Tuesday, March 31, 2020

इच्छा और आॅकड़ा

इच्छा और आॅकड़ा
स्वामी विवेकानन्द के अनुसार-ज्ञान की निन्म भूमि हम पशुओं में देखते हैं और उसे-सहजात ज्ञान कहते हैं। सहजात ज्ञान में प्रायः कभी भूल नहीं होती। एक पशु इस सहजात ज्ञान के प्रभाव से कौन सी घास खाने योग्य है, कौन सी घास विषाक्त है, यह सुविधापूर्वक समझ लेता है। उनके पश्चात् हमारा (मानव का) साधारण ज्ञान आता है-यह सहजात ज्ञान की अपेक्षा उच्चतर अवस्था है। हमारा साधारण ज्ञान भ्रान्तिमय है, यह पग-पग पर भ्रम में जा पड़ता है। इसे ही आप युक्ति अथवा विचारशक्ति कहते हैं। अवश्य सहजात ज्ञान की अपेक्षा उसका प्रसार अधिक दूर तक है, किन्तु सहजात ज्ञान की अपेक्षा युक्ति विचार में अधिक भ्रम की आशंका है। मन की और एक उच्चतर अवस्था विद्यमान है,-ज्ञानातीत अवस्था-इस अवस्था में केवल योगीगण का ही अर्थात् जिन्होंने यत्न करके इस अवस्था को प्राप्त किया है, उनका ही अधिकार है। वह सहजात ज्ञान के समक्ष भ्रान्ति से विहिन है और युक्तिविचार से भी उसका अधिक प्रसार है। वह सर्वोच्च अवस्था है। जिस प्रकार मनुष्य के भीतर महत् ही ज्ञान की निम्नभूमि, साधारण ज्ञानभूमि और ज्ञानातीत भूमि है, उसी प्रकार इस वृहत् ब्रह्माण्ड में भी यही सर्वव्यापी बुद्धितत्व अथवा महत्-सहजात ज्ञान, युक्ति विचार से उत्पन्न ज्ञान और विचार से अतीत ज्ञान, इन तीन प्रकारों से स्थित है। ज्ञान का अर्थ है-सदृश वस्तु के साथ उसका मिलन। कोई नया संस्कार आने पर यदि आप लोगों के मन में उसके सदृश सब संस्कार पहले से ही वर्तमान रहे, तभी आप तृप्त होते हैं, और इस मिलन अथवा सहयोग को ही ज्ञान कहते हैं। अतएव ज्ञान का अर्थ, पहले से ही हमारी जो अनुभूति-समष्टि विद्यमान है, उसके साथ और एक सजातीय अनुभूति को एक ही कोष में प्रतिष्ठित कर देना है। तथा पहले से ही आपका एक ज्ञान भण्डार न रहने पर कोई नया ज्ञान ही आपका नहीं हो सकता, यही उसका सर्वोत्तम प्रबल प्रमाण है।
उपरोक्त वाणी का अर्थ है-मनुष्य के लिए ज्ञान वह है जो हमारे मस्तिष्क के यादों में पहले से विद्यमान रहता है और कुछ नया विषय मिलने पर जब उससे, उसका मिलान होता है तब ज्ञान प्रमाणित होती है या ज्ञान का विकास होता है। 
प्रत्येक व्यक्ति के लिए अपने मस्तिष्क के लिए यह विश्लेषण का विषय है कि वह वह इच्छा से संचालित है या आॅकड़ा से? किसी भी व्यक्ति को यदि चाय पीने की इच्छा कर रही हो तो वह किस ओर निकलेगा? 
अगर इच्छा कर दिया और वह किसी भी दिशा में निकल लिया तो उसे जीव कहते हैं, इस स्थिति में चाय मिल भी सकती है और नहीं भी। अगर मिल गई तो भाग्य या किस्मत जैसी वाली बात पर विश्वास की ओर वह चला जायेगा। और ना भी मिला तो भी भाग्य या किस्मत जैसी वाली बात पर विश्वास की ओर वह चला जायेगा। इस प्रकार के संचालन को जीव संचालन विधि कहते हैं। जीव, पूर्णतः प्राकृतिक रूप से रहते हैं और संचालित रहते हैं। किसी भी ओर निकल लिए, मिल गया खा लिए, मिल गया पी लिये, कहीं भी उसका निस्तारण भी कर दिये। उनका सम्पूर्ण संचालन वातावरण और परिस्थितियों के अनुसार है। इतना होने के बावजूद भी जीव भी अपने मस्तिष्क में आॅकड़ों का संचय करते हैं और उसके अनुसार उनका संचालन होता हैं।
अगर इच्छा कर दिया और वह उस दिशा में निकल लिया जिस ओर चाय मिलने का आॅकड़ा (डेटा या डाटा) उसके मस्तिष्क में पहले से विद्यमान है उसे मनुष्य कहते हैं, इस स्थिति में चाय मिलेगी ही मिलेगी अगर नहीं मिलती तो उस चाय के स्थान पर चाय बनाने के सामानो में कुछ कमी हो सकती है लेकिन वह वहीं पहुँचेगा जहाँ पहले चाय मिलती रही है और उसका पहले आना हुआ था या किसी ने यह आॅकड़ा पहले से उसे दे रखा था। इस प्रकार के संचालन को मानव संचालन विधि कहते हैं।
मनुष्य को इस विषय पर सूक्ष्म दृष्टि से चिंतन करना चाहिए। मनुष्य हमेंशा अपने प्रत्येक गतिविधि में इच्छा से नहीं बल्कि आॅकड़ों से संचालित होता है जो उसके ज्ञान में पहले से विद्यमान है या उन आॅकड़ों के संग्रह के लिए संचालित रहता है जो उसे चाहिए जिसे खोज या तलाश कहते हैं। 
मनुष्य के मस्तिष्क में जितने अधिक आॅकड़ें रहेंगे, उसका संचालन उन आॅकड़ों के अनुसार उतने ही व्यापक क्षेत्र में होगा। इसलिए ही ज्ञान ही सर्वस्व है। ज्ञान का संकलन अपने मस्तिष्क में सदैव करते रहना चाहिए। कुछ इस जीवन में कभी भी काम आ सकता है। कुछ अगले जन्म में, जब हम नया शरीर पाते हैं। 
स्वामी विवेकानन्द के अनुसार-”फलानुमेंयाः प्रारम्भाः संस्कराः प्राक्तना इव“ फल को देखकर ही कार्य का विचार सम्भव है। जैसे कि फल को देखकर पूर्व संस्कार का अनुमान किया जाता है। एक विशेष प्रवृत्ति वाला जीवात्मा ”योग्य योग्येन युज्यते“ इस नियमानुसार उसी शरीर में जन्म ग्रहण करता है जो उस प्रवृत्ति के प्रकट करने के लिए सबसे उपयुक्त आधार हो। यह पूर्णतया विज्ञान संगत है, क्योंकि विज्ञान कहता है कि प्रवृत्ति या स्वभाव अभ्यास से बनता है और अभ्यास बारम्बार अनुष्ठान का फल है। इस प्रकार एक नवजात बालक की स्वाभाविक प्रवृत्तियों का कारण बताने के लिए पुनः पुनः अनुष्ठित पूर्व कर्मो को मानना आवश्यक हो जाता है और चूंकि वर्तमान जीवन में इस स्वमाव की प्राप्ति नहीं की गयी, इसलिए वह पूर्व जीवन से ही उसे प्राप्त हुआ है। यदि प्रवृत्ति बारम्बार किये हुये कर्म का परिणाम है, तो जिन प्रवृत्तियों को साथ लेकर हम जन्म धारण करते है, उनको समझने के लिए उस कारण का भी उपयोग करना चाहिए। यह तो स्पष्ट है कि वे प्रवृत्तियाँ हमें इस जन्म में प्राप्त हुई नहीं हो सकती; अतः हमें उनका मूल पिछले जन्म में ढूंढना चाहिए। अब यह भी स्पष्ट है कि हमारी प्रवृत्तियों में से कुछ तो मनुष्य के ही जान-बूझकर किये हुये प्रयत्नों के परिणाम है, और यदि यह सच है कि हम उन प्रवृत्तियों को अपने साथ लेकर जन्म लेते हैं, तब तो बिल्कुल यही सिद्ध होता है कि उनके कारण गतजन्म में जान-बूझकर किये हुये प्रयत्न ही है-अर्थात् इस वर्तमान जन्म के पूर्व हम उसी मानसिक भूमिका में रहे होंगे, जिसे हम मानव भूमिका कहते हैं।
हम सभी अपने पूर्व जन्म के अधूरी इच्छा को पूर्ण करने के लिए योग्य माता-पिता सहित वातावरण के अनुसार शरीर धारण किये हैं इसलिए अपने उपलब्ध संसाधन का अध्ययन करें और अपने पूर्व जन्म के अधूरी इच्छा को पूर्ण करने के लिए उन आॅकड़ों को जानने व उसके अनुसार संचालित होने की कोशिश करें जो हमारे मस्तिष्क में संचित है।
सर्वोच्च आॅकड़ा तो ये है कि हम सभी ईश्वर बनने के मार्ग पर हैं और उस ओर की ही हमारी यात्रा है। चाहे कई जन्म क्यों न लेना पड़े। हमारा शरीर धारण के कत्र्तव्य से अलग मस्तिष्क में अधिक से अधिक आॅकड़ों का संग्रह भी है जो ज्ञान का जन्मदाता है।
इस प्रकार हमारा संचालक इच्छा नहीं बल्कि आॅकड़े हैं और मन से किसी वस्तु को देखना सत्य नहीं है बल्कि आॅकड़ों की दृष्टि से देखना सत्य है। आॅकड़ो का प्रमाण के फलस्वरूप व्यक्त हुये है श्री लव कुश सिंह ”विश्वमानव“।



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