Tuesday, March 31, 2020

ईश्वर, अवतार और मानव की शक्ति सीमा

ईश्वर, अवतार और मानव की शक्ति सीमा

इस ब्रह्माण्ड में सभी वस्तु की एक शक्ति सीमा है। उसके ज्ञान से युक्त होने पर मनुष्य अपने कर्म-इच्छा-उम्मीद को एक सही वस्तु के साथ योग करा सकता है। अन्यथा एक समय बाद उसे ना-उम्मीद होना पड़ता है और उसके विश्वास को आघात पहुँचता है। उदाहरणस्वरूप यदि आप बिजली विभाग का काम टेलिफोन विभाग से या टेलिफोन विभाग का काम जल विभाग से उम्मीद कर बैठेंगे तो वह कभी भी पूरा नहीं होने वाला। इसमें गलती आपके ज्ञान की ही होगी और अपने विश्वास को खोने वाले आप स्वयं ही होंगे। इसी प्रकार साइकिल, मोटरसाइकिल, कार, बस, रेलगाड़ी, हवाई जहाज की अपनी-अपनी गति सीमा है। यदि गति सीमा की जानकारी न हो और उसकी क्षमता से अधिक उससे उम्मीद कर बैठेंगे तो इसमें गलती आपके ज्ञान की ही होगी और अपने विश्वास को खोने वाले आप स्वयं ही होंगे। मनुष्य कर्म किये बिना बहुत सी उम्मीद ”दूसरों से” और ”दूसरों में“ देखने लगता है। मनुष्य का उपयोग करने वाले भी दूसरों को उम्मीद दिखाकर उनका विभिन्न प्रकार से उपयोग-दुरूपयोग सनातन से करता आ रहा है। इस क्रम में ईश्वर, अवतार और मानव की शक्ति सीमा क्या है, यह जानना आवश्यक है।

ईश्वर की शक्ति सीमा 
ईश्वर अर्थात सार्वभौम सत्य-सिद्धान्त, ब्रह्माण्ड में कहीं भी अर्थात उसके किसी भाग के भाग में अपने सतुलन-स्थिरता-एकता-शान्ति के लिए क्रम संकुचन (विनाश) और क्रम विकास (विकास) करता रहता है। यह कार्य रज या तम गुण के प्राथमिकता होने पर सत्व गुण के हस्तक्षेप द्वारा सम्पन्न होता है। पृथ्वी ग्रह पर यह अति-वृष्टि (अधिक वर्षा), अधिक सूखा, अधिक वर्फबारी, भूकम्प, महामारी इत्यादि द्वारा व्यक्त होता है। ईश्वर अपने उपस्थिति और इन क्रियाकलापों का सन्देश पृथ्वी के जीवों के माध्यम से व्यक्त करता है जो विकसित मस्तिष्क क्षमता के द्वारा ही समझा जा सकता है। ईश्वर के सब कार्य इतने विशाल हैं इसलिए ही उन्हें सर्वशक्तिमान कहा जाता है। ईश्वर के सभी क्रियाकलाप बिना किसी भेद-भाव के सम्पन्न होता है अर्थात एक समान रूप से सभी के लिए सम्पन्न होता है। ईश्वर अपने सम्बन्धितों की सहायता, उनके साथ के मानवों के माध्यम से मार्गदर्शन द्वारा करता है, सम्बन्धित उसका लाभ कैसे लें, ये उनके बुद्धि पर निर्भर करता है। 

अवतार की शक्ति सीमा
अवतार, सार्वभौम सत्य-सिद्धान्त को युगानुसार स्थापित करने के लिए व्यक्त होते हैं। इस स्थापना का क्रम सार्वभौम सत्य-सिद्धान्त के अंश-अंश संक्रमणीय-गुणात्मक-संग्रहणीय-रचनात्मक रूप के बढ़ते क्रम से होता है। और अन्त में पूर्ण रूप व्यक्त होता है। युगानुसार स्थापना के लिए विधि पूर्ण प्रत्यक्ष से पूर्ण प्रेरक तक का मार्ग होता है। प्रत्यक्ष अवतार वे होते हैं जो स्वयं अपनी शक्ति का प्रत्यक्ष प्रयोग कर समाज का सत्यीकरण करते हैं। यह कार्य विधि समाज में उस समय प्रयोग होता है जब अधर्म का नेतृत्व एक या कुछ मानवों पर केन्द्रित होता है। प्रेरक अवतार वे होते हैं जो स्वयं अपनी शक्ति का अप्रत्यक्ष प्रयोग कर समाज का सत्यीकरण जनता एवं नेतृत्वकर्ता के माध्यम से करते हैं। यह कार्य विधि समाज में उस समय प्रयोग होता है जब समाज में अधर्म का नेतृत्व अनेक मानवों और नेतृत्वकर्ताओं पर केन्द्रित होता है। कारण क्रम-शारीरिक, आर्थिक व मानसिक होता है। इन विधियों में से कुल मुख्य दस मुख्य अवतारों में से प्रथम सात (मत्स्य, कूर्म, वाराह, नृसिंह, वामन, परषुराम, श्रीराम) अवतारों ने समाज का सत्यीकरण प्रत्यक्ष विधि के प्रयोग द्वारा किया था। आठवें अवतार (श्रीकृष्ण) ने दोनों विधियों प्रत्यक्ष और प्रेरक का प्रयोग किया था। नवें (भगवान बुद्ध) और अन्तिम दसवें अवतार की कार्य विधि प्रेरक ही है। अवतार चूँकि सार्वभौम सत्य-सिद्धान्त को युगानुसार स्थापित करने के लिए प्रकट होते हैं इसलिए वे ईश्वर की शक्ति के सुर अर्थात तालमेंल में या समर्थित होते हैं। वे ईश्वर के किसी शक्ति सीमा को न तो रोक सकते हैं ना ही बदल सकते हैं और ना ही प्रयोग कर उत्पन्न कर सकते हैं लेकिन वे इतने समयानुसार वर्तमान होते हैं कि ईश्वर की शक्ति उनका सदैव समर्थन करती रहती है। अवतार अपने उपस्थिति और इन क्रियाकलापों का सन्देश मानवों को और भी अच्छा करने के विचार प्रसार से व्यक्त करते रहते हैं जो विकसित मस्तिष्क क्षमता के द्वारा ही समझा जा सकता है। अवतार के सब कार्य उस समय के समाज के लिए सर्वव्यापक होते हैं इसलिए ही उन्हें अवतार कहा जाता है। अवतार के सभी क्रियाकलाप बिना किसी भेद-भाव के सम्पन्न होता है अर्थात एक समान रूप से सभी के लिए सम्पन्न होता है।

मानव की शक्ति सीमा
मनुष्य अपनी शारीरिक-आर्थिक-मानसिक शक्ति से निर्माण और विनाश दोनों कर सकता है। वह ईश्वर और अवतार के द्वारा सम्पन्न किये जाने वाले कार्य को जान सकता है, उससे बचने का मार्ग निकाल सकता है परन्तु उसे सम्पन्न होने से रोक नहीं सकता। मनुष्य, ईश्वर और अवतार के कार्यों की इच्छा प्रकट कर सकता है, उसकी उम्मीद अन्य मनुष्य को दिखा सकता है परन्तु उसे सम्पन्न नहीं कर सकता क्योंकि वह मनुष्य के शक्ति सीमा के अन्तर्गत नहीं आता। मनुष्य अपने उपस्थिति और इन क्रियाकलापों का सन्देश मानवों को बीच विचार प्रसार से व्यक्त करते रहते हैं जो सामान्य मस्तिष्क क्षमता के द्वारा असानी से समझा जा सकता है। मनुष्य के सब कार्य उस समय के समाज के अंश-अंश के लिए उपयोगी होते हैं इसलिए ही उन्हें मनुष्य कहा जाता है। मनुष्य के सभी क्रियाकलाप भेद-भाव से सम्पन्न होता है अर्थात एक समान रूप से सभी के लिए नहीं होता है।

व्याख्या
ईश्वर और अवतार के कार्य समष्टि (संयुक्त) कार्य कहे जाते हैं जबकि मनुष्य के कार्य व्यष्टि (व्यक्तिगत या अंश) कार्य कहे जाते हैं। इस समष्टि कार्य द्वारा ही काल व युग परिवर्तन होता है न कि सिर्फ चिल्लाने से कि ”सतयुग आयेगा“, ”सतयुग आयेगा“ से। यह समष्टि कार्य जिस शरीर से सम्पन्न होता है वही युगावतार के रूप में व्यक्त होता है। धर्म में स्थित वह अवतार चाहे जिस सम्प्रदाय (वर्तमान अर्थ में धर्म) का होगा उसका मूल लक्ष्य समष्टि कार्य होगा और स्थापना का माध्यम उसके सम्प्रदाय की परम्परा व संस्कृति होगी।
आध्यात्मिक सत्य, सार्वभौम सत्य-सिद्धान्त का ही दूसरा समानार्थी शब्द है इसलिए उस अनुसार राष्ट्र की व्यवस्था का सत्यीकरण अवतार के कार्य क्षेत्र व शक्ति सीमा के अन्तर्गत आता है। कोई मनुष्य इसकी इच्छा तो कर सकता है परन्तु उसको पूर्ण नहीं कर सकता। ये अवश्य है कि इच्छा करने वाला विकसित मस्तिस्क का ही होगा क्योंकि बिना विकसित मस्तिष्क के ये शब्द व्यक्त हो ही नहीं सकता। विकसित मस्तिष्क, समष्टि मस्तिष्क होता है। इच्छा व्यक्त होने पर अवतार उसे अवश्य पूर्ण करते हैं क्योंकि यही उनके प्रकट होने का योग्य वातावरण होता है।


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