श्री राज नाथ सिंह (10 जुलाई, 1951 - )
परिचय -
राजनाथ सिंह (10 जुलाई, 1951) भारतीय जनता पार्टी के प्रसिद्ध राजनीतिज्ञ, उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री एवं वर्तमान भारत सरकार में गृह मंत्री हैं। राजनाथ सिंह पहले भाजपा के अध्यक्ष और भाजपा की उत्तर प्रदेश (जो उनका गृह राज्य भी है) ईकाई के अध्यक्ष भी रह चुके हैं। प्रारंभ में वे भौतिकी के व्याख्याता थे, पर शीघ्र जनता पार्टी से जुड़ने के लिए उन्होंने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से अपने दीर्घ संबंधों का उपयोग किया, जिसके कारण वे उत्तर प्रदेश में कई पदों पर विराजमान हुए।
राजनाथ सिंह का जन्म 10 जुलाई, 1951 को वाराणसी के चकिया तहसील में हुआ था। उनके पिता का नाम श्री राम बदन सिंह और माता का नाम श्रीमती गुजराती देवी था। राजनाथ सिंह ने सावित्री सिंह से विवाह किया है। उनके दो पुत्र और एक पुत्री हैं। दोनों पुत्र राजनीति में सक्रिय हैं। एक साधारण कृषक परिवार में जन्मे राजनाथ सिंह ने आगे चलकर गोरखपुर विश्वविद्यालय से प्रथम क्ष्रेणी में भौतिक शास्त्र में आचार्य की उपाधि प्राप्त की। वो 13 साल की आयु से (1964 सन से) संघ परिवार से जुड़े हुए हैं। मिर्जापुर में भौतिकी व्याख्यता की नौकरी लगने के बाद भी संघ से जुड़े रहे। 1974 में उन्हें भारतीय जनसंघ का सचिव नियुक्त किया गया। राजनाथ सिंह 1988 में यूपी विधान परिषद के सदस्य बने। 1991 में जब राज्य में बीजेपी की सरकार बनी तो राजनाथ सिंह शिक्षा मंत्री बने। 1994 में वह राज्यसभा के लिए चुने गए। 1997 में वह प्रदेश भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष बने। 2000 में वह उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बने। 2002 में वह पार्टी के राष्ट्रीय महामंत्री बने और 2003 में केंद्रीय कृषि मंत्री बने। 2005 में उन्होंने पार्टी का सर्वोच्च पद संभाला।
वर्ष 1964 में 13 वर्ष की अवस्था में ही वे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़े। व्याख्याता बनने के बाद भी संघ से उनका जुड़ाव बना रहा। कदम-दर-कदम आगे बढ़ने वाले राजनाथ सिंह ने 1969 में गोरखपुर में भाजपा की छात्र इकाई अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद (एबीवीपी) में संगठन सचिव से राजनीतिक करियर की शुरुआत की। 1974 में वे जनसंघ के मिर्जापुर इकाई के सचिव बने। आपातकाल के दौरान राजनाथ सिंह जयप्रकाश नारायण के आंदोलन में शामिल हुए और जेल गए।
पहली बार 1977 में राजनाथ सिंह उत्तर प्रदेश से विधायक बने। 1977 में वे भाजपा के राज्य सचिव बने। 1986 में भारतीय जनता युवा मोर्चा के राष्ट्रीय महासचिव बनने वाले राजनाथ सिंह 1988 में इसके राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाए गए। वर्ष 1988 में ही सिंह उत्तरप्रदेश में विधान परिषद के सदस्य चुने गए। कल्याण सिंह सरकार के दौरान वे शिक्षामंत्री बने। उत्तर प्रदेश की सियासत में भले ही वे लंबी पारी खेल चुके हो लेकिन संसद में वे पहली बार 1994 में पहुंचे जब उन्हें राज्यसभा टिकट मिला। ऊपरी सदन में उन्हें भाजपा का मुख्य सचेतक भी बनाया गया। वर्ष 1997 में जब उत्तरप्रदेश राजनीतिक संकट का सामना कर रहा था, एक बार फिर से उन्होंने राज्य पार्टी अध्यक्ष की बागडोर संभाली और इस पद पर 1999 तक रहे। इसके बाद केंद्र में अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में राजग सरकार में भूतल परिवहन मंत्री बने। केंद्र और राज्यों के बीच उनका आना-जाना लगा रहा। 28 अक्तूबर, 2000 को वे राम प्रकाश गुप्त की जगह उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बने। 2002 तक वे राज्य के मुख्यमंत्री रहे, लेकिन तब तक राज्य में समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी बढ़त बना चुकी थीं। भाजपा ने बसपा प्रमुख मायावती को उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री के तौर पर समर्थन देने को फैसला किया लेकिन राजनाथ सिंह ने इस कदम पर एतराज जाहिर किया था। इसके बाद एक बार फिर से वे भाजपा के राष्ट्रीय महासचिव बने। किसान परिवार से आने वाले राजनाथ सिंह 2003 में राजद से अजित सिंह के अलग होने के बाद वाजपेयी मंत्रिमंडल में कृषिमंत्री के तौर पर वापसी की। भाजपा में राजनाथ सिंह के आगे बढ़ने की यात्रा जारी रही। 31 दिसंबर 2005 को वे राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाए गए। उनके कार्यकाल में पहली बार कर्नाटक में भाजपा सत्ता में आई।
”भारत के पहले ग्लोबल यूथ थे स्वामी विवेकानन्द“
- श्री राजनाथ सिंह, गृहमंत्री, भारत
साभार - दैनिक जागरण व काशी वार्ता, वाराणसी संस्करण, दि0 12-13 जनवरी, 2015
श्री राज नाथ सिंह (10 जुलाई, 1951 - )
”भारत के पहले ग्लोबल यूथ थे स्वामी विवेकानन्द“
- श्री राजनाथ सिंह, गृहमंत्री, भारत
साभार - दैनिक जागरण व काशी वार्ता, वाराणसी संस्करण, दि0 12-13 जनवरी, 2015
श्री लव कुश सिंह ”विश्वमानव“ द्वारा स्पष्टीकरण
स्वामी विवेकानन्द के जन्म (सोमवार, 12 जनवरी, सन् 1863 ई0) से आज (सोमवार, 27 मार्च, सन् 2017 ई0) के दिन तक 154 वर्ष 2 माह 15 दिन हो गये और उनके ब्रह्मलीन (सोमवार, 4 जुलाई, सन् 1902 ई0) के दिन से आज (सोमवार, 27 मार्च, सन् 2017 ई0) के दिन तक 114 वर्ष 8 माह 23 दिन हो गये। स्वामी जी के जन्म और ब्रह्मलीन होने से लेकर अब तक भारत 100 वर्ष से बहुत अधिक समय पार कर चुका है। उस समय भारत पर ब्रिटीश शासन का अधिपत्य था। एक युवा उम्र का सन्यासी उस वक्त कितने संसाधन से युक्त रहा होगा? फिर भी वो सन्यासी अपने छोटी सी जीवन यात्रा में (मात्र 39 वर्ष 5 माह 22 दिन) में कितने काम किये इसका अन्दाजा किसी को है क्या? अपने मात्र 30 वर्ष 7 माह 29 दिन की अवस्था में वो सन्यासी शिकागो (अमेरिका) में जाकर भारत का आध्यात्मिक विरासत और दर्शन-विचार को विश्व धर्म संसद के माध्यम से विश्व के समक्ष रखता है। और वो दर्शन-विचार आज भी अकाट्य हैं, यही नहीं यदि भारत को ”आध्यात्मिक एवं दार्शनिक विरासत के आधार पर एक भारत श्रेष्ठ भारत“ का निर्माण करना हो तो उस दर्शन-विचार का आधार ही अन्तिम मार्ग है जो समय आने पर सबको अच्छी प्रकार स्वीकार करना होगा। 11 सितम्बर, सन् 1893 के विश्व धर्म संसद के बाद सीधे 100 वर्ष बाद ही सन् 1993 में धर्म संसद का आयोजन हुआ, ये भी विचारणीय विषय है? स्वामी जीे के जीवन काल से लेकर अब तक उनके द्वारा स्थापित ”राम-कृष्ण मिशन व मठ“ वर्तमान समय तक भारत और अन्य देशों के लगभग 250 शाखाओं द्वारा शान्ति पूर्वक ”शिव भाव से जीव सेवा“ और ”वेदान्त धर्म ज्ञान प्रसार“ के कार्य में लगा हुआ है।
स्वामी विवेकानन्द जी ने उस समय कुछ कहा था और लिखा था जो भारत के सम्बन्ध में भी है और उनके व्यक्तिगत जीवन के सम्बन्ध में भी है -
‘सम्भव है काल के प्रवाह में, कभी कभी ऐसा भास होता है कि वेदान्त का महाप्रकाश अब बुझा और जब ऐसी स्थिति आती है, तब भगवान मानवदेह धारण कर, पृथ्वी पर आते है और फिर धर्म में पुनः एक ऐसी शक्ति ऐसे जीवन का संचार हो जाता है कि वह फिर एकाध युग तक अदम्य उत्साह से आगे बढ़ता जाता है। आज वही शक्ति और जीवन उसमें फिर आ गया है।“
(विवेकानन्द जी के सन्निध्य में’, राम कृष्ण मिशन, पृष्ठ - 6)
”मुझे अपनी मुक्ति की इच्छा अब बिल्कुल नहीं। सांसारिक भोग तो मैंने कभी चाहा नहीं। मुझे सिर्फ अपने यन्त्र को मजबूत और कार्योपयोगी देखना है और फिर निश्चित रूप से यह जानकर कि कम से कम भारत में मैंने मानव जाति के कल्याण का एक ऐसा यंत्र स्थापित कर दिया है, जिसका कोई शक्ति नाश नहीं कर सकती, मैं सो जाउँगा और आगे क्या होने वाला है, इसकी परवाह नहीं करूँगा। मेरी अभिलाषा है कि मैं बार बार जन्म लँू और हजारों दुःख भोगता रहूँ, ताकि मैं उस एक मात्र सम्पूर्ण आत्माओं के समिष्टरूप ईश्वर की पूजा कर सकूँ जिसकी सचमुच सत्ता है और जिसका मुझे विश्वास है। सबसे बढ़कर सभी जातियों और वर्गों के पापी और दरिद्र रूपी ईश्वर ही मेंरा विशेष उपास्य है।‘‘ (स्वामी विवेकानन्द का मानवतावाद’, राम कृष्ण मिशन, पृष्ठ - 38)
”शास्त्र कहते है कि कोई साधक यदि एक जीवन में सफलता प्राप्त करने में असफल होता है तो वह पुनः जन्म लेता है और अपने कार्यो को अधिक सफलता से आगे बढ़ाता है।“ (योग क्या है, राम कृष्ण मिशन, पृष्ठ - 83)
”एक विशेष प्रवृत्ति वाला जीवात्मा ‘योग्य योग्येन युज्यते’ इस नियमानुसार उसी शरीर में जन्म ग्रहण करता है जो उस प्रवृत्ति के प्रकट करने के लिए सबसे उपयुक्त आधार हो। यह पूर्णतया विज्ञान संगत है, क्योंकि विज्ञान कहता है कि प्रवृत्ति या स्वभाव अभ्यास से बनता है और अभ्यास बारम्बार अनुष्ठान का फल है। इस प्रकार एक नवजात बालक की स्वाभाविक प्रवृत्तियों का कारण बताने के लिए पुनः पुनः अनुष्ठित पूर्व कर्मो को मानना आवश्यक हो जाता है और चूंकि वर्तमान जीवन में इस स्वभाव की प्राप्ति नहीं की गयी, इसलिए वह पूर्व जीवन से ही उसे प्राप्त हुआ है।” (हिन्दूधर्म, राम कृष्ण मिशन, पृष्ठ - 6)
”सम्भवतः यह अच्छा होगा कि मैं अपने इस शरीर से बाहर निकल आउँ और इसे जीर्ण वस्त्र की भाँति उतार फेकूँ, किन्तु फिर भी मैं कार्य करते रहने से रूकूँगा नहीं, मानव समाज में मैं सर्वत्र प्रेरणा प्रदान करता रहूँगा जब तक कि संसार यह भाव आत्मसात् न कर लें कि वह ईश्वर के साथ एक है।“ (राष्ट्र को आहवान, राम कृष्ण मिशन, पृष्ठ - 23)
”मन में ऐसे भाव उदय होते हैं कि यदि जगत का दुःख दूर करने के लिए मुझे सहस्त्रों बार जन्म लेना पडे़ तो भी मैं तैयार हूॅ। इससे यदि किसी का तनिक भी दुःख दूर हो तो वह मैं करुॅगा, और ऐसा भी मन में आता है कि केवल अपनी ही मुक्ति से क्या होगा सबको साथ लेकर उस मार्ग पर जाना होगा।“ (विवेकानन्द की वाणी, राम कृष्ण मिशन, पृष्ठ - 67)
”यह जो मठ आदि बनवा रहा हूॅ, और दूसरों के लिए नाना प्रकार के काम कर रहा हूॅ उससे प्रशंसा हो रही है। कौन जाने मुझे ही फिर इस जगत में लौटकर आना पड़े“ (विवेकानन्द जी के संग में, राम कृष्ण मिशन, पृष्ठ - 167)
”जीवन में मेरी सर्वोच्च अभिलाषा यह है कि ऐसा चक्र प्रर्वतन कर दूॅ जो कि उच्च एवम् श्रेष्ठ विचारों को सब के द्वार-द्वार पर पहुंचा दे। फिर स्त्री-पुरूष को अपने भाग्य का निर्माण स्वयं करने दो। हमारे पूर्वजों ने तथा अन्य देशों ने जीवन के महत्वपूर्ण प्रश्नों पर क्या विचार किया है यह सर्वसाधारण को जानने दो। विशेषकर उन्हें देखने दो कि और लोग क्या कर रहे हैं। फिर उन्हंे अपना निर्णय करने दो। रासायनिक द्रव्य इकट्ठे कर दो और प्रकृति के नियमानुसार वे किसी विशेष आकर धारण कर लेगें-परिश्रम करो, अटल रहो। ‘धर्म को बिना हानि पहुॅचाये जनता की उन्नति’ -इसे अपना आदर्श वाक्य बना लो।”
(विवेकानन्द राष्ट्र को आह्वान, राम कृष्ण मिशन, पृष्ठ - 66)
”यदि कभी कोई सार्वभौमिक धर्म हो सकता है, तो वह ऐसा ही होगा, जो देश या काल से मर्यादित न हो, जो उस अनन्त भगवान के समान ही अनन्त हो, जिस भगवान के सम्बन्ध में वह उपदेश देता है, जिसकी ज्योति श्रीकृष्ण के भक्तों पर और ईसा के प्रेमियों पर, सन्तों पर और पापियों पर समान रूप से प्रकाशित होती हो, जो न तो ब्राह्मणों का हो, न बौद्धों का, न ईसाइयों का और न मुसलमानों का, वरन् इन सभी धर्मों का समष्टिस्वरूप होते हुए भी जिसमें उन्नति का अनन्त पथ खुला रहे, जो इतना व्यापक हो कि अपनी असंख्य प्रसारित बाहूओं द्वारा सृष्टि के प्रत्येक मनुष्य का प्रेमपूर्वक आलिंगन करें।... वह विश्वधर्म ऐसा होगा कि उसमें किसी के प्रति विद्वेष अथवा अत्याचार के लिए स्थान न रहेगा, वह प्रत्येक स्त्री और पुरूष के ईश्वरीय स्वरूप को स्वीकार करेगा और सम्पूर्ण बल मनुष्यमात्र को अपनी सच्ची, ईश्वरीय प्रकृति का साक्षात्कार करने के लिए सहायता देने में ही केन्द्रित रहेगा। हमें दिखलाना है- हिन्दुओं की आध्यामिकता, बौद्धो की जीवदया, ईसाइयों की क्रियाशीलता एवं मुस्लिमों का बन्धुत्व, और ये सब अपने व्यावहारिक जीवन के माध्यम द्वारा। हमने निश्चय किया- हम एक सार्वभौम धर्म का निर्माण करेंगें।“
हिन्दू भावों को अंग्रेजी में व्यक्त करना, फिर शुष्क दर्शन, जटिल पौराणिक कथाएं और अनूठे आश्चर्यजनक मनोविज्ञान से ऐसे धर्म का निर्माण करना, जो सरल, सहज और लोकप्रिय हो और उसके साथ ही उन्नत मस्तिष्क वालों को संतुष्ट कर सके- इस कार्य की कठिनाइयों को वे ही समझ सकते हैं, जिन्होंने इसके लिए प्रयत्न किया हो। अद्वैत के गुढ़ सिद्धान्त में नित्य प्रति के जीवन के लिए कविता का रस और जीवन दायिनी शक्ति उत्पन्न करनी है। अत्यन्त उलझी हुई पौराणिक कथाओं में से जीवन प्रकृत चरित्रों के उदाहरण समूह निकालने हैं और बुद्धि को भ्रम में डालने वाली योगविद्या से अत्यन्त वैज्ञानिक और क्रियात्मक मनोविज्ञान का विकास करना है और इन सब को एक ऐसे रुप में लाना पड़ेगा कि बच्चा-बच्चा इसे समझ सके। (पत्रावली, राम कृष्ण मिशन, पृष्ठ - 425)
”बौद्ध धर्म और नव हिन्दू धर्म के सम्बन्ध के विषय में मेरे विचारों में क्रांतिकारी परिवर्तन हुआ है। उन विचारों को निश्चित रुप देने के लिए कदाचित् मैं जिवित न रहूँ परन्तु उसकी कार्य प्रणाली का संकेत मैं छोड़ जाऊँगा और तुम्हें और तुम्हारे भातृ-गणों को उस पर काम करना होगा।“
(पत्रावली भाग-2, राम कृष्ण मिशन, पृष्ठ - 310)
उपरोक्त प्रमाण तो कुछ ही हंै। स्वामी विवेकानन्द जी राजतन्त्र काल के भारत के पहले ग्लोबल यूथ थे और मैं लोकतन्त्र काल के भारत का पहला ग्लोबल यूथ हूँ जो उनके विचारों को शासनिक व्यवस्था के अनुसार रूपान्तरण के लिए जन्म ग्रहण किया हूँ।
भारत का सबसे बड़ा अवगुण ये हैं कि यहाँ आध्यात्म में आविष्कार की नहीं आविकारक की पूजा होती है इसलिए स्वामी जी के कार्यो का प्रभाव भारत पर नहीं है। अगर ऐसा होता तो 100 वर्षो से अधिक समय में भारत में अब तक अनेक ग्लोबल बुड्ढे प्रकट हो गये होते।
जब तक पुनर्जन्म और अवतरण प्रमाणित नहीं होगा तब तक भारतीय आध्यात्म और दर्शन प्रमाणित कैसे होगा? इन दोनों का प्रमाणस्वरूप मैं हूँ। क्योंकि मेरा व्यक्तिगत जीवन शैली, शैक्षणिक योग्यता और कर्मरूप यह शास्त्र तीनों का कोई सम्बन्ध नहीं अर्थात तीनों तीन व्यक्तित्व का प्रतिनिधित्व करते हों, इससे बड़ी ”अविश्वसनीय“ स्थिति क्या हो सकती है।
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