Action Plan of New Human, New India, New World based on Universal Unified Truth-Theory. According to new discovery World Standard of Human Resources series i.e. WS-0 Series like ISO-9000, ISO-14000 etc series
”मैं इस लव कुश सिंह नामक भौतिक शरीर को प्रणाम करता हूँ जिसके माध्यम से और उसका प्रयोग कर मैंने स्व को व्यक्त करने के लिए एवं मानव कल्याण हेतु इस शास्त्र को आपके समक्ष प्रस्तुत किया। साथ ही इस शरीर के माध्यम से नकारात्मक व सकारात्मक चरित्रों को व्यक्त कर विश्व के दर्पण के रूप में इसे प्रस्तुत किया। जिससे मानव यह जान सके कि मैं इन सब से मुक्त था। मैं प्रारम्भ से अन्त तक केवल उस शरीर पर ही ध्यान करता रहा हूँ जिससे यथार्थ धर्म की स्थापना करता हूँ शेष सभी तो साधन मात्र हैं। ध्यान के लिए यही मेरी सत्य विधि रही है। मंत्र, मूर्ति, प्रतीक, शब्द इत्यादि तो केवल उपविधियाँ हैं जिससे भटकाव भी सम्भव है।“
-विश्वात्मा/विश्वमन
”जितने दिनों से जगत है उतने दिनों से मन का अभाव-उस एक विश्वमन का अभाव कभी नहीं हुआ। प्रत्येक मानव, प्रत्येक प्राणी उस विश्वमन से ही निर्मित हो रहा है क्योंकि वह सदा ही वर्तमान है। और उन सब के निर्माण के लिए आदान-प्रदान कर रहा है।“
”मैं उन सभी ईश्वर के अवतारों और शास्त्रों, धर्माचार्यों, सिद्धों, संतों, महापुरूषों, भविष्यवक्ताओं, तपस्वीयों, विद्वानों, बुद्धिजिवीयों, व्यापारीयों, दृश्य व अदृश्य विज्ञान के वैज्ञानिकों, सहयोगीयों, विरोधीयों, रक्त-रिश्ता-देश सम्बन्धियों, उन सभी मानवों, समाज व राज्य के नेतृत्वकर्ताओं और विश्व के सबसे बड़े लोकतन्त्र के संविधान को प्रणाम करता हूँ जिन्होंने मुझे व्यक्त होने के लिए, मेरे व्यक्त होने के पहले, वर्तमान में और भविष्य के लिए, इस मनुष्य समाज में मानव मन और साधन का निर्माण कर मुझे व्यक्त होने के लिए व्यापक आधार बना, मुझे व्यक्त होने पर विवश कर दिये। अगर ये न होते तो निश्चित रूप से मैं न होता और मुझ जैसा निश्चित रूप से कोई व्यक्त हो भी नहीं सकता।“
-लव कुश सिंह ”विश्वमानव“
”शास्त्र शब्द से अनादि अनन्त ”वेद“ का ही बोध होता है। धर्म शासन में वेद ही एकमात्र समर्थ है। पुराणादि अन्य धर्म ग्रन्थों को ”स्मृति“ संज्ञा देते हैं और जहाँ तक वे श्रुति के अनुगामी हैं, वहीं तक उनका प्रमाण्य है, आगे नहीं। सत्य के दो अंग है। पहला जो साधारण मानवों को पांचेन्द्रियग्राह्य एवम् उसमें उपस्थापित अनुमान द्वारा गृहीत है और दूसरा-जिसका इन्द्रियातीत सूक्ष्म योगज शक्ति के द्वारा ग्रहण होता है। प्रथम उपाय के द्वारा संकलित ज्ञान को ”विज्ञान“ कहते है, तथा द्वितीय प्रकार के संकलित ज्ञान को ”वेद“ संज्ञा दी है। वेद नामक अनादि अनन्त अलौकिक ज्ञानराशि सदा विद्यमान है। स्वंय सृष्टिकत्र्ता उसकी सहायता से इस जगत के सृष्टि-स्थिति-प्रलय कार्य सम्पन्न कर रहे हैं। जिन पुरूषों में उस इन्द्रियातीत शक्ति का आविर्भाव है, उन्हें ऋषि कहते है और उस शक्ति के द्वारा जिस अलौकिक सत्य की खोज उन्होंने उपलब्धि की है, उसे ”वेद“ कहते हैं। इस ऋषित्व तथा वेद दृष्टत्व को प्राप्त करना ही यथार्थ धर्मानुभूति है। साधक के जीवन में जब तक उसका उन्मेंष नहीं होता तब तक ”धर्म“ केवल कहने भर की बात है एवम् समझना चाहिए कि उसने धर्मराज्य के प्रथम सोपान पर भी पैर नहीं रखा है। समस्त देश-काल-पात्र को व्याप्त कर वेद का शासन है अर्थात वेद का प्रभाव किसी देश, काल या पात्र विशेष द्वारा सीमित नहीं हैं। सार्वजनिन धर्म का व्याख्याता एक मात्र ”वेद“ ही है।“(भगवान श्रीरामश्रीकृष्ण तथा संघ, श्रीरामश्रीकृष्ण मिशन, पृष्ठ-2)-स्वामी विवेकानन्द
”वेद“ का अर्थ है-ईश्वरीय ज्ञान की राशि। विद् धातु का अर्थ है-जानना। वेदान्त नामक ज्ञानराशि ऋषि नाम धारी पुरूषों के द्वारा आविष्कृत हुई है। ऋषि शब्द का अर्थ है-मन्त्रद्रष्टा। पहले ही से वर्तमान ज्ञान को उन्होंने प्रत्यक्ष किया है। वह ज्ञान तथा भाव उनके अपने विचारों का फल नहीं था। जब कभी आप सुनें कि वेदों के अमुक अंश के ऋषि अमुक है, तब यह मत सोचिए कि उन्होंने उसे लिखा या अपनी बुद्धि द्वारा बनाया है, बल्कि पहले ही से वर्तमान भाव राशि के वे द्रष्टा मात्र है-वे भाव अनादि काल से ही इस संसार में विद्यमान थे, ऋषि ने उनका आविष्कार मात्र किया। ऋषिगण आध्यात्मिक आविष्कारक थे।-(हिन्दू धर्म, पृष्ठ-27)
प्रस्तुत शास्त्र का मुख्य विषय ”मन का विश्वमानक-शून्य (WS-0) श्रंृखला और पूर्ण मानव निर्माण की तकनीकी-WCM-TLM-SHYAM.C है जो सम्पूर्ण विश्व के लिए सकारात्मक विचारों के एकीकरण के द्वारा मानव मस्तिष्क के एकीकरण के लिए आविष्कृत है। जिसे आविष्कारक ने इस चुनौती के साथ प्रस्तुत किया है कि यह विश्व व्यवस्था के लिए अन्तिम है। आविष्कार के मुख्य विषय के अलावा सभी आॅकड़े उस आविष्कार को आधार एवं पुष्टि प्रदान करने के लिए प्रयुक्त किये गये हैं जो वर्तमान समाज में पहले से ही प्रमाण स्वरूप विद्यमान हैं।
”सत्यकाशी ब्रह्माण्डीय एकात्म विज्ञान विश्वविद्यालय (स.ब्र.ए.वि.वि), ट्रस्ट इस आविष्कार को अन्तिम होने की पुष्टि करते हुये और उसके प्रति ध्यानाकर्षण करने हेतु यह घोषणा करता है कि जब तक मानव सृष्टि रहेगी तब तक मानव मस्तिष्क के एकीकरण और विश्व व्यवस्था, शान्ति, एकता, स्थिरता, एकीकरण सहित स्वस्थ लोकतन्त्र इत्यादि के लिए कोई दूसरा इससे अच्छा आविष्कार यदि प्रस्तुत होता है तब ट्रस्ट उस व्यक्ति/संस्था को भारतीय रूपये ;प्छब्द्ध 1 करोड़ का पुरस्कार प्रदान करेगी जो काल के दूसरे और अन्तिम दृश्य काल व युग के चैथे-कलियुग के अन्त और पाँचवें स्वर्णयुग के प्रारम्भ के दिन शनिवार, 22 दिसम्बर, 2012 से लागू होकर अनन्त काल तक चलता रहेगा।
31 दिसम्बर, 2021 तक उपरोक्त पुरस्कार यदि कोई व्यक्ति या संस्था इसे न प्राप्त कर सका तो प्रारम्भ 22 दिसम्बर, 2012 से 1 जनवरी, 2022 तक 9 प्रतिशत वार्षिक ब्याज सहित मूल राशि को मूलधन के रूप में समायोजित कर उस राशि पर प्राप्त प्रत्येक वर्ष के ब्याज की राशि को प्रत्येक वर्ष ऐसे 10 शोध छात्रों को छात्रवृत्ति के रूप में वितरित की जायेगी जो विश्व एकीकरण की दिशा में किसी विषय में शोध के इच्छुक होगें। बावजूद इसके उपरोक्त 1 करोड़ रूपये का पुरस्कार अनन्त काल तक के लिए चलता ही रहेगा।
(चन्द्रेश कुमार)
मुख्य ट्रस्टी एवं अध्यक्ष
सत्यकाशी ब्रह्माण्डीय एकात्म विज्ञान विश्वविद्यालय (स.ब्र.ए.वि.वि)
”मैंनें बिना किसी धर्म के धर्म गुरू के मागदर्शन के ”विश्वशास्त्र“ की रचना स्वप्रेरणा से की है। वर्तमान समाज कहता है कि बिना गुरू के ज्ञान नहीं होता। इस सूत्र से मैं अभी भी अज्ञानी हूँ और मुझे ज्ञान की आवश्यकता अभी भी है। मैंने जीवन पर्यन्त प्रत्येक से कुछ न कुछ ज्ञान प्राप्त किया है इसलिए मेरा कोई एक गुरू नहीं हो सकता। मेरी इच्छा है कि वर्तमान समय में उपलब्ध विभिन्न धर्म के धर्म गुरूओं का मैं शिष्यत्व ग्रहण करूँ। शिष्य अपनी योग्यता प्रस्तुत कर चुका है। मुझे आशा ही नहीं पूर्ण विश्वास है कि विभिन्न धर्म के धर्म गुरूओं को मुझे शिष्य के रूप में स्वीकार करने पर गर्व का अनुभव होगा। जब समाज को यह विश्वास हो जाये कि मैं ही राष्ट्र-पुत्र स्वामी विवेकानन्द का सार्वजनिक प्रमाणित पुर्नजन्म हँू और उनके विश्व-बन्धुत्व के विचार के विश्वव्यापी स्थापना के लिए शासन प्रणाली के अनुसार प्रारूप प्रस्तुत किया हूँ तब मुझे किसी राष्ट्रीय स्तर के आयोजन में वैसा ही वस्त्र धारण कराया जाय जैसा कि राष्ट्र-पुत्र स्वामी विवेकानन्द ने शिकागो धर्म संसद वकृतता में धारण कर रखा था तथा ब्रह्माण्ड से मेरे असीम प्रेम को सार्वजनिक प्रमाणित सिद्ध किया जाये क्योंकि बिना व्यापक प्रेम के व्यापक कर्म नहीं हो सकता, न ही बिना व्यापक कर्म के व्यापक प्रेम हो सकता है। यह इसलिए है कि प्रेम व कर्म एक दूसरे के अदृश्य व दृश्य रूप है। और मैं कर्म करके ऋृषि, महात्मा या सन्यासी का वस्त्र पाना चाहता हूँ जिससे मैं यह जान सकूँ कि मैं इस योग्य हूँ। बस इतना ही समाज से मेरी अन्तिम इच्छा है।“
”भाईयों! हिन्दुओं के धार्मिक विचारों की यहीं संक्षिप्त रूपरेखा है। हो सकता है कि हिन्दू अपनी सभी योजनाओं को कार्यान्वित करने में असफल रहा हो, पर यदि कभी कोई सार्वभौमिक धर्म हो सकता है, तो वह ऐसा ही होगा, जो देश या काल से मर्यादित न हो, जो उस अनन्त भगवान के समान ही अनन्त हो, जिस भगवान के सम्बन्ध में वह उपदेश देता है, जिसकी ज्योति श्रीकृष्ण के भक्तों पर और ईसा के प्रेमियों पर, सन्तों पर और पापियों पर समान रूप से प्रकाशित होती हो, जो न तो ब्राह्मणों का हो, न बौद्धों का, न ईसाइयों का और न मुसलमानों का, वरन् इन सभी धर्मों का समष्टिस्वरूप होते हुये भी जिसमें उन्नति का अनन्त पथ खुला रहे, जो इतना व्यापक हो कि अपनी असंख्य प्रसारित बाहुओं द्वारा सृष्टि के प्रत्येक मनुष्य का प्रेमपूर्वक आलिंगन करें।... वह विश्वधर्म ऐसा होगा कि उसमें किसी के प्रति विद्वेष अथवा अत्याचार के लिए स्थान न रहेगा, वह प्रत्येक स्त्री और पुरूष के ईश्वरीय स्वरूप को स्वीकार करेगा और सम्पूर्ण बल मनुष्यमात्र को अपनी सच्ची, ईश्वरीय प्रकृति का साक्षात्कार करने के लिए सहायता देने में ही केन्द्रित रहेगा।“
”जीवन में मेरी सर्वोच्च अभिलाषा यह है कि ऐसा चक्र प्रर्वतन कर दूँ जो कि उच्च एवम् श्रेष्ठ विचारों को सब के द्वार-द्वार पर पहुँचा दे। फिर स्त्री-पुरूष को अपने भाग्य का निर्माण स्वंय करने दो। हमारे पूर्वजों ने तथा अन्य देशों ने जीवन के महत्वपूर्ण प्रश्नों पर क्या विचार किया है यह सर्वसाधारण को जानने दो। विशेषकर उन्हें देखने दो कि और लोग क्या कर रहे हैं। फिर उन्हंे अपना निर्णय करने दो। रासायनिक द्रव्य इकट्ठे कर दो और प्रकृति के नियमानुसार वे किसी विशेष आकार धारण कर लेगें-परिश्रम करो, अटल रहो। ”धर्म को बिना हानि पहुँचाये जनता की उन्नति“-इसे अपना आदर्श वाक्य बना लो।“ (विवेकानन्द राष्ट्र को आह्वान, राम कृष्ण मिशन, पृष्ठ-66)-स्वामी विवेकानन्द
”उसी मूल सत्य की फिर से शिक्षा ग्रहण करनी होगी, जो केवल यहीं से, हमारी इसी मातृभूमि से प्रचारित हुआ था। फिर एक बार भारत को संसार में इसी मूल तत्व का-इसी सत्य का प्रचार करना होगा। ऐसा क्यों है? इसलिए नहीं कि यह सत्य हमारे शास्त्रों में लिखा है वरन् हमारे राष्ट्रीय साहित्य का प्रत्येक विभाग और हमारा राष्ट्रीय जीवन उससे पूर्णतः ओत-प्रोत है। इस धार्मिक सहिष्णुता की तथा इस सहानुभूति की, मातृभाव की महान शिक्षा प्रत्येक बालक, स्त्री, पुरुष, शिक्षित, अशिक्षित सब जाति और वर्ण वाले सीख सकते हैं। तुमको अनेक नामों से पुकारा जाता है, पर तुम एक हो।“ (जितने मत उतने पथ, राम कृष्ण मिशन, पृष्ठ-39)-स्वामी विवेकानन्द
“इस ब्रह्माण्ड से प्रेम करने के लिए मुझे किसी के सहमति की आवश्यकता नहीं। मेरा प्रेम एक-तरफा है, मैं इसे प्रेम करूगाँ ही, इससे मुझे कोई रोक नहीं सकता। इस प्रेम का परिणाम ही है- सत्य-शिव-सुन्दर बनाने का मेरे द्वारा व्यक्त कर्म।
मैं ही असीम शान्ति हूँ और असीम युद्ध भी मैं ही हूँ।”
- अनिवर्चनीय कल्कि महाअवतार लव कुश सिंह “विश्वमानव”
“परमात्मा त्यागी नहीं है, परमात्मा परम भोगी है, इस सारे अस्तित्व के भोग में लीन है। परमात्मा स्वयं त्यागी नहीं है। लेकिन तुम्हारे तथाकथित महात्माओं ने तुम्हें समझा दिया है। इस त्याग के कारण या तो तुम दीन हो जाते हो- एक परिणाम, कि तुम्हें लगता है मैं गर्हित, मैं निंदित, मैं पापी, मैं नारकीय, मुझसे त्याग नहीं होता! या, अगर तुम चालबाज हुये, चालाक हुये- वह तरकीब निकाल लेगा वह त्याग का आवरण खड़ा कर लेगा।”
- आचार्य रजनीश “ओशो”
भोगेश्वर रुप: कर्मज्ञान का विश्वरुप
सत्य-धर्म-ज्ञान या सार्वभौम आत्मा प्रारम्भ में अव्यक्त व्यक्तिगत प्रमाणित है तो अन्त में दृश्य सार्वभौम सत्य-सिद्धान्त का रुप लेकर ही सार्वजनिक प्रमाणित होगा। जिसके द्वारा यह प्रमाणित हो जायेगा कि सम्पूर्ण जगत में जो भी गतिशील है, वास्तव में वह गतिशील नहीं बल्कि उसके पीछे जो सत्य-सिद्धान्त है उसके द्वारा ही सिद्धान्तानुसार गतिशील है। इस सिद्धान्त को व्यक्त करने वाला मानव ही है अर्थात् भले ही वह सिद्धान्त किसी एक व्यक्ति के माध्यम से व्यक्त होता है लेकिन वह विचार नहीं बल्कि सार्वजनिक प्रमाणित सत्य-सिद्धान्त ही होगा। इस प्रकार किसी भी विषय से जुड़ना योग है और मैं या आत्मा या ईश्वर या ब्रह्म या शिव से जुड़ना योगेश्वर है।
पाश्चात्य का समस्त कार्यप्रणाली भोग पर आधारित है। जिस प्रकार ईश्वर जीवन का एक सत्य है। इसी प्रकार भोग भी जीवन का एक सत्य है। क्योंकि कोई भी एक क्षण कर्म किये बिना नहीं रह सकता फिर कर्म होने पर भोग तो निश्चित है। इस प्रकार किसी भी विषय पर कर्म करना भोग है और मैं या आत्मा या ब्रह्म या शिव या ईश्वर से जुड़कर भोग या कर्म करना भोगेश्वर है।
योगेश्वर का अर्थ सार्वभौम अदृश्य सत्य-धर्म-ज्ञान या आत्मा का विश्वरुप है तथा भोगेश्वर का अर्थ योगेश्वर का दृश्य रुप अर्थात् सार्वभौम अदृश्य-सत्य-धर्म-ज्ञान या आत्मा का दृश्य रुप सार्वभौम कर्म ज्ञान अर्थात् भोग ज्ञान अर्थात् सार्वभौम सत्य-सिद्धान्त है। योगेश्वर सार्वभौम विश्व ज्ञान का प्रतीक है तो भोगेश्वर सार्वभौम विश्व कर्मज्ञान अर्थात् सत्य जीवन प्रणाली का प्रतीक है। भोगेश्वर, योगेश्वर का ही दृश्य रुप है। भोगेश्वर में योगेश्वर समाहित है। श्रीकृष्ण ने महाभारत में गीता उपदेश के समय अपने योगेश्वर रुप अर्थात् ज्ञान के विश्वरुप की व्याख्या कर अर्जुन को अनासक्त कर्म की ओर प्रेरित किये थे लेकिन कहीं भी उन्होंने उस कर्म ज्ञान की व्याख्या नहीं की जिसके आधार पर वे धर्म की स्थापना के लिए उपलब्ध साधनों पर अपनी योजना तैयार किये अर्थात् भगवान श्रीकृष्ण में योगेश्वर रुप चरम विकसित व्यक्त अवस्था में तथा भोगेश्वर रुप चरम विकसित अव्यक्त अवस्था में था। वेदान्त की शाखाओं में कर्मवेदान्त अन्तिम शाखा है जो सबसे महत्वपूर्ण शाखा भी है जिसके बिना मानव संसाधन विकास, प्रबन्धकीय प्रशिक्षण, मानवाधिकार इत्यादि पर खर्च बढ़ता ही जायेगा और पूर्ण स्वस्थ समाज, लोकतन्त्र, उद्योग और मानव का निर्माण भी नहीं हो पायेगा। ज्ञान मार्ग से मानव को पूर्णता एवं विज्ञान के साथ उपयोगिता की आवश्यकता के कारण ही समयानुसार यह ज्ञान भोगेश्वर रुप में व्यक्त हुआ है। मानव का मानक विश्वमानव के भोगेश्वर रुप में योगेश्वर रुप चरम विकसित अव्यक्त अवस्था में तथा भोगेश्वर रुप चरम विकसित व्यक्त अवस्था में है।
भौतिकता युक्त पाश्चात्य का आध्यात्मिकता युक्त प्राच्य का सामंजस्य स्थापित कर कर्म करना ही अब इक्कीसवीं सदी और भविष्य की जीवन प्रणाली है अर्थात् भोगेश्वर रुप ही भविष्य की जीवन प्रणाली है। यदि यह सम्भव हो कि एक चेतना युक्त परमाणु स्वयं अपने इलेक्ट्रानों को घटा-बढ़ा सके तो वह परमाणु सभी तत्वों के गुणांें या प्रकृति को व्यक्त करने लगेगा। ऐसी स्थिति में उस जटिल और मूल परमाणु को किसी विशेष तत्व का परमाणु निर्धारित करना असम्भव हो जायेगा। फिर उसे ”एक में सभी, सभी में एक“ कहना पड़ेगा अर्थात् उसकी निम्नतम् एवं सर्वोच्चतम अन्तिम स्थिति ही उसकी निर्धारण योग्य प्रकृति होगी।
मानव वह चेतना युक्त आत्मा है जो स्वयं अपने मन की उच्चता और निम्नता पर आवश्यकता एवं समयानुसार नियन्त्रण कर सकता है और सभी तरह के व्यक्तियों के गुणों या प्रकृति को व्यक्त कर सकता है। ऐसी स्थिति में उस जटिल व्यक्ति को किसी विशेष प्रकृति का व्यक्ति निर्धारण करना असम्भव हो जायेगा। फिर उसे ”एक में सभी, सभी में एक“ कहना पड़ेगा अर्थात् उसकी निम्नतम पशुमानव और उच्चतम विश्वमानव स्थिति ही उसकी निर्धारण योग्य प्रकृति होगी।
जिस प्रकार अदृश्य काल से आत्मीय काल की अवस्था में स्थित भगवान श्रीकृष्ण एक जटिल और अनिर्धारण योग्य चरित्र थे, जिनको पूर्ण रुप में स्वीकार या आत्मसात् करना साधारण मानव के लिए कठिन है। सिवाय इसके कि- ‘‘एक में सभी, सभी में एक’’ या ”एक साधारण नागरिक, एक सर्वोच्च और अन्तिम मानव“। इस प्रकार ऐसे व्यक्ति स्वयं अपने उद्देश्यों के विग्रह हो जाते हैं और स्वयं उनका जीवन मानक नहीं बन पाता सिर्फ उनका ज्ञान ही मानक होता है।
अवतारों में उपरोक्त अवस्था अवश्य विशेष रुप से पायी जाती है। जिससे वे उचित समय के आने तक स्वयं को व्यक्त नहीं होने देते और विभिन्न मन स्तर के क्रियाकलाप करते हुए वे उन क्रियाकलापों के फल से मुक्त रहकर लीला करते रहते हैं। लीला का अर्थ उन्हीं क्रियाकलापों से होता है। जो लीला कर्ता को वास्तविक चरित्र या कर्म नहीं होता परन्तु वे अवश्य ऐसा करते हैं। क्योंकि शरीर धारण की कीमत तो चुकानी ही पड़ती है। इस प्रकार आत्मीय काल अवस्था में स्थित अर्थात् स्वयं अपनी अन्तः एवं वाह्य प्रकृति को नियन्त्रित कर उचित समय आने पर वे स्वयं व्यक्त होते हैं और व्यक्त होने तक का जीवन हँसते, खेलते हुए ध्यान से युक्त होता है। जिससे वे बखूबी दूसरों के प्रकृति को जानकर उसके कर्मानुसार फल, सलाह और सचेत करते रहते हैं। अन्ततः अपने उद्देश्यों के लिए विरोधी और समर्पण भक्ति के रुप में उनका प्रयोग करते हैं।
हिन्दू धर्म में पुराणों के अनुसार शिवजी जहाँ-जहाँ स्वयं प्रगट हुए उन बारह स्थानों पर स्थित शिवलिंगों को ज्योतिर्लिंगों के रूप में पूजा जाता है। ये संख्या में 12 है। 12 ज्योतिर्लिंगों के नाम शिव पुराण (शतरुद्र संहिता, अध्याय 42/2-4) के अनुसार हैं। जिनकी अपनी-अपनी कथाएँ भी हैं। एक मतानुसार बारह ज्योतिर्लिंगों को बारह राशियों से जोड़कर भी देखा जाता है। ये राशियां इस प्रकार से हैं- 1.मेष-सोमनाथ, 2.वृष-श्रीशैल, 3.मिथुन-महाकाल, 4.कर्क-अमलेश्वर, 5.सिंह-वैद्यनाथ, 6.कन्या-भीमशंकर, 7.तुला-रामेश, 8.वृश्चिक-नागेश, 9.धनु-विश्वेशं, 10.मकर-त्र्यम्बकं, 11. कुंभ-केदार, 12. मीन-घृष्णेशं। ये राशियां चंद्र राशि समझें।
साधारण भाषा व सार्वभौम परिभाषा के रूप में जिन शिवलिंगो की कथा पौराणिक या अवतारों की कथा से जुड़ी होती है सिर्फ वही ज्योर्तिलिंग की योग्यता रखते हैं।
जिस प्रकार शिव भक्त रावण से जुड़ी घटना के कारण ज्योतिर्लिंग श्री वैद्यनाथ स्थापित है और सातवें अवतार श्रीराम से जुड़ी ज्योतिर्लिंग श्री रामेश्वर है। उसी प्रकार श्री लव कुश सिंह ”विश्वमानव“ से जुड़ा है- 13वाँ और अन्तिम ज्योतिर्लिंग- भोगेश्वरनाथ। जिसकी स्थापना, निर्माण व प्रबन्ध सत्यकाशी ट्रस्ट के अधीन है। सत्यकाशी पंचदर्शन के अन्तर्गत यह मन्दिर सम्मिलित है। 13वाँ और अन्तिम ज्योतिर्लिंग- भोगेश्वरनाथ को व्यक्त और स्थापित करने की श्री लव कुश सिंह ”विश्वमानव“ की योग्यता यह है कि उन्होंने कश्मीरी शैव तन्त्र व पाशुपत दर्शन से जीवन जीते हुए शिव तन्त्र का शास्त्र कर्मवेद: प्रथम, अन्तिम तथा पंचम वेद समाहित - ”विश्वशास्त्र - द नाॅलेज आॅफ फाइनल नाॅलेज“ की रचना सत्यकाशी क्षेत्र से ही की है।
भोगेश्वरनाथ: 13वाँ और अन्तिम ज्योतिर्लिंग क्यों?
1.काशी मोक्षदायिनी है तो जीवनदायिनी काशी कहाॅँ गयी ? जीवनदायिनी काशी ही सत्यकाशी है जहाँ से पाँचवाँ वेद-कर्मवेद समाहित जीवनशास्त्र - विश्वशास्त्र व्यक्त हुआ है। यह सत्यकाशी क्षेत्र, वाराणसी-विन्ध्याचल-शिवद्वार-सोनभद्र के बीच का क्षेत्र है।
2.प्रत्येक मास में कृष्ण पक्ष की तेरहवीं तिथि की रात्रि मास शिवरात्रि तथा फाल्गुन मास की कृष्ण पक्ष की तेरहवीं तिथि की रात्रि महाशिवरात्रि कहलाती है। मनुष्य के जन्म के बारहवीं तिथि के संस्कार को बरही तथा शरीर से मुक्त होने के तेरहवीं तिथि के अन्तिम संस्कार को तेरहवीं कहते हैं अर्थात तेरह का अंक शिव-शंकर का प्रतीक है। तब तेरहवां ज्योर्तिलिंग कहाॅँ है क्योकि केवल द्वादस ज्योतिर्लिंग ही हम सब जानते हैं, ंइस तेरहवें ज्योतिर्लिंग की स्थापना ही सत्यकाशी तीर्थ का महत्व है।
3.आदि शंकराचार्य ने चार वेदों को प्रतीक मंें लेते हुए चार पीठ की स्थापना की जिस पर चार शंकराचार्य विद्यमान हैं और अब अन्तिम शास्त्र विश्वशास्त्र में समाहित पाँचवें वेद - कर्मवेद के साथ पाँचवें पीठ की आवश्यकता है जो सत्यकाशी पीठ है।
4.समस्त विश्व को अणु रूप में धारण करने वाले देवता को विष्णु कहते हैं और समस्त विश्व को तन्त्र के रूप में धारण करने वाले देवता को शिव कहते हैं। विष्णु, सार्वभौम आत्मा के प्रतीक हैं और शिव, सार्वभौम सिद्धान्त के प्रतीक हैं। आत्मा अदृश्य है, सिद्धान्त दृश्य है अर्थात विष्णु के ही दृश्य रूप शिव हैं। इसलिए ही सत्यकाशी तीर्थ में स्थापित होने वाले 13वें ज्योतिर्लिंग के प्रतीक में विष्णु का प्रतीक सुदर्शन चक्र और शंख समर्पित है।
प्रत्येक आविष्कार के साथ जो घटनाएँ घटित होती है उनका स्पष्टीकरण निम्नवत् है-
01. आविष्कार क्यों हुआ?
स्थिर सूर्य हमेंशा गर्मी व प्रकाश दे रहा है। यह अलग बात है कि गतिशील पृथ्वी पर जिस ओर प्रकाश पहुँच रहा है, उधर दिन है और जिस ओर नहीं पहुँच रहा उधर रात है। चाँद भी सूर्य के प्रकाश को लेकर पृथ्वी के रात के हिस्से में शीतल प्रकाश दे रहा है। हवा बहती है तो जीव-जन्तुओं को अच्छा लगता है। फलदार वृक्षों का फल खाना हमारी आवश्यकता है। रंग-बिरंगे फूल व अन्य के गंध से हमें सुगन्ध व दुर्गन्ध का आभास होता है। कोयल की आवाज हमें अच्छी लगती है।
परन्तु, सूर्य इसलिए गर्मी व प्रकाश नहीं दे रहा कि पृथ्वीवासीयों के कल्याण के लिए यह आवश्यक है। वह तो अपनी शान्ति व स्थिरता के लिए जल रहा है। उसके इस जलन में वनस्पतियों व जीवों की आवश्यकता सम्मिलित हो तो इससे सूर्य को क्या मतलब? इसी प्रकार चाँद की शीतलता भी हमारी आवश्यकता को ध्यान में रखकर नहीं आती। हवा भी हमारे लिए नहीं बहती, वह तो अपनी शान्ति व स्थिरता के लिए एक ओर से दूसरी ओर भागती है। बीच में हम सभी आ जाते हैं और उसका स्पर्श हमें अच्छा लगता है। फलदार वृक्ष भी इसलिए नहीं फलते कि ये फल जीवों को खिलाये जाने के लिए आवश्यक है। रंग-बिरंगे फूल भी हमारे लिए नहीं खिलते यह तो उनका स्वभाव या प्रकृति है और उनका रंग-बिरंगा रूप व गंध हमें अच्छा लगता है। कोयल भी अपनी आवाज हमें सुनाने के लिए नहीं निकालती, वह तो उसकी प्रकृति है।
यदि सूर्य को यह ज्ञान हो जाये कि मेरे ही प्रकाश से पृथ्वी पर जीवन है तो वह अहंकारी हो जायेगा। यदि चाँद को यह ज्ञान हो जाये कि मेरा शीतल प्रकाश जीवों की आवश्यकता है तो चाँद अहंकारी हो जायेगा। यदि हवा को यह ज्ञान हो जाये कि मेरा रहना व बहना पृथ्वीवासीयों के जीवन के लिए मजबूरी है तो वह अहंकारी हो जायेगा। इसी प्रकार फूलों, फलदार वृक्षों इत्यादि के सम्बन्ध में भी है।
इस संसार में कोई भी किसी दूसरे के लिए कर्म नहीं करता। सभी अपनी शान्ति एवं स्थिरता के लिए ही कर्म करते हैं। बस अन्तर इतना होता है कि किसी का कर्म पूर्ण रूप से उसी के लिए लाभकारी होता है वहीं अन्य किसी का कर्म पूर्ण रूप से उसके के लिए लाभकारी होते हुये भी अन्य को भी लाभ पहुँचाता है। यह उसी प्रकार है जिस प्रकार सूर्य का प्रकाश हमें लाभ पहुँचाता है परन्तु दूर स्थित तारे का प्रकाश हमें उतना लाभ नहीं पहुँचाता। जबकि दोनों अपनी ही शान्ति एवं स्थिरता के लिए कर्म कर रहें हैं।
यह आविष्कार भी इसलिए नहीं हुआ कि आविष्कारकर्ता इस विश्व का कल्याणकर्ता है बल्कि इसलिए हुआ कि यह उसका स्वभाव या प्रकृति है। वह अपनी शान्ति एवं स्थिरता के लिए कर्म किया जिससे यह आविष्कार परिणाम रूप में निकला है। अब यदि इससे विश्व कल्याण होता है तो हो जाये। जिस प्रकार मनुष्य सूर्य के प्रकाश का उपयोग अपनी बुद्धि से अपने जीवन के लिए भिन्न-भिन्न प्रकार से कर लेता है उसी प्रकार इस आविष्कार का प्रयोग मनुष्य अपने जीवन में भिन्न-भिन्न प्रकार से कर ले तो यह मनुष्यों की अपनी बुद्धिमानी होगी और उनके लिए प्रकाशमय दिन होगा।
जिस प्रकार मन से युक्त प्रत्येक मानव अपनी स्थिरता व शान्ति के लिए कर्म करता है उसी प्रकार विश्वमन से युक्त मानव भी अपनी शान्ति व स्थिरता के लिए कर्म करता है। यह आविष्कार उस विश्वमन से युक्त मानव ने अपनी शान्ति व स्थिरता के लिए अपनी प्रकृति के अनुरूप किया है। इसलिए अनेक मनुष्य यह सोच सकते हैं कि मैंने विश्व कल्याण के लिए कार्य किया है, ऐसी बात नहीं है। समयानुसार इस विश्व को जब भी जिस ज्ञान की आवश्यकता आ पड़ती है तब वह विश्वमन किसी योग्य मानव शरीर के माध्यम से उसे व्यक्त कर उपलब्ध कराता रहा है और कराता रहेगा, जब तक कि ज्ञान का अन्त न हो जाये।
जब कोई भी वस्तु अपनी प्रकृति को व्यक्त करता है तब अहंकार नहीं होता बल्कि वह स्वभाव और वास्तविक स्वरूप होता है। व्यक्तिगत ”मैं“ अहंकार है, सार्वभौम ”मैं“ वास्तविक स्वरूप है। व्यक्तिगत ”मैं“ असत्य है, सार्वभौम ”मैं“ सत्य है जिसमें सभी समाहित है और सब में विद्यमान है। इसलिए सूर्य को अहंकार नहीं, चाँद को अहंकार नहीं, हवा को अंहकार नहीं, फूलों, वृक्षों व कोयल को अहंकार नहीं क्योंकि ये सब अपनी प्रकृति व सार्वभौम ”मैं“ में स्थापित हैं।
जब मन युक्त मनुष्य व जीव अपनी शान्ति व स्थिरता के लिए कर्म विमुख नहीं हो सकता तो विश्वमन से युक्त मनुष्य अपनी शान्ति व स्थिरता के लिए कैसे कर्म विमुख हो सकता है? जिस प्रकार मेरे कहने से कोई अपना कर्म नहीं छोड़ सकता उसी प्रकार किसी के कहने से मैं अपना कर्म नहीं छोड़ सकता। जिस प्रकार मन से युक्त मानव का एक परिवार है जिससे वह प्रेम करता है और उसके लिए वह कर्म कर रहा है, उसी प्रकार विश्वमन से युक्त मनुष्य का परिवार यह सारा विश्व-ब्रह्माण्ड है जिससे वह प्रेम करता है और उसके लिए वह कर्म कर रहा है। जिसका जितने क्षेत्र से प्रेम होता है, ठीक उतने ही क्षेत्र के लिए वह कर्म करता है। यह आविष्कार विश्व क्षेत्र से प्रेम का परिणाम है। इस विश्व-ब्रह्माण्ड रूपी परिवार सहित प्रत्येक व्यक्ति व उसके परिवार के लिए है क्योंकि विश्व परिवार में सभी समाहित हैं। यही मन से युक्त मानव और विश्वमन से युक्त विश्वमानव में अन्तर भी है। यह आविष्कार इसलिए ही हुआ क्योंकि ऐसा समय आ गया था कि विश्व का मानवीय ज्ञान अपने चरम पर पहुँचकर विनाशात्मकता व नकारात्मकता की ओर गिर रही थी और विश्व पारिवारिक एकीकरण संकट में पड़ने की ओर बढ़ रहा था।
02. आविष्कारक कौन है?
पत्र-व्यवहार के द्वारा बहुत से लोगों ने पूछा था कि आप कौन हैं? यहाँ इस प्रश्न का उत्तर संक्षिप्त रूप से दिया जा रहा है। इस विश्वशास्त्र में विस्तारपूर्वक भी दिया गया है।
अपने विशेष कला के साथ जन्म लेने वाले व्यक्तियों के जन्म माह अक्टुबर के सोमवार, 16 अक्टुबर 1967 (आश्विन, शुक्ल पक्ष-त्रयोदशी, रेवती नक्षत्र) को रिफाइनरी टाउनशिप अस्पताल (सरकारी अस्पताल), बेगूसराय (बिहार) में जन्म हुआ और टाउनशिप के E1-53, E2-53, D2F-76,
D2F-45और साइट कालोनी के D-58, C-45 में रहें। मैं यह बताना चाहता हूँ कि मैं भारत देश का एक सामान्य नागरिक और ग्रामीण क्षेत्र से हूँ। कभी किसी पद पर सरकारी नौकरी नहीं किया। नौकरी करता तो यह नहीं कर पाता। पद पर रहता तो केवल पद से सम्बन्धित ही विशेषज्ञता आ पाती। वैसे भी पत्र-व्यवहार या पुस्तक का सम्बन्ध ज्ञान और विचार से होता हैं उसमें व्यक्ति के शरीर से क्या मतलब? क्या कोई लंगड़ा या अंधा होगा तो उसका ज्ञान-विचार भी लंगड़ा या अंधा होगा? क्या कोई किसी पद पर न हो तो उसकी सत्य बात गलत मानी जायेगी? विचारणीय विषय है। परन्तु इतना तो जानता हूँ कि यह आविष्कार यदि सीधे-सीधे प्रस्तुत कर दिया जाता तो सभी लोग यही कहते कि इसकी प्रमाणिकता क्या है? फिर मेरे लिए मुश्किल हो जाता क्योंकि मैं न तो बहुत ही अधिक शिक्षा ग्रहण किया था, न ही किसी विश्वविद्यालय का उच्चस्तर का शोधकत्र्ता था। परिणामस्वरूप मैंने ऐसे पद ”कल्कि अवतार“ को चुना जो समाज ने पहले से ही निर्धारित कर रखा था और पद तथा आविष्कार के लिए व्यापक आधार दिया जिसे समाज और राज्य पहले से मानता और जानता है।
वर्तमान युग में कविताओं से जागृति नहीं आती न ही देश चल सकता है, अब वह एक मनोरंजन का रूप बन गया है। वर्तमान में और भविष्य में जो संस्कृति जन्म ले रही है वह है-रोजगार के प्रति चिन्ता और सुव्यवस्था। जिसमें ज्ञान-कर्मज्ञान की आवश्यकता है। 15 अगस्त 1986 को लगभग 19 वर्ष के उम्र में मैंने निम्नलिखित कविता लिखी थी जिसको जीवन में उतारने के लिए प्रयत्न किया और उसका परिणाम आपके सामने ”विश्वशास्त्र“ के रूप में है।
क्या पता दिल में कौन क्या छुपाये रखा है।
हमने तो दिल में देश की ममता छुपाये रखा है।
सबके दिल में खुशी है, देश की आजादी का।
देश रहे आजाद, गम नहीं खुद की बरबादी का।
हमने तो अखण्डता का सिद्धान्त बनाये रखा है।
क्या पता दिल..................................।
देश में हो रहे अन्याय को हम मिटा डालेगें।
हर नागरिक को उसका अधिकार दिला डालेगें।
हमने तो देश में श्रीराम राज्य लाने को सोच रखा है।
क्या पता दिल..................................।
हम तोड़ डालेगें उन नामी ताकतो को।
बढ़ाये हाथ जो इस तरफ, उन हाथों को।
हमने तो अपने यहाँ ऐसा यंत्र बनाये रखा है।
क्या पता दिल..................................।
एटम बम समाप्त हो जाये तो भी गम नहीं।
समाप्त हो जाये सारी शक्ति तो भी गम नहीं।
हमने तो एक ज्ञान बम बनाये रखा है।
क्या पता दिल..................................।
खुद को देश पर तन मन से लुटा जाना है।
उठाये आँख जो इस तरफ, उसको मिटा जाना है।
हमने तो कुर्बानी पर, पहला नम्बर लगाये रखा है।
क्या पता दिल..................................।
देश, रिश्ता और रक्त सम्बन्ध में खराबी ही पूर्णावतारों के अवतरण का कारण होता है। ब्रह्मा के पूर्णावतार श्रीराम के समय देश सम्बन्ध की खराबी सर्वोच्च थी, विष्णु के पूर्णावतार श्रीकृष्ण के समय में रिश्ता सम्बन्ध की खराबी सर्वोच्च थी। वर्तमान में शिव-शंकर के पूर्णावतार के समय में रक्त सम्बन्ध की खराबी सर्वोच्च हो रही है जिसका कारण मानसिक विवाद है। जो सम्बन्ध खराब होता है उसी वातावरण में अवतरण होता है।
भगवान बुद्ध के ज्ञान प्राप्ति वाले प्रदेश बिहार के जिले बेगूसराय में कूर्म क्षत्रिय जाति में जन्म लिया। श्रीराम, श्रीकृष्ण और शिव की नगरी काशी (वाराणसी) वाले प्रदेश उत्तर प्रदेश के मीरजापुर जिला, विन्ध्य क्षेत्र के भगवान विष्णु के 5वें वामन अवतार के कर्मक्षेत्र चुनार क्षेत्र के ग्राम नियामतपुर कलाँ का निवासी हूँ। जो काशी (वाराणसी)-सोनभद्र-शिवद्वार-विन्ध्याचल से घिरा है जिसे मैं सत्यकाशी क्षेत्र कहता हूँ क्योंकि इसी क्षेत्र में इस जीवनदायिनी ”विश्वशास्त्र“ की अधिकतम रचना हुई। कितना विचित्र संयोग है कि विन्ध्य क्षेत्र से ही भारत का मानक समय निर्धारित होता है और इसी क्षेत्र से ही काल और युग परिवर्तन की घोषणा हो रही है। यह भी विचित्रता ही है कि व्यासजी द्वारा काशी को शाप देने के कारण विश्वेश्वर ने व्यासजी को काशी से निष्कासित कर दिया था और वे गंगा पार आ गये और गंगा पार से ही उनके बाद ”विश्वशास्त्र“ रचना हुई है।
क. भौतिक रूप से-भौतिक रूप से एक समान्य पुरूष के जितने अंग होते हैं शास्त्र लिखने तक सभी सही और कार्यशील हंै। इस शरीर के निर्माण में जन्म से 4 वर्षो तक माँ का दूध और 11 वर्ष की उम्र तक गाय का बिना गर्म किया हुआ दूध, बकरी का दूध, घी, फल घर का प्रथम पुत्र होने के कारण भरपूर मिला। 14 वर्ष की उम्र से घर से बाहर रहकर शिक्षा ग्रहण करने के दौरान में भोजन के विषय में काफी अनियमितता हुई। 20 वर्ष की उम्र के बाद शरीर तामसिक भोजन को भी ग्रहण किया अर्थात कलियुग के समस्त बुराईयों को धारण किया, कलियुग में वास किया और उससे निर्लिप्त रहते हुये, उसके ही नाश के लिए औजार बनाया और उस पर विजय पाया अर्थात कलियुग से बचने की कोशिश नहीं की बल्कि उससे युद्ध किया अर्थात कलियुग का विष पिया और संसार को बचाने के लिए कार्य किया। इन स्थितियों में कभी भी चरित्र को प्राथमिकता नहीं दी, केवल सार्वभौम सत्य-सिद्धान्त को प्राथमिकता दी क्योंकि चरित्र का जीवन तो मेरे जीवन तक ही है परन्तु सार्वभौम सत्य-सिद्धान्त के जीवन की अवधि तो अनन्त है। बहुत ही विचारणीय प्रश्न है कि कम्प्यूटर, मोबाइल इत्यादि आविष्कार, उपयोगिता के कारण से प्रयोग में है या आविष्कारक के चरित्रवान होने के कारण से? परिणामस्वरूप शरीर किसी सम्प्रदाय का न होकर या तो धर्म का हो गया या धर्मनिरपेक्ष-सर्वधर्मसमभाव का और व्यक्तिगत जीवन का जीवन और लक्ष्य दो चरित्र बन गया। जीवन सामने चल रहा था लक्ष्य अब प्रकट हुआ तब तक मैं ये हो गया-
ये दिल्ली, इतनी बार लुटी कि, लुटने का एहसास नहीं होता।
इसे करता होगा कोई मोहब्बत, मगर अब एहसास नहीं होता।
ऐसा क्यों हुआ? ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि धर्म को पढ़ाना नहीं था, धर्म को जानना नहीं था बल्कि धर्म को अपने जीवन से दिखाना था। क्या अच्छा है क्या बुरा है वह जीवन से दिखे। केवल अच्छा ही न दिखे, न केवल बुरा ही दिखे। बल्कि दोनों दिखे और उसमें एक तीसरा भी दिखें जो इन दोनों में से कोई न हो, जिससे मेरा विश्वरूप साकार हो सके।
ख. आर्थिक/संसाधन रूप से-आर्थिक रूप से सामान्य हूँ इतना कभी नहीं हुआ और न रखा कि अर्थ ही तनाव का कारण बन जाये। चाहता भी नहीं कि इतना अर्थ आ जाये कि मेरी अपनी पहचान अर्थ से होने लगे। बस यह कार्य था और इसके लिए जितना जब जरूरत होती अपने कम्प्यूटर के छोटे से व्यापार से प्राप्त हो जाता रहा। जब व्यापार नहीं था तब कुछ सहयोगी मित्रों ने भी मेरे जीवन को चलाने के लिए अवश्य ही योगदान किया, परन्तु अधिकतर तो ऐसे ही रहे जो ज्ञान के व्यापार से पूर्णतया अछूते थे बल्कि वे इसे एक व्यर्थ का कार्य समझते थे। ऐसे में घर के सदस्य भी शामिल थे। जबकि मैं अपने उद्देश्य के अनुसार सदैव उन्हीं लोगों के साथ रहा जो इसकी महत्ता को समझते हों। दान लेने के लिए मेरे पास वह आडम्बर या भवकाली रूप नहीं था, जिससे श्रद्धानवत् हो लोग मुझे दान दें। इसलिए मेरा सीधा सा कहना था-या तो कर्ज दो या मेरे साथ व्यापार करो। मेरे काम के बारे में मत जानना चाहो क्योंकि तुम्हें अभी नहीं समझ में आयेगा। इस समय सिर्फ यह मान लो कि जैसे तुम क्रिकेट के प्रति रूचि लेते हो वैसे ही मुझे इसके प्रति रूचि है। किसी के रूचि को नहीं बदला जा सकता, जब तक वह उससे पूर्ण न हो जाये या उसके कारण उसे हानि न होने लगे। मैं नहीं जानता कि उसे क्रिकेट से क्या मिला पर मुझे अपनी रूचि से जो मिला वह ”विश्वशास्त्र“ आपके सामने है।
जहाँ प्रेम है, बस वहीं बसेरा है, जहाँ नफरत है वहाँ कहाँ हूँ मैं।
कभी तन्हाईयों में सोचना, क्या ले गया मैं और क्या दे गया मैं।
इस ब्रह्माण्ड से संसाधन के रूप में हवा, धूप, जल इत्यादि प्राप्त किया और बदले में धरती के लोगों के लिए यह ”विश्वशास्त्र“ दिया। छोटी सी ज्ञान के गठरी के रूप में कुल यही उपलब्धि है।
ग. मानसिक रूप से-प्राइमरी शिक्षा न्यू प्राइमरी स्कूल, रिफाइनरी टाउनशिप, बेगूसराय (बिहार), माधव विद्या मन्दिर इण्टरमीडिएट कालेज, पुरूषोत्तमपुर, मीरजापुर, उ0प्र0 (दसवीं-1981, 13 वर्ष 6 माह में), प्रभु नारायण राजकीय इण्टर कालेज, श्रीरामनगर, वाराणसी, उ0प्र0 (बारहवीं-1983, 15 वर्ष 6 माह में) और बी.एससी. (जीव विज्ञान) में 17 वर्ष 6 माह के उम्र में सन् 1985 ई0 में तत्कालिन गोरखपुर विश्वविद्यालय से सम्बद्ध श्री हरिश्चन्द्र स्नातकोत्तर महाविद्यालय, वाराणसी से पूर्ण हुई। तकनीकी शिक्षा में कम्प्यूटर प्रोग्रामिंग एण्ड सिस्टम एनालिसिस में स्नातकोत्तर डिप्लोमा इण्डिया एजुकेशन सेन्टर, एम-92, कनाॅट प्लेस, नई दिल्ली से सन् 1988 में पूर्ण हुई। परन्तु जिसका कोई प्रमाण पत्र नहीं है वह ज्ञान निम्नवत् है।
मछलियों ंके स्वभाव जल की धारा के विपरीत दिशा (राधा) में गति करने से ज्ञान (अर्थात राधा का सिद्धान्त) प्रथम अवतार मत्स्य अवतार का गुण था जो अगले अवतार में संचरित हुई। एक सहनशील, शांत, धैर्यवान, लगनशील, दोनों पक्षो के बीच मध्यस्थ की भूमिका वाला गुण सहित प्रथम अवतार के गुण सहित वाला गुण द्वितीय अवतार कूर्म अवतार का गुण था जो अगले अवतार में संचरित हुई। एक मेंधावी, सूझ-बुझ, सम्पन्न, पुरूषार्थी, धीर-गम्भीर, निष्कामी, बलिष्ठ, सक्रिय, शाकाहारी, अहिंसक और समूह प्रेमी, लोगों का मनोबल बढ़ाना, उत्साहित और सक्रिय करने वाला गुण सहित द्वितीय अवतार के समस्त गुण से युक्त वाला गुण तृतीय अवतार वाराह अवतार का गुण था जो अगले अवतार में संचरित हुई। प्रत्यक्ष रूप से एका-एक लक्ष्य को पूर्ण करने वाले गुण सहित तृतीय अवतार के समस्त गुण से युक्त वाला गुण चतुर्थ अवतार नरसिंह अवतार का गुण था जो अगले अवतार में संचरित हुई। भविष्य दृष्टा, राजा के गुण का प्रयोग करना, थोड़ी सी भूमि पर गणराज्य व्यवस्था की स्थापना व व्यवस्था को जिवित करना, उसके सुख से प्रजा को परिचित कराने वाले गुण सहित चतुर्थ अवतार के समस्त गुण से युक्त गुण पाँचवें अवतार का गुण था जो अगले अवतार में संचरित हुई। गणराज्य व्यवस्था को ब्रह्माण्ड में व्याप्त व्यवस्था सिद्धान्तों को आधार बनाने वाले गुण और व्यवस्था के प्रसार के लिए योग्य व्यक्ति को नियुक्त करने वाले गुण सहित पाँचवें अवतार के समस्त गुण से युक्त वाला गुण छठें अवतार परशुराम का गुण था जो अगले अवतार में संचरित हुई। आदर्श चरित्र के गुण तथा छठें अवतार तक के समस्त गुण को प्रसार करने वाला गुण सातवें अवतार श्रीराम का गुण था जो अगले अवतार में संचरित हुई। आदर्श सामाजिक व्यक्ति चरित्र के गुण, समाज मंे व्याप्त अनेक मत-मतान्तार व विचारों के समन्वय और एकीकरण से सत्य-विचार के प्रेरक ज्ञान को निकालने वाले गुण सहित सातवें अवतार तक के समस्त गुण आठवें अवतार श्रीकृष्ण का गुण था। जिससे व्यक्ति, व्यक्ति पर विश्वास न कर अपने बुद्धि से स्वयं निर्णय करें और प्रेरणा प्राप्त करता रहे। प्रजा को प्रेरित करने के लिए धर्म, संघ और बुद्धि के शरण में जाने की मूल शिक्षा देना नवें अवतार भगवान बुद्ध का गुण था। आदर्श वैश्विक व्यक्ति चरित्र सहित सभी अवतारों का सम्मिलित गुण व मन निर्माण की प्रक्रिया से निर्मित अन्तिम मन स्वामी विवेकानन्द के मन के गुण मिलकर दसवें अन्तिम अवतार श्री लव कुश सिंह ”विश्वमानव“ में व्यक्त हुआ।
रज गुण सम्पन्न लक्ष्मण के साथ रहते-रहते सत्व गुण सम्पन्न श्रीराम को रज गुण को संचालित करने की कला समझ में आ गई। फिर सत्व-रज गुण सम्पन्न श्रीकृष्ण का अवतरण हुआ जो तम गुण सम्पन्न बलश्रीराम के साथ रहते-रहते तम गुण को संचालित करने की कला के अनुभवी हो गये। और तब सत्व-रज-तम गुण सम्पन्न श्री लव कुश सिंह ”विश्वमानव“ का अवतरण हुआ और तीनों गुणों से युक्त और मुक्त होकर अपने कार्य को पूर्ण किये।
लगा ली दो घूँट, यारो की खुशी से, जानता था लोग समझ लेंगे शराबी।
छुपाना था खुद को जहाँ से, तो लोगों बताओ, पीने में क्या थी खराबी।
श्रीराम के धर्म स्थापना का कारण शरीर आधारित युद्ध था, श्रीकृष्ण के धर्म स्थापना का कारण आर्थिक आधारित युद्ध था और अन्त में श्री लव कुश सिंह ”विश्वमानव“ के धर्म स्थापना का कारण मानसिक आधारित युद्ध है। अहंकार से भरे समाज में अहंकार का महान शास्त्र-विश्वशास्त्र।
घ. नाम रूप से-
लव कुश-त्रेता युग के श्रीराम के काल से स्थापित और श्रीरामायण का अन्त जिस नाम से होता है वह है-लव और कुश, जो अब दोनों एक ही में स्थित है। सर्वप्रथम श्रीराम कथा लव और कुश ने कही थी और सुनने वाले स्वयं भगवान श्रीराम ही थे। वाराणसी-इलाहाबाद मार्ग पर संत रविदास नगर भदोही जिले (उ0प्र0) में गंगा किनारे स्थित सीतामढ़ी भी महर्षि वाल्मीकि तपोस्थली, माँ सीता के निर्वासन स्थल व लव-कुश के जन्म के रूप में स्थापित है। यहाँ पर लवकुश विद्यालय, सीता समाहित स्थल, हनुमान मन्दिर, महर्षि वाल्मीकि आश्रम स्थित है। यहाँ लवकुश मेंला व श्रीरामायण मेंला का भी आयोजन किया जाता है। अमृतसर (पंजाब, भारत) के श्रीरामतीर्थ में भगवान श्रीराम के पुत्र लव और कुश का जन्म स्थल माना जाता है। तुरतुरिया (छत्तीसगढ़, भारत) जो रायपुर से 113 किलोमीटर पर स्थित है भी लव और कुश का जन्म स्थल माना जाता है जो अब लव-कुश तीर्थ के रूप में स्थापित है। यह स्थान रायपुर-बलौदा बाजार मार्ग पर ठाकुरदिया नाम स्थान से 7 किलोमीटर की दूरी पर घने जंगल और पहाड़ों पर स्थित है। यहीं महर्षि वाल्मिकि का आश्रम स्थित है। वर्तमान समय में ”लव-कुश विचारधारा“ पत्रिका, ”लव-कुश समाज“, ”लव-कुश छात्रावास“, वाराणसी में नई सड़क पर शाकाहारी भोजन का प्रसिद्ध ”लव कुश होटल“, उदयपुर(राजस्थान, भारत) में ”लव कुश स्टेडियम“ भी स्थापित है। दिल्ली में ”लव कुश श्रीरामलीला कमेटी“ वर्षो से श्रीरामलीला आयेजित करती आ रही है। ”लव-कुश“ पर कई बार फिल्में भी बन चुकी हैं। प्रायः जुड़वा पुत्रों के नाम लव और कुश ही लोग रखना चाहते हैं। यह नाम या किसी भी व्यक्ति का नाम उसके अबोध अवस्था में ही रखा जाता है अर्थात व्यक्ति का प्रथम नाम प्रकृति प्रदत्त ही होता है। मुझे यह नाम मेरी दादी स्व0 श्रीमती दौलती देवी के द्वारा प्राप्त हुआ। जिस प्रकार श्रीकृष्ण के जन्म से पहले ही ईश्वरत्व उन पर झोंक दिया गया था अर्थात जन्म लेने वाला देवकी का आठवाँ पुत्र ईश्वर ही होगा, यह श्रीकृष्ण को ज्ञात होने पर जीवनभर वे जनभावना को उस ईश्वरत्व के प्रति विश्वास बनाये रखने के लिए संघर्ष करते रहे, उसी प्रकार इस लव कुश का नाम मुझे ज्ञात होने पर मैं भी इसे सिद्ध करने के लिए जीवनभर संघर्ष करते रहा जिसका परिणाम आपके समक्ष है। इस प्रकार अब निम्न तथ्य युक्त कविता सत्य हो चुकी है।
जग के सत्य हैं तीन नाम,
लवकुश, श्रीकृष्ण और श्रीराम ।
तम, रज और सत्व के ये परिणाम।
शंकर, विष्णु और ब्रह्मा के समान ।
समझो इनको मिलेगा पूर्ण ज्ञान।
श्रीराम की जन्म तिथि नवमी (9) है, श्रीकृष्ण की जन्म तिथि अष्टमी (8) है। 9 के अंक का किसी अंक से गुणा करें, सारांश (अंको का योग) 9 ही रहता है। 8 का गुणा घटता-बढ़ता रहता है। अंक 8 लौकिक-संसारी है, 9 जटिल है जस का तस रहता है। डाॅ0 लोहिया का कहना था-”श्रीराम मनुष्य हैं, मर्यादा और आदर्श पर चलते हुये देव बनते हैं, लेकिन श्रीकृष्ण देवता हैं। वे लोक संग्रह के लिए मनुष्य बनते हैं, देवत्व से नीचे उतरते हैं। श्रीराम और श्रीकृष्ण, भारतीय प्रज्ञा के सम्राट हैं।“ इसी क्रम में मेरा (लव कुश सिंह) का जन्म तिथि त्रयोदशी (13) है। प्रत्येक मास में श्रीकृष्ण पक्ष की तेरहवीं तिथि की रात्रि मास शिवरात्रि तथा फाल्गुन मास की श्रीकृष्ण पक्ष की तेरहवीं तिथि की रात्रि महाशिवरात्रि कहलाती है। हिन्दू धर्म में मनुष्य के जन्म के बारहवीं तिथि के संस्कार को बरही तथा शरीर से मुक्त होने के तेरहवीं तिथि के अन्तिम संस्कार को तेरहवीं कहते हैं अर्थात तेरह का अंक शिवशंकर का प्रतीक है।
सिंह-संस्कृत शब्द ”सिम्ह“ अर्थात शेर से ”सिंह“ बना है। सामान्य रूप से यह उत्तरी भारत के क्षत्रिय जाति और राजाओं के मध्यनाम या सरनेम के रूप में प्रयोग होता है। नाम के अन्त में ”सिम्ह“ प्रथमतया दूसरी शताब्दी के महान क्षत्रप शासक रूद्ररमन के दो पुत्रों के नाम में मिलता है। सोलंकी-चालुक्य शासकों ने इसे 500 ई0 से 1100 ई0 तक प्रयोग किया। मालवा के परमार 10वीं शताब्दी में, नारवार के गहलोत ने 12वीं शताब्दी में तथा मारवाड़ के राठौर ने 17वीं शताब्दी में सिंह का प्रयोग अपने नाम में किया। 18वीं शताब्दी में राजपूतों के अलावा उत्तर प्रदेश और बिहार के कायस्थ और बनिया जाति के लोग भी इसका प्रयोग शुरू किये। सिख धर्म के दसवें गुरू-गुरू गोविन्द सिंह (मूल नाम गुरू गोविन्द राय) ने सन् 1699 ई0 के बैसाखी के दिन सिख पुरूष को सिंह की तथा महिला को कौर अपने नाम में लगाने के लिए कहा। सिंह, भूमिहार ब्राह्मण, क्षत्रिय समूह जैसे गुर्जर, जाट, राजपूत, यादव इत्यादि भी मघ्यनाम या सरनेम के रूप में प्रयोग करते हैं। नामान्त के रूप में सिंह पंजाब से लेकर उत्तर प्रदेश, कश्मीर से राजस्थान, मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र से उत्तराखण्ड, पूर्वी प्रदेशों मणिपुर, आसाम, त्रिपुरा, सिक्किम में बहुत प्रयोग होता है। जो धीरे-धीरे विदेशों में जैसे भूटान, दक्षिण एशिया के देशों, गुयेना, त्रिनिनाद, सुरीनाम, मारीशस और फिजी तक फैल गया है।
विश्वमानव-प्रकृति प्रदत्त नाम के अलावा जब व्यक्ति को आत्मज्ञान होता है तब वह स्वयं अपने मन स्तर का निर्धारण कर एक नाम स्वयं रख लेता है। जिस प्रकार ”श्रीकृष्ण“ नाम है ”योगेश्वर“ मन की अवस्था है, ”गदाधर“ नाम है ”श्रीरामश्रीकृष्ण परमहंस“ मन की अवस्था है, ”सिद्धार्थ“ नाम है ”बुद्ध“ मन की अवस्था है, ”नरेन्द्र नाथ दत्त“ नाम है ”स्वामी विवेकानन्द“ मन की अवस्था है, ”रजनीश“ नाम है ”ओशो“ मन की अवस्था है। उसी प्रकार लव कुश सिंह नाम है ”विश्वमानव“ मन की अवस्था है और उसी प्रकार व्यक्तियों के नाम, नाम है ”भोगेश्वर विश्वमानव“ उसकी चरम विकसित, सर्वोच्च और अन्तिम अवस्था है जहाँ समय की धारा में चलते-चलते मनुष्य वहाँ विवशतावश पहुँचेगा।
च. समय रूप से-
समय रूप से संसार का सर्वप्रथम वर्तमान में रहने वाला व्यक्ति हूँ क्यूँकि वर्तमान की अब नवीनतम परिभाषा है-पूर्ण ज्ञान से युक्त होना और कार्यशैली की परिभाषा है-भूतकाल का अनुभव, भविष्य की आवश्यकतानुसार पूर्णज्ञान और परिणाम ज्ञान से युक्त होकर वर्तमान समय में कार्य करना। जो सभी धर्मशास्त्रों और भविष्यवक्ताओं के अनुसार है और सभी को सत्य रूप में वर्तमान करने के लिए ”विश्वशास्त्र“ को व्यक्त किया हूँ।
टुकड़े-टुकड़े में देख अपने चेहरे को, मुझ पर भड़कते क्यूँ हो।
03. आविष्कार विषय क्या है?
आविष्कार विषय ”व्यक्तिगत मन और संयुक्तमन का विश्व मानक और पूर्णमानव निर्माण की तकनीकी है जिसे धर्म क्षेत्र से कर्मवेद: प्रथम, अन्तिम तथा पंचमवेदीय श्रृंखला तथा शासन क्षेत्र से WS-0 मन की गुणवत्ता का विश्व मानक श्रृंखला तथा WCM-TLM-SHYAM.C तकनीकी कहते है। सम्पूर्ण आविष्कार सार्वभौम सत्य-सिद्वान्त अर्थात सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में व्याप्त अटलनीय, अपरिवर्तनीय, शाश्वत व सनातन नियम पर आधारित है, न कि मानवीय विचार या मत पर आधारित।“
सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में व्याप्त एक ही सत्य-सिद्धान्त द्वारा व्यक्तिगत व संयुक्त मन को एकमुखी कर सर्वोच्च, मूल और अन्तिम स्तर पर स्थापित करने के लिए शून्य पर अन्तिम आविष्कार ( WS-0) श्रृंखला की निम्नलिखित पाँच शाखाएँ है।
1. डब्ल्यू.एस.( WS-0) : विचार एवम् साहित्य का विश्वमानक
2. डब्ल्यू.एस.( WS-00) : विषय एवम् विशेषज्ञों की परिभाषा का विश्वमानक
3. डब्ल्यू.एस. ( WS-000) : ब्रह्माण्ड (सूक्ष्म एवम् स्थूल) के प्रबन्ध और क्रियाकलाप का विश्वमानक
4. डब्ल्यू.एस. ( WS-0000) : मानव (सूक्ष्म तथा स्थूल) के प्रबन्ध और क्रियाकलाप का विश्वमानक
5. डब्ल्यू.एस. ( WS-00000) : उपासना और उपासना स्थल का विश्वमानक
मानक का अर्थ है-”वह सर्वमान्य पैमाना, जिससे हम उस विषय का मूल्यांकन करते है। जिस विषय का वह पैमाना होता है।“ इस प्रकार मन की गुणवत्ता का मानक व्यक्ति तथा संयुक्त व्यक्ति (अर्थात संस्था, संघ, सरकार इत्यादि) के मूल्याकंन का पैमाना है चूँकि आविष्कार का विषय सर्वव्यापी ब्रह्माण्डीय नियम पर आधारित है। इसलिए वह प्रत्येक विषयों से सम्बन्धित है जिसकी उपयोगिता प्रत्येक विषय के सत्यरूप को जानने में है। चूँकि मानव कर्म करते-करते ज्ञान प्राप्त करते हुयेे प्रकृति के क्रियाकलापों को धीरे-धीरे अपने अधीन करने की ओर अग्रसर है इसलिए पूर्णतः प्रकृति के पद पर बैठने के लिए प्रकृति द्वारा धारण की गई सन्तुलित कार्यप्रणाली को मानव द्वारा अपनाना ही होगा अन्यथा वह सन्तुलित कार्य न कर अव्यवस्था उत्पन्न कर देगा। यह वैसे ही है जैसे किसी कर्मचारी को प्रबन्धक (मैंनेजर) के पद पर बैठा दिया जाये तो सन्तुलित कार्य संचालन के लिए प्रबन्घक की सन्तुलित कार्यप्रणाली को उसे अपनाना ही होगा अन्यथा वह सन्तुलित कार्य न कर अव्यवस्था उत्पन्न कर देगा। आविष्कार की उपयोगिता व्यापक होते हुये भी मूल रूप से व्यक्ति स्तर से विश्व स्तर तक के मन और संयुक्त मन के प्रबन्ध को व्यक्त करना एवम् एक कर्मज्ञान द्वारा श्रृंखला बद्ध करना है जिससे सम्पूर्ण शक्ति एक मुखी हो विश्व विकास की दिशा में केन्द्रित हो जाये। परिणामस्वरूप एक दूसरे को विकास की ओर विकास कराते हुयेे स्वयं को भी विकास करने के लिए पूर्ण स्वतन्त्रता प्राप्त हो जायेगी। सम्पूर्ण क्रियाकलापों को संचालित करने वाले मूल दो कत्र्ता-मानव (मन) और प्रकृति (विश्वमन) दोनों का कर्मज्ञान एक होना आवश्यक है। प्रकृति (विश्वमन) तो पूर्ण धारण कर सफलतापूर्वक कार्य कर ही रही है। मानव जाति में जो भी सफलता प्राप्त कर रहे हैं वे अज्ञानता में इसकें आंशिंक धारण में तथा जो असफलता प्राप्त कर रहे हैं, वे पूर्णतः धारण से मुक्त है। इसी कर्मज्ञान से प्रकृति, मानव और संयुक्त मन प्रभावित और संचालित है। किसी मानव का कर्मक्षेत्र सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड हो सकता है और किसी का उसके स्तर रूप में छोटा यहाँ तक कि सिर्फ स्वयं व्यक्ति का अपना स्तर परन्तु कर्मज्ञान तो सभी का एक ही होगा।
04. आविष्कार की उपयोगिता क्या है?
वर्तमान समय के भारत तथा विश्व की इच्छा शान्ति का बहुआयामी विचार-अन्तरिक्ष, पाताल, पृथ्वी और सारे चराचर जगत में एकात्म भाव उत्पन्न कर अभय का साम्राज्य पैदा करना और समस्याओं के हल में इसकी मूल उपयोगिता है। साथ ही विश्व में एक धर्म-विश्वधर्म-सार्वभौम धर्म, एक शिक्षा-विश्व शिक्षा, एक न्याय व्यवस्था, एक अर्थव्यवस्था, एक संविधान, एक शास्त्र स्थापित करने में है। भारत के लिए यह अधिक लाभकारी है क्योंकि यहाँ सांस्कृतिक विविधता है। जिससे सभी धर्म-संस्कृति को सम्मान देते हुये एक सूत्र में बाँधने के लिए सर्वमान्य धर्म उपलब्ध हो जायेगा। साथ ही संविधान, शिक्षा व शिक्षा प्रणाली व विषय आधारित विवाद को उसके सत्य-सैद्धान्तिक स्वरूप से हमेंशा के लिए समाप्त किया जा सकता है। साथ ही पूर्ण मानव निर्माण की तकनीकी से संकीर्ण मानसिकता से व्यक्ति को उठाकर व्यापक मानसिकता युक्त व्यक्ति में स्थापित किये जाने में आविष्कार की उपयोगिता है। जिससे विध्वंसक मानव का उत्पादन दर कम हो सके। ऐसा न होने पर नकारात्मक मानसिकता के मानवो का विकास तेजी से बढ़ता जायेगा और मनुष्यता की शक्ति उन्हीं को रोकने में खर्च हो जायेगी। यह आविष्कार सार्वभौम लोक या गण या या जन या स्व का निराकार रूप है इसलिए इसकी उपयोगिता स्वस्थ समाज, स्वस्थ लोकतन्त्र, स्वस्थ उद्योग तथा व्यवस्था के सत्यीकरण और स्वराज की प्राप्ति में है अर्थात मानव संसाधन की गुणवत्ता का विश्वमानक की प्राप्ति और ब्रह्माण्ड की सटीक व्याख्या में है। मनुष्य किसी भी पेशे में हो लेकिन उसके मन का भूमण्डलीयकरण, एकीकरण, सत्यीकरण, ब्रह्माण्डीयकरण करने में इसकी उपयोगिता है जिससे मानव शक्ति सहित संस्थागत और शासन शक्ति को एक कर्मज्ञान से युक्त कर ब्रह्माण्डीय विकास में एकमुखी किया जा सके।
05. आविष्कार किस प्रकार हुआ?
जिस प्रकार नदी में जल का सतत प्रवाह होता रहता है उसका उपयोग सिंचाईं में हो सकता है। परन्तु बाँध बनाकर जल का उपयोग करने से बिजली भी बनायी जा सकती है। उसी प्रकार मानव समाज में आॅकड़ो (डाटा) का सदैव प्रवाह हो रहा है उसे अपने मस्तिष्क में रोककर इकट्ठा करने से ही उसका विश्लेषण हो सकता है। जितने अधिक आॅकड़ों से विश्लेषण होगा परिणाम उतना ही सटीक होगा। यही बुद्धि है। कम्प्यूटर में भी यदि आॅकड़े कम होगें तो विश्लेषण भी कम ही प्राप्त किये जा सकते हैं। जितने बड़े क्षेत्र के लिए कार्य करना हो उतने बड़े क्षेत्र से सम्बन्धित आॅकड़े जुटाये जाते हैं। यही बुद्धि है। कोई भी कार्य सिर्फ एक कारण से नहीं होता। अधिक से अधिक कारणों को जानना, कर्म की सटीक व्याख्या है।
इसी को दूसरे रूप में ऐसे समझा जा सकता है कि कोई भी व्यक्ति जब मकान बनाने की तैयारी करता है तो सभी सामग्रीयों के आॅकड़े उसके सामने होते है, तब वह निर्माण कार्य प्रारम्भ करता है। अन्यथा उसका कार्य कभी भी रूक सकता है। सभी अवतार यदि आप सूक्ष्म रूप में देखें तो पायेंगे वे आॅकड़ों की शक्ति से ही धर्म स्थापना का कार्य किये।
समाज के ऐसे व्यक्ति जो यह जानना चाहते हैं कि यह आविष्कार किस प्रकार हुआ तो उनके लिए वर्तमान तक के सभी मत, विचार, महापुरूषों के जीवनवृत्त, विज्ञान, धर्म, व्यापार, समाज, राज्य, विश्व इत्यादि के सम्बन्ध में विश्व, भारत, अन्तर्राष्ट्रीय, समाज, परिवार व व्यक्ति स्तर पर बहुमुखी न्यूनतम मूल ज्ञान का आॅकड़ा होना अति आवश्यक होगा। यह ”विश्वशास्त्र“ सभी प्रश्नों का आध्यात्मिक, सामाजिक, राजनैतिक और प्रबन्धकीय आधार सहित व्याख्या करता है जो विश्व शान्ति, एकता, स्थिरता, विकास, सुरक्षा, प्रबन्ध इत्यादि का अन्तिम, विवशता व मानवतापूर्ण मार्ग है।