Wednesday, April 1, 2020

ब्रह्माण्ड या व्यापार केन्द्र: एक अनन्त व्यापार क्षेत्र

ब्रह्माण्ड या व्यापार केन्द्र: एक अनन्त व्यापार क्षेत्र


आकाश पर नजर डालने से एक काली चादर या कुछ जुगनू से बैठे चमकते दिखते हैं। दिन और रात में चमकते हुये दो गोले घूमते नजर आते हैं। मोटी दृष्टि यहीं समाप्त हो जाती है, पर जब गहराई में उतरकर वास्तविकता खोजने की बात चलती है तो प्रतीत होता है कि इस नगण्य के पीछे न जाने कितना बड़ा विशाल विस्तार छिपा पड़ा है। उसकी परतें उठाते चलने पर विशालता का अनंत विस्तार आँखों के सामने आकर खड़ा हो जाता है। ब्रह्माण्ड का स्वरूप कभी मानवी मान्यता के अनुसार बहुत छोटा था, पर अब पर्यवेक्षण से उसकी विशालता इतनी बढ़ चली है कि उसकी कल्पना करने तक में मस्तिष्क चकराने लगता है।
ब्रह्माण्ड के बारे में जैसे-जैसे जानकारीयाँ बढ़ती जा रही हैं वैसे-वैसे उसके विस्तार का दायरा बढ़ता जा रहा है। अभी वह बचपन की ही अवधि में है इसलिए उसे बहुत समय बढ़ने, फलने और परिपुष्ट होने में लगेगा। प्रौढ़ता आने के उपरान्त ही वृद्धावस्था की झुर्रियाँ पड़ना आरम्भ होगी। कमर झुकेगी। खाँसी श्वास का सिलसिला चलेगा और घटते-घटते हारा थका जराजीर्ण होने पर वह मरण की तैयारी करेगा। मरने के उपरान्त उसे फिर जन्म लेने में कितने समय भूतकाल जैसा गर्भावस्था में रहना होगा, यह तो नहीं कहा जा सकता किन्तु यह निश्चित है कि जन्म-मरण के चक्र में पदार्थो एवं प्राणियों की तरह ब्रह्माण्ड को भी गुजरना पड़ेगा। और यह क्रम सदैव चलता रहता है। वर्तमान समय का ब्रह्माण्ड अभी बचपन की अवधि में है।
हमारा सौर मण्डल ब्रह्माण्ड में उपस्थित कई अरब निहारिकाओं में से एक में उपस्थित अरबों-खरबों सौरमण्डल में से एक सौर मण्डल है। कई अरब निहारिकाओं का समुच्चय आकाशगंगा (मिल्की वे या ग्लैक्सी) कहलाता है। ब्रह्माण्ड में असंख्यों आकाशगंगाएँ हैं। हमारा ब्रह्माण्ड दिनो-दिन फैलता जा रहा है और निहारिकाएँ एक-दूसरे से दूर हटती जा रहीं है। एक आकाशगंगा को ही लें तो पाते हंै कि अपने सूर्य जैसे लगभग 500 करोड़ ताराओं, सौरमण्डल तथा अकल्पनीय विस्तार वाले धूल तथा गैस वर्तुलों के मेंघ मिलकर मात्र एक गंगा बनती है। ऐसी 10 करोड़ से अधिक आकाशगंगाओं या उनके मध्य के अकल्पनीय आकाश को एक ब्रह्माण्ड कहा जाता है। यह ब्रह्माण्ड कितने है? इस स्थान पर मनुष्य की बुद्धि व कल्पना थक जाती है। इसलिए दर्शन ने उसे ”नेति-नेति“ एवं विज्ञान ने उसे ”अनन्त“ कहा है। आध्यात्मवाद ने इस समस्त रचना को ही नहीं उसके स्वामी, नियंता, रक्षक को भी अनन्त नाम से ही सम्बोधित किया है।
क्या अनन्त अंतरिक्ष का अन्त है? इस प्रश्न के उत्तर में विश्व प्रसिद्ध वैज्ञानिक आईन्सटीन एवं मिन्कोवस्की ने ”है“ के रूप में दिया है। वे कहते हैं-”सीधे चलते हुये कोई भी वस्तु अन्ततः घूमकर अपने मूल उद्गम पर ही आ जाती है। इस गणित के सिद्धान्त के आधार पर अंतरिक्ष का अंत भी वहीं होना चाहिए, जहाँ से उसका आरम्भ हुआ है।“ अर्थात अनादि और अनन्त कहे जाने वाले अंतरिक्ष का किसी एक बिन्दु पर मिलन अवश्य होगा ही, भले ही वह कितना दूरवर्ती क्यों न हो? ब्रह्माण्ड निरन्तर फैल व बढ़ रहा है। विराट की पोल में प्रत्यक्ष ग्रह-नक्षत्र किसी असीम-अनन्त की दिशा में तेज गति से भागते चले जा रहे हैं। यों ये पिण्ड अपनी धुरी व कक्षा में भी घूमते हैं, पर हो यह रहा है कि वह कक्षा, धुरी और मण्डली तीनों ही असीम की ओर दौड़ रहे हैं। ब्रह्माण्ड 150 मील प्रति सेकण्ड की गति से विकसित हो रहा है और यह गति बिना किसी बाधा के सभी स्थान पर है। जो तारे कुछ समय पूर्व दिखते थे, वे अब अधिक दूरी पर चले जाने के कारण अदृश्य हो गये। इस क्रिया को विस्तार, विघटन या अन्त में एकता की प्राप्ति के लिए दौड़ भी कह सकते हैं। गोलाई का सिंद्धान्त अकाट्य है। प्रत्येक गतिशील वस्तु गोल हो जाती है। स्वयं ग्रह-नक्षत्र इसी सिद्धान्त के अनुसार चैकोर, तिकोने, आयताकार न होकर गोल हुये। यह ब्रह्माण्ड भी गोल है। नक्षत्रों की कक्षाएँ भी गोल हैं।
ब्रह्माण्ड का 99 प्रतिशत भाग शून्य है। एक प्रतिशत भाग को ही यह ग्रह-नक्षत्र घेरे हुये है। आकाश में सूर्य जैसे खरबों तारकों का अस्तित्व है। वह तारे आकाशगंगाओं से जुड़े हैं। वे उसी से निकले हैं। मुर्गी अण्डे देती है, उन्हें सेती है, और जब तक बच्चे समर्थ नहीं हो जाते, उन्हें अपने साथ लिए फिरती है। आकाशगंगाएँ ऐसी ही मुर्गीयाँ हैं जिनके अण्डे-बच्चों की गणना करना पूरा सिरदर्द है। हमारी आकाशगंगा 1 लाख प्रकाश वर्ष लम्बी और 20 हजार प्रकाश वर्ष मोटी है। सूर्य इसी मुर्गी का एक छोटा चूजा है जो अपनी माता से 33000 प्रकाश वर्ष दूर रहकर उसकी परिक्रमा 170 मील प्रति सेकण्ड की गति से करता है। आकाशगंगाएँ भी आकाश में करोड़ों हैं। वे आपस में टकरा न जाएँ या उनके अण्डे-बच्चे एक-दूसरे से उलझ न पड़े इसलिए अपने सैर-सपाटे के लिए काफी बड़ा क्षेत्र हथिया लिया है। ये आकाशगंगाएँ एक-दूसरे से लगभग 20 लाख प्रकाश वर्ष दूर रहती है। अनन्त आकाश में गतिशील आकाशगंगाओं में एक अपने सौरमण्डल की भी है, जिसकी चाल 24,300 मील प्रति सेकण्ड नापी गई है। इस तरह ब्रह्माण्ड चैतन्य तो है ही, निरन्तर फैल रहा है, इसकी हर इकाई गतिशील है। निष्क्रियता कहीं भी दृष्टिगोचर नहीं होती।
प्रकाश की गति 1 सेकण्ड में 1 लाख 86 हजार मील है। इस गति से चलते रहने पर 1 वर्ष में प्रकाश जितनी दूरी तय करता है उसे 1 प्रकाश वर्ष कहते हैं। आकाश को अत्यधिक प्रभावित करने वाले क्वासर तारे अभी तक चार खोजे जा सके हैं। इसमें जो निकटतम है उनकी दूरी 800 करोड़ प्रकाश वर्ष मानी गई है। यदि वहाँ तक पहुँचने का कोई मनुष्य दावा करे और अब तक उपलब्ध राकेटों के सहारे 2500 मील प्रति घंटा की चाल से चले तो उस मनुष्य के 100 वर्ष वाले जीवन के 8 करोड़ जन्म लेने पड़ेगें। यदि वापस भी लौटना हो तो फिर इतना ही वर्ष और चाहिए। यह लगातार गति में रहने की गणना है। यदि बीच में तेल-पानी या सुस्ताने की आवश्यकता पड़ी तो समय और भी अधिक लग जायेगा। यह आलंकारिक विवरण इस विराट परब्रह्म का मात्र एक अंश की झलक भर का दर्शन है।
निष्कर्ष रूप में सारांश यह है कि यह ब्रह्माण्ड एक अनन्त व्यापार केन्द्र या क्षेत्र (TRADE CENTRE or TRADE AREA) के रूप में है जहाँ प्रत्येक क्षण व्यापार या आदान-प्रदान (TRADE or TRANSACTION) चल रहा है और यह स्थिर नहीं है।

”ब्रह्माण्ड“ शब्द के सम्बन्ध में वर्तमान विचार
ब्रह्माण्ड शब्द विश्व के प्राचीनतम भाषाओं में से सर्वश्रेष्ठ प्राचीन भारतीय भाषा संस्कृत का शब्द है। जिसका प्रयोग दिनोदिन कम होता जा रहा है। क्योंकि इसके स्थान पर जगत, विश्व, संसार, सृष्टि इत्यादि शब्दों का प्रयोग बढ़ रहा है। और यह भी प्रश्न उठता है कि-”ब्रह्माण्ड शब्द के स्थान पर प्रयोग किये जा रहे जगत, विश्व, संसार, सृष्टि इत्यादि शब्द ब्रह्माण्ड शब्द के ही अर्थ को व्यक्त करते हैं या किसी अन्य अर्थ को।“ वर्तमान समय (सन् 2012 ई0) तक के विचार के अनुसार यह माना जाता है कि जगत, विश्व, संसार, सृष्टि इत्यादि शब्द ब्रह्माण्ड शब्द के अर्थ को व्यक्त नहीं करते बल्कि यह अंग्रेजी के यूनिवर्स (UNIVERSE) शब्द के अर्थ को व्यक्त करते हैं। क्योंकि हिन्दी व्याकरण शब्द विन्यास के अनुसार ब्रह्माण्ड शब्द ब्रह्म + अण्ड से मिलकर बना है। और ब्रह्म का अर्थ होता है-जीव और अण्ड का अर्थ होता है-अण्डा। अर्थात ब्रह्माण्ड का अर्थ हुआ-जीव का अण्डा। अर्थात यह ब्रह्माण्ड, जीव के अण्डे जैसा है।
ब्रह्माण्ड शब्द के उपरोक्त हिन्दी अर्थ के आधार पर अंग्रेजी के यूनिवर्स शब्द से तुलना करने पर यह स्पष्ट होता है कि-

01. ब्रह्माण्ड शब्द जहाँ पूर्ण विश्वास के साथ ब्रह्माण्ड के प्रत्येक इकाई में जीवन को सिद्ध करता है, वहाँ यूनिवर्स शब्द सम्पूर्ण यूनिवर्स में जीवन व्याप्त है, इस विषय पर अति तुक्ष सोच रखता है।
02. ब्रह्माण्ड शब्द जहाँ ब्रह्माण्ड को अण्डे के खोल जैसे एक खोल में सीमाबद्ध होने और एक निश्चित आकृति वाला सिद्ध करता है वहीं यूनिवर्स शब्द यूनिवर्स को अनन्त और निराकार मानता है।
03. ब्रह्माण्ड शब्द जहाँ पूर्णता लिए है वहीं यूनिवर्स शब्द मात्र ब्रह्माण्ड के आन्तरिक भाग का ही मात्र प्रतिनिधित्व करता दिखाई देता है।
04. ब्रह्माण्ड शब्द के अनुसार जहाँ ब्रह्माण्ड के बाहर और भी कुछ है को सिद्ध करता है वहीं यूनिवर्स शब्द के अनुसार यूनिवर्स में ही खोज करना अभी शेष ही शेष है। 
05. ब्रह्माण्ड शब्द जहाँ अपने अर्थ को एक निष्कर्ष के रूप में प्रस्तुत करता है, वहीं यूनिवर्स शब्द उलझे हुये खोजों का एक समूह दिखाई पड़ता है।
06. ब्रह्माण्ड शब्द जहाँ ब्रह्माण्ड को किसी तन्त्र की कार्यकारी इकाई के रूप में प्रस्तुत करता है, वहीं यूनिवर्स शब्द यूनिवर्स की ही कार्य प्रणाली समझने में असमर्थ है।
07. ब्रह्माण्ड शब्द जहाँ ब्रह्माण्ड में निहित जीवों को मात्र एक उद्देश्य, जीवन में वृद्धि के लिए प्रेरित करता है, वहीं यूनिवर्स शब्द यूनिवर्स में निहित जीवों को अपना ही जीवन किसी भी प्रकार बचाने के लिए, किसी भी प्रकार के उद्देश्य को अपनाने के लिए बाध्य करता है।

जबकि आधुनिक विज्ञान की दृष्टिकोण से देखा जाय तो, उपरोक्त अर्थ और व्याख्या के आधार पर कदापि यह सिद्ध नहीं होता कि हमारा ब्रह्माण्ड वास्तव में जीव के अण्डे जैसा ही है। क्योंकि ये तभी सिद्ध हो सकता है जब कोई बुद्धिजीवी आधुनिक विज्ञान के माध्यम से इस यूनिवर्स से (सशरीर या मानसिक आधार पर) बाहर जाये और तथाकथित ब्रह्माण्ड के बाहरी स्वरूप को देखें और पुनः इस यूनिवर्स में वापस लौटकर हमें ब्रह्माण्ड के स्वरूप के विषय में बताए कि हमारा यूनिवर्स अण्डे के रूप वाला ही है। किन्तु हम सभी धर्म और आधुनिक विज्ञान के तकनीकों तथा उनके समस्त प्रमाणों और उपलब्धियों के आधार पर विवादमुक्त रूप से जानते हैं कि न कि ऐसा पहले ही कभी सम्भव था, ना ही यह भविष्य में सम्भव होने जा रहा है। जबकि आधुनिक विज्ञान वर्तमान में भी मात्र यूनिवर्स शब्द पर ही अपना सम्पूर्ण ध्यान केन्द्रित करते हुये इसके गूढ़ रहस्य को ही सुलझाने में प्रयत्नशील है। आधुनिक विज्ञान के खोजों के आधार पर यह कह सकते हैं कि ये खोजें भी यूनिवर्स शब्द के समान ही अनन्त और निराकार सिद्ध हो रही है, जिसका ना तो कोइ सीमा है ना ही कोई आकार।
तो क्या हमारे पूर्वजो ने मात्र पृथ्वी के जीवों के अण्डों को देखकर निर्णय लिया कि हमारा ब्रह्माण्ड जीव के अण्डे जैसा ही है, या किसी अत्यधिक विकसित वैज्ञानिक प्रयोग तथा गणना द्वारा खोजे गये सिद्धान्त के आधार पर यह निर्णय लिया? जिस सिद्धान्त के अभाव में यूनिवर्स आज भी आधुनिक विज्ञान के लिए रहस्य का विषय बना हुआ है। विज्ञान को दिशाहीन अनन्त मार्ग पर चलने के लिए अगर कोई एक मात्र नैतिक रूप से उत्तरदायी है, तो वो हैं-भारतीय। इनके उत्तरदायी होने के दो मुख्य कारण हैं-

01. भारतीयों का, अपने पूर्वजों द्वारा अत्यधिक विकसित विज्ञान के द्वारा की गयी अति दुर्लभ खोजों की टूटी कड़ीयों को फिर से जोड़ने के स्थान पर, सदैव उनकी उपेक्षा करते रहने का अस्वाभाविक स्वभाव।

02. भारतीयों का आधुनिक विज्ञान के आधार पर स्वयं को तुक्ष मानना, और साथ ही साथ सदैव ही दूसरों के बताए मार्गो को श्रेष्ठ मानते हुये उनके ही मार्गो पर कटिबद्ध होकर निरन्तर चलते रहना।

उपरोक्त व्याख्याओं के आधार पर ब्रह्माण्ड की परिभाषा इस प्रकार होती है-”ब्रह्माण्ड वो है जिसका स्वरूप जीव के अण्डे जैसा है। जिसकी परिधि एक ठोस तत्व से निर्मित है और आन्तरिक क्षेत्र में सम्पूर्ण ग्रह, उपग्रह और तारे इत्यादि स्थित है और इसके आन्तरिक क्षेत्र को हम जगत्, संसार, विश्व, सृष्टि, यूनिवर्स इत्यादि के नाम से सम्बोधित करते हैं। इसके आन्तरिक क्षेत्र और इसमें स्थित सम्पूर्ण ग्रह, उपग्रह और तारों आदि के मध्य मात्र इतना सा अन्तर है कि इसका आन्तरिक क्षेत्र ”मूलतत्व“ के मूल रूप से निर्मित है, जबकि सम्पूर्ण ग्रह, उपग्रह और तारे आदि मूलतत्व के, ब्रह्माण्ड के मूल तापमान में अस्थिरता आने के कारण, आपस में जुड़ने और जुड़कर टुटने से निर्मित है।“
भारतीय वैज्ञानिक पूर्वजों ने ब्रह्माण्ड को समझने के लिए कौन-कौन से वैज्ञानिक प्रयोग और गणनाएँ की, इसका कोई ठोस प्रमाण, सम्पूर्ण विश्व में प्रत्यक्ष रूप से वर्तमान समय में कहीं भी उपलब्ध नहीं है किन्तु यह तो निश्चित है कि उन्होंने अपने वैज्ञानिक प्रयोगों और गणनाओं के आधार पर अवश्य ही किसी ऐसे सिद्धान्त को और उसके प्रयोग की उचित दिशा को उसी समय खोज लिया था जिसके बिना उनके द्वारा यह सिद्ध करना सम्भव नहीं था कि हमारा ब्रह्माण्ड जीव के अण्डे जैसा ही है। अतः उनके द्वारा खोजे गये उस सिद्धान्त को और उसके प्रयोग की दिशा को समझने के लिए सबसे पहले ये समझना अति आवश्यक है कि भारतीय वैज्ञानिक पूर्वजों ने ब्रह्माण्डीय खोज को आरम्भ करने के लिए आखिर ब्रह्माण्ड के किस बिन्दु को अपना ”प्रथम लक्ष्य“ बनाया। चूँकि प्रमाणों के अभाव में ये कहना कठिन है कि उन्होंने ब्रह्माण्ड के किस बिन्दु को अपना प्रथम लक्ष्य बनाया, किन्तु मानव स्वभाव के आधार पर अगर देखा जाय तो निश्चित रूप से उनके खोज का भी वही केन्द्र बिन्दु रहा होगा, जो वर्तमान में वर्तमान विज्ञान का रहा होगा। अतः उस अति महत्वपूर्ण केन्द्र बिन्दु को पूर्णतया स्पष्ट करने के लिए नितान्त आवश्यक है कि वर्तमान के आरम्भिक, सभी ब्रह्माण्डिय खोजों के लक्ष्यों पर ध्यान पूर्वक दृष्टि डालते हुये, उनका ध्यानपूर्वक पुर्नावलोकन किया जाए। पुर्नावलोकन करने के उपरान्त सम्पूर्ण विश्व के समक्ष स्वयं ही निर्विवाद रूप से स्पष्ट हो जायेगा कि, वर्तमान के आरम्भिक लक्ष्यों में से केन्द्र बिन्दु के रूप में मात्र एक ही लक्ष्य था, जिसपर वर्तमान में भी निरन्तर खोज जारी है, और वह लक्ष्य था-”हमारे ब्रह्माण्ड के सम्पूर्ण ग्रह, उपग्रह और सूर्य तथा तारे आदि अन्तरिक्ष में आखिर किस सिद्धान्त के कारण, अपनी कक्षा से बाहर नहीं निकल पाते तथा केवल अपनी ही गोलाकार कक्षा में ही स्थित रहते हुये, अपने-अपने केन्द्र की निरंतर परिक्रमा करते रहते हैं?“
वर्तमान विज्ञान के दृष्टिकोण से अगर उपरोक्त केन्द्र बिन्दु को देखा जाए तो, निष्कर्ष रूप में अभी तक एक ही मूल कारण स्पष्ट हो पाया है कि ”हमारे ब्रह्माण्ड के सम्पूर्ण ग्रह, उपग्रह और सूर्य तथा तारे आदि इसलिए अपनी कक्षा से बाहर नहीं निकल पाते तथा अपनी ही गोलाकार कक्षा में स्थित रहते हुये, अपने-अपने केन्द्र की निरंतर परिक्रमा करते रहते हैं क्योंकि ये अपने-अपने गोलाकार केन्द्र के गोलाकार चुम्बकीय क्षेत्र में फँसे हुये हैं।“ जैसे कि हमारे सौरमण्डल के सम्पूर्ण ग्रह हमारे सौर मण्डल के केन्द्र सूर्य के चुम्बकीय क्षेत्र में फँसे होने के कारण, अपनी कक्षा से बाहर नहीं निकल पाते और अपनी-अपनी गोलाकार कक्षा में ही स्थित रहते हुये, सूर्य की निरंतर परिक्रमा करते रहते हैं।
उपरोक्त स्पष्टिकरण के उपरान्त ऐसे तो बहुत सारे प्रश्न एकाएक उत्पन्न हो जाते हैं, किन्तु सारांश में एक प्रश्न द्वारा ऐसे व्यक्त किया जा सकता है कि-”हमारे ब्रह्माण्ड में स्थित केन्द्रीय कक्षा हो या अन्य, किसी भी गोलाकार कक्षा के निर्माण का मूल आधार क्या है, अर्थात गोलाकार कक्षा के निर्माण हेतु किन-किन दशाओं का होना अनिवार्य है?“ इस प्रश्न के समाधान हेतु अगर ध्यानपूर्वक, वर्तमान विज्ञान के दृष्टिकोण से विचार किया जाए तो, समाधान के रूप में एक ही निष्कर्ष स्पष्ट होगा कि, इस प्रष्न का स्पष्ट उत्तर वर्तमान विज्ञान के पास उपलब्ध है ही नहीं और जो अस्पष्ट उत्तर है भी, वो भी उत्तरों की जाल में ऐसे उलझे हुये हैं कि, उनको व्यक्तिगत आधार पर समझना या किसी को भी व्यक्तिगत आघार पर समझाना, किसी भी प्रतिभाशाली से प्रतिभाशाली वैज्ञानिक के वश का नहीं। वर्तमान विज्ञान द्वारा इस प्रश्न के अनुत्तरित रहने का कारण यह है कि वर्तमान विज्ञान द्वारा दिया गया ”प्रथम लक्ष्य“ के सम्बन्ध में त्रुटिपूर्ण स्पष्टिकरण। क्योंकि अगर ”प्रथम लक्ष्य“ के सम्बन्ध में दिया गया स्पष्टिकरण परिशुद्ध होता तो, स्पष्टिकरण के उपरान्त कोई भी अनुत्तरित प्रश्न शेष रहने की सम्भ्वतः न्यूनतम सम्भावना ही शेष रहती। जबकि भारतीय वैज्ञानिक पूर्वजों के ब्रह्माण्डिय खोजों को ”प्रथम लक्ष्य“ से जोड़कर देखा जाय तो, ऐसा प्रतीत होता है कि भारतीय वैज्ञानिक पूर्वजों ने ”प्रथम लक्ष्य“ का परिशुद्ध हल सम्भवतः खोज निकाला था। क्योंकि अगर उनके द्वारा निकला ”प्रथम लक्ष्य“ का हल परिशुद्ध नहीं होता तो वो ”ब्रह्माण्ड“ जैसे महानतम शब्द का आविष्कार ही नहीं करते। और साथ ही साथ ये भी ध्यान देने योग्य बिन्दु है कि संस्कृत भाषा के इस महानतम् शब्द का, किसी भी भाषाविद् द्वारा किसी भी प्रकार अभी तक आलोचना नहीं की गयी है, जिससे इस शब्द के अर्थ की सत्यता और भी सशक्त हो जाती है। ”प्रथम लक्ष्य“ रूपी प्रथम कड़ी को सम्भवतः खोजने के उपरान्त सबसे बड़ी चुनौति अभी शेष है कि आखिर उन्होंने ”प्रथम लक्ष्य“ के समाधान हेतु कौन-कौन से प्रयोग और कौन-कौन सी गणनाएँ की होगीं?

ब्रह्माण्ड के सम्बन्ध में सार्वभौम सत्य-सैद्धान्तिक विचार
हिन्दी व्याकरण शब्द विन्यास के अनुसार ब्रह्माण्ड शब्द ब्रह्म ़ अण्ड से मिलकर बना है। ब्रह्म, ब्रह्मा से सम्बन्धित है। और एकात्म ज्ञान से सम्बन्धित हैं। इसी प्रकार विष्णु, एकात्म कर्म से और शंकर, एकात्म ध्यान से सम्बन्धित हैं। इसी क्रम में उनका अस्त्र ब्रह्मास्त्र, सु-दर्शन और पशुपास्त्र है अर्थात क्रमशः ज्ञान का अस्त्र, अच्छे विचार का अस्त्र और सार्वभौम सत्य-सिद्धान्त का अस्त्र है। इस प्रकार ब्रह्माण्ड का अर्थ ज्ञान के अण्डे से है। ब्रह्म के साथ अण्ड जोड़ने के पीछे ये रहस्य था कि ज्ञान का प्रारम्भ और अन्त एक चक्र है जैसे क्रिया-कारण, जन्म-मृत्यु-जन्म। अर्थात एक चक्र या गोला। ब्रह्माण्ड के सभी ग्रह-तारे सब गोल रूप में हैं। यह ब्रह्माण्ड, ईश्वर की दृश्य कृति हैं जो उससे निकला है और इसमें वह स्वयं है। जिस प्रकार यह ”विश्वशास्त्र“ श्री लव कुश सिंह ”विश्वमानव“ से निकला है और इसमें वे स्वयं है। यह ब्रह्माण्ड, ज्ञान का अण्डा हैं, अनन्त है, इसका कोई निश्चित आकार और सीमा नहीं हैं, यह एक बड़े वट वृक्ष के समान है। बस, कुछ नहीं।




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