जीवन में सफलता प्राप्त करने में असफल होता है तो वह पुनः जन्म लेता है और अपने कार्यो को अधिक सफलता से आगे बढ़ाता है।
05. एक विशेष प्रवृत्ति वाला जीवात्मा ”योग्य योग्येन युज्यते’ इस नियमानुसार उसी शरीर में जन्म ग्रहण करता है जो उस प्रवृत्ति के प्रकट करने के लिए सबसे उपयुक्त आधार हो। यह पूर्णतया विज्ञान संगत है, क्योंकि विज्ञान कहता है कि प्रवृत्ति या स्वभाव अभ्यास से बनता है और अभ्यास बारम्बार अनुष्ठान का फल है। इस प्रकार एक नवजात बालक की स्वाभाविक प्रवृत्तियों का कारण बताने के लिए पुनः पुनः अनुष्ठित पूर्व कर्मो को मानना आवश्यक हो जाता है और चूँकि वर्तमान जीवन में इस स्वमाव की प्राप्ति नहीं की गयी, इसलिए वह पूर्व जीवन से ही उसे प्राप्त हुआ है।

रायल्टी
मनुष्य समाज व सरकार में व्यापार के प्रणाली से रायल्टी शब्द का जन्म हुआ है जो किसी व्यक्ति/संस्था के मौलिक खोज/कृति इत्यादि के प्रति उसकी रक्षा व व्यापारीकरण के लिए उसे धनराशि के रूप में भुगतान का अधिकार देता है। रायल्टी संपत्ति, पेटेंट, काॅपीराइट किए गए कार्य या मताधिकार (फ्रैन्चाइजी) के कानूनी मालिक को उनके द्वारा भुगतान किया जाता है जो इसका उपयोग करना चाहते हैं। ज्यादातर मामलों में, रायल्टी संपत्ति के उपयोग के लिए मालिक की भरपाई करने के लिए दिया जाता हैं, जो कानूनी तौर पर बाध्यकारी हैं। 

निष्कर्ष
इस संसार में प्रत्येक जीव का अपना मौलिक कर्म-इच्छा है और वह उसी अनुसार कर्म कर रहा है। ईश्वर और पुनर्जन्म के सार्वभौम सत्य-सिद्धान्त के अनुसार हम यह पाते हैं कि हम जो भी कर्म-इच्छा करते हैं वह हमें उस अनुसार जन्म-जन्मान्तर तक कर्म-इच्छा के परिणाम/फल के रूप में प्राप्त होता रहता है। 
इस ब्रह्माण्ड में जिस प्रकार उत्प्रेरक सार्वभौम आत्मा की उपस्थिति में समस्त क्रिया का संचालन चल रहा है उसी प्रकार मानव समाज में उत्प्रेरक मुद्रा की उपस्थिति में मानव के समस्त व्यापार चल रहे हैं। 
जिस प्रकार हमारे सभी कर्म-इच्छा का परिणाम/फल रायल्टी के रूप में सार्वभौम आत्मा द्वारा प्रदान किये जा रहे है। उसी प्रकार मानव समाज के वस्तुओं से सम्बन्धित व्यापार में भी उसके साथ किये गये कर्म के भी परिणाम/फल रायल्टी के रूप में प्राप्त होनी चाहिए। मौलिक खोज/आविष्कार के साथ रायल्टी का प्राविधान बढ़ते बौद्धिक विकास के साथ तो है ही परन्तु यदि किसी कम्पनी के उत्पाद का प्रयोग हम करते हैं तो ये उस कम्पनी के साथ किया गया हमारा कर्म भी रायल्टी के श्रेणी में आता है क्योंकि हम ही उस कम्पनी के विकास में योगदान देने वाले हैं। रायल्टी का सीधा सा अर्थ है-हमारे कर्मो का परिणाम/फल हमें मिलना चाहिए। जिस प्रकार ईश्वर हमें जन्म-जन्मान्तर तक परिणाम/फल देता है, उसी प्रकार मनुष्य निर्मित व्यापारिक संस्थान द्वारा भी हमें उसका परिणाम/फल मिलना चाहिए।
वर्तमान समय में स्थिति यह है कि भले ही कच्चा माल (राॅ मैटिरियल) ईश्वर द्वारा दी गई है लेकिन उसके उपयोग का रूप मनुष्य निर्मित ही है और हम उससे किसी भी तरह बच नहीं सकते। जिधर देखो उधर मनुष्य निर्मित उत्पाद से हम घिरे हुए हैं। हमारे जीवन में बहुत सी दैनिक उपयोग की ऐसी वस्तुएँ हैं जिनके उपयोग के बिना हम बच नहीं सकते। बहुत सी ऐसी निर्माता कम्पनी भी है जिनके उत्पाद का उपयोग हम वर्षो से करते आ रहे हैं लेकिन उनका और हमारा सम्बन्ध केवल निर्माता और उपभोक्ता का ही है जबकि हमारी वजह से ही ये कम्पनी लाभ प्राप्त कर आज तक बनी हुयी हैं, और हमें उनके साथ इतना कर्म करने के बावजूद भी हम सब को रायल्टी के रूप में कुछ भी प्राप्त नहीं होता। जबकि स्थायी ग्राहक बनाने के लिए रायल्टी देना कम्पनी के स्थायित्व को सुनिश्चित भी करता है।
अपने जीवकोपार्जन के लिए शारीरिक गुलामी से चला आर्थिक स्वतन्त्रता का सफर अभी पेंशन तक ही पहुँचा है। जब हम रायल्टी तक पहुँच जायेंगे तब हम सभी सत्य आर्थिक स्वतन्त्रता के अन्तिम लक्ष्य को प्राप्त कर लेंगे।


पारिश्रमिक का इतिहास और वेतन (सैलरी) का अर्थ

पारिश्रमिक का इतिहास और वेतन (सैलरी) का अर्थ 


मजदूरी, वेतन, भत्ते और मानदेय, प्रोत्साहन, सौदागर, अभिकर्ता, विशेषाधिकार, दलाली का अर्थ

चूँकि पहले कार्य संबंधी भुगतान विनिमय के लिए कोई पहला भुगतान का अंश (पे स्टब) मौजूद नहीं है, पहले वेतनभोगी कार्य में मानव समाज को इतना अधिक विकसित होने की जरूरत रही होगी कि उसके पास वस्तुओं या अन्य कार्य के बदले वस्तु के विनिमय को संभव बनाने के लिए वस्तु-विनिमय प्रणाली मौजूद हो। इससे भी ज्यादा महत्वपूर्ण है कि यह संगठित नियोक्ताओं-संभवतः एक सरकार या धार्मिक निकाय-की मौजूदगी को पहले से मानकर चलता है जो इस हद तक नियमित आधार पर कार्य के बदले मजदूरी के आदान-प्रदान की सुविधा प्रदान करते हैं कि यह एक वेतनभोगी कार्य बन जाता है। इससे ज्यादातर लोग यह अनुमान लगाते हैं कि पहले वेतन का भुगतान नियोलिथिक क्रांति के दौरान, 10,000 बी.सी.ई. ¼BCE½ और 6.000 बी.सी.ई. ¼BCE½  के बीच किसी समय एक गाँव या शहर में किया गया होगा। लगभग 3100 बी.सी.ई. ¼BCE½ की तारीख में एक कीलाक्षर से खुदी हुई मिट्टी का टेबलेट मेसोपोटामिया के श्रमिकों के लिए दैनिक बियर राशनों का एक रिकार्ड प्रदान करता है। बियर का मतलब नुकीले आधार वाला एक सीधा खड़ा मटका होता है। एक कटोरे में से खाता हुआ एक मानव सिर राशनों के लिए प्रतीक स्वरूप है। गोल और अर्ध-वृत्ताकार छापे माप का प्रतिनिधित्व करते हैं। एजरा की हिब्रू पुस्तक (550-450 ईसा पूर्व (बी.सी.ई.)) के समय तक किसी व्यक्ति से नमक स्वीकार करने का मतलब जीविका प्राप्त करने, भुगतान लेने या उस व्यक्ति की सेवा में होने के सामान था। उस समय नमक के उत्पादन को सम्राट या शासक जमींदार द्वारा कड़ाई से नियंत्रित किया जाता था। एजरा 04ः14 के अनुवाद की आधार पर फारस (पर्सिया) के राजा अर्ताक्सरेक्सेस प्रथम के सेवकों ने अपनी वफादारी इस प्रकार अलग-अलग तरीके से व्यक्त करते थे क्योंकि हम महल के नमक के कर्जदार हैं या क्योंकि हमें राजा से रख-रखाव का खर्च मिलता है या क्योंकि हम राजा के प्रति जिम्मेदार हैं।

वेतन (सैलरी) का अर्थ 
वेतन किसी नियोक्ता से किसी कर्मचारी को मिलने वाले आवधिक भुगतान का एक स्वरूप है जो एक नियोजन संबंधी अनुबंध में निर्देशित किया गया हो सकता है। यह टुकड़ों में मिलने वाली मजदूरी के विपरीत है जहाँ आवधिक आधार पर भुगतान किये जाने की बजाय प्रत्येक काम, घंटे या अन्य इकाई का अलग-अलग भुगतान किया जाता है। एक कारोबार के दृष्टिकोण से वेतन को अपनी गतिविधियाँ संचालित करने के लिए मानव संसाधनों की प्राप्ति की लागत के रूप में भी देखा जा सकता है और उसके बाद इसे कार्मिक खर्च या वेतन खर्च का नाम दिया जा सकता है। लेखांकन में वेतनों को भुगतान संबंधी (पेरोल) खातों में दर्ज किया जाता है।

रोमन शब्द सैलरियम
इसी तरह रोमन शब्द सैलरियम रोजगार, नमक और सैनिकों से जुड़ा है, लेकिन सटीक संबंध स्पष्ट नहीं है। कम से कम सामान्य सिद्धांत यह है कि स्वयं सोल्जर शब्द ही लैटिन के साल डेयर (नमक देना) से निकला है। वैकल्पिक रूप से, रोमन इतिहासकार प्लिनी द एल्डर ने समुद्री जल की अपनी प्राकृतिक इतिहास की चर्चा में परोक्ष रूप से कहा था, कि रोम में...सैनिकों का भुगतान मूल रूप से नमक (साल्ट) था और वेतन (सैलरी) शब्द इसी से निकला है। प्लिनियस नेचुरेलिस हिस्टोरिया (Plinius Naturalis Historia), अन्य लोगों की टिपण्णी यह है कि सोल्जर (सैनिक) के गोल्ड सोलिडस से उत्पन्न होने की कहीं अधिक संभावना है, जिसके जरिये सैनिकों को भुगतान किये जाने की जानकारी है और इसके बदले उनका यह कहना है कि सैलरियम या तो नमक की खरीद के लिए एक भत्ता था या फिर नमक की आपूर्तियों का सामना करने और रोम को जाने वाले नमक मार्गों की सुरक्षा (सैलरियम से होकर) के लिए सैनिकों को रखने की कीमत थी।

रोमन साम्राज्य और मध्ययुगीन एवं पूर्व-औद्योगिक यूरोप में भुगतान
सटीक संबंध पर ध्यान दिए बगैर, रोमन सैनिकों को भुगतान किये गए सैलरियम को तब से पश्चिमी देशों में कार्य के बदले मजदूरी के रूप में परिभाषित किया गया है और इसने किसी के नमक का हक अदा करने के रूप में उन अभिव्यक्तियों को बढ़ावा दिया है। अभी तक रोमन साम्राज्य के भीतर या (बाद में) मध्ययुगीन और पूर्व-औद्योगिक यूरोप और उसके व्यापारिक कालोनियों में ऐसा प्रतीत होता है कि वेतनभोगी रोजगार अपेक्षाकृत दुर्लभ और विशेषकर सेवकों और उच्च-स्तरीय भूमिकाओं, खास तौर पर सरकारी सेवा तक सीमित रहा है। इस तरह की भूमिकाओं का वैतनिक भुगतान काफी हद तक आवास और भोजन की व्यवस्था और वर्दी संबंधी कपड़ों के जरिये किया जाता था लेकिन नगदी का भी भुगतान किया जाता था। कई दरबारियों, जैसे कि मध्ययुगीन दरबारों में वैलेट्स डी चेंबर को वार्षिक राशि का भुगतान किया जाता था, कभी-कभी पूरक के रूप में उन्हें अप्रत्याशित अतिरिक्त बड़ी राशियाँ दी जाती थीं। सामाजिक स्तर के दूसरे छोर पर रोजगार के कई स्वरूपों में लोगों को या तो कोई भुगतान नहीं किया जाता था, जैसे कि गुलामी (हालांकि कई गुलामों को कम से कम कुछ राशि का भुगतान किया जाता था), दासत्व और करारनामे वाली ताबेदारी के मामले में होता था, या साझेदारी में फसल उगाने के मामले में उन्हें उपज का सिर्फ थोड़ा सा हिस्सा प्राप्त होता था। कार्य के अन्य सामान्य वैकल्पिक माॅडलों में स्वयं या सहभागिता आधारित रोजगार शामिल था जैसे कि कारीगरों की श्रेणी में विशेषज्ञों को मिलता था जो अक्सर अपने साथ वेतनभोगी सहायक रखते थे या कार्य और स्वामित्व का साझा करते थे, जैसा कि मध्यकालीन विश्वविद्यालयों और मठों में होता था।

वाणिज्यिक क्रांति के दौरान भुगतान
यहाँ तक कि 1520 से 1650 के बीच के वर्षों में वाणिज्यिक क्रांति द्वारा शुरुआत में कई सृजित रोजगारों और बाद में 18वीं और 19वीं सदियों में औद्योगीकरण के दौरान कोई वेतन नहीं दिया जाता था, लेकिन एक हद तक उन्हें कर्मचारियों के रूप में भुगतान किया जाता था, संभवतः घंटे या दैनिक आधार पर मजदूरी दी जाती थी या प्रति इकाई उत्पादन के आधार (जिसे पीस वर्क भी कहा जाता था) पर भुगतान किया जाता था।
भुगतान के रूप में आमदनी का साझा
इस समय के निगमों जैसे कि कई ईस्ट इंडिया कंपनियों में कई प्रबंधकों को मालिक-शेयरधारक के रूप में वेतन दिया जाता था। इस तरह के पारिश्रमिक की स्कीम लेखांकन, निवेश और कानूनी फर्म की साझेदारियों में अभी भी सामान्य है जहाँ प्रमुख पेशेवर व्यक्ति शेयर (इक्विटी) के भागीदार होते हैं और तकनीकी रूप से वेतन नहीं लेते हैं लेकिन इसकी बजाय अपनी वार्षिक आमदनी के हिस्से के आधार पर एक नियतकालिक निकासी प्राप्त कर लेते हैं।

दूसरी औद्योगिक क्रांति और वेतनभोगी भुगतान
1870 से 1930 तक दूसरी औद्योगिक क्रांति ने रेलमार्गों, बिजली और टेलीग्राफ एवं टेलीफोन की सुविधाओं के जरिये आधुनिक व्यावसायिक निगमों को उभरने का मौका दिया। इस युग में वेतनभोगी अधिकारियों और प्रशासकों के एक वर्ग को बड़े पैमाने पर उभरते देखा गया जिन्होंने नए, व्यापक-स्तर पर बनाए जा रहे उद्यमों में कार्य किया। नई प्रबंधकीय नौकरियों ने कुछ हद तक इस कारण से स्वयं को वेतनभोगी रोजगार के रूप में व्यवस्थित किया कि कार्यालय संबंधी कार्य के प्रयास और प्रतिफल को घंटों या टुकड़ों के आधार पर मापना बहुत मुश्किल था और कुछ हद तक इसलिए कि उन्हें शेयर के स्वामित्व से अनिवार्य रूप से कोई पारिश्रमिक नहीं प्राप्त होता था। जिस तरह 20वीं सदी में जापान का तेजी से औद्योगीकरण हुआ, कार्यालय संबंधी कार्य का विचार इतना आदर्श था कि इस भूमिका में काम करने वाले लोगों और उनके पारिश्रमिक का वर्णन करने के लिए एक नया जापानी शब्द (सैलरीमैन) गढ़ लिया गया।

20वीं सदी में वेतनभोगी रोजगार
20वीं सदी में सेवा अर्थव्यवस्था के उद्भव ने विकसित देशों में वेतनभोगी रोजगार को कहीं अधिक सामान्य बना दिया, जहाँ औद्योगिक उत्पादन संबंधी नौकरियों के संबंधित हिस्से में गिरावट आयी और आधिकारिक, प्रशासनिक, कम्प्युटर, मार्केटिंग और रचनात्मक नौकरियों-जिनमें से सभी वेतनभोगी होते थे-की हिस्सेदारी बढ़ गयी।

आज के वेतन और भुगतान के अन्य स्वरुप
आज, एक वेतन का विचार नियोक्ताओं द्वारा कर्मचारियों को दिए जाने वाले सभी तरह के संयुक्त पुरस्कारों की एक प्रणाली के हिस्से के रूप में निरंतर विकसित हो रहा है। वेतन (जिसे अब एक निश्चित भुगतान (फिक्स्ड पे) रूप में भी जाना जाता है) को एक कुल जमा पुरस्कारों की प्रणाली के एक हिस्से के रूप में देखा जाने लगा है (जिसमें बोनस, प्रोत्साहन भुगतान और कमीशन, लाभ और अनुलाभ (या भत्ते) और कई अन्य उपकरण शामिल होते हैं जो एक कर्मचारी की मापी गयी कार्यकुशलता से साथ पुरस्कारों का संबंध जोड़ने में नियोक्ता की मदद करता है।

अमेरिका में वेतन
संयुक्त राज्य अमेरिका में, नियतकालिक वेतन (जिनका भुगतान आम तौर पर कार्य के घंटों पर ध्यान दिए बगैर किया जाता है) और घंटों के पारिश्रमिक (एक न्यूनतम पारिश्रमिक जाँच में सफल होना और अतिरिक्त समय तक कार्य करना) के अंतर को पहली बार 1938 के फेयर लेबर स्टैण्डर्ड्स एक्ट द्वारा संहिताबद्ध किया गया था। उस समय, पाँच श्रेणियों की पहचान न्यूनतम पारिश्रमिक और ओवरटाइम सुरक्षा से मुक्त होने के रूप में की गई थी और इसीलिये वेतन के योग्य थी। 1991 में, कुछ कंप्यूटर कर्मियों को छठी श्रेणी के रूप में शामिल किया गया था लेकिन 23 अगस्त 2004 के प्रभावी इन श्रेणियों को संशोधित किया गया और वापस नीचे पाँच (आधिकारिक, प्रशासनिक, पेशेवर, कंप्यूटर और बाहर के बिक्री कर्मचारी) तक कम कर दिया गया था। वेतन आम तौर पर एक वार्षिक आधार पर निर्धारित किया जाता है। एफ.एल.एस.ए (FLSA) की अनिवार्यता है कि संयुक्त राज्य अमेरिका में ज्यादातर कर्मचारियों को काम के सभी घंटों और अतिरिक्त समय के भुगतान के लिए एक समय में कम से कम संघीय न्यूनतम वेतन का और एक कार्य-सप्ताह में 40 घंटे से अधिक काम किये गए सभी घंटों के लिए नियमित दर के वेतन के आधे का भुगतान किया जाए.। हालांकि, एफ.एल.एस.ए (FLSA) का सेक्शन 13(ए) प्रामाणिक अधिकारियों, प्रशासनिक, पेशेवर और बाहरी बिक्री संबंधी कर्मचारियों के रूप में नियुक्त कर्मचारियों के लिए न्यूनतम पारिश्रमिक और अतिरिक्त समय के भुगतान दोनों से छूट प्रदान करता है। सेक्शन 13(ए)(1) और सेक्शन 13(ए)(17) भी कुछ खास कंप्यूटर कर्मचारियों को भी छूट देता है। छूट की अर्हता प्राप्त करने के लिए कर्मचारियों को आम तौर पर अपनी नौकरी के दायित्व (ड्यूटी) के संदर्भ में एक जाँच परीक्षा में अनिवार्य रूप से सफल होना पड़ता है और उन्हें वेतन के आधार पर कम से कम 445 डॉलर प्रति सप्ताह का भुगतान किया जाता है। नौकरी का पदनाम छूट की स्थिति को निर्धारित नहीं करता है। एक छूट के लिए आवेदन करने के क्रम में कर्मचारी के विशिष्ट कार्य संबंधी दायित्वों और वेतन के मामले में विभाग के नियमों की सभी अर्हताओं को अनिवार्य रूप से पूरा करना होगा। इन पाँच श्रेणियों में से केवल कंप्यूटर संबंधी कर्मचारियों को घंटे के पारिश्रमिक के आधार पर छूट (23.63 डाॅलर प्रति घंटा) मिलती है जबकि बाहरी बिक्री संबंधी कर्मचारी एकमात्र प्रमुख श्रेणी में आते हैं जिसे न्यूनतम वेतन (455 डाॅलर प्रति सप्ताह) की जाँच परीक्षा नहीं देनी होती है हालांकि पेशेवरों (जैसे कि कानून या चिकित्सा के शिक्षकों और प्रैक्टिशनरों को) के अधीन कुछ उप-श्रेणियों में भी न्यूनतम वेतन संबंधी जाँच परीक्षा नहीं ली जाती है। नियतकालिक वेतनों की तुलना घंटों के पारिश्रमिक से करने का एक सामान्य नियम 40 घंटा प्रति सप्ताह और वर्ष में 50 हफ्ते (छुट्टी के लिए दो हफ्तों को छोड़कर) के मानक कार्य पर आधारित है। (उदाहरण 40,000 डाॅलर/वर्ष के नियतकालिक वेतन को 50 हफ्तों से विभाजित करने पर 800 डाॅलर/सप्ताह के वेतन के बराबर होता है। 800 डाॅलर/सप्ताह को 40 मानक घंटों से विभाजित करने पर मान 20 डाॅलर/घंटा होता है। अमेरिकी जनगणना ब्यूरो द्वारा जारी एक रिपोर्ट के अनुसार, संयुक्त राज्य अमेरिका में वास्तविक औसत घरेलू आय 2006 और 2007 के बीच 1.3 प्रतिशत चढ़ कर 50,233 डाॅलर पर पहुँच गयी थी। यह वास्तविक औसत घरेलू आय में तीसरी वार्षिक वृद्धि है।

जापान में वेतन
जापान में मालिक अपने कर्मचारियों को वेतन वृद्धि की सूचना जिरी के माध्यम से देते थे। यह अवधारणा अब भी मौजूद है और बड़ी कंपनियों में इसकी जगह एक इलेक्ट्रानिक स्वरुप या ई-मेल का इस्तेमाल किया जाने लगा है।

भारत में वेतन
भारत में वेतन का भुगतान आम तौर पर हर महीने की 7वीं तारीख को किया जाता है। भारत में न्यूनतम पारिश्रमिक का निर्धारण न्यूनतम मजदूरी अधिनियम, 1948 द्वारा किया जाता है। इसके बारे में विस्तृत विवरण www.labourbureau.nic.in/wagetab.htm  पर देखा जा सकता है। भारत में कर्मचारियों को उनकी वेतन वृद्धि के बारे में उनको एक हार्ड कॉपी लेटर देकर सूचित किया जाता है।

मजदूरी (Wages)
घंटे या अन्य इकाई के लिए अलग-अलग किया जाने वाला भुगतान मजदूरी कहलाता है। कारोबार में यदि कार्य स्थायी न हो या वह कार्य बार-बार न करना हो तो मजदूर रखे जाते हैं जिन्हें कार्य सम्पन्न होने के बाद पारिश्रमिक दे कर मुक्त कर दिया जाता है। फिर कभी आवश्यकता पड़ने पर मजदूर रख लिया जाता है।

वेतन (Salary)
वेतन, किसी नियोक्ता से किसी कर्मचारी को मिलने वाले आवधिक भुगतान का एक स्वरूप है जो एक नियोजन संबंधी अनुबंध में निर्देशित किया गया हो सकता है। यह टुकड़ों में मिलने वाली मजदूरी के विपरीत है जहाँ आवधिक आधार पर भुगतान किये जाने की बजाय प्रत्येक काम, घंटे या अन्य इकाई का अलग-अलग भुगतान किया जाता है। एक कारोबार के दृष्टिकोण से वेतन को अपनी गतिविधियाँ संचालित करने के लिए मानव संसाधनों की प्राप्ति की लागत के रूप में भी देखा जा सकता है और उसके बाद इसे कार्मिक खर्च या वेतन खर्च का नाम दिया जा सकता है। लेखांकन में वेतनों को भुगतान संबंधी (पेरोल) खातों में दर्ज किया जाता है।

भत्ते (Allowance)
भत्ता, किसी नियोक्ता द्वारा अपने कर्मचारी को दिया जाने वाला वह अतिरिक्त राशि है जिससे कर्मचारी को नियोक्ता के कार्य को सम्पन्न करने में उसके अपने वेतन से खर्च न हो। 

मानदेय (Honoraria)
मानदेय, किसी नियोक्ता से संविदा/अनुबंध के आधार पर नियुक्त किसी कर्मचारी को मिलने वाले आवधिक भुगतान का एक स्वरूप है जो एक नियोजन संबंधी अनुबंध में निर्देशित किया गया हो सकता है।

प्रोत्साहन (Incentive)
प्रोत्साहन किसी नियोक्ता से किसी कर्मचारी को मिलने वाला वह भुगतान का एक वह स्वरूप है जो कर्मचारी द्वारा अपने लक्ष्य से अधिक कार्य करने पर दिया जाता है। जो एक नियोजन संबंधी अनुबंध में निर्देशित किया गया हो सकता है।

सौदागर (Dealer)
डीलर, एक व्यावसायिक फर्म के लिए एक व्यक्ति या कंपनी जो उस व्यावसायिक फर्म के उत्पाद को बेचने के लिए एक निश्चित क्षेत्र के लिए नियुक्त होता है और उसके बदले फर्म के नियमानुसार लाभ प्राप्त होता है। 

अभिकर्ता (Agent)
एजेंट, एक व्यावसायिक फर्म के लिए एक व्यक्ति या कंपनी जो उस व्यावसायिक फर्म के उत्पाद को बेचने के लिए स्वतन्त्र क्षेत्र के लिए नियुक्त होता है और उसके बदले फर्म के नियमानुसार लाभ प्राप्त होता है। 

विशेषाधिकार (Franchise)
फ्रैंचाइजी, समय के एक निर्धारित अवधि के लिए एक फर्म के सफल व्यापार माॅडल और ब्रांड का उपयोग करने के अधिकार के लिए काम पर रखने की प्रथा है। फ्रैंचाइजर के लिए, मताधिकार ”चेन स्टोर के निर्माण के लिए एक विकल्प है“। फ्रेंचाइजर की सफलता फ्रेंचाइजी की सफलता पर निर्भर करता है। फ्रेंचाइजी वह या वह व्यापार में एक प्रत्यक्ष हिस्सेदारी है क्योंकि एक प्रत्यक्ष कर्मचारी की तुलना में अनिवार्य रूप से एक फ्रैंचाइजी अधिक से अधिक प्रोत्साहन और वितरण के लिए है। 

दलाल (Broker)
दलाल, एक खरीददार और विक्रेता के बीच लेन-देन की व्यवस्था करता है जो एक व्यक्ति या पार्टी (ब्रोकरेज फर्म) है। सौदा सम्पन्न होने पर दलाल एक निश्चित कमीशन प्राप्त करता है। दलाल भी एक विक्रेता के रूप में या एक खरीदार के रूप में कार्य करता है जो दलाल सौदा करने के लिए एक प्रमुख पार्टी बन जाता है।