एकात्मकर्मवाद और विश्व का भविष्य
पिछले वर्षो में लोकसभा चुनाव में विश्व के सबसे बड़े लोकतन्त्र के मतदाताओं ने ऐसी स्थिति उत्पन्न कर दी जिससे फलस्वरूप स्पष्ट जनादेश किसी भी राजनीतिक दल को प्राप्त न हो सका। राजनीतिक अस्थिारता को दूर करने के लिए कई दलों ने मिलकर सरकार का गठन किया जिससे एक नई संस्कृति की शुरूआत हुई थी और कार्यप्रणाली ”न्यूनतम साझा कार्यक्रम“ पर आधारित हुई थी। यह न्यूूनतम साझा कार्यक्रम वही कार्यक्रम था। जो सरकार बनाने वाले दलों और समर्थन करने वाले दलों के कार्यक्रम में सामान्य था। यह न्यूनतम साझा कार्यक्रम एकात्मकर्मवाद का क्रम संकुचित अर्थात्् सूक्ष्म बीज था। न्यूनतम साझा कार्यक्रम जब सम्पूर्ण मानव समाज अर्थात्् विश्व स्तर तक उठकर आविश्कृत किया जा तो वह उसी एकात्मकर्मवाद के क्रम संकुचित बीज का विकसित अर्थात्् सर्वोच्च स्तर होगा और वह ”विश्व व्यवस्था का न्यूनतम एवम अधिकतम साझा कार्यक्रम कहलाएगा।“
जब तक व्यक्ति अपने मन को एकात्मवाद के सर्वोच्च स्तर पर केन्द्रित कर उसे सत्यार्थ करने का प्रयत्न किया तब-तब वह व्यक्ति महापुरूष के रूप में व्यक्त हुए। जबकि औषधि आधारित अर्थववेद में इस एकात्मवाद की उपयोगिता का ज्ञान पहले से ही विद्यमान है। जिसके सम्बन्ध में स्वामी विवेकानन्द जी कहते हैं-”अत-यदि भारत को महान बनाना है, तो इसके लिए आवश्यकता है संगठन की, शक्ति संग्रह की और बिखरी हुई इच्छाशक्ति को एकत्र कर उसमें समन्वय लाने की। अथर्ववेद संहिता की एक विलक्षण ऋचा याद आ गयी जिसमें कहा गया है, ”तुम सब लोग एक मन हो जाओ, सब लोग एक ही विचार के बन जाओ। एक मन हो जाना ही समाज गठन का रहस्य है बस इच्छाशक्ति का संचय और उनका समन्वय कर उन्हें एकमुखी करना ही सारा रहस्य है।“ (देखें ”नया भारत गढ़ो“ पृष्ठ संख्या-55) एकात्म भाव के सम्बन्ध में स्वामी जी कहते हैं-”यह भी न भूलना चाहिए कि हमारे बाद जो लोग आएंगे, वे उसी तरह हमारे धर्म और ईश्वर सम्बन्धी धारणा पर हँसेंगे, जिस तरह हम प्राचीन लोगों के धर्म और ईश्वर की धारणा पर हँसते हैं। यह सब होने पर भी, इन सब ईश्वर सम्बन्धित धारणाओं का संयोग करने वाला एक स्वर्ण सूत्र है और वेदान्त का उद्देश्य है-इस सूत्र की खोज करना। भागवान कृष्ण ने कहा है-”भिन्न भिन्न मणियाँ जिस प्रकार एक सूत्र में पिरोयी जा सकती हैं, उसी प्रकार इन सब विभिन्न भावों के भीतर भी एक सूत्र विद्यमान है।“ (देखें ”ज्ञानयोग“, पृष्ठ संख्या-65) और स्वर्ण सूत्र के सम्बन्ध में स्वामी जी कहते हैं-एक शब्द में वेदान्त का आदर्श है-मनुष्य के सच्चे स्वरूप को जानना।“ (देखें ”विवेकानन्द राष्ट्र को आह्वान“, पृष्ठ सं0-48)। पं0 दीनदयाल उपाध्याय जी की अनुभूति भी एकात्मभाव के सर्वोच्च स्तर पर केन्द्रित थी जिसे ”एकात्म मानवतावाद“ के रूप में जाना जाता है।
विश्व शान्ति, एकता एवम् विकास के लिए गठित अन्तर्राष्ट्रीय संघ-संयुक्त राष्ट्र संघ के द्वारा धीरे-धीरे स्वास्थ्य, व्यापार, संचार, पर्यावरण इत्यादि को अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर विचार कर उसे स्थापित किया जा रहा है। जो वर्तमान समय में मनुष्य के भविष्य की आवश्यकता है। क्योंकि बढ़ते जनसंख्या के कारण प्रतयेक व्यक्ति के क्रियाकलाप का प्रभाव किसी न किसी रूप में विश्व व्यवस्था पर भी पड़ रहा है। परिणामस्वरूप यह आवश्यक हो गया है कि आने वाली शदी और उसके उपरान्त के समय के लिए ”विश्व व्यवस्था का न्यूनतम एवम् अधिकतम साझा कार्यक्रम“ का आविष्कार एवम् स्थापना हो। तभी मानव समाज स्वंय को लगातार विकास की ओर अग्रसर करता रह सकता है।
वर्तमान समय में भारत अपने शारीरिक स्वतन्त्रता और संविधान के पचासवें वर्ष को मना चुका है। जिसके सम्बन्ध में उस वर्ष संसद में ”पचास वर्ष की उपलब्धियां एवम् आवश्यकता“ पर संसद सदस्यों द्वारा विचार प्रस्तुत किये गये। हमारे सामने यह प्रश्न है कि स्वस्थ समाज और स्वस्थ लोकतन्त्र की प्राप्ति किस प्रकार हो? यह तभी सम्भव हो पाएगा, जब ”विश्व व्यवस्था का न्यूनतम एवम् अधिकतम साझा कार्यक्रम को आविष्कृत कर उसे विश्व शिक्षा के रूप में स्थापित किया जाय, जिससे प्रत्येक व्यक्ति ही विश्व हो जाय। शिक्षा के सम्बन्ध में स्वामी विवेकानन्द जी का कहना था कि ”शिक्षा का मतलब यह नहीं है कि तुम्हारे दिमाग में ऐसी बहुत सी बातें इस तरह ठूस दी जाय जो आपस में लड़ने लगे और तुम्हारा दिमाग उन्हें जीवन भर में हजम न कर सके। जिस शिक्षा से हम अपना जीवन निर्माण कर सकें, मनुष्य बन सकें, चरित्र गठन कर सकें और विचारों का सामन्जस्य कर सकें, वही वास्तव में शिक्षा कहलाने योग्य है। यदि तुम पांच ही भावों को हजम कर तदनुसार जीवन और चरित्र गठन कर सके हो तो तुम्हारी शिक्षा उस आदमी की अपेक्षा वहुत अधिक है, जिसने एक पूरी की पूरी लाइब्रेरी ही कण्ठस्थ कर ली है।“ (देखें ”भारत में विवेकानन्द“, पृष्ठ सं0-252)।
भूमण्डलीकरण या अन्तर्राष्ट्रीयकरण के युग में पिछले वर्षो गेट समझौता (विश्व व्यापार संगठन) द्वारा बाजार का भी अन्तर्राष्ट्रीयकरण किया गया। जिसके परिणामस्वरूप देश के मानक (भारतीय मानक व्यूरो) से उठकर विश्व मानक (अन्तर्राष्ट्रीय मानकीकरण संगठन) में मानव द्वारा निर्मित उत्पादों का मानकीकरण होने लगा। इस प्रकार औद्योगिक इकाइयों को वाह्य विषयों के निर्माण की गुणवत्ता का आई0 एस0 ओ0-9000 श्रृंखला तेजी से प्रदान की जाने लगी। इस श्रृंखला की तेजी से सफलता एवं उत्पादों के उपयोग की मानसिकता तभी तक बनीं रह सकती है। जब समाज, संगठन एवं मानव द्वारा निर्माण किये जा रहे मानव मन की गुणवत्ता की श्रृंखला आई0 एस0 ओ0-शून्य श्रृंखला को स्थापित किया जाय अर्थात्् अन्त-विषय मानव मन में स्थापित किया जाय। यह मन की गुणवत्ता का मानक या विश्वमन या आई0 एस0 ओ0-शून्य श्रृंखला ही ”विश्व व्यवस्था का न्यूनतम एवं अधिकतम साझा कार्यक्रम“ होगा।
प्रश्न यह है कि सेक्युलर अर्थात्् धर्म निरपेक्ष या सर्वधर्मसमभाव भारतीय संविधान के समर्थन में ”अथर्ववेद का एकमन“, ”कृष्ण का एक सूत्र“, ”वेदान्त का उद्देश्य-स्वर्ण सूत्र“, ”स्वामी विवेकानन्द का एक शब्द एवं पाँच भाव“ एवं ”पं0 दीनदयाल उपाध्याय का एकात्म मानवतावाद“ को किस प्रकार अविष्कृत एवं सत्यार्थ किया जाये क्योंकि ये सभी धर्मयुक्त नाम हैं। अर्थात्् भारतीय संविधान के अनुसार अयोग्य है। अर्थात्् इस अविष्कार का प्रत्येक नाम धर्मनिरपेक्ष एवं सर्वधर्मसमभाव नाम युक्त होना चाहिए।
लव कुश सिंह ”विश्वमानव“ द्वारा इस सम्बन्ध में अधिक स्पष्ट कहा गया है-”यदि तुम समग्र जगत के ज्ञान से पूर्ण होना चाहते हो तो पाँच भाव-विचार एवं साहित्य, विषय एवं विशेषज्ञ, ब्रह्माण्ड (स्थूल एवं सूक्ष्म) के प्रबन्ध और क्रियाकलाप, मानव (स्थूल एवं सूक्ष्म) के प्रबन्ध और क्रियाकलाप तथा उपासना स्थल का सामंजस्य कर एक मुखी कर लो। यही समग्र जगत का ज्ञान है, भविष्य है, रहस्य है, पूर्ण ज्ञान है, समाज गठन है, पुस्तकालय के ज्ञान से सर्वोच्च है।“ विचार के सम्बन्ध में कहा गया है-”यह अद्वैत (एकत्व) ही धर्मनिरपेक्ष है, सर्वधर्मसमभाव है। वेदान्त तथा मानव का सर्वोच्च दर्शन है। जहाँ से मानव विशिष्टाद्वैत, द्वैत एवं वर्तमान में मतवाद के मानसिक गुलामी में गिरा है परन्तु मानव पुन-इसी के उल्टे क्रम से उठकर अद्वैत में स्थापित हो जायेगा। तब वह धर्म में स्थापित एवं विश्वमन से युक्त होकर पूर्ण मानव अर्थात्् ईश्वरस्थ मानव को उत्पन्न करेगा।“ साहित्य के सम्बन्ध में कहा गया है कि-”मानव एवं प्रकृति के प्रति निष्पक्ष, संतुलित एवं कल्याणार्थ कर्म ज्ञान के साहित्य से बढ़कर आम आदमी से जुड़ा साहित्य कभी भी आविष्कृत नहीं किया जा सकता। यहीं एक विषय है जिससे एकता, पूर्णता एवं रचनात्मकता एकात्म भाव से लाई जा सकती है। संस्कृति से राज्य नहीं चलता कर्म ज्ञान से राज्य चलता है। संस्कृति तभी तक स्वस्थ बनी रहती है जब तक पेट में अन्न हो, व्यवस्थाएं सत्य सिद्धान्त युक्त हों, दृष्टि पूर्ण मानव निर्माण पर केन्द्रित हो। संस्कृति कभी एकात्म नहीं हांे सकती लेकिन रचनात्मक दृष्टिकोण एकात्म होता है जो कालानुसार कर्म ज्ञान और कर्म है। अदृश्य काल में अनेकात्म तथा दृश्य काल में एकात्म कर्म ज्ञान अर्थात्् एकात्म रचनात्मक दृष्टिकोण होता है यहीं कर्म आधारित भारतीय संस्कृति है जो प्रारम्भ में भी था और अन्त में पुन-स्पष्ट हो रहा है यहीं सभी संस्कृतियों का मूल भी है।“ काल के सम्बन्ध में कहा गया है-”जब व्यष्टिमन की शान्ति अन्त-विषयों जो सिर्फ अदृश्य विषय मन द्वारा ही प्रमाणित होता है, पर केन्द्रित होती है तो उसे व्यष्टि अदृश्य काल कहते हंै तथा जब व्यष्टि मन की शान्ति दृश्य विषयों अर्थात्् वाह्य विषयों, जो सार्वजनिक रुप से प्रमाणित है पर केन्द्रित होता है तो उसे व्यष्टि दृश्यकाल कहते हैं इसी प्रकार सम्पूर्ण समाज का मन जब अदृश्य विषयों पर केन्द्रित होती है तो उसे समष्टि अदृश्य काल कहते हंै तथा जब सम्पूर्ण समाज का मन जब दृश्य विषयों पर केन्द्रित होता है तो उसे समष्टि दृष्यकाल कहते हैं“ कर्म ज्ञान के सम्बन्ध में कहा गया है कि-”व्यक्ति जब सम्पूर्ण समष्टि अदृश्य काल में हो तो उसे अदृश्य कर्म ज्ञान के अनुसार तथा जब सम्पूर्ण समष्टि दृश्य काल में हो तो उसे दृश्य कर्म ज्ञान के अनुसार कर्म करने चाहिए तभी वह ब्रह्माण्डीय विकास के लिए धर्मयुक्त या एकता बद्ध होकर कार्य करेगा।“ स्वर्ण सूत्र के सम्बन्ध में कहा गया है कि-”मानक अर्थात्् आत्मा अर्थात्् सत्य-धर्म-ज्ञान स्थिर रहता है लेकिन मन को इस ओर लाने वाले सूत्र भिन्न-भिन्न होंगे क्योंकि जो उत्पन्न है वह स्थिर नहीं है। अदृश्य काल में यह सूत्र अनेक होंगे लेकिन दृश्य काल के लिए हमेशा एक ही होगा क्योंकि वह सार्वजनिक प्रमाणित होगा।“ स्वर्ण सूत्र के गुण के सम्बन्ध में कहा गया है कि-”अत-यदि भारत को महान बनना है, विश्वगुरु बनाना है, भारतीय संविधान को विश्व संविधान में परिवर्तित करना है तो एकात्मकर्मवाद पर आधारित दृश्य काल के लिए एक शब्द चाहिए जो परिचित हो, केवल उसकी शक्ति का परिचय कराना मात्र हो, स्वभाव से हो, स्थिर हो, समष्टि हो, दृश्य हो, सम्पूर्ण हो, विवादमुक्त हो, विश्वभाषा में हो, आध्यात्मिक एवं भौतिक कारण युक्त हो, सभी विश्वमन के तन्त्रों, व्यक्ति से संयुक्त राष्ट्र संघ के सच्चे स्वरुप एवं विश्व के न्यूनतम एवं अधिकतम साझा कार्यक्रम को प्रक्षेपित करने में सक्षम हो, मानव एवं प्रकृति के विकास में एक कड़ी के रुप मंे निर्माण के लिए सक्षम हो, मानव एवं प्रकृति के विकास के कल्याणार्थ, निष्पक्ष, सर्वोच्च दृश्य ज्ञान व दृश्य कर्म ज्ञान का संगम हो अदृश्य काल के विकास के सात चक्रों (पाँच अदृश्य कर्म चक्र एवं दो अदृश्य ज्ञान कर्म चक्र जो सभी सम्प्रदायों और धर्मों का मूल है) को दृश्य काल के सात चक्रों (पाँच दृश्य कर्म चक्र, एक दृश्य ज्ञान कर्म चक्र और एक अदृश्य ज्ञान कर्म चक्र) को प्रक्षेपित करने में सक्षम हो, को स्थापित करना पड़ेगा। यह भारत सहित नव विश्व निर्माण का सूत्र है, अन्तिम रास्ता है और उसका प्रस्तुतीकरण प्रथम प्रस्तुतीकरण होगा।“ जिसके सम्बन्ध में स्वामी विवेकानन्द जी ने कहा था कि ”हिन्दू भावों को अंग्रेजी में व्यक्त करना, फिर शुष्क दर्शन, जटिल पौराणिक कथाएँ और अनूठे आश्चर्यजनक मनोविज्ञान से ऐसे धर्म का निर्माण करना, जो सरल, सहज और लोकप्रिय हो और उसके साथ ही उन्नत मस्तिष्क वालों को संतुष्ट कर सके-इस कार्य की कठिनाइयों को वे ही समझ सकते हैं, जिन्होंने इसके लिए प्रयत्न किया हो। अद्वैत के गुढ़ सिद्धान्त में नित्य प्रति के जीवन के लिए कविता का रस और जीवन दायिनी शक्ति उत्पन्न करनी है। अत्यन्त उलझी हुई पौराणिक कथाओं में से जीवन प्रकृत चरित्रों के उदाहरण समूह निकालने हैं और बुद्धि को भ्रम में डालने वाली योगविद्या से अत्यन्त वैज्ञानिक और क्रियात्मक मनोविज्ञान का विकास करना है और इन सब को एक ऐसे रुप में लाना पड़ेगा कि बच्चा-बच्चा इसे समझ सके। (पत्रावली, पृष्ठ-425)“ वर्तमान समय में विवादास्पद शब्द ”सेक्युलर“ को स्पष्ट करते हुए लव कुश सिंह ”विश्वमानव“ द्वारा कहा गया है कि-”जब सभी सम्प्रदायों को धर्म मानकर हम एकत्व की खोज करते हैं तब दो भाव उत्पन्न होते हैं। पहला-यह कि सभी धर्मों को समान दृष्टि से देखें तब उस एकत्व का नाम सर्वधर्मसमभाव होता है। दूसरा-यह कि सभी धर्मों को छोड़कर उस एकत्व को देखें तब उसका नाम धर्म निरपेक्ष होता है। जब सभी सम्प्रदायों को सम्प्रदाय की दृष्टि से देखते हैं तब एक ही भाव उत्पन्न होता है और उस एकत्व का नाम धर्म होता है। इन सभी भावों में हम सभी उस एकत्व के ही विभिन्न नामों के कारण विवाद करते हैं अर्थात्् सर्वधर्मसमभाव, धर्मनिरपेक्ष एवं धर्म विभिन्न मार्गों से भिन्न-भिन्न नाम के द्वारा उसी एकत्व की अभिव्यक्ति है। दूसरे रुप में हम सभी सामान्य अवस्था में दो विषयों पर नहीं सोचते, पहला-वह जिसे हम जानते नहीं, दूसरा-वह जिसे हम पूर्ण रुप से जान जाते हैं। यदि हम नहीं जानते तो उसे धर्मनिरपेक्ष या सर्वधर्मसमभाव कहते हैं जब जान जाते हैं तो धर्म कहते हैं। इस प्रकार आई0 एस0 ओ0-शून्य श्रृंखला उसी एकत्व का धर्मनिरपेक्ष एवं सर्वधर्मसमभाव नाम तथा कर्मवेद-प्रथम, अन्तिम तथा पंचमवेदीय श्रृंखला उसी एकत्व का धर्मयुक्त नाम है तथा इन समस्त कार्यों को सम्पादित करने के लिए जिस शरीर का प्रयोग किया जा रहा है उसका धर्मयुक्त नाम-लव कुश सिंह है तथा धर्मनिरपेक्ष एवं सर्वधर्मसमभाव सहित मन स्तर का नाम विश्वमानव है जब कि मैं (आत्मा) इन सभी नामों से मुक्त है।“
विचार प्रसार एवं विचार स्थापना के लिए कहा गया है कि-”विचार प्रसार एवं विचार स्थापना में एक मुख्य अन्तर है। विचार प्रसार, विचाराधीन होता है। वह सत्य हो भी सकता है और नहीं भी हो सकता परन्तु विचार स्थापना सत्य होता है। विचार स्थापना में नीति प्रयोग की जाती है जिससे उसका प्रभाव सत्य के पक्ष में बढ़ता रहता है और यह विचार स्थापक एवं समाज पर निर्भर करता है जबकि विचार प्रसार में किसी नीति का प्रयोग नहीं होता है जिससे उसका प्रभाव पक्ष पर एवं विपक्ष दोनों ओर हो सकता है और वह सिर्फ समाज के उपर निर्भर करता हैै।“
इस प्रकार एकात्मकर्मवाद सत्य अर्थों में प्राच्य एवं पाश्चात्य, समाज एवं राज्य, धर्म, धर्मनिरपेक्ष एवं सर्वधर्मसमभाव की एकता के साथ स्वस्थ लोकतन्त्र, स्वस्थ समाज, स्वस्थ उद्योग, नैतिक उत्थान, विश्व व्यवस्था, विश्वएकता, विश्व शान्ति, विश्व विकास, विश्व के भविष्य और उसके नवनिर्माण का प्रथम माॅडल है जो वर्तमान समाज की आवश्यकता ही नहीं अन्तिम मार्ग है।
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