वसुधैव कुटुम्बकम्
आर्य
आर्य धर्म, प्राचीन आर्यो का धर्म और श्रेष्ठ धर्म दोनों समझे जाते हैं। प्राचीन आर्यों के धर्म में प्रथमतः प्राकृतिक देवमण्डल की कल्पना है जो भारत, ईरान, यूनान, रोम, जर्मनी आदि सभी देशों में पाई जाती है। इसमें आकाश और पृथ्वी के बीच में अनेक देवताओं की सृष्टि हुई है। भारतीय आर्यो का मूल धर्म ऋग्वेद में अभिव्यक्त है। ईरानीयों का अवेस्ता में, यूनानीयों का उलिसीज और ईलियाद में। देवमण्डल के साथ आर्यो में कर्मकाण्ड का विकास हुआ जिसमें मंत्र, यज्ञ, श्राद्ध, अतिथि सत्कार आदि मुख्यतः सम्मिलित थे। आर्य आध्यात्मिक दर्शन (ब्रह्म, आत्मा, विश्व, मोक्ष आदि) और आर्य नीति का विकास भी समानान्तर हुआ। शुद्ध नैतिक आधार पर अवलंबित परम्परा विरोधी सम्प्रदायों-बौद्ध, जैन आदि ने भी अपने धर्म को आर्य धर्म अथवा सद्धर्म कहाँ सामाजिक अर्थ में “आर्य“ का प्रयोग पहले “सम्पूर्ण मानव“ के अर्थ में होता था। कभी-कभी इसका प्रयोग सामान्य जनता के लिए भी होता था। फिर अभिजात और श्रमिक वर्ग में अन्तर दिखाने के लिए आर्य वर्ण और शूद्र वर्ण का प्रयोग होने लगा। फिर आर्यो ने अपनी सामाजिक व्यवस्था का आधार वर्ण को बनाया और समाज चार वर्णो में वृत्ति और श्रम के आधार पर विभक्त हुआ। ऋक्संहिता में चारों वर्णो की उत्पत्ति और कार्य का उल्लेख इस प्रकार है-ब्राह्मणोस्य मुखमासीद् बाहू राजन्यः कृतः। ऊरू तदस्य यद्वैश्यः पदभ्यां शूद्रोजायत।। (10. 90. 22) अर्थात् इस विराट पुरूष के मुँह से ब्राह्मण, बाहु से क्षत्रिय, ऊरू से वैश्य और पद से शूद्र उत्पन्न हुआ।
आजकल की भाषा में ये वर्ग बौद्धिक, प्रशासकीय, व्यावसायिक तथा श्रमिक थे। मूल में इनमें तरलता थी। एक ही परिवार में कई वर्ण के लोग रहते और परस्पर विवाहादि सम्बन्ध और भोजन-पान आदि होते थे। क्रमशः ये वर्ग परस्पर वर्जनशील होते गये। ये सामाजिक विभाजन आर्य परिवार की प्रायः सभी शाखाओं में पाए जाते हैं। यद्यपि इनके नामों और सामाजिक स्थिति में देशगत भेद मिलते हैं। प्रारम्भिक आर्य परिवार पितृसत्तात्मक था, यद्यपि आदित्य, अदिति से उत्पन्न। दैत्य, दिति से उत्पन्न आदि शब्दों में मातृसत्तात्मक ध्वनि वर्तमान है। दम्पति की कल्पना में पति-पत्नी का गृहस्थी के ऊपर समान अधिकार था। परिवार में पुत्रजन्म की कामना की जाती थी। दायित्व के कारण कन्या का जन्म परिवार को गम्भीर बना देता था, किन्तु उसकी उपेक्षा नहीं की जाती थीं। घोषा, लोपामुद्रा, अपाला, विश्वारा आदि स्त्रियां मंत्रद्रष्टा ऋषिपद को प्राप्त हुईं थी। विवाह प्रायः युवावस्था में होता था। पति-पत्नी को परस्पर निर्वाचन का अधिकार था। विवाह धार्मिक कृत्यों के साथ सम्पन्न होता था जो परिवर्ती ब्राह्म विवाह से मिलता जुलता था।
प्रारम्भिक आर्य संस्कृति में विद्या, साहित्य ओर कला का ऊँचा स्थान है। भारोपीय भाषा, ज्ञान के सशक्त माध्यम के रूप में विकसित हुई। इसमें काव्य, धर्म, दर्शन आदि विभिन्न शास्त्रों का उदय हुआ। आर्यो का प्राचीनतम साहित्य वेद भाषा, काव्य और चिन्तन सभी दृष्टियों से महत्वपूर्ण है। ऋग्वेद में ब्रह्मचर्य और शिक्षण पद्धति के उल्लेख पाये जाते हैं जिससे पता लगता है कि शिक्षण व्यवस्था का संगठन आरम्भ हो गया था और मानव अभिव्यक्तियों ने शास्त्रीय रूप धारण करना शुरू कर दिया था। ऋग्वेद में कवि को ऋषि अर्थात् मन्त्र दृष्टा माना गया है। वह अपनी अंतःदृष्टि से सम्पूर्ण विश्व का दर्शन करता था। उषा, सवितृ, अरण्यानी आदि के सूक्तों में प्रकृति निरीक्षण और मानव की सौन्दर्य प्रियता तथा रसानुभूति का सुन्दर चित्रण है। ऋग्वेदसंहिता में पुर और ग्राम आदि के उल्लेख भी पाए जाते हैं। लोहे के नगर, पत्थर की सैकड़ों पुरियाँ, सहस्रद्वार तथा सहस्रस्तंभ अट्टालिकाएं निर्मित होती थी। साथ ही सामान्य गृह और कुटी भी बनते थे। भवन निर्माण में इष्टका (ईंट) का उपयोग होता था। यातायात के लिए पथों को निर्माण और यान के रूप में कई प्रकार के रथों का उपयोग किया जाता था। गीत, नृत्य और वादित्र का संगीत के रूप में प्रयोग होता था। बाण, क्षोणी, कर्करि, प्रभृति वाद्यों के नाम पाए जाते हैं। पुत्रिका (पुत्तलिका, पुतली) के नृत्य का भी उल्लेख मिलता है। अलंकरण की प्रथा विकसित थी। स्त्रियां निष्क, अज्जि, बासी, वक्, रूक्म आदि गहने पहनती थीं। विविध प्रकार के मनोविनोद में काव्य, संगीत, द्युत, घुड़दौड़, रथदौड़ आदि सम्मिलित थे।
नैतिक अर्थ में “आर्य“ का प्रयोग महाकुल, कुलीन, सभ्य, सज्जन, साधु आदि के लिए पाया जाता है। सायणाचार्य ने अपने ऋग्भाष्य में आर्य का अर्थ विज्ञ, यज्ञ का अनुष्ठाता, विज्ञ स्तोता, विद्वान, आदरणीय अथवा सर्वत्र गंतव्य, उत्तम वर्ण, मनु, कर्मयुक्त और कर्मानुष्ठान से श्रेष्ठ आदि किया है। आदरणीय के अर्थ में तो संस्कृत साहित्य में आर्य का प्रयोग बहुत हुआ है। पत्नी, पति को आर्यपुत्र कहती थी। पितामह को आर्य (हिन्दी में आजा) और पितामही को आर्या (हिन्दी में आजी, ऐया, अइया) कहने की प्रथा रही है। नैतिक रूप से प्रकृत आचरण करने वाले को आर्य कहा गया है। प्रारम्भ में आर्य का प्रयोग प्रजाति अथवा वर्ण के अर्थ में भले ही होता रहा हो, आगे चलकर भारतीय इतिहास में इसका नैतिक अर्थ ही अधिक प्रचलित हुआ जिसके अनुसार किसी भी वर्ण अथवा जाति का व्यक्ति अपनी श्रेष्ठता अथवा सज्जनता के कारण आर्य कहा जाने लगा।
आर्य, भारतीयों विशेषकर उत्तर भारतीयों के वैदिक कालीन पूर्वजों को कहा जाता है। आर्य प्रजाति की आदिभूमि के सम्बन्ध में अभी तक विद्वानों में बहुत मतभेद है। भाषावैज्ञानिक अध्ययन के प्रारम्भ में प्रायः भाषा और प्रजाति को अभिन्न मानकर एकोद्भव (मानोजेनिक) सिद्धान्त का प्रतिपादन किये। माना गया है कि भारोपीय भाषाओं को बोलने वाले के पूर्वज कहीं एक ही स्थान में रहते थे और वहीं से विभिन्न देशों में गये। भाषावैज्ञानिक साक्ष्यों की अपूर्णता और अनिश्चितता के कारण यह आदिभूमि कभी एशिया, कभी पामीर-कश्मीर, कभी आस्ट्रिया-हंगरी, कभी जर्मनी, कभी स्वीडन-नार्वे और आज दक्षिण रूस के घास के मैदानों में ढूँढ़ी जाती है। आज आर्यो की विविध शाखाओं के बहुद्भव (पाॅलिजेनिक) होने का सिद्धान्त भी प्रचलित होता जा रहा है जिसके अनुसार यह आवश्यक नहीं कि आर्य-भाषा-परिवार की सभी जातियाँ एक ही मानववंश की रही हों। भाषा का ग्रहण तो समपर्क और प्रभाव से भी होता आया है। कई जातियों ने तो अपनी मूल भाषा छोड़कर विजातीय भाषा को पूर्णतः अपना लिया है। जहाँ तक भारतीय आर्यो के उद्गम का प्रश्न है, भारतीय साहित्य में उनके बाहर से आने के सम्बन्ध में एक भी उल्लेख नहीं है। कुछ लोगों ने परमपरा और अनुश्रुति के अनुसार मध्यदेश तथा कंजगल और हिमालय तथा विन्ध्य के बीच का प्रदेश अथवा आर्यावर्त (उत्तर भारत) ही आर्यो की आदिभूमि माना है। पौराणिक परम्परा से विच्छिन्न केवल ऋग्वेद के आधार पर कुछ विद्वानों ने सप्तसिंधु (सीमांत एवं पंजाब) को आर्यो की आदिभूमि माना है। लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक ने ऋग्वेद में वर्णित दीर्घ अहोरात्र, प्रलंबित उषा आदि के आधार पर आर्यो की मूलभूमि को ध्रुव प्रदेश में माना था। बहुत से यूरोपीय विद्वान और उनके अनुयायी भारतीय विद्वान, अब भी भारतीय आर्यो को बाहर से आया हुआ मानते हैं।
अब आर्यो के भारत के बाहर से आने का सिद्धान्त गलत सिद्ध कर दिया गया है। ऐसा माना जाता है कि इस सिद्धान्त का प्रतिपादन करके अंग्रेज और यूरोपीय लोग भारतीयों में यह भावना भरना चाहते थे कि भारतीय लोग पहले से गुलाम हैं। इसके अतिरिक्त अंग्रेज इसके द्वारा उत्तर भारतीय आर्यो तथा दक्षिण भारतीय द्रविड़ों में फूट डालना चाहते थे।
विज्ञान ने भी आर्य द्रविड़ के भेद को नकारा
नई दिल्ली 8 दिसंबर 2009। सदियों से भारतीय इतिहास पर छायी आर्य आक्रमण संबंधी झूठ की चादर को विज्ञान की खोज ने एक झटके में ही तार तार कर दिया है। विज्ञान की आँखो ने जो देखा है उसके अनुसार तो सच यह है कि आर्य आक्रमण नाम की चीज न तो भारतीय इतिहास के किसी कालखण्ड में घटित हुई और न ही आर्य तथा द्रविड़ नामक दो पृथक मानव नस्लों का अस्तित्व ही कभी धरती पर रहा है। इतिहास और विज्ञान के मेल के आधार पर हुआ यह क्रांतिकारी जैव-रासायनिक डीएनए गुणसुत्र आधारित अनुसांधान फिनलैण्ड के तारतू विश्वविद्यालय, एस्टोनिया मंे हाल ही में सम्पन्न हुआ है। कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय के प्रोफेसर डा0 कीवीसील्ड के निर्देशन में एस्टोनिया स्थित एस्टोनियन बायोसंेटर, तारतू विश्वविद्यालय के शोध छात्र ज्ञानेश्वर चैबे ने अपने अनुसंधान में यह सिद्ध किया है कि सारे भारतवासी जीन अर्थात् गुणसूत्रों के आधार पर एक ही पूर्वजों की संताने हैं, आर्य और द्रविड़ का कोई भेद गुणसूत्रों के आधार पर नहीं मिलता है, और तो जो अनुवंाशिक गुणसूत्र भारतवासियांे मंे पाए जाते है। वे डीएनए गुणसूत्र दुनिया के किसी अन्य देश में नहीं पाए गए। शोधकार्य मंे अखण्ड भारत अर्थात् वर्तमान भारत, पाकिस्तान, बंगलादेश, श्रीलंका और नेपाल की जनसंख्या मंे विद्यमान लगभग सभी जातियांे, उपजातियांे, जनजातियांे, मंे लगभग 13000 नमूनांे के परीक्षण परिणामांे का इस्तेमाल किया गया। इनके नमूनांे के परीक्षण से प्राप्त परिणाम की तुलना मध्य एशिया यूरोप और जापान आदि देशांे मंे रहने वाली मानव नस्लों के गुणसूत्र से की गई। इस तुलना में पाया गया कि सभी भारतीय चाहे वह किसी भी धर्म के मानने वाले है, 99 प्रतिशत समान पूर्वजांे की संतानंे हंै। भारतीयांे के पूर्वजांे का डीएनए गुणसूत्र यूरोप, मध्य एशिया और चीन-जापान आदि देशांे की नस्लों से बिलकुल अलग है। और इस अन्तर को स्पष्ट पहचाना जा सकता है।
जेनेटिक हिस्ट्री आफ साउथ एशिया
ज्ञानेश्वर चैबे को जिस बिन्दु पर शोध के लिए पीएच0 डी0 उपाधि स्वीकृत की गई है। उसका शीर्षक है-“डेमोग्राफिक हिस्ट्री आॅफ फ्राम साउथ एशिया: द प्रिवेलिंग जेनेटिक कांटिनिटी फ्राॅम प्रीहिस्टोरिक टाइम्स“ अर्थात् “दक्षिण एशिया का जनसांख्यिक इतिहास: पूर्वऐतिहासिक काल से लेकर अब तक की अनुवांशिकी निरंतरता।“ संपूर्ण शोध की उपकल्पना ज्ञानेश्वर के मन में उस समय जागी जब वह हैदराबाद स्थित “संेटर फार सेल्यूलर एंड मोलेक्यूलर बायोलॅाजी अर्थात् सीसीएमबी“ मंे अंतर्राष्ट्रीय स्तर के ख्यातलब्ध भारतीय जैव वैज्ञानिक डाॅ0 लालजी सिंह और डाॅ0 के0 थंगराज के अन्तरगत परास्नातक बाद की एक शोध परियोजना मंे जुटे थे। ज्ञानेश्वर के मन में विचार आया कि जब डीएनए जांच के द्वारा किसी बच्चे के माता पिता के बारे मंे सच्चाई का पता लगाया जा सकता है। तो फिर भारतीय सभ्यता के पूर्वज कौन थे, इसका भी ठीक-ठीक पता लगाया जा सकता है। बस फिर क्या था, उनके मन में इस शोधकार्य को कर डालने की जिद पैदा हो गई। ज्ञानेश्वर बताते हंै-बचपन से मेरे मन में यह सवाल उठता रहा है कि हमारे पूर्वज कौन थे? बचपन में जो पाठ पढ़े, उससे तो भ्रम की स्थिति पैदा हो गई थी कि क्या हम आक्रमणकारियांे की संतान है? दूसरे एक मानवोचित उत्सुकता भी रही। आखिर प्रत्येक व्यक्ति के जीवन में कभी न कभी तो यह जानने की उत्सुकता पैदा होती ही है कि उसके परदादा -परदादी कौन थे, कहाँ से आए थे, उनका मूलस्थान कहाँ है और इतिहास के बीते हजारो वर्षाे मंे उनके पुरखों ने प्रकति की मार कैसे सही, कैसे उनका अस्तित्व अब तक बना रहा है? ज्ञानेश्वर के अनुसार, पिछले एक दशक में मानव जेनेटिक्स और जीनोमिक्स के अध्ययन में जो प्रगति हुई है। उससे यह संभव हो गया है कि हम इस बात का पता लगा लें कि मानव जाति में किसी विशेष नस्ल का उद्भव कहाँ हुआ, वह उद्विकास प्रक्रिया मंे दुनिया के किन-किन स्थानों से गुजरी, कहाँ-कहाँ रही और उनके मूल पुरखे कौन रहे है? उनके अनुसार, माता-पिता दोनांे के डीएनए में ही उनके पुरखों का इतिहास भी समाया हुआ रहता है। हम जितनी गहराई से उनके डीएनए संरचना का अध्ययन करेंगे, हम यह पता कर लेंगे कि उनके मूल जनक कौन थे? और तो और इसके द्वारा पचासों हजार साल पुराना अपने पुरखों का इतिहास भी खोजा जा सकता है।
कैब्रिज के डाॅ0 कीवीसील्ड ने किया शोध निर्देशन
हैदराबाद की प्रयोगशाला में शोध करते समय उनका संपर्क दुनिया के महान जैव वैज्ञानिक प्रोफेसर कीवीसील्ड के साथ आया। प्रो0 कीवीसील्ड संसार में मानव नस्लों की वैज्ञानिक ऐतिहासिकता और उनकी बसावट पर कार्य करने वाले उच्चकोटि के वैज्ञानिक माने जाते हैं। इस नई सदी के प्रारंभ मंे ही प्रोफेसर कीवीसील्ड ने अपने अध्ययन में पाया था कि दक्षिण एशिया की जनसंाख्यिक संरचना अपने जातिय एवं जनजातिय स्वरूप मंे न केवल विशिष्ट है वरन् वह शेष दुनिया से स्पष्टतः भिन्न है। संप्रति प्रोफेसर डाॅ0 कीवीसील्ड कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय के बायोसंेटर का निर्देशन कर रहे हंै। प्रोफेसर डाॅ0 कीवीसील्ड की प्रेरणा से ज्ञानेश्वर चैबे ने एस्टोनियन बायोसेंटर में सन् 2005 में अपना शोधकार्य प्रारंभ किया और देखते ही देखते जीवविज्ञान संबंधी अंतर्राष्ट्रीय स्तर के शोध जर्नल्स मंे उनके दर्जनों से ज्यादा शोध पत्र प्रकाशित हो गए। इसमें से अनेेक शोध पत्र जहाँ उन्हांेने अपने गुरूदेव प्रोफेसर कीवीसील्ड के साथ लिखे वहीं कई अन्य शोधपत्र अपने उन साथी वैज्ञानिकों के साथ संयुक्त रूप से लिखे जो इसी विशय से मिलते जुलते अन्य मुद्दों पर काम कर रहे हैं। अपने अनुसंधान के द्वारा ज्ञानेश्वर ने इसके पूर्व हुए उन शोधकार्यो को भी गलत सिद्ध किया है। जिनमें यह कहा गया है कि आर्य और द्रविड़ दो भिन्न मानव नस्लंे हंै और आर्य दक्षिण एशिया अर्थात् भारत मंे कहीं बाहर से आए। उनके अनुसार पूर्व के शोधकार्यो मंे एक तो बहुत ही सीमित मात्रा में नमूनें लिए गए थे, दूसरे उन नमूनांे की कोशिकीय संरचना और जीनोम इतिहास का अध्ययन “लो रीजोलूशन“ अर्थात् न्यून आवर्धन पर किया गया इसके विपरीत हमने अपने अध्ययन में व्यापक मात्रा में नमूनों का प्रयोग किया और “हाई रीजोलूशन“ अर्थात् उच्च आवर्धन पर उन नमूनों पर प्रयोगशाला मंे परीक्षण किया तो हमंे भिन्न परिणाम प्राप्त हुए।
माइटोकांड्रियल डीएनए में छुपा है पुरखांे का इतिहास
ज्ञानेश्वर द्वारा किए शोध में माइटोकांड्रियल डीएनए और वाई क्रोमोसोम्स और उनसे जुडे हेप्लोग्रुप के गहन अध्ययन द्वारा सारे निष्कर्ष प्राप्त किए गए हैं। उल्लेखनीय है कि माइटोकांड्रिया मानव की प्रत्येक कोशिका में पाया जाता है। जीन अर्थात् मानव गुणसूत्र के निर्माण मंे भी इसकी प्रमुख भूमिका रहती है। प्रत्येक मानव जीन अर्थात् गुणसूत्र के दो हिस्से रहते हैं। पहला न्यूक्लियर जीनोम और दूसरा माइटोकांड्रियल जीनोम। माइटोकांड्रियल जीनोम गुणसूत्र का वह तत्व है जो किसी कालखण्ड में किसी मानव नस्ल में होने वाले उत्परिवर्तन को अगली पीढ़ी तक पहँुचाता है और वह इस उत्परिवर्तन को आने वाली पीढ़ियांे में सुरक्षित भी रखता है। इसे इस प्रकार भी समझा जा सकता है कि माइटोकांड्रियल डीएनए वह तत्व है जो एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक माता के पक्ष की सूचनाएँ अपने साथ हूबहू स्थानांतरित करता है। यहाँ यह समझाना जरूरी है कि किसी भी व्यक्ति की प्रत्येक कोशिका मंे उसकी माता और उनसे जुड़ी पूर्व की हजारों पीढ़ियांे के माइटोकांड्रियल डीएनए सुरक्षित रहते है। इसी प्रकार वाई क्रोमोसोम्स पिता से जुड़ी सूचना को एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को स्थानांतरित करते है। वाई क्रोमोसोम्स प्रत्येक कोशिका के केंद्र मंे रहता है और किसी भी व्यक्ति में उसके पूर्व के सभी पुरूष पूर्वजों के वाई क्रोमोसोम्स सुरक्षित रहते हंै। इतिहास के किसी मोड़ पर किसी व्यक्ति की नस्ल में कब और किस पीढ़ी मंे उत्परिवर्तन हुआ, इस बात का पता प्रत्येक व्यक्ति की कोशिका मंे स्थित वाई क्रोमोसोम्स और माइटोकांड्रियल डीएनए के अध्ययन से आसानी से लगाया जा सकता है। यह बात किसी समूह और समुदाय के संदर्भ मंे भी लागू होती है।
एक वंशवृक्ष से जुड़े है सभी भारतीय
ज्ञानेश्वर ने अपने अनुसंधान को दक्षिण एशिया में रहने वाले विभिन्न धर्माे जातियांे की जनसांख्यिकी संरचना पर कंेद्रित किया। शोध मंे पाया गया है कि तमिलनाडु की सभी जातियों-जनजातियों, केरल, कर्नाटक, आंध्रप्रदेश जिन्हें पूर्व मंे कथित द्रविड़ नस्ल से प्रभावित माना गया है, की समस्त जातियों के डीएनए गुणसूत्र, तथा उत्तर भारतीय जातियों जनजातियों के डीएनए का उत्पत्ति आधार गुणसूत्र एक समान है। उत्तर भारत मंे पाये जाने वाले कोल, कंजर, दुसाध, धरकार, चमार, थारू, क्षत्रिय और ब्राह्मणांे के डीएनए का मूल स्रोत दक्षिण भारत मंे पाई जाने वाली जातियो के मूल स्रोत से कहीं से भी अलग नहीं है इसी के साथ जो गुणसूत्र उपरोक्त जातियांे में पाए गए हैं। वही गुणसूत्र मकरानी, सिंधी, बलोच, पठान, ब्राहई, बुरूषो और हजारा आदि पाकिस्तान मंे पाये जाने वाले समूहों के साथ पूरी तरह से मेल खाते है।