Wednesday, April 15, 2020

वसुधैव कुटुम्बकम्

वसुधैव कुटुम्बकम्



आर्य 
आर्य धर्म, प्राचीन आर्यो का धर्म और श्रेष्ठ धर्म दोनों समझे जाते हैं। प्राचीन आर्यों के धर्म में प्रथमतः प्राकृतिक देवमण्डल की कल्पना है जो भारत, ईरान, यूनान, रोम, जर्मनी आदि सभी देशों में पाई जाती है। इसमें आकाश और पृथ्वी के बीच में अनेक देवताओं की सृष्टि हुई है। भारतीय आर्यो का मूल धर्म ऋग्वेद में अभिव्यक्त है। ईरानीयों का अवेस्ता में, यूनानीयों का उलिसीज और ईलियाद में। देवमण्डल के साथ आर्यो में कर्मकाण्ड का विकास हुआ जिसमें मंत्र, यज्ञ, श्राद्ध, अतिथि सत्कार आदि मुख्यतः सम्मिलित थे। आर्य आध्यात्मिक दर्शन (ब्रह्म, आत्मा, विश्व, मोक्ष आदि) और आर्य नीति का विकास भी समानान्तर हुआ। शुद्ध नैतिक आधार पर अवलंबित परम्परा विरोधी सम्प्रदायों-बौद्ध, जैन आदि ने भी अपने धर्म को आर्य धर्म अथवा सद्धर्म कहाँ सामाजिक अर्थ में “आर्य“ का प्रयोग पहले “सम्पूर्ण मानव“ के अर्थ में होता था। कभी-कभी इसका प्रयोग सामान्य जनता के लिए भी होता था। फिर अभिजात और श्रमिक वर्ग में अन्तर दिखाने के लिए आर्य वर्ण और शूद्र वर्ण का प्रयोग होने लगा। फिर आर्यो ने अपनी सामाजिक व्यवस्था का आधार वर्ण को बनाया और समाज चार वर्णो में वृत्ति और श्रम के आधार पर विभक्त हुआ। ऋक्संहिता में चारों वर्णो की उत्पत्ति और कार्य का उल्लेख इस प्रकार है-ब्राह्मणोस्य मुखमासीद् बाहू राजन्यः कृतः। ऊरू तदस्य यद्वैश्यः पदभ्यां शूद्रोजायत।। (10. 90. 22) अर्थात् इस विराट पुरूष के मुँह से ब्राह्मण, बाहु से क्षत्रिय, ऊरू से वैश्य और पद से शूद्र उत्पन्न हुआ।
आजकल की भाषा में ये वर्ग बौद्धिक, प्रशासकीय, व्यावसायिक तथा श्रमिक थे। मूल में इनमें तरलता थी। एक ही परिवार में कई वर्ण के लोग रहते और परस्पर विवाहादि सम्बन्ध और भोजन-पान आदि होते थे। क्रमशः ये वर्ग परस्पर वर्जनशील होते गये। ये सामाजिक विभाजन आर्य परिवार की प्रायः सभी शाखाओं में पाए जाते हैं। यद्यपि इनके नामों और सामाजिक स्थिति में देशगत भेद मिलते हैं। प्रारम्भिक आर्य परिवार पितृसत्तात्मक था, यद्यपि आदित्य, अदिति से उत्पन्न। दैत्य, दिति से उत्पन्न आदि शब्दों में मातृसत्तात्मक ध्वनि वर्तमान है। दम्पति की कल्पना में पति-पत्नी का गृहस्थी के ऊपर समान अधिकार था। परिवार में पुत्रजन्म की कामना की जाती थी। दायित्व के कारण कन्या का जन्म परिवार को गम्भीर बना देता था, किन्तु उसकी उपेक्षा नहीं की जाती थीं। घोषा, लोपामुद्रा, अपाला, विश्वारा आदि स्त्रियां मंत्रद्रष्टा ऋषिपद को प्राप्त हुईं थी। विवाह प्रायः युवावस्था में होता था। पति-पत्नी को परस्पर निर्वाचन का अधिकार था। विवाह धार्मिक कृत्यों के साथ सम्पन्न होता था जो परिवर्ती ब्राह्म विवाह से मिलता जुलता था।
प्रारम्भिक आर्य संस्कृति में विद्या, साहित्य ओर कला का ऊँचा स्थान है। भारोपीय भाषा, ज्ञान के सशक्त माध्यम के रूप में विकसित हुई। इसमें काव्य, धर्म, दर्शन आदि विभिन्न शास्त्रों का उदय हुआ। आर्यो का प्राचीनतम साहित्य वेद भाषा, काव्य और चिन्तन सभी दृष्टियों से महत्वपूर्ण है। ऋग्वेद में ब्रह्मचर्य और शिक्षण पद्धति के उल्लेख पाये जाते हैं जिससे पता लगता है कि शिक्षण व्यवस्था का संगठन आरम्भ हो गया था और मानव अभिव्यक्तियों ने शास्त्रीय रूप धारण करना शुरू कर दिया था। ऋग्वेद में कवि को ऋषि अर्थात् मन्त्र दृष्टा माना गया है। वह अपनी अंतःदृष्टि से सम्पूर्ण विश्व का दर्शन करता था। उषा, सवितृ, अरण्यानी आदि के सूक्तों में प्रकृति निरीक्षण और मानव की सौन्दर्य प्रियता तथा रसानुभूति का सुन्दर चित्रण है। ऋग्वेदसंहिता में पुर और ग्राम आदि के उल्लेख भी पाए जाते हैं। लोहे के नगर, पत्थर की सैकड़ों पुरियाँ, सहस्रद्वार तथा सहस्रस्तंभ अट्टालिकाएं निर्मित होती थी। साथ ही सामान्य गृह और कुटी भी बनते थे। भवन निर्माण में इष्टका (ईंट) का उपयोग होता था। यातायात के लिए पथों को निर्माण और यान के रूप में कई प्रकार के रथों का उपयोग किया जाता था। गीत, नृत्य और वादित्र का संगीत के रूप में प्रयोग होता था। बाण, क्षोणी, कर्करि, प्रभृति वाद्यों के नाम पाए जाते हैं। पुत्रिका (पुत्तलिका, पुतली) के नृत्य का भी उल्लेख मिलता है। अलंकरण की प्रथा विकसित थी। स्त्रियां निष्क, अज्जि, बासी, वक्, रूक्म आदि गहने पहनती थीं। विविध प्रकार के मनोविनोद में काव्य, संगीत, द्युत, घुड़दौड़, रथदौड़ आदि सम्मिलित थे।
नैतिक अर्थ में “आर्य“ का प्रयोग महाकुल, कुलीन, सभ्य, सज्जन, साधु आदि के लिए पाया जाता है। सायणाचार्य ने अपने ऋग्भाष्य में आर्य का अर्थ विज्ञ, यज्ञ का अनुष्ठाता, विज्ञ स्तोता, विद्वान, आदरणीय अथवा सर्वत्र गंतव्य, उत्तम वर्ण, मनु, कर्मयुक्त और कर्मानुष्ठान से श्रेष्ठ आदि किया है। आदरणीय के अर्थ में तो संस्कृत साहित्य में आर्य का प्रयोग बहुत हुआ है। पत्नी, पति को आर्यपुत्र कहती थी। पितामह को आर्य (हिन्दी में आजा) और पितामही को आर्या (हिन्दी में आजी, ऐया, अइया) कहने की प्रथा रही है। नैतिक रूप से प्रकृत आचरण करने वाले को आर्य कहा गया है। प्रारम्भ में आर्य का प्रयोग प्रजाति अथवा वर्ण के अर्थ में भले ही होता रहा हो, आगे चलकर भारतीय इतिहास में इसका नैतिक अर्थ ही अधिक प्रचलित हुआ जिसके अनुसार किसी भी वर्ण अथवा जाति का व्यक्ति अपनी श्रेष्ठता अथवा सज्जनता के कारण आर्य कहा जाने लगा।
आर्य, भारतीयों विशेषकर उत्तर भारतीयों के वैदिक कालीन पूर्वजों को कहा जाता है। आर्य प्रजाति की आदिभूमि के सम्बन्ध में अभी तक विद्वानों में बहुत मतभेद है। भाषावैज्ञानिक अध्ययन के प्रारम्भ में प्रायः भाषा और प्रजाति को अभिन्न मानकर एकोद्भव (मानोजेनिक) सिद्धान्त का प्रतिपादन किये। माना गया है कि भारोपीय भाषाओं को बोलने वाले के पूर्वज कहीं एक ही स्थान में रहते थे और वहीं से विभिन्न देशों में गये। भाषावैज्ञानिक साक्ष्यों की अपूर्णता और अनिश्चितता के कारण यह आदिभूमि कभी एशिया, कभी पामीर-कश्मीर, कभी आस्ट्रिया-हंगरी, कभी जर्मनी, कभी स्वीडन-नार्वे और आज दक्षिण रूस के घास के मैदानों में ढूँढ़ी जाती है। आज आर्यो की विविध शाखाओं के बहुद्भव (पाॅलिजेनिक) होने का सिद्धान्त भी प्रचलित होता जा रहा है जिसके अनुसार यह आवश्यक नहीं कि आर्य-भाषा-परिवार की सभी जातियाँ एक ही मानववंश की रही हों। भाषा का ग्रहण तो समपर्क और प्रभाव से भी होता आया है। कई जातियों ने तो अपनी मूल भाषा छोड़कर विजातीय भाषा को पूर्णतः अपना लिया है। जहाँ तक भारतीय आर्यो के उद्गम का प्रश्न है, भारतीय साहित्य में उनके बाहर से आने के सम्बन्ध में एक भी उल्लेख नहीं है। कुछ लोगों ने परमपरा और अनुश्रुति के अनुसार मध्यदेश तथा कंजगल और हिमालय तथा विन्ध्य के बीच का प्रदेश अथवा आर्यावर्त (उत्तर भारत) ही आर्यो की आदिभूमि माना है। पौराणिक परम्परा से विच्छिन्न केवल ऋग्वेद के आधार पर कुछ विद्वानों ने सप्तसिंधु (सीमांत एवं पंजाब) को आर्यो की आदिभूमि माना है। लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक ने ऋग्वेद में वर्णित दीर्घ अहोरात्र, प्रलंबित उषा आदि के आधार पर आर्यो की मूलभूमि को ध्रुव प्रदेश में माना था। बहुत से यूरोपीय विद्वान और उनके अनुयायी भारतीय विद्वान, अब भी भारतीय आर्यो को बाहर से आया हुआ मानते हैं।
अब आर्यो के भारत के बाहर से आने का सिद्धान्त गलत सिद्ध कर दिया गया है। ऐसा माना जाता है कि इस सिद्धान्त का प्रतिपादन करके अंग्रेज और यूरोपीय लोग भारतीयों में यह भावना भरना चाहते थे कि भारतीय लोग पहले से गुलाम हैं। इसके अतिरिक्त अंग्रेज इसके द्वारा उत्तर भारतीय आर्यो तथा दक्षिण भारतीय द्रविड़ों में फूट डालना चाहते थे।

विज्ञान ने भी आर्य द्रविड़ के भेद को नकारा
नई दिल्ली 8 दिसंबर 2009। सदियों से भारतीय इतिहास पर छायी आर्य आक्रमण संबंधी झूठ की चादर को विज्ञान की खोज ने एक झटके में ही तार तार कर दिया है। विज्ञान की आँखो ने जो देखा है उसके अनुसार तो सच यह है कि आर्य आक्रमण नाम की चीज न तो भारतीय इतिहास के किसी कालखण्ड में घटित हुई और न ही आर्य तथा द्रविड़ नामक दो पृथक मानव नस्लों का अस्तित्व ही कभी धरती पर रहा है। इतिहास और विज्ञान के मेल के आधार पर हुआ यह क्रांतिकारी जैव-रासायनिक डीएनए गुणसुत्र आधारित अनुसांधान फिनलैण्ड के तारतू विश्वविद्यालय, एस्टोनिया मंे हाल ही में सम्पन्न हुआ है। कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय के प्रोफेसर डा0 कीवीसील्ड के निर्देशन में एस्टोनिया स्थित एस्टोनियन बायोसंेटर, तारतू विश्वविद्यालय के शोध छात्र ज्ञानेश्वर चैबे ने अपने अनुसंधान में यह सिद्ध किया है कि सारे भारतवासी जीन अर्थात् गुणसूत्रों के आधार पर एक ही पूर्वजों की संताने हैं, आर्य और द्रविड़ का कोई भेद गुणसूत्रों के आधार पर नहीं मिलता है, और तो जो अनुवंाशिक गुणसूत्र भारतवासियांे मंे पाए जाते है। वे डीएनए गुणसूत्र दुनिया के किसी अन्य देश में नहीं पाए गए। शोधकार्य मंे अखण्ड भारत अर्थात् वर्तमान भारत, पाकिस्तान, बंगलादेश, श्रीलंका और नेपाल की जनसंख्या मंे विद्यमान लगभग सभी जातियांे, उपजातियांे, जनजातियांे, मंे लगभग 13000 नमूनांे के परीक्षण परिणामांे का इस्तेमाल किया गया। इनके नमूनांे के परीक्षण से प्राप्त परिणाम की तुलना मध्य एशिया यूरोप और जापान आदि देशांे मंे रहने वाली मानव नस्लों के गुणसूत्र से की गई। इस तुलना में पाया गया कि सभी भारतीय चाहे वह किसी भी धर्म के मानने वाले है, 99 प्रतिशत समान पूर्वजांे की संतानंे हंै। भारतीयांे के पूर्वजांे का डीएनए गुणसूत्र यूरोप, मध्य एशिया और चीन-जापान आदि देशांे की नस्लों से बिलकुल अलग है। और इस अन्तर को स्पष्ट पहचाना जा सकता है। 

जेनेटिक हिस्ट्री आफ साउथ एशिया 
ज्ञानेश्वर चैबे को जिस बिन्दु पर शोध के लिए पीएच0 डी0 उपाधि स्वीकृत की गई है। उसका शीर्षक है-“डेमोग्राफिक हिस्ट्री आॅफ फ्राम साउथ एशिया: द प्रिवेलिंग जेनेटिक कांटिनिटी फ्राॅम प्रीहिस्टोरिक टाइम्स“ अर्थात् “दक्षिण एशिया का जनसांख्यिक इतिहास: पूर्वऐतिहासिक काल से लेकर अब तक की अनुवांशिकी निरंतरता।“ संपूर्ण शोध की उपकल्पना ज्ञानेश्वर के मन में उस समय जागी जब वह हैदराबाद स्थित “संेटर फार सेल्यूलर एंड मोलेक्यूलर बायोलॅाजी अर्थात् सीसीएमबी“ मंे अंतर्राष्ट्रीय स्तर के ख्यातलब्ध भारतीय जैव वैज्ञानिक डाॅ0 लालजी सिंह और डाॅ0 के0 थंगराज के अन्तरगत परास्नातक बाद की एक शोध परियोजना मंे जुटे थे। ज्ञानेश्वर के मन में विचार आया कि जब डीएनए जांच के द्वारा किसी बच्चे के माता पिता के बारे मंे सच्चाई का पता लगाया जा सकता है। तो फिर भारतीय सभ्यता के पूर्वज कौन थे, इसका भी ठीक-ठीक पता लगाया जा सकता है। बस फिर क्या था, उनके मन में इस शोधकार्य को कर डालने की जिद पैदा हो गई। ज्ञानेश्वर बताते हंै-बचपन से मेरे मन में यह सवाल उठता रहा है कि हमारे पूर्वज कौन थे? बचपन में जो पाठ पढ़े, उससे तो भ्रम की स्थिति पैदा हो गई थी कि क्या हम आक्रमणकारियांे की संतान है? दूसरे एक मानवोचित उत्सुकता भी रही। आखिर प्रत्येक व्यक्ति के जीवन में कभी न कभी तो यह जानने की उत्सुकता पैदा होती ही है कि उसके परदादा -परदादी कौन थे, कहाँ से आए थे, उनका मूलस्थान कहाँ है और इतिहास के बीते हजारो वर्षाे मंे उनके पुरखों ने प्रकति की मार कैसे सही, कैसे उनका अस्तित्व अब तक बना रहा है? ज्ञानेश्वर के अनुसार, पिछले एक दशक में मानव जेनेटिक्स और जीनोमिक्स के अध्ययन में जो प्रगति हुई है। उससे यह संभव हो गया है कि हम इस बात का पता लगा लें कि मानव जाति में किसी विशेष नस्ल का उद्भव कहाँ हुआ, वह उद्विकास प्रक्रिया मंे दुनिया के किन-किन स्थानों से गुजरी, कहाँ-कहाँ रही और उनके मूल पुरखे कौन रहे है? उनके अनुसार, माता-पिता दोनांे के डीएनए में ही उनके पुरखों का इतिहास भी समाया हुआ रहता है। हम जितनी गहराई से उनके डीएनए संरचना का अध्ययन करेंगे, हम यह पता कर लेंगे कि उनके मूल जनक कौन थे? और तो और इसके द्वारा पचासों हजार साल पुराना अपने पुरखों का इतिहास भी खोजा जा सकता है। 

कैब्रिज के डाॅ0 कीवीसील्ड ने किया शोध निर्देशन 
हैदराबाद की प्रयोगशाला में शोध करते समय उनका संपर्क दुनिया के महान जैव वैज्ञानिक प्रोफेसर कीवीसील्ड के साथ आया। प्रो0 कीवीसील्ड संसार में मानव नस्लों की वैज्ञानिक ऐतिहासिकता और उनकी बसावट पर कार्य करने वाले उच्चकोटि के वैज्ञानिक माने जाते हैं। इस नई सदी के प्रारंभ मंे ही प्रोफेसर कीवीसील्ड ने अपने अध्ययन में पाया था कि दक्षिण एशिया की जनसंाख्यिक संरचना अपने जातिय एवं जनजातिय स्वरूप मंे न केवल विशिष्ट है वरन् वह शेष दुनिया से स्पष्टतः भिन्न है। संप्रति प्रोफेसर डाॅ0 कीवीसील्ड कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय के बायोसंेटर का निर्देशन कर रहे हंै। प्रोफेसर डाॅ0 कीवीसील्ड की प्रेरणा से ज्ञानेश्वर चैबे ने एस्टोनियन बायोसेंटर में सन् 2005 में अपना शोधकार्य प्रारंभ किया और देखते ही देखते जीवविज्ञान संबंधी अंतर्राष्ट्रीय स्तर के शोध जर्नल्स मंे उनके दर्जनों से ज्यादा शोध पत्र प्रकाशित हो गए। इसमें से अनेेक शोध पत्र जहाँ उन्हांेने अपने गुरूदेव प्रोफेसर कीवीसील्ड के साथ लिखे वहीं कई अन्य शोधपत्र अपने उन साथी वैज्ञानिकों के साथ संयुक्त रूप से लिखे जो इसी विशय से मिलते जुलते अन्य मुद्दों पर काम कर रहे हैं। अपने अनुसंधान के द्वारा ज्ञानेश्वर ने इसके पूर्व हुए उन शोधकार्यो को भी गलत सिद्ध किया है। जिनमें यह कहा गया है कि आर्य और द्रविड़ दो भिन्न मानव नस्लंे हंै और आर्य दक्षिण एशिया अर्थात् भारत मंे कहीं बाहर से आए। उनके अनुसार पूर्व के शोधकार्यो मंे एक तो बहुत ही सीमित मात्रा में नमूनें लिए गए थे, दूसरे उन नमूनांे की कोशिकीय संरचना और जीनोम इतिहास का अध्ययन “लो रीजोलूशन“ अर्थात् न्यून आवर्धन पर किया गया इसके विपरीत हमने अपने अध्ययन में व्यापक मात्रा में नमूनों का प्रयोग किया और “हाई रीजोलूशन“ अर्थात् उच्च आवर्धन पर उन नमूनों पर प्रयोगशाला मंे परीक्षण किया तो हमंे भिन्न परिणाम प्राप्त हुए।

माइटोकांड्रियल डीएनए में छुपा है पुरखांे का इतिहास 
ज्ञानेश्वर द्वारा किए शोध में माइटोकांड्रियल डीएनए और वाई क्रोमोसोम्स और उनसे जुडे हेप्लोग्रुप के गहन अध्ययन द्वारा सारे निष्कर्ष प्राप्त किए गए हैं। उल्लेखनीय है कि माइटोकांड्रिया मानव की प्रत्येक कोशिका में पाया जाता है। जीन अर्थात् मानव गुणसूत्र के निर्माण मंे भी इसकी प्रमुख भूमिका रहती है। प्रत्येक मानव जीन अर्थात् गुणसूत्र के दो हिस्से रहते हैं। पहला न्यूक्लियर जीनोम और दूसरा माइटोकांड्रियल जीनोम। माइटोकांड्रियल जीनोम गुणसूत्र का वह तत्व है जो किसी कालखण्ड में किसी मानव नस्ल में होने वाले उत्परिवर्तन को अगली पीढ़ी तक पहँुचाता है और वह इस उत्परिवर्तन को आने वाली पीढ़ियांे में सुरक्षित भी रखता है। इसे इस प्रकार भी समझा जा सकता है कि माइटोकांड्रियल डीएनए वह तत्व है जो एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक माता के पक्ष की सूचनाएँ अपने साथ हूबहू स्थानांतरित करता है। यहाँ यह समझाना जरूरी है कि किसी भी व्यक्ति की प्रत्येक कोशिका मंे उसकी माता और उनसे जुड़ी पूर्व की हजारों पीढ़ियांे के माइटोकांड्रियल डीएनए सुरक्षित रहते है। इसी प्रकार वाई क्रोमोसोम्स पिता से जुड़ी सूचना को एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को स्थानांतरित करते है। वाई क्रोमोसोम्स प्रत्येक कोशिका के केंद्र मंे रहता है और किसी भी व्यक्ति में उसके पूर्व के सभी पुरूष पूर्वजों के वाई क्रोमोसोम्स सुरक्षित रहते हंै। इतिहास के किसी मोड़ पर किसी व्यक्ति की नस्ल में कब और किस पीढ़ी मंे उत्परिवर्तन हुआ, इस बात का पता प्रत्येक व्यक्ति की कोशिका मंे स्थित वाई क्रोमोसोम्स और माइटोकांड्रियल डीएनए के अध्ययन से आसानी से लगाया जा सकता है। यह बात किसी समूह और समुदाय के संदर्भ मंे भी लागू होती है। 

एक वंशवृक्ष से जुड़े है सभी भारतीय 
ज्ञानेश्वर ने अपने अनुसंधान को दक्षिण एशिया में रहने वाले विभिन्न धर्माे जातियांे की जनसांख्यिकी संरचना पर कंेद्रित किया। शोध मंे पाया गया है कि तमिलनाडु की सभी जातियों-जनजातियों, केरल, कर्नाटक, आंध्रप्रदेश जिन्हें पूर्व मंे कथित द्रविड़ नस्ल से प्रभावित माना गया है, की समस्त जातियों के डीएनए गुणसूत्र, तथा उत्तर भारतीय जातियों जनजातियों के डीएनए का उत्पत्ति आधार गुणसूत्र एक समान है। उत्तर भारत मंे पाये जाने वाले कोल, कंजर, दुसाध, धरकार, चमार, थारू, क्षत्रिय और ब्राह्मणांे के डीएनए का मूल स्रोत दक्षिण भारत मंे पाई जाने वाली जातियो के मूल स्रोत से कहीं से भी अलग नहीं है इसी के साथ जो गुणसूत्र उपरोक्त जातियांे में पाए गए हैं। वही गुणसूत्र मकरानी, सिंधी, बलोच, पठान, ब्राहई, बुरूषो और हजारा आदि पाकिस्तान मंे पाये जाने वाले समूहों के साथ पूरी तरह से मेल खाते है।



एक ही “विश्वशास्त्र“ साहित्य के विभिन्न नाम और उसकी व्याख्या

एक ही “विश्वशास्त्र“ साहित्य के विभिन्न नाम और उसकी व्याख्या


धर्म क्षेत्र से नाम 
01. कर्मवेद -



02. शब्दवेद -



03. सत्यवेद -



04. सूक्ष्मवेद -



05. दृश्यवेद -



06. पूर्णवेद -



07. अघोरवेद -



08. विश्ववेद -



09. ऋृषिवेद -



10. मूलवेद -


11. शिववेद -



12. आत्मवेद -



13. अन्तवेद -



14. जनवेद -



15. स्ववेद -



16. लोकवेद -



17. कल्किवेद -



18. धर्मवेद -



19. व्यासवेद -



20. सार्वभौमवेद -



21. ईशवेद -



22. ध्यानवेद -



23. प्रेमवेद -



24. योगवेद -



25. स्वरवेद -



26. वाणीवेद -



27. ज्ञानवेद -



28. युगवेद -



29. स्वर्णयुगवेद -



30. समर्पणवेद -



31. उपासनावेद -



32. शववेद -



33. मैंवेद -




34. अहंवेद -




35. तमवेद -




36. सत्वेद -




37. रजवेद -




38. कालवेद -




39. कालावेद -




40. कालीवेद -




41. शक्तिवेद -



42. शून्यवेद -




43. यथार्थवेद -




44. कृष्णवेद सभी प्रथम, अन्तिम तथा पंचम वेद -




45. कर्मोपनिषद्-अन्तिम उपनिषद् -




46. कर्म वेदान्त -




47. धमयुक्त धर्म शास्त्र -




48. ईश्वर -




49. ईश्वर का संक्षिप्त इतिहास -




50. ईश्वर-शास्त्र -



51. पुनर्जन्म -




52. श्री लवकुश-पूर्ण प्रेरक अन्तिम कल्कि अवतार -




53. भोगेश्वर-योगेश्वर समाहित -




54. पूर्णदृश्य-मैं -




55. बहुरूप में एक -




56. ईश्वर का मष्तिष्क -




57. सत्य-शिव-सुन्दर -




58. विश्वभारत-सार्वजनिक प्रमाणित महाभारत -




68. विश्व-पुराण -



69. विश्व-धर्म-सर्वधर्म समाहित -




70. विश्व-कला-कृष्ण-कला समाहित -




71. विश्व-गुरू -




72. विश्व भक्ति -




73. सत्य-पुराण -




74. सत्य-धर्म -




75. सत्य-कला-कृष्ण-कला समाहित -




76. सत्य-गुरू -




77. सत्य भक्ति -



78. सत्यकाशी-पंचम, सप्तम और अन्तिम काशी -



79. द्वारिका-स्वर्णयुग का प्रवेश द्वार -



80. कृष्ण निर्माण योजना -



81. धारा और राधा -



82. शिवद्वार-शिवयुग का प्रवेश द्वार -




83. जीव का शिव में निर्माण -




84. सत्व-रज-तम: राम-कृष्ण-लवकुश -




85. लवकुश-सेतू या से तू -




86. भोग माया-योग माया समाहित -




87. मैं हूँ तैतीस करोड़ -


88. अर्धनारीश्वर -



89. काल-काली-काला -




90. सृष्टि-स्थिति-प्रलय और सृष्टि -



91. पशुपास्त्र-ब्रह्मास्त्र व नारायणास्त्र समाहित -



92. पुराण पुरूष-सर्वोच्च व अन्तिम -



93. पुराण-सर्वोच्च व अन्तिम -



94. धर्म-सर्वोच्च व अन्तिम -



95. आत्मा-सर्वोच्च व अन्तिम -



96. गुरू-सर्वोच्च व अन्तिम -



97. महायज्ञ-सर्वोच्च व अन्तिम -



98. तीसरा नेत्र -


 धर्मनिरपेक्ष व सर्वधर्मसमभाव क्षेत्र से नाम
01. विकास-दर्शन -



02. विनाष-दर्शन -



03. एकात्मकर्मवाद -



04. मष्तिष्क परावर्तक (ब्रेन टर्मिनेटर) -



05. धर्मनिरपेक्ष धर्म शास्त्र -



06. लोकतंत्र धर्म शास्त्र -



07. लोक-शास्त्र -



08. जन-शास्त्र -



09. स्व-शास्त्र -



10. लोक नायक शास्त्र -



11. यथार्थ-प्रकाश -


12. लोक/जन/स्व तंत्र -



13. एकात्म विज्ञान -



14. मानक विज्ञान -



15. पूर्ण ज्ञान -



16. कर्म ज्ञान -



17. जय ज्ञान-जय कर्म ज्ञान -



18. विश्व-उपासना -



19. विश्व-योग -



20. विश्व-मानक -



21. विश्व-राष्ट्र-जन एजेण्डा -



22. विश्व-ध्यान -



23. विश्व-समर्पण -



24. विश्व-लीला -



25. विश्व-आत्मा -



26. विश्व-समन्वयाचार्य -



27. विश्व-दर्पण -



28. विश्व-मन -



29. विश्व-शिक्षा -



30. विश्व-रूप -



31. विश्वमानव-विश्व-मन से युक्त -



32. विश्व-बुद्धि -



33. विश्व-चेतना -



34. विश्व-प्रकाश -



35. विश्व-दृष्टि -



36. विश्व-मार्ग -



37. विश्व-राजनीति -



38. विश्व एकता -



39. विश्व शान्ति -



40. विश्व सेवा -



41. विश्व महायज्ञ-सार्वजनिक प्रमाणित दृश्य -



42. विश्व-बन्धुत्व -



43. विश्व जातिवाद -



44. विश्व अहंकार -



45. सत्य-भारत -



46. सत्य-उपासना -



47. सत्य-योग -



48. सत्य-ध्यान -



49. सत्य-मानक -



50. सत्य-राष्ट्र-जन एजेण्डा -



51. सत्य-ध्यान -



52. सत्य-समर्पण -



53. सत्य-लीला -



54. सत्य-आत्मा -



55. सत्य-समन्वयाचार्य -



56. सत्य-दर्पण -



57. सत्य-मन -



58. सत्य-शिक्षा -



59. सत्य-रूप -



60. सत्य-मानव-सत्य-मन से युक्त -



61. सत्य-बुद्धि -



62. सत्य-चेतना -



63. सत्य-प्रकाश -



64. सत्य-दृष्टि -



65. सत्य-मार्ग -



66. सत्य-राजनीति -



67. सत्य एकता -



68. सत्य शान्ति -



69. सत्य सेवा -



70. सत्य महायज्ञ-सार्वजनिक प्रमाणित दृश्य -



71. सत्य-बन्धुत्व -



72. सत्य जातिवाद -



73. सत्य अहंकार -



74. स्वर्णयुग का प्रथम मानव -



75. मात्र यही हूँ-मानो या ना मानो -



76. पाँचवा और अन्तिम सूर्य -



77. चक्रान्त-चक्र का अन्त -



78. दिव्य-दृष्टि -



79. दिव्य-रूप -



80. दृश्य-योग -



81. दृश्य-ध्यान -



82. ज्ञान बम -



83. आध्यात्मिक न्यूट्रान बम -



84. सार्वभौम सत्य-सिद्धान्त -



85. मानक एवं मन का विश्व मानक और पूर्ण वैश्विक मानव निर्माण की तकनीकी -



86. मन का ब्रह्माण्डीयकरण -



87. सार्वभौम दर्पण-व्यक्ति से ब्रह्माण्ड तक -



88. सम्पूर्ण क्रान्ति-प्रथम, अन्तिम और सर्वोच्च क्रान्ति -



89. सामाजिक अभियंत्रण (सोशल इंजिनीयरींग) -



90. सन् 2012-पाँचवें और अन्तिम स्वर्ण युग का आरम्भ वर्श -



91. आध्यात्मिक ब्लैक होल -



92. तख्तापलट -



93. एक आवाज, मधुशाला से -



94. आॅकड़ा (डाटा) -



95. मंथन रत्न -



96. काला किताब -



97. पूर्ण सकारात्मक विचार -



98. विश्व संविधान का आधार -



99. एक अलग यात्रा -



101. समभोग-एकात्म भाव से भोग -



102. सर्वजन हिताय-सर्वजन सुखाय -



103. वसुधैव कुटुम्बकम् -



104. सर्वेभवन्तु सुखिनः -



105. अगीतांजलि -



106. मार्ग-सर्वोच्च व अन्तिम -



107. बुद्धि-सर्वोच्च व अन्तिम -



108. अहंकार-सर्वोच्च व अन्तिम -



109. व्यापार-सर्वोच्च व अन्तिम -



110. महत्वाकांक्षा-सर्वोच्च व अन्तिम -



111. युग पुरूष-सर्वोच्च व अन्तिम -



112. शंखनाद-सर्वोच्च व अन्तिम -



113. उपासना-सर्वोच्च व अन्तिम -



114. योग-सर्वोच्च व अन्तिम -



115. मानक-सर्वोच्च व अन्तिम -



116. एजेण्डा-सर्वोच्च व अन्तिम -



117. कला-सर्वोच्च व अन्तिम -



118. ध्यान-सर्वोच्च व अन्तिम -



119. समर्पण-सर्वोच्च व अन्तिम -



120. लीला-सर्वोच्च व अन्तिम -



121. समन्वयाचार्य-सर्वोच्च व अन्तिम -



122. दर्पण-सर्वोच्च व अन्तिम -



123. मन-सर्वोच्च व अन्तिम -



124. शिक्षा-सर्वोच्च व अन्तिम -



125. रूप-सर्वोच्च व अन्तिम -



126. विश्वमानव-सर्वोच्च व अन्तिम -



127. बुद्धि-सर्वोच्च व अन्तिम -



128. चेतना-सर्वोच्च व अन्तिम -



129. प्रकाश-सर्वोच्च व अन्तिम -



130. दृष्टि-सर्वोच्च व अन्तिम -



131. मार्ग-सर्वोच्च व अन्तिम -



132. राजनीति-सर्वोच्च व अन्तिम -



133. एकता-सर्वोच्च व अन्तिम -



134. शान्ति-सर्वोच्च व अन्तिम -



135. सेवा-सर्वोच्च व अन्तिम -



136. भक्ति-सर्वोच्च व अन्तिम -



137. बन्धुत्व-सर्वोच्च व अन्तिम -



138. जातिवाद-सर्वोच्च व अन्तिम -



139. अहंकार-सर्वोच्च व अन्तिम -




140. दर्शन-सर्वोच्च व अन्तिम -



141. सत्य शास्त्र




भारत सरकार को अन्तिम पत्र

भारत सरकार को अन्तिम पत्र




सोशल नेटवर्किंग वेबसाइट के पोस्ट

सोशल नेटवर्किंग वेबसाइट के पोस्ट 








समय-समय पर प्राप्त पत्र

समय-समय पर प्राप्त पत्र 










समय-समय पर भेजे गये पत्र

समय-समय पर भेजे गये पत्र






प्रारम्भिक प्रसारण

प्रारम्भिक प्रसारण













कुछ गजल व शायरी

कुछ गजल व शायरी

01. माँफ करना ऐ भारत, मंजिल पर आया थोड़ी देर से।
    मोहब्बत पड़ावांे को भी थी, हक उनका भी अदा करना था।

02. सबक हकीकत का, अंजाम वक्त की आगोश में।
    खुद की तमन्ना पाने को, अजीब सी कसम दिलाई तुने।

03. यकीन करो जिन्दगी हूँ, मगर खुद की जिन्दगी के लिए तरसता रहा।
    इंसानी ख्वाब का हकीकत हूँ मैं, मगर अपने ख्वाब को तरसता रहा।

04. इस किनारे जहन्नुम है, उस किनारे जन्नत है,
    कदम रखना सलीके से, रस्ता तलवार की धार है।
गिरे किसी ओर तो मौत है, लडखड़ाये तो मौत है,
दरियादिली से पहुँच उस किनारे, और तारीख हो जा।

05. चेहरा नहीं, तस्वीर नहीं, वक्त हूँ, हकीकत का आईना हूँ मैं।
टुकड़े-टुकड़े में देख अपने चेहरे को, मुझ पर भड़कते क्यूँ हो।

06. जब तक रहा मैं इस जिस्म में, दुश्मन था, कत्ल हुआ खंजर-ए-लब्ज से।
बात न जर की थी, न जोरू की, न जमीन की, थी तो सिर्फ इरादों की।

07. बस यही कसक रह गयी दिल में, वक्त पर न समझा तुमने।
सफर कर गया जब जहाँ से, तब समझा, क्या कर दिया मैनें।

08. जहाँ प्रेम है, बस वहीं बसेरा है, जहाँ नफरत है वहाँ कहाँ हूँ मैं।
कभी तन्हाईयों में सोचना, क्या ले गया मैं और क्या दे गया मैं।

09. बात अगर मंजिल की न होती तो कसम से, बेखौफ कदम रूक भी सकते थे।
मजिंल की दुआ थी, मंजिल को पाने की, मजिंल की कसम थी, नाम न लाने की।

10. ख्वाब हकीकत हो गई, खुद का सम्भालो यारों।
रहने दो हमें जहाॅ में, यकीं करो, न करो यारों।
कौन कहता है-
शख्स बुरा है, इस शख्सियत को सम्भालो यारों।
शख्सियत क्या है, जरा मुझे भी देखने दो यारों।

11. हमने देखा है जमाने को, तस्वीरों की इबादत करते हुये।
चाहत थी ही ऐसी, हरकत हो गई तो खामोश क्यूँ हो।

12. लगा ली दो घूँट, यारो की खुशी से, जानता था लोग समझेंगे शराबी।
छुपाना था खुद को, जहाँ से, तो लोगों बताओ, पीने में क्या थी खराबी।

13. खो गये हम तो चाहत में कुछ इस तरह
शिनाख्त अदाओं के भी मुश्किल हो गये
किसी के हो गये, मशकरी में कुछ इस तरह
शिनाख्त मोहब्बत के भी मुश्किल हो गये
प्यासे मर गये हम तो उलझन में कुछ इस तरह
शिनाख्त एहसास के भी मुश्किल हो गये
हकीकत हो गये हम तो शर्तो में कुछ इस तरह
शिनाख्त ख्वाबों के भी मुश्किल हो गये
ख्वाब उनकी थी कि कुछ इस तरह मिलते
शोहरत उनकी थी कि कुछ इस तरह गुँजते
तारीख उनकी थी कि कुछ इस तरह बनते
रोशनी उनकी थी कि कुछ इस तरह चमकते
गम माँग लिए हम तो नजरानों में कुछ इस तरह
शिनाख्त खुशियों के भी मुश्किल हो गये
मौत माँग लिए हम तो हकीकत में कुछ इस तरह
शिनाख्त जिन्दगी के भी मुश्किल हो गये।

14. ये दिल्ली, इतनी बार लुटी कि लुटने का एहसास नहीं होता।
करता होगा कोई, मुझसे मोहब्बत, मगर अब एहसास नहीं होता।।



कुछ कविताएँ

कुछ कविताएँ

01.
क्या पता दिल में कौन क्या छुपाये रखा है।
हमने तो दिल में देश की ममता छुपाये रखा है।
सबके दिल में खुशी है, देश की आजादी का।
देश रहे आजाद, गम नहीं खुद की बरबादी का।
हमने तो अखण्डता का सिद्धान्त बनाये रखा है।
क्या पता दिल..................................।
देश में हो रहे अन्याय को हम मिटा डालेगें।
हर नागरिक को उसका अधिकार दिला डालेगें।
हमने तो देश में श्रीराम राज्य लाने को सोच रखा है।
क्या पता दिल..................................।
हम तोड़ डालेगें उन नामी ताकतो को।
बढ़ाये हाथ जो इस तरफ, उन हाथों को।
हमने तो अपने यहाँ ऐसा यंत्र बनाये रखा है।
क्या पता दिल..................................।
एटम बम समाप्त हो जाये तो भी गम नहीं।
समाप्त हो जाये सारी शक्ति तो भी गम नहीं।
हमने तो एक ज्ञान बम बनाये रखा है।
क्या पता दिल..................................।
खुद को देश पर तन मन से लुटा जाना है।
उठाये आँख जो इस तरफ, उसको मिटा जाना है।
हमने तो कुर्बानी पर, पहला नम्बर लगाये रखा है।
क्या पता दिल..................................।
-15 अगस्त 1986 को लगभग 19 वर्ष के उम्र में रचित

02.
मैं ही पाण्डव हूँ, 
मैं ही कौरव हूँ,
शकुनि और दुर्योधन 
की तरह अड़ा हूँ।
विदुर जैसा समझ हूँ, 
कर्ण जैसा विवश हूँ,
कृष्ण जैसा नीतिज्ञ हूँ, 
भीष्म जैसा अन्त तक पड़ा हूँ।

03.
जग के सत्य हैं तीन नाम,
लवकुश, कृष्ण और राम । 
तम, रज और सत्व के ये परिणाम।  
शंकर, विष्णु और ब्रह्मा के समान ।
समझो इनको मिलेगा पूर्ण ज्ञान।

04.
सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड देख चुका हूँ,
अक्षय-अनन्त है मेरी हाला,
कण-कण में हूँ-”मैं ही मैं“,
क्षयी-ससीम है तेरी प्याला,
जिस भी पथ-पंथ और ग्रन्थ से गुजरेगा,
हो जायेगा तू बद्ध-मस्त और मत वाला,
”जय ज्ञान-जय कर्मज्ञान“ की आवाज
सुनाती है, मेरी यह अनन्त मधुशाला।

05.
शब्द से सृष्टि की ओर...
सृष्टि से शास्त्र की ओर...
शास्त्र से काशी की ओर...
काशी से सत्यकाशी की ओर...
और सत्यकाशी से अनन्त की ओर...
एक अन्तहीन यात्रा...............................

06.
पी.एम. बना लो या सी.एम या डी.एम,
शिक्षा पाठ्यक्रम कैसे बनाओगे?
नागरिक को पूर्ण ज्ञान कैसे दिलाओगे?
राष्ट्र को एक झण्डे की तरह,
एक राष्ट्रीय शास्त्र कैसे दिलाओगे?
ये पी.एम. सी.एम या डी.एम नहीं करते,
राष्ट्र को एक दार्शनिक कैसे दिलाओगे?
वर्तमान भारत को जगतगुरू कैसे बनाओगे?
सरकार का तो मानकीकरण (ISO-9000) करा लोगे,
नागरिक का मानक कहाँ से लाओगे?
सोये को तो जगा लोगे,
मुर्दो में प्राण कैसे डालोगे?
वोट से तो सत्ता पा लोगे,
नागरिक में राष्ट्रीय सोच कैसे उपजाओगे?
फेस बुक पर होकर भी पढ़ते नहीं सब,
भारत को महान कैसे बनाओगे?

07.
कभी मैं कांग्रेसी दिखता हूँ,
कभी मैं भाजपाई दिखता हूँ,
कभी मैं बसपाई दिखता हूँ,
कभी मैं सपाई दिखता हूँ, 
कभी मैं आपाई दिखता हूँ,
कभी मैं सपनाई दिखता हूँ,
तू जैसा समझे,
मैं तो केवल सभी का भारतीय दिखता हूँ। 

08.
वह भक्त क्या, जो भगवान को बेच ना सके,
वह चेला क्या, जो गुरू से कुछ ले ना सके,
वह संत क्या, जो समाज को कुछ दे ना सके,
वह अवतार क्या, 
जो पृथ्वी की आवाज सुन ना सके।

09.
होंगे कृष्ण जिधर
बस वहीं पाण्डव हैं
शेष सभी तो
सिर्फ कौरव हैं
यदि महाभारत होना है
तो पांचाली को भी
अपमानित होना है
शकुनि को भी
कौरव पक्ष में होना है
धर्मराज को नहीं छोड़ना
जुए की लत है
कोई राजा बने
रंक को तो हँसना है
यदि वह महाभारत है
तो कृष्ण को तो होना है
अन्यथा वह तो 
सिर्फ पशुता है।





पाँचवें युग-स्वर्णयुग में प्रवेश का आमंत्रण

पाँचवें युग-स्वर्णयुग में प्रवेश का आमंत्रण

जिस प्रकार त्रेतायुग से द्वापरयुग में परिवर्तन के लिए वाल्मिकि रचित “रामायण“ आया, जिस प्रकार द्वापरयुग से कलियुग में परिवर्तन के लिए महर्षि व्यास रचित “महाभारत“ आया उसी प्रकार कलियुग से पाँचवें युग-स्वर्णयुग में परिवर्तन के लिए “विश्वशास्त्र“ सत्यकाशी क्षेत्र जो वाराणसी-विन्ध्याचल-शिवद्वार-सोनभद्र के बीच का क्षेत्र है, से व्यक्त हुआ है। प्रत्येक अवतार के समय शास्त्राकार अन्य होते थे और शास्त्र में नायक अलग होता था परन्तु “विश्वशास्त्र“ का नायक और शास्त्राकार एक ही है इसलिए अवतार के होने न होने पर कोई विवाद नहीं होगा क्योंकि यह सदैव सिद्ध रहेगा कि यह शास्त्र है तो शास्त्राकार भी रहा होगा। यही इस अन्तिम अवतार की कला थी जो अवतारों के अनेक कलाओं में पहली और अन्तिम बार प्रयोग हुआ है। अवतारों के प्रत्यक्ष से प्रेरक तक की यात्रा में पूर्ण प्रेरक रूप का यह सर्वोच्च और अन्तिम उदाहरण है। जिस प्रकार प्रत्येक वस्तु में स्थित आत्मा प्रेरक है उसी प्रकार मनुष्य के लिए यह शास्त्र पूर्ण प्रेरक के रूप में सदैव मानव समाज के समक्ष रहेगा।
इस “विश्वशास्त्र“ को आप सभी को समर्पित करने के बाद ईश्वर के पास कुछ भी शेष नहीं है और ईश्वर अपने कर्तव्य से मुक्त और मोक्ष को प्राप्त कर चुका है। निर्णय आपके हाथ में है कि आप ज्ञान-कर्मज्ञान का आस करेंगे या समय का पास। यह पूर्णतः आप पर ही निर्भर हैै। केवल मन से युक्त होकर पशु मानव जीते है। संयुक्त मन से युक्त होकर जीना मानव का जीना है तथा सार्वभौम सत्य-सिद्धान्त से युक्त संयुक्त मन, ईश्वरीय मानव की अवस्था है। यह “विश्वशास्त्र“ ही आपका अपना यथार्थ स्वरूप और आपका कल्याणकर्ता है। 
हम वर्तमान में ब्रह्मा के 58वें वर्ष में 7वें मनु-वैवस्वत मनु के शासन में श्वेतवाराह कल्प के द्वितीय परार्ध में, 28वें चतुर्युग का अन्तिम युग-कलियुग के ब्रह्मा के प्रथम वर्ष के प्रथम दिवस में विक्रम सम्वत् 2096 (सन् 2012 ई0) में हैं। वर्तमान कलियुग ग्रेगोरियन कैलेण्डर के अनुसार दिनांक 17-18 फरवरी को 3102 ई. पू. में प्रारम्भ हुआ था। इस प्रकार अब तक 15 नील, 55 खरब, 21 अरब, 97 करोड़, 61 हजार, 624 वर्ष इस ब्रह्मा के सृजित हुए हो गये हैं
इस प्रकार दिनांक 21 दिसम्बर, 2012 दिन शुक्रवार (मार्गशीर्ष, शुक्ल पक्ष, नवमी, विक्रम संवत् 2069) जिस दिन मायां सभ्यता का कैलेण्डर पूर्णता को प्राप्त किया है, से दसवें और अन्तिम महावतार लव कुश सिह “विश्वमानव“ की ओर से युग का चैथा और अन्तिम युग-कलियुग का समय तथा काल का पहला अदृश्य काल समाप्त होकर युग का पाँचवाँ और अन्तिम युग-स्वर्णयुग तथा काल का दूसरा और अन्तिम काल-दृश्य काल दिनांक 22 दिसम्बर, 2012 दिन शनिवार (मार्गशीर्ष, शुक्ल पक्ष, दशमी, विक्रम संवत् 2069) से प्रारम्भ होता है। और समस्त संसार के समक्ष और मनुष्य जीव के अस्तित्व तक शनिचर और शंकर रूपी “विश्वशास्त्र“ उसके ज्ञान की परीक्षा लेने के लिए सदैव सामने व्यक्त रहेगा।
अब आप मेरे ईश्वरीय समाज में आने के लिए स्वतन्त्र है जिसके लिए आपको कहीं आना-जाना नहीं है। आप जिस समाज, धर्म, सम्प्रदाय, मत इत्यादि में हैं, वहीं रहे। सिर्फ “विश्वशास्त्र“ को पढ़े और पूर्णता को प्राप्त करें क्योंकि कोई भी विचारधारा चाहे उसकी उपयोगिता कालानुसार समाज को हो या न हो, यदि वह संगठन का रूप लेकर अपना आय स्वयं संचालित करने लगती है तो उसके साथ व्यक्ति जीवकोपार्जन, श्रद्धा व विश्वास से जुड़ता है न कि ज्ञान के लिए। पाँचवें युग-स्वर्णयुग और ईश्वरीय समाज में प्रवेश करने के लिए आप सभी को मैं लव कुश सिंह “विश्वमानव“ हृदय से आमंत्रित करता हूँ।

शनिवार, 22 दिसम्बर, 2012 सेप्रारम्भ हो चुका है-

1. काल के प्रथम रूप अदृश्य काल से दूसरे और अन्तिम दृश्य काल का प्रारम्भ।
-इसलिए कि अधिकतम व्यक्ति व समाज का मन दृश्य विषयों पर केन्द्रित है।

2. मनवन्तर के वर्तमान 7वें मनवन्तर वैवस्वत मनु से 8वें मनवन्तर सांवर्णि मनु का प्रारम्भ।
-इसलिए कि सांवर्णि मनु के “सार्वभौम“ गुण का प्रयोग कर श्री लव कुश सिंह “विश्वमानव“ व्यक्त हैं।

3. अवतार के नवें बुद्ध से दसवें और अन्तिम अवतार-कल्कि महावतार का प्रारम्भ।
-इसलिए कि आधुनिक युग के लिए एकीकरण व मानकीकरण के सभी प्रणाली व्यष्टि व समष्टि के लिए संयुक्त एवं अन्तिम रूप से कल्कि अवतार द्वारार व्यक्त है।

4. युग के चैथे कलियुग से पाँचवें युग स्वर्ण युग का प्रारम्भ।
-इसलिए कि युग परिवर्तन के लिए कल्कि अवतार का आगमन हो चुका है।

5. व्यास और द्वापर युग में आठवें अवतार श्रीकृष्ण द्वारा प्रारम्भ किया गया कार्य“नवसृजन“ के प्रथम भाग“सार्वभौम ज्ञान“ के शास्त्र “गीता“ से द्वितीय अन्तिम भाग “सार्वभौम कर्मज्ञान“, पूर्णज्ञान का पूरक शास्त्र“, लोकतन्त्र का “धर्मनिरपेक्ष धर्मशास्त्र“ और आम आदमी का “समाजवादी शास्त्र“ द्वारा व्यवस्था सत्यीकरण और मन के ब्रह्माण्डीयकरण और नये व्यास का प्रारम्भ।
-इसलिए कि नया और अन्तिम शास्त्र “विश्वशास्त्र“ प्रकाशित हो चुका है।



निर्माण के मार्ग

निर्माण के मार्ग

विभिन्न मतों द्वारा निर्माण के मार्ग का सूत्र है-
 “मतवाद के मार्ग से व्यक्ति, धर्म, राष्ट्र, मन्त्र, यन्त्र और तन्त्र का निर्माण“।

 स्वामी विवेकानन्द द्वारा निर्माण के मार्ग का सूत्र है-
 “धर्म के मार्ग से व्यक्ति, धर्म, राष्ट्र, मन्त्र, यन्त्र और तन्त्र का निर्माण“।

पं0 नारायण दत्त “श्रीमाली“ द्वारा निर्माण के मार्ग का सूत्र है-
 “मन्त्र, यन्त्र और तन्त्र के मार्ग से व्यक्ति, धर्म, राष्ट्र, मन्त्र, यन्त्र और तन्त्र का निर्माण“।

आचार्य रजनीश “ओशो“ द्वारा निर्माण के मार्ग का सूत्र है-
 “व्यक्ति के मार्ग से व्यक्ति, धर्म, राष्ट्र, मन्त्र, यन्त्र और तन्त्र का निर्माण“।

योगाचार्य बाबा रामदेव द्वारा निर्माण के मार्ग का सूत्र है-
 “योग के मार्ग से व्यक्ति, धर्म, राष्ट्र, मन्त्र, यन्त्र और तन्त्र का निर्माण“।

मेरे द्वारा निर्माण के मार्ग का सूत्र है-
 “राष्ट्र के मार्ग से व्यक्ति, धर्म, राष्ट्र, मन्त्र, यन्त्र और तन्त्र का निर्माण“।

और मेरे राष्ट्र का अर्थ सिर्फ भारत ही नहीं बल्कि विश्व सहित ब्रह्माण्ड है यदि भारत इस पर कार्य करता हे तो साकार भारत सहित निराकार भारत अर्थात् विश्वभारत का निर्माण होगा अन्यथा सिर्फ निराकार भारत अर्थात् विश्वभारत का निर्माण होगा क्योंकि कम से कम लाभ और नीतिगत विषयों में पश्चिमी देश भारत से अधिक समझदार, क्रियाशील और अनुकूलन क्षमता वाला है। पश्चिमी देश इसे वैश्विक शासन की दृष्टि से देखेंगे जबकि भारत के नेतृत्वकर्ता पहले व्यक्तिगत लाभ का गणित आलस्य के साथ लगायेंगे। भारत के नेतृत्वकर्ता इस अज्ञानता में न पड़े कि जनता ज्ञानी, शिक्षित हो जायेगी तो उनके पद पर संकट आ जायेगा। ज्ञानी, शिक्षित होना चमत्कार नहीं एक लम्बी अवधि की प्रक्रिया है इसलिए नेतृत्वकर्ता राजनीतिज्ञ का वर्तमान जीवन तो उनके वर्तमान चरित्र के साथ ही व्यतीत हो ही जायेगी। यह एक युग कार्य है, कालजयी कार्य है जो राजनीति क्षेत्र नहीं दे सकती। ये है परिणाम का ज्ञान।
-लव कुश सिंह “विश्वमानव“



समर नीति और समन्वयाचार्य राम कृष्ण ”परमहंस“

समर नीति और समन्वयाचार्य राम कृष्ण ”परमहंस“


मेरी समर नीति
01. जो मनुष्य अपने जीवन के चैदह वर्षों तक लगातार उपवास का मुकाबला करता रहा हो, जिसे यह भी न मालूम रहा हो कि दूसरे दिन का भोजन कहाँ से आयेगा, सोने के लिए स्थान कहाँ मिलेगा, वह इतनी सरलता से धमकाया नहीं जा सकता। जो मनुष्य बिना कपड़ों के और बिना यह जाने कि दूसरे समय भोजन कहाँ से मिलेगा, उस स्थान पर रहा हो, जहाँ का तापमान शून्य से भी तीस डिग्री कम हो, वह भारतवर्ष में इतनी सरलता से नहीं डराया जा सकता। यही पहली बात है जो में उनसे कहूंगा-मुझमें अपनी थोड़ी दृढ़ता है, मेरा थोड़ा निज का अनुभव भी है, और मुझे संसार को कुछ संदेश देना है और यह सन्देश मैं बिना किसी डर के, बिना किसी प्रकार भविष्य की चिन्ता किये सब के समक्ष घोषित करूंगा। (मेरी समर नीति, पृष्ठ-12)
02. सुधारकों से मैं कहूंगा कि मैं स्वयं उनसे कहीं बढ़कर सुधारक हूँ। वे लोग इधर-उधर थोड़ा सुधार करना चाहते हैं-और मैं चाहता हूँ आमूल सुधार। हम लोगों का मतभेद है केवल सुधार की प्रणाली में। उनकी प्रणाली विनाशात्मक है और मेरी संघटनात्मक। मैं सुधार में विश्वास नहीं करता, मैं विश्वास करता हूँ स्वाभाविक उन्नति में। (मेरी समर नीति, पृष्ठ-13)
03. सामाजिक व्याधि का प्रतिकार बाहरी उपायों द्वारा नहीं होगा; हमें उसके लिए भीतरी उपायों का अवलम्बन करना होगा-मन पर कार्य करने की चेष्टा करनी होगी। चाहे हम कितनी ही लम्बी चैड़ी बातें क्यों न करें, हमें जान लेना होगा कि समाज के दोषों को दूर करने के लिए प्रत्यक्ष रूप से नहीं वरन् शिक्षादान द्वारा परोक्ष रूप से उसकी चेष्टा करनी होगी। (मेरी समर नीति, पृष्ठ-15)
04. हम मानते हैं कि यहाँ बुराईयाँ हैं पर बुराई तो हर कोई दिखा सकता है। मानव-समाज का सच्चा हितैषी तो वह है, जो इन बुराईयों को दूर करने का उपाय बताये। कोई एक दार्शनिक एक डुबते हुए लड़के को गंभीर भाव से उपदेश दे रहा था, तो लड़के ने कहा-“पहले मुझे पानी से बाहर निकालिए, फिर उपदेश दीजिए“। बस ठीक इसी तरह भारतवासी भी कहते हैं, “हम लोगों ने बहुत व्याख्यान सुन लिए, बहुत सी संस्थायें देख ली, बहुत से पत्र पढ़ लिये, अब तो हमें ऐसा मनुष्य चाहिए, जो अपने हाथ का सहारा दे, हमें इन दुःखों के बाहर निकाल दे। कहाँ है वह मनुष्य जो हमसे वास्तविक प्रेम करता है, जो हमारे प्रति सच्ची सहानुभूति रखता है?“ बस उसी आदमी की हमें जरूरत है। यहीं पर मेरा इन समाज सुधार आन्दोलनों से सर्वथा मतभेद है। आज सौ वर्ष हो गये, ये आन्दोलन चल रहे हैं, पर सिवाय निन्दा और विद्वेषपूर्ण साहित्य की रचना के इनसे और क्या लाभ हुआ है? (मेरी समर नीति, पृष्ठ-17)
05. प्रत्येक भारतीय भाषा में ऐसे साहित्य की रचना हो गयी है, जो जाति के लिए, देश के लिए कलंकस्वरूप है। क्या यही सुधार है! क्या इसी तरह देश गौरव पथ पर बढ़ेगा। यह है किसका दोष? (मेरी समर नीति, पृष्ठ-18)
06. भारतवर्ष में हमारा शासन सदैव राजाओं द्वारा हुआ है, राजाओं ने ही हमारे सब कानून बनाये हैं। अब वे राजा नहीं है, और इस विषय में अग्रसर होने के लिए हमें मार्ग दिखाने वाला अब कोई नहीं रहा। सरकार साहस नहीं करती। वह तो सर्वसाधारण के विचारों की गति देखकर ही अपनी कार्यप्रणाली निश्चित करती है। अपनी समस्याओं को हल कर लेने वाला एक कल्याणकारी और प्रबल लोकमत स्थापित करने में समय लगता है-काफी लम्बा समय लगता है, इस बीच हमें प्रतीक्षा करनी होगी। अतएव सामाजिक सुधार की सम्पूर्ण समस्या यह रूप लेती है-कहाँ हैं वे लोग, जो सुधार चाहते हैं। (मेरी समर नीति, पृष्ठ-18)
07. मुट्ठी भर लोग, जो सोचते हैं कि कतिपय बातें दोषपूर्ण हैं, राष्ट्र को गति नहीं दे सकते। राष्ट्र में आज गति क्यों नहीं है? क्यों वह जड़भावापन्न है? पहले राष्ट्र को शिक्षित करो, अपनी निजी विधायक संस्थाएं बनाओ, फिर तो नियम आप ही आप आ जायेंगे। जिस शक्ति के बल से, जिसके अनुमोदन से विधान का गठन होगा, पहले उसकी सृष्टि करो। आज राजा नहीं रहे; जिस नयी शक्ति से, जिस नये दल की सम्मति से नयी व्यवस्था गठित होगी, वह लोकशक्ति कहाँ है? (मेरी समर नीति, पृष्ठ-19)
08. आजकल विशेषतः दक्षिण में बौद्ध धर्म और उसके अज्ञेयवाद की आलोचना करने की एक प्रथा सी चल पड़ी है। यह उन्हें स्वप्न में भी ध्यान नहीं आता कि जो विशेष दोष आजकल हमारे समाज में विद्यमान है, वे सब बौद्ध धर्म द्वारा ही छोड़े गये हैं। (मेरी समर नीति, पृष्ठ-20)
09. बौद्ध धर्म के इतने विस्तार का कारण था-गौतम बुद्ध द्वारा प्रचारित अपूर्व नीति और उनका लोकोत्तर चरित्र। भगवान बुद्धदेव के प्रति मेरी यथेष्ट श्रद्धा-भक्ति है। पर मेरे शब्दों पर गौर कीजिए। बौद्ध-धर्म का विस्तार उक्त महापुरुष के मत एवं अपूर्व चरित्र के कारण उतना नहीं हुआ, जितना बौद्धों द्वारा निर्माण किये गये बड़े-बड़े मन्दिरों एवं भव्य प्रतिमाओं के कारण, समग्र देश के सन्मुख किये गये भड़कीले उत्सवों के कारण। पर अन्त में इन सब क्रियाकलापों में भारी अवनति हो गयी। -ऐसी अवनति कि उसका वर्णन भी श्रोताओं के सामने नहीं किया जा सकता। (मेरी समर नीति, पृष्ठ-20)
10. क्या भारतवर्ष में कभी सुधारकों का अभाव था? क्या तुमने भारत का इतिहास पढ़ा है? रामानुज, शंकर, नानक, चैतन्य, कबीर और दादू कौन थे? ये सब बड़े बड़े धर्माचार्य, जो भारत-गगन में अत्यन्त उज्ज्वल नक्षत्रों की नाई एक के बाद उदित हुये, फिर अस्त हो गये, कौन थे? क्या रामानुज के हृदय में नीच जाति के लिए प्रेम नहीं था? क्या उन्होंने अपने सारे जीवन भर चाण्डाल तक को अपने सम्प्रदाय में ले लेने का प्रयत्न नहीं किया? क्या नानक ने मुसलमान और हिन्दू दोनों से समानभाव से परामर्श कर समाज में एक नयी अवस्था लाने का प्रयत्न नहीं किया? इन सभी लोगों ने प्रयत्न किया, और उनका काम आज भी चल रहा है। भेद केवल इतना है कि वे आज के समाज-सुधारकों की तरह दाम्भिक नहीं थे; वे इनके समान अपने मुँह से कभी अभिशाप नहीं उगलते थे। उनके मुँह से केवल आशीर्वाद ही निकलता था। उन्होंने यह नहीं कहा-“पहले तुम दुष्ट थे, और अब तुम्हे अच्छा होना होगा।“ उन्होंने यही कहा, “पहले तुम अच्छे थे, अब और अच्छे बनो।“ ये दो बातें जमीन आसमान का फर्क पैदा कर देती है। (मेरी समर नीति, पृष्ठ-25)
11. मेरी नीति है-प्राचीन आचार्यों के उपदेशों का अनुसरण करना। मैंने उनके कार्य का अध्ययन किया है, और जिस प्रणाली से उन्होंने कार्य किया, उसके अविष्कार करने का मुझे सौभाग्य मिला। वे सब महान समाज संस्थापक थे। बल पवित्रता और जीवन शक्ति के वे अद्भुत आधार थे। उन्होंने सब से अद्भुत कार्य किया-समाज में बल, पवित्रता और जीवन शक्ति संचारित की। हमें भी सबसे अद्भुत कार्य करना है। आज अवस्था कुछ बदल गयी है, इसलिए कार्य-प्रणाली में कुछ थोड़ा-सा परिवर्तन करना होगा; बस इतना ही, इससे अधिक कुछ नहीं। (मेरी समर नीति, पृष्ठ-27)
12. किसी देश में-जैसे इंग्लैण्ड में-राजनीतिक सत्ता ही उसकी जीवन-शक्ति है। कला कौशल की उन्नति करना किसी दूसरे राष्ट्र का प्रधान लक्ष्य है। ऐसे ही और दूसरे देशों का भी समझिये। किन्तु भारतवर्ष में धार्मिक जीवन ही राष्ट्रीय जीवन का केन्द्र है और वही राष्ट्रीय जीवन रूपी संगीत का प्रधान स्वर है। (मेरी समर नीति, पृष्ठ-28)
13. यदि तुम धर्म को फंेककर राजनीति, समाजनीति अथवा अन्य किसी दूसरी नीति को अपनी जीवन-शक्ति का केन्द्र बनाने में सफल हो जाओ, तो उसका यह फल होगा कि तुम्हारा नामोनिशान तक न रह जाएगा। यदि तुम इससे बचना चाहो, तो अपनी जीवन-शक्तिरूपी धर्म के भीतर से ही तुम्हें अपने सारे कार्य करने होंगे-अपनी प्रत्येक क्रिया का केन्द्र इस धर्म को ही बनाना होगा। (मेरी समर नीति, पृष्ठ-28)
14. जो भी व्यक्ति अपने शास्त्र के महान सत्यों को दूसरों को सुनाने में सहायता पहुँचाएगा, वह आज एक ऐसा कर्म करेगा, जिसके समान दूसरे कोई कर्म नहीं। महर्षि मनु ने कहा है-“इस कलियुग में मनुष्यों के लिए एक ही कर्म शेष है। आजकल यज्ञ और कठोर तपस्याओं से कोई फल नहीं होता। इस समय दान ही अर्थात् एकमात्र कर्म है।“ और दानों में धर्मदान, अर्थात् आध्यात्मिक ज्ञान का दान ही सर्वश्रेष्ठ है। दूसरा दान है विद्यादान, तीसरा प्राणदान और चैथा अन्नदान। (मेरी समर नीति, पृष्ठ-30)
15. राजनीति सम्बन्धी विद्या का विस्तार रणभेरियों और सुसज्जित सेनाओं के बल पर किया जा सकता है। लौकिक एवं समाज सम्बन्धी विद्या का विस्तार उगलती तोपों पर चमचमाती तलवारों के बल पर हो सकता है। पर आध्यात्मिक विद्या का विस्तार तो शान्ति द्वारा ही सम्भव है। जिस प्रकार चक्षु-कर्ण गोचर न होता हुआ भी मृदु ओस-बिन्दु गुलाब की कलियों को विकसित कर देता है, वह वैसा ही आध्यात्मिक ज्ञान क विस्तार के सम्बन्ध में भी समझिए। यही एक दान है, जो भारत दुनिया को बार-बार देता आया है। जब कभी भी कोेई दिग्विजयी जाति उठी, जिसने संसार के विभिन्न देशों को एक साथ ला दिया और आपस में लेन देन की सुविधा कर दी, त्योंहि भारत उठा और संसार की उन्नति में अपना भी आध्यात्मिक ज्ञान का हिस्सा दे दिया। (मेरी समर नीति, पृष्ठ-32)
16. आवश्यकता है वीर्यवान, तेजस्वी, श्रद्धासम्पन्न और दृढ़विश्वासी, निष्कपट नवयुवकों की। ऐसे सौ मिल जाय, तो संसार का कायाकल्प हो जाय! इच्छाशक्ति संसार में सब से अधिक बलवती है। उसके सामने दुनिया की कोई चीज नहीं ठहर सकती, क्योंकि वह भगवान-साक्षात् भगवान से आती है। विशुद्ध और दृढ़ इच्छाशक्ति सर्वशक्तिमान है। क्या तुम इसमें विश्वास नहीं करते? सब के समक्ष अपने धर्म के महान सत्यों का प्रचार करो; संसार इनकी प्रतीक्षा कर रहा है। (मेरी समर नीति, पृष्ठ-34)
17. हमें ऐसे धर्म की आवश्यकता है, जिससे हम मनुष्य बन सकें। हमें ऐसे सिद्धान्तों की आवश्यकता है, जिससे हम मनुष्य हो सकें। हमें ऐसी सर्वांगसम्पन्न शिक्षा चाहिए, जो हमें मनुष्य बना सके और यह रही सत्य की कसौटी-जो भी तुम्हे शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक दुर्बलता लाए, उसे जहर की भांति त्याग दो; उसमें जीवन-शक्ति नहीं है, वह कभी सत्य नहीं हो सकता। सत्य तो बलप्रद है, वह पवित्रता स्वरूप है, ज्ञान स्वरूप है। सत्य तो वह है जो शक्ति दे, जो हृदय के अन्धकार को दूर कर दे, जो हृदय में स्फूर्ति भर दें। (मेरी समर नीति, पृष्ठ-36)
18. मैं अपने देश से प्रेम करता हूँ; मैं तुम्हें और अधिक पतित, और ज्यादा कमजोर नहीं देख सकता। अतएव तुम्हारे कलयाण के लिए, सत्य के लिए और जिससे मेरी जाति और अधिक अवनत न हो जाए इसलिए, मैं जोर से चिल्लाकर कहने के लिए बाध्य हो रहा हूँ-बस ठहरो! अवनति की ओर न बढ़ो। जहाँ तक गये हो, बस उतना ही काफी हो चुका। (मेरी समर नीति, पृष्ठ-37)
19. सत्य जितना ही महान होता है, उतना ही सहज, बोधगम्य होता है-स्वयं अपने अस्तित्व क समान सहज! जैसे अपने अस्तित्व को प्रमाणित करने के लिए और किसी की आवश्यकता नहीं होती, बस वैसा ही! उपनिषद् के सत्य तुम्हारे सामने है। इनका अवलम्बन करो, इनकी उपलब्धि कर इन्हें कार्य में परिणत करो-बस देखोगे भारत का उद्धार निश्चित है। (मेरी समर नीति, पृष्ठ-37)
20. लोग देश भक्ति की चर्चा करते हैं। मैं भी देश भक्ति में विश्वास करता हूँ और देशभक्ति के सम्बन्ध में मेरा भी एक आदर्श है। बड़े काम करने के लिए तीन बातों की आवश्यकता होती है। पहला है-हृदय-अनुभव की शक्ति। बुद्धि या विचारशक्ति में क्या धरा है? वह तो कुछ दूर जाती है और बस वहीं रूक जाती है। पर हृदय-हृदय तो महाशक्ति का द्वार है; अन्तःस्फूर्ति वहीं से आती है। प्रेम असम्भव को भी सम्भव कर देता है। यह प्रेम की जगत के सब रहस्यों का द्वार है। अतएव, ऐ मेरे भावी सुधारकों, मेरे भावी देशभक्तों-तुम हृदयवान बनो। (मेरी समर नीति, पृष्ठ-38)

समन्वयाचार्य श्रीरामकृष्ण
01. स्वामी विवेकानन्द ने जिस समय कहा था-एक विश्व, एक मानव, एक धर्म, एक ईश्वर, तब लोगों ने इस बात का उपहास किया था, लोगों ने इस प्रकार की संभावना पर संदेह प्रकट किया था, लोग स्वीकार नहीं कर पाये थे। किन्तु आज सभी लोग संयुक्त राष्ट्र संघ (UNO) की ओर दौडे़ चले जा रहे हैं। जाओ, जाओ की अवस्था ने मानो उनको दबोच लिया है। (समन्वयाचार्य श्रीरामकृष्ण, पृष्ठ-22)
02. श्रीरामकृष्ण के जीवन में जो धर्म साकार हुआ है उसका नयापन यही है कि इसमें जो है वह सभी के लिए, सभी देशों के लिए अपने सभी काल के लिए आवश्यक है। इसी कारण इसे “सार्वभौमिक“ या यूनिवर्सल कहा जा सकता है। (समन्वयाचार्य श्रीरामकृष्ण, पृष्ठ-25)
03. यह मतवाद जो द्वैत, अद्वैत एवम् अन्यान्य मतों के बीच समन्वय स्थापित करता है, समन्वयवादी वेदान्त है। यह वेदान्त जिस प्रकार ब्रह्म को सगुण और निर्गुण दोनों ही रूपों में स्वीकार करता है, वैसे ही (ब्रह्म को) साकार और निराकार रूप में भी स्वीकार करता है। इस दृष्टि से यह शंकर के परम्परागत अद्वैत से भिन्न है। (पृष्ठ-26)
04. निष्काम कर्म के साथ ज्ञान, भक्ति आदि सब मिलकर एक योग बनेगा। इस योग को यदि “रामकृष्णयोग“ कहा जाय तो भी कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। (समन्वयाचार्य श्रीरामकृष्ण, पृष्ठ-32)
05. ब्रह्म को छोड़कर शक्ति का और शक्ति को छोड़कर ब्रह्म का चिन्तन भी नहीं किया जा सकता। नित्य को छोड़कर लीला के बारे में और लीला को छोड़कर नित्य के बारे में सोचा भी नहीं जा सकता। इसीलिये उनके लिए काली ही ब्रह्म है और ब्रह्म ही काली है। वस्तु एक ही है; ब्रह्म जब निष्क्रिय है-सृष्टि स्थिति-प्रलय की क्रिया में भाग नहीं लेते तो वे ब्रह्म कहलाते हैं और जब वे ये कार्य करते हैं तब वे काली, शक्ति कहलाते हैं। (समन्वयाचार्य श्रीरामकृष्ण, पृष्ठ-51)
06. जिस समय जो अवतारी पुरुष आये, उनमें से प्रत्येक ने एक आदर्श प्रस्तुत किया। निश्चिय ही उनमें अन्य कोई आदर्श नहीं था ऐसा नहीं; उनमें भी सभी आदर्श थे; परन्तु उनके जीवन मेंे एक भाव विशेषरूप से प्रकाशित हुआ था। यह इस प्रकार है कि श्रीकृष्ण ने सभी धर्मों, सभी दर्शनों, सभी प्रथाओं और मतवादों का समन्वय कर दिया है; उन्होंने दिखला दिया है कि कर्म, योग, ज्ञान और भक्ति एक ही महायोग के एक एक अंग है। यही सिद्ध करने के लिए उनका स्वयं का जीवन निष्काम कर्म द्वारा निर्मित था। निष्काम कर्म से चित्तशुद्धि होती है और चित्तशुद्धि होने पर वैराग्य उत्पन्न होता है वैराग्य के उपरान्त त्याग। त्याग का आदर्श लेकर आये बुद्धदेव। स्वयं के लिए कुछ भी नहीं, मुक्ति भी नहीं, सब कुछ जीवों के लिए। जीवों की मुक्ति का पथ नहीं खोज सका ऐसा कहकर रोने लगे थे। त्याग के पश्चात् ज्ञान जिसे लेकर आये शंकर।. . . इसी ज्ञान के बाद पे्रम। इसी प्रेमामृत का पान करने के लिए आगमन हुआ पे्रमावतार महाप्रभु श्री चैतन्य का। किन्तु भारत ने सोचा कि ये सभी एक दूसरे के परस्पर विरोधी हैं। यह विरोध दूर हुआ है सर्व-धर्म-समन्वय के मूर्तरूप श्रीरामकृष्ण देव के आगमन से। इस अविराम साधना प्रवाह की परि-समाप्ति हुई है श्रीरामकृष्ण रूपी समन्वय सागर में। (समन्वयाचार्य श्रीरामकृष्ण, पृष्ठ-42)
07. घृणित वेश्या में भी वे माँ जगदम्बा को देखते थे। इसीलिये श्रीरामकृष्ण के जीवन में जिस प्रकार नरेन्द्र, राखाल, शशि, शरत आदि शुद्ध सत्व बालक, गिरीश, राम, सुरेन, कालिपद आदि गृहस्थ भक्त, साधक, आचार्य, और पण्डित आते थे; उसी प्रकार शिक्षक, अध्यापक, पत्रकार, चित्रकार, गायक, वादक, डाक्टर, वैद्य, वकील, मुंशी, जमींदार, पिछड़े लोग, उपेक्षित वर्ग के लोग (जैसे रसिक मेंहतर, भर्तृहरि माली, शम्भु कुम्हार, मधु युगी) रसोइया, दरबान, पहलवान, मन्मथ गुण्डा, डकैत, वागदी पाठक, शराबी, पागल, गाड़ीवाला, हलवाई, किसान, मारवाड़ी, व्यवसायी, वैश्या, लुहारिन, धाप, नौकरानी, पगली रंगशाला के अभिनेता-अभिनेत्रियां (जैसे अमृत सेन, नीलमाधव, महेन्द्र, विनोदिनी, वनहारिनी, गंगामणि, किरनबाला आदि) आदि भी उनके जीवन में स्थान पाते हैं। श्रीरामकृष्ण, विभिन्न स्तरों के विभिन्न व्यवसायों के, विभिन्न जाति के, विभिन्न विचारों के, विभिन्न अवस्थाओं के मनुष्यों को एक सूत्र में बांधकर जगत को एक अत्यन्त सुसज्जित मनोरम, मानवत्व का हार दे गये हैं। इस प्रकार का अतुलनीय समन्वय पहले कभी नहीं देखा गया है। (समन्वयाचार्य श्रीरामकृष्ण, पृष्ठ-60)