Sunday, March 22, 2020

विश्वमानव और श्री नरेन्द्र मोदी (17 सितम्बर 1950 - )

श्री नरेन्द्र मोदी (17 सितम्बर 1950 - )

परिचय - 
17 सितम्बर 1950 (विश्वकर्मा जयंती) को जन्मे नरेन्द्र दामोदरदास मोदी भारत के वर्तमान प्रधानमन्त्री हैं। भारत के राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी ने उन्हें 26 मई 2014 को भारत के प्रधानमन्त्री पद की शपथ दिलायी। वे स्वतन्त्र भारत के १५वें प्रधानमन्त्री हैं तथा इस पद पर आसीन होने वाले स्वतंत्र भारत में जन्मे प्रथम व्यक्ति हैं।
उनके नेतृत्व में भारत की प्रमुख विपक्षी पार्टी भारतीय जनता पार्टी ने २०१४ का लोकसभा चुनाव लड़ा और २८२ सीटें जीतकर अभूतपूर्व सफलता प्राप्त की। एक सांसद के रूप में उन्होंने उत्तर प्रदेश की सांस्कृतिक नगरी वाराणसी एवं अपने गृहराज्य गुजरात के वडोदरा संसदीय क्षेत्र से चुनाव लड़ा और दोनों जगह से जीत दर्ज की।
इससे पूर्व वे गुजरात राज्य के १४वें मुख्यमन्त्री रहे। उन्हें उनके काम के कारण गुजरात की जनता ने लगातार ४ बार (२००१ से २०१४ तक) मुख्यमन्त्री चुना। गुजरात विश्वविद्यालय से राजनीति विज्ञान में स्नातकोत्तर डिग्री प्राप्त नरेन्द्र मोदी विकास पुरुष के नाम से जाने जाते हैं और वर्तमान समय में देश के सबसे लोकप्रिय नेताओं में से हैं। माइक्रो-ब्लॉगिंग साइट ट्विटर पर भी वे सबसे ज्यादा फॉलोअर वाले भारतीय नेता हैं। टाइम पत्रिका ने मोदी को पर्सन ऑफ द ईयर २०१३ के ४२ उम्मीदवारों की सूची में शामिल किया है।
अटल बिहारी वाजपेयी की तरह नरेन्द्र मोदी एक राजनेता और कवि हैं। वे गुजराती भाषा के अलावा हिन्दी में भी देशप्रेम से ओतप्रोत कविताएँ लिखते हैं।
नरेन्द्र मोदी का जन्म गुजरात राज्य के महेसाना जिला स्थित वडनगर ग्राम में हीराबेन मोदी और दामोदरदास मूलचन्द मोदी के एक मध्यम-वर्गीय परिवार में 17 सितम्बर 1950 को हुआ था। वह पूर्णतः शाकाहारी हैं। भारत-पाकिस्तान के बीच द्वितीय युद्ध के दौरान अपने तरुणकाल में उन्होंने स्वेच्छा से रेलवे स्टेशनों पर सफर कर रहे सैनिकों की सेवा की। युवावस्था में वह छात्र संगठन अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद में शामिल हुए। उन्होंने साथ ही साथ भ्रष्टाचार विरोधी नव निर्माण आन्दोलन में हिस्सा लिया। एक पूर्णकालिक आयोजक के रूप में कार्य करने के पश्चात् उन्हें भारतीय जनता पार्टी में संगठन का प्रतिनिधि मनोनीत किया गया। किशोरावस्था में अपने भाई के साथ एक चाय की दुकान चला चुके मोदी ने अपनी स्कूली शिक्षा वड़नगर में पूरी की। उन्होंने आरएसएस के प्रचारक रहते हुए 1980 में गुजरात विश्वविद्यालय से राजनीति विज्ञान में स्नातकोत्तर परीक्षा दी और एम॰एससी॰ की डिग्री प्राप्त की।
अपने माता-पिता की कुल छः सन्तानों में तीसरे पुत्र नरेन्द्र ने बचपन में रेलवे स्टेशन पर चाय बेचने में अपने पिता का भी हाथ बँटाया। बड़नगर के ही एक स्कूल मास्टर के अनुसार नरेन्द्र हालाँकि एक औसत दर्जे का छात्र था, लेकिन वाद-विवाद और नाटक प्रतियोगिताओं में उसकी बेहद रुचि थी। इसके अलावा उसकी रुचि राजनीतिक विषयों पर नयी-नयी परियोजनाएँ प्रारम्भ करने की भी थी।
13 वर्ष की आयु में नरेन्द्र की सगाई जसोदा बेन चमनलाल के साथ कर दी गयी और जब उनका विवाह हुआ, वह मात्र 17 वर्ष के थे। फाइनेंशियल एक्सप्रेस की एक खबर के अनुसार पति-पत्नी ने कुछ वर्ष साथ रहकर बिताये। परन्तु कुछ समय बाद वे दोनों एक दूसरे के लिये अजनबी हो गये क्योंकि नरेन्द्र मोदी ने उनसे कुछ ऐसी ही इच्छा व्यक्त की थी जबकि नरेन्द्र मोदी के जीवनी-लेखक ऐसा नहीं मानते। उनका कहना है कि- उन दोनों की शादी जरूर हुई परन्तु वे दोनों एक साथ कभी नहीं रहे। शादी के कुछ बरसों बाद नरेन्द्र मोदी ने घर त्याग दिया और एक प्रकार से उनका वैवाहिक जीवन लगभग समाप्त-सा ही हो गया।
पिछले चार विधान सभा चुनावों में अपनी वैवाहिक स्थिति पर खामोश रहने के बाद नरेन्द्र मोदी ने कहा कि अविवाहित रहने की जानकारी देकर उन्होंने कोई पाप नहीं किया। नरेन्द्र मोदी के मुताबिक एक शादीशुदा के मुकाबले अविवाहित व्यक्ति भ्रष्टाचार के खिलाफ जोरदार तरीके से लड़ सकता है क्योंकि उसे अपनी पत्नी, परिवार व बालबच्चों की कोई चिन्ता नहीं रहती। हालांकि नरेन्द्र मोदी ने शपथ पत्र प्रस्तुत कर जसोदाबेन को अपनी पत्नी स्वीकार किया है।
नरेन्द्र जब विश्वविद्यालय के छात्र थे तभी से वे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की शाखा में नियमित जाने लगे थे। इस प्रकार उनका जीवन संघ के एक निष्ठावान प्रचारक के रूप में प्रारम्भ हुआ। उन्होंने शुरुआती जीवन से ही राजनीतिक सक्रियता दिखलायी और भारतीय जनता पार्टी का जनाधार मजबूत करने में प्रमुख भूमिका निभायी। गुजरात में शंकरसिंह वाघेला का जनाधार मजबूत बनाने में नरेन्द्र मोदी की ही रणनीति थी।
अप्रैल 1990 में जब केन्द्र में मिली जुली सरकारों का दौर शुरू हुआ, मोदी की मेहनत रंग लायी, जब गुजरात में 1995 के विधान सभा चुनावों में भारतीय जनता पार्टी ने अपने बलबूते दो तिहाई बहुमत प्राप्त कर सरकार बना ली। इसी दौरान दो राष्ट्रीय घटनायें और इस देश में घटीं। पहली घटना थी सोमनाथ से लेकर अयोध्या तक की रथयात्रा जिसमें आडवाणी के प्रमुख सारथी की मूमिका में नरेन्द्र का मुख्य सहयोग रहा। इसी प्रकार कन्याकुमारी से लेकर सुदूर उत्तर में स्थित काश्मीर तक की मुरली मनोहर जोशी की दूसरी रथ यात्रा भी नरेन्द्र मोदी की ही देखरेख में आयोजित हुई। इसके बाद शंकरसिंह वाघेला ने पार्टी से त्यागपत्र दे दिया, जिसके परिणामस्वरूप केशुभाई पटेल को गुजरात का मुख्यमन्त्री बना दिया गया और नरेन्द्र मोदी को दिल्ली बुला कर भाजपा में संगठन की दृष्टि से केन्द्रीय मन्त्री का दायित्व सौंपा गया।
1995 में राष्ट्रीय मन्त्री के नाते उन्हें पाँच प्रमुख राज्यों में पार्टी संगठन का काम दिया गया जिसे उन्होंने बखूबी निभाया। 1998 में उन्हें पदोन्नत करके राष्ट्रीय महामन्त्री (संगठन) का उत्तरदायित्व दिया गया। इस पद पर वह अक्तूबर 2001 तक काम करते रहे। भारतीय जनता पार्टी ने अक्तूबर 2001 में केशुभाई पटेल को हटाकर गुजरात के मुख्यमन्त्री पद की कमान नरेन्द्र मोदी को सौंप दी।
नरेन्द्र मोदी अपनी विशिष्ट जीवन शैली के लिये समूचे राजनीतिक हलकों में जाने जाते हैं। उनके व्यक्तिगत स्टाफ में केवल तीन ही लोग रहते हैं, कोई भारी-भरकम अमला नहीं होता। लेकिन कर्मयोगी की तरह जीवन जीने वाले मोदी के स्वभाव से सभी परिचित हैं इस नाते उन्हें अपने कामकाज को अमली जामा पहनाने में कोई दिक्कत पेश नहीं आती। उन्होंने गुजरात में कई ऐसे हिन्दू मन्दिरों को भी ध्वस्त करवाने में कभी कोई कोताही नहीं बरती जो सरकारी कानून कायदों के मुताबिक नहीं बने थे। हालाँकि इसके लिये उन्हें विश्व हिन्दू परिषद जैसे संगठनों का कोपभाजन भी बनना पड़ा, परन्तु उन्होंने इसकी रत्ती भर भी परवाह नहीं की। जो उन्हें उचित लगा करते रहे। वे एक लोकप्रिय वक्ता हैं, जिन्हें सुनने के लिये बहुत भारी संख्या में श्रोता आज भी पहुँचते हैं। कुर्ता-पायजामा व सदरी के अतिरिक्त वे कभी-कभार सूट भी पहन लेते हैं। अपनी मातृभाषा गुजराती के अतिरिक्त वह राष्ट्रभाषा हिन्दी में ही बोलते हैं।
मोदी के नेतृत्व में 2012 में हुए गुजरात विधान सभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी ने स्पष्ट बहुमत प्राप्त किया। भाजपा को इस बार 115 सीटें मिलीं।
नरेन्द्र मोदी ने प्रखर देशभक्त श्यामजी कृष्ण वर्मा व उनकी पत्नी भानुमती की अस्थियों को भारत की स्वतन्त्रता के 55 वर्ष बाद 22 अगस्त 2003 को स्विस सरकार से अनुरोध करके जिनेवा से स्वदेश वापस मँगाया और माण्डवी (श्यामजी के जन्म स्थान) में क्रान्ति-तीर्थ के नाम से एक पर्यटन स्थल बनाकर उसमें उनकी स्मृति को संरक्षण प्रदान किया। मोदी द्वारा 13 दिसम्बर 2010 को राष्ट्र को समर्पित इस क्रान्ति-तीर्थ को देखने दूर-दूर से पर्यटक गुजरात आते हैं। गुजरात सरकार का पर्यटन विभाग इसकी देखरेख करता है।
18 जुलाई 2006 को मोदी ने एक भाषण में आतंकवाद निरोधक अधिनियम जैसे आतंकवाद-विरोधी विधान लाने के विरूद्ध उनकी अनिच्छा को लेकर भारतीय प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की आलोचना की। मुंबई की उपनगरीय रेलों में हुए बम विस्फोटों के मद्देनजर उन्होंने केंद्र से राज्यों को सख्त कानून लागू करने के लिए सशक्त करने की माँग की। उनके शब्दों में - आतंकवाद युद्ध से भी बदतर है। एक आतंकवादी के कोई नियम नहीं होते। एक आतंकवादी तय करता है कि कब, कैसे, कहाँ और किसको मारना है। भारत ने युद्धों की तुलना में आतंकी हमलों में अधिक लोगों को खोया है। नरेंद्र मोदी ने कई अवसरों पर कहा था कि यदि भाजपा केंद्र में सत्ता में आई, तो वह सन् 2004 में उच्चतम न्यायालय द्वारा अफजल गुरु को फाँसी दिए जाने के निर्णय का सम्मान करेगी। भारत के उच्चतम न्यायालय ने अफजल को 2001 में भारतीय संसद पर हुए हमले के लिए दोषी ठहराया था एवं 9 फरवरी 2013 को तिहाड़ जेल में उसे लटकाया गया।

”काशी के राष्ट्र गुरू बने बिना भारत जगत गुरू नहीं बन सकता। देश अतीत की तरह आध्यात्मिक ऊँचाई पर पहुँचेगा तो स्वतः आर्थिक वैभव प्राप्त हो जायेगा। इसी खासियत की वजह से इतिहास में कभी भारत सोने की चिड़िया थी।“ - श्री नरेन्द्र मोदी, प्रधानमंत्री, भारत
साभार - दैनिक जागरण, वाराणसी संस्करण, दि0 18.05.2014 

श्री लव कुश सिंह ”विश्वमानव“ द्वारा स्पष्टीकरण
भारतीय जनता ने ”विकास“ और ”अच्छे दिन आने वाले हैं“ के मुद्दे पर अपने मत को मतपेटीयों से बाहर आते ही व्यक्त किया, जिसका परिणाम था - ”दशको बाद एक दल के पूर्ण बहुमत वाली सरकार।“ और शनिवार, 17 मई 2014 ई0 को आपने वाराणसी में बाबा विश्वनाथ के पूजन के उपरान्त उपरोक्त सत्य विचार काशी (वाराणसी) के सिद्ध क्षेत्र से काशी (वाराणसी) सहित विश्व के समक्ष उद्घाटित कियेे। 
अधिकतम व्यक्ति सफल व्यक्ति के पीछे चलते हैं, उनको देखना चाहते हैं लेकिन वे क्या विचार व्यक्त किये, उसका अर्थ क्या है और वह कैसे पूरा होगा, यह सब उनके लिए कोई अर्थ नहीं रखता और यही सबसे बड़ी कमी-कमजोरी होती है। जहाँ भक्ति-प्रेम आता है वहाँ ज्ञान लुप्त हो जाता है और इसी प्रकार जहाँ ज्ञान आता है, वहाँ भक्ति-प्रेम लुप्त हो जाती है। इस सम्बन्ध में स्वामी विवेकानन्द जी के कुछ वाणी प्रस्तुत हैं-
01. हम ठीक वैसे ही हैं। गुलाम कीड़े-पैर उठाकर रखने की भी ताकत नहीं-बीबी का आंचल पकड़े ताश खेलते और हुक्का गुड़गुड़ाते हुए जिन्दगी पार कर देते हैं, और अगर उनमें से कोई एक कदम बढ़ जाता है तो सब के सब उसके पीछे पड़ जाते हैं- हरे हरे! (पत्रावली भाग-2, पृष्ठ-234, राम कृष्ण मिशन प्रकाशन)
02. मेरे जीवन में मैंने अनेक गलतियां की है; किन्तु उसमें प्रत्येक का कारण रहा है अत्यधिक प्यार। अब प्यार से मुझे द्वेष हो गया है! हाय! यदि मेरे पास वह बिल्कुल न होता! भक्ति की बात आप कह रही है! हाय, यदि मैं निर्विकार और कठोर वेदान्ती हो सकता! जाने दो, यह जीवन तो समाप्त ही हो चुका। अगले जन्म में प्रयत्न करूंगा। (पत्रावली भाग-2, पृष्ठ-219, राम कृष्ण मिशन प्रकाशन)
समाज की ये उपरोक्त गम्भीर बीमारी कृष्ण काल से ही चली आ रही है। इस सम्बन्ध में एक घटना है- कृष्ण जब द्वारिका चले गये, तब उद्धव ने गोपियों के सामने अपना महत्व बढ़ाने के लिए कृष्ण से गोपियों के नाम एक पत्र लिखने को कहा। कृष्ण सब कुछ जानते हुये भी एक पत्र लिख कर उद्धव को दिये। उद्धव असीम आनन्द के साथ मथुरा-वृन्दावन आये और गोपियों को पत्र देते हुये कहे कि मैंने आप लोगों के लिए कृष्ण का सन्देश लाया हूँ। जितनी गोपियाँ उस समय वहाँ उपलब्ध थी, सभी ने उस पत्र के टुकड़े-टुकड़े कर आपस में बाँट लिए। उस पत्र में क्या लिखा था, उसे पढ़ने-जानने की आवश्यकता ही नहीं समझीं। तब उद्धव को ज्ञान और भक्ति-प्रेम का अन्तर समझ में आया।
उपरोक्त उदाहरणों का तात्पर्य यह है कि आपने बड़े ही संस्कारिक रूप से भारत के जगद्गुरू न बनने का कारण, काशी को ठहराया, वो काशी आपकी भक्ति-प्रेम में मस्त है। मस्त तो पहले से ही है, आपके आने से जीवन्त मस्ती के आनन्द में हो गई है। लगभग तीन वर्ष हो रहे हैं, काशी को आप द्वारा सोंपे गये जिम्मेदारी का कोई एहसास नहीं है। अब तो भूला भी चुके होंगे।
लेकिन कोई है जो व्यक्ति को नहीं विचार को सुनता, पढ़ता और समझता है। और काशी ही क्या पूरे विश्व के लिए व्यक्त किये गये विचारों को सुनता, पढ़ता और समझता है। वो कौन हो सकता है जो शरीर को नहीं बल्कि विचार को महत्व देने का काम कर रहा है, इसका निर्धारण तो मैं बिना विद्वान के विद्वता का प्रमाण-पत्र देने वाले वाराणसी के उपर ही छोड़ देता हूँ। ध्यान का विषय है-शिव से काशीवासी और काशी है या काशीवासी और काशी से शिव हैं’’। मणिकर्णिका घाट पर ”काशी करवट“ मन्दिर का क्या अर्थ हो सकता है वाराणसी को विचार करने के लिए छोड़ देता हूँ।
आप हम काशी के रूप में जिस वाराणसी को जानते हैं वो मोक्षदायिनी काशी है। मोक्षदायिनी काशी, मोक्ष देती भी है और स्वयं भी मोक्ष को प्राप्त कर चुकी है। जिसका लक्ष्य पूरा हो चुका होता है वो मोक्ष को ही प्राप्त कर चुका होता है। वाराणसी को मोक्षदायिनी काशी  के रूप में स्थापित होना था, वो हो चुका। लक्ष्य प्राप्त वस्तु निष्क्रिय हो जाती है क्योंकि उसे शान्ति-एकत्व प्राप्त हो चुका होता है। इस कारण न तो काशी राष्ट्रगुरू बनने की अब इच्छा रखता है न ही यह करने के लिए अब उसके पास विद्वान और ज्ञानी शेष बचे हैं। यह उसी समय से हो गया था जब विश्वेश्वर ने व्यास को काशी से निष्कासित कर दिया था तब व्यासजी लोलार्क मन्दिर के आग्नेय कोण में गंगाजी के पूर्वी तट पर स्थित हुए। इस घटना का उल्लेख काशी खण्ड में इस प्रकार है-
लोलार्कादं अग्निदिग्भागे, स्वर्घुनी पूर्वरोधसि। 
स्थितो ह्यद्यापि पश्चेत्सः काशीप्रासाद राजिकाम्।। 
- स्कन्दपुराण, काशी खण्ड 96/201
आपके द्वारा काशी को राष्ट्रगुरू बनने का दिया गया लक्ष्य जिसने स्वीकार भी किया और उसे पूर्ण करने का प्रथम और अन्तिम प्रारूप भी प्रस्तुत किया वह गंगापार के क्षेत्र - जीवनदायिनी सत्यकाशी क्षेत्र का है जिसका निवास काशी चैरासी कोस यात्रा और सत्यकाशी के उभय क्षेत्र में स्थित है। गंगा पार क्षेत्र से ही जीवन शास्त्र ”विश्वशास्त्र“ व्यक्त हुआ है। 
सोमवार, 26 मई, 2014 ई0 , त्रयोदशी, कृष्ण पक्ष, ज्येष्ठ मास, विक्रमी संवत 2071, सायंकाल 5.45 से रात्रि 8.02 बजे तक वृश्चिक लग्न, स्वामी मंगल, नक्षत्र भरणी, देवाधिदेव महादेव शिव के उपासना का दिन सोमवार, प्रदोष व प्रदोष काल (गोधूलि बेला) के अद्भुत संयोग के सम्बन्ध में काशी (वाराणसी) के विद्वान ज्योतिषियों की भविष्यवाणीयाँ - ”राष्ट्र का होगा उत्थान“ - पं0 विष्णुपति त्रिपाठी, ”प्रधानमंत्रित्व काल रहेगा मंगलमय“ - पं0 प्रसाद दीक्षित, ”वृश्चिक लग्न से भारत को मिलेगा यश“ - पं0 विमल जैन। इसी अद्भुत संयोग में निम्नलिखित कार्य सम्पन्न हुये थे-
- सायं काल 6.10 बजे विश्व के सबसे बड़े लोकतन्त्र के 15वें और स्वतन्त्र भारत में जन्में पहले प्रधानमंत्री के रूप में आप श्री नरेन्द्र मोदी का शपथ ग्रहण हुआ।
- सायं काल 6.10 बजे काशी को राष्ट्रगुरू और भारत को जगतगुरू बनाने वाली कार्य योजना के प्रारम्भ के लिए वेबसाइट www.moralrenew.com का पंजीकरण लक्ष्य पुनर्निर्माण व उसकी प्राप्ति के लिए इस कार्य योजना के रचनाकर्ता श्री लव कुश सिंह ”विश्वमानव“ द्वारा कराया गया।
आप द्वारा काशी को दिये गये लक्ष्य को पूरा किया चुका है जो आपके लिए मार्गदर्शन और जिम्मेदारी सौंपने का विचार रहा होगा लेकिन मेरे लिए चुनौतिस्वरूप था जैसे मुझे ही कोई ललकार रहा हो। मोक्षदायिनी काशी - वाराणसी का तो कोई पता नहीं लेकिन जीवनदायिनी काशी - सत्यकाशी (वाराणसी-विन्ध्याचल-शिवद्वार-सोनभद्र के बीच का क्षेत्र) राष्ट्रगुरू बनने की अपने योग्यता प्रस्तुत कर चुका है। अब आपकी बारी है। शतरंज की चाल हो या गेंद, आपकी बारी है। काल के मंच पर कथा को आगे बढ़ाये, सभी को सही अर्थ में स्थापित होने दें और इस काल क्रम को पहचानें-
वर्तमान समय - इतिहास लौट चुका है।
111 वर्ष पूर्व 4 जुलाई, 1902 ई0 को आम आदमी के रूप में नरेन्द्र नाथ दत्त और विचार से सर्वोच्च विश्वमानव के रूप में स्वामी विवेकानन्द ब्रह्मलीन हुये थे। उन्होंने कहा था -”मन में ऐसे भाव उदय होते हैं कि यदि जगत् के दुःख दूर करने के लिए मुझे सहस्त्रों बार जन्म लेना पड़े तो भी मैं तैयार हूँ। इससे यदि किसी का तनिक भी दुःख दूर हो, तो वह मैं करूंगा और ऐसा भी मन में आता है कि केवल अपनी ही मुक्ति से क्या होगा। सबको साथ लेकर उस मार्ग पर जाना होगा।“ (विवेकानन्द जी के संग में, पृष्ठ-67, राम कृष्ण मिशन प्रकाशन) वर्तमान में उनके तीन रूप व्यक्त हो चुके हैं जो निम्नलिखित हैं-
1. भारत के सर्वोच्च पद पर सुशोभित श्री प्रणव मुखर्जी, राष्ट्रपति, भारत, उनके संस्कृति को लेकर।
2. भारत के सर्वोच्च अधिकार के पद पर सुशोभित श्री नरेन्द्र मोदी, प्रधानमंत्री, भारत, उनके नाम को लेकर।
3. भारत के आम आदमी के रूप में श्री लव कुश सिंह ”विश्वमानव“, भारत, उनके विचार ”विश्व-बन्धुत्व“ एवं ”वेदान्त की व्यवहारिकता“ की स्थापना के लिए शासनिक प्रणाली के अनुसार स्थापना स्तर तक की प्रक्रिया को लेकर।
भारत सरकार व उसके अनेक मंत्रालयों द्वारा अन्तर्राष्ट्रीय मानकीकरण संगठन के प्रमाण पत्र आई.एस.ओ-9000 (ISO-9000) गुणवत्ता का प्रमाण पत्र प्राप्त करने की प्रक्रिया प्रारम्भ।

श्री लव कुश सिंह ”विश्वमानव“ं द्वारा विश्व के एकीकरण के प्रथम चरण - मानसिक एकीकरण के लिए नागरिकों के गुणवत्ता का विश्वमानक-0 (WS-0) श्रृंखला आविष्कृत।
भारत विश्व गुरू कभी हुआ करता था लेकिन अब नहीं है। इसका सबसे बड़ा प्रमाण यह है कि भारत वैश्विक सिद्धान्तों से प्रभावित है। भारत उस दिन वर्तमान युग में पुनः विश्व गुरू बन जायेगा जब वह अपने सार्वभौम सिद्धान्तों से विश्व को प्रभावित व संचालित करने लगेगा। काशी-सत्यकाशी क्षेत्र इस दृश्य काल में मतों (वोटों) से नहीं बल्कि शिव-तन्त्र के शास्त्र से किसी का हो सकता है। सार्वभौम सत्य - आत्म तत्व के आविष्कार से भारत विश्व गुरू तो है ही परन्तु दृश्य काल में विश्व गुरू बनने के लिए सार्वभौम सत्य-सिद्धान्त चाहिए जिससे विश्व संविधान व लोकतन्त्र को मार्गदर्शन मिल सके। शिक्षा द्वारा मानव मन को सत्य से जोड़ने व काल का बोध कराने, काशी को राष्ट्रगुरू व भारत को जगतगुरू बनाने तथा ज्ञान को सबके द्वार पर पहुँचाने का कार्य आपकी इच्छानुसार प्रारम्भ किया जा रहा है। आपने कहा, हमने शुरू किया।“
- श्री लव कुश सिंह ”विश्वमानव“ पुत्र श्री धीरज नारायण सिंह
रचनाकर्ता - लक्ष्य पुनर्निर्माण व उसकी प्राप्ति के लिए पाठ्यक्रम व कार्य योजना 
आविष्कारकर्ता - मन (मानव संसाधन) का विश्व मानक एवं पूर्ण मानव निर्माण की तकनीकी
दावेदार - भारत सरकार का सर्वोच्च नागरिक सम्मान ”भारत रत्न“
निवास - नियामतपुर कलाँ, पुरूषोत्तमपुर, मीरजापुर (उ0प्र0) पिन-231305
जन्म स्थान - टाउनशिप अस्पताल, बरौनी रिफाइनरी, बेगूसराय (बिहार) पिन-851117
और इस कार्य को सम्पन्न और स्वच्छ मन - स्वच्छ भारत - स्वस्थ भारत करने के लिए 8वें सावर्णि मनु, अनिर्वचनीय कल्कि महाअवतार भोगेश्वर लव कुश सिंह ”विश्वमानव“ निम्नलिखित को अपने नौ रत्न के रूप में घोषित करता हूँ-
1. NITI AAYOG (नीति आयोग)
2. UGC- University Grant Commission (विश्वविद्यालय अनुदान आयोग)
3. NCERT – National Council for Educational Research & Training (राष्ट्रीय शैक्षिक शोध एवं प्रशिक्षण आयोग)
4. BIS – Bureau of Indian Standard (भारतीय मानक ब्यूरो)
5. MHRD – Ministry of Human Resources Development (मानव संसाधन मंत्रालय, भारत)
6. NKC – National Knowledge Commission (राष्ट्रीय ज्ञान आयोग)
7. SUPREME COURT OF INDIA (भारत का सर्वोच्च न्यायालय)
8. PM – Prime Minister of India (प्रधान मंत्री, भारत)
9. PRESIDENT – President of India (राष्ट्रपति, भारत)
अर्थात ”आध्यात्मिक एवं दार्शनिक विरासत” के आधार पर ”एक भारत - श्रेष्ठ भारत“ के निर्माण की प्रक्रिया उपरोक्त 9 रत्नों पर ही निर्भर है।
”सम्भवतः ऐसा समय आ रहा है जब इस भौतिकवादी समाज में एक नयी भावना का उदय होगा और वह यह कि ईश्वर-दर्शन प्रत्येक व्यक्ति के लिए सम्भव है, तब सभी के उस दिशा में संघर्ष न करने पर भी जो ईश्वर का प्रत्यक्ष प्रयोगात्मक अनुभव करना चाहंेगे उन्हें युग-चेतना से उपहास एवं संदेह के बदले, प्रोत्साहन प्राप्त होगा। यदि हम अपने व्यक्तिगत एवं सामूहिक जीवन में वैज्ञानिक चेतना सम्पन्न एवं आध्यात्मिक एक साथ न हो पाए, तो मानवजाति का अर्थपूर्ण अस्तित्व ही संशय का विषय हो जाएगा। - स्वामी विवेकानन्द
”आध्यात्मिक का अर्थ केवल प्रवचन नहीं, बल्कि आध्यात्मिक सिद्धान्तों के आधार पर तन्त्रों का विकास कर उन्हें वैयक्तिक से वैश्विक जीवन में व्यावहारीकरण करना है” - अनिवर्चनीय कल्कि महाअवतार लव कुश सिंह ”विश्वमानव“
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”अच्छी शिक्षा, शिक्षकों से जुड़ी है। शिक्षक को हर परम्पराओं का ज्ञान होना चाहिए। हम विश्व को अच्छे शिक्षक दे सकते हैं। विगत छह महीने से पूरा विश्व हमारी ओर देख रहा है। ऋषि-मुनियों की शिक्षा पर हमें गर्व है। 21वीं सदी में विश्व को उपयोगी योगदान देने की माँग है। पूर्णत्व के लक्ष्य को प्राप्त करना विज्ञान हो या तकनीकी, इसके पीछे परिपूर्ण मानव मन की ही विश्व को आवश्यकता है। रोबोट तो पाँच विज्ञानी मिलकर भी पैदा कर देगें। मनुष्य का पूर्णत्व, तकनीकी में समाहित नहीं हो सकता। पूर्णता मतलब जनहित। कला-साहित्य से ही होगा नवजागरण।“ (बी.एच.यू, वाराणसी में)
  - श्री नरेन्द्र मोदी, प्रधानमंत्री, भारत
साभार - काशी वार्ता, वाराणसी संस्करण, दि0 26 दिसम्बर, 2014

श्री लव कुश सिंह ”विश्वमानव“ द्वारा स्पष्टीकरण
स्कूल-कालेजों के जाल से शिक्षा के व्यापार का विकास होता है न कि शिक्षा का। शिक्षा का विकास तो शिक्षा पाठ्यक्रम पर निर्भर होता है जिससे शिक्षक और शिक्षार्थी दोनों निर्मित होते हैं। जब तक पूर्ण शिक्षा पाठ्यक्रम का निर्माण नहीं होता, शिक्षा का विकास नहीं हो सकता लेकिन शिक्षा के व्यापार का विकास होता रहेगा। पूर्ण शिक्षा पाठ्यक्रम का निर्माण हो चुका है जिसे ”सत्य मानक शिक्षा“ नाम दिया गया है। ”सत्य मानक शिक्षा“, विवादमुक्त, दृश्य, सार्वजनिक प्रमाणित सार्वभौम सत्य-सिद्धान्त से आधार पाकर निर्मित है इसलिए यह स्वीकार्य  और आत्मसात् करने योग्य है। इसकी पुष्टि के लिए सैकड़ों दिशाओं से महा योग किया गया है। समस्या ये है कि जो शिक्षक बन गये हैं उन्हें कैसे परिपूर्ण मानव मन में परिवर्तित किया जाये क्योंकि नौकरी मिलने के बाद तो शायद ही कोई पढ़ना चाहता हो। और संसार का सबसे बडा आश्चर्य भी यही है कि पढ़-पढ कर नौकरी या धन बनाने में सफल व्यक्ति भी कहते मिल जाते हैं कि - ”आजकल किताबें कौन पढ़ता है“। खुद तो पढकर आगे बढ़ते हैं और दूसरे को न पढ़ने की शिक्षा देते हैं। वर्तमान युग ज्ञान युग है और आगे उसी ओर उसका विकास है। जो पढ़ेगा वही बढ़ेगा। पढ़ने में रूचि बनाने के लिए ही सारा ज्ञान एक ही पुस्तक में संघनित कर ”विश्वशास्त्र“ बना दिया गया है जिससे उन्हें ज्ञान के लिए अधिक समय न देना पड़े और खोज न करना पड़े।
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”स्वामी विवेकानन्द एक महान दूरदर्शी थे जिन्होंने जगद्गुरू भारत का सपना देखा था“
- श्री नरेन्द्र मोदी, प्रधानमंत्री, भारत
साभार - दैनिक जागरण व काशी वार्ता, वाराणसी संस्करण, दि0 12-13 जनवरी, 2015

श्री लव कुश सिंह ”विश्वमानव“ द्वारा स्पष्टीकरण
महोदय, स्वामी विवेकानन्द ने ”जगतगुरू का सपना देखा था“ और ”मैं उसके लिए आध्यात्मिक सत्य सार्वभौम सत्य-सिद्धान्त आधारित विश्वशास्त्र लेकर वर्तमान में हूँ।“ एक ”था“ है और एक ”हैं“ है। वे सपना देखंे, उनके जीवन काल में जो कार्य हो सकने लायक था वे पूरा किये, उसके आगे का कार्य पूरा करने के लिए ही वर्तमान में मैं हूँ। और मेरा यह जीवन किसी भी रूप में प्रमाणित नहीं होता कि इस कार्य को करने के लिए किसी ने कहा, या मार्गदर्शन दिया या जिन विषयों को लेकर मैं व्यक्त हूँ उसे मैंने शैक्षणिक सत्र में अध्ययन किया।  मैं तो जन्म ग्रहण किया, शरीर धारण के अनुसार समाज द्वारा जो उपर बोझ दिया जाता है उसे जब तक हो सका ढोया, जिसके लिए मैं आया था उसके लिए जितने नकारात्मक बोझ थे स्वतः ही हटते चले गये और मैं अपने मूल कार्य में लग गया। जो सबके सामने प्रकाशित है। स्वामी जी के इन विचारों पर ध्यान देने की जरूरत है और इसके भारतीय दर्शन के प्रमाणिकता में बहुत उपयोग हैं-
”शास्त्र कहते है कि कोई साधक यदि एक जीवन में सफलता प्राप्त करने में असफल होता है तो वह पुनः जन्म लेता है और अपने कार्यो को अधिक सफलता से आगे बढ़ाता है।“ (योग क्या है, राम कृष्ण मिशन, पृष्ठ - 83) 
”एक विशेष प्रवृत्ति वाला जीवात्मा ‘योग्य योग्येन युज्यते’ इस नियमानुसार उसी शरीर में जन्म ग्रहण करता है जो उस प्रवृत्ति के प्रकट करने के लिए सबसे उपयुक्त आधार हो। यह पूर्णतया विज्ञान संगत है, क्योंकि विज्ञान कहता है कि प्रवृत्ति या स्वभाव अभ्यास से बनता है और अभ्यास बारम्बार अनुष्ठान का फल है। इस प्रकार एक नवजात बालक की स्वाभाविक प्रवृत्तियों का कारण बताने के लिए पुनः पुनः अनुष्ठित पूर्व कर्मो को मानना आवश्यक हो जाता है और चूंकि वर्तमान जीवन में इस स्वभाव की प्राप्ति नहीं की गयी, इसलिए वह पूर्व जीवन से ही उसे प्राप्त हुआ है।” (हिन्दूधर्म, राम कृष्ण मिशन, पृष्ठ - 6) 
”सम्भवतः यह अच्छा होगा कि मैं अपने इस शरीर से बाहर निकल आउँ और इसे जीर्ण वस्त्र की भाँति उतार फेकूँ, किन्तु फिर भी मैं कार्य करते रहने से रूकूँगा नहीं, मानव समाज में मैं सर्वत्र प्रेरणा प्रदान करता रहूँगा जब तक कि संसार यह भाव आत्मसात् न कर लें कि वह ईश्वर के साथ एक है।“
  (राष्ट्र को आहवान, राम कृष्ण मिशन, पृष्ठ - 23)
”मन में ऐसे भाव उदय होते हैं कि यदि जगत का दुःख दूर करने के लिए मुझे सहस्त्रों बार जन्म लेना पडे़ तो भी मैं तैयार हूॅ। इससे यदि किसी का तनिक भी दुःख दूर हो तो वह मैं करुॅगा, और ऐसा भी मन में आता है कि केवल अपनी ही मुक्ति से क्या होगा सबको साथ लेकर उस मार्ग पर जाना होगा।“        (विवेकानन्द की वाणी, राम कृष्ण मिशन, पृष्ठ - 67)
”यह जो मठ आदि बनवा रहा हूॅ, और दूसरों के लिए नाना प्रकार के काम कर रहा हूॅ उससे प्रशंसा हो रही है। कौन जाने मुझे ही फिर इस जगत में लौटकर आना पड़े“ (विवेकानन्द जी के संग में, राम कृष्ण मिशन, पृष्ठ - 167)
स्वामी विवेकानन्द जी महान दूरदर्शी थे, अब उसी श्रृंखला में अन्तिम दूर दृष्टि से यह कार्य सम्पन्न हुआ है। जिसका सारांश मात्र इतना है-
शब्द से सृष्टि की ओर...
सृष्टि से शास्त्र की ओर...
शास्त्र से काशी की ओर...
काशी से सत्यकाशी की ओर...
और सत्यकाशी से अनन्त की ओर...
                  एक अन्तहीन यात्रा...............................
और मूल है-
सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड देख चुका हूँ, 
अक्षय-अनन्त है मेरी हाला।
कण-कण में हूँ-”मैं ही मैं“, 
क्षयी-ससीम है तेरी प्याला ।
जिस भी पथ-पंथ-ग्रन्थ से गुजरेगा तू, 
हो जायेगा, बद्ध-मस्त और मत वाला।
”जय ज्ञान-जय कर्मज्ञान“ की आवाज,  
सुनाती, मेरी यह अक्षय-अनन्त मधुशाला।
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”युवाओं विश्व को एक करो“ (”मन की बात“ रेडियो कार्यक्रम द्वारा श्री बराक ओबामा के साथ)
- श्री नरेन्द्र मोदी, प्रधानमंत्री, भारत
साभार - दैनिक जागरण व काशी वार्ता, वाराणसी संस्करण, दि0 28 जनवरी, 2015

श्री लव कुश सिंह ”विश्वमानव“ द्वारा स्पष्टीकरण
महोदय स्वामी विवेकानन्द ने जिस समय कहा था- एक विश्व, एक मानव, एक धर्म, एक ईश्वर, तब लोगों ने इस बात का उपहास किया था, लोगों ने इस प्रकार की संभावना पर संदेह प्रकट किया था, लोग स्वीकार नहीं कर पाये थे। किन्तु आज सभी लोग संयुक्त राष्ट्र संघ (UNO) की ओर दौडे़ चले जा रहे हैं। जाओ, जाओ की अवस्था ने मानो उनको दबोच लिया है।
हमेशा यूरोप से सामाजिक तथा एशिया से आध्यात्मिक शक्तियों का उद्भव होता रहा है एवं इन दोनों शक्तियों के विभिन्न प्रकार के सम्मिश्रण से ही जगत का इतिहास बना है। वर्तमान मानवेतिहास का एक और नवीन पृष्ठ धीरे-धीरे विकसित हो रहा है एवं चारो ओर उसी का चिन्ह दिखाई दे रहा है। कितनी ही नवीन योजनाओं का उद्भव तथा नाश होगा, किन्तु योग्यतम वस्तु की प्रतिष्ठा सुनिश्चित है- सत्य और शिव की अपेक्षा योग्यतम वस्तु और हो ही क्या सकती है? (1प 310) - स्वामी विवेकानन्द
यदि हम अपने व्यक्तिगत एवं सामूहिक जीवन में वैज्ञानिक चेतना सम्पन्न एवं आध्यात्मिक एक साथ न हो पाए, तो मानवजाति का अर्थपूर्ण अस्तित्व ही संशय का विषय हो जाएगा। (पृ0-9) - स्वामी विवेकानन्द
मन पर ही आविष्कार का परिणाम है-विश्वमानक शून्य: मन की गुणवत्ता का विश्वमानक श्रृंखला, जो वर्तमान में आविष्कृत कर प्रस्तुत किया गया है। जिसके बिना अन्तर्राष्ट्रीय/विश्व स्तर का मानव निर्माण ही असम्भव है। यही लोक या जन या गण का सत्य रुप है। यहीं आदर्श वैश्विक मानव का सत्य रुप है। जिससे पूर्ण स्वस्थ लोकतन्त्र, स्वस्थ समाज, स्वस्थ उद्योग की प्राप्ति होगी। इसी से विश्व-बन्धुत्व की स्थापना होगी। इसी से विश्व शिक्षा प्रणाली विकसित होगी। इसी से विश्व संविधान निर्मित होगा। इसी से संयुक्त राष्ट्र संघ अपने उद्देश्य को सफलता पूर्वक प्राप्त करेगा। इसी से 21 वीं सदी और भविष्य का विश्व प्रबन्ध संचालित होगा। इसी से मानव को पूर्ण ज्ञान का अधिकार प्राप्त होगा। यही परमाणु निरस्त्रीकरण का मूल सिद्धान्त है। भारत को अपनी महानता सिद्ध करना चुनौती नहीं है, वह तो सदा से ही महान है। पुनः विश्व का सर्वोच्च और अन्तिम अविष्कार विश्वमानक शून्य श्रृंखला को प्रस्तुत कर अपनी महानता को सिद्ध कर दिखाया है। बिल गेट्स के माइक्रोसाफ्ट आॅरेटिंग सिस्टम साफ्टवेयर से कम्प्यूटर चलता हेै। भारत के विश्वमानक शून्य श्रृंखला से मानव चलेगा। बात वर्तमान की है परन्तु हो सकता है स्वामी जी के विश्व बन्धुत्व की भाँति यह 100 वर्ष बाद समझ में आये। अपने ज्ञान और सूचना आधारित सहयोग की बात की है। विश्वमानक शून्य श्रृंखला से बढ़कर ज्ञान का सहयोग और क्या हो सकता है? इस सहयोग से भारत और अमेरिका मिलकर विश्व को नई दिशा सिर्फ दे ही नहीं सकते वरन् यहीं विवशतावश करना भी पड़ेगा। मनुष्य अब अन्तरिक्ष में उर्जा खर्च कर रहा है। निश्चय ही उसे पृथ्वी के विवाद को समाप्त कर सम्पूर्ण शक्ति को विश्वस्तरीय केन्द्रीत कर अन्तरिक्ष की ओर ही लगाना चाहिए। जिससे मानव स्वयं अपनी कृति को देख आश्चर्यचकित हो जाये जिस प्रकार स्वयं ईश्वर अपनी कृति को देखकर आश्चर्य में हैं और सभी मार्ग प्रशस्त हैं। भाव भी है। योजना भी है। कर्म भी है। विश्वमानक शून्य श्रृंखला भी है। फिर देर क्यों? और कहिए- वाहे गुरु की फतह!“
एक परफेक्ट देश के लिए व्यक्ति-विचार आधारित नहीं बल्कि मानक आधारित होना जरूरी है। अब हमें विश्व में मानक देश (Standard Country) का निर्माण करना होगा। और यह पहले स्वयं भारत और अमेरिका को होना पड़ेगा। भारत गणराज्य-लोकतन्त्र का जन्मदाता रहा है जिसका क्रम या मार्ग - जिस प्रकार हम सभी व्यक्ति आधारित राजतन्त्र में राजा से उठकर व्यक्ति आधारित लोकतन्त्र में आये, फिर संविधान आधारित लोकतन्त्र में आ गये उसी प्रकार पूर्ण लोकतन्त्र के लिए मानक व संविधान आधारित लोकतन्त्र में हम सभी को पहुँचना है।
भारत का अब धर्म के नाम पर बँटना नामुमकिन है क्योंकि अब वह ”विश्वधर्म“ और उसके शास्त्र ”विश्वशास्त्र“ को जन्म दे चुका है। विश्व का एकीकरण तभी हो सकता है जब हम सब प्रथम चरण में मानसिक रूप से एकीकृत हो जायें। फिर विश्व के शारीरिक (भौगोलिक) एकीकरण का मार्ग खुलेगा। एकीकरण के प्रथम चरण का ही कार्य है - मानक एवं एकात्म कर्मवाद आधारित मानव समाज का निर्माण। जिसका आधार निम्न आविष्कार है जो स्वामी विवेकानन्द के वेदान्त की व्यावहारिकता और विश्व-बन्धुत्व के विचार का शासन के स्थापना प्रक्रिया के अनुसार आविष्कृत है। सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में व्याप्त एक ही सत्य-सिद्धान्त द्वारा व्यक्तिगत व संयुक्त मन को एकमुखी कर सर्वोच्च, मूल और अन्तिम स्तर पर स्थापित करने के लिए शून्य पर अन्तिम आविष्कार WS-0 श्रृंखला की निम्नलिखित पाँच शाखाएँ है। 
1. डब्ल्यू.एस. (WS)-0 : विचार एवम् साहित्य का विश्वमानक
2. डब्ल्यू.एस. (WS)-00 : विषय एवम् विशेषज्ञों की परिभाषा का विश्वमानक
3. डब्ल्यू.एस. (WS)-000 : ब्रह्माण्ड (सूक्ष्म एवम् स्थूल) के प्रबन्ध और क्रियाकलाप का विश्वमानक
4. डब्ल्यू.एस. (WS)-0000 : मानव (सूक्ष्म तथा स्थूल) के प्रबन्ध और क्रियाकलाप का विश्वमानक
5. डब्ल्यू.एस. (WS)-00000 : उपासना और उपासना स्थल का विश्वमानक
और पूर्णमानव निर्माण की तकनीकी WCM-TLM-SHYAM.C है। 
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”भारत को अब क्रमिक विकास की नहीं कायाकल्प की जरूरत है। यह तक तक संभव नहीं जब तक प्रशासनिक प्रणाली में आमूल-चूल परिवर्तन न हो। लिहाजा नई सोच, नई संस्थान और नई तकनीकी अपनानी होगी। 19वीं सदी के प्रशासनिक प्रणाली के साथ 21वीं सदी में नहीं प्रवेश किया जा सकता है। रत्ती-रत्ती प्रगति से काम नहीं चलेगा। यदि भारत को परिवर्तन की चुनौतियों से निपटना है तो हमें हर स्तर पर बदलाव लाना होगा। हमें कानूनों में बदलाव करना है, अनावश्यक औपचारिकताओं को समाप्त करना है, प्रक्रियाओं को तेज करना है और प्रौद्योगिकी अपनानी है। मानसिकता में भी बदलाव लानी है और यह तभी हो सकता है जब विचार परिवर्तनकारी हों।“ (नीति आयोग की ओर से आयोजित ”भारत परिवर्तन व्याख्यान” के शुभारम्भ में, नई दिल्ली में) - श्री नरेन्द्र मोदी, प्रधानमंत्री, भारत

श्री लव कुश सिंह ”विश्वमानव“ द्वारा स्पष्टीकरण
आचार्य रजनीश ”ओशो“ की वाणी है - ”इस देश को कुछ बाते समझनी होगी। एक तो इस देश को यह बात समझनी होगी कि तुम्हारी परेशानियों, तुम्हारी गरीबी, तुम्हारी मुसीबतों, तुम्हारी दीनता के बहुत कुछ कारण तुम्हारे अंध विश्वासों में है, कम से कम डेढ़ हजार साल पिछे घिसट रहा है। ये डेढ़ हजार साल पूरे होने जरूरी है। भारत को खिंचकर आधुनिक बनाना जरूरी है। मेरी उत्सुकता है कि इस देश का सौभाग्य खुले, यह देश भी खुशहाल हो, यह देश भी समृद्ध हो। क्योंकि समृद्ध हो यह देश तो फिर राम की धुन गुंजे, समृद्ध हो यह देश तो फिर लोग गीत गाँये, प्रभु की प्रार्थना करें। समृद्ध हो यह देश तो मंदिर की घंटिया फिर बजे, पूजा के थाल फिर सजे। समृद्ध हो यह देश तो फिर बाँसुरी बजे कृष्ण की, फिर रास रचे! ” 
भारत को सम्पूर्ण क्रान्ति की जरूरत है। क्रान्ति के प्रति विचार यह है कि- ”राजनीतिक, आर्थिक व सामाजिक परिस्थिति में उसकी स्वस्थता के लिए परिवर्तन ही क्रान्ति है, और यह तभी मानी जायेगी जब उसके मूल्यों, मान्यताओं, पद्धतियों और सम्बन्धों की जगह नये मूल्य, मान्यता, पद्धति और सम्बन्ध स्थापित हों। अर्थात क्रान्ति के लिए वर्तमान व्यवस्था की स्वस्थता के लिए नयी व्यवस्था स्थापित करनी होगी। यदि व्यवस्था परिवर्तन के आन्दोलन में विवेक नहीं हो, केवल भावना हो तो वह आन्दोलन हिंसक हो जाता है। हिंसा से कभी व्यवस्था नहीं बदलती, केवल सत्ता पर बैठने वाले लोग बदलते है। हिंसा में विवेक नहीं उन्माद होता है। उन्माद से विद्रोह होता है क्रान्ति नहीं। क्रान्ति में नयी व्यवस्था का दर्शन - शास्त्र होता है अर्थात क्रान्ति का लक्ष्य होता है और उस लक्ष्य के अनुरुप उसे प्राप्त करने की योजना होती है। दर्शन के अभाव में क्रान्ति का कोई लक्ष्य नहीं होता।“ 
सम्पूर्ण क्रान्ति से हमारा तात्पर्य सभी विषयों के अपने सत्य अर्थो में स्थापना से है। जो आपके शब्दों में ”आध्यात्मिक एवं दार्शनिक विरासत के आधार पर एक भारत - श्रेष्ठ भारत“ है। लोकतन्त्र से हम राजतन्त्र में नहीं जा सकते इसलिए व्यवस्था परिवर्तन का अर्थ ही निरर्थक है। आवश्यकता है वर्तमान लोकतन्त्र व्यवस्था को ही सत्य आधारित करने की जिसे व्यवस्था सत्यीकरण कहा जा सकता है। इस कार्य में हमें मानकशास्त्र की आवश्यकता है जिससे तोल कर यह देख सके कि इस लोकतन्त्र व्यवस्था में कहाँ सुधार करने से सत्यीकरण हो जायेगा। यह मानकशास्त्र ही ”विश्वशास्त्र“ है। जो भारत के तेज विकास सहित कायाकल्प का प्रारूप है। तेज विकास वही देश कर सकता है जहाँ के नागरिक अपने देश के प्रति समर्पित हों और कम से कम उनका मस्तिष्क देश स्तर तक व्यापक हो। संकुचित मस्तिष्क को व्यापक करने से ही वह वर्तमान में आ पायेगा। इन सब उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए मूल रूप में निम्नलिखित कार्य करने आवश्यक हैं जो आध्यात्मिक एवं दार्शनिक विरासत का सार्वभौम सत्य-सिद्धान्त रूप है-

अ. भारत के विश्व गुरू बनने के लिए -
”सम्पूर्ण मानक“ अर्थात विश्वमानक - शून्य श्रंखला की विश्वव्यापी स्थापना।

ब. संविधानानुसार पूर्ण गणराज्यों के संघ के निर्माण के लिए -
पूर्ण गणराज्य के लिए नगर व ग्राम पंचायत को देश के संविधान की भाँति संविधान देकर गणराज्य बनाते हुये उसका सम्बन्ध सीधे केन्द्र से करना व राज्यों को समाप्त करना।

स. गणराज्य के सशक्तता के लिए -
01. नगर व ग्राम पंचायत के लाभ-हानि का ब्यौरा सार्वजनिक करना और उस अनुसार ही पिछड़े क्षेत्र पर विशेष ध्यान देना।
02. नगर व ग्राम पंचायत से ही सीधे प्रतिदिन सभी आॅकड़े केन्द्र को जिससे जनगणना, पशुगणना या अन्य आॅकड़ों के लिए विशेष अभियान की जरूरत नहीं। कार्ड, भूमि व नागरिक से सम्बन्धित सभी प्रमाण-पत्र नगर व ग्राम पंचायत से ही।
03. कृषि उत्पाद का भण्डारण ग्राम पंचायत स्तर पर। पंचायत से ही सीधे नागरिक, अन्य पंचायत और भारत सरकार द्वारा खरीददारी एवं भण्डारण।
04. ”अतिथि देवो भवः“ - नगर व ग्राम पंचायत के द्वारा बाहरी आगन्तुक, खोजकर्ता, आविष्कारक, निराश्रित के लिए ”भोजन की गारण्टी“ जिसे अन्नक्षेत्र कहते हैं।

द. गणराज्य: एक भारत - श्रेष्ठ भारत के स्थिरता के लिए -
01. नागरिक के मस्तिष्क को आधुनिक, चिन्तनशील, पूर्ण, एकीकृत, समकक्षीकरण व समझ से युक्त करने के लिए ”सत्य मानक शिक्षा“ से युक्त करना। जिसके लिए राष्ट्रीय लोकतान्त्रिक नागरिक पात्रता परीक्षा (National Democratic Civilian Elegibility Test - NDCET) सरकारी सेवाओं के लिए अनिवार्य करना साथ ही छात्र के लिए अनिवार्य रूप से कभी भी उत्तीर्ण करना आवश्यक तभी उनका शैक्षिक डिग्री मान्य। इस प्रकार शिक्षक पात्रता परीक्षा (Teacher Elegibility Test - TET) अपने आप समाप्त हो जायेगी।
02. भारत के प्रति समर्पित नागरिक निर्माण का पाठ्यक्रम ”सत्य मानक शिक्षा“ को संविधान का अंग बनाना।
03. एक राष्ट्र - एक पाठ्यक्रम - एक शिक्षा बोर्ड की व्यवस्था क्योंकि शिक्षा का सम्बन्ध राष्ट्र से है न कि राष्ट्र के किसी भाग से।
04. शिक्षा और आवश्यक वस्तु के विपणन क्षेत्र में भारतीय आध्यात्म एवं दर्शन आधारित स्वदेशी विपणन प्रणाली: 3-एफ (3-F : Fuel-Fire-Fuel) अनिवार्य रूप से लागू करना जिससे उनका खर्च ही उन्हें आर्थिक लाभ दे। फलस्वरूप क्रय शक्ति में बढ़ोत्तरी।
05. न्याय क्षेत्र में समय सीमा में बद्ध न्याय और आर्थिक अपराध का दण्ड सर्वोच्च करना।
06. आरक्षण का आधार शारीरिक, आर्थिक व मानसिक करना।
07. नीजी क्षेत्र के विद्यालय और चिकित्सालय के शुल्क को नियंत्रित करना।
08. भूमि विक्रय पंजीकरण, ब्रोकर को दर्ज कराये बिना न करना। ब्रोकर को कानून के दायरे में लाना।
09. एक राष्ट्र - एक बिक्री कर - एक आयकर। सभी कर समाप्त।
10. एक राष्ट्र - एक राष्ट्रीय लोकतान्त्रिक नागरिक संहिता, दण्ड संहिता जो महिला-पुरूष में भेद ना करे।
11. एक राष्ट्र - एक राष्ट्रीय लोकतान्त्रिक धर्म (समष्ठि धर्म) जिसकी सीमा देश स्तर, अन्य प्रचलित धर्म व्यक्तिगत धर्म (व्यष्टि धर्म) जिसकी सीमा परिवार क्षेत्र।
12. एक राष्ट्र - एक नागरिकता संख्या (इण्टिग्रेटेड सर्किट-चिप युक्त आधार कार्ड) - सम्पूर्ण शारीरिक - आर्थिक/संसाधन - मानसिक - क्रियाकलाप - उपलब्धता (नागरिक डाटाबेस), निगरानी अर्थात यात्रा सम्बन्धित टिकट, होटल व थाने से भी जोड़ना।
13. पद पर नियुक्ति के समय न्यूनतम योग्यता को ही अधिकतम योग्यता निर्धारित करना अर्थात जिस पद के लिए जो योग्यता निर्धारित की जाती है, नियुक्ति के समय उम्मीदवार की अधिकतम योग्यता भी वही होनी चाहिए अन्यथा अयोग्य घोषित। नियुक्ति उपरान्त शिक्षा ग्रहण करने की स्वतन्त्रता।
14. भारतीय ऋषि आश्रम पद्धतिनुसार उत्तराधिकार सम्बन्धी अधिनियम जिसमें यह प्राविधान हो कि 25 वर्ष की अवस्था (गृहस्थ आश्रम में प्रवेश) में उसे पैतृक सम्पत्ति अर्थात दादा की सम्पत्ति जिसमें पिता की अर्जित सम्पत्ति शामिल न रहें, पुत्र के अधिकार में हो जाये। 
15. भारतीय ऋषि आश्रम पद्धतिनुसार सरकारी सेवा का सेवानिवृत्ति की उम्र 50 वर्ष (गृहस्थ आश्रम), फिर 25 वर्ष सम्बन्धित विभाग का मार्गदर्शक मण्डल (वानप्रस्थ आश्रम) में 50 प्रतिशत उपस्थिति अनिवार्य और 50 प्रतिशत वेतन, फिर जीवनपर्यन्त पेंशन और अन्य सुविधाएँ (सन्यास आश्रम)। 
16. बढ़ती जनसंख्या और चुनाव एक बहुत बड़ी समस्या है। एक नागरिकता संख्या (इण्टिग्रेटेड सर्किट-चिप युक्त आधार कार्ड) से मतदाता सूची का बार-बार बनाना, चुनाव खर्च में अप्रत्याशित रूप से कमी, मतदान प्रतिशत में अत्यधिक बढ़ोत्तरी, 100 प्रतिशत सत्य मतदाता इत्यादि को मात्र एक साफ्टवेयर से नियंत्रित किया जा सकता है।
”नया भारत (NEW INDIA)”, केवल आर्थिक विकास से नहीं बनाया जा सकता, उसके लिए राष्ट्रीय बौद्धिक विकास भी चाहिए। पं0 दीन दयाल उपाध्याय की ये वाणी विचारणीय है - ”पूंजीवादी साहस और पूंजी को महत्व देते है तो कम्युनिस्ट श्रम को। पूंजीवादी स्वयं के लिए अधिक हिस्सा माँगते है और कम्युनिस्ट अपने लिए। यह नारा अनुचित, अन्यायपूर्ण और समाजघाती है। धन का अभाव मनुष्य को निष्करूण और क्रूर बना देता है। तो धन का प्रभाव उसे शोषक सामाजिक दायित्व निरपेक्ष, दम्भी और दमनकारी। मनुष्य पशु नहीं है केवल पेट भर जाने से वह सुखी और संतुष्ट हो जायेगा। उसकी जीवन यात्रा ”पेट“ से आगे ”परमात्मा“ तक जाती है। उसके मन उसकी बुद्धि और उसकी आत्मा का भी कुछ तकाजा है। इस तकाजे को ध्यान में रखे बिना बनाई गई प्रत्येक व्यवस्था अल्पकालिक ही नही घातक भी होगी।“ 
भारत को विश्व गुरू बनाना व अच्छे दिन लाना, यह फल है जिसका जड़ व्यक्ति के मस्तिष्क और गाँव में है। जड़ को मजबूत करने से भारत नामक वृक्ष से अपने आप फल निकलने लगेगें। पुनर्निर्माण व्यक्ति के मस्तिष्क को मजबूत करने का ही कार्यक्रम है। शेष व्यक्ति व शासन मिलकर पूरा कर लेगें इसका हमें विश्वास है।




विश्वमानव और श्री राज नाथ सिंह (10 जुलाई, 1951 - )

श्री राज नाथ सिंह (10 जुलाई, 1951 - )

परिचय - 
राजनाथ सिंह (10 जुलाई, 1951) भारतीय जनता पार्टी के प्रसिद्ध राजनीतिज्ञ, उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री एवं वर्तमान भारत सरकार में गृह मंत्री हैं। राजनाथ सिंह पहले भाजपा के अध्यक्ष और भाजपा की उत्तर प्रदेश (जो उनका गृह राज्य भी है) ईकाई के अध्यक्ष भी रह चुके हैं। प्रारंभ में वे भौतिकी के व्याख्याता थे, पर शीघ्र जनता पार्टी से जुड़ने के लिए उन्होंने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से अपने दीर्घ संबंधों का उपयोग किया, जिसके कारण वे उत्तर प्रदेश में कई पदों पर विराजमान हुए।
राजनाथ सिंह का जन्म 10 जुलाई, 1951 को वाराणसी के चकिया तहसील में हुआ था। उनके पिता का नाम श्री राम बदन सिंह और माता का नाम श्रीमती गुजराती देवी था। राजनाथ सिंह ने सावित्री सिंह से विवाह किया है। उनके दो पुत्र और एक पुत्री हैं। दोनों पुत्र राजनीति में सक्रिय हैं। एक साधारण कृषक परिवार में जन्मे राजनाथ सिंह ने आगे चलकर गोरखपुर विश्वविद्यालय से प्रथम क्ष्रेणी में भौतिक शास्त्र में आचार्य की उपाधि प्राप्त की। वो 13 साल की आयु से (1964 सन से) संघ परिवार से जुड़े हुए हैं। मिर्जापुर में भौतिकी व्याख्यता की नौकरी लगने के बाद भी संघ से जुड़े रहे। 1974 में उन्हें भारतीय जनसंघ का सचिव नियुक्त किया गया। राजनाथ सिंह 1988 में यूपी विधान परिषद के सदस्य बने। 1991 में जब राज्य में बीजेपी की सरकार बनी तो राजनाथ सिंह शिक्षा मंत्री बने। 1994 में वह राज्यसभा के लिए चुने गए। 1997 में वह प्रदेश भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष बने। 2000 में वह उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बने। 2002 में वह पार्टी के राष्ट्रीय महामंत्री बने और 2003 में केंद्रीय कृषि मंत्री बने। 2005 में उन्होंने पार्टी का सर्वोच्च पद संभाला।
वर्ष 1964 में 13 वर्ष की अवस्था में ही वे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़े। व्याख्याता बनने के बाद भी संघ से उनका जुड़ाव बना रहा। कदम-दर-कदम आगे बढ़ने वाले राजनाथ सिंह ने 1969 में गोरखपुर में भाजपा की छात्र इकाई अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद (एबीवीपी) में संगठन सचिव से राजनीतिक करियर की शुरुआत की। 1974 में वे जनसंघ के मिर्जापुर इकाई के सचिव बने। आपातकाल के दौरान राजनाथ सिंह जयप्रकाश नारायण के आंदोलन में शामिल हुए और जेल गए।
पहली बार 1977 में राजनाथ सिंह उत्तर प्रदेश से विधायक बने। 1977 में वे भाजपा के राज्य सचिव बने। 1986 में भारतीय जनता युवा मोर्चा के राष्ट्रीय महासचिव बनने वाले राजनाथ सिंह 1988 में इसके राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाए गए। वर्ष 1988 में ही सिंह उत्तरप्रदेश में विधान परिषद के सदस्य चुने गए। कल्याण सिंह सरकार के दौरान वे शिक्षामंत्री बने। उत्तर प्रदेश की सियासत में भले ही वे लंबी पारी खेल चुके हो लेकिन संसद में वे पहली बार 1994 में पहुंचे जब उन्हें राज्यसभा टिकट मिला। ऊपरी सदन में उन्हें भाजपा का मुख्य सचेतक भी बनाया गया। वर्ष 1997 में जब उत्तरप्रदेश राजनीतिक संकट का सामना कर रहा था, एक बार फिर से उन्होंने राज्य पार्टी अध्यक्ष की बागडोर संभाली और इस पद पर 1999 तक रहे। इसके बाद केंद्र में अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में राजग सरकार में भूतल परिवहन मंत्री बने। केंद्र और राज्यों के बीच उनका आना-जाना लगा रहा। 28 अक्तूबर, 2000 को वे राम प्रकाश गुप्त की जगह उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बने। 2002 तक वे राज्य के मुख्यमंत्री रहे, लेकिन तब तक राज्य में समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी बढ़त बना चुकी थीं। भाजपा ने बसपा प्रमुख मायावती को उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री के तौर पर समर्थन देने को फैसला किया लेकिन राजनाथ सिंह ने इस कदम पर एतराज जाहिर किया था। इसके बाद एक बार फिर से वे भाजपा के राष्ट्रीय महासचिव बने। किसान परिवार से आने वाले राजनाथ सिंह 2003 में राजद से अजित सिंह के अलग होने के बाद वाजपेयी मंत्रिमंडल में कृषिमंत्री के तौर पर वापसी की। भाजपा में राजनाथ सिंह के आगे बढ़ने की यात्रा जारी रही। 31 दिसंबर 2005 को वे राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाए गए। उनके कार्यकाल में पहली बार कर्नाटक में भाजपा सत्ता में आई।

”भारत के पहले ग्लोबल यूथ थे स्वामी विवेकानन्द“ 
- श्री राजनाथ सिंह, गृहमंत्री, भारत
साभार - दैनिक जागरण व काशी वार्ता, वाराणसी संस्करण, दि0 12-13 जनवरी, 2015

श्री राज नाथ सिंह (10 जुलाई, 1951 - )

”भारत के पहले ग्लोबल यूथ थे स्वामी विवेकानन्द“ 
- श्री राजनाथ सिंह, गृहमंत्री, भारत
साभार - दैनिक जागरण व काशी वार्ता, वाराणसी संस्करण, दि0 12-13 जनवरी, 2015

श्री लव कुश सिंह ”विश्वमानव“ द्वारा स्पष्टीकरण 
स्वामी विवेकानन्द के जन्म (सोमवार, 12 जनवरी, सन् 1863 ई0) से आज (सोमवार, 27 मार्च, सन् 2017 ई0) के दिन तक 154 वर्ष 2 माह 15 दिन हो गये और उनके ब्रह्मलीन (सोमवार, 4 जुलाई, सन् 1902 ई0) के दिन से आज (सोमवार, 27 मार्च, सन् 2017 ई0) के दिन तक 114 वर्ष 8 माह 23 दिन हो गये। स्वामी जी के जन्म और ब्रह्मलीन होने से लेकर अब तक भारत 100 वर्ष से बहुत अधिक समय पार कर चुका है। उस समय भारत पर ब्रिटीश शासन का अधिपत्य था। एक युवा उम्र का सन्यासी उस वक्त कितने संसाधन से युक्त रहा होगा? फिर भी वो सन्यासी अपने छोटी सी जीवन यात्रा में (मात्र 39 वर्ष 5 माह 22 दिन) में कितने काम किये इसका अन्दाजा किसी को है क्या? अपने मात्र 30 वर्ष 7 माह 29 दिन की अवस्था में वो सन्यासी शिकागो (अमेरिका) में जाकर भारत का आध्यात्मिक विरासत और दर्शन-विचार को विश्व धर्म संसद के माध्यम से विश्व के समक्ष रखता है। और वो दर्शन-विचार आज भी अकाट्य हैं, यही नहीं यदि भारत को ”आध्यात्मिक एवं दार्शनिक विरासत के आधार पर एक भारत श्रेष्ठ भारत“ का निर्माण करना हो तो उस दर्शन-विचार का आधार ही अन्तिम मार्ग है जो समय आने पर सबको अच्छी प्रकार स्वीकार करना होगा। 11 सितम्बर, सन् 1893 के विश्व धर्म संसद के बाद सीधे 100 वर्ष बाद ही सन् 1993 में धर्म संसद का आयोजन हुआ, ये भी विचारणीय विषय है? स्वामी जीे के जीवन काल से लेकर अब तक उनके द्वारा स्थापित ”राम-कृष्ण मिशन व मठ“ वर्तमान समय तक भारत और अन्य देशों के लगभग 250 शाखाओं द्वारा शान्ति पूर्वक ”शिव भाव से जीव सेवा“ और ”वेदान्त धर्म ज्ञान प्रसार“ के कार्य में लगा हुआ है।
स्वामी विवेकानन्द जी ने उस समय कुछ कहा था और लिखा था जो भारत के सम्बन्ध में भी है और उनके व्यक्तिगत जीवन के सम्बन्ध में भी है - 
‘सम्भव है काल के प्रवाह में, कभी कभी ऐसा भास होता है कि वेदान्त का महाप्रकाश अब बुझा और जब ऐसी स्थिति आती है, तब भगवान मानवदेह धारण कर, पृथ्वी पर आते है और फिर धर्म में पुनः एक ऐसी शक्ति ऐसे जीवन का संचार हो जाता है कि वह फिर एकाध युग तक अदम्य उत्साह से आगे बढ़ता जाता है। आज वही शक्ति और जीवन उसमें फिर आ गया है।“
(विवेकानन्द जी के सन्निध्य में’, राम कृष्ण मिशन, पृष्ठ - 6)
”मुझे अपनी मुक्ति की इच्छा अब बिल्कुल नहीं। सांसारिक भोग तो मैंने कभी चाहा नहीं। मुझे सिर्फ अपने यन्त्र को मजबूत और कार्योपयोगी देखना है और फिर निश्चित रूप से यह जानकर कि कम से कम भारत में मैंने मानव जाति के कल्याण का एक ऐसा यंत्र स्थापित कर दिया है, जिसका कोई शक्ति नाश नहीं कर सकती, मैं सो जाउँगा और आगे क्या होने वाला है, इसकी परवाह नहीं करूँगा। मेरी अभिलाषा है कि मैं बार बार जन्म लँू और हजारों दुःख भोगता रहूँ, ताकि मैं उस एक मात्र सम्पूर्ण आत्माओं के समिष्टरूप ईश्वर की पूजा कर सकूँ जिसकी सचमुच सत्ता है और जिसका मुझे विश्वास है। सबसे बढ़कर सभी जातियों और वर्गों के पापी और दरिद्र रूपी ईश्वर ही मेंरा विशेष उपास्य है।‘‘ (स्वामी विवेकानन्द का मानवतावाद’,  राम कृष्ण मिशन, पृष्ठ - 38) 
”शास्त्र कहते है कि कोई साधक यदि एक जीवन में सफलता प्राप्त करने में असफल होता है तो वह पुनः जन्म लेता है और अपने कार्यो को अधिक सफलता से आगे बढ़ाता है।“ (योग क्या है, राम कृष्ण मिशन, पृष्ठ - 83) 
”एक विशेष प्रवृत्ति वाला जीवात्मा ‘योग्य योग्येन युज्यते’ इस नियमानुसार उसी शरीर में जन्म ग्रहण करता है जो उस प्रवृत्ति के प्रकट करने के लिए सबसे उपयुक्त आधार हो। यह पूर्णतया विज्ञान संगत है, क्योंकि विज्ञान कहता है कि प्रवृत्ति या स्वभाव अभ्यास से बनता है और अभ्यास बारम्बार अनुष्ठान का फल है। इस प्रकार एक नवजात बालक की स्वाभाविक प्रवृत्तियों का कारण बताने के लिए पुनः पुनः अनुष्ठित पूर्व कर्मो को मानना आवश्यक हो जाता है और चूंकि वर्तमान जीवन में इस स्वभाव की प्राप्ति नहीं की गयी, इसलिए वह पूर्व जीवन से ही उसे प्राप्त हुआ है।” (हिन्दूधर्म, राम कृष्ण मिशन, पृष्ठ - 6) 
”सम्भवतः यह अच्छा होगा कि मैं अपने इस शरीर से बाहर निकल आउँ और इसे जीर्ण वस्त्र की भाँति उतार फेकूँ, किन्तु फिर भी मैं कार्य करते रहने से रूकूँगा नहीं, मानव समाज में मैं सर्वत्र प्रेरणा प्रदान करता रहूँगा जब तक कि संसार यह भाव आत्मसात् न कर लें कि वह ईश्वर के साथ एक है।“ (राष्ट्र को आहवान, राम कृष्ण मिशन, पृष्ठ - 23)
”मन में ऐसे भाव उदय होते हैं कि यदि जगत का दुःख दूर करने के लिए मुझे सहस्त्रों बार जन्म लेना पडे़ तो भी मैं तैयार हूॅ। इससे यदि किसी का तनिक भी दुःख दूर हो तो वह मैं करुॅगा, और ऐसा भी मन में आता है कि केवल अपनी ही मुक्ति से क्या होगा सबको साथ लेकर उस मार्ग पर जाना होगा।“        (विवेकानन्द की वाणी, राम कृष्ण मिशन, पृष्ठ - 67)
”यह जो मठ आदि बनवा रहा हूॅ, और दूसरों के लिए नाना प्रकार के काम कर रहा हूॅ उससे प्रशंसा हो रही है। कौन जाने मुझे ही फिर इस जगत में लौटकर आना पड़े“ (विवेकानन्द जी के संग में, राम कृष्ण मिशन, पृष्ठ - 167)
”जीवन में मेरी सर्वोच्च अभिलाषा यह है कि ऐसा चक्र प्रर्वतन कर दूॅ जो कि उच्च एवम् श्रेष्ठ विचारों को सब के द्वार-द्वार पर पहुंचा दे। फिर स्त्री-पुरूष को अपने भाग्य का निर्माण स्वयं करने दो। हमारे पूर्वजों ने तथा अन्य देशों ने जीवन के महत्वपूर्ण प्रश्नों पर क्या विचार किया है यह सर्वसाधारण को जानने दो। विशेषकर उन्हें देखने दो कि और लोग क्या कर रहे हैं। फिर उन्हंे अपना निर्णय करने दो। रासायनिक द्रव्य इकट्ठे कर दो और प्रकृति के नियमानुसार वे किसी विशेष आकर धारण कर लेगें-परिश्रम करो, अटल रहो। ‘धर्म को बिना हानि पहुॅचाये जनता की उन्नति’ -इसे अपना आदर्श वाक्य बना लो।”
(विवेकानन्द राष्ट्र को आह्वान, राम कृष्ण मिशन, पृष्ठ - 66)
”यदि कभी कोई सार्वभौमिक धर्म हो सकता है, तो वह ऐसा ही होगा, जो देश या काल से मर्यादित न हो, जो उस अनन्त भगवान के समान ही अनन्त हो, जिस भगवान के सम्बन्ध में वह उपदेश देता है, जिसकी ज्योति श्रीकृष्ण के भक्तों पर और ईसा के प्रेमियों पर, सन्तों पर और पापियों पर समान रूप से प्रकाशित होती हो, जो न तो ब्राह्मणों का हो, न बौद्धों का, न ईसाइयों का और न मुसलमानों का, वरन् इन सभी धर्मों का समष्टिस्वरूप होते हुए भी जिसमें उन्नति का अनन्त पथ खुला रहे, जो इतना व्यापक हो कि अपनी असंख्य प्रसारित बाहूओं द्वारा सृष्टि के प्रत्येक मनुष्य का प्रेमपूर्वक आलिंगन करें।... वह विश्वधर्म ऐसा होगा कि उसमें किसी के प्रति विद्वेष अथवा अत्याचार के लिए स्थान न रहेगा, वह प्रत्येक स्त्री और पुरूष के ईश्वरीय स्वरूप को स्वीकार करेगा और सम्पूर्ण बल मनुष्यमात्र को अपनी सच्ची, ईश्वरीय प्रकृति का साक्षात्कार करने के लिए सहायता देने में ही केन्द्रित रहेगा। हमें दिखलाना है- हिन्दुओं की आध्यामिकता, बौद्धो की जीवदया, ईसाइयों की क्रियाशीलता एवं मुस्लिमों का बन्धुत्व, और ये सब अपने व्यावहारिक जीवन के माध्यम द्वारा। हमने निश्चय किया- हम एक सार्वभौम धर्म का निर्माण करेंगें।“ 
हिन्दू भावों को अंग्रेजी में व्यक्त करना, फिर शुष्क दर्शन, जटिल पौराणिक कथाएं और अनूठे आश्चर्यजनक मनोविज्ञान से ऐसे धर्म का निर्माण करना, जो सरल, सहज और लोकप्रिय हो और उसके साथ ही उन्नत मस्तिष्क वालों को संतुष्ट कर सके- इस कार्य की कठिनाइयों को वे ही समझ सकते हैं, जिन्होंने इसके लिए प्रयत्न किया हो। अद्वैत के गुढ़ सिद्धान्त में नित्य प्रति के जीवन के लिए कविता का रस और जीवन दायिनी शक्ति उत्पन्न करनी है। अत्यन्त उलझी हुई पौराणिक कथाओं में से जीवन प्रकृत चरित्रों के उदाहरण समूह निकालने हैं और बुद्धि को भ्रम में डालने वाली योगविद्या से अत्यन्त वैज्ञानिक और क्रियात्मक मनोविज्ञान का विकास करना है और इन सब को एक ऐसे रुप में लाना पड़ेगा कि बच्चा-बच्चा इसे समझ सके। (पत्रावली, राम कृष्ण मिशन, पृष्ठ - 425)
”बौद्ध धर्म और नव हिन्दू धर्म के सम्बन्ध के विषय में मेरे विचारों में क्रांतिकारी परिवर्तन हुआ है। उन विचारों को निश्चित रुप देने के लिए कदाचित् मैं जिवित न रहूँ परन्तु उसकी कार्य प्रणाली का संकेत मैं छोड़ जाऊँगा और तुम्हें और तुम्हारे भातृ-गणों को उस पर काम करना होगा।“
(पत्रावली भाग-2, राम कृष्ण मिशन, पृष्ठ - 310)
उपरोक्त प्रमाण तो कुछ ही हंै। स्वामी विवेकानन्द जी राजतन्त्र काल के भारत के पहले ग्लोबल यूथ थे और मैं लोकतन्त्र काल के भारत का पहला ग्लोबल यूथ हूँ जो उनके विचारों को शासनिक व्यवस्था के अनुसार रूपान्तरण के लिए जन्म ग्रहण किया हूँ। 
भारत का सबसे बड़ा अवगुण ये हैं कि यहाँ आध्यात्म में आविष्कार की नहीं आविकारक की पूजा होती है इसलिए स्वामी जी के कार्यो का प्रभाव भारत पर नहीं है। अगर ऐसा होता तो 100 वर्षो से अधिक समय में भारत में अब तक अनेक ग्लोबल बुड्ढे प्रकट हो गये होते। 
जब तक पुनर्जन्म और अवतरण प्रमाणित नहीं होगा तब तक भारतीय आध्यात्म और दर्शन प्रमाणित कैसे होगा? इन दोनों का प्रमाणस्वरूप मैं हूँ। क्योंकि मेरा व्यक्तिगत जीवन शैली, शैक्षणिक योग्यता और कर्मरूप यह शास्त्र तीनों का कोई सम्बन्ध नहीं अर्थात तीनों तीन व्यक्तित्व का प्रतिनिधित्व करते हों, इससे बड़ी ”अविश्वसनीय“ स्थिति क्या हो सकती है।


विश्वमानव और बराक ओबामा (4 अगस्त, 1961 - )

बराक ओबामा (4 अगस्त, 1961 - )

परिचय -
4 अगस्त, 1961 को होनेलूलू में जन्में बराक हुसैन ओबामा किन्याई मूल के अश्वेत पिता व अमरीकी मूल की माता के सन्तान है। उनका अधिकंाश प्ररम्भिक जीवन अमेरिका के हवाई प्रान्त में बीता। 6 से 10 वर्ष की अवस्था उन्होंने जकार्ता, इण्डोनेशिया में अपनी माता और इण्डोनेशियाई सौतेले पिता के संग बिताया। बाल्यकाल में उन्हें बैरी नाम से पुकारा जाता था। बाद में वे होनोलूलू वापस आकर अपनी ननिहाल में ही रहने लगे। 1995 में उनकी माता का कैंसर से देहान्त हो गया। ओबामा की पत्नी का नाम मिशेल है। उनका विवाह 1992 में हुआ जिससे उनकी दो पुत्रियाँ- मालिया और साशा हैं। 2 नवम्बर, 2008 को ओबामा का आरम्भिक लालन-पालन करने वाली उनकी दादी मेडलिन दुनहम का 86 वर्ष की आयु में निधन हो गया। बराक हुसैन ओबामा अमरीका के 44वें राष्ट्रपति हैं। वे इस देश के प्रथम अश्वेत (अफ्रीकी-अमेरीकन) राष्ट्रपति हैं। उन्होंने 20 जनवरी, 2009 को राष्ट्रपति पद की शपथ ली। ओबामा इलिनाॅय प्रान्त से कनिष्ठ सेनेटर तथा 2008 में अमरीका के राष्ट्रपति पद के लिए डेमोक्रेटिक पार्टी के उम्मीदवार थे। ओबामा हार्वर्ड लाॅ स्कूल से 1991 में स्नातक बनें, जहाँ वे हार्वर्ड लाँ रिव्यू के पहले अफ्रीकी अमरीकी अध्यक्ष भी रहे। 1997 से 2004 इलिनाँय सेनेट में 3 सेवाकाल पूर्ण करने के पूर्व ओबामा ने सामुदायिक आयोजक के रूप में कार्य किया है और नागरिक अधिकार अधिवक्ता के रूप में प्रैक्टिस की है। 1992 से 2004 तक उन्होंने शिकागो विधि विश्वविद्यालय में संवैधानिक कानून का अध्यापन भी किया। सन् 2000 में अमेरिकी हाउस आॅफ रिप्रेसेन्टेटिव में सीट हासिल करने में असफल होने के बाद जनवरी 2003 में उन्होंने अमरीकी सेनेट का रूख किया और मार्च 2004 में प्राथमिक विजय हासिल की। नवम्बर 2003 में सेनेट के लिए चुने गये। 109वें कांग्रेस में अल्पसंख्यक डेमोक्रेट सदस्य के रूप में उन्होंने पारम्परिक हथियारों पर नियन्त्रण तथा संघीय कोष के प्रयोग में अधिक सार्वजनिक उत्तरदायित्व का समर्थन करते विधेयकों के निर्माण में सहयोग दिया। वे पूर्वी यूरोप, मध्य पूर्व और अफ्रीका की राजकीय यात्रा पर भी गये। 110वें कांग्रेस में लाॅबिंग व चुनावी घोटालों, पर्यावरण के बदलाव, नाभिकीय आतंकवाद और युद्ध से लौटे अमेरीकी सैनिकों की देखरेख से सम्बन्धित विधेयकों के निर्माण में उन्होंने सहयोग दिया। उन्होंने एशियाई देशों की यात्रा कर सहभागिता के लिए साथ चलने का आवाह्न भी किया। अल्प समय में ही विश्वशान्ति में उल्लेखनीय योगदान के लिए बराक ओबामा को वर्ष 2009 में नोबेल शान्ति पुरस्कार भी दिया गया। उन्होंने दो लोकप्रिय पुस्तकें भी लिखी हैं- पहली पुस्तक ”ड्रीम्स फ्राॅम माई फादर: ए स्टोरी आॅफ रेस एण्ड इन्हेरिटेन्स“ का प्रकाशन लाॅ स्कूल से स्नातक बनने के कुछ दिन बाद ही हुआ था। इस पुस्तक में उनके होनोलूलू व जकार्ता में बीते बालपन, लाॅ एंजिल्स व न्यूयार्क में व्यतीत कालेज जीवन तथा 80 के दशक में शिकागो शहर में सामुदायिक आयोजक के रूप में उनकी नौकरी के दिनों के संस्मरण हैं। पुस्तक पर आधारित आॅडियो बुक को 2006 में प्रतिष्ठित ग्रैमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया है। उनकी दूसरी पुस्तक ”द ओडेसिटी आॅफ होप“ अक्टुबर 2006 में प्रकाशित हुई, मध्यावधि चुनाव को महज तीन हफ्ते पहले। यह किताब शीघ्र ही बेस्टसेलर सूची में शामिल हो गई। पुस्तक पर आधारित आडियो बुक को भी 2008 में प्रतिष्ठित ग्रैमी पुरस्कार से नवाजा गया है। शिकागो ट्रिव्यून के अनुसार पुस्तक के प्रचार के दौरान लोगों से मिलने के प्रभाव ने ही ओबामा को राष्ट्रपति पद के चुनाव में उतरने का हौसला दिया। अमरीकी इतिहास में ओबामा न केवल पाँचवें अफ्रीकी-अमरीकी सेनेटर हैं बल्कि लोकप्रिय बोट से चुने जाने वाले तीसरे और सेनेट में नियुक्त एकमात्र अफ्रीकी-अमरीकी सेनेटर भी हैं।

”एशिया अथवा पूरी दुनिया में भारत एक उभरता हुआ देश भर नहीं है, बल्कि  यह पहले से उभर चुका है और मेरा यह दृढ़ विश्वास है कि भारत और अमेरिका के बीच सम्बन्ध, जो साझा हितों और मूल्यों से बंधे हैं, 21वीं शताब्दी की सर्वाधिक निर्णायक साझोदारीयों में से एक है। मैं इसी साझेदारी के निर्माण के लिए यहाँ आया हूँ। यह वह सपना है जिसे हम मिलकर साकार कर सकते हैं। साझा भविष्य के प्रति मेरे विश्वास का आधार भारत के समृद्ध अतीत के प्रति मेरे सम्मान पर आधारित है। भारत वह सभ्यता है जो हजारों वर्षो से दुनिया की दिशा तय कर रही है। भारत ने मानव शरीर के रहस्यों से परदा उठाया। यह कहना अतिशयोक्ति न होगी कि हमारे आज के सूचना युग की जड़े भारतीय प्रयोगों से संबद्ध है, जिनमें शून्य की खोज शामिल है। भारत ने न केवल हमारे दिमाग को खोला बल्कि हमारे नैतिक कल्पना को भी विस्तारित किया। मैं संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद् का पुनर्गठन चाहूँगा, जिसमें भारत स्थायी सदस्य के रूप में मौजूद रहे।
विश्व में भारत सही स्थान हासिल कर रहा है, ऐसे में हमें दोनो देशों की साझेदारी को इस सदी की महत्वपूर्ण साझेदारी में परिवर्तन करने का ऐतिहासिक अवसर मिला है। चूँकि 21वीं सदी में ज्ञान ही मुद्रा है, इसलिए हम छात्रो, कालेजों और विश्वविद्यालयों में विनिमय को बढ़ावा देगें
व्यापक रूप में भारत और अमेरिका एशिया में साझेदार के तौर पर काम कर सकते हैं। दक्षिण पूर्व एशिया में आपके सहयोगियों की तरह हम भारत को लुक ईस्ट की नीति तक सीमित नहीं रखना चाहते, बल्कि हम चाहते हैं कि भारत पूर्वी एशिया में सक्रिय भूमिका निभाए। यह भारत की कहानी है। यही अमेरिका की भी कहानी है कि मतभेदों के बावजूद लोग मिलजुल कर काम कर सकते हैं। इस साझेदारी ने ही हमें वैश्विक विश्व में अद्भुत स्थान प्रदान किया है, हम स्वीकार सकते हैं कि हम एक साथ मिलकर क्या हासिल कर सकते हैं।, धन्यवाद, जय हिन्द, भारत व अमेरिका के बीच साझेदारी हमेशा बनी रहे।“ (भारत यात्रा पर भारतीय संसद के सयुक्त सत्र में सम्बोधन का अंश)
-श्री बराक ओबामा, राष्ट्रपति, संयुक्त राज्य अमेरिका 
       साभार - दैनिक जागरण, वाराणसी, दि0 9 नवम्बर 2010
”सौ से ज्यादा साल पहले अमेरिका ने भारत के बेटे स्वामी विवेकानन्द का स्वागत किया था। उन्होंने भाषण शुरू करने से पहले सम्बोधित किया था - मेरे प्यारे अमेरिकी भाइयों और बहनों। आज मैं कहता हूँ - मेरे प्यारे भारतीय भाइयों और बहनों। गर्व है कि अमेरिका में 30 लाख भारतीय हैं जो हमें जोड़े रखते हैं। हमारी दोस्ती सहज है। हम आगे भी हर क्षेत्र में एक-दूसरे के साथ बढ़ते रहेंगे। हम भारत की स्वच्छ ऊर्जा की आवश्यकताओं को पूरा करने के महत्वाकांक्षी लक्ष्यों का स्वागत करते हैं और इसमें मदद करने के लिए तैयार हैं। भारत व्यापक विविधता के साथ अपने लोकतन्त्र को मजबूती से आगे बढ़ाता है तो यह दुनिया के लिए एक उदाहरण होगा। भारत तभी सफल होगा जब वह धार्मिक आधार पर बँटेगा नहीं । धर्म का गलत इस्तेमाल नहीं होना चाहिए। हमें समाज को बाँटने वाले तत्वों से सावधान रहना होगा। भारतीय भाइयों और बहनों, हम परफेक्ट देश नहीं हैं। हमारे सामने कई चुनौतियाँ हैं। हममे कई समानताएँ हैं। हम कल्पनाशील और जुझारू हैं। हम सब एक ही बगिया के खुबसूरत फूल हैं। अमेरिका को भारत पर भरोसा है। हम आपके सपने साकार करने में आपके साथ हैं। आपका पार्टनर होने पर हमें गर्व है, जय हिन्द। “ (भारत के गणतन्त्र दिवस पर मुख्य अतिथि के रूप में भारत यात्रा पर विभिन्न कार्यक्रमों में व्यक्त वक्तव्यों का अंश)
-श्री बराक ओबामा, राष्ट्रपति, संयुक्त राज्य अमेरिका 
       साभार - दैनिक जागरण, वाराणसी, दि0 26-28 जनवरी 2015
”युवाओं विश्व को एक करो“ 
(”मन की बात“ रेडियो कार्यक्रम द्वारा श्री बराक ओबामा एवं श्री नरेन्द्र मोदी, प्रधानमंत्री, भारत संयुक्त रूप से)

श्री लव कुश सिंह ”विश्वमानव“ द्वारा स्पष्टीकरण 
महोदय स्वामी विवेकानन्द ने जिस समय कहा था- एक विश्व, एक मानव, एक धर्म, एक ईश्वर, तब लोगों ने इस बात का उपहास किया था, लोगों ने इस प्रकार की संभावना पर संदेह प्रकट किया था, लोग स्वीकार नहीं कर पाये थे। किन्तु आज सभी लोग संयुक्त राष्ट्र संघ (UNO) की ओर दौडे़ चले जा रहे हैं। जाओ, जाओ की अवस्था ने मानो उनको दबोच लिया है।
हमेशा यूरोप से सामाजिक तथा एशिया से आध्यात्मिक शक्तियों का उद्भव होता रहा है एवं इन दोनों शक्तियों के विभिन्न प्रकार के सम्मिश्रण से ही जगत का इतिहास बना है। वर्तमान मानवेतिहास का एक और नवीन पृष्ठ धीरे-धीरे विकसित हो रहा है एवं चारो ओर उसी का चिन्ह दिखाई दे रहा है। कितनी ही नवीन योजनाओं का उद्भव तथा नाश होगा, किन्तु योग्यतम वस्तु की प्रतिष्ठा सुनिश्चित है- सत्य और शिव की अपेक्षा योग्यतम वस्तु और हो ही क्या सकती है? (1प 310) - स्वामी विवेकानन्द
यदि हम अपने व्यक्तिगत एवं सामूहिक जीवन में वैज्ञानिक चेतना सम्पन्न एवं आध्यात्मिक एक साथ न हो पाए, तो मानवजाति का अर्थपूर्ण अस्तित्व ही संशय का विषय हो जाएगा। (पृ0-9) - स्वामी विवेकानन्द
मन पर ही आविष्कार का परिणाम है-विश्वमानक शून्य: मन की गुणवत्ता का विश्वमानक श्रृंखला, जो वर्तमान में आविष्कृत कर प्रस्तुत किया गया है। जिसके बिना अन्तर्राष्ट्रीय/विश्व स्तर का मानव निर्माण ही असम्भव है। यही लोक या जन या गण का सत्य रुप है। यहीं आदर्श वैश्विक मानव का सत्य रुप है। जिससे पूर्ण स्वस्थ लोकतन्त्र, स्वस्थ समाज, स्वस्थ उद्योग की प्राप्ति होगी। इसी से विश्व-बन्धुत्व की स्थापना होगी। इसी से विश्व शिक्षा प्रणाली विकसित होगी। इसी से विश्व संविधान निर्मित होगा। इसी से संयुक्त राष्ट्र संघ अपने उद्देश्य को सफलता पूर्वक प्राप्त करेगा। इसी से 21 वीं सदी और भविष्य का विश्व प्रबन्ध संचालित होगा। इसी से मानव को पूर्ण ज्ञान का अधिकार प्राप्त होगा। यही परमाणु निरस्त्रीकरण का मूल सिद्धान्त है। भारत को अपनी महानता सिद्ध करना चुनौती नहीं है, वह तो सदा से ही महान है। पुनः विश्व का सर्वोच्च और अन्तिम अविष्कार विश्वमानक शून्य श्रृंखला को प्रस्तुत कर अपनी महानता को सिद्ध कर दिखाया है। बिल गेट्स के माइक्रोसाफ्ट आॅरेटिंग सिस्टम साफ्टवेयर से कम्प्यूटर चलता हेै। भारत के विश्वमानक शून्य श्रृंखला से मानव चलेगा। बात वर्तमान की है परन्तु हो सकता है स्वामी जी के विश्व बन्धुत्व की भाँति यह 100 वर्ष बाद समझ में आये। अपने ज्ञान और सूचना आधारित सहयोग की बात की है। विश्वमानक शून्य श्रृंखला से बढ़कर ज्ञान का सहयोग और क्या हो सकता है? इस सहयोग से भारत और अमेरिका मिलकर विश्व को नई दिशा सिर्फ दे ही नहीं सकते वरन् यहीं विवशतावश करना भी पड़ेगा। मनुष्य अब अन्तरिक्ष में उर्जा खर्च कर रहा है। निश्चय ही उसे पृथ्वी के विवाद को समाप्त कर सम्पूर्ण शक्ति को विश्वस्तरीय केन्द्रीत कर अन्तरिक्ष की ओर ही लगाना चाहिए। जिससे मानव स्वयं अपनी कृति को देख आश्चर्यचकित हो जाये जिस प्रकार स्वयं ईश्वर अपनी कृति को देखकर आश्चर्य में हैं और सभी मार्ग प्रशस्त हैं। भाव भी है। योजना भी है। कर्म भी है। विश्वमानक शून्य श्रृंखला भी है। फिर देर क्यों? और कहिए- वाहे गुरु की फतह!“
एक परफेक्ट देश के लिए व्यक्ति-विचार आधारित नहीं बल्कि मानक आधारित होना जरूरी है। अब हमें विश्व में मानक देश (Standard Country) का निर्माण करना होगा। और यह पहले स्वयं भारत और अमेरिका को होना पड़ेगा। भारत गणराज्य-लोकतन्त्र का जन्मदाता रहा है जिसका क्रम या मार्ग - जिस प्रकार हम सभी व्यक्ति आधारित राजतन्त्र में राजा से उठकर व्यक्ति आधारित लोकतन्त्र में आये, फिर संविधान आधारित लोकतन्त्र में आ गये उसी प्रकार पूर्ण लोकतन्त्र के लिए मानक व संविधान आधारित लोकतन्त्र में हम सभी को पहुँचना है।
भारत का अब धर्म के नाम पर बँटना नामुमकिन है क्योंकि अब वह ”विश्वधर्म“ और उसके शास्त्र ”विश्वशास्त्र“ को जन्म दे चुका है। विश्व का एकीकरण तभी हो सकता है जब हम सब प्रथम चरण में मानसिक रूप से एकीकृत हो जायें। फिर विश्व के शारीरिक (भौगोलिक) एकीकरण का मार्ग खुलेगा। एकीकरण के प्रथम चरण का ही कार्य है - मानक एवं एकात्म कर्मवाद आधारित मानव समाज का निर्माण। जिसका आधार निम्न आविष्कार है जो स्वामी विवेकानन्द के वेदान्त की व्यावहारिकता और विश्व-बन्धुत्व के विचार का शासन के स्थापना प्रक्रिया के अनुसार आविष्कृत है। सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में व्याप्त एक ही सत्य-सिद्धान्त द्वारा व्यक्तिगत व संयुक्त मन को एकमुखी कर सर्वोच्च, मूल और अन्तिम स्तर पर स्थापित करने के लिए शून्य पर अन्तिम आविष्कार WS-0 श्रृंखला की निम्नलिखित पाँच शाखाएँ है। 
1. डब्ल्यू.एस. (WS)-0 : विचार एवम् साहित्य का विश्वमानक
2. डब्ल्यू.एस. (WS)-00 : विषय एवम् विशेषज्ञों की परिभाषा का विश्वमानक
3. डब्ल्यू.एस. (WS)-000 : ब्रह्माण्ड (सूक्ष्म एवम् स्थूल) के प्रबन्ध और क्रियाकलाप का विश्वमानक
4. डब्ल्यू.एस. (WS)-0000 : मानव (सूक्ष्म तथा स्थूल) के प्रबन्ध और क्रियाकलाप का विश्वमानक
5. डब्ल्यू.एस. (WS)-00000 : उपासना और उपासना स्थल का विश्वमानक
और पूर्णमानव निर्माण की तकनीकी WCM-TLM-SHYAM.C है। 

विश्वमानव और बाबा रामदेव (25 दिसम्बर, 1965 - )

बाबा रामदेव (25 दिसम्बर, 1965 - )
परिचय -
योग को घर-घर पहुँचाने वाले बाबा रामदेव आज देश ही नहीं, वरन् पूरे विश्व का चर्चित चेहरा है। वे विकलांगता को लाचारी मानने वालों के लिए प्रेरणास्रोत भी हैं। बहुत कम लोग जानते हैं कि पूरे विश्व को योग और आरोग्य की शिक्षा देने वाले बाबा रामदेव बचपन में लकवा से पीड़ित थे, लेकिन उन्होंने जिजीविषा और संकल्प शक्ति के बल पर इसको मात दे दी।
बाबा रामदेव का जन्म भारत में हरियाणा राज्य के महेन्द्रगढ़ जनपद स्थित अली सैयदपुर नामक एक साधारण से गाँव में 25 दिसम्बर, 1965 को हुआ था। उनकी माँ श्रीमती गुलाब देवी एक धर्मपरायण महिला व उनके पिताश्री रामनिवास यादव एक कत्र्तव्यनिष्ठ गृहस्थ हैं। बाबा के बचपन का नाम रामकृष्ण यादव था। समीपवर्ती गाँव शहजादपुर के सरकारी स्कूल से आठवीं कक्षा तक पढ़ाई पूरी करने के बाद रामकृष्ण ने खानपुर गाँव के एक गुरूकुल में आचार्य प्रद्युम्न व योगाचार्य बलदेवजी से संस्कृत व योग की शिक्षा ली। मन में कुछ कर गुजरने की तमन्ना लेकर इस नवयुवक ने स्वामी रामतीर्थ की भाँति अपने माता-पिता व बन्धु-बान्धवों को सदा-सर्वदा के लिए छोड़ दिया। युवावस्था में ही संन्यास लेने का संकल्प किया और पहले वाला रामकृष्ण, स्वामी रामदेव के नये रूप में अवतरित हुआ।
स्वामी रामदेव ने सन् 1995 से योग को लोकप्रिय और सुलभ बनाने के लिए अथक परिश्रम करना प्रारम्भ किया। कुछ समय तक कालवा गुरूकुल, जीन्द जाकर निःशुल्क योग सिखाया तत्पश्चात् हिमालय की कन्दराओं में ध्यान और धारणा का अभ्यास करने निकल गये। वहाँ से सिद्धि प्राप्त कर प्राचीन पुस्तकों व पाण्डुलिपियों का अध्ययन करने हरिद्वार आकर कनखल के कृपालु बाग आश्रम में रहने लगे। आस्था चैनल पर योग का कार्यक्रम प्रस्तुत करने के लिए माध्वकान्त मिश्र को किसी योगाचार्य की आवश्यकता थी। वे हरिद्वार जा पहुँचे जहाँ स्वामी रामदेव, आचार्य कर्मवीर के साथ गंगा तट पर योग सिखाते थे। माधवकान्त मिश्र इनसे जाकर मिले और अपना प्रस्ताव रखा। आस्था चैनल पर आते ही स्वामी रामदेव की लोकप्रियता बढ़ने लगी। इसके बाद इस युवा सन्यासी ने कृपालु बाग आश्रम में रहते हुए स्वामी शंकरदेव के आशीर्वाद, आचार्य बालकृष्ण के सहयोग तथा स्वामी मुक्तानन्द जैसे प्रभावशाली महानुभावों के संरक्षण में ”दिव्य योग मन्दिर ट्रस्ट“ की स्थापना भी कर डाली। आचार्य बालकृष्ण के साथ उन्होंने अगले ही वर्ष सन् 1996 में दिव्य फार्मेसी के नाम से आयुर्वेदिक औषधियों का निर्माण कार्य प्रारम्भ किया। स्वामी रामदेव ने सन् 2003 से ”योग सन्देश“ पत्रिका का प्रकाशन भी प्रारम्भ किया जो आज 11 भाषाओं में प्रकाशित होकर एक कीर्तिमान स्थापित कर चुकी है। विगत 20 वर्षो से स्वदेशी जागरण के अभियान में जुटे राजीव दीक्षित को स्वामी रामदेव ने 9 जनवरी, 2009 को एक नये राष्ट्रीय प्रकल्प ”भारत स्वाभिमान ट्रस्ट“ का उत्तरदायित्व सौंपा जिसके माध्यम से देश की जनता को आजादी के नाम पर अपने देश के ही लुटेरों द्वारा विगत 64 वर्षों से की जा रही सार्वजनिक लूट का खुलासा बाबा रामदेव और राजीव भाई मिलकर कर रहे थे किन्तु देश के दुर्भाग्य से आम जनता में अपनी सादगी, विनम्रता व तथ्यपूर्ण वाक्पटुता से दैनन्दिन लोकप्रियता प्राप्त करते जा रहे एवं अपने अहर्निश कार्य से बाबा की बायीं बाजू बन चुके राजीव भाई भारत की भलाई करते हुए 30 नवम्बर 2010 को भिलाई (दुर्ग) में हृदय गति के अचानक रूक जाने से परमात्मा को प्यारे हो गये।
स्वामी रामदेव ने किशनगढ़, घासेड़ा तथा महेन्द्रगढ़ में वैदिक गुरूकुलों की स्थापना की। सन् 2006 में महर्षि दयानन्द ग्राम, हरिद्वार में ”पतंजलि योगपीठ ट्रस्ट“ के अतिरिक्त अत्याधुनिक औषधि निर्माण इकाई ”पतंजलि आयुर्वेद लिमिटेड“ नाम से दो सेवा प्रकल्प स्थापित किये। इन सेवा प्रकल्पों के माध्यम से बाबा रामदेव योग, प्राणायाम, आध्यात्म आदि के साथ-साथ वैदिक शिक्षा व आयुर्वेद का भी प्रचार-प्रसार कर रहें हैं। उनके प्रवचन विभिन्न टी0 वी0 चैनलों जैसे- आस्था, आस्था इण्टरनेशनल, जी नेटवर्क, सहारा वन तथा इण्डिया टी0वी0 पर प्रसारित होते हैं। इतना ही नहीं बाबा रामदेव को योग सिखाने के लिए कई देशों से बुलावा भी आता रहता है। अमेरिका, इंग्लैण्ड व चीन सहित विश्व के 120 देशों की लगभग 100 करोड़ से अधिक जनता टी0 वी0 चैनलों के माध्यम से बाबा के क्रान्तिकारी कार्यक्रमों की प्रशंसक बन चुकी है और स्वास्थ्य लाभ प्राप्त कर रही है। बाबा प्रत्येक समस्या का समाधान योग व प्रणायाम ही बतलाते हैं।
सम्पूर्ण भारत में व्याप्त भ्रष्टाचार को समाप्त करने के साथ-साथ एवं यहाँ के मेहनतकशों के खून-पसीने की गाढ़ी कमाई को देश के राजनीतिक लुटेरों द्वारा विदेशी बैंकों में जमा करने के खिलाफ उन्होंने व्यापक जनआन्दोलन छेड़ रखा है। विदेशी बैंकों में जमा लाखो करोड़ रूपये के काले धन को स्वदेश वापस लाने की माँग करते हुए बाबा आजकल जनता में जागृति लाने में प्रयत्नशील हैं। बाबा ने अमर शहीद चन्द्रशेखर आजाद की पुण्य तिथि 27 फरवरी, 2011 को दिल्ली में भ्रष्टाचार के विरूद्ध विशाल रैली का आयोजन किया था जिसमें भारी संख्या में देश की जागरूक जनता ने पहुँचकर न सिर्फ उन्हें नैतिक समर्थन दिया अपितु कई करोड़ लोगों के हस्ताक्षरयुक्त ज्ञापन भी सौंपा। बाबा रामदेव ने उस ज्ञापन को उसी दिन राष्ट्रपति सचिवालय तक पहुँचाने का क्रान्तिकारी कार्य भी किया।
बाबा रामदेव अपने योग शिविरों में निम्नलिखित आठ प्रणायाम सिखाते हैं-
1.आभ्यन्तर - इस प्रणायाम से प्राणवायु अर्थात आॅक्सीजन को फेफड़ों में रोककर रक्त को शुद्ध करने का महत्वपूर्ण कार्य सम्पन्न होता है।
2.भस्त्रिका - इस प्रणायाम से साँस लेने की गति नियमित होती है। एक मिनट में 12 बार साँस लेने का अभ्यास सिद्ध कर लेने से कोई भी व्यक्ति 100 वर्ष तक जीवित रह सकता है।
3.कपाल-भाति - इस प्रणायाम से फेफड़ों से प्राणवायु को बाहर धकेलने का अभ्यास करवाया जाता है ऐसा करने से मानव शरीर के सभी आन्तरिक अंग रोगमुक्त हो जाते हैं तथा प्राणायामक करने वाले के मस्तक (कपाल) पर चमक (भाति) आ जाती है।
4.अनुलोम विलोम - इस प्रणायाम से नाक के दोनों छिद्रों में अदल-बदल कर साँस लेने का अभ्यास कराया जाता है। इससे व्यक्ति के शरीर का तापमान नियन्त्रित रहता है।
5.बाह्य - इस प्रणायाम से फेफड़ों से साँस को पूरी तरह बाहर निकालकर 7 सेकेण्ड से 21 सेकेण्ड तक अन्दर न आने का अभ्यास कराया जाता है।
6.उज्जायी - इस प्रणायाम से कण्ठ की नली से साँस को अन्दर खींचने का अभ्यास कराया जाता है।
7.भ्रामरी - इस प्रणायाम से दोनों कानों को दोनों हथेलियों के अँगूठों से पूरी तरह बन्द रखते हुए मध्यमा व अनामिका से नाक के दोनों ओर हल्का दबाव डाला जाता है और अन्दर से ओंकार की ध्वनि ओ-ओ-ओ-म् ऐसे निकाली जाती है जैसे कोई भ्रमर आवाज करता है।
8.उद्गीथ - इस प्रणायाम से आँखें बन्द करके ओ-म् कार की ध्वनि को इस प्रकार निकालते हैं कि ओम् के पहले अक्षर ओ तथा दूसरे अक्षर म् में तीन व एक का अनुपात रहे, अर्थात यदि ओ को 28 सेकेण्ड तक खींचना है तो म् को 7 सेकेण्ड लगने ही चाहिए। ओ का उच्चारण करते समय होंठ खुले व म के उच्चारण में बन्द रहने चाहिए।

भारत स्वाभिमान ट्रस्ट
भारत स्वाभिमान ट्रस्ट विश्वविख्यात योगगुरू बाबा रामदेव की योग क्रान्ति को देश के सभी 638365 गांवों तक पहुँचाने तथा स्वस्थ, समर्थ एवं संस्कारवान भारत के निर्माण के लक्ष्यों को लेकर स्थापित एक ट्रस्ट है। यह ट्रस्ट 5 जनवरी, 2009 को दिल्ली में पंजीकृत कराया गया है। जिसका उद्देश्य भ्रष्टाचार, गरीबी, भूख, अपराध, शोषण मुक्त भारत का निर्माण कराना होगा। ट्रस्ट गैर राजनीतिक होगा और राष्ट्रीय आन्दोलन चलायेगा जिसका यह प्रयास होगा कि भ्रष्ट, बेईमान और अपराधी किस्म के लोग सत्ता के सिंहासन पर न बैठ सकें। बाबा रामदेव ने स्वाभिमान ट्रस्ट के माध्यम से उन लोगों को सामने लाना शुरू कर दिया है जो रात दिन देश के लिए सोचते हैं, जीते हैं और देश के लिए कुछ भी करने को तैयार हैं। इस ट्रस्ट के पाँच प्रमुख लक्ष्य निम्न प्रकार हैं-
1.हम राष्ट्रभक्त, ईमानदार, पराक्रमी, दूरदर्शी एवं पारदर्शी लोगों को ही वोट करेंगे। हम स्वयं 100 प्रतिशत मतदान करेगें एवं दूसरों से करवायेगें।
2.हम राष्ट्रभक्त, कत्र्तव्यनिष्ठ, जागरूक, संवेदनशील, विवेकशील एवं ईमानदार लोगों को ही वोट करेंगे। 
3.हम राष्ट्रभक्त, कत्र्तव्यनिष्ठ, जागरूक, संवेदनशील, विवेकशील एवं ईमानदार लोगों 100 प्रतिशत संगठित करेंगे एवं सम्पूर्ण राष्ट्रवादी शक्तियों को संगठित कर देश में एक नई आजादी, नई व्यवस्था एवं नया परिवर्तन लायेंगे और भारत को विश्व की सर्वोच्च महाशक्ति बनायेंगे।
4.हम शून्य तकनीकी से बनी विदेशी वस्तुओं का 100 प्रतिशत बहिष्कार तथा स्वदेशी वस्तुओं का प्रयोग करेंगे।
5.हम सम्पूर्ण भारत को 100 प्रतिशत योगमय एवं स्वस्थ बनाकर राष्ट्रवासियों को आत्मकेन्द्रित करेंगे और आत्मविमुखता से पैदा हुई बेईमानी, भ्रष्टाचार, निराशा, अविश्वास व आत्मग्लानि को मिटा जन-जन में आत्म गौरव का भाव जगायेंगे एवं वैयक्तिक व राष्ट्रीय चरित्र का निर्माण कर भारत का सोया हुआ स्वाभिमान जगायेंगे।

”देश का विदेश में जमा काला धन देश में लाना है।“ - बाबा रामदेव

श्री लव कुश सिंह ”विश्वमानव“ द्वारा स्पष्टीकरण 
शायद वो जन्म का ग्रह-नक्षत्र, काल अवधि ही ऐसी रही होगी जब आप बाबा रामदेव (25 दिसम्बर, 1965), मैं लव कुश सिंह ”विश्वमानव“ (16 अक्टुबर 1967) और राजीव दीक्षित (30 नवम्बर 1967) का जन्म भारत में हुआ। जो अपने-अपने क्षेत्र में राष्ट्र के लिए विशेष योगदान दिये।
देश का विदेश में जमा काला धन लाना एक राजनीतिक प्रक्रिया है जो आप के प्रयास से सरकार का ध्यान उस ओर गया और उस पर प्रक्रिया हो रही होगी, ऐसा मेरा अनुमान है।
आपने योग, स्वदेशी जागरण और भारत के स्वाभिमान को जगाने में बहुत ही कम समय में बहुत ही व्यापक स्तर पर समर्थन प्राप्त करने के साथ प्रचार-प्रसार और जागरण का कार्य किया। विदेशी कम्पनीयों के सामानान्तर आपने स्वदेशी वस्तु का उत्पादन उच्च गुणवत्ता के उत्पाद निश्चित रूप से बहुत ही अच्छे हैं। परन्तु उसे जन-जन तक पहुँचाने की मार्केटिंग सिस्टम पारम्परिक होने के कारण जिस गति से फैलना चाहिए था वो गति नहीं आ पा रही है। आपको अपने उत्पाद के मार्केटिंग में भारतीय आध्यात्म एवं दर्शन आधारित स्वदेशी विपणन प्रणाली: 3-एफ (3-F : Fuel-Fire-Fuel) सिस्टम अपनानी चाहिए जिससे उपभोक्ता को उत्पाद भी मिले, आय भी मिले साथ ही साथ रायल्टी भी मिले। इस प्रणाली से बहुत ही तेजी से उपभोक्ता इस ओर और एक सही उत्पाद की ओर चले आयेंगे। और आपका उद्देश्य शीघ्रताशीघ्र प्राप्त हो जायेगा।
उत्पाद के विक्रय में अब आगे आना वाला समय रायल्टी की ओर जा रहा है। जिस प्रकार हमारे सभी कर्म-इच्छा का परिणाम/फल रायल्टी के रूप में सार्वभौम आत्मा द्वारा प्रदान किये जा रहे है। उसी प्रकार मानव समाज के वस्तुओं से सम्बन्धित व्यापार में भी उसके साथ किये गये कर्म के भी परिणाम/फल रायल्टी के रूप में प्राप्त होनी चाहिए। मौलिक खोज/आविष्कार के साथ रायल्टी का प्राविधान बढ़ते बौद्धिक विकास के साथ तो है ही परन्तु यदि किसी कम्पनी के उत्पाद का प्रयोग हम करते हैं तो ये उस कम्पनी के साथ किया गया हमारा कर्म भी रायल्टी के श्रेणी में आता है क्योंकि हम ही उस कम्पनी के विकास में योगदान देने वाले हैं। रायल्टी का सीधा सा अर्थ है- हमारे कर्मो का परिणाम/फल हमें मिलना चाहिए। जिस प्रकार ईश्वर हमें जन्म-जन्मान्तर तक परिणाम/फल देता है, उसी प्रकार मनुष्य निर्मित व्यापारिक संस्थान द्वारा भी हमें उसका परिणाम/फल मिलना चाहिए।
वर्तमान समय में स्थिति यह है कि भले ही कच्चा माल (राॅ मैटिरियल) ईश्वर द्वारा दी गई है लेकिन उसके उपयोग का रूप मनुष्य निर्मित ही है और हम उससे किसी भी तरह बच नहीं सकते। जिधर देखो उधर मनुष्य निर्मित उत्पाद से हम घिरे हुए हैं। हमारे जीवन में बहुत सी दैनिक उपयोग की ऐसी वस्तुएँ हैं जिनके उपयोग के बिना हम बच नहीं सकते। बहुत सी ऐसी निर्माता कम्पनी भी है जिनके उत्पाद का उपयोग हम वर्षो से करते आ रहे हैं लेकिन उनका और हमारा सम्बन्ध केवल निर्माता और उपभोक्ता का ही है जबकि हमारी वजह से ही ये कम्पनी लाभ प्राप्त कर आज तक बनी हुयी हैं, और हमें उनके साथ इतना कर्म करने के बावजूद भी हम सब को रायल्टी के रूप में कुछ भी प्राप्त नहीं होता। जबकि स्थायी ग्राहक बनाने के लिए रायल्टी देना कम्पनी के स्थायित्व को सुनिश्चित भी करता है।
जबकि होना यह चाहिए कि कम्पनी द्वारा ग्राहक के खरीद के अलग-अलग लक्ष्य के अनुसार छूट (डिस्काउन्ट) का अलग-अलग निर्धारित प्रतिशत हो। और एक निर्धारित खरीद लक्ष्य को प्राप्त कर लेने के बाद कम्पनी द्वारा उस ग्राहक को पीढ़ी दर पीढ़ी के लिए रायल्टी देनी चाहिए।


विश्वमानव और सत्यमित्रानन्द गिरि (19 सितम्बर 1932- )

सत्यमित्रानन्द गिरि (19 सितम्बर 1932- )
“भारत माता मन्दिर (ऋृषिकेश)”

परिचय - 
सत्यमित्रानन्द गिरि जी का जन्म 19 सितम्बर, 1932 को आगरा (उ0प्र) के ब्राह्मण परिवार में हुआ है। आपके पिता का नाम श्री शिवशंकर पाण्डेय तथा माता श्री का नाम त्रिवेणी देवी है। आपका सन्यास पूर्व नाम अम्बिका प्रसाद था। आपकी संस्कृत शिक्षा, संस्कृत विद्यालय कानपुर से और स्नातकोत्तर शिक्षा, आगरा विश्वविद्यालय से पूर्ण हुआ है। आप वाराणसी से शास्त्री व हिन्दी भाषा व साहित्य में साहित्य रत्न भी है। वेद व आधुनिक शिक्षा का समन्वय आपकी शिक्षा रही है। बाल्यकाल से भारतीय संस्कृति, ईश्वर, समाजसेवा के प्रति रूचि ने आपको सन्यास का निर्णय लेने पर बाध्य कर दिया परिणामस्वरूप आप ऋृषिकेश में स्वामी वेदव्यासानन्द के शरणागत होकर अम्बिका प्रसाद से सत्यमित्रानन्द गिरि हो गये और भारतीय संस्कृति के समन्वय विचारधारा को मूल मानते हुये समाज के लिए अभूतपूर्व कार्य किये। 27 वर्ष की अवस्था में आप उपपीठ ज्योति मठ के जगत्गुरू शंकराचार्य के पद को भी शुशोभित कर चुके हैं। स्वामी विवेकानन्द द्वारा प्रारम्भ किये गये आध्यात्मिक जागरण, मानव सेवा व शान्ति के प्रयासो को आपने आगे बढ़ाया है इसके लिए आपने विश्व के कोने-कोने की यात्राएँ भी की। आपके द्वारा हरिद्वार में ”समन्वय कुटीर“ व ”समन्वय सेवा ट्रस्ट“ की भी स्थापना की गई है। सन् 1998 में ”स्वामी सत्यमित्रानन्द फाउण्डेशन“ अर्थात आपके नाम से फाउण्डेशन की भी स्थापना की गई है जिसकी शाखाएँ रेनुकूट (सोनभद्र, उ0प्र0), जबलपुर (म0प्र0), जोधपुर (राजस्थान), इन्दौर (म0प्र0) और अहमदाबाद (गुजरात) में है।
आपके समन्वयात्मक विचारों का साकार रूप व अनूठी कृति ”भारत माता मन्दिर“ है जो सप्त सरोवर, हरिद्वार में स्थित है। इस मन्दिर में रामायण काल से भारत के स्वतन्त्रता काल तक के धर्म-जाति से उपर उठकर महापुरूषों की मूर्तियाँ स्थापित की गई है। 15 मई 1983 को तत्कालिन भारतीय गणराज्य की प्रधानमंत्री श्रीमती इन्दिरा गाँधी ने दीप प्रजल्वित कर इस 180 फीट (55 मीटर) ऊँचे 7 तलो के इस मन्दिर को समाज को समर्पित किया। इस मन्दिर का प्रत्येक तल एक विचार को समर्पित है।
आपके विचार आपके ”भारत माता मन्दिर“ पुस्तक से-
1. स्वस्ति पन्थामनु चरेम सूर्यचन्द्रमसाविव। पुनर्ददताध्नता जानता सं गमेमहि।। (ऋृग्वेद-5/51/15)
”जैसे सूर्य और चन्द्रमा निरालम्ब अन्तरिक्ष में निरापद एवं राक्षसादि से अबाधित निर्विध्न यात्रा करते हैं, विचरण करते हैं, वैसे ही हम अपने बन्धु-बान्धवों के साथ लोक-यात्रा में स्नेहपूर्वक, निर्विध्न चलतें रहें और हम सबका मार्ग मंगलमय हो।“ भगवान शंकर के स्मरण मात्र से ऐसा सम्भव है, क्योंकि वे कल्याण के देव हैं। वे देवाधिदेव महादेव तो हैं ही, किन्तु भारतमाता का स्वरूप-स्मरण करने पर तो यह भाव जीवन्त रूप से जाग्रत हो जाता है कि भारत का समग्र दर्शन भगवान शंकर में ही हो रहा है। विचारपूर्वक देखें, तो भगवान शंकर सम्पूर्ण राष्ट्र के प्रतीक हैं, भगवान श्रीराम राष्ट्र की आदर्श-मर्यादा के और गंगा राष्ट्र में प्रवाहित होने वाली संस्कृति की। उसके साथ उसमें ब्रह्मतत्व भी अन्तर्निहित होना चाहिए, क्योंकि ब्रह्मतत्व से विहिन संस्कृति दीर्घकाल तक नहीं रह सकती। इस ब्रह्मतत्व के साक्षात् स्वरूप श्रीकृष्ण हैं। इसलिए भारतीय संस्कृति का सर्वांग रूप राम, कृष्ण, शंकर और गंगा का समन्वित रूप है।
2.केवल वेश ग्रहण मात्र से किसी को साधु-संत नहीं कहा जा सकता। साधुता और सन्तत्व तो एक वृत्ति का नाम है। यह साधु-वृत्ति कदाचित् श्वेत वस्त्रधारी में भी हो सकती है और कदाचित् भगवा-धारी में नहीं। यह जटाजूटधारी या मुण्डित केशों में भी हो सकती है और नहीं भी। अनिवार्यता केवल इतनी ही है कि जहाँ जीवन में सुचिता है, वहीं साधुता है। जब तक साधुवृत्ति संसार में भ्रमण करती रहेगी, तब तक भारतीय संस्कृति का विनाश कोई नहीं कर सकता।
3.टहनियाँ और पत्तों को काट देने से वृक्ष नहीं सूखता। उसका बीज यदि उर्वरा भूमि में सुरक्षित है, तो अनुकूल अवसर - खाद, पानी, माली आदि पाकर वह पुनः लहलहा उठेगा, हरा-भरा हो जायेगा। यही स्थिति भारतीय संस्कृति के बीज - जीवन मूल्यों की है। भारतीय संस्कृति का बीज किसी एक व्यक्ति के अन्तःकरण में नहीं, अपितु करोड़ों व्यक्तियों की हृदय भूमि में जीवन्त रूप में स्थित है। इसी कारण साधु-संतों की वाणी रूपी खाद, भक्ति रूपी पवित्र जलधारा और प्रभु-कृपा की अनुकूलता प्राप्त होने पर वह पुनः पुनः अंकुरित होती रहेगी। इनकी छाया के नीचे बैठने वाले व्यक्तियों को जीवन में शान्ति का सन्देश सतत् देती रहेगी।
4. यद्यपि प्रत्येक स्थान की भूमि की अपनी निजी विशेषताएँ होती हैं। गुजरात की भूमि में रूई, किसी अन्य जगह हरी मिर्च, मालवा में गेहूँ आदि बहुतायत में तथा अच्छे किस्म के होते हैं, तो भी ये वस्तुएँ थोड़े बहुत अन्तर से अन्यत्र भी उगाई जा सकती हैं, किन्तु यदि केशर को कश्मीर के अतिरिक्त अन्यत्र कहीं पर उत्पन्न करने के प्रयास किये जायें, तो असफलता ही मिलेगी। इसके लिए तो कश्मीर की भूमि की ही शरण लेनी होगी। इसी भाँति भौतिकवाद के विकास के लिए यूरोप ओर अमेरिका की भूमि उपयुक्त है, परन्तु आध्यात्मवाद की केशर यदि प्राप्त करना है, तो सम्पूर्ण विश्व को भारतीय भूमि से ही प्रेम करना होगा। इसके अतिरिक्त कोई उपाय नहीं है। यदि इस धरती का यह वैशिष्ट्य न होता, तो भगवान श्रीराम और भगवान श्रीकृष्ण यहीं पर जन्म क्यों लेते? वे कहीं पर भी आविर्भूत हो सकते थे, परन्तु सरयू ओर यमुना तट उन्हें अच्छा लगा और इसलिए अपने बाल-मित्रों के साथ उन्होंने यहाँ सहज बाल-क्रिड़ायें कीं, जिससे सभी लोग जान लें कि इस धरती का महत्व कितना अधिक है।
5. उत्तर भारत में भगवान ने अनेक रूपों में अवतार ग्रहण किया। इसलिए उस विराट् एवं चरम चित्त तत्व ने दक्षिण भारत में भी अंशावतार ग्रहण किया। श्री शंकराचार्य, श्री रामानुजाचार्य, श्री वल्लभाचार्य, श्री मध्वाचार्य आदि महान आचार्यो ने भारतीय समाज के उन्नयन के लिए अवतार ग्रहण किया। यदि उत्तर भारत में प्रभु के अवतारो ंके माध्यम से भगवद् शक्ति द्वारा संसार को प्रभावित किया गया, तो दक्षिण के आचार्यो ने साधना, संयम, सदाचार के उपदेश द्वारा, पुरूषार्थ के द्वारा मानवों में ऐसी अनुभूति उत्पन्न की कि वे आचार्य अंशावतार न होकर पूरी शक्ति सहित अवतार ही दिखाई देते है।
6. संसारी मानव दो प्रकार की विभिन्न परिस्थितियों के हिंडोले में झूलता हुआ अपनी दुर्बलता प्रमाणित करता है कि यदि कोई अनुकूल वस्तु मिल जाए, तो उसके प्रति राग हो जाता है, और यदि प्रिय वस्तु का वियोग हो जाए तो रोष होता है। कोई-कोई विरले मनुष्य होते हैं, जो न राग में जीते हैं, न रोष में जीते हैं, वे तो केवल अनुराग में ही सदा आनन्दित होते हैं। भगवान श्रीराम भी इसी प्रकार के महापुरूष है, जिनको न राग है, न रोष, अपितु वे अन्यों को सभी प्रकार संतुष्ट करते हैं। उनका स्मरण कर, उस नित्य आनन्दमय परमात्मा के प्रति भक्ति प्रदर्शित कर, भारतीय व्यक्ति अपने जीवन को धन्य अनुभव करता है।
”भारत माता मन्दिर“ के सम्बन्ध में आपके विचार-
ऊँ। विश्वानि देव सवितर्दुरितानी परासुव। यद् भद्रं तन्न आ सुव।।
हमारे देश के गाँव-गाँव, नगर-नगर में मन्दिर मिलते हैं। बुद्धिवादी व्यक्ति नवीन मन्दिरों के निर्माण को निरर्थक मानते हैं। कई लोग इसे अर्थ का अपव्यय भी कहते हैं। इतिहास को जीवित रखना हमारा कत्र्तव्य है। इतिहास से हमें अपनी राष्ट्रीय-संस्कृति के गौरव का पता चलता है। पाठकों को इससे प्रेरणा मिलती है और भावी पीढ़ी के संस्कार जगाने में चेतना की शक्ति। इसी पावन दृष्टिकोण से, हरिद्वार में भारत माता मन्दिर का निर्माण किया गया है।
मुसलमान, ईसाई बन्धुओं को अपने पूर्वजों के सम्बन्ध में पर्याप्त जानकारी है, परन्तु किसी हिन्दू युवक से उसके पूर्वज ऋृषियों के नाम पूछे जायें तो बता पाने में असमर्थता प्रकट करेगा। यदि व्यक्ति अपने श्रेष्ठ पूर्वजों का ही विस्मरण कर बैठे, तो उनके श्रेष्ठ संस्कारों को अपने जीवन में कैसे उतार सकता है?
भारत माता मन्दिर- मन्दिर के रूप में अधिक जाना जाय, ऐसा विचार कम है। तीर्थ-यात्री जो प्रतिवर्ष लाखों की संख्या में हरिद्वार आते हैं, वे इस मन्दिर से देश के संत, आचार्य, बलिदानी महापुरूषों, साध्वी, सतियों (मातृ शक्ति) के जीवन से प्रेरणा लेकर, व्रत और संकल्प कर जा सके - यह इसका मुख्य लक्ष्य है। साम्प्रदायिक उपासना पद्धतियों में मानव पृथक-पृथक घेरों में बँधता जा रहा है। ऐसे समय में राष्ट्रीय एकता को ध्यान में रखकर, सब सम्प्रदायों के आचार्यो और संतों की एक ही स्थान पर प्रतिष्ठा की गई है, इससे - ”हम सब एक हैं“, ”हमारी माता भारत माता है“- का विचार परिपक्व कर सकें। यह विचार दृढ़ होना चाहिए, तभी व्यक्तिवाद से ऊपर उठकर राष्ट्रवाद की ओर जा सकते हैं।
धर्म और राष्ट्र एक-दूसरे के पूरक होने चाहिए। धर्म संस्कारों को बनाता है। संस्कारों का परिष्कार करता है और राष्ट्र-भाव स्वधर्म पर बलिदान होने की प्रेरणा देता है। बिना उत्सर्ग किये इस संसार में कुछ नहीं मिलता। स्वार्थ की बलि चढ़ाये बिना राष्ट्र का यज्ञ अधूरा रहता है। पशु-बलि की बातें आज निरर्थक हो गई हैं, किन्तु आत्म बलिदान के अभाव में कोई महान् लक्ष्य प्राप्त हो जाये, यह सम्भव नहीं है। भारत माता मन्दिर में विराजमान संत, शूर, सती- देश के लाखों यात्रियों में समन्वय, श्रद्धा, परस्पर प्रेम, त्याग, सद्भाव, स्वार्थ त्याग, समरसता और बलिदान की भावना जगाने में समर्थ हो सकेगें, ऐसा विश्वास किया जाना चाहिए।
हमारा यह विचार है कि मन्दिर में दान-पात्र न रखें जाएँ, परन्तु दर्शनार्थियों की उदार भावना के सम्मानार्थ, उनके द्वारा की जाने वाली चढ़ोतरी के सदुपयोग की दृष्टि से, दान-पात्र रखे जाना युक्तिसंगत भी लगता है। फिर भी भावना यह है कि, दर्शनार्थी इस मन्दिर की स्मृति संजोकर, अपने घरों को लौटकर जाने वाले लोग श्रद्धा से जो कुछ हो, वहीं से प्रेषित करें। इस धनराशि को आदिवासी, गिरिवासी, वनवासी, हरिजन, देश के उपेक्षित वर्ग और दरिद्र नारायण की सेवा में लगाया जा सके। साथ ही, आय का एक भाग ब्राह्मण बालकों को कर्मकाण्ड, वेद, हवन, यज्ञ आदि की शिक्षा देने के लिए उपयोग में लाया जाए। इस प्रकार यह मन्दिर समाज की सर्वागीण सेवा का प्रकल्प बन सके, यह अपेक्षा है।
इस मन्दिर में जैन, सिक्ख, ईसाई, मुसलमान, पारसी मजहबों के श्रेष्ठ संतों की मूर्तियाँ और उनके जीवन का अंकन किया गया है। सभी प्रमुख धर्मो के मूल मंत्र रजत पट्टीका पर अंकित किये गये हैं, जिससे उपासकों, साधको, नागरिकों में यह भाव जाग सके कि सभी धर्मो का मूल तत्व एक है। इस प्रकार, अपने देश की संस्कृतियों की समस्त धाराओं को हरिद्वार में बहने वाली गंगा की पावन धारा से जोड़ने का प्रयत्न किया है। गंगा पावनता और गतिशीलता का प्रतीक बन चुकी है। बिना पावन और गतिशील हुए, देश और राष्ट्र की वास्तविक सेवा नहीं की जा सकती।
परमात्मा की कृपा से, अपने राष्ट्र-रथ को अनैतिकता के पंक से उबार, जगद्गुरू के पूर्व आसन पर बैठा सकने में हम सब निमित्त और परमात्मा के हाथ का उपकरण बन सकें, ऐसी उनके चरणों में प्रार्थना है।

”भारत माता मन्दिर (ऋृषिकेश)“: एक परिचय
लोगों के मन में यह विचार आ सकता है कि इस मन्दिर में भारतमाता की प्रतिमा क्यों स्थापित की गई? भारतमाता तो सम्पूर्ण राष्ट्र है। उसकी सम्पूर्ण शक्ति राष्ट्र के प्रत्येक नागरिक में उद्भूत है, उस शक्ति का अनुभव कराने के लिए सनातन धर्म में प्रतिमा अथवा मूर्ति प्रतिष्ठा का विशेष महत्व है। धनधान्य की समृद्धि के लिए जिस प्रकार बीज बोना परम आवश्यक है, उसी प्रकार देवी और मानवीय संस्कार जाग्रत करने के लिए प्रतिमा की प्रतिष्ठा-उपासना का महत्वपूर्ण अंग है। इसलिए मूर्ति प्रतिष्ठा के अनन्तर प्राण प्रतिष्ठा की जाति है, जिससे उपासक और दर्शनार्थी में तद्नुसार चेतना जाग्रत हो सके। वर्तमान में भारत की भावात्मक एकता और अखण्डता के लिए ”हम सब भारतवासी भारत माता की संतान हैं“- इस भावना के लिए भारतमाता की मूर्ति की प्राण प्रतिष्ठा की गई है।
भारतमाता मन्दिर में प्रवेश करते ही, जैसे सीढ़ियों पर चढ़ते हैं- दाई ओर सम्पूर्ण मनोकामना सिद्ध करने वाले, संकट मोचन श्री हनुमन्तलाल जी के दर्शन होते हैं। मुख्य द्वार के ऊपर श्री विध्नेश्वर गजवदन विनायक श्री गणेश जी प्रतिष्ठित हैं। जिनके दर्शन के साथ ही दर्शनार्थी द्वार प्रवेश कर सीधे भारत माता के पास पहुँचते हैं। हम धन्य हैं कि हम भारत जननी की शस्य श्यामल, समृद्ध, वात्सल्यमयी अंक में पले हैं, बड़े हुए हैं और यशस्वी जीवन-पथ पर गतिशील हैं और सदा गतिशील बने रहेंगे। यह राष्ट्र किसी एक का नहीं, जाति वर्ण, सम्प्रदाय भेद के बिना सभी का है। हम सब एक ही भारत माँ की सन्तान होने के नाते भाई-बहन हैं, एक हैं। जैसे एक मीटर वस्त्र को तैयार करने में किसान, उसके खेती के उपकरण, ओटाई करने वाले, कातने वाले, उसको आकर्षक रूप देने वाले कुशल इंजिनियर, सुपरवाइजर इत्यादि का योगदान रहता है, वैसे ही एक राष्ट्र के निर्माण में किसी की बुद्धि, किसी का श्रम, किसी का बलिदान, किसी का तपस्या और किसी का चिन्तन लगता है।
आधार तल - सात तल वाले इस भव्य मन्दिर के आधार तल में भारतमाता की विशाल एवं भव्य प्रतिमा की प्रतिष्ठा है। माँ, जिसकी गोद में संस्कृति, संस्कार और सभ्यता जन्म लेकर पोषित होती है- उसकी उपमा संसार में कहीं नहीं है। भारत की धरती को ही यह सौभाग्य मिला है, जिसे ”भारतमाता“ के नाम से विभूषित किया गया है। संसार का कोई भी देश माता के नाम से नहीं जाना जाता। भगवान श्रीराम जी स्वयं कहते हैं- ”जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी“ - माँ और मातृभूमि स्वर्ग से भी श्रेष्ठ है।
भारतवासीयों की रग-रग में संस्कार प्रतिष्ठित करने वाली भारतमाता की मूर्ति की प्रतिष्ठा भारतमाता मन्दिर में की गई - जिनके एक हाथ में दुग्ध पात्र तथा दुसरे में धान की बाली है। सामयिक चेतना जगाने के लिए श्वेत क्रान्ति व हरित क्रान्ति के प्रतीक के रूप में इस कल्पना को ग्रहण किया गया है। प्रतिमा के पीछे कमलाकार चक्र है, जो कमल की पवित्रता और निर्लिप्त भाव का प्रतीक है। गीता में भगवान श्रीकृश्ण का सन्देश है- ”पद्मपत्रमिवाम्भसा“ - संसार-महासागर में, राष्ट्र की सेवा में व्यक्ति का जीवन, कमल के समान रहना चाीिए।
भारत माता की मूर्ति के सामने भूतल पर भारत का विशाल प्राकृतिक मानचित्र, भारत सरकार के सर्वेक्षण विभाग की प्रमाणिकता के आधार पर निर्मित है- जिसमें नागाधिराज हिमालय के उत्तुंग शिखर, उपत्यिकाएँ, प्रमुख नदियाँ आरेखित की गई हैं। साथ ही निम्नलिखित को भी दर्शाया गया है-
द्वादश ज्योतिर्लिंग-1. सौराष्ट्र में सोमनाथ, 2. श्रीशैल पर मल्लिकार्जुन (गुण्टुर से 217 मील), 3. उज्जैन में महाकाल, 4. ओंकारेश्वर में मम्लेश्वर (ओंकारेश्वर), 5. हिमाचल पर केदारनाथ, 6. डाकिनी में भीमशंकर (पूना से 43 मील उत्तर, मुम्बई से 70 मील पूर्व की ओर भीमा नदी के तट पर), 7. काशी में विश्वेश्वर विश्वनाथ, 8. गौतमी तट पर त्रयम्बकेश्वर (नासिक रोड स्टेशन से 25 कि.मी. दक्षिण में), 9. चिताभूमि में वैद्यनाथ (कलकत्ता-पटना रेल मार्ग पर किउल स्टेशन से दक्षिण पूर्व में 100 कि.मी.), 10. दारूका वन में नागेश्वर (द्वारिका के पास दारूका वन में गौतमी नदी के किनारे), 11. सेतूबन्ध में रामेश्वर और 12. शिवालय में स्थित घुश्मेश्वर (मनमाड-पूना लाइन पर मनमाड से 100 कि.मी. दौलताबाद स्टेशन से 20 कि.मी. वेरूल गाँव के पास)
सप्त मोक्षदायिनी पुरियाँ-1. अयोध्या, 2. मथुरा, 3. हरिद्वार, 4. काशी (वाराणसी), 5. काँची, 6. अवन्तिका (उज्जैन), 7. द्वारिका।
सप्त बदरी- उत्तराखण्ड राज्य के बदरी क्षेत्र में 1. आदि बदरी, 2. ध्यान बदरी (कुम्हार चट्टी से 6 मील दूर), 3. वृद्ध बदरी (उषी मठ के कुम्हार चट्टी से ढाई मील दूर), 4. भविष्य बदरी (जोशी मठ से 11 मील दूर), 5. योग बदरी (पाण्डुकेश्वर से दो मील), 6. नृसिंह बदरी (जोशी मठ से नरसिंह भगवान का मन्दिर), 7. प्रधान बदरी।
पंच केदार- भगवान शंकर महिष रूप धारण उपरान्त उनके पाँच अंग प्रतिष्ठित हुये और वे पंच केदार कहलाये। 1. श्री केदारनाथ (प्रमुख केदार पीठ), 2. श्री मध्यमेश्वर (यहाँ नाभि), 3. श्री तुंगनाथ (यहाँ बाहु), 4. श्री रूद्रनाथ (यहाँ मुख), 5. कल्पेश्वर (यहाँ जटायें)।
पंच सरोवर- 1. मानसरोवर (हिमालय क्षेत्र में), 2. बिन्दु सरोवर (गुजरात प्रदेश में), 3. नारायण सरोवर (नल सरोवर और हिमालय क्षेत्र में), 4. पम्पा सरोवर (तुंगभद्रा नदी के उत्तर और किष्किंधा के दक्षिण भाग में), 5. पुष्कर सरोवर (अजमेर के पास में)।
सप्त क्षेत्र- 1. कुरूक्षेत्र (हरियाणा प्रदेश में), 2. हरिहर क्षेत्र (गंगा, सरयू, सोन व गंडकी नदी के संगम का क्षेत्र बिहार प्रदेश में), 3. प्रभास क्षेत्र (द्वारिका, गुजरात प्रदेश में), 4. भृगु क्षेत्र (नर्मदा व समुद्र संगम क्षेत्र), 5. पुरूषोत्तम क्षेत्र  (जगन्नाथ धाम, उड़ीसा में), 6. नैमिष क्षेत्र  (सीतापुर, उत्तर प्रदेश में), 7. गया क्षेत्र  (बिहार प्रदेश में)

प्रथम तल: शूर मन्दिर -
मैकाले की शिक्षा पद्धति ने देश के नागरिकों के समक्ष ऐसा इतिहास प्रस्तुत किया कि हम अपने देश के लिए जीवन देने वालों को विस्मृत कर बैठे। आज सबसे बड़ी आवश्यकता है, राष्ट्र के प्रति समर्पित महापुरूषों, बलिदानियों के आदर्शो को उद्घाटित करने की, जिससे वर्तमान भारत के बालक-बालिकाएँ, युवक-युवतियाँ उनसे प्रेरणा ले सकें। यदि हमारे सामने कोई आदर्श ही नहीं होगा, तो हमारा न कोई सिद्धान्त रह जायेगा और न शाश्वत मूल्य रह जाएँगे। इसी दृष्टिकोण से भारत माता मन्दिर के द्वितीय तल पर राष्ट्र के वीरों, बलिदानियों की मूर्तियों की प्रतिष्ठा की गई है जो निम्नवत् हैं-
1. महामना पं. मदन मोहन मालवीय 2. वीर सावरकर 3. सुभाष चन्द्र बोस 4. महात्मा गाँधी 5. छत्रपति शिवाजी 6. गुरू गोविन्द सिंह 7. महारानी लक्ष्मीबाई 8. महराणा प्रताप 9. शहीद भगत सिंह 10. चन्द्रशेखर आजाद 11. डाॅ0 केशवराव बलिराम हेडगेवार 12. हेमू कालानी 13. अश्फाकउल्ला 14. महारानी अहिल्याबाई 15. महराजा अग्रसेन

द्वितीय तल: मातृ मन्दिर -
नारी के प्रति महान सम्मान प्रदर्शित करने की दृष्टि से भारतमाता मन्दिर में मातृ मन्दिर की प्रतिष्ठा की गई है। वैदिक काल से लेकर आज तक महान नारीयों की लम्बी श्रृंखला रही है परन्तु यहाँ उनकी शक्ति के प्रतीक के रूप में कुछ महान माताओं की मूर्तियों को प्रतिष्ठित किया गया है जो निम्नवत् हैं-
1. सती जयदेवी 2. कवयित्री आण्डाल 3. मैत्रेयी 4. मीराबाई 5. सती सावित्री 6. ब्रह्मवादिनी गार्गी 7. देवी उर्मिला 8. सती दमयन्ती 9. सती अनुसूया 10. सती मदसलसा 11. सती पद्मिनी 12. वीरांगना किरण देवी 13. श्रीमती एनी बेसेन्ट 14. भगिनी निवेदिता 15. श्री देव नदी गंगा जी 16. श्री यमुना जी

तृतीय तल: संत मन्दिर -
भारतीय संस्कृति एवं संस्कृति की समग्र परम्परा का सम्पूर्ण अधिष्ठान भारतीय संतो के अवदान पर ही प्रतिष्ठित है। महर्षि वेदव्यास से लेकर आद्य गुरू शंकराचार्य एवं स्वामी विवेकानन्द, महर्षि अरविन्द, स्वामी रामतीर्थ और उनके परवर्ती संतो की लम्बी श्रृंखला है, जिन्होंने अपनी दिव्य साधना से भारतीय संस्कृति और जनजीवन को आलोकित किया है। रत्नगर्भा भारत भूमि इतने महापुरूषों की जननी है कि उन सबको पर्याप्त स्थान नहीं दे सके। विशिष्ट आचार्यो, संतो को ही स्थान दे सके हैं इसका अर्थ यह नहीं है कि शेष महापुरूष सम्मानीय नहीं है। वे सभी समान कोटि में समादरणीय है। भारतमाता के स्वरूप को सँवारने और उसे समृद्ध बनाने में संतो की साधना, तपश्चर्या, वाणी और साहित्य का अनुपम योगदान रहा है। इसी दृष्टि से सभी सम्प्रदायों के आचार्यो, संतो की प्रतिष्ठा भारत माता मन्दिर में की गई है। जो निम्नवत् हैं-
1. गौतम बुद्ध 2. महावीर स्वामी 3. श्री नरसी मेहता 4. गोस्वामी तुलसीदास 5. श्री चैतन्य महाप्रभु 6. उदासीनाचार्य चन्द्रदेव 7. समर्थ गुरू रामदास 8. संत ज्ञानेश्वर 9. श्री गरीबदास जी 10. श्री रंग अवधूत जी 11. स्वामी वासुदेवानन्द सरस्वती 12. श्री निम्बार्काचार्य 13. जगद्गुरू रामानन्दाचार्य 14. जगद्गुरू आद्य शंकराचार्य 15. श्री वल्लभाचार्य 16. श्री रामानुजाचार्य 17. श्री मध्वाचार्य 18. श्री गुरू नानक 19. शिरडी वाले सांई बाबा 20. स्वामी विवेकानन्द 21. स्वामी दयानन्द 22. महर्षि अरविन्द 23. श्री पीपी जी 24. परमहंस राकृष्णदेव एवं माँ शारदामणि 25. संत कबीर 26. रसखान 27. जलाराम बापा 28. संत रविदास 29. संत नवल साहेब 30. भक्त श्री सेन जी 31. हरिजी बापा 32. गुरू गोरक्षनाथ जी 33. संत श्री झूलेलाल जी 34. महर्षि वाल्मीकि 35. आचार्य दादूदयाल जी 36. स्वामी प्राणनाथ जी 

चतुर्थ तल: भारत दर्शन -
भारत माता मन्दिर के चतुर्थ खण्ड पर भारत की एकता और अखण्डता के प्रतीक के रूप में भारत-दर्शन की प्रादेशिक झाँकी भित्ति चित्रों और आरेखों द्वारा प्रदर्शित की गई है- जिन्हें देखकर लगता है कि हम भारत में हैं और भारत हम में है। हमारा कोई भी चिन्तन इससे पृथक नहीं हो सकता। हमने इसी भारत के लिए जन्म लिया है और जन्म-जन्मान्तर परमात्मा से प्रार्थना करते हैं कि चाहे जिस रूप में हो, चाहे जिस योनि में हो - हमारा जन्म भारत में ही हो।
दीवालों पर भारत के समस्त प्रदेशों के सांस्कृतिक मानचित्र आकर्षक ढंग से निर्मित किये गये हैं- जिनमें मध्य प्रदेश, गुजरात, महारष्ट्र, गोवा, राजस्थान, हरियाणा, पंजाब, जम्मू-कश्मीर, हिमाचल प्रदेश, असम, मेघालय, अरूणाचल प्रदेश, मणिपुर, नागालैण्ड, त्रिपुरा, मिजोरम, पश्चिम बंगाल, बिहार, उत्तर प्रदेश, कर्नाटक, आन्ध्र प्रदेश, उड़ीसा, केरल, तमिलनाडु, आदि की झाँकियों में वहाँ के इतिहास-प्रसिद्ध सांस्कृतिक कला, स्थापत्य कला के नमूने, संत, वीर, बलिदानी, नृत्य कला आदि को प्रदर्शित किया गया है। इस मण्डपम् में विशाल मंच निर्मित है। मंच के पाश्र्व में, रजत पट्टीकाओं पर - विश्व के प्रमुख धर्मो - ईसाई धर्म, सिख धर्म, जैन धर्म, बौद्ध धर्म, सनातन धर्म, पारसी धर्म, इस्लाम धर्म के मूल मंत्र आलेखित हैं और वेद भगवान  की प्रतिष्ठा की गई है। समन्वय ओर भावनात्मक एकता की दृष्टि से स्थापित इन पट्टीकाओं का अनावरण - भारत गणराज्य के तत्कालिन महामहिम राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह जी ने 8 मार्च, 1986 को शिवरात्रि पर्व पर किया था। उन्होंने कहा - ”मेरा मन यहाँ से बाहर जाने को नहीं करता। यह मन्दिर आजादी के तुरन्त बाद ही बनना चाहिए था, परन्तु जो कार्य सरकार नहीं कर पाई, उसे स्वामी जी ने किया। भगवान जिससे जब जो कार्य कराता है, तभी होता है। मेरा विश्वास है कि जो कोई भी हरिद्वार आयेगा, इस मन्दिर के दर्शन जरूर करेगा।“
सभी धर्म एक हैं। विश्व का कोई भी धर्म हिंसा, असत्य, वैर, कटुता की बात नहीं कहता। धर्मान्धता आड़े आने पर धर्म को विकृत बना दिया जाता है। धर्मनिरपेक्षता का तात्पर्य धर्महीनता नहीं है, अपितु अपने धर्म पर अनन्य निष्ठा, समर्पण भाव रखते हुए - दूसरे धर्म के प्रति समान आदर भाव रखना है। संस्कृति ही राष्ट्र बनाती है। एक राष्ट्र की जनता एक जाति की है, उस जाति का जो स्वरूप है, उसे राष्ट्रीयता कहते हैं और राष्ट्रीयता ही किसी राष्ट्र का जीवन है। यदि राष्ट्रीयता या संस्कृति नष्ट कर दी जाए, तो वह राष्ट्र नष्ट हो जाता है। संस्कृति के जन्म, पोषण, रक्षण ओर अभिवृद्धि के लिए परमात्मा ने भारत-भूमि का चयन किया। उस संस्कृति का पालन करना, अपने जीवन में ढालना, आचरित करना प्रत्येक भारतवासी का प्रथम कत्र्तव्य है। संस्कृति और राष्ट्र एक-दूसरे के पर्याय हैं। राष्ट्र रहेगा, संस्कृति रहेगी, और संस्कृति की रक्षा से राष्ट्र की अस्मिता अक्षुण्ण रहेगी।
भारत-भूमि धन्य है, जिसकी प्रशंसा देवों के श्रीमुख से की गई है तथा इस भारत-भूमि पर जन्म लेने के लिए स्वयं देवता भी लालायित रहते हैं। जिसका जन्म इस धरती पर हुआ, वह भी धन्य हो गया। भारत-भूमि इस भूखण्ड पर सबसे पुण्यशाली है। यह भूमि भगवान के अवतारों की, संतो की, महर्षियों की, पुण्य सलिला सरिताओं की प्राकट्य-स्थली है। स्वयं परमात्मा ने विभिन्न रूपों में अवतरित होकर यहाँ लीलीयें कर, धर्म और संस्कृति की मर्यादा स्थापित की। भारत की धरती देवताओं की यज्ञ-भूमि होने से, परम पावन मानी गई है।
आज की भयावह परिस्थिति में सम्पूर्ण विश्व भारत की ओर आँखें लगाये लालायित है कि विश्व की समस्याओं का निदान भारत के पास है। समय आयेगा। विश्व को भारत ने रास्ता दिखाया था, पुनः दिखयेगा। महर्षि अरविन्द की वाणी सत्य सिंद्ध होगी कि ”भारत एक है, अखण्ड है, अखण्ड रहेगा।“ विभाजन की रेखाएँ, भौगोलिक सीमायें ध्वस्त होंगी। भारत की पहचान भौगोलिक सीमाओं से कभी नहीं रही। भौतिक सीमाएँ भारत को कभी बाँध नहीं सकी। भारत की पहचान उसके अध्यात्म से है, भारतीयता से है, भारतीय संस्कृति से है ओर यह पहचान यावत्चन्द्र दिवाकर बनी रहेगी।

पंचम तल: शक्ति मन्दिर -
भारत माता मन्दिर के इस तल पर 1. वेदमाता गायत्री 2. देवी मीनाक्षी 3. देवी सरस्वती की मूर्ति प्रतिष्ठित है।
भारतीय संस्कृति में शक्ति की उपासना को सर्वाधिक महत्व दिया गया है। चैत्र शुक्ल पक्ष और अश्विन शुक्ल पक्ष प्रतिपदा से नवमी तक पराम्बा भगवती की अराधना सम्पूर्ण भारत में की जाती है। समस्त आस्तिक जनता अशुभ के विनाश और शुभ की प्राप्ति के लिए दुर्गा का, जो दुर्गति का नाश करने वाली है - घट स्थापन, पूजन, अर्चन, हवन आदि करती है। दुर्गा के नौ रूप 1. शैल पुत्री 2. ब्रह्मचारिणी 3. चन्द्रघण्टा 4. कूष्माण्डा 5. स्कन्द माता 6. कात्यायनी 7. कालरात्रि 8. महागौरी 9. सिद्धीदात्री हैं।
शक्ति की महत्ता के बारे में महाशक्ति के उद्गार हैं-
अहं राष्ट्री संगमनी वसूनां चिकितुषी प्रथमा यज्ञयानाम्।
तां मा देवा व्यदधुः पुरूत्रा भूरिस्थात्रां भूर्यावेशयन्तीम।।
”मैं ही राष्ट्रीय अर्थात सम्पूर्ण जगत् की ईश्वरी हूँ। मैं उपासकों को उसका अभीष्ट वसु-धन प्राप्त कराने वाली हूँ। जिज्ञासुओं के साक्षात् कत्र्तव्य - परब्रह्म को अपनी आत्मा के रूप में मैंने अनुभव कर लिया है। जिनके लिए यज्ञ किये जाते हैं, उनमें सर्वश्रेष्ठ हूँ। सम्पूर्ण प्रपंच के रूप में मैं ही अनेक होकर विराजमान हूँ। सम्पूर्ण प्राणियों के शरीर में जीव-रूप में मैं अपने-आपको ही प्रविष्ट कर रहीं हूँ। भिन्न-भिन्न देश, काल, वस्तु और व्यक्तियों में जो कुछ हो रहा है- किया जा रहा है, वह सब मुझ में, मेरे लिए ही किया जा रहा है। सम्पूर्ण विश्व के रूप में अवस्थित होने के कारण, जो कोई जो कुछ भी करता है - वह सब मैं ही हूँ। (देवी सूक्त आत्म सूक्त ऋ मं, 10 सूक्त 125 अ.1)“
अराधना के लिए गुरू या संत से कोई मंत्र लेते है, निर्देशन प्राप्त करते हैं, परन्तु ”माँ“ अपने-आप में स्वतन्त्र मंत्र है। जन्म के प्रारम्भ से ही हमारी संस्कृति ”माँ“ मंत्र देती है। वात्सल्यमयी है। वह करूणा की मूर्ति है। इसलिए शास्त्र में ”माँ“ को ”सत्यं परम् सत्यम्“ कहा है। वह पराशक्ति, निर्गुण ओर सगुण दोनों रूपों में पूज्या है। निर्गुण शक्ति व्यापक शक्ति है, जो अन्तर चेतना जाग्रत करती है। वह प्रत्येक व्यक्ति के भीतर प्रसुप्त अवस्था में रहती है। साधना के द्वारा या महापुरूषों की कृपा से उसे जागृत किया जाता है। योगीजन उसे कुण्डलिनी शक्ति के रूप में जानते हैं। जब शक्ति अन्तर से चैतन्य हो जाती है, तो ऐसे महापुरूष कई चम्त्कार करने में समर्थ हो जाते हैं। कुछ दूसरें के मन की बात जान लेते हैं।

षष्ठम् तल: विष्णु मन्दिर -
सम्पूर्ण भारतवर्ष में विभिन्न धर्मो और सम्प्रदायों के लोग रहते है। अपनी-अपनी आस्था-श्रद्धा के अनुरूप भगवान विष्णु (नारायण) के प्रति विभिन्न रूपों में अपनी भावना व्यक्त कर, उनके विग्रह की पूजा-अर्चना कर जीवन धन्य समझते हैं। इस दृष्टि से भारत माता मन्दिर में विष्णु-मन्दिर का निर्माण कर, उसमें परमात्मा के विभिन्न विग्रहों 1. दत्तात्रेय 2. श्रीनाथ जी 3. रणछोड़राय 4. श्री सीताराम 5. श्री लक्ष्मी नारायण 6. श्री राधाकृष्ण 7. श्री व्यंक्टेश 8. स्वामीनारायण 9. श्री विट्ठल रूक्मिणी जी की प्रतिष्ठा की गई है।

सप्तम तल: शिव मन्दिर -
भारतमाता मन्दिर के सर्वोच्च शिखर पर (आखिरी मंजिल पर) शिव-मन्दिर निर्मित है। जिसमें हिमालय की तलहटी में भगवान शंकर चार स्वरूपों में दर्शन देते हैं। पद्मासन में ध्यानस्थ शिवजी की रजत मूर्ति है, उनके पीछे शिव परिवार, बायीं ओर अर्द्धनारीश्वर और दायीं ओर नटराज शिव। वस्तुतः आशुतोष भगवान शिव के अतिरिक्त ऐसा और कोई देव नहीं है, जो अपनी विस्मृति कर औघड़ आशीर्वाद देता हो। विग्रह के दोनांे ओर दो रजत कल्प वृक्षों पर 54-54 विविध रंगों के शिवलिंग प्रतिष्ठित किये गये हैं।
भारत माता मन्दिर के विभिन्न तलांे पर स्थापित विभूतियों से प्रेरणा ग्रहण करें तथा एक ही स्थान पर सम्पूर्ण देश के श्रद्धा के आधारों का दर्शन कर सकें, इस दृष्टि से भारत माता मन्दिर की आधारशिला पर ऊपर के विभिन्न मन्दिरों का निर्माण हुआ है। जो तथ्य और अनुभूति असंख्य प्रवचनों, बहुसंख्यक ग्रन्थों से प्रदान नहीं की जा सकती, वह भारत माता मन्दिर के आधार तल से ऊपर के उच्चतल तल पर प्रतिष्ठित मूर्तियों के दर्शन द्वारा सहज ही प्राप्त की जा सकती है। यद्यपि शूर, सती, मातृ शक्ति, संत, शक्ति और परमात्मा के असंख्य, अनन्त रूप हैं, फिर भी इन सभी मन्दिरों में स्थापित मूर्तियाँ उन वर्गो की प्रतिनिधि एवं प्रतीक स्वरूप हैं।

श्री लव कुश सिंह ”विश्वमानव“ द्वारा स्पष्टीकरण
जब मैं रेनुकूट, सोनभद्र में रहता था (सन् 1999 से 2001 तक) तब आपकी रेनुकूट शाखा का परिसर मेरे अस्थायी निवास (क्वार्टर नं0 आई-1521,) जो मेरे मित्र, बड़े भाई श्री सिया राम सिंह (हिन्डाल्को स्टाफ) द्वारा सुविधा दी गई थी, के ठीक सामने दिखता था। श्री सिया राम सिंह जी द्वारा आपके साहित्य भी हमें प्राप्त होते रहते थे। वे आध्यात्मिक विचारधारा के स्वामी हैं जो उन्हें विरासत में ही प्राप्त थी। इस क्वार्टर में रहकर मैंने ”विश्वशास्त्र“ के बहुत से महत्वपूर्ण अंश लिखे थे। सन् 2012 में ”भारत माता मन्दिर“ के दर्शन का अवसर प्राप्त हुआ। वहीं से पुस्तक “भारत माता मन्दिर” मैं लाया था।
“भारत माता मन्दिर”, का एकात्म विचार बहुत ही जीवन्त है और वह प्रत्यक्ष रूप में सामने है। संघनित होती दुनिया में दृश्य माध्यम से ”भारत“ के रूप को समझने का यह ज्ञान आधारित मन्दिर है।
अब जबकि विश्व का अन्तिम शास्त्र - ”विश्वशास्त्र“ व्यक्त हो चुका है, ऐसी स्थिति में “भारत माता मन्दिर” से भारत के ”विश्वरूप“ का दर्शन व ज्ञान आने वाले लोगों को हो, इसके लिए थोड़े परिवर्तन की आवश्यकता है। जो एक सार्वभौम सत्य-सैद्धान्तिक सलाह मात्र है-
7 वाँ तल - ”ज्योति मन्दिर” - इस तल पर केवल ”शिव ज्योति” और उसका दृश्य प्रकाश ”विश्वशास्त्र” रखा होना चाहिए।
6 वाँ तल - ”मानक चरित्र मन्दिर“ - इस तल पर केवल त्रिदेव एवं परिवार होने चाहिए। 1. ब्रह्मा एवं परिवार (व्यक्तिगत मानक व्यक्ति चरित्र), 2. विष्णु एवं परिवार (सामजिक मानक व्यक्ति चरित्र) एवं 3. शंकर एवं परिवार (वैश्विक मानक व्यक्ति चरित्र)
5 वाँ तल - ”अवतार मन्दिर” - इस तल पर केवल ईश्वर के 24 अवतार होने चाहिए।
4 वाँ तल - ”देवी-शक्ति और मातृ मन्दिर“
3 वाँ तल - ”संत मन्दिर“
2 वाँ तल - शूर मन्दिर
1 वाँ तल - भारत दर्शन
आधार तल - कोई परिवर्तन नहीं 
इस रूप से ”भारत“ का विश्वरूप व्यक्त होगा साथ ही यह भी व्यक्त होगा कि मनुष्य को अपने विचार को उत्तरोत्तर श्रेष्ठ करने में कितने चरण से गुजरना है। आधार तल से 7वाँ तल उसी को व्यक्त करता है। मनुष्य की गति नीचे से उपर की ओर तथा अवतार की गति उपर से नीचे की ओर होती है।

पहले भारतमाता मन्दिर और अब अन्त में उसमें मैं और मेरा विश्वधर्म मन्दिर
यदि मैं लव कुश सिंह ”विश्वमानव“, ही कल्कि अवतार हैं तो उनका स्थान 5वें तल के ”अवतार मन्दिर” में उनका अधिकार बनता है।

विश्वधर्म मन्दिर - धर्म के व्यावहारिक अनुभव का मन्दिर
धर्म के व्यावहारिक अनुभव का मन्दिर - विश्वधर्म मन्दिर, की स्थापना जीवनदायिनी सत्यकाशी क्षेत्र में उचित स्थान देखकर की  जायेगी क्योंकि इसकी स्थापना के पीछे स्थान का कोई विशेष कारण और स्थान के लिए शास्त्रीय आधार नहीं है, इसके लिए पूरा सत्यकाशी क्षेत्र ही शास्त्रीय आधार के अन्तर्गत है।
यह एक विशाल कैम्पस होगा जिसमें एक प्रवेश द्वार और एक ही निकास द्वार होगा। प्रवेश द्वार से प्रवेश करते ही विश्व के प्रमुख धर्मो के अलग-अलग द्वार होगें। जिन्हें जिस धर्म का अनुभव प्राप्त करना हो वे उस द्वार से प्रवेश करेंगे। और उस धर्म के अनुसार वस्त्र, पूजा पद्धति, धर्म शास्त्र, खान-पान इत्यादि का पूरा अनुभव पूरे दिन प्राप्त करेंगे। और अन्त में निकास द्वार से अपने पुराने वस्त्र को धारण कर बाहर आयेंगे। इसका तात्पर्य यह है कि जन्म (प्रवेश द्वार) की एक ही विधि है और मृत्यु (निकास द्वार) की भी एक ही विधि है जो किसी धर्म से सम्बन्धित नहीं है। बीच का जीवन ही उस धर्म का अनुभव है। धर्म में प्रवेश के उपरान्त धर्म परिवर्तन का कोई मार्ग नहीं है। उसके लिए आपको निकास द्वार (मृत्यु) से बाहर आकर फिर जन्म लेना पड़ेगा फिर किसी दूसरे धर्म का अनुभव आप प्राप्त कर सकते हैं। यह धर्म के व्यावहारिक अनुभव का मन्दिर - विश्वधर्म मन्दिर, पूर्णतः व्यापारिक ढंग से संचालित होगा।