Thursday, April 9, 2020

अवतारी संविधान से मिलकर भारतीय संविधान बनायेगा विश्व सरकार का संविधान

अवतारी संविधान से मिलकर भारतीय संविधान बनायेगा विश्व सरकार का संविधान

6 अरब की जनसंख्या से ऊपर की ओर बढ़ता सौरमण्डल का यह पृथ्वी ग्रह जिसकी सम्पूर्ण जनसंख्या का पाँचवां हिस्सा अकेले इस तीन ओर से घिरा सुन्दर, परिवर्तित मौसम युक्त भूमि तपोभूमि भारत में ही है। इतनी विशाल जनसंख्या को एक शासन व्यवस्था में बाँधे रखने की के लिए भारत की शारीरिक स्वतन्त्रता 15 अगस्त, 1947 के बाद जो प्रणाली अपनायी गयी वह है-लोकतन्त्र प्रणाली। चूँकि इतनी बड़ी जनसंख्या का लोकतन्त्र किसी भी देश में नहीं है इसलिए यह विश्व का सबसे बड़ा लोकतन्त्र भी है। अर्थात्् इसे वर्तमान समय का सबसे बड़ा संयुक्त मन या समष्टि मन या विश्व मन भी कह सकते हैं। भारत का यह संसद उस संसद का छोटा रूप है जिसकी चरम विकसित अवस्था लोकतन्त्र आधारित विश्व राष्ट्र के लिए विश्व संसद है जो विश्व नागरिकों के लिए विश्व संविधान और विश्व सरकार को प्रस्तुत कर सके। जिस प्रकार यह विश्व किसी एक व्यष्टि विचार का नहीं हो सकता क्योंकि जिस प्रकार विश्व में अनेकों सम्प्रदाय और व्यष्टि विचार के समर्थक हैं, ठीक उसी प्रकार छोटे रूप में भारत में भी है। अर्थात्् भारत सरकार हो या विश्व सरकार उसका संविधान हमेशा धर्मनिरपेक्ष अर्थात् सर्वधर्मसमभाव अर्थात् धर्म अर्थात् एकत्व आधारित ही हो सकता है। यहाँ धर्म शब्द से वर्तमान अर्थो में किसी विशेष व्यष्टि धर्म (सम्प्रदाय) को नहीं समझना चाहिए। धर्म शब्द को समष्टि धर्म (एकत्व या संयुक्त धर्म) के रूप में लिया गया है। क्योंकि व्यष्टि धर्म तो कई हो सकते हैं और हैं भी परन्तु समष्टि धर्म एक ही होता है, और शाश्वत से एक ही है और एक ही रहेगा।
राजतन्त्र हो या लोकतन्त्र प्रणाली, दोनों में मुख्यत-जो विशेष होती हैं वे हैं-संविधान जिससे सम्पूर्ण शासित क्षेत्र, प्रणाली और पद नियमित होती हैं। कानून जिससे अधिकार, न्याय की प्राप्ति सहित अपराधों पर नियंत्रण किया जाता है। इसके अलावा समय-समय पर पिछले कार्यो और निर्णयों के अनुभव के आधार पर विभिन्न प्रणाली जैसे शिक्षा, आर्थिक, उद्योग, कल्याण, कर, विदेश इत्यादि के सुधार की नीति निर्धारण के लिए प्राविधान जो मंत्री मण्डल या सम्बन्धित मंत्री द्वारा निर्धारित होती है। ये विभिन्न प्रणाली ही समष्टि तन्त्र अर्थात् संयुक्त मन तन्त्र कहलाते हैं। राजतन्त्र प्रणाली में ये तन्त्र पूर्णतया सम्बन्धित देश के साकार राजा द्वारा निर्धारित होता है जबकि लोकतन्त्र में ये तन्त्र पूर्णतया सम्बन्धित देश के निराकार संविधान और सरकार द्वारा निर्धारित होता है। सरकार उसी की होती है जिसका बहुमत होता है। बार-बार सरकार बदलने से प्रणालीयों पर भी प्रभाव पड़ता है और उन प्रणाली का पूर्ण परिणाम प्राप्त हुये बिना भी बदलाव की स्थिति आ जाती है परिणामस्वरूप व्यवस्थाएँ असन्तुलन की स्थिति की ओर बढ़ जाती है।
समाज और राज्य को नियंत्रित करने के लिए प्राच्य आध्यात्मिक भारतीय प्रणाली ”मूल“ आधारित है जबकि पाश्चात्य भौतिकता प्रणाली ”फल“ आधारित ह्रै। यह मूल और फल ही संसार का प्रथम और प्राचीन भारतीय दर्शन के जनक कपिल मुनि के ”क्रिया-कारण“ नियम का कारण और क्रिया है। जो शाश्वत से अकाट्य है और वह सदा ही अकाट्य बना भी रहेगा। क्योंकि वह सार्वजनिक रूप से प्रमाणित शाश्वत सत्य है। प्राच्य भारतीय प्रणाली नियम बनाते समय कारण द्वारा प्रेरित होकर नियंत्रित करने का नियम बनाता है। वर्तमान की अन्तिम आवश्यकता ”ज्ञान ही समस्त दुःखों और समस्याओं का नाशकर्ता है।“, यह कारण केन्द्रित मन द्वारा ही उत्पन्न हुआ है। किसी भी विषय के प्रति उपयोगिता व दुरूपयोगिता की दृष्टि व्यक्ति की नैतिकता पर ही निर्भर करती है। यह नैतिकता अन्त-जगत का विषय है जो ज्ञान द्वारा उत्पन्न होता है, न कि बाह्य जगत के व्यापक कानून से। वर्तमान समय का उपरोक्त वर्णित संविधान, कानून और समष्टि तन्त्र फल आधारित पाश्चात्य प्रणाली केन्द्रित है जिससे नैतिक उत्थान कभी भी सम्भव नहीं है क्योंकि फल आधारित व्यवस्था वह है जिसमें अनैतिक कर्म हो जाने के बाद नियंत्रण के उपाय होते हैं तथा कारण आधारित व्यवस्था वह है जिसमें अनैतिक कर्म होने की सम्भावना को ही कम किया जाता है क्योंकि यह नैतिक उत्थान आधारित होती है। भारत को छोड़कर अन्य देशों को नैतिक उत्थान की आवश्यकता हो या न हो परन्तु भारत को नैतिक उत्थान की आवश्यकता इसलिए है कि वह विश्व के शान्ति, एकता, स्थिरता, विकास एवं रक्षा का नेतृत्वकर्ता की योग्यता रखता है और उसका विश्व के प्रति दायित्व भी है। साथ ही विश्व का सबसे बड़ा लोकतन्त्र उसके द्वारा ही संचालित हो रहा है। और उसे यह सिद्ध भी करना है कि हमारा संविधान और लोकतन्त्र प्रणाली ही विश्व को सही दिशा और सार्वजनिक सत्य को प्रस्तुत कर सकता है। स्वराज का सही अर्थ है-”स्व“ अर्थात् ”मैं“ अर्थात् ”आत्मा“ का अर्थ ”जो सभी में व्याप्त है“ अर्थात् ”सार्वभौम“ अर्थात् ”समष्टि“ का राज है। न कि ”स्व“ अर्थात् ”मैं“ अर्थात् ”शरीर“ अर्थात् ”व्यक्तिगत“ अर्थात् ”व्यष्टि“ का राज। समष्टि स्वराज ही वास्तविक स्वराज है और यही देवताओं का राज है जबकि व्यष्टि स्वराज असत्य स्वराज है और यही असुरों का स्वराज है। यही धर्म राज और अधर्म राज है। इसके अपने-अपने समर्थक सदैव अपनी सर्वोच्चता के लिए आपस में युद्ध करते रहे हैं।
प्राचीन भारतीय प्रणाली में नैतिक उत्थान के लिए जीवन की प्रथम सीढ़ी ब्रह्मचर्य आश्रम थी, जहाँ गुरूकुल द्वारा ज्ञान-अदृश्य विज्ञान-अदृश्य तकनीकी एवं जीवन के लिए आवश्यक विद्याओं का ज्ञान देकर आचार्य का दायित्व समाज में एक नैतिकतायुक्त पूर्ण मानव देना होता था। यह गुरूकुल का कत्र्तव्य और उद्देश्य भी होता था। परिणामस्वरूप प्रत्येक व्यक्ति विषयों की उपयोगिता और दुरूपयोगिता को समझने में सक्षम होता था। शेष सभी तन्त्र उतने विकसित नहीं थे लेकिन वे भी अव्यक्त रूप से सत्य-सिद्धान्त द्वारा ही संचालित होते थे क्योंकि उनके मूल सिद्धान्त का ज्ञान उन्हें ब्रह्मचर्य आश्रम में प्रदान कर दिये जाते थे। आवश्यकता पड़ने पर आचार्य राजा की समस्याओं को भी सुलझाते थे या मागदर्शन देते थे। परन्तु वे कभी भी राजा के पद पर पीठासीन नहीं होते थे। वर्तमान में यह आश्रम प्रथा प्रणाली सम्भव नहीं है लेकिन शिक्षा प्रणाली व पाठ्यक्रम को सत्य-सिद्धान्त युक्त अर्थात् ज्ञान-दृश्य विज्ञान-दृश्य तकनीकी एवं जीवन की आवश्यक विद्याओं का ज्ञान से युक्त कर देने पर उसके उद्देश्य को प्राप्त किया जा सकता है। इसी प्रकार वर्तमान समय के विभिन्न तन्त्रों को भी विवाद मुक्त सत्य-सिद्धान्त युक्त बनाया जा सकता है। इससे लाभ यह होगा कि सरकार स्थिर रहे या अस्थिर, संसदीय प्रणाली हो या राष्ट्रपति प्रणाली, एकतन्त्रीय प्रणाली हो या बहुतन्त्रीय प्रणाली सभी के विकास की मूल आवश्यकता सहित नैतिकतायुक्त पूर्ण मानव का निर्माण शिक्षा के माध्यम से चलता रहेगा। वर्तमान नेतृत्वकर्ता चाहे जैसे भी हों परन्तु आने वाले नेतृत्वकर्ता ऐसे न रहेंगे। वर्तमान नेतृत्वकर्ताओं को ऐसा करना भी चाहिए क्योंकि इसके लिए उन्हें कम से कम भविष्य की स्वस्थता के लिए ऐसा कार्य करने का श्रेय तो प्राप्त हो जायेगा और भारत को उसके स्वराज का वास्तविक अर्थ भी प्राप्त हो जायेगा।
अदृश्य ज्ञान का दृश्य रूप है-कर्म। इस कर्म के दर्शन को ही मूल मानकर सार्वजनिक सत्य-सिद्धान्त के आधार पर समष्टि तन्त्र अर्थात् संयुक्त मन तन्त्र अर्थात् लोकतन्त्र मन के सभी तन्त्रों का विवादमुक्त स्वरूप व्यक्त कर भारतीय संविधान को विश्व संविधान में परिवर्तित करने के लिए विवादमुक्त तन्त्रों पर आधारित भारत का संविधान का निर्माण करना होगा क्योंकि वर्तमान संविधान संयुक्त मन युक्त मानवों द्वारा निर्मित है। जबकि संविधान का सत्यरूप-सत्य से युक्त संयुक्त मन से युक्त मानवों (अवतार) द्वारा निर्मित होता है जो वर्तमान संविधान का अगला और अन्तिम चरण है। अर्थात् वर्तमान संविधान, सत्य संविधान की प्राप्ति की ओर बढ़ता हुआ एक कदम ही है न कि पूर्ण रूपेण गलत संविधान। जिसके सम्बन्ध में स्वामी विवेकानन्द जी ने संकेत देते हुए 100 वर्ष पहले ही कहे थे-”हे मेरे मित्रों, प्रत्येक देश में एक ही नियम है। वह यह कि थोड़े से शक्तिमान मनुष्य जो भी करते हैं वही होता है। बाकी सब लोग भेड़ियाधसान का ही अनुकरण करते हैं। मैंने तुम्हारे पार्लियामेन्ट, सीनेट, वोट, मेजारिटी, बैलट आदि सब देखा है। सभी जगह ऐसा ही है। अब प्रश्न यह है कि भारतवर्ष में कौन शक्तिमान पुरूष है? वे ही जो धर्मवीर हैं। वे ही हमारे समाज को चलाते हैं। वे ही समाज की रीति-नीति में परिवर्तन की आवश्यकता होने पर उसे बदल देते हैं। हम चुपचाप उसे सुनते हैं और उसे मानते हैं। (विवेकानन्द राष्ट्र को आह्वान, रामकृष्ण मिशन, पृष्ठ-55)“। संविधान, नियम, कानून के सम्बन्ध में उन्होंने कहा था कि-”एक बात पर विचार करके देखिये, मनुष्य नियमों को बनाता है या नियम मनुष्य को बनाते हैं? मनुष्य रूपया पैदा करता है या रूपया मनुष्य को पैदा करता है? मनुष्य कीर्ति और नाम पैदा करता है या कीर्ति और नाम मनुष्य को पैदा करता है? मेरे मित्रों पहले मनुष्य बनिये, तब आप देखेंगे कि वे सब बाकी चीजें स्वयं आपका अनुसरण करेंगी। परस्पर के घृणित द्वेषभाव को छोड़िये और सदुदेश्य, सदुपाय, सत्साहस एवं सदीर्घ का अवलम्बन कीजिए। आपने मनुष्य योनि में जन्म लिया है तो अपनी कीर्ति यहीं छोड़ जाइए। (विवेकानन्द राष्ट्र को आह्वान, रामकृष्ण मिशन, पृष्ठ-55)“। 
सत्य से सार्वभौम सत्य-सिद्धान्त तक का मार्ग अवतारों का मार्ग है। सार्वभौम सत्य-सिंद्धान्त की अनुभूति ही अवतरण है। इसके अंश अनुभूति को अंश अवतार तथा पूर्ण अनुभूति को पूर्ण अवतार कहते है। अवतार मानव मात्र के लिए ही कर्म करते हैं न कि किसी विशेष मानव समूह या सम्प्रदाय के लिए। अवतार, धर्म, धर्मनिरपेक्ष व सर्वधर्मसमभाव से युक्त अर्थात् एकात्म से युक्त होते है। इस प्रकार अवतार से उत्पन्न शास्त्र मानव के लिए होते हैं, न कि किसी विशेष मानव समूह के लिए। उत्प्रेरक, शासक और मार्गदर्शक आत्मा सर्वव्यापी है। इसलिए एकात्म का अर्थ संयुक्त आत्मा या सार्वजनिक आत्मा है। जब एकात्म का अर्थ संयुक्त आत्मा समझा जाता है तब वह समाज कहलाता है। जब एकात्म का अर्थ व्यक्तिगत आत्मा समझा जाता है तब व्यक्ति कहलाता है। अवतार, संयुक्त आत्मा का साकार रुप होता है जबकि व्यक्ति व्यक्तिगत आत्मा का साकार रुप होता है। शासन प्रणाली में समाज का समर्थक दैवी प्रवृत्ति तथा शासन व्यवस्था प्रजातन्त्र या लोकतन्त्र या स्वतन्त्र या मानवतन्त्र या समाजतन्त्र या जनतन्त्र या बहुतन्त्र या स्वराज कहलाता है और क्षेत्र गणराज्य कहलाता है। ऐसी व्यवस्था सुराज कहलाती है। शासन प्रणाली में व्यक्ति का समर्थक असुरी प्रवृत्ति तथा शासन व्यवस्था राज्यतन्त्र या राजतन्त्र या एकतन्त्र कहलाता है और क्षेत्र राज्य कहलाता है ऐसी व्यवस्था कुराज कहलाती है। सनातन से ही दैवी और असुरी प्रवृत्तियों अर्थात्् दोनों तन्त्रों के बीच अपने-अपने अधिपत्य के लिए संघर्ष होता रहा है। जब-जब समाज में एकतन्त्रात्मक या राजतन्त्रात्मक अधिपत्य होता है तब-तब मानवता या समाज समर्थक अवतारों के द्वारा गणराज्य की स्थापना की जाती है। या यूँ कहें गणतन्त्र या गणराज्य की स्थापना ही अवतार का मूल उद्देश्य अर्थात्् लक्ष्य होता है शेष सभी साधन अर्थात्् मार्ग ।
अवतारों के प्रत्यक्ष और प्रेरक दो कार्य विधि हैं। प्रत्यक्ष अवतार वे होते हैं जो स्वयं अपनी शक्ति का प्रत्यक्ष प्रयोग कर समाज का सत्यीकरण करते हैं। यह कार्य विधि समाज में उस समय प्रयोग होता है जब अधर्म का नेतृत्व एक या कुछ मानवों पर केन्द्रित होता है। प्रेरक अवतार वे होते हैं जो स्वयं अपनी शक्ति का अप्रत्यक्ष प्रयोग कर समाज का सत्यीकरण जनता एवं नेतृत्वकर्ता के माध्यम से करते हैं। यह कार्य विधि समाज में उस समय प्रयोग होता है जब समाज में अधर्म का नेतृत्व अनेक मानवों और नेतृत्वकर्ताओं पर केन्द्रित होता है।
इन विधियों में से कुल दस अवतारों में से प्रथम सात (मत्स्य, कूर्म, वाराह, नृसिंह, वामन, परशुराम, राम) अवतारों ने समाज का सत्यीकरण प्रत्यक्ष विधि के प्रयोग द्वारा किया था। आठवें अवतार (श्रीकृष्ण) ने दोनों विधियों प्रत्यक्ष ओर प्रेरक का प्रयोग किया था। नवें (भगवान बुद्ध) और अन्तिम दसवें अवतार की कार्य विधि प्रेरक ही है।
जल-प्लावन (जहाँ जल है वहाँ थल और जहाँँ थल है वहाँ जल) के समय मछली से मार्ग दर्शन (मछली के गतीशीलता से सिद्धान्त प्राप्त कर) पाकर मानव की रक्षा करने वाला ईश्वर (सार्वभौम सत्य-सिद्धान्त) का पहला अंशावतार मतस्यावतार के बाद मानव का पुन-विकास प्रारम्भ हुआ। दूसरे कूर्मावतार (कछुए के गुण का सिद्धान्त), तीसरे-वाराह अवतार (सुअर के गुण का सिद्धान्त), चैथे-नृसिंह (सिंह के गुण का सिद्धान्त), तथा पाँचवे वामन अवतार (ब्राह्मण के गुण का सिद्धान्त) तक एक ही साकार शासक और मार्गदर्शक राजा हुआ करते थे और जब-जब वे राज्य समर्थक या उसे बढ़ावा देने वाले इत्यादि असुरी गुणों से युक्त हुए उन्हें दूसरे से पाँचवें अंशावतार ने साकार रुप में कालानुसार भिन्न-भिन्न मार्गों से गुणों का प्रयोग कर गणराज्य का अधिपत्य स्थापित किया। 
ईश्वर (सार्वभौम सत्य-सिद्धान्त) के छठें अंश अवतार परशुराम के समय तक मानव जाति का विकास इतना हो गया था कि अलग-अलग राज्यों के अनेक साकार शासक और मार्ग दर्शक राजा हो गये थे उनमें से जो भी राज्य समर्थक असुरी गुणों से युक्त थे उन सबको परशुराम ने साकार रुप में वध कर डाला। परन्तु बार-बार वध की समस्या का स्थाई हल निकालने के लिए उन्होंने राज्य और गणराज्य की मिश्रित व्यवस्था द्वारा एक व्यवस्था दी जो आगे चलकर ”परशुराम परम्परा“ कहलायी। व्यवस्था निम्न प्रकार थी-
1. प्रकृति में व्याप्त तीन गुण-सत्व, रज और तम के प्रधानता के अनुसार मनुष्य का चार वर्णों में निर्धारण। सत्व गुण प्रधान-ब्राह्मण, रज गुण प्रधान-क्षत्रिय, रज एवं तम गुण प्रधान-वैश्य, तम गुण प्रधान-शूद्र।
8. गणराज्य का शासक राजा होगा जो क्षत्रिय होगा जैसे-ब्रह्माण्डीय गणराज्य में प्रकृति जो रज गुण अर्थात्् कर्म अर्थात्् शक्ति प्रधान है।
9. गणराज्य में राज्य सभा होगी जिसके अनेक सदस्य होंगे जैसे-ब्रह्माण्डीय गणराज्य में प्रकृति के सत्व, रज एवं तम गुणों से युक्त विभिन्न वस्तु हैं।
10. राजा का निर्णय राजसभा का ही निर्णय है जैसे-ब्रह्माण्डीय गणराज्य में प्रकृति का निर्णय वहीं है जो सत्व, रज एवं तम गुणों का सम्मिलित निर्णय होता है। 
7. राजा का चुनाव जनता करे क्योंकि वह अपने गणराज्य में सर्वव्यापी और जनता का सम्मिलित रुप है जैसे-ब्रह्माण्डीय गणराज्य में प्रकृति सर्वव्यापी है और वह सत्व, रज एवं तम गुणों का सम्मिलित रुप है।
8. राजा और उसकी सभा राज्य वादी न हो इसलिए उस पर नियन्त्रण के लिए सत्व गुण प्रधान ब्राह्मण का नियन्त्रण होगा जैसे-ब्रह्माण्डीय गणराज्य में प्रकृति पर नियन्त्रण के लिए सत्व गुण प्रधान आत्मा का नियन्त्रण होता है।
ईश्वर (सार्वभौम सत्य-सिद्धान्त) के सातवें अंश अवतार श्रीराम ने इसी परशुराम परम्परा का ही प्रसार और स्थापना किये थे। 
ईश्वर (सार्वभौम सत्य-सिद्धान्त) के आठवें अवतार श्रीकृष्ण के समय तक स्थिति यह हो गयी थी राजा पर नियन्त्रण के लिए नियुक्त ब्राह्मण भी समाज और धर्म की व्याख्या करने में असमर्थ हो गये। क्योंकि अनेक धर्म साहित्यों, मत-मतान्तर, वर्ण, जातियों में समाज विभाजित होने से व्यक्ति संकीर्ण और दिग्भ्रमित हो गया था और राज्य समर्थकों की संख्या अधिक हो गयी थी परिणामस्वरुप मात्र एक ही रास्ता बचा था-नवमानव सृष्टि। इसके लिए उन्होंने सम्पूर्ण धर्म साहित्यों और मत-मतान्तरों के एकीकरण के लिए आत्मा के सर्वव्यापी व्यक्तिगत प्रमाणित निराकार स्वरुप का उपदेश ”गीता“ व्यक्त किये और गणराज्य का उदाहरण द्वारिका नगर का निर्माण कर किये । उनकी गणराज्य व्यवस्था उनके जीवन काल में ही नष्ट हो गयी परन्तु ”गीता“ आज भी प्रेरक बनीं हुई है।
  ईश्वर (सार्वभौम सत्य-सिद्धान्त) के नवें अवतार भगवान बुद्ध के समय पुन-राज्य एकतन्त्रात्मक होकर हिंसात्मक हो गया परिणामस्वरुप बुद्ध ने अहिंसा के उपदेश के साथ व्यक्तियों को धर्म, बुद्धि और संघ के शरण में जाने की शिक्षा दी। संघ की शिक्षा गणराज्य की शिक्षा थी। धर्म की शिक्षा आत्मा की शिक्षा थी। बुद्धि की शिक्षा प्रबन्ध और संचालन की शिक्षा थी जो प्रजा के माध्यम से प्रेरणा द्वारा गणराज्य के निर्माण की प्रेरणा थी। 
  ईश्वर (सार्वभौम सत्य-सिद्धान्त) के दसवें और अन्तिम अवतार के समय तक राज्य और समाज स्वत-ही प्राकृतिक बल के अधीन कर्म करते-करते सिद्धान्त प्राप्त करते हुए पूर्ण गणराज्य की ओर बढ़ रहा था परिणामस्वरुप गणराज्य का रुप होते हुए भी गणराज्य सिर्फ राज्य था और एकतन्त्रात्मक अर्थात्् व्यक्ति समर्थक तथा समाज समर्थक दोनों की ओर विवशतावश बढ़ रहा था। 
भारत में निम्न्लिखित रुप व्यक्त हो चुका था।
1. ग्राम, विकास खण्ड, नगर, जनपद, प्रदेश और देश स्तर पर गणराज्य और गणसंघ का रुप।
2. सिर्फ ग्राम स्तर पर राजा (ग्राम व नगर पंचायत अध्यक्ष) का चुनाव सीधे जनता द्वारा।
3. गणराज्य को संचालित करने के लिए संचालक का निराकार रुप-संविधान। 
4. गणराज्य के तन्त्रों को संचालित करने के लिए तन्त्र और क्रियाकलाप का निराकार रुप-नियम और कानून।
5. राजा पर नियन्त्रण के लिए ब्राह्मण का साकार रुप-राष्ट्रपति, राज्यपाल, जिलाधिकारी इत्यादि। 
विश्व स्तर पर निम्नलिखित रुप व्यक्त हो चुका था।
1. गणराज्यों के संघ के रुप में संयुक्त राष्ट्र संघ का रुप।
11. संघ के संचालन के लिए संचालक और संचालक का निराकार रुप-संविधान।
12. संघ के तन्त्रों को संचालित करने के लिए तन्त्र और क्रियाकलाप का निराकार रुप-नियम और कानून।
13. संघ पर नियन्त्रण के लिए ब्राह्मण का साकार रुप-पाँच वीटो पावर।
9. प्रस्ताव पर निर्णय के लिए सदस्यों की सभा।
10. नेतृत्व के लिए राजा-महासचिव।
जिस प्रकार आठवें अवतार द्वारा व्यक्त आत्मा के निराकार रुप ”गीता“ के प्रसार के कारण आत्मीय प्राकृतिक बल सक्रिय होकर गणराज्य के रुप को विवशतावश समाज की ओर बढ़ा रहा था उसी प्रकार अन्तिम अवतार द्वारा निम्नलिखित शेष समष्टि कार्य पूर्ण कर प्रस्तुत कर देने मात्र से ही विवशतावश उसके अधिपत्य की स्थापना हो जाना है। 
1. गणराज्य या लोकतन्त्र के सत्य रुप-गणराज्य या लोकतन्त्र के स्वरुप का अन्तर्राष्ट्रीय/ विश्व मानक।
2. राजा और सभा सहित गणराज्य पर नियन्त्रण के लिए साकार ब्राह्मण का निराकार रुप-मन का अन्तर्राष्ट्रीय/ विश्व मानक।
3. गणराज्य के प्रबन्ध का सत्य रुप-प्रबन्ध का अन्तर्राष्ट्रीय/ विश्व मानक।
4. गणराज्य के संचालन के लिए संचालक का निराकार रुप-संविधान के स्वरुप का अन्तर्राष्ट्रीय/ विश्व मानक।
5. साकार ब्राह्मण निर्माण के लिए शिक्षा का स्वरुप-शिक्षा पाठ्यक्रम का अन्तर्राष्ट्रीय/ विश्व मानक।
इस समष्टि कार्य द्वारा ही काल व युग परिवर्तन होगा न कि सिर्फ चिल्लाने से कि ”सतयुग आयेगा“, ”सतयुग आयेगा“ से। यह समष्टि कार्य जिस शरीर से सम्पन्न होगा वही अन्तिम अवतार के रूप में व्यक्त होगा। धर्म में स्थित वह अवतार चाहे जिस सम्प्रदाय (वर्तमान अर्थ में धर्म) का होगा उसका मूल लक्ष्य यही शेष समष्टि कार्य होगा और स्थापना का माध्यम उसके सम्प्रदाय की परम्परा व संस्कृति होगी। 
जिस प्रकार केन्द्र में संविधान संसद है, प्रदेश में संविधान विधान सभा है उसी प्रकार ग्राम नगर में भी संविधान होना चाहिए जिस प्रकार केन्द्र और प्रदेश के न्यायालय और पुलिस व्यवस्था है उसी प्रकार ग्राम नगर के भी होने चाहिए कहने का अर्थ ये है कि जिस प्रकार की व्यवस्थाये केन्द्र और प्रदेश की अपनी हैं उसी प्रकार की व्यवस्था छोटे रुप में ग्राम नगर की भी होनी चाहिए। संघ (राज्य) या महासंघ (केन्द्र) से सम्बन्ध सिर्फ उस गणराज्य से होता है प्रत्येक नागरिक से नहीं संघ या महासंघ का कार्य मात्र अपने गणराज्यों में आपसी समन्वय व सन्तुलन करना होता है उस पर शासन करना नहीं तभी तो सच्चे अर्थों में गणराज्य व्यवस्था या स्वराज-सुराज व्यवस्था कहलायेगी। यहीं राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी की प्रसिद्ध युक्ति ”भारत ग्राम (नगर) गणराज्यों का संघ हो“ और ”राम राज्य“ का सत्य अर्थ है।



No comments:

Post a Comment