ब्लैक होल और आत्मा
सार्वभौम एकत्व की खोज मनुष्य को सदैव रही है। यह आध्यात्म और विज्ञान दोनों का मुख्य और सर्वोच्च विषय रहा है।
स्वामी विवेकानन्द जी ”राजयोग“ में लिखते हैं कि-”मन की शक्तियाँ इधर-उधर बिखरी हुई प्रकाश की किरणों के समान है। जब उन्हें केन्द्रीभूत किया जाता है, तब वे सब कुछ आलोकित कर देती है। यही ज्ञान का हमारा एक मात्र उपाय है। बाह्य जगत् में हो अथवा अन्तर्जगत् में लोग इसी को काम में ला रहे है। पर वैज्ञानिक जिस सूक्ष्म पर्यवेक्षण शक्ति का प्रयोग बहिर्जगत् में करता है, मनस्तत्त्वान्वेषी उसी का मन पर करते है। (राजयोग-पृ0-11)”, ”बहिर्वादी और अन्तर्वादी जब अपने अपने ज्ञान की चरमसीमा प्राप्त कर लेंगे, तब दोनों अवश्य एक ही स्थान पर पहुँच जायेंगे। (राजयोग-पृ0-16)”
आध्यात्म विज्ञान में जितने भी आचार्य हुये वे सृष्टि के उत्पत्ति सम्बन्धित दार्शनिक विचार प्रस्तुत कर ही स्थापित हैं और ”सार्वभौम एकत्व“ के रूप में उनका आविष्कार ”आत्मा“ है जो प्रत्येक वस्तु (जीव-नीर्जीव) के रूप में प्रकाशित है और जब वह उसी में प्रकाशित है तो वह अलग से नहीं दिख सकता।
इसी प्रकार विज्ञान भी ”सार्वभौम एकत्व“ की खोज में लगा हुआ है। ”गाॅड पार्टीकील“ अर्थात एक ऐसा कण जो ईश्वर की तरह हर जगह है और उसे देख पाना मुश्किल है जिसके कारण कणों में भार होता है, के खोज के लिए ही जेनेवा (स्विट्जरलैण्ड-फ्रंास सीमा पर) में यूरोपियन आर्गनाइजेशन फाॅर न्यूक्लियर रिसर्च (सर्न) द्वारा रूपये 480 अरब के खर्च से महामशीन लगाई गई है। जिसमें 15000 वैज्ञानिक और 8000 टन की चुम्बक लगी हुई है।
”आत्मा“ और ”गाॅड पार्टीकील“ दोनों अदृश्य वस्तु हैं, जिस प्रकार विचार अदृश्य वस्तु है ये अपने गुणों से केवल अनुभव में आती है। यह ब्रह्माण्ड सनातन, असीम, अनन्त हैं और सदैव इसके किसी न किसी भाग में सृजन और विनाश (क्रम विकास और क्रम संकुचन) का मानवी शक्ति के सीमा से परे अनियंत्रित खेल चलता रहता है।
ब्लैक होल
तारों में नाभिकीय (परमाणु) ईंधन के जलने से जो ऊर्जा पैदा होती है वह प्रकाश तथा अन्य किस्म के किरणों के रूप में बाहर निकलती है। ऊर्जा से पैदा होने वाला भीषण दाब उस तप्त तारे को उसके गुरूत्वीय बल के अन्तर्गत सिकुड़ने नहीं देता। तारा लगभग संतुलित अवस्था में टिका रहता है। मगर जैसे ही तारे का नाभिकीय ईंधन जलकर राख हो जाता है, वैसे ही वह तारा तेजी से सिकुड़ते हुये मरणावस्था में पहुँच जाता है। उस तारे का द्रव्यमान यदि 1.4 सूर्यो से कम है, तो वह पहले ”श्वेत बामन“ और अंततः ”कृष्ण बामन“ बन जाता है। यदि उस तारे का द्रव्यमान 2-3 सूर्यो के बराबर है तो वह अंततः ”न्यूट्रान तारा (पल्सर)“ बन जाता है, परन्तु ऐसे भी अनेक तारे हैं जिनमें 3 सूर्यो से अधिक द्रव्यराशि है। ऐसे तारों का नाभिकीय ईंधन जब खत्म होता है, तब वे एक ही झटके में तेजी से सिकुड़कर न्यूट्रान तारे से भी अधिक सघन पिण्ड बन जाते हैं। खगोलविद्ों ने ऐसे पिण्डों को ”ब्लैक होल“ का नाम दिया है।
ब्लैक होल्स के बारे में सभी बातें बड़ी विलक्षण हैं। ऐसे पिण्डों में इतना अधिक गुरूत्वाकर्षण पैदा होता है कि वह प्रकाश की किरणों को भी बाहर जाने नहीं देता। ब्लैक होल्स के समीप से भी गुजरने वाली प्रकाश-किरणें मुड़कर उसी में गायब हो जाती हैं। यहाँ तक कि ब्लैक होल्स के नजदीक काल के प्रवाह और दिक (स्पेस) की ज्यामिति में भी बेहद परिवर्तन हो जाता है। ब्लैक होल एक ऐसे अथाह गर्त का निर्माण करता है जिसमें प्रकाश व द्रव्य गिरकर गायब हो जाते हैं। चूँकि ब्लैक होल्स से किरणें बाहर नहीं निकल पाती, इसलिए वह हमारे लिए अदृश्य बना रहता है।
हम जानते हैं कि सूर्य के समीप से गुजरने वाली प्रकाश-किरणें थोड़ी भीतर की ओर मुड़ जाती है। सापेक्षिकता के सिद्धान्त के अनुसार यदि हमारा सूर्य सिकुड़कर केवल तीन किलोमीटर अर्धव्यास का पिण्ड हो जाता है तो वह एक ब्लैक होल बन जायेगा। तब इसके पास से गुजरने वाली किरणें पूर्णतः मुड़कर उसके भीतर गिर जायेंगी। और सूर्य हमारे लिए हमेंशा के लिए गायब हो जायेगा। द्रव्यराशि गुरूत्वीय पतन के अन्तर्गत सिकुड़कर करीब एक सेंटीमीटर व्यास का पिण्ड बन जाये, तो वह भी एक ब्लैक होल बन जायेगा। खगोलविद्ों का अनुमान है कि हमारी आकाशगंगा में ही लाखों-करोड़ों ब्लैक होल हो सकते हैं। कई वैज्ञानिकों का मत है कि ”क्वासर“ नामक अनोखें पिण्ड और मंदाकिनियों के केन्द्र भाग में भी विशाल ब्लैक होल हो सकते हैं। एक मान्यता यह भी है कि समूचा ब्रह्माण्ड अंततः एक अतिविशाल अदृश्य ब्लैक होल में संघनित हो जायेगा। वर्तमान में अधिकांश वैज्ञानिक ब्लैक होल के अस्तित्व को स्वीकार करते हैं। ब्रह्माण्ड वैज्ञानिक स्टीफेन हाकिंग के अनुसार, विश्व का कोई आरम्भ और अन्त नहीं। आज से डेढ़ हजार साल पहले के भारतीय गणितज्ञ-ज्योतिषि आर्यभट्ट (499 ई.) की भी यही मान्यता थी कि यह विश्व अनादि-अनन्त है।
यही ब्लैक होल इस अनादि-अनन्त विराट ब्रह्माण्ड वृक्ष के बीज हैं जिनसे समय-समय पर छोटे-छोटे ब्रह्माण्ड का सृजन होता रहता है और पुनः बीज रूप में ब्लैक होल उत्पन्न होते रहते हैं।
आत्मा
आत्मा के सम्बन्ध में स्वामी विवेकानन्द के विचार (उनके ”ज्ञान योग“ पुस्तक से)-कपिल का प्रधान मत है-परिणाम। वे कहते हैं, एक वस्तु दूसरी वस्तु का परिणाम अथवा विकार स्वरूप है, क्योंकि उनके मत के अनुसार कार्य-कारण भाव का लक्षण यह है कि-कार्य अन्य रूप में परिणत कारण मात्र है। (पृ0-52), कपिल का मत है कि समग्र ब्रह्माण्ड ही एक शरीर स्वरूप है जो कुछ हम देखते हैं, वे सब स्थूल शरीर है, उन सबके पश्चात् सूक्ष्म शरीर समूह और उनके पश्चात् समष्टि अहंतत्व, उसके भी पश्चात् समष्टि बुद्धि है। किन्तु यह सब ही प्रकृति के अन्तर्गत हैं। उसमें से जो हमारे प्रयोजन का है, हम ग्रहण कर रहे हैं, इसी प्रकार जगत के भीतर समष्टि मनस्तत्व विद्यमान है, उससे भी हम चिरकाल से प्रयोजन के अनुसार ले रहे हैं। किन्तु देह का बीज माता-पिता से प्राप्त होना चाहिए। इससे वंश की अनुक्रमणिकता और पुनर्जन्मवाद दोनों ही तत्व स्वीकृत हो जाते हैं। (पृ0-25), समग्र प्रकृति के पश्चात् निश्चित रूप में कोई सत्ता है, जिसका आलोक उन पर पड़कर महत्, अहंज्ञान और यह सब नाना वस्तुओं के रूप में प्रतीत हो रहा है। और इस सत्ता को ही कपिल पुरुष अथवा आत्मा कहते है। वेदान्ती भी उसे आत्मा कहते हैं। कपिल के मत के अनुसार पुरुष अमिश्र पदार्थ है। वह यौगिक पदार्थ नहीं है। वही एकमात्र व जड़ पदार्थ है और सब प्रपंच-विकार ही जड़ है। पुरुष ही एकमात्र ज्ञाता है। (पृ0-52), वेदान्त के मतानुसार सब जीवात्माएं ब्रह्मनामधेय एक विश्वात्मा में अमिश्र है।, पहले यह स्थूल शरीर, उसके पश्चात् सूक्ष्म शरीर, उसके पश्चात् जीव अथवा आत्मा-यही मानव का यथार्थ स्वरूप है। मनुष्य का एक सूक्ष्म शरीर और एक स्थूल शरीर है, ऐसा नहीं है। शरीर एक ही है तथापि सूक्ष्म आकार में वह स्थूल की अपेक्षा दीर्घ काल तक रहता है, तथा स्थूल शीघ्र नष्ट हो जाता है।, यह समग्र जगत् एक अखण्ड स्वरूप है, और उसे ही अद्वैत वेदान्त-दर्शन में ब्रह्म कहते हैं। ब्रह्म जब ब्रह्माण्ड के पश्चात् प्रदेश में है ऐसा लगता है, तब उसे ईश्वर कहते हैं। अतएव यह आत्मा ही मानव का अभ्यन्तरस्थ ईश्वर है। केवल एक पुरुष-उन्हें ईश्वर कहते हैं, तथा जब ईश्वर और मानव दोनों के स्वरूप का विश्लेषण किया जाता है तब दोनों को एक के रूप में जाना जाता है। (पृ0-67), धर्मज्ञान को उच्चतम चूड़ा में आरोहण करने के लिए मानव जाति को जिन सब सोपानों का अवलम्बन करना पड़ा है, प्रत्येक व्यक्ति को भी उसका ही अवलम्बन करना होगा। केवल प्रभेद यह है कि समग्र मानव जाति को एक सोपान से दूसरे सोपान में आरोहण करने के लिए लाख-लाख वर्ष लगे हो, किन्तु व्यक्तिगण कुछ वर्षों में ही मानव जाति का समग्र जीवन यापन कर ले सकते हैं, अथवा वे और भी शीघ्र, सम्भवतः छः मास के भीतर ही उसे सम्पूर्ण कर ले सकते हैं। (पृ0-135), जो व्यक्ति कहता है, इस जगत् का अस्तित्व है, किन्तु ईश्वर नहीं है, वह निर्बोध है, क्योंकि यदि जगत् हो, तो जगत् का एक कारण रहेगा और उसक कारण का नाम ही ईश्वर है। कार्य रहने पर ही उसका कारण है, यह जानना होगा। जब यह जगत् अन्तर्हित होगा, तब ईश्वर भी अन्तर्हित होंगे। जब आप ईश्वर के सहित अपना एकत्व अनुभव करेंगे, तब आपके पक्ष में यह जगत् फिर नहीं रहेगा। जिसे हम इस क्षण जगत् के रूप में देख रहें हैं, वही हमारे सम्मुख ईश्वर के रूप में प्रतिभासित होगा, एवं जिनको एक दिन हम बहिर्देश में अवस्थित समझते थे, वे ही हमारी आत्मा के अन्तरात्मा रूप में प्रतीत होंगे।-”तत्वमसि“-वही तुम हो। (पृ0-135)।
परमाणु संरचना की भाँति आत्मा केन्द्र में स्थित है और मन इलेक्ट्रान की भाँति क्रियाशील है। यह मन जब बाहरी विषयों के साथ क्रिया करता है तब उसे भौतिकवाद कहते हैं और जब यह केन्द्र में स्थित आत्मा से क्रिया करने लगता है तब उसे आध्यात्मवाद कहते हैं। मन के विचरण का यह विस्तृत दायरा उसके सशक्तता का मार्ग होता है। संकुचित मन में विभिन्न प्रकार की बीमारी सक्रिय हो जाती है। भूत-प्रेत जैसी समस्या केवल संकुचित मन के लिए ही हैं इसलिए इसका प्रसार ज्यादातर महिलाओं और अति पिछड़े मानव वर्ग में है। मन का केन्द्र में गिरना योजनाबद्ध तरीके से भी हो सकता है या दुर्घटनावश भी। जिस प्रकार कुँए में योजनाबद्ध तरीके से प्रवेश करना या अनजाने में उसमें गिर जाना। यदि योजनाबद्ध तरीका है तब तो आप इच्छानुसार जायेंगे और बाहर निकलेंगे। लेकिन दुर्घटनावश है तब उस केन्द्र की उर्जा-प्रकाश को बर्दास्त कर पाना प्रत्येक के लिए सम्भव नहीं होता। फिर भी जो परिणाम आता है वह होता है-मानसिक विक्षिप्तता या मानसिक सशक्तता। मानसिक विक्षिप्तता की स्थिति में कुछ भी सृष्टि अर्थात नव-निर्माण की सम्भावना नहीं रह जाती। मानसिक सशक्तता की स्थिति में संसार के सारे विचार उसमें समाहित होने जैसा व्यक्त होने लगता है। और वह पिछले सभी विचारों के ज्ञान से युक्त हो जाता है। यह भी सम्भव है कि वह शान्त-मौन हो जाये, उनमें से किसी विचार में बद्ध हो जाये और वह बाह्य जगत में गुण-कर्म को व्यक्त किये बिना उस अनुसार स्वयं को समझने व व्यवहार करने लगे। ऐसे उदाहरण मिलते रहते हैं जैसे-कोई स्वयं को राधा समझने लगता है, कोई विष्णु के अवतार के रूप में, कोई कृष्ण के रूप में, कोई कल्कि अवतार के रूप में।
मानसिक सशक्तता की स्थिति में सिर्फ वहीं सृष्टि अर्थात नव-निर्माण कर पाता है जो सासांरिकता के साथ अपने उस केन्द्र के प्रकाश का योग कर उसे गुण-कर्म के रूप में व्यक्त कर देता है। इसी को योग माया का प्रयोग कहते हैं। इसी को ध्यान कहते हें, ज्ञान का कालानुसार योग ही ध्यान होता है। इसी से वह स्वयं को सिद्ध करता है। ब्लैक होल की भाँति मानसिक सशक्तता के साथ बाहरी सूचना समाहित हो जाती है और वह सृष्टि करने के लिए नये रूप में बाहर आती है। महर्षि व्यास ने अपने शास्त्र महाभारत में सृष्टिकर्ता को ”कृष्ण“ ही कहा है।
स्वामी विवेकानन्द जी अपने पुस्तक ”योग क्या है“ में लिखते हैं-जब एक साधक शरीर बोध का अतिक्रमण कर जाता है, तो स्वभावतः उसके शरीर का अन्त हो जाता है और यह देखा गया है कि सामान्यतः एक ज्ञानी परमसत्ता के अनुभव के बाद अपने उस विराट अनुभव के बाद अपने उस विराट अनुभव को झेल नहीं पाता। फिर भी शंकर की तरह कुछ अपवाद हैं जिन्होंने विराट के अनुभव के बाद भी मानवता को ऐसी स्थिति की उपलब्धि के साधनों की शिक्षा देने के लिए अपने उच्च विचारों को कायम रखा। ये आत्माएं बन्धन से प्राप्त अनन्त मुक्ति को स्वयमेंव तज देती हैं जिसे उन्होंने दूसरों की मुक्ति दिलाने के लिए प्राप्त किया है। उनके लिए उच्चतम अनुभव का द्वार हमेंशा खुला रहता है, लेकिन वे उस द्वार में प्रवेश करने से इनकार कर देते हैं, जब तक वे उन लोगों को जो दुःख से पीड़ित हैं और प्रकाश की तलाश में हैं, अपने साथ न ले जा सकें। वे लोग बहुत बड़े सिद्ध, भविष्यदृष्टा और संत हैं जो गहन अंधकार से मानवता को बचाने के लिए अपनी आत्मा की मशाल को जलाए रखते हैं। वे वहीं लोग हैं जो साधारण जीवन जीते हुये कम से कम थोड़ी देर के लिए थके हारे संसार को खाई में गिरने से रोकते हैं। वे धरती पर भगवान के सच्चे प्रतिनिधि होते हैं। (योग क्या है, पृष्ठ-62)
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