Monday, April 6, 2020

विश्व.नागरिक धर्म का धर्मयुक्त धर्मशास्त्र . कर्मवेद - प्रथम, अन्तिम तथा पंचम वेदीय श्रृंखला

विश्व.नागरिक धर्म का धर्मयुक्त धर्मशास्त्र . कर्मवेद - प्रथम, अन्तिम तथा पंचम वेदीय श्रृंखला



















मानक और मानक चरित्र

मानक और मानक चरित्र
















कालभैरव कथा: यथार्थ दृष्टि

कालभैरव कथा: यथार्थ दृष्टि 
(कर्मवेद-प्रथम, अन्तिम तथा पंचमवेद शिव-शंकर अधिकृत है, ब्रह्मा अधिकृत नहीं)

शुद्ध मन की सर्वोच्च अन्तिम अवस्था ही आत्मीय अवस्था है। अर्थात्् एक व्यक्तिगत मन से संयुक्त मन की सर्वोच्च और अन्तिम अवस्था। इस सम्पूर्ण चक्र के ज्ञान से ही भविष्यवाणी, अनुमान, कर्मज्ञान, ध्यान और कम समय में अधिक शक्तिशाली योजना का व्यक्त होना होता है। सम्पूर्ण मानव समाज के समक्ष प्रत्यक्ष प्रमाण है कि कोई भी मानव निर्मित या रचित विषय एका-एक बाहर से नहीं आया, वह पहले हमारे मन के अन्दर में अदृश्य व्यक्तिगत प्रमाणित रुप से विकसित हुआ फिर वह सार्वजनिक प्रमाणित कार्य रुप में व्यक्त हुआ। शुद्ध सर्वोच्च मन से ही अन्त-में विकसित और बाह्य में व्यक्त हुई एक पौराणिक कथा है, जो इस प्रकार है।
एक बार सुमेरु पर्वत पर बैठे हुए ब्रह्मा जी के पास जाकर देवताओं ने उनसे अविनाशी तत्व बताने का अनुरोध किया। शिव जी की माया से मोहित ब्रह्मा जी उस तत्व को न जानते हुए भी इस प्रकार कहने लगे-”मैं ही एक मात्र संसार को उत्पन्न करने वाला स्वयंभू, अज, एक मात्र ईश्वर, अनादि भक्ति, ब्रह्म, घोर, निरंजन आत्मा हूँ। मैं ही प्रवृत्ति और निवृत्ति का मूलाधार, सर्वलीन पूर्ण ब्रह्म हूँ।“ ब्रह्मा जी के कहने पर वहाँ मुनिमण्डली में विद्यमान विष्णु जी ने उन्हें समझाते हुए कहा कि-मेरी आत्मा से तो तुम सृष्टि के रचयिता बने हो, मेरा अनादर करके तुम अपने प्रभुत्व की बात कैसे कर रहे हो? इस प्रकार ब्रह्मा और विष्णु अपना-अपना प्रभुत्व स्थापित करने लगे और अपने पक्ष में समर्थन में शास्त्र वाक्य उद्धृत करने लगे। अन्तत-वेदों से पूछने का निर्णय हुआ। तो स्वरुप धारण करके आये चारों वेदों ने क्रमश-अपना मत इस प्रकार प्रकट किया। ऋग्वेद-जिसके भीतर समस्त भूत निहित है तथा जिससे सब कुछ प्रवृत्ति होता है और जिसे परमतत्व कहा जाता है वह एक रुद्र रुप ही है। यजुर्वेद-जिसके द्वारा हम वेद भी प्रमाणित होते हैं तथा जो ईश्वर के सम्पूर्ण यज्ञों तथा योगों से भजन किया जाता है, सबका द्रष्टा वह एक शिव ही है। सामवेद-जो समस्त संसारी जनों को भरमाता है, जिसे योगीजन ढूंढते हैं और जिसकी शक्ति से सारा संसार प्रकाशित होता है, वह एक त्रयम्बक शिवजी ही हैं। अथर्ववेद-जिसकी भक्ति से साक्षात्कार होता है और जो सब सुख-दुखातीत अनादि ब्रह्म है वह केवल एक शंकर जी हैं। विष्णु ने वेदों के इस कथन को प्रताप बताते हुए नित्य शिवा से रमण करने वाले दिगम्बर पीतवर्ण-धूलिधूसरित प्रेमपनाथ, कुवेटाधारी, सर्वावेष्टि, वृपनवाहो, निःसंग शिवजी को परब्रह्म मानने से इनकार कर दिया। ब्रह्मा-विष्णु विवाद को सुनकर ओंकार ने शिवजी की ज्योति को नित्य और सनातन परब्रह्म बताया परन्तु फिर भी शिवमाया से विमोहित ब्रह्मा-विष्णु की बुद्धि नहीं बदली। उस समय उन दोनों के मध्य आदि-अन्त रहित एक ऐसी विशाल ज्योति प्रकट हुई और उससे ब्रह्मा का पंचम सिर जलने लगा। इतने में त्रिशूलधारी नील-लोहित वहाँ प्रकट हुये तो अज्ञानता वश ब्राह्मण ब्रह्मा उन्हें अपना पुत्र बताकर अपनी शरण में आने को कहने लगे। ब्रह्मा की सम्पूर्ण बातों को सुनकर शिव-शंकर जी अत्यन्त क्रुद्ध हुये और उन्होंने तत्काल भैरव को उत्पन्न करके उसे ब्रह्मा पर शासन करने का आदेश दिये। इस प्रकार भैरव ने अपनी बायीं अंगुली के नखाग्र से ब्रह्मा जी का पंचम सिर काट डाला। भयभीत ब्रह्मा शतरुद्री का पाठ करने लगे। ब्रह्मा-विष्णु को सत्य की प्रतीति हो गयी और वे शिव-शंकर की महिमा गान करने लगे। यह देखकर शिवजी ने उन दोनों को अभयदान दिया। इसके उपरान्त शिव-शंकर जी ने भैरव जी से कहा कि-तुम इन ब्रह्मा-विष्णु को मानते हुए ब्रह्मा के कपाल को धारण करके इसी के आश्रय से भिक्षावृत्ति करते हुये वाराणसी में चले जाओ। वहाँ उस नगरी के प्रभाव से तुम ब्रह्म हत्या के पाप से निवृत्त हो जाओगे। भैरव जी ज्यों ही काशी (वाराणसी) पहुँचे त्यों ही उनके हाथ से चिमटा कपाल छूटकर पृथ्वी पर गिर पड़ा और उस स्थान का नाम कपालमोचन तीर्थ पड़ गया। शिव-शंकर जी ने उसके भीषण होने के कारण ”भैरव“ और काल को भी भयभीत करने वाला होने के कारण ”कालभैरव“ तथा भक्तों के पापों को तत्काल नष्ट करने वाला होने के कारण ”पापभक्षक“ नाम देकर उसे काशीपुरी का अधिपति बना दिया। भगवान शिव-शंकर के पूर्ण रुप भैरव जी के उत्पत्ति की यह कथा, सनत्कुमार जी को नन्दीश्वर सुनाते हैं।
सर्वोच्च मन सें व्यक्त यह पौराणिक कथा स्पष्ट रुप से व्यक्त करती है कि ब्रह्मा और विष्णु से सर्वाेच्च शिव-शंकर हैं। चारो वेदों को प्रमाणित करने वाले शिव-शंकर हैं। चार सिर के चार मुखों से चार वेद व्यक्त करने वाले ब्राह्मण ब्रह्मा जब पांचवे सिर के पाँचवे मुख से अन्तिम वेद पर अधिपत्य व्यक्त करने लगे तब शिव-शंकर के पूर्ण रुप कालभैरव ने उनका पाँचवा सिर काट डाला जिससे यह स्पष्ट होता है कि काल ही सर्वोच्च है, काल ही भीषण है, काल ही सम्पूर्ण पापों का नाशक और भक्षक है, काल से ही काल डरता है। अर्थात्् पाँचवा वेद काल आधारित ही होगा। पुराणों में ही व्यक्त शिव-शंकर से विष्णु तथा विष्णु से ब्रह्मा को बहिर्गत होते अर्थात्् ब्रह्मा को विष्णु के समक्ष तथा विष्णु को शिव-शंकर के समक्ष समर्पित और समाहित होते दिखाया गया है। जिससे यह स्पष्ट होता है कि शिव-शंकर ही आदि और अन्त हैं। अर्थात्् जो पंचम वेद होगा वह अन्तिम वेद होगा साथ ही प्रथम वेद होगा। शिव-शंकर ही प्रलय, स्थिति और सृष्टिकर्ता हैं। चूँकि वेद शब्दात्मक होते हैं इसलिए पंचम वेद शब्द से ही प्रलय, स्थिति और सृष्टिकर्ता होगा।
लव कुश सिंह ”विश्वमानव“ द्वारा व्यक्त पुराण का धर्मनिरपेक्ष यथार्थ अनुभव की अन्तिम सत्य दृष्टि भी उपरोक्त को स्पष्ट रुप से व्यक्त करती है। जिसमें ब्रह्मा को एकात्म ज्ञान का रुप विष्णु को एकात्म ज्ञान सहित एकात्म कर्म का रुप तथा शिव-शंकर को एकात्म ज्ञान और एकात्म कर्म सहित एकात्म ध्यान का रुप व्यक्त किया गया है। यह सार्वजनिक प्रमाणित भी है कि एकात्म कर्म के बिना एकात्म ज्ञान और एकात्म ध्यान के बिना एकात्म ज्ञान और एकात्म कर्म दोनों प्रमाणित नहीं हो पाते अर्थात्् एकात्म ज्ञान, ज्ञान नहीं है। एकात्म ध्यान ही एकात्म ज्ञान है। यह एकात्म ध्यान का ही रुप काल चिन्तन है। काल की प्रधानता है। ज्ञान, कर्म और ध्यान का एकात्म रुप ही पंचम वेद का रुप है। चूँकि एकात्म ज्ञान विष्णु के अदृश्य व्यक्तिगत प्रमाणित आठवें पूर्णावतार श्रीकृष्ण द्वारा गीतोपनिषद् के रुप में व्यक्त किया जा चुका है तथा उनका जीवन ही अव्यक्त कर्मज्ञान का रुप रहा है। इसलिए ज्ञान का दृश्य रुप कर्म ही अन्तिम पंचम वेद का आधार है। परिणामस्वरुप विष्णु के दृश्य सार्वजनिक प्रमाणित दसवें पूर्णावतार निष्कलंक श्री कल्कि और शंकर के दृश्य सार्वजनिक प्रमाणित 22 वें पूर्णावतार भोगेश्वर के संयुक्तावतार तथा आत्मा-शिव-ईश्वर-ब्रह्म के दृश्य रुप लव कुश सिंह ”विश्वमानव“ द्वारा व्यक्त कर्मवेद ही प्रथम, अन्तिम तथा पंचमवेद है। चूँकि यह वेद शिव-शंकर अधिकृत है जो ज्ञान, कर्म और ध्यान का सम्मिलित रुप है इसलिए शिव-शंकर ही प्रलय, स्थिति और सृष्टिकर्ता है। और व्यक्तकर्ता विश्वमानव स्वयं शिव-शंकर के व्यक्त दृश्य सार्वजनिक प्रमाणित अन्तिम अवतार हैं। 
प्रचीन काल से ही पंचम वेद की उपलब्धता मानव समाज के लिए एक विवादास्पद विषय रहा है। बहुत से रचनाकार और समर्पित व्यक्तियों ने अपने-अपने साहित्य को पंचमवेद के रुप में प्रस्तुत किया था जैसे-महाभारत के लिए महर्षि वेदव्यास, शास्त्रीय कार्यों के लिए एक तमिलियन संत ने, अच्छे बुरे कर्मों का संकलन के लिए माध्वाचार्य, नाट्यशास्त्र अर्थात्् गन्धर्ववेद, चिकित्साशास्त्र अर्थात्् आयुर्वेद, गुरु ग्रंथ साहिब, लोकोक्तियाँ इत्यादि। परन्तु जब पंचम वेद अन्तिम होगा तो वह सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड स्थूल एवं सूक्ष्म दोनों को एक ही सिद्धान्त द्वारा प्रमाणित करने में सक्षम होगा और वही विश्व प्रबन्ध का अन्तिम शास्त्र साहित्य होगा। जो सिर्फ कर्मवेद-प्रथम, अन्तिम और पंचमवेद में ही उपलब्ध है। लव कुश सिंह ”विश्वमानव“ के विचार से कर्मवेद को ही अन्य नामों जैसे-01.कर्मवेद 02.शब्दवेद 03.सत्यवेद 04.सूक्ष्मवेद 05.दृश्यवेद 06.पूर्णवेद 07.अघोरवेद 08.विश्ववेद 09.ऋृशिवेद 10.मूलवेद 11.शिववेद 12.आत्मवेद 13.अन्तवेद 14.जनवेद 15.स्ववेद 16.लोकवेद 17.कल्किवेद 18.धर्मवेद 19.व्यासवेद 20.सार्वभौमवेद 21.ईशवेद 22.ध्यानवेद 23.प्रेमवेद 24.योगवेद 25.स्वरवेद 26.वाणीवेद 27.ज्ञानवेद 28.युगवेद 29.स्वर्णयुगवेद 30.समर्पणवेद 31.उपासनावेद 32.शववेद 33.मैंवेद 34.अहंवेद 35.तमवेद 36.सत्वेद 37.रजवेद 38.कालवेद 39.कालावेद 40.कालीवेद 41.शक्तिवेद 42.शून्यवेद 43.यथार्थवेद 44.कृष्णवेद सभी प्रथम, अन्तिम तथा पंचम वेद, से भी कहा जा सकता है। इस प्रकार प्रचीन काल से पंचम वेद की उपलब्धता का विवादास्पद विषय हमेशा के लिए समाप्त हो गया।



श्रीमदभवद्गीता की शक्ति सीमा तथा कर्मवेद: पंचमवेद समाहित विश्वशास्त्र के प्रारम्भ का आधार

श्रीमदभवद्गीता की शक्ति सीमा तथा
कर्मवेद: पंचमवेद समाहित विश्वशास्त्र के प्रारम्भ का आधार


अधिकतम व्यक्ति ऐसा सोचते हैं कि ज्ञान का अन्त नहीं हो सकता और व्यक्ति ऐसा भी मानते हैं कि जिसका जन्म (प्रारम्भ) हुआ है उसका मृत्यु (अन्त) भी होता है। इस प्रकार यदि ज्ञान का प्रारम्भ हुआ है तो उसका अन्त भी होगा।

स्वामी विवेकानन्द की दृष्टिः-
01. विज्ञान एकत्व की खोज के सिवा और कुछ नहीं है। ज्योंही कोई विज्ञान शास्त्र पूर्ण एकता तक पहुँच जायेगा, त्योंहीं उसका आगे बढ़ना रुक जायेगा क्योंकि तब तो वह अपने लक्ष्य को प्राप्त कर चुकेगा। उदाहरणार्थ रसायनशास्त्र यदि एक बार उस एक मूल द्रव्य का पता लगा ले, जिससे वह सब द्रव्य बन सकते हैं तो फिर वह और आगे नहीं बढ़ सकेगा। पदार्थ विज्ञान शास्त्र जब उस एक मूल शक्ति का पता लगा लेगा जिससे अन्य शक्तियां बाहर निकली हैं तब वह पूर्णता पर पहुँच जायेगा। वैसे ही धर्म शास्त्र भी उस समय पूर्णता को प्राप्त हो जायेगा जब वह उस मूल कारण को जान लेगा। जो इस मत्र्यलोक में एक मात्र अमृत स्वरुप है जो इस नित्य परिवर्तनशील जगत का एक मात्र अटल अचल आधार है जो एक मात्र परमात्मा है और अन्य सब आत्माएं जिसके प्रतिबिम्ब स्वरुप हैं। इस प्रकार अनेकेश्वरवाद, द्वैतवाद आदि में से होते हुए इस अद्वैतवाद की प्राप्ति होती है। धर्मशास्त्र इससे आगे नहीं जा सकता। यही सारे विज्ञानों का चरम लक्ष्य है। (हिन्दू धर्म, पृष्ठ-16, राम कृष्ण मिशन प्रकाशन)
02. यह समझना होगा कि धर्म के सम्बन्ध में अधिक और कुछ जानने को नहीं, सभी कुछ जाना जा चुका है। जगत के सभी धर्म में, आप देखियेगा कि उस धर्म में अवलम्बनकारी सदैव कहते हैं, हमारे भीतर एक एकत्व है अतएव ईश्वर के सहित आत्मा के एकत्व ज्ञान की अपेक्षा और अधिक उन्नति नहीं हो सकती। ज्ञान का अर्थ इस एकत्व का आविष्कार ही है। यदि हम पूर्ण एकत्व का आविष्कार कर सकें तो उससे अधिक उन्नति फिर नहीं हो सकती। (धर्म विज्ञान, पृष्ठ-7, राम कृष्ण मिशन प्रकाशन)
03. मैं जिस आत्मतत्व की बात कर रहा हूँ वही जीवन है, शक्तिप्रद है और अत्यन्त अपूर्व है। केवल वेदान्त में ही वह महान तत्व है जिससे सारे संसार की जड़ हिल जायेगी और जड़ विज्ञान के साथ धर्म की एकता सिद्ध होगी। 
(हिन्दू धर्म, पृष्ठ-44, राम कृष्ण मिशन प्रकाशन))

लव कुश सिंह ”विश्वमानव“ की दृष्टिः-
01. पूर्ण ज्ञान अर्थात् अपने मालिक स्वयं केन्द्र में स्थित मार्गदर्शक दर्शन ;ळनपकमत च्ीपसवेवचीलद्ध अर्थात् ळ एवं विकास दर्शन ;क्मअमसवचउमदज च्ीपसवेवचीलद्ध अर्थात् क् है। इसकी परिधि आदान-प्रदान या व्यापार या क्रियाचक्र या क्रियान्वयन दर्शन ;व्चमतंजपदह च्ीपसवेवचीलद्ध अर्थात् व् है। यही आध्यात्म अर्थात् अर्थात् अदृश्य विज्ञान का सर्वोच्च एवं अन्तिम आविष्कार है। तथा यही पदार्थ अर्थात् दृश्य विज्ञान द्वारा आविष्कृत परमाणु की संरचना भी है। जिसके केन्द्र में ळ के रुप में प्रोटान-च् है तथा क् के रुप में न्यूट्रान-छ है। इसकी परिधि व् के रुप में इलेक्ट्रान-म् है। प्राच्य अदृश्य आध्यात्म विज्ञान तथा पाश्चात्य दृश्य पदार्थ विज्ञान में एकता का यही सूत्र है। विवाद मात्र नाम के कारण है। जिसके अनुसार इलेक्ट्रान या क्रियान्वयन दर्शन में विभिन्न सम्प्रदायों, संगठनों, दलों के विचार सहित व्यक्तिगत विचार जिसके अनुसार अर्थात् अपने मन या मन के समूहों के अनुसार वे समाज तथा राज्य का नेतृत्व करना चाहते हैं। जबकि ये सार्वजनिक सत्य नहीं है। इसलिए ही इन विचारों की समर्थन शक्ति कभी स्थिर नहीं रहती जबकि केन्द्र या आत्मा या एकता में विकास दर्शन स्थित है। केन्द्र में प्रोटान की स्थिति अदृश्य मार्गदर्शक दर्शन या अदृश्य विकास दर्शन की स्थिति, चूँकि यह सार्वजनिक सत्य विकास दर्शन का अदृश्य रुप है इसलिए यह व्यक्तिगत प्रमाणित है। इसी कारण आध्यात्म भी विवाद और व्यष्टि विचार के रुप में रहा जबकि यह सत्य था। लेकिन न्यूट्रान की स्थिति दृश्य मार्गदर्शक दर्शन या दृश्य विकास दर्शन की स्थिति है इसलिए यह सार्वजनिक सत्य है सम्पूर्ण मानक है, समष्टि सत्य है, सत्य सिद्धान्त है जिसकी स्थापना से व्यक्ति मन उस चरम स्थिति में स्थापित होकर उसी प्रकार तेजी से विश्व निर्माण कर सकता है जिस प्रकार पदार्थ विज्ञान द्वारा आविष्कृत न्यूट्रान बम इस विश्व का विनाश कर सकता है। 
02. वर्तमान दृश्य पदार्थ विज्ञान के सत्य-सिद्धान्त के अनुसार सम्पूर्ण तत्व तीन अवस्थाओं में रहता है। जिनमें दो आभासी अवस्था तथा एक वास्तविक अवस्था। ये तीनों अवस्था क्रमशः ठोस, द्रव और गैस अवस्था है। इस तीनों अवस्थाओं में एक यदि उसकी सामान्य वातावरण में वास्तविक अवस्था है तो शेष दो उसकी विशेष वातावरण में आभासी अवस्था हो सकती है। जबकि परमाणु (न्यूक्लियस व इलेक्ट्रान) तीनों अवस्थाओं में विद्यमान रहता है। तत्वों में व्यक्त होने का सत्य-सिद्धान्त यह है कि परमाणु में इलेक्ट्रानों की संख्या के घटने बढ़ने से विभिन्न तत्व व्यक्त होते हैं। पुनः तत्वों के मिश्रण से विभिन्न यौगिक पदार्थ व्यक्त होते हैं अर्थात् एक ही परमाणु से इलेक्ट्रानों की संख्या को घटा-बढ़ाकर सभी तत्वों के गुणों को प्राप्त कर सकते हैं। यदि यह सम्भव हो कि एक चेतना युक्त परमाणु स्वयं अपने इलेक्ट्रानों को घटा-बढ़ा सके तो वह परमाणु सभी तत्वों के गुणों या प्रकृति को व्यक्त करने लगेगा। ऐसी स्थिति में उस जटिल परमाणु को किसी विशेष तत्व का परमाणु निर्धारित करना असमभव हो जायेगा। फिर उसे ”एक में सभी, सभी में एक“ कहना पड़ेगा अर्थात् उसकी निम्नतम एवं सर्वोच्चतम अन्तिम स्थिति ही उसकी निर्धारण योग्य प्रकृति होगी। 
वर्तमान अदृश्य आध्यात्म विज्ञान के अद्वैत सत्य-सिद्धान्त के अनुसार व्यक्ति भी तीन अवस्थाओं में रहता है जिसमें से दो आभासी अवस्था तथा एक वास्तविक अवस्था। ये तीनों अवस्था क्रमशः आत्मीय काल, अदृश्य काल तथा दृश्य काल अवस्था है। इन तीनों अवस्थाओं में यदि मन की एक वास्तविक अवस्था है तो शेष दो विशेष वातावरण में आभासी अवस्था हो सकती है। जबकि आत्मा सहित मन तीनों अवस्थाओं में रहता है। व्यक्ति के महत्ता के व्यक्त होने का सत्य-सिद्धान्त यह है कि व्यक्ति में मन की उच्चता और निम्नता से विभिन्न महत्ता के व्यक्तियों का व्यक्त होना होता है। पुनः इन व्यक्तियों के साथ आने से विभिन्न मतों पर आधारित सम्प्रदाय और संगठन व्यक्त होते हैं। अर्थात् एक ही व्यक्ति के मन की उच्चता एवं निम्नता से हम सभी महत्ता के व्यक्तियों, सम्प्रदायों और संगठनों के योग्य हो सकते हैं। अर्थात् प्रत्येक व्यक्ति में मन के निम्नतम स्थिति पशु मानव से सर्वोच्च और अन्तिम स्थिति विश्व मन से युक्त विश्वमानव तक को व्यक्त करने की सम्भावना नीहित है क्योंकि मानव वह चेतना युक्त आत्मा है जो स्वयं अपने मन की उच्चता एवं निम्नता पर आवश्यकता और समयानुसार नियन्त्रण कर सकता है और सभी तरह के व्यक्तियों या गुणों को व्यक्त कर सकता है। ऐसी स्थिति में उस जटिल व्यक्ति को किसी विशेष प्रकृति का व्यक्ति निर्धारण करना असम्भव हो जायेगा। फिर उसे ”एक में सभी, सभी में एक“ कहना पड़ेगा। अर्थात् उसकी निम्नतम पशु मानव और सर्वोच्चतम तथा अन्तिम विश्वमानव स्थिति ही उसकी निर्धारण योग्य प्रकृति होगी।
03. भारत के प्रचीन ऋषि बिना किसी यन्त्र की सहायता से यह जान चुके थे कि वस्तुओं का सम्पूर्ण नाश नहीं होता केवल उसका अवस्था परिवर्तन होता है जिस पर आधारित होकर ही उन्होंने विश्व कल्याणार्थ धर्म का आविष्कार किये थे। यह व्यक्तिगत प्रमाणित अदृश्य दिशा से धर्म का आविष्कार था। इसलिए ही यह धर्म विवाद का विषय रहा। परन्तु इसी विषय को भी पदार्थ विज्ञान ने भी सिद्ध कर दिखाया है, और इस ओर से सम्पूर्ण एकत्व का मन के विश्व मानक -शून्य श्रंृखला का आविष्कार सार्वजनिक प्रमाणित दृश्य दिशा की ओर से धर्म का आविष्कार। अब और कोई दिशा नहीं जिस ओर से धर्म का आविष्कार किया जा सके। परिणामस्वरुप यह अन्तिम विश्वव्यापी विवादमुक्त रुप से धर्म का आविष्कार है। 
04. सर्वोच्च और अन्तिम मन स्तर द्वारा व्यक्त ज्ञान-कर्मज्ञान के अन्तिम होने को इस प्रकार समझा जा सकता है। मान लीजिए बहुत से व्यक्ति हिमालय के चारो ओर से एवरेस्ट चोटी पर चढ़ रहे हैं। कुछ प्रारम्भ में हैं कुछ उससे ऊपर, कुछ और ऊपर, इस प्रकार से एक व्यक्ति शिखर पर बैठा है। प्रारम्भ से अन्तिम तक के व्यक्ति के पास वहाँ की स्थिति पर एक मन स्तर है। शिखर पर बैठा व्यक्ति अपने अन्तिम होने का प्रमाण सिर्फ दो मार्गों द्वारा व्यक्त कर सकता है। पहला यह कि वह उस अन्तिम स्तर का वर्णन करे। इस मार्ग में जब तक सभी व्यक्ति शिखर तक नहीं पहुँच जाते उसके अन्तिम होने की प्रमाणिकता सिद्ध नहीं हो पाती। इस मार्ग को व्यक्तिगत प्रमाणित ज्ञान का मार्ग कहते हैं। यह संतों का मार्ग है। दूसरा मार्ग यह है कि शिखर पर बैठा व्यक्ति अन्तिम को प्रारम्भ से अन्तिम तक के मनस्तर को इस भाँति जोड़े कि प्रत्येक मनस्तर पर बैठा व्यक्ति अपने स्थान से ही अन्तिम की अनुभूति कर ले। इस मार्ग को सार्वजनिक प्रमाणित कर्मज्ञान का मार्ग कहते हैं। प्रथम मार्ग जो कठिन मार्ग था, वह था श्रीकृष्ण का मार्ग। द्वितीय मार्ग जो सरल मार्ग है वह है-लव कुश सिंह ”विश्वमानव“ का मार्ग जिसके अनुसार प्रत्येक व्यक्ति को उसके मन स्तर की ओर से सार्वजनिक प्रमाणित सर्वव्यापी सर्वोच्च और अन्तिम कर्म आदान-प्रदान या परिवर्तन से जोड़ दिया गया है जिससे उसके अतीत का अनुभव कर सीधे व्यक्तिगत प्रमाणित आत्मोन्भूति तथा विवादमुक्त सिद्धान्तों की प्राप्ति प्रत्येक मनुष्य कर सके। अन्तिम के पूर्ण प्रमाण प्रस्तुत कर देने के बावजूद व्यक्ति को यह अधिकार है कि वह इसे अन्तिम न होने का प्रमाण प्रस्तुत करे परन्तु ऐसा न हो कि सम्पूर्ण जीवन व्यर्थ के प्रयत्न में ही निकल जाये और हाथ कुछ भी न मिले। इसलिए बुद्धिमानी इसी में है कि अन्तिम का परीक्षण एक समय सीमा तक करें और व्यक्त मार्ग के अनुसार जीवन में धारण कर जीवन को संचालित करें।
05. इस बाह्य जगत को बृहद ब्रह्माण्ड तथा अन्तः जगत को क्षुद्र ब्रह्माण्ड कहते हैं। एक मनुष्य अथवा कोई भी प्राणी अर्थात् क्षुद्र ब्रह्माण्ड जिस नियम से गठित होता है उसी नियम से विश्व ब्रह्माण्ड अर्थात् बृहद ब्रह्माण्ड भी गठित है। जैसे हमारा एक मन व्यक्तिगत मन है। उसी प्रकार एक विश्वमन संयुक्त मन भी है। सम्पूर्ण जगत एक अखण्ड स्वरुप है वेदान्त उसी को ब्रह्म कहता है। ब्रह्म जब बृहद ब्रह्माण्ड के पश्चात् या अतीत में अनुभव होता हो तब उसे ईश्वर या परमात्मा कहते हैं। और जब ब्रह्म इस क्षुद्र ब्रह्माण्ड के पश्चात् या अतीत में अनुभव होता है तब उसे आत्मा कहते हैं। द्वैतवादी आत्मा और परमात्मा को दो मानते हैं जबकि अद्वैतवादी दोनों को एक ही मानते हैं। और इस आत्मा को ही मनुष्य के अन्दर स्थित ईश्वर या परमात्मा मानते हैं। अर्थात् इस मनुष्य से ही व्यक्तिगत मन और विश्व मन या संयुक्तमन दोनों ही व्यक्त होता है। जिस मनुष्य शरीर से सर्वोच्च और अन्तिम, सर्वव्यापी संयुक्तमन या विश्वमन व्यक्त होगा उसी शरीर को हम ईश्वर या परमात्मा का साकार अन्तिम रुप या अवतार कहेंगे।
06. इस ईश्वर या परमात्मा के व्यक्तिगत प्रमाणित साकार प्रक्षेपण को पुराण में शिव-शंकर तथा सार्वजनिक प्रमाणित साकार प्रक्षेपण को पूर्णावतार कहते हैं। जिसका व्यक्त गुण सर्वोच्च और अन्तिम एकात्म ज्ञान और एकात्म कर्म समाहित एकात्म ध्यान होता है। इसके अंशों का प्रक्षेपण सार्वजनिक प्रमाणित साकार रुप में अंशावतार तथा व्यक्तिगत प्रमाणित साकार रुप में विष्णु व ब्रह्मा कहते हैं। इसलिए ही पुराणों में शिव-शंकर से निकलते हुए विष्णु अर्थात् एकात्म ज्ञान समाहित एकात्म कर्म को तथा विष्णु से निकलते हुए ब्रह्मा अर्थात् एकात्म ज्ञान को प्रक्षेपित किया गया है। ब्रह्मा और विष्णु को देव तथा अन्तिम शिव-शंकर को महादेव कहते हैं।
07. इन तीनों देवताओं ब्रह्मा, विष्णु और शिव-शंकर के मूल गुणों के आधार पर उनके वास्तविक रुप अर्थात् चार वेदों को व्यक्त करने वाले चार मुखों से युक्त सृष्टिकर्ता ब्रह्मा का रुप, चार भुजाओं से युक्त पालनकर्ता विष्णु का रुप तथा ब्रह्मा और विष्णु समाहित पाँचों वेदों को व्यक्त करने वाले पाँच मुखों से युक्त कल्याण कर्ता शिव-शंकर का अन्तिम रुप, तीनों देवताओं का दिव्यरुप कहलाता है। जबकि ईश्वर या आत्मा या परमात्मा के व्यक्तिगत प्रमाणित सर्वव्यापी सत्य-आत्मा रुप को व्यक्तिगत प्रमाणित विश्वरुप तथा सार्वजनिक प्रमाणित सर्वव्यापी सिद्धान्त रुप को अन्तिम सार्वजनिक प्रमाणित विश्वरुप कहते हैं। ईश्वर या परमात्मा या आत्मा के पूर्णावतार के साकार रुप से विष्णु और शिव-शंकर के दिव्यरुप सहित सार्वजनिक प्रमाणित विश्वरुप का संयुक्त रुप व्यक्त होगा। इसलिए ही विष्णु और शिव-शंकर को एक दूसरे का रुप कहा गया है।
08. कार्य की प्रथम शाखा अर्थात् भुजा-कालानुसार व्यक्तिगत और संयुक्त विचारों-दर्शनों से युक्त अर्थात् सुदर्शन चक्र, जिससे निम्न और संकीर्ण विचारांे का परिवर्तन या वध होता है। दूसरी भुजा-उद्घोष अर्थात् शंख जिससे चुनौति दी जाती है। तीसरी भुजा-रक्षार्थ अर्थात् गदा जिससे आत्मीय स्वजनों की रक्षा की जाती है। चैथी और अन्तिम भुजा-निर्लिप्त अर्थात् कमल जिससे सांसारिकता और असुरी गुणों से मुक्त समाज में आश्रय पाना आसान होता है क्योंकि सांसारिकता और असुरी गुणों से युक्त व्यक्ति अपने अहंकारी दृष्टि से ही देखते हैं। परिणामस्वरुप अच्छे विचार को सुरक्षित विकास का अवसर प्राप्त होता है। इन सभी गुणों से युक्त हो शक्तिशाली और तीव्र वेग अर्थात् गरुड़ पक्षी रुपी वाहन से व्यक्त होना, ये ही पालनकर्ता विष्णु के मूल लक्षण हैं जिससे वे समाज में व्यक्त हो संसार का पालन करते हैं जो लव कुश सिंह ”विश्वमानव“ के जीवन, कर्म व व्यक्त होने के मार्ग से पूर्ण प्रमाणित है और चतुर्भुज रुप है।
09. जिस प्रकार अदृश्य शिव अर्थात् अदृश्य विशेश्वर का प्रतीक चिन्ह शिव-लिंग है उसी प्रकार दृश्य शिव अर्थात् दृश्य भोगेश्वर का प्रतीक चिन्ह शिव-लिंग सहित सुदर्शन-चक्र और शंख है। कारण अन्तिम अवतार शिव-शंकर का पूर्णावतार है जिसमें विष्णु समाहित हैं। परिणामस्वरुप दृश्य शिव अर्थात् दृश्य भोगेश्वर का प्रतीक चिन्ह पूर्ण शिव तथा आधा विष्णु के प्रतीक चिन्ह से ही व्यक्त होगा। जिस प्रकार काशी अदृश्य विशेश्वर का निवास स्थान है उसी प्रकार सत्यकाशी दृश्य भोगेश्वर का निवास स्थान है।
10. चारों वेदों के ज्ञान और अनेकों उपनिषद् समाहित ”गीता“ व्यक्तिगत प्रमाणित मार्ग से आत्म ज्ञान, दिव्य-दृष्टि, सर्वव्यापी रुप-विश्वरुप, चतुर्भुज दिव्यरुप तथा कर्म की ओर प्रेरित करने का शास्त्र साहित्य है। क्योंकि इस उपदेश को कहीं से भी दो व्यक्ति एक साथ सुन नहीं रहे थे। जब तक कम से कम दो व्यक्ति एक साथ किसी विषय या घटना को देखें या सुने नहीं वह सार्वजनिक प्रमाणित नहीं कहलाती है। इस उपदेश को सुनने व देखने वालों में पहला स्थान -सिर्फ अर्जुन अकेले देख व सुन रहा था। दूसरा स्थान-वृक्ष पर धड़ से अलग बरबरीक का सिर सिर्फ देख रहा था। तीसरा स्थान-दिव्य दृष्टि के द्वारा संजय अकेले देखकर साथ बैठे अन्धे धृतराष्ट्र व अन्धी बनीं गान्धारी को वर्णन सुना रहा था। चैथा स्थान-दोनों पक्षों की सेना सिर्फ श्रीकृष्ण और अर्जुन के अलावा न तो कुछ देख पा रही थी न ही सुन पा रही थी। पाँचवां स्थान-स्वयं महाभारत शास्त्र साहित्य के रचयिता महर्षि व्यास जी अकेले देख व सुन रहे थे। इन पाँचों स्थितियों में कहीं भी ऐसी स्थिति नहीं है जिससे यह कहा जा सके कि गीता का उपदेश सार्वजनिक प्रमाणित रुप से दिया गया था बल्कि यह व्यक्तिगत प्रमाणित रुप से सिर्फ अर्जुन को व्यक्तिगत रुप सेे दिया गया था और विश्वरुप भी सिर्फ व्यक्तिगत प्रमाणित रुप से ही देखा गया था न कि सभी व्यक्ति जिनकी अलग-अलग स्थितियाँ है उनके लिए। इस प्रकार व्यक्त आत्म ज्ञान सत्य होते हुए भी व्यक्तिगत प्रमाणित ही है। गीतोपनिषद् व्यक्तिगत सम्पूर्ण समाधान का शास्त्र साहित्य है न कि सार्वजनिक सम्पूर्ण समाधान का शास्त्र साहित्य। यदि वह सम्पूर्ण समाधान का शास्त्र साहित्य होता तो ईश्वर के कुल दस अवतारों में दसवें और अन्तिम अवतार का कार्य क्या होता? अर्थात् उनके लिए कोई कार्य शेष नहीं होता। ब्रह्मा के पूर्ण अवतार और ईश्वर के अंशावतार आदर्श व्यक्ति चरित्र से युक्त श्रीराम थे। विष्णु के पूर्णावतार तथा ईश्वर के व्यक्तिगत प्रमाणित पूर्णावतार आदर्श सामाजिक व्यक्ति चरित्र (व्यक्तिगत प्रमाणित आदर्श वैश्विक व्यक्ति चरित्र) से युक्त श्रीकृष्ण थे। तो शिव-शंकर के पूर्णावतार तथा ईश्वर के सार्वजनिक प्रमाणित पूर्णावतार आदर्श वैश्विक व्यक्ति चरित्र से युक्त पूर्णावतार का कार्य क्या होता?
11. ”गीता“ समाहित ”कर्मवेद: प्रथम, अन्तिम तथा पंचमवेद“ सार्वजनिक प्रमाणित मार्ग से आत्म ज्ञान, कर्म-ज्ञान, दिव्य-दृष्टि, सर्वव्यापी रुप-विश्वरुप, चतुर्भुज दिव्यरुप, पंचमुखी दिव्यरुप का शास्त्र साहित्य है। क्योंकि यह व्यक्ति से अनेक व्यक्ति और सम्पूर्ण विश्व एक साथ पढ़, सुन और देख सकता है। अर्थात् यह उपदेश सार्वजनिक रुप से दिया गया है न कि व्यक्तिगत रुप से। जिसमें कर्म करने की शिक्षा भिन्न-भिन्न अनेकों स्थितियों पर खड़े व्यक्ति के लिए दी गयी है। कर्मवेद, व्यक्ति सहित सार्वजनिक सम्पूर्ण समाधान का शास्त्र साहित्य है तथा शिव-शंकर के पूर्णावतार तथा ईश्वर के सार्वजनिक प्रमाणित पूर्णावतार आदर्श वैश्विक व्यक्ति चरित्र से युक्त पूर्णावतार से व्यक्त है। 
12. ”दिव्य रुप“ और ”विश्व रुप“ कभी साकार सार्वजनिक प्रमाणित नहीं हो सकता। वह जब भी होगा प्रथमतया ”गीता“ की भाँति व्यक्तिगत प्रमाणित निराकार तथा ”कर्मवेद“ की भाँति सार्वजनिक प्रमाणित निराकार रुप में। कारण वह व्यक्तिगत प्रमाणित निराकार आत्मा या सार्वभौम सत्य तथा सार्वजनिक प्रमाणित निराकार सार्वभौम सत्य-सिद्धान्त की व्यापकता की एक साथ अनुभूति है। जो व्यापक ज्ञान, उपदेशक के जीवन का व्यापक ज्ञान, उसके बाद एक साथ देखने का गुण दिव्य दृष्टि के द्वारा ही देखी जा सकती है। कर्मवेद और विश्व मानक-शून्य श्रंृखला की असीम शाखाएं इसका उदाहरण हैं। ”गीता“ में अर्जुन को पहले व्यापक ज्ञान दिया गया फिर दिव्य दृष्टि दी गयी तब विश्व रुप और दिव्य रुप दिखाया गया। जो सेनाओं के होते हुए भी सिर्फ अर्जुन को ही दिखाई दिया। इसके लिए अर्जुन ही योग्य पात्र था क्योंकि वह उपदेशक के जीवन के अधिक पास से परिचित था जिससे वह दिव्य रुप और विश्व रुप को सरलता से देख सकता था। उपदेश के लिए दोनों सेनाओं से दूर रथ को ले जाना इसलिए आवश्यक था कि जो इसके योग्य पात्र न थे वे इसमें व्यवधान उत्पन्न न करें और न ही सुन सकें। परिणामस्वरुप उन्हें दिव्यरुप और विश्वरुप दिखाई नहीं दिया। सृष्टि का रुक जाना उसे कहते हैं जब सम्पूर्ण समाज की अन्तिम स्थिति से आगे निर्माण या सृष्टि नहीं होती तथा ऐसा व्यक्ति जो उसके आगे निर्माण की बात कर रहा हो और जो उस पर ही निर्भर है, उसे पीछे या भूतकाल के विषय में विवशतावश उलझा देने से सृष्टि अर्थात् आगे का निर्माण कार्य रुक जाता है। गीता उपदेश के समय ऐसा ही हुआ था क्योंकि उपदेश के लिए विवशतावश श्रीकृष्ण भूतकाल में चले गये थे इसलिए ही कहा गया है कि उपदेश के समय सम्पूर्ण सृष्टि अर्थात् समय रुक गया था। 
13. ”परिवर्तन संसार का नियम है“ यह इसलिए नहीं कहा गया था कि वह संसार के लिए है मनुष्य के लिए नहीं। यह इसलिए कहा गया था कि मनुष्य अपने मनस्तर में परिवर्तन लाते हुए सदा उच्च से उच्चतर, उच्चतर से उच्चतम, उच्चतम से सर्वोच्च और अन्तिम की ओर गति करते रहे और कम समय में सांसारिकता से मन स्तर को उपर उठाकर परिवर्तन को धारण करते हुए सांसारिकता का संचालन कर सके। यदि मनुष्य परिवर्तन को संसार के लिए समझ स्वयं में परिवर्तन नहीं लाता तो यहीं परिवर्तन एक समय पर बुरा प्रभाव डालते हुए अन्ततः उसके शरीर को भी शीघ्र ही परिवर्तित कर देता है।
14. जिस प्रकार अदृश्य हवा, बिजली इत्यादि का रुप बिना साधन के व्यक्त नहीं होता उसी प्रकार अदृश्य आत्मा का दृश्य रुप भी बिना साधन शरीर के व्यक्त नहीं होता। शरीर से एकात्म का व्यक्त होना ही आत्मा का व्यक्त होना है जब कि सम्पूर्ण विश्वव्यापी और सर्वोच्च एकात्म ज्ञान, एकात्म कर्म और एकात्म ध्यान का व्यक्त होना ही आत्मा का पूर्ण दृश्य व्यक्त होना है। जिस शरीर से एकात्म अर्थात् सार्वभौम सत्य-सिद्धान्त व्यक्त होता है उसे साकार-सगुण-ईश्वर तथा सार्वभौम सत्य-सिद्धान्त को निराकार निर्गुण ईश्वर कहते हैं। जिस प्रकार बिना सगुण (माध्यम या शरीर) के निर्गुण (हवा, बिजली, सत्य-सिद्धान्त) की प्रमाणिकता असम्भव है उसी प्रकार बिना निर्गुण के सगुण की प्रमाणिकता असम्भव है।
इस प्रकार हम पाते है कि ज्ञान का अर्थ सिर्फ सार्वभौम एकत्व है जिसका अन्त ”सार्वभौम सत्य“ के रूप में ”गीता“ द्वारा तथा ”सार्वभौम सत्य-सिद्धान्त“ के रूप में ”विश्वशास्त्र“ द्वारा हो चुका है। इस ज्ञान के अलावा सभी ज्ञान, विज्ञान, तकनीकी तथा समाज का ज्ञान है। अभी ज्ञान का अन्त हुआ है। फिर विज्ञान के ज्ञान का अन्त होगा और उसके बाद तकनीकी के ज्ञान का भी अन्त हो जायेगा। विज्ञान के अन्त ”गाॅड पार्टीकील“ अर्थात एक ऐसा कण जो ईश्वर की तरह हर जगह है और उसे देख पाना मुश्किल है जिसके कारण कणों में भार होता है, के खोज के लिए ही जेनेवा (स्विट्जरलैण्ड-फ्रंास सीमा पर) में यूरोपियन आर्गनाइजेशन फाॅर न्यूक्लियर रिसर्च (सर्न) द्वारा रूपये 480 अरब के खर्च से महामशीन लगाई गई है। जिसमें 15000 वैज्ञानिक और 8000 टन की चुम्बक लगी हुई है।
”विश्वशास्त्र“, विकास क्रम के उत्तरोत्तर विकास के क्रमिक चरणों के अनुसार लिखित है जिससे एक प्रणाली के अनुसार पृथ्वी पर हुए सभी व्यापार को समझा जा सके। फलस्वरूप मनुष्य के समक्ष व्यापार के अनन्त मार्ग खुल जाते हैं। किसी भी सिनेमा अर्थात फिल्म को बीच-बीच में से देखकर डाॅयलाग की भावना व कहानी को पूर्णतया नहीं समझा जा सकता। मनुष्य समाज में यही सबसे बड़ी समस्या है कि व्यक्ति कहीं से कोई भी विचार या वक्तव्य या कथा उठा लेता है और उस पर बहस शुरू कर देता है। जबकि उसके प्रारम्भ और क्रमिक विकास को जाने बिना समझ को विकसित करना असम्भव होता है। ज्ञान सूत्रों का संकलन और उसे चार वेदों में विभाजन, उसे समझने-समझाने के लिए उपनिषद्, पुराण इत्यादि के वर्गीकरण व क्रमिक विकास का कार्य सदैव चलता रहा है। काल और युग के अनुसार यह कार्य सदैव होता रहा है। जिससे समाज के सत्यीकरण का कार्य होता रहा है। सामाजिक विकास के क्षेत्र में परिवर्तन, देश-काल के परिस्थितियों के अनुसार किया जाता रहा है जबकि सत्यीकरण मूल सार्वभौम सत्य-सिद्धान्त से जोड़कर किया जाने वाला कार्य है। सत्यीकरण, अवतारों की तथा परिवर्तन मनुष्यों की कार्य प्रणाली है। इस क्रम में प्रयोग किया गया शास्त्र, अपने समस्त पिछले शास्त्रों का समर्थन व आत्मसात् करते हुए ही होता है, न कि विरोध। किसी भी विषय की शक्ति सीमा निर्धारित करना, उसका विरोध नहीं होता बल्कि उसे और आगे विकसित करने के बिन्दु को निर्धारित करता है।


पुराण: धर्म, धर्मनिरपेक्ष एवम् यथार्थ अनुभव की अन्तिम सत्य दृष्टि

पुराण: धर्म, धर्मनिरपेक्ष एवम् यथार्थ अनुभव की अन्तिम सत्य दृष्टि


मानव की पूर्णता और अपूर्णता पर सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड का सन्तुलन, स्थिरता, शान्ति और विकास निर्भर है। इसकी अनुभूति भारतीय चिन्तकों अर्थात् व्यक्तिगत प्रमाणित अदृश्य आध्यात्म वैज्ञानिकों ऋषि, मुनि गणों ने प्राचीन काल में ही प्राप्त कर ली थी। एक लम्बी अवधि में कर्म द्वारा उत्पन्न ज्ञान सूत्रों के संकलन के फलस्वरूप उस सर्वव्यापी सभी में प्रकाशित आत्मा को व्यक्तिगत प्रमाणित रूप से जाना जा सका। जो अब धीरे-धीरे सार्वजनिक प्रमाणित दृश्य पदार्थ वैज्ञानिको द्वारा स्वीकार किया जा रहा है। परिणामस्वरूप आत्मा विवाद मुक्त सार्वजनिक प्रमाणित हो जायेगी। साधारण व्यक्ति जो अन्तिम आविष्कार के ज्ञान से अनभिज्ञ है वह आज भी ईश्वर या आत्मा को बाह्य माध्यमों जैसे-मूर्ति, दूर या अन्यत्र या पुराणों में प्रक्षेपित ब्रह्मा, विष्णु ,और शिव-शंकर के रुप में ही कल्पना करता है। इतना ही नहीं वह स्वप्न में भी नहीं सोच सकता कि ईश्वर स्वयं वही है, उसके जैसा है, उसके साथ भी वही है। यदि नहीं तो राम और कृष्ण को ईश्वर न मानकर हम आप जैसा मानव ही मानना चाहिए और यदि हेै तो सदा ही इसके लिए तैयार रहना चाहिए कि वह स्वयं ही श्रीकृष्ण हो सकता है या उनके आस-पास राम और कृष्ण हो सकते हैं। इतना जानने के बाद भी उनकी दृष्टि सदैव अपनों से दूर ऐसी जगह टिकी रहती है जहाँ मानवीय गुणों से मुक्त ईश्वर की कल्पना की जा सके। परिणामस्वरुप राम, कृष्ण और वे आचार्य गण जिन्होंने मानव के कल्याण के लिए जो कर्म किये उनका फल क्या हुआ? वे तो अमरत्व प्राप्त कर गये और साधारण व्यक्ति जहाँ थे वहीं ही नहीं बल्कि और नीचे गिरते चले गये। और स्वयं को उस ईश्वर पर निर्भर कर अपने अन्दर बैठे ईश्वर को निष्क्रीय कर डाले। परिणामस्वरुप स्वयं के चेतना, ज्ञान और कर्म से ही दुःख और विपत्तियों को बुला कर वे ईश्वर को ही दोषी बनाते रहे हैं। वे यह भूल जाते हैं या जान नहीं पाते कि वह ईश्वर तो वही है वह दुःख भी उसने स्वयं ही निर्मित किये हैं। 
ज्ञान सूत्र्रों के संकलन के उपरान्त जन सामान्य को एकात्मज्ञान-आत्मा के ज्ञान को समझने के लिए गुरु-शिष्य वार्ता और ओउम शब्द का सहारा लिया गया। जिसे उपनिषद् कहा गया। उपनिषद् में सामान्य व्यक्ति के मन में उस आत्मा के विषय में उठने वाले प्रश्नों का उत्तर उन्हीं की भाषा में समझाया गया है।
भारतीय दर्शन का मूल आधार कपिलमुनि का क्रिया-कारण सिद्वान्त जो आज तक विवादमुक्त ब्रह्माण्डीय या सार्वजनिक रुप से प्रमाणित रहा और वह कभी भी विवादग्रस्त हो ही नहीं सकता क्योंकि वर्तमान का दृश्य पदार्थ विज्ञान भी सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में झांककर यह देख चुका है कि कहीं भी कोई बस्तु स्थिर नहीं है अर्थात वह क्रिया के अधीन है। और जो कारण है वह ही स्थिर है। भारतीय चिन्तन में इसी कारण को आत्मा-शिव-ईश्वर-ब्रह्म कहा गया है। जो क्रिया में भी है लेकिन ऐसा है कि नहीं है। जैसे सूर्यास्त के उपरान्त हम यह कह सकते हैं कि सूर्य नहीं है परन्तु वह है। इसके लिए बाह्य नेत्र नहीं, अन्त-नेत्र की आवश्यकता पड़ जाती है। भारतीय चिन्तकों ने इस क्रिया को भी दो रुपों में देखा था-अदृश्य रुप एवमं दृश्य रुप। जो प्रत्येक विषय के साथ है और दोनों रुप देश-काल बद्ध सत्य है। जीव के लिए यह स्थूल शरीर और सूक्ष्म शरीर का रुप है। मानव जीव के लिए जो कारण अथातर््ा आत्मा से युक्त अर्थात् मन से मुक्त अर्थात् इन्द्रिय इच्छाओं से मुक्त स्थूल एवम सूक्ष्म शरीर है वह दैवी या शिव मानव स्थूल एवम सूक्ष्म शरीर है जिसे मानव जीव में आध्यात्मिकता युक्त दैवी भैातिक शरीर कहते है तथा जो कारण अर्थात् आत्मा से मुक्त अर्थात् मन से बद्ध अथार्त इन्द्रिय इच्छाओं से बद्ध स्थूल एवमं सूक्ष्म शरीर है उसे दृश्य जीवन में भौतिकता युक्त असुरी भौतिक शरीर कहते है। प्रत्येक सूक्ष्म शरीर अपने स्थूल शरीर त्याग के बाद सूक्ष्म शरीर अवस्था में रहता है। पुन-प्रत्येक सूक्ष्म शरीर अपने उद्देश्य अथार्त स्थूल शरीर त्याग के अन्तिम समय में मूल इच्छा को पूर्ण करने हेतु उचित वातावरण के मिलने पर स्थूल शरीर ग्रहण कर पुन-अपनी चेतना शक्ति से दैवी शरीर, जीव मानव शरीर या निम्न जीव शरीर की प्राप्ति के लिए स्वतंत्र हो जाता है। एक ही उद्देश्य के अनेक सूक्ष्म शरीरो का एकीकरण और एक ही सूक्ष्म शरीर का अपने उद्देश्य की प्राप्ति हेतु अनेक स्थूल शरीर का विभिन्न समयों में धारण भी होता है। अर्थात् प्रत्येक स्थूल शरीर ही पुनर्जन्म है चाहे वह शरीर उसे पहचान या न पहचाने। यह बिल्कुल दृश्य पदार्थ विज्ञान की क्रिया परमाणु से अणु, अणु से यौगिक पदार्थ और पुन-यौगिक पदार्थ से अणु, अणु से परमाणु के एकीकरण और विखण्डन की क्रिया के अनुसार ही होता है। जो स्थूल शरीर आत्मतत्व को व्यक्त करने के लिए क्रमश-एकात्मज्ञान ,एकात्मज्ञान सहित एकात्मकर्म, एकात्मज्ञान और एकात्मकर्म सहित एकात्मध्यान की श्रृंखला में व्यक्त होता है वह अवतारी स्थूल शरीर कहलाता है। अवतारी शरीर भी अपने अवतारी श्रृंखला का पुनर्जन्म ही होता है। पुनजनर््म और अवतार में बस अन्तर यह होता हेै कि पुनर्जन्म शरीर अपने पूर्व जीवन को सार्वजनिेक रुप से सिद्ध नहीं कर पाता है क्योंकि उसके जैसे उद्देश्यों को लेकर अन्य भी पुनर्जन्म में ही होते है। जबकि अवतारी शरीर व्यक्तिगत एवमं सार्वजनिक रुप से आसानी से पुनर्जन्म सिद्ध कर देता है क्योंकि वह पूर्व के सर्वोच्च कार्य की श्रृंखला की अगली कड़ी ही होता है, जिसका उद्देश्य उस समय में व्यक्त अन्य पुनर्जन्म शरीरों में सिर्फ एक और अकेला होता है। परिणामस्वरूप अवतारी शरीरों का सूक्ष्म शरीर भी स्पष्ट रूप से व्यक्त होता हैै।
उपरोक्त सिद्वान्त से युक्त हो भारतीय मनीषियों ने उसी आत्मतत्व को समझाने के लिए मनुष्य के व्यवहारिक जीवन की भांति कथा रूप में प्रस्तुत किये जिसे पुराण कहा जाता है। चूँकि शिव-आत्मा-ईश्वर-ब्रह्म इस ब्रह्माण्ड का आदि भी और अन्त भी है इसलिए शिवपुराण एक महापुराण है जिसमें सृष्टि की उत्पत्ति से वर्तमान तक की उत्थान और पतन की कथा समाहित है जो आज भी अपूर्ण है। वह तभी पूर्ण होगी जब तक स्वयं अृदश्य शिव का दृश्य व्यक्त रूप, व्यक्त नहीं हो जाता, और मानव जाति चरम विकसित अवस्था को प्राप्त नहीं हो जाती। इसलिए सम्पूर्ण मानव जाति को सफलतापूर्वक एकात्म करने वाला-एकात्मज्ञान, एकात्मज्ञान सहित एकात्मकर्म, एकात्मज्ञान और एकात्मकर्म सहित एकात्मध्यान की श्रृंखला को व्यक्त करने वाले शरीर की कथा, शिवपुराण की कथा का अंश कथा है।
शिवपुराण की कथा मानव जाति के कल्याणार्थ व्यावहारिक ज्ञान के माघ्यम से परमार्थ और सर्वमंगल के भाव से प्रस्तुत की गयी थी परन्तु कालान्तर में स्वार्थवश या भारतीय धर्म शास्त्रों के सत्य से अनभिज्ञ रहने के कारण मानव जाति के कल्याणार्थ ही विभिन्न धर्मों और सम्प्रदायों का जन्म हो गया। परिणामस्वरूप मानव जाति का यह सत्य जो उसके व्यावहारिक जीवन, कार्य की कुशलता और मनुष्य जीवन के उद्देश्य के ज्ञान के लिए ही था विवादित हो स्वयं एक धर्म का ही होकर रह गया। यही नहीं स्थिति यहां तक आ गयी कि स्वयं उस धर्म के लोग भी इसके यथार्थ से दूर हटकर मात्र एक ऐसी कथा समझने लगे जो या तो काल्पनिक है या इस पृथ्वी से कहीं दूर घटित होती है। दूसरे धर्मों और सम्प्रदायों के लिए तो पुराण कथा इस ”नक कटे“ की कहानी जैसी हो गयी है जो मिथिलांचल (बिहार) में आज भी सुनी जा सकती है। हुआ यह कि एक व्यक्ति का किसी परिस्थितिवश नाक कट गया। उसके गांव के लोग उसे नक-कटा, नक-कटा कह कर चिढ़ाने लगे। यह उसके लिए परेशानी का कारण बन गया। उसने उपाय निकालकर कहना शुरू किया कि मुझे ईश्वर दिखते है। लोग कहने लगे मुझे भी दिखाओ। फिर वह बोला वह तो नाक कटवाने के बाद ही दिखेंगे। उन लोगों में से एक की प्रबल इच्छा होने पर अकेले में उसकी नाक काट डाली। जिसकी नाक कटी वह बोला कि ईश्वर कहाँ दिख रहे है। पहला बोला-अब तुम्हे भी यही कहना होगा कि ईश्वर दिखते हैं अन्यथा तुम्हे भी लोग नक-कटा कहेंगे। इस प्रकार दोनों मिलकर गांव के अधिकतम व्यक्तियों की नाक कटवा डाली। परिणामस्वरूप जब कई नक कटे हो गये तो नक कटा कहने की समस्या ही समाप्त हो गयी। अन्य धर्मो और सम्प्रदायों के व्यक्ति उस नक कटे की भंाँति व्यक्तिगत रूप से तो सत्य को समझ ही रहे है लेकिन सार्वजनिक रूप से सत्य को कहने पर उन्हें ही व्यक्तिगत रूप से समस्याओं से घिरना पडे़गा क्योंकि फिर वे पुराण जो भारतीय धर्म शास्त्र का साहित्य है जो उन्ही लोगों के कारण हिन्दू धर्म का शास्त्र-साहित्य हो गया, उसका समर्थक माना जाने लगेगा। जो स्वंय उनके धर्म के विरूद्ध हो जायेगा। परिणामस्वरूप वे स्वयं सहित अन्य को उस नक कटे की भाँति मात्र प्रतिष्ठा के कारण लगातार अन्धेरे में झोके चले जा रहे है। उन्हें यह नहीं मालूम कि जो स्थायी व्यक्त अर्थात् मूद्रित, लिखित, रेकार्ड नहीं हो पाता, वह प्रतिष्ठा का मूल्यांकन भी नही कर पाता क्योंकि आज की समस्याओं से घिरे समाज में चर्चाओं आधारित प्रतिष्ठा एक समय बाद इस तरह खो जाती है कि कहीं कुछ हुआ ही नहीं। सोचने का विषय है कि राम के चरित्र को वाल्मीकि ने न लिखा होता तो राम कि प्रतिष्ठा क्या होती? यदि कृष्ण के सम्पूर्ण कार्यो को व्यास ने न लिखा होता तो आज कृष्ण की प्रतिष्ठा क्या होती? इसलिए प्रतिष्ठा तो वही निर्धारित करता है जो स्थायी व्यक्त है अन्यथा कोई कितना भी महान क्यों न हो वह यदि स्थायी व्यक्त रूप में नहीं तो कुछ भी नहीं। 
वर्तमान समय में अनेक धर्मो, पन्थों, सम्प्रदायों के उत्पन्न हो जाने से एक नया शब्द आ गया है ”सेकुलर“ कोई इसे ”घर्मनिरपेक्ष“ कहता है तो कोई ”सर्वधर्मसमभाव“ या ”पंथनिरपेक्ष“। इसका सही अर्थ तो यह है कि ”जब सभी सम्प्रदायों को धर्म मानकर हम एकत्व का खोज करते है, तब दो भाव उत्पन्न होते है। पहला यह कि सभी धर्मो को समान दृष्टि से देखे तब उस एकत्व का नाम सर्वधर्मसमभाव होता है। दूसरा यह कि सभी धर्मो को छोड़ कर उस एकत्व को देखे तब उस एकत्व का नाम धर्मनिरपेक्ष होता है। जब सभी सम्प्रदायों को सम्प्रदाय की दृष्टि से देखते है तब उस एकत्व का नाम धर्म होता है। सम्प्रदाय या पंथ एक ही है। इन सभी रूपों में हम सभी उस एकत्व के ही विभिन्न नामों के कारण विवाद करते है अर्थात सर्वधर्मसमभाव, धर्मनिरपेक्ष, धर्म एवमं पंथनिरपेक्ष विभिन्न मार्गों से भिन्न-भिन्न नाम द्वारा उसी एकत्व की अभिव्यक्ति है। दूसरे रूप में हम सभी सामान्य अवस्था में दो विषयों पर नहीं सोचते। पहला वह जिसे हम जानते नहीं, दूसरा वह जिसे हम पूर्ण रूप से जान जाते है। यदि हम नहीं जानते तो उसे धर्मनिरपेक्ष, सर्वधर्मसमभाव या पंथनिरपेक्ष कहते है जब जान जाते है तब धर्म कहते है। ”फिर भी विभिन्न धर्म या सम्प्रदाय बाह्य रूप से एक न हो सके तो भी प्रश्न यह है कि क्या वे एकता नहीं चाहते? यदि नहीं चाहते तो निश्चित ही वह ब्रह्माण्ड मंे मानव जाति का स्पष्ट व्यक्त दुश्मन ही है। प्रश्न यह है कि किसी व्यक्ति को अपने विकास के लिए ज्ञान-कर्मज्ञान नहीं चाहिए? यदि नहीं चाहिए तो कम से कम निश्चित रूप से वह मानव नहीं हो सकता। प्रश्न यह कि एकता, शान्ति, स्थिरता, विकास इत्यादि के लिए गठित संयुक्त राष्ट्र संघ को अपने उद्देश्य की प्राप्ति के लिए एकीकरण का सिद्धान्त नहीं चाहिए? यदि नहीं चाहिए तो कम से कम यह निश्चित है कि संयुक्त राष्ट्र संघ एक मात्र झूठा नाटक है। यदि चाहिए तो बस हो गया पुराणों का धर्मनिरपेक्ष, सर्वधर्मसमभाव, पंथनिरपेक्ष और धर्म रूप में विश्वव्यापी प्रमाणीकरण क्योंिक जब हम ब्रह्मा कहते है तब उसे किसी धर्म से जोड़ दिया जाता है। लेकिन तब एकात्म ज्ञान कहते है तब वह किसी धर्म का नहीं बल्कि मानव से संयुक्त राष्ट्र संघ के लिए धर्मनिरपेक्ष, सर्वधर्मसमभाव और पंथनिरपेक्ष हो जाता है। यह होना भी था क्योकि जो व्यक्तिगत और सार्वजनिक जीवन का सत्य है वह मानव जाति को सदा से समेटे हुये है या यूॅ कहंे मानव उसी में ही साॅसें ले रहा है। चाहे उसका नाम-रूप कुछ भी क्यों न हो। 21वीं शदी और भविष्य के लिए विश्व शान्ति, एकता स्थिरता, विकास रक्षा के लिए यह एकीकरण तो विवशता भी बन चुकी है।

क. पुराणों की सत्य दृष्टि
अन्त-दृष्टि में भिन्नता होने से ही अलग-अलग मनुष्य एक ही विषय को भिन्न-भिन्न रूपों में देखते है और अपने स्वरूप या दृष्टि के अनुसार उसकी व्याख्या करते है। यह उसी प्रकार से होता है जैसे एक सोने के गिलास को एक बच्चा खिलौने की दृष्टि से देखेगा, तो धन की प्राथमिकता वाला व्यक्ति उसे धन रूप में देख सकता है, तो एक चोर उसी को चोरी करने योग्य वस्तु की दृष्टि से देखेगा, तो कोई प्यासा व्यक्ति उसे पीने के पात्र के रूप में देखेगा। इसी प्रकार पुराण कथा के सम्बन्ध में भी हैं। तो फिर पुराणों को समझने के लिए की सत्य दृष्टि क्या है? आत्मतत्व निराकार है उसकी उपस्थिति गुणों से ही प्रमाणित होती है। जैसे-अदृश्य हवा और विद्युत इत्यादि का प्रमाण उसके गुणों और यन्त्रों के गतिमान होने पर प्रमाणित होती है। उसी प्रकार आत्मा का पूर्ण सार्वजनिक प्रमाणित व्यक्त गुण एकात्म ज्ञान, एकात्मकर्मं और एकात्मध्यान का संयुक्त रूप है। जिन्हें पुराणों में क्रमश-ब्रह्मा, विष्णु और शंकर के सगुण रूप में प्रक्षेपित किया गया है। परन्तु मनीषी यह जानते थे कि एकात्मज्ञान बिना एकात्मकर्म के सामाजिक प्रमाणित नहीं हो पाता और एकात्मज्ञान और एकात्मकर्म बिना एकात्मध्यान के सार्वजनिक या ब्रह्माण्डीय प्रमाणित नहीं हो पाता। इसलिए पुराण में शिव-शंकर से विष्णु को तथा पुन-विष्णु से ब्रह्मा को बहिर्गत अर्थात्् ब्रह्मा को विष्णु के समक्ष तथा विष्णु को शिव-शंकर के समक्ष समर्पित या समाहित होते दिखाया गया है। परिणामस्वरूप एकात्मज्ञान, एकात्मज्ञान सहित एकात्मकर्म और एकात्मज्ञान तथा एकात्मकर्म सहित एकात्मध्यान क्रमश-ब्रह्मा, विष्णु और शिवशंकर का सत्य गुण हैं चूँकि शिव-आत्मा-ईश्वर-ब्रह्म का पूर्ण सार्वजनिक प्रमाणित गुण एकात्मज्ञान, एकात्मकर्मं और एकात्मध्यान का संयुक्त रूप है जो शंकर के अधीन है। इसलिए उनका पूर्ण रूप शिव-शंकर है। और महादेव, त्रिदेव, विश्वेश्वर जैसे सर्वोच्च नाम को प्राप्त हैं। सिर्फ शंकर, एकात्मध्यान के रूप है। सिर्फ विष्णु, एकात्मकर्म के रूप है। सिर्फ ब्रह्मा, एकात्मज्ञान के रूप है। पूर्ण विष्णु एकात्मज्ञान सहित एकात्मकर्म के रूप है। ब्रह्मा, विष्णु और शिव-शंकर ईश्वर-आत्मा-शिव-ब्रह्म के संक्रमणीय, संग्रहणीय गुणात्मक मूल गुण के सगुण रूप है। जिनका कार्य तभी सक्रिय होता हैं जब दृश्य जगत में आत्मीय कर्म, आत्मीय ज्ञान और आत्मीय ध्यान की सर्वोच्चता समाप्त हो जाती है। दृश्य जगत में आत्मीय ध्यान के संरक्षक देवताओं के राजा इन्द्र और उनके परिवार के मूल सगुण रूप में है। जब भी दृश्य जगत में देवता जैसा कर्म होता था तो इन्द्र परिवार से उसके सूक्ष्म शरीर को जोड़ा जाता है। और जब भी दृश्य जगत में अवतार जैसा कार्य होता है तब उन्हें ईश्वर के मूल गुणों ब्रह्मा, विष्णु, शिव-शंकर से उनके सूक्ष्म शरीर को जोड़ा जाता है। इसके अलावा दृश्य जगत में एक पक्ष और होता है जो आत्मीय से मुक्त ज्ञान, कर्म और ध्यान से जुड़ा रहता है। वह है-असुर पक्ष। इनके भी सूक्ष्म शरीरों को मूल असुर परिवार से जोड़ा जाता है। ब्र्रह्मा, विष्णु, शिव-शंकर का लोक ब्रह्म, विष्णु, शिव लोक तथा इन्द्र का इन्द्र लोक या स्वर्गलोक तथा असुरों का लोक-नरक लोक कहा जाता है। लोक का अर्थ मन स्तर से है जहाँ उनकी अपनी मन का स्तर और दृष्टि है। सत्य रूप से नरक, स्वर्ग और अन्य लोक एक ही मन की क्रमश-निम्न, उच्च, उच्चतर और सर्वोच्च अवस्था युक्त स्थान या स्तर है। अब यहाँ पुराणों में प्रेक्षेपित सगुण रूपों के साथ उनके परिवारों का धर्मनिरपेक्ष-सत्य दृष्टि प्रस्तुत की जा रही है। उस सत्य दृष्टि-गुण से उन्हें देखने पर पुराणों की दैनिक जीवन में उपयोगिता आत्मसात् करने लगेगी। उदाहरण के रूप में यदि ब्रह्मा बोल रहे है तो यह समझें कि एकात्म ज्ञान व्यक्त हो रहा है। यदि नारद बोल रहे है तो समझे कि एकात्म मन व्यक्त हो रहा है।-इस प्रकार। इस क्रम में मनुष्य को उसके कार्य क्षेत्र के अनुसार सर्वोच्च आदर्श मानक चरित्र प्रक्षेपित किये गये जिससे मनुष्य मार्गदर्शन प्राप्त कर सके। कार्य क्षेत्र अनुसार सर्वोच्च आदर्श मानक चरित्र निम्नवत् हैं-

ख. बह्मा अर्थात् एकात्मज्ञान परिवार (व्यक्तिगत कार्य क्षेत्र स्तर)
व्यक्तिगत कार्य क्षेत्र स्तर पर चरित्र और मानक चरित्र को जानने के लिए पहले समाज की सबसे छोटी और मूल इकाई व्यक्ति को जानना होगा। व्यक्ति के साथ शरीर, ज्ञान, वाणी और मन होता है जब तक यह स्वतन्त्र है तब तक वह वह व्यक्ति है जैसे ही उसकी दिशा सार्वभौम एकात्म हो जाती है वह आदर्श मानक चरित्र में परिवर्तित हो जाता है अर्थात् ईश्वरीय हो जाता है। इसी को पुराणों में ब्रह्मा एवं परिवार को प्रक्षेपित किया गया जिससे व्यक्ति व्यक्तिगत क्षेत्र स्तर पर स्वयं को समझ सके। बह्मा एकात्मज्ञान परिवार इस प्रकार हैं-
चूँकि एकात्मज्ञान का व्यक्त रूप एकात्मवाणी है अर्थात्् एकात्मज्ञान बिना एकात्म वाणी के नहीं हो सकती तथा एकात्मवाणी बिना एकात्मज्ञान के नहीं हो सकता इसलिए ब्रह्मा को एकात्मज्ञान और उनके अर्धांगनी सरस्वती को एकात्मवाणी के रूप में प्रक्षेपित किया गया है। अर्धनारीश्वर रूप में एकात्म ज्ञान और एकात्मवाणी दोनों ही, प्रत्येक में अर्थात्् ब्रह्मा और सरस्वती दोनों में विद्यमान है। चूँकि ज्ञान रूपी कमल, सांसारिकता रूपी कीचड़ और जल मेें रहते हुये भी उससे मुक्त और अमिश्रित रहता है तथा हंस, गुण-अवगुण के बीच रहते हुये भी सिर्फ गुणों को आत्मसात् करने का गुण रखता है। इसलिए ब्रह्मा और सरस्वती को क्रमश-सांसारिकता और अवगुणों से ऊपर रहने वाले कमल और हंस को आसन और वाहन के रूप में प्रक्षेपित किया गया है। चूँकि एकात्मज्ञान और एकात्मवाणी से युक्त सांसारिकता और अवगुणों से मुक्त, एकात्मज्ञान और वाणी से सृष्टिकर्ता, नीति और ध्यान अर्थात्् कालबोध से मुक्त, ये सत्व गुण ब्राह्मण के है इसलिए ब्रह्मा और सरस्वती को ब्राह्मण और ब्राह्मणी के रूप में प्रक्षेपित कर श्वेत वस्त्र धारण कराया गया है। साथ ही ब्रह्मा को कमण्डल, दण्ड, वेद धर्मग्रन्थ तथा नाम जप के लिए रूद्राक्षमाला धारण कराया गया है। उसी प्रकार सरस्वती को वाद्ययन्त्र वीणा (आत्मा को झंकरीत करने वाला), शास्त्र-साहित्य तथा नाम जप के लिए रूद्राक्ष माला धारण कराया गया है जिससे उनका स्वरूप क्रमश-दृष्टि और विद्या के मूल ईश्वर रूप में प्रक्षेपित हुआ है। क्यांेकि जहाँ सृष्टिकत्र्ता है, वहीं विद्या है, जहाँ विद्या है वही सृष्टिकत्र्ता है। एकात्म ज्ञान के पाॅच वेदों के अधिकारी प्रक्षेपित करते हुये ब्रह्मा को पाॅच सिर व मुख से युक्त प्रक्षेपित किया गया था। उसके उपरान्त सृष्टि के उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय के अधिकारी सर्वशक्तिमान सर्वव्यापी शिव-शंकर पर आधारित पुराण कथा के एक कथा (कालभैरव जन्म कथा) के माध्यम से ब्राह्मण ब्रह्मा के पाॅचवे सिर को काटकर पाॅचवे वेद को शिव-शंकर अधिकृत प्रक्षेपित किया गया। परिणामस्वरूप ब्रह्मा को चारों वेदों को प्रक्षेपित करते चार सिर व मुुख शेष (दिव्यरूप-चार सिर व मुुख) है। देश-काल मुक्त स्थिर एकात्मज्ञान और एकात्मवाणी का ही देश-काल बद्ध अस्थिर ज्ञान और वाणी रूप मन है, जिसे ब्रह्मा और सरस्वती के एक ही मानस पुत्र नारद के रूप में प्रक्षेपित किया गया है। चॅॅूकि असुर, देवता और ईश्वर सभी के समक्ष मन की उपस्थिति होती है इसलिए नारद (एकात्म मन) के पूर्णत-ईश्वर नाम ”नारायण“ का उच्चारण करते हुये सभी लोको अर्थात्् सभी स्थानों में भ्रमण करने वाले ब्राह्मण के रूप में प्रक्षेपित किया गया है। जिस प्रकार समस्त ज्ञानियों के समष्टि संयुक्त मूल रूप मे ब्रह्मा (एकात्म ज्ञान) का प्रक्षेपण है, उसी प्रकार समस्त मनों के समष्टि संयुक्त मूलरूप में नारद (एकात्म मन) का प्रक्षेपण है। पुराणों में जहाँ-जहाँॅ नारद की उपस्थिति होती हैं, वहाँ-वहाँ यह समझना चाहिए कि एकात्म मन व्यक्त हो रहा है, सूचना व्यक्त हो रहा है या एकात्म मन का प्रश्न व्यक्त हो रहा है। यह एकात्म मन जिसके समक्ष व्यक्त हो रहा हैं उसका मन भी हो सकता है, अन्य व्यक्तियों का भी हो सकता है या कोई अन्य माध्यम भी हो सकता है। परन्तु पुराणों में उसे अलग-अलग न प्रक्षेपित कर समष्टि संयुक्त मूल रूप नारद (एकात्म मन) के रूप में प्रक्षेपित किया गया है। इसी प्रकार जहाँ-जहाँ ब्रह्मा और सरस्वती व्यक्त हो रहे हैं वहाँ-वहाँ यह समझना चाहिए कि एकात्म ज्ञान और एकात्मवाणी व्यक्त हो रहा है। जो सृष्टि अर्थात् एक नये एकात्म मन या सूचना या प्रश्न आधारित शाखा का निर्माण कर रहा है। 
यहाँ ज्ञानी और मन के प्रकृति पर ध्यान देने योग्य यह है कि ज्ञानी, नीति मुक्त, ध्यान मुक्त, परिणामज्ञान से मुक्त कालमुक्त, स्थिर और व्यक्त-अव्यक्त एक समान होता है जबकि मन, नीति, मुक्त, ध्यानमुक्त, परिणामज्ञान से मुक्त, कालबद्ध, अस्थिर और व्यक्त-अव्यक्त एक समान होता है। यही कारण है कि पुराण में ब्रह्मा (एकात्म ज्ञान) देवता और असुर दोनों को प्राप्त होते दिखाया गया है फलस्वरूप सृष्टि तो हो जाती हैं परन्तु उसका परिणाम कभी देवताओं का अधिपत्य होता है तो कभी असुरों का क्योंकि देवता स्वकल्याण सहित लोक कल्याण के लिए उसका (एकात्म ज्ञान) उपयोग करते है तो असुर सिर्फ स्वकल्याण के लिए उसका (एकात्म ज्ञान) दुरूपयोग करते है। अन्तत-असुरों के अधिपत्य से स्थिति देवताओं और स्वयं ब्रह्मा के नियन्त्रण से बाहर हो जाती है और विष्णु (एकात्म ज्ञान सहित एकात्म कर्म) की आवश्यकता पड़ जाती हैं। नारद (एकात्म मन) के साथ सूचना ही सूचना तथा प्रश्न ही प्रश्न होता है। जब नारद (एकात्म मन), ब्रह्मा (एकात्म ज्ञान) के समक्ष व्यक्त होते है तब नारद (एकात्म मन) सूचना तो व्यक्त कर दंेते है परन्तु प्रश्नो का उत्तर नहीं जान पाते क्योंकि बह्मा (एकात्म ज्ञान), स्वयं ही स्थिर और परिणाम ज्ञान से मुक्त अवस्था है, उनका ज्ञान तो सूचना पर ही निर्भर रहता है परिणामस्वरूप ब्रह्मा (एकात्मज्ञान), नारद (एकात्म मन) को विष्णु (एकात्म ज्ञान सहित एकात्म कर्म) के पास उत्तर के लिए भेज देते है या स्वयं जाते है।
ब्रह्मा अर्थात्् एकात्म ज्ञान का व्यक्त रूप एकात्म वाणी अर्थात्् सरस्वती है। एकात्म ज्ञान का कारण एकात्म वाणी तथा एकात्म वाणी का कारण एकात्म ज्ञान होता है। वह वाणी जो आत्मा के लिए हो और वह ज्ञान जो आत्मा के लिए हो अर्थात्् सम्भाव वाणी और ज्ञानयुक्त मानव शरीर ही ब्रह्मा का अवतार है। बिना कर्म के ज्ञान प्रमाणित नहीं होता अर्थात्् ज्ञान वही है जो व्यवहारिक हो। इस ज्ञान की खोज में भारत के ऋषि-मुनि, क्षत्रिय राजाओं ने लम्बे समय में चिन्तन और कर्म करके एकात्मज्ञान के शास्त्र-साहित्यों का भण्डार बना दिये है। उनमें से कुछ एकात्मज्ञान की ओर ले जाते है। तो कुछ संस्कारित मानव समाज के लिए व्यक्तिगत प्रमाणित अदृश्य कर्म ज्ञान उपलब्ध कराते हैं। इस प्रकार वे सभी ऋषि-मुनि, और क्षत्रिय राजा एकात्म ज्ञान अर्थात्् ब्रह्मा के ही अंशावतार है।

ग. विष्णु अर्थात् एकात्म ज्ञान सहित एकात्म कर्म परिवार (सामाजिक कार्य क्षेत्र स्तर)
चूँकि एकात्म कर्म का व्यक्त रूप एकात्म प्रेम है अर्थात् एकात्म कर्म बिना एकात्म प्रेम के नहीं हो सकता तथा एकात्म प्रेम बिना एकात्म कर्म के नहीं हो सकता। साथ ही एकात्म ज्ञान और एकात्म वाणी तो अकेले हो सकती है परन्तु एकात्म कर्म और एकात्म प्रेम बिना एकात्म ज्ञान और एकात्म वाणी के नहीं हो सकती इसलिए ब्राह्मण ब्रह्मा और ब्रह्मणी सरस्वती को विष्णु और उसकी अर्धांगनि लक्ष्मी में समाहित करते हुये विष्णु को एकात्म ज्ञान तथा एकात्म कर्म से युक्त और लक्ष्मी को एकात्म वाणी और एकात्म प्रेम से युक्त कर प्रक्षेपित किया गया है अर्थात् विष्णु और लक्ष्मी से ही ब्रह्मा और सरस्वती बर्हिगत है। अर्धनारीश्वर रूप में एकात्म ज्ञान, एकात्म वाणी, एकात्म प्रेम, एकात्म कर्म सभी प्रत्येक मेें अर्थात्ा विष्णु और लक्ष्मी दोनों में विद्यमान है। चंूकि विष्णु में बह्मा समाहित हैं इसलिए विष्णु के सृष्टि संचालन में सृष्टि करना भी समाहित है। संचालन गुण-सात योग का प्रतीक सात फनों से युक्त पूर्ण सांसारिकता युक्त कीचड़ और जल (क्षीर सागर) की निम्न तल में रहने वाला शेषनाग विष्णु-लक्ष्मी का आसन तथा सांसारिकता में रहते हुए भी अनाशक्त रहने का प्रतीक क्षीरसागर का निम्नतल निवासस्थल के रूप में प्रक्षेपित किया गया है। संचालन की तीव्रता का प्रतीक शक्तिशाली और वेगवान गरूड़ पक्षी विष्णु के वाहन के रूप में तथा एकात्म प्रेम की सार्वभौमिकता का प्रतीक दिन अर्थात् प्रकाश में न देखने वाला और रात में देखने वाला और कहीं भी बैठ जाने वाला उल्लू पक्षी लक्ष्मी के वाहन के रूप में प्रक्षेपित किया गया है। चंूकि एकात्म ज्ञान, एकात्म वाणी, एकात्म कर्म, एकात्म प्रेम से युक्त संचालन, सांसारिकता से बद्ध एवम् मुक्त अर्थात् अनासक्त, नीति और ध्यान अर्थात् जीवन कालबोध से युक्त, सत्व-रज गुण से युक्त अर्थात् मानक अनासक्त गृहस्थ मानव है इसलिए विष्णु और लक्ष्मी को क्रमश-पीला अैर लाल वस्त्र धारण करा, लक्ष्मी को विष्णु की चरण सेवा करते प्रक्षेपित किया गया है। साथ ही विष्णु को सुदर्शन चक्र अर्थात् अच्छे विचार का मार्ग शस्त्र के रूप में, उद्घोष के लिए शंख, रक्षा के लिए गदा तथा ज्ञान का प्रतीक कमल पुष्प धारण करा कर प्रक्षेपित किया गया है। चूँकि ज्ञान रूप कमल का जड़ या मूल विष्णु के निवास स्थान सांसारिकता रूपी जल का निम्न तल कीचड़ होता है इसलिए उनकी नाभि से निकलकर जल के उपरी तल अर्थात् सांसारिकता से मुक्त ज्ञान का प्रतीक कमल को ही ब्रह्मा का निवास स्थान बना प्रक्षेपित किया गया है। विष्णु की भांति लक्ष्मी को उदघेाष के लिए शंख, ज्ञान का प्रतीक कमल, आशिर्वाद मुद्रा और धन का दान करते हुये प्रक्षेपित किया गया है। जहॅंा अर्धांगनी में एकात्म वाणी और एकात्म प्रेम है वहीं संचालन है, समृद्वि है, धन है। जहाँ धन है, समृद्धि है वहीं संचालन है वहीं अर्धागनी का एकात्म वाणी और एकात्म प्रेम है इसलिए विष्णु और लक्ष्मी का स्वरूप क्रमश-सृष्टि संचालन और धन के मूल ईश्वर के रूप में प्रक्षेपित हुआ है। सृष्टि संचालन के लिए एकात्म कर्म, बिना एकात्म प्रेम के नहीं हो सकता तथा बिना एकात्म कर्म के सृष्टि संचालन और एकात्म प्रेम नहीं हो सकता। इसलिए विष्णु-लक्ष्मी के बीच बाधक रूप में उनका कोई पुत्र रूप प्रक्षेपित नहीं है। पुराणों में जहाँं-जहाँ विष्णु और लक्ष्मी व्यक्त हो रहे है वहाँ-वहाँ यह समझना चाहिए कि एकात्म ज्ञान, एकात्म वाणी, एकात्म कर्म और एकात्म प्रेम व्यक्त हो रहा है जो सृष्टि संचालन सहित देवताओं के अधिपत्य के लिए वातावरण का निर्माण कर रहा है। समस्त संचालकों के समष्टि मूल रूप में विष्णु (एकात्म ज्ञान सहित एकात्म कर्म) का प्रक्षेपण है और इनका दिव्यरूप-चतुर्भुज एवं विश्वरूप है।
कार्य की प्रथम शाखा अर्थात्् भुजा-कालानुसार व्यक्तिगत और संयुक्त विचारों-दर्शनों से युक्त अर्थात्् सुदर्शन चक्र, जिससे निम्न और संकीर्ण विचारांे का परिवर्तन या बध होता है। दूसरी भुजा-उद्घोष अर्थात्् शंख जिससे चुनौती दी जाती है। तीसरी भुजा-रक्षार्थ अर्थात्् गदा जिससे आत्मीय स्वजनों की रक्षा की जाती है। चैथी और अन्तिम भुजा-निर्लिप्त अर्थात्् कमल जिससे सांसारिकता और असुरी गुणो से मुक्त समाज में आश्रय पाना आसान होता है क्योंकि सांसारिकता और असुरी गुणों से युक्त व्यक्ति अपने अहंकारी दृष्टि से ही देखते हैं। परिणामस्वरुप अच्छे विचार को सुरक्षित विकास का अवसर प्राप्त होता है। इन सभी गुणों से युक्त हो शक्तिशाली और तीव्र वेग अर्थात्् गरुड़ पक्षी रुपी वाहन से व्यक्त होना, ये ही पालनकर्ता विष्णु के मूल लक्षण हैं जिससे वे समाज में व्यक्त हो संसार का पालन करते हैं।
विष्णु के अवतारों में चाहे श्रीराम, श्रीकृष्ण रहे हो या बुद्ध या लव कुश सिंह विश्वमानव किसी को भी पुत्र सुख प्राप्त नहीं हुआ। या तो उन्होंने उसे त्याग दिया या रहते हुये भी नहीं के जैसा रहा है।
यहां संचालक के प्रकृति पर घ्यान देने योग्य यह है कि संचालक, नीति युक्त, ध्यान युक्त परिणाम ज्ञान से युक्त, काल युक्त अर्थात् कालानुसार, स्थिति और व्यक्त-अव्यक्त असमान होता है। यही कारण है कि ब्रह्मा (एकात्म ज्ञान) द्वारा सृष्टि होने पर जब असुरों का अधिपत्य हो जाता है तब विष्णु (एकात्म ज्ञान सहित एकात्म कर्म) द्वारा पुन-देवताओं का अधिपत्य स्थापित कर दिया जाता है परन्तु यह स्थायी नहींे हो पाता क्योंकि विष्णु स्वयं कालानुसार ही होते है, कालमुक्त नहीं परिणामस्वरूप शिव-शंकर (एकात्म ज्ञान और एकात्म कर्म सहित एकात्म ध्यान) की आवश्यकता आ जाती है। सृष्टि संचालन के लिए कर्म में सूचनाओं और सूचना माध्यमों अर्थात नारद (एकात्म मन) की प्राथमिकता के साथ आवश्यकता पड़ती है इसलिए नारद (एकात्म मन) का विष्णु परिवार के यहां उपस्थिति सर्वाधिक होता है। स्वयं विष्णु (एकात्म ज्ञान सहित एकात्म कर्म) को भी नारद (एकात्म मन) की आवश्यकता हमेशा रहती है क्योंकि देवताओं के अधिपत्य के लिए वातावरण का मुख्य निर्माण नारद द्वारा ही होता है। विष्णु (एकात्म ज्ञान और एकात्म कर्म) के समक्ष व्यक्त होकर नारद (एकात्म मन) सूचना तो व्यक्त कर देंते हैं परन्तु प्रश्नों के उत्तर में विष्णु (एकात्म ज्ञान सहित एकात्म कर्म) सिर्फ उसी प्रश्न का उत्तर देते है जो देवताओं के अधिपत्य के लिए समयानुसार वातावरण बनाने में सहायक हो क्योंकि विष्णु, स्वयं स्थिर नीति, ध्यान, कालयुक्त, व्यक्त-अव्यक्त असमान परिणाम ज्ञान से युक्त अवस्था है। उनका कर्म तो सूचना पर ही निर्भर रहता है और वे नारद (एकात्म मन) की प्रकृति को भलि-भांति जानते है कि मन समय से मुक्त होता है जो असमय सूचना प्रसार कर कर्म नीति को निष्फल कर सकता है। इसलिए जो प्रश्न समयानुसार नहीं होते उनका उत्तर वे अगले कर्म के उपरान्त समयानुसार होने पर देते हैं। जिस प्रश्न का उत्तर विष्णु के परिणाम ज्ञान के बाहर होता है उसे वे शिव-शंकर (एकात्म ज्ञान और एकात्म कर्म सहित एकात्म ध्यान) के पास उत्तर पाने के लिए नारद को भेज देते या स्वयं जाते हैं।
महाविष्णु के कुल चैबीस (1.सनकादि ऋषि (ब्रह्मा के चार पुत्र), 2.नारद, 3.वाराह, 4.मत्स्य, 5.यज्ञ (विष्णु कुछ काल के लिये इंद्र रूप में), 6.नर-नारायण, 7.कपिल, 8.दत्तात्रेय, 9.हयग्रीव, 10.हंस पुराण, 11.पृष्णिगर्भ, 12.ऋषभदेव, 13.पृथु, 14.नृसिंह, 15.कूर्म, 16.धनवंतरी, 17.मोहिनी, 18.वामन, 19.परशुराम, 20.राम, 21.व्यास, 22.कृष्ण, बलराम, 23.गौतम बुद्ध (कई लोग बुद्ध के स्थान पर बलराम को कहते है, अन्यथा बलराम शेषनाग के अवतार कहलाते हैं), 24.कल्कि) अवतार माने जाते हैं जिनमें कुल दस (1.मत्स्य, 2.कूर्म, 3.वाराह, 4.नृसिंह, 5.वामन, 6.परशुराम, 7.राम, 8.श्रीकृष्ण, 9.बुद्ध और 10.कल्कि) मुख्य अवतार हैं।

घ. शिव-शंकर अर्थात् एकात्म ज्ञान और एकात्म कर्म सहित एकात्म ध्यान परिवार (वैश्विक/ब्रह्माण्डिय कार्य क्षेत्र स्तर)
चूँकि एकात्म ध्यान अर्थात् कालधारण का व्यक्त रूप एकात्म समर्पण है अर्थात् एकात्म ध्यान बिना एकात्म समर्पण के नहीं हो सकता तथा एकात्म समर्पण बिना एकात्म ध्यान के नहीं हो सकता। साथ ही एकात्म ज्ञान सहित एकात्म कर्म और एकात्म वाणी सहित एकात्म प्रेम तो अकेले हो सकता है परन्तु एकात्म ध्यान और एकात्म समर्पण बिना एकात्म ज्ञान सहित एकात्म कर्म और एकात्म वाणी सहित एकात्म प्रेम के नहीं हो सकता इसलिए आदर्श मानक अनासक्त गृहस्थ विष्णु और गृहणी लक्ष्मी को शिव-शंकर और उनकी अर्धागनी शक्ति-पार्वती में समाहित करते हुये शिव-शंकर को एकात्म ज्ञान, एकात्म कर्म तथा एकात्म ध्यान से युक्त और शक्ति-पार्वती को एकात्म वाणी, एकात्म प्रेम तथा एकात्म समर्पण से युक्त कर प्रक्षेपित किया गया है। अर्थात् शिव-शंकर और शक्ति-पार्वती से ही विष्णु और लक्ष्मी बहिर्गत है। अर्धनारीश्वर रूप में एकात्म ज्ञान, एकात्म वाणी, एकात्म कर्म, एकात्म प्रेम, एकात्म ध्यान और एकात्म समर्पण सभी प्रत्येक में अर्थात् शिव-शंकर और शक्ति पार्वती दोनों में विद्यमान है। चूँकि शिव-शंकर में विष्णु तथा विष्णु में ब्र्रह्मा समाहित है इसलिए शिव-शंकर के प्रलय या संहार में सृष्टि संचालन या स्थिति और सृष्टि करना दोनों समाहित है। शिव-शंकर में शिव रूप सृष्टि और संचालन या स्थिति का तथा शंकर रूप-संहार या प्रलय का प्रक्षेपण है। इसी प्रकार शक्ति-पार्वती में शक्ति रूप सत्ता का तथा पार्वती रूप-समपर्ण का प्रक्षेपण है। सृष्टि, संचालन और संहार में आवश्यक गुण ऐश्वर्य और वैभव से दूरी का प्रतीक पर्वत (कैलाश) शिव-शंकर और शक्ति-पार्वती के निवास स्थान के रूप में प्रक्षेपित है। निरर्थक वस्तुओं का सदुपयोग का प्र्र्र्रतीक मृगछाल का आसन तथा अपनी मस्ती में मस्त, निडर, शक्तिशाली परन्तु अहिंसक अर्थात् आक्रमण के उपरान्त आक्रमण करनें वाला स्थिर शांन्तचित्त, समर्पण गुणों से युक्त बैल (नन्दी) चैपाया पालतू पशु को शिव-शंकर के वाहन के रूप में तथा एकात्म समर्पण गुण पतिपरमेश्वर के चरणों में आसन तथा अपनी मस्ती में मस्त, निडर, शक्तिशाली परन्तु हिंसक अर्थात् प्रथमतया आक्रमण करने वाला, अस्थिर सतर्क चिंत्त, समर्पण न करने वाले गुणों से युक्त शेर चैपाया ंजंगली पशु को शक्ति-पार्वती के वाहन के रूप में प्रक्षेपित किया गया है। शिव-शंकर का दिव्यरूप-पाँच सिर व मुख वाला दिखाया गया है। इनके परिवार में दो पुत्र-गणेश व कार्तिकेय दिखाये गये हैं।
एकात्म नेतृत्व के प्रक्षेपण शिव-शंकर पुत्र गणेश हैं। गण अर्थात् जन के ईश अर्थात् ईश्वर, इस प्रकार गणेश का अर्थ जनता का ईश्वर से है। जनता का ईश्वर के गुण क्या होने चाहिए इसका ही प्रक्षेपण गणेश हैं। खाने के दाँत अलग और दिखाने के दाँत अलग होने चाहिए। नाक इतनी बड़ी होनी चाहिए जिससे दूर तक को सूँघा जा सके। कान इतने बड़े हों का दूर तक को सुना जा सके। पेट इतना बड़ा हो कि बहुत कुछ खाया व पचाया जा सके। सवारी चूहे से तात्पर्य कहीं भी छेद कर जाया जा सके या किसी को भी धीरे-धीरे ऐसा काटा जा सके कि पता ही न चले। गणेश की दो पत्नी बुद्धि और सिद्धि हैं। के मुख्य रूप से इतना जो करेगा वो ही घी के लड्डू को खायेगा। गणेश का दिव्य रूप-पाँच मुख व सिर वाला है अर्थात् पाँच वेदों के ज्ञान से युक्त भी होना चाहिए।
एकात्म रक्षा के प्रक्षेपण शिव-शंकर पुत्र कार्तिकेय हैं। इनकी सवारी मोर से तात्पर्य हर खतरे को समाप्त कर देना है। कार्तिकेय का दिव्य रूप-छः मुख व सिर वाला है अर्थात् रक्षा के लिए चार दिशा सहित आकाश और पाताल में एक साथ दृष्टि रहनी चाहिए।
शंकर अर्थात्् एकात्मध्यान का व्यक्त रूप एकात्म समर्पण अर्थात्् पार्वती है। एकात्म ध्यान का कारण एकात्म समर्पण तथा एकात्म समर्पण का कारण एकात्म ध्यान होता है। वह ध्यान जो आत्मा के लिए हो और वह समर्पण जो ध्यान के लिए हो अर्थात्् समभाव और ध्यान युक्त मानव शरीर ही शंकर का अवतार है। इस ध्यान का अर्थ काल चिन्तन है। विभिन्न कालों में विभिन्न रूपों में काल के प्रति समर्पण कराने अर्थात्् एकात्मज्ञान और एकात्मकर्म की परीक्षा और परीक्षोपरान्त मार्ग प्रशस्त करने के लिए व्यक्तिगत प्रमाणित शंकर अर्थात्् एकात्म ध्यान के 21 अंशावतार जाने जाते है।
सम्पूर्ण आध्यात्मिक सूक्ष्म एवम् स्थूल सिद्धान्तों को व्यक्त करने का माध्यम मात्र मानव शरीर और कर्म क्षेत्र मात्र समाज ही है। साथ ही उसका मूल्यांकनकत्र्ता मानव का अपना मन स्तर ही है। इसलिए अवतार सम्पूर्ण सिद्धान्तों को कालानुसार व्यक्त सगुण रूप मानव शरीर ही होता है। मूलरूप से अवतार शिव-आत्मा-ईश्वर-ब्रह्म अर्थात्् सार्वभौम सत्य-सिद्धान्त के अवतार होते है परन्तु एकात्म ज्ञान अर्थात् ब्रह्मा और एकात्मध्यान अर्थात्् शंकर सार्वजनिक प्रमाणित दृश्य न हो सकने के कारण एकात्म कर्म-विष्णु के ही अवतार के रूप में जाना जाता है। क्योंकि एक मात्र कर्म ही मानव समाज में सार्वजनिक प्रमाणित होता है। इस एकात्म कर्म का कारण एकात्म प्रेम और एकात्म प्रेम का कारण मात्र एकात्म कर्म होता है। 
विकास क्रम को सार्वभौम सत्य-सिद्धान्तानुसार सदैव बनाये रखने वाले माध्यम शरीर को अवतार कहते हैं। अवतार के सम्बन्ध में कुछ मान्यता सृष्टि के प्रारम्भ से विकास क्रम को देखते हैं तो कुछ मानव सभ्यता के प्रारम्भ से। परन्तु दोनों ही सत्य हैं और विकास क्रम को ही प्रमाणित करती है। एक के अनुसार-सृष्टि के प्रारम्भ में जलीय जीव (1.मत्स्य, 2.कच्छप, 3.वाराह), फिर जल-थल जीव (4.नर सिंह), फिर थल मानव (5.वामन, 6.परशुराम, 7.राम, 8.कृष्ण, 9.बुद्ध, 10.कल्कि) का विकास हुआ और माध्यम को अवतार कहा गया। दूसरे के अनुसार-जल-प्लावन के समय मछली से मार्गदर्शन (मछली की गति का सिद्धान्त) पाकर मानव की रक्षा करने वाला 1.मत्स्यावतार, 2 कूर्मावतार (कछुए के गुण का सिद्धान्त), 3.वाराह अवतार (सुअर के गुण का सिद्धान्त) 4.नर-सिंह अवतार (सिंह के गुण का सिद्धान्त), 5.वामन अवतार (समाज का सिद्धान्त) 6.परशुराम अवतार (लोकतन्त्र का सिंद्धान्त) 7.राम अवतार (आदर्श व्यक्ति चरित्र का सिद्धान्त), 8.कृष्ण अवतार (व्यष्टि-आदर्श सामाजिक व्यक्ति चरित्र और समष्टि-सार्वभौम सत्य आत्मा का सिद्धान्त), 9.बुद्ध अवतार (धर्म-संघ-बुद्धि का सिद्धान्त) और अन्तिम 10.कल्कि अवतार (व्यष्टि-आदर्श वैश्विक व्यक्ति चरित्र और समष्टि-सार्वभौम सत्य-सिद्धान्त)। ग्रन्थों में अवतारों की कई कोटि बतायी गई है जैसे अंशाशावतार, अंशावतार, आवेशावतार, कलावतार, नित्यावतार, युगावतार इत्यादि। जो भी सार्वभौम सत्य-सिद्धान्त को व्यक्त करता है वे सभी अवतार कहलाते हैं। व्यक्ति से लेकर समाज के सर्वोच्च स्तर तक सार्वभौम सत्य-सिद्धान्त को व्यक्त करने के क्रम में ही विभिन्न कोटि के अवतार स्तरबद्ध होते है। अन्तिम सार्वभौम सत्य-सिद्धान्त को व्यक्त करने वाला ही अन्तिम अवतार के रूप में व्यक्त होगा। अब तक हुये अवतार, पैगम्बर, ईशदूत इत्यादि को हम सभी उनके होने के बाद, उनके जीवन काल की अवधि में या उनके शरीर त्याग के बाद से ही जानते हैं। एक ही समय में कई अवतार हो सकते हैं परन्तु मुख्य अवतार का निर्धारण उसके कार्य के प्रभाव क्षेत्र से जाना जाता है।
उपरोक्त के अनुसार यह स्पष्ट है कि शास्त्राकार लेखक द्वारा पौराणिक देवी-देवताओं में ब्रह्मा-विष्णु-शिवशंकर परिवार के कार्य क्षेत्रानुसार मानक के रूप में प्रक्षेपित किये गये थे। मनुष्य की इच्छा पाने की अधिक होती है अलावा इसके कि हो जाने की। ऐसे व्यक्ति जो हो जाने में विश्वास रखते थे वे ही धरती पर मनुष्य रूप में आये और अवतार हो कर चले गये। अवतार का अर्थ ही होता है सर्वोच्च लक्ष्य सिद्धान्त के अनुसार नीचे उतरना जबकि मनुष्य का अर्थ होता है नीचे से ऊपर की ओर बढ़ना। शास्त्राकार लेखक ने मानव जाति को ईश्वर की ओर विकास करने या ईश्वर के रूप में बन जाने के लिए इन देवी-देवताओं का रूप प्रक्षेपित किया था लेकिन ये पूजा और आयोजन में बदल गया और अन्य धर्म-सम्प्रदाय के आ जाने से यह एक विशेष धर्म का ही जाना जाने लगा। जिस प्रकार आम की लकड़ी से कुर्सी, मेज, दरवाजा, खिड़की बनाया गया और आम गायब होकर कुर्सी, मेज, दरवाजा, खिड़की हो गया उसी प्रकार सम्पूर्ण पृथ्वी के मनुष्य के मागदर्शन के लिए व्यक्त मानक देवी-देवताओं का अर्थ गायब होकर मूर्तिपूजा में बदलकर एक धर्म का हो गया।
जिस प्रकार लोग आत्मा की महत्ता को न समझकर शरीर को ही महत्व देते हैं उसी प्रकार लोग भले ही पढ़कर ही विकास कर रहें हो परन्तु वे शास्त्राकार लेखक की महत्ता को स्वीकार नहीं करते। जबकि वर्तमान समय में चाहे जिस विषय में हो प्रत्येक विकास कर रहे व्यक्ति के पीछे शास्त्राकार, लेखक, आविष्कारक, दार्शनिक की ही शक्ति है जिस प्रकार शरीर के पीछे आत्मा की शक्ति

च. ब्रह्माण्ड परिवार






शास्त्र, महर्षि व्यास और उनका शास्त्र लेखन कला

शास्त्र, महर्षि व्यास और उनका शास्त्र लेखन कला 

लेखक/शास्त्राकार
किसी भाषा के शब्दों से अपने विचार को लिखित रूप से प्रस्तुत करने वाले चरित्र को लेखक कहते हैं। एक लेखक शब्दों को एक सही क्रम में रखकर कुछ अर्थ और समझ को व्यक्त करने वाला कलाकार होता है।
एक लेखक, शास्त्राकार नहीं हो सकता लेकिन एक शास्त्राकार, लेखक होता है। एक लेखक, लेखन की कला को जानता है यदि उसे शास्त्राकार बनना है तो उसे अपने मन को ऊँचाई को समग्रता, सार्वभौमिकता, रचनात्मकता और एकात्मता की ओर ले जाना पड़ेगा। सामान्य रूप में एक लेखक विशेषीकृत विषय का लेखक होता है तो शास्त्राकार समग्रता, सार्वभौमिकता, रचनात्मकता और एकात्मता को धारण किया हुआ एकात्मता को विकसित करने के लिए लिखता है। दोनों में अन्तर मात्र मन की ऊँचाई का होता है। एक लेखक नीचे का पायदान है तो शास्त्राकार उसका सर्वोच्च मानक है। जो लेखक शब्दों का जितना व्यापक कलाकार होगा जिससे समझ विकसित हो वह उतना ही लम्बे समय तक याद किया जाने वाला लेखक बनता है। 

शास्त्र
सार्वभौम सत्य-सिद्वान्त अर्थात् सार्वभौम एकात्म की ओर ले जाने वाले और उसके प्रति समझ को विकसित करने वाले विचार को शास्त्र कहते हैं तथा यह विचार जिस पुस्तक में संग्रहित किया जाता है उसे शास्त्र-साहित्य कहते हैं। शास्त्र-साहित्य, आध्यात्म अर्थात् अदृश्य विज्ञान तथा भौतिक विज्ञान अर्थात् दृश्य विज्ञान दोनों की ओर से हो सकते हैं। आध्यात्म की ओर से शास्त्र रचना करने वाले को ”व्यास“ उपाधि नाम दिया गया है। 

महर्षि वेदव्यास
श्री विष्णु पुराण (तृतीय अंश, अध्याय-दो) में लिखा है कि-स्थितिकारक भगवान विष्णु चारों युगों में इस प्रकार व्यवस्था करते हैं-समस्त प्राणियों के कल्याण में तत्पर वे सर्वभूतात्मा सत्ययुग में कपिल आदिरूप धारणकर परम ज्ञान का उपदेश करते हैं। त्रेतायुग में वे सर्वसमर्थ प्रभु चक्रवर्ती भूपाल होकर दुष्टों का दमन करके त्रिलोक की रक्षा करते हैं। तदन्तर द्वापरयुग में वे वेदव्यास रूप धारण कर एक वेद के चार विभाग करते हैं और सैकड़ों शाखाओं में बाँटकर बहुत विस्तार कर देते हैं। इस प्रकार द्वापर में वेदों का विस्तार कर कलियुग के अन्त में भगवान कल्किरूप धारणकर दुराचारी लोगों को सन्मार्ग में प्रवृत्त करते हैं। इसी प्रकार, अनन्तात्मा प्रभु निरन्तर इस सम्पूर्ण जगत् के उत्पत्ति, पालन और नाश करते रहते हैं। इस संसार में ऐसी कोई वस्तु नहीं है जो उनसे भिन्न हो।
श्री विष्णु पुराण (तृतीय अंश, अध्याय-तीन) में लिखा है कि-वेद रूप वृक्ष के सहस्त्रों शाखा-भेद हैं, उनका विस्तार से वर्णन करने में तो कोई भी समर्थ नहीं है अत-संक्षेप यह है कि प्रत्येक द्वापरयुग में भगवान विष्णु व्यासरूप से अवतीर्ण होते हैं और संसार के कल्याण के लिए एक वेद के अनेक भेद कर देते हैं। मनुष्यों के बल, वीर्य और तेज को अलग जानकर वे समस्त प्राणियों के हित के लिए वेदों का विभाग करते हैं। जिस शरीर के द्वारा एक वेद के अनेक विभाग करते हैं भगवान मधुसूदन की उस मूर्ति का नाम वेदव्यास है। 
इस वैवस्वत मनवन्तर (सातवाँ मनु) के प्रत्येक द्वापरयुग में व्यास महर्षियों ने अब तक पुन-पुन-28 बार वेदों के विभाग किये हैं। पहले द्वापरयुग में ब्रह्मा जी ने वेदों का विभाग किया। दूसरे द्वापरयुग के वेदव्यास प्रजापति हुए। तीसरे द्वापरयुग में शुक्राचार्य जी, चैथे द्वापरयुग में बृहस्पति जी व्यास हुए, पाँचवें में सूर्य और छठें में भगवान मृत्यु व्यास कहलायें। सातवें द्वापरयुग के वेदव्यास इन्द्र, आठवें के वशिष्ठ, नवें के सारस्वत और दसवें के त्रिधामा कहे जाते हैं। ग्यारहवें में त्रिशिख, बारहवें में भरद्वाज, तेरहवें में अन्तरिक्ष और चैदहवें में वर्णी नामक व्यास हुए। पन्द्रहवें में त्रव्यारूण, सोलहवें में धनंन्जय, सत्रहवे में क्रतुन्जय और अठ्ठारवें में जय नामक व्यास हुए। फिर उन्नीसवें व्यास भरद्वाज हुए, बीसवें गौतम, इक्कीसवें हर्यात्मा, बाइसवें वाजश्रवा मुनि, तेइसवें सोमशुष्पवंशी तृणाबिन्दु, चैबीसवें भृगुवंशी ऋक्ष (वाल्मीकि) पच्चीसवें मेरे (पराशर) पिता शक्ति, छब्बीसवें मैं पराशर, सत्ताइसवें जातुकर्ण और अठ्ठाइसवें कृष्णद्वैपायन। अगामी द्वापरयुग में द्रोणपुत्र अश्वत्थामा वेदव्यास होंगे।
हिन्दू धर्म शास्त्रों के अनुसार महर्षि व्यास त्रिकालज्ञ थें तथा उन्होंने दिव्य-दृष्टि से देख कर जान लिया कि कलियुग में धर्म क्षीण हो जायेगा। धर्म के क्षीण होने के कारण मनुष्य नास्तिक, कर्तव्यहीन और अल्पायु हो जायेंगे। एक विशाल वेद का सांगोपांग अध्ययन उनके सामथ्र्य से बाहर हो जायेगा। इसलिए महर्षि व्यास ने वेद का चार भागों में विभाजन कर दिया जिससे कि कम बुद्धि एवं कम स्मरण शक्ति रखने वाले भी वेदों का अध्ययन कर सके। व्यास जी ने उनका नाम रखा-ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद। वेदों का विभाजन करने के कारण ही व्यास जी वेदव्यास नाम से विख्यात हुये। ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद को क्रमश-अपने शिष्य पैल, जैमिनि, वैशम्पायन और सुमन्तुमुनि को पढ़ाया। वेद में निहित ज्ञान के अत्यन्त गूढ़ तथा शुष्क होने के कारण वेद व्यास ने पाँचवें वेद के रूप में पुराणों की रचना की जिनमें वेद के ज्ञान को रोचक कथाओं के रूप में बताया गया है। पुराणों को उन्होंने अपने शिष्य रोम हर्षण को पढाया। व्यास जी के शिष्यों ने अपनी अपनी बुद्धि के अनुसार उन वेदों की अनेक शाखाएँ बना दी। व्यास जी ने महाभारत की रचना तीन वर्षो के अथक परिश्रम से की थी। व्यास जी का उद्देश्य महाभारत लिखकर युद्ध का वर्णन करना नहीं, बल्कि इस भौतिक जीवन की निःसारता को दिखाना है। उनका कथन है कि भले ही कोई पुरूष वेदांग तथा उपनिषदों को जाने लें, लेकिन वह कभी विचक्षण नहीं हो सकता क्योंकि यह महाभारत एक ही साथ अर्थशास्त्र, धर्मशास्त्र तथा कामशास्त्र है। महाभारत के सम्बन्ध में स्वयं व्यास जी की ही उक्ति सटिक है-”इस ग्रन्थ में जो कुछ है, वह अन्यत्र हैं परन्तु जो इसमें नहीं, वह अन्यत्र कहीं भी नहीं है।“ श्रीमद्भागवतगीता विश्व के सबसे बड़े महाकाव्य ”महाभारत“ का ही अंश है। व्यासजी ने पुराणों तथा महाभारत की रचना के पश्चात् ब्रह्मसूत्रों की रचना भी यहाँ की थी। वाल्मीकि की ही तरह व्यास भी संस्कृत कवियों के लिए पूज्य हैं। महाभारत में उपाख्यानों का अनुसरण कर अनेक संस्कृत कवियों ने काव्य, नाटक आदि की सृष्टि की है। संस्कृत साहित्य में वाल्मीकि के बाद व्यास ही श्रेष्ठ कवि हुए हैं। इनके लिए काव्य ”आर्य काव्य“ के नाम से विख्यात है।
पौराणिक-महाकाव्य युग की महान विभूति महाभारत, 18 पुराण, श्रीमदभागवत, ब्रह्मसूत्र, मीमांसा जैसे अद्वितीय साहित्य दर्शन के प्रणेता वेदव्यास का जन्म आषाढ़ पूर्णिमा को लगभग 3000 ई0पू0 में हुआ था। वेदांत दर्शन-अद्वैतवाद के संस्थापक वेदव्यास ऋषि पराशर के पुत्र थे। पत्नी आरूणी से उत्पन्न इनके पुत्र थे-महान बालयोगी शुकदेव।

वेदव्यास जन्म कथा
पौराणिक कथाओं के अनुसार प्राचीन काल में सुधन्वा नाम के एक राजा थे। वे एक दिन आखेट के लिए वन जाने के बाद ही उनकी पत्नी रजस्वला हो गई। उसने इस समाचार को अपनी शिकारी पक्षी के माध्यम से राजा के पास भिजवाया। समाचार पाकर महाराज सुधन्वा ने एक दोने में अपना वीर्य निकालकर पक्षी को दे दिया। पक्षी उस दोने को राजा की पत्नी के पास पहुँचाने के लिए आकाश में उड़ चला। मार्ग में उस शिकारी पक्षी को एक दूसरी शिकारी पक्षी मिल गया। दोनों पक्षियों में युद्ध होने लगा। युद्ध के दौरान वह दोना पक्षी के पंजे से छूट कर यमुना में जा गिरा। यमुना में ब्रह्मा के शाप से मछली बनी एक अप्सरा रहती थी। मछली रूपी अप्सरा दोने में बहते हुए वीर्य को निगल गयी तथा उसके प्रभाव से वह गर्भवती हो गई। गर्भ पूर्ण होने पर एक निषाद ने उस मछली को अपने जाल में फॅसा लिया। निषाद ने जब मछली को चीरा तो उसके पेट से एक बालक तथा एक बालिका निकली। निषाद उन शिशुओं को लेकर महाराज सुधन्वा के पास गया। महाराज सुधन्वा के पुत्र न होने के कारण उन्होंने बालक को अपने पास रख लिया जिसका नाम मत्स्यराज हुआ। बालिका निषाद के पास रह गई और उसका नाम मत्स्यगंधा रखा गया क्योंकि उसके अंगो से मछली की गंध निकलती थी। उस कन्या को सत्यवती के नाम से भी जाना जाता है। बड़ी होने पर वह नाव खेने का कार्य करने लगी। एक बार पराशर मुनि को उसकी नाव पर बैठकर यमुना पार करना पड़ा। पराशर मुनि सत्यवती के रूप-सौन्दर्य पर आसक्त हो गये और बोले,-देवी! मैं तुम्हारे साथ सहवास करना चाहता हूँ।, सत्यवती ने कहा-मुनिवर! आप ब्रह्म ज्ञानी हैं और मैं निषाद कन्या। हमारा सहवास सम्भव नहीं।, तब पराशर मुनि बोले”-बालिके! तुम चिन्ता मत करो। प्रसुति होने पर भी तुम कुमारी ही रहोगी। इतना कहकर उन्होंने अपने योगबल से चारों ओर घने कुहरे का जाल रच दिया और सत्यवती के साथ भोग किया। तत्पश्चात् उसे आशीर्वाद देते हुए कहा-तुम्हारे शरीर से जो मछली की गंध निकलती है वह सुगन्ध में परिवर्तित हो जायेगी।
समय आने पर सत्यवती के गर्भ से वेद-वेदांगों में पारंगत एक पुत्र हुआ। जन्म होते ही वह बालक बड़ा हो गया और अपनी माता से बोला,-माता तू जब भी कभी भी विपत्ति में मुझे स्मरण करेगी, मैं उपस्थित हो जाउँगा। इतना कहकर वे तपस्या करने के लिए द्वैपायन द्वीप चले गये। द्वैपायन द्वीप में तपस्या करने तथा उनके शरीर का रंग काला होने के कारण उन्हें कृष्ण द्वैपायन कहा जाने लगा। आगे चलकर वेदों के भाष्य करने के कारण वे वेदव्यास के नाम से विख्यात हुये। 
ऋषि वेदव्यास महाभारत ग्रन्थ के रचयिता थे। वेदव्यास महाभारत के रचयिता ही नहीं, बल्कि उन घटनाओं के साक्षी भी रहे हैं, जो क्रमानुसार घटित हुई है। अपने आश्रम से हस्तिनापुर की समस्त गतिविधयों की सूचना उन तक तो पहुँचती थी। वे उन घटनाओं पर अपना परामर्श भी देते थे। जब-जब अन्तद्र्वन्द और संकट की स्थिति आती थी, माता सत्यवती उनसे विचार-विमर्श के लिए कभी आश्रम पहुँचती, तो कभी हस्तिनापुर के राजभवन में आमंत्रित करती थी। वे धृतराष्ट्र, पाण्डु तथा विदुर के जन्मदाता ही नहीं, अपितु विपत्ति के समय छाया की तरह पाण्डवों का साथ भी देते थे।
काशी (वाराणसी) के रामनगर किले में और व्यास नगर (रामनगर व मुगलसराय के बीच) में वेदव्यास का मन्दिर है जहाँ माघ में प्रत्येक सोमवार मेला लगता है। गुरू पूर्णिमा (आषाढ़ पूर्णिमा) का प्रसिद्ध पर्व व्यास जी की जयंती के उपलक्ष्य में मनाया जाता है। पुराणों तथा महाभारत के रचयिता महर्षि का मन्दिर व्यासपुरी में विद्यमान है जो काशी से 5 मील की दूरी पर पूर्व स्थित है। महाराज काशी नरेश के रामनगर दुर्ग के पश्चिम भाग में भी व्यासेश्वर की मूर्ति विराजमान है जिसे साधारण जनता छोटा वेदव्यास के नाम से जानती है। वास्तव में वेदव्यास की यह सबसे प्राचीन मूर्ति है। व्यासजी द्वारा काशी को शाप देने के कारण विश्वेश्वर ने व्यासजी को काशी से निष्कासित कर दिया था। तब व्यासजी लोलार्क मन्दिर के आग्नेय कोण में गंगाजी के पूर्वी तट पर स्थित हुए। इस घटना का उल्लेख काशी खण्ड में इस प्रकार है-
लोलार्कादं अग्निदिग्भागे, स्वर्घुनी पूर्वरोधसि। 
स्थितो ह्यद्यापि पश्चेत्स-काशीप्रासाद राजिकाम्।। 
-स्कन्दपुराण, काशी खण्ड 96/201

लेखकों/शास्त्राकारों के आदि पुरूष प्रतीक व्यास
किसी संस्था का मुख्य व्यक्ति, व्यक्ति नहीं बल्कि संस्था होता है। उसका पद ही उसका पहचान होता है और उसके द्वारा की गई समस्त कार्यवाही व्यक्ति की नहीं बल्कि संस्था की होती है। व्यक्ति की मृत्यु हो जाती है परन्तु संस्थायें लम्बी अवधि तक चलती रहती है। उदाहरणस्वरूप वर्तमान समय में देश, संस्थायें और पीठ हैं। जैसे विदेशों में जाने पर जब किसी देश का मुख्य व्यक्ति कोई समझौता करता है तब वह देश होता है न कि व्यक्ति। प्राचीन समय में भी इसी प्रकार के अनेक पीठ थे और बनते चले गये जैसे-ब्राह्मण, परशुराम, विश्वामित्र, व्यास, वशिष्ठ, नारद, इन्द्र, गोरक्षपीठ (क्षत्रिय पीठ), शंकराचार्य पीठ (ब्राह्मण पीठ) इत्यादि। जब तक संस्था नहीं रहती तब तक व्यक्ति, व्यक्ति रहता है जब उसके द्वारा संस्था स्थापित हो जाती है तब व्यक्ति, व्यक्ति न रहकर संस्था हो जाता है। उस संस्थापक व्यक्ति के जीवन काल तक उसे साकार रूप में फिर उसके उपरान्त उसके निराकार रूप विचार का साकार रूप संस्था के रूप में समाज याद करता है। ऐसी स्थिति में जब संस्थापक व्यक्ति का नाम ही संस्था का नाम हो तब संस्था द्वारा किये गये समस्त कार्य एक भ्रमात्मक स्थिति को उत्पन्न करते हैं और एक लम्बे समय के उपरान्त यह नहीं समझ में आता कि वह संस्थापक व्यक्ति इतने लम्बे समय तक कैसे जिवित था? सत्य तो यह है कि शरीर मर जाता है लेकिन विचार या विचार पर किये गये कार्य नहीं मरते। इस सत्य के आधार की दृष्टि से यदि हम देखें तो स्थिति स्पष्ट हो जायेगी कि-

01. वशिष्ठ के सम्बन्ध में-सर्वप्रथम वशिष्ठ सूर्यवंश के प्रथम पुरूष महाराज इच्छवांकु के सामने प्रकट होते हैं। दूसरी बार वशिष्ठ मैथिली वंश के यज्ञ में ऋत्विक कार्य सम्पन्न कराते हैं। इच्छवांकु से मैथिली वंश में चैथी पीढ़ी का अन्तर है। तीसरी बार वशिष्ठ राजा त्रिशंकु के समय में प्रकट होते हैं। चैथी बार वशिष्ठ राजा दिलीप के समय भी होते हैं। पाँचवीं बार महाराजा दशरथ के समय उपस्थित होते हैं। छठवीं बार महाभारत काल में होते हैं जो आबू पर्वत पर अग्नि पैदा करके अग्नि से क्षत्रिय पैदा करते हैं।

02. नारद के सम्बन्ध में-युग कोई भी हो वहाँ नारद की उपस्थिति सदैव रहती है। नारद त्रेता के राम काल में भी हैं तो द्वापर के कृष्ण काल में भी और इनसे प्राचीन ब्रह्मा-विष्णु-महेश काल में भी।

03. विश्वामित्र के सम्बन्ध में-विश्वामित्र सूर्यवंश के 32वीं पीढ़ी के राजा हरिश्चन्द्र का राज्य दान में लेते हैं। फिर इसी वंश की 62वीं पीढ़ी में राजा दशरथ से यज्ञ रक्षार्थ उनके पुत्र राम और लक्ष्मण को साथ ले गये थे।

04. ब्राह्मण के सम्बन्ध में-यह एक विद्यापीठ था जो उस समय राजर्षि, ब्रह्मर्षि, देवऋषि इत्यादि उपाधियों को प्रदान करता था जैसे वर्तमान समय के शिक्षा संस्थान उपाधियाँ प्रदान कर रहीं हैं। संस्कृत विश्वविद्यालयों से आज भी शास्त्री, आचार्य, शिक्षा शास्त्री इत्यादि उपाधि उनको दी जा रहीं हैं जो इसके योग्य हैं। बिना कोई परीक्षा उत्तीर्ण किये विशेषज्ञता के आधार पर विश्वविद्यालय मानद उपाधि भी प्रदान करती हैं। 

05. परशुराम के सम्बन्ध में-त्रेता युग में जनकपुरी में सीता स्वयंवर के समय परशुराम उपस्थित होते हैं और द्वापर युग में भीष्म और कर्ण को भी शिक्षा देते हैं। साथ ही भविष्य के एक मात्र शेष अन्तिम अवतार कल्कि के भी वे गुरू होंगे, ऐसा पुराण में है।

06. दुर्वासा के सम्बन्ध में-दुर्वासा ऋषि राम काल के थे जो अत्रि-अनुसूईया के पुत्र थे और राम वनवास समय में श्री राम से मिले भी थे। फिर दुर्वासा महाभारत काल में द्वापर के अन्त तक भी उपस्थित रहते हैं।

07. व्यास के सम्बन्ध में-समाज को एकात्म करने के लिए शास्त्र की रचना करना व उसका प्रचार-प्रसार करने के लिए व्यास सदैव हर युग में उपस्थित रहते हैं।

वैदिक काल में ऋषियों का वर्णन आया है। कुछ को छोड़कर सभी ऋषि परिवार वाले थे। वैदिक काल के ऋषि दार्शनिक, विद्वान, योद्धा एवं कृषक तीनों थे। ऋचाओं को लिखने वाले ऋषियों को देवर्षि की संज्ञा प्राप्त थी। प्राचीन ऋषियों में बहुत से ऋषि, राजर्षि से ब्रह्मर्षि हो गये तथा ब्रह्मर्षि से राजर्षि भी हुए लेकिन इनकी संख्या कम है। आरम्भ में ब्राह्मण कोई जाति नहीं थी बल्कि यह विद्यापीठ था। यही कारण है कि अनेक राजर्षि, ब्रह्मर्षि उपाधि प्राप्त किये। यही नहीं प्राचीन वंशावली में भी सूर्य के 12 पुत्रों में बहुत से अग्निहोत्र करने के कारण ब्राह्मण की उपाधि धारण किये। सूर्य के पुत्र वरूण से ही ब्रह्म वंश चला जिसमें भृगु, वशिष्ठ, वाल्मिकि, जमदग्नि, पुलस्त्य थे जबकि ब्रह्म वंशीय भी विशुद्ध सूर्यवंशीय ही है। केवल अग्निहोत्र करने के कारण ही ये ब्राह्मण कहलाये।
जिस प्रकार लोग आत्मा की महत्ता को न समझकर शरीर को ही महत्व देते हैं उसी प्रकार लोग भले ही पढ़कर ही विकास कर रहें हो परन्तु वे शास्त्राकार लेखक की महत्ता को स्वीकार नहीं करते। जबकि वर्तमान समय में चाहे जिस विषय में हो प्रत्येक विकास कर रहे व्यक्ति के पीछे शास्त्राकार, लेखक, आविष्कारक, दार्शनिक की ही शक्ति है जिस प्रकार शरीर के पीछे आत्मा की शक्ति है।
सदैव मानव समाज को एकात्म करने के लिए शास्त्र-साहित्य की रचना करना लेखक का काम रहा है। सामूहिक रूप से ऐसे कार्य करने वाले को व्यास कहते हैं। चाहे वह आध्यात्म दर्शन (अद्श्य विज्ञान) के क्षेत्र में हो या पदार्थ विज्ञान (द्श्य विज्ञान) के क्षेत्र में हो। इस प्रकार सभी लेखकों के आदर्श आदि पुरूष व्यास ही हैं।

वेदव्यास शास्त्र लेखन कला
मानव सभ्यता के विकास के कालक्रम में कर्म कर अनुभव के ज्ञान सूत्र का संकलन ही वेद के रूप में व्यक्त हुआ जिससे आने वाली पीढ़ी मार्गदर्शन को प्राप्त कर सके और अपना समय बचाते हुए कर्म कर सके। अर्थात् प्रत्येक साकार सफल नेतृत्व के साथ उसके अनुभव का निराकार ज्ञान सूत्र के संकलन की समानान्तर प्रक्रिया भी चलती रही। और यह सभी प्रक्रिया मानव जाति के श्रेष्ठतम विकास के लिए ही की जा रही थी। मनुष्य को युगानुसार शास्त्र का अध्ययन करना चाहिए लेकिन समाज पुराने में ही उलझ जाता है इसलिए ही विकास अवरूद्ध होता है। समाज को एकात्म करने के लिए शास्त्र की रचना करना व उसका प्रचार-प्रसार करने वाले व्यास कहलाये। एकात्म करने की यह कला और कुछ नहीं वर्तमान अर्थो में ”मानकीकरण“ करना है। व्यास द्वारा शास्त्र रचना के युगानुसार निम्न चरण पूरे हुए। 

1.सार्वभौम आत्मा के ”ज्ञान” द्वारा समाज को एकात्म (मानकीकरण) करने के लिए शास्त्र-वेद 
वेदों को मूलत-सार्वभौम ज्ञान का शास्त्र समझना चाहिए। जिनका मूल उद्देश्य यह बताना था कि ”एक ही सार्वभौम आत्मा के सभी प्रकाश हैं अर्थात् बहुरूप में प्रकाशित एक ही सत्ता है। इस प्रकार हम सभी एक ही कुटुम्ब के सदस्य है।“
जब वेद लोंगो के समझ में कम आने लगा या समाज उसी में उलझ गया और उससे समाज को एकात्म करना कठिन होने लगा तब उसके व्याख्या का शास्त्र उपनिषद् की रचना की गई।

2.सार्वभौम आत्मा के ”नाम“ द्वारा समाज को एकात्म (मानकीकरण) करने के लिए शास्त्र-उपनिषद् 
उपनिषद्ों की शिक्षा उस सार्वभौम आत्मा के नाम के अर्थ की व्याख्या के माध्यम से उस सार्वभौम आत्मा को समझाना है।
जब उपनिषद् लोंगो के समझ में कम आने लगा या समाज उसी में उलझ गया और उससे समाज को एकात्म करना कठिन होने लगा तब पौराणिक वंशावली में हुए साकार विष्णु कर्तार, कमल कर्तार, ब्रह्मा कर्तार और रूद्र-शिव के निराकार एवं साकार रूप को प्रक्षेपित कर मानक चरित्र (व्यक्तिगत, सामाजिक और वैश्विक) का शास्त्र पुराण की रचना की गई। 

3.सार्वभौम आत्मा के ”कृति“ कथा द्वारा समाज को एकात्म (मानकीकरण) करने के लिए शास्त्र-पुराण
वेद के ज्ञान सूत्र व उपनिषद् की वार्ता के अलावा मनुष्य को एकात्म करने के लिए दृश्य चित्र या वस्तु की आवश्यकता की विधि का प्रयोग ही पौराणिक देवी-देवता हैं। सार्वभौम आत्मा के कृति कथा द्वारा समाज को एकात्म करने के लिए पुराण शास्त्र ही देवी-देवताओं के उत्पत्ति का कारण है। जिसे उत्पन्न करने का कारण मानव को एक आदर्श मानक पैमाना व लक्ष्य देना था जिससे वे मार्गदर्शन प्राप्त कर सकें। वेद और उपनिषद् शास्त्र में देवी-देवता के स्थान पर मात्र प्रकृति-पुरूष का प्रतीक चिन्ह-शिवलिंग ही व्यक्त था। मनुष्य या कोई भी जीव जब अपने ईश्वर का रूप निर्धारित करेगा तब वह अपनी ही शारीरिक संरचना रूप में ही कल्पना कर सकता है। इस मानवीय रूप के निर्धारण में गुणों को वस्त्र-आभूषण, वाहन इत्यादि के प्रतीक के माध्यम से व्यक्त किया गया। पुराणों में निम्नलिखित विधि से देवी-देवताओं की उत्पत्ति की गयी है-

1. सार्वभौम आत्मा से ब्रह्माण्ड और उसके परिवार जैसे सूर्य, चाँद, ग्रह, नक्षत्र, नदी, समुद्र, पर्वत इत्यादि को देवी-देवता के रूप में एक मानवीय रूप द्वारा गुणों के अनुसार निरूपित कर प्रक्षेपित किया गया। जिससे यह ज्ञान प्राप्त हो सके कि उस अदृश्य ईश्वर की कृति यह ब्रह्माण्ड उसका दृश्य रूप है अर्थात् यह दृश्य ब्रह्माण्ड ही हमारा दृश्य ईश्वर है। अर्थात् जिस प्रकार हम ईश्वर से प्रेम करते हैं उसी प्रकार हमें इस दृश्य ईश्वर-ब्रह्माण्ड से प्रेम करना चाहिए जो हमें प्रत्यक्ष रूप में जीवन संसाधन उपलब्ध कराता है।

2. सार्वभौम आत्मा से मनुष्य और उसके परिवार को देवी-देवता के रूप में एक मानवीय रूप द्वारा गुणों के अनुसार निरूपित कर प्रक्षेपित किया गया। जिससे यह ज्ञान प्राप्त हो सके कि उस अदृश्य ईश्वर की कृति यह मनुष्य उसका दृश्य रूप है अर्थात् यह दृश्य मनुष्य ही हमारा दृश्य ईश्वर है। अर्थात् जिस प्रकार हम ईश्वर से प्रेम करते हैं उसी प्रकार हमें इस दृश्य ईश्वर-मानव से प्रेम करना चाहिए जो हमें प्रत्यक्ष रूप में जीवन संसाधन उपलब्ध कराता है। 

मनुष्य को उसके कार्य क्षेत्र के अनुसार सर्वोच्च आदर्श मानक चरित्र प्रक्षेपित किये गये जिससे मनुष्य मार्गदर्शन प्राप्त कर सके। कार्य क्षेत्र अनुसार सर्वोच्च आदर्श मानक चरित्र निम्नवत् हैं-
अ. व्यक्तिगत कार्य क्षेत्र स्तर-बह्मा अर्थात् एकात्मज्ञान परिवार 
ब. सामाजिक कार्य क्षेत्र स्तर-विष्णु अर्थात् एकात्म ज्ञान सहित एकात्म कर्म परिवार
स. वैश्विक/ब्रह्माण्डीय कार्य क्षेत्र स्तर-शिव-शंकर अर्थात् एकात्म ज्ञान और एकात्म कर्म सहित एकात्म ध्यान परिवार
उपरोक्त के अनुसार यह स्पष्ट है कि शास्त्राकार लेखक द्वारा पौराणिक देवी-देवताओं में ब्रह्मा-विष्णु-शिवशंकर परिवार के कार्य क्षेत्रानुसार मानक के रूप में प्रक्षेपित किये गये थे। मनुष्य की इच्छा ”पाने“ की अधिक होती है अलावा इसके कि ”हो जाने“ की। ऐसे व्यक्ति जो ”हो जाने“ में विश्वास रखते थे वे ही धरती पर मनुष्य रूप में आये और अवतार हो कर चले गये। अवतार का अर्थ ही होता है सर्वोच्च लक्ष्य सिद्धान्त के अनुसार नीचे उतरना जबकि मनुष्य का अर्थ होता है नीचे से ऊपर की ओर बढ़ना। शास्त्राकार लेखक ने मानव जाति को ईश्वर की ओर विकास करने या ईश्वर के रूप में बन जाने के लिए इन देवी-देवताओं का रूप प्रक्षेपित किया था लेकिन ये पूजा और आयोजन में बदल गया और अन्य धर्म-सम्प्रदाय के आ जाने से यह एक विशेष धर्म का ही जाना जाने लगा। जिस प्रकार आम की लकड़ी से कुर्सी, मेज, दरवाजा, खिड़की बनाया गया और आम गायब होकर कुर्सी, मेज, दरवाजा, खिड़की हो गया उसी प्रकार सम्पूर्ण पृथ्वी के मनुष्य के मागदर्शन के लिए व्यक्त मानक देवी-देवताओं का अर्थ गायब होकर मूर्तिपूजा में बदलकर एक धर्म का हो गया।
पुराण लिखने का मुख्य आधार-







जब पुराण लोंगो के समझ में कम आने लगा या समाज उसी में उलझ गया और उससे समाज को एकात्म करना कठिन होने लगा तब मानवीय वंशावली में हुए अनेक विभिन्न प्रकृति-चरित्र के साकार मानव और उनके निराकार एवं साकार रूप को प्रक्षेपित कर प्रकृति-चरित्र (व्यक्तिगत, सामाजिक और वैश्विक) का शास्त्र महाभारत की रचना की गई। 

4.सार्वभौम आत्मा के प्रकृति द्वारा समाज को एकात्म (मानकीकरण) करने के लिए शास्त्र-महाभारत
महाभारत की शिक्षा अपनी प्रकृति में स्थित रहकर व्यक्तिगत प्रमाणित स्वार्थ (लक्ष्य) को प्राप्त करने के अनुसार सम्बन्धों का आधार बनाने की शिक्षा है। गीता कीे शिक्षा-गीता की मूल शिक्षा प्रकृति में व्याप्त मूल तीन सत्व, रज और तम गुण के आधार पर व्यक्त विषयों जिसमें मनुष्य भी शामिल है, की पहचान करने की शिक्षा दी गयी है और उससे मुक्त रहकर कर्म करने को निष्काम कर्मयोग तथा उसमें स्थित रहने को स्थितप्रज्ञ और ईश्वर से साक्षात्कार करने का मार्ग समझाया गया।
महाभारत पुराण लिखने का मुख्य आधार-
शरीर-क्षेत्र (10 इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि, अहंकार, 5 विकार और 3 गुण) जो प्रकृति के तीन गुणों से परवश होकर कर्म करता है।
दैवी शरीर या धर्मक्षेत्र-हृदय देश में दैवी सम्पत्ति का बाहुल्य शरीर
आसुरी शरीर या कुरूक्षेत्र-हृदय देश में आसुरी सम्पत्ति का बाहुल्य शरीर

धृतराष्ट्र-अज्ञान रूपी
संजय-संयम रूपी

पाण्डव-दैवी सम्पत्ति 
भीम-महान ईश में वास दिलाने वाला भाव
अर्जुन-अनुराग रूपी
सात्यकि-सात्विकता रूपी
विराट-सर्वत्र ईश्वरीय प्रवाह
द्रुपद-अचल स्थिति
द्रौपदी-ध्यान रूपी
वात्सल्य-द्रौपदी का पुत्र (ध्यान से उत्पन्न गुण)
लावण्य-द्रौपदी का पुत्र (ध्यान से उत्पन्न गुण)
सहृदयता-द्रौपदी का पुत्र (ध्यान से उत्पन्न गुण)
सौम्यता-द्रौपदी का पुत्र (ध्यान से उत्पन्न गुण)
स्थिरता-द्रौपदी का पुत्र (ध्यान से उत्पन्न गुण)
सुभद्रा-शुभ आधार
धृष्टकेतू-दृढ़ कत्र्तव्य
चेकितान-चित्त को खिंचकर इष्ट में लाना
पुरूजित-स्थूल, सूक्ष्म व कारण शरीर पर विजय पाना
काशिराज-कायारूपी काशी का सम्राज्य
कुन्तिभोज-कत्र्तव्य से भव पर विजय
शैव्य-नरो में श्रेष्ठ
युधामन्यु-युद्ध के अनुरूप मन की धारणा
उत्तमौजा-शुभ की मस्ती
अभिमन्यु-अभय मन। सुभद्रा का पुत्र (शुभ आधार से उत्पन्न गुण)

कौरव-आसुरी सम्पत्ति 
दुर्योधन-मोह या दूशित मन
द्रोणाचार्य-द्वैत का आचरण
धृष्टधुम्न-शाश्वत अचल पद में आस्था रखने वाला मन
भीष्म-भ्रम रूपी
कर्ण-कर्म रूपी
कृपाचार्य-साधक द्वारा कृपा का आचरण
अश्वत्थामा-आसक्ति रूपी
विकर्ण-विकल्प रूपी
भूरिश्रवा-भ्रममयी श्वास
शिखण्डी-शिखा-सूत्र का त्याग
जब महाभारत लोंगो के समझ में कम आने लगा या समाज उसी में उलझ गया और उससे समाज को एकात्म करना कठिन होने लगा तब काल, चेतना, कर्मज्ञान एवं सार्वभौम सत्य-सिद्धान्त और मानवी सिद्धान्त के एकीकरण सहित पूर्व के शास्त्र रचना का उद्देश्य का शास्त्र विश्वभारत समाहित विश्वशास्त्र की रचना की गई जिसका मुख्य गुण ”सार्वभौम“ है और महायोग-महामाया का अन्तिम उदाहरण बनाया गया।

5.सार्वभौम आत्मा के काल, चेतना और कर्मज्ञान द्वारा समाज को एकात्म करने के लिए शास्त्र-विश्वशास्त्र-द नाॅलेज आॅफ फाइनल नाॅलेज 
विश्वशास्त्र की शिक्षा, उपरोक्त सभी को समझाना है और पूर्ण सार्वजनिक प्रमाणित काल, चेतना और ज्ञान-कर्मज्ञान से युक्त होकर कर्म करने की शिक्षा है। जिससे भारतीय शास्त्रों की वैश्विक स्वीकारीता स्थापित हो और देवी-देवताओं के उत्पत्ति के उद्देश्य से भटक गये मनुष्य को शास्त्रों के मूल उद्देश्य की मुख्यधारा में लाया जा सके। विश्वभारत कीे शिक्षा-विश्वभारत, विश्वशास्त्र के स्थापना की योजना का शास्त्र है, जो विश्वशास्त्र का ही एक भाग है। विश्वभारत, की शिक्षा अपनी प्रकृति में स्थित रहकर सार्वजनिक प्रमाणित स्वार्थ (लक्ष्य) को प्राप्त करने के अनुसार सम्बन्धों का आधार बनाने की शिक्षा है।
श्री विष्णु पुराण (अध्याय-दो) में लिखा है कि-यह सम्पूर्ण विश्व उन परमात्मा की ही शक्ति से व्याप्त है, अत-वे ”विष्णु“ कहलाते हैं। समस्त देवता, मनु, सप्तर्षि तथा मनुपुत्र और देवताओं के अधिपति इन्द्रगण, ये सब भगवान विष्णु की ही विभूतियाँ हैं।
सूर्य अपनी पत्नी छाया से शनैश्चर, एक और मनु तथा तपती, तीन सन्तानें उत्पन्न कीं। सूर्य-छाया का दूसरा पुत्र आठवाँ मनु, अपने अग्रज मनु का सवर्ण होने से सावर्णि कहलाया। नवें मनु दक्ष सावर्णि होंगे दसवें मनु ब्रह्मसावर्णि होंगे, ग्यारहवाँ मनु धर्म सावर्णि बारहवा मनु रूद्रपुत्र सावर्णि तेरहवा रूचि रूद्रपुत्र सावर्णि चैदहवा मनु भीम सावर्णि।
प्रत्येक चतुर्युग के अन्त में वेदों का लोप हो जाता है, उस समय सप्तर्षिगण ही स्वर्गलोक से पृथ्वी में अवतीर्ण होकर उनका प्रचार करते हैं। प्रत्येक सत्ययुग के आदि में (मनुष्यों की धर्म-मर्यादा स्थापित करने के लिए) स्मृति-शास्त्र के रचयिता मनु का प्रादुर्भाव होता है। 
इन चैदह मनवन्तरों के बीत जाने पर एक सहस्त्र युग रहने वाला कल्प समाप्त हुआ कहा जाता है। फिर इतने समय की रात्रि होती है।
स्थितिकारक भगवान विष्णु चारों युगों में इस प्रकार व्यवस्था करते हैं-समस्त प्राणियों के कल्याण में तत्पर वे सर्वभूतात्मा सत्ययुग में कपिल आदिरूप धारणकर परम ज्ञान का उपदेश करते हैं। त्रेतायुग में वे सर्वसमर्थ प्रभु चक्रवर्ती भूपाल होकर दुष्टों का दमन करके त्रिलोक की रक्षा करते हैं। तदन्तर द्वापरयुग में वे वेदव्यास रूप धारण कर एक वेद के चार विभाग करते हैं और सैकड़ों शाखाओं में बाँटकर बहुत विस्तार कर देते हैं। इस प्रकार द्वापर में वेदों का विस्तार कर कलियुग के अन्त में भगवान कल्किरूप धारणकर दुराचारी लोगों को सन्मार्ग में प्रवृत्त करते हैं। इसी प्रकार, अनन्तात्मा प्रभु निरन्तर इस सम्पूर्ण जगत् के उत्पत्ति, पालन और नाश करते रहते हैं। इस संसार में ऐसी कोई वस्तु नहीं है जो उनसे भिन्न हो।
”कल्कि“ अवतार के सम्बन्ध में कहा गया है कि उसका कोई गुरू नहीं होगा, वह स्वयं से प्रकाशित स्वयंभू होगा जिसके बारे में अथर्ववेद, काण्ड 20, सूक्त 115, मंत्र 1 में कहा गया है कि ”ऋषि-वत्स, देवता इन्द्र, छन्द गायत्री। अहमिद्धि पितुष्परि मेधा मृतस्य जग्रभ। अहं सूर्य इवाजिनि।।“ अर्थात् ”मैं परम पिता परमात्मा से सत्य ज्ञान की विधि को धारण करता हूँ और मैं तेजस्वी सूर्य के समान प्रकट हुआ हूँ।“ जबकि सबसे प्राचीन वंश स्वायंभुव मनु के पुत्र उत्तानपाद शाखा में ब्रह्मा के 10 मानस पुत्रों में से मन से मरीचि व पत्नी कला के पुत्र कश्यप व पत्नी अदिति के पुत्र आदित्य (सूर्य) की चैथी पत्नी छाया से दो पुत्रों में से एक 8वें मनु-सावर्णि मनु होंगे जिनसे ही वर्तमान मनवन्तर 7वें वैवस्वत मनु की समाप्ति होगी। ध्यान रहे कि 8वें मनु-सावर्णि मनु, सूर्य पुत्र हैं। अर्थात् कल्कि अवतार और 8वें मनु-सावर्णि मनु दोनों, दो नहीं बल्कि एक ही हैं और सूर्य पुत्र हैं।
”सार्वभौम“ गुण 8वें सावर्णि मनु का गुण है। अवतारी श्रृंखला अन्तिम होकर अब मनु और मनवन्तर श्रृंखला के भी बढ़ने का क्रम है क्योंकि यही क्रम है। वैदिक-सनातन-हिन्दू धर्म के पुराणों में 14 मनुओं का वर्णन किया गया है। इन्हीं के नाम से मन्वन्तर चलते हैं। जो निम्नलिखित हैं-
1.मनुर्भरत वंश की प्रियव्रत शाखा 
अ.पौराणिक वंश 
वंश         अवतार काल
01.स्वायंभुव मनु यज्ञ          भूतकाल
02.स्वारचिष मनु विभु          भूतकाल
03.उत्तम मनु सत्यसेना भूतकाल
04.तामस मनु हरि         भूतकाल
05.रैवत मनु वैकुण्ठ भूतकाल
2.मनुर्भरत वंश की उत्तानपाद शाखा 
06.चाक्षुष मनु अजित भूतकाल
ब.ऐतिहासिक वंश 
07.वैवस्वत मनु वामन वर्तमान
स.भविष्य के वंश
08.सावर्णि मनु सार्वभौम भविष्य
09.दत्त सावर्णि मनु रिषभ भविष्य
10.ब्रह्म सावर्णि मनु विश्वकसेन भविष्य
11.धर्म सावर्णि मनु धर्मसेतू भविष्य
12, रूद्र सावर्णि मनु सुदामा भविष्य
13.दैव सावर्णि मनु योगेश्वर भविष्य
14.इन्द्र सावर्णि मनु वृहद्भानु भविष्य
पहले मनु-स्वायंभुव मनु से 7वें मनु-वैवस्वत मनु तक शारीरिक प्राथमिकता के मनु का कालक्रम हैं। 8वें मनु-सावर्णि मनु से 14वें और अन्तिम-इन्द्र सावर्णि मनु तक बौद्धिक प्राथमिकता के मनु का कालक्रम है इसलिए ही 9वें मनु से 14वें मनु तक के नाम के साथ में ”सावर्णि मनु“ उपनाम की भाँति लगा हुआ है। अर्थात् 9वें मनु से 14वें मनु में सार्वभौम गुण विद्यमान रहेगा और बिना ”विश्वशास्त्र“ के उनका प्रकट होना मुश्किल होगा। 
मात्र एक विचार-”ईश्वर ने इच्छा व्यक्त की कि मैं एक हूँ, अनेक हो जाऊँ“ और ”सभी ईश्वर हैं“ , यह प्रारम्भ और अन्तिम लक्ष्य है। मनुष्य की रचना ”पाॅवर और प्राफिट (शक्ति और लाभ)“ के लिए नहीं बल्कि असीम मस्तिष्क क्षमता के विकास के लिए हुआ है। फलस्वरूप वह स्वयं को ईश्वर रूप में अनुभव कर सके, जहाँ उसे किसी गुरू की आवश्यकता न पड़ें, वह स्वंयभू हो जाये, उसका प्रकाश वह स्वयं हो। एक गुरू का लक्ष्य भी यही होता है कि शिष्य मार्गदर्शन प्राप्त कर गुरू से आगे निकलकर, गुरू तथा स्वयं अपना नाम और कृति इस संसार में फैलाये, ना कि जीवनभर एक ही कक्षा में (गुरू में) पढ़ता रह जाये। एक ही कक्षा में जीवनभर पढ़ने वाले को समाज क्या नाम देता है, समाज अच्छी प्रकार जानता है। ”विश्वशास्त्र“ से कालक्रम को उसी मुख्यधारा में मोड़ दिया गया है। एक शास्त्राकार, अपने द्वारा व्यक्त किये गये पूर्व के शास्त्र का उद्देश्य और उसकी सीमा तो बता ही सकता है परन्तु व्याख्याकार ऐसा नहीं कर सकता। स्वयं द्वारा व्यक्त शास्त्र के प्रमाण से ही स्वयं को व्यक्त और प्रमाणित करूँगा-शास्त्राकार महर्षि व्यास (वर्तमान में लव कुश सिंह ”विश्वमानव“)
शब्द से सृष्टि की ओर...
सृष्टि से शास्त्र की ओर...
शास्त्र से काशी की ओर...
काशी से सत्यकाशी की ओर...
और सत्यकाशी से अनन्त की ओर...
  एक अन्तहीन यात्रा.........................
वर्तमान सृष्टि चक्र की स्थिति भी यही हो गयी है कि अब अगले अवतार के मात्र एक विकास के लिए सत्यीकरण से काल, मनवन्तर व मनु, अवतार, व्यास व शास्त्र सभी बदलेगें। इसलिए देश व विश्व के धर्माचार्यें, विद्वानों, ज्योतिषाचार्यों इत्यादि को अपने-अपने शास्त्रों को देखने व समझने की आवश्यकता आ गयी है क्योंकि कहीं श्री लव कुश सिंह ”विश्वमानव“ और ”आध्यात्मिक सत्य“ आधारित कार्य ”विश्वशास्त्र“ वही तो नहीं है? और यदि नहीं तो वह कौन सा कार्य होगा जो इन सबको बदलने वाली घटना को घटित करेगा?
शनिवार, 22 दिसम्बर, 2012 सेप्रारम्भ हो चुका है-
1.काल के प्रथम रूप अदृश्य काल से दूसरे और अन्तिम दृश्य काल का प्रारम्भ।
-इसलिए कि अधिकतम व्यक्ति व समाज का मन दृश्य विषयों पर केन्द्रित है।
2.मनवन्तर के वर्तमान 7वें मनवन्तर वैवस्वत मनु से 8वें मनवन्तर सावर्णि मनु का प्रारम्भ।
-इसलिए कि सावर्णि मनु के ”सार्वभौम“ गुण का प्रयोग कर श्री लव कुश सिंह ”विश्वमानव“ व्यक्त हैं।
3.अवतार के नवें बुद्ध से दसवें और अन्तिम अवतार-कल्कि महावतार का प्रारम्भ।
-इसलिए कि आधुनिक युग के लिए एकीकरण व मानकीकरण के सभी प्रणाली व्यष्टि व समष्टि के लिए संयुक्त एवं अन्तिम रूप से कल्कि अवतार द्वारार व्यक्त है।
4.युग के चैथे कलियुग से पाँचवें युग स्वर्ण युग का प्रारम्भ।
-इसलिए कि युग परिवर्तन के लिए कल्कि अवतार का आगमन हो चुका है।
5.व्यास और द्वापर युग में आठवें अवतार श्रीकृष्ण द्वारा प्रारम्भ किया गया कार्य “नवसृजन“ के प्रथम भाग “सार्वभौम ज्ञान“ के शास्त्र ”गीता“ से द्वितीय अन्तिम भाग ”सार्वभौम कर्मज्ञान“, पूर्णज्ञान का पूरक शास्त्र“, लोकतन्त्र का ”धर्मनिरपेक्ष धर्मशास्त्र“ और आम आदमी का ”समाजवादी शास्त्र“ द्वारा व्यवस्था सत्यीकरण और मन के ब्रह्माण्डीयकरण और नये व्यास का प्रारम्भ।
-इसलिए कि नया और अन्तिम शास्त्र ”विश्वशास्त्र“ प्रकाशित हो चुका है।
जिस प्रकार लोग आत्मा की महत्ता को न समझकर शरीर को ही महत्व देते हैं उसी प्रकार लोग भले ही पढ़कर ही विकास कर रहें हो परन्तु वे शास्त्राकार लेखक की महत्ता को स्वीकार नहीं करते। जबकि वर्तमान समय में चाहे जिस विषय में हो प्रत्येक विकास कर रहे व्यक्ति के पीछे शास्त्राकार, लेखक, आविष्कारक, दार्शनिक की ही शक्ति है जिस प्रकार शरीर के पीछे आत्मा की शक्ति है।
सदैव मानव समाज को एकात्म करने के लिए शास्त्र-साहित्य की रचना करना लेखक का काम रहा है। सामूहिक रूप से ऐसे कार्य करने वाले को व्यास कहते हैं। चाहे वह आध्यात्म दर्शन (अद्श्य विज्ञान) के क्षेत्र में हो या पदार्थ विज्ञान (द्श्य विज्ञान) के क्षेत्र में हो। इस प्रकार सभी लेखकों के आदर्श आदि पुरूष व्यास ही हैं।