पुर्नजन्म चक्र मार्ग के
सत्व मार्ग से-
श्रीकृष्ण और श्री लव कुश सिंह ”विश्वमानव“
बुड्ढा श्रीकृष्ण: श्रीकृष्ण का भाग-दो और अन्तिम
आओ श्रीकृष्ण मैं जानती थी कि तुम आओगे, इसलिए ही तो हजारो वर्षो से मैं तुम्हारी प्रतीक्षा कर रही हूँ। मैं जानती थी कि जिस व्यक्ति का सम्पूर्ण ध्यान सदैव हस्तिनापुर में ही रमता था, जिसके समस्त लक्ष्यों की केन्द्र बिन्दू थी, वह हस्तिनापुर जरूर आयेगा।-द्रौपदी ने कहा।
हाँ सखी मैं आ गया, किसी को दिया हुआ वचन मैं कैसे भूल सकता हूँ? मैंने तुम्हें वचन दिया था कि इतिहास तुम्हें चाहे जो कुछ भी कहें परन्तु भविष्य तुम्हें नारी आदर्श के सर्वोच्च शिखर पर देखेगा, जिसके आगे सम्पूर्ण संसार की नारीयाँ तुम्हारें अंश रूप में जानी जायेंगी।-मैंने कहा।
एक लक्ष्य से दूसरे बड़े लक्ष्य की ओर मन को स्थित कर देने का स्वभाव आज भी तुममें है।-द्रौपदी ने कहा।
सखी, यह जीवन ही ऐसा है। जहाँ से मृत्यु होती है फिर वहीं से पूर्णता के लिए अगले लक्ष्य के लिए जीवन आरम्भ होता है और यह क्रम तब तक चलता रहता है, जब तक कि वह पूर्ण होकर मुझमें विलीन होकर मुझ जैसा नहीं हो जाता। देखो, ये मेरे सफेद हुये बाल, ये मेरे आँखों में आँसू, मेरा अकेलापन और मेरा अधूरापन। महाभारत युद्ध के बाद मैं बिल्कुल अकेला हो चुका था, न कोई लक्ष्य, न कौरवों की आवश्यकता, न पाण्डवों की आवश्यकता। जिस अवस्था में मैं तुम्हंे छोड़कर गया था, अब यह संसार मुझे वहीं से आगे की ओर बढ़ते हुये देखेगा।-मैंने कहा।
सखी, मेरे बाल रूप को, मेरे युवा रूप को, मेरे प्रेम रूप को, मेरे गीता उपदेश को यह संसार समझने लगा है। मैं सिर्फ अपना बचा शेष कार्य पूर्ण करने आया हूँ। ”नव मनुष्य और सृष्टि निर्माण“, जिसमें अब न तो पाण्डवों की आवश्यकता है न ही कौरवों की। अब तो न पाण्डव हैं न ही कौरव हैं, वे तो पिछले समय में ही मुक्त हो चुके। अब तो पाण्डव व कौरव एक ही शरीर में विद्यमान हैं। जिस किसी को देखो वह कुछ समय पाण्डव रूप में दिखता है तो अगले समय में वही कौरव रूप में दिखने लगता है। फिर वही पाण्डव रूप में दिखने लगता है। सब कुछ विवशता वश एकीकरण की ओर बढ़ रहा है। अब युद्ध कहाँ, अब तो उस एकीकरण के मार्ग को दिखाना मात्र मेरा शेष कार्य हैं। और इस कार्य में मैं बिल्कुल अकेला, निःसंग, न कोई मेरे लिए जीवन की कामना करने वाला, न ही कोई मेरी मृत्यु की कामना करने वाला, न ही मुझसे मिलने की चेष्टा करने वाला, न ही मुझसे कुछ सुनने वाला, न मुझे कुछ सुनाने वाला और न ही गोपीयाँ हैं। दर असल मैं मृत ही पैदा ही हुआ था, एक मरा हुआ जीवित मनुष्य, यही मेरा इस जीवन का रूप था। और मेरे इस जीवन को संसार बुढ़े श्रीकृष्ण के रूप में याद करेगा जो मुझ परमात्मा के पूर्ण कार्य का भाग दो होगा, जिसे लोगों ने देख व जान नहीं पाया था। आज मैं बहुत कुछ बताना चाहता हूँ सखी क्योंकि तुम्हारे सिवा मुझे कौन सुनता ही था और कौन समझता ही था, और कौन विश्वास ही करता था।-मैं बोलता जा रहा था।
सखी, अब गोपीयाँ भी मेरे साथ नहीं, क्योंकि अब उन्हें हृदय से निकली उस वंशी की मधुर तान समझ में नहीं आती, न ही उस पर सारे बंधनों को तोड़कर नाचना आता है। जिस प्रकार आत्मा की उपस्थिति में प्रकृति नाचती है, उसी प्रकार अब तो मनुष्यों ने आत्मा के स्थान पर करेंसी (मुद्रा) बना लिया है जिसकी उपस्थिति में ही ये आधुनिक प्रकृति के अंश रूपी गोपीयाँ नाचती है। और इसलिए ही ये भोग की वस्तु बनती जा रही हैं। इसके जिम्मेंदार भी वे स्वयं ही है। सखी स्त्री हो या पुरूष सभी को सार्वभौम आत्मा से जुड़कर हृदय और बुद्धि के तल पर ही जीना चाहिए। शरीर और आवश्यकता के तल पर जीने से भोग ही होता है, समभोग नहीं। सार्वभौम आत्मा से जुड़कर हृदय और बुद्धि के तल पर जीने से शरीर की स्वस्थता और दीर्घायु भी प्राप्त होती है।
परन्तु तुम तो पूर्ण थे, फिर भी तुम मुक्त नहीं हुये।-द्रौपदी ने कहा।
सखी, मैं मुक्त कहाँ हो पाया। मुक्त तो वे लोग हुये जिनकी इच्छायें पूर्ण हुईं। तुम्हारी भी इच्छा पूर्ण नहीं हो पायी इसलिए तुम भी मुक्त नहीं हो पायी और मेरी भी इच्छा पूर्ण नहीं हुई इसलिए मैं भी मुक्त नहीं हो पाया। मेरे शरीर त्यागने के समय तुम मेरे पास थी और मैं चाहकर भी तुमसे नहीं बताया कि मेरी इच्छा क्या थी क्योंकि इससे तुम्हें दुःख होता। मैं पूर्ण परमात्मा पूर्णावतार सृष्टि करने के उद्देश्य से धरती पर अवतरित हुआ था। सखी, पूर्ण होने के बावजूद भी जब परमात्मा शरीर में होता है तब वह भी अन्य मनुष्य और प्रकृति द्वारा उत्पन्न परिस्थितियों से भी विवश हो जाता है। उस समय मेरे सामने दो स्थितियाँ ऐसी आयी, जिसके आगे मैं विवश हुआ और मैं पूर्ण होते हुये भी अपूर्ण हो गया, फलस्वरूप मुझे फिर आना पड़ा। पहला, मेरा अनुमान था कि महाभारत युद्ध शीघ्र ही समाप्त हो जायेगा और समस्या हल हो जायेगी। फिर मैं दोनों पक्षों के साथ मिल-मिलाकर, ज्ञान, कर्मज्ञान की शिक्षा से नव मनुष्य व सृष्टि निर्माण का कार्य प्रारम्भ करूँगा। परन्तु हो गया इसका उल्टा, महाविनाश। फिर मैं किसे शिक्षा देता। दूसरा, यह कि जो शिक्षा मुझे युद्ध के उपरान्त देनी थी, वह योद्धा अर्जुन के युद्ध क्षेत्र में शस्त्र रख देने के कारण मुझे ज्ञान, कर्मज्ञान में से अधूरी शिक्षा केवल ज्ञान को अर्जुन को देने पड़े शेष कर्मज्ञान की शिक्षा के लिए कोई शेष योग्य बचा ही नहीं। सखी, ”गीता“ में मैंने सिर्फ इतना ही तो बताया था कि प्रकृति के तीन गुणों सत्व, रज और तम से मुक्त होकर ही मुझ परमात्मा को जाना जा सकता है। अब ”विश्वशास्त्र“ से मैं ये बताने आया हूँ कि परमात्मा को जान लेने के बाद संसार में कर्म कैसे किया जाता है, जो परमात्मा द्वारा सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में क्रियाशील है। यही कर्मज्ञान है और जो कुछ भी मैंने गीता में कहा था उसका दृश्य रूप है।-मैं बोलता गया।
तुम नहीं जानती सखी, ये स्थिति मेंरे लिए कितनी विवशतापूर्ण थी। क्या पितामह भीष्म ज्ञानी नहीं थे, क्या गुरू द्रोणाचार्य, कृपाचार्य, महाराज धृतराष्ट्र, शकुनि, कर्ण ज्ञानी नहीं थे। सब ज्ञानी थे परन्तु सभी, मनुष्य और प्रकृति द्वारा उत्पन्न परिस्थितियों से विवश थे। सखी, युद्ध में योद्धा को कभी भी हृदय की नहीं सुननी चाहिए। तुम्हारा पति और मेरा सखा ही नहीं बल्कि अर्जुन मेरी बहन सुभद्रा का भी पति था, और युद्ध क्षेत्र में मैं उसका सारथी भी था। यह सब इसलिए ही हुआ था क्योंकि मैं अर्जुन के हृदय को जानता था और युद्ध की अनिवार्यता को भी, फिर भी वह युद्ध क्षेत्र में शस्त्र रखकर मुझे विवश कर दिया, और मुझे अपनी सारी ज्ञान शक्ति उस पर खर्च करनी पड़ी जो मेरी योजना थी ही नहीं। यह ज्ञान शक्ति भी मैंने उसे अकेले में ले जाकर इसलिए कहा क्योंकि अन्य कोई उसे भ्रमित न कर सके।-मैंने कहा।
सखा, अगर फिर भी अर्जुन युद्ध के लिए न मानता तो क्या होता।-द्रौपदी ने कहा।
तो मैं अर्जुन का ही वध कर देता, क्योंकि यह भी मेरी विवशता ही होती। मैंने भी अनेकों युद्ध लड़े थे, सखी। परन्तु एक योद्धा की तरह, कहीं भी मैंने हृदय की ओर नहीं देखा। क्या कंस मेरे मामा नहीं थे। लोग यह समझते हैं कि मैंने युद्ध के डर से मथुरा छोड़ा था परन्तु मैं तुम्हंे बताना चाहता हूँ कि मैं युद्ध से नहीं बल्कि गोपियों के डर से मथुरा छोड़ा था। ये गोपियाँ मेरे दिल पर युद्ध कर बार-बार मुझे परास्त कर रही थीं, और मैं पल-पल कमजोर होता जा रहा था। हृदय का भाव जब बढ़ता है तब कर्म कमजोर पड़ जाता है सखी। इसलिए ही मैंने मथुरा छोड़ा था और फिर कभी नहीं गया। जाते-जाते गोपियों से मैंने अवश्य कहा था कि जिसे द्वारिका चलना हो चले परन्तु कोई नहीं आया, यह गोपियों के प्रेम की परीक्षा ही थी। अब कोई आत्मा पर विश्वास नहीं करता सभी शरीर पर ही विश्वास करते हैं जबकि मनुष्य की समस्त अभिव्यक्ति उसी आत्मा के कारण ही प्रकाशित हो रही होती है।-मैं लगातार बोलता जा रहा था।
सखी, जब परमात्मा शरीर में पूर्ण रूप से प्रकाशित होता है तब भी वह शरीर के माध्यम से ही होता है। इसलिए बहुत से मनुष्य उस पर विश्वास करते हैं, वहीं बहुत से मनुष्य विश्वास नहीं भी करते हैं। इसलिए उस पूर्ण परमात्मा को अपनी उपस्थिति बताने के लिए कर्म करने पड़ते हैं। अगर प्रारम्भ में ही सभी विश्वास कर लें तो युद्ध कैसा और महाभारत क्यों होता। परन्तु इस बार ऐसा कुछ नहीं होगा। इस बार मैं नहीं मेरा अपना रूप, मेरा शास्त्र-”विश्वशास्त्र“ अनन्त काल तक युद्ध करेगा। जिस प्रकार मेरी ”गीता“ आज तक युद्ध कर रही है। महाभारत युद्ध में मेरे ज्ञान के विश्वरूप योगेश्वर रूप में सभी स्थित थे और अब वर्तमान में मेरे कर्मज्ञान के विश्वरूप भोगेश्वर रूप में सभी शास्त्र, दर्शन, महापुरूष, विचारक समाहित होते चले जायेंगे। और मुझे किसी भी प्रकार की परीक्षा देने की आवश्यकता ही नहीं होगी क्योंकि जब तक मनुष्य इसे समझने की कोशिश करेंगे तब तक मैं अपना काम कर चुका रहूँगा और यह युद्ध किसी पर निर्भर भी नहीं है क्योंकि इस बार समाज स्वयं इसके लिए तैयार है और उसकी विवशता भी है। सखी, इस संसार में कोई विश्वगुरू, विश्वगुरू नहीं बना सकता। सिर्फ कोई गुरू ही विश्वगुरू बना सकता है और गुरू तो एक मात्र परमात्मा ही है। मैं ही हूँ। मेरा सार्वभौम रूप ही है। और इस प्रकार मैं पूर्ण पुरूष और तुम पूर्ण प्रकृति के रूप में सदैव इस संसार के सर्वोच्च ऊँचाई पर स्थित रहेंगे।-मैं धारा प्रवाह बोलता जा रहा था।
परन्तु श्रीकृष्ण ये सब तो तुम कर रहे हो, इससे मुझे कैसे मुक्ति मिलेगी ओर मैं कैसे सर्वोच्च हूँ।-द्रौपदी बोली।
सखी, यह शरीर पाँच तत्वों से बना है। तुमने पाँच पतियों को धारण कर एकाकार किया था और प्रकृति के गुणों की सर्वोच्च अभिव्यक्ति थी। संसार में तो स्त्रियाँ एक पति को भी संभाल सकने का गुण नहीं रख पा रही है फिर वे तुम से तुलना के योग्य कहाँ हैं। वे तो तुम्हारी अंश मात्र हैं। कहाँ अंश और कहाँ पूर्ण प्रकृति। अंश का लक्ष्य पूर्णता को प्राप्त करना होता है। अन्यथा जीवन यात्रा चलती रहती है। अभी तो पुरूष की पूर्णता का क्रम चल रहा है। उसके बाद प्रकृति की पूर्णता का क्रम चलेगा, और उस यात्रा के अन्त में तुम पहले से ही बैठी मिलोगी। प्रकृति की पूर्ण यात्रा के अन्तिम छोर का स्थान खाली नहीं हैं, उस पर तुम पहले ही आदर्श रूप में विराजमान हो। जब अंश प्रकृति की पूर्णता की यात्रा समाप्त होगी तब तुम्हारे जीवन से शिक्षा ग्रहण कर तुम्हें अपने आदर्श के रूप में देखेंगे। परन्तु सखी, तुमने यह कैसे जाना कि मैं हस्तिनापुर अवश्य आउँगा।-मैं बोला।
सखा, जो पूर्ण होता है, वह पूर्णता का ही निर्माण करता है। तुमने जो कुछ भी किया वह अंश रूप में किया, किसी को प्रेम दिया, किसी को सखा बनाया, किसी को धन दिया, किसी को ज्ञान दिया, किसी को बल दिया इत्यादि अंश रूप में ही दिया परन्तु किसी को भी अपने जैसा नहीं बनाया। इससे ही मैंने जाना कि उस पूर्णता को पूर्ण करने तुम अवश्य आओगे और इस क्रम में तुम्हारा हस्तिनापुर आना अवश्य होगा। आखिरकार मैं तुम्हारी सखी थी, तुम्हें सदैव देखती, सुनती और समझती थी। मैं सदैव तुम्हें अपने पास अनुभव करती थी। हम सदैव साथ-साथ थे। एक समानान्तर रेखा की तरह जो कभी मिलीं नहीं परन्तु रहीं साथ-साथ।-द्रौपदी ने कहा।
सखी, जब दो समानान्तर रेखा दूर तक साथ-साथ जाती हैं, तब रेखाएँ तो जानती हैं कि हम एकाकार नहीं हैं परन्तु दूर से देखने वाला व्यक्ति उसे एकाकार होते ही देखता है। सखी, पितामह भीष्म जब युद्ध क्षेत्र में शरशैया पर लेटे थे तो मैं उनसे मिलने गया था। उन्होंने मुझसे पूछा था। श्रीकृष्ण, मैं पिछले 71 जन्मों में झाँककर देख चुका हूँ और मैंने देखा कि मैंने ऐसी कोई गलती नहीं की है जिससे मैं इस दण्ड का भागीदार बनूँ तो तुम बताओ श्रीकृष्ण ऐसा मेरे साथ क्यों हुआ। तब मैंने कहा था सखी, पितामह, आप 72वें जन्म में जाकर देखें, आप एक तितली को काँटा चुभोये थे और इतने जन्मों के बाद वह अनेक काँटों में ब्याज के रूप में बढ़ चुका है, जो अब आपको तीर के रूप में चुभे हुये हैं। तब उन्होंने संतुष्ट होकर कहा था-मान गये द्वारिकाधीश, तुम योगेश्वर परमात्मा हो, तुम्हें प्रणाम। और वे संतोष से लेट गये थे। सखी, तुम बताओ मैंने ऐसा क्यों कहा।
सखा, पितामह 71 जन्म को जानते थे कि नहीं ये तो वही जान सकते हैं। और आप उनके 72वें जन्म को जानते थे कि नहीं, ये भी आप ही जान सकते हैं। दोनों बातंे व्यक्तिगत रूप से प्रमाणित हैं न कि सार्वजनिक रूप से। परन्तु समाज आप दोनों को ही सार्वजनिक रूप से ज्ञानी तो समझती ही है। सखा इस समय भी आपकी उपस्थिति को लोग कैसे जान पायेंगे-द्रोपदी ने कहा।
सखी, तुम्हारे उत्तर से अब यह स्पष्ट हो चुका है कि तुम अब पूर्ण हो चुकी हो। अब तुममें और मुझमें कोई अन्तर नहीं है। तुममें, मैं और मुझमें, तुम। आदि में, मैं और अन्त में भी, मैं। और अब, सभी में, मैं और मुझमें, सभी। सखी, व्यक्ति, समाज, राज्य की आवश्यकताओं को देखो, भविष्यवक्ताओं की भविष्यवाणीयों को देखो, ये सब मुझे पुकार रही हैं। ग्रहों के चालों, सूर्य व चन्द्र ग्रहण को देखो, ये सब मेरी उपस्थिति को बता रही हैं। मैं आया था, मैंने अपना कार्य पूर्ण किया मैं जा भी रहा हूँ, तुमसे एकाकार होकर। मैं मुक्त था, मैं मुक्त हूँ, मैं मुक्त ही रहूँगा। आओ सखी चलें। यह पूर्ण पुरूष और पूर्ण प्रकृति का महामिलन है। मैं ही योगेश्वर हूँ, मैं ही भोगेश्वर हूँ। आदि में योगेश्वर हूँ और अन्त में भोगेश्वर हूँ। मैं प्रकृति को नियंत्रित कर व्यक्तिगत प्रमाणित अदृश्य रूप से विकसित होकर सार्वजनिक प्रमाणित दृश्य जगत में व्यक्त होता हूँ। अब ईश्वर भी अपने कत्र्तव्य से मुक्त है और प्रकृति भी। जो ईश्वर है वही प्रकृति है। जो प्रकृति है वही ईश्वर है। दोनों एक-दूसरे के अदृश्य और दृश्य रूप हैं। प्रत्येक में दोनों विद्यमान हैं। यही अर्धनारीश्वर है।
ध्यान रहे कि 12 ज्येतिर्लिग में से सोमनाथ तीर्थ (गुजरात, भारत) के ”भीड़िया तीर्थ“ में एक शिलालेख पर लिखा है कि-”भगवान श्रीकृष्ण ई0पू0 3102 चैत्र शुक्ल प्रतिपदा (शुक्रवार, 18 फरवरी) के दिन और मध्यान्ह के बाद 2 बजकर 27 मिनट 30 सेकण्ड के समय इस हिरण्य के पवित्र तक से प्रस्थान किये।“ जिस दिन भगवान श्रीकृष्ण धराधाम से स्वधाम गए। उसी दिन से धरती पर कलियुग का आगमन हो गया और धीरे-धीरे इसका प्रभाव बढ़ने लगा ।
रज मार्ग से-
स्वामी विवेकानन्द और श्री लव कुश सिंह ”विश्वमानव“
ब्रह्मलीन श्री श्री 1008 सत्योगानन्द ”भुईधराबाबा“ (भगवान श्रीरामकृष्ण के पुनर्जन्म) द्वारा श्री लव कुश सिंह ”विश्वमानव“ को धर्मक्षेत्र के भोग द्वारा व्यक्त करने के लिए सत्यकाशी क्षेत्र के गोपालपुर, छोटा मीरजापुर, मीरजापुर (उ0प्र0)-231305 स्थान पर आयोजित सदी के सर्र्वािधक लम्बे यज्ञ-विष्णु महायज्ञ और ज्ञान यज्ञ (दि0 वृहस्पतिवार, 13 नवम्बर 1997 से सोमवार, 22 जून 1998 तक) स्वामी विवेकानन्द के शिकागो वकृतता के दिन उनके उम्र 30 वर्ष 7 माह 29 दिन का उम्र, उनके सम्मान में श्री लव कुश सिंह ”विश्वमानव“ (स्वामी विवेकानन्द के पुनर्जन्म व पूर्ण ब्रहम की अन्तिम कड़ी) द्वारा पूर्ण करने के उपरान्त अपने ही विचार व संकल्प-”विश्वबन्धुत्व के स्थायी स्थापनार्थ सार्वभौव धर्म का निर्माण“ के सूत्रों की व्याख्या श्री लव कुश सिंह ”विश्वमानव“ द्वारा व्यक्तिगत रूप से ब्रह्यलीन श्री श्री 1008 सत्ययोगानन्द के सहयोगी श्री श्री 108 बाबा दीपनाथ और अन्य प्रबुद्व व्यक्तियों के समक्ष की गयी थी।
सृष्टि का प्रारम्भ एकात्म-ज्ञान (ब्रह्मा) ही है, यह मानव ने कर्म द्वारा धीरे-धीरे ज्ञान की ओर अग्रसर होकर जाना। सत्य आत्मसात् और सहर्ष स्वीकार करने का विषय होता है। इससे युक्त होकर भगवान श्रीराम ने धर्म स्थापना की। एकात्म ज्ञान (ब्रह्मा) से जीवन नहीं चलता बल्कि एकात्म ज्ञान सहित एकात्म कर्म (विष्णु) से जीवन चलता है। इससे युक्त होकर भगवान श्री कृष्ण ने धर्म स्थापना की। साथ ही एकात्म ज्ञान सहित एकात्म कर्म आधारित व्यक्तिगत प्रमाणित ”विश्वशास्त्र“ साहित्य ”गीता या गीतोपनिशद्“ उपलब्ध हुई। एकात्म ज्ञान सहित एकात्म कर्म (विष्णु) से व्यक्तिगत (व्यष्टि) जीवन चल सकता है परन्तु त्रिलोक (समष्टि या सार्वजनिक या संयुक्त या विश्व) नहीं चल सकता। बल्कि एकात्म ज्ञान एवम् एकात्म कर्म सहित एकात्म-ध्यान (शंकर) द्वारा त्रिलोक चलता है। इससे युक्त होकर भगवान श्रीरामकृष्ण ने नरेन्द्र नाथ दत्त (स्वामी विवेकानन्द का पूर्व नाम) को सर्वस्व त्याग द्वारा पूर्णज्ञान दिये। नरेन्द्र नाथ दत्त द्वारा श्रीरामकृष्ण परमहंस से शरीर त्याग के अन्तिम दिनों मंे पूछे जाने पर कि आप कौन हैं। उन्होंने कहा-”जो श्रीराम है, जो कृष्ण है, अब दोनों ही इस शरीर में है। अर्थात् ”जो एकात्म ज्ञान है, जो एकात्म ज्ञान सहित एकात्म कर्म है अब दोनों ही इस शरीर में है“। यह वार्ता श्रीराम कृष्ण मिशन के साहित्य ”स्वामी विवेकानन्द के संग में“ के पृष्ठ संख्या 54 में लिखित है तथा फिल्म ”स्वामी विवेकानन्द“ में फिल्मांकन भी किया गया है। स्वामी विवेकानन्द इस पूर्णज्ञान को 100 वर्ष पूर्व ही प्राप्त कर चुके थे लेकिन उसकी स्थापना नहीं कर सकते थे क्योंकि उस वक्त न तो भारत स्वतन्त्र था न ही समष्टि आधारित विश्व स्तरीय संगठन-संयुक्त राष्ट्र संघ का ही जन्म हुआ था परिणामस्वरूप उस समय के लिए जितना कार्य आवश्यक था पूर्ण करके अन्तिम इच्छा, सूक्ष्म शरीर के रूप में रही और समयानुसार आत्मा के दृश्य रूप और बहुरूप में प्रकाशित एक सत्ता-श्री लव कुश सिंह ”विश्वमानव“ के रूप में अब व्यक्त हुई है। चूँकि विष्णु का स्वरूप एकात्म ज्ञान और एकात्म कर्म से सम्बन्धित है इसलिए वे (विष्णु), ब्रह्मा और विष्णु के संयुक्त रूप है। चूँकि शंकर का स्वरूप एकात्म-ज्ञान और एकात्म-कर्म सहित एकात्म-ध्यान से सम्बन्धित है इसलिए वे शंकर, विष्णु और शंकर के संयुक्त रूप है। चूँकि शंकर, कर्मवेद: प्रथम, अन्तिम तथा पंचमवेद के अधिकारी है और विष्णु धर्म स्थापना के अधिकारी है। इसलिए श्री लव कुश सिंह ”विश्वमानव“ की उत्पत्ति का रूप इन दोनों का संगम रूप है। जिसके सम्बन्ध में स्वामी विवेकानन्द के ये दो कथन-”सम्भव है काल के प्रवाह में, कभी कभी ऐसा भास होता है कि वेदान्त का महाप्रकाश अब बुझा और जब ऐसी स्थिति आती है, तब भगवान मानवदेह धारण कर, पृथ्वी पर आते है और फिर धर्म में पुनः एक ऐसी शक्ति ऐसे जीवन का संचार हो जाता है कि वह फिर एकाध युग तक अदम्य उत्साह से आगे बढ़ता जाता है। आज वही शक्ति और जीवन उसमें फिर आ गया है। ”(विवेकानन्द जी के सन्निध्य में“ पृष्ठ-6) और मुझे अपनी मुक्ति की इच्छा अब बिल्कुल नहीं। सांसारिक भोग तो मैंने कभी चाहा नहीं। मुझे सिर्फ अपने यन्त्र को मजबूत और कार्योपयोगी देखना है और फिर निश्चित रूप से यह जानकर कि कम से कम भारत में मैंने मानव जाति के कल्याण का एक ऐसा यंत्र स्थापित कर दिया है, जिसका कोई शक्ति नाश नहीं कर सकती, मैं सो जाउँगा और आगे क्या होने वाला है, इसकी परवाह नहीं करूँगा। मेरी अभिलाषा है कि मैं बार बार जन्म लँू और हजारों दुःख भोगता रहूँ, ताकि मैं उस एक मात्र सम्पूर्ण आत्माओं के समिष्टरूप ईश्वर की पूजा कर सकूँ जिसकी सचमुच सत्ता है और जिसका मुझे विश्वास है। सबसे बढ़कर सभी जातियों और वर्गों के पापी और दरिद्र रूपी ईश्वर ही मेंरा विशेष उपास्य है। ”(स्वामी विवेकानन्द का मानवतावाद“ पृष्ठ संख्या-38) स्वंय प्रमाण है।
संयुक्त राष्ट्र संघ ;न्ण्छण्व्द्ध द्वारा स्वामी विवेकानन्द के जीवन काल की भाँति श्री लव कुश सिंह ”विश्वमानव“ के जीवन काल में भी विश्व शान्ति के लिए धर्माचार्यो व राष्ट्राध्यक्षों का सहस्त्राब्दि सम्मेंलन क्रमशः 28-31 अगस्त 2000 व 5-7 सितम्बर, 2000 को न्यूर्याक में आयोजित किया गया था। जबकि स्वामी विवेकानन्द 11 सितम्बर 1893 को शिकागो के विश्व धर्म संसद में ही धर्म का विवादमुक्त स्वरूप और हिन्दू धर्म की सार्वभौमिकता को व्यापकता से व्यक्त कर चुके थे। परिणामस्वरूप संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा आयोजन की कोई आवश्यकता न थी। आवश्यकता यदि है तो सार्वभौम धर्म-विश्व धर्म के निर्माण के लिए धर्म द्वारा विश्व प्रबन्ध अर्थात लोकतन्त्र में लोक या गण या जन का स्पष्ट और विवादमुक्त स्वरूप व्यक्त करते हुये उसके अनुसार तन्त्रों की स्थापना का। जिसे विश्व के सबसे बड़े विश्वमन संसद अर्थात विश्व के सबसे बड़े लोकतन्त्र आधारित संसद दिल्ली (भारत) में प्रस्तुत किया जाना चाहिए। प्रश्न हो सकता है कि क्या भारत सहित विश्व का एक नागरिक भारत सहित विश्व के कल्याणार्थ स्वस्थ लोकतंत्र, स्वस्थ समाज, स्वस्थ उद्योग सहित पूर्ण मानव के निर्माण का महान उद्देश्य का वर्तमान व्यवस्थानुसार हल जो सत्य (न कि मत या विचार) पर आधारित हो, को संसद में प्रस्तुत और संसद को सम्बोधित करने का अधिकार नहीं रखता?
संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा धर्माचार्यो व राष्ट्राध्यक्षों के सहस्त्राब्दि सम्मेंलन के पूर्व (6 जून, 2000) को ही संयुक्त राष्ट्र महासचिव श्री कोफी अन्नान व भारत के तत्कालीन राष्ट्रपति श्री के0 आर0 नारायणन को पूर्ण मानव निर्माण की तकनीकी ॅब्ड.ज्स्ड.ैभ्ल्।डण्ब् और मन (मानव संसाधन) का विश्वमानव के आविष्कार की सूचना पंजीकृत डाक से लव कुश सिंह ”विश्वमानव“ द्वारा प्रेशित की जा चुकी थीं। जिसके प्रतिक्रिया स्वरूप महासचिव श्री कोफी अन्नान ने राष्ट्राध्यक्षों को सम्बोधित अपने वक्तव्य में ये वाक्य भी कहें-”भूमण्डलीय चुनौति जो मिलकर कार्य करने के लिए विवश करता है, हम सामना कर सकेंगे यदि यह आर्थिक और सामाजिक स्तर पर सत्य हो। लेकिन भूमण्डलीय क्रिया का प्रारम्भ कहीं निर्मित हो चुका है और यदि संयुक्त राष्ट्रसंघ में नहीं तो कहाँ? मैं जानता हूँ स्वयं की एक घोषणा कम महत्व रखती है परन्तु दृढ़ प्रतिज्ञा युक्त एक घोषणा और यथार्थ लक्ष्य, सभी राष्ट्रो के नेताओं द्वारा निश्चित रूप से स्वीकारने योग्य, अपने सत्ताधारी की कुशलता का निर्णय के लिए एक पैमाने के रूप में विश्व के व्यक्तियों के लिए अति महत्व का हो सकता है। और मैं आशा करता हूँ कि यह कैसे हुआ देखने के लिए सम्पूर्ण विश्व पीछे होगा।“ (वक्तव्य का अंश, पूर्ण वक्तव्य ”द टाइम्स आँफ इण्डिया“ नई दिल्ली, 7 सितम्बर, 2000 को अंग्रेजी में प्रकाशित)।
भारत तथा विश्व में यह अहंकार की प्राथमिकता का प्रभाव ही है कि एक तरफ व्यक्ति स्तर से लेकर विश्व स्तर तक के कल्याण व शक्ति के एकीकरण के लिए विश्वमानक-शून्य श्रृंखला तथा पूर्ण मानव निर्माण की तकनिकी ॅब्ड.ज्स्ड.ैभ्ल्।डण्ब् का आविष्कार हो चुका है तथा दूसरी तरफ महासचिव श्री कोफी अन्नान उसकी सूचना भी दे चुके है परन्तु आज भी विश्व कल्याण का उद्देश्य सामने रखकर ऐसे क्रियाकलाप व आयोजन संचालित हो रहे है जिसका सम्बन्ध विश्व कल्याण से है ही नहीं। फलस्वरूप संकीर्ण मानसिकता आधारित आतंकवादी गतिविधियाँ विश्व विकास के विरूद्व सक्रिय होती जा रही है। जिसके कारण विश्व चिंतक गण अब वैश्विक एकता, सुरक्षा, शान्ति, विकास पर सोचने को विवश होते जा रहे है। सार्वभौम सत्य-सिद्वान्त आधारित यह आविष्कार विचार आधारित नहीं बल्कि सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में व्याप्त सार्वभौम नियम है जो स्थापना के लिए प्रकृति द्वारा ही मानव को विवश कर देने में सक्षम है। सन् 1998 से ही श्री लव कुश सिंह ”विश्वमानव“ इस आविष्कार का प्रकाशन व वितरण इसलिए रोक रखे थे क्योंकि व्यक्ति व विश्व जब तक समस्या ग्रस्त नहीं होता तब तक वह हल पर चिन्तन भी नहीं करता चाहे वह पहले से ही उपलब्ध क्यों न हो।
श्री लव कुश सिंह ”विश्वमानव“ यह भलि-भांति जानते थे और जानते है कि सहस्त्राब्दि विश्व सम्मेंलन हो या अन्य कोई इस प्रकार का सम्मेंलन, चाहे उसमें भारत व विश्व से कितने भी विद्वान क्यों न शामिल हों परन्तु विश्व-कल्याण का यथार्थ लक्ष्य व मार्ग बिना ब्रह्माण्डीय नियमों को आत्मसात् किये प्राप्त नहीं किया जा सकता क्योंकि समय की गति मानवीय और ब्रह्माण्डीय नियमों के एकीकरण की ओर है। और वह एक ही है तथा वह उनके द्वारा आविष्कृत होकर व्यक्त हैं। अब चूंकि मनुष्य धीरे-धीरे विवश हो रहा है इसलिए इस आविष्कार को श्री लव कुश सिंह ”विश्वमानव“ के मार्गदर्शन में प्रकाशित किया जा रहा है। विश्व के सबसे बड़े विश्वमन व लोकतन्त्र आधारित भारतीय संसद को चाहिए कि श्री लव कुश सिंह ”विश्वमानव“ को विश्वमन संसद को सम्बोधित करने के लिए आमंत्रित कर सार्वजनिक सम्मान दें। जिसके वे पूर्ण योग्य भी हैं। साथ ही उनकी अन्तिम इच्छा को यथाशीघ्र पूर्ण करते हुये व्यापक सुरक्षा एवम् संसाधन उपलब्ध कराकर राष्ट्र निर्माण में अधिकतम उपयोंग करें। क्योंकि इसके अलावा कोई मार्ग भी नहीं है। ”वसुधैव-कुटुम्बकम्“, ”एकात्म मानवतावाद“, ”बहुजन हिताय-बहुजन सुखाय“, ”सर्वेभवन्तु-सुखिनः“ सहित अपने ही विचार ”विश्व-बन्धुत्व“ के स्थायी स्थापनार्थ ”एकात्म कर्मवाद“ पर आधारित इस आविष्कार को लेकर समयानुसार अन्तिम समन्वयाचार्य और स्वामी विवेकानन्द के पुनर्जन्म के रूप में श्री लव कुश सिंह ”विश्वमानव“ का अवतरण समाज के लिए समाचार का विषय है जिसे पत्रकारिता का अपनी स्वस्थता के लिए शीघ्रताशीघ्र ही मुख्य समाचार बनाना चाहिए अन्यथा यह पत्रकारिता के लिए गैर जिम्मेंदार होने का प्रतीक ही बनेगी। पत्रकारिता जन या गण या लोक के इसी कार्य के लिए लोकतन्त्र का चैथा स्तम्भ कहलाता है।
बहरहाल, व्यष्टि मानव (व्यक्तिगत) तथा समष्टि मानव (संगठन/समिति/विश्व इत्यादि संयुक्तमन) के लिए ज्ञान व कर्मज्ञान आधारित व कार्य जो समयानुसार न होने के कारण (क्योकि उस वक्त न तो भारत स्वतन्त्र था न ही संयुक्त राष्ट्र संघ का ही गठन हुआ था) स्वामी विवेकानन्द न कर सके वह अब उनके पुनर्जन्म व सार्वजनिक प्रमाणित पूर्णावतार श्री लव कुश सिंह ”विश्वमानव“ ने पूर्ण किया। श्री लव कुश सिंह ”विश्वमानव“, स्वामी विवेकानन्द के पुनर्जन्म हैं या नहीं इसके लिए इन बिन्दुओं पर ध्यान देने की बात है-”शास्त्र कहते है कि कोई साधक यदि एक जीवन में सफलता प्राप्त करने में असफल होता है तो वह पुनः जन्म लेता है और अपने कार्यो को अधिक सफलता से आगे बढ़ाता है। (योग क्या है, श्राम कृष्ण मिशन, पृ0 83), ”एक विशेष प्रवृत्ति वाला जीवात्मा ”योग्य योग्येन युज्यते“ इस नियमानुसार उसी शरीर में जन्म ग्रहण करता है जो उस प्रवृत्ति के प्रकट करने के लिए सबसे उपयुक्त आधार हो। यह पूर्णतया विज्ञान संगत है, क्योंकि विज्ञान कहता है कि प्रवृत्ति या स्वभाव अभ्यास से बनता है और अभ्यास बारम्बार अनुष्ठान का फल है। इस प्रकार एक नवजात बालक की स्वाभाविक प्रवृत्तियों का कारण बताने के लिए पुनः पुनः अनुष्ठित पूर्व कर्मो को मानना आवश्यक हो जाता है और चूंकि वर्तमान जीवन में इस स्वभाव की प्राप्ति नहीं की गयी, इसलिए वह पूर्व जीवन से ही उसे प्राप्त हुआ है। (हिन्दूधर्म, श्राम कृष्ण मिशन, पृष्ठ-6) ज्ञातव्य हो कि श्री लव कुश सिंह ”विश्वमानव“ द्वारा व्यक्त सभी शास्त्र-साहित्य उनके इस जीवन का न तो शैक्षणिक समय का विषय रहा है न ही किसी ने उनका मार्ग दर्शन ही किया है। यहाँ स्वामी विवेकानन्द के शब्द भी सोचने योग्य है-”सम्भवतः यह अच्छा होगा कि मैं अपने इस शरीर से बाहर निकल आउँ और इसे जीर्ण वस्त्र की भाँति उतार फेकूँ, किन्तु फिर भी मैं कार्य करते रहने से रूकूँगा नहीं, मानव समाज में मैं सर्वत्र प्रेरणा प्रदान करता रहूँगा जब तक कि संसार यह भाव आत्मसात् न कर लें कि वह ईश्वर के साथ एक है। (राष्ट्र को आहवान, श्राम कृष्ण मिशन, पृष्ठ 23)।
तम मार्ग से-
रावण और श्री लव कुश सिंह ”विश्वमानव“
रावण: परिचय
रावण श्रीरामायण का एक केंद्रीय प्रतिचरित्र है। रावण लंका का राजा था। वह अपने दस सिरों के कारण भी जाना जाता था, जिसके कारण उसका नाम दशानन (दश त्र दस, आनन त्र मुख) भी था। किसी भी कृति के लिये नायक के साथ ही सशक्त खलनायक का होना अतिआवश्यक है। श्रीरामकथा में रावण ऐसा पात्र है, जो श्रीराम के उज्ज्वल चरित्र को उभारने काम करता है। किंचित मान्यतानुसार रावण में अनेक गुण भी थे। वह एक कुशल राजनीतिज्ञ, महापराक्रमी, अत्यन्त बलशाली, अनेकों शास्त्रों का ज्ञाता प्रकान्ड विद्वान पंडित एवं महाज्ञानी था। रावण के शासन काल में लंका का वैभव अपने चरम पर था इसलिये उसकी लंकानगरी को सोने की लंका अथवा सोने की नगरी भी कहा जाता है। वर्तमान श्रीलंका के प्राचीन तमिल पोर्ट त्रिंकोमाली में रावण की मूर्ति आज भी स्थापित है।
रावण के दस सिर
रावण के दस सिर होने की चर्चा श्रीरामायण में आती है। वह कृष्णपक्ष की अमावस्या को युद्ध के लिये चला था तथा एक-एक दिन क्रमशः एक-एक सिर कटते हैं। इस तरह दसवें दिन अर्थात् शुक्लपक्ष की दशमी को रावण का वध होता है। श्रीरामचरितमानस में यह भी वर्णन आता है कि जिस सिर को श्रीराम अपने बाण से काट देते हैं पुनः उसके स्थान पर दूसरा सिर उभर आता था। विचार करने की बात है कि क्या एक अंग के कट जाने पर वहाँ पुनः नया अंग उत्पन्न हो सकता है? वस्तुतः रावण के ये सिर कृत्रिम थे-आसुरी माया से बने हुये। मारीच का चाँदी के बिन्दुओं से युक्त स्वर्ण मृग बन जाना, रावण का सीता के समक्ष श्रीराम का कटा हुआ सिर रखना आदि से सिद्ध होता है कि राक्षस मायावी थे। वे अनेक प्रकार के इन्द्रजाल (जादू) जानते थे। तो रावण के दस सिर और बीस हाथों को भी कृत्रिम माना जा सकता है। कुछ विद्वान मानते हैं कि रावण के दस सिरों की बात प्रतीकात्मक है-उसमें दस मनुष्यों की जितनी बुद्धि थी और दस आदमियों का बल था!
रावण द्वारा भगवान शंकर की स्तुति
उसने भगवान महादेव की सुंदर स्तुती की ”जटाटवीगलज्जलप्रवाहपावितस्थले गलेऽवलम्ब्य लम्बितां भुजङ्गतुङ्गमालिका्... भोलेनाथ ने स्तुति से प्रसन्न होके उससे कहा कि रावण यद्यपि मैं नृत्य तभी करता हूँ जब क्रोध में होता हूँ, इसलिये क्रोध में किये नृत्य को तांडव नृत्य नाम से संसार जानता है. किंतु आज तुमने अपनी इस सुंदर स्रोत से और सुंदर गायन से मेरा मन प्रसन्नता पूर्वक नृत्य करने को हो गया. रावण द्वारा रचित और गाया हुआ यह स्रोत शिव तांडव स्रोत कहलाया क्युँकि भगवान शिव का नृत्य तांडव कहलाता है परन्तु वह क्रोध में होता है लेकिन इस स्रोत में भगवान प्रसन्नता पूर्वक नृत्य करते हैं. इसके उपरांत भगवान शिव ने रावण को प्रसन्न होके चंद्रहास नामक तलवार दी, जिसके हाथ में रहने पर उसे तीन लोक में कोई यद्ध में नहीं हरा सकता था।
रावण का अत्याचार
रावण के नाम का फायदा ऊठाया दूसरे राक्षसों ने, उसके नाम पर कर वसूली, सिद्ध, संतों मुनि जनों का अपमान होने लगा। राक्षसों ने देवताओं से अपना बैर निकालने के लिये, वो कभी गायों को (पृथ्वी समझ कर कि ब्रह्मा जी के पास गयी थी, इसका भेद पूछने के लिये) और ब्राह्मणों इसलिये कि, स्वर्ग में बहुत कम देवता ही रह गये है शायद ये रूप बदल कर देवता ही ब्राह्मण हैं और संत बन के देवताओं की मदद कर रहे हैं राक्षस जहाँ तहाँ सभी को त्रास देने और मारने लगे। जिससे पृथ्वी पर भार और बढ गया लेकिन रावण ने इन सब पर ध्यान नहीं दिया।
रावण के गुण
रावण में कितना ही राक्षसत्व क्यों न हो, उसके गुणों विस्मृत नहीं किया जा सकता। ऐसा माना जाता हैं कि रावण शंकर भगवान का बड़ा भक्त था। वह महा तेजस्वी, प्रतापी, पराक्रमी, रूपवान तथा विद्वान था।
वाल्मीकि उसके गुणों को निष्पक्षता के साथ स्वीकार करते हुये उसे चारों वेदों का विश्वविख्यात ज्ञाता और महान विद्वान बताते हैं। वे अपने श्रीरामायण में हनुमान का रावण के दरबार में प्रवेश के समय लिखते हैं
अहो रूपमहो धैर्यमहोत्सवमहो द्युतिः।
अहो राक्षसराजस्य सर्वलक्षणयुक्तता।
आगे वे लिखते हैं ”रावण को देखते ही श्रीराम मुग्ध हो जाते हैं और कहते हैं कि रूप, सौन्दर्य, धैर्य, कान्ति तथा सर्वलक्षणयुक्त होने पर भी यदि इस रावण में अधर्म बलवान न होता तो यह देवलोक का भी स्वामी बन जाता।“
रावण जहाँ दुष्ट था और पापी था, वहीं उसमें शिष्टाचार और ऊँचे आदर्श वाली मर्यादायें भी थीं। श्रीराम के वियोग में दुःखी सीता से रावण ने कहा है, ”हे सीते! यदि तुम मेरे प्रति काम-भाव नहीं रखती तो मैं तुझे स्पर्श नहीं कर सकता।“ शास्त्रों के अनुसार वन्ध्या, रजस्वला, अकामा आदि स्त्री को स्पर्श करने का निषेध है अतः अपने प्रति अ-कामा सीता को स्पर्श न करके रावण शास्त्रोचित मर्यादा का ही आचरण करता है।
वाल्मीकि श्रीरामायण और श्रीरामचरितमानस दोनों ही ग्रंथों में रावण को बहुत महत्त्व दिया गया है। राक्षसी माता और ऋषि पिता की सन्तान होने के कारण सदैव दो परस्पर विरोधी तत्त्व रावण के अन्तःकरण को मथते रहते हैं।
बौद्धिक संपदा का संरक्षणदाता-रावण
रावण के ही प्रसंग में श्रीकृष्ण जुगनू का अभिमत है-”....लंकापति रावण पर विजय का पर्व अकसर यह याद दिलाता है कि रावण की सभा बौद्धिक संपदा के संरक्षण की केंद्र थी। उस काल में जितने भी श्रेष्ठजन थे, बुद्धिजीवी और कौशलकर्ता थे, रावण ने उनको अपने आश्रय में रखा था। रावण ने सीता के सामने अपना जो परिचय दिया, वह उसके इसी वैभव का विवेचन है। अरण्यकाण्घ्ड का 48वां सर्ग इस प्रसंग में द्रष्टव्य है।
उस काल का श्रेष्ठ शिल्पी मय, जिसने स्वयं को विश्वकर्मा भी कहा, उसके दरबार में रहा। उसकाल की श्रेष्ठ पुरियों में रावण की राजधानी लंका की गणना होती थी-यथेन्द्रस्यामरावती। मय के साथ रावण ने वैवाहिक संबंध भी स्थापित किया। मय को विमान रचना का भी ज्ञान था। कुशल आयुर्वेदशास्त्री सुषेण उसके ही दरबार में था जो युद्धजन्य मूर्च्छा के उपचार में दक्ष था और भारतीय उपमहाद्वीप में पाई जाने वाली सभी औषधियों को उनके गुणधर्म तथा उपलब्धि स्थान सहित जानता था। शिशु रोग निवारण के लिए उसने पुख्ता प्रबंध किया था। स्वयं इस विषय पर ग्रंथों का प्रणयन भी किया।
श्रेष्ठ वृक्षायुर्वेद शास्त्री उसके यहाँ थे जो समस्त कामनाओं को पूरी करने वाली पर्यावरण की जनक वाटिकाओं का संरक्षण करते थे-सर्वकाफलैर्वृक्षैः संकुलोद्यान भूषिता। इस कार्य पर स्वयं उसने अपने पुत्र को तैनात किया था। उसके यहाँ रत्न के रूप में श्रेष्ठ गुप्तचर, श्रेष्ठ पश्रीरामर्शदाता और कुलश संगीतज्ञ भी तैनात थे। अंतपुर में सैकड़ों औरतें भी वाद्यों से स्नेह रखती थीं।
उसके यहाँ श्रेष्ठ सड़क प्रबंधन था और इस कार्य पर दक्ष लोग तैनात थे तथा हाथी, घोड़े, रथों के संचालन को नियमित करते थे। वह प्रथमतः भोगों, संसाधनों के संग्रह और उनके प्रबंधन पर ध्यान देता था। इसी कारण नरवाहन कुबेर को कैलास की शरण लेनी पड़ी थी। उसका पुष्पक नामक विमान रावण के अधिकार में था और इसी कारण वह वायु या आकाशमार्ग उसकी सत्ता में था-यस्य तत् पुष्पकं नाम विमानं कामगं शुभ्। वीर्यावर्जितं भद्रे येन यामि विहायस्।
उसने जल प्रबंधन पर पूरा ध्यान दिया, वह जहां भी जाता, नदियों के पानी को बांधने के उपक्रम में लगा रहता था-नद्यश्च स्तिमतोदकाः, भवन्ति यत्र तत्राहं तिष्ठामि चरामि च। कैलास पर्वतोत्थान के उसके बल के प्रदर्शन का परिचायक है, वह ”माउंट लिफ्ट“ प्रणाली का कदाचित प्रथम उदाहरण है। भारतीय मूर्तिकला में उसका यह स्वरूप बहुत लोकप्रिय रहा है। बस.... उसका अभिमान ही उसके पतन का कारण बना। वरना नीतिज्ञ ऐसा कि श्रीराम ने लक्ष्मण को उसके पास नीति ग्रहण के लिए भेजा था, विष्णुधर्मोत्तरपुराण में इसके संदर्भ विद्यमान हैं।
रावण के अवगुण
वाल्मीकि रावण के अधर्मी होने को उसका मुख्य अवगुण मानते हैं। उनके श्रीरामायण में रावण के वध होने पर मन्दोदरी विलाप करते हुये कहती है, ”अनेक यज्ञों का विलोप करने वाले, धर्म व्यवस्थाओं को तोड़ने वाले, देव-असुर और मनुष्यों की कन्याओं का जहाँ-तहाँ से हरण करने वाले! आज तू अपने इन पाप कर्मों के कारण ही वध को प्राप्त हुआ है।” तुलसीदास जी केवल उसके अहंकार को ही उसका मुख्य अवगुण बताते हैं। उन्होंने रावण को बाहरी तौर से श्रीराम से शत्रु भाव रखते हुये हृदय से उनका भक्त बताया है। तुलसीदास के अनुसार रावण सोचता है कि यदि स्वयं भगवान ने अवतार लिया है तो मैं जा कर उनसे हठपूर्वक वैर करूंगा और प्रभु के बाण के आघात से प्राण छोड़कर भव-बन्धन से मुक्त हो जाऊंगा।
रावण का उदय
पद्मपुराण, श्रीमद्भागवत पुराण, कूर्मपुराण, श्रीरामायण, महाभारत, आनन्द श्रीरामायण, दशावतारचरित आदि ग्रंथों में रावण का उल्लेख हुआ है। रावण के उदय के विषय में भिन्न-भिन्न ग्रंथों में भिन्न-भिन्न प्रकार के उल्लेख मिलते हैं।
वाल्मीकि द्वारा लिखित श्रीरामायण महाकाव्य के समय में, रावण लंकापुरी का सबसे शक्तिशाली राजा था।
पद्मपुराण तथा श्रीमद्भागवत पुराण के अनुसार हिरण्याक्ष एवं हिरण्यकशिपु दूसरे जन्म में रावण और कुम्भकर्ण के रूप में पैदा हुये।
वाल्मीकि श्रीरामायण के अनुसार रावण पुलस्त्य मुनि का पोता था अर्थात् उनके पुत्र विश्रवा का पुत्र था। विश्वश्रवा की वरवर्णिनी और कैकसी नामक दो पत्नियां थी। वरवर्णिनी के कुबेर को जन्म देने पर सौतिया डाहवश कैकसी ने कुबेला (अशुभ समय-कु-बेला) में गर्भ धारण किया। इसी कारण से उसके गर्भ से रावण तथा कुम्भकर्ण जैसे क्रूर स्वभाव वाले भयंकर राक्षस उत्पन्न हुये।
तुलसीदास जी के श्रीरामचरितमानस में रावण का जन्म शाप के कारण हुआ था। वे नारद एवं प्रतापभानु की कथाओं को रावण के जन्म कारण बताते हैं।
भागवत पुराण, मार्कण्डेय पुराण के अनुसार महर्षि कश्यप का विवाह दक्ष वंश की 13 कन्याओं से हुआ जिनके नाम हैं-1. दिति, 2. दनु, 3. क्रोधवशा, 4. ताम्रा, 5. काष्ठा, 6. अरिष्ठा, 7. सुरसा, 8. इला, 9. मुनी, 10. सुरभि, 11. शरमा और 12. तिमिय 13. अदिति। इन 13 स्त्रीयों से 13 मानव जातियाँ बनीं और इनसे इस वंश का विस्तार होता गया। ये वंश ईरान तथा मध्य ऐशिया में अपना राज्य कायम किये हुये थे। कश्यप एक गोत्र का भी नाम है। यह बहुत व्यापक गोत्र है। जिसका गोत्र नहीं मिलता उसके लिए कश्यप गोत्र की कल्पना कर ली जाती है, क्योंकि एक परम्परा के अनुसार सभी जीवधारियों की उत्पत्ति कश्यप से हुई। इन्ही से ही सृष्टि का सृजन हुआ और जिसके परिणामस्वरूप महर्षि कश्यप जी ”सृष्टि के सृजक“ कहलाए। जिनमें से कुछ का विवरण इस प्रकार हैं-
रावण के माता पक्ष वंश
कश्यप की 1. दिति नामक स्त्री के दूसरे पुत्र दैत्य से दैत्य जाति की स्थापना हुई। दैत्यों की एक शाखा मय सभ्यता के रूप में जानी जाती थी। मय का राज्य मयेरिका जाना जाता था जिसकी राजधानी मयसिको तथा वर्तमान नाम अमेरिका हो गया। दूसरी शाखा मेंसोपोटामिया तथा तीसरी शाखा बेबीलोन में थी। जो असुर सभ्यता के नाम से जानी जाती थी। असुरों की राजधानी असीरिया थी। दिति के गर्भ से परम् दुर्जय हिरण्यकश्यपु और हिरण्याक्ष नामक दो पुत्र एवं सिंहिका नामक एक पुत्री पैदा की। श्रीमद्भागवत् के अनुसार इन तीन संतानों के अलावा दिति के गर्भ से कश्यप के 49 अन्य पुत्रों का जन्म भी हुआ, जोकि मरून्दण कहलाए। कश्यप के ये पुत्र निःसंतान रहे। देवराज इन्द्र ने इन्हें अपने समान ही देवता बना लिया। जबकि हिरण्याकश्यपु को चार पुत्रों अनुहल्लाद, हल्लाद, परम भक्त प्रहल्लाद, संहल्लाद आदि की प्राप्ति हुई। इसी वंश में राजा बलि, बाणासुर, कुंभ, निकुंभ थे। राजा बलि, प्रहल्लाद के पुत्र विरोचन के पुत्र थे और बलि के पुत्र का नाम वाणासुर था। बलि का राज्य वर्तमान केरल प्रदेश में था जिसे पाताल लोक कहा गया है।
इसी वंश के सुमाली की चार कन्याओं (1. कैकसी, 2. कुम्भीनर्सी, 3. राका 4. पुष्पोत्कटा) का विवाह पुलस्त्य के पुत्र विश्रवा (रावण के पिता) से हुआ था। भृगु ऋषि तथा हिरण्यकश्यपु की पुत्री दिव्या के पुत्र शुक्राचार्य दैत्यों के गुरू थे। शुक्राचार्य की पुत्री का नाम देवयानी व पुत्र शंद और अर्मक थे। देवयानी का विवाह चन्द्रवंशी राजा ययाति से हुआ था।
रावण के पिता पक्ष वंश
ब्रह्मा के 10 मानस पुत्रों में से चैथे कान से पुलस्त्य थे। पुलस्त्य के पुत्र विश्रवा थें। विश्रवा का विवाह सुमाली की चार कन्याओं से हुआ था जिनकी 1. कैकसी रानी से रावण, 2. कुम्भीनसी रानी से कुम्भकर्ण, 3. राका रानी से विभीषण और 4. पुष्पोत्कटा रानी से सूपर्णखा का जन्म हुआ था। इस प्रकार रावण के पिता शुद्ध आर्य वंश और माता शुद्ध दैत्य वंश की थी।
श्रीराम-रावण युद्ध
रावण और श्री लव कुश सिंह ”विश्वमानव“
शासक और मार्गदर्शक आत्मा सर्वव्यापी है। इसलिए एकात्म का अर्थ संयुक्त आत्मा या सार्वजनिक आत्मा है। जब एकात्म का अर्थ संयुक्त आत्मा समझा जाता है तब वह समाज कहलाता है। जब एकात्म का अर्थ व्यक्तिगत आत्मा समझा जाता है तब व्यक्ति कहलाता है। व्यक्ति (अवतार) संयुक्त आत्मा का साकार रुप होता है जबकि व्यक्ति (पुनर्जन्म) व्यक्तिगत आत्मा का साकार रुप होता है। शासन प्रणाली में समाज का समर्थक दैवी प्रवृत्ति तथा शासन व्यवस्था प्रजातन्त्र या लोकतन्त्र या स्वतन्त्र या मानवतन्त्र या समाजतन्त्र या जनतन्त्र या बहुतन्त्र या स्वराज कहलाता है और क्षेत्र गण राज्य कहलाता है ऐसी व्यवस्था सुराज कहलाती है। शासन प्रणाली में व्यक्ति का समर्थक असुरी प्रवृत्ति तथा शासन व्यवस्था राज्यतन्त्र या राजतन्त्र या एकतन्त्र कहलाता है और क्षेत्र राज्य कहलाता है ऐसी व्यवस्था कुराज कहलाती है। सनातन से ही दैवी और असुरी प्रवृत्तियों अर्थात् दोनों तन्त्रों के बीच अपने-अपने अधिपत्य के लिए संघर्ष होता रहा है। जब-जब समाज में एकतन्त्रात्मक या राजतन्त्रात्मक अधिपत्य होता है तब-तब मानवता या समाज समर्थक अवतारों के द्वारा गणराज्य की स्थापना की जाती है। या यूँ कहें गणतन्त्र या गणराज्य की स्थापना-स्वस्थता ही अवतार का मूल उद्देश्य अर्थात् लक्ष्य होता है शेष सभी साधन अर्थात् मार्ग।
रावण राज्य, व्यक्ति का समर्थक असुरी प्रवृत्ति तथा शासन व्यवस्था राज्यतन्त्र या राजतन्त्र या एकतन्त्र था। रावण इस कारण ही असुर की श्रेणी में रखे गये न कि माँस-मदिरा के प्रयोग के कारण। तामसिंक प्रवृत्ति से युक्त रावण एक ज्ञानी ब्राह्मण थे।
परशुराम परम्परा (अवतारी परम्परा) के प्रचार-प्रसार और स्थापना के लिए निकले श्रीराम जिसका माध्यम था-वनवास, के द्वारा रावण की बहन सुपर्णखा से दुव्र्यवहार के कारण रावण ने श्रीरा की पत्नी सीता का हरण कर अपनी ताकत का प्रदर्शन किया था। इस कारण श्रीराम-रावण युद्ध हुआ और श्रीराम की विजय हुयी। फलस्वरूप रावण के राज्य लंका में परशुराम परम्परा की स्थापना हुयी। सीता के हरण के उपरान्त जब तक सीता रावण के राज्य में रहीं तब तक रावण के विभिन्न चरित्रों से परिचित भी हुईं थी।
हिन्दू धर्म में पुराणों के अनुसार शिवजी जहाँ-जहाँ स्वयं प्रगट हुये उन बारह स्थानों पर स्थित शिवलिंगों को ज्योतिर्लिंगों के रूप में पूजा जाता है। ये संख्या में 12 है। 12 ज्योतिर्लिंगों के नाम शिव पुराण (शतरुद्र संहिता, अध्याय 42/2-4) के अनुसार हैं। जिनकी अपनी-अपनी कथाएँ भी हैं। एक मतानुसार बारह ज्योतिर्लिंगों को बारह राशियों से जोड़कर भी देखा जाता है। ये राशियां इस प्रकार से हैं-1. मेष-सोमनाथ, 2. वृष-श्रीशैल, 3. मिथुन-महाकाल, 4. कर्क-अमलेश्वर, 5. सिंह-वैद्यनाथ, 6. कन्या-भीमशंकर, 7. तुला-श्रीरामेश, 8. वृश्चिक-नागेश, 9. धनु-विश्वेशं, 10. मकर-त्र्यम्बकं, 11. कुंभ-केदार, 12. मीन-घृष्णेशं। ये राशियां चंद्र राशि समझें।
साधारण भाषा व सार्वभौम परिभाषा के रूप में जिन शिवलिंगो की कथा पौराणिक या अवतारों की कथा से जुड़ी होती है सिर्फ वही ज्योर्तिलिंग की योग्यता रखते हैं।
श्रीवैद्यनाथ ज्योतिर्लिङ्ग-झारखंड देवघर जिला (झारखंड) राज्य के संथाल परगना क्षेत्र में जसीडीह स्टेशन के पास देवघर (वैद्यनाथधाम) नामक स्थान पर श्रीवैद्यनाथ ज्योतिर्लिङ्ग सिद्ध होता है, क्योंकि यही चिताभूमि है। महाराष्ट्र में पासे परभनी नामक जंक्शन है, वहां से परली तक एक ब्रांच लाइन गयी है, इस परली स्टेशन से थोड़ी दूर पर परली ग्राम के निकट श्रीवैद्यनाथ को भी ज्योतिर्लिङ्ग माना जाता है। परंपरा और पौराणिक कथाओं से देवघर स्थित श्रीवैद्यनाथ ज्योतिर्लिङ्ग को ही प्रमाणिक मान्यता है। जो रावण की एक कथा से सम्बन्धित है।
श्रीरामेश्वर ज्योतिर्लिङ्ग-तमिलनाडु श्रीरामेंश्वरम श्रीरामेंश्वर तीर्थ तमिलनाडु प्रांत के श्रीरामनाड जिले में है। यहाँ लंका विजय के पश्चात् भगवान श्रीराम ने अपने अराध्यदेव शंकर की पूजा की थी। ज्योतिर्लिंग को श्रीरामेंश्वर या श्रीरामलिंगेश्वर के नाम से जाना जाता है।
ज्योतिर्लिङ्ग के इतिहास में पहली बार ऐसा हुआ है कि श्रीराम-रावण की कथा में रावण को खलनायक पक्ष में रखने के बावजूद उनकी कथा से भी जुड़ा ज्योतिर्लिङ्ग है और वह श्रीराम के ज्योतिर्लिङ्ग से पहले ही स्थापित था। जो यह सिद्ध करता है कि रावण में कोई कमी नहीं थी। वर्तमान स्थिति में भी देखा जाये तो किसी की बहन के साथ दुव्र्यवहार का परिणाम ही तो युद्ध था।
युद्धोपरान्त सीता के दो पुत्र जन्म लिये। लव और कुश श्रीराम तथा सीता के जुड़वां बेटे थे। उनका जन्म तथा पालन वन में वाल्मीकि आश्रम में हुआ था। सब भाइयों के आग्रह को मानकर श्रीरामचन्द्र जी ने अश्वमेंध यज्ञ का अनुष्ठान किये। यज्ञ एक वर्ष से भी अधिक समय तक चलता रहा। अश्वमेंध यज्ञ जो अपनी व्यवस्था की सर्वोच्चता की घोषणा का प्रतीक होता था। अश्वमेंध यज्ञ में सर्वोच्चता का प्रतीक घोड़ा छोड़ा जाता था जो घोड़ा पकड़कर युद्ध में पराजित कर देता था उसे राजा बना दिया जाता था। श्रीराम द्वारा छोड़े गये घोड़े को ”लव“ और ”कुश“ नाम के दो शुद्धात्मा बालक ने घोड़े को पकड़कर श्रीराम की सेना को लगभग हरा चुके थे। परन्तु बालकों की माता सीता जिन्हे श्रीराम द्वारा वर्णाश्रम विभाजित गुण एवम् कर्मो पर आधारित जाति के प्रभाव में आकर वनगमन दिया गया था, की उपस्थिति द्वारा एक-दूसरे के पिता-पुत्र रूप में परिचय के उपरान्त यह युद्ध रूक गया।
जब श्रीराम ने वानप्रस्थ लेने का निश्चय कर भरत का राज्यभिषेक करना चाहा तो भरत नहीं माने। अतः दक्षिण कोसल प्रदेश में कुश और उत्तर कोसल में लव का अभिषेक किया गया। कुश के लिये विन्ध्याचल के किनारे कुशावती और लव के लिये श्रावस्ती नगरों का निर्माण कराया फिर उन्हें अपनी-अपनी राजधानियों को जाने का आदेश दिया।
प्रत्येक पूर्णावतार के जीवन में उसके व्यक्त होने की कला तथा अगले पूर्णावतार के व्यक्त होने की कला का संकेत रूप दिया रहता है। ब्रह्मा के पूर्णावतार श्रीराम के जीवन में वर्तमान परिस्थितियों पर कर्म करना श्रीराम कला थी जबकि लव कुश का व्यवहार-विरूद्व फिर समाहित होना अगले पूर्णावतार की कला का व्यक्तिगत प्रमाणित अदृश्य संकेत रूप था। विष्णु के व्यक्तिगत प्रमाणित पूर्णावतार श्रीकृष्ण के जीवन में श्रीरामकला समाहित समाज की धारा के विरूद्व चलकर समाज की धारा में ही समाहित हो जाना श्रीकृष्ण कला थी। जो कि अगले पूर्णावतार की कला का व्यक्तिगत प्रमाणित दृश्य संकेत रूप था। शिव-शंकर के पूर्णावतार तथा विष्णु के सार्वजनिक प्रमाणित पूर्णावतार के जीवन में श्रीकृष्णकला का सार्वजनिक प्रमाणित दृश्य रूप है। जबकि विश्व की धारा जहाँ तक पहँुच चुकी है, वहाॅ से स्वयं को जोड़ लेना ”विश्वमानव कला“ है।
वर्तमान समय के श्री लव कुश सिंह “विश्वमानव” भी रावण की भाँति ज्ञानी अर्थात सात्विक मन, एकान्त निवास, तामसिक भोजन एवं सात्विक कर्म से युक्त हैं। वे स्वयं नायक भी हैं और खलनायक भी। और साथ ही 13वें और अन्तिम भोगेश्वर ज्योतिर्लिंग के स्थापक भी। मूल पाशुपत शैव दर्शन सहित अनेक मतों का सफल एकीकरण के स्वरूप श्री लव कुश सिह “विश्वमानव” के जीवन, कर्म और ज्ञान के अनेक दिशाओं से देखने पर अनेक दार्शनिक, संस्थापक, संत, ऋषि, अवतार, मनु, व्यास, व्यापारी, रचनाकर्ता, नेता, समाज निर्माता, शिक्षाविद्, दूरदर्शिता इत्यादि अनेक रूप दिखते हैं।
इस प्रकार श्री लव कुश सिंह “विश्वमानव”, तामसिक और ज्ञानी प्रवृत्ति के महान चरित्र रावण की दिशा से उनकी अगली कड़ी के रूप में व्यक्त हैं।