Thursday, April 9, 2020

विश्वमानक-शून्य श्रंृखला (निर्माण का आध्यात्मिक न्यूट्रान बम)

विश्वमानक-शून्य श्रंृखला 
(निर्माण का आध्यात्मिक न्यूट्रान बम)

जैसे जैसे मानव जाति का सम्राज्य इस पृथ्वी पर बढ़ता जा रहा है वेेसे ही वह विभिन्न समस्याओं से भी घिरता जा रहा है। समस्यायें भी विभिन्न प्रकार की है जिन्हें मूलत-दो भागों में बाॅटा जा सकता है या यूॅ कहें कि इन दो समस्याओं से अलग कोई और समस्या है ही नहीं। प्रथम व्यष्टी या व्यक्तिगत समस्या तथा द्वितीय समष्टि या सामाजिक या सार्वजनिक या संयुक्त समस्या। प्रथम प्रकार की समस्या का मूल कारण स्वंय व्यक्ति या और द्वितीय प्रकार की समस्या होती है जबकि द्वितीय प्रकार की समस्या का मूल कारण व्यक्ति ही होता है क्योकि समष्टि नाम का कोई व्यक्ति नहीं होता। वह व्यक्ति का समूह ही होता है अर्थात्् व्यक्ति ही समष्टि समस्या को जन्म देता है। उसके उपरान्त ही समष्टि समस्या, के रूप में पुन-व्यक्ति को प्रभावित करती है। 
उपरोक्त दोनों समस्याओं के समाधान के लिए दो रास्ते हैं प्रथम व्यक्ति को सत्य से जोड़ा जाय तब समष्टि स्वत-सत्य से जुड़ जायेगा। दूसरा यह है कि समष्टि को सत्य से जोड़ा जाय तो व्यक्ति स्वंय सत्य से जुड़ जायेगा। यहाँ आवश्यक है कि सत्य और विचार अर्थात्् दर्शन को स्पष्ट रूप से समझ लिया जाय। विचार कई हो सकते हैं सत्य एक होता है। विचार व्यक्ति होता है सत्य समष्टि होता है। विचार को कार्य में बदलने के बाद सत्य का जन्म होता है। विचार छोटा चक्र है, सत्य एक बड़ा, सर्वोच्च और अन्तिम चक्र है। विचारों का अन्त सत्य है। विचार व्यक्तिगत सत्य है जबकि सत्य सार्वजनिक सत्य है। अर्थात्् सम्पूर्ण या विश्व या अन्तर्राष्ट्रीय अर्थात्् समष्टि मानक है। और जो मानक है वह विचार या व्यक्तिगत विचार कभी भी नहीं हो सकता। सार्वजनिक सत्य, विचारों को प्रतिबद्ध करने वाली लोकतन्त्र प्रणाली की चरम विकसित अवस्था है। इसलिए स्वस्थ लोकतन्त्र की प्राप्ति के लिए प्रथम तथा सार्वजनिक सत्य, व्यक्त करना पड़ेगा फिर व्यवस्थाओं को उसके अनुसार स्थापित करना पड़ेगा। विचार को देश-काल बद्ध है जबकि सत्य देश-काल मुक्त है।
व्यष्टि हो या समष्टि दोनों को कर्म करना पड़ता है। कर्म की प्रणाली भी दो ही प्रकार की होती है। प्रथम-पहले कर्म फिर ज्ञान, द्वितीय-पहले ज्ञान फिर कर्म। प्रथम कार्य प्रणाली में समस्यायें अधिक उत्पन्न होती है। द्वितीय प्रकार के कार्यप्रणाली में समस्यायें कम उत्पन्न होती हैं। वर्तमान लोकतन्त्र प्रणाली में कर्म पहले हो रहा है ज्ञान बाद में प्राप्त हो रहा है इसलिए ही नियम कानून तो बनते हैं परन्तु उनका दूरगामी प्रभाव शून्य ही प्राप्त होता है। अभी तक यह स्पष्ट किया जा रहा था कि सत्य और विचार क्या है ? और कार्य प्रणाली के मार्ग क्या है?
अब हम पुन-समस्याओं के समाधान के रास्तों पर आते हैं। समस्यायें कभी भी पूर्णत-समाप्त नहीं होती सिर्फ उनको कम करने का प्रयास होता है। मानव सदा से अपने कर्मो का अधिकतम उपयोग और परिणाम प्राप्त करने का प्रयत्न किया है। जिसके परिणामस्वरूप वर्तमान का व्यक्त रूप है। समस्याओं के समाधान के रास्तों में प्रथम रास्ता कठिन और वर्तमान समय में प्रभावहीन है क्योंकि व्यक्ति को सत्य से जोड़ने के दो मार्ग हैं। प्रथम व्यक्ति ही व्यक्ति को सत्य से जोड़े । ऐसे में व्यक्ति के जन्म दर और व्यक्ति को सत्य से जोड़ने वालों की जन्म दर में इतना अधिक अन्तर है कि उसकी स्थिति साइकिल सवार द्वारा राजधानी एक्सप्रेस को पीछे छोड़ने का प्रयत्न है। और सत्य ज्ञान का भी अभाव है। जिसके परिणामस्वरूप विभिन्न जन जागरण कार्यक्रम भी असफलता को प्राप्त कर अनुपयोगी प्रतीत हो रहे है। द्वितीय-समष्टि ही व्यक्ति को सत्य से जोड़े। दूसरे रूप में समस्याओं के समाधान के रास्तों में यही द्वितीय मार्ग ही अर्थात्् समष्टि को सत्य से जोड़ने का रास्ता है जिससे व्यक्ति को सत्य से जोड़ने का कार्य भी पूर्ण हो जाता है। यह मार्ग प्रभावकारी, आसान और अन्तिम इसलिए है कि शिक्षा का विकास जिस तेजी से हो रहा है और प्रत्येक के लिए शिक्षा आवश्यक बनती जा रही है उसी तेजी से इस माध्यम से व्यक्ति का जन्म के साथ सीधा सम्बन्ध भी है। इस माध्यम से सत्य शिक्षा द्वारा व्यक्ति को सत्य से जोड़ने की गति भी जन्म दर के समान होगी । मात्र यही मार्ग, स्वस्थ लोकतन्त्र, स्वस्थ समाज, नैतिक उत्थान, विश्व शान्ति, एकता, विश्व स्थिरता, विश्व विकास सहित शक्ति का विश्व विकास के प्रति उपयोगिता का अन्तिम मार्ग है।
सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को प्रभावित करने वाली तीन शक्तियाॅ या चक्र या मार्ग है। प्रथम-सर्वोच्च और अन्तिम-प्राकृतिक या आत्मीय या सत्य-धर्म-ज्ञान चक्र, द्वितीय-व्यष्टि चक्र, तृतीय-समष्टि चक्र। प्रथम चक्र को ही एकता चक्र कहते हैं जिसका प्राच्य, पाश्चात्य, राज्य, समाज, धर्म, धर्मनिरपेक्ष, सर्वधमसमभाव, सम्प्रदाय इत्यादि के सर्मथकों में कोई भी इसे अस्वीकार नहीं कर सकता अन्यथा वह बह्माण्ड विरोधी सिद्ध हो जायेगा। द्वितीय एवम् तृतीय चक्र विज्ञान आधारित चक्र है। द्वितीय चक्र-व्यष्टि चक्र की सर्वोच्च, प्रथम एवम् अन्तिम स्थिति व्यक्तिगत प्रमाणित अदृश्य विज्ञान-आध्यात्म विज्ञान आधारित है। जिसके अन्तर्गत विभिन्न मत, दर्शन, विचार समाहित है। और आधारित विभिन्न सम्प्रदाय, दल, संगठन इत्यादि संचालित हो रहे हैं। यही व्यष्टि धर्म भी है। इस चक्र की उपयोगिता मात्र व्यष्टि मन को सन्तुलन, स्थिरता और शान्ति प्रदान करता है। चंूकि यह व्यक्तिगत प्रमाणित होता है इसलिए इनके विभिन्न छोटे छोटे चक्रों के समर्थकों में विवाद भी होते हैं। तृतीय चक्र-समष्टि चक्र की सर्वोच्च, प्रथम एवम् अन्तिम स्थिति सार्वजनिक प्रमाणित दृश्य विज्ञान-पदार्थ विज्ञान आधारित है जिसके अन्तर्गत पदार्थिक सत्य समाहित है। और आधारित भौतिक समाज संचालित हो रहें हैं। इस चक्र की उपयोगिता मात्र व्यष्टि एवम् समष्टि को संसाधन उपलब्ध कराना हैं और बाह्य केन्द्रित व्यष्टि मन को शान्ति, स्थिरता और सन्तुलन प्रदान करना है। चंूकि यह सार्वजनिक प्रमाणित होता है इसलिए इसमें विवाद का कोई भी रास्ता नहीं है। व्यक्तिगत प्रमाणित अदृश्य विज्ञान-आध्यात्म विज्ञान का दृश्य रूप-सार्वजनिक प्रमाणित दृश्य विज्ञान-पदार्थ विज्ञान अर्थात्् व्यक्तिगत प्रमाणित अदृश्य पदार्थ विज्ञान का सार्वजनिक प्रमाणित दृश्य आध्यात्म विज्ञान, विज्ञान की दो अदृश्य एवम् दृश्य अवस्था है। प्रथम चक्र सत्य-धर्म-ज्ञान चक्र की उपयोगिता दोनों दिशाहीन चक्रो-व्यष्टि एवम् समष्टि चक्रो को एकता की दिशा में बांधे रखना है। दूसरे रूप में समष्टि चक्र, प्रथम चक्र से मिलकर समष्टि धर्म को उत्पन्न करता है।
चूँकि कालानुसार कर्मज्ञान की उपलब्धता नहीं थी इसलिए वर्तमान समय में तीनों शक्तियों की प्रथम, सर्वोच्च और अन्तिम स्थिति अपने निम्नतम स्थिति व्यक्ति शरीर में स्थापित हो चुकी है। प्रथम चक्र-व्यक्ति शरीर के बाह्य आडम्बरों, द्वितीय चक्र-शारीरिक शक्ति तथा तृतीय चक्र व्यक्ति समूह की शक्ति अर्थात् लोकतन्त्र के रूप में स्थापित हो चुकी है। लोकतन्त्र सार्वजनिक सत्य का समर्थकों का समूह है परन्तु यह आवश्यक नहीं कि वह सम्पूर्ण एकता की ओर ही हो। स्वस्थ लोकतन्त्र की चरम स्थिति सम्पूर्ण एकता की दिशा अर्थात् प्रथम चक्र की चरम स्थिति की दिशा की ओर ही होकर प्राप्त किया जा सकता है न कि वर्तमान लोकतन्त्र के निम्नतम स्थिति की दिशा से।
इस ब्रह्माण्ड में कुछ भी स्थिर नहीं है जिसे वर्तमान का पदार्थ विज्ञान भी स्वीकार करता है। और जो स्थिर नहीं है वह अपनी स्थिरता के लिए क्रियाशील है। सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को प्रभावित करने वाली तीनों शक्तियों में प्रथम शक्ति-आत्मीय शक्ति पर कोई भी शक्ति अपना प्रभाव नहीं डाल सकती इसलिए यह शक्ति अपनी शक्ति, एकता एवम् स्थिरता के लिए शाश्वत से सक्रिय है। इस शक्ति का सम्बन्ध एक जीवन से नहीं बल्कि कई जीवन से होता है। द्वितीय शक्ति-व्यष्टि शक्ति मूलत-दो प्रकार से सक्रिय है-प्रथम-निवृत्तिमार्ग और द्वितीय प्रवृत्तिमार्ग। निवृत्ति मार्ग इस जगत को असत्य मानकर व्यष्टि चिन्तन आधारित अदृश्य विज्ञान-आध्यात्म विज्ञान द्वारा शान्ति, स्थिरता को प्राप्त करता है। वह इस जगत से जितना प्राप्त करता है उससे कम ही लौटा पाता है उसका समस्त कार्य शुद्ध रूप से स्वंय के लिए ही होता है। यह मार्ग समाज तथा राज्य से पूर्णत-निष्क्रीय होता है। यह मार्ग सिर्फ स्वयं की मुक्ति के लिए ही सक्रिय होता है। इस मार्ग की चरम स्थिति प्रथम शक्ति अर्थात् आत्मीय शक्ति से योग होता है। यदि जीवन है तो कर्म किये बिना कोई भी नहीं रह सकता इसलिए योग के उपरान्त यदि कोई सूत्र समाज तथा राज्य के लिए प्राप्त होते है तो वह उसके अनुसार स्वयं तथा दूसरों के लिए कर्म करता है और वह प्रवृत्ति मार्ग में परिवर्तित हो जाता है। अन्यथा वह निवृत्ति मार्ग में ही कर्म करता है। प्रवृत्ति मार्ग इस जगत को सत्य मानकर समष्टि चिन्तन आधारित दृश्य एवम् अदृश्य विज्ञान द्वारा शान्ति, स्थिरता को प्राप्त करता है। वह इस जगत से जितना प्राप्त करता है उससे अधिक उसे लौटा देता है। उसका समस्त कार्य स्वयं सहित समाज और राज्य की शान्ति एवम स्थिरता के लिए होता है। तथा समाज तथा राज्य में पूर्णत-सक्रिय होता है। इस मार्ग का जीवन ही प्रथम शक्ति-आत्मीय शक्ति की स्थिरता, शान्ति और एकता की प्राप्ति की ओर एक जीवन होता है। तृतीय शक्ति-समष्टि शक्ति सार्वजनिक सत्य के द्वारा कर्म करके स्वयं, समाज तथा राज्य को शान्ति, स्थिरता प्रदान करता है। तृतीय शक्ति और प्रवृत्तिमार्गी का संयुक्त जीवन प्रथम शक्ति-आत्मीय शक्ति की स्थिरता, शान्ति और एकता का सर्वोच्च, अन्तिम और व्यक्त सम्पूर्ण जीवन होता है। शुद्ध रूप से तृतीय शक्ति से युक्त होकर कर्म करने वाले भौतिकता आधारित प्रवृत्ति मार्ग कहे जाते हैं।
लोकतन्त्र व्यष्टि विचारों को प्रतिबन्धित कर सार्वजनिक विचार अर्थात् सत्य को प्रकाशित करने का माध्यम है जिसकी चरम विकसित स्थिति सार्वजनिक सत्य या समष्टि सत्य अर्थात् सम्पूर्ण मानक अर्थात् सत्य-सिद्धान्त है। जो मतों द्वारा व्यक्त होता है। प्रश्न यह कि लोकतन्त्र मन के तन्त्र जैसे-शिक्षा पाठ्यक्रम कर नीति, विदेश नीति, आरक्षण नीति, आर्थिक नीति, उद्योग नीति, मुद्रा प्रवाह इत्यादि के सत्य सिद्धान्त के बिना ज्ञान के ऐसे निवृत्ति मार्गी और वे जिन्हे इन तन्त्रों का ज्ञान नहीं है, क्या वे अपना मत देकर लोकतन्त्र को स्वस्थता की ओर ले जा रहे हैं? जब तक सत्य-सिद्धान्त द्वारा इन तन्त्रों को विवादमुक्त कर उसे शिक्षा पाठ्यक्रम द्वारा व्यक्ति में स्थापित नहीं किया जाता लोकतन्त्र की स्वस्थता, समाज की स्वस्थता, नैतिक उत्थान, विश्व शान्ति, विश्व एकता, विश्व रक्षा, विश्व स्थिरता सहित विश्व विकास की कामना करना असम्भव है।
समाज हो या राज्य, प्राच्य हो या पाश्चात्य, धर्म हो या धर्मनिरपेक्ष या सर्वधर्मसमभाव, एकता के लिए कर्म करने का सार्वजनिक विरोध हम नहीं कर सकते। क्योंकि यही हमारा उद्देश्य है। आधुनिक दृश्य पदार्थ विज्ञान कहता है। परमाणु संरचना में इलेक्ट्रानों की संख्या के घटने-बढ़ने से ही विभिन्न तत्वों का जन्म हुआ है और विभिन्न तत्वों के योग से विभिन्न पदार्थो का। इसी प्रकार प्राच्य अदृश्य आध्यात्म विज्ञान कहता है। मन की उच्चतम एवम् निम्नतम अवस्था से ही उच्च एवम् निम्न विचार अर्थात् दर्शन युक्त व्यक्ति का जन्म होता है। जिससे व्यक्ति का महत्व और महानता व्यक्त होती है। पुन-ऐसे व्यक्तियों के समूह से सम्प्रदाय, संगठन दल इत्यादि का जन्म होता है। यह इलेक्ट्रान और मन दोनों अस्थिर, आदान-प्रदान युक्त क्रियाशील विषय है। इनसे पूर्ण मुक्ति पर ही केन्द्र या आत्मा या एकता के दर्शन को प्रापत किया जा सकता है। इलेक्ट्रान और मन की स्थिति क्रियान्वयन दर्शन की स्थिति तथा केन्द्र या आत्मा या एकता की स्थिति विकास दर्शन की स्थिति होती है। इसलिए कर्मवेद-प्रथम, अन्तिम तथा पंचमवेद (धर्मयुक्तनाम) अर्थात् WSO:0 श्रंखला-मन की गुणवत्ता का विश्वमानक (धर्मनिरपेक्ष और सर्वधर्मसमभाव नाम) कहता है-”पूर्ण ज्ञान अर्थात्् अपने मालिक स्वंय केन्द्र में स्थित मार्गदर्शन (Guider philosophy) अर्थात् G एवम् विकास दर्शन ¼Development philosophy) अर्थात् D है। इसकी परिधि या आदान-प्रदान या व्यापार या क्रियाचक्र या क्रियान्वयन दर्शन (Operating philosophy) अर्थात् व् है। यही आध्यात्म अर्थात् अदृश्य विज्ञान का सर्वोच्च एवम् अन्तिम आविष्कार है। तथा यही पदार्थ अर्थात् दृश्य विज्ञान द्वारा अविष्कृत परमाणु की संाचना भी है। जिसके केन्द्र में G के रूप में प्रोटान-P तथा D के रूप में न्यूट्रान-N है। इसकी परिधि O के रूप में इलेक्ट्रान-E है। प्राच्य अदृश्य आध्यात्म विज्ञान तथा पाश्चात्य दृश्य पदार्थ विज्ञान में एकता का यही सूत्र है। विवाद मात्र नाम के कारण है।“
जिसके अनुसार इलेक्ट्रान या क्रियान्वयन दर्शन में विभिन्न सम्प्रदायों, संगठनों, दलों के विचार सहित व्यक्तिगत विचार हैं। जिसके अनुसार अर्थात् अपने मन या मन के समूहों के अनुसार वे समाज तथा राज्य का नेतृत्व करता हैं। जबकि ये सार्वजनिक सत्य नहीं है। इसलिए ही उन विचारों की समर्थन शक्ति कभी स्थिर नहीं रहती है। जबकि केन्द्र या आत्मा या एकता में विकास दर्शन स्थित है। केन्द्र में प्रोटॅान की स्थिति अदृश्य मार्गदर्शक दर्शन या अदृश्य विकास दर्शन की स्थिति, चंूकि यह सार्वजनिक सत्य विकास दर्शन का अदृश्य रूप है। इसलिए यह व्यक्तिगत प्रमाणित है। इसी कारण आध्यात्म भी विवाद और व्यष्ठि विचार के रूप में रहा जबकि यह सत्य था। लेकिन न्यूट्रान की स्थिति दृश्य मार्गदर्शन दर्शन या दृश्य विकास दर्शन की स्थिति है। इसलिए यह सार्वजनिक सत्य है। सम्पूर्ण मानक है, समष्टि सत्य हैं, सत्य-सिद्धान्त है। जिसकी स्थापना से व्यक्ति का मन उस चरम स्थिति में स्थापित होकर उसी प्रकार तेजी से विश्व निर्माण कर सकता है जिस प्रकार पदार्थ विज्ञान द्वारा अविष्कृत न्यूट्रान बम इस विश्व का विनाश कर सकता है। इस प्रकार WSO-0 श्रृंखला मन के निर्माण द्वारा विश्व निर्माण के प्रति प्रयोग करना कर्तव्य भी है तथा दायित्व भी है। 100 वर्ष पूर्व स्वामी विवेकानन्द जी ने अपने जीवन की इच्छा को व्यक्त करते हुये कहा था कि-”जीवन में मेरी सर्वोच्च अभिलाषा यह है कि ऐसा चक्र प्रर्वतन कर दूॅ जो कि उच्च एवम् श्रेष्ठ विचारों को सब के द्वार-द्वार पर पहुंचा दे। फिर स्त्री-पुरूष को अपने भाग्य का निर्माण स्वंय करने दो। हमारे पूर्वजों ने तथा अन्य देशों ने जीवन के महत्वपूर्ण प्रश्नों पर क्या विचार किया है यह सर्वसाधारण को जानने दो। विशेषकर उन्हें देखने दो कि और लोग क्या कर रहे हैं। फिर उन्हे अपना निर्णय करने दो। रासायनिक द्रव्य इकट्ठे कर दो और प्रकृति के नियमानुसार वे किसी विशेष आकर को धारण कर लेगें-परिश्रम करो, अटल रहो। ”धर्म को बिना हानि पहुॅचाये जनता की उन्नति“-इसे अपना आदर्श वाक्य बना लो।“ (”स्वामी विवेकानन्द राष्ट्र को आह्वान“, पृष्ठ-66 से)। क्या यह स्वामी विवेकानन्द की इच्छा की पूर्ति का कार्य नहीं है?



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