Monday, March 23, 2020

विश्वमानव और श्री गिरधर मालवीय (14 नवम्बर 1936 - )

श्री गिरधर मालवीय (14 नवम्बर 1936 - )

परिचय -
श्री गिरिधर मालवीय का जन्म इलाहाबाद में 14 नवम्बर 1936 को हुआ था। आप काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के संस्थापक महामना पं. मदन मोहन मालवीय के पौत्र है। आपकी प्राथमिक शिक्षा केन्द्रीय विद्यालय, बी.एच.यू. एवं बेसेंन्ट थियोसोफिकल स्कूल से तथा उच्च शिक्षा एम.ए. (राजनीतिक विज्ञान) और एल.एल.बी काशी हिन्दू विश्व विद्याालय से पूर्ण हुई। आपका शौक यात्रा, सांस्कृतिक और आध्यात्मिक गतिविधियों में रहा है। आप इलाहाबाद उच्च न्यायालय से सेवानिवृत्त न्यायाधीश हैं।

”वैदिक काल से भारत के ज्ञान-विज्ञान एवं सत्य-अहिंसा के सिद्धान्तों का पूरा विश्व लोहा मानता आ रहा है। वर्तमान में उच्च कोटि के डाॅक्टर, इंजिनियर और सूचना विज्ञान के विशेषज्ञ पूरे विश्व में अपनी प्रतिभा के दम पर छाये हुये हैं। आर्थिक महाशक्ति के रूप में भारत की पहचान बन रही है। इन्हीं खूबियों के बूते भारत और सनातन धर्म फिर से विश्व गुरू की पदवी हासिल करेगा।“ (गाँधी विद्या संस्थान, वाराणसी में)
-गिरधर मालवीय 
साभार - दैनिक जागरण, वाराणसी, दि0 26 दिसम्बर, 2010

श्री लव कुश सिंह ”विश्वमानव“ द्वारा स्पष्टीकरण 
निश्चित रूप से वर्तमान में उच्च कोटि के डाॅक्टर, इंजिनियर और सूचना विज्ञान के विशेषज्ञ पूरे विश्व में अपनी प्रतिभा के दम पर छाये हुये हैं। आर्थिक महाशक्ति के रूप में भारत की पहचान बन रही है। अब इन खूबियों को वैश्विक मानव के रूप में स्थापित करने का वक्त आ गया है जिससे भारत और सनातन धर्म फिर से विश्व गुरू की पदवी हासिल कर सके। 
कर्म के शारीरिक, आर्थिक व मानसिक क्षेत्र में ”विश्वशास्त्र“ मानसिक कर्म का यह सर्वोच्च और अन्तिम कृति है। भविष्य में यह विश्व-राष्ट्र शास्त्र साहित्य और एक विश्व-राष्ट्र-ईश्वर का स्थान ग्रहण कर ले तो कोई आश्चर्य की बात नहीं होगी। इस ”विश्वशास्त्र“ की भाषा शैली मस्तिष्क को व्यापक करते हुये क्रियात्मक और व्यक्ति सहित विश्व के धारण करने योग्य ही नहीं बल्कि हम उसमें ही जीवन जी रहें हैं ऐसा अनुभव कराने वाली है। न कि मात्र भूतकाल व वर्तमान का स्पष्टीकरण व व्याख्या कर केवल पुस्तक लिख देने की खुजलाहट दूर करने वाली है। वर्तमान और भविष्य के एकीकृत विश्व के स्थापना स्तर तक के लिए कार्य योजना का इसमें स्पष्ट झलक है। ”विश्वशास्त्र“ मानने वाली बात पर कम बल्कि जानने और ऐसी सम्भावनाओं पर अधिक केन्द्रित है जो सम्भव है और बोधगम्य है। शास्त्र द्वारा शब्दों की रक्षा और उसका बखूबी से प्रयोग बेमिसाल है। ज्ञान को विज्ञान की शैली में प्रस्तुत करने की विशेष शैली प्रयुक्त है। मन पर कार्य करते हुये, इतने अधिक मनस्तरों को यह स्पर्श करता है जिसको निर्धारित कर पाना असम्भव है। और जीवनदायिनी शास्त्र के रूप में योग्य है।
”विश्वशास्त्र“ इस स्थिति तक योग्यता रखता है कि वैश्विक सामाजिक-सांस्कृतिक-साहित्यिक एकीकरण सहित विश्व एकता-शान्ति-स्थिरता-विकास के लिए जो भी कार्य योजना हो उसे देश व संयुक्त राष्ट्र संघ अपने शासकीय कानून के अनुसार आसानी से प्राप्त कर सकता है। और ऐसे आविष्कारकर्ता को इन सबसे सम्बन्धित विभिन्न पुरस्कारों, सम्मानों व उपाधियों से बिना विलम्ब किये सुशोभित किया जाना चाहिए। यदि यथार्थ रूप से देखा जाये तो विश्व का सर्वोच्च पुरस्कार-नोबेल पुरस्कार के शान्ति व साहित्य क्षेत्र के पूर्ण रूप से यह योग्य है। साथ ही भारत देश के भारत रत्न से किसी भी मायने में कम नहीं है।


विश्वमानव और श्री कौफी अन्नान (8 अप्रैल, 1938 - )

श्री कौफी अन्नान (8 अप्रैल, 1938 - )

परिचय -
कोफी अन्नान, एक घाना निवासी राजनयिक जो 7वें संयुक्त राष्ट्र संघ के महासचिव के रूप में 1 जनवरी 1997 से 31 दिसम्बर 2006 तक सेवा किये हैं। अन्नान और संयुक्त राष्ट्र संघ को 2001 में संयुक्त रूप से शान्ति का नोबेल पुरस्कार प्रदान किया गया था। यह पुरस्कार उन्हें ग्लोबल एड्स और मानव स्वास्थ्य के लिए फण्ड बनाने के कार्य के लिए दिया गया था।
कोफी अन्नान का जन्म 8 अप्रैल, 1938 को कुमासी, गोल्ड कोस्ट, घाना के ईसाई धर्म में पैदा हुये थे। वे एक बहन के साथ जुड़वा पैदा हुये थे। घानानियन परम्परा में बच्चों के नाम जिस दिन वे पैदा होते है, के अनुसार रखे जाते हैं। कोफी का नाम शुक्रवार से सम्बन्ध रखता है। 1870 के दशक में स्थापित म्फैन्ट्सीपीम मेथोडिस्ट बोर्डिंग स्कूल, केप कोस्ट में 1954 से 1957 में शिक्षा ग्रहण किये। 1957 में उन्होंने इस स्कूल से स्नातक की उपाधि प्राप्त की। 1958 में घाना ने ब्रिटेन से स्वतन्त्रता प्राप्त की। अन्नान ने कुमासी कालेज से अर्थशास्त्र का अध्ययन किया। उन्होंने 1961 में फोर्ड फाउण्डेशन का अनुदान प्राप्त कर सेंट पाल, मिनेसोटा, संयुक्त राज्य अमेरिका के मैनक्लेस्टर कालेज में प्रवेश लिया। सन् 1961-62 में वे अन्तर्राष्ट्रीय और विकास अध्ययन संस्थान, जिनेवा, स्विटजरलैण्ड से अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्ध में डिग्री प्राप्त की। कुछ समय कार्य अनुभव के पश्चात् वे स्लोअन फैलो प्रोगा्रम द्वारा एम.आई.टी. प्रबन्धन स्कूल, स्लोअन से मास्टर आॅफ साइंस की डिग्री प्राप्त की। अन्नान धारा प्रवाह अंग्रेजी, फ्रेंच, क्रु और अन्य अफ्रीकी भाषा बोलते हैं। 
संयुक्त राष्ट्र संघ के महासचिव पद पर नियुक्त होने के पूर्व वे घाना और संयुक्त राष्ट्र के अनेक महत्वपूर्ण पदों पर कार्य कर चुके हैं। अन्नान अनेक अन्तर्राष्ट्रीय पुरस्करों से सम्मानित हो चुके हैं।

‘भारत, संयुक्त राष्ट्र संघ के पुनर्गठन में अपना योगदान दें।
- कौफी अन्नान, मार्च ‘97 में 

श्री लव कुश सिंह ”विश्वमानव“ द्वारा स्पष्टीकरण  
”भारत, संयुक्त राष्ट्र संघ के पुर्नगठन और उसके उद्देश्य की प्राप्ति के लिए अन्तिम रूप से यह सलाह देता है कि विश्व-राष्ट्रीय-जन ऐजेण्डा-साहित्य-2012$ को विश्व ऐजेण्डा-2012$ के रूप में मान्यता दिलाने के लिए सदस्य देशों के समक्ष प्रस्तुत करें तथा पूर्ण सहमति के लिए प्रयत्न करें। अन्तर्राष्ट्रीय मानकीकरण संगठन (आई0 एस0 ओ0) को विश्व मानकीकरण संगठन (डब्ल्यू0 एस0 ओ0) के रूप में परिवर्तित कर अपने एक अभिकरण के रूप में स्वीकार करें जिस प्रकार विश्व व्यापार संगठन, यूनीसेफ, यूनेस्को, इत्यादि अभिकरण हैं। विश्वमानक शून्य श्रृखंला को डब्ल्यू. एस. ओ. शून्य श्रृंखला के रूप में स्थापना के लिए प्रत्येक देशो के लिए अनिवार्य करें। विश्व स्तर का मानव संसाधन निर्माण के लिए विश्व शिक्षा-प्रणाली बनाकर सभी देशों के लिए अनिवार्य करें। ये सभी रास्ते वैधानिक और लोकतान्त्रिक मार्ग से है तथा विश्व शान्ति, एकता स्थिरता, विकास और सुरक्षा के लिए अन्तिम मार्ग है। सम्पूर्ण मानव समाज अपने अस्तित्व के अन्तिम क्षणों तक चाहे क्यों न प्रयत्न कर ले, विश्वमानक - शून्य श्रृंखलाः मन की गुणवत्ता का विश्वमानक का विश्वव्यापी स्थापना ही विश्व शान्ति, एकता, स्थिरता, विकास और रक्षा का प्रथम एवम् अन्तिम मार्ग है। जिसे प्रस्तुत करना भारत का दायित्व तथा विश्वव्यापी स्थापना संयुक्त राष्ट्र संघ का कत्र्तव्य है। तभी भारत तथा संयुक्त राष्ट्र संघ अपने अपने उद्देश्यों को प्राप्त कर सकता है। जिसके लिए एक अधुरा है तो दूसरा भूखा है। जिसके सम्बन्ध में ही आपको तथा भारत में स्थित दूतावास के द्वारा सभी देशों को दिनांक 12-06-2000 को पत्र प्रेषित किया गया था।“
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”.......... लेकिन भूमण्डलीय क्रिया का प्रारम्भ कहीं निर्मित हो चुका है और यदि संयुक्त राष्ट्र संघ में नहीं तो कहाँ? ......... मैं जानता हूँ स्वयं की एक घोषणा कम महत्व रखती है। परन्तु दृढ़ प्रतिज्ञा युक्त एक घोषणा और यथार्थ लक्ष्य, सभी राष्ट्रों के नेताओं द्वारा निश्चित रुप से स्वीकारने योग्य, अपने सत्ताधारी की कुशलता का निर्णय के लिए एक पैमाने के रुप में विश्व के व्यक्तियों के लिए अति महत्व का हो सकता है। ........... और मैं आशा करता हूँ कि यह कैसे हुआ? देखने के लिए सम्पूर्ण विश्व पीछे होगा।“-श्री कोफी अन्नान 
(लव कुश सिंह ”विश्वमानव“ द्वारा 6 जून, 2000 को पंजीकृत डाक द्वारा श्री कोफी अन्नान को प्रेषित पत्र पर प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए 5-7 सितम्बर, 2000 को आयोजित विश्व शान्ति सहस्त्राब्दि सम्मेलन, न्यूयार्क के वक्तव्य का अंश, जो ”द टाइम्स आफ इण्डिया“, नई दिल्ली, 7 सितम्बर’ 2000 को प्रकाशित हुआ था।)

लव कुश सिंह ”विश्वमानव“ द्वारा स्पष्टीकरण
प्रकाशित खुशमय तीसरी सहस्त्राब्दि के साथ यह एक सर्वोच्च समाचार है कि नयी सहस्त्राब्दि केवल बीते सहस्त्राब्दियों की तरह एक सहस्त्राब्दि नहीं है। यह प्रकाशित और विश्व के लिए नये अध्याय के प्रारम्भ का सहस्त्राब्र्दि है। केवल वक्तव्यों द्वारा लक्ष्य निर्धारण का नहीं बल्कि स्वर्गीकरण के लिए असिमीत भूमण्डलीय मनुष्य और सर्वोच्च अभिभावक संयुक्त राष्ट्र संघ सहित सभी स्तर के अभिभावक के कर्तव्य के साथ कार्य योजना पर आधारित। क्योंकि दूसरी सहस्त्राब्दि के अन्त तक विश्व की आवश्यकता, जो किसी के द्वारा प्रतिनिधित्व नहीं हुई उसे विवादमुक्त और सफलतापूर्वक प्रस्तुत किया जा चुका है। जबकि विभिन्न विषयों जैसे- विज्ञान, धर्म, आध्यात्म, समाज, राज्य, राजनिति, अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्ध, परिवार, व्यक्ति, विभिन्न संगठनों के क्रियाकलाप, प्राकृतिक, ब्रह्माण्डीय, देश, संयुक्त राष्ट्र संघ इत्यादि की स्थिति और परिणाम सार्वजनिक प्रमाणित दृश्य रुप में थे।
विज्ञान के सर्वोच्च आविष्कार के आधार पर अब यह विवाद मुक्त हो चुका है कि मन केवल व्यक्ति, समाज, और राज्य को ही नहीं प्रभावित करता बल्कि यह प्रकृति और ब्रह्माण्ड को भी प्रभावित करता है। केन्द्रीयकृत और ध्यानीकृत मन विभिन्न शारीरिक सामाजिक और राज्य के असमान्यताओं के उपचार का अन्तिम मार्ग है। स्थायी स्थिरता, विकास, शान्ति, एकता, समर्पण और सुरक्षा के लिए प्रत्येक राज्य के शासन प्रणाली के लिए आवश्यक है कि राज्य अपने उद्देश्य के लिए नागरिकों का निर्माण करें। और यह निर्धारित हो चुका है कि क्रमबद्ध स्वस्थ मानव पीढ़ी के लिए विश्व की सुरक्षा आवश्यक है। इसलिए विश्व मानव के निर्माण की आवश्यकता है, लेकिन ऐसा नहीं है और विभिन्न अनियन्त्रित समस्या जैसे- जनसंख्या, रोग, प्रदूषण, आतंकवाद, भ्रष्टाचार, विकेन्द्रीकृत मानव शक्ति एवं कर्म इत्यादि लगातार बढ़ रहे है। जबकि अन्तरिक्ष और ब्रह्माण्ड के क्षेत्र में मानव का व्यापक विकास अभी शेष है। दूसरी तरफ लाभकारी भूमण्डलीकरण विशेषीकृत मन के निर्माण के कारण विरोध और नासमझी से संघर्ष कर रहा है। और यह असम्भव है कि विभिन्न विषयों के प्रति जागरण समस्याओं का हल उपलब्ध करायेगा।
मानक के विकास के इतिहास में उत्पादों के मानकीकरण के बाद वर्तमान में मानव, प्रक्रिया और पर्यावरण का मानकीकरण तथा स्थापना आई0 एस0 ओ0-9000 एवं आई0 एस0 ओ0-14000 श्रृंखला के द्वारा मानकीकरण के क्षेत्र में बढ़ रहा है। लेकिन इस बढ़ते हुए श्रृंखला में मनुष्य की आवश्यकता (जो मानव और मानवता के लिए आवश्यक है) का आधार ‘‘मानव संसाधन का मानकीकरण’’ है क्योंकि मनुष्य सभी (जीव और नीर्जीव) निर्माण और उसका नियन्त्रण कर्ता है। मानव संसाधन के मानकीकरण के बाद सभी विषय आसानी से लक्ष्य अर्थात् विश्व स्तरीय गुणवत्ता की ओर बढ़ जायेगी क्यांेकि मानव संसाधन के मानक में सभी तन्त्रों के मूल सिद्धान्त का समावेश होगा।
 वर्तमान समय में शब्द -‘‘निर्माण’’ भूमण्डलीय रुप से परिचित हो चुका है इसलिए हमें अपना लक्ष्य मनुष्य के निर्माण के लिए निर्धारित करना चाहिए। और दूसरी तरफ विवादमुक्त, दृश्य, प्रकाशित तथा वर्तमान सरकारी प्रक्रिया के अनुसार मानक प्रक्रिया उपलब्ध है। जैसा कि हम सभी जानते हैं कि मानक हमेशा सत्य का सार्वजनिक प्रमाणित विषय होता है न कि विचारों का व्यक्तिगत प्रमाणित विषय। अर्थात् प्रस्तुत मानक विभिन्न विषयों जैसे- आध्यात्म, विज्ञान, तकनीकी, समाजिक, नीतिक, सैद्धान्तिक, राजनीतिक इत्यादि के व्यापक समर्थन के साथ होगा। ‘‘उपयोग के लिए तैयार’’ तथा ‘‘प्रक्रिया के लिए तैयार’’ के आधार पर प्रस्तुत मानव के विश्व स्तरीय निर्माण विधि को प्राप्त करने के लिए मानव निर्माण तकनीकी WCM-TLM-SHYAM.C (World Class Manufactuing–Total Life Maintenance- Satya, Heart, Yoga, Ashram, Meditation.Conceousness) प्रणाली आविष्कृत है जिसमें सम्पूर्ण तन्त्र सहंभागिता (Total System Involvement-TSI) है औरं विश्वमानक शून्य: मन की गुणवत्ता का विश्वमानक श्रृंखला (WS-0 : World Standard of Mind Series) समाहित है। जो और कुछ नहीं, यह विश्व मानव निर्माण प्रक्रिया की तकनीकी और मानव संसाधन की गुणवत्ता का विश्व मानक है। जैसे- औद्योगिक क्षेत्र में इन्स्टीच्यूट आॅफ प्लान्ट मेन्टीनेन्स, जापान द्वारा उत्पादों के विश्वस्तरीय निर्माण विधि को प्राप्त करने के लिए उत्पाद निर्माण तकनीकी डब्ल्यू0 सी0 एम0-टी0 पी0 एम0-5 एस(WCM-TPM-5S (World Class Manufacturing-Total Productive Maintenance-Siri (छँटाई), Seton (सुव्यवस्थित), Sesso (स्वच्छता), Siketsu (अच्छास्तर), Shituke (अनुशासन) प्रणाली संचालित है। जिसमें सम्पूर्ण कर्मचारी सहभागिता (Total Employees Involvement) है। का प्रयोग उद्योगों में विश्व स्तरीय निर्माण प्रक्रिया के लिए होता है। और आई.एस.ओ.-9000 (ISO-9000) तथा आई.एस.ओ.-14000 (ISO-14000) है।
युग के अनुसार सत्यीकरण का मार्ग उपलब्ध कराना ईश्वर का कर्तव्य है आश्रितों पर सत्यीकरण का मार्ग प्रभावित करना अभिभावक का कर्तव्य हैै। और सत्यीकरण के मार्ग के अनुसार जीना आश्रितों का कर्तव्य है जैसा कि हम सभी जानते है कि अभिभावक, आश्रितों के समझने और समर्थन की प्रतिक्षा नहीं करते। अभिभावक यदि किसी विषय को आवश्यक समझते हैं तब केवल शक्ति और शीघ्रता से प्रभावी बनाना अन्तिम मार्ग होता है। विश्व के बच्चों के लिए यह अधिकार है कि पूर्ण ज्ञान के द्वारा पूर्ण मानव अर्थात् विश्वमानव के रुप में बनना। हम सभी विश्व के नागरिक सभी स्तर के अभिभावक जैसे- महासचिव संयुक्त राष्ट्र संघ, राष्ट्रों के राष्ट्रपति- प्रधानमंत्री, धर्म, समाज, राजनीति, उद्योग, शिक्षा, प्रबन्ध, पत्रकारिता इत्यादि द्वारा अन्य समानान्तर आवश्यक लक्ष्य के साथ इसे जीवन का मुख्य और मूल लक्ष्य निर्धारित कर प्रभावी बनाने की आशा करते हैं। क्योंकि लक्ष्य निर्धारण वक्तव्य का सूर्य नये सहस्त्राब्दि के साथ डूब चुका है। और कार्य योजना का सूर्य उग चुका है। इसलिए धरती को स्वर्ग बनाने का अन्तिम मार्ग सिर्फ कर्तव्य है। और रहने वाले सिर्फ सत्य-सिद्धान्त से युक्त संयुक्तमन आधारित मानव है, न कि संयुक्तमन या व्यक्तिगतमन के युक्तमानव।
दो या दो से अधिक माध्यमों से उत्पादित एक ही उत्पाद के गुणता के मापांकन के लिए मानक ही एक मात्र उपाय है। सतत् विकास के क्रम में मानकों का निर्धारण अति आवश्यक कार्य है। उत्पादों के मानक के अलावा सबसे जरुरी यह है कि मानव संसाधन की गुणता का मानक निर्धारित हो क्योंकि राष्ट्र के आधुनिकीकरण के लिए प्रत्येक व्यक्ति के मन को भी आधुनिक अर्थात् वैश्विक-ब्रह्माण्डीय करना पड़ेगा। तभी मनुष्यता के पूर्ण उपयोग के साथ मनुष्य द्वारा मनुष्य के सही उपयोग का मार्ग प्रशस्त होगा। उत्कृष्ट उत्पादों के लक्ष्य के साथ हमारा लक्ष्य उत्कृष्ट मनुष्य के उत्पादन से भी होना चाहिए जिससे हम लगातार विकास के विरुद्ध नकारात्मक मनुष्योें की संख्या कम कर सकें। भूमण्डलीकरण सिर्फ आर्थिक क्षेत्र में कर देने से समस्या हल नहीं होती क्योंकि यदि मनुष्य के मन का भूमण्डलीकरण हम नहीं करते तो इसके लाभों को हम नहीं समझ सकते। आर्थिक संसाधनों में सबसे बड़ा संसाधन मनुष्य ही है। मनुष्य का भूमण्डलीकरण तभी हो सकता है जब मन के विश्वमानक का निर्धारण हो। ऐसा होने पर हम सभी को मनुष्यों की गुणता के मापांकन का पैमाना प्राप्त कर लेगें, साथ ही स्वयं व्यक्ति भी अपना मापांकन भी कर सकेगा। जो विश्व मानव समाज के लिए सर्वाधिक महत्व का विषय होगा। विश्वमानक शून्य श्रृंखला मन का विश्व मानक है जिसका निर्धारण व प्रकाशन हो चुका है जो यह निश्चित करता है कि समाज इस स्तर का हो चुका है या इस स्तर का होना चाहिए। यदि यह सार्वभौम सत्य-सिद्धान्त आधारित होगा तो निश्चित ही अन्तिम मानक होगा।


विश्वमानव और श्रीमती शीला दीक्षित (31 मार्च, 1938 - )

श्रीमती शीला दीक्षित (31 मार्च, 1938 - )

परिचय -
श्रीमती शीला दीक्षित का जन्म 31 मार्च, 1938 को हुआ था। इन्होंने अपनी शिक्षा दिल्ली के कान्वेंट आॅफ जीसस एण्ड मैरी स्कूल से ली। बाद में स्नातक और कला स्नातकोत्तर की शिक्षा मिराण्डा हाउस कालेज से ली। इनका विवाह प्रसिद्ध स्वतन्त्रता सेनानी तथा पूर्व राज्यपाल व केन्द्रीय मन्त्रिमण्डल में रहे, श्री उमा शंकर दीक्षित के परिवार में हुआ। इनके पति स्व0 श्री विनोद दीक्षित भारतीय प्रशासनिक सेवा के सदस्य थे। इनकी दो सन्ताने- एक पुत्र व एक पुत्री हैं। इन्हें राजनीति में प्रशासन व संसदीय कार्यो का अच्छा अनुभव है। इन्होंने केन्द्रीय सरकार में 1986 से 1989 तक मंत्री पद भी ग्रहण किया था। पहले ये, संसदीय कार्यो की राज्य मंत्री रही, तथा बाद में, प्रधानमंत्री कार्यालय में राज्य मंत्री रहीं। 1984-1989 में इन्होंने कन्नौज, उत्तर प्रदेश लोकसभा का प्रतिनिधित्व किया था। संसद सदस्य के कार्यकाल में, इन्होंने लोकसभा की एस्टीमेट समिति के साथ कार्य किया। इन्होंने भारतीय स्वतन्त्रता की 40वीं वर्षगाँठ की कार्यान्वयन समिति की अध्यक्षता भी की थी। दिल्ली प्रदेश कांग्रेस समिति की अध्यक्ष के पद पर 1998 में कांग्रेस को दिल्ली में अभूतपूर्व विजय दिलायीं। इन्होंने महिला उत्थान के लिए अथक प्रयास किये हैं। इनका महिलाओं को समाज में बराबरी का स्तर दिलाने के अभियानों में अच्छा नेतृत्व रहा है। इन्होंने संयुक्त राष्ट्र संघ की महिला स्तर समिति में भारत का प्रतिनिधित्व भी पाँच वर्षो 1984-1989 तक किया। इन्होंने उत्तर प्रदेश में अपने 82 साथियों के साथ अगस्त 1990 में 23 दिनों की जेल यात्रा की थी, जब वे महिलाओं पर समाज के अत्याचारों के विरोध में उठ खड़ी हुईं थी व प्रदर्शन किये थे। इससे भड़के हुए लाखों राज्य के नागरिक इस अभियान से जुड़े व जेलें भरीं। 1970 में वे यंग विमन्स एशोसिएसन की अध्यक्षा भी रहीं, जिसके दौरान, इन्हीेंने दिल्ली में दो बड़े महिला छात्रावास खुलवाये। आप इन्दिरा गाँधी ट्रस्ट की सचिव भी हैं। यही ट्रस्ट अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर शान्ति, निशस्त्रीकरण एवं विकास के लिए इन्दिरा गाँधी पुरस्कार देता है व विश्वव्यापी विषयों पर सम्मेलन आयोजित करता है। इनके संरक्षण में ही इस ट्रस्ट ने एक पर्यावरण केन्द्र भी खोला है। श्रीमती शीला दीक्षित, हस्तकला व ग्रामीण कलाकारों व कारीगरों के उत्थान में विशेष रूचि लेतीं है। ग्रामीण रंगशाला च नाट्यशालाओं का विकास, इनका विशेष कार्य रहा है। 1978 से 1984 के बीच, कपड़ा निर्यातक संघ के कार्यपालक सचिव पद पर, इन्होंने तैयार कपड़ा निर्यात को एक ऊँचे स्तर पर पहुँचाया है। ये धर्म-निरपेक्षता पर सदा अडिग रहीं हैं। सदा ही साम्प्रदायिक ताकतों का प्रत्येक स्तर से विरोध किया है। इनका मानना है कि भारत में यदि जनतन्त्र को जीवित रखना है तो सही व्यवहार व सत्यता के मानदण्डों का पालन करना जीवन का एक अभिन्न अंग होना चाहिए। श्रीमती शीला दीक्षित, भारत के राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली राज्य की मुख्यमंत्री हैं। इनको 17 दिसम्बर, 2008 में लगातार तीसरी बार दिल्ली विधान सभा के लिए चुना गया था। यह दिल्ली की दूसरी महिला मुख्यमंत्री है।

”विश्व का कोई भी धर्म तभी आगे बढ़ता है जब वह अपने आप में नवीनता लाता है। सनातन धर्म नया बातों को अपने आप में पचाने की क्षमता रखता है“
-श्रीमती शीला दीक्षित 
साभार - सन्मार्ग, वाराणसी, दि0 11 अगस्त 2002

श्री लव कुश सिंह ”विश्वमानव“ द्वारा स्पष्टीकरण 
कोई भी उत्पाद तभी तक बाजार में टिका रह सकता है और लोगों द्वारा उपयोग में लाया जाता रह सकता है जब उसमें सदैव अच्छा जोड़ने का उसके निर्माता द्वारा प्रयत्न किया जाता रहे। यह जितना किसी उत्पाद जैसे कार, बाइक, मोबाइल, साइकिल, कम्प्यूटर इत्यादि के सम्बन्ध में सत्य है ठीक उतना ही धर्म के सम्बन्ध में भी है। सनातन धर्म सार्वभौम सत्य-सिद्धान्त पर आधारित है। इसकी अनुभूति करते हुये सदैव इसमें नवीनता लाने का प्रयत्न किया जाता रहा है। इसलिए यह अन्तिम रूप में ”विश्वधर्म“ के रूप में व्यक्त हुआ है। जो धर्म या निर्माता अपने धर्म या उत्पाद में नवीनता नहीं लाता वह इतिहास बन जाता है या म्यूजियम में रखा जाने वाली वस्तु बन जाती है। 
वर्तमान समय में धर्म में फिर नवीनता आ गई है जिसके सम्बन्ध में स्वामी विवेकानन्द जी ने कहा था -
मेरी नीति है- प्राचीन आचार्यों के उपदेशों का अनुसरण करना। मैंने उनके कार्य का अध्ययन किया है, और जिस प्रणाली से उन्होंने कार्य किया, उसके आविष्कार करने का मुझे सौभाग्य मिला। वे सब महान समाज संस्थापक थे। बल पवित्रता और जीवन शक्ति के वे अद्भुत आधार थे। उन्होंने सब से अद्भुत कार्य किया-समाज में बल, पवित्रता और जीवन शक्ति संचारित की। हमें भी सबसे अद्भुत कार्य करना है। आज अवस्था कुछ बदल गयी है, इसलिए कार्य-प्रणाली में कुछ थोड़ा-सा परिवर्तन करना होगा; बस इतना ही, इससे अधिक कुछ नहीं। (मेरी समर नीति-पृ0-27) - स्वामी विवेकानन्द
हमें देखना है कि किस प्रकार यह वेदान्त हमारे दैनिक जीवन में, नागरिक जीवन में, ग्राम्य जीवन में, राष्ट्रीय जीवन में और प्रत्येक राष्ट्र के घरेलू जीवन में परिणत किया जा सकता है। कारण, यदि धर्म मनुष्य को जहाॅ भी और जिस स्थिति में भी है, सहायता नहीं दे सकता, तो उसकी उपयोगिता अधिक नहीं - तब वह केवल कुछ विशिष्ट व्यक्तियों के लिए कोरा सिद्धान्त हो कर रह जायेगा। (व्यावहारीक जीवन में वेदान्त, पृष्ठ-11) - स्वामी विवेकानन्द
सभी कालों में प्राचीन रितियों को नये ढंग में परिवर्तित करने से ही उन्नति हुई है। भारत में प्रचीन युग में भी धर्म प्रचारकों ने इसी प्रकार काम किया था। केवल बुद्ध देव के धर्म ने ही प्राचीन रिति और नीतियों का विध्वंस किया था भारत से उसके निर्मूल हो जाने का यहीं कारण है। (संग में, पृष्ठ-19)
  - स्वामी विवेकानन्द
यह सनातन धर्म का देश है। देश गिर अवश्य गया है, परन्तु निश्चय फिर उठेगा। और ऐसा उठेगा कि दुनिया देखकर दंग रह जायेगी। (विवेकानन्दजी के संग में, पृष्ठ-159) 

विश्वमानव और श्री अन्ना हजारे (15 जनवरी, 1940 - )

श्री अन्ना हजारे (15 जनवरी, 1940 - )

परिचय -
किसन बाबूराव हजारे, भारत के प्रसिद्ध गांधीवादी समाजिक कार्यकर्ता हैं। अधिकांश लोग उन्हें ”अण्णा हजारे“ के नाम से जानते हैं। अन्ना हजारे को 1990 में सरकार ने ”पद्य्मश्री“ सम्मान से नवाजा था। सन् 1992 में उन्हें ”पद्य्मभूषण“ से सम्मानित किया गया था। सूचना के अधिकार के लिए कार्य करने वाले में वे प्रमुख थें। साफ-सुथरी छवि वाले हजारे भ्रष्टाचार के विरूद्ध संघर्ष करने के लिए प्रसिद्ध हैं। जन लोकपाल विधेयक पारित कराने के लिए उन्होंने आमरण अनशन आरम्भ किया जिसे अपार समर्थन मिला। जिससे घबराकर सरकार को उनकी मांगे मानने को विवश हुई।
15 जनवरी, 1940 को महाराष्ट्र के अहमद नगर के भिंगर कस्बे में जन्में अन्ना का बचपन बहुत गरीबी में गुजरा। पिता मजदूर थे। दादा फौज में थे। दादा की पोस्टिंग भिंगनगर मे थी। अन्ना के पुरखों का गांव अहमद नगर जिले में ही स्थित रालेगन सिद्धि में था। दादा की मौत के 7 वर्ष बाद अन्ना का परिवार रालेगन आ गया। अन्ना के 6 भाई हैं। परिवार में तंगी का आलम देखकर अन्ना की बुआ उन्हें मुम्बई ले गईं। वहां उन्होंने 7वीं तक पढ़ाई की। परिवार पर कष्टों का बोझ देखकर वह दादर स्टेशन के बाहर फूल बेचनेवाले की दुकान में 40 रूपये की पगार में काम करने लगे। इसके बाद उन्होंने फूलों की अपनी दुकान खोल ली और अपने दो भाइयों को भी रालेगन से बुला लिया।
छठें दशक के आसपास वह फौज में शामिल हो गये। उनकी पहली पोस्टिंग बतौर ड्राइवर पंजाब में हुई। यहीं पाकिस्तानी हमले में वह मौत को धता बताकर बचे थे। इसी दौरान नई दिल्ली रेलवे स्टेशन से उन्होंने विवेकानन्द की एक बुकलेट ”काॅल टु दि युथ फाॅर नेशन“ खरीदी और उसको पढ़ने के बाद उन्होंने अपनी जिन्दगी समाज को समर्पित कर दी। उन्होंने गाँधी और विनोबा को भी पढ़ा। 1970 में उन्होंने आजीवन अविवाहित रहने का संकल्प किया। मुम्बई पोस्टिंग के दौरान वह अपने गांव रालेगन आते-जाते रहे। चट्टान पर बैठकर गांव को सुधारने की बात सोचते रहते।
जम्मू पोस्टिंग के दौरान 15 वर्ष फौज में पूरे होने पर 1975 में उन्होंने स्वेच्छा से सेवा निवृति लेकर गांव में आकर डट गये। उन्होंने शराब में डूबे अपने पथरीले गांव रालेगन सिद्धि को दुनिया के समाने एक माॅडल बनाकर पेश किया। रामराज के दर्शन करने हैं तो उसे देखा जा सकता है। पहले इस गांव में बिजली और पानी की जबरदस्त किल्लत थी। हजारे ने गांव वालों को नहर बनाने और गड्ढे खेदकर बारिश का पानी इकट्ठा करने के लिए प्रेरित किया। उनके कहने पर गांव में जगह-जगह पेड़ लगाये गये। गांव में सौर ऊर्जा और गोबर गैस के जरिये बिजली की सप्लाई भी मिली। उन्होंने गांव की तस्वीर ही बदल दी। उन्होंने अपनी जमीन बच्चों के हाॅस्टल के लिए दान कर दी। आज उनकी पंेशन का सारा पैसा गांव के विकास में खर्च होता है। वह गांव के मन्दिर में रहते हैं और हाॅस्टल में रहने वाले बच्चों के लिए बनने वाला खाना ही खाते हैं। आज गांव का हर आदमी आत्मनिर्भर है। आस-पास पड़ोस के गांवों के लिए भी यहाँ से चारा, दूध आदि जाता है। गांव में एक तरह का राम राज स्थापित कर दिया है। इस काम के लिए भारत सरकार ने उन्हें पद्य्मभूषण से भी सम्मानित किया। उन्होंने गाँधी जी की सोच को पूरी मजबूती से उठाया कि- बलशाली भारत के लिए गांवों को अपने पैरों पर खड़ा करना होगा। उनके अनुसार- विकास का लाभ समान रूप से वितरित न हो पाने के कारण है- गांवों के केन्द्र में न रखना, व्यक्ति निर्माण से ग्राम निर्माण और तब स्वाभाविक ही देश निर्माण के मन्त्र को उन्होंने हकीकत में उतार कर दिखाया। और एक गांव से आरम्भ उनका अभियान आज 85 गांवों तक सफलतापूर्वक जारी है। व्यक्ति निर्माण के लिए मूलमंत्र देते हुए उन्होंने युवाओं में उत्तम चरित्र, शुद्ध आचार-विचार, निष्कलंक जीवन व त्याग की भावना विकसित करने व निर्भयता को आत्मसात् कर आम आदमी की सेवा को आदर्श के रूप में स्वीकार करने का आह्वान किया। अब वह अपने दल-बल के साथ देश में राम राज की स्थापना की मुहिम ”भ्रष्टाचार रहित भारत“ में निकले हैं।
गाँधी की विरासत उनकी थाथी है। कद-काठी में वह साधारण ही हैं। सिर पर गाँधी टोपी और बदन पर खादी है। आँखों पर मोटा चश्मा है, लेकिन उनको दूर तक दिखता है। इरादे फौलादी और अटल हैं। उन्हें छोटा गाँधी भी कहा जा सकता है। अन्ना आजकल भ्रष्टाचार के खिलाफ मुहिम चला रहे हैं। पहले वह महाराष्ट्र सरकार के 5 मन्त्रियों की बलि ले चुके हैं। प्रधानमंत्री ने अन्ना से इस बारे में बातचीत की है। आश्वासन भी दिया है लेकिन अन्ना तो अन्ना हैं। कहा है कि ठोस कुछ नहीं हुआ तो वह दिल्ली को हिला देंगे। अन्ना ने आज तक जो सोचा है, उसे कर दिखाया है। अन्ना की राष्ट्रीय स्तर पर भ्रष्टाचार के धुर विरोधी सामाजिक कार्यकर्ता के तौर पर पहचान 1995 में बनी थी जब उन्होंने शिवसेना-बी.जे.पी की सरकार के कुछ भ्रष्ट मन्त्रियों को हटाए जाने की मांग को लेकर भूख हड़ताल पर बैठे थे। अन्ना 2003 में कांग्रेस और एन.सी.पी सरकार के 4 भ्रष्ट मन्त्रियों के खिलाफ भूख हड़ताल पर बैठ गये। हजारे का विरोध काम आया और सरकार को झुकना पड़ा। इसके बाद हजारे की लोकप्रियता में तेजी से इजाफा हुआ।
मंगलवार, 5 अप्रैल, 2011 को महात्मा गाँधी के समाधि स्थल राजघाट जाकर उन्हें श्रद्धांजलि देने के बाद हजारे ने जंतर-मंतर, नई दिल्ली पर अपना अनशन शुरू किया। इस दिन अन्ना का पूरा गांव भी भूखा था। अन्ना के गांव में नारे गूँज रहे थे- ”अन्ना हजारे आँधी है, देश का दूसरा गाँधी है।“ अनशन पर बैठने से पहले हजारे ने कहा- ”यह दूसरा सत्याग्रह है।“ सख्त लोकपाल विधेयक के लिए वरिष्ठ सामाजिक कार्यकर्ता अन्ना हजारे का आमरण अनशन दूसरे दिन बुधवार को भी जारी रहा। देशभर में भ्रष्टाचार के खिलाफ आन्दोलन को मिल रहे समर्थन के बीच जाने-माने गाँधीवादी हजारे ने कहा है कि सरकार भ्रष्टाचार रोकने को लेकर गम्भीर नहीं है। उन्होंने कहा कि राजनेताओं पर अब विश्वास नहीं किया जा सकता। इस बीच भारतीय जनता पार्टी (बी.जे.पी) और जनता दल (यूनाइटेड) ने हजारे के अनशन को अपना समर्थन दिया जबकि कांग्रेस ने हजारे के उपवास को ”असामयिक“ करार दिया है। हजारे समर्थक लोकपाल विधेयक के समर्थन में राष्ट्रध्वज और तख्तियों के साथ राजघाट और जंतर-मंतर पर एकत्रित थे। हजारे के समर्थन में सूचना का अधिकार (आर.टी.आई) कार्यकर्ता अरविन्द केजरीवाल, स्वामी अग्निवेश, मैगसेसे पुरस्कार विजेता किरन बेदी, संदीप पाण्डेय सहित अन्य लोग शामिल हुए।
अन्ना हजारे चाहते हैं कि- सरकार जन लोकपाल बिल तुरंत लाए, लोकपाल की सिफारिशें अनिवार्य तौर पर लागू हों और लोकपाल को जजों, सांसदो, विधायकों आदि पर भी मुकदमा चलाने का अधिकार हो। लेकिन सरकार इन खास मुद्दों पर बहस और चर्चा की जरूरत मान रही है। अन्ना चाहते हैं कि- ऐसा कानून बने जिसके तहत भ्रष्ट राजनेताओं और अधिकारियों को तय समय सीमा के भीतर आसानी से दण्डित किया जा सके। साथ ही अन्ना चाहते हैं कि जो कमेटी इस बिल पर काम करे उसमें आधे लोग गैर राजनीतिज्ञ हों। अभी सरकार जो बिल तैयार कर रही है, उसमें भ्रष्ट नेताओं और अफसरों के बच निकलने के चोर रास्ते और लम्बा खिंचने की तमाम सम्भावनाएं हैं।
पत्रकारों से बातचीत में हजारे ने पुनः आमरण अनशन पर बैठने की घोषणा की थी। उन्होंने कहा था- उन्हें इस बात से काफी दुःख हुआ कि प्रधानमंत्री ने जन लोकपाल बिल का मसौदा तैयार करने वाली संयुक्त समिति में वरिष्ठ मंत्रियों के साथ समाज के जाने माने लोगों को शामिल करने के उनके प्रस्ताव को खारिज कर दिया। इसलिए पूर्व में की गई घोषणा के अनुसार मैं आमरण अनशन पर बैठंूगा। यदि इस दौरान मेरी जिन्दगी भी कुर्बान हो जाए तो मुझे इसका अफसोस नहीं होगा। मेरा जीवन राष्ट्र को समर्पित है। हजारे ने कहा कि रिटायर्ड न्यायमूर्ति संतोष हेगड़े, वकील प्रशांत भूषण और स्वामी अग्निवेश जैसे जाने माने लोगों के विचारों को सरकार ने महत्वपूर्ण नहीं समझा।

”भ्रष्टाचार मिटाने के लिए जनलोकपाल लागू करवाना है।“ - अन्ना हजारे

श्री लव कुश सिंह ”विश्वमानव“ द्वारा स्पष्टीकरण 
किसी भी अवतार-महापुरूष इत्यादि का सार्वभौम सत्य ज्ञान एक हो सकता है परन्तु उसके स्थापना की कला उस अवतार-महापुरूष इत्यादि के समय की समाजिक व शासनिक व्यवस्था के अनुसार अलग-अलग होती है, जो पुनः दुबारा प्रयोग में नहीं लायी जा सकती। वर्तमान तक ऐसा कोई उदाहरण नहीं मिलता जिससे यह सिद्ध होता हो कि उस अवतार-महापुरूष इत्यादि की कला को दुबारा प्रयोग कर कुछ सकारात्मक किया गया हो। इस सम्बन्ध में आचार्य रजनीश ”ओशो“ जी की वाणी है-
”एक तरह का सिद्व एक ही बार होता है, दोबारा नहीं होता। क्योकि जो सिद्ध हो गया, फिर नही लौटता। गया फिर वापस नहीं आता। एक ही बार तुम उसकी झलक पाते हो- बुद्व की, महावीर की, क्राइस्ट ही, मुहम्मद की, एक ही बार झलक पाते हो, फिर गये सो गये। फिर विराट में लीन हो गये। फिर दोबारा उनके जैसा आदमी नहीं होगा, नहीं हो सकता। मगर बहुत लोग नकलची होगें। उनको तुम साधु कहते हो। उन नकलीची का बड़ा सम्मान है। क्योंकि वे तुम्हारे शास्त्र के अनुसार मालूम पड़ते हैं। जब भी सिद्ध आयेगा सब अस्त व्यस्त कर देगा सिद्ध आता ही है क्रान्ति की तरह ! प्रत्येक सिद्ध बगावत लेकर आता है, एक क्रान्ति का संदेश लेकर आता है एक आग की तरह आता है- एक तुफान रोशनी का! लेकिन जो अँधेरे में पड़े है। उनकी आँखे अगर एकदम से उतनी रोशनी न झेल सके और नाराज हो जाय तो कुछ आश्चर्य नहीं।“
एक सत्य कानून को लागू करवाने के लिए आपका संघर्ष सराहनीय था। परन्तु समय के अनुसार अब अनशन और हिसंक क्रान्ति जैसा मार्ग अब अ-प्रभावकारी और अ-मान्य है। अब यदि विचार अच्छे हों तो वह विचार करने के उपरान्त स्वंय ही लागू हो जायेगी। दौर आत्मीय बल का है और समाज के लिए अच्छा ही करना नेतृत्व की विवशता है। 
आज के 20 वर्ष पहले जब धीरे-धीरे कम्प्यूटर ने समाज में प्रवेश करना शुरू किया था तो तमाम कर्मचारी संघ ने इसे बेरोजगारी बढ़ाने वाला बताया था। बेरोजगारी तकनीकी से नहीं बढ़ती बल्कि तकनीकी के अनुसार स्वयं को योग्य न बना पाने के कारण बढ़ती है। यदि केवल कम्प्यूटर को ही जीवन से हटा दिया जाय तो समस्या इतनी बढ़ जायेगी कि इतनी बड़ी जनसंख्या के सुविधाओं को नियंत्रित करना नामुमकिन हो जायेगा। उस समय जब धीरे-धीरे कम्प्यूटर ने समाज में प्रवेश करना शुरू किया था तो शायद मनुष्य के प्रकृति को परिवर्तित करने में इसका कितना बड़ा योगदान हो जायेगा, किसी ने भी ना सोचा होगा। सभी नैतिकता कानून से ही नियंत्रित नहीं हो पाते, बहुत सी अनैतिकता तकनीकी द्वारा रोक दिये जाते हैं और मनुष्य विवश हो जाता है- नैतिक बनने के लिए। 
कानून पे कानून, बनाते-बनाते तो भारत का संविधान विश्व का सबसे बड़ा संविधान बन गया लेकिन नागरिक अभी भी नैतिकता युक्त नहीं हो पा रहे। इसका स्पष्ट संकेत यह है कि नागरिको के मन-मस्तिष्क में गलत चिप्स या साफ्टवेयर चल रहा है। इसलिए  साफ्टवेयर या विचार को आधुनिक बनाना मूल कार्य होना चाहिए।
बुड्ढा कृष्ण-कृष्ण भाग-2 और अन्तिम की कुछ पक्तियाँ हैं - 
सखी, मेरे बाल रूप को, मेरे युवा रूप को, मेरे प्रेम रूप को, मेरे गीता उपदेश को यह संसार समझने लगा है। मैं सिर्फ अपना बचा शेष कार्य पूर्ण करने आया हूँ। ”नव मनुष्य और सृष्टि निर्माण“, जिसमें अब न तो पाण्डवों की आवश्यकता है न ही कौरवों की। अब तो न पाण्डव हैं न ही कौरव हैं, वे तो पिछले समय में ही मुक्त हो चुके। अब तो पाण्डव व कौरव एक ही शरीर में विद्यमान हैं। जिस किसी को देखो वह कुछ समय पाण्डव रूप में दिखता है तो अगले समय में वही कौरव रूप में दिखने लगता है। फिर वही पाण्डव रूप में दिखने लगता है। सब कुछ विवशता वश एकीकरण की ओर बढ़ रहा है। अब युद्ध कहाँ, अब तो उस एकीकरण के मार्ग को दिखाना मात्र मेरा शेष कार्य हैं। और इस कार्य में मैं बिल्कुल अकेला, निःसंग, न कोई मेरे लिए जीवन की कामना करने वाला, न ही कोई मेरी मृत्यु की कामना करने वाला, न ही मुझसे मिलने की चेष्टा करने वाला, न ही मुझसे कुछ सुनने वाला, न मुझे कुछ सुनाने वाला और न ही गोपीयाँ हैं। दर असल मैं मृत ही पैदा ही हुआ था, एक मरा हुआ जीवित मनुष्य, यही मेरा इस जीवन का रूप था। और मेरे इस जीवन को संसार बुढ़े कृष्ण के रूप में याद करेगा जो मुझ परमात्मा के पूर्ण कार्य का भाग दो होगा, जिसे लोगों ने देख व जान नहीं पाया था। आज मैं बहुत कुछ बताना चाहता हूँ सखी क्योंकि तुम्हारे सिवा मुझे कौन सुनता ही था और कौन समझता ही था, और कौन विश्वास ही करता था। - मैं बोलता जा रहा था।
तात्पर्य यह है कि आपके साख का उपयोग करने के लिए लोग आपके साथ आये और प्राप्त संसाधन और अपनी आधुनिक बदलती प्रकृति के अनुसार स्वयं का मार्ग निर्धारित कर आगे बढ़े, आपके संघर्ष और उद्देश्य को वहीं छोड़ दिये। फिर भी आप एक अच्छे इन्सान, अच्छे उद्देश्य लेकर जीवन जीये हंै। इसमें कोई शक नहीं इसलिए ही आप ”विश्वशास्त्र“ में स्थान पा सके।
ध्यान रहे स्थिर तारे अर्थात स्थिर या निर्धारित प्रकृति पर निशाना या योजना बनाया जाता है गतिशील और परिवर्तनशील प्रकृति पर नहीं। महाभारत तभी हो सका जब स्थिर या निर्धारित प्रकृति के व्यक्ति थे जिन्हें पुरूष कहते हैं। गतिशील और परिवर्तनशील को तो प्रकृति या नारी कहते हैं। गतिशील और परिवर्तनशील, नर या नारी हो उसे नारी ही कहते हैं और स्थिर या निर्धारित, नर या नारी हो उसे पुरूष ही कहते हैं। 
जब गतिशील और परिवर्तनशील ही नर या नारी हो गये हो तो यह कहना ही पड़ेगा कि - (बुड्ढा कृष्ण-कृष्ण भाग-2 से)  सखी, तुम्हारे उत्तर से अब यह स्पष्ट हो चुका है कि तुम अब पूर्ण हो चुकी हो। अब तुममे और मुझमें कोई अन्तर नहीं है। तुममें, मैं और मुझमें, तुम। आदि में, मैं और अन्त में भी, मैं। और अब, सभी में, मैं और मुझमें, सभी। सखी, व्यक्ति, समाज, राज्य की आवश्यकताओं को देखो, भविष्यवक्ताओं की भविष्यवाणीयों को देखो, ये सब मुझे पुकार रही हैं। ग्रहों के चालों, सूर्य व चन्द्र ग्रहण को देखो, ये सब मेरी उपस्थिति को बता रही हैं। मैं आया था, मैंने अपना कार्य पूर्ण किया मैं जा भी रहा हूँ, तुमसे एकाकार होकर। मैं मुक्त था, मैं मुक्त हूँ, मैं मुक्त ही रहूँगा। आओ सखी चलें। यह पूर्ण पुरूष और पूर्ण प्रकृति का महामिलन है। मैं ही योगेश्वर हूँ, मैं ही भोगेश्वर हूँ। आदि में योगेश्वर हूँ और अन्त में भोगेश्वर हूँ। मैं प्रकृति को नियंत्रित कर व्यक्तिगत प्रमाणित अदृश्य रूप से विकसित होकर सार्वजनिक प्रमाणित दृश्य जगत में व्यक्त होता हूँ। अब ईश्वर भी अपने कत्र्तव्य से मुक्त है और प्रकृति भी। जो ईश्वर है वही प्रकृति है। जो प्रकृति है वही ईश्वर है। दोनों एक-दूसरे के अदृश्य और दृश्य रूप हैं। प्रत्येक में दोनों विद्यमान हैं। यही अर्धनारीश्वर है।  
एक मात्र मैं ही पुरूष हूँ। अकेला चलो रे।

विश्वमानव और श्री सैम पित्रोदा (4 मई 1942 - )

श्री सैम पित्रोदा  (4 मई 1942 - )

परिचय - 
तितलागढ़, उड़ीसा, भारत में 4 मई 1942 को जन्मे सत्यनारायण गंगाराम पित्रोदा, लोकप्रिय नाम ”सैम पित्रोदा“ के रूप में जाने जाते हैं। जो एक आविष्कारक, उद्यमी, और नीतिनिर्माता हैं। उन्होंने गुजरात में वल्लभ विद्यानगर से अपनी स्कूली शिक्षा पूरी की और वडोदरा में महाराजा सयाजीराव विश्वविद्यालय से भौतिकी और इलेक्ट्रॉनिक्स में अपने परास्नातक पूरा किया. भौतिकी में अपने परास्नातक पूरा करने के बाद वह अमेरिका के गये और इलिनोइस विश्वविद्यालय, शिकागो में प्रौद्योगिकी संस्थान से इलेक्ट्रिकल इंजीनियरिंग में परास्नातक डिग्री प्राप्त की। 
भारतीय सूचना क्रांति के अग्रदूत माने जाने वाले सैम पित्रोदा का पूरा नाम सत्यनारायण गंगाराम पित्रोदा है। चार मई 1942 को उड़ीसा के तितलागढ़ में जन्मे पित्रोदा एक भारतीय अविष्कारक, कारोबारी और नीति निर्माता हैं।
वर्तमान में पित्रोदा भारतीय प्रधानमंत्री के जन सूचना संरचना और नवप्रवर्तन सलाहकार हैं। प्रधानमंत्री के सलाहकार के रूप में उनकी भूमिका विभिन्न क्षेत्रों में नागरिकों को मिलनेवाली सुविधाओं को प्रभावी बनाना और नवप्रवर्तन के लिए रोडमैप तैयार करना है। पित्रोदा राष्ट्रीय नवप्रवर्तन परिषद के चेयरमैन भी हैं।
साल 2005 से 2009 तक सैम पित्रोदा भारतीय ज्ञान आयोग के चेयरमैन थे। इस उच्च स्तरीय सलाहकार परिषद का गठन देश में ज्ञान आधारित संस्थाओं और उनके आधारभूत ढांचे को बेहतर बनाने के लिए परामर्श देने के लिए किया गया था.
भारतीय ज्ञान आयोग के चेयरमैन की हैसियत से काम करते हुए पित्रोदा ने 27 क्षेत्रों में सुधार के लिए करीब 300 सुझाव दिए थे। 
भौतिकी में स्नातकोत्तर करने के बाद इलेक्ट्रोनिक्स में मास्टर की डिग्री हासिल करने के लिए पित्रोदा शिकागो के इलिनॉय इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी गए। साठ और सत्तर के दशक में पित्रोदा दूरसंचार और कंप्यूटिंग के क्षेत्र में तकनीक विकसित करने की दिशा में काम करते रहे। पित्रोदा के नाम सौ से भी अधिक पेटेंट हैं। साल 1984 में भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने पित्रोदा को भारत आकर अपनी सेवाएं देने का न्योता दिया। भारत लौटने के बाद उन्होंने दूरसंचार के क्षेत्र में स्वायत्त रूप से अनुसंधान और विकास के लिए सी-डॉट यानि सेंटर फॉर डेवलपमेंट ऑफ टेलिमैटिक्स की स्थापना की। उसके बाद प्रधानमंत्री राजीव गांधी के सलाहकार की हैसियत के उन्होंने घरेलू और विदेशी दूरसंचार नीति को दिशा देने का काम किया। 
1990 के दशक में पित्रोदा एक बार फिर अपने कारोबारी हित साधने के लिए अमरीका चले गए और लंबे समय तक वहां तकनीकी अनुसंधान का काम करते रहे। 2004 में जब संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन की सरकार सत्ता में आई तो प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने सैम पित्रोदा दो फिर भारत आने का न्योता दिया और उन्हें भारतीय ज्ञान आयोग का चेयरमैन बनाया गया। रा्ष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कई पुरस्कारों से सम्मानित पित्रोदा को विज्ञान और इंजीनियरिंग के क्षेत्र में उनके योगदान के लिए 2009 में पद्मभूषण से नवाजा गया। 1992 में पित्रोदा संयुक्त राष्ट्र में भी सलाहकार रहे। पिछले साल उत्तर प्रदेश में हुए विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने सैम पित्रोदा को ओबीसी पोस्टर ब्वाय के रूप में उतार कर नया चुनावी समीकरण बनाने की कोशिश की थी.

”शिक्षा का नया माॅडल विकसित करना होगा। पिछले 25 वर्षो से हम अमीर लोगों की समस्या सुलझा रहे हैं। अब हमें गरीबों की समस्या सुलझानें का नैतिक दायित्व निभाना चाहिए। देश में 25 वर्ष से कम उम्र के 55 करोड़ लोग हैं। हमें सोचना होगा कि हम उन्हें नौकरी और प्रशिक्षण कैसे देगें। भौतिकी, रसायन, गणित जैसे पारम्परिक विषयों को पढ़ने का युग समाप्त हो गया। अब तो हमें रचनात्मकता, समन्वय, लीडरशिप, ग्लोबल तथा प्रोफेशनल विषयों को पढ़ने तथा सूचना तकनीक के जरिए पढ़ाई पर ध्यान केन्द्रित करने की जरूरत है। हमारे देश में जो अध्यापक हैं, वे शोध नहीं करते और जो शोध करते हैं वे पढ़ाते नहीं। हमें पूरी सोच को बदलनी है।“
- सैम पित्रोदा, अध्यक्ष, राष्ट्रीय नवोन्मेष परिषद्
(प्रधानमंत्री के सूचना तकनीकी सलाहकार व राष्ट्रीय ज्ञान आयोग के पूर्व अध्यक्ष)
27 नवम्बर, 2011, हिन्दुस्तान, वाराणसी संस्करण

श्री लव कुश सिंह ”विश्वमानव“ द्वारा स्पष्टीकरण 
छात्रों की विवशता है कि उनके शिक्षा बोर्ड व विश्वविद्यालय जो पाठ्यक्रम तैयार करेगें वहीं पढ़ना है और छात्रों की यह प्रकृति भी है कि वही पढ़ना है जिसकी परीक्षा ली जाती हो। जिसकी परीक्षा न हो क्या वह पढ़ने योग्य नहीं है? बहुत बड़ा प्रश्न उठता है। तब तो समाचार पत्र, पत्रिका, उपन्यास इत्यादि जो पाठ्यक्रम के नहीं हैं उन्हें नहीं पढ़ना चाहिए। शिक्षा बोर्ड व विश्वविद्यालय तो एक विशेष पाठ्यक्रम के लिए ही विशेष समय में परीक्षा लेते हैं परन्तु ये जिन्दगी तो जीवन भर परीक्षा हर समय लेती रहती है तो क्या जीवन का पाठ्यक्रम पढ़ना अनिवार्य नहीं है? परन्तु यह पाठ्यक्रम मिलेगा कहाँ? निश्चित रूप से ये पाठ्यक्रम अब से पहले उपलब्ध नहीं था लेकिन इस संघनित (Compact) होती दुनिया में ज्ञान को भी संघनित (Compact) कर पाठ्यक्रम बना दिया गया है। इस पाठ्यक्रम का नाम है - ”सत्य मानक शिक्षा“ और आप तक पहुँचाने के कार्यक्रम का नाम है - ”पुनर्निर्माण-सत्य शिक्षा का राष्ट्रीय तीव्र मार्ग (RENEW - Real Education National Express Way)“। यह वही पाठ्यक्रम है जोे मैकाले शिक्षा पाठ्यक्रम (वर्तमान शिक्षा) से मिलकर पूर्णता को प्राप्त होगा। इस पाठ्यक्रम का विषय वस्तु जड़ अर्थात सिद्धान्त सूत्र आधारित है न कि तनों-पत्तों अर्थात व्याख्या-कथा आधारित। जिसे एक उदाहरण से समझा जा सकता है- मैकेनिक जो मोटर बाईडिंग करता है यदि वह केवल इतना ही जानता हो कि कौन सा तार कहाँ जुड़ेगा जिससे मोटर कार्य करना प्रारम्भ कर दें, तो ऐसा मैकेनिक विभिन्न शक्ति के मोटर का आविष्कार नहीं कर सकता जबकि विभिन्न शक्ति के मोटर का आविष्कार केवल वही कर सकता है जो मोटर के मूल सिद्धान्त को जानता हो। ऐसी ही शिक्षा के सम्बन्ध में स्वामी विवेकानन्द जी ने कहा था - ”अनात्मज्ञ पुरूषों की बुद्धि एकदेशदर्शिनी (Single Dimensional) होती है। आत्मज्ञ पुरूषों की बुद्धि सर्वग्रासिनी (Multi Dimensional) होती है। आत्मप्रकाश होने से, देखोगे कि दर्शन, विज्ञान सब तुम्हारे अधीन हो जायेगे।“
शिक्षा क्षेत्र का यह दुर्भाग्य है कि जीवन से जुड़ा इतना महत्वपूर्ण विषय ”व्यापार“, को हम एक अनिवार्य विषय के रूप में पाठ्यक्रम में शामिल नहीं कर सकें। इसकी कमी का अनुभव उस समय होता है जब कोई विद्यार्थी 10वीं या 12वीं तक की शिक्षा के उपरान्त किसी कारणवश, आगे की शिक्षा ग्रहण नहीं कर पाता। फिर उस विद्यार्थी द्वारा पढ़े गये विज्ञान व गणित के वे कठिन सूत्र उसके जीवन में अनुपयोगी लगने लगते है। यदि वहीं वह व्यापार के ज्ञान से युक्त होता तो शायद वह जीवकोपार्जन का कोई मार्ग सुगमता से खोजने में सक्षम होता।
आध्यात्म और विज्ञान ने मानव सभ्यता के विकास में अब कम से इतना विकास तो कर ही चुका है कि अब हमें मन के एकीकरण के लिए कार्य करना चाहिए। और उस मन पर कार्य करने का ही परिणाम है - 
सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में व्याप्त एक ही सत्य-सिद्धान्त द्वारा व्यक्तिगत व संयुक्त मन को एकमुखी कर सर्वोच्च, मूल और अन्तिम स्तर पर स्थापित करने के लिए शून्य पर अन्तिम आविष्कार WS-0 श्रृंखला की निम्नलिखित पाँच शाखाएँ है। 
1. डब्ल्यू.एस. (WS)-0 : विचार एवम् साहित्य का विश्वमानक
2. डब्ल्यू.एस. (WS)-00 : विषय एवम् विशेषज्ञों की परिभाषा का विश्वमानक
3. डब्ल्यू.एस. (WS)-000 : ब्रह्माण्ड (सूक्ष्म एवम् स्थूल) के प्रबन्ध और क्रियाकलाप का विश्वमानक
4. डब्ल्यू.एस. (WS)-0000 : मानव (सूक्ष्म तथा स्थूल) के प्रबन्ध और क्रियाकलाप का विश्वमानक
5. डब्ल्यू.एस. (WS)-00000 : उपासना और उपासना स्थल का विश्वमानक
और पूर्णमानव निर्माण की तकनीकी WCM-TLM-SHYAM.C है। 

जो शिक्षा का नया माॅडल है। गरीबों की समस्या सुलझानें का नैतिक दायित्व है। देश में 25 वर्ष से कम उम्र के 55 करोड़ लोगों के लिए पुननिर्माण जैसी योजना हैं। उन्हें नौकरी और प्रशिक्षण की व्यवस्था है। रचनात्मकता, समन्वय, लीडरशिप, ग्लोबल तथा प्रोफेशनल विषयों को पढ़ने तथा सूचना तकनीक के जरिए पढ़ाई पर ध्यान केन्द्रित करने से युक्त है। हमारे देश में जो अध्यापक हैं, वे शोध नहीं करते और जो शोध करते हैं वे पढ़ाते नहीं, इसलिए शिक्षार्थी को ही शोध पत्र (विश्वशास्त्र) पढ़ाया जाय क्योंकि शिक्षक पढ़ने से तो रहे क्योंकि समान्यतः धन के आने की सुनिश्चितता के बाद लोग पढ़ना छोड़ देते हैं, यही नहीं कोशिश तो यह भी रहती है कि पढ़ाना भी न पड़े और उन्हें सेवा से हटाया भी नहीं जा सकता।
शिक्षा (वर्तमान अर्थ में) प्राप्त करने के बाद या तो शिक्षा-कौशल के अनुसार कार्य को आजीविका बनाते हैं या जो पढ़े हैं उसे ही पढ़ाओ वाले व्यापार में लग जाते हैं। अब बेरोजगारों को इस दुनिया में परिवर्तन लाने वाले राष्ट्र निर्माण के व्यापार से जोड़ना पड़ेगा। इससे उन्हें रोजगार भी मिलेगा और राष्ट्र निर्माण का श्रेय भी। वे शान से कह सकेगें - ”हम सत्य ज्ञान का व्यापार करते हैं। हम राष्ट्र निर्माण का व्यापार करते हैं। हम समाज को सहायता प्रदान करने का व्यापार करते हैं। हम, लोगों को आत्मनिर्भर बनाने का व्यापार करते हैं और वहाँ करते हैं जिस क्षेत्र, जिला, मण्डल, प्रदेश व देश के निवासी हैं। जहाँ हमारे भाई-बन्धु, रिश्तेदार, दोस्त इत्यादि रहते हैं।“
स्वामी विवेकान्द जी ने कहा था - सुधारकों से मैं कहूंगा कि मैं स्वयं उनसे कहीं बढ़कर सुधारक हूँ। वे लोग इधर-उधर थोड़ा सुधार करना चाहते हैं- और मैं चाहता हूँ आमूल सुधार। हम लोगों का मतभेद है केवल सुधार की प्रणाली में। उनकी प्रणाली विनाशात्मक है और मेरी संघटनात्मक। मैं सुधार में विश्वास नहीं करता, मैं विश्वास करता हूँ स्वाभाविक उन्नति में।
स्वाभाविक उन्नति तभी होती है जब संसाधन उपलब्ध हो। कार-मोटरसाइकिल घर में पहले से रहता है तो स्वाभाविक रूप से कम उम्र में ही घर के लोग चलाना सिख जाते हैं इसलिए सुधार का वो महान शास्त्र - ”विश्वशास्त्र“ पहले संसाधन के रूप में प्रत्येक घर में उपलब्ध हो। जो ”आध्यात्मिक एवं दार्शनिक विरासत के आधार पर एक भारत - श्रेष्ठ भारत“ निर्माण का अन्तिम शास्त्र है। फिर 25 वर्ष से कम उम्र के 55 करोड़ लोग अपने आप आत्मनिर्भर हो जायेगें। 
वैसे तो यह कार्य भारत सरकार को राष्ट्र की एकता, अखण्डता, विकास, साम्प्रदायिक एकता, समन्वय, नागरिकों के ज्ञान की पूर्णता इत्यादि जो कुछ भी राष्ट्रहित में हैं उसके लिए सरकार के संस्थान जैसे- विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यू.जी.सी.), एन.सी.ई.आर.टी, राष्ट्रीय ज्ञान आयोग, राष्ट्रीय नवोन्मेष परिषद्, भारतीय मानक ब्यूरो के माध्यम से ”राष्ट्रीय शिक्षा आयोग“ बनाकर पूर्ण करना चाहिए जो राष्ट्र के वर्तमान और भविष्य के लिए अति आवश्यक और नागरिकों का राष्ट्र के प्रति कर्तव्य निर्धारण व परिभाषित करने का मार्ग भी है। भारत को यह कार्य राष्ट्रीय शिक्षा प्रणाली (National Education System-NES)  व विश्व को यह कार्य विश्व शिक्षा प्रणाली (World Education System-WES) द्वारा करना चाहिए। जब तक यह शिक्षा प्रणाली भारत तथा संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा जनसाधारण को उपलब्ध नहीं हो जाती तब तक यह ”पुनर्निर्माण“ द्वारा उपलब्ध करायी जा रही है।


विश्वमानव और श्री यदुनाथ सिंह (6 जुलाई, 1945 - )

श्री यदुनाथ सिंह (6 जुलाई, 1945 - )

परिचय - 
सत्यकाशी क्षेत्र के चुनार क्षेत्र (जिला मीरजापुर, उत्तर प्रदेश) के ग्राम-नियामतपुर कलाँ में 6 जुलाई, 1945 को जन्में श्री यदुनाथ सिंह, एक क्रान्तिकारी, चिन्तक, जन समर्थक और जनप्रिय नेता के रूप में जाने जाते हैं। इनके पिता का नाम श्री सहदेव सिंह व माता का नाम श्रीमती दुलेसरा देवी था।
काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से सम्बद्ध कमच्छा स्थित सेन्ट्रल हिन्दू स्कूल से उस समय संचालित प्री यूनिवर्सिर्टी कोर्स (पी.यू.सी) करने के उपरान्त आप विश्वविद्यालय में केमिकल इंजिनियरिंग में प्रवेश लिए। छात्र राजनीति व जन समस्याओं से द्रवित होकर आप राजनीति में प्रवेश लिये जिसका प्रभाव आपके शिक्षा पर भी पड़ा और आप इंजिनियरिंग की डिग्री पूर्ण नहीं कर पाये। आप उत्तर प्रदेश के चुनार विधान सभा क्षेत्र से चार बार 1980, 1985, 1989, 1991 में विधायक चुने गये। आप राजनीति के दौरान कभी भी राज्य समर्थक नहीं रहे बल्कि सदैव जन समर्थक ही रहें और जन समस्याओं को सदैव प्राथमिकता में रखते हुए राज्य को विवश करते रहे। आपका दुर्भाग्य था कि आप जब भी विधायक रहे, आपकी पार्टी की सरकार नहीं रही और आप ऐसे दौर में विधायक रहे जब विधायक निधि जैसी कोई योजना लागू नहीं थी फलस्वरूप आप सरकारी सहायता के द्वारा क्षेत्र के भौतिक विकास में योगदान विवशतापूर्वक नहीं दे पाये।
आप चुनार क्षेत्र में चुनाव के दौरान जनता के अतिलोकप्रिय नेता के रूप में अपने समय में स्थापित थे। इसका प्रत्यक्ष दर्शन जनता ने स्वयं उस रैली को देखकर अनुभव किया जो 10 किलोमीटर से भी लम्बी भीड़ भरी थी। क्षेत्र के व्यक्ति, समाज और क्षेत्र का सूक्ष्म अध्ययन आपके पास गहराई से था जिसके कारण ही आपने ”तू जमाना बदल“ और क्षेत्र को सत्यकाशी क्षेत्र के रूप में स्थापित करने का वक्तव्य दिया।

”तू जमाना बदल“ - यदुनाथ सिंह, पूर्व विधायक, चुनार क्षेत्र
”रामनगर (वाराणसी) से विन्ध्याचल (मीरजापुर) तक का क्षेत्र पुराणों में वर्णित सत्यकाशी का क्षेत्र है।“
                         - यदुनाथ सिंह, पूर्व विधायक, चुनार क्षेत्र 
साभार - राष्ट्रीय सहारा, लखनऊ, दि0 17 जून, 1998)
”वर्तमान समय में देश स्तर पर व्यवस्था परिवर्तन की चर्चा बहुत अधिक हो रही है। इसमें मेरे विचार से सर्वप्रथम आरक्षण के मापदण्ड पर पुनः विचार करने का समय आ गया है। देश के स्वतन्त्रता के समय जातिगत आरक्षण की आवश्यकता थी और वह सीमित समय के लिए ही लागू किया गया था परन्तु राजनीतिक लाभ के कारणों से वह वर्तमान तक लागू है। हम समाज से मनुवादी व्यवस्था को समाप्त करने की बात करते हैं परन्तु एक तरफ आज समाज इससे धीरे-धीरे मुक्त हो रहा है और दूसरी तरफ संविधान ही इसका समर्थक बनता जा रहा है। ऐसी स्थिति में आरक्षण व्यवस्था का मापदण्ड जाति आधारित से शारीरिक, आर्थिक और मानसिक आधारित कर देनी चाहिए जो धर्मनिरपेक्ष और सर्वधर्मसमभाव भी है और लोकतन्त्र का धर्म भी धर्मनिरपेक्ष और सर्वधर्मसमभाव है
मेरे विचार में व्यवस्था परिवर्तन का दूसरा आधार युवाओं को अधिकतम अधिकार से युक्त करने पर विचार करने का समय आ गया है। देश में 18 वर्ष के उम्र पर वोट देने का अधिकार तथा विवाह का उम्र लड़कों के लिए 21 वर्ष तथा लड़कियों के लिए 18 वर्ष तो कर दिया गया है परन्तु उन्हें पैतृक सम्पत्ति सम्बन्धी अधिकार अभी तक नहीं दिया गया है। इसलिए उत्तराधिकार सम्बन्धी अधिनियम की भी आवश्यकता आ गयी है। जिसमें यह प्राविधान हो कि 25 वर्ष की अवस्था में उसे पैतृक सम्पत्ति अर्थात दादा की सम्पत्ति जिसमें पिता की अर्जित सम्पत्ति शामिल न रहें, उसके अधिकार में हो जाये। 
किसी भी विचार पर किया गया आदान-प्रदान ही व्यापार होता है और यह जितनी गति से होता है उतनी ही गति से व्यापार, विकास और विनाश होता है। देश के विकास के लिए धन के आदान-प्रदान को तेज करना पड़ेगा और ऐसे सभी बिन्दुओं का पहचान करना होगा जो धन के आदान-प्रदान में बाधा डालती है। इसलिए कालेधन का मुद्दा अहम मुद्दा है। ऐसे प्राविधान की आवश्यकता है कि जिससे यह धन देश के विकास में लगे।
विभिन्न प्रकार के अनेकों साहित्यों से भरे इस संसार में यह भी एक समस्या है कि हम किस साहित्य को पढ़े जिससे हमें ज्ञान की दृष्टि शीघ्रता से प्राप्त हो जाये। विश्वशास्त्र इस समस्या को हल करते हुए एक ही संगठित पुस्तक के रूप में उपलब्ध हो चुका है। यह इस सत्यकाशी क्षेत्र की एक महान और ऐतिहासिक उपलब्धि है जिसके कारण यह क्षेत्र सदैव याद किया जायेगा।
- यदुनाथ सिंह, पूर्व विधायक, चुनार क्षेत्र

लव कुश सिंह ”विश्वमानव“ द्वारा स्पष्टीकरण
विधायक जी, जब शब्द वायुमण्डल में व्यक्त हो जाते हैं तो वह बीज के रूप में पड़े रहते हैं और योग्य वातावरण पाते ही वह उग आते हैं। आपका ”तू जमाना बदल“ और ”सत्यकाशी“ के सत्य विचार को पूर्ण करने के लिए ”विश्वशास्त्र“ व्यक्त कर दिया गया है। जिस प्रकार आपके द्वारा कहा गया शब्द योग्य वातावरण पाकर जन्म लिया उसी प्रकार इस जमाने को बदलने और सत्यकाशी के विश्वव्यापी स्थापना के लिए ”विश्वशास्त्र“ के द्वारा व्यक्त विचार भी योग्य वातावरण पाकर अवश्य जन्म लेगा क्योंकि विचार कभी मरता नहीं, शरीर मरता है शास्त्र नहीं। हम आप शरीर धारी हैं, शरीर छूट जायेगा परन्तु यह शास्त्र अन्य पुस्तक व शास्त्रों की भाँति धरती पर उस समय तक रहेगा जब तक मनुष्य नाम का जीव रहेगा। इसलिए संतुष्ट हो जाइये। आपके ही गाँव से यह कार्य सम्पन्न हो गया है और अब यह गाँव इतिहास में सदा के लिए अमर हो गया है जिसके आकाश में सितारे के रूप में आप और मैं सदा चमकते रहेंगे। रही प्रसार की बात तो इस युग में इलेक्ट्रानिक डिजीटल मीडिया भी सशक्त हो गयी है। घर बैठे ही बैठे सभी मीडिया व संसार के इस प्रकार के कार्य करने वालों तक पहुँच जायेगा।


विश्वमानव और श्रीमती सोनिया गाँधी (9 दिसम्बर 1946 - )

श्रीमती सोनिया गाँधी (9 दिसम्बर 1946 - )

परिचय -
सोनिया गाँधी (एन्टोनिया मैनो) का जन्म वैनेतो, इटली के क्षेत्र में विसेन्जा से 20 किलोमीटर दूर स्थित एक छोटे से गाँव लूसियाना में हुआ था। उनके पिता स्टेफिनो मायनो एक भवन निर्माण ठेकेदार थे और भूतपूर्व फासिस्ट सिपाही थे जिनका निधन 1983 में हुआ। उनकी माता पाओलो मायनों हैं। उनकी दो बहनें हैं। उनका बचपन टूरिन, इटली से 8 किलोमीटर दूर स्थित ओर्बसानों में व्यतीत हुआ। 1964 में वे कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय में बेल शैक्षणिक निधि के भाषा विद्यालय में अंग्रेजी भाषा का अध्ययन करने गई। जहाँ उनकी मुलाकात राजीव गाँधी से हुई, जो कि उस समय ट्रिनटी विद्यालय, कैम्ब्रिज में पढ़ते थे। 1968 में दोनों का विवाह हुआ जिसके बाद वे राजीव गाँधी की माता, इन्दिरा गाँधी के साथ भारत में रहने लगीं। राजीव गाँधी के साथ विवाह होने के काफी समय बाद उन्होंने 1983 में भारतीय नागरिकता स्वीकार की। उनकी दो सन्तानें हैं- पुत्र राहुल गाँधी (जन्म 19 जून, 1970) और पुत्री प्रियंका गाँधी (जन्म 12 जनवरी, 1972) जिनका विवाह राबर्ट वड्रा से हुआ है।
पति राजीव गाँधी की 21 मई, 1991 में हत्या के पश्चात् कांग्रेस के वरिष्ठ नेताओं ने सोनिया से पूछे बिना उन्हें कांग्रेस का अध्यक्ष बनाये जाने की  घोषणा कर दी परन्तु सोनिया ने उसे स्वीकार नहीं किया और राजनीति और राजनीतिज्ञों के प्रति अपनी घृणा और अविश्वास को इन शब्दों में व्यक्त किया कि - ”मैं अपने बच्चों को भीख माँगते देख लूँगी, परन्तु मैं राजनीति में कदम नहीं रखूँगी“ काफी समय तक राजनीति में कदम न रख कर उन्होंने अपने बेटे और बेटी का पालन पोषण करने पर ध्यान केन्द्रित किया। उधर पी.वी.नरसिंहाराव के कमजोर प्रधानमंत्रित्व काल के कारण 1996 का आम चुनाव कांग्रेस हार गई और उसके बाद सीताराम केसरी के कांग्रेस के कमजोर अध्यक्ष होने के कारण कांगे्रस का समर्थन कम होता जा रहा था जिससे कांग्रेस के नेताओं ने फिर से नेहरू-गाँधी परिवार के किसी सदस्य की आवश्यकता अनुभव की। उनके दबाव में सोनिया गाँधी ने 1997 में कोलकाता के प्लेनरी सेशन में कांग्रेस की प्राथमिक सदस्यता ग्रहण की और उसके 62 दिनों के अन्दर 1998 में वो कांग्रेस की अध्यक्ष चुनी गई। उन्होंने सरकार बनाने की असफल कोशिश भी की। राजनीति में कदम रखने के बाद उनका विदेश में जन्म हूए होने का मुद्दा उठाया गया। उनकी कमजोर हिन्दी को भी मुद्दा बनाया गया। उन पर परिवारवाद का भी आरोप लगा लेकिन कांग्रेसीयों ने उनका साथ नहीं छोड़ा और इन मुद्दों को नकारते रहे। सोनिया गाँधी अक्टुबर 1999 में बेल्लारी, कर्नाटक से और साथ ही अपने दिवंगत पति के निर्वाचन क्षेत्र अमेठी, उत्तर प्रदेश से लोकसभा के लिए चुनाव लड़ी और करीब 3 लाख वोटों की विशाल बढ़त से विजयी र्हुइं। 1999 में 13वीं लोकसभा में वे विपक्ष की नेता चुनी गईं। 2004 के चुनाव से पूर्व आम राय ये बनाई गई थी कि अटल बिहारी वाजपेयी ही प्रधानमंत्री बनेगें पर सोनिया ने देश भर में खूब प्रचार किया और सबको चैंका देने वाले नतीजों में यू.पी.ए. को अनपेक्षित 200 से ज्यादा सीटें मिली। सोनिया गाँधी स्वयं रायबरेली, उत्तर प्रदेश से सांसद चुनी गईं। वामपंथी दलों ने भारतीय जनता पार्टी को सत्ता से बाहर रखने के लिए कांग्रेस और सहयोगी दलों की सरकार का समर्थन करने का फैसला किया जिससे कांग्रेस ओर उनके सहयोगी दलों का स्पष्ट बहुमत पूरा हुआ। 16 मई 2004 को सोनिया गाँधी 16 दलीय गठबंधन की नेता चुनी गई जो वामपंथी दलों के सहयोग से सरकार बनाता जिसकी प्रधानमंत्री सोनिया गाँधी बनती। सबको अपेक्षा थी कि सोनिया गाँधी ही प्रधानमंत्री बनेगी और सबने उनका समर्थन किया, परन्तु एन.डी.ए. के नेताओं ने सानिया गाँधी के विदेशी मूल पर आक्षेप लगाए और कुछ सुषमा स्वराज और उमा भारती जैसी जानी मानी नेताओं ने ऐसी घोषणा कर दी कि यदि सोनिया गाँधी प्रधानमंत्री बनी तो वो अपना सिर मुड़वा लेगी और भूमि पर ही सोयेंगी। ऐसा माना जाता हे कि तत्कालीन राष्ट्रपति श्री अबुल कलाम ने भी उन्हें प्रधानमंत्री बनाने से मना किया था। तब 18 मई को मनमोहन सिंह को अपना उम्मीदवार बताया और पार्टी को उनका समर्थन करने का अनुरोध किया और प्रचारित किया कि सोनिया गाँधी ने स्वेच्छा से प्रधानमंत्री नहीं बनने की घोषणा की है। कांग्रेसियों ने इसका खूब विरोध किया और उनसे इस फैसले को बदलने का अनुरोध किया पर उन्होंने कहा कि प्रधानमंत्री बनना उनका लक्ष्य कभी नहीं था। सब नेताओं ने मनमोहन सिंह का समर्थन किया और वे प्रधानमंत्री बने, पर सोनिया गाँधी को दल तथा गठबंधन का अध्यक्ष चुना गया। राष्ट्रीय सलाहकार समिति का अध्यक्ष होने के कारण सोनिया गाँधी पर लाभ के पद पर होने के साथ लोकसभा का सदस्य होने का आक्षेप लगा जिसके फलस्वरूप 23 मार्च 2006 को उन्होंने राष्ट्रीय सलाहकार समिति के अध्यक्ष पद और लोकसभा की सदस्यता दोनों से त्यागपत्र दे दिया। मई 2006 में वे रायबरेली, उत्तर प्रदेश से पुनः सांसद चुनी गईं और उन्होंने अपने समीपस्थ प्रतिद्वन्दी को 4 लाख से अधिक वोटों से हराया। 2009 के लोकसभा चुनाव में उन्होंने फिर यू.पी.ए. के लिए देश की जनता से वोट माँगा। एक बार फिर यू.पी.ए. ने जीत हासिल की और सोनिया यू.पी.ए. की अध्यक्ष चुनी गईं। महात्मा गाँधी की वर्षगांठ के दिन 2 अक्टुबर 2007 को सोनिया गाँधी ने संयुक्त राष्ट्र संघ को सम्बोधित किया और वे वर्तमान में भी भारतीय राजनीति में सक्रिय भूमिका निभा रहीं हैं।


‘‘शिक्षा के भारतीयकरण, राष्ट्रीयकरण और आध्यात्मिकता से जोड़े जाने का प्रस्ताव है, उसका क्या अर्थ है? क्या पिछले पचास वर्षो से लागू शिक्षा प्रणाली गैर भारतीय, विदेशी थी जिसमे भारत की भूत और वर्तमान वास्तविकताएं नहीं थीं?’’ (अटल विहारी वाजपेयी को लिखे पत्र में)
-श्रीमती सोनिया गाॅधी, 
  साभार - आज, वाराणसी, दि0-23-10-98

श्री लव कुश सिंह ”विश्वमानव“ द्वारा स्पष्टीकरण 
‘‘शिक्षा की सत्य प्रणाली ज्ञान-विज्ञान-तकनीकी आधारित होती है। व्यक्तिगत प्रमाणित अदृश्य काल में यह ज्ञान-कर्मज्ञान-अदृश्य कर्मज्ञान-अदृश्य विज्ञान-अदृश्य तकनीकी पर आधारित तथा सार्वजनिक प्रमाणित दृश्य काल में यह ज्ञान-कर्मज्ञान-दृश्य कर्मज्ञान-दृश्य विज्ञान-दृश्य तकनीकी पर आधारित होती है। वर्तमान शिक्षा प्रणाली कालानुसार नहीं है। वर्तमान समय की शिक्षा प्रणाली केवल दृश्य विज्ञान-दृश्य तकनीकी पर आधारित है जो ज्ञान-कर्म ज्ञान-दृश्य कर्मज्ञान के बिना अधुरी है। शिक्षा के भारतीयकरण, राष्ट्रीयकरण और आध्यात्मिकता से जोड़े जाने के प्रस्ताव का अर्थ शिक्षा में ज्ञान-कर्मज्ञान-दृश्य कर्मज्ञान को सम्मिलित करना है। जो मानव एवम् प्रकृति का सत्य हैं और सत्य किसी सम्प्रदाय का नहीं बल्कि सर्वव्यापी सत्य है। कोई भी इसकी अनुभूति करें या न करे, यदि शिक्षा में यह सर्वव्यापी सत्य नहीं तो वह गैर भारतीय ही होगी या यूॅ कहें कि गैर मानवीय होगी। पिछले पचास वर्षो से लागू शिक्षा प्रणाली गैर भारतीय ही है जिसमें भारत की भूत और वर्तमान की वास्तविकताएं तो हैं परन्तु भविष्य की आवश्यकताएं नहीं है। इक्कीसवीं सदी और उसके उपरान्त की शिक्षा प्रणाली सत्य चेतना अर्थात भूत काल का अनुभव, भविष्य की आवश्यकतानुसार वर्तमान में कार्य करने पर आधारित होगी, न कि प्राकृतिक चेतना अर्थात् भूत काल का अनुभव के अनुसार वर्तमान में कार्य करना पर।’’      


विश्वमानव और श्री बिल क्लिन्टन (19 अगस्त, 1946 - )

श्री बिल क्लिन्टन (19 अगस्त, 1946 - )

परिचय - 
विलियम जेफरसन क्लिंटन, अमेरिका के 21वें राष्ट्रपति थे। उनका कार्यकाल 1993 से 2001 तक था। थियोडोर रूजवेल्ट और जाॅन एफ केनेडी के बाद वे अमेरिका के तीसरे सबसे युवा राष्ट्रपति थे। वे न्यूयार्क से कनिष्ठ अमेरिकी सेनेटर और समाजिक कार्यकर्ता तथा 2008 के राष्ट्रपति चुनाव की प्रत्याशी हिलेरी क्लिंटन के पति हैं। 
क्लिंटन के जन्म से पूर्व ही उनके पिता बी.होप आर्क की मृत्यु हो गई थी। उनका नाम विलियम जेफरसन ब्लीथ था लेकिन उनकी माँ के पुनर्विवाह के उपरान्त सौतेले पिता के उपनाम को उनके नाम में लगाया गया। 1968 में जार्जटाउन विश्वविद्यालय से स्नातक होने के बाद वे आक्सफोर्ड में 1968-70 तक एक रोह्डस स्कालर और येल विश्वविद्यालय से 1973 में कानून की डिग्री प्राप्त किये। फिर वे अपने गृहराज्य में लौट आए जहाँ वे एक वकील और कानून के प्रोफेसर के रूप में 1974 से 1976 तक कार्य किये। वे 1974 में अमेरिकी प्रतिनिधि सभा के लिए एक असफल डेमोक्रेटिक उम्मीदवार थे। 1975 में वे हिलेरी रोढम क्लिंटन से उन्होंने विवाह किया। 1976 में वे अर्कसास के अटार्नी जनरल चुने गये फिर 1978 में वे वहीं के देश के सबसे कम उम्र के गवर्नर बनें जबकि 1980 में पुनः सत्तारूढ़ होने में असफल रहे। पुनः वे 1982 में गवर्नर बने गये और बाद के दो चुनावों तक भी बने रहे। वे आमतौर पर एक उदारवादी डेमोक्रेट के रूप में जाने जाते हैं। वे 1900-1991 तक मध्यमार्गी डेमोक्रेटिक परिषद् का नेतृत्व किये। 1992 में जब वे राष्ट्रपति के प्रारम्भिक चुनाव में डेमोक्रेटिक पार्टी के प्रत्याशी थे, प्रतिद्वन्दी सीनेटर अल गोर द्वारा उनके चरित्र और नीजी जीवन के बारे में प्रश्न उठाया गया था। परन्तु वे फिर भी द्वितीय विश्व युद्ध और शीत युद्ध के बाद जन्म लेने वाले पहले राष्ट्रपति बनें। 

”विश्व को लोकतन्त्र, भारत का उपहार; ज्ञान और सूचना आधारित सहयोग; भारत और अमेरिका मिलकर विश्व को नई दिशा दे सकता है; भारत यदि शून्य और दशमलव न दिया होता तो कम्प्यूटर चिप्स बनाना असम्भव होता; प्रत्येक देश कहता है हम महान हैं परन्तु कैसे ? यह सिद्ध करना एक चुनौती है । इत्यादि।“(भारत यात्रा पर दि0 20-24 मार्च’ 2000 के समय वक्तव्य)
-श्री विल क्लिन्टन, राष्ट्रपति, संयुक्त राज्य अमेरिका 
 
श्री लव कुश सिंह ”विश्वमानव“ द्वारा स्पष्टीकरण 
”महोदय, 11 सितम्बर’ 1893 में आपके संयुक्त राज्य अमेरिका के शिकागो शहर में आयोजित विश्व धर्म संसद को सम्बोधित करते हुए भारत का युवा सन्यासी स्वामी विवेकानन्द ने अमेरिका वासीयों को ‘मेरे अमेरिकी भाईयों और बहनों’ कहा था तथा ‘विश्व बन्धुत्व’ का सन्देश आपके संयुक्त राज्य और युरोपिय देशों में लगातार 3 वर्षों तक देता रहा। भारत भाव प्रधान देश है तथा आपका देश योजना प्रधान देश है। इसलिए प्रथमतया भाव से आघात करते हुए स्वामी जी ने ‘अमेरिकी भाईयों और बहनों’ कहा था, फिर योजना ‘विश्व बन्धुत्व’ का सन्देश दिया था। विश्व-बन्धुत्व एक सत्य-योजना है। जो अब विश्व की विवशता बन गयी है। आप भारत की यात्रा में भाव की प्रधानता को स्वयं अनुभव किये होंगे। यहाँ भाव पहले चलता है योजना और क्रियान्वयन बाद में जबकि आपके यहाँ इसके विपरीत कार्य होता है। यहाँ सीधे योजना और कार्य पर बात करने से कोई महत्व नहीं देता चाहे वह उसके हित का अन्तिम मार्ग ही क्यों न हो। भाव से मिलकर यहाँ दूसरे का गला भी काटा जा सकता है और काटा भी जा रहा है। यही कारण है कि यहाँ का गरीब समाज सदा गरीब ही बना रहता है। और योजना प्रधान व्यक्ति भोग करता है। निश्चय ही स्वामी विवेकानन्द का प्रयत्न सफल रहा है तभी आपके अन्दर का व्यक्तित्व भाव प्रधान बन पाया है जिसे भारतवासीयों ने सार्वजनिक प्रमाणित रुप से देखा और अनुभव किया है। हमारे धर्म साहित्य में एकात्म कथा को पुराण कहते हैं उसमें एकात्म ज्ञान और एकात्म वाणी समाहित एकात्म कर्म और एकात्म प्रेम के प्रक्षेपण को भगवान विष्णु कहते हैं जो सृष्टि के पालनकर्ता कहे जाते हैं। जिसमें से हमारा देश एकात्म प्रेम की तथा आपका देश एकात्म कर्म की प्राथमिकता वाला बन चुका है। इसलिए सम्पूर्ण विश्व को नई दिशा और उसका पालनकर्ता बनने के लिए दोनों देशों का मिलना अतिआवश्यक ही नहीं विवशता भी है क्योंकि एक दूसरे के बिना हम अधुरे हैं। भारत में कुछ ऐसे संकीर्ण विचार वाले नेतृत्वकर्ता हैं जो भारत को सिर्फ भारत की सीमा तक ही देखते हैं और अपने अस्तित्व व महत्व को बनाये रखने के लिए उसी प्रकार के मानवों का निर्माण कर प्राकृतिक बल के विरुद्ध उसी भाँति मूर्खता पूर्ण कार्य करते हैं जिस प्रकार तेज आंधी को शरीर से रोक लेने का प्रयत्न।
अनेक मत, सम्प्रदाय और धर्मों को साथ लेकर वर्षों से भारत विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र को सफलतापूर्वक बिना लोक या गण या जन के सत्य रुप को व्यक्त किये, बनाये हुए हैं। यह विश्व के समक्ष एक उदाहरण ही है। भारत का लोकतन्त्र विश्व का ही लोकतन्त्र है तथा भारत का संसद, विश्व संसद ही है। क्योंकि अन्य देश एक मत-सम्प्रदाय-धर्म को लेकर लोकतन्त्र नहीं चला पा रहे हैं यहाँ तो अनेक धर्म हैं और समभाव से हैं।
शाश्वत से भारत ने शून्य से अधिक कर्म ही नहीं किया। क्योंकि भारत अन्तर्मुखी आविष्कारक है। वह सम्पूर्ण आविष्कार सर्वप्रथम मन पर करता है। स्वामी विवेकानन्द ने अद्धैत-वेदान्त को मानव जीवन में उपयोगिता के लिए अन्तिम मार्ग बताया, वह भी तो शून्य अर्थात् मन पर ही आविष्कार का परिणाम था। निश्चय ही यदि भारत ने यदि शून्य और दशमलव का आविष्कार न किया होता तो कम्प्यूटर चिप्स बनाना असम्भव होता। पुनः मन पर ही आविष्कार का परिणाम है-विश्वमानक शून्य: मन की गुणवत्ता का विश्वमानक श्रृंखला, जो वर्तमान में आविष्कृत कर प्रस्तुत किया गया है। जिसके बिना अन्तर्राष्ट्रीय स्तर का मानव निर्माण ही असम्भव है। यही लोक या जन या गण का सत्य रुप है। यहीं आदर्श वैश्विक मानव का सत्य रुप है। जिससे पूर्ण स्वस्थ लोकतन्त्र, स्वस्थ समाज, स्वस्थ उद्योग की प्राप्ति होगी। इसी से विश्व-बन्धुत्व की स्थापना होगी। इसी से विश्व शिक्षा प्रणाली विकसित होगी। इसी से विश्व संविधान निर्मित होगा। इसी से संयुक्त राष्ट्र संघ अपने उद्देश्य को सफलता पूर्वक प्राप्त करेगा। इसी से 21 वीं सदी और भविष्य का विश्व प्रबन्ध संचालित होगा। इसी से मानव को पूर्ण ज्ञान का अधिकार प्राप्त होगा। यही परमाणु निरस्त्रीकरण का मूल सिद्धान्त है। भारत को अपनी महानता सिद्ध करना चुनौती नहीं है, वह तो सदा से ही महान है। पुनः विश्व का सर्वोच्च और अन्तिम अविष्कार विश्वमानक शून्य श्रृंखला को प्रस्तुत कर अपनी महानता को सिद्ध कर दिखाया है। बिल गेट्स के माइक्रोसाफ्ट आॅरेटिंग सिस्टम साफ्टवेयर से कम्प्यूटर चलता हेै । भारत के विश्वमानक शून्य श्रृंखला से मानव चलेगा। बात वर्तमान की है परन्तु हो सकता है स्वामी जी के विश्व बन्धुत्व की भाँति यह 100 वर्ष बाद समझ में आये। अपने ज्ञान और सूचना आधारित सहयोग की बात की है। विश्वमानक शून्य श्रृंखला से बढ़कर ज्ञान का सहयोग और क्या हो सकता है? इस सहयोग से भारत और अमेरिका मिलकर विश्व को नई दिशा सिर्फ दे ही नहीं सकते वरन् यहीं विवशतावश करना भी पड़ेगा। मनुष्य अब अन्तरिक्ष में उर्जा खर्च कर रहा है। निश्चय ही उसे पृथ्वी के विवाद को समाप्त कर सम्पूर्ण शक्ति को विश्वस्तरीय केन्द्रीत कर अन्तरिक्ष की ओर ही लगाना चाहिए। जिससे मानव स्वयं अपनी कृति को देख आश्चर्यचकित हो जाये जिस प्रकार स्वयं ईश्वर अपनी कृति को देखकर आश्चर्य में हैं और सभी मार्ग प्रशस्त हैं। भाव भी है। योजना भी है। कर्म भी है। विश्वमानक शून्य श्रृंखला भी है। फिर देर क्यों? और कहिए- वाहे गुरु की फतह!“ 






विश्वमानव और भारतीय संविधान

भारतीय संविधान

श्री लव कुश सिंह ”विश्वमानव“ द्वारा स्पष्टीकरण
सत्य से सार्वभौम सत्य-सिद्धान्त तक का र्माग अवतारों का मार्ग है। सार्वभौम सत्य-सिंद्धान्त की अनुभूति ही अवतरण है। इसके अंश अनुभूति को अंश अवतार तथा पूर्ण अनुभूति को पूर्ण अवतार कहते है। अवतार मानव मात्र के लिए ही कर्म करते हैं न कि किसी विशेष मानव समूह या सम्प्रदाय के लिए। अवतार, धर्म, धर्मनिरपेक्ष व सर्वधर्मसमभाव से युक्त अर्थात एकात्म से युक्त होते है। इस प्रकार अवतार से उत्पन्न शास्त्र मानव के लिए होते हैं, न कि किसी विशेष मानव समूह के लिए। उत्प्रेरक, शासक और मार्गदर्शक आत्मा सर्वव्यापी है। इसलिए एकात्म का अर्थ संयुक्त आत्मा या सार्वजनिक आत्मा है। जब एकात्म का अर्थ संयुक्त आत्मा समझा जाता है तब वह समाज कहलाता है। जब एकात्म का अर्थ व्यक्तिगत आत्मा समझा जाता है तब व्यक्ति कहलाता है। अवतार, संयुक्त आत्मा का साकार रुप होता है जबकि व्यक्ति व्यक्तिगत आत्मा का साकार रुप होता है। शासन प्रणाली में समाज का समर्थक दैवी प्रवृत्ति तथा शासन व्यवस्था प्रजातन्त्र या लोकतन्त्र या स्वतन्त्र या मानवतन्त्र या समाजतन्त्र या जनतन्त्र या बहुतन्त्र या स्वराज कहलाता है और क्षेत्र गणराज्य कहलाता है। ऐसी व्यवस्था सुराज कहलाती है। शासन प्रणाली में व्यक्ति का समर्थक असुरी प्रवृत्ति तथा शासन व्यवस्था राज्यतन्त्र या राजतन्त्र या एकतन्त्र कहलाता है और क्षेत्र राज्य कहलाता है ऐसी व्यवस्था कुराज कहलाती है। सनातन से ही दैवी और असुरी प्रवृत्तियों अर्थात् दोनों तन्त्रों के बीच अपने-अपने अधिपत्य के लिए संघर्ष होता रहा है। जब-जब समाज में एकतन्त्रात्मक या राजतन्त्रात्मक अधिपत्य होता है तब-तब मानवता या समाज समर्थक अवतारों के द्वारा गणराज्य की स्थापना की जाती है। या यूँ कहें गणतन्त्र या गणराज्य की स्थापना ही अवतार का मूल उद्देश्य अर्थात् लक्ष्य होता है शेष सभी साधन अर्थात् मार्ग ।
अवतारों के प्रत्यक्ष और प्रेरक दो कार्य विधि हैं। प्रत्यक्ष अवतार वे होते हैं जो स्वयं अपनी शक्ति का प्रत्यक्ष प्रयोग कर समाज का सत्यीकरण करते हैं। यह कार्य विधि समाज में उस समय प्रयोग होता है जब अधर्म का नेतृत्व एक या कुछ मानवों पर केन्द्रित होता है। प्रेरक अवतार वे होते हैं जो स्वयं अपनी शक्ति का अप्रत्यक्ष प्रयोग कर समाज का सत्यीकरण जनता एवं नेतृत्वकर्ता के माध्यम से करते हैं। यह कार्य विधि समाज में उस समय प्रयोग होता है जब समाज में अधर्म का नेतृत्व अनेक मानवों और नेतृत्वकर्ताओं पर केन्द्रित होता है।
इन विधियों में से कुल दस अवतारों में से प्रथम सात (मत्स्य, कूर्म, वाराह, नृसिंह, वामन, परशुराम, राम) अवतारों ने समाज का सत्यीकरण प्रत्यक्ष विधि के प्रयोग द्वारा किया था।  आठवें अवतार (श्रीकृष्ण) ने दोनों विधियों प्रत्यक्ष ओर प्रेरक का प्रयोग किया था। नवें (भगवान बुद्ध) और अन्तिम दसवें अवतार की कार्य विधि प्रेरक ही है।
जल-प्लावन (जहाँ जल है वहाँ थल और जहाँँ थल है वहाँ जल) के समय मछली से मार्ग दर्शन (मछली के गतीशीलता से सिद्धान्त प्राप्त कर) पाकर मानव की रक्षा करने वाला ईश्वर (सार्वभौम सत्य-सिद्धान्त) का पहला अंशावतार मतस्यावतार के बाद मानव का पुनः विकास प्रारम्भ हुआ। दूसरे कूर्मावतार (कछुए के गुण का सिद्धान्त), तीसरे- वाराह अवतार (सुअर के गुण का सिद्धान्त), चैथे- नृसिंह (सिंह के गुण का सिद्धान्त), तथा पाँचवे वामन अवतार (ब्राह्मण के गुण का सिद्धान्त) तक एक ही साकार शासक और मार्गदर्शक राजा हुआ करते थे और जब-जब वे राज्य समर्थक या उसे बढ़ावा देने वाले इत्यादि असुरी गुणों से युक्त हुए उन्हें दूसरे से पाँचवें अंशावतार ने साकार रुप में कालानुसार भिन्न-भिन्न मार्गों से गुणों का प्रयोग कर गणराज्य का अधिपत्य स्थापित किया। 
ईश्वर (सार्वभौम सत्य-सिद्धान्त) के छठें अंश अवतार परशुराम के समय तक मानव जाति का विकास इतना हो गया था कि अलग-अलग राज्यों के अनेक साकार शासक और मार्ग दर्शक राजा हो गये थे उनमें से जो भी राज्य समर्थक असुरी गुणों से युक्त थे उन सबको परशुराम ने साकार रुप में वध कर डाला। परन्तु बार-बार वध की समस्या का स्थाई हल निकालने के लिए उन्होंने राज्य और गणराज्य की मिश्रित व्यवस्था द्वारा एक व्यवस्था दी जो आगे चलकर ”परशुराम परम्परा“ कहलायी। व्यवस्था निम्न प्रकार थी-
1. प्रकृति में व्याप्त तीन गुण- सत्व, रज और तम के प्रधानता के अनुसार मनुष्य का चार वर्णों में निर्धारण। सत्व गुण प्रधान - ब्राह्मण, रज गुण प्रधान- क्षत्रिय, रज एवं तम गुण प्रधान- वैश्य, तम गुण प्रधान- शूद्र।
2.गणराज्य का शासक राजा होगा जो क्षत्रिय होगा जैसे- ब्रह्माण्डीय गणराज्य में प्रकृति जो रज गुण अर्थात् कर्म अर्थात् शक्ति प्रधान है।
3. गणराज्य में राज्य सभा होगी जिसके अनेक सदस्य होंगे जैसे- ब्रह्माण्डीय गणराज्य में प्रकृति के सत्व, रज एवं तम गुणों से युक्त विभिन्न वस्तु हैं।
4. राजा का निर्णय राजसभा का ही निर्णय है जैसे- ब्रह्माण्डीय गणराज्य में प्रकृति का निर्णय वहीं है जो सत्व, रज एवं तम गुणों का सम्मिलित निर्णय होता है। 
5. राजा का चुनाव जनता करे क्योंकि वह अपने गणराज्य में सर्वव्यापी और जनता का सम्मिलित रुप है जैसे- ब्रह्माण्डीय गणराज्य में प्रकृति सर्वव्यापी है और वह सत्व, रज एवं तम गुणों का सम्मिलित रुप है।
6. राजा और उसकी सभा राज्य वादी न हो इसलिए उस पर नियन्त्रण के लिए सत्व गुण प्रधान ब्राह्मण का नियन्त्रण होगा जैसे- ब्रह्माण्डीय गणराज्य में प्रकृति पर नियन्त्रण के लिए सत्व गुण प्रधान आत्मा का नियन्त्रण होता है।
ईश्वर (सार्वभौम सत्य-सिद्धान्त) के सातवें अंश अवतार श्रीराम ने इसी परशुराम परम्परा का ही प्रसार और स्थापना किये थे। 
ईश्वर (सार्वभौम सत्य-सिद्धान्त) के आठवें अवतार श्रीकृष्ण के समय तक स्थिति यह हो गयी थी राजा पर नियन्त्रण के लिए नियुक्त ब्राह्मण भी समाज और धर्म की व्याख्या करने में असमर्थ हो गये। क्योंकि अनेक धर्म साहित्यों, मत-मतान्तर, वर्ण, जातियों में समाज विभाजित होने से व्यक्ति संकीर्ण और दिग्भ्रमित हो गया था और राज्य समर्थकों की संख्या अधिक हो गयी थी परिणामस्वरुप मात्र एक ही रास्ता बचा था- नवमानव सृष्टि। इसके लिए उन्होंने सम्पूर्ण धर्म साहित्यों और मत-मतान्तरों के एकीकरण के लिए आत्मा के सर्वव्यापी व्यक्तिगत प्रमाणित निराकार स्वरुप का उपदेश ”गीता“ व्यक्त किये और गणराज्य का उदाहरण द्वारिका नगर का निर्माण कर किये । उनकी गणराज्य व्यवस्था उनके जीवन काल में ही नष्ट हो गयी परन्तु ”गीता“ आज भी प्रेरक बनीं हुई है।
  ईश्वर (सार्वभौम सत्य-सिद्धान्त) के नवें अवतार भगवान बुद्ध के समय पुनः राज्य एकतन्त्रात्मक होकर हिंसात्मक हो गया परिणामस्वरुप बुद्ध ने अहिंसा के उपदेश के साथ व्यक्तियों को धर्म, बुद्धि और संघ के शरण में जाने की शिक्षा दी। संघ की शिक्षा गणराज्य की शिक्षा थी। धर्म की शिक्षा आत्मा की शिक्षा थी। बुद्धि की शिक्षा प्रबन्ध और संचालन की शिक्षा थी जो प्रजा के माध्यम से प्रेरणा द्वारा गणराज्य के निर्माण की प्रेरणा थी। 
  ईश्वर (सार्वभौम सत्य-सिद्धान्त) के दसवें और अन्तिम अवतार के समय तक राज्य और समाज स्वतः ही प्राकृतिक बल के अधीन कर्म करते-करते सिद्धान्त प्राप्त करते हुए पूर्ण गणराज्य की ओर बढ़ रहा था परिणामस्वरुप गणराज्य का रुप होते हुए भी गणराज्य सिर्फ राज्य था और एकतन्त्रात्मक अर्थात् व्यक्ति समर्थक तथा समाज समर्थक दोनों की ओर विवशतावश बढ़ रहा था। 
भारत में निम्न्लिखित रुप व्यक्त हो चुका था।
1. ग्राम, विकास खण्ड, नगर, जनपद, प्रदेश और देश स्तर पर गणराज्य और गणसंघ का रुप।
2. सिर्फ ग्राम स्तर पर राजा (ग्राम व नगर पंचायत अध्यक्ष ) का चुनाव सीधे जनता द्वारा।
3. गणराज्य को संचालित करने के लिए संचालक का निराकार रुप- संविधान। 
4. गणराज्य के तन्त्रों को संचालित करने के लिए तन्त्र और क्रियाकलाप का निराकार रुप-नियम और कानून।
5. राजा पर नियन्त्रण के लिए ब्राह्मण का साकार रुप- राष्ट्रपति, राज्यपाल, जिलाधिकारी इत्यादि। 
विश्व स्तर पर निम्नलिखित रुप व्यक्त हो चुका था।
1. गणराज्यों के संघ के रुप में संयुक्त राष्ट्र संघ का रुप।
2. संघ के संचालन के लिए संचालक और संचालक का निराकार रुप- संविधान।
3. संघ के तन्त्रों को संचालित करने के लिए तन्त्र और क्रियाकलाप का निराकार रुप- नियम और कानून।
4. संघ पर नियन्त्रण के लिए ब्राह्मण का साकार रुप-पाँच वीटो पावर।
5. प्रस्ताव पर निर्णय के लिए सदस्यों की सभा।
6. नेतृत्व के लिए राजा- महासचिव।
जिस प्रकार आठवें अवतार द्वारा व्यक्त आत्मा के निराकार रुप ”गीता“ के प्रसार के कारण आत्मीय प्राकृतिक बल सक्रिय होकर गणराज्य के रुप को विवशतावश समाज की ओर बढ़ा रहा था उसी प्रकार अन्तिम अवतार द्वारा निम्नलिखित शेष समष्टि कार्य पूर्ण कर प्रस्तुत कर देने मात्र से ही विवशतावश उसके अधिपत्य की स्थापना हो जाना है। 
1. गणराज्य या लोकतन्त्र के सत्य रुप- गणराज्य या लोकतन्त्र के स्वरुप का अन्तर्राष्ट्रीय/ विश्व मानक।
2. राजा और सभा सहित गणराज्य पर नियन्त्रण के लिए साकार ब्राह्मण का निराकार रुप- मन का अन्तर्राष्ट्रीय/ विश्व मानक।
3. गणराज्य के प्रबन्ध का सत्य रुप- प्रबन्ध का अन्तर्राष्ट्रीय/ विश्व मानक।
4. गणराज्य के संचालन के लिए संचालक का निराकार रुप- संविधान के स्वरुप का अन्तर्राष्ट्रीय/ विश्व मानक।
5. साकार ब्राह्मण निर्माण के लिए शिक्षा का स्वरुप- शिक्षा पाठ्यक्रम का अन्तर्राष्ट्रीय/ विश्व मानक।
इस समष्टि कार्य द्वारा ही काल व युग परिवर्तन होगा न कि सिर्फ चिल्लाने से कि ”सतयुग आयेगा“, ”सतयुग आयेगा“ से। यह समष्टि कार्य जिस शरीर से सम्पन्न होगा वही अन्तिम अवतार के रूप में व्यक्त होगा। धर्म में स्थित वह अवतार चाहे जिस सम्प्रदाय (वर्तमान अर्थ में धर्म) का होगा उसका मूल लक्ष्य यही शेष समष्टि कार्य होगा और स्थापना का माध्यम उसके सम्प्रदाय की परम्परा व संस्कृति होगी।  
जिस प्रकार केन्द्र में संविधान संसद है, प्रदेश में संविधान विधान सभा है उसी प्रकार ग्राम नगर में भी संविधान होना चाहिए जिस प्रकार केन्द्र और प्रदेश के न्यायालय और पुलिस व्यवस्था है उसी प्रकार ग्राम नगर के भी होने चाहिए कहने का अर्थ ये है कि जिस प्रकार की व्यवस्थाये केन्द्र और प्रदेश की अपनी हैं उसी प्रकार की व्यवस्था छोटे रुप में ग्राम नगर की भी होनी चाहिए। संघ (राज्य) या महासंघ (केन्द्र) से सम्बन्ध सिर्फ उस गणराज्य से होता है प्रत्येक नागरिक से नहीं संघ या महासंघ का कार्य मात्र अपने गणराज्यों में आपसी समन्वय व सन्तुलन करना होता है उस पर शासन करना नहीं तभी तो सच्चे अर्थों में गणराज्य व्यवस्था या स्वराज-सुराज व्यवस्था कहलायेगी। यहीं राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी की प्रसिद्ध युक्ति ”भारत ग्राम (नगर) गणराज्यों का संघ हो“ और ”राम राज्य“ का सत्य अर्थ है।

”किसी देश का संविधान, उस देश के स्वाभिमान का शास्त्र तब तक नहीं हो सकता जब तक उस देश की मूल भावना का शिक्षा पाठ्यक्रम उसका अंग न हो। इस प्रकार भारत देश का संविधान भारत देश का शास्त्र नहीं है। संविधान को भारत का शास्त्र बनाने के लिए भारत की मूल भावना के अनुरूप नागरिक निर्माण के शिक्षा पाठ्यक्रम को संविधान के अंग के रूप में शामिल करना होगा। जबकि राष्ट्रीय संविधान और राष्ट्रीय शास्त्र के लिए हमें विश्व के स्तर पर देखना होगा क्योंकि देश तो अनेक हैं राष्ट्र केवल एक विश्व है, यह धरती है, यह पृथ्वी है। भारत को विश्व गुरू बनने का अन्तिम रास्ता यह है कि वह अपने संविधान को वैश्विक स्तर पर विचार कर उसमें विश्व शिक्षा पाठ्यक्रम को शामिल करे। यह कार्य उसी दिशा की ओर एक पहल है, एक मार्ग है और उस उम्मीद का एक हल है। राष्ट्रीयता की परिभाषा व नागरिक कर्तव्य के निर्धारण का मार्ग है। जिस पर विचार करने का मार्ग खुला हुआ है।“ - लव कुश सिंह ”विश्वमानव“