पृथ्वी
मानव सहित लाखों प्रजातियों का घर पृथ्वी है। पृथ्वी ही ब्रह्माण्ड में एकमात्र वह स्थान है जहाँ जीवन अस्तित्व के लिए वर्तमान समय तक जाना जाता है। वैज्ञानिक सबूत देते हैं कि पृथ्वी ग्रह का जीवन 4.54 अरब वर्ष पहले और उसकी सतह पर जीवन 1 अरब वर्ष पहले प्रकट हुआ। तब से पृथ्वी के जीव मंडल ने इस ग्रह पर पर्यावरण और अन्य अजैवकीय परिस्थितियों को बदल दिया है ताकि वायुजीवी जीवों के प्रसारण, साथ ही साथ ओजोन परत के निर्माण को रोका जा सके। यह ओजोन परत पृथ्वी के चुम्बकीय क्षेत्र के साथ हानिकारक विकिरण को रोक कर जमीन पर जीवन की अनुमति देता है। पृथ्वी का बाहरी सतह कई कठोर खण्डों या विवर्तनिक प्लेट में विभाजित है जो क्रमशः कई लाख वर्षो में पूरे सतह से विस्थापित होती है। सतह का लगभग 71 प्रतिशत नमक जल के सागर से आच्छादित है। शेष में महाद्वीप और द्वीप और तरल पानी है जो सभी ज्ञात जीवन के लिए आवश्यक है। पृथ्वी का आतंरिक सतह एक अपेक्षाकृत ठोस भूपटल की मोटी परत के साथ सक्रिय रहता है। एक तरल बाहरी कोर जो एक चुम्बकीय क्षेत्र और एक ठोस लोहा का आन्तरिक कोर को पैदा करता है। पृथ्वी मोटे तौर पर अपनी धुरी का करीब 366.26 बार चक्कर काटती है। यह समय एक नक्षत्र वर्ष है जो 365.26 सौर दिवस के बराबर है। पृथ्वी की घूर्णन की धूरी इसके कक्षीय समतल से लम्बवत् 23.4 की दूरी पर झुका है जो एक उष्णकटिबंधीय वर्ष 365.24 सौर दिनों में ग्रह की सतह पर मौसम की विविधता को पैदा करता है। पृथ्वी के प्रारम्भिक इतिहास के दौरान एक धूमकेतू की बमबारी ने महासागरों के गठन में भूमिका निभाया। बाद में छुद्र ग्रह के प्रभाव ने सतह के पर्यावरण पर महत्वपूर्ण बदलाव किया।
खगोलशास्त्रीयों के अनुसार अपनी पृथ्वी को एक गैस बादल से समुद्र का, पिण्ड गोलक का रूप धारण किये लगभग 11 अरब वर्ष हुये हैं। सौरमण्डल के अन्य सदस्यों का जन्म भी लगभग एक साथ ही हुआ है। सौरमण्डल के ग्रहों के उपग्रह बाद में बनते रहे हैं। पृथ्वी के चन्द्रमा के सम्बन्ध में कहा जाता है कि समुद्र वाले गड्ढे से टूटकर अंतरिक्ष में विचरण करने वाला पदार्थ भर है, जो टूट तो पड़ा परन्तु पृथ्वी के गुरूत्वाकर्षण को पार न कर पाने के कारण पृथ्वी का परिभ्रमण करने लगा। यही बात अन्य ग्रहों के उपग्रह पर भी लागू होती है।
पृथ्वी आकार में सौरमण्डल का पाँचवाँ सबसे बड़ा तथा सूर्य से दूरी में तीसरा ग्रह है। यह शुक्र व मंगल के बीच स्थित है। इसके चारो ओर तापमान, आक्सीजन और प्रचुर मात्रा में जल की उपस्थिति के कारण यह सौरमण्डल का एक मात्र ग्रह है जहाँ जीवन सम्भव है। पृथ्वी पर जल की अधिकता के कारण यह अंतरिक्ष से नीली दिखाई देती है। इसी कारण इसे नीला ग्रह भी कहते हैं। पृथ्वी का एक मात्र उपग्रह चन्द्रमा है। पृथ्वी सदैव गतिमान है। वह अपने अक्ष पर निरंतर गोलाई में घूमती है। साथ ही सौरमण्डल का सदस्य होने के कारण पृथ्वी अपने दीर्घवृत्ताकार कक्षा में सूर्य के चारो ओर परिक्रमा करती है। इस प्रकार पृथ्वी की दो गतियाँ-घूर्णन गति अथवा दैनिक गति (23 घंटा 56 मिनट 0.099 सेकण्ड) और परिक्रमण गति अथवा वार्षिक गति (365 दिन 6 घंटा) है।
यों पृथ्वी का व्यास और परिधि का जो माप किया जाता है वह स्थिर नहीं है। पृथ्वी क्रमशः फूल रही है। उसका फुलाव यों मंद गति से है, पर यह चलता रहा तो वर्तमान माप से सैकड़ों मील की वृद्धि करनी पड़ेगी। समुद्र क्रमशः सूख रहा है। फलस्वरूप थल भाग बढ़ता जा रहा है। अनुमान है कि 5 लाख वर्ष बाद पृथ्वी का थल क्षेत्र अब की अपेक्षा दूना हो जायेगा। जन्म के बाद वृद्धि का जो क्रम प्राणधारी वनस्पतियों तथा प्राणियों पर लागू होता है, वही पृथ्वी के लिए भी है।
इतनी विशाल हमारी पृथ्वी सौरमण्डल के मध्य में नहीं है वरन् एक कोने में पड़ी है। ठीक इसी प्रकार अपना सौरमण्डल भी मंदाकिनी आकाशगंगा के ठीक मध्य में अवस्थित न होकर एक कोने में पड़ा है। सूर्य प्रति सेकण्ड 220 किलो मीटर की गति से अपने सौरमण्डल सहित आकाशगंगा केन्द्र की परिक्रमा करता है। इस प्रकार जब से पृथ्वी पर मनुष्य का जन्म हुआ है, तब से लेकर अब तक उस केन्द्र की एक परिक्रमा भी पूरी नहीं हो पाई है। अपनी आकाशगंगा के केन्द्र से यह सौरमण्डल 30 हजार प्रकाशवर्ष हटकर है। अपनी आकाशगंगा ध्रुव द्वीप की 19 आकाशगंगाओं में से एक हैं, पर ऐसे ध्रुव द्वीप भी इस विराट ब्रह्माण्ड में असंख्य बिखरे पड़े हैं। माउण्ट पैलोमर पर लगी हुई 200 इंच व्यास के लेंस वाली संसार की सबसे बड़ी हाले दूरबीन से पता चला लगाया गया है कि ब्रह्माण्ड में कम से कम 1 अरब आकाशगंगाएँ हैं।
विशालता का पैमाना क्या लिया जाए यह मानवी बुद्धि की समझ में सहज ही नहीं आता। 13000 किलोमीटर व्यास वाली हमारी पृथ्वी के मुखिया सूर्य का स्वयं का व्यास 13,90,000 किलोमीटर है। अनुमानित भार 19 करोड़ 98 लाख महाशंख टन है। वह अपनी धुरी पर 25 दिन 7 घंटे 48 मिनट में एक चक्कर लगाता है। उसकी सतह पर 600 डिग्री तथा मध्य गर्भ में 15 लाख डिग्री सेण्टीग्रेट तापमान है। वह 200 मील प्रति सेकण्ड की उड़ान उड़ता हुआ महाधु्रव की परिक्रमा में व्यस्त है जो 25 करोड़ वर्ष में पूरी होती है। इस परिक्रमा में उसके साथी और भी कई सूर्य हैं जिनके अपने-अपने सौरमण्डल भी हैं। पृथ्वी से सूर्य 109 गुना बड़ा है। दोनों के बीच की दूरी 9,30,00,000 मील है। यदि हम 6000 मील प्रति घ्ंाटे की गति से उड़ने वाले अपने तीव्रतम वायुयानों में बैठकर लगातार उड़े तो उस दूरी को पार करने में 18 वर्ष लगेगें।
यह पृथ्वी सौरमण्डल का एक नन्हा सा ग्रह, सूर्य एक तारा, ऐसे तारों की लाखों की संख्या वाली अपनी आकाशगंगा और फिर एक अरब आकाशगंगाओं से भरा-पूरा विराट ब्रह्माण्ड। परमाणु के खण्डकों को सबसे छोटा माने तो उसकी तुलना में यह विराट कितना बड़ा है? यह गणित की अथवा कल्पना की परिधि में कैसे समा सकेगा?
विज्ञानी नीत्सवोहर कहते थे कि-”अस्तित्व के विशाल नाटक में हम ही अभिनेता हैं और हम ही दर्शक। मनुष्य अपने आप में एक रहस्य है। मानवी कलेवर शरीर और मस्तिष्क उन्हीं तत्वों से बना है जिससे कि यह ब्रह्माण्ड। अपने आप की खोज और ब्रह्माण्ड की खोज में असाधारण साम्य है। अणु और विभु का गहन अनुसंधान जब मानवी मस्तिष्क के बलबूते संभव होगा तो वह महत्वपूर्ण संभावनाएँ अपने साथ लेकर आयेगा।“
दृश्य संसार का संचालन सूत्र अदृश्य, अज्ञात और अपरिचित हाथों में है। जानना चाहिए कि जो सत्ता इस सृष्टि संसार का नियमन, नियंत्रण और व्यवस्थापन करती है, वह मनुष्य के प्रति कितनी उदार है? अतएव यह निश्चित मानना चाहिए कि प्रकृति की नियम मर्यादाओं को, ईश्वर की विधि-व्यवस्था को तोड़कर मनुष्य कोई लाभ में नहीं रह सकता। इस प्रकार तो वह अपने आप को नष्ट कर लेगा। प्रकृति की व्यवस्था को बदल सकना और मर्यादा को बदलना उस क्षुद्र के लिए किसी भी प्रकार सम्भव नहीं है। नीति और सदाचार की कत्र्तव्य और धर्म की मर्यादाओं का उलंघन करके वह अपने आतंक और अनाचार का परिचय दे सकता है, पर इसमें वह विश्व व्यवस्था को अपने अनुरूप बदलने में सफल नहीं हो सकता। इस उद्धत आचरण से वह अपनी मानसिक, सामाजिक और आन्तरिक समस्वरता ही नष्ट करेगा। उसे समझना चाहिए कि जो नियामक शक्ति इतने बड़े ब्रह्माण्ड को, सूर्य को, शक्ति स्रोतों को मर्यादा में रहने और कत्र्तव्य पर चलने के लिए विवश करती है वह इस क्षुद्र प्राणी के नगण्य से अस्तित्व को अपने ओछेपन पर इतराने और व्यवस्थाएँ बिगाड़ने की छूट कैसे दे सकती है?
कुछ वर्षो पहले वैज्ञानिक डाॅ0 फ्रेड हाॅयल भारतवर्ष आये थे। विज्ञान भवन में उन्होंने कहा था-”अंतरिक्ष की गहराइयाँ जितनी अनन्त की ओर बढ़ेंगी, उसमें झाँककर देखने से मानवीय अस्तित्व का अर्थ और प्रयोजन उतना ही स्पष्ट होता चला जायेगा। शर्त यह रहेगी कि हमारी अपनी अन्वेषण बुद्धि का भी विकास और विस्तार हो। यदि हमारी बुद्धि, विचार और ज्ञान मात्र पेट, प्रजनन, तृष्णा, अहंता तक ही सीमित रहता है, तब तो हम पड़ोस को भी नहीं जान सकेंगे, पर यदि इन सबसे पूर्वाग्रह मुक्त हों तो ब्रह्माण्ड इतनी खुली और अच्छे अक्षरों में लिखी चमकदार पुस्तक है कि उससे हर शब्द का अर्थ, प्रत्येक अस्तित्व का अभिप्राय समझा जा सकता एवं अनुभव किया जा सकता है।“
वस्तुतः चेतना का मुख्य गुण है-विकास। जहाँ भी चेतना या जीवन का अस्तित्व विद्यमान दिखाई देता है, वहाँ अनिवार्य रूप से विकास, वर्तमान स्थिति से आगे बढ़ने की हलचल दिखाई देती है। इस दृष्टि से मनुष्यों, जीव-जन्तु और पेड़-पौधों को ही जीवित माना जाता है। परन्तु भारतीय आध्यात्म की मान्यता है कि जड़ कुछ है ही नहीं, सब कुछ चैतन्य ही है। सुविधा के लिए स्थिर, निष्क्रिय और यथास्थिति में बने रहने वाली वस्तुओं को जड़ कहा जाता है, परन्तु वस्तुतः वे प्रचलित अर्थो में जड़ है ही नहीं। सृष्टि के इस विराट रूप, क्रमिक विस्तार एवं सतत गतिशीलता के मूल में झाँकने पर वैज्ञानिक पाते है कि यह सब एक सुनियोजित चेतना की विधि व्यवस्था के अन्तर्गत सम्पन्न हुआ क्रियाकलाप है।
इस सम्पूर्ण विवेचन से यह निष्कर्ष निकलता है कि मनुष्य को यह नहीं समझना चाहिए कि वह इस सृष्टि का सर्वतः स्वतन्त्र सदस्य है और उसे कर्म करने की जो स्वतन्त्रता मिली है, उसके अनुसार वह इस सृष्टि के महानियंता की नियामक व्यवस्था द्वारा निर्धारित दण्ड से भी बच पायेगा। इस विराट ब्रह्माण्ड में पृथ्वी का ही अस्तित्व एक धूलिकण के बराबर नहीं है तो मनुष्य का स्थान कितना बड़ा होगा? फिर भी मनुष्य नाम का यह प्राणी इस पृथ्वी पर कैसे-कैसे प्रपंच फैलाये हुये है यह जानने और उसे उस अन्तिम मार्ग से परिचय कराने हेतु ही इस ”विश्वशास्त्र“ को प्रस्तुत किया गया है। वस्तुतः यथार्थ में ऐसा होना चाहिए कि जीवकोपार्जन हेतु ज्ञान व कर्म मनुष्य-मनुष्य के अनुसार अलग-अलग हो सकते हैं परन्तु जीवन का ज्ञान एक ही होना चाहिए और यदि मानव जाति के नियंतागण ऐसा कर सके तो भविष्य की सुरक्षा हेतु बहुत बड़ी बात होगी। साथ ही ब्रह्माण्ड के अनेक रहस्यों को जानने के लिए मनुष्य के शक्ति का एकीकरण भी कर सकने में हम सफल होगें।