Thursday, April 9, 2020

व्यापार का अर्थ और उसका मूल आधार

व्यापार का अर्थ और उसका मूल आधार

जहाँ भी, कुछ भी आदान-प्रदान हो रहा हो, वह सब व्यापार के ही अधीन है। व्यक्ति का जितना बड़ा ज्ञान क्षेत्र होता है ठीक उतना ही बड़ा उसका संसार होता है। फलस्वरूप उस ज्ञान क्षेत्र पर आधारित व्यापार का संचालन करता है इसलिए ही ज्ञान क्षेत्र को विस्तार के लिए सदैव प्रयत्नशील रहना चाहिए। प्रत्येक व्यक्ति ही व्यापारी है और वही दूसरे के लिए ग्राहक भी है। यदि व्यक्ति आपस में आदान-प्रदान कर व्यापार कर रहें हैं तो इस संसार-ब्रह्माण्ड में ईश्वर का व्यापार चल रहा है और सभी वस्तुएँ उनके उत्पाद है। उन सब वस्तुओं का आदान-प्रदान हो रहा है जिसके व्यापारी स्वयं ईश्वर है। ये सनातन सिद्धान्त है।
शिक्षा क्षेत्र का यह दुर्भाग्य है कि जीवन से जुड़ा इतना महत्वपूर्ण विषय ”व्यापार“, को हम एक अनिवार्य विषय के रूप में पाठ्यक्रम में शामिल नहीं कर सकें। इसकी कमी का अनुभव उस समय होता है जब कोई विद्यार्थी 10वीं या 12वीं तक की शिक्षा के उपरान्त किसी कारणवश, आगे की शिक्षा ग्रहण नहीं कर पाता। फिर उस विद्यार्थी द्वारा पढ़े गये विज्ञान व गणित के वे कठिन सूत्र उसके जीवन में अनुपयोगी लगने लगते है। यदि वहीं वह व्यापार के ज्ञान से युक्त होता तो शायद वह जीवकोपार्जन का कोई मार्ग सुगमता से खोजने में सक्षम होता।
किसी विचार पर आधारित होकर आदान-प्रदान का नेतृत्वकर्ता व्यापारी और आदान-प्रदान में शामिल होने वाला ग्राहक होता है। प्रत्येक मनुष्य के लिए 24 घंटे का दिन और उस पर आधारित समय का निर्धारण है और यह पूर्णतः मनुष्य पर ही निर्भर है कि वह इस समय का उपयोग किस गति से करता है। उसके समक्ष तीन बढ़ते महत्व के स्तर हंै-शरीर, धन/अर्थ और ज्ञान। इन तीनों के विकास की अपनी सीमा, शक्ति, गति व लाभ है। जिसे यहाँ स्पष्ट करना आवश्यक समझता हूँ-

1. शरीर आधारित व्यापार 
यह व्यापार की प्रथम व मूल प्रणाली है जिसमें शरीर के प्रत्यक्ष प्रयोग द्वारा व्यापार होता है। इससे सबसे कम व सबसे अधिक धन कमाया जा सकता है। परन्तु यह कम धन कमाने के लिए अधिक लोगों को अवसर तथा अधिक धन कमाने के लिए कम लोगों कांे अवसर प्रदान करता है। अर्थात् शरीर का प्रत्यक्ष प्रयोग कर अधिक धन कमाने का अवसर कम ही लोगों को प्राप्त होता है। यह प्रकृति द्वारा प्राप्त गुणों पर अधिक आधारित होती है। जो एक अवधि तक ही प्रयोग में लायी जा सकती है। क्योंकि शरीर की भी एक सीमा होती है। उदाहरण स्वरुप-किसान, मजदूर, कलाकार, खिलाड़ी, गायक, वादक, पहलवान इत्यादि। जिसमें अधिकतम संख्या कम कमाने वालों की तथा न्यूनतम संख्या अधिक कमाने वालों की है। शरीर आधारित व्यापारी हमेशा धन व ज्ञान आधारित व्यापारियों पर निर्भर रहते हैं। इस व्यापार में शरीर की उपयोगिता अधिक तथा धन व ज्ञान की उपयोगिता कम होती है।

2. धन/अर्थ आधारित व्यापार
यह व्यापार की दूसरी व मध्यम प्रणाली है जिसमें धन के प्रत्यक्ष प्रयोग द्वारा व्यापार होता है। इससे अधिक धन कमाया जा सकता है और उन सभी को अवसर प्रदान करता है जिनके पास धन होता है। जैसे-दुकानदार, उद्योगपति, व्यापारी इत्यादि। धन आधारित व्यापारी हमेशा शरीर व ज्ञान आधारित व्यापारियों पर निर्भर रहते हैं। इस व्यापार में धन की उपयोगिता अधिक तथा शरीर व ज्ञान की उपयोगिता कम होती है।

3. ज्ञान आधारित व्यापार
यह व्यापार की अन्तिम व मूल प्रणाली है जिसमें ज्ञान के प्रत्यक्ष प्रयोग द्वारा व्यापार होता है। इससे सबसे अधिक धन कमाया जा सकता है और उन सभी को अवसर प्रदान करता है जिनके पास ज्ञान होता है। उदाहरण स्वरुप-विद्यालय, महाविद्यालय, विश्वविद्यालय एवं अन्य शिक्षा व विद्या अध्ययन संस्थान, शेयर कारोबारी, बीमा व्यवसाय, प्रणाली व्यवसाय, कन्सल्टेन्ट, ज्ञान-भक्ति-आस्था आधारित ट्रस्ट-मठ इत्यादि। ज्ञान आधारित व्यापारी हमेशा शरीर व धन आधारित व्यापारियों पर निर्भर रहते हैं। इस व्यापार में ज्ञान की उपयोगिता अधिक तथा शरीर व धन की उपयोगिता कम होती है।

शरीर के विकास के उपरान्त मनुष्य को धन के विकास की ओर, धन के विकास के उपरान्त मनुष्य को ज्ञान के विकास की ओर बढ़ना चाहिए अन्यथा वह अपने से उच्च स्तर वाले का गुलाम हो जाता है। बावजूद उपरोक्त सहित इस शास्त्र से अलग विचारधारा में होकर भी मनुष्य जीने के लिए स्वतन्त्र है। परन्तु अन्ततः वह जिस अटलनीय नियम-सिद्धान्त से हार जाता है उसी सार्वभौम सत्य-सिद्धान्त को ईश्वर कहते हैं और इसके अंश या पूर्ण रूप को प्रत्यक्ष या प्रेरक विधि का प्रयोग कर समाज में स्थापित करने वाले शरीर को अवतार कहते हैं। तथा इसकी व्याख्या कर इसे व्यक्ति में स्थापित करने वाले शरीर को गुरू कहते हैं। मनुष्य केवल प्रकृति के अदृश्य नियमों को दृश्य में परिवर्तन करने का माध्यम मात्र है। इसलिए मनुष्य चाहे जिस भी विचार में हो वह ईश्वर में ही शरीर धारण करता है और ईश्वर में ही शरीर त्याग देता है, इसे मानने या न मानने से ईश्वर पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। यह उसी प्रकार है जैसे कोई किसी देश में रहे और वह यह न मानने पर अड़ा रहे कि वह उस देश का नहीं है या कोई स्वयं को यह समझ बैठे कि मेरे जैसा कोई ज्ञानी नहीं और यदि हो भी तो मैं नहीं मानता।
जिस प्रकार वर्तमान व्यावसायिक-समाजिक-धार्मिक इत्यादि मानवीय संगठन में विभिन्न पद जैसे प्रबन्ध निदेशक, प्रबन्धक, शाखा प्रबन्धक, कर्मचारी, मजदूर इत्यादि होते हैं और ये सब उस मानवीय संगठन के एक विचार जिसके लिए वह संचालित होता है, के अनुसार अपने-अपने स्तर पर कार्य करते हैं और वे उसके जिम्मेदार भी होते हैं। उसी प्रकार यह सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड एक ईश्वरीय संगठन है जिसमें सभी अपने-अपने स्तर व पद पर होकर जाने-अनजाने कार्य कर रहें हैं। यदि मानवीय संगठन का कोई कर्मचारी दुर्घटनाग्रस्त होता है तो उसका जिम्मेदार उस मानवीय संगठन का वह विचार नहीं होता बल्कि वह कर्मचारी स्वयं होता है। इसी प्रकार ईश्वरीय संगठन में भी प्रत्येक व्यक्ति की अपनी बुद्धि-ज्ञान-चेतना-ध्यान इत्यादि गुण ही उसके कार्य का फल देती है जिसका जिम्मेदार वह व्यक्ति स्वयं होता है न कि ईश्वरीय संगठन का वह सार्वभौम सत्य-सिद्धान्त। मानवीय संगठन का विचार हो या ईश्वरीय संगठन का सार्वभौम सत्य-सिद्धान्त यह दोनों ही कर्मचारी के लिए मार्गदर्शक नियम है। जिस प्रकार कोई मानवीय संगठन आपके पूरे जीवन का जिम्मेदार हो सकता है उसी प्रकार ईश्वरीय संगठन भी आपके पूरे जीवन का जिम्मेदार हो सकता है। जिसका निर्णय आपके पूरे जीवन के उपरान्त ही हो सकता है परन्तु आपके अपनी स्थिति के जिम्मेदार आप स्वयं है। जिस प्रकार मानवीय संगठन में कर्मचारी समर्पित मोहरे की भाँति कार्य करते हैं उसी प्रकार ईश्वरीय संगठन में व्यक्ति सहित मानवीय संगठन भी समर्पित मोहरे की भाँति कार्य करते हैं, चाहे उसका ज्ञान उन्हें हो या न हो। और ऐसा भाव हमें यह अनुभव कराता है कि हम सब जाने-अनजाने उसी ईश्वर के लिए ही कार्य कर रहें है जिसका लक्ष्य है-ईश्वरीय मानव समाज का निर्माण जिसमें जो हो सत्य हो, शिव हो, सुन्दर हो और इसी ओर विकास की गति हो।

व्यवसाय-अर्थ, विकास, प्रकृति तथा क्षेत्र
व्यवसाय ;ठनेपदमेेद्ध विधिक रूप से मान्य संस्था है जो उपभोक्ताओं को कोई उत्पाद या सेवा प्रदान करने के लक्ष्य से निर्मित की जाती है। व्यवसाय को ”कम्पनी“, “इंटरप्राइज” या “फर्म“ भी कहते हैं। पूँजीवादी अर्थव्यवस्थाओं में व्यापार का प्रमुख स्थान है जो अधिकांशतः निजी हाथों में होते हैं और लाभ कमाने के ध्येय से काम करते हैं तथा साथ-साथ स्वयं व्यापार की भी वृद्धि करते हैं। किन्तु सहकारी संस्थाएँ तथा सरकार द्वारा चलायी जानी वाली संस्थाएं प्रायः लाभ के बजाय अन्य उद्देश्यों की पूर्ति के लिये बनायी गयी होती हैं। हम व्यावसायिक वातावरण में रहते हैं। यह समाज का एक अनिवार्य अंग है। यह व्यावसायिक क्रियाओं के विस्तृत नैटवर्क के माध्यम से विभिन्न प्रकार की वस्तुएं तथा सेवाएं उपलब्ध कराकर हमारी आश्यकताओं की पूर्ति करता है। व्यवसाय के अन्य अर्थ-व्यापार, धंधा, व्यवसाय, कारबार, कारोबार, काम-काज, काम-धंधा, उद्यम हैं।

व्यवसाय विकास
भारत की सांस्कृतिक धरोहर बहुत समृद्ध है। लेकिन शायद यह बहुत कम लोग जानते होंगे कि प्राचीन काल में भारत, अर्थव्यवस्था तथा व्यवसाय के स्तर पर बहुत ही विकसित देश था। यह बात ऐतिहासिक साक्ष्यों, खुदाई से प्राप्त प्रमाणों, साहित्य व लिखित दस्तावेजों से सिद्ध होती हैं। इन सबसे अधिक भारत की असीम धन संपत्ति से आकर्षित होकर विभिन्न विदेशी आक्रमणकारियों द्वारा समय-समय पर हुए आक्रमण भी इस तथ्य को प्रमाणित करते हैं। प्राचीन भारतीय सभ्यता न केवल कृषि आधारित थी, बल्कि इसके आंतरिक व बाह्य व्यापार व वाणिज्य भी काफी उन्नत थे। व्यावसायिक जगत के विभिन्न क्षेत्रों में भारत का असीम योगदान है। उस समय के अन्य देशों में प्रचलित व्यवसायों से तुलना करने पर हम पाते हैं कि भारतीय व्यवसाय अपनी विलक्षणता, गतिशीलता व गुणात्मकता में इन सबसे कहीं आगे था।
शुरू के दिनों में भारतीय अर्थव्यवस्था पूर्णतः कृषि आधरित थी। लोग अपने उपभोग की वस्तुओं का उत्पादन स्वयं करते थे। वस्तुओं को बेचने अथवा विनिमय की आवश्यकता ही नहीं थी। लेकिन विकास के साथ-साथ लोगों की आवश्यकताएँ बढ़ने लगी। जिसके कारण वस्तुओं के उत्पादन में भी वृद्धि होने लगी। लोगों ने दैनिक उपयोग तथा विलासिता संबंधी विभिन्न वस्तुओं के उत्पादन में विशेषज्ञता अर्जित करनी शुरू कर दी और इस तरह से उनके पास अपने उपयोग की अन्य वस्तुओं के उत्पादन के लिए दक्षता और समय का व्यवसाय की प्रकृति तथा क्षेत्र अभाव होना शुरू हो गया। इस प्रकार इनकी कुशलता में वृद्धि होने लगी और ये अपनी आवश्यकता से अधिक वस्तुओं का उत्पादन करने में सक्षम हो गए। अतः अपनी अन्य आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए अपनी अधिक उत्पादित वस्तुओं के विनिमय की प्रणाली विकसित हो गई। यह व्यापार की शुरूआत थी।
आज ज्यादातर लोग यह मानते हैं कि भारत में व्यवसाय व व्यापार के क्षेत्र में इतना विकास स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् ही हुआ है। भारत, आज औद्योगिक उत्पादन में इतना सक्षम हो गया है कि हम सभी वस्तुओं का उत्पादन देशी तकनीक के प्रयोग से कर सकते हैं। लेकिन इससे यह परिणाम नहीं निकाल लेना चाहिए कि भूत काल में भारतीय सभ्यता विकसित या उन्नत नहीं थी। जबकि हमें आज भी भारत की समृद्धि व्यापारिक व वाणिज्यिक धरोहर पर गर्व है।
आप यह जानकर हैरान होंगे कि भारत ने व्यापार व वाणिज्य के क्षेत्र में अपनी यात्रा 5000 वर्ष ई.पू. शुरू कर दी थी। कई ऐतिहासिक साक्ष्यों से यह प्रमाणित होता है कि उस समय भारत में सुनियोजित शहर थे। भारतीय कपड़ों, आभूषणों और इत्र इत्यादि के प्रति पूरे विश्व में आकर्षण था। यह भी प्रमाण मिले हैं कि काफी समय से भारतीय व्यापारियों में व्यवसाय के लिए मुद्रा के प्रयोग का चलन था। व्यापारियों, शिल्पकारों व उत्पादकों के हितों की रक्षा के लिए संघों का प्रचलन था। यह भारत में व्यापार व वाणिज्य के जटिल विकास की ओर संकेत करता है। उस समय भारत के व्यापारियों ने न केवल सुदृढ़ आंतरिक व्यवसायिक रास्तों का जाल बुना था, बल्कि उनके व्यावसायिक संबंध अरब, मध्य व दक्षिण पूर्व एशिया के व्यापारियों से भी थे।
भारत विभिन्न प्रकार की धातु सामग्री के उत्पादन में भी सक्रिय था, जैसे तांबा, पीतल की वस्तुएं, बर्तन, गहने तथा सजावटी सामान आदि। भारतीय व्यापारी विश्व के विभिन्न भागों में अपने उत्पादों का निर्यात करते थे और वहां से उनके उत्पादों का आयात करते थे। यह एक सर्वविदित तथ्य है कि अंग्रेज सर्वप्रथम भारत में व्यापार करने के लिए ही आए थे, जिन्होंने बाद में यहां अपना राज्य स्थापित कर लिया।
भारत ने कई प्रकार से विश्व व्यापार व वाणिज्य में योगदान दिया है। गणना के लिए अंक प्रणाली, जिसका हम आज भी उपयोग करते हैं, भारत में पहले से विकसित थी। संयुक्त परिवार प्रथा तथा व्यवसाय में श्रम विभाजन का विकास भी यहीं हुआ, जो आज तक प्रचलित है। आज आध्ुनिक समय में प्रयोग की जाने वाली उपभोक्ता केंद्रित व्यवसाय तकनीक पुराने समय से भारतीय व्यवसाय का एक अभिन्न अंग रही है।
इसलिए हम कह सकते हैं कि भारत की अपनी समृद्धि व्यावसायिक धरोहर है, जिसने इसकी उन्नति में महत्वपूर्ण योगदान दिया है।

व्यवसाय की प्रकृति तथा क्षेत्र
जब हम अपने आसपास ध्यान देते हैं तो देखते हैं कि ज्यादातर लोग किसी न किसी काम में संलग्न हैं। अध्यापक विद्यालयों में पढ़ाते हैं, किसान खेतों में काम करते हैं, मजदूर कारखानों में काम करते हैं, चालक गाड़ियाँ चलाते हैं, दुकानदार सामान बेचते हैं, चिकित्सक रोगियों को देखते हैं आदि। इस तरह बारहों महीने हर आदमी दिन भर, या कभी-कभी रात भर, किसी न किसी काम में व्यस्त रहता है। लेकिन अब प्रश्न यह उठता है कि हम सब इस तरह किसी न किसी काम में अपने आपको इतना व्यस्त क्यों रखते हैं? इसका सिर्फ एक ही उत्तर है-“अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए“। इस तरह काम करके या तो हम अपने विभिन्न उत्तरदायित्वों की पूर्ति करते हैं या धन अर्जित करते हैं, जिससे कि हम अपनी आवश्यकता की वस्तुएँ तथा सेवाएँ खरीद सकें।

1. मानवीय क्रियाएँ-मनुष्य द्वारा की जाने वाली विभिन्न क्रियाएँ मानवीय क्रियाएँ कहलाती हैं। इन सभी क्रियाओं को हम दो वर्गो में बाँट सकते हैं-“आर्थिक क्रियाएँ“ और ”अनार्थिक क्रियाएँ“।

2. आर्थिक क्रियाएँ-जो क्रियाएँ धन अर्जित करने के उद्देश्य से की जाती हैं, उन्हें आर्थिक क्रियाएँ कहते हैं। उदाहरण के लिए, किसान खेत में हल चलाकर फसल उगाता है और उसे बेचकर धन अर्जित करता है, कारखाने अथवा कार्यालय का कर्मचारी अपने काम के बदले वेतन या मजदूरी प्राप्त करता है, व्यापारी वस्तुओं के क्रय-विक्रय से लाभ अर्जित करता है। ये सभी क्रियाएँ आर्थिक हैं।

3. अनार्थिक क्रियाएँ-जो क्रियाएँ धन अर्जित करने की अपेक्षा, संतुष्टि प्राप्त करने के उद्देश्य से की जाती हैं उन्हें अनार्थिक क्रियाएँ कहते हैं। इस तरह की क्रियाएँ, सामाजिक उत्तरदायित्वों की पूर्ति, मनोरंजन या स्वास्थ्य लाभ के लिए की जाती हैं। लोग पूजा स्थलों पर जाते हैं, बाढ़ अथवा भूकंप राहत कोष में दान देते हैं, स्वास्थ्य लाभ के लिए स्वयं को खेलकूद में व्यस्त रखते हैं, बागवानी करते हैं, रेडियो सुनते हैं, टेलीविजन देखते हैं या इसी तरह की अन्य क्रियाएँ करते हैं। ये कुछ उदाहरण अनार्थिक क्रियाओं के हैं। आमतौर पर आर्थिक क्रियाएँ धन अर्जित करने के उद्देश्यों से की जाती है। साधरणतया लोग इस तरह की क्रियाओं में नियमित रूप में संलग्न होते हैं, जिसे आर्थिक क्रिया कहा जाता है।
अ. व्यवसाय-व्यवसाय का अर्थ है एक ऐसा धंधा, जिसमें धन के बदले वस्तुओं अथवा सेवाओं का उत्पादन, विक्रय और विनिमय होता है। यह नियमित रूप से किया जाता है तथा इसे लाभ कमाने के उद्देश्य से किया जाता है। खनन, उत्पादन, व्यापार, परिवहन, भंडारण, बैंकिंग तथा बीमा आदि व्यावसायिक क्रियाओं के उदाहरण हैं।

ब. पेशा-कोई भी व्यक्ति हर क्षेत्र का विशेषज्ञ नहीं हो सकता। इसलिए हमें दूसरे क्षेत्रों में विशेषज्ञ व्यक्तियों की सेवाओं की आवश्यकता पड़ती है। उदाहरण के लिए, हमें अपने इलाज के लिए डॉक्टर की और कानूनी सलाह के लिए वकील के सहयोग की आवश्यकता पड़ती है। ये सभी व्यक्ति पेशे से जुड़े लोग हैं। इस प्रकार पेशे का अभिप्राय ऐसे धंधे से है, जिसमें उस पेशे के विशेष ज्ञान और प्रशिक्षण की आवश्यकता होती है तथा प्रत्येक पेशे का मुख्य उद्देश्य सेवा प्रदान करना होता है। एक पेशेवर निकाय प्रत्येक पेशे का नियमन करती है। इन पेशेवरों की आचार संहिता होती है, जिसे सम्बन्धित पेशेवर इकाई द्वारा विकसित किया जाता है।

स. नौकरी-नौकरी का अर्थ, एक ऐसे धंधे से है जिसमें व्यक्ति नियमित रूप से दूसरों के लिए कार्य करता है और उसके बदले में वेतन अथवा मजदूरी प्राप्त करता है। सरकारी कर्मचारी, कंपनियों के कार्यकारी, अधिकारी, बैंक कर्मचारी, फैक्टरी मजदूर आदि नौकरी में संलग्न माने जाते हैं। नौकरी में काम के घंटे मजदूरी, वेतन की राशि तथा अन्य सुविधाएँ यदि हैं, के सम्बंध में शर्तें होती है। सामान्यतः नियोक्ता इन शर्तों को तय करता है। कोई भी व्यक्ति जो नौकरी चाहता है, उसे तभी कार्य करना आरम्भ करना चाहिए जबकि वह शर्तों से संतुष्ट हो। कर्मचारी का प्रतिफल निश्चित होता है तथा उसका भुगतान मजदूरी अथवा वेतन के रूप में किया जाता है।



व्यापार

व्यापार

उप भाग-01

उप भाग-02. 

उप भाग-03. पारिश्रमिक 

उप भाग-04. सर्वेक्षण (Survey)

उप भाग-05. विज्ञापन Advertisement)





”भारत“ के विश्वरूप का नाम है-”इण्डिया“

”भारत“ के विश्वरूप का नाम है-”इण्डिया“

 भारत के संविधान के अनुच्छेद-एक में भारत के दो आधिकारिक नाम हैं-(इण्डिया दैट इज भारत) हिन्दी में ”भारत“ और अंगेजी में ”इण्डिया (INDIA)“। इण्डिया नाम की उत्पत्ति सिन्धु नदी के अंग्रेजी नाम ”इण्डस“ से हुई है। भारत नाम, एक प्राचीन हिन्दू सम्राट भरत जो कि मनु के वंशज ऋषभदेव के ज्येष्ठ पुत्र थे तथा जिनकी कथा भागवत पुराण में है, के नाम से लिया गया है। भारत (भा + रत) शब्द का मतलब है-”आन्तरिक प्रकाश में लीन“। एक तीसरा नाम ”हिन्दुस्तान“ भी है जिसका अर्थ है-हिन्द या हिन्दू की भूमि, जो कि प्राचीन काल के ऋषियों द्वारा दिया गया था। प्राचीन काल में यह कम प्रयुक्त होता था तथा कालान्तर में अधिक प्रचलित हुआ। विशेषकर अरब/ईरान में। भारत में यह नाम मुगल काल से अधिक प्रचलित हुआ यद्यपि इसका समकालीन उपयोग कम और प्राय-उत्तरी भारत के लिए होता है। इसके अतिरिक्त भारतवर्श को वैदिक काल से ”आर्यावर्त“, ”जम्बूद्वीप“ और ”अजनाभदेश“ के नाम से भी जाना जाता रहा है। बहुत पहले यह देश सोने की चिड़िया जाना जाता था।
भारत को एक सनातन राष्ट्र माना जाता है क्योंकि यह मानव सभ्यता का पहला राष्ट्र था। भारतीय दर्शन के अनुसार सृष्टि उत्पत्ति के पश्चात् ब्रह्मा के मानसपुत्र स्वायंभुव मनु ने व्यवस्था सम्भाली। इनके दो पुत्र, प्रियव्रत और उत्तानपाद थे। उत्तानपाद भक्त ध्रुव के पिता थे। इन्हीं प्रियव्रत के 10 पुत्र थे। 3 पुत्र बाल्यकाल से ही विरक्त थे। इस कारण प्रियव्रत ने पृथ्वी को सात भागों में विभक्त कर एक-एक भाग प्रत्येक पुत्र को सौंप दिया। इन्हीं में से एक थे-आग्नीध, जिन्हें जम्बूद्वीप का शासन कार्य सौंपा गया। वृद्धावस्था में आग्नीध ने अपने 9 पुत्रों को जम्बूद्वीप के विभिन्न 9 स्थानों का शासन दायित्व सौंपा। इन 9 पु़त्रों में सबसे बड़े थे-नाभि, जिन्हें हिमवर्ष का भू-भाग मिला। इन्होंने हिमवर्ष को स्वयं के नाम से जोड़कर, अजनाभवर्ष प्रचारित किया। यह हिमवर्ष या अजनाभवर्ष ही प्राचीन भारत देश था। राजा नाभि के पुत्र थे-ऋषभ। ऋषभदेव के 100 पुत्रों में भरत ज्येष्ठ एवं सबसे गुणवान थे। ऋषभदेव ने वानप्रस्थ लेने पर उन्हें राजपाट सौंप दिया। पहले भारतवर्ष का नाम ऋषभदेव के पिता नाभिराज के नाम पर अजनाभवर्ष प्रसिद्ध था। भरत के नाम से ही लोग अजनाभखण्ड को भारतवर्ष कहने लगे। विष्णु पुराण, वायु पुराण, लिंग पुराण, श्रीमद्भागवत, महाभारत इत्यादि में भारत का उल्लेख आता है। इससे पता चलता है कि महाभारत काल से पहले ही भारत नाम प्रचलित था। एक अन्य मत के अनुसार दुष्यन्त और शकुन्तला के पुत्र भरत के नाम पर भारत नाम पड़ा परन्तु विभिन्न स्रोतों में वर्णित तथ्यों के आधार पर यह मान्यता गलत साबित होती है। पूरी वैष्णव परम्परा और जैन परम्परा में बार-बार दर्ज है कि समुद्र से लेकर हिमालय तक फैले इस देश का नाम प्रथम तीर्थंकर दार्शनिक राजा भगवान ऋषभदेव के पुत्र भरत के नाम पर भारतवर्ष पड़ा। इसके अतिरिक्त जिस पुराण में भारतवर्ष का विवरण है वहाँ इसे ऋषभ पुत्र भरत के नाम पर ही पड़ा बताया गया है। इस सम्बन्ध में यह ध्यान देना होगा कि 7वें मनु के आगे 2 वंश हो गये थे-पहला इक्ष्वाकु या सूर्यवंश और दूसरा चन्द्रवंश। इसी चन्द्रवंश में दुष्यन्त-शकुन्तला के पुत्र भरत का जन्म हुआ। जिसका स्पष्ट उल्लेख ब्रह्मवैवर्त पुराण में है। इस सन्दर्भ में गीता के विभिन्न श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण, अर्जुन को भारत कह कर सम्बोधित करते हैं। इसके अतिरिक्त ऋषभ पुत्र भरत तथा दुष्यन्त पुत्र भरत में 6 मन्वन्तर का अन्तराल है। अत-यह देश अत्यन्त प्राचीन काल से ही भारत है।
भारत गणराज्य, पौराणिक जम्बूद्वीप, दक्षिण एशिया में स्थित भारतीय उपमहाद्वीप का सबसे बड़ा देश है। भारत भौगोलिक दृष्टि से विश्व का सातवाँ सबसे बड़ा और जनसंख्या की दृष्टि से दूसरा बड़ा देश है। भारत के पश्चिम में पाकिस्तान, उत्तर-पूर्व में चीन-नेपाल-भूटान और पूर्व में बांग्लादेश-म्यांमार देश स्थित है। हिन्द महासागर में इसके दक्षिण-पश्चिम में मालदीव, दक्षिण में श्रीलंका और दक्षिण-पूर्व मंे इण्डोनेशिया है। इसके उत्तर में हिमालय पर्वत है और दक्षिण में हिन्द महासागर है। पूर्व में बंगाल की खाड़ी है तथा पश्चिम में अरब सागर है। भारत में कई बड़ी नदिया हैं। गंगा नदी भारतीय सभ्यता में अत्यन्त पवित्र मानी जाती हैं। अन्य बड़ी नदियाँ नर्मदा, ब्रह्मपुत्र, यमुना, गोदावरी, कावेरी, कृष्णा, चम्बल, सतलज, व्यास हैं। यह विश्व का सबसे बड़ा लोकतन्त्र है। यहाँ 300 से अधिक भाषाएँ बोली जाती हैं। यह विश्व की कुछ प्राचीनतम सभ्यताओं का पालना रहा है जैसे-सिन्धु घाटी सभ्यता और महत्वपूर्ण ऐतिहासिक व्यापार पथो का अभिन्न अंग रहा है। विश्व के चार प्रमुख धर्म-सनातन-हिन्दू, बौद्ध, जैन तथा सिख भारत में जन्में और विकसित हुए।
”भारत“ ने विश्व का सर्वप्रथम, प्राचीन और वर्तमान तक अकाट्य ”क्रिया-कारण“ दर्शन कपिल मुनि के माध्यम से दिया जिसे आज का दृश्य विज्ञान (पदार्थ या भौतिक विज्ञान) ने भी आइन्सटाइन के माध्यम से E=mc2 देकर और दृढ़ता ही प्रदान की है। भारत प्रत्येक वस्तु जिससे मनुष्य जीवन पाता है और ऐसी प्रत्येक वस्तु जिससे मनुष्य का जीवन संकट में पड़ सकता है उसे देवता मानता है। इस प्रकार हमारे भारत में 33 करोड़ देवता पहले से ही हैं और हमारा भारत सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को ही देवता और ईश्वर के रूप में देखता व मानता है और इसकी व्यवस्था व विकास हेतु कर्म करता रहा है। ”भारत“ ने ”शून्य“ व ”दशमलव“ दिया जिसपर विज्ञान की भाषा गणित टीकी हुई है। ”भारत“ का अपनी भाषा में नाम ”भारत“ है तथा विश्वभाषा में नाम ßINDIAÞ है। ßINDIAÞ का विरोध नहीं होना चाहिए बल्कि भारत को विश्वभारत बनाकर नाम ßINDIAÞ को पूर्णता प्रदान करना चाहिए। संकुचन में नहीं बल्कि व्यापकता में विश्वास करना चाहिए। अंश में नहीं बल्कि पूर्णता, समग्रता व सार्वभौमिकता में विश्वास करना चाहिए। समग्र ब्रह्माण्ड निरन्तर फैल रहा है। मानव जाति को भी अपने मस्तिष्क और हृदय को फैला कर विस्तृत करना होगा। तभी विकास, शान्ति, एकता व स्थिरता आयेगी। 
भारत में एक
भारत का राष्ट्रीय ध्वज-तिरंगा         भारत का राष्ट्रीय गान-जन-गण-मन
भारत का राष्ट्रीय गीत-वन्दे मातरम् भारत का राष्ट्रीय चिन्ह-अशोक स्तम्भ
भारत का राष्ट्रीय पंचांग-शक संवत भारत का राष्ट्रीय वाक्य-सत्यमेव जयते
भारत की राष्ट्रीयता-भारतीयता         भारत की राष्ट्र भाषा-हिंदी
भारत की राष्ट्रीय लिपि-देव नागरी भारत का राष्ट्रीय ध्वज गीत-हिंद देश का प्यारा झंडा
भारत का राष्ट्रीय नारा-श्रमेव जयते भारत की राष्ट्रीय विदेशनीति-गुट निरपेक्ष
भारत का राष्ट्रीय पुरस्कार-भारत रत्न भारत का राष्ट्रीय सूचना पत्र-श्वेत पत्र
भारत का राष्ट्रीय वृक्ष-बरगद भारत की राष्ट्रीय मुद्रा-रूपया
भारत की राष्ट्रीय नदी-गंगा         भारत का राष्ट्रीय पक्षी-मोर
भारत का राष्ट्रीय पशु-बाघ         भारत का राष्ट्रीय फूल-कमल
भारत का राष्ट्रीय फल-आम         भारत का राष्ट्रीय खेल-हॉकी
भारत की राष्ट्रीय मिठाई-जलेबी         भारत के राष्ट्रीय मुद्रा चिन्ह ()
भारत के राष्ट्रीय पर्व 26 जनवरी (गणतंत्र दिवस) और 15 अगस्त (स्वतंत्रता दिवस)
भारत की राष्ट्रीय योजना-पंच वर्षीय योजना (पहले योजना आयोग अब नीति आयोग)
भारत का राष्ट्रीय शास्त्र-अभी निर्धारित नहीं।
भारत के विश्वरूप का शास्त्र ही ”विश्वशास्त्र“ है। जिसकी उपयोगिता एक राष्ट्र-एक शास्त्र के रूप है। वर्तमान समय में भारतीय संविधान को ही राष्ट्रीय शास्त्र के रूप में माना जाता है जबकि श्री लव कुश सिंह ”विश्वमानव“ का कहना है-”किसी देश का संविधान, उस देश के स्वाभिमान का शास्त्र तब तक नहीं हो सकता जब तक उस देश की मूल भावना का शिक्षा पाठ्यक्रम उसका अंग न हो। इस प्रकार भारत देश का संविधान भारत देश का शास्त्र नहीं है। संविधान को भारत का शास्त्र बनाने के लिए भारत की मूल भावना के अनुरूप नागरिक निर्माण के शिक्षा पाठ्यक्रम को संविधान के अंग के रूप में षामिल करना होगा। जबकि राष्ट्रीय संविधान और राष्ट्रीय शास्त्र के लिए हमें विश्व के स्तर पर देखना होगा क्योंकि देश तो अनेक हैं राष्ट्र केवल एक विश्व है, यह धरती है, यह पृथ्वी है। भारत को विश्व गुरू बनने का अन्तिम रास्ता यह है कि वह अपने संविधान को वैश्विक स्तर पर विचार कर उसमें विश्व शिक्षा पाठ्यक्रम को शामिल करे। यह कार्य उसी दिशा की ओर एक पहल है, एक मार्ग है और उस उम्मीद का एक हल है। राष्ट्रीयता की परिभाषा व नागरिक कर्तव्य के निर्धारण का मार्ग है। जिस पर विचार करने का मार्ग खुला हुआ है।“ -लव कुश सिंह ”विश्वमानव“



अवतारी संविधान से मिलकर भारतीय संविधान बनायेगा विश्व सरकार का संविधान

अवतारी संविधान से मिलकर भारतीय संविधान बनायेगा विश्व सरकार का संविधान

6 अरब की जनसंख्या से ऊपर की ओर बढ़ता सौरमण्डल का यह पृथ्वी ग्रह जिसकी सम्पूर्ण जनसंख्या का पाँचवां हिस्सा अकेले इस तीन ओर से घिरा सुन्दर, परिवर्तित मौसम युक्त भूमि तपोभूमि भारत में ही है। इतनी विशाल जनसंख्या को एक शासन व्यवस्था में बाँधे रखने की के लिए भारत की शारीरिक स्वतन्त्रता 15 अगस्त, 1947 के बाद जो प्रणाली अपनायी गयी वह है-लोकतन्त्र प्रणाली। चूँकि इतनी बड़ी जनसंख्या का लोकतन्त्र किसी भी देश में नहीं है इसलिए यह विश्व का सबसे बड़ा लोकतन्त्र भी है। अर्थात्् इसे वर्तमान समय का सबसे बड़ा संयुक्त मन या समष्टि मन या विश्व मन भी कह सकते हैं। भारत का यह संसद उस संसद का छोटा रूप है जिसकी चरम विकसित अवस्था लोकतन्त्र आधारित विश्व राष्ट्र के लिए विश्व संसद है जो विश्व नागरिकों के लिए विश्व संविधान और विश्व सरकार को प्रस्तुत कर सके। जिस प्रकार यह विश्व किसी एक व्यष्टि विचार का नहीं हो सकता क्योंकि जिस प्रकार विश्व में अनेकों सम्प्रदाय और व्यष्टि विचार के समर्थक हैं, ठीक उसी प्रकार छोटे रूप में भारत में भी है। अर्थात्् भारत सरकार हो या विश्व सरकार उसका संविधान हमेशा धर्मनिरपेक्ष अर्थात् सर्वधर्मसमभाव अर्थात् धर्म अर्थात् एकत्व आधारित ही हो सकता है। यहाँ धर्म शब्द से वर्तमान अर्थो में किसी विशेष व्यष्टि धर्म (सम्प्रदाय) को नहीं समझना चाहिए। धर्म शब्द को समष्टि धर्म (एकत्व या संयुक्त धर्म) के रूप में लिया गया है। क्योंकि व्यष्टि धर्म तो कई हो सकते हैं और हैं भी परन्तु समष्टि धर्म एक ही होता है, और शाश्वत से एक ही है और एक ही रहेगा।
राजतन्त्र हो या लोकतन्त्र प्रणाली, दोनों में मुख्यत-जो विशेष होती हैं वे हैं-संविधान जिससे सम्पूर्ण शासित क्षेत्र, प्रणाली और पद नियमित होती हैं। कानून जिससे अधिकार, न्याय की प्राप्ति सहित अपराधों पर नियंत्रण किया जाता है। इसके अलावा समय-समय पर पिछले कार्यो और निर्णयों के अनुभव के आधार पर विभिन्न प्रणाली जैसे शिक्षा, आर्थिक, उद्योग, कल्याण, कर, विदेश इत्यादि के सुधार की नीति निर्धारण के लिए प्राविधान जो मंत्री मण्डल या सम्बन्धित मंत्री द्वारा निर्धारित होती है। ये विभिन्न प्रणाली ही समष्टि तन्त्र अर्थात् संयुक्त मन तन्त्र कहलाते हैं। राजतन्त्र प्रणाली में ये तन्त्र पूर्णतया सम्बन्धित देश के साकार राजा द्वारा निर्धारित होता है जबकि लोकतन्त्र में ये तन्त्र पूर्णतया सम्बन्धित देश के निराकार संविधान और सरकार द्वारा निर्धारित होता है। सरकार उसी की होती है जिसका बहुमत होता है। बार-बार सरकार बदलने से प्रणालीयों पर भी प्रभाव पड़ता है और उन प्रणाली का पूर्ण परिणाम प्राप्त हुये बिना भी बदलाव की स्थिति आ जाती है परिणामस्वरूप व्यवस्थाएँ असन्तुलन की स्थिति की ओर बढ़ जाती है।
समाज और राज्य को नियंत्रित करने के लिए प्राच्य आध्यात्मिक भारतीय प्रणाली ”मूल“ आधारित है जबकि पाश्चात्य भौतिकता प्रणाली ”फल“ आधारित ह्रै। यह मूल और फल ही संसार का प्रथम और प्राचीन भारतीय दर्शन के जनक कपिल मुनि के ”क्रिया-कारण“ नियम का कारण और क्रिया है। जो शाश्वत से अकाट्य है और वह सदा ही अकाट्य बना भी रहेगा। क्योंकि वह सार्वजनिक रूप से प्रमाणित शाश्वत सत्य है। प्राच्य भारतीय प्रणाली नियम बनाते समय कारण द्वारा प्रेरित होकर नियंत्रित करने का नियम बनाता है। वर्तमान की अन्तिम आवश्यकता ”ज्ञान ही समस्त दुःखों और समस्याओं का नाशकर्ता है।“, यह कारण केन्द्रित मन द्वारा ही उत्पन्न हुआ है। किसी भी विषय के प्रति उपयोगिता व दुरूपयोगिता की दृष्टि व्यक्ति की नैतिकता पर ही निर्भर करती है। यह नैतिकता अन्त-जगत का विषय है जो ज्ञान द्वारा उत्पन्न होता है, न कि बाह्य जगत के व्यापक कानून से। वर्तमान समय का उपरोक्त वर्णित संविधान, कानून और समष्टि तन्त्र फल आधारित पाश्चात्य प्रणाली केन्द्रित है जिससे नैतिक उत्थान कभी भी सम्भव नहीं है क्योंकि फल आधारित व्यवस्था वह है जिसमें अनैतिक कर्म हो जाने के बाद नियंत्रण के उपाय होते हैं तथा कारण आधारित व्यवस्था वह है जिसमें अनैतिक कर्म होने की सम्भावना को ही कम किया जाता है क्योंकि यह नैतिक उत्थान आधारित होती है। भारत को छोड़कर अन्य देशों को नैतिक उत्थान की आवश्यकता हो या न हो परन्तु भारत को नैतिक उत्थान की आवश्यकता इसलिए है कि वह विश्व के शान्ति, एकता, स्थिरता, विकास एवं रक्षा का नेतृत्वकर्ता की योग्यता रखता है और उसका विश्व के प्रति दायित्व भी है। साथ ही विश्व का सबसे बड़ा लोकतन्त्र उसके द्वारा ही संचालित हो रहा है। और उसे यह सिद्ध भी करना है कि हमारा संविधान और लोकतन्त्र प्रणाली ही विश्व को सही दिशा और सार्वजनिक सत्य को प्रस्तुत कर सकता है। स्वराज का सही अर्थ है-”स्व“ अर्थात् ”मैं“ अर्थात् ”आत्मा“ का अर्थ ”जो सभी में व्याप्त है“ अर्थात् ”सार्वभौम“ अर्थात् ”समष्टि“ का राज है। न कि ”स्व“ अर्थात् ”मैं“ अर्थात् ”शरीर“ अर्थात् ”व्यक्तिगत“ अर्थात् ”व्यष्टि“ का राज। समष्टि स्वराज ही वास्तविक स्वराज है और यही देवताओं का राज है जबकि व्यष्टि स्वराज असत्य स्वराज है और यही असुरों का स्वराज है। यही धर्म राज और अधर्म राज है। इसके अपने-अपने समर्थक सदैव अपनी सर्वोच्चता के लिए आपस में युद्ध करते रहे हैं।
प्राचीन भारतीय प्रणाली में नैतिक उत्थान के लिए जीवन की प्रथम सीढ़ी ब्रह्मचर्य आश्रम थी, जहाँ गुरूकुल द्वारा ज्ञान-अदृश्य विज्ञान-अदृश्य तकनीकी एवं जीवन के लिए आवश्यक विद्याओं का ज्ञान देकर आचार्य का दायित्व समाज में एक नैतिकतायुक्त पूर्ण मानव देना होता था। यह गुरूकुल का कत्र्तव्य और उद्देश्य भी होता था। परिणामस्वरूप प्रत्येक व्यक्ति विषयों की उपयोगिता और दुरूपयोगिता को समझने में सक्षम होता था। शेष सभी तन्त्र उतने विकसित नहीं थे लेकिन वे भी अव्यक्त रूप से सत्य-सिद्धान्त द्वारा ही संचालित होते थे क्योंकि उनके मूल सिद्धान्त का ज्ञान उन्हें ब्रह्मचर्य आश्रम में प्रदान कर दिये जाते थे। आवश्यकता पड़ने पर आचार्य राजा की समस्याओं को भी सुलझाते थे या मागदर्शन देते थे। परन्तु वे कभी भी राजा के पद पर पीठासीन नहीं होते थे। वर्तमान में यह आश्रम प्रथा प्रणाली सम्भव नहीं है लेकिन शिक्षा प्रणाली व पाठ्यक्रम को सत्य-सिद्धान्त युक्त अर्थात् ज्ञान-दृश्य विज्ञान-दृश्य तकनीकी एवं जीवन की आवश्यक विद्याओं का ज्ञान से युक्त कर देने पर उसके उद्देश्य को प्राप्त किया जा सकता है। इसी प्रकार वर्तमान समय के विभिन्न तन्त्रों को भी विवाद मुक्त सत्य-सिद्धान्त युक्त बनाया जा सकता है। इससे लाभ यह होगा कि सरकार स्थिर रहे या अस्थिर, संसदीय प्रणाली हो या राष्ट्रपति प्रणाली, एकतन्त्रीय प्रणाली हो या बहुतन्त्रीय प्रणाली सभी के विकास की मूल आवश्यकता सहित नैतिकतायुक्त पूर्ण मानव का निर्माण शिक्षा के माध्यम से चलता रहेगा। वर्तमान नेतृत्वकर्ता चाहे जैसे भी हों परन्तु आने वाले नेतृत्वकर्ता ऐसे न रहेंगे। वर्तमान नेतृत्वकर्ताओं को ऐसा करना भी चाहिए क्योंकि इसके लिए उन्हें कम से कम भविष्य की स्वस्थता के लिए ऐसा कार्य करने का श्रेय तो प्राप्त हो जायेगा और भारत को उसके स्वराज का वास्तविक अर्थ भी प्राप्त हो जायेगा।
अदृश्य ज्ञान का दृश्य रूप है-कर्म। इस कर्म के दर्शन को ही मूल मानकर सार्वजनिक सत्य-सिद्धान्त के आधार पर समष्टि तन्त्र अर्थात् संयुक्त मन तन्त्र अर्थात् लोकतन्त्र मन के सभी तन्त्रों का विवादमुक्त स्वरूप व्यक्त कर भारतीय संविधान को विश्व संविधान में परिवर्तित करने के लिए विवादमुक्त तन्त्रों पर आधारित भारत का संविधान का निर्माण करना होगा क्योंकि वर्तमान संविधान संयुक्त मन युक्त मानवों द्वारा निर्मित है। जबकि संविधान का सत्यरूप-सत्य से युक्त संयुक्त मन से युक्त मानवों (अवतार) द्वारा निर्मित होता है जो वर्तमान संविधान का अगला और अन्तिम चरण है। अर्थात् वर्तमान संविधान, सत्य संविधान की प्राप्ति की ओर बढ़ता हुआ एक कदम ही है न कि पूर्ण रूपेण गलत संविधान। जिसके सम्बन्ध में स्वामी विवेकानन्द जी ने संकेत देते हुए 100 वर्ष पहले ही कहे थे-”हे मेरे मित्रों, प्रत्येक देश में एक ही नियम है। वह यह कि थोड़े से शक्तिमान मनुष्य जो भी करते हैं वही होता है। बाकी सब लोग भेड़ियाधसान का ही अनुकरण करते हैं। मैंने तुम्हारे पार्लियामेन्ट, सीनेट, वोट, मेजारिटी, बैलट आदि सब देखा है। सभी जगह ऐसा ही है। अब प्रश्न यह है कि भारतवर्ष में कौन शक्तिमान पुरूष है? वे ही जो धर्मवीर हैं। वे ही हमारे समाज को चलाते हैं। वे ही समाज की रीति-नीति में परिवर्तन की आवश्यकता होने पर उसे बदल देते हैं। हम चुपचाप उसे सुनते हैं और उसे मानते हैं। (विवेकानन्द राष्ट्र को आह्वान, रामकृष्ण मिशन, पृष्ठ-55)“। संविधान, नियम, कानून के सम्बन्ध में उन्होंने कहा था कि-”एक बात पर विचार करके देखिये, मनुष्य नियमों को बनाता है या नियम मनुष्य को बनाते हैं? मनुष्य रूपया पैदा करता है या रूपया मनुष्य को पैदा करता है? मनुष्य कीर्ति और नाम पैदा करता है या कीर्ति और नाम मनुष्य को पैदा करता है? मेरे मित्रों पहले मनुष्य बनिये, तब आप देखेंगे कि वे सब बाकी चीजें स्वयं आपका अनुसरण करेंगी। परस्पर के घृणित द्वेषभाव को छोड़िये और सदुदेश्य, सदुपाय, सत्साहस एवं सदीर्घ का अवलम्बन कीजिए। आपने मनुष्य योनि में जन्म लिया है तो अपनी कीर्ति यहीं छोड़ जाइए। (विवेकानन्द राष्ट्र को आह्वान, रामकृष्ण मिशन, पृष्ठ-55)“। 
सत्य से सार्वभौम सत्य-सिद्धान्त तक का मार्ग अवतारों का मार्ग है। सार्वभौम सत्य-सिंद्धान्त की अनुभूति ही अवतरण है। इसके अंश अनुभूति को अंश अवतार तथा पूर्ण अनुभूति को पूर्ण अवतार कहते है। अवतार मानव मात्र के लिए ही कर्म करते हैं न कि किसी विशेष मानव समूह या सम्प्रदाय के लिए। अवतार, धर्म, धर्मनिरपेक्ष व सर्वधर्मसमभाव से युक्त अर्थात् एकात्म से युक्त होते है। इस प्रकार अवतार से उत्पन्न शास्त्र मानव के लिए होते हैं, न कि किसी विशेष मानव समूह के लिए। उत्प्रेरक, शासक और मार्गदर्शक आत्मा सर्वव्यापी है। इसलिए एकात्म का अर्थ संयुक्त आत्मा या सार्वजनिक आत्मा है। जब एकात्म का अर्थ संयुक्त आत्मा समझा जाता है तब वह समाज कहलाता है। जब एकात्म का अर्थ व्यक्तिगत आत्मा समझा जाता है तब व्यक्ति कहलाता है। अवतार, संयुक्त आत्मा का साकार रुप होता है जबकि व्यक्ति व्यक्तिगत आत्मा का साकार रुप होता है। शासन प्रणाली में समाज का समर्थक दैवी प्रवृत्ति तथा शासन व्यवस्था प्रजातन्त्र या लोकतन्त्र या स्वतन्त्र या मानवतन्त्र या समाजतन्त्र या जनतन्त्र या बहुतन्त्र या स्वराज कहलाता है और क्षेत्र गणराज्य कहलाता है। ऐसी व्यवस्था सुराज कहलाती है। शासन प्रणाली में व्यक्ति का समर्थक असुरी प्रवृत्ति तथा शासन व्यवस्था राज्यतन्त्र या राजतन्त्र या एकतन्त्र कहलाता है और क्षेत्र राज्य कहलाता है ऐसी व्यवस्था कुराज कहलाती है। सनातन से ही दैवी और असुरी प्रवृत्तियों अर्थात्् दोनों तन्त्रों के बीच अपने-अपने अधिपत्य के लिए संघर्ष होता रहा है। जब-जब समाज में एकतन्त्रात्मक या राजतन्त्रात्मक अधिपत्य होता है तब-तब मानवता या समाज समर्थक अवतारों के द्वारा गणराज्य की स्थापना की जाती है। या यूँ कहें गणतन्त्र या गणराज्य की स्थापना ही अवतार का मूल उद्देश्य अर्थात्् लक्ष्य होता है शेष सभी साधन अर्थात्् मार्ग ।
अवतारों के प्रत्यक्ष और प्रेरक दो कार्य विधि हैं। प्रत्यक्ष अवतार वे होते हैं जो स्वयं अपनी शक्ति का प्रत्यक्ष प्रयोग कर समाज का सत्यीकरण करते हैं। यह कार्य विधि समाज में उस समय प्रयोग होता है जब अधर्म का नेतृत्व एक या कुछ मानवों पर केन्द्रित होता है। प्रेरक अवतार वे होते हैं जो स्वयं अपनी शक्ति का अप्रत्यक्ष प्रयोग कर समाज का सत्यीकरण जनता एवं नेतृत्वकर्ता के माध्यम से करते हैं। यह कार्य विधि समाज में उस समय प्रयोग होता है जब समाज में अधर्म का नेतृत्व अनेक मानवों और नेतृत्वकर्ताओं पर केन्द्रित होता है।
इन विधियों में से कुल दस अवतारों में से प्रथम सात (मत्स्य, कूर्म, वाराह, नृसिंह, वामन, परशुराम, राम) अवतारों ने समाज का सत्यीकरण प्रत्यक्ष विधि के प्रयोग द्वारा किया था। आठवें अवतार (श्रीकृष्ण) ने दोनों विधियों प्रत्यक्ष ओर प्रेरक का प्रयोग किया था। नवें (भगवान बुद्ध) और अन्तिम दसवें अवतार की कार्य विधि प्रेरक ही है।
जल-प्लावन (जहाँ जल है वहाँ थल और जहाँँ थल है वहाँ जल) के समय मछली से मार्ग दर्शन (मछली के गतीशीलता से सिद्धान्त प्राप्त कर) पाकर मानव की रक्षा करने वाला ईश्वर (सार्वभौम सत्य-सिद्धान्त) का पहला अंशावतार मतस्यावतार के बाद मानव का पुन-विकास प्रारम्भ हुआ। दूसरे कूर्मावतार (कछुए के गुण का सिद्धान्त), तीसरे-वाराह अवतार (सुअर के गुण का सिद्धान्त), चैथे-नृसिंह (सिंह के गुण का सिद्धान्त), तथा पाँचवे वामन अवतार (ब्राह्मण के गुण का सिद्धान्त) तक एक ही साकार शासक और मार्गदर्शक राजा हुआ करते थे और जब-जब वे राज्य समर्थक या उसे बढ़ावा देने वाले इत्यादि असुरी गुणों से युक्त हुए उन्हें दूसरे से पाँचवें अंशावतार ने साकार रुप में कालानुसार भिन्न-भिन्न मार्गों से गुणों का प्रयोग कर गणराज्य का अधिपत्य स्थापित किया। 
ईश्वर (सार्वभौम सत्य-सिद्धान्त) के छठें अंश अवतार परशुराम के समय तक मानव जाति का विकास इतना हो गया था कि अलग-अलग राज्यों के अनेक साकार शासक और मार्ग दर्शक राजा हो गये थे उनमें से जो भी राज्य समर्थक असुरी गुणों से युक्त थे उन सबको परशुराम ने साकार रुप में वध कर डाला। परन्तु बार-बार वध की समस्या का स्थाई हल निकालने के लिए उन्होंने राज्य और गणराज्य की मिश्रित व्यवस्था द्वारा एक व्यवस्था दी जो आगे चलकर ”परशुराम परम्परा“ कहलायी। व्यवस्था निम्न प्रकार थी-
1. प्रकृति में व्याप्त तीन गुण-सत्व, रज और तम के प्रधानता के अनुसार मनुष्य का चार वर्णों में निर्धारण। सत्व गुण प्रधान-ब्राह्मण, रज गुण प्रधान-क्षत्रिय, रज एवं तम गुण प्रधान-वैश्य, तम गुण प्रधान-शूद्र।
8. गणराज्य का शासक राजा होगा जो क्षत्रिय होगा जैसे-ब्रह्माण्डीय गणराज्य में प्रकृति जो रज गुण अर्थात्् कर्म अर्थात्् शक्ति प्रधान है।
9. गणराज्य में राज्य सभा होगी जिसके अनेक सदस्य होंगे जैसे-ब्रह्माण्डीय गणराज्य में प्रकृति के सत्व, रज एवं तम गुणों से युक्त विभिन्न वस्तु हैं।
10. राजा का निर्णय राजसभा का ही निर्णय है जैसे-ब्रह्माण्डीय गणराज्य में प्रकृति का निर्णय वहीं है जो सत्व, रज एवं तम गुणों का सम्मिलित निर्णय होता है। 
7. राजा का चुनाव जनता करे क्योंकि वह अपने गणराज्य में सर्वव्यापी और जनता का सम्मिलित रुप है जैसे-ब्रह्माण्डीय गणराज्य में प्रकृति सर्वव्यापी है और वह सत्व, रज एवं तम गुणों का सम्मिलित रुप है।
8. राजा और उसकी सभा राज्य वादी न हो इसलिए उस पर नियन्त्रण के लिए सत्व गुण प्रधान ब्राह्मण का नियन्त्रण होगा जैसे-ब्रह्माण्डीय गणराज्य में प्रकृति पर नियन्त्रण के लिए सत्व गुण प्रधान आत्मा का नियन्त्रण होता है।
ईश्वर (सार्वभौम सत्य-सिद्धान्त) के सातवें अंश अवतार श्रीराम ने इसी परशुराम परम्परा का ही प्रसार और स्थापना किये थे। 
ईश्वर (सार्वभौम सत्य-सिद्धान्त) के आठवें अवतार श्रीकृष्ण के समय तक स्थिति यह हो गयी थी राजा पर नियन्त्रण के लिए नियुक्त ब्राह्मण भी समाज और धर्म की व्याख्या करने में असमर्थ हो गये। क्योंकि अनेक धर्म साहित्यों, मत-मतान्तर, वर्ण, जातियों में समाज विभाजित होने से व्यक्ति संकीर्ण और दिग्भ्रमित हो गया था और राज्य समर्थकों की संख्या अधिक हो गयी थी परिणामस्वरुप मात्र एक ही रास्ता बचा था-नवमानव सृष्टि। इसके लिए उन्होंने सम्पूर्ण धर्म साहित्यों और मत-मतान्तरों के एकीकरण के लिए आत्मा के सर्वव्यापी व्यक्तिगत प्रमाणित निराकार स्वरुप का उपदेश ”गीता“ व्यक्त किये और गणराज्य का उदाहरण द्वारिका नगर का निर्माण कर किये । उनकी गणराज्य व्यवस्था उनके जीवन काल में ही नष्ट हो गयी परन्तु ”गीता“ आज भी प्रेरक बनीं हुई है।
  ईश्वर (सार्वभौम सत्य-सिद्धान्त) के नवें अवतार भगवान बुद्ध के समय पुन-राज्य एकतन्त्रात्मक होकर हिंसात्मक हो गया परिणामस्वरुप बुद्ध ने अहिंसा के उपदेश के साथ व्यक्तियों को धर्म, बुद्धि और संघ के शरण में जाने की शिक्षा दी। संघ की शिक्षा गणराज्य की शिक्षा थी। धर्म की शिक्षा आत्मा की शिक्षा थी। बुद्धि की शिक्षा प्रबन्ध और संचालन की शिक्षा थी जो प्रजा के माध्यम से प्रेरणा द्वारा गणराज्य के निर्माण की प्रेरणा थी। 
  ईश्वर (सार्वभौम सत्य-सिद्धान्त) के दसवें और अन्तिम अवतार के समय तक राज्य और समाज स्वत-ही प्राकृतिक बल के अधीन कर्म करते-करते सिद्धान्त प्राप्त करते हुए पूर्ण गणराज्य की ओर बढ़ रहा था परिणामस्वरुप गणराज्य का रुप होते हुए भी गणराज्य सिर्फ राज्य था और एकतन्त्रात्मक अर्थात्् व्यक्ति समर्थक तथा समाज समर्थक दोनों की ओर विवशतावश बढ़ रहा था। 
भारत में निम्न्लिखित रुप व्यक्त हो चुका था।
1. ग्राम, विकास खण्ड, नगर, जनपद, प्रदेश और देश स्तर पर गणराज्य और गणसंघ का रुप।
2. सिर्फ ग्राम स्तर पर राजा (ग्राम व नगर पंचायत अध्यक्ष) का चुनाव सीधे जनता द्वारा।
3. गणराज्य को संचालित करने के लिए संचालक का निराकार रुप-संविधान। 
4. गणराज्य के तन्त्रों को संचालित करने के लिए तन्त्र और क्रियाकलाप का निराकार रुप-नियम और कानून।
5. राजा पर नियन्त्रण के लिए ब्राह्मण का साकार रुप-राष्ट्रपति, राज्यपाल, जिलाधिकारी इत्यादि। 
विश्व स्तर पर निम्नलिखित रुप व्यक्त हो चुका था।
1. गणराज्यों के संघ के रुप में संयुक्त राष्ट्र संघ का रुप।
11. संघ के संचालन के लिए संचालक और संचालक का निराकार रुप-संविधान।
12. संघ के तन्त्रों को संचालित करने के लिए तन्त्र और क्रियाकलाप का निराकार रुप-नियम और कानून।
13. संघ पर नियन्त्रण के लिए ब्राह्मण का साकार रुप-पाँच वीटो पावर।
9. प्रस्ताव पर निर्णय के लिए सदस्यों की सभा।
10. नेतृत्व के लिए राजा-महासचिव।
जिस प्रकार आठवें अवतार द्वारा व्यक्त आत्मा के निराकार रुप ”गीता“ के प्रसार के कारण आत्मीय प्राकृतिक बल सक्रिय होकर गणराज्य के रुप को विवशतावश समाज की ओर बढ़ा रहा था उसी प्रकार अन्तिम अवतार द्वारा निम्नलिखित शेष समष्टि कार्य पूर्ण कर प्रस्तुत कर देने मात्र से ही विवशतावश उसके अधिपत्य की स्थापना हो जाना है। 
1. गणराज्य या लोकतन्त्र के सत्य रुप-गणराज्य या लोकतन्त्र के स्वरुप का अन्तर्राष्ट्रीय/ विश्व मानक।
2. राजा और सभा सहित गणराज्य पर नियन्त्रण के लिए साकार ब्राह्मण का निराकार रुप-मन का अन्तर्राष्ट्रीय/ विश्व मानक।
3. गणराज्य के प्रबन्ध का सत्य रुप-प्रबन्ध का अन्तर्राष्ट्रीय/ विश्व मानक।
4. गणराज्य के संचालन के लिए संचालक का निराकार रुप-संविधान के स्वरुप का अन्तर्राष्ट्रीय/ विश्व मानक।
5. साकार ब्राह्मण निर्माण के लिए शिक्षा का स्वरुप-शिक्षा पाठ्यक्रम का अन्तर्राष्ट्रीय/ विश्व मानक।
इस समष्टि कार्य द्वारा ही काल व युग परिवर्तन होगा न कि सिर्फ चिल्लाने से कि ”सतयुग आयेगा“, ”सतयुग आयेगा“ से। यह समष्टि कार्य जिस शरीर से सम्पन्न होगा वही अन्तिम अवतार के रूप में व्यक्त होगा। धर्म में स्थित वह अवतार चाहे जिस सम्प्रदाय (वर्तमान अर्थ में धर्म) का होगा उसका मूल लक्ष्य यही शेष समष्टि कार्य होगा और स्थापना का माध्यम उसके सम्प्रदाय की परम्परा व संस्कृति होगी। 
जिस प्रकार केन्द्र में संविधान संसद है, प्रदेश में संविधान विधान सभा है उसी प्रकार ग्राम नगर में भी संविधान होना चाहिए जिस प्रकार केन्द्र और प्रदेश के न्यायालय और पुलिस व्यवस्था है उसी प्रकार ग्राम नगर के भी होने चाहिए कहने का अर्थ ये है कि जिस प्रकार की व्यवस्थाये केन्द्र और प्रदेश की अपनी हैं उसी प्रकार की व्यवस्था छोटे रुप में ग्राम नगर की भी होनी चाहिए। संघ (राज्य) या महासंघ (केन्द्र) से सम्बन्ध सिर्फ उस गणराज्य से होता है प्रत्येक नागरिक से नहीं संघ या महासंघ का कार्य मात्र अपने गणराज्यों में आपसी समन्वय व सन्तुलन करना होता है उस पर शासन करना नहीं तभी तो सच्चे अर्थों में गणराज्य व्यवस्था या स्वराज-सुराज व्यवस्था कहलायेगी। यहीं राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी की प्रसिद्ध युक्ति ”भारत ग्राम (नगर) गणराज्यों का संघ हो“ और ”राम राज्य“ का सत्य अर्थ है।



राष्ट्रों के संघ-संयुक्त राष्ट्र संघ को सत्य और अन्तिम मार्गदर्शन

राष्ट्रों के संघ-संयुक्त राष्ट्र संघ को सत्य और अन्तिम मार्गदर्शन

प्रकाशित खुशमय तीसरी सहस्त्राब्दि के साथ यह एक सर्वोच्च समाचार है कि नयी सहस्त्राब्दि केवल बीते सहस्त्राब्दियों की तरह एक सहस्त्राब्दि नहीं है। यह प्रकाशित और विश्व के लिए नये अध्याय के प्रारम्भ का सहस्त्राब्र्दि है। केवल वक्तव्यों द्वारा लक्ष्य निर्धारण का नहीं बल्कि स्वर्गीकरण के लिए असिमीत भूमण्डलीय मनुष्य और सर्वोच्च अभिभावक संयुक्त राष्ट्र संघ सहित सभी स्तर के अभिभावक के कर्तव्य के साथ कार्य योजना पर आधारित। क्योंकि दूसरी सहस्त्राब्दि के अन्त तक विश्व की आवश्यकता, जो किसी के द्वारा प्रतिनिधित्व नहीं हुई उसे विवादमुक्त और सफलतापूर्वक प्रस्तुत किया जा चुका है। जबकि विभिन्न विषयों जैसे-विज्ञान, धर्म, आध्यात्म, समाज, राज्य, राजनिति, अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्ध, परिवार, व्यक्ति, विभिन्न संगठनों के क्रियाकलाप, प्राकृतिक, ब्रह्माण्डीय, देश, संयुक्त राष्ट्र संघ इत्यादि की स्थिति और परिणाम सार्वजनिक प्रमाणित दृश्य रुप में थे।
विज्ञान के सर्वोच्च आविष्कार के आधार पर अब यह विवाद मुक्त हो चुका है कि मन केवल व्यक्ति, समाज, और राज्य को ही नहीं प्रभावित करता बल्कि यह प्रकृति और ब्रह्माण्ड को भी प्रभावित करता है। केन्द्रीयकृत और ध्यानीकृत मन विभिन्न शारीरिक सामाजिक और राज्य के असमान्यताओं के उपचार का अन्तिम मार्ग है। स्थायी स्थिरता, विकास, शान्ति, एकता, समर्पण और सुरक्षा के लिए प्रत्येक राज्य के शासन प्रणाली के लिए आवश्यक है कि राज्य अपने उद्देश्य के लिए नागरिकों का निर्माण करें। और यह निर्धारित हो चुका है कि क्रमबद्ध स्वस्थ मानव पीढ़ी के लिए विश्व की सुरक्षा आवश्यक है। इसलिए विश्व मानव के निर्माण की आवश्यकता है, लेकिन ऐसा नहीं है और विभिन्न अनियन्त्रित समस्या जैसे-जनसंख्या, रोग, प्रदूषण, आतंकवाद, भ्रष्टाचार, विकेन्द्रीकृत मानव शक्ति एवं कर्म इत्यादि लगातार बढ़ रहे है। जबकि अन्तरिक्ष और ब्रह्माण्ड के क्षेत्र में मानव का व्यापक विकास अभी शेष है। दूसरी तरफ लाभकारी भूमण्डलीकरण विशेषीकृत मन के निर्माण के कारण विरोध और नासमझी से संघर्ष कर रहा है। और यह असम्भव है कि विभिन्न विषयों के प्रति जागरण समस्याओं का हल उपलब्ध करायेगा।
मानक के विकास के इतिहास में उत्पादों के मानकीकरण के बाद वर्तमान में मानव, प्रक्रिया और पर्यावरण का मानकीकरण तथा स्थापना आई0 एस0 ओ0-9000 एवं आई0 एस0 ओ0-14000 श्रृंखला के द्वारा मानकीकरण के क्षेत्र में बढ़ रहा है। लेकिन इस बढ़ते हुए श्रृंखला में मनुष्य की आवश्यकता (जो मानव और मानवता के लिए आवश्यक है) का आधार ”मानव संसाधन का मानकीकरण“ है क्योंकि मनुष्य सभी (जीव और नीर्जीव) निर्माण और उसका नियन्त्रण कर्ता है। मानव संसाधन के मानकीकरण के बाद सभी विषय आसानी से लक्ष्य अर्थात्् विश्व स्तरीय गुणवत्ता की ओर बढ़ जायेगी क्यांेकि मानव संसाधन के मानक में सभी तन्त्रों के मूल सिद्धान्त का समावेश होगा।
 वर्तमान समय में शब्द-”निर्माण“ भूमण्डलीय रुप से परिचित हो चुका है इसलिए हमें अपना लक्ष्य मनुष्य के निर्माण के लिए निर्धारित करना चाहिए। और दूसरी तरफ विवादमुक्त, दृश्य, प्रकाशित तथा वर्तमान सरकारी प्रक्रिया के अनुसार मानक प्रक्रिया उपलब्ध है। जैसा कि हम सभी जानते हैं कि मानक हमेशा सत्य का सार्वजनिक प्रमाणित विषय होता है न कि विचारों का व्यक्तिगत प्रमाणित विषय। अर्थात्् प्रस्तुत मानक विभिन्न विषयों जैसे-आध्यात्म, विज्ञान, तकनीकी, समाजिक, नीतिक, सैद्धान्तिक, राजनीतिक इत्यादि के व्यापक समर्थन के साथ होगा। ”उपयोग के लिए तैयार“ तथा ”प्रक्रिया के लिए तैयार“ के आधार पर प्रस्तुत मानव के विश्व स्तरीय निर्माण विधि को प्राप्त करने के लिए मानव निर्माण तकनीकी WCM-TLM-SHYAM.C (World Class Manufactuing–Total Life Maintenance-Satya, Heart, Yoga, Ashram, Meditation.Conceousness)प्रणाली आविष्कृत है जिसमें सम्पूर्ण तन्त्र सहंभागिता (Total System Involvement-TSI) है औरं विश्वमानक शून्य-मन की गुणवत्ता का विश्वमानक श्रृंखला (WS-0 : World Standard of Mind Series) समाहित है। जो और कुछ नहीं, यह विश्व मानव निर्माण प्रक्रिया की तकनीकी और मानव संसाधन की गुणवत्ता का विश्व मानक है। जैसे-औद्योगिक क्षेत्र में इन्स्टीच्यूट आॅफ प्लान्ट मेन्टीनेन्स, जापान द्वारा उत्पादों के विश्वस्तरीय निर्माण विधि को प्राप्त करने के लिए उत्पाद निर्माण तकनीकी डब्ल्यू0 सी0 एम0-टी0 पी0 एम0-5 एस (WCM-TPM-5S (World Class Manufacturing-Total Productive Maintenance-Siri ¼N¡VkbZ½] Seton (सुव्यवस्थित), Sesso (स्वच्छता), Siketsu (अच्छास्तर), Shituke (अनुशासन) प्रणाली संचालित है। जिसमें सम्पूर्ण कर्मचारी सहभागिता (Total Employees Involvement) है।) का प्रयोग उद्योगों में विश्व स्तरीय निर्माण प्रक्रिया के लिए होता है। और आई.एस.ओ.-9000 (ISO-9000) तथा आई.एस.ओ.-14000 (ISO-14000) है।
युग के अनुसार सत्यीकरण का मार्ग उपलब्ध कराना ईश्वर का कर्तव्य है आश्रितों पर सत्यीकरण का मार्ग प्रभावित करना अभिभावक का कर्तव्य हैै। और सत्यीकरण के मार्ग के अनुसार जीना आश्रितों का कर्तव्य है जैसा कि हम सभी जानते है कि अभिभावक, आश्रितों के समझने और समर्थन की प्रतिक्षा नहीं करते। अभिभावक यदि किसी विषय को आवश्यक समझते हैं तब केवल शक्ति और शीघ्रता से प्रभावी बनाना अन्तिम मार्ग होता है। विश्व के बच्चों के लिए यह अधिकार है कि पूर्ण ज्ञान के द्वारा पूर्ण मानव अर्थात्् विश्वमानव के रुप में बनना। हम सभी विश्व के नागरिक सभी स्तर के अभिभावक जैसे-महासचिव संयुक्त राष्ट्र संघ, राष्ट्रों के राष्ट्रपति-प्रधानमंत्री, धर्म, समाज, राजनीति, उद्योग, शिक्षा, प्रबन्ध, पत्रकारिता इत्यादि द्वारा अन्य समानान्तर आवश्यक लक्ष्य के साथ इसे जीवन का मुख्य और मूल लक्ष्य निर्धारित कर प्रभावी बनाने की आशा करते हैं। क्योंकि लक्ष्य निर्धारण वक्तव्य का सूर्य नये सहस्त्राब्दि के साथ डूब चुका है। और कार्य योजना का सूर्य उग चुका है। इसलिए धरती को स्वर्ग बनाने का अन्तिम मार्ग सिर्फ कर्तव्य है। और रहने वाले सिर्फ सत्य-सिद्धान्त से युक्त संयुक्तमन आधारित मानव है, न कि संयुक्तमन या व्यक्तिगतमन के युक्तमानव।
आविष्कार विषय-”व्यक्तिगत मन और संयुक्तमन का विश्व मानक और पूर्णमानव निर्माण की तकनीकी है जिसे धर्म क्षेत्र से कर्मवेद-प्रथम, अन्तिम तथा पंचमवेदीय श्रृंखला तथा शासन क्षेत्र से WS-0 : मन की गुणवत्ता का विश्व मानक श्रृंखला तथा WCM-TLM-SHYAM.C तकनीकी कहते है। सम्पूर्ण आविष्कार सार्वभौम सत्य-सिद्वान्त अर्थात् सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में व्याप्त अटलनीय, अपरिवर्तनीय, शाश्वत व सनातन नियम पर आधारित है, न कि मानवीय विचार या मत पर आधारित।“
सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में व्याप्त एक ही सत्य-सिद्धान्त द्वारा व्यक्तिगत व संयुक्त मन को एकमुखी कर सर्वोच्च, मूल और अन्तिम स्तर पर स्थापित करने के लिए शून्य पर अन्तिम आविष्कार WS-0  श्रृंखला की निम्नलिखित पाँच शाखाएँ है। 
01. डब्ल्यू.एस.(WS)-0  -विचार एवम् साहित्य का विश्वमानक
02. डब्ल्यू.एस.(WS)-00   -विषय एवम् विशेषज्ञों की परिभाषा का विश्वमानक
03. डब्ल्यू.एस.(WS)-000  -ब्रह्माण्ड (सूक्ष्म एवम् स्थूल) के प्रबन्ध और क्रियाकलाप का विश्वमानक
04. डब्ल्यू.एस.(WS)-0000  -मानव (सूक्ष्म तथा स्थूल) के प्रबन्ध और क्रियाकलाप का विश्वमानक
05. डब्ल्यू.एस.(WS)-00000  -उपासना और उपासना स्थल का विश्वमानक
संयुक्त राष्ट्र संघ सीधे इस मानक श्रृंखला को स्थापना के लिए अपने सदस्य देशो के महासभा के समक्ष प्रस्तुत कर अन्तर्राष्ट्रीय मानकीकरण संगठन व विश्व व्यापार संगठन के माध्यम से सभी देशो में स्थापित करने के लिए उसी प्रकार बाध्य कर सकता है, जिस प्रकार ISO-9000 व ISO-14000 श्रृंखला का विश्वव्यापी स्थापना हो रहा है।

120 वर्ष पहले स्वामी विवेकानन्द का कथन जिसके 50 वर्ष बाद संयुक्त राष्ट्र संघ का गठन हुआ-
“समग्र संसार का अखण्डत्व, जिसकें ग्रहण करने के लिए संसार प्रतीक्षा कर रहा है, हमारे उपनिषदों का दूसरा भाव है। प्राचीन काल के हदबन्दी और पार्थक्य इस समय तेजी से कम होते जा रहे हैं। हमारे उपनिषदों ने ठीक ही कहा है-”अज्ञान ही सर्व प्रकार के दुःखो का कारण है।“ सामाजिक अथवा आध्यात्मिक जीवन की हो जिस अवस्था में देखो, यह बिल्कुल सही उतरता है। अज्ञान से ही हम परस्पर घृणा करते है, अज्ञान से ही एक एक दूसरे को जानते नहीं और इसलिए प्यार नहीं करते। जब हम एक दूसरे को जान लेंगे, प्रेम का उदय हेागा। प्रेम का उदय निश्चित है क्योंकि क्या हम सब एक नहीं हैं? इसलिए हम देखते है कि चेष्टा न करने पर भी हम सब का एकत्व भाव स्वभाव से ही आ जाता है। यहाँ तक की राजनीति और समाजनीति के क्षेत्रो में भी जो समस्यायें बीस वर्ष पहले केवल राष्ट्रीय थी, इस समय उसकी मीमांसा केवल राष्ट्रीयता के आधार पर और विशाल आकार धारण कर रही हैं। केवल अन्तर्राष्ट्रीय संगठन, अन्तर्राष्ट्रीय विधान ये ही आजकल के मूलतन्त्र स्वरूप है।” -स्वामी विवेकानन्द

वर्तमान में लव कुश सिंह “विश्वमानव” का कथन-
“शासन और शासक, विकासात्मक हो या विनाशात्मक। प्रणाली कोई भी हो-एकतन्त्रात्मक अर्थात् राजतन्त्र या बहुतन्त्रात्मक लोकतन्त्र। वह तब तक अब स्थायी और अपने उद्देश्य में सफल नहीं हो सकता जब तक कि वह अपने उद्देश्य की प्राप्ति के अनुरूप जनता का निर्माण और उत्पादन न करें। हमारा उद्देश्य है-”अपने सीमित कर्म सहित असीम मन युक्त मानव का निर्माण और उत्पादन“ , जिसके लिए हमारे सम्मुख दो मार्ग है-एक-गणराज्यों का संघ भारत, दूसरा-राष्ट्रों का संघ संयुक्त राष्ट्र संघ। दोनों एक ही है। बस कर्म क्षेत्र की सीमा में अन्तर है। दोनों का उद्देश्य एक है बस कार्य अलग है। भारत का अपने जनता के प्रति कर्तव्य और दायित्व तथा विश्व के लिए संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा ऐसी विवादमुक्त प्रबन्ध नीति उपलब्ध कराना है जिससे दोनों अपने उद्देश्य को निर्वाध गति से प्राप्त करें। जबकि संयुक्त राष्ट्र संघ को सिर्फ अपने अधीन कार्य सम्पादन ही करना मात्र है। उसे प्रबन्ध नीति का आविष्कार नहीं करना है। वह कर भी नहीं सकता और न ही किया क्योंकि वह पाश्चात्य के प्रभाव मण्डल में है। पाश्चात्य के पास सत्य के आविष्कार का इतिहास नहीं है। जबकि प्राच्य के पास सनातन से सत्य के आविष्कार का व्यापक संक्रमणीय, संग्रहणीय और गुणात्मक रूप से अनुभव संग्रहीत है। अब भारत व्यक्तिगत प्रमाणित भाव आधारित सत्य नहीं कहेगा क्योकि अब सार्वजनिक प्रमाणित कर्म, व्यक्त और मानक आधारित समय आ गया है। जो विश्व व्यापी रूप से पदार्थ विज्ञान और आध्यात्म विज्ञान सहित प्राच्य और पाश्चात्य संस्कृतियों में सार्वजनिक रूप से प्रमाणित होगा। और उस विवादमुक्त प्रबन्ध नीति से जब मूल अधिकार शिक्षा द्वारा मनुष्य का निर्माण और उत्पादन होगा। तब भारत तथा संयुक्त राष्ट्र संघ को उसका उद्देश्य प्राप्त होगा अन्यथा वह रोको-रोको, निरोध-निरोध वाले कानून में ही अधिकाधिक समय व धन खर्च करता रहेगा। जिसकी जटिलता बढ़ते ही जाना है। भारत और संयुक्त राष्ट्र संघ दोनों में से किसी के प्रारम्भ से मनुष्य का ”विश्वमानव“ के रूप में निर्माण और उत्पादन प्रारम्भ हो जायेगा। विश्व के सभी देशों के बीच संस्कृतियों का मिश्रण तेजी से हो रहा है ऐसी स्थिति में उसे मानव संसाधन जो कि समस्त निर्माण और उत्पादन का मूल है, का भी विभिन्न विषयों की भांति मानकीकरण तथा विश्व प्रबन्ध के लिए प्रबन्ध का मानकीकारण करना ही होगा। सम्पूर्ण विश्व में निर्माण से उत्पन्न उत्पाद की गुणवत्ता का मानक, संस्था की गुणवत्ता ISO-9000 फिर प्रकृति के कत्र्तव्य व दायित्व को स्वयं का कर्तव्य व दायित्व मानकर पर्यावरण की गुणवत्ता का मानक ISO-14000 स्वीकारा जा चुका है तो फिर गुणवत्ता से युक्त प्रकृति की भाँति स्वयं मनुष्य अपना गुणवत्ता का मानकीकारण कब करेगा? वह मार्ग जो अभी तक उपलब्ध नहीं था वह विश्वमानक-शून्य (WS-0)-मन की गुणवत्ता का विश्व मानक श्रृंखला के रूप में उपलब्ध हो चुका है जो मेरा कत्र्तव्य था और अब अन्य मानवों का अधिकार है। संसाधन, ज्ञान-विज्ञान, तकनीकी से युक्त पृथ्वी कमल की भाँति खिलने को उत्सुक है, मानवता का रचनात्मक सहयोग लेकर भारत तथा संयुक्त राष्ट्र संघ, उसके खिलने में सहयोग करें जो उसका कर्तव्य और दायित्व है। जिस पर मनुष्य ईश्वर रूप में विराजमान हो सके।”-लव कुश सिंह “विश्वमानव”



गणराज्यों के संघ-भारत को सत्य और अन्तिम मार्गदर्शन

गणराज्यों के संघ-भारत को सत्य और अन्तिम मार्गदर्शन

गणराज्यों का संघ भारत अपनी स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद से अब तक वाह्य जगत का विकास करते-करते इस मोड़ तक आ चुका है जहाँ से आगे की ओर जाने के लिए उसे अन्त-जगत का विकास करना होगा। इस विकास के न होने के कारण ही भारत के पास विवाद तो है परन्तु हल नहीं। विरोध तो है परन्तु हल के साथ विरोध नहीं। विरोध है पर उचित कारण के साथ विरोध नहीं। फलस्वरुप समाज (जनता) के अधिपत्य वाला गणराज्य, राज्य (व्यक्ति) समर्थित गणराज्य की ओर बढ़ गया है। वहीं दूसरी तरफ विवशता वश गणराज्य के सत्य रुप की ओर भी बढ़ रहा है। अन्त-जगत का विकास न होने के कारण यह स्पष्ट भी कर पाना मुश्किल हो गया है कि कौन से मुद्दे गणराज्य के हैं और कौन से मुद्दे सम्प्रदाय के हैं। विवादित मुद्दों की एक लम्बी श्रंृखला है जिनमें से कुछ को तो सिद्धान्त द्वारा हल किया जा सकता है परन्तु कुछ तो बिना नैतिक उत्थान के सम्भव ही नहीं हैं। क्योंकि हाथी पर अधिकृत हाथ में अंकुश युक्त महावत के नैतिकता पर ही यह निर्भर करता है कि वह अंकुश का प्रयोग हाथी को संचालित करने के लिए करे या हाथी को मौत देने के लिए करे। यह सिद्धान्त द्वारा नियन्त्रित नहीं हो सकता। विवादित मुद्दे जिस पर भारत क्रियाशील हो चुका है उनमें से प्रमुख हैं-संविधान-समीक्षा, शिक्षा-पाठ्यक्रम, धर्मस्थल विधेयक, प्रादेशिक स्वायत्तता, राज्यों का पुनर्गठन, महिला आरक्षण इत्यादि और भविष्य में आने वाले समय सीमा के अन्दर युवाओं को पैतृक सम्पत्ति का अधिकार। जो मुद्दे उठ चुके हैं उन्हें दबाया नहीं जा सकता क्योंकि वहाँ तक मनस्तर बढ़कर बीज रुप में व्यक्त होे गया है। 
भारत को इस प्रस्तुत सार्वभौम सत्य-सिद्धान्त से मार्गदर्शन प्राप्त कर अपने तथा संयुक्त राष्ट्र संघ के पुनर्गठन के लिए क्रियान्वयन करना चाहिए। यह सार्वभौम सत्य-सिद्धान्त विरोध नहीं बल्कि वह जो कुछ समाज में अब तक के महामानवों द्वारा उपलब्ध कराया गया था जिसको स्वीकारने, मानने और समझने वाले हैं, उन सबको स्वीकार के साथ सत्य का प्रस्तुतीकरण है। जो एक तरह से स्वीकार और हल के साथ विरोध ही है। जिसका विकल्प किसी राजनीतिक दल, अन्य संगठन या मोर्चा के पास नहीं हो सकता क्योंकि सत्य का विकल्प सिर्फ सत्य होता है और वह एक ही होता है। भारतीय संविधान के अनुसार बिना संसद के विश्वास के कोई भी संवैधानिक परिवर्तन सम्भव नहीं है इसलिए इससे पहले की यह किसी दल का राजनीतिक मुद्दा बने, सामूहिक रुप से सभी राजनीतिक दल इसे संसद में प्रस्तुत करें और व्यापक चिंतन करके क्रियान्वयन के लिए मंजूरी दे। क्योंकि इसके समर्थन के बिना कोई भी व्यक्ति, दल, संगठन स्वयं अपने आप को भारतीय या भारत का शुभचिंतक भी नहीं कह सकता। भारत सत्य आधारित है और उस सत्य का देश-काल मुक्त सर्वव्यापी सार्वजनिक प्रमाणित स्वरुप व्यक्त हो आपके समक्ष प्रस्तुत है। सोचने का विषय है कि यदि उस राज्य का नाम हिन्दू हो या एक व्यक्ति से व्यक्त हुआ हो तो क्या उस सत्य को सत्य नहीं कहेंगे? यदि किसी मिठाई का नाम जहर रख दिया जाये तो क्या उस मिठाई को खाना छोड़ा जा सकता है? कदापि नहीं इससे तो स्वयं की ही हानि होगी। सत्य को स्वीकारने और आत्मसात करने पर एक तरह से हिन्दू और उस व्यक्ति का ही स्वीकार और आत्मसात करना हुआ। परन्तु नाम नहीं गुण देखें यहीं विकास का मार्ग है। 
यदि सामूहिक रुप से संसद में इसे प्रस्तुत नहीं किया गया और यदि एक किसी दल का राजनीतिक मुद्दा भी न बना तो भी चिन्ता का विषय नहीं कम से कम यह जानकर खुशी होगी की भारत का शुभचिन्तक सिर्फ इस सिद्धान्त का आविष्कारकर्ता और उसका समूह ही है। नवमानव सृष्टिकर्ता ईश्वर (सार्वभौम सत्य-सिद्धान्त) के आठवें अवतार भगवान श्रीकृष्ण द्वारा प्रारम्भ किया गया कार्य और प्रथम चरण के लिए व्यक्त व्यक्तिगत प्रमाणित आत्मा के निराकार स्वरुप का साहित्य ”गीता“ के प्रचार-प्रसार का परिणाम ही है जिससे आत्मीय प्राकृतिक बल सक्रिय होकर विवशता वश ग्राम, क्षेत्र, नगर जनपद स्तर पर पंचायत तथा प्रदेश और देश स्तर पर गणराज्य का अविकसित रुप व्यक्त हुआ है। क्योंकि ज्ञान बढ़ने से सिद्धान्त की प्राप्ति होती है और अब प्रारम्भ किया गया कार्य और अन्तिम चरण के लिए व्यक्त सार्वजनिक प्रमाणित आत्मा के निराकार स्वरुप का साहित्य-”कर्मवेद-प्रथम, अन्तिम तथा पंचमवेदीय श्रंृखला“ अर्थात्् ”विश्वमानक-शून्य-मन की गुणवत्ता का विश्व मानक श्रंृखला“ के प्रस्तुतीकरण के प्रभाव से विवशतावश व्यक्ति से विश्व तक को गणराज्य के सत्य रुप को प्राप्त करने के लिए विवश कर देगा। तुम कर्म करते-करते भारत का नाश करते हुए वहीं सिद्धान्त प्राप्त कर मुझ तक ही आओगे जो मैं पहले ही तुम्हारे सामने व्यक्त कर चुका हूँ। तुम वर्तमान भारत को भारत न बनने दो और मैं भविष्य का भारत सम्पूर्ण विश्व को भारत बनाने का यन्त्र-आध्यात्मिक-न्यूट्रान बम व्यापकता से छोड़ दिया हूँ। भारत का नाश करने वाले पहले तुम आराम से थे मैं परेशान था, अब तुम परेशान रहोगे मैं आराम करुँगा। तब ही मेरी जीत निश्चित है। ये हैं-मानवीय सीमा से परे की बुद्धि, चेतना और आत्मशक्ति! व्यक्तिगत प्रमाणित प्रथम समन्वयाचार्य योगेश्वर श्रीकृष्ण की व्यक्तिगत शिक्षा व्यक्ति के लिए थी-”समभाव (अद्वैत) में स्थित हो कर्म करो और परिणाम की इच्छा मुझ (आत्मा) पर छोड़ दो।“ और अब सार्वजनिक प्रमाणित अन्तिम समन्वयाचार्य भोगेश्वर श्री लव कुश सिंह विश्वमानव की सार्वजनिक शिक्षा व्यक्ति तथा संयुक्त व्यक्ति के लिए है-”समभाव (अद्वैत) में स्थित तथा परिणाम के ज्ञान से युक्त हो कर्म करो और परिणाम की इच्छा मुझ (आत्मा) पर छोड़ दो“ द्वारा प्रत्येक स्तर के व्यक्ति और संयुक्त व्यक्ति के लिए परिणाम का ज्ञान उसके समक्ष है।
ईश्वर के आठवें प्रत्यक्ष एवम प्रेरक व्यक्तिगत प्रमाणित पूर्णावतार श्री कृष्ण तथा विष्णु (एकात्म वाणी, एकात्म ज्ञान, एकात्म कर्म व एकात्म प्रेम) के पूर्णावतार के रुप में व्यक्त श्री कृष्ण का मुख्य गुण आदर्श सामाजिक व्यक्ति का चरित्र तथा अवतारी गुणों में साकार शरीर आधारित ”परशुराम परम्परा“ की असफलता को देखते हुये उसका नाश करके निराकार नियम आधारित ”परशुराम परम्परा“ को प्रारम्भ करना था। जिसके लिऐ वे विश्व मानक ज्ञान व व्यक्तिगत प्रमाणित विश्वशास्त्र-गीतोपनिषद् व्यक्त किये। 
श्रीकृष्ण का नाम बेचने वाले सिर्फ भक्ति में ही लीन हैं। उनके मूल कार्य विश्व मानक ज्ञान तथा निराकार नियम आधारित ”परशुराम परम्परा“ का नाम ही नहीं लेते जबकि भारत तथा विश्वस्तर पर गणराज्य का सवरुप निम्नलिखित रुप में व्यक्त हो चुका है। 
भारत में निम्न्लिखित रुप व्यक्त हो चुका था।
1. ग्राम, विकास खण्ड, नगर, जनपद, प्रदेश और देश स्तर पर गणराज्य और गणसंघ का रुप।
2. सिर्फ ग्राम और नगर स्तर पर राजा (ग्राम व नगर पंचायत अध्यक्ष) का चुनाव सीधे जनता द्वारा।
3. गणराज्य को संचालित करने के लिए संचालक का निराकार रुप-संविधान। 
4. गणराज्य के तन्त्रों को संचालित करने के लिए तन्त्र और क्रियाकलाप का निराकार रुप-नियम और कानून।
5. राजा पर नियन्त्रण के लिए ब्राह्मण का साकार रुप-राष्ट्रपति, राज्यपाल, जिलाधिकारी इत्यादि। 
विश्व स्तर पर निम्नलिखित रुप व्यक्त हो चुका था।
1. गणराज्यों के संघ के रुप में संयुक्त राष्ट्र संघ का रुप।
2. संघ के संचालन के लिए संचालक और संचालक का निराकार रुप-संविधान।
3. संघ के तन्त्रों को संचालित करने के लिए तन्त्र और क्रियाकलाप का निराकार रूप-नियम और कानून।
4. संघ पर नियन्त्रण के लिए ब्राह्मण का साकार रूप-पाँच वीटो पावर।
5. प्रस्ताव पर निर्णय के लिए सदस्यों की सभा।
6. नेतृत्व के लिए राजा-महासचिव।
श्रीकृष्ण की दिशा से शेष कार्य मानक कर्म ज्ञान का प्रस्तुतीकरण द्वारा नियम आधारित ”परशुराम परम्परा“ को पूर्णता प्रदान करना है। जिसके लिए निम्नलिखित की आवश्यकता है-
1. गणराज्य या लोकतन्त्र के सत्य रुप-गणराज्य या लोकतन्त्र के स्वरूप का विश्व मानक।
2. राजा और सभा सहित गणराज्य पर नियन्त्रण के लिए साकार ब्राह्मण का निराकार रूप-मन का विश्व मानक।
3. गणराज्य के प्रबन्ध का सत्य रूप-प्रबन्ध का विश्व मानक।
4. गणराज्य के संचालन के लिए संचालक का निराकार रूप-संविधान के स्वरूप का विश्व मानक।
5. साकार ब्राह्मण निर्माण के लिए शिक्षा का स्वरूप-शिक्षा पाठ्यक्रम का विश्व मानक।
आविष्कार विषय-”व्यक्तिगत मन और संयुक्तमन का विश्व मानक और पूर्णमानव निर्माण की तकनीकी है जिसे धर्म क्षेत्र से कर्मवेद-प्रथम, अन्तिम तथा पंचमवेदीय श्रृंखला तथा शासन क्षेत्र से WS-0 : मन की गुणवत्ता का विश्व मानक श्रृंखला तथा WCM-TLM-SHYAM.C तकनीकी कहते है। सम्पूर्ण आविष्कार सार्वभौम सत्य-सिद्वान्त अर्थात् सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में व्याप्त अटलनीय, अपरिवर्तनीय, शाश्वत व सनातन नियम पर आधारित है, न कि मानवीय विचार या मत पर आधारित।“
सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में व्याप्त एक ही सत्य-सिद्धान्त द्वारा व्यक्तिगत व संयुक्त मन को एकमुखी कर सर्वोच्च, मूल और अन्तिम स्तर पर स्थापित करने के लिए शून्य पर अन्तिम आविष्कार WS-0 : श्रृंखला की निम्नलिखित पाँच शाखाएँ है। 
01. डब्ल्यू.एस.(WS)-0 -विचार एवम् साहित्य का विश्वमानक
02. डब्ल्यू.एस.(WS)-00 -विषय एवम् विशेषज्ञों की परिभाषा का विश्वमानक
03. डब्ल्यू.एस.(WS)-000 -ब्रह्माण्ड (सूक्ष्म एवम् स्थूल) के प्रबन्ध और क्रियाकलाप का विश्वमानक
04. डब्ल्यू.एस.(WS)-0000 -मानव (सूक्ष्म तथा स्थूल) के प्रबन्ध और क्रियाकलाप का विश्वमानक
05. डब्ल्यू.एस.(WS)-00000 -उपासना और उपासना स्थल का विश्वमानक
भारत सरकार इस श्रृंखला को स्थापित करने के लिए संसद में प्रस्ताव प्रस्तुत कर अपने संस्थान भारतीय मानक ब्यूरो ¼BIS½ के माध्यम से समकक्ष श्रृंखला स्थापित कर विश्वव्यापी स्थापना के लिए अन्तर्राष्ट्रीय मानकीकरण संगठन ¼ISO½ के समक्ष प्रस्तुत कर सकता है। साथ ही संयुक्त राष्ट्र संघ ¼UNO½ में भी प्रस्तुत कर संयुक्त राष्ट्र संघ के पुर्नगठन व पूर्ण लोकतंत्र की प्राप्ति के लिए मार्ग दिखा सकता है।