Thursday, April 2, 2020

पुर्नजन्म चक्र मार्ग के

पुर्नजन्म चक्र मार्ग के


सत्व मार्ग से-
श्रीकृष्ण और श्री लव कुश सिंह ”विश्वमानव“
बुड्ढा श्रीकृष्ण: श्रीकृष्ण का भाग-दो और अन्तिम
आओ श्रीकृष्ण मैं जानती थी कि तुम आओगे, इसलिए ही तो हजारो वर्षो से मैं तुम्हारी प्रतीक्षा कर रही हूँ। मैं जानती थी कि जिस व्यक्ति का सम्पूर्ण ध्यान सदैव हस्तिनापुर में ही रमता था, जिसके समस्त लक्ष्यों की केन्द्र बिन्दू थी, वह हस्तिनापुर जरूर आयेगा।-द्रौपदी ने कहा।
हाँ सखी मैं आ गया, किसी को दिया हुआ वचन मैं कैसे भूल सकता हूँ? मैंने तुम्हें वचन दिया था कि इतिहास तुम्हें चाहे जो कुछ भी कहें परन्तु भविष्य तुम्हें नारी आदर्श के सर्वोच्च शिखर पर देखेगा, जिसके आगे सम्पूर्ण संसार की नारीयाँ तुम्हारें अंश रूप में जानी जायेंगी।-मैंने कहा।
एक लक्ष्य से दूसरे बड़े लक्ष्य की ओर मन को स्थित कर देने का स्वभाव आज भी तुममें है।-द्रौपदी ने कहा।
सखी, यह जीवन ही ऐसा है। जहाँ से मृत्यु होती है फिर वहीं से पूर्णता के लिए अगले लक्ष्य के लिए जीवन आरम्भ होता है और यह क्रम तब तक चलता रहता है, जब तक कि वह पूर्ण होकर मुझमें विलीन होकर मुझ जैसा नहीं हो जाता। देखो, ये मेरे सफेद हुये बाल, ये मेरे आँखों में आँसू, मेरा अकेलापन और मेरा अधूरापन। महाभारत युद्ध के बाद मैं बिल्कुल अकेला हो चुका था, न कोई लक्ष्य, न कौरवों की आवश्यकता, न पाण्डवों की आवश्यकता। जिस अवस्था में मैं तुम्हंे छोड़कर गया था, अब यह संसार मुझे वहीं से आगे की ओर बढ़ते हुये देखेगा।-मैंने कहा।
सखी, मेरे बाल रूप को, मेरे युवा रूप को, मेरे प्रेम रूप को, मेरे गीता उपदेश को यह संसार समझने लगा है। मैं सिर्फ अपना बचा शेष कार्य पूर्ण करने आया हूँ। ”नव मनुष्य और सृष्टि निर्माण“, जिसमें अब न तो पाण्डवों की आवश्यकता है न ही कौरवों की। अब तो न पाण्डव हैं न ही कौरव हैं, वे तो पिछले समय में ही मुक्त हो चुके। अब तो पाण्डव व कौरव एक ही शरीर में विद्यमान हैं। जिस किसी को देखो वह कुछ समय पाण्डव रूप में दिखता है तो अगले समय में वही कौरव रूप में दिखने लगता है। फिर वही पाण्डव रूप में दिखने लगता है। सब कुछ विवशता वश एकीकरण की ओर बढ़ रहा है। अब युद्ध कहाँ, अब तो उस एकीकरण के मार्ग को दिखाना मात्र मेरा शेष कार्य हैं। और इस कार्य में मैं बिल्कुल अकेला, निःसंग, न कोई मेरे लिए जीवन की कामना करने वाला, न ही कोई मेरी मृत्यु की कामना करने वाला, न ही मुझसे मिलने की चेष्टा करने वाला, न ही मुझसे कुछ सुनने वाला, न मुझे कुछ सुनाने वाला और न ही गोपीयाँ हैं। दर असल मैं मृत ही पैदा ही हुआ था, एक मरा हुआ जीवित मनुष्य, यही मेरा इस जीवन का रूप था। और मेरे इस जीवन को संसार बुढ़े श्रीकृष्ण के रूप में याद करेगा जो मुझ परमात्मा के पूर्ण कार्य का भाग दो होगा, जिसे लोगों ने देख व जान नहीं पाया था। आज मैं बहुत कुछ बताना चाहता हूँ सखी क्योंकि तुम्हारे सिवा मुझे कौन सुनता ही था और कौन समझता ही था, और कौन विश्वास ही करता था।-मैं बोलता जा रहा था।
सखी, अब गोपीयाँ भी मेरे साथ नहीं, क्योंकि अब उन्हें हृदय से निकली उस वंशी की मधुर तान समझ में नहीं आती, न ही उस पर सारे बंधनों को तोड़कर नाचना आता है। जिस प्रकार आत्मा की उपस्थिति में प्रकृति नाचती है, उसी प्रकार अब तो मनुष्यों ने आत्मा के स्थान पर करेंसी (मुद्रा) बना लिया है जिसकी उपस्थिति में ही ये आधुनिक प्रकृति के अंश रूपी गोपीयाँ नाचती है। और इसलिए ही ये भोग की वस्तु बनती जा रही हैं। इसके जिम्मेंदार भी वे स्वयं ही है। सखी स्त्री हो या पुरूष सभी को सार्वभौम आत्मा से जुड़कर हृदय और बुद्धि के तल पर ही जीना चाहिए। शरीर और आवश्यकता के तल पर जीने से भोग ही होता है, समभोग नहीं। सार्वभौम आत्मा से जुड़कर हृदय और बुद्धि के तल पर जीने से शरीर की स्वस्थता और दीर्घायु भी प्राप्त होती है। 
परन्तु तुम तो पूर्ण थे, फिर भी तुम मुक्त नहीं हुये।-द्रौपदी ने कहा।
सखी, मैं मुक्त कहाँ हो पाया। मुक्त तो वे लोग हुये जिनकी इच्छायें पूर्ण हुईं। तुम्हारी भी इच्छा पूर्ण नहीं हो पायी इसलिए तुम भी मुक्त नहीं हो पायी और मेरी भी इच्छा पूर्ण नहीं हुई इसलिए मैं भी मुक्त नहीं हो पाया। मेरे शरीर त्यागने के समय तुम मेरे पास थी और मैं चाहकर भी तुमसे नहीं बताया कि मेरी इच्छा क्या थी क्योंकि इससे तुम्हें दुःख होता। मैं पूर्ण परमात्मा पूर्णावतार सृष्टि करने के उद्देश्य से धरती पर अवतरित हुआ था। सखी, पूर्ण होने के बावजूद भी जब परमात्मा शरीर में होता है तब वह भी अन्य मनुष्य और प्रकृति द्वारा उत्पन्न परिस्थितियों से भी विवश हो जाता है। उस समय मेरे सामने दो स्थितियाँ ऐसी आयी, जिसके आगे मैं विवश हुआ और मैं पूर्ण होते हुये भी अपूर्ण हो गया, फलस्वरूप मुझे फिर आना पड़ा। पहला, मेरा अनुमान था कि महाभारत युद्ध शीघ्र ही समाप्त हो जायेगा और समस्या हल हो जायेगी। फिर मैं दोनों पक्षों के साथ मिल-मिलाकर, ज्ञान, कर्मज्ञान की शिक्षा से नव मनुष्य व सृष्टि निर्माण का कार्य प्रारम्भ करूँगा। परन्तु हो गया इसका उल्टा, महाविनाश। फिर मैं किसे शिक्षा देता। दूसरा, यह कि जो शिक्षा मुझे युद्ध के उपरान्त देनी थी, वह योद्धा अर्जुन के युद्ध क्षेत्र में शस्त्र रख देने के कारण मुझे ज्ञान, कर्मज्ञान में से अधूरी शिक्षा केवल ज्ञान को अर्जुन को देने पड़े शेष कर्मज्ञान की शिक्षा के लिए कोई शेष योग्य बचा ही नहीं। सखी, ”गीता“ में मैंने सिर्फ इतना ही तो बताया था कि प्रकृति के तीन गुणों सत्व, रज और तम से मुक्त होकर ही मुझ परमात्मा को जाना जा सकता है। अब ”विश्वशास्त्र“ से मैं ये बताने आया हूँ कि परमात्मा को जान लेने के बाद संसार में कर्म कैसे किया जाता है, जो परमात्मा द्वारा सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में क्रियाशील है। यही कर्मज्ञान है और जो कुछ भी मैंने गीता में कहा था उसका दृश्य रूप है।-मैं बोलता गया।
तुम नहीं जानती सखी, ये स्थिति मेंरे लिए कितनी विवशतापूर्ण थी। क्या पितामह भीष्म ज्ञानी नहीं थे, क्या गुरू द्रोणाचार्य, कृपाचार्य, महाराज धृतराष्ट्र, शकुनि, कर्ण ज्ञानी नहीं थे। सब ज्ञानी थे परन्तु सभी, मनुष्य और प्रकृति द्वारा उत्पन्न परिस्थितियों से विवश थे। सखी, युद्ध में योद्धा को कभी भी हृदय की नहीं सुननी चाहिए। तुम्हारा पति और मेरा सखा ही नहीं बल्कि अर्जुन मेरी बहन सुभद्रा का भी पति था, और युद्ध क्षेत्र में मैं उसका सारथी भी था। यह सब इसलिए ही हुआ था क्योंकि मैं अर्जुन के हृदय को जानता था और युद्ध की अनिवार्यता को भी, फिर भी वह युद्ध क्षेत्र में शस्त्र रखकर मुझे विवश कर दिया, और मुझे अपनी सारी ज्ञान शक्ति उस पर खर्च करनी पड़ी जो मेरी योजना थी ही नहीं। यह ज्ञान शक्ति भी मैंने उसे अकेले में ले जाकर इसलिए कहा क्योंकि अन्य कोई उसे भ्रमित न कर सके।-मैंने कहा।
सखा, अगर फिर भी अर्जुन युद्ध के लिए न मानता तो क्या होता।-द्रौपदी ने कहा।
तो मैं अर्जुन का ही वध कर देता, क्योंकि यह भी मेरी विवशता ही होती। मैंने भी अनेकों युद्ध लड़े थे, सखी। परन्तु एक योद्धा की तरह, कहीं भी मैंने हृदय की ओर नहीं देखा। क्या कंस मेरे मामा नहीं थे। लोग यह समझते हैं कि मैंने युद्ध के डर से मथुरा छोड़ा था परन्तु मैं तुम्हंे बताना चाहता हूँ कि मैं युद्ध से नहीं बल्कि गोपियों के डर से मथुरा छोड़ा था। ये गोपियाँ मेरे दिल पर युद्ध कर बार-बार मुझे परास्त कर रही थीं, और मैं पल-पल कमजोर होता जा रहा था। हृदय का भाव जब बढ़ता है तब कर्म कमजोर पड़ जाता है सखी। इसलिए ही मैंने मथुरा छोड़ा था और फिर कभी नहीं गया। जाते-जाते गोपियों से मैंने अवश्य कहा था कि जिसे द्वारिका चलना हो चले परन्तु कोई नहीं आया, यह गोपियों के प्रेम की परीक्षा ही थी। अब कोई आत्मा पर विश्वास नहीं करता सभी शरीर पर ही विश्वास करते हैं जबकि मनुष्य की समस्त अभिव्यक्ति उसी आत्मा के कारण ही प्रकाशित हो रही होती है।-मैं लगातार बोलता जा रहा था।
सखी, जब परमात्मा शरीर में पूर्ण रूप से प्रकाशित होता है तब भी वह शरीर के माध्यम से ही होता है। इसलिए बहुत से मनुष्य उस पर विश्वास करते हैं, वहीं बहुत से मनुष्य विश्वास नहीं भी करते हैं। इसलिए उस पूर्ण परमात्मा को अपनी उपस्थिति बताने के लिए कर्म करने पड़ते हैं। अगर प्रारम्भ में ही सभी विश्वास कर लें तो युद्ध कैसा और महाभारत क्यों होता। परन्तु इस बार ऐसा कुछ नहीं होगा। इस बार मैं नहीं मेरा अपना रूप, मेरा शास्त्र-”विश्वशास्त्र“ अनन्त काल तक युद्ध करेगा। जिस प्रकार मेरी ”गीता“ आज तक युद्ध कर रही है। महाभारत युद्ध में मेरे ज्ञान के विश्वरूप योगेश्वर रूप में सभी स्थित थे और अब वर्तमान में मेरे कर्मज्ञान के विश्वरूप भोगेश्वर रूप में सभी शास्त्र, दर्शन, महापुरूष, विचारक समाहित होते चले जायेंगे। और मुझे किसी भी प्रकार की परीक्षा देने की आवश्यकता ही नहीं होगी क्योंकि जब तक मनुष्य इसे समझने की कोशिश करेंगे तब तक मैं अपना काम कर चुका रहूँगा और यह युद्ध किसी पर निर्भर भी नहीं है क्योंकि इस बार समाज स्वयं इसके लिए तैयार है और उसकी विवशता भी है। सखी, इस संसार में कोई विश्वगुरू, विश्वगुरू नहीं बना सकता। सिर्फ कोई गुरू ही विश्वगुरू बना सकता है और गुरू तो एक मात्र परमात्मा ही है। मैं ही हूँ। मेरा सार्वभौम रूप ही है। और इस प्रकार मैं पूर्ण पुरूष और तुम पूर्ण प्रकृति के रूप में सदैव इस संसार के सर्वोच्च ऊँचाई पर स्थित रहेंगे।-मैं धारा प्रवाह बोलता जा रहा था।
परन्तु श्रीकृष्ण ये सब तो तुम कर रहे हो, इससे मुझे कैसे मुक्ति मिलेगी ओर मैं कैसे सर्वोच्च हूँ।-द्रौपदी बोली।
सखी, यह शरीर पाँच तत्वों से बना है। तुमने पाँच पतियों को धारण कर एकाकार किया था और प्रकृति के गुणों की सर्वोच्च अभिव्यक्ति थी। संसार में तो स्त्रियाँ एक पति को भी संभाल सकने का गुण नहीं रख पा रही है फिर वे तुम से तुलना के योग्य कहाँ हैं। वे तो तुम्हारी अंश मात्र हैं। कहाँ अंश और कहाँ पूर्ण प्रकृति। अंश का लक्ष्य पूर्णता को प्राप्त करना होता है। अन्यथा जीवन यात्रा चलती रहती है। अभी तो पुरूष की पूर्णता का क्रम चल रहा है। उसके बाद प्रकृति की पूर्णता का क्रम चलेगा, और उस यात्रा के अन्त में तुम पहले से ही बैठी मिलोगी। प्रकृति की पूर्ण यात्रा के अन्तिम छोर का स्थान खाली नहीं हैं, उस पर तुम पहले ही आदर्श रूप में विराजमान हो। जब अंश प्रकृति की पूर्णता की यात्रा समाप्त होगी तब तुम्हारे जीवन से शिक्षा ग्रहण कर तुम्हें अपने आदर्श के रूप में देखेंगे। परन्तु सखी, तुमने यह कैसे जाना कि मैं हस्तिनापुर अवश्य आउँगा।-मैं बोला।
सखा, जो पूर्ण होता है, वह पूर्णता का ही निर्माण करता है। तुमने जो कुछ भी किया वह अंश रूप में किया, किसी को प्रेम दिया, किसी को सखा बनाया, किसी को धन दिया, किसी को ज्ञान दिया, किसी को बल दिया इत्यादि अंश रूप में ही दिया परन्तु किसी को भी अपने जैसा नहीं बनाया। इससे ही मैंने जाना कि उस पूर्णता को पूर्ण करने तुम अवश्य आओगे और इस क्रम में तुम्हारा हस्तिनापुर आना अवश्य होगा। आखिरकार मैं तुम्हारी सखी थी, तुम्हें सदैव देखती, सुनती और समझती थी। मैं सदैव तुम्हें अपने पास अनुभव करती थी। हम सदैव साथ-साथ थे। एक समानान्तर रेखा की तरह जो कभी मिलीं नहीं परन्तु रहीं साथ-साथ।-द्रौपदी ने कहा।
सखी, जब दो समानान्तर रेखा दूर तक साथ-साथ जाती हैं, तब रेखाएँ तो जानती हैं कि हम एकाकार नहीं हैं परन्तु दूर से देखने वाला व्यक्ति उसे एकाकार होते ही देखता है। सखी, पितामह भीष्म जब युद्ध क्षेत्र में शरशैया पर लेटे थे तो मैं उनसे मिलने गया था। उन्होंने मुझसे पूछा था। श्रीकृष्ण, मैं पिछले 71 जन्मों में झाँककर देख चुका हूँ और मैंने देखा कि मैंने ऐसी कोई गलती नहीं की है जिससे मैं इस दण्ड का भागीदार बनूँ तो तुम बताओ श्रीकृष्ण ऐसा मेरे साथ क्यों हुआ। तब मैंने कहा था सखी, पितामह, आप 72वें जन्म में जाकर देखें, आप एक तितली को काँटा चुभोये थे और इतने जन्मों के बाद वह अनेक काँटों में ब्याज के रूप में बढ़ चुका है, जो अब आपको तीर के रूप में चुभे हुये हैं। तब उन्होंने संतुष्ट होकर कहा था-मान गये द्वारिकाधीश, तुम योगेश्वर परमात्मा हो, तुम्हें प्रणाम। और वे संतोष से लेट गये थे। सखी, तुम बताओ मैंने ऐसा क्यों कहा।
सखा, पितामह 71 जन्म को जानते थे कि नहीं ये तो वही जान सकते हैं। और आप उनके 72वें जन्म को जानते थे कि नहीं, ये भी आप ही जान सकते हैं। दोनों बातंे व्यक्तिगत रूप से प्रमाणित हैं न कि सार्वजनिक रूप से। परन्तु समाज आप दोनों को ही सार्वजनिक रूप से ज्ञानी तो समझती ही है। सखा इस समय भी आपकी उपस्थिति को लोग कैसे जान पायेंगे-द्रोपदी ने कहा। 
सखी, तुम्हारे उत्तर से अब यह स्पष्ट हो चुका है कि तुम अब पूर्ण हो चुकी हो। अब तुममें और मुझमें कोई अन्तर नहीं है। तुममें, मैं और मुझमें, तुम। आदि में, मैं और अन्त में भी, मैं। और अब, सभी में, मैं और मुझमें, सभी। सखी, व्यक्ति, समाज, राज्य की आवश्यकताओं को देखो, भविष्यवक्ताओं की भविष्यवाणीयों को देखो, ये सब मुझे पुकार रही हैं। ग्रहों के चालों, सूर्य व चन्द्र ग्रहण को देखो, ये सब मेरी उपस्थिति को बता रही हैं। मैं आया था, मैंने अपना कार्य पूर्ण किया मैं जा भी रहा हूँ, तुमसे एकाकार होकर। मैं मुक्त था, मैं मुक्त हूँ, मैं मुक्त ही रहूँगा। आओ सखी चलें। यह पूर्ण पुरूष और पूर्ण प्रकृति का महामिलन है। मैं ही योगेश्वर हूँ, मैं ही भोगेश्वर हूँ। आदि में योगेश्वर हूँ और अन्त में भोगेश्वर हूँ। मैं प्रकृति को नियंत्रित कर व्यक्तिगत प्रमाणित अदृश्य रूप से विकसित होकर सार्वजनिक प्रमाणित दृश्य जगत में व्यक्त होता हूँ। अब ईश्वर भी अपने कत्र्तव्य से मुक्त है और प्रकृति भी। जो ईश्वर है वही प्रकृति है। जो प्रकृति है वही ईश्वर है। दोनों एक-दूसरे के अदृश्य और दृश्य रूप हैं। प्रत्येक में दोनों विद्यमान हैं। यही अर्धनारीश्वर है।
ध्यान रहे कि 12 ज्येतिर्लिग में से सोमनाथ तीर्थ (गुजरात, भारत) के ”भीड़िया तीर्थ“ में एक शिलालेख पर लिखा है कि-”भगवान श्रीकृष्ण ई0पू0 3102 चैत्र शुक्ल प्रतिपदा (शुक्रवार, 18 फरवरी) के दिन और मध्यान्ह के बाद 2 बजकर 27 मिनट 30 सेकण्ड के समय इस हिरण्य के पवित्र तक से प्रस्थान किये।“ जिस दिन भगवान श्रीकृष्ण धराधाम से स्वधाम गए। उसी दिन से धरती पर कलियुग का आगमन हो गया और धीरे-धीरे इसका प्रभाव बढ़ने लगा ।

रज मार्ग से-
स्वामी विवेकानन्द और श्री लव कुश सिंह ”विश्वमानव“
ब्रह्मलीन श्री श्री 1008 सत्योगानन्द ”भुईधराबाबा“ (भगवान श्रीरामकृष्ण के पुनर्जन्म) द्वारा श्री लव कुश सिंह ”विश्वमानव“ को धर्मक्षेत्र के भोग द्वारा व्यक्त करने के लिए सत्यकाशी क्षेत्र के गोपालपुर, छोटा मीरजापुर, मीरजापुर (उ0प्र0)-231305 स्थान पर आयोजित सदी के सर्र्वािधक लम्बे यज्ञ-विष्णु महायज्ञ और ज्ञान यज्ञ (दि0 वृहस्पतिवार, 13 नवम्बर 1997 से सोमवार, 22 जून 1998 तक) स्वामी विवेकानन्द के शिकागो वकृतता के दिन उनके उम्र 30 वर्ष 7 माह 29 दिन का उम्र, उनके सम्मान में श्री लव कुश सिंह ”विश्वमानव“ (स्वामी विवेकानन्द के पुनर्जन्म व पूर्ण ब्रहम की अन्तिम कड़ी) द्वारा पूर्ण करने के उपरान्त अपने ही विचार व संकल्प-”विश्वबन्धुत्व के स्थायी स्थापनार्थ सार्वभौव धर्म का निर्माण“ के सूत्रों की व्याख्या श्री लव कुश सिंह ”विश्वमानव“ द्वारा व्यक्तिगत रूप से ब्रह्यलीन श्री श्री 1008 सत्ययोगानन्द के सहयोगी श्री श्री 108 बाबा दीपनाथ और अन्य प्रबुद्व व्यक्तियों के समक्ष की गयी थी।
सृष्टि का प्रारम्भ एकात्म-ज्ञान (ब्रह्मा) ही है, यह मानव ने कर्म द्वारा धीरे-धीरे ज्ञान की ओर अग्रसर होकर जाना। सत्य आत्मसात् और सहर्ष स्वीकार करने का विषय होता है। इससे युक्त होकर भगवान श्रीराम ने धर्म स्थापना की। एकात्म ज्ञान (ब्रह्मा) से जीवन नहीं चलता बल्कि एकात्म ज्ञान सहित एकात्म कर्म (विष्णु) से जीवन चलता है। इससे युक्त होकर भगवान श्री कृष्ण ने धर्म स्थापना की। साथ ही एकात्म ज्ञान सहित एकात्म कर्म आधारित व्यक्तिगत प्रमाणित ”विश्वशास्त्र“ साहित्य ”गीता या गीतोपनिशद्“ उपलब्ध हुई। एकात्म ज्ञान सहित एकात्म कर्म (विष्णु) से व्यक्तिगत (व्यष्टि) जीवन चल सकता है परन्तु त्रिलोक (समष्टि या सार्वजनिक या संयुक्त या विश्व) नहीं चल सकता। बल्कि एकात्म ज्ञान एवम् एकात्म कर्म सहित एकात्म-ध्यान (शंकर) द्वारा त्रिलोक चलता है। इससे युक्त होकर भगवान श्रीरामकृष्ण ने नरेन्द्र नाथ दत्त (स्वामी विवेकानन्द का पूर्व नाम) को सर्वस्व त्याग द्वारा पूर्णज्ञान दिये। नरेन्द्र नाथ दत्त द्वारा श्रीरामकृष्ण परमहंस से शरीर त्याग के अन्तिम दिनों मंे पूछे जाने पर कि आप कौन हैं। उन्होंने कहा-”जो श्रीराम है, जो कृष्ण है, अब दोनों ही इस शरीर में है। अर्थात् ”जो एकात्म ज्ञान है, जो एकात्म ज्ञान सहित एकात्म कर्म है अब दोनों ही इस शरीर में है“। यह वार्ता श्रीराम कृष्ण मिशन के साहित्य ”स्वामी विवेकानन्द के संग में“ के पृष्ठ संख्या 54 में लिखित है तथा फिल्म ”स्वामी विवेकानन्द“ में फिल्मांकन भी किया गया है। स्वामी विवेकानन्द इस पूर्णज्ञान को 100 वर्ष पूर्व ही प्राप्त कर चुके थे लेकिन उसकी स्थापना नहीं कर सकते थे क्योंकि उस वक्त न तो भारत स्वतन्त्र था न ही समष्टि आधारित विश्व स्तरीय संगठन-संयुक्त राष्ट्र संघ का ही जन्म हुआ था परिणामस्वरूप उस समय के लिए जितना कार्य आवश्यक था पूर्ण करके अन्तिम इच्छा, सूक्ष्म शरीर के रूप में रही और समयानुसार आत्मा के दृश्य रूप और बहुरूप में प्रकाशित एक सत्ता-श्री लव कुश सिंह ”विश्वमानव“ के रूप में अब व्यक्त हुई है। चूँकि विष्णु का स्वरूप एकात्म ज्ञान और एकात्म कर्म से सम्बन्धित है इसलिए वे (विष्णु), ब्रह्मा और विष्णु के संयुक्त रूप है। चूँकि शंकर का स्वरूप एकात्म-ज्ञान और एकात्म-कर्म सहित एकात्म-ध्यान से सम्बन्धित है इसलिए वे शंकर, विष्णु और शंकर के संयुक्त रूप है। चूँकि शंकर, कर्मवेद: प्रथम, अन्तिम तथा पंचमवेद के अधिकारी है और विष्णु धर्म स्थापना के अधिकारी है। इसलिए श्री लव कुश सिंह ”विश्वमानव“ की उत्पत्ति का रूप इन दोनों का संगम रूप है। जिसके सम्बन्ध में स्वामी विवेकानन्द के ये दो कथन-”सम्भव है काल के प्रवाह में, कभी कभी ऐसा भास होता है कि वेदान्त का महाप्रकाश अब बुझा और जब ऐसी स्थिति आती है, तब भगवान मानवदेह धारण कर, पृथ्वी पर आते है और फिर धर्म में पुनः एक ऐसी शक्ति ऐसे जीवन का संचार हो जाता है कि वह फिर एकाध युग तक अदम्य उत्साह से आगे बढ़ता जाता है। आज वही शक्ति और जीवन उसमें फिर आ गया है। ”(विवेकानन्द जी के सन्निध्य में“ पृष्ठ-6) और मुझे अपनी मुक्ति की इच्छा अब बिल्कुल नहीं। सांसारिक भोग तो मैंने कभी चाहा नहीं। मुझे सिर्फ अपने यन्त्र को मजबूत और कार्योपयोगी देखना है और फिर निश्चित रूप से यह जानकर कि कम से कम भारत में मैंने मानव जाति के कल्याण का एक ऐसा यंत्र स्थापित कर दिया है, जिसका कोई शक्ति नाश नहीं कर सकती, मैं सो जाउँगा और आगे क्या होने वाला है, इसकी परवाह नहीं करूँगा। मेरी अभिलाषा है कि मैं बार बार जन्म लँू और हजारों दुःख भोगता रहूँ, ताकि मैं उस एक मात्र सम्पूर्ण आत्माओं के समिष्टरूप ईश्वर की पूजा कर सकूँ जिसकी सचमुच सत्ता है और जिसका मुझे विश्वास है। सबसे बढ़कर सभी जातियों और वर्गों के पापी और दरिद्र रूपी ईश्वर ही मेंरा विशेष उपास्य है। ”(स्वामी विवेकानन्द का मानवतावाद“ पृष्ठ संख्या-38) स्वंय प्रमाण है। 
संयुक्त राष्ट्र संघ ;न्ण्छण्व्द्ध द्वारा स्वामी विवेकानन्द के जीवन काल की भाँति श्री लव कुश सिंह ”विश्वमानव“ के जीवन काल में भी विश्व शान्ति के लिए धर्माचार्यो व राष्ट्राध्यक्षों का सहस्त्राब्दि सम्मेंलन क्रमशः 28-31 अगस्त 2000 व 5-7 सितम्बर, 2000 को न्यूर्याक में आयोजित किया गया था। जबकि स्वामी विवेकानन्द 11 सितम्बर 1893 को शिकागो के विश्व धर्म संसद में ही धर्म का विवादमुक्त स्वरूप और हिन्दू धर्म की सार्वभौमिकता को व्यापकता से व्यक्त कर चुके थे। परिणामस्वरूप संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा आयोजन की कोई आवश्यकता न थी। आवश्यकता यदि है तो सार्वभौम धर्म-विश्व धर्म के निर्माण के लिए धर्म द्वारा विश्व प्रबन्ध अर्थात लोकतन्त्र में लोक या गण या जन का स्पष्ट और विवादमुक्त स्वरूप व्यक्त करते हुये उसके अनुसार तन्त्रों की स्थापना का। जिसे विश्व के सबसे बड़े विश्वमन संसद अर्थात विश्व के सबसे बड़े लोकतन्त्र आधारित संसद दिल्ली (भारत) में प्रस्तुत किया जाना चाहिए। प्रश्न हो सकता है कि क्या भारत सहित विश्व का एक नागरिक भारत सहित विश्व के कल्याणार्थ स्वस्थ लोकतंत्र, स्वस्थ समाज, स्वस्थ उद्योग सहित पूर्ण मानव के निर्माण का महान उद्देश्य का वर्तमान व्यवस्थानुसार हल जो सत्य (न कि मत या विचार) पर आधारित हो, को संसद में प्रस्तुत और संसद को सम्बोधित करने का अधिकार नहीं रखता?
संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा धर्माचार्यो व राष्ट्राध्यक्षों के सहस्त्राब्दि सम्मेंलन के पूर्व (6 जून, 2000) को ही संयुक्त राष्ट्र महासचिव श्री कोफी अन्नान व भारत के तत्कालीन राष्ट्रपति श्री के0 आर0 नारायणन को पूर्ण मानव निर्माण की तकनीकी ॅब्ड.ज्स्ड.ैभ्ल्।डण्ब् और मन (मानव संसाधन) का विश्वमानव के आविष्कार की सूचना पंजीकृत डाक से लव कुश सिंह ”विश्वमानव“ द्वारा प्रेशित की जा चुकी थीं। जिसके प्रतिक्रिया स्वरूप महासचिव श्री कोफी अन्नान ने राष्ट्राध्यक्षों को सम्बोधित अपने वक्तव्य में ये वाक्य भी कहें-”भूमण्डलीय चुनौति जो मिलकर कार्य करने के लिए विवश करता है, हम सामना कर सकेंगे यदि यह आर्थिक और सामाजिक स्तर पर सत्य हो। लेकिन भूमण्डलीय क्रिया का प्रारम्भ कहीं निर्मित हो चुका है और यदि संयुक्त राष्ट्रसंघ में नहीं तो कहाँ? मैं जानता हूँ स्वयं की एक घोषणा कम महत्व रखती है परन्तु दृढ़ प्रतिज्ञा युक्त एक घोषणा और यथार्थ लक्ष्य, सभी राष्ट्रो के नेताओं द्वारा निश्चित रूप से स्वीकारने योग्य, अपने सत्ताधारी की कुशलता का निर्णय के लिए एक पैमाने के रूप में विश्व के व्यक्तियों के लिए अति महत्व का हो सकता है। और मैं आशा करता हूँ कि यह कैसे हुआ देखने के लिए सम्पूर्ण विश्व पीछे होगा।“ (वक्तव्य का अंश, पूर्ण वक्तव्य ”द टाइम्स आँफ इण्डिया“ नई दिल्ली, 7 सितम्बर, 2000 को अंग्रेजी में प्रकाशित)।
भारत तथा विश्व में यह अहंकार की प्राथमिकता का प्रभाव ही है कि एक तरफ व्यक्ति स्तर से लेकर विश्व स्तर तक के कल्याण व शक्ति के एकीकरण के लिए विश्वमानक-शून्य श्रृंखला तथा पूर्ण मानव निर्माण की तकनिकी ॅब्ड.ज्स्ड.ैभ्ल्।डण्ब् का आविष्कार हो चुका है तथा दूसरी तरफ महासचिव श्री कोफी अन्नान उसकी सूचना भी दे चुके है परन्तु आज भी विश्व कल्याण का उद्देश्य सामने रखकर ऐसे क्रियाकलाप व आयोजन संचालित हो रहे है जिसका सम्बन्ध विश्व कल्याण से है ही नहीं। फलस्वरूप संकीर्ण मानसिकता आधारित आतंकवादी गतिविधियाँ विश्व विकास के विरूद्व सक्रिय होती जा रही है। जिसके कारण विश्व चिंतक गण अब वैश्विक एकता, सुरक्षा, शान्ति, विकास पर सोचने को विवश होते जा रहे है। सार्वभौम सत्य-सिद्वान्त आधारित यह आविष्कार विचार आधारित नहीं बल्कि सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में व्याप्त सार्वभौम नियम है जो स्थापना के लिए प्रकृति द्वारा ही मानव को विवश कर देने में सक्षम है। सन् 1998 से ही श्री लव कुश सिंह ”विश्वमानव“ इस आविष्कार का प्रकाशन व वितरण इसलिए रोक रखे थे क्योंकि व्यक्ति व विश्व जब तक समस्या ग्रस्त नहीं होता तब तक वह हल पर चिन्तन भी नहीं करता चाहे वह पहले से ही उपलब्ध क्यों न हो।
श्री लव कुश सिंह ”विश्वमानव“ यह भलि-भांति जानते थे और जानते है कि सहस्त्राब्दि विश्व सम्मेंलन हो या अन्य कोई इस प्रकार का सम्मेंलन, चाहे उसमें भारत व विश्व से कितने भी विद्वान क्यों न शामिल हों परन्तु विश्व-कल्याण का यथार्थ लक्ष्य व मार्ग बिना ब्रह्माण्डीय नियमों को आत्मसात् किये प्राप्त नहीं किया जा सकता क्योंकि समय की गति मानवीय और ब्रह्माण्डीय नियमों के एकीकरण की ओर है। और वह एक ही है तथा वह उनके द्वारा आविष्कृत होकर व्यक्त हैं। अब चूंकि मनुष्य धीरे-धीरे विवश हो रहा है इसलिए इस आविष्कार को श्री लव कुश सिंह ”विश्वमानव“ के मार्गदर्शन में प्रकाशित किया जा रहा है। विश्व के सबसे बड़े विश्वमन व लोकतन्त्र आधारित भारतीय संसद को चाहिए कि श्री लव कुश सिंह ”विश्वमानव“ को विश्वमन संसद को सम्बोधित करने के लिए आमंत्रित कर सार्वजनिक सम्मान दें। जिसके वे पूर्ण योग्य भी हैं। साथ ही उनकी अन्तिम इच्छा को यथाशीघ्र पूर्ण करते हुये व्यापक सुरक्षा एवम् संसाधन उपलब्ध कराकर राष्ट्र निर्माण में अधिकतम उपयोंग करें। क्योंकि इसके अलावा कोई मार्ग भी नहीं है। ”वसुधैव-कुटुम्बकम्“, ”एकात्म मानवतावाद“, ”बहुजन हिताय-बहुजन सुखाय“, ”सर्वेभवन्तु-सुखिनः“ सहित अपने ही विचार ”विश्व-बन्धुत्व“ के स्थायी स्थापनार्थ ”एकात्म कर्मवाद“ पर आधारित इस आविष्कार को लेकर समयानुसार अन्तिम समन्वयाचार्य और स्वामी विवेकानन्द के पुनर्जन्म के रूप में श्री लव कुश सिंह ”विश्वमानव“ का अवतरण समाज के लिए समाचार का विषय है जिसे पत्रकारिता का अपनी स्वस्थता के लिए शीघ्रताशीघ्र ही मुख्य समाचार बनाना चाहिए अन्यथा यह पत्रकारिता के लिए गैर जिम्मेंदार होने का प्रतीक ही बनेगी। पत्रकारिता जन या गण या लोक के इसी कार्य के लिए लोकतन्त्र का चैथा स्तम्भ कहलाता है।
बहरहाल, व्यष्टि मानव (व्यक्तिगत) तथा समष्टि मानव (संगठन/समिति/विश्व इत्यादि संयुक्तमन) के लिए ज्ञान व कर्मज्ञान आधारित व कार्य जो समयानुसार न होने के कारण (क्योकि उस वक्त न तो भारत स्वतन्त्र था न ही संयुक्त राष्ट्र संघ का ही गठन हुआ था) स्वामी विवेकानन्द न कर सके वह अब उनके पुनर्जन्म व सार्वजनिक प्रमाणित पूर्णावतार श्री लव कुश सिंह ”विश्वमानव“ ने पूर्ण किया। श्री लव कुश सिंह ”विश्वमानव“, स्वामी विवेकानन्द के पुनर्जन्म हैं या नहीं इसके लिए इन बिन्दुओं पर ध्यान देने की बात है-”शास्त्र कहते है कि कोई साधक यदि एक जीवन में सफलता प्राप्त करने में असफल होता है तो वह पुनः जन्म लेता है और अपने कार्यो को अधिक सफलता से आगे बढ़ाता है। (योग क्या है, श्राम कृष्ण मिशन, पृ0 83), ”एक विशेष प्रवृत्ति वाला जीवात्मा ”योग्य योग्येन युज्यते“ इस नियमानुसार उसी शरीर में जन्म ग्रहण करता है जो उस प्रवृत्ति के प्रकट करने के लिए सबसे उपयुक्त आधार हो। यह पूर्णतया विज्ञान संगत है, क्योंकि विज्ञान कहता है कि प्रवृत्ति या स्वभाव अभ्यास से बनता है और अभ्यास बारम्बार अनुष्ठान का फल है। इस प्रकार एक नवजात बालक की स्वाभाविक प्रवृत्तियों का कारण बताने के लिए पुनः पुनः अनुष्ठित पूर्व कर्मो को मानना आवश्यक हो जाता है और चूंकि वर्तमान जीवन में इस स्वभाव की प्राप्ति नहीं की गयी, इसलिए वह पूर्व जीवन से ही उसे प्राप्त हुआ है। (हिन्दूधर्म, श्राम कृष्ण मिशन, पृष्ठ-6) ज्ञातव्य हो कि श्री लव कुश सिंह ”विश्वमानव“ द्वारा व्यक्त सभी शास्त्र-साहित्य उनके इस जीवन का न तो शैक्षणिक समय का विषय रहा है न ही किसी ने उनका मार्ग दर्शन ही किया है। यहाँ स्वामी विवेकानन्द के शब्द भी सोचने योग्य है-”सम्भवतः यह अच्छा होगा कि मैं अपने इस शरीर से बाहर निकल आउँ और इसे जीर्ण वस्त्र की भाँति उतार फेकूँ, किन्तु फिर भी मैं कार्य करते रहने से रूकूँगा नहीं, मानव समाज में मैं सर्वत्र प्रेरणा प्रदान करता रहूँगा जब तक कि संसार यह भाव आत्मसात् न कर लें कि वह ईश्वर के साथ एक है। (राष्ट्र को आहवान, श्राम कृष्ण मिशन, पृष्ठ 23)।

तम मार्ग से-
रावण और श्री लव कुश सिंह ”विश्वमानव“

रावण: परिचय
रावण श्रीरामायण का एक केंद्रीय प्रतिचरित्र है। रावण लंका का राजा था। वह अपने दस सिरों के कारण भी जाना जाता था, जिसके कारण उसका नाम दशानन (दश त्र दस, आनन त्र मुख) भी था। किसी भी कृति के लिये नायक के साथ ही सशक्त खलनायक का होना अतिआवश्यक है। श्रीरामकथा में रावण ऐसा पात्र है, जो श्रीराम के उज्ज्वल चरित्र को उभारने काम करता है। किंचित मान्यतानुसार रावण में अनेक गुण भी थे। वह एक कुशल राजनीतिज्ञ, महापराक्रमी, अत्यन्त बलशाली, अनेकों शास्त्रों का ज्ञाता प्रकान्ड विद्वान पंडित एवं महाज्ञानी था। रावण के शासन काल में लंका का वैभव अपने चरम पर था इसलिये उसकी लंकानगरी को सोने की लंका अथवा सोने की नगरी भी कहा जाता है। वर्तमान श्रीलंका के प्राचीन तमिल पोर्ट त्रिंकोमाली में रावण की मूर्ति आज भी स्थापित है।

रावण के दस सिर
रावण के दस सिर होने की चर्चा श्रीरामायण में आती है। वह कृष्णपक्ष की अमावस्या को युद्ध के लिये चला था तथा एक-एक दिन क्रमशः एक-एक सिर कटते हैं। इस तरह दसवें दिन अर्थात् शुक्लपक्ष की दशमी को रावण का वध होता है। श्रीरामचरितमानस में यह भी वर्णन आता है कि जिस सिर को श्रीराम अपने बाण से काट देते हैं पुनः उसके स्थान पर दूसरा सिर उभर आता था। विचार करने की बात है कि क्या एक अंग के कट जाने पर वहाँ पुनः नया अंग उत्पन्न हो सकता है? वस्तुतः रावण के ये सिर कृत्रिम थे-आसुरी माया से बने हुये। मारीच का चाँदी के बिन्दुओं से युक्त स्वर्ण मृग बन जाना, रावण का सीता के समक्ष श्रीराम का कटा हुआ सिर रखना आदि से सिद्ध होता है कि राक्षस मायावी थे। वे अनेक प्रकार के इन्द्रजाल (जादू) जानते थे। तो रावण के दस सिर और बीस हाथों को भी कृत्रिम माना जा सकता है। कुछ विद्वान मानते हैं कि रावण के दस सिरों की बात प्रतीकात्मक है-उसमें दस मनुष्यों की जितनी बुद्धि थी और दस आदमियों का बल था!

रावण द्वारा भगवान शंकर की स्तुति
उसने भगवान महादेव की सुंदर स्तुती की ”जटाटवीगलज्जलप्रवाहपावितस्थले गलेऽवलम्ब्य लम्बितां भुजङ्गतुङ्गमालिका्... भोलेनाथ ने स्तुति से प्रसन्न होके उससे कहा कि रावण यद्यपि मैं नृत्य तभी करता हूँ जब क्रोध में होता हूँ, इसलिये क्रोध में किये नृत्य को तांडव नृत्य नाम से संसार जानता है. किंतु आज तुमने अपनी इस सुंदर स्रोत से और सुंदर गायन से मेरा मन प्रसन्नता पूर्वक नृत्य करने को हो गया. रावण द्वारा रचित और गाया हुआ यह स्रोत शिव तांडव स्रोत कहलाया क्युँकि भगवान शिव का नृत्य तांडव कहलाता है परन्तु वह क्रोध में होता है लेकिन इस स्रोत में भगवान प्रसन्नता पूर्वक नृत्य करते हैं. इसके उपरांत भगवान शिव ने रावण को प्रसन्न होके चंद्रहास नामक तलवार दी, जिसके हाथ में रहने पर उसे तीन लोक में कोई यद्ध में नहीं हरा सकता था।

रावण का अत्याचार
रावण के नाम का फायदा ऊठाया दूसरे राक्षसों ने, उसके नाम पर कर वसूली, सिद्ध, संतों मुनि जनों का अपमान होने लगा। राक्षसों ने देवताओं से अपना बैर निकालने के लिये, वो कभी गायों को (पृथ्वी समझ कर कि ब्रह्मा जी के पास गयी थी, इसका भेद पूछने के लिये) और ब्राह्मणों इसलिये कि, स्वर्ग में बहुत कम देवता ही रह गये है शायद ये रूप बदल कर देवता ही ब्राह्मण हैं और संत बन के देवताओं की मदद कर रहे हैं राक्षस जहाँ तहाँ सभी को त्रास देने और मारने लगे। जिससे पृथ्वी पर भार और बढ गया लेकिन रावण ने इन सब पर ध्यान नहीं दिया।

रावण के गुण
रावण में कितना ही राक्षसत्व क्यों न हो, उसके गुणों विस्मृत नहीं किया जा सकता। ऐसा माना जाता हैं कि रावण शंकर भगवान का बड़ा भक्त था। वह महा तेजस्वी, प्रतापी, पराक्रमी, रूपवान तथा विद्वान था।
वाल्मीकि उसके गुणों को निष्पक्षता के साथ स्वीकार करते हुये उसे चारों वेदों का विश्वविख्यात ज्ञाता और महान विद्वान बताते हैं। वे अपने श्रीरामायण में हनुमान का रावण के दरबार में प्रवेश के समय लिखते हैं
अहो रूपमहो धैर्यमहोत्सवमहो द्युतिः।
अहो राक्षसराजस्य सर्वलक्षणयुक्तता।
आगे वे लिखते हैं ”रावण को देखते ही श्रीराम मुग्ध हो जाते हैं और कहते हैं कि रूप, सौन्दर्य, धैर्य, कान्ति तथा सर्वलक्षणयुक्त होने पर भी यदि इस रावण में अधर्म बलवान न होता तो यह देवलोक का भी स्वामी बन जाता।“
रावण जहाँ दुष्ट था और पापी था, वहीं उसमें शिष्टाचार और ऊँचे आदर्श वाली मर्यादायें भी थीं। श्रीराम के वियोग में दुःखी सीता से रावण ने कहा है, ”हे सीते! यदि तुम मेरे प्रति काम-भाव नहीं रखती तो मैं तुझे स्पर्श नहीं कर सकता।“ शास्त्रों के अनुसार वन्ध्या, रजस्वला, अकामा आदि स्त्री को स्पर्श करने का निषेध है अतः अपने प्रति अ-कामा सीता को स्पर्श न करके रावण शास्त्रोचित मर्यादा का ही आचरण करता है।
वाल्मीकि श्रीरामायण और श्रीरामचरितमानस दोनों ही ग्रंथों में रावण को बहुत महत्त्व दिया गया है। राक्षसी माता और ऋषि पिता की सन्तान होने के कारण सदैव दो परस्पर विरोधी तत्त्व रावण के अन्तःकरण को मथते रहते हैं।

बौद्धिक संपदा का संरक्षणदाता-रावण
रावण के ही प्रसंग में श्रीकृष्ण जुगनू का अभिमत है-”....लंकापति रावण पर विजय का पर्व अकसर यह याद दिलाता है कि रावण की सभा बौद्धिक संपदा के संरक्षण की केंद्र थी। उस काल में जितने भी श्रेष्ठजन थे, बुद्धिजीवी और कौशलकर्ता थे, रावण ने उनको अपने आश्रय में रखा था। रावण ने सीता के सामने अपना जो परिचय दिया, वह उसके इसी वैभव का विवेचन है। अरण्यकाण्घ्ड का 48वां सर्ग इस प्रसंग में द्रष्टव्य है।
उस काल का श्रेष्ठ शिल्पी मय, जिसने स्वयं को विश्वकर्मा भी कहा, उसके दरबार में रहा। उसकाल की श्रेष्ठ पुरियों में रावण की राजधानी लंका की गणना होती थी-यथेन्द्रस्यामरावती। मय के साथ रावण ने वैवाहिक संबंध भी स्थापित किया। मय को विमान रचना का भी ज्ञान था। कुशल आयुर्वेदशास्त्री सुषेण उसके ही दरबार में था जो युद्धजन्य मूर्च्छा के उपचार में दक्ष था और भारतीय उपमहाद्वीप में पाई जाने वाली सभी औषधियों को उनके गुणधर्म तथा उपलब्धि स्थान सहित जानता था। शिशु रोग निवारण के लिए उसने पुख्ता प्रबंध किया था। स्वयं इस विषय पर ग्रंथों का प्रणयन भी किया।
श्रेष्ठ वृक्षायुर्वेद शास्त्री उसके यहाँ थे जो समस्त कामनाओं को पूरी करने वाली पर्यावरण की जनक वाटिकाओं का संरक्षण करते थे-सर्वकाफलैर्वृक्षैः संकुलोद्यान भूषिता। इस कार्य पर स्वयं उसने अपने पुत्र को तैनात किया था। उसके यहाँ रत्न के रूप में श्रेष्ठ गुप्तचर, श्रेष्ठ पश्रीरामर्शदाता और कुलश संगीतज्ञ भी तैनात थे। अंतपुर में सैकड़ों औरतें भी वाद्यों से स्नेह रखती थीं।
उसके यहाँ श्रेष्ठ सड़क प्रबंधन था और इस कार्य पर दक्ष लोग तैनात थे तथा हाथी, घोड़े, रथों के संचालन को नियमित करते थे। वह प्रथमतः भोगों, संसाधनों के संग्रह और उनके प्रबंधन पर ध्यान देता था। इसी कारण नरवाहन कुबेर को कैलास की शरण लेनी पड़ी थी। उसका पुष्पक नामक विमान रावण के अधिकार में था और इसी कारण वह वायु या आकाशमार्ग उसकी सत्ता में था-यस्य तत् पुष्पकं नाम विमानं कामगं शुभ्। वीर्यावर्जितं भद्रे येन यामि विहायस्।
उसने जल प्रबंधन पर पूरा ध्यान दिया, वह जहां भी जाता, नदियों के पानी को बांधने के उपक्रम में लगा रहता था-नद्यश्च स्तिमतोदकाः, भवन्ति यत्र तत्राहं तिष्ठामि चरामि च। कैलास पर्वतोत्थान के उसके बल के प्रदर्शन का परिचायक है, वह ”माउंट लिफ्ट“ प्रणाली का कदाचित प्रथम उदाहरण है। भारतीय मूर्तिकला में उसका यह स्वरूप बहुत लोकप्रिय रहा है। बस.... उसका अभिमान ही उसके पतन का कारण बना। वरना नीतिज्ञ ऐसा कि श्रीराम ने लक्ष्मण को उसके पास नीति ग्रहण के लिए भेजा था, विष्णुधर्मोत्तरपुराण में इसके संदर्भ विद्यमान हैं।

रावण के अवगुण
वाल्मीकि रावण के अधर्मी होने को उसका मुख्य अवगुण मानते हैं। उनके श्रीरामायण में रावण के वध होने पर मन्दोदरी विलाप करते हुये कहती है, ”अनेक यज्ञों का विलोप करने वाले, धर्म व्यवस्थाओं को तोड़ने वाले, देव-असुर और मनुष्यों की कन्याओं का जहाँ-तहाँ से हरण करने वाले! आज तू अपने इन पाप कर्मों के कारण ही वध को प्राप्त हुआ है।” तुलसीदास जी केवल उसके अहंकार को ही उसका मुख्य अवगुण बताते हैं। उन्होंने रावण को बाहरी तौर से श्रीराम से शत्रु भाव रखते हुये हृदय से उनका भक्त बताया है। तुलसीदास के अनुसार रावण सोचता है कि यदि स्वयं भगवान ने अवतार लिया है तो मैं जा कर उनसे हठपूर्वक वैर करूंगा और प्रभु के बाण के आघात से प्राण छोड़कर भव-बन्धन से मुक्त हो जाऊंगा।
रावण का उदय
पद्मपुराण, श्रीमद्भागवत पुराण, कूर्मपुराण, श्रीरामायण, महाभारत, आनन्द श्रीरामायण, दशावतारचरित आदि ग्रंथों में रावण का उल्लेख हुआ है। रावण के उदय के विषय में भिन्न-भिन्न ग्रंथों में भिन्न-भिन्न प्रकार के उल्लेख मिलते हैं।
वाल्मीकि द्वारा लिखित श्रीरामायण महाकाव्य के समय में, रावण लंकापुरी का सबसे शक्तिशाली राजा था।
पद्मपुराण तथा श्रीमद्भागवत पुराण के अनुसार हिरण्याक्ष एवं हिरण्यकशिपु दूसरे जन्म में रावण और कुम्भकर्ण के रूप में पैदा हुये।
वाल्मीकि श्रीरामायण के अनुसार रावण पुलस्त्य मुनि का पोता था अर्थात् उनके पुत्र विश्रवा का पुत्र था। विश्वश्रवा की वरवर्णिनी और कैकसी नामक दो पत्नियां थी। वरवर्णिनी के कुबेर को जन्म देने पर सौतिया डाहवश कैकसी ने कुबेला (अशुभ समय-कु-बेला) में गर्भ धारण किया। इसी कारण से उसके गर्भ से रावण तथा कुम्भकर्ण जैसे क्रूर स्वभाव वाले भयंकर राक्षस उत्पन्न हुये।
तुलसीदास जी के श्रीरामचरितमानस में रावण का जन्म शाप के कारण हुआ था। वे नारद एवं प्रतापभानु की कथाओं को रावण के जन्म कारण बताते हैं।
भागवत पुराण, मार्कण्डेय पुराण के अनुसार महर्षि कश्यप का विवाह दक्ष वंश की 13 कन्याओं से हुआ जिनके नाम हैं-1. दिति, 2. दनु, 3. क्रोधवशा, 4. ताम्रा, 5. काष्ठा, 6. अरिष्ठा, 7. सुरसा, 8. इला, 9. मुनी, 10. सुरभि, 11. शरमा और 12. तिमिय 13. अदिति। इन 13 स्त्रीयों से 13 मानव जातियाँ बनीं और इनसे इस वंश का विस्तार होता गया। ये वंश ईरान तथा मध्य ऐशिया में अपना राज्य कायम किये हुये थे। कश्यप एक गोत्र का भी नाम है। यह बहुत व्यापक गोत्र है। जिसका गोत्र नहीं मिलता उसके लिए कश्यप गोत्र की कल्पना कर ली जाती है, क्योंकि एक परम्परा के अनुसार सभी जीवधारियों की उत्पत्ति कश्यप से हुई। इन्ही से ही सृष्टि का सृजन हुआ और जिसके परिणामस्वरूप महर्षि कश्यप जी ”सृष्टि के सृजक“ कहलाए। जिनमें से कुछ का विवरण इस प्रकार हैं-

रावण के माता पक्ष वंश
कश्यप की 1. दिति नामक स्त्री के दूसरे पुत्र दैत्य से दैत्य जाति की स्थापना हुई। दैत्यों की एक शाखा मय सभ्यता के रूप में जानी जाती थी। मय का राज्य मयेरिका जाना जाता था जिसकी राजधानी मयसिको तथा वर्तमान नाम अमेरिका हो गया। दूसरी शाखा मेंसोपोटामिया तथा तीसरी शाखा बेबीलोन में थी। जो असुर सभ्यता के नाम से जानी जाती थी। असुरों की राजधानी असीरिया थी। दिति के गर्भ से परम् दुर्जय हिरण्यकश्यपु और हिरण्याक्ष नामक दो पुत्र एवं सिंहिका नामक एक पुत्री पैदा की। श्रीमद्भागवत् के अनुसार इन तीन संतानों के अलावा दिति के गर्भ से कश्यप के 49 अन्य पुत्रों का जन्म भी हुआ, जोकि मरून्दण कहलाए। कश्यप के ये पुत्र निःसंतान रहे। देवराज इन्द्र ने इन्हें अपने समान ही देवता बना लिया। जबकि हिरण्याकश्यपु को चार पुत्रों अनुहल्लाद, हल्लाद, परम भक्त प्रहल्लाद, संहल्लाद आदि की प्राप्ति हुई। इसी वंश में राजा बलि, बाणासुर, कुंभ, निकुंभ थे। राजा बलि, प्रहल्लाद के पुत्र विरोचन के पुत्र थे और बलि के पुत्र का नाम वाणासुर था। बलि का राज्य वर्तमान केरल प्रदेश में था जिसे पाताल लोक कहा गया है। 
इसी वंश के सुमाली की चार कन्याओं (1. कैकसी, 2. कुम्भीनर्सी, 3. राका 4. पुष्पोत्कटा) का विवाह पुलस्त्य के पुत्र विश्रवा (रावण के पिता) से हुआ था। भृगु ऋषि तथा हिरण्यकश्यपु की पुत्री दिव्या के पुत्र शुक्राचार्य दैत्यों के गुरू थे। शुक्राचार्य की पुत्री का नाम देवयानी व पुत्र शंद और अर्मक थे। देवयानी का विवाह चन्द्रवंशी राजा ययाति से हुआ था।

रावण के पिता पक्ष वंश
ब्रह्मा के 10 मानस पुत्रों में से चैथे कान से पुलस्त्य थे। पुलस्त्य के पुत्र विश्रवा थें। विश्रवा का विवाह सुमाली की चार कन्याओं से हुआ था जिनकी 1. कैकसी रानी से रावण, 2. कुम्भीनसी रानी से कुम्भकर्ण, 3. राका रानी से विभीषण और 4. पुष्पोत्कटा रानी से सूपर्णखा का जन्म हुआ था। इस प्रकार रावण के पिता शुद्ध आर्य वंश और माता शुद्ध दैत्य वंश की थी।

श्रीराम-रावण युद्ध

रावण और श्री लव कुश सिंह ”विश्वमानव“
शासक और मार्गदर्शक आत्मा सर्वव्यापी है। इसलिए एकात्म का अर्थ संयुक्त आत्मा या सार्वजनिक आत्मा है। जब एकात्म का अर्थ संयुक्त आत्मा समझा जाता है तब वह समाज कहलाता है। जब एकात्म का अर्थ व्यक्तिगत आत्मा समझा जाता है तब व्यक्ति कहलाता है। व्यक्ति (अवतार) संयुक्त आत्मा का साकार रुप होता है जबकि व्यक्ति (पुनर्जन्म) व्यक्तिगत आत्मा का साकार रुप होता है। शासन प्रणाली में समाज का समर्थक दैवी प्रवृत्ति तथा शासन व्यवस्था प्रजातन्त्र या लोकतन्त्र या स्वतन्त्र या मानवतन्त्र या समाजतन्त्र या जनतन्त्र या बहुतन्त्र या स्वराज कहलाता है और क्षेत्र गण राज्य कहलाता है ऐसी व्यवस्था सुराज कहलाती है। शासन प्रणाली में व्यक्ति का समर्थक असुरी प्रवृत्ति तथा शासन व्यवस्था राज्यतन्त्र या राजतन्त्र या एकतन्त्र कहलाता है और क्षेत्र राज्य कहलाता है ऐसी व्यवस्था कुराज कहलाती है। सनातन से ही दैवी और असुरी प्रवृत्तियों अर्थात् दोनों तन्त्रों के बीच अपने-अपने अधिपत्य के लिए संघर्ष होता रहा है। जब-जब समाज में एकतन्त्रात्मक या राजतन्त्रात्मक अधिपत्य होता है तब-तब मानवता या समाज समर्थक अवतारों के द्वारा गणराज्य की स्थापना की जाती है। या यूँ कहें गणतन्त्र या गणराज्य की स्थापना-स्वस्थता ही अवतार का मूल उद्देश्य अर्थात् लक्ष्य होता है शेष सभी साधन अर्थात् मार्ग।
रावण राज्य, व्यक्ति का समर्थक असुरी प्रवृत्ति तथा शासन व्यवस्था राज्यतन्त्र या राजतन्त्र या एकतन्त्र था। रावण इस कारण ही असुर की श्रेणी में रखे गये न कि माँस-मदिरा के प्रयोग के कारण। तामसिंक प्रवृत्ति से युक्त रावण एक ज्ञानी ब्राह्मण थे। 
परशुराम परम्परा (अवतारी परम्परा) के प्रचार-प्रसार और स्थापना के लिए निकले श्रीराम जिसका माध्यम था-वनवास, के द्वारा रावण की बहन सुपर्णखा से दुव्र्यवहार के कारण रावण ने श्रीरा की पत्नी सीता का हरण कर अपनी ताकत का प्रदर्शन किया था। इस कारण श्रीराम-रावण युद्ध हुआ और श्रीराम की विजय हुयी। फलस्वरूप रावण के राज्य लंका में परशुराम परम्परा की स्थापना हुयी। सीता के हरण के उपरान्त जब तक सीता रावण के राज्य में रहीं तब तक रावण के विभिन्न चरित्रों से परिचित भी हुईं थी। 
हिन्दू धर्म में पुराणों के अनुसार शिवजी जहाँ-जहाँ स्वयं प्रगट हुये उन बारह स्थानों पर स्थित शिवलिंगों को ज्योतिर्लिंगों के रूप में पूजा जाता है। ये संख्या में 12 है। 12 ज्योतिर्लिंगों के नाम शिव पुराण (शतरुद्र संहिता, अध्याय 42/2-4) के अनुसार हैं। जिनकी अपनी-अपनी कथाएँ भी हैं। एक मतानुसार बारह ज्योतिर्लिंगों को बारह राशियों से जोड़कर भी देखा जाता है। ये राशियां इस प्रकार से हैं-1. मेष-सोमनाथ, 2. वृष-श्रीशैल, 3. मिथुन-महाकाल, 4. कर्क-अमलेश्वर, 5. सिंह-वैद्यनाथ, 6. कन्या-भीमशंकर, 7. तुला-श्रीरामेश, 8. वृश्चिक-नागेश, 9. धनु-विश्वेशं, 10. मकर-त्र्यम्बकं, 11. कुंभ-केदार, 12. मीन-घृष्णेशं। ये राशियां चंद्र राशि समझें।
साधारण भाषा व सार्वभौम परिभाषा के रूप में जिन शिवलिंगो की कथा पौराणिक या अवतारों की कथा से जुड़ी होती है सिर्फ वही ज्योर्तिलिंग की योग्यता रखते हैं।
श्रीवैद्यनाथ ज्योतिर्लिङ्ग-झारखंड देवघर जिला (झारखंड) राज्य के संथाल परगना क्षेत्र में जसीडीह स्टेशन के पास देवघर (वैद्यनाथधाम) नामक स्थान पर श्रीवैद्यनाथ ज्योतिर्लिङ्ग सिद्ध होता है, क्योंकि यही चिताभूमि है। महाराष्ट्र में पासे परभनी नामक जंक्शन है, वहां से परली तक एक ब्रांच लाइन गयी है, इस परली स्टेशन से थोड़ी दूर पर परली ग्राम के निकट श्रीवैद्यनाथ को भी ज्योतिर्लिङ्ग माना जाता है। परंपरा और पौराणिक कथाओं से देवघर स्थित श्रीवैद्यनाथ ज्योतिर्लिङ्ग को ही प्रमाणिक मान्यता है। जो रावण की एक कथा से सम्बन्धित है।
श्रीरामेश्वर ज्योतिर्लिङ्ग-तमिलनाडु श्रीरामेंश्वरम श्रीरामेंश्वर तीर्थ तमिलनाडु प्रांत के श्रीरामनाड जिले में है। यहाँ लंका विजय के पश्चात् भगवान श्रीराम ने अपने अराध्यदेव शंकर की पूजा की थी। ज्योतिर्लिंग को श्रीरामेंश्वर या श्रीरामलिंगेश्वर के नाम से जाना जाता है।
ज्योतिर्लिङ्ग के इतिहास में पहली बार ऐसा हुआ है कि श्रीराम-रावण की कथा में रावण को खलनायक पक्ष में रखने के बावजूद उनकी कथा से भी जुड़ा ज्योतिर्लिङ्ग है और वह श्रीराम के ज्योतिर्लिङ्ग से पहले ही स्थापित था। जो यह सिद्ध करता है कि रावण में कोई कमी नहीं थी। वर्तमान स्थिति में भी देखा जाये तो किसी की बहन के साथ दुव्र्यवहार का परिणाम ही तो युद्ध था। 
युद्धोपरान्त सीता के दो पुत्र जन्म लिये। लव और कुश श्रीराम तथा सीता के जुड़वां बेटे थे। उनका जन्म तथा पालन वन में वाल्मीकि आश्रम में हुआ था। सब भाइयों के आग्रह को मानकर श्रीरामचन्द्र जी ने अश्वमेंध यज्ञ का अनुष्ठान किये। यज्ञ एक वर्ष से भी अधिक समय तक चलता रहा। अश्वमेंध यज्ञ जो अपनी व्यवस्था की सर्वोच्चता की घोषणा का प्रतीक होता था। अश्वमेंध यज्ञ में सर्वोच्चता का प्रतीक घोड़ा छोड़ा जाता था जो घोड़ा पकड़कर युद्ध में पराजित कर देता था उसे राजा बना दिया जाता था। श्रीराम द्वारा छोड़े गये घोड़े को ”लव“ और ”कुश“ नाम के दो शुद्धात्मा बालक ने घोड़े को पकड़कर श्रीराम की सेना को लगभग हरा चुके थे। परन्तु बालकों की माता सीता जिन्हे श्रीराम द्वारा वर्णाश्रम विभाजित गुण एवम् कर्मो पर आधारित जाति के प्रभाव में आकर वनगमन दिया गया था, की उपस्थिति द्वारा एक-दूसरे के पिता-पुत्र रूप में परिचय के उपरान्त यह युद्ध रूक गया। 
जब श्रीराम ने वानप्रस्थ लेने का निश्चय कर भरत का राज्यभिषेक करना चाहा तो भरत नहीं माने। अतः दक्षिण कोसल प्रदेश में कुश और उत्तर कोसल में लव का अभिषेक किया गया। कुश के लिये विन्ध्याचल के किनारे कुशावती और लव के लिये श्रावस्ती नगरों का निर्माण कराया फिर उन्हें अपनी-अपनी राजधानियों को जाने का आदेश दिया। 
प्रत्येक पूर्णावतार के जीवन में उसके व्यक्त होने की कला तथा अगले पूर्णावतार के व्यक्त होने की कला का संकेत रूप दिया रहता है। ब्रह्मा के पूर्णावतार श्रीराम के जीवन में वर्तमान परिस्थितियों पर कर्म करना श्रीराम कला थी जबकि लव कुश का व्यवहार-विरूद्व फिर समाहित होना अगले पूर्णावतार की कला का व्यक्तिगत प्रमाणित अदृश्य संकेत रूप था। विष्णु के व्यक्तिगत प्रमाणित पूर्णावतार श्रीकृष्ण के जीवन में श्रीरामकला समाहित समाज की धारा के विरूद्व चलकर समाज की धारा में ही समाहित हो जाना श्रीकृष्ण कला थी। जो कि अगले पूर्णावतार की कला का व्यक्तिगत प्रमाणित दृश्य संकेत रूप था। शिव-शंकर के पूर्णावतार तथा विष्णु के सार्वजनिक प्रमाणित पूर्णावतार के जीवन में श्रीकृष्णकला का सार्वजनिक प्रमाणित दृश्य रूप है। जबकि विश्व की धारा जहाँ तक पहँुच चुकी है, वहाॅ से स्वयं को जोड़ लेना ”विश्वमानव कला“ है।
वर्तमान समय के श्री लव कुश सिंह “विश्वमानव” भी रावण की भाँति ज्ञानी अर्थात सात्विक मन, एकान्त निवास, तामसिक भोजन एवं सात्विक कर्म से युक्त हैं। वे स्वयं नायक भी हैं और खलनायक भी। और साथ ही 13वें और अन्तिम भोगेश्वर ज्योतिर्लिंग के स्थापक भी। मूल पाशुपत शैव दर्शन सहित अनेक मतों का सफल एकीकरण के स्वरूप श्री लव कुश सिह “विश्वमानव” के जीवन, कर्म और ज्ञान के अनेक दिशाओं से देखने पर अनेक दार्शनिक, संस्थापक, संत, ऋषि, अवतार, मनु, व्यास, व्यापारी, रचनाकर्ता, नेता, समाज निर्माता, शिक्षाविद्, दूरदर्शिता इत्यादि अनेक रूप दिखते हैं।
इस प्रकार श्री लव कुश सिंह “विश्वमानव”, तामसिक और ज्ञानी प्रवृत्ति के महान चरित्र रावण की दिशा से उनकी अगली कड़ी के रूप में व्यक्त हैं।


“सम्पूर्ण मानक” का विकास - भारतीय आध्यात्म-दर्शन का मूल और अन्तिम लक्ष्य

सम्पूर्ण मानक का विकास 
भारतीय आध्यात्म-दर्शन का मूल और अन्तिम लक्ष्य

अब मानक एवम् मानकीकरण हमारे दैनिक जीवन के अभिन्न अंग बन चुके हैं। अगर हम अपने दैनिक जीवन की गतिविधियों का अवलोकन करते हैं तो यह देखने को मिलता है कि हम जाने-अनजाने में ही कितने ही रूपों में मानकों और मानकीकृत पद्धतियों को अपनायें हुये है। दैनिक जीवन में सर्वत्र स्वीकृत मानक के उदाहरण हैं-करेंसी नोट एवम् सिक्के, माप या तोल के साधन, यातायात के संकेत, देशों के झण्डे, धार्मिक प्रतीक इत्यादि। वैवाहिक एवम् पूजा पद्धति, हमारी परम्परा एवम् आचार व्यवहार आदि हमारी प्राचीन मानकीकृत पद्धतियों के उदाहरण है। अब प्रत्येक मनुष्य के लिए अपना जीवन सुखद बनाने हेतु दूसरों से सेवाएं प्राप्त करना एवम् उन पर निर्भर रहना अनिवार्य हो गया है। व्यक्तियों के बीच आदान-प्रदान सुगम एवम् सुलभ हो इसके लिए सर्वस्वीकृत मानदण्डों की आवश्यकता महसूस की गई।
मानकीकरण का महत्व समाज के उत्थान के लिए है। जैसे संस्कृति मानव समाज में अनुशासन एवम् सही दिशा में प्रगति के लिए मार्गदर्शन देती है। उसी प्रकार उद्योगों को सही दिशा में ले जाने को मानकीकरण महत्वपूर्ण भूमिका अदा करता है। अब दैनिक जीवन में मानकों की महती योगदान को नकारा नहीं जा सकता है। ये उपभोक्ता संरक्षण, ग्रामीण विकास, विश्व व्यापार प्रतिस्पर्धा, औद्योगिक क्रान्ति, शिक्षा एवम् स्वास्थ्य का मूल तन्त्र है। जिनके द्वारा मानकीकरण से मानक के रूप में नवीन वैज्ञानिक तकनीकी व कलात्मक जानकारी से सतत् उन्नति का मार्ग प्रशस्त होता है। जो समाज के सभी वर्गो के लिए प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष रूप से दैनिक जीवन में काम आते है।
मानकीकरण और मानक के मान्य क्षेत्रानुसार अनेक स्तर हो सकते है। जो व्यक्ति, परिवार, ग्राम, विकास खण्ड, जनपद, राज्य, देश व अन्तर्राष्ट्रीय व सर्वोच्च और अन्तिम रूप से विश्व या ब्रह्माण्डीय स्तर तक हो सकता है। भारत में इसके उदाहरण-राज्यों के मानक तथा देश स्तर पर आई.एस.आई. मार्क (भारतीय मानक ब्यूरो) है। विश्व या अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर उदाहरण आई.एस.ओ. (अन्तर्राष्ट्रीय मानक संगठन) आई.ई.सी0, आई.टी.यू. इत्यादि हंै।
सम्पूर्ण विश्व में सादृश्यता व्यापार सम्बन्धों में एकरूपता और सादृश्यता लाने के उद्देश्य से यह आवश्यक था कि एक ही मात्रक प्रणाली सम्पूर्ण विश्व में लागू की जाए। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए सन् 1870 में एकीकृत मीट्रिक मात्रक का विकास करने के लिए विभिन्न देशों का एक सम्मेंलन बुलाया गया। सन् 1875 में पेरिस में मीटर के समझौते पर हस्ताक्षर हुये। इस समझौते के परिणामस्वरूप अन्तर्राष्ट्रीय माप तौल ब्यूरो लागू किया गया। साथ ही समय-समय पर मिलकर आवश्यकतानुसार नये मानकों के निश्चय के लिए माप-तौल का महासम्मेंलन भी स्थापित हुआ।
1954 में आयोजित माप-तौल महासम्मेलन ने मीट्रिक प्रणाली को अन्तर्राष्ट्रीय रूप से अपनाया। 1960 में इसे ”सिस्टम इण्टरनेशनल डी यूनिट्स“ अर्थात् ”अन्तर्राष्ट्रीय मात्रक प्रणाली“ के नाम से परिभाषित किया गया।
यह प्रणाली समय, तापमान, लम्बाई और भार के चार स्वतन्त्र बुनियादी मात्रकों को आधार बनाकर रखी गई। लम्बाई और भार के मात्रक क्रमशः मीटर और किलोग्राम है। समय का मात्रक सेकेण्ड है जो कि परमाणु घड़ी के रूप में निर्धारित है। तापमान का मात्रक सेल्सियस डिग्री (सेंटीग्रेड) को रखा गया है और इसके द्वारा फारेनहाइट डिग्री का प्रतिस्थापन हो गया है। सम्मेंलन ने समय मात्रक, मिनट, घंटा आदि के साथ-साथ डिग्री मिनट, सेकण्ड जैसे कोणीय मापों तथा नाटिकल मील-नाट आदि सुप्रतिष्ठित मात्रकों को भी स्वीकार किया।
इस प्रकार सम्पूर्ण विश्व में ही पद्धति विकसित करने के लिए प्रत्येक विषय क्षेत्रों में जो व्यावहारिक जीवन से विश्व स्तर को प्रभावित करते है, की और विश्व गतिशील है। उपरोक्त क्षेत्रों-लम्बाई, क्षेत्रीय, भार, द्रव, आयतन तथा घन माप के अलावा विभिन्न गणितीय अंक और विज्ञान के क्षेत्रों के मात्रक भी निर्धारित कर दिये गये जिससे विश्व के किसी भी कोने से मात्रक की भाषा में बोलने से विश्व के किसी कोने में बैठा व्यक्ति उसे उसी रूप में समझ सकने में सक्षम हो गया जबकि लम्बाई में-इंच, फुट, गज, क्षेत्र में-वर्ग इंच, वर्ग फुट, वर्ग गज (भारत में-विस्वा, बीघा), भार में-औंस, पौंड, द्रव आयतन में-पिंट, गैलन, वैरल, का देश स्तर पर प्रचलन था। भारत में भार के लिए-रत्ती, माशा, तोला, कुंचा, छटांक, सेर, पसेरी, मन तथा क्षेत्र के लिए राज्यों के अनुसार भिन्न-भिन्न मात्रक और अर्थ प्रचलित थे।
विश्व व्यापार में पंूजी तथा उपभोक्ता वस्तुओं और सेवाओं का आदान-प्रदान सदियों से होता आ रहा है। यह आदान-प्रदान बहुत सी मुश्किलों को जन्म देता है, विशेषतया औद्योगिक तथा विकासशील देशों में व्यापार करने पर। इस दिशा में द्वितीय विश्व युद्ध के तुरन्त बाद व्यापार को एक जैसा उदार बनाने के उद्देश्य से भौगोलिक दृष्टि से मुक्त व्यापार क्षेत्र बनाए गये। तकनीकी अवरोध, सीमा या अन्य अवरोधों की अपेक्षा अधिक घातक व बाधक सिद्ध हुये। राष्ट्रीय उत्पाद, दूसरे देशों को बाजारों में खरे नहीं उतरे क्योंकि वहाँ तकनीकी भिन्न थे। उदाहरण-बिजली के साकेट को भिन्न-भिन्न देशों में भिन्न-भिन्न पाये गये। इसी प्रकार वोल्टता व फ्रिक्वेंशी इत्यादि। इस पर विचार विमर्श करने वालों ने व्यापार में आने वाले इस तकनीकी अवरोधों से निपटने के लिए बैठकें बुलाई, वार्तालाप किये, परिणामस्वरूप सन् 1995 में संयुक्त राष्ट्र संघ के अधीन विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यु.टी.ओ.) का जन्म हुआ, जिसमें हस्ताक्षर करने वाले देशों को शर्तो के पालन के लिए कड़े दिशा निर्देश दिए गये। विश्व मानकों की महत्ता को स्वीकार करते हुये विश्व व्यापार संगठन ने समझौते में एक परिशिष्ट ”मानक निर्धारण, अधिग्रहण और अनुप्रयोग की उपयुक्त रीति संहिता“ जोड़ा और इस प्रकार विश्व मानकों पर आधारित उत्पादों का एक देश से दूसरे देश में आदान-प्रदान होने लगा। अन्तर्राष्ट्रीय मानक पूरे विश्व में समान गुणवत्ता की चीजें उपलब्ध कराते है। इनके अपनाने से विश्व बाजार में साख बनती है। अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार करना आसान हो जाता है। अतंतः यह विश्वास के साथ कहा जा सकता है कि विश्वमानक ही विश्व व्यापार के आधार हैं।
सभी सम्बन्धित विशेषज्ञों की सहमति से किसी वस्तु पदार्थ अथवा कार्यशैली के सभी तकनीकी एवम् गैर तकनीकी पहलुओं सहित एक ऐसा विस्तार पूर्वक तैयार किया गया विवरण जो सब सम्बन्धित जनों के हित में एवम् वैज्ञानिक गुणता, सुरक्षा एवम् आर्थिक दृष्टि से उत्तम हो, मानकीकरण कहलाता है। मानक वे साधन है जो मानकीकृत गतिविधियों के परिणामों को अधिक परिष्कृत और अभीष्ट बनाते है। इस रूप में इनकी लगातार समीक्षा की जाती है ताकि वे स्वतः पूर्ण सुनिश्चित और स्पष्ट, विरोधाभास तथा असुविधा से मुक्त हों। इन सबसे महत्वपूर्ण यह है कि वे समय से पिछड़े हुये न रहे इसके लिए हमें सतत प्रयत्नशील रहना है।
मानकीकरण एवम् मानक उतने ही प्राचीन हैं जितनी कि मानव सभ्यता। भारत में मानकीकरण का इतिहास बहुत पुराना है। मोहन जोदड़ो एवम् हड़प्पा के उत्खनन से मिली वस्तुओं की जाँच से यह सिद्ध होता है कि भारत 4000 ई0 सदी के पीछे के समय से मानकीकरण पद्धतियों को अपनाये हुये हैं। उत्खनन से मिर्ली इंटों के नाप एक जैसे थे व चैड़ाई व लम्बाई 1: 2 का अनुपात था जो अब भी प्रचलित है। पुरातन युग से ही भारतवासी मानक एवम् मानकीकृत पद्धतियों को अपनाकर विभिन्न कार्यो को पूर्व निर्धारित योजना के अनुरूप नियन्त्रित कर सूक्ष्मता एवम् यथार्थता के साथ करना जानते थे।
जैसे-जैसे मानव सभ्यताओं का मिश्रण होगा वैसे-वैसे मात्रक और मानक के द्वारा एकीकरण की आवश्यकता ही नहीं मनुष्य की विवशता भी होगी। मानक के परिचय और उपयोगिता इस प्रकार स्पष्ट हो जाती है।
भारतीय आध्यात्म-दर्शन-संस्कृति के लिए यह एक नयी और आधुनिक सूक्ष्म दृष्टि ही है कि मानव समाज के एकीकरण के लिए सदैव अपने विचार-सिद्धान्त से मानकीकरण करना ही भारतीय आध्यात्म-दर्शन-संस्कृति का मूल उद्देश्य रहा है जबकि समाज के मानव उसे न अपनाकर मानकीकरण के आविष्कारक और उनके जीवन की ओर बढ़ गये। इतना ही नहीं आविष्कार के आधार पर अनेक आविष्कार भी करते चले गये परिणास्वरूप मानव समाज मानकीकरण के मूल उद्देश्य से इतना दूर आ चुका है कि इस मूल उद्देश्य को स्वीकारना भी उन्हें गलत लगेगा जबकि इस उद्देश्य के बिना उनका पूर्णता की ओर बढ़ना असम्भव भी है और अन्तिम मार्ग भी है।
सृष्टि में साकार और निराकार सृष्टि के दो रूप हैं। साकार सृष्टि यह हमारा दृश्य ब्रह्माण्ड है तो निराकार सृष्टि सार्वभौम सत्य-सिद्धान्त है। इसी प्रकार मानव के सम्बन्ध में भी है निराकार मानव, मानव का अपना विचार है और साकार मानव, मानव का दृश्य शरीर है। भारतीय आध्यात्म-दर्शन इसे मानव सभ्यता के विकास के प्रारम्भ में ही समझ गया था इसलिए वह सदैव मानव समाज के एकीकरण के लिए मानक का विकास करता रहा है। जिसके निम्न विकास क्रम हैं-

अ. व्यक्तिगत प्रमाणित अदृश्य निराकार एवं साकार मानक
01. सार्वभौम मानक-सार्वभौम आत्मा या ईश्वर का आविष्कार।
02. सार्वभौम मानक के पुस्तक-वेद का आविष्कार।
03. सार्वभौम मानक का नाम-ऊँ का आविष्कार।
04. सार्वभौम मानक के नाम के व्याख्या का पुस्तक-उपनिषद् का आविष्कार।
05. सार्वभौम व्यक्तिगत व्यक्ति का मानक-ब्रह्मा (सत्व गुण) का आविष्कार।
06. सार्वभौम सामाजिक व्यक्ति का मानक-विष्णु (सत्व-रज गुण) का आविष्कार।
07. सार्वभौम वैश्विक व्यक्ति का मानक-शिव-शंकर (सत्व-रज-तम गुण) का आविष्कार।
08. सार्वभौम व्यक्तिगत व्यक्ति के मानक के कृति का पुस्तक-ब्रह्मा आधारित पुराण का आविष्कार।
09. सार्वभौम सामाजिक व्यक्ति के मानक के कृति का पुस्तक-विष्णु आधारित पुराण का आविष्कार।
10. सार्वभौम वैश्विक व्यक्ति के मानक के कृति का पुस्तक-शिव-शंकर आधारित पुराण का आविष्कार।

ब. सार्वजनिक प्रमाणित दृश्य निराकार एवं साकार मानक
01. शरीर की अवस्था- आश्रम के मानक का निम्न रूप है-
1. ब्रह्मचर्य आश्रम-5 से 25 वर्ष उम्र तक-ज्ञान-विज्ञान-तकनीकी शिक्षा तथा व्यवहार।
2. गृहस्थ आश्रम-26 से 50 वर्ष उम्र तक-पारिवारिक जीवन में ज्ञान युक्त कत्र्तव्य और दायित्व।
3. वानप्रस्थ आश्रम-51 से 75 वर्ष उम्र तक-माॅगें जाने पर अपने अनुभव से परिवार व समाज का मार्गदर्शन।
4. सन्यास आश्रम-76 से शरीर त्याग तक-आत्मा में स्थित होकर ब्रह्माण्डीय दायित्व व कर्तव्य।

02. कर्म की अवस्था-वर्ण के मानक का निम्नरूप है-
1. ब्राह्मण वर्ण-सूक्ष्म बुद्धि व आत्मा में स्थित हो धर्म से कार्य।
2. क्षत्रिय वर्ण-भाव व मन में स्थित हो बल से कार्य।
3. वैश्य वर्ण-इन्द्रिय व प्राण में स्थित हो धन से कार्य।
4. शूद्र वर्ण-शरीर में स्थित हो शरीर से कार्य।

03. परिवार गठन के मानक का निम्नरूप है-
त्याग -6 पीढ़ी माँ का और पिता के गोत्र की कन्या से वर्जित
वर्जित परिवार-कर्महीन, निष्पुरूष, अज, बहुरोम, बवासीर, रूग्ण-उदर, स्वेत-गलित, कुश्ठ, क्षयी, मृगी, दुष्कुल परिवार का न वर और न वधू।
वर्जित वधू-पीत वर्गा, अधिकांगी, वृहदबदना, उच्चवाचाली, रोम रहित या बहुरोमा, बिल्ली सी आॅख वाली। नदी, नक्षत्र, तरू, दासी, पर्वत के नाम वाली।
योग्य वधू - सर्वांग स्वस्थ, सुनाम, सुदांत, हंस-गजा सी चाल, प्रसन्न मुखी, सुभाषी, लम्बी काली बाल।
विवाह के प्रकार
अ. उत्तम विवाह 
1. ब्राह्म - कन्या अनुमोदित, पिता अलंकृत पुत्री का विवाह।
2. दैव - सभा में विद्वता व्यक्त करने वाले से कन्या के पिता के समर्थन से विवाह।
3. आर्य - ससुर से उनकी पुत्री को माँगना।
4. प्रजापति- साज-बाज बारात के साथ समान्य विवाह।
ब. अधम विवाह
5. असुर - वर-वधू के प्रीत बिना वर या वधू जन को कीमत देकर। 
6. गंधर्व - पिता की आज्ञा बिना स्वेच्छा से।
7. राक्षस - कन्या पक्ष को पीड़ित कर कन्या को विवश करके बालात्कार या अपहरण।
8. पिशाच - दुःखी, बेहोस, सोयी, पगली सी, अल्पायु, ना यौना चाह को दूषित करना।

04. मानव का मानक-अवतारवाद- अवतारवाद का मुख्य उद्देश्य मानव समाज में मानव का मानक निर्धारित करना है। जिसका विकास क्रम निम्न प्रकार है-
01. मत्स्यावतार- इस अवतार द्वारा धारा के विपरीत दिशा (राधा) में गति करने का मानक विचार-सिद्धान्त स्थापित हुआ।
02. कच्छप अवतार- इस अवतार द्वारा सहनशील, शांत, धैर्यवान, लगनशील, दोनों पक्षों के बीच मध्यस्थ की भूमिका वाला गुण (समन्वय का सिद्धान्त) का मानक विचार-सिद्धान्त स्थापित हुआ।
03. बाराह अवतार- इस अवतार द्वारा सूझ-बुझ, सम्पन्न, पुरूषार्थी, धीर-गम्भीर, निष्कामी, बलिष्ठ, सक्रिय, अहिंसक और समूह प्रेमी, लोगों का मनोबल बढ़ाना, उत्साहित और सक्रिय करने वाला गुण (प्रेरणा का सिद्धान्त) का मानक विचार-सिद्धान्त स्थापित हुआ।
04. नरसिंह अवतार- इस अवतार द्वारा प्रत्यक्ष रूप से एका-एक लक्ष्य को पूर्ण करने वाले (लक्ष्य के लिए त्वरित कार्यवाही का सिद्धान्त) का मानक विचार-सिद्धान्त स्थापित हुआ।
05. वामन अवतार- इस अवतार द्वारा भविष्य दृष्टा, राजा के गुण का प्रयोग करना, थोड़ी सी भूमि पर गणराज्य व्यवस्था की स्थापना व व्यवस्था को जिवित करना, उसके सुख से प्रजा को परिचित कराने वाले गुण (समाज का सिद्धान्त) का मानक विचार-सिद्धान्त स्थापित हुआ।
06. परशुराम अवतार- इस अवतार द्वारा गणराज्य व्यवस्था को ब्रह्माण्ड में व्याप्त व्यवस्था सिद्धान्तों को आधार बनाने वाले गुण और व्यवस्था के प्रसार के लिए योग्य व्यक्ति को नियुक्त करने वाले गुण (लोकतन्त्र का सिद्धान्त और उसके प्रसार के लिए योग्य उत्तराधिकारी नियुक्त करने का सिद्धान्त) का मानक विचार-सिद्धान्त स्थापित हुआ।
07. श्रीराम अवतार- इस अवतार द्वारा आदर्श चरित्र के गुण के साथ प्रसार करने वाला गुण (व्यक्तिगत आदर्श चरित्र के आधार पर विचार प्रसार का सिद्धान्त) का मानक विचार-सिद्धान्त स्थापित हुआ।
08. कृष्ण अवतार- इस अवतार द्वारा आदर्श सामाजिक व्यक्ति चरित्र के गुण, समाज मंे व्याप्त अनेक मत-मतान्तर व विचारों के समन्वय और एकीकरण से सत्य-विचार के प्रेरक ज्ञान को निकालने वाले गुण (सामाजिक आदर्श व्यक्ति का सिद्धान्त और व्यक्ति से उठकर विचार आधारित व्यक्ति निर्माण का सिद्धान्त) का मानक विचार-सिद्धान्त स्थापित हुआ।
09. बुद्ध अवतार- इस अवतार द्वारा प्रजा को प्रेरित करने के लिए धर्म, संघ और बुद्धि के शरण में जाने का गुण (धर्म, संघ और बुद्धि का सिद्धान्त) का मानक विचार-सिद्धान्त स्थापित हुआ।
10. कल्कि अवतार- इस अवतार द्वारा आदर्श मानक सामाजिक व्यक्ति चरित्र समाहित आदर्श मानक वैश्विक व्यक्ति चरित्र अर्थात सार्वजनिक प्रमाणित आदर्श मानक वैश्विक व्यक्ति चरित्र का मानक विचार-सिद्धान्त स्थापित करने का काम वर्तमान है और वो अन्तिम भी है।

उपरोक्त दस अवतार द्वारा स्थापित विचार-सिद्धान्त का संयुक्त रूप ही मानक पूर्ण मानव का रूप है। प्रत्येक पूर्व के अवतार द्वारा स्थापित विचार-सिद्धान्त अगले अवतार में वह संक्रमित अर्थात विद्यमान रहते हुये अवतरण होता है। इस प्रकार अन्तिम अवतार में पूर्व के सभी अवतार के गुण विद्यमान होंगे और अन्तिम अवतार ही मानव समाज के लिए मानक मानव होगा।



विश्वात्मा/विश्वमन का विखण्डन व संलयन

विश्वात्मा/विश्वमन का विखण्डन व संलयन


अ. सांख्य दर्शन
सांख्य दर्शन भारत का अत्यंत प्राचीन और प्रमुख दार्शनिक संप्रदाय है इसके प्रवर्तक महर्षि कपिल थे, जिन्हांेने सम्भवतः सातवीं शताब्दी ई0पू0 में इस दर्शन के सूत्रों की रचना की। सांख्य शब्द का तात्पर्य सम्यक ज्ञान से है। सम्यक ज्ञान का तात्पर्य पुरूष और प्रकृति के मध्य की भिन्नता के ज्ञान से है। सांख्य दर्शन का आधार कार्य-कारण सिद्धान्त है। इस सिद्धान्त को सत्कार्यवाद के नाम से जाना जाता है। कार्य-कारण सिद्धान्त के सम्मुख उठने वाले मूल प्रश्न-क्या कार्य की सत्ता उत्पत्ति के पूर्व उपादान कारण में वर्तमान रहती है? का सांख्य दर्शन का सत्कार्यवाद भावात्मक उत्तर है। इसके अनुसार कार्य प्रकार सत्कार्यवाद उत्पत्ति कारण में अव्यक्त रूप में मौजूद रहता है। इस प्रकार सत्कार्यवाद उत्पत्ति के पूर्व कारण में कार्य की सत्ता स्वीकार करता है। कार्य और कारण मंे सिर्फ आकार का भेद है। कारण अव्यक्त कार्य और कार्य का जो अभिव्यक्त कारण है। वस्तु के निर्माण का अर्थ अव्यक्त कार्य जो कारण में निहित है कार्य में पूर्णतः अभिव्यक्त होना। उत्पत्ति का अर्थ अव्यक्त का व्यक्त होना हैै और विनाश का अर्थ अव्यक्त हो जाना है अर्थात् उत्पत्ति आविर्भाव और विनाश तिरोभाव है। सांख्य दर्शन के अनुसार सम्पूर्ण विश्व कार्य का प्रवाह है। जहाँ तक विश्व के कारण का प्रश्न है तो सांख्य दर्शन न तो परमाणु को मानता है और न ही चेतना को बल्कि इसका आधार या मूल कारण प्रकृति को मानता है प्रकृति, जड़ और सूक्ष्म दोनांे है परन्तु वह स्वयं कारणहीन है। सांख्य दर्शन मंे प्रकृति को प्रधान जड़ माया शक्ति आदि कहा गया है। वह एक अदृश्य अव्यक्त अचेतन व्यक्तित्वहीन और शाश्वत है। यद्यपि प्रकृति एक है लेकिन उसमें तीन प्रकार के गुण है सत्व, रजस् और तमस् गुण प्रकृति के तत्व या द्रव्य है। गुण अत्यंत सूक्ष्म है जिनका ज्ञान अनुमान से प्राप्त होता है। विश्व की प्रत्येक वस्तु में सुख-दुःख और उदासीनता का भाव उत्पन्न करने की शक्ति मौजूद है। इन तीनों भावांे का कारण तीन गुण सत्व, रजस् और तमस ही है। 
सत्व ज्ञान का प्रतीक और श्वेत रंग का है जिससे सभी प्रकार की सुखात्मक अनुभूति होती है। रजस क्रिया प्रेरक है जो वस्तुओं को भी उत्तेजित करता है इसका रंग लाल है। तमस अज्ञान या अंधकार का प्रतीक है जो निष्क्रियता और जड़ता का द्योतक है। इसका रंग काला है ये तीनांे गुण प्रकृति के अलावा विश्व की प्रत्येक वस्तु में अन्तर्भूत है। इसलिए प्रकृति तथा विश्व की सभी वस्तुओं को त्रिगुणात्मक कहा जाता है। लेकिन किसी वस्तु में कोई एक गुण तो किसी अन्य वस्तु मंे अन्य गुण प्रबल होता है। ये गुण निरंतर परिवर्तनशील है। 
सांख्य दर्शन पुरूष की व्यापक व्याख्या करता है। वास्तव में अन्य दर्शनों ने जिसे आत्मा कहा है। उसे ही सांख्य ने पुरूष कहा है। पुरूष चेतन है वह सत्व, रजस और तमस से शून्य है, इसीलिए उसे त्रिगुणतीत कहा गया है। वह त्राता है। सक्रिय है, अनेक कार्य-कारण से मुक्त है। उसकी सत्ता स्वयं सिद्ध है। आत्मा अर्थात पुरूष शरीर से भिन्न है जहाँ शरीर भौतिक है, वहीं पुरूष अभौतिक अर्थात आध्यात्मिक है। वह पाप पुण्य से मुक्त अर्थात निर्गुण है। सांख्य दर्शन विश्व की उत्पत्ति के लिए ईश्वर को उत्तरदायी नहीं मानता उसके अनुसार यह संसार विकास का फल है। प्रकृति ही वह मूल तत्व है जिससे संसार की समस्त वस्तुएँ विकसित होती है। इस प्रकार सांख्य दर्शन विकासवाद का समर्थन करता है। विकास की प्रक्रिया तभी प्रारम्भ हो सकती है। जब पुरूष और प्रकृति का संयोग हो। अकेली प्रकृति या पुरूष विकास नहीं कर सकते क्योंकि वे क्रमशः अचेतन और निष्क्रिय है प्रकृति देखे जाने के लिए पुरूष पर और पुरूष कैवल्य अर्थात मोक्ष प्राप्ति के लिए प्रकृति पर आश्रित है दोनों को एक दूसरे की आवश्यकता है परन्तु विरोधी गुणों से युक्त होने के कारण दोनांे का सन्सर्ग अत्यन्त कठिन है इस कठिनाई के समाधान के लिए सांख्य दर्शन उपमाओं का प्रयोग करता है। सांख्य का मत है कि पुरूष और प्रकृति के बीच यथार्थ संयोग नहीं होता अपितु सिर्फ निकटता का सम्बन्ध होता है ज्यों ही पुरूष प्रकृति के समीप आता है। प्रकृति की साम्यवास्था भंग हो जाती है। और उसके गुणों में विरूप परिवर्तन आरम्भ हो जाता है। और उसके तीनों गुणों में परिवर्तन होने लगता है। तत्पश्चात् नये पदार्थाे का आविर्भाव होता है। सांख्य दर्शन संसार को दुःखमय मानता है। उसके अनुसार तीन प्रकार के दुःख है-आध्यात्मिक, आधिभौतिक और आधिदैविक इन तीनों दुःखों से छुटकारा ही मोक्ष तथा उसका साधन ज्ञान है। ज्ञान के द्वारा ही आत्मा और अनात्मा का भेद स्पष्ट होता है। अज्ञान ही बंधन का कारण है। इस बंधन को कर्म से नहीं तोड़ा जा सकता है बल्कि इसके लिए ज्ञान मार्ग ही अपनाना होगा। मोक्ष की अवस्था त्रिगुणातीत है। ईश्वर के सम्बन्ध में सांख्य दर्शन स्पष्टता नहीं दर्शाता कुछ विद्वान उसे अनीश्वरवादी और कुछ ईश्वरवादी मानते हैं। परन्तु उसका अनीश्वरवादी पक्ष ही अधिक मजबूत है।

ब. धर्म विज्ञान (स्वामी विवेकानन्द)
01. अंग्रेजी में हम सब नेचर शब्द का व्यवहार करते हैं। प्राचीन हिन्दू दार्शनिकगण उसके लिए दो विभिन्न संज्ञाओं का प्रयोग करते थे; प्रथम-”प्रकृति“ और दूसरा उसकी अपेक्षा अधिक वैज्ञानिक नाम है-”अव्यक्त“, जो व्यक्त अथवा प्रकाशित अथवा भेदात्मक नहीं है-उससे ही सब पदार्थ उत्पन्न हुये है, उससे अणु-परमाणु सब आये हैं; उससे ही भूत, शक्ति, मन, बुद्धि सब आये हैं। यह अत्यन्त विस्मयकारक है कि भारतीय दार्शनिकगण अनेक युग पहले ही कह गये है कि मन सूक्ष्म जड़मात्र है।
02. प्राचीन आचार्यगण ने इस अव्यक्त का लक्षण बताया है-”तीन शक्तियों की साम्यावस्था“। उनमें से एक का नाम सत्व, दूसरी का रजः और तीसरी का तमः है। तमः निम्नतम शक्ति है-आकर्षणस्वरूप, रजः उसकी अपेक्षा किंचित् उच्चतर है-विकर्षणस्वरूप; तथा सर्वोच्च जो शक्ति है वह इन दोनों की संयमस्वरूप है-वहीं सत्व है। अतएव ज्योंहि ये आकर्षण और विकर्षण दोनों शक्तियां सत्त्व के द्वारा पूर्णतः संयत होती है अथवा सम्पूर्ण साम्यावस्था में रहती है, तब सृष्टि अथवा विकार का अस्तित्व नहीं रहता, किन्तु ज्योंहि यह साम्यावस्था नष्ट होती है, ज्योंहि उनका सामंजस्य नष्ट होता है और उनमें से एक शक्ति दूसरी शक्तियों की अपेक्षा प्रबलतर हो उठती है, त्योंहि परिवर्तन तथा गति का आरम्भ होता है और इन सब का परिणाम चलता रहता है। इसी प्रकार व्यापार चक्रगति से चल रहा है।
03. ब्रह्माण्ड के सम्पूर्ण बाह्य भाग को-आजकल हम जिसे स्थूल जड़ कहते हैं-प्राचीन हिन्दूगण भूत कहते थे। उनके मतानुसार उनमें से एक ही, शेष सब का कारण है; क्योंकि अन्यान्य सब भूत इसी एक भूत से उत्पन्न हुये हैं। इस भूत को आकाश की संज्ञा प्राप्त है तथा उसके साथ प्राण नाम की एक और वस्तु रहती है।
04. जितने दिन सृष्टि रहती है, उतने दिन में प्राण और आकाश रहते हैं। कल्पान्त में प्राण और आकाश तक उसी अनन्त पुरुष में सुप्त भाव में थे, किन्तु किसी प्रकार का व्यक्त प्रपंच नहीं था। इस अवस्था को अव्यक्त कहते हैं-उसका ठीक शब्दार्थ स्पन्दन रहित अथवा अप्रकाशित है।
05. प्राण स्वयं आकाश की सहायता के अभाव में कोई काम नहीं कर पाता। यह प्राण स्वयं नहीं रह सकता अथवा किसी मध्यवर्ती के बिना काम नहीं कर सकता। वह कभी आकाश से पृथक् नहीं रह सकता। शक्ति और भूत की अति सूक्ष्मावस्था को ही प्राचीन दार्शनिकगण ने प्राण और आकाश की संज्ञा दी है। प्राण को आप जीवनीशक्ति कह सकते हैं, किन्तु उसको केवल मनुष्य के जीवन में सीमाबद्ध करने से अथवा आत्मा के साथ अमिट समझने से भी काम नहीं चलेगा। अतएव सृष्टि प्राण और आकाश के संयोग से उत्पन्न है तथा उसका आदि भी नहीं है, अन्त भी नहीं है।
06. अतः अव्यक्त प्रकृति, यह सर्वव्यापी बुद्धित्व में अथवा महत्त में परिणत होती है, यह फिर सर्वव्यापी अहंतत्व अथवा अहंकार में और यह परिणाम प्राप्त करके फिर सर्वव्यापी इन्द्रियग्राह भूत (इन्द्रिय और तन्मात्रा) में परिणत होता है। यही भूत-समष्टि इन्द्रिय अथवा केन्द्र समूह में और समष्टि सूक्ष्म परमाणु समूह में परिणत होती है। फिर इन सब के मिलने पर इस स्थूल जगत-प्रपंच की उत्पत्ति होती है। सांख्य मत के अनुसार यही सृष्टि का क्रम है और बृहत् ब्रह्माण्ड में जो है, वह व्यष्टि अथवा क्षुद्र ब्रह्माण्ड में भी अवश्य रहेगा।
07. सांख्यवादियों का एक मत अनन्यसाधारण है। उनके मतानुसार एक मनुष्य अथवा कोई भी एक प्राणी जिस नियम से गठित है, समग्र विश्व ब्रह्माण्ड भी ठीक उसी नियम से विरचित है। इसलिए हमारा जैसे एक मन है, उसी प्रकार एक विश्वमन भी है।
08. जितने दिनों से जगत् है उतने दिनों से मन का अभाव-उस एक विश्वमन का अभाव-कभी नहीं हुआ। प्रत्येक मानव, प्रत्येक प्राणी उस विश्वमन से ही निर्मित हो रहा है, क्योंकि वह सदा ही वर्तमान हैं और उन सब के निर्माण के लिए उपादान प्रदान कर रहा है।
09. जगत में प्रकृति के प्रथम विकास को सांख्यवादीगण महत् या समष्टि बुद्धि कहते हैं। इसका ठीक शब्दार्थ है-सर्वश्रेष्ठ तत्व। इसे अहंज्ञान नहीं कहा जा सकता, कहने पर भूल होगी। अहंज्ञान इस बुद्धितत्व का अंशविशेष मात्र है, परन्तु बुद्धितत्व सार्वजनिन तत्व है। अहंज्ञान, अव्यक्त ज्ञान और ज्ञानातीत अवस्था-ये सब ही उसके अन्तर्गत आते हैं।
10. महत्तत्व ही उन सब परिवर्तनों का कारण है जिनके फलस्वरूप यह शरीर निर्मित हुआ है। महतत्व या समष्टि बुद्धि के भीतर ज्ञान की निम्न भूमि, साधारण ज्ञान की अवस्था और ज्ञान से अतीत अवस्था में सब ही विद्यमान है।
11. ज्ञान की निन्म भूमि हम पशुओं में देखते हैं और उसे-सहजात ज्ञान कहते हैं। सहजात ज्ञान में प्रायः कभी भूल नहीं होती। एक पशु इस सहजात ज्ञान के प्रभाव से कौन सी घास खाने योग्य है, कौन सी घास विषाक्त है, यह सुविधापूर्वक समझ लेता है।
12. उनके पश्चात् हमारा (मानव का) साधारण ज्ञान आता है-यह सहजात ज्ञान की अपेक्षा उच्चतर अवस्था है। हमारा साधारण ज्ञान भ्रान्तिमय है, यह पग-पग पर भ्रम में जा पड़ता है। इसे ही आप युक्ति अथवा विचारशक्ति कहते हैं। अवश्य सहजात ज्ञान की अपेक्षा उसका प्रसार अधिक दूर तक है, किन्तु सहजात ज्ञान की अपेक्षा युक्ति विचार में अधिक भ्रम की आशंका है।
13. मन की और एक उच्चतर अवस्था विद्यमान है,-ज्ञानातीत अवस्था-इस अवस्था में केवल योगीगण का ही अर्थात् जिन्होंने यत्न करके इस अवस्था को प्राप्त किया है, उनका ही अधिकार है। वह सहजात ज्ञान के समक्ष भ्रान्ति से विहिन है और युक्तिविचार से भी उसका अधिक प्रसार है। वह सर्वोच्च अवस्था है।
14. जिस प्रकार मनुष्य के भीतर महत् ही ज्ञान की निम्नभूमि, साधारण ज्ञानभूमि और ज्ञानातीत भूमि है, उसी प्रकार इस बृहत् ब्रह्माण्ड में भी यही सर्वव्यापी बुद्धितत्व अथवा महत्-सहजात ज्ञान, युक्ति विचार से उत्पन्न ज्ञान और विचार से अतीत ज्ञान, इन तीन प्रकारों से स्थित है।
15. ज्ञान का अर्थ है-सदृश वस्तु के साथ उसका मिलन। कोई नया संस्कार आने पर यदि आप लोगों के मन में उसके सदृश सब संस्कार पहले से ही वर्तमान रहे, तभी आप तृप्त होते हैं, और इस मिलन अथवा सहयोग को ही ज्ञान कहते हैं। अतएव ज्ञान का अर्थ, पहले से ही हमारी जो अनुभूति-समष्टि विद्यमान है, उसके साथ और एक सजातीय अनुभूति को एक ही कोष में प्रतिष्ठित कर देना है। तथा पहले से ही आपका एक ज्ञान भण्डार न रहने पर कोई नया ज्ञान ही आपका नहीं हो सकता, यही उसका सर्वोत्तम प्रबल प्रमाण है।
16. सांख्यमत के अनुसार सृष्टिवाद में सृष्टि अथवा क्रम विकास और प्रलय अथवा क्रम संकोच-ये दोनों स्वीकृत हुये हैं। सभी उसी अव्यक्त प्रकृति के क्रम विकास से उत्पन्न है, और ये सब क्रम संकुचित होकर व्यक्त आकार धारण करते हैं। सांख्य मत के अनुसार ऐसी किसी जड़ अथवा भौतिक वस्तु का अस्तित्व सम्भव नहीं है, ज्ञान का कोई अंशविशेष जिसका उपादान न हो। ज्ञान ही वह उपादान है, जिससे यह प्रपंच निर्मित हुआ है।
17. कपिल का प्रधान मत है-परिणाम। वे कहते हैं, एक वस्तु दूसरी वस्तु का परिणाम अथवा विकार स्वरूप है क्योंकि उनके मत के अनुसार कार्य-कारण भाव का लक्षण यह है कि-कार्य अन्य रूप में परिणत कारण मात्र है।
18. कपिल का मत है कि समग्र ब्रह्माण्ड ही एक शरीर स्वरूप है जो कुछ हम देखते हैं, वे सब स्थूल शरीर है, उन सबके पश्चात् सूक्ष्म शरीर समूह और उनके पश्चात् समष्टि अहंतत्व, उसके भी पश्चात् समष्टि बुद्धि है। किन्तु यह सब ही प्रकृति के अन्तर्गत हैं। उसमें से जो हमारे प्रयोजन का है, हम ग्रहण कर रहे हैं; इसी प्रकार जगत के भीतर समष्टि मनस्तत्व विद्यमान है, उससे भी हम चिरकाल से प्रयोजन के अनुसार ले रहे हैं। किन्तु देह का बीज माता-पिता से प्राप्त होना चाहिए। इससे वंश की अनुक्रमणिकता और पुनर्जन्मवाद दोनों ही तत्व स्वीकृत हो जाते हैं।
19. समग्र प्रकृति के पश्चात् निश्चित रूप में कोई सत्ता है, जिसका आलोक उन पर पड़कर महत्, अहंज्ञान और यह सब नाना वस्तुओं के रूप में प्रतीत हो रहा है। और इस सत्ता को ही कपिल पुरुष अथवा आत्मा कहते है। वेदान्ती भी उसे आत्मा कहते हैं। कपिल के मत के अनुसार पुरुष अमिश्र पदार्थ है। वह यौगिक पदार्थ नहीं है। वही एकमात्र व जड़ पदार्थ है और सब प्रपंच-विकार ही जड़ है। पुरुष ही एकमात्र ज्ञाता है।
20. समस्त प्रकृति आत्मा के भोग अथवा अभिज्ञता का संचय करने के लिए काम करती जा रही है, और आत्मा उसी चरम लक्ष्य में जाने के लिए यह अभिज्ञता संचय कर रही है तथा मुक्ति ही यह चरम लक्ष्य है। सांख्य दर्शन के मत के अनुसार इस आत्मा की संख्या बहुत है। अनन्त संख्यक आत्माएं विद्यमान है। उसका और एक सिद्धान्त यह है कि ”ईश्वर नहीं है“, जगत् का सृष्टिकर्ता कोई नहीं है। सांख्यवादी कहते हैं प्रकृति ही जब इन सब विभिन्न रूपों का सृजन करने में समर्थ है तब ईश्वर स्वीकार करने का प्रयोजन नहीं है।
21. साख्य दर्शन सब आत्माओं के एकत्व के प्रति विश्वासी नहीं है। वेदान्त के मतानुसार सब जीवात्माएं ब्रह्मनामधेय एक विश्वात्मा में अमिश्र है, किन्तु सांख्य दर्शन के प्रतिष्ठाता कपिल द्वैतवादी थे। अवश्य उन्होंने जगत का विश्लेषण जहाँ तक किया है, वह अत्यन्त अद्भुत है। वे हिन्दू परिणामवादियों के जनक स्वरूप हैं, और परिवर्ती सब दार्शनिक शास्त्र उनकी ही चिन्तन प्रणाली के परिणाम मात्र हैं।
22. ज्ञान चैतन्य सम्पूर्ण रूप से प्रकृति के अधिकार में हैं, आत्मा में ज्ञान चैतन्य नहीं है। वेदान्त कहता है-आत्मा का स्वरूप असीम है अर्थात् वह पूर्णसत्ता, ज्ञान और आनन्द स्वरूप है। तथापि हमारा सांख्य के साथ इस विषय में एक मत है कि वे जिसे ज्ञान कहते हैं, वह एक यौगिक पदार्थ मात्र है।
23. जैसे सोना गलाना हो तो उसमें पोटैशियम साइनाइड मिलाना होता है। पोटैशियम साइनाइड अलग रह जाता है, उस पर कोई रासायनिक कार्य नहीं होता, किन्तु सोना गलाने का काम सफल करने के लिए उसके सान्निध्य का प्रयोजन है। पुरुष के सम्बन्ध में भी यही बात है। वह प्रकृति के साथ मिश्रित नहीं होता, वह बुद्धि या महत् अथवा किसी प्रकार का विकार नहीं है, वह शुद्ध पूर्ण आत्मा है-”मेरे साक्षी स्वरूप विद्यमान रहने के कारण प्रकृति यह सब चेतन और अचेतन का सृजन कर रही हैै।“ (गीता, अध्याय-9, श्लोक-10)
24. पुरुष में चैतन्य है, किन्तु पुरुष को बुद्धिमान अथवा ज्ञानवान नहीं कहा जा सकता, किन्तु वह ऐसी वस्तु है, जिसके रहने पर ही ज्ञान सम्भव होता है। पुरुष में जो चित्त है, वह प्रकृति से मिलकर हमारे निकट बुद्धि अथवा ज्ञान के नाम से परिचित होता है। जगत् में जो कुछ सुख, आनन्द एवं शान्ति है, सब पुरुष की है; परन्तु वह सब मिश्र है क्योंकि उसमें पुरुष और प्रकृति का मिश्रण है। ”जहाँ किसी प्रकार का सुख है, जहाँ किसी प्रकार का आनन्द है वहाँ उस अमृत स्वरूप पुरुष का एक कण विद्यमान है, यह समझ लेना होगा।” (बृहदारण्यक उपनिषद्)
25. यदि हम एक मानव का विश्लेषण कर सकें तो समग्र जगत् का विश्लेषण कर लिया क्योंकि वे सब एक ही नियम से निर्मित हैं। अतएव यदि यह सत्य हो कि इस व्यष्टि श्रेणी के पीछे ऐसे एक व्यक्ति विद्यमान है जो समस्त प्रकृति से अतीत है, जो किसी प्रकार के उपादान से निर्मित नहीं है अर्थात्-पुरुष, तो यह एक ही युक्ति समष्टि ब्रह्माण्ड पर भी घटित होगी तथा उसके पश्चात् भी एक चैतन्य स्वीकार करने का प्रयोजन होगा। जो सर्वव्यापी चैतन्य प्रकृति के समग्र विकारों के पश्चात् भाग में विद्यमान है, उसे वेदान्त सब का नियन्ता-ईश्वर कहता है।
26. पहले यह स्थूल शरीर, उसके पश्चात् सूक्ष्म शरीर, उसके पश्चात् जीव अथवा आत्मा-यही मानव का यथार्थ स्वरूप है। मनुष्य का एक सूक्ष्म शरीर और एक स्थूल शरीर है, ऐसा नहीं है। शरीर एक ही है तथापि सूक्ष्म आकार में वह स्थूल की अपेक्षा दीर्घ काल तक रहता है, तथा स्थूल शीघ्र नष्ट हो जाता है। द्वैतवादियों के मतानुसार यह जीव अर्थात् मनुष्य का यथार्थ स्वरूप जो है वह अणु अर्थात् अति सूक्ष्म है।
27. सूक्ष्म शरीर भी दीर्घकाल के पश्चात् विश्लिष्ट हो जायेगा, किन्तु जीव अयौगिक पदार्थ है, इसलिए वह कभी ध्वंस प्राप्त नहीं होगा। किसी अयौगिक पदार्थ का जन्म नहीं हो सकता, केवल जो यौगिक है उसका ही जन्म हो सकता है।
28. लाख-लाख प्रकार के आकार में मिश्रित यह समग्र प्रकृति ईश्वर की इच्छा के अधीन है। ईश्वर सर्वव्यापी, सर्वज्ञ और निराकार है, एवं वह दिन-रात इस प्रकृृति को परिचालित करता है। समस्त प्रकृति ही उसके शासन के अधीन विद्यमान है। किसी प्राणी को स्वाधीनता नहीं है, वह हो ही नहीं सकती। ईश्वर ही रास्ता है। यही द्वैतवादात्मक वेदान्त का उपदेश है।
29. इस मानव देह को कर्मदेह कहते हैं, इस मानवदेह में ही हम अपना भविष्यत् दृष्ट स्थिर किया करते हंै। हम एक बृहत् वृत्त के आकार में भ्रमण कर रहे हैं, तथा मानवदेह ही उस वृत्त के मध्य में एक बिन्दु है, जहाँ हमारी भविष्यत् अवस्था स्थिर होती है। इस कारण ही अन्यान्य सब प्रकार की देहों की अपेक्षा मानवदेह ही श्रेष्ठतम् निर्दिष्ट की जाती है। देवतागण भी मनुष्य जन्म ग्रहण किया करते है। द्वैत वेदान्त यहाँ तक कहता है।
30. तथापि ईश्वर की कृपा एवं शुभ कर्म के अनुष्ठान के द्वारा वे (जीवात्मा) पुनः विकास प्राप्त होगी। प्रत्येक जीवात्मा को मुक्तिलाभ के समान सुयोग और सम्भावना प्राप्त है एवम् काल में सब ही शुद्धस्वरूप होकर प्रकृति के बन्धन से मुक्त होंगी। किन्तु इतना होने पर भी इस जगत का लोप नहीं होगा, क्योंकि वह अनन्त है। यही वेदान्त का द्वितीय प्रकार का सिद्धान्त है-जिसके मतानुसार ईश्वर, आत्मा और प्रकृति है, तथा आत्मा और प्रकृति ईश्वर का देहस्वरूप है और ये तीनों मिलकर एक है-विशिष्टाद्वैत वेदान्त कहते हैं।
31. यह समग्र जगत् एक अखण्ड स्वरूप है, और उसे ही अद्वैत वेदान्त-दर्शन में ब्रह्म कहते हैं। ब्रह्म जब ब्रह्माण्ड के पश्चात् प्रदेश में है ऐसा लगता है, तब उसे ईश्वर कहते हैं। अतएव यह आत्मा ही मानव का अभ्यन्तरस्थ ईश्वर है। केवल एक पुरुष-उन्हें ईश्वर कहते हैं, तथा जब ईश्वर और मानव दोनों के स्वरूप का विश्लेषण किया जाता है तब दोनों को एक के रूप में जाना जाता है।
32. ”सभी हाथों से आप काम कर रहे हैं, सभी मुखों से आप खा रह रहे हैं, सब नासिकाओं से आप श्वास-प्रश्वास ले रहे हैं, सब मन से आप चिन्ता अथवा विचार कर रहे हैं।” (गीता, अध्याय-13) समग्र जगत ही आप है। जो कुछ है, सब आप है, यथार्थ ”आप“-वह एक अविभक्त आत्मा-जिस क्षुद्र सीमाबद्ध व्यक्ति विशेष को आप ”आप“ समझते हैं, वह नहीं। तथा आप जो अमुक श्रीराम, श्याम, हरि है, यह बात भी किसी काल में सत्य नहीं है, यह केवल स्वप्न मात्र है। यही जानकर मुक्त होइए। यह अद्वैतवादियों का सिद्धान्त है।
33. यदि आप अपने को बद्ध के रूप में सोंचे तो आप बद्ध ही रहेंगे; आप स्वतः ही अपने बन्धन के कारण होंगे तथा यदि आप उपलब्धि करंे कि आप मुक्त हैं तो इसी मुहुर्त आप मुक्त हैं। यही ज्ञान है-मुक्तिप्रद ज्ञान, तथा समग्र प्रकृति का चरम लक्ष्य ही मुक्ति है।
34. एक ही सूर्य विविध जल बिन्दुओं में प्रतिबिम्बित होकर नाना रूप दिखा रहा है। लाख-लाख जल कणों में लाख-लाख सूर्य का प्रतिबिम्ब पड़ा है तथा प्रत्येक जल कण में ही सूर्य की सम्पूर्ण प्रतिमूर्ति विद्यमान है; किन्तु सूर्य वास्तव में एक है। इन सब जीवगण के सम्बन्ध में भी यही बात है-वे उसी एक अनन्त पुरुष के प्रतिबिम्ब मात्र है। स्वप्न कदापि सत्य के बिना रह नहीं सकता, और वह सत्य-वही एक अनन्त सत्ता है। शरीर, मन अथवा आत्मा भाव में मानने पर आप स्वप्न मात्र हैं, किन्तु आपका यथार्थ स्वरूप अखण्ड सच्चिदानन्द है। अद्वैतवादी यही कहते है। यह सब जन्म, पुनर्जन्म, यह आना-जाना यह सब उस स्वप्न का अंशभाग है। आप अनन्त स्वरूप है। आप फिर कहाँ जायेंगे? आत्मा कभी उत्पन्न नहीं होती, कभी मरेगी भी नहीं, आत्मा के किसी काल में माता-पिता, शत्रु-मित्र कुछ भी नहीं है; क्योंकि आत्मा अखण्ड सच्चिदानंद स्वरूप है। जिस व्यक्ति ने इसका साक्षात्कार किया है उसने ही मुक्तिलाभ किया है, वह इस स्वप्न को भंग करके उसके बाहर चला गया है, उसने अपना यथार्थ स्वरूप जाना है। अद्वैत वेदान्त का यही उपदेश है।
35. वेदान्त दर्शन एक-एक करके इन तीन सोपानों (द्वैत, विशिष्टद्वैत, अद्वैत) का अवलम्बन करके अग्रसर हुआ है तथा हम इस तृतीय सोपान (अद्वैत) को पार करके अधिक अग्रसर नहीं हो सकते, क्योंकि हम एकत्व के उपर अधिक जा नहीं सकते।
36. जो व्यक्ति कहता है, इस जगत् का अस्तित्व है, किन्तु ईश्वर नहीं है, वह निर्बोध है, क्योंकि यदि जगत् हो, तो जगत् का एक कारण रहेगा और उसक कारण का नाम ही ईश्वर है। कार्य रहने पर ही उसका कारण है, यह जानना होगा। जब यह जगत् अन्तर्हित होगा, तब ईश्वर भी अन्तर्हित होंगे। जब आप ईश्वर के सहित अपना एकत्व अनुभव करेंगे, तब आपके पक्ष में यह जगत् फिर नहीं रहेगा। जिसे हम इस क्षण जगत् के रूप में देख रहे हैं, वही हमारे सम्मुख ईश्वर के रूप में प्रतिभासित होगा, एवं जिनको एक दिन हम बहिर्देश में अवस्थित समझते थे, वे ही हमारी आत्मा के अन्तरात्मा रूप में प्रतीत होंगे।-”तत्वमसि“-वही तुम हो।
37. धर्म मनुष्य के भीतर से ही उत्पन्न है, वह बाहर की किसी वस्तु से उत्पन्न नहीं है। हमारा विश्वास है, धर्म चिन्तन मनुष्य के पक्ष में प्रकृतिगत है; वह मनुष्य के स्वभाव के सहित ऐसे अविच्छिन्न भाव से जड़ित है कि जब तक मनुष्य अपनी देह तथा मन का त्याग नहीं कर पाता, जब तक वह चिन्ता और जीवन त्याग नहीं कर पाता, तब तक उसके लिए धर्मत्याग असम्भव है।
38. यदि मनुष्य वर्तमान लेकर सन्तुष्ट रहे और जगदातीत सत्ता के समस्त अनुसंधान का एकदम परित्याग कर दे, तो मानव जाति को पशु की भूमि में फिर से आना होगा। धर्म-जगदातीत सत्ता का अनुसंधान ही-मनुष्य और पशु में प्रभेद बनाये रखता है।
39. अब प्रश्न आता है, धर्म के द्वारा क्या वास्तव में कोई फल होता है? हाँ होता है। उससे मानव अनन्त जीवन प्राप्त करता है! मनुष्य वर्तमान में जो है, वह इस धर्म की ही शक्ति से हुआ है, और इससे ही यह मनुष्य नामक प्राणी देवता बनेगा। धर्म यही करने में समर्थ है।
40. प्रश्न है-हमारा चरम लक्ष्य क्या है? जहाँ से हमने आरम्भ किया है, वहीं अवश्य ही अन्त करना होगा; और जब ईश्वर से आपकी गति आरम्भ हुई है, तब ईश्वर में ही अवश्य फिर लौटना होगा।
41. एक और प्रश्न आता है-हम उन्नति पथ में अग्रसर होते-होते क्या धर्म के नये सत्य का आविष्कार नहीं करेंगे? हाँ भी, नहीं भी। प्रथमतः यह समझना होगा कि धर्म के सम्बन्ध में अधिक और कुछ जानने को नहीं है, सभी कुछ जाना जा चुका है। जगत् के सभी धर्म में, आप देखियेगा कि उस धर्म के अवलम्बनकारी सदैव कहते हैं, हमारे भीतर एक एकत्व है। अतएव ईश्वर के सहित आत्मा के एकत्व-ज्ञान की अपेक्षा और अधिक उन्नति नहीं हो सकती। ज्ञान का अर्थ इस एकत्व का आविष्कार ही है। हम आप सब को नर-नारी रूप में पृथक् देखते हैं-यही बहुत्व है।
42. ”ईश्वर को जब तक आप नहीं जान लेते, तब तक मनुष्य को किस प्रकार जानियेगा?“-ये ईश्वर, यही अनन्त, अज्ञात या निरपेक्ष सत्ता या अनन्त या नामातीत वस्तु-उन्हें जिस नाम से इच्छा हो, उसी नाम से पुकारा जाता है-ये ही वर्तमान जीवन के, जो कुछ ज्ञात है और जो कुछ ज्ञेय है, सब के ही एकमात्र युक्तियुक्त व्याख्यास्वरूप है। चाहे जिस वस्तु की बात-सम्पूर्ण जड़ वस्तु की कोई बात लीजिए। केवल जड़तत्त्व सम्बन्धी विज्ञान में से कोई भी एक, जैसे-रसायन, पदार्थ विद्या, गणित, ज्योतिष या प्राणितत्व विद्या की बात लिजिये-उसकी विशेष रूप से आलोचना किजिये, क्रमशः यह तत्वानुसन्धान अग्रसर हो, देखियेगा-स्थूल क्रमशः सूक्ष्म, अतिसूक्ष्म पदार्थ में लय हो रहा है-अन्त में आपको ऐसे स्थान में आना होगा, जहाँ इन सब जड़ वस्तुओं को छोड़कर इन्हें अतिक्रमण करके अर्थात् फाँदकर अजड़ में जाना ही होगा। सब विधाओं में ही स्थूल क्रमशः सूक्ष्म में मिल जाता है, पदार्थ विद्या, दर्शन में पर्यवसित हो जाती है। इसी प्रकार मनुष्य को बाध्य होकर जगदातीत सत्ता की आलोचना में उतरना होता है।
43. यह बात कहने में अच्छी है कि वर्तमान में जो देख रहे हो वह सब लेकर ही तृप्त रहो; गाय, कुत्ते और अन्यान्य पशुगण इसी प्रकार वर्तमान के द्वारा ही सन्तुष्ट हैं, और इसी कारण वे पशु बने हैं। सब प्राणियों में से मनुष्य ही स्वभावतः उपर की ओर दृष्टि उठाकर देखता है। इसी उध्र्वदृष्टि ऊपर की ओर गमन और पूर्णत्व के अनुसन्धान को ही ”परिमाण“ अथवा ”उद्धार“ कहते हैं और ज्योंहि मनुष्य उच्चतर दिशा की ओर गमन करना प्रारम्भ करता है, त्योंहि वह इस परिमाणस्वरूप सत्य की धारणा की दिशा में अपने को अग्रसर करता है। परिमाण-अर्थ, वेशभूषा अथवा घर पर निर्भर नहीं करता, यह मानव मस्तिष्क के भीतर की आध्यात्मिक भाव रत्नराशि के तारतम्य पर निर्भर करता है।
44. शिशु गुण अपनी निज की दृष्टि से अर्थात् किस वस्तु से कितनी मिठाई मिलती है, इस हिसाब से समग्र जगत् का विचार कर लेते हैं जो लोग अज्ञान से घिरे होने के कारण शिशु सदृश है, जगत् में उन सब शिशुओं का विचार भी उसी प्रकार का है। निम्न वस्तु की दृष्टि से उच्चतर वस्तु का विचार करना कदापि उचित नहीं है। प्रत्येक विषय का विचार उसकी गुरुता के हिसाब से करना होगा। अनन्त का विचार अनन्त की गुरुता के हिसाब से करना होगा। धर्म मानव जीवन का सर्वांश है-केवल वर्तमान नहीं-भूत, भविष्यत्, वर्तमान-सर्वांशव्यापी है। अतएव यह, अनन्त आत्मा और अनन्त ईश्वर के बीच अनन्त सम्बन्ध स्वरूप है।
45. रासायनिक गण सब प्रकार की ज्ञात वस्तुओं को उनके मूल धातुओं का रूप देने का यत्न कर रहे हैं। यदि इस अवस्था पर कभी वे पहुंचे, तब फिर इससे ऊपर और आगे नहीं बढ़ सकेंगे; तब रसायन विद्या सम्पूर्ण होगी। धर्म विज्ञान के सम्बन्ध में भी यही बात है। यदि हम पूर्ण एकत्व का अविष्कार कर सकें तो उससे अधिक उन्नति फिर नहीं हो सकती।
46. हमारे सम्मुख दो शब्द हैं-क्षुद्र ब्रह्माण्ड और बृहत् ब्रह्माण्ड; अन्तः और बहिः हम अनुभूति के द्वारा ही इन दोनों से सत्य लाभ करते हैं; अभ्यान्तर अनुभूति और बाह्य अनुभूति। आभ्यान्तर अनुभूति के द्वारा संगृहीत सत्य समूह मनोविज्ञान, दर्शन और धर्म के नाम से परिचित हैं, और बाह्य अनुभूति से भौतिक विज्ञान की उत्पत्ति हुई है। अब बात यह है कि जो सम्पूर्ण सत्य है, उसका इन दोनों जगत् की अनुभूति के साथ समन्वय होगा। क्षुद्र ब्रह्माण्ड, बृहत् ब्रह्माण्ड के सत्यसमूह को साक्षी प्रदान करेगा, उसी प्रकार बृहत् ब्रह्माण्ड की क्षुद्र ब्रह्माण्ड के सत्य को स्वीकार करेगा। चाहे जिस विद्या में हो, प्रकृत सत्य में कभी परस्पर विरोध रह नहीं सकता, आभ्यान्तर सत्य समूह के साथ बाह्य सत्य का समन्वय है।
47. जिस व्यक्ति की आत्मा से दूसरी आत्मा में शक्ति का संचार होता है वह गुरु कहलाता है और जिसकी आत्मा में यह शक्ति संचारित होती है उसे शिष्य कहते हैं। ”यथार्थ धर्म गुरु“ में अपूर्व योग्यता होनी चाहिए, और उसके शिष्य को भी कुशल होना चाहिए। जब दोनों ही अद्भुत और असाधारण होते हैं तभी अद्भुत आध्यात्मिक जागृति होती है अन्यथा नहीं।
48. सत्य स्वयं ही प्रमाण है उसे प्रमाणित करने के लिए किसी दूसरे साक्षी की आवश्यकता नहीं, वह स्व प्रकाश है। वह हमारी प्रकृति के अन्तः स्थल तक प्रवेश कर जाता है और उसके समक्ष सारी दुनियाँ उठ खड़ी होती है और कहती है-”यहीं सत्य है“ जिन आचार्यों के हृदय में सत्य और ज्ञान सूर्य के समान दैदिप्यमान होते हैं, वे संसार में सर्वोच्च महापुरुष हैं और अधिकांश मानव जाति द्वारा उनकी उपासना ईश्वर के रुप में होती है।
49. शिष्य के लिए यह आवश्यक है कि उसमें पवित्रता, सच्ची ज्ञान पिपासा और अध्यवसाय हो। अपवित्र आत्मा कभी यथार्थ धार्मिक नहीं हो सकती। धार्मिक होने के लिए तन, मन और वचन की शुद्धता नितान्त आवश्यक है। गुरु के सम्बन्ध में यह जान लेना आवश्यक है कि उन्हें शास्त्रो का मर्म ज्ञात हो। वैसे तो सारा संसार ही बाइबिल, वेद, पुराण पढ़ता है, पर वे तो केवल शब्द राशि है। धर्म की सूखी ठठरी मात्र है। जो गुरु शब्दाडंबर के चक्कर में पड़ जाते हैं, जिनका मन शब्दों की शक्ति में बह जाता है, वे भीतर का मर्म खो बैठते हैं। जो शास्त्रों के वास्तविक मर्मज्ञ हैं, वे ही असल में सच्चे धार्मिक गुरु हैं।
50. संसार के प्रधान आचार्यों में से कोई भी शास्त्रों की इस प्रकार नानाविध व्याख्या करने के झमेंले में नहीं पड़ा। उन्होनें श्लोकों के अर्थ में खींचातानी नहीं की। वे शब्दार्थ और भावार्थ के फेर मंे नहीं पड़े। फिर भी उन्होंने संसार को बड़ी सुन्दर शिक्षा दी। इसके विपरीत, उन लोगों ने जिनके पास सिखाने को कुछ भी नहीं, कभी एकाध शब्द को ही पकड़ लिया और उस पर तीन भागों की एक मोटी पुस्तक लिख डाली, जिसमें सब अनर्थक बातें भरी हैं।
51. धर्म ही सर्वोच्च ज्ञान है-वहीं सर्वोच्च विद्या है। वह पैसों से नहीं मिल सकता और न पुस्तकों से ही। तुम भले ही संसार का कोना-कोना छान डालो, जब तक गुरु का आगमन नहीं होता, जब जक तुम धर्म को कहीं ना पाओगे। और ये विधाता-निर्दिष्ट गुरु प्राप्त हों जाय जो उनके निकट बालकवत् विश्वास और सरलता के साथ अपना हृदय खोल दो और साक्षात् ईश्वर ज्ञान से उनकी सेवा करो। जो लोग इस प्रकार प्रेम और श्रद्धा सम्पन्न होकर सत्य की खोज करते हैं, उनके निकट सत्य स्वरुप भगवान सत्य, शिव और सौन्दर्य के अलौकिक तत्वों को प्रकट कर देते हैं।
52. वह भक्त सचमुच ही भाग्यशाली है जिसे ऐसा गुरु मिलता है जिसे साक्षात्कार हो गया हो या परम पुरुष हो क्योंकि ऐसे गुरु केवल शिक्षा ही नहीं देते बल्कि अपने शिष्यों में शिक्षा के पालन हेतु शक्ति का संचार भी करते हैं। ऐसे आध्यात्मिक आचार्यों के शब्दों में दृढ़ विश्वास रहता है जो दूसरे साधनों से प्राप्त नहीं हो सकता और शिष्य ऐसे गुरु से दीक्षित होकर कभी अंधेरे में भटकता नहीं है बल्कि कठिन से कठिन पथ पर अग्रसर होता है। ऐसे आध्यात्मिक शिक्षक से एक बार सम्पर्क हुआ नहीं कि साधक की मंजिल प्राप्ति का विकास निश्चित हो जाता है। इसका अभिप्राय यह नहीं कि वह अपने उद्देश्य के लिए संघर्ष नहीं करेगा, बल्कि उसका संघर्ष सौ गुना कम हो जायेगा।
53. दो प्रकार के लोग ईश्वर की मनुष्य रुप में उपासना नहीं करते। एक तो नर पशु, जिसे धर्म का कोई ज्ञान नहीं और दूसरे परमहंस, जो मानव जाति के सारी दुर्बलताओं के उपर उठ चुके हैं और जो अपनी मानवी प्रकृति की सीमा के भी उस पार चले गये हैं। उनके लिए सारी प्रकृति आलस्यरुप हो गयी है। वे ही भगवान को उनके असल स्वरुप में भज सकते हैं।

स. आत्मा और विश्वात्मा
आत्मा
संाख्य दर्शन के सिद्धान्त से विश्वमन तीन मन-सत्व, रज और तम में विखण्डित होता है जिससे समस्त विश्व व्यक्त होता है अर्थात निम्नलिखित मूल प्रकार के मन से युक्त आत्मा व्यक्त होकर अनेक अंश-अंशांस के रूप में मन से युक्त आत्माएँ व्यक्त होती रहती हैं फिर इनका संलयन और संयुग्मन होता है तब व्यक्त होता हैं-”विश्व मन से युक्त आत्मा-एक पूर्ण मानव“

01. रज मन- ये मन सकारात्मक सार्वभौम और व्यक्तिगत विकासशील मन का रूप होता है। इसमें वे सभी मन आते हैं जो समाज व देश का शारीरिक, आर्थिक व मानसिक विकास करते हैं। मानव सभ्यता के संसार में इस मन को ही गृहस्थ कहते हैं।

02. तम मन- ये मन नकारात्मक सार्वभौम और व्यक्तिगत विकासशील मन का रूप होता है। इसमें वे सभी मन आते हैं जो समाज व देश का शारीरिक, आर्थिक व मानसिक नकारात्मक विकास करते हैं। भारतीय धर्मशास्त्र साहित्य के पुराणों में इस मन को ही असुर या राक्षस कहा गया है।

03. सत्व मन- ये मन सार्वभौम आत्मा पर केन्द्रित मन होते हैं। इसके निम्नलिखित दो प्रकार होते हैं।
अ. निवृत्ति मार्गी- इस प्रकार के मन समाज व देश के शारीरिक, आर्थिक व मानसिक आदान-प्रदान से उदासीन रहते हैं तथा स्वआनन्द में ही रहते हैं। मानव सभ्यता के संसार में इस मन को ही साधु-सन्त इत्यादि कहते हैं।
ब. प्रवृत्ति मार्गी- इस प्रकार के मन समाज व देश के शारीरिक, आर्थिक व मानसिक आदान-प्रदान में भाग लेते हैं तथा स्वआनन्द के साथ रहते हैं। भारतीय धर्मशास्त्र साहित्य के पुराणों में इस मन को ही देवता और राजा कहा गया है।

04. अवतारी मन- अवतारी (पुरूष), मन के तीनों गुण सत्व, रज और तम का पूर्ण संलयन का साकार रूप होता है परन्तु वह तीनों गुणों से युक्त होते हुये भी उससे मुक्त रहता है और अपने पूर्ववर्ती मन के तीनों गुण से युक्त सत्व, रज और तम मनों के सर्वोच्च अवस्था की अगली कड़ी होता है।

विश्वात्मा
भारतीय आध्यात्म दर्शन के मूल विचार ”सभी ईश्वर हैं“ तथा अद्वैत वेदान्त दर्शन के अनुसार ”सभी ईश्वर के ही प्रकाश हैं“ के अनुसार सभी में विश्वात्मा ही स्थित हैं। हम उन सभी को ईश्वर का अंश या विश्वात्मा का अंश इसलिए कहते हैं कि वे स्वयं को अपने समय के सर्वोच्च क्षेत्र तक व्यक्त नहीं कर पाते। यह ब्रह्माण्ड ईश्वर से व्यक्त है और उसमें ईश्वर समाहित और व्याप्त है। उसका प्रकाट्य सार्वभौम सत्य-सिद्धान्त का ही प्रकाट्य है। विश्वात्मा का सर्वोच्च प्रकाट्य पूर्ण सार्वभौम सत्य-सिद्धान्त का प्रकटीकरण है जो अन्तिम हो।
आत्मा और विश्वात्मा, अलग-अलग नहीं एक ही है। बस उसके प्रकटीकरण क्षेत्र अर्थात प्रभाव क्षेत्र से उसके नाम अलग हैं। आत्मा जो व्यक्तिगत और सामाजिक क्षेत्र के सीमित भौगोलिक क्षेत्र तक प्रभावी रहता है वहीं विश्वात्मा अपने समय के सर्वोच्च भौगोलिक क्षेत्र तक को प्रभावी करता है।
तात्पर्य यह है कि प्रत्येक मनुष्य ही विश्वात्मा है। उसे सार्वभौम एकात्म के लिए योजना बना कर प्रकट होने के लिए उतना ही भौगोलिक क्षेत्र प्राप्त है जितना कि किसी मनुष्य या अवतार को। जिसका जितना विशाल हृदय होगा, उसका उतना विशाल प्रेम होगा और ठीक उतना ही विशाल उसका कर्मक्षेत्र होगा। यह ब्रह्माण्ड ईश्वर के विशाल हृदय से व्यक्त प्रेम का फल है। और उसके विकास, संरक्षण, विनाश, निर्माण, नव-निर्माण और पुनर्निर्माण के लिए सदैव कर्मशील है। विश्वात्मा को जानने-समझने से वर्तमान और भविष्य के मनुष्य का मस्तिष्क विशालता की ओर प्राप्त करने का अवसर देता है जिससे हृदय की विशालता भी बढ़ती है और कर्म करने के लिए अनन्त दिशाओं और जन्मों के लिए परियोजना भी मिलती है। परियोजना का नाम होता है-”सत्य-शिव-सुन्दर“ निर्माण।

द. विकासवाद
भारतीय शास्त्रों में सृष्टि की उत्पत्ति का माध्यम निम्न प्रकार से बताया गया है-
क. प्राकृतिक सृष्टि-अजीव सृष्टि। 
ख. ब्राह्मी सृष्टि-(ब्रह्मा, विष्णु, महेश) ब्रह्मा द्वाराजीव सृष्टि। 
ग. मानस सृष्टि-मानस शक्ति से प्रजापति गण द्वारा। 
घ. बैजी सृष्टि-स्त्री-पुरूष द्वारा।
और भारतीय शास्त्रों में सृष्टि के उत्पत्ति का कारण क्रम आकाश, वायु, अग्नि, जल, पृथ्वी, औषधि, अन्न, वीर्य और अन्त में पुरूष अर्थात शरीर के क्रम से बताया जाता है। 
1. वेद में-पुरूष या हिरण्य गर्भ से। 
2. उपनिषद् में-
    अ. आकाश आदि क्रम से-तैत्तिरीय उपनिषद् में, 
    ब. अग्नि आदि क्रम से-छान्दोग्य उपनिषद् में, 
    स. जल आदि क्रम से-ऐतरेय उपनिषद् में।
भारतीय शास्त्रों के संाख्य दर्शन में सृष्टि के उत्पत्ति का क्रम अविकारीणी 1. प्रकृति (सत्व-शुद्ध या ज्ञान, रजः-मध्या या अज्ञान तथा तमः-जड़ या राग द्वेष) कार्य करके 2. महतत्व (बुद्धि), 3. अंहकार, 5. तन्मात्रा (सूक्ष्म भूत-4. गंध, 5. स्वाद, 6. स्पर्श, 7. दृष्टि, 8. ध्वनि) फिर मन तथा स्थूल भूत का कारण 5 ज्ञान इन्द्रिय (9. श्रोत, 10. त्वचा, 11. नेत्र, 12. जिह्वा, 13. घ्राण), 5 कर्म इन्द्रिय (14. वाक, 15. हस्त, 16. पाद. 17. उपस्थ, 18. गुदा) और 11वें इन्द्रिय मन (देश, काल, व निमित्त: क्रिया-कारण) में परिणत होता है। जिससे 5 स्थूल भूत (20. आकाश, 21. वायु, 22. अग्नि, 23. जल, 24. पृथ्वी) व्यक्त होता है। 25. पुरूष अर्थात जीव और परमेंश्वर न किसी प्रकृति का उपादान कारण और न ही किसी का कार्य है।
आधुनिक विज्ञान के अनुसार सृष्टि पर जीवों की उत्पत्ति जैविक आबादी के आनुवंशिक लक्षणों के पीढ़ी दर पीढ़ी परिवर्तन के क्रम-विकास द्वारा हुआ। क्रम-विकास की प्रक्रियाओं के फलस्वरूप जैविक संगठन के हर स्तर (जाति, सजीव या कोशिका) पर विविधता बढ़ती है। पृथ्वी के सभी जीवों का एक साझा अंतिम सार्वजानिक पूर्वज 3.5-3.8 अरब वर्ष पूर्व रहता था। पृथ्वी पर रही 99 प्रतिशत से अधिक जातियाँ विलुप्त हो चुकी हैं। पृथ्वी पर जातियों की संख्या 1 से 1.4 करोड़ अनुमानित है। इन में से 12 लाख की जानकारी हैं।

लैमार्क (1744–1829) ने अपने विकासवाद के संबंध में निम्नलिखित दो नियम प्रतिपादित किए हैं-
1. उस प्रत्येक जीव में, जिसने अपने विकास की आयु पार नहीं की है, किसी अंग का सतत व्यवहार उस अंग को विकसित एवं दृढ़ बनाता है और यह दृढ़ता उस काल के अनुपात में होती है जितने काल तक यह अंग व्यवहार में लाया गया है। इसके विपरीत यदि किसी अंग का व्यवहार नहीं किया जाता है, तो वह निर्बल होने लगता है और शनैः शनैः उसकी कार्यकारी क्षमता कम होती जाती है और अंत में वह अंग विलुप्त हो जाता है।
2. दीर्घकाल से किसी परिस्थिति में रहनेवाली प्रजाति के जीवों को, परिस्थिति के प्रभाव के कारण, अनेक बातें अर्जित करनी पड़ती हैं, या भुला देनी होती है। किसी अंग का प्रभावी व्यवहार, अथवा उस अंग के व्यवहार में सतत कमी, आनुवंशिकता के द्वारा सुरक्षित रहती है और ये बातें इन जीवों से उत्पन्न होनेवाले जीवों में अवतरित होती हैं, पर शर्त यह है कि अर्जित परिवर्तन नर और मादा दोनों में हुआ हो, अथवा उन नर-मादा में हुआ हो जिनसे नए जीवों की उत्पत्ति हुई है।
लैमार्क को विश्वास था कि जीवित जीवों के स्पीशीज (जीवजाति) में या तो प्राकृतिक श्रृंखला रहती है या अंतर रहता है। जीवित प्राणियों के सांतत्य के विचार ने उन्हें यह विचारने के लिए प्रेरित किया कि जीवन और वनस्पति श्रेणी किसी बिंदु पर अवश्य ही संतत होने चाहिए और इन्होंने इस बात पर जोर दिया कि जीवित प्राणियों का समग्र रूप में अध्ययन होना चाहिए। लैमार्क तीन महत्वपूर्ण एवं परस्पर संबन्धित संकल्पनाओं पर पहुँचे-
1. परिवर्तनशील बाह्य प्रभावों के अंतर्गत रहनेवाले स्पीशीज (जीवजाति) में अंतर होता है,
2. स्पीशीज (जीवजाति) की असमानताओं में भी मूलभूत एकता अंतर्निहित रहती है तथा
3. स्पीशीज (जीवजाति) में प्रगामी विकास होता है। 
लैमार्क की मुख्य कल्पना यह थी कि अर्जित गुण वंशानुक्रम से प्राप्त होते हैं। अब लैमार्क का सिद्धांत मान्य नहीं है।

19 वीं सदी के मध्य में चार्ल्स डार्विन (1809-1882) ने प्राकृतिक वरण द्वारा क्रम-विकास का वैज्ञानिक सिद्धांत दिया। उन्होंने इसे अपनी किताब ”जीवजाति का उद्भव (1859)“ में प्रकाशित किया। प्राकृतिक चयन द्वारा क्रम-विकास की प्रक्रिया को निम्नलिखित अवलोकनों से साबित किया जा सकता है-
1. जितनी संतानें संभवतः जीवित रह सकती हैं, उस से अधिक पैदा होती हैं, 
2. आबादी में रूपात्मक, शारीरिक और व्यावहारिक लक्षणों में विविधता होती है, 
3. अलग-अलग लक्षण उत्तर-जीवन और प्रजनन की अलग-अलग संभावना प्रदान करते हैं, और
4. लक्षण एक पीढ़ी से अगली पीढ़ी को दिए जाते हैं।
इस प्रकार, पीढ़ी दर पीढ़ी आबादी उन शख्सों की संतानों द्वारा प्रतिस्थापित हो जाती है जो उस बाईओफीसिकल परिवेश (जिसमें प्राकृतिक चयन हुआ था) के बेहतर अनुकूलित हों। प्राकृतिक वरण की प्रक्रिया इस आभासी उद्देश्यपूर्णता से उन लक्षणों को बनाती और बरकरार रखती है जो अपनी कार्यात्मक भूमिका के अनुकूल हों। अनुकूलन का प्राकृतिक वरण ही एक ज्ञात कारण है, लेकिन क्रम-विकास के और भी ज्ञात कारण हैं। माइक्रो क्रम-विकास के अन्य गैर-अनुकूली कारण उत्परिवर्तन और जैनेटिक ड्रिफ्ट ¼Genetic Drift½ हैं। जैव-उद्विकास (Organic-Evolution) एवं प्राकृतिक चयन (Natural Selection) से सम्बन्धित चार्ल्स डार्विन के विचारों को डार्विनवाद कहते हैं।
प्राकृतिक वरण के सिद्धांत की पुष्टि के लिये उन्होंने ”जीवन-संघर्ष (Struggle for Existence)“ का एक सहायक सिद्धांत उपस्थित किया। जीवन संघर्ष, जीवविज्ञान में प्रयुक्त होने वाली एक उक्ति है, जिसका तात्पर्य है अपने अस्तित्व के लिये जीवों का परस्पर संघर्ष। इसके अनुसार जीवों में जनन बहुत ही द्रुत गति और गुणोत्तर अनुपात में होता है, किंतु जीव जितनी संख्या में उत्पन्न होते हैं, उतनी संख्या में जी नहीं पाते, क्योंकि जिस गति से उनकी संख्या में वृद्धि होती है उसी अनुपात में वास स्थान और भोजन में वृद्धि नहीं होती, वरन् स्थान और भोजन सीमित रहते हैं। अतएव वास स्थान और भोजन के लिये जीवों में अनवरत संघर्ष चलता रहता है। इस संघर्ष में बहुसंख्या में जीव मर जाते हैं और केवल कुछ ही जीवित रह पाते हैं। इस प्रकार प्रकृति में विभिन्न जीवों की संख्या में एक संतुलन बना रहता है। इस प्रकार का संघर्ष केवल एक ही वर्ग अथवा जाति के जीवों में नहीं वरन् एक वर्ग का दूसरे वर्ग या जाति के साथ भी, चलता रहता है। वस्तुतः जीवन संघर्ष तीन प्रकार के हैं-
क. अंतर्जातीय संघर्ष (Intra-specific struggle)
ख. अंतराजातीय संघर्ष (Inter-specific struggle)
ग. पर्यावरण संघर्ष (Environmental struggle)
जिस प्रकार एक कुशल माली बगीचे से, अथवा एक चतुर किसान अपने खेत से कमजोर अथवा हानिकारक पौधों को निकाल फेंकता है, उसी प्रकार प्रकृति उपर्युक्त जीवन संघर्ष द्वारा दुर्बल और अक्षम जीव को अपनी वाटिका से उखाड़ फेंकती है, योग्य और होनहार जीवों को ही विकसित होने का अवसर प्रदान करती है तथा उनकी संख्याओं में संतुलन बनाए रहती है।
जीवों में परस्पर संघर्ष के परिणामस्वरूप उनकी रचना में विशेषता अथवा भिन्नता उत्पन्न होती है तथा यह विशेषता उनकी संतान में चली जाती है। इस प्रकार पीढ़ी दर पीढ़ी उन्नत विशेषताएँ उत्पन्न होकर ऐसी जाति तैयार करती हैं, जो आदि जीवों से भिन्न प्रतीत होने लगती है और एक नई जीवजाति के रूप में स्थापित हो जाती है।

य. अवतारवाद
ये सृष्टि विकास क्रम की एक श्रृंखला है। सार्वभौम सत्य से सार्वभौम सत्य-सिद्धान्त का मनुष्य शरीर से प्रकटीकरण ईश्वर का अवतरण है, परन्तु ईश्वर नहीं। विकास क्रम की श्रृंखला से ही मानव समाज के एकीकरण के लिए व्यक्त सार्वभौम सत्य-सिद्धान्त ही अवतारवाद के विचार के जन्म का कारण है। अवतारवाद के विचार का जन्म वेदों और पुराणों से व्यक्त होता है और लगभग सभी वर्तमान धर्मों (या सम्प्रदाय) के द्वारा माना जाता है। अवतरण, सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में व्याप्त सार्वभौम सत्य-सिद्धान्त का होता है इसलिए वह मानवीय नियमों से उच्च और अटलनीय-अपरिवर्तनीय-सर्वोच्च होता है। ईश्वर के अब तक नौ अवतार हो चुके है, दसवां कल्कि अवतार होना अभी बाकी है ऐसा कहा जाता है।
जीव से पूर्ण मानव के विकास क्रम के अनुसार-जीव से पूर्ण मानव के विकास क्रम के दृष्टि के अनुसार अवतार जीवांे के विकास की कहानी कहती है-
01. मत्स्यावतार-4000 लाख वर्ष पूर्व- बहुकोशकीय जीव की उत्पत्ति (Origin of multi cellular organism)
02. कच्छप अवतार-2250 लाख वर्ष पूर्व- उभयचर के विकास (Evolution of Amphibious)
03. बाराह अवतार-600 लाख वर्ष पूर्व- स्तनपायी जीव की उत्पत्ति  (Origin of Mammals)
04. नरसिंह अवतार-250 लाख वर्ष पूर्व- स्तनधारियों के प्रति स्तनधारी का विकास (बड़े मस्तिष्क के साथ स्तनधारियों के एक आदेश का सदस्य और मानव, वानर और बंदर सहित पूर्ण हाथ और पैर)  (Evolution of Mammals towards primatesa (a member of an order of mammals with a large brain and complete hands and feet, including humans, apesa and Monkeys))
05. वामन अवतार-100 लाख वर्ष पूर्व- सबसे पुराना धर्माधिपति की उत्पत्ति (Origin of earliesat primate)
06. परशुराम अवतार-20 लाख वर्ष पूर्व- शिकार के प्रति आदमी का अनुकूलन (Adaptation of man towards hunting)
07. श्रीराम अवतार-10 लाख वर्ष पूर्व- नेतृत्व के अधीन समुदाय का निर्माण (Formation of community under leadership)
08. कृष्ण अवतार-1 लाख वर्ष पूर्व- नदी किनारे कृषि और पशुपालन (Agriculture and Animal husbandry on the bank of river)
09. बुद्ध अवतार-50000 वर्ष पूर्व- मानव का शारीरिक से मानसिक विकास (Human development towards mental from physical)
10. कल्कि अवतार- वर्तमान और भविष्य-आधुनिक काल  (Modern era)

मानव से पूर्ण मानव के विकास क्रम के आधुनिक विचार के अनुसार
मानव से पूर्ण मानव के विकास क्रम के दृष्टि के अनुसार अवतार मानवों के सार्वभौम मस्तिष्क, सार्वभौम सत्य-सिद्धान्त और एकीकरण के लिए मानकीकरण के विकास की कहानी कहती है जो व्यावहारिक दृष्टि से अधिक उपयोगी है। (विस्तार आगे के पृष्ठों में है) अवतारों के नामकरण में उसके गुणों के तुलना के लिए प्रारम्भ में समान गुणों के जीव के नाम पर तथा बाद में स्वयं उनके व्यक्तिगत गुण के आधार पर रखे गये।