मानव और पूर्ण मानव
इस ब्रह्माण्ड में अन्य जीवों की भाँति मनुष्य भी एक जीव है। एक मात्र मनुष्य के सामने यह अवसर है कि वह पशु मानव से पूर्ण मानव व ईश्वरीय मानव तक ज्ञान-ध्यान-चेतना का प्रयोग कर स्वयं को ऊपर उठा सकता है।
कुछ वर्षों पहले वैज्ञानिक डाॅ0 फ्रेड हाॅयल भारतवर्ष आये थे। विज्ञान भवन में उन्होंने कहा था-”अंतरिक्ष की गहराइयाँ जितनी अनन्त की ओर बढ़ेंगी, उसमें झाँककर देखने से मानवीय अस्तित्व का अर्थ और प्रयोजन उतना ही स्पष्ट होता चला जायेगा। शर्त यह रहेगी कि हमारी अपनी अन्वेषण बुद्धि का भी विकास और विस्तार हो। यदि हमारी बुद्धि, विचार और ज्ञान मात्र पेट, प्रजनन, तृष्णा, अहंता तक ही सीमित रहता है, तब तो हम पड़ोस को भी नहीं जान सकेंगे, पर यदि इन सबसे पूर्वाग्रह मुक्त हों तो ब्रह्माण्ड इतनी खुली और अच्छे अक्षरों में लिखी चमकदार पुस्तक है कि उससे हर शब्द का अर्थ, प्रत्येक अस्तित्व का अभिप्राय समझा जा सकता एवं अनुभव किया जा सकता है।“
वस्तुतः चेतना का मुख्य गुण है-विकास। जहाँ भी चेतना या जीवन का अस्तित्व विद्यमान दिखाई देता है, वहाँ अनिवार्य रूप से विकास, वर्तमान स्थिति से आगे बढ़ने की हलचल दिखाई देती है। इस दृष्टि से मनुष्यों, जीव-जन्तु और पेड़-पौधों को ही जीवित माना जाता है। परन्तु भारतीय आध्यात्म की मान्यता है कि जड़ कुछ है ही नहीं, सब कुछ चैतन्य ही है। सुविधा के लिए स्थिर, निष्क्रिय और यथास्थिति में बने रहने वाली वस्तुओं को जड़ कहा जाता है, परन्तु वस्तुतः वे प्रचलित अर्थो में जड़ है ही नहीं। सृष्टि के इस विराट रूप, क्रमिक विस्तार एवं सतत गतिशीलता के मूल में झाँकने पर वैज्ञानिक पाते है कि यह सब एक सुनियोजित चेतना की विधि व्यवस्था के अन्तर्गत सम्पन्न हुआ क्रियाकलाप है।
इस सम्पूर्ण विवेचन से यह निष्कर्ष निकलता है कि मनुष्य को यह नहीं समझना चाहिए कि वह इस सृष्टि का सर्वतः स्वतन्त्र सदस्य है और उसे कर्म करने की जो स्वतन्त्रता मिली है, उसके अनुसार वह इस सृष्टि के महानियंता की नियामक व्यवस्था द्वारा निर्धारित दण्ड से भी बच पायेगा। इस विराट ब्रह्माण्ड में पृथ्वी का ही अस्तित्व एक धूलिकण के बराबर नहीं है तो मनुष्य का स्थान कितना बड़ा होगा? फिर भी मनुष्य नाम का यह प्राणी इस पृथ्वी पर कैसे-कैसे प्रपंच फैलाये हुये है यह जानने और उसे उस अन्तिम मार्ग से परिचय कराने हेतु ही ”विश्वशास्त्र“ को प्रस्तुत किया गया है। वस्तुतः यथार्थ में ऐसा होना चाहिए कि जीवकोपार्जन हेतु ज्ञान व कर्म मनुष्य-मनुष्य के अनुसार अलग-अलग हो सकते हैं परन्तु जीवन का ज्ञान एक ही होना चाहिए और यदि मानव जाति के नियंतागण ऐसा कर सके तो भविष्य की सुरक्षा हेतु बहुत बड़ी बात होगी। साथ ही ब्रह्माण्ड के अनेक रहस्यों को जानने के लिए मनुष्य के शक्ति का एकीकरण भी कर सकने में हम सफल होगें।
जब मनुष्य वैश्विक ज्ञान-ध्यान-चेतना से मुक्त केवल स्वयं में ही स्थित रहता है तब वह मानव है, जब मनुष्य वैश्विक ज्ञान-ध्यान-चेतना से युक्त स्वयं में ही स्थित रहता है तब वह पूर्ण मानव है और जब मनुष्य वैश्विक ज्ञान-ध्यान-चेतना से युक्त होकर विश्व-ब्रह्माण्ड को अपना कार्य क्षेत्र समझ उसके लिए कार्य करता है तब वह ईश्वरीय मानव की अवस्था में होता है।
मनुष्य के समक्ष अनेक तर्क हैं, समस्यायें हैं, प्रश्न हैं, सफलताएँ हैं, असफलताएँ हैं। इसलिए उसे ऐसा भी लगता है कि कोई पूर्ण मानव नहीं हो सकता। अगर इसे स्वीकार भी कर लिया जाये तो क्या इस पूर्णता के लक्ष्य को पाने के लिए प्रयत्न भी बन्द कर देना चाहिए? तब तो मनुष्य, मानव से हिंसक पशु मानव में परिवर्तित होने लगेगा। इसलिए पूर्ण मानव का एक मापदण्ड निर्धारित कर हमें उस ओर ही जाना होगा, कम से कम लक्ष्य सत्य-शिव-सुन्दर होगा तो हम जितना भी उस ओर चल सकंे, सत्य-शिव-सुन्दर के ही दिशा में हमारा विकास होगा।
युग के अनुसार सत्यीकरण का मार्ग उपलब्ध कराना ईश्वर का कर्तव्य है आश्रितों पर सत्यीकरण का मार्ग प्रभावित करना अभिभावक का कर्तव्य हैै। और सत्यीकरण के मार्ग के अनुसार जीना आश्रितों का कर्तव्य है जैसा कि हम सभी जानते है कि अभिभावक, आश्रितों के समझने और समर्थन की प्रतिक्षा नहीं करते। अभिभावक यदि किसी विषय को आवश्यक समझते हैं तब केवल शक्ति और शीघ्रता से प्रभावी बनाना अन्तिम मार्ग होता है। विश्व के बच्चों के लिए यह अधिकार है कि पूर्ण ज्ञान के द्वारा पूर्ण मानव अर्थात् विश्वमानव के रुप में बनना। हम सभी विश्व के नागरिक सभी स्तर के अभिभावक जैसे-महासचिव संयुक्त राष्ट्र संघ, राष्ट्रों के राष्ट्रपति-प्रधानमंत्री, धर्म, समाज, राजनीति, उद्योग, शिक्षा, प्रबन्ध, पत्रकारिता इत्यादि द्वारा अन्य समानान्तर आवश्यक लक्ष्य के साथ इसे जीवन का मुख्य और मूल लक्ष्य निर्धारित कर प्रभावी बनाने की आशा करते हैं। क्योंकि लक्ष्य निर्धारण वक्तव्य का सूर्य नये सहस्त्राब्दि के साथ डूब चुका है। और कार्य योजना का सूर्य उग चुका है। इसलिए धरती को स्वर्ग बनाने का अन्तिम मार्ग सिर्फ कर्तव्य है। और रहने वाले सिर्फ सत्य-सिद्धान्त से युक्त संयुक्तमन आधारित मानव है, न कि संयुक्तमन या व्यक्तिगतमन के युक्तमानव।
यदि हमें अपनी आने वाली पीढ़ी को एक सुरक्षित और शक्ति और लाभ ;च्वूमत-च्तवपिजद्ध के उद्देश्य से मुक्त बौद्धिक विकासशील पृथ्वी उपहार स्वरूप देना है तो हमें पूर्ण मन से युक्त मानव-विश्वमानव का निर्माण प्रारम्भ करना होगा जो वर्तमान सहित भविष्य की आवश्यकता भी है। और इस आवश्यकता का संकेत अन्तिम ऊँचाई के नेतृत्व से स्पष्ट दिखता भी है। बौद्धिक विकास का अनन्त मार्ग न होने से वैचारिक टकराव की सम्भावना सदैव बढ़ती है।
एक श्रृंखला (Chain) को आगे बढ़ाने के लिए उसके प्रथम कड़ी को आगे बढ़ाना होगा तभी सभी कड़ी आगे बढ़ेगी। केवल पीछे अर्थात नीचे की कड़ी को या बीच के किसी कड़ी को आगे बढ़ाने से वह अगली कड़ी के लिए बाधक या प्रतियोगिता ही उत्पन्न कर सकता है। वैश्विक एकीकरण और पूर्णता के लिए आ गई बौद्धिक कमी की पूर्ति ही ”विश्वशास्त्र“ के रूप में व्यक्त हुआ है।
प्रकृति प्रदत्त नाम के अलावा जब व्यक्ति को आत्मज्ञान होता है तब वह स्वयं अपने मन स्तर का निर्धारण कर एक नाम स्वयं रख लेता है। जिस प्रकार ”श्रीकृष्ण“ नाम है ”योगेश्वर“ मन की अवस्था है, ”गदाधर“ नाम है ”श्रीरामश्रीकृष्ण परमहंस“ मन की अवस्था है, ”सिद्धार्थ“ नाम है ”बुद्ध“ मन की अवस्था है, ”नरेन्द्र नाथ दत्त“ नाम है ”स्वामी विवेकानन्द“ मन की अवस्था है, ”रजनीश“ नाम है ”ओशो“ मन की अवस्था है। उसी प्रकार लव कुश सिंह नाम है ”विश्वमानव“ मन की अवस्था है और उसी प्रकार व्यक्तियों के नाम, नाम है ”भोगेश्वर विश्वमानव“ उसकी चरम विकसित, सर्वोच्च और अन्तिम अवस्था है जहाँ समय की धारा में चलते-चलते मनुष्य वहाँ विवशतावश पहुँचेगा।
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