Wednesday, April 1, 2020

ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति

ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति


ब्रह्माण्ड का आरम्भ कब और किस क्रम से हुआ इसके सम्बन्ध में अनेक मत हैं, पर जिस प्रतिपादन पर आम सहमति हो चुकी है वह यह है कि-”आरम्भ में थोड़ा सा सघन द्रव्यमान था। उसके अन्तराल में किसी अज्ञात कारण से विस्फोट हुआ और उसकी धज्जियाँ उड़ गई। अंसख्य टुकड़े हुये, वे जिधर-तिधर छितर गये। इस छितराव ने एक नई दिशा अपनाई। टुकड़ों में से अधिकांश अपनी धुरी पर लट्टू की तरह घूमने लगे और साथ ही घुड़दौड़ की तरह आगे की ओर भी भागने लगे।“ चूँकि यह समस्त सृष्टि रचना में गोलाकार है फलतः गति भी गोलाकार ही अग्रगामी रह सकती है। अनवरत घुड़दौड़ को अन्ततः गोलाकार बनाना पड़ा और किसी लक्ष्य तक पहुँचकर प्रयास को इतिश्री कर देने की अपेक्षा अनन्तकाल तक अनवरत घुड़दौड़ जारी रखने का एक सुनिश्चित मार्ग मिल गया। द्रव्यमान के छितरे हुये टुकड़ो ने न केवल वाह्य जगत में, ब्रह्माण्ड के क्षेत्र में अपनी घुड़दौड़ को जारी रखा वरन् आत्मसत्ता की नीजी परिधि में भी इसी नीति को अपनाया। वे अपनी-अपनी धुरियों पर भी घूमने लगे। इस प्रकार वैयक्तिक और सामूहिक दोनों ही क्षेत्रों में उसने अपने प्रयास-पुरूषार्थ को अग्रगमन के लक्ष्य में नियोजित किये रहने का मार्ग चुना और अनुशासन अपनाया।
विज्ञानवेत्ताओं के अनुसार सृष्टि का आरम्भिक द्रव्यमान एक सघन बादल के रूप में था। उस स्थिति में उसका घनत्व 10-12 किलोग्राम प्रति घन मीटर आँका गया है। जिसे प्रोटोगैलेक्सी के नाम से पुकारते हैं। आरम्भ में वह बादल ऐसे ही अनगढ़ था। विस्फोट होने के बाद उस केन्द्र में तथा टुकड़ों में एक नई क्षमता उद्भूत हुई। उसे गुरूत्वाकर्षण के नाम से जाना जाता है। विस्फोट के बाद टुकड़े निहारिका बन गये और छोटे ग्रहतारकों के रूप में अपने छोटे-छोटे कलेवरों को सुगठित बना सकने में सफल हो गये। निहारिकाएँ अभी भी उतनी सुव्यवस्थित नहीं हो सकी हैं। ब्रह्माण्ड फूल रहा है। उसके अन्तराल में अवस्थित निहारिकाएँ तथा ताश्रीरामण्डल क्रमशः एक-दूसरे से दूर जा रहे हैं। इस हटने का तात्पर्य पीछे की ओर से नहीं आगे की ओर बढ़ना है। पदार्थ चल रहा है, यह स्पष्ट है पर क्यों चल रहा है, किस दशा में चल रहा है कि उसके सामने भी प्रगति का, विस्तार का, पराक्रम के प्रकटीकरण का और अपूर्णता को पार करते हुये चरम पूर्णता तक पहुँचने का लक्ष्य ही प्रेरणा स्रोत बनकर रह रहा है।
हर 50 वर्ष में हमारी आकाशगंगा के किसी विशालकाय तारा में सुपरनोवा विस्फोट होता है। इस विस्फोट से अंतरिक्ष में बड़े पैमाने पर विकिरण एवं पदार्थ किसी भावी खगोलीय पिण्ड से बीज के रूप में आते हैं और पूरी आकाशगंगा में एक तीव्र कम्पन उत्पन्न करते हैं। यह कम्पन्न तरंग अतंर तारक गैसों को गर्म करती है, बादलों के छोटे टुकड़ों को वाष्पीभूत करती है और बड़ों पर गहरा दबाव डालती है, जिससे वे बादल उसी स्थान पर अपने स्वयं के गुरूत्व बल के कारण दबकर ठोस रूप में परिणत हो जाते हैं और नए तारे का निर्माण करते हैं।
सुपरनोवा ऐसे विस्फोट हैं जो आकाशगंगा के इंजन को विकास की दिशा में आगे की ओर बढ़ाते हैं। अरबों वर्ष पहले पृथ्वी पर भी प्राकृतिक विस्फोटों की श्रृंखला द्वारा ही जीवन का उद्भव सम्भव हुआ। तारक पिण्डों का अपना एक जीवन चक्र होता है, जिसमें वे घूमते रहते है। तारे के निर्माण के कुछ काल पश्चात् उनमें विस्फोट होता है। इस विस्फोट से वे नए-नए भारी तत्वों को अंतर तारक गैसों में समविष्ट करते हैं फिर इनसे दूसरे खगोलिय पिण्ड का निर्माण होता है जो कुछ काल पश्चात् पुनः सुपरनोवा विस्फोट में फटते हैं। इसी प्रकार खगोल में यह सृजन और विध्वंश का यह क्रम सदा चलता रहता है।
भारतीय दर्शन की मान्यता चेतन को मूल मानकर ज्यों की त्यों है। प्रारम्भ में एक ही तत्व परमात्मा पिण्ड रूप में था। उसके नाभि देश से ”एकोहं बहुस्यामि (मैं एक हूँ, बहुत हो जाऊँ)“, इस तरह की स्फुरण, भावना या विचार उठा। इससे वह फट पड़ा और महाप्रकृति की रचना हुई। उसमें सत, रज, तम तीन गुणों का सम्मिलन था। इन्हीं से सृष्टि में जीवन का निर्माण हुआ और सृष्टि के विस्तार की तरह ही 84 लाख योनियों का निरन्तर विकास होता चला गया। जिस तरह ब्रह्माण्ड विकसित हो रहा है उसी प्रकार नाना प्रकार के जीवन सृष्टि का भी विकास होता जा रहा है। यह सब अत्यधिक करूणामूलक, स्नेहजनक, मातृसंज्ञक रूप से चल रहा है। भौतिक व आध्यात्मिक दोनों दृष्टियों से आकाशगंगाएँ इस विशाल माता का हृदय कही जा सकती हैं। 
दर्शन शास्त्र के व्यक्तिगत प्रमाणित मार्गदर्शक दर्शन के अनुसार-दर्शन शास्त्र से व्यक्त भारत के सर्वप्राचीन दर्शनों (बल्कि विश्व के) में से एक और वर्तमान तक अभेद्य सांख्य दर्शन में ब्रह्माण्ड विज्ञान की विस्तृत व्याख्या उपलब्ध है। स्वामी विवेकानन्द जी के व्याख्या के अनुसार-”प्रथमतः अव्यक्त प्रकृति (अर्थात तीन आयाम-सत, रज, और तम), यह सर्वव्यापी बुद्धितत्व (1. महत्) में परिणत होती है, यह फिर सर्वव्यापी अंहतत्व (2. अहंकार) में और यह परिणाम प्राप्त करके फिर सर्वव्यापी इंद्रियग्राह्य भूत (3. तन्मात्रा-सूक्ष्मभूतः गंध, स्वाद, स्पर्श, दृष्टि, ध्वनि 4. इन्द्रिय ज्ञानः श्रोत, त्वचा, नेत्र, जिह्वा, घ्राण) में परिणत होता है। यही भूत समष्टि इन्द्रिय अथवा केन्द्र समूह (5. मन) और समष्टि सूक्ष्म परमाणु समूह (6. इन्द्रिय-कर्मः वाक, हस्त, पाद, उपस्थ, गुदा) में परिणत होता है। फिर इन सबके मिलने से इस स्थूल जगत प्रपंच (7. स्थूल भूतः आकाश, वायु, अग्नि, जल, पृथ्वी) की उत्पत्ति होती है। सांख्य मत के अनुसार यही सृष्टि का क्रम है और बृहत् ब्रह्माण्ड में जो है-वह व्यष्टि अथवा क्षूद्र ब्रह्माण्ड में भी अवश्य रहेगा। जब साम्यावस्था भंग होती है, तब ये विभिन्न शक्ति समूह विभिन्न रूपों में सम्मिलित होने लगते हैं और तभी यह ब्रह्माण्ड बहिर्गत होता है। और समय आता है जब वस्तुओं का उसी आदिम साम्यावस्था में फिर से लौटने का उपक्रम चलता है। (अर्थात एक तन्त्र का अन्त) और ऐसा भी समय आता है कि सब जो कुछ भावापन्न है, उस सब का सम्पूर्ण अभाव हो जाता है। (अर्थात सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड का अन्त)। फिर कुछ समय पश्चात् यह अवस्था नष्ट हो जाती है तथा शक्तियों के बाहर की ओर प्रसारित होने का उपक्रम आरम्भ होता है। तथा ब्रह्माण्ड धीरे-धीरे तंरगाकार में बहिर्गत होता है। जगत् की सब गति तरंग के आकार में ही होता है-एक बार उत्थान, फिर पतन। प्रलय और सृष्टि अथवा क्रम संकोच और क्रम विकास (अर्थात एक तन्त्र या सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड का अन्त और आरम्भ) अनन्त काल से चल रहे है।ं अतएव हम जब आदि अथवा आरम्भ की बात करते है तब हम एक कल्प (अर्थात चक्र) आरम्भ की ओर ही लक्ष्य रखते है।“

बिग-बैंग सिद्धान्त
एक समय ऐसा था जब बहुत से लोग विश्वास करते थे कि ब्रह्माण्ड का न आदि है न अंत और यह शाश्वत है। बिग-बैंग सिद्धान्त के आने से ब्रह्माण्ड को शाश्वत नहीं माना गया। इसकी भी एक शुरूआत मानी गई, जिसका एक इतिहास है, अंत है। इस सिद्धान्त के अनुसार 15 अरब वर्ष पहले एक अद्भुत अकल्पनीय महाविस्फोट से ब्रह्माण्ड का विस्तार शुरू हुआ। इस महाविस्फोट को ”बिग-बैंग“ कहा जाता है। इस घटना के प्रारम्भिक बिन्दु पर समस्त ऊर्जा, पदार्थ और देश (स्पेस) एक अत्यन्त सघन बिन्दु में सम्पीडित थें। इस घटना से पहले क्या था, पूरी तरह अज्ञात है और चिंतन का विषय है। यह घटना वैसा विस्फोट नहीं था जैसा कि हम आम विस्फोट को जानते हैं बल्कि यह एक दूसरे से दूर भागते भ्रूणात्मक ब्रह्माण्ड के कणों को समस्त स्पेस में भरने की घटना थी। दरअसल बिग-बैंग, स्पेस के भीतर स्पेस को भरने का विस्फोट था। उस बम के विस्फोट तरह नहीं जिसमें उसके पदार्थ को बाहर फेंका जाता है। इस बिग-बैंग सिद्धान्त का मूल श्रेय इडविन हब्बल को दिया जा सकता है। 1929 में हब्बल ने अपने निरीक्षणों से पता लगाया कि ब्रह्माण्ड का निरन्तर विस्तार हो रहा है और मंदाकिनियों (ग्लेक्सीज) के पुंज एक दूसरे से दूर भाग रही हैं।

निष्कर्ष
निष्कर्ष के रूप में यह ब्रह्माण्ड एक वृक्ष के समान है जिससे उत्पन्न होने वाला प्रत्येक बीज एक ब्रह्माण्ड को जन्म देने में सक्षम है। जबकि वृक्ष और बीज दोनों ब्रह्माण्ड के ही अंग है। बीज प्रारम्भिक बिन्दु है तो वृक्ष उसका विस्तार ब्रह्माण्ड रूप है। प्रश्न आता है कि पहले कौन था, बीज या वृक्ष? इस पर इस उत्तर को ही अन्त मानकर सन्तोष करना पड़ेगा कि-”एक परमतत्व है जिसे परमात्मा कहते है और वह बीज व वृक्ष दोनों में विद्यमान है, दोनों ही उसी का प्रकाश व विस्तार है, उसी के उपस्थिति में बीज और वृक्ष का क्रम चलता रहता है।“
कोई भी विकास दर्शन अपने अन्दर पुराने सभी दर्शनों को समाहित कर लेता है अर्थात उसका विनाश कर देता है और स्वयं मार्गदर्शक दर्शन का स्थान ले लेता है। अर्थात सृष्टि-स्थिति-प्रलय फिर सृष्टि। चक्रीय रूप में ऐसा सोचने वाला ही नये परिभाषा में आस्तिक और सिर्फ सीधी रेखा में सृष्टि-स्थिति-प्रलय सोचने वाला नास्तिक कहलाता है।



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