व्यापार का अर्थ और उसका मूल आधार
जहाँ भी, कुछ भी आदान-प्रदान हो रहा हो, वह सब व्यापार के ही अधीन है। व्यक्ति का जितना बड़ा ज्ञान क्षेत्र होता है ठीक उतना ही बड़ा उसका संसार होता है। फलस्वरूप उस ज्ञान क्षेत्र पर आधारित व्यापार का संचालन करता है इसलिए ही ज्ञान क्षेत्र को विस्तार के लिए सदैव प्रयत्नशील रहना चाहिए। प्रत्येक व्यक्ति ही व्यापारी है और वही दूसरे के लिए ग्राहक भी है। यदि व्यक्ति आपस में आदान-प्रदान कर व्यापार कर रहें हैं तो इस संसार-ब्रह्माण्ड में ईश्वर का व्यापार चल रहा है और सभी वस्तुएँ उनके उत्पाद है। उन सब वस्तुओं का आदान-प्रदान हो रहा है जिसके व्यापारी स्वयं ईश्वर है। ये सनातन सिद्धान्त है।
शिक्षा क्षेत्र का यह दुर्भाग्य है कि जीवन से जुड़ा इतना महत्वपूर्ण विषय ”व्यापार“, को हम एक अनिवार्य विषय के रूप में पाठ्यक्रम में शामिल नहीं कर सकें। इसकी कमी का अनुभव उस समय होता है जब कोई विद्यार्थी 10वीं या 12वीं तक की शिक्षा के उपरान्त किसी कारणवश, आगे की शिक्षा ग्रहण नहीं कर पाता। फिर उस विद्यार्थी द्वारा पढ़े गये विज्ञान व गणित के वे कठिन सूत्र उसके जीवन में अनुपयोगी लगने लगते है। यदि वहीं वह व्यापार के ज्ञान से युक्त होता तो शायद वह जीवकोपार्जन का कोई मार्ग सुगमता से खोजने में सक्षम होता।
किसी विचार पर आधारित होकर आदान-प्रदान का नेतृत्वकर्ता व्यापारी और आदान-प्रदान में शामिल होने वाला ग्राहक होता है। प्रत्येक मनुष्य के लिए 24 घंटे का दिन और उस पर आधारित समय का निर्धारण है और यह पूर्णतः मनुष्य पर ही निर्भर है कि वह इस समय का उपयोग किस गति से करता है। उसके समक्ष तीन बढ़ते महत्व के स्तर हंै-शरीर, धन/अर्थ और ज्ञान। इन तीनों के विकास की अपनी सीमा, शक्ति, गति व लाभ है। जिसे यहाँ स्पष्ट करना आवश्यक समझता हूँ-
1. शरीर आधारित व्यापार
यह व्यापार की प्रथम व मूल प्रणाली है जिसमें शरीर के प्रत्यक्ष प्रयोग द्वारा व्यापार होता है। इससे सबसे कम व सबसे अधिक धन कमाया जा सकता है। परन्तु यह कम धन कमाने के लिए अधिक लोगों को अवसर तथा अधिक धन कमाने के लिए कम लोगों कांे अवसर प्रदान करता है। अर्थात् शरीर का प्रत्यक्ष प्रयोग कर अधिक धन कमाने का अवसर कम ही लोगों को प्राप्त होता है। यह प्रकृति द्वारा प्राप्त गुणों पर अधिक आधारित होती है। जो एक अवधि तक ही प्रयोग में लायी जा सकती है। क्योंकि शरीर की भी एक सीमा होती है। उदाहरण स्वरुप-किसान, मजदूर, कलाकार, खिलाड़ी, गायक, वादक, पहलवान इत्यादि। जिसमें अधिकतम संख्या कम कमाने वालों की तथा न्यूनतम संख्या अधिक कमाने वालों की है। शरीर आधारित व्यापारी हमेशा धन व ज्ञान आधारित व्यापारियों पर निर्भर रहते हैं। इस व्यापार में शरीर की उपयोगिता अधिक तथा धन व ज्ञान की उपयोगिता कम होती है।
2. धन/अर्थ आधारित व्यापार
यह व्यापार की दूसरी व मध्यम प्रणाली है जिसमें धन के प्रत्यक्ष प्रयोग द्वारा व्यापार होता है। इससे अधिक धन कमाया जा सकता है और उन सभी को अवसर प्रदान करता है जिनके पास धन होता है। जैसे-दुकानदार, उद्योगपति, व्यापारी इत्यादि। धन आधारित व्यापारी हमेशा शरीर व ज्ञान आधारित व्यापारियों पर निर्भर रहते हैं। इस व्यापार में धन की उपयोगिता अधिक तथा शरीर व ज्ञान की उपयोगिता कम होती है।
3. ज्ञान आधारित व्यापार
यह व्यापार की अन्तिम व मूल प्रणाली है जिसमें ज्ञान के प्रत्यक्ष प्रयोग द्वारा व्यापार होता है। इससे सबसे अधिक धन कमाया जा सकता है और उन सभी को अवसर प्रदान करता है जिनके पास ज्ञान होता है। उदाहरण स्वरुप-विद्यालय, महाविद्यालय, विश्वविद्यालय एवं अन्य शिक्षा व विद्या अध्ययन संस्थान, शेयर कारोबारी, बीमा व्यवसाय, प्रणाली व्यवसाय, कन्सल्टेन्ट, ज्ञान-भक्ति-आस्था आधारित ट्रस्ट-मठ इत्यादि। ज्ञान आधारित व्यापारी हमेशा शरीर व धन आधारित व्यापारियों पर निर्भर रहते हैं। इस व्यापार में ज्ञान की उपयोगिता अधिक तथा शरीर व धन की उपयोगिता कम होती है।
शरीर के विकास के उपरान्त मनुष्य को धन के विकास की ओर, धन के विकास के उपरान्त मनुष्य को ज्ञान के विकास की ओर बढ़ना चाहिए अन्यथा वह अपने से उच्च स्तर वाले का गुलाम हो जाता है। बावजूद उपरोक्त सहित इस शास्त्र से अलग विचारधारा में होकर भी मनुष्य जीने के लिए स्वतन्त्र है। परन्तु अन्ततः वह जिस अटलनीय नियम-सिद्धान्त से हार जाता है उसी सार्वभौम सत्य-सिद्धान्त को ईश्वर कहते हैं और इसके अंश या पूर्ण रूप को प्रत्यक्ष या प्रेरक विधि का प्रयोग कर समाज में स्थापित करने वाले शरीर को अवतार कहते हैं। तथा इसकी व्याख्या कर इसे व्यक्ति में स्थापित करने वाले शरीर को गुरू कहते हैं। मनुष्य केवल प्रकृति के अदृश्य नियमों को दृश्य में परिवर्तन करने का माध्यम मात्र है। इसलिए मनुष्य चाहे जिस भी विचार में हो वह ईश्वर में ही शरीर धारण करता है और ईश्वर में ही शरीर त्याग देता है, इसे मानने या न मानने से ईश्वर पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। यह उसी प्रकार है जैसे कोई किसी देश में रहे और वह यह न मानने पर अड़ा रहे कि वह उस देश का नहीं है या कोई स्वयं को यह समझ बैठे कि मेरे जैसा कोई ज्ञानी नहीं और यदि हो भी तो मैं नहीं मानता।
जिस प्रकार वर्तमान व्यावसायिक-समाजिक-धार्मिक इत्यादि मानवीय संगठन में विभिन्न पद जैसे प्रबन्ध निदेशक, प्रबन्धक, शाखा प्रबन्धक, कर्मचारी, मजदूर इत्यादि होते हैं और ये सब उस मानवीय संगठन के एक विचार जिसके लिए वह संचालित होता है, के अनुसार अपने-अपने स्तर पर कार्य करते हैं और वे उसके जिम्मेदार भी होते हैं। उसी प्रकार यह सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड एक ईश्वरीय संगठन है जिसमें सभी अपने-अपने स्तर व पद पर होकर जाने-अनजाने कार्य कर रहें हैं। यदि मानवीय संगठन का कोई कर्मचारी दुर्घटनाग्रस्त होता है तो उसका जिम्मेदार उस मानवीय संगठन का वह विचार नहीं होता बल्कि वह कर्मचारी स्वयं होता है। इसी प्रकार ईश्वरीय संगठन में भी प्रत्येक व्यक्ति की अपनी बुद्धि-ज्ञान-चेतना-ध्यान इत्यादि गुण ही उसके कार्य का फल देती है जिसका जिम्मेदार वह व्यक्ति स्वयं होता है न कि ईश्वरीय संगठन का वह सार्वभौम सत्य-सिद्धान्त। मानवीय संगठन का विचार हो या ईश्वरीय संगठन का सार्वभौम सत्य-सिद्धान्त यह दोनों ही कर्मचारी के लिए मार्गदर्शक नियम है। जिस प्रकार कोई मानवीय संगठन आपके पूरे जीवन का जिम्मेदार हो सकता है उसी प्रकार ईश्वरीय संगठन भी आपके पूरे जीवन का जिम्मेदार हो सकता है। जिसका निर्णय आपके पूरे जीवन के उपरान्त ही हो सकता है परन्तु आपके अपनी स्थिति के जिम्मेदार आप स्वयं है। जिस प्रकार मानवीय संगठन में कर्मचारी समर्पित मोहरे की भाँति कार्य करते हैं उसी प्रकार ईश्वरीय संगठन में व्यक्ति सहित मानवीय संगठन भी समर्पित मोहरे की भाँति कार्य करते हैं, चाहे उसका ज्ञान उन्हें हो या न हो। और ऐसा भाव हमें यह अनुभव कराता है कि हम सब जाने-अनजाने उसी ईश्वर के लिए ही कार्य कर रहें है जिसका लक्ष्य है-ईश्वरीय मानव समाज का निर्माण जिसमें जो हो सत्य हो, शिव हो, सुन्दर हो और इसी ओर विकास की गति हो।
व्यवसाय-अर्थ, विकास, प्रकृति तथा क्षेत्र
व्यवसाय ;ठनेपदमेेद्ध विधिक रूप से मान्य संस्था है जो उपभोक्ताओं को कोई उत्पाद या सेवा प्रदान करने के लक्ष्य से निर्मित की जाती है। व्यवसाय को ”कम्पनी“, “इंटरप्राइज” या “फर्म“ भी कहते हैं। पूँजीवादी अर्थव्यवस्थाओं में व्यापार का प्रमुख स्थान है जो अधिकांशतः निजी हाथों में होते हैं और लाभ कमाने के ध्येय से काम करते हैं तथा साथ-साथ स्वयं व्यापार की भी वृद्धि करते हैं। किन्तु सहकारी संस्थाएँ तथा सरकार द्वारा चलायी जानी वाली संस्थाएं प्रायः लाभ के बजाय अन्य उद्देश्यों की पूर्ति के लिये बनायी गयी होती हैं। हम व्यावसायिक वातावरण में रहते हैं। यह समाज का एक अनिवार्य अंग है। यह व्यावसायिक क्रियाओं के विस्तृत नैटवर्क के माध्यम से विभिन्न प्रकार की वस्तुएं तथा सेवाएं उपलब्ध कराकर हमारी आश्यकताओं की पूर्ति करता है। व्यवसाय के अन्य अर्थ-व्यापार, धंधा, व्यवसाय, कारबार, कारोबार, काम-काज, काम-धंधा, उद्यम हैं।
व्यवसाय विकास
भारत की सांस्कृतिक धरोहर बहुत समृद्ध है। लेकिन शायद यह बहुत कम लोग जानते होंगे कि प्राचीन काल में भारत, अर्थव्यवस्था तथा व्यवसाय के स्तर पर बहुत ही विकसित देश था। यह बात ऐतिहासिक साक्ष्यों, खुदाई से प्राप्त प्रमाणों, साहित्य व लिखित दस्तावेजों से सिद्ध होती हैं। इन सबसे अधिक भारत की असीम धन संपत्ति से आकर्षित होकर विभिन्न विदेशी आक्रमणकारियों द्वारा समय-समय पर हुए आक्रमण भी इस तथ्य को प्रमाणित करते हैं। प्राचीन भारतीय सभ्यता न केवल कृषि आधारित थी, बल्कि इसके आंतरिक व बाह्य व्यापार व वाणिज्य भी काफी उन्नत थे। व्यावसायिक जगत के विभिन्न क्षेत्रों में भारत का असीम योगदान है। उस समय के अन्य देशों में प्रचलित व्यवसायों से तुलना करने पर हम पाते हैं कि भारतीय व्यवसाय अपनी विलक्षणता, गतिशीलता व गुणात्मकता में इन सबसे कहीं आगे था।
शुरू के दिनों में भारतीय अर्थव्यवस्था पूर्णतः कृषि आधरित थी। लोग अपने उपभोग की वस्तुओं का उत्पादन स्वयं करते थे। वस्तुओं को बेचने अथवा विनिमय की आवश्यकता ही नहीं थी। लेकिन विकास के साथ-साथ लोगों की आवश्यकताएँ बढ़ने लगी। जिसके कारण वस्तुओं के उत्पादन में भी वृद्धि होने लगी। लोगों ने दैनिक उपयोग तथा विलासिता संबंधी विभिन्न वस्तुओं के उत्पादन में विशेषज्ञता अर्जित करनी शुरू कर दी और इस तरह से उनके पास अपने उपयोग की अन्य वस्तुओं के उत्पादन के लिए दक्षता और समय का व्यवसाय की प्रकृति तथा क्षेत्र अभाव होना शुरू हो गया। इस प्रकार इनकी कुशलता में वृद्धि होने लगी और ये अपनी आवश्यकता से अधिक वस्तुओं का उत्पादन करने में सक्षम हो गए। अतः अपनी अन्य आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए अपनी अधिक उत्पादित वस्तुओं के विनिमय की प्रणाली विकसित हो गई। यह व्यापार की शुरूआत थी।
आज ज्यादातर लोग यह मानते हैं कि भारत में व्यवसाय व व्यापार के क्षेत्र में इतना विकास स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् ही हुआ है। भारत, आज औद्योगिक उत्पादन में इतना सक्षम हो गया है कि हम सभी वस्तुओं का उत्पादन देशी तकनीक के प्रयोग से कर सकते हैं। लेकिन इससे यह परिणाम नहीं निकाल लेना चाहिए कि भूत काल में भारतीय सभ्यता विकसित या उन्नत नहीं थी। जबकि हमें आज भी भारत की समृद्धि व्यापारिक व वाणिज्यिक धरोहर पर गर्व है।
आप यह जानकर हैरान होंगे कि भारत ने व्यापार व वाणिज्य के क्षेत्र में अपनी यात्रा 5000 वर्ष ई.पू. शुरू कर दी थी। कई ऐतिहासिक साक्ष्यों से यह प्रमाणित होता है कि उस समय भारत में सुनियोजित शहर थे। भारतीय कपड़ों, आभूषणों और इत्र इत्यादि के प्रति पूरे विश्व में आकर्षण था। यह भी प्रमाण मिले हैं कि काफी समय से भारतीय व्यापारियों में व्यवसाय के लिए मुद्रा के प्रयोग का चलन था। व्यापारियों, शिल्पकारों व उत्पादकों के हितों की रक्षा के लिए संघों का प्रचलन था। यह भारत में व्यापार व वाणिज्य के जटिल विकास की ओर संकेत करता है। उस समय भारत के व्यापारियों ने न केवल सुदृढ़ आंतरिक व्यवसायिक रास्तों का जाल बुना था, बल्कि उनके व्यावसायिक संबंध अरब, मध्य व दक्षिण पूर्व एशिया के व्यापारियों से भी थे।
भारत विभिन्न प्रकार की धातु सामग्री के उत्पादन में भी सक्रिय था, जैसे तांबा, पीतल की वस्तुएं, बर्तन, गहने तथा सजावटी सामान आदि। भारतीय व्यापारी विश्व के विभिन्न भागों में अपने उत्पादों का निर्यात करते थे और वहां से उनके उत्पादों का आयात करते थे। यह एक सर्वविदित तथ्य है कि अंग्रेज सर्वप्रथम भारत में व्यापार करने के लिए ही आए थे, जिन्होंने बाद में यहां अपना राज्य स्थापित कर लिया।
भारत ने कई प्रकार से विश्व व्यापार व वाणिज्य में योगदान दिया है। गणना के लिए अंक प्रणाली, जिसका हम आज भी उपयोग करते हैं, भारत में पहले से विकसित थी। संयुक्त परिवार प्रथा तथा व्यवसाय में श्रम विभाजन का विकास भी यहीं हुआ, जो आज तक प्रचलित है। आज आध्ुनिक समय में प्रयोग की जाने वाली उपभोक्ता केंद्रित व्यवसाय तकनीक पुराने समय से भारतीय व्यवसाय का एक अभिन्न अंग रही है।
इसलिए हम कह सकते हैं कि भारत की अपनी समृद्धि व्यावसायिक धरोहर है, जिसने इसकी उन्नति में महत्वपूर्ण योगदान दिया है।
व्यवसाय की प्रकृति तथा क्षेत्र
जब हम अपने आसपास ध्यान देते हैं तो देखते हैं कि ज्यादातर लोग किसी न किसी काम में संलग्न हैं। अध्यापक विद्यालयों में पढ़ाते हैं, किसान खेतों में काम करते हैं, मजदूर कारखानों में काम करते हैं, चालक गाड़ियाँ चलाते हैं, दुकानदार सामान बेचते हैं, चिकित्सक रोगियों को देखते हैं आदि। इस तरह बारहों महीने हर आदमी दिन भर, या कभी-कभी रात भर, किसी न किसी काम में व्यस्त रहता है। लेकिन अब प्रश्न यह उठता है कि हम सब इस तरह किसी न किसी काम में अपने आपको इतना व्यस्त क्यों रखते हैं? इसका सिर्फ एक ही उत्तर है-“अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए“। इस तरह काम करके या तो हम अपने विभिन्न उत्तरदायित्वों की पूर्ति करते हैं या धन अर्जित करते हैं, जिससे कि हम अपनी आवश्यकता की वस्तुएँ तथा सेवाएँ खरीद सकें।
1. मानवीय क्रियाएँ-मनुष्य द्वारा की जाने वाली विभिन्न क्रियाएँ मानवीय क्रियाएँ कहलाती हैं। इन सभी क्रियाओं को हम दो वर्गो में बाँट सकते हैं-“आर्थिक क्रियाएँ“ और ”अनार्थिक क्रियाएँ“।
2. आर्थिक क्रियाएँ-जो क्रियाएँ धन अर्जित करने के उद्देश्य से की जाती हैं, उन्हें आर्थिक क्रियाएँ कहते हैं। उदाहरण के लिए, किसान खेत में हल चलाकर फसल उगाता है और उसे बेचकर धन अर्जित करता है, कारखाने अथवा कार्यालय का कर्मचारी अपने काम के बदले वेतन या मजदूरी प्राप्त करता है, व्यापारी वस्तुओं के क्रय-विक्रय से लाभ अर्जित करता है। ये सभी क्रियाएँ आर्थिक हैं।
3. अनार्थिक क्रियाएँ-जो क्रियाएँ धन अर्जित करने की अपेक्षा, संतुष्टि प्राप्त करने के उद्देश्य से की जाती हैं उन्हें अनार्थिक क्रियाएँ कहते हैं। इस तरह की क्रियाएँ, सामाजिक उत्तरदायित्वों की पूर्ति, मनोरंजन या स्वास्थ्य लाभ के लिए की जाती हैं। लोग पूजा स्थलों पर जाते हैं, बाढ़ अथवा भूकंप राहत कोष में दान देते हैं, स्वास्थ्य लाभ के लिए स्वयं को खेलकूद में व्यस्त रखते हैं, बागवानी करते हैं, रेडियो सुनते हैं, टेलीविजन देखते हैं या इसी तरह की अन्य क्रियाएँ करते हैं। ये कुछ उदाहरण अनार्थिक क्रियाओं के हैं। आमतौर पर आर्थिक क्रियाएँ धन अर्जित करने के उद्देश्यों से की जाती है। साधरणतया लोग इस तरह की क्रियाओं में नियमित रूप में संलग्न होते हैं, जिसे आर्थिक क्रिया कहा जाता है।
अ. व्यवसाय-व्यवसाय का अर्थ है एक ऐसा धंधा, जिसमें धन के बदले वस्तुओं अथवा सेवाओं का उत्पादन, विक्रय और विनिमय होता है। यह नियमित रूप से किया जाता है तथा इसे लाभ कमाने के उद्देश्य से किया जाता है। खनन, उत्पादन, व्यापार, परिवहन, भंडारण, बैंकिंग तथा बीमा आदि व्यावसायिक क्रियाओं के उदाहरण हैं।
ब. पेशा-कोई भी व्यक्ति हर क्षेत्र का विशेषज्ञ नहीं हो सकता। इसलिए हमें दूसरे क्षेत्रों में विशेषज्ञ व्यक्तियों की सेवाओं की आवश्यकता पड़ती है। उदाहरण के लिए, हमें अपने इलाज के लिए डॉक्टर की और कानूनी सलाह के लिए वकील के सहयोग की आवश्यकता पड़ती है। ये सभी व्यक्ति पेशे से जुड़े लोग हैं। इस प्रकार पेशे का अभिप्राय ऐसे धंधे से है, जिसमें उस पेशे के विशेष ज्ञान और प्रशिक्षण की आवश्यकता होती है तथा प्रत्येक पेशे का मुख्य उद्देश्य सेवा प्रदान करना होता है। एक पेशेवर निकाय प्रत्येक पेशे का नियमन करती है। इन पेशेवरों की आचार संहिता होती है, जिसे सम्बन्धित पेशेवर इकाई द्वारा विकसित किया जाता है।
स. नौकरी-नौकरी का अर्थ, एक ऐसे धंधे से है जिसमें व्यक्ति नियमित रूप से दूसरों के लिए कार्य करता है और उसके बदले में वेतन अथवा मजदूरी प्राप्त करता है। सरकारी कर्मचारी, कंपनियों के कार्यकारी, अधिकारी, बैंक कर्मचारी, फैक्टरी मजदूर आदि नौकरी में संलग्न माने जाते हैं। नौकरी में काम के घंटे मजदूरी, वेतन की राशि तथा अन्य सुविधाएँ यदि हैं, के सम्बंध में शर्तें होती है। सामान्यतः नियोक्ता इन शर्तों को तय करता है। कोई भी व्यक्ति जो नौकरी चाहता है, उसे तभी कार्य करना आरम्भ करना चाहिए जबकि वह शर्तों से संतुष्ट हो। कर्मचारी का प्रतिफल निश्चित होता है तथा उसका भुगतान मजदूरी अथवा वेतन के रूप में किया जाता है।