Wednesday, April 1, 2020

पृथ्वी

पृथ्वी

मानव सहित लाखों प्रजातियों का घर पृथ्वी है। पृथ्वी ही ब्रह्माण्ड में एकमात्र वह स्थान है जहाँ जीवन अस्तित्व के लिए वर्तमान समय तक जाना जाता है। वैज्ञानिक सबूत देते हैं कि पृथ्वी ग्रह का जीवन 4.54 अरब वर्ष पहले और उसकी सतह पर जीवन 1 अरब वर्ष पहले प्रकट हुआ। तब से पृथ्वी के जीव मंडल ने इस ग्रह पर पर्यावरण और अन्य अजैवकीय परिस्थितियों को बदल दिया है ताकि वायुजीवी जीवों के प्रसारण, साथ ही साथ ओजोन परत के निर्माण को रोका जा सके। यह ओजोन परत पृथ्वी के चुम्बकीय क्षेत्र के साथ हानिकारक विकिरण को रोक कर जमीन पर जीवन की अनुमति देता है। पृथ्वी का बाहरी सतह कई कठोर खण्डों या विवर्तनिक प्लेट में विभाजित है जो क्रमशः कई लाख वर्षो में पूरे सतह से विस्थापित होती है। सतह का लगभग 71 प्रतिशत नमक जल के सागर से आच्छादित है। शेष में महाद्वीप और द्वीप और तरल पानी है जो सभी ज्ञात जीवन के लिए आवश्यक है। पृथ्वी का आतंरिक सतह एक अपेक्षाकृत ठोस भूपटल की मोटी परत के साथ सक्रिय रहता है। एक तरल बाहरी कोर जो एक चुम्बकीय क्षेत्र और एक ठोस लोहा का आन्तरिक कोर को पैदा करता है। पृथ्वी मोटे तौर पर अपनी धुरी का करीब 366.26 बार चक्कर काटती है। यह समय एक नक्षत्र वर्ष है जो 365.26 सौर दिवस के बराबर है। पृथ्वी की घूर्णन की धूरी इसके कक्षीय समतल से लम्बवत् 23.4 की दूरी पर झुका है जो एक उष्णकटिबंधीय वर्ष 365.24 सौर दिनों में ग्रह की सतह पर मौसम की विविधता को पैदा करता है। पृथ्वी के प्रारम्भिक इतिहास के दौरान एक धूमकेतू की बमबारी ने महासागरों के गठन में भूमिका निभाया। बाद में छुद्र ग्रह के प्रभाव ने सतह के पर्यावरण पर महत्वपूर्ण बदलाव किया।
खगोलशास्त्रीयों के अनुसार अपनी पृथ्वी को एक गैस बादल से समुद्र का, पिण्ड गोलक का रूप धारण किये लगभग 11 अरब वर्ष हुये हैं। सौरमण्डल के अन्य सदस्यों का जन्म भी लगभग एक साथ ही हुआ है। सौरमण्डल के ग्रहों के उपग्रह बाद में बनते रहे हैं। पृथ्वी के चन्द्रमा के सम्बन्ध में कहा जाता है कि समुद्र वाले गड्ढे से टूटकर अंतरिक्ष में विचरण करने वाला पदार्थ भर है, जो टूट तो पड़ा परन्तु पृथ्वी के गुरूत्वाकर्षण को पार न कर पाने के कारण पृथ्वी का परिभ्रमण करने लगा। यही बात अन्य ग्रहों के उपग्रह पर भी लागू होती है।
पृथ्वी आकार में सौरमण्डल का पाँचवाँ सबसे बड़ा तथा सूर्य से दूरी में तीसरा ग्रह है। यह शुक्र व मंगल के बीच स्थित है। इसके चारो ओर तापमान, आक्सीजन और प्रचुर मात्रा में जल की उपस्थिति के कारण यह सौरमण्डल का एक मात्र ग्रह है जहाँ जीवन सम्भव है। पृथ्वी पर जल की अधिकता के कारण यह अंतरिक्ष से नीली दिखाई देती है। इसी कारण इसे नीला ग्रह भी कहते हैं। पृथ्वी का एक मात्र उपग्रह चन्द्रमा है। पृथ्वी सदैव गतिमान है। वह अपने अक्ष पर निरंतर गोलाई में घूमती है। साथ ही सौरमण्डल का सदस्य होने के कारण पृथ्वी अपने दीर्घवृत्ताकार कक्षा में सूर्य के चारो ओर परिक्रमा करती है। इस प्रकार पृथ्वी की दो गतियाँ-घूर्णन गति अथवा दैनिक गति (23 घंटा 56 मिनट 0.099 सेकण्ड) और परिक्रमण गति अथवा वार्षिक गति (365 दिन 6 घंटा) है।
यों पृथ्वी का व्यास और परिधि का जो माप किया जाता है वह स्थिर नहीं है। पृथ्वी क्रमशः फूल रही है। उसका फुलाव यों मंद गति से है, पर यह चलता रहा तो वर्तमान माप से सैकड़ों मील की वृद्धि करनी पड़ेगी। समुद्र क्रमशः सूख रहा है। फलस्वरूप थल भाग बढ़ता जा रहा है। अनुमान है कि 5 लाख वर्ष बाद पृथ्वी का थल क्षेत्र अब की अपेक्षा दूना हो जायेगा। जन्म के बाद वृद्धि का जो क्रम प्राणधारी वनस्पतियों तथा प्राणियों पर लागू होता है, वही पृथ्वी के लिए भी है।
इतनी विशाल हमारी पृथ्वी सौरमण्डल के मध्य में नहीं है वरन् एक कोने में पड़ी है। ठीक इसी प्रकार अपना सौरमण्डल भी मंदाकिनी आकाशगंगा के ठीक मध्य में अवस्थित न होकर एक कोने में पड़ा है। सूर्य प्रति सेकण्ड 220 किलो मीटर की गति से अपने सौरमण्डल सहित आकाशगंगा केन्द्र की परिक्रमा करता है। इस प्रकार जब से पृथ्वी पर मनुष्य का जन्म हुआ है, तब से लेकर अब तक उस केन्द्र की एक परिक्रमा भी पूरी नहीं हो पाई है। अपनी आकाशगंगा के केन्द्र से यह सौरमण्डल 30 हजार प्रकाशवर्ष हटकर है। अपनी आकाशगंगा ध्रुव द्वीप की 19 आकाशगंगाओं में से एक हैं, पर ऐसे ध्रुव द्वीप भी इस विराट ब्रह्माण्ड में असंख्य बिखरे पड़े हैं। माउण्ट पैलोमर पर लगी हुई 200 इंच व्यास के लेंस वाली संसार की सबसे बड़ी हाले दूरबीन से पता चला लगाया गया है कि ब्रह्माण्ड में कम से कम 1 अरब आकाशगंगाएँ हैं।
विशालता का पैमाना क्या लिया जाए यह मानवी बुद्धि की समझ में सहज ही नहीं आता। 13000 किलोमीटर व्यास वाली हमारी पृथ्वी के मुखिया सूर्य का स्वयं का व्यास 13,90,000 किलोमीटर है। अनुमानित भार 19 करोड़ 98 लाख महाशंख टन है। वह अपनी धुरी पर 25 दिन 7 घंटे 48 मिनट में एक चक्कर लगाता है। उसकी सतह पर 600 डिग्री तथा मध्य गर्भ में 15 लाख डिग्री सेण्टीग्रेट तापमान है। वह 200 मील प्रति सेकण्ड की उड़ान उड़ता हुआ महाधु्रव की परिक्रमा में व्यस्त है जो 25 करोड़ वर्ष में पूरी होती है। इस परिक्रमा में उसके साथी और भी कई सूर्य हैं जिनके अपने-अपने सौरमण्डल भी हैं। पृथ्वी से सूर्य 109 गुना बड़ा है। दोनों के बीच की दूरी 9,30,00,000 मील है। यदि हम 6000 मील प्रति घ्ंाटे की गति से उड़ने वाले अपने तीव्रतम वायुयानों में बैठकर लगातार उड़े तो उस दूरी को पार करने में 18 वर्ष लगेगें।
यह पृथ्वी सौरमण्डल का एक नन्हा सा ग्रह, सूर्य एक तारा, ऐसे तारों की लाखों की संख्या वाली अपनी आकाशगंगा और फिर एक अरब आकाशगंगाओं से भरा-पूरा विराट ब्रह्माण्ड। परमाणु के खण्डकों को सबसे छोटा माने तो उसकी तुलना में यह विराट कितना बड़ा है? यह गणित की अथवा कल्पना की परिधि में कैसे समा सकेगा?
विज्ञानी नीत्सवोहर कहते थे कि-”अस्तित्व के विशाल नाटक में हम ही अभिनेता हैं और हम ही दर्शक। मनुष्य अपने आप में एक रहस्य है। मानवी कलेवर शरीर और मस्तिष्क उन्हीं तत्वों से बना है जिससे कि यह ब्रह्माण्ड। अपने आप की खोज और ब्रह्माण्ड की खोज में असाधारण साम्य है। अणु और विभु का गहन अनुसंधान जब मानवी मस्तिष्क के बलबूते संभव होगा तो वह महत्वपूर्ण संभावनाएँ अपने साथ लेकर आयेगा।“
दृश्य संसार का संचालन सूत्र अदृश्य, अज्ञात और अपरिचित हाथों में है। जानना चाहिए कि जो सत्ता इस सृष्टि संसार का नियमन, नियंत्रण और व्यवस्थापन करती है, वह मनुष्य के प्रति कितनी उदार है? अतएव यह निश्चित मानना चाहिए कि प्रकृति की नियम मर्यादाओं को, ईश्वर की विधि-व्यवस्था को तोड़कर मनुष्य कोई लाभ में नहीं रह सकता। इस प्रकार तो वह अपने आप को नष्ट कर लेगा। प्रकृति की व्यवस्था को बदल सकना और मर्यादा को बदलना उस क्षुद्र के लिए किसी भी प्रकार सम्भव नहीं है। नीति और सदाचार की कत्र्तव्य और धर्म की मर्यादाओं का उलंघन करके वह अपने आतंक और अनाचार का परिचय दे सकता है, पर इसमें वह विश्व व्यवस्था को अपने अनुरूप बदलने में सफल नहीं हो सकता। इस उद्धत आचरण से वह अपनी मानसिक, सामाजिक और आन्तरिक समस्वरता ही नष्ट करेगा। उसे समझना चाहिए कि जो नियामक शक्ति इतने बड़े ब्रह्माण्ड को, सूर्य को, शक्ति स्रोतों को मर्यादा में रहने और कत्र्तव्य पर चलने के लिए विवश करती है वह इस क्षुद्र प्राणी के नगण्य से अस्तित्व को अपने ओछेपन पर इतराने और व्यवस्थाएँ बिगाड़ने की छूट कैसे दे सकती है?
कुछ वर्षो पहले वैज्ञानिक डाॅ0 फ्रेड हाॅयल भारतवर्ष आये थे। विज्ञान भवन में उन्होंने कहा था-”अंतरिक्ष की गहराइयाँ जितनी अनन्त की ओर बढ़ेंगी, उसमें झाँककर देखने से मानवीय अस्तित्व का अर्थ और प्रयोजन उतना ही स्पष्ट होता चला जायेगा। शर्त यह रहेगी कि हमारी अपनी अन्वेषण बुद्धि का भी विकास और विस्तार हो। यदि हमारी बुद्धि, विचार और ज्ञान मात्र पेट, प्रजनन, तृष्णा, अहंता तक ही सीमित रहता है, तब तो हम पड़ोस को भी नहीं जान सकेंगे, पर यदि इन सबसे पूर्वाग्रह मुक्त हों तो ब्रह्माण्ड इतनी खुली और अच्छे अक्षरों में लिखी चमकदार पुस्तक है कि उससे हर शब्द का अर्थ, प्रत्येक अस्तित्व का अभिप्राय समझा जा सकता एवं अनुभव किया जा सकता है।“
वस्तुतः चेतना का मुख्य गुण है-विकास। जहाँ भी चेतना या जीवन का अस्तित्व विद्यमान दिखाई देता है, वहाँ अनिवार्य रूप से विकास, वर्तमान स्थिति से आगे बढ़ने की हलचल दिखाई देती है। इस दृष्टि से मनुष्यों, जीव-जन्तु और पेड़-पौधों को ही जीवित माना जाता है। परन्तु भारतीय आध्यात्म की मान्यता है कि जड़ कुछ है ही नहीं, सब कुछ चैतन्य ही है। सुविधा के लिए स्थिर, निष्क्रिय और यथास्थिति में बने रहने वाली वस्तुओं को जड़ कहा जाता है, परन्तु वस्तुतः वे प्रचलित अर्थो में जड़ है ही नहीं। सृष्टि के इस विराट रूप, क्रमिक विस्तार एवं सतत गतिशीलता के मूल में झाँकने पर वैज्ञानिक पाते है कि यह सब एक सुनियोजित चेतना की विधि व्यवस्था के अन्तर्गत सम्पन्न हुआ क्रियाकलाप है।

इस सम्पूर्ण विवेचन से यह निष्कर्ष निकलता है कि मनुष्य को यह नहीं समझना चाहिए कि वह इस सृष्टि का सर्वतः स्वतन्त्र सदस्य है और उसे कर्म करने की जो स्वतन्त्रता मिली है, उसके अनुसार वह इस सृष्टि के महानियंता की नियामक व्यवस्था द्वारा निर्धारित दण्ड से भी बच पायेगा। इस विराट ब्रह्माण्ड में पृथ्वी का ही अस्तित्व एक धूलिकण के बराबर नहीं है तो मनुष्य का स्थान कितना बड़ा होगा? फिर भी मनुष्य नाम का यह प्राणी इस पृथ्वी पर कैसे-कैसे प्रपंच फैलाये हुये है यह जानने और उसे उस अन्तिम मार्ग से परिचय कराने हेतु ही इस ”विश्वशास्त्र“ को प्रस्तुत किया गया है। वस्तुतः यथार्थ में ऐसा होना चाहिए कि जीवकोपार्जन हेतु ज्ञान व कर्म मनुष्य-मनुष्य के अनुसार अलग-अलग हो सकते हैं परन्तु जीवन का ज्ञान एक ही होना चाहिए और यदि मानव जाति के नियंतागण ऐसा कर सके तो भविष्य की सुरक्षा हेतु बहुत बड़ी बात होगी। साथ ही ब्रह्माण्ड के अनेक रहस्यों को जानने के लिए मनुष्य के शक्ति का एकीकरण भी कर सकने में हम सफल होगें।



सौर मण्डल

सौर मण्डल

अपना सूर्य जिस नीहारिका का परिभ्रमण कर रहा है उसका नाम मंदाकिनी और व्यास प्रायः 4 लाख प्रकाश वर्ष है। सूर्य इन दिनांे 2 लाख किलोमीटर प्रति घंटे की चाल से चल रहा है। अपनी नीहारिका का एक पूरा चक्कर लगाने में उसे 25 करोड़ प्रकाश वर्ष लगते हैं। अनुमान है कि अपने सूर्य को अपनी नीहारिका की 10 परिक्रमा लगाते-लगाते बुढ़ापा आ जायेगा और एक-दो परिक्रमा और कर लेने के उपरान्त उसका मरण हो जायेगा। अपनी नीहारिका अब तक 10 हजार तारा गुच्छकों को जन्म दे चुकी है। प्रत्येक तारा गुच्छक में कम से कम 100 सूर्य हैं। इस प्रकार इसके पुत्र सूर्यो की संख्या 10 लाख को पार कर गई है। जिस प्रकार अपने सूर्य के 9 ग्रह और 32 उपग्रह हैं उसी प्रकार इन 10 लाख सूर्यो के भी बाल-बच्चे होगें। यह सारा परिवार बेटे-तारा गुच्छक, पोते-सूर्य, परपोते-ग्रहपिण्ड और उनके भी पुत्रगण-उपग्रहों समेंत अरबों की संख्या में सदस्यों का बन चुका है। इतने पर भी अपनी नीहारिका की न तो जवानी समाप्त हुई है और न उसके प्रजनन कृत्य में कोई कमी आई है। उसके अपने निजी पुत्र तारा गुच्छक अभी और जन्मेंगें। वे उसके पेट में कुलबुला रहे हैं और भ्रूण की तरह पक रहे हैं। समयानुसार प्रसव होते रहेंगे और यह परिवार अभी अकल्पनीय काल तक इसी प्रकार बढ़ता रहेगा। यह तो मात्र अपनी एक नीहारिका की बात है। फिर ऐसी-ऐसी अन्य सहस्त्रों नीहारिकाएँ और भी हैं। उन सबके अपने-अपने परिवार ओर विस्तार मिला लेने पर ब्रह्माण्ड विस्तार की परिकल्पना और भी अधिक कठिन हो जाती है।
सौर परिवार अति विशाल है। सूर्य की गरिमा अद्भुत है। उसका वजन सौर परिवार के समस्त ग्रहों-उपग्रहों के सम्मिलित वजन से लगभग 750 गुना अधिक है। सौरमण्डल केवल विशाल ग्रह और उपग्रहों का ही सुसम्पन्न परिवार नहीं है, उसमें छोटे और नगण्य समझे जाने वाले क्षुद्र ग्रहों का अस्तित्व भी अक्षुण्ण है और उन्हें भी समान, सम्मान एवं सुविधाएँ उपलब्ध हैं। यह विश्व सहयोग पर टिका हुआ है, संघर्ष पर नहीं। संघर्ष की उद्धत नीति अपनाकर बड़े समझे जाने वाले भी क्षुद्रता से पतित होता है। यह क्षुद्र ग्रह यह बताते रहते हैं कि हम कभी महान थे पर संघर्ष के उद्धत आचरण ने हमें इस दुर्गति के गर्त में पटक दिया।
अपने सौरमण्डल के सदस्यों में कुछ ग्रह हैं, कुछ उपग्रह। ग्रहों में सूर्य को छोड़कर 9 ग्रह हैं। इनमें से कुछ तो खुली आँखों से देखे जा सकते हैं और कुछ ऐसे हैं जो अधिक दूरी तथा रोशनी की कमी के कारण विशेष उपकरणों से ही देखे जा सकते हैं। इन ग्रहों की दूरी, परिधि, भ्रमण कक्षा तथा प्रति सेकण्ड चाल का लेखा-जोखा निम्न प्रकार है-

01. बुध- सूर्य से अधिकतम दूरी 579 लाख किलो मीटर, सूर्य की परिक्रमा 88 दिन में, अपनी धुरी पर परिभ्रमण 58.6 दिन, अपने कक्ष पर गति प्रति सेकण्ड 48 किलो मीटर।

02. शुक्र- सूर्य से अधिकतम दूरी 1082 लाख किलो मीटर, सूर्य की परिक्रमा 225 दिन में, अपनी धुरी पर परिभ्रमण 250 दिन, अपने कक्ष पर गति प्रति सेकण्ड 35 किलो मीटर।

03. पृथ्वी- सूर्य से अधिकतम दूरी 1495 लाख किलो मीटर, सूर्य की परिक्रमा 365.26 दिन में, अपनी धुरी पर परिभ्रमण 23.9 घंटे, अपने कक्ष पर गति प्रति सेकण्ड 29.8 किलो मीटर।

04. मंगल- सूर्य से अधिकतम दूरी 2279 लाख किलो मीटर, सूर्य की परिक्रमा 687 दिन में, अपनी धुरी पर परिभ्रमण 25 घंटे, अपने कक्ष पर गति प्रति सेकण्ड 24.1 किलो मीटर।

05. बृहस्पति- सूर्य से अधिकतम दूरी 7783 लाख किलो मीटर, सूर्य की परिक्रमा 11.86 वर्ष में, अपनी धुरी पर परिभ्रमण 9.55 घंटे, अपने कक्ष पर गति प्रति सेकण्ड 13.1 किलो मीटर।

06. शनि- सूर्य से अधिकतम दूरी 14269 लाख किलो मीटर, सूर्य की परिक्रमा 29.3 वर्ष में, अपनी धुरी पर परिभ्रमण 10.4 घंटे, अपने कक्ष पर गति प्रति सेकण्ड 9.6 किलो मीटर।

07. अरूण (यूरेनस)- सूर्य से अधिकतम दूरी 28709 लाख किलो मीटर, सूर्य की परिक्रमा 84 वर्ष में, अपनी धुरी पर परिभ्रमण 16.2 घंटे, अपने कक्ष पर गति प्रति सेकण्ड 6.8 किलो मीटर।

08. वरूण (नेप्च्यून)- सूर्य से अधिकतम दूरी 214970 लाख किलो मीटर, सूर्य की परिक्रमा 166 वर्ष में, अपनी धुरी परिभ्रमण 18 घंटे, अपने कक्ष पर गति प्रति सेकण्ड 5.4 किलो मीटर।

09. यम (प्लूटो)- सूर्य से अधिकतम दूरी 59135 लाख किलो मीटर, सूर्य की परिक्रमा 248.6 वर्ष में, अपनी धुरी पर परिभ्रमण 6 दिन 9.3 घंटे, अपने कक्ष पर गति प्रति सेकण्ड 4.7 किलो मीटर।

गुरूत्वाकर्षण बल के कारण सभी 9 ग्रह घड़ी की सुई की विपरीत दिशा में सूर्य की परिक्रमा करते हैं। इन ग्रहों के भ्रमण का कक्ष दीर्घवृत्तीय होता है। बुध सूर्य के सर्वाधिक निकट ग्रह है। इसके बाद क्रमशः शुक्र, पृथ्वी, मंगल, बृहस्पति, शनि, अरूण, वरूण एवं प्लूटो का स्थान आता है। प्लूटो को छोड़कर अन्य ग्रहों को दो वर्गो में विभाजित किया जाता है।
01. आन्तरिक ग्रह- चट्टानों से निर्मित बुध, शुक्र, पृथ्वी एवं मंगल। इस वर्ग में पृथ्वी सबसे बड़ी।
02. बाह्य ग्रह- गैसों से निर्मित बृहस्पति, शनि, अरूण एवं वरूण।
उपरोक्त ग्रहों के उपग्रह भी होते हैं जो निम्न प्रकार हैं-
1. बुध-कोई उपग्रह नहीं, 2. शुक्र-कोई उपग्रह नहीं, 3. पृथ्वी-1 (चन्द्रमा), 4. मंगल-2, 5. बृहस्पति-16, 6. शनि-22, 7. अरूण (यूरेनस)-15, 8. वरूण (नेप्च्यून)-8, 9. यम (प्लूटो)-3
अंतरिक्ष नामकरण की एकमात्र अधिकृत संस्था अन्तर्राष्ट्रीय खगोलशास्त्रीय संघ (International Astronomical Union-IAU) द्वारा 24 अगस्त, 2006 से यम (प्लूटो) की ग्रहीय मान्यता समाप्त की जा चुकी है। जिसका कारण यह है कि प्लूटो की कक्षा पड़ोसी ग्रह वरूण की कक्षा को काटती है तथा अपने गुरूत्वाकर्षण के लिए उसका न्यूनतम द्रव्यमान इतना नहीं है कि वह लगभग गोलाकार हो।
इस सौर मण्डल के पृथ्वी ग्रह पर मानव सहित अनेक जन्तु व वनस्पतियों का निवास है। मनुष्य इस पृथ्वी पर अपने ज्ञान-विज्ञान व बुद्धि से अनेक प्रकार के प्रपंच को फैला रखा है परन्तु वह पदार्थ यहीं से प्राप्त करता है जो उसके द्वारा निर्मित नहीं है।


ब्लैक होल और आत्मा

ब्लैक होल और आत्मा


सार्वभौम एकत्व की खोज मनुष्य को सदैव रही है। यह आध्यात्म और विज्ञान दोनों का मुख्य और सर्वोच्च विषय रहा है। 
स्वामी विवेकानन्द जी ”राजयोग“ में लिखते हैं कि-”मन की शक्तियाँ इधर-उधर बिखरी हुई प्रकाश की किरणों के समान है। जब उन्हें केन्द्रीभूत किया जाता है, तब वे सब कुछ आलोकित कर देती है। यही ज्ञान का हमारा एक मात्र उपाय है। बाह्य जगत् में हो अथवा अन्तर्जगत् में लोग इसी को काम में ला रहे है। पर वैज्ञानिक जिस सूक्ष्म पर्यवेक्षण शक्ति का प्रयोग बहिर्जगत् में करता है, मनस्तत्त्वान्वेषी उसी का मन पर करते है। (राजयोग-पृ0-11)”, ”बहिर्वादी और अन्तर्वादी जब अपने अपने ज्ञान की चरमसीमा प्राप्त कर लेंगे, तब दोनों अवश्य एक ही स्थान पर पहुँच जायेंगे। (राजयोग-पृ0-16)” 
आध्यात्म विज्ञान में जितने भी आचार्य हुये वे सृष्टि के उत्पत्ति सम्बन्धित दार्शनिक विचार प्रस्तुत कर ही स्थापित हैं और ”सार्वभौम एकत्व“ के रूप में उनका आविष्कार ”आत्मा“ है जो प्रत्येक वस्तु (जीव-नीर्जीव) के रूप में प्रकाशित है और जब वह उसी में प्रकाशित है तो वह अलग से नहीं दिख सकता।
इसी प्रकार विज्ञान भी ”सार्वभौम एकत्व“ की खोज में लगा हुआ है। ”गाॅड पार्टीकील“ अर्थात एक ऐसा कण जो ईश्वर की तरह हर जगह है और उसे देख पाना मुश्किल है जिसके कारण कणों में भार होता है, के खोज के लिए ही जेनेवा (स्विट्जरलैण्ड-फ्रंास सीमा पर) में यूरोपियन आर्गनाइजेशन फाॅर न्यूक्लियर रिसर्च (सर्न) द्वारा रूपये 480 अरब के खर्च से महामशीन लगाई गई है। जिसमें 15000 वैज्ञानिक और 8000 टन की चुम्बक लगी हुई है।
”आत्मा“ और ”गाॅड पार्टीकील“ दोनों अदृश्य वस्तु हैं, जिस प्रकार विचार अदृश्य वस्तु है ये अपने गुणों से केवल अनुभव में आती है। यह ब्रह्माण्ड सनातन, असीम, अनन्त हैं और सदैव इसके किसी न किसी भाग में सृजन और विनाश (क्रम विकास और क्रम संकुचन) का मानवी शक्ति के सीमा से परे अनियंत्रित खेल चलता रहता है।

ब्लैक होल
तारों में नाभिकीय (परमाणु) ईंधन के जलने से जो ऊर्जा पैदा होती है वह प्रकाश तथा अन्य किस्म के किरणों के रूप में बाहर निकलती है। ऊर्जा से पैदा होने वाला भीषण दाब उस तप्त तारे को उसके गुरूत्वीय बल के अन्तर्गत सिकुड़ने नहीं देता। तारा लगभग संतुलित अवस्था में टिका रहता है। मगर जैसे ही तारे का नाभिकीय ईंधन जलकर राख हो जाता है, वैसे ही वह तारा तेजी से सिकुड़ते हुये मरणावस्था में पहुँच जाता है। उस तारे का द्रव्यमान यदि 1.4 सूर्यो से कम है, तो वह पहले ”श्वेत बामन“ और अंततः ”कृष्ण बामन“ बन जाता है। यदि उस तारे का द्रव्यमान 2-3 सूर्यो के बराबर है तो वह अंततः ”न्यूट्रान तारा (पल्सर)“ बन जाता है, परन्तु ऐसे भी अनेक तारे हैं जिनमें 3 सूर्यो से अधिक द्रव्यराशि है। ऐसे तारों का नाभिकीय ईंधन जब खत्म होता है, तब वे एक ही झटके में तेजी से सिकुड़कर न्यूट्रान तारे से भी अधिक सघन पिण्ड बन जाते हैं। खगोलविद्ों ने ऐसे पिण्डों को ”ब्लैक होल“ का नाम दिया है।
ब्लैक होल्स के बारे में सभी बातें बड़ी विलक्षण हैं। ऐसे पिण्डों में इतना अधिक गुरूत्वाकर्षण पैदा होता है कि वह प्रकाश की किरणों को भी बाहर जाने नहीं देता। ब्लैक होल्स के समीप से भी गुजरने वाली प्रकाश-किरणें मुड़कर उसी में गायब हो जाती हैं। यहाँ तक कि ब्लैक होल्स के नजदीक काल के प्रवाह और दिक (स्पेस) की ज्यामिति में भी बेहद परिवर्तन हो जाता है। ब्लैक होल एक ऐसे अथाह गर्त का निर्माण करता है जिसमें प्रकाश व द्रव्य गिरकर गायब हो जाते हैं। चूँकि ब्लैक होल्स से किरणें बाहर नहीं निकल पाती, इसलिए वह हमारे लिए अदृश्य बना रहता है।
हम जानते हैं कि सूर्य के समीप से गुजरने वाली प्रकाश-किरणें थोड़ी भीतर की ओर मुड़ जाती है। सापेक्षिकता के सिद्धान्त के अनुसार यदि हमारा सूर्य सिकुड़कर केवल तीन किलोमीटर अर्धव्यास का पिण्ड हो जाता है तो वह एक ब्लैक होल बन जायेगा। तब इसके पास से गुजरने वाली किरणें पूर्णतः मुड़कर उसके भीतर गिर जायेंगी। और सूर्य हमारे लिए हमेंशा के लिए गायब हो जायेगा। द्रव्यराशि गुरूत्वीय पतन के अन्तर्गत सिकुड़कर करीब एक सेंटीमीटर व्यास का पिण्ड बन जाये, तो वह भी एक ब्लैक होल बन जायेगा। खगोलविद्ों का अनुमान है कि हमारी आकाशगंगा में ही लाखों-करोड़ों ब्लैक होल हो सकते हैं। कई वैज्ञानिकों का मत है कि ”क्वासर“ नामक अनोखें पिण्ड और मंदाकिनियों के केन्द्र भाग में भी विशाल ब्लैक होल हो सकते हैं। एक मान्यता यह भी है कि समूचा ब्रह्माण्ड अंततः एक अतिविशाल अदृश्य ब्लैक होल में संघनित हो जायेगा। वर्तमान में अधिकांश वैज्ञानिक ब्लैक होल के अस्तित्व को स्वीकार करते हैं। ब्रह्माण्ड वैज्ञानिक स्टीफेन हाकिंग के अनुसार, विश्व का कोई आरम्भ और अन्त नहीं। आज से डेढ़ हजार साल पहले के भारतीय गणितज्ञ-ज्योतिषि आर्यभट्ट (499 ई.) की भी यही मान्यता थी कि यह विश्व अनादि-अनन्त है।
यही ब्लैक होल इस अनादि-अनन्त विराट ब्रह्माण्ड वृक्ष के बीज हैं जिनसे समय-समय पर छोटे-छोटे ब्रह्माण्ड का सृजन होता रहता है और पुनः बीज रूप में ब्लैक होल उत्पन्न होते रहते हैं।

आत्मा
आत्मा के सम्बन्ध में स्वामी विवेकानन्द के विचार (उनके ”ज्ञान योग“ पुस्तक से)-कपिल का प्रधान मत है-परिणाम। वे कहते हैं, एक वस्तु दूसरी वस्तु का परिणाम अथवा विकार स्वरूप है, क्योंकि उनके मत के अनुसार कार्य-कारण भाव का लक्षण यह है कि-कार्य अन्य रूप में परिणत कारण मात्र है। (पृ0-52), कपिल का मत है कि समग्र ब्रह्माण्ड ही एक शरीर स्वरूप है जो कुछ हम देखते हैं, वे सब स्थूल शरीर है, उन सबके पश्चात् सूक्ष्म शरीर समूह और उनके पश्चात् समष्टि अहंतत्व, उसके भी पश्चात् समष्टि बुद्धि है। किन्तु यह सब ही प्रकृति के अन्तर्गत हैं। उसमें से जो हमारे प्रयोजन का है, हम ग्रहण कर रहे हैं, इसी प्रकार जगत के भीतर समष्टि मनस्तत्व विद्यमान है, उससे भी हम चिरकाल से प्रयोजन के अनुसार ले रहे हैं। किन्तु देह का बीज माता-पिता से प्राप्त होना चाहिए। इससे वंश की अनुक्रमणिकता और पुनर्जन्मवाद दोनों ही तत्व स्वीकृत हो जाते हैं। (पृ0-25), समग्र प्रकृति के पश्चात् निश्चित रूप में कोई सत्ता है, जिसका आलोक उन पर पड़कर महत्, अहंज्ञान और यह सब नाना वस्तुओं के रूप में प्रतीत हो रहा है। और इस सत्ता को ही कपिल पुरुष अथवा आत्मा कहते है। वेदान्ती भी उसे आत्मा कहते हैं। कपिल के मत के अनुसार पुरुष अमिश्र पदार्थ है। वह यौगिक पदार्थ नहीं है। वही एकमात्र व जड़ पदार्थ है और सब प्रपंच-विकार ही जड़ है। पुरुष ही एकमात्र ज्ञाता है। (पृ0-52), वेदान्त के मतानुसार सब जीवात्माएं ब्रह्मनामधेय एक विश्वात्मा में अमिश्र है।, पहले यह स्थूल शरीर, उसके पश्चात् सूक्ष्म शरीर, उसके पश्चात् जीव अथवा आत्मा-यही मानव का यथार्थ स्वरूप है। मनुष्य का एक सूक्ष्म शरीर और एक स्थूल शरीर है, ऐसा नहीं है। शरीर एक ही है तथापि सूक्ष्म आकार में वह स्थूल की अपेक्षा दीर्घ काल तक रहता है, तथा स्थूल शीघ्र नष्ट हो जाता है।, यह समग्र जगत् एक अखण्ड स्वरूप है, और उसे ही अद्वैत वेदान्त-दर्शन में ब्रह्म कहते हैं। ब्रह्म जब ब्रह्माण्ड के पश्चात् प्रदेश में है ऐसा लगता है, तब उसे ईश्वर कहते हैं। अतएव यह आत्मा ही मानव का अभ्यन्तरस्थ ईश्वर है। केवल एक पुरुष-उन्हें ईश्वर कहते हैं, तथा जब ईश्वर और मानव दोनों के स्वरूप का विश्लेषण किया जाता है तब दोनों को एक के रूप में जाना जाता है। (पृ0-67), धर्मज्ञान को उच्चतम चूड़ा में आरोहण करने के लिए मानव जाति को जिन सब सोपानों का अवलम्बन करना पड़ा है, प्रत्येक व्यक्ति को भी उसका ही अवलम्बन करना होगा। केवल प्रभेद यह है कि समग्र मानव जाति को एक सोपान से दूसरे सोपान में आरोहण करने के लिए लाख-लाख वर्ष लगे हो, किन्तु व्यक्तिगण कुछ वर्षों में ही मानव जाति का समग्र जीवन यापन कर ले सकते हैं, अथवा वे और भी शीघ्र, सम्भवतः छः मास के भीतर ही उसे सम्पूर्ण कर ले सकते हैं। (पृ0-135), जो व्यक्ति कहता है, इस जगत् का अस्तित्व है, किन्तु ईश्वर नहीं है, वह निर्बोध है, क्योंकि यदि जगत् हो, तो जगत् का एक कारण रहेगा और उसक कारण का नाम ही ईश्वर है। कार्य रहने पर ही उसका कारण है, यह जानना होगा। जब यह जगत् अन्तर्हित होगा, तब ईश्वर भी अन्तर्हित होंगे। जब आप ईश्वर के सहित अपना एकत्व अनुभव करेंगे, तब आपके पक्ष में यह जगत् फिर नहीं रहेगा। जिसे हम इस क्षण जगत् के रूप में देख रहें हैं, वही हमारे सम्मुख ईश्वर के रूप में प्रतिभासित होगा, एवं जिनको एक दिन हम बहिर्देश में अवस्थित समझते थे, वे ही हमारी आत्मा के अन्तरात्मा रूप में प्रतीत होंगे।-”तत्वमसि“-वही तुम हो। (पृ0-135)।
परमाणु संरचना की भाँति आत्मा केन्द्र में स्थित है और मन इलेक्ट्रान की भाँति क्रियाशील है। यह मन जब बाहरी विषयों के साथ क्रिया करता है तब उसे भौतिकवाद कहते हैं और जब यह केन्द्र में स्थित आत्मा से क्रिया करने लगता है तब उसे आध्यात्मवाद कहते हैं। मन के विचरण का यह विस्तृत दायरा उसके सशक्तता का मार्ग होता है। संकुचित मन में विभिन्न प्रकार की बीमारी सक्रिय हो जाती है। भूत-प्रेत जैसी समस्या केवल संकुचित मन के लिए ही हैं इसलिए इसका प्रसार ज्यादातर महिलाओं और अति पिछड़े मानव वर्ग में है। मन का केन्द्र में गिरना योजनाबद्ध तरीके से भी हो सकता है या दुर्घटनावश भी। जिस प्रकार कुँए में योजनाबद्ध तरीके से प्रवेश करना या अनजाने में उसमें गिर जाना। यदि योजनाबद्ध तरीका है तब तो आप इच्छानुसार जायेंगे और बाहर निकलेंगे। लेकिन दुर्घटनावश है तब उस केन्द्र की उर्जा-प्रकाश को बर्दास्त कर पाना प्रत्येक के लिए सम्भव नहीं होता। फिर भी जो परिणाम आता है वह होता है-मानसिक विक्षिप्तता या मानसिक सशक्तता। मानसिक विक्षिप्तता की स्थिति में कुछ भी सृष्टि अर्थात नव-निर्माण की सम्भावना नहीं रह जाती। मानसिक सशक्तता की स्थिति में संसार के सारे विचार उसमें समाहित होने जैसा व्यक्त होने लगता है। और वह पिछले सभी विचारों के ज्ञान से युक्त हो जाता है। यह भी सम्भव है कि वह शान्त-मौन हो जाये, उनमें से किसी विचार में बद्ध हो जाये और वह बाह्य जगत में गुण-कर्म को व्यक्त किये बिना उस अनुसार स्वयं को समझने व व्यवहार करने लगे। ऐसे उदाहरण मिलते रहते हैं जैसे-कोई स्वयं को राधा समझने लगता है, कोई विष्णु के अवतार के रूप में, कोई कृष्ण के रूप में, कोई कल्कि अवतार के रूप में।
मानसिक सशक्तता की स्थिति में सिर्फ वहीं सृष्टि अर्थात नव-निर्माण कर पाता है जो सासांरिकता के साथ अपने उस केन्द्र के प्रकाश का योग कर उसे गुण-कर्म के रूप में व्यक्त कर देता है। इसी को योग माया का प्रयोग कहते हैं। इसी को ध्यान कहते हें, ज्ञान का कालानुसार योग ही ध्यान होता है। इसी से वह स्वयं को सिद्ध करता है। ब्लैक होल की भाँति मानसिक सशक्तता के साथ बाहरी सूचना समाहित हो जाती है और वह सृष्टि करने के लिए नये रूप में बाहर आती है। महर्षि व्यास ने अपने शास्त्र महाभारत में सृष्टिकर्ता को ”कृष्ण“ ही कहा है।
स्वामी विवेकानन्द जी अपने पुस्तक ”योग क्या है“ में लिखते हैं-जब एक साधक शरीर बोध का अतिक्रमण कर जाता है, तो स्वभावतः उसके शरीर का अन्त हो जाता है और यह देखा गया है कि सामान्यतः एक ज्ञानी परमसत्ता के अनुभव के बाद अपने उस विराट अनुभव के बाद अपने उस विराट अनुभव को झेल नहीं पाता। फिर भी शंकर की तरह कुछ अपवाद हैं जिन्होंने विराट के अनुभव के बाद भी मानवता को ऐसी स्थिति की उपलब्धि के साधनों की शिक्षा देने के लिए अपने उच्च विचारों को कायम रखा। ये आत्माएं बन्धन से प्राप्त अनन्त मुक्ति को स्वयमेंव तज देती हैं जिसे उन्होंने दूसरों की मुक्ति दिलाने के लिए प्राप्त किया है। उनके लिए उच्चतम अनुभव का द्वार हमेंशा खुला रहता है, लेकिन वे उस द्वार में प्रवेश करने से इनकार कर देते हैं, जब तक वे उन लोगों को जो दुःख से पीड़ित हैं और प्रकाश की तलाश में हैं, अपने साथ न ले जा सकें। वे लोग बहुत बड़े सिद्ध, भविष्यदृष्टा और संत हैं जो गहन अंधकार से मानवता को बचाने के लिए अपनी आत्मा की मशाल को जलाए रखते हैं। वे वहीं लोग हैं जो साधारण जीवन जीते हुये कम से कम थोड़ी देर के लिए थके हारे संसार को खाई में गिरने से रोकते हैं। वे धरती पर भगवान के सच्चे प्रतिनिधि होते हैं। (योग क्या है, पृष्ठ-62)



ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति

ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति


ब्रह्माण्ड का आरम्भ कब और किस क्रम से हुआ इसके सम्बन्ध में अनेक मत हैं, पर जिस प्रतिपादन पर आम सहमति हो चुकी है वह यह है कि-”आरम्भ में थोड़ा सा सघन द्रव्यमान था। उसके अन्तराल में किसी अज्ञात कारण से विस्फोट हुआ और उसकी धज्जियाँ उड़ गई। अंसख्य टुकड़े हुये, वे जिधर-तिधर छितर गये। इस छितराव ने एक नई दिशा अपनाई। टुकड़ों में से अधिकांश अपनी धुरी पर लट्टू की तरह घूमने लगे और साथ ही घुड़दौड़ की तरह आगे की ओर भी भागने लगे।“ चूँकि यह समस्त सृष्टि रचना में गोलाकार है फलतः गति भी गोलाकार ही अग्रगामी रह सकती है। अनवरत घुड़दौड़ को अन्ततः गोलाकार बनाना पड़ा और किसी लक्ष्य तक पहुँचकर प्रयास को इतिश्री कर देने की अपेक्षा अनन्तकाल तक अनवरत घुड़दौड़ जारी रखने का एक सुनिश्चित मार्ग मिल गया। द्रव्यमान के छितरे हुये टुकड़ो ने न केवल वाह्य जगत में, ब्रह्माण्ड के क्षेत्र में अपनी घुड़दौड़ को जारी रखा वरन् आत्मसत्ता की नीजी परिधि में भी इसी नीति को अपनाया। वे अपनी-अपनी धुरियों पर भी घूमने लगे। इस प्रकार वैयक्तिक और सामूहिक दोनों ही क्षेत्रों में उसने अपने प्रयास-पुरूषार्थ को अग्रगमन के लक्ष्य में नियोजित किये रहने का मार्ग चुना और अनुशासन अपनाया।
विज्ञानवेत्ताओं के अनुसार सृष्टि का आरम्भिक द्रव्यमान एक सघन बादल के रूप में था। उस स्थिति में उसका घनत्व 10-12 किलोग्राम प्रति घन मीटर आँका गया है। जिसे प्रोटोगैलेक्सी के नाम से पुकारते हैं। आरम्भ में वह बादल ऐसे ही अनगढ़ था। विस्फोट होने के बाद उस केन्द्र में तथा टुकड़ों में एक नई क्षमता उद्भूत हुई। उसे गुरूत्वाकर्षण के नाम से जाना जाता है। विस्फोट के बाद टुकड़े निहारिका बन गये और छोटे ग्रहतारकों के रूप में अपने छोटे-छोटे कलेवरों को सुगठित बना सकने में सफल हो गये। निहारिकाएँ अभी भी उतनी सुव्यवस्थित नहीं हो सकी हैं। ब्रह्माण्ड फूल रहा है। उसके अन्तराल में अवस्थित निहारिकाएँ तथा ताश्रीरामण्डल क्रमशः एक-दूसरे से दूर जा रहे हैं। इस हटने का तात्पर्य पीछे की ओर से नहीं आगे की ओर बढ़ना है। पदार्थ चल रहा है, यह स्पष्ट है पर क्यों चल रहा है, किस दशा में चल रहा है कि उसके सामने भी प्रगति का, विस्तार का, पराक्रम के प्रकटीकरण का और अपूर्णता को पार करते हुये चरम पूर्णता तक पहुँचने का लक्ष्य ही प्रेरणा स्रोत बनकर रह रहा है।
हर 50 वर्ष में हमारी आकाशगंगा के किसी विशालकाय तारा में सुपरनोवा विस्फोट होता है। इस विस्फोट से अंतरिक्ष में बड़े पैमाने पर विकिरण एवं पदार्थ किसी भावी खगोलीय पिण्ड से बीज के रूप में आते हैं और पूरी आकाशगंगा में एक तीव्र कम्पन उत्पन्न करते हैं। यह कम्पन्न तरंग अतंर तारक गैसों को गर्म करती है, बादलों के छोटे टुकड़ों को वाष्पीभूत करती है और बड़ों पर गहरा दबाव डालती है, जिससे वे बादल उसी स्थान पर अपने स्वयं के गुरूत्व बल के कारण दबकर ठोस रूप में परिणत हो जाते हैं और नए तारे का निर्माण करते हैं।
सुपरनोवा ऐसे विस्फोट हैं जो आकाशगंगा के इंजन को विकास की दिशा में आगे की ओर बढ़ाते हैं। अरबों वर्ष पहले पृथ्वी पर भी प्राकृतिक विस्फोटों की श्रृंखला द्वारा ही जीवन का उद्भव सम्भव हुआ। तारक पिण्डों का अपना एक जीवन चक्र होता है, जिसमें वे घूमते रहते है। तारे के निर्माण के कुछ काल पश्चात् उनमें विस्फोट होता है। इस विस्फोट से वे नए-नए भारी तत्वों को अंतर तारक गैसों में समविष्ट करते हैं फिर इनसे दूसरे खगोलिय पिण्ड का निर्माण होता है जो कुछ काल पश्चात् पुनः सुपरनोवा विस्फोट में फटते हैं। इसी प्रकार खगोल में यह सृजन और विध्वंश का यह क्रम सदा चलता रहता है।
भारतीय दर्शन की मान्यता चेतन को मूल मानकर ज्यों की त्यों है। प्रारम्भ में एक ही तत्व परमात्मा पिण्ड रूप में था। उसके नाभि देश से ”एकोहं बहुस्यामि (मैं एक हूँ, बहुत हो जाऊँ)“, इस तरह की स्फुरण, भावना या विचार उठा। इससे वह फट पड़ा और महाप्रकृति की रचना हुई। उसमें सत, रज, तम तीन गुणों का सम्मिलन था। इन्हीं से सृष्टि में जीवन का निर्माण हुआ और सृष्टि के विस्तार की तरह ही 84 लाख योनियों का निरन्तर विकास होता चला गया। जिस तरह ब्रह्माण्ड विकसित हो रहा है उसी प्रकार नाना प्रकार के जीवन सृष्टि का भी विकास होता जा रहा है। यह सब अत्यधिक करूणामूलक, स्नेहजनक, मातृसंज्ञक रूप से चल रहा है। भौतिक व आध्यात्मिक दोनों दृष्टियों से आकाशगंगाएँ इस विशाल माता का हृदय कही जा सकती हैं। 
दर्शन शास्त्र के व्यक्तिगत प्रमाणित मार्गदर्शक दर्शन के अनुसार-दर्शन शास्त्र से व्यक्त भारत के सर्वप्राचीन दर्शनों (बल्कि विश्व के) में से एक और वर्तमान तक अभेद्य सांख्य दर्शन में ब्रह्माण्ड विज्ञान की विस्तृत व्याख्या उपलब्ध है। स्वामी विवेकानन्द जी के व्याख्या के अनुसार-”प्रथमतः अव्यक्त प्रकृति (अर्थात तीन आयाम-सत, रज, और तम), यह सर्वव्यापी बुद्धितत्व (1. महत्) में परिणत होती है, यह फिर सर्वव्यापी अंहतत्व (2. अहंकार) में और यह परिणाम प्राप्त करके फिर सर्वव्यापी इंद्रियग्राह्य भूत (3. तन्मात्रा-सूक्ष्मभूतः गंध, स्वाद, स्पर्श, दृष्टि, ध्वनि 4. इन्द्रिय ज्ञानः श्रोत, त्वचा, नेत्र, जिह्वा, घ्राण) में परिणत होता है। यही भूत समष्टि इन्द्रिय अथवा केन्द्र समूह (5. मन) और समष्टि सूक्ष्म परमाणु समूह (6. इन्द्रिय-कर्मः वाक, हस्त, पाद, उपस्थ, गुदा) में परिणत होता है। फिर इन सबके मिलने से इस स्थूल जगत प्रपंच (7. स्थूल भूतः आकाश, वायु, अग्नि, जल, पृथ्वी) की उत्पत्ति होती है। सांख्य मत के अनुसार यही सृष्टि का क्रम है और बृहत् ब्रह्माण्ड में जो है-वह व्यष्टि अथवा क्षूद्र ब्रह्माण्ड में भी अवश्य रहेगा। जब साम्यावस्था भंग होती है, तब ये विभिन्न शक्ति समूह विभिन्न रूपों में सम्मिलित होने लगते हैं और तभी यह ब्रह्माण्ड बहिर्गत होता है। और समय आता है जब वस्तुओं का उसी आदिम साम्यावस्था में फिर से लौटने का उपक्रम चलता है। (अर्थात एक तन्त्र का अन्त) और ऐसा भी समय आता है कि सब जो कुछ भावापन्न है, उस सब का सम्पूर्ण अभाव हो जाता है। (अर्थात सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड का अन्त)। फिर कुछ समय पश्चात् यह अवस्था नष्ट हो जाती है तथा शक्तियों के बाहर की ओर प्रसारित होने का उपक्रम आरम्भ होता है। तथा ब्रह्माण्ड धीरे-धीरे तंरगाकार में बहिर्गत होता है। जगत् की सब गति तरंग के आकार में ही होता है-एक बार उत्थान, फिर पतन। प्रलय और सृष्टि अथवा क्रम संकोच और क्रम विकास (अर्थात एक तन्त्र या सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड का अन्त और आरम्भ) अनन्त काल से चल रहे है।ं अतएव हम जब आदि अथवा आरम्भ की बात करते है तब हम एक कल्प (अर्थात चक्र) आरम्भ की ओर ही लक्ष्य रखते है।“

बिग-बैंग सिद्धान्त
एक समय ऐसा था जब बहुत से लोग विश्वास करते थे कि ब्रह्माण्ड का न आदि है न अंत और यह शाश्वत है। बिग-बैंग सिद्धान्त के आने से ब्रह्माण्ड को शाश्वत नहीं माना गया। इसकी भी एक शुरूआत मानी गई, जिसका एक इतिहास है, अंत है। इस सिद्धान्त के अनुसार 15 अरब वर्ष पहले एक अद्भुत अकल्पनीय महाविस्फोट से ब्रह्माण्ड का विस्तार शुरू हुआ। इस महाविस्फोट को ”बिग-बैंग“ कहा जाता है। इस घटना के प्रारम्भिक बिन्दु पर समस्त ऊर्जा, पदार्थ और देश (स्पेस) एक अत्यन्त सघन बिन्दु में सम्पीडित थें। इस घटना से पहले क्या था, पूरी तरह अज्ञात है और चिंतन का विषय है। यह घटना वैसा विस्फोट नहीं था जैसा कि हम आम विस्फोट को जानते हैं बल्कि यह एक दूसरे से दूर भागते भ्रूणात्मक ब्रह्माण्ड के कणों को समस्त स्पेस में भरने की घटना थी। दरअसल बिग-बैंग, स्पेस के भीतर स्पेस को भरने का विस्फोट था। उस बम के विस्फोट तरह नहीं जिसमें उसके पदार्थ को बाहर फेंका जाता है। इस बिग-बैंग सिद्धान्त का मूल श्रेय इडविन हब्बल को दिया जा सकता है। 1929 में हब्बल ने अपने निरीक्षणों से पता लगाया कि ब्रह्माण्ड का निरन्तर विस्तार हो रहा है और मंदाकिनियों (ग्लेक्सीज) के पुंज एक दूसरे से दूर भाग रही हैं।

निष्कर्ष
निष्कर्ष के रूप में यह ब्रह्माण्ड एक वृक्ष के समान है जिससे उत्पन्न होने वाला प्रत्येक बीज एक ब्रह्माण्ड को जन्म देने में सक्षम है। जबकि वृक्ष और बीज दोनों ब्रह्माण्ड के ही अंग है। बीज प्रारम्भिक बिन्दु है तो वृक्ष उसका विस्तार ब्रह्माण्ड रूप है। प्रश्न आता है कि पहले कौन था, बीज या वृक्ष? इस पर इस उत्तर को ही अन्त मानकर सन्तोष करना पड़ेगा कि-”एक परमतत्व है जिसे परमात्मा कहते है और वह बीज व वृक्ष दोनों में विद्यमान है, दोनों ही उसी का प्रकाश व विस्तार है, उसी के उपस्थिति में बीज और वृक्ष का क्रम चलता रहता है।“
कोई भी विकास दर्शन अपने अन्दर पुराने सभी दर्शनों को समाहित कर लेता है अर्थात उसका विनाश कर देता है और स्वयं मार्गदर्शक दर्शन का स्थान ले लेता है। अर्थात सृष्टि-स्थिति-प्रलय फिर सृष्टि। चक्रीय रूप में ऐसा सोचने वाला ही नये परिभाषा में आस्तिक और सिर्फ सीधी रेखा में सृष्टि-स्थिति-प्रलय सोचने वाला नास्तिक कहलाता है।



ब्रह्माण्ड या व्यापार केन्द्र: एक अनन्त व्यापार क्षेत्र

ब्रह्माण्ड या व्यापार केन्द्र: एक अनन्त व्यापार क्षेत्र


आकाश पर नजर डालने से एक काली चादर या कुछ जुगनू से बैठे चमकते दिखते हैं। दिन और रात में चमकते हुये दो गोले घूमते नजर आते हैं। मोटी दृष्टि यहीं समाप्त हो जाती है, पर जब गहराई में उतरकर वास्तविकता खोजने की बात चलती है तो प्रतीत होता है कि इस नगण्य के पीछे न जाने कितना बड़ा विशाल विस्तार छिपा पड़ा है। उसकी परतें उठाते चलने पर विशालता का अनंत विस्तार आँखों के सामने आकर खड़ा हो जाता है। ब्रह्माण्ड का स्वरूप कभी मानवी मान्यता के अनुसार बहुत छोटा था, पर अब पर्यवेक्षण से उसकी विशालता इतनी बढ़ चली है कि उसकी कल्पना करने तक में मस्तिष्क चकराने लगता है।
ब्रह्माण्ड के बारे में जैसे-जैसे जानकारीयाँ बढ़ती जा रही हैं वैसे-वैसे उसके विस्तार का दायरा बढ़ता जा रहा है। अभी वह बचपन की ही अवधि में है इसलिए उसे बहुत समय बढ़ने, फलने और परिपुष्ट होने में लगेगा। प्रौढ़ता आने के उपरान्त ही वृद्धावस्था की झुर्रियाँ पड़ना आरम्भ होगी। कमर झुकेगी। खाँसी श्वास का सिलसिला चलेगा और घटते-घटते हारा थका जराजीर्ण होने पर वह मरण की तैयारी करेगा। मरने के उपरान्त उसे फिर जन्म लेने में कितने समय भूतकाल जैसा गर्भावस्था में रहना होगा, यह तो नहीं कहा जा सकता किन्तु यह निश्चित है कि जन्म-मरण के चक्र में पदार्थो एवं प्राणियों की तरह ब्रह्माण्ड को भी गुजरना पड़ेगा। और यह क्रम सदैव चलता रहता है। वर्तमान समय का ब्रह्माण्ड अभी बचपन की अवधि में है।
हमारा सौर मण्डल ब्रह्माण्ड में उपस्थित कई अरब निहारिकाओं में से एक में उपस्थित अरबों-खरबों सौरमण्डल में से एक सौर मण्डल है। कई अरब निहारिकाओं का समुच्चय आकाशगंगा (मिल्की वे या ग्लैक्सी) कहलाता है। ब्रह्माण्ड में असंख्यों आकाशगंगाएँ हैं। हमारा ब्रह्माण्ड दिनो-दिन फैलता जा रहा है और निहारिकाएँ एक-दूसरे से दूर हटती जा रहीं है। एक आकाशगंगा को ही लें तो पाते हंै कि अपने सूर्य जैसे लगभग 500 करोड़ ताराओं, सौरमण्डल तथा अकल्पनीय विस्तार वाले धूल तथा गैस वर्तुलों के मेंघ मिलकर मात्र एक गंगा बनती है। ऐसी 10 करोड़ से अधिक आकाशगंगाओं या उनके मध्य के अकल्पनीय आकाश को एक ब्रह्माण्ड कहा जाता है। यह ब्रह्माण्ड कितने है? इस स्थान पर मनुष्य की बुद्धि व कल्पना थक जाती है। इसलिए दर्शन ने उसे ”नेति-नेति“ एवं विज्ञान ने उसे ”अनन्त“ कहा है। आध्यात्मवाद ने इस समस्त रचना को ही नहीं उसके स्वामी, नियंता, रक्षक को भी अनन्त नाम से ही सम्बोधित किया है।
क्या अनन्त अंतरिक्ष का अन्त है? इस प्रश्न के उत्तर में विश्व प्रसिद्ध वैज्ञानिक आईन्सटीन एवं मिन्कोवस्की ने ”है“ के रूप में दिया है। वे कहते हैं-”सीधे चलते हुये कोई भी वस्तु अन्ततः घूमकर अपने मूल उद्गम पर ही आ जाती है। इस गणित के सिद्धान्त के आधार पर अंतरिक्ष का अंत भी वहीं होना चाहिए, जहाँ से उसका आरम्भ हुआ है।“ अर्थात अनादि और अनन्त कहे जाने वाले अंतरिक्ष का किसी एक बिन्दु पर मिलन अवश्य होगा ही, भले ही वह कितना दूरवर्ती क्यों न हो? ब्रह्माण्ड निरन्तर फैल व बढ़ रहा है। विराट की पोल में प्रत्यक्ष ग्रह-नक्षत्र किसी असीम-अनन्त की दिशा में तेज गति से भागते चले जा रहे हैं। यों ये पिण्ड अपनी धुरी व कक्षा में भी घूमते हैं, पर हो यह रहा है कि वह कक्षा, धुरी और मण्डली तीनों ही असीम की ओर दौड़ रहे हैं। ब्रह्माण्ड 150 मील प्रति सेकण्ड की गति से विकसित हो रहा है और यह गति बिना किसी बाधा के सभी स्थान पर है। जो तारे कुछ समय पूर्व दिखते थे, वे अब अधिक दूरी पर चले जाने के कारण अदृश्य हो गये। इस क्रिया को विस्तार, विघटन या अन्त में एकता की प्राप्ति के लिए दौड़ भी कह सकते हैं। गोलाई का सिंद्धान्त अकाट्य है। प्रत्येक गतिशील वस्तु गोल हो जाती है। स्वयं ग्रह-नक्षत्र इसी सिद्धान्त के अनुसार चैकोर, तिकोने, आयताकार न होकर गोल हुये। यह ब्रह्माण्ड भी गोल है। नक्षत्रों की कक्षाएँ भी गोल हैं।
ब्रह्माण्ड का 99 प्रतिशत भाग शून्य है। एक प्रतिशत भाग को ही यह ग्रह-नक्षत्र घेरे हुये है। आकाश में सूर्य जैसे खरबों तारकों का अस्तित्व है। वह तारे आकाशगंगाओं से जुड़े हैं। वे उसी से निकले हैं। मुर्गी अण्डे देती है, उन्हें सेती है, और जब तक बच्चे समर्थ नहीं हो जाते, उन्हें अपने साथ लिए फिरती है। आकाशगंगाएँ ऐसी ही मुर्गीयाँ हैं जिनके अण्डे-बच्चों की गणना करना पूरा सिरदर्द है। हमारी आकाशगंगा 1 लाख प्रकाश वर्ष लम्बी और 20 हजार प्रकाश वर्ष मोटी है। सूर्य इसी मुर्गी का एक छोटा चूजा है जो अपनी माता से 33000 प्रकाश वर्ष दूर रहकर उसकी परिक्रमा 170 मील प्रति सेकण्ड की गति से करता है। आकाशगंगाएँ भी आकाश में करोड़ों हैं। वे आपस में टकरा न जाएँ या उनके अण्डे-बच्चे एक-दूसरे से उलझ न पड़े इसलिए अपने सैर-सपाटे के लिए काफी बड़ा क्षेत्र हथिया लिया है। ये आकाशगंगाएँ एक-दूसरे से लगभग 20 लाख प्रकाश वर्ष दूर रहती है। अनन्त आकाश में गतिशील आकाशगंगाओं में एक अपने सौरमण्डल की भी है, जिसकी चाल 24,300 मील प्रति सेकण्ड नापी गई है। इस तरह ब्रह्माण्ड चैतन्य तो है ही, निरन्तर फैल रहा है, इसकी हर इकाई गतिशील है। निष्क्रियता कहीं भी दृष्टिगोचर नहीं होती।
प्रकाश की गति 1 सेकण्ड में 1 लाख 86 हजार मील है। इस गति से चलते रहने पर 1 वर्ष में प्रकाश जितनी दूरी तय करता है उसे 1 प्रकाश वर्ष कहते हैं। आकाश को अत्यधिक प्रभावित करने वाले क्वासर तारे अभी तक चार खोजे जा सके हैं। इसमें जो निकटतम है उनकी दूरी 800 करोड़ प्रकाश वर्ष मानी गई है। यदि वहाँ तक पहुँचने का कोई मनुष्य दावा करे और अब तक उपलब्ध राकेटों के सहारे 2500 मील प्रति घंटा की चाल से चले तो उस मनुष्य के 100 वर्ष वाले जीवन के 8 करोड़ जन्म लेने पड़ेगें। यदि वापस भी लौटना हो तो फिर इतना ही वर्ष और चाहिए। यह लगातार गति में रहने की गणना है। यदि बीच में तेल-पानी या सुस्ताने की आवश्यकता पड़ी तो समय और भी अधिक लग जायेगा। यह आलंकारिक विवरण इस विराट परब्रह्म का मात्र एक अंश की झलक भर का दर्शन है।
निष्कर्ष रूप में सारांश यह है कि यह ब्रह्माण्ड एक अनन्त व्यापार केन्द्र या क्षेत्र (TRADE CENTRE or TRADE AREA) के रूप में है जहाँ प्रत्येक क्षण व्यापार या आदान-प्रदान (TRADE or TRANSACTION) चल रहा है और यह स्थिर नहीं है।

”ब्रह्माण्ड“ शब्द के सम्बन्ध में वर्तमान विचार
ब्रह्माण्ड शब्द विश्व के प्राचीनतम भाषाओं में से सर्वश्रेष्ठ प्राचीन भारतीय भाषा संस्कृत का शब्द है। जिसका प्रयोग दिनोदिन कम होता जा रहा है। क्योंकि इसके स्थान पर जगत, विश्व, संसार, सृष्टि इत्यादि शब्दों का प्रयोग बढ़ रहा है। और यह भी प्रश्न उठता है कि-”ब्रह्माण्ड शब्द के स्थान पर प्रयोग किये जा रहे जगत, विश्व, संसार, सृष्टि इत्यादि शब्द ब्रह्माण्ड शब्द के ही अर्थ को व्यक्त करते हैं या किसी अन्य अर्थ को।“ वर्तमान समय (सन् 2012 ई0) तक के विचार के अनुसार यह माना जाता है कि जगत, विश्व, संसार, सृष्टि इत्यादि शब्द ब्रह्माण्ड शब्द के अर्थ को व्यक्त नहीं करते बल्कि यह अंग्रेजी के यूनिवर्स (UNIVERSE) शब्द के अर्थ को व्यक्त करते हैं। क्योंकि हिन्दी व्याकरण शब्द विन्यास के अनुसार ब्रह्माण्ड शब्द ब्रह्म + अण्ड से मिलकर बना है। और ब्रह्म का अर्थ होता है-जीव और अण्ड का अर्थ होता है-अण्डा। अर्थात ब्रह्माण्ड का अर्थ हुआ-जीव का अण्डा। अर्थात यह ब्रह्माण्ड, जीव के अण्डे जैसा है।
ब्रह्माण्ड शब्द के उपरोक्त हिन्दी अर्थ के आधार पर अंग्रेजी के यूनिवर्स शब्द से तुलना करने पर यह स्पष्ट होता है कि-

01. ब्रह्माण्ड शब्द जहाँ पूर्ण विश्वास के साथ ब्रह्माण्ड के प्रत्येक इकाई में जीवन को सिद्ध करता है, वहाँ यूनिवर्स शब्द सम्पूर्ण यूनिवर्स में जीवन व्याप्त है, इस विषय पर अति तुक्ष सोच रखता है।
02. ब्रह्माण्ड शब्द जहाँ ब्रह्माण्ड को अण्डे के खोल जैसे एक खोल में सीमाबद्ध होने और एक निश्चित आकृति वाला सिद्ध करता है वहीं यूनिवर्स शब्द यूनिवर्स को अनन्त और निराकार मानता है।
03. ब्रह्माण्ड शब्द जहाँ पूर्णता लिए है वहीं यूनिवर्स शब्द मात्र ब्रह्माण्ड के आन्तरिक भाग का ही मात्र प्रतिनिधित्व करता दिखाई देता है।
04. ब्रह्माण्ड शब्द के अनुसार जहाँ ब्रह्माण्ड के बाहर और भी कुछ है को सिद्ध करता है वहीं यूनिवर्स शब्द के अनुसार यूनिवर्स में ही खोज करना अभी शेष ही शेष है। 
05. ब्रह्माण्ड शब्द जहाँ अपने अर्थ को एक निष्कर्ष के रूप में प्रस्तुत करता है, वहीं यूनिवर्स शब्द उलझे हुये खोजों का एक समूह दिखाई पड़ता है।
06. ब्रह्माण्ड शब्द जहाँ ब्रह्माण्ड को किसी तन्त्र की कार्यकारी इकाई के रूप में प्रस्तुत करता है, वहीं यूनिवर्स शब्द यूनिवर्स की ही कार्य प्रणाली समझने में असमर्थ है।
07. ब्रह्माण्ड शब्द जहाँ ब्रह्माण्ड में निहित जीवों को मात्र एक उद्देश्य, जीवन में वृद्धि के लिए प्रेरित करता है, वहीं यूनिवर्स शब्द यूनिवर्स में निहित जीवों को अपना ही जीवन किसी भी प्रकार बचाने के लिए, किसी भी प्रकार के उद्देश्य को अपनाने के लिए बाध्य करता है।

जबकि आधुनिक विज्ञान की दृष्टिकोण से देखा जाय तो, उपरोक्त अर्थ और व्याख्या के आधार पर कदापि यह सिद्ध नहीं होता कि हमारा ब्रह्माण्ड वास्तव में जीव के अण्डे जैसा ही है। क्योंकि ये तभी सिद्ध हो सकता है जब कोई बुद्धिजीवी आधुनिक विज्ञान के माध्यम से इस यूनिवर्स से (सशरीर या मानसिक आधार पर) बाहर जाये और तथाकथित ब्रह्माण्ड के बाहरी स्वरूप को देखें और पुनः इस यूनिवर्स में वापस लौटकर हमें ब्रह्माण्ड के स्वरूप के विषय में बताए कि हमारा यूनिवर्स अण्डे के रूप वाला ही है। किन्तु हम सभी धर्म और आधुनिक विज्ञान के तकनीकों तथा उनके समस्त प्रमाणों और उपलब्धियों के आधार पर विवादमुक्त रूप से जानते हैं कि न कि ऐसा पहले ही कभी सम्भव था, ना ही यह भविष्य में सम्भव होने जा रहा है। जबकि आधुनिक विज्ञान वर्तमान में भी मात्र यूनिवर्स शब्द पर ही अपना सम्पूर्ण ध्यान केन्द्रित करते हुये इसके गूढ़ रहस्य को ही सुलझाने में प्रयत्नशील है। आधुनिक विज्ञान के खोजों के आधार पर यह कह सकते हैं कि ये खोजें भी यूनिवर्स शब्द के समान ही अनन्त और निराकार सिद्ध हो रही है, जिसका ना तो कोइ सीमा है ना ही कोई आकार।
तो क्या हमारे पूर्वजो ने मात्र पृथ्वी के जीवों के अण्डों को देखकर निर्णय लिया कि हमारा ब्रह्माण्ड जीव के अण्डे जैसा ही है, या किसी अत्यधिक विकसित वैज्ञानिक प्रयोग तथा गणना द्वारा खोजे गये सिद्धान्त के आधार पर यह निर्णय लिया? जिस सिद्धान्त के अभाव में यूनिवर्स आज भी आधुनिक विज्ञान के लिए रहस्य का विषय बना हुआ है। विज्ञान को दिशाहीन अनन्त मार्ग पर चलने के लिए अगर कोई एक मात्र नैतिक रूप से उत्तरदायी है, तो वो हैं-भारतीय। इनके उत्तरदायी होने के दो मुख्य कारण हैं-

01. भारतीयों का, अपने पूर्वजों द्वारा अत्यधिक विकसित विज्ञान के द्वारा की गयी अति दुर्लभ खोजों की टूटी कड़ीयों को फिर से जोड़ने के स्थान पर, सदैव उनकी उपेक्षा करते रहने का अस्वाभाविक स्वभाव।

02. भारतीयों का आधुनिक विज्ञान के आधार पर स्वयं को तुक्ष मानना, और साथ ही साथ सदैव ही दूसरों के बताए मार्गो को श्रेष्ठ मानते हुये उनके ही मार्गो पर कटिबद्ध होकर निरन्तर चलते रहना।

उपरोक्त व्याख्याओं के आधार पर ब्रह्माण्ड की परिभाषा इस प्रकार होती है-”ब्रह्माण्ड वो है जिसका स्वरूप जीव के अण्डे जैसा है। जिसकी परिधि एक ठोस तत्व से निर्मित है और आन्तरिक क्षेत्र में सम्पूर्ण ग्रह, उपग्रह और तारे इत्यादि स्थित है और इसके आन्तरिक क्षेत्र को हम जगत्, संसार, विश्व, सृष्टि, यूनिवर्स इत्यादि के नाम से सम्बोधित करते हैं। इसके आन्तरिक क्षेत्र और इसमें स्थित सम्पूर्ण ग्रह, उपग्रह और तारों आदि के मध्य मात्र इतना सा अन्तर है कि इसका आन्तरिक क्षेत्र ”मूलतत्व“ के मूल रूप से निर्मित है, जबकि सम्पूर्ण ग्रह, उपग्रह और तारे आदि मूलतत्व के, ब्रह्माण्ड के मूल तापमान में अस्थिरता आने के कारण, आपस में जुड़ने और जुड़कर टुटने से निर्मित है।“
भारतीय वैज्ञानिक पूर्वजों ने ब्रह्माण्ड को समझने के लिए कौन-कौन से वैज्ञानिक प्रयोग और गणनाएँ की, इसका कोई ठोस प्रमाण, सम्पूर्ण विश्व में प्रत्यक्ष रूप से वर्तमान समय में कहीं भी उपलब्ध नहीं है किन्तु यह तो निश्चित है कि उन्होंने अपने वैज्ञानिक प्रयोगों और गणनाओं के आधार पर अवश्य ही किसी ऐसे सिद्धान्त को और उसके प्रयोग की उचित दिशा को उसी समय खोज लिया था जिसके बिना उनके द्वारा यह सिद्ध करना सम्भव नहीं था कि हमारा ब्रह्माण्ड जीव के अण्डे जैसा ही है। अतः उनके द्वारा खोजे गये उस सिद्धान्त को और उसके प्रयोग की दिशा को समझने के लिए सबसे पहले ये समझना अति आवश्यक है कि भारतीय वैज्ञानिक पूर्वजों ने ब्रह्माण्डीय खोज को आरम्भ करने के लिए आखिर ब्रह्माण्ड के किस बिन्दु को अपना ”प्रथम लक्ष्य“ बनाया। चूँकि प्रमाणों के अभाव में ये कहना कठिन है कि उन्होंने ब्रह्माण्ड के किस बिन्दु को अपना प्रथम लक्ष्य बनाया, किन्तु मानव स्वभाव के आधार पर अगर देखा जाय तो निश्चित रूप से उनके खोज का भी वही केन्द्र बिन्दु रहा होगा, जो वर्तमान में वर्तमान विज्ञान का रहा होगा। अतः उस अति महत्वपूर्ण केन्द्र बिन्दु को पूर्णतया स्पष्ट करने के लिए नितान्त आवश्यक है कि वर्तमान के आरम्भिक, सभी ब्रह्माण्डिय खोजों के लक्ष्यों पर ध्यान पूर्वक दृष्टि डालते हुये, उनका ध्यानपूर्वक पुर्नावलोकन किया जाए। पुर्नावलोकन करने के उपरान्त सम्पूर्ण विश्व के समक्ष स्वयं ही निर्विवाद रूप से स्पष्ट हो जायेगा कि, वर्तमान के आरम्भिक लक्ष्यों में से केन्द्र बिन्दु के रूप में मात्र एक ही लक्ष्य था, जिसपर वर्तमान में भी निरन्तर खोज जारी है, और वह लक्ष्य था-”हमारे ब्रह्माण्ड के सम्पूर्ण ग्रह, उपग्रह और सूर्य तथा तारे आदि अन्तरिक्ष में आखिर किस सिद्धान्त के कारण, अपनी कक्षा से बाहर नहीं निकल पाते तथा केवल अपनी ही गोलाकार कक्षा में ही स्थित रहते हुये, अपने-अपने केन्द्र की निरंतर परिक्रमा करते रहते हैं?“
वर्तमान विज्ञान के दृष्टिकोण से अगर उपरोक्त केन्द्र बिन्दु को देखा जाए तो, निष्कर्ष रूप में अभी तक एक ही मूल कारण स्पष्ट हो पाया है कि ”हमारे ब्रह्माण्ड के सम्पूर्ण ग्रह, उपग्रह और सूर्य तथा तारे आदि इसलिए अपनी कक्षा से बाहर नहीं निकल पाते तथा अपनी ही गोलाकार कक्षा में स्थित रहते हुये, अपने-अपने केन्द्र की निरंतर परिक्रमा करते रहते हैं क्योंकि ये अपने-अपने गोलाकार केन्द्र के गोलाकार चुम्बकीय क्षेत्र में फँसे हुये हैं।“ जैसे कि हमारे सौरमण्डल के सम्पूर्ण ग्रह हमारे सौर मण्डल के केन्द्र सूर्य के चुम्बकीय क्षेत्र में फँसे होने के कारण, अपनी कक्षा से बाहर नहीं निकल पाते और अपनी-अपनी गोलाकार कक्षा में ही स्थित रहते हुये, सूर्य की निरंतर परिक्रमा करते रहते हैं।
उपरोक्त स्पष्टिकरण के उपरान्त ऐसे तो बहुत सारे प्रश्न एकाएक उत्पन्न हो जाते हैं, किन्तु सारांश में एक प्रश्न द्वारा ऐसे व्यक्त किया जा सकता है कि-”हमारे ब्रह्माण्ड में स्थित केन्द्रीय कक्षा हो या अन्य, किसी भी गोलाकार कक्षा के निर्माण का मूल आधार क्या है, अर्थात गोलाकार कक्षा के निर्माण हेतु किन-किन दशाओं का होना अनिवार्य है?“ इस प्रश्न के समाधान हेतु अगर ध्यानपूर्वक, वर्तमान विज्ञान के दृष्टिकोण से विचार किया जाए तो, समाधान के रूप में एक ही निष्कर्ष स्पष्ट होगा कि, इस प्रष्न का स्पष्ट उत्तर वर्तमान विज्ञान के पास उपलब्ध है ही नहीं और जो अस्पष्ट उत्तर है भी, वो भी उत्तरों की जाल में ऐसे उलझे हुये हैं कि, उनको व्यक्तिगत आधार पर समझना या किसी को भी व्यक्तिगत आघार पर समझाना, किसी भी प्रतिभाशाली से प्रतिभाशाली वैज्ञानिक के वश का नहीं। वर्तमान विज्ञान द्वारा इस प्रश्न के अनुत्तरित रहने का कारण यह है कि वर्तमान विज्ञान द्वारा दिया गया ”प्रथम लक्ष्य“ के सम्बन्ध में त्रुटिपूर्ण स्पष्टिकरण। क्योंकि अगर ”प्रथम लक्ष्य“ के सम्बन्ध में दिया गया स्पष्टिकरण परिशुद्ध होता तो, स्पष्टिकरण के उपरान्त कोई भी अनुत्तरित प्रश्न शेष रहने की सम्भ्वतः न्यूनतम सम्भावना ही शेष रहती। जबकि भारतीय वैज्ञानिक पूर्वजों के ब्रह्माण्डिय खोजों को ”प्रथम लक्ष्य“ से जोड़कर देखा जाय तो, ऐसा प्रतीत होता है कि भारतीय वैज्ञानिक पूर्वजों ने ”प्रथम लक्ष्य“ का परिशुद्ध हल सम्भवतः खोज निकाला था। क्योंकि अगर उनके द्वारा निकला ”प्रथम लक्ष्य“ का हल परिशुद्ध नहीं होता तो वो ”ब्रह्माण्ड“ जैसे महानतम शब्द का आविष्कार ही नहीं करते। और साथ ही साथ ये भी ध्यान देने योग्य बिन्दु है कि संस्कृत भाषा के इस महानतम् शब्द का, किसी भी भाषाविद् द्वारा किसी भी प्रकार अभी तक आलोचना नहीं की गयी है, जिससे इस शब्द के अर्थ की सत्यता और भी सशक्त हो जाती है। ”प्रथम लक्ष्य“ रूपी प्रथम कड़ी को सम्भवतः खोजने के उपरान्त सबसे बड़ी चुनौति अभी शेष है कि आखिर उन्होंने ”प्रथम लक्ष्य“ के समाधान हेतु कौन-कौन से प्रयोग और कौन-कौन सी गणनाएँ की होगीं?

ब्रह्माण्ड के सम्बन्ध में सार्वभौम सत्य-सैद्धान्तिक विचार
हिन्दी व्याकरण शब्द विन्यास के अनुसार ब्रह्माण्ड शब्द ब्रह्म ़ अण्ड से मिलकर बना है। ब्रह्म, ब्रह्मा से सम्बन्धित है। और एकात्म ज्ञान से सम्बन्धित हैं। इसी प्रकार विष्णु, एकात्म कर्म से और शंकर, एकात्म ध्यान से सम्बन्धित हैं। इसी क्रम में उनका अस्त्र ब्रह्मास्त्र, सु-दर्शन और पशुपास्त्र है अर्थात क्रमशः ज्ञान का अस्त्र, अच्छे विचार का अस्त्र और सार्वभौम सत्य-सिद्धान्त का अस्त्र है। इस प्रकार ब्रह्माण्ड का अर्थ ज्ञान के अण्डे से है। ब्रह्म के साथ अण्ड जोड़ने के पीछे ये रहस्य था कि ज्ञान का प्रारम्भ और अन्त एक चक्र है जैसे क्रिया-कारण, जन्म-मृत्यु-जन्म। अर्थात एक चक्र या गोला। ब्रह्माण्ड के सभी ग्रह-तारे सब गोल रूप में हैं। यह ब्रह्माण्ड, ईश्वर की दृश्य कृति हैं जो उससे निकला है और इसमें वह स्वयं है। जिस प्रकार यह ”विश्वशास्त्र“ श्री लव कुश सिंह ”विश्वमानव“ से निकला है और इसमें वे स्वयं है। यह ब्रह्माण्ड, ज्ञान का अण्डा हैं, अनन्त है, इसका कोई निश्चित आकार और सीमा नहीं हैं, यह एक बड़े वट वृक्ष के समान है। बस, कुछ नहीं।




विश्व या जगत्

विश्व या जगत्


विश्व को अन्य अर्थो में संसार, जगत, सृष्टि, दुनिया के रूप में भी लेते हैं। कुँए के चारो ओर बने चबूतरे, जिसपर खड़े होकर पानी खींचते है, उसे भी जगत् कहते हैं। जगत संस्कृत मूल का शब्द है। वाक्यों द्वारा इन शब्दों का अर्थ निम्न प्रकार स्पष्ट है-

01. कुँए के जगत् पर रखा घड़ा नीचे गिर गया।
02. दुर्गम काज जगत् के जेते। सुगम अनुग्रह तुम्हरे तेते।
03. ब्रह्मा जी को भगवान नारायण ने सम्पूर्ण जगत् की रचना करने की आज्ञा दी।
04. इस चराचर जगत् में समस्त वस्तुएँ नश्वर हैं।
05. हिन्दी का चिट्ठा जगत् दिनोदिन प्रगति कर रहा है।

वर्तमान में विश्व (WORLD) पृथ्वी की सीमा तक के अर्थो में अधिकतम प्रयोग होता है। परन्तु मानवीय व्यक्तिगत दृष्टि में प्रत्येक मनुष्य का विश्व, जगत्, संसार, सृष्टि व दुनिया उतना ही बड़ा होता है जितने क्षेत्र तक का उसका ज्ञान होता है।
इस प्रकार व्यक्ति का अपने व्यक्तिगत दृष्टि से विश्व को देखना उसका प्राथमिक विश्व तथा व्यक्ति का अपने सार्वभौम दृष्टि से विश्व को देखना उसकी अन्तिम व पूर्ण दृष्टि होती है।
संवेदना के अनुभव की सीमा ही व्यक्ति का शरीर होता है। जिस व्यक्ति की संवेदना उसके अपने शरीर तक होता है उसके शरीर की सीमा उसके अपने शरीर तक ही होती है। इसी प्रकार जो व्यक्ति अपने परिवार, मुहल्ला, गाँव, जिला, प्रदेश, देश, पृथ्वी और ब्रह्माण्ड तक की संवेदना का अनुभव करता है उस व्यक्ति का शरीर उस स्तर का होता है। अनन्त ब्रह्माण्ड तक के शरीर का अनुभव ही ”अंह ब्रह्मास्मि“ कहलाता है और अपने शरीर के सुख-दुःख का अनुभव करते हुये अपने उस शारीरिक सीमा के लिए कर्म करता है।
इस प्रकार मैं लव कुश सिंह ”विश्वमानव“ अनन्त ब्रह्माण्ड तक की संवेदना का अनुभव कर उसे सत्य, शिव और सुन्दर की ओर दिशा देने के लिए यह ”विश्वशास्त्र“ व्यक्त किया हूँ।
कुछ वर्षो पहले वैज्ञानिक डाॅ0 फ्रेड हाॅयल भारतवर्ष आये थे। विज्ञान भवन में उन्होंने कहा था-”अंतरिक्ष की गहराइयाँ जितनी अनन्त की ओर बढ़ेंगी, उसमें झाँककर देखने से मानवीय अस्तित्व का अर्थ और प्रयोजन उतना ही स्पष्ट होता चला जायेगा। शर्त यह रहेगी कि हमारी अपनी अन्वेषण बुद्धि का भी विकास और विस्तार हो। यदि हमारी बुद्धि, विचार और ज्ञान मात्र पेट, प्रजनन, तृष्णा, अहंता तक ही सीमित रहता है, तब तो हम पड़ोस को भी नहीं जान सकेंगे, पर यदि इन सबसे पूर्वाग्रह मुक्त हों तो ब्रह्माण्ड इतनी खुली और अच्छे अक्षरों में लिखी चमकदार पुस्तक है कि उससे हर शब्द का अर्थ, प्रत्येक अस्तित्व का अभिप्राय समझा जा सकता एवं अनुभव किया जा सकता है।“
वस्तुतः चेतना का मुख्य गुण है-विकास। जहाँ भी चेतना या जीवन का अस्तित्व विद्यमान दिखाई देता है, वहाँ अनिवार्य रूप से विकास, वर्तमान स्थिति से आगे बढ़ने की हलचल दिखाई देती है। इस दृष्टि से मनुष्यों, जीव-जन्तु और पेड़-पौधों को ही जीवित माना जाता है। परन्तु भारतीय आध्यात्म की मान्यता है कि जड़ कुछ है ही नहीं, सब कुछ चैतन्य ही है। सुविधा के लिए स्थिर, निष्क्रिय और यथास्थिति में बने रहने वाली वस्तुओं को जड़ कहा जाता है, परन्तु वस्तुतः वे प्रचलित अर्थो में जड़ है ही नहीं। सृष्टि के इस विराट रूप, क्रमिक विस्तार एवं सतत गतिशीलता के मूल में झाँकने पर वैज्ञानिक पाते है कि यह सब एक सुनियोजित चेतना की विधि व्यवस्था के अन्तर्गत सम्पन्न हुआ क्रियाकलाप है।
इस सम्पूर्ण विवेचन से यह निष्कर्ष निकलता है कि मनुष्य को यह नहीं समझना चाहिए कि वह इस सृष्टि का सर्वतः स्वतन्त्र सदस्य है और उसे कर्म करने की जो स्वतन्त्रता मिली है, उसके अनुसार वह इस सृष्टि के महानियंता की नियामक व्यवस्था द्वारा निर्धारित दण्ड से भी बच पायेगा। इस विराट ब्रह्माण्ड में पृथ्वी का ही अस्तित्व एक धूलिकण के बराबर नहीं है तो मनुष्य का स्थान कितना बड़ा होगा? फिर भी मनुष्य नाम का यह प्राणी इस पृथ्वी पर कैसे-कैसे प्रपंच फैलाये हुये है यह जानने और उसे उस अन्तिम मार्ग से परिचय कराने हेतु ही इस ”विश्वशास्त्र“ को प्रस्तुत किया गया है। वस्तुतः यथार्थ में ऐसा होना चाहिए कि जीवकोपार्जन हेतु ज्ञान व कर्म मनुष्य-मनुष्य के अनुसार अलग-अलग हो सकते हैं परन्तु जीवन का ज्ञान एक ही होना चाहिए और यदि मानव जाति के नियंतागण ऐसा कर सके तो भविष्य की सुरक्षा हेतु बहुत बड़ी बात होगी। साथ ही ब्रह्माण्ड के अनेक रहस्यों को जानने के लिए मनुष्य के शक्ति का एकीकरण भी कर सकने में हम सफल होगें।

”प्रत्येक व्यक्ति केवल अपने ही विश्व को देखता है, इसलिए उस विश्व की उत्पत्ति उसके बन्धन के साथ होती है और उसकी मुक्ति से वह विश्व मय हो जाता है। तथापि वह औरों के लिए, जो बन्धन में हैं, अवशेष रहता है। नाम और रुप से ही विश्व बना है। समुद्र की तरंग, उस हद तक ही तरंग कहला सकती है, जब तक कि नाम और रुप से वह सीमित है। यदि तरंग लुप्त हो जाये तो वह समुद्र ही है। यह नाम और रुप माया कहलाता है। और पानी ब्रह्म।“  -स्वामी विवेकानन्द





विश्वव्यापी स्थापना का स्पष्ट मार्ग

विश्वव्यापी स्थापना का स्पष्ट मार्ग



मन (मानव संसाधन) के विश्व मानक (WS)-0 श्रृंखला के विश्वव्यापी स्थापना के निम्नलिखित शासनिक प्रक्रिया द्वारा स्पष्ट मार्ग है। 


01. जनता व जन संगठन द्वारा- जनता व जन संगठन द्वारा जनहित के लिए सर्वोच्च न्यायालय में यह याचिका दायर की जा सकती है कि सभी प्रकार के संगठन जैसे-राजनीतिक दल, औद्योगिक समूह, शिक्षण समूह जनता को यह बतायें कि वह किस प्रकार के मन का निर्माण कर रहा है तथा उसका मानक क्या है? 


02. भारत सरकार द्वारा- भारत सरकार इस श्रृंखला को स्थापित करने के लिए संसद में प्रस्ताव प्रस्तुत कर अपने संस्थान भारतीय मानक ब्यूरो (BIS) के माध्यम से समकक्ष श्रृंखला स्थापित कर विश्वव्यापी स्थापना के लिए अन्तर्राष्ट्रीय मानकीकरण संगठन (ISO) के समक्ष प्रस्तुत कर सकता है। साथ ही संयुक्त राष्ट्र संघ (UNO) में भी प्रस्तुत कर संयुक्त राष्ट्र संघ (UNO) के पुर्नगठन व पूर्ण लोकतंत्र की प्राप्ति के लिए मार्ग दिखा सकता है। संयुक्त राष्ट्र संघ (UNO) के सन् 2046 ई0 में 100 वर्ष पूरे होने पर विश्व सरकार के गठन व विश्व संविधान के निर्माण का यही WS-0 श्रृंखला आधार सिद्धान्त है जो भारत अभी ही खोेज चुका है।


03. राजनीतिक दल द्वारा- भारत का कोई एक राष्ट्रीय राजनीतिक दल जिसकी राजनैतिक इच्छाशक्ति हो, वह विश्व राजनीतिक पार्टी संघ (WPPO) का गठन कर प्रत्येक देश से एक राजनीतिक दल को संघ में साथ लेते हुये संयुक्त राष्ट्र संघ पर स्थापना के लिए दबाव बना सकता है।


04. सयुंक्त राष्ट्र संघ (UNO) द्वारा- संयुक्त राष्ट्र संघ सीधे इस मानक श्रृंखला को स्थापना के लिए अपने सदस्य देशों के महासभा के समक्ष प्रस्तुत कर अन्तर्राष्ट्रीय मानकीकरण संगठन (ISO) व विश्व व्यापार संगठन के माध्यम से सभी देशों में स्थापित करने के लिए उसी प्रकार बाध्य कर सकता है, जिस प्रकार ISO-9000 व ISO-14000 श्रृंखला का विश्वव्यापी स्थापना हो रहा है। विश्व व्यापार संगठन के ऊपर मन (मानव संसाधन) के विश्व मानक WS-0 श्रृंखला की स्थापना से भारत दबाव बना सकता है।


05. अन्तर्राष्ट्रीय मानकीकरण संगठन (ISO) द्वारा- अन्तर्राष्ट्रीय मानकीकरण संगठन सीधे इस श्रृंखला को स्थापित कर सभी देशों के लिए संयुक्त राष्ट्र संघ व विश्व व्यापार संगठन के माध्यम से सभी देशों में स्थापित करने के लिए उसी प्रकार बाध्य कर सकता है, जिस प्रकार  ISO-9000 व ISO-14000 श्रृंखला का विश्वव्यापी स्थापना हो रहा है।


मानव एवम् संयुक्त मानव (संगठन, संस्था, ससंद, सरकार इत्यादि) द्वारा उत्पादित उत्पादों को धीरे-धीरे वैश्विक स्तर पर मानकीकरण हो रहा है। ऐसे में संयुक्त राष्ट्र संघ को प्रबन्ध और क्रियाकलाप का वैश्विक स्तर पर मानकीकरण करना चाहिए। जिस प्रकार औद्योगिक क्षेत्र अन्तर्राष्ट्रीय मानकीकरण संगठन (International Standardization Organisation-ISO½ द्वारा संयुक्त मन (उद्योग, संस्थान, उत्पाद इत्यादि) को उत्पाद, संस्था, पर्यावरण की गुणवत्ता के लिए ISO जैसे- ISO-9000, ISO-14000 श्रंृखला इत्यादि प्रदान किये जाते है उसी प्रकार संयुक्त राष्ट्र संघ को नये अभिकरण विश्व मानकीकरण संगठन ¼World Standardization Organisation-WSO½ बनाकर या अन्र्तराष्ट्रीय मानकीकरण संगठन को अपने अधीन लेकर ISO-0/WSO-0  का प्रमाण पत्र योग्य व्यक्ति और संस्था को देना चाहिए जो गुणवत्ता मानक के अनुरूप हों। भारत को यही कार्य भारतीय मानक व्यूरो ¼Bureau of Indiand Standard-BIS½ के द्वारा ISO-0 श्रंृखला द्वारा करना चाहिए। भारत को यह कार्य राष्ट्रीय शिक्षा प्रणाली ¼National Education System-NES½ व विश्व को यह कार्य विश्व शिक्षा प्रणाली ¼World Education System-WES½ द्वारा करना चाहिए।




”विश्वशास्त्र“ से सम्बन्धित स्थान?

”विश्वशास्त्र“ से सम्बन्धित स्थान?

01. रिफाइनरी टाउनशिप अस्पताल, बेगूसराय (बिहार) का जन्म स्थान सोमवार, 16 अक्टुबर 1967 (आश्विन, शुक्ल पक्ष-त्रयोदशी-विजया दशमी से तीसरा दिन, रेवतीनक्षत्र) में हुआ और टाउनशिप के E1-53, E2-53, D2F-76, D2F-45 और साइट कालोनी के.D-58, C-45 में रहें।

02. नई बस्ती बघेड़ा, संतरविदास मन्दिर (मीरजापुर, उ0प्र0) के दक्षिण पैतृक भूमि का स्थान जहाँ दृश्यकाल के ”शब्दब्रह्म“ की प्राप्ति 1992 में हुई।

03. C-45 साइट कालोनी, रिफाइनरी, बेगूसराय (बिहार) और चित्रगुप्त नगर, खगड़िया (बिहार), का स्थान जहाँ शास्त्र का आरेख प्रारूप सन् 1994 से 1996 में तैयार किया गया। 

04. श्री सिया श्रीराम सिंह पुत्र स्व0 श्रीराममन्दिल सिंह ”नारदजी“ का मकान ”सर्वजीत साधना भवन“ मुर्धवा, रेनुकूट (सोनभद्र, उ0प्र0) स्थित जहाँ शास्त्र के मूल सूत्र सन् 1998 से 2001 में लिखे गये।

05. निवास स्थान नियामतपुर कलाँ, मीरजापुर, उ0प्र0 (काशी हिन्दू विश्वविद्यालय-बी.एच.यू, वाराणसी के दक्षिण गंगा उस पार), जहाँ शास्त्र को सन् 2010 से अन्तिम रूप देने का कार्य हुआ और मथुरा में पूर्ण किया गया। बीच-बीच में चित्रकूट, वैष्णों देवी, धर्मशाला (हि.प्र), वाराणसी इत्यादि स्थानों पर शास्त्र रचना का कार्य हुआ।

06. शास्त्राकार के कारण सत्यकाशी क्षेत्र अन्तर्गत चुनार क्षेत्र के शेरपुर, बकियाबाद, धनैता मझरा, पचेवरा, फिरोजपुर, केशवपुर, भगीरथपुर, कोलना, घासीपुर बसाढ़ी, जौगढ़, श्रीरामरायपुर, जलालपुर माॅफी, गांगपुर, श्रीरामजीपुर, बघेड़ा इत्यादि गाँव भी जाने जायेंगे।

07. माधव विद्या मन्दिर इण्टरमीडिएट कालेज, पुरूषोत्तमपुर, मीरजापुर, उ0प्र0 (दसवीं-1981, 13 वर्ष 6 माह में), प्रभु नारायण राजकीय इण्टर कालेज, श्रीरामनगर, वाराणसी, उ0प्र0 (बारहवीं-1983, 15 वर्ष 6 माह में) और हरिश्चन्द्र महाविद्यालय, वाराणसी, उ0प्र0 (बी.एससी.ं,सन्-1985, 17 वर्ष 6 माह में) के कालेज।

08. इण्डिया एजूकेशन सेन्टर, एम-92, कनाॅट प्लेस, नई दिल्ली, जहाँ से 1988 (19 वर्ष 6 माह में) में कम्प्यूटर प्रोग्रामिंग और सिस्टम एनालिसिस में पोस्ट ग्रेजूएट डिप्लोमा का कोर्स पूर्ण किये।