Monday, April 6, 2020

मुंगेर - राम का जन्म स्थान

मुंगेर - राम का जन्म स्थान
(साभार-प्रस्तुत शोध-सत्य पं0 नरेश चन्द्र मिश्र, निवासी - लखी सराय, बिहार प्रदेश, भारत द्वारा प्रस्तुत है जो जौनपुर, उत्तर प्रदेश, भारत से प्रकाशित ”खुला सच“ मासिक पत्रिका के अप्रैल, 2001 के अंक में प्रकाशित हुई थी।)


प्रचलित अयोध्या की बाबरी मस्जिब और उसी में श्रीराम की जन्मभूमि प्रसंग पर धर्म की आड़ में मजहबी जुनून में कितनी खून की होली खेली गयी है, कहना व्यर्थ है। फिर भी प्रशासन मौन है, इतिहास और पुरातत्वविद् किंकत्र्तव्यविमूढ़ हैं। किसी ने भी कभी इतिहास और पुरातत्व के आईने में देखने और जानने का प्रयत्न नहीं किया कि अयोध्या विवादास्पद भी तो हो सकती है। रामायण के अन्त में कह दिया गया है कि राम के स्वर्गारोहण पर अयोध्या लुप्त हो गयी। पुनः कृतयुग में राजा ऋषभ इसे बसयजन्म के समय दादा स्वर्गवासी हो चुके थे। बसायेंगे। अतएव वह अयोध्या अद्यतन भविष्य के गर्भ में है। दीर्घ अन्तराल पर रामायण कालीन साक्ष्य हमें सही रूप में प्राप्त हो सकते हैं, यदि उनके भौगोलिक परिवेश पर सावधानीपूर्वक ध्यान दिया जाये।
आज की आम धारणा है कि रामायण कल्पना प्रसूत है। कतिपय स्थानों के उत्खनन से भी साक्ष्य नहीं मिलने के कारण उक्त धारणा को बल मिला है। डाॅ0 बी0 बी0 लाल के सहयोग के रूप में वर्षों तक उत्खनन के अनन्तर भी रामायण कालीन साक्ष्य प्राप्त नहीं करने पर डाॅ0 स्वरूप प्रसाद गुप्त अपनी झुंझलाहट व्यक्त करते हुये कहते हैं-”तब क्या ये सब स्थान वे नहीं, जिनका नाम हमें रामायण में मिलता है? तो कौन से नये नन्दिग्राम, श्रंगेश्वरपुर, प्रयाग और चित्रकूट हैं, वहाँ हम जायें? बतलायें न ये इतिहासकार, हम वहीं चलें। (साभार-पांचजन्य, 11 फरवरी, 1990, पृष्ठ-9)“
उत्खनन के बाद भी साक्ष्य प्राप्त नहीं करने पर अयोध्या, चित्रकूट आदि की गरिमा पर प्रश्नवाचक चिन्ह लगाना प्रस्तुत आलेख का अभीष्ट नहीं। हमारी धार्मिक मान्यता उनसे जुड़ी है, पर इतिहास को हमारी धार्मिक मान्यता नहीं चाहिए, उसे पुरातत्व साक्ष्य चाहिए। ये साक्ष्य चाहे कल्प-भेद के ही नाम पर क्यों न हो। यद्यपि इतिहास में कल्पभेद का स्थान नहीं, पर इससे क्या? इतिहास को साक्ष्य चाहिए और उसे प्रस्तुत करना ही मेरे प्रयत्न का अभिष्ट है।
महर्षि वाल्मीकि ने सर्वप्रथम रामायण की रचना की। ”रामायण सत कोटि अपारा“ का वही उत्स बनी। मगर उसकी मूल प्रति आज है कहाँ? प्रो0 जैकोबी और फ्रांस के पुरातत्वविद् लेवी आदि विद्वानों ने स्वीकार किया है कि वाल्मीकि ने रामायण में सिर्फ पाँच काण्डों की ही रचना की थी। बालकाण्ड और उत्तरकाण्ड बाद में जोड़े गये, जिनकी रचना उन्होंने नहीं की थी। रेवरेण्ड फादर बुल्के ने अपनी पुस्तक ”राम कथा“ में लिखा है कि रामायण वस्तुतः राम के वनवास काल के पर्यटन का प्रतीक है। आगे चलकर लोगों में जब क्रमशः इस भावना ने जन्म लिया कि रावण कौन था, दशरथ की किस पत्नी से किस पुत्र का जन्म हुआ आदि जिज्ञासा शान्ति हेतु बालकाण्ड और उत्तरकाण्ड रचे गये। इस प्रकार वाल्मीकि ने सिर्फ राम के वनवास काल का वर्णन किया। बाद में लोगों ने तोड़-मरोड़कर राम का सम्पूर्ण चरित्र उपस्थित करने के नाम पर जिस रामायण की रचना की, वही प्रति वाल्मीकि कृत अभिंहित हुई। इसी आधार पर बाद की लिखी रामायण तो ”हिज मास्टर्स वाॅयस“ मात्र रही। इतिहास भी साक्षी है, मौर्य शासन काल से रामायण में संशोधन सह परिवर्द्धन होता रहा, जो 16वीं शताब्दी तक रहा। इसी अन्तराल में सम्राट विक्रमादित्य ने वीरान सरयू नदी के तट पर एक मन्दिर की स्थापना की और वहीं अयोध्या नाम की नगरी बसी। यह मात्र जनश्रुति है, जिसका उद्घाटन मार्टिन, टिफेन्थेलर और कर्निधम ने किया। फिर तो बिना भू-भाग की पहचान किये जनश्रुति को ही आधार मानकर यत्र-तत्र रामायण कालीन स्थान के कल्पना तीर्थ की स्थापना कर ली गयी।
गड़बड़ी वहीं से शुरू होती है जब महाराज दशरथ अपनी पुत्री शान्ता अपने मित्र अंगाधिपति लोमपाद को गोद देते हैं। इसके साथ ही रामायण में लोमपाद की भूमिका समाप्त कर दी गयी। फिर कहीं उस नाम की चर्चा तक नहीं होती। यह कैसा दोनों के बीच मित्रता का विचित्र सम्बन्ध था, चिन्त्य है। अगर दशरथ अपना पुत्र गोद देते तो कम से कम लोमपाद का उत्तराधिकारी तो बनता, किन्तु पुत्री को गोद देना अपने में विचित्र घटना है। बाद में तो दशरथ को चार पुत्र हुए, मित्रता के नाम पर एक भी तो लोमपाद को गोद देते, पर ऐसा नहीं हुआ।
मत्स्य पुराण अध्याय-48 में लिखा है-आनववंशी राजा बलि के ज्येष्ठ पुत्र अंग अंगाधिपति हुए। उनकी छठीं पीढ़ी में राजा दशरथ हुए, जिनकी पुत्री शान्ता थी। यथा-
तस्य सत्यरथः पुत्रस्तस्माद् दशरथ किल। 
लोमपाद इति ख्यातस्तस्य शान्ता सुता भवत्।।
अथ दाशरथीवीरः चतुरंगो महायशः। 
ऋष्यश्रृंग प्रसादेन यज्ञे स्वकुलवर्धन।।
अर्थात - उनका (चित्राथ का) पुत्र सत्यरथ हुआ। उससे दशरथ का जन्म हुआ, जो लोमपाद के नाम से विख्यात थे। उनको शान्ता नाम की एक कन्या हुई। ऋष्यश्रृंग के प्रसाद से कुलवर्धन चतुरंग का जन्म हुआ।
महर्षि सूत जी का यह कथन बड़ा महत्व रखता है। यह बड़ी विचित्र बात है कि एक दशरथ ने दूसरे दशरथ को अपनी पुत्री शान्ता गोद दी। दोनों निःसन्तान दशरथ की पुत्री थी? रामायण के अनुसार भी अगर शान्ता उस दशरथ की पुत्री थी, जिसके पुत्र राम, लक्ष्मण, भरत और शत्रुध्न हुए, तब भी स्वीकार करना होगा कि लोमपाद ही वह दशरथ थे।
इसी तरह दशरथ कोशलेश नहीं, अंगाधिपति थे। दशरथ और उनकी पत्नी कौशल्या दोनों का सम्बन्ध कौशल से हो, जंचने वाली बात नहीं है। यद्यपि रामायणकार ने इस भ्रम के निवाराणार्थ दो कोशल की रचना कर डाली है। यदि वे इक्ष्वाकुकुल से सम्बन्धित रहते, तो यज्ञ रक्षार्थ सिद्धाश्रम जाते हुए महर्षि विश्वामित्र, मार्ग में राम से यह कभी नहीं कहते कि यह देश पहले कुकुत्स्थ (इक्ष्वाकु पौत्र) के वंश में था। जैसा कि वाल्मीकि रामायण में लिखा है। यहाँ यह भी विचारणीय है कि इक्ष्वाकु के पुत्र निमि ही प्रथम जनक हुए, जिनकी परम्परा के जनक की पुत्री ही और भतीजियों की दशरथ के पुत्रों से शादी हुई। इस तरह दोनों का कुल इक्ष्वाकु हो जाता और संगोत्रीय विवाह का दोष होता है।
प्रचलित रामायण के अनुसार इक्ष्वाकु ने अयोध्या नाम की नगरी बसायी थी। मत्स्य पुराण अध्याय-12 के अनुसार इक्ष्वाकु के पौत्रों ने सुमेरू पर्वत के उत्तर और दक्षिण पाश्र्व में अपनी राजधानी बनायी थी। यथा-
इक्ष्वाकोः पुत्रतामाप विकुक्षिर्नाम देवराष्ट्र।
ज्येष्ठः पुत्र शतस्यासीद दशपंच च तत्सुता।।
मेरोरूत्तर तस्ते तु जाताः पार्थिव सत्तमाः।
चतुर्दशोत्तरचान्यच्छतमस्य तथा भवन्।
मेरोर्दक्षिण तौ वे राजानः सम्प्रकीर्तिता।।
अर्थात-देवराज विकुक्षि इक्ष्वाकु के पुत्र के रूप में उत्पन्न हुये। वे इक्ष्वाकु के सौ पुत्रों में ज्येष्ठ थे। उनके पन्द्रह पुत्र थे, जो सुमेरू गिरि की उत्तर दिशा में श्रेष्ठ राजा हुए। विकुक्षि के एक सौ चैदह पुत्र और हए थे, जो सुमेरू गिरि की दक्षिण दिशा के शासक कहे गये है।
मत्स्य आदि पुराणों में मेरू-सुमेरू पर्वत की जो भौगोलिक स्थिति दी गयी है, उसके अनुसार बिहार राज्य के अन्तर्गत मुंगेर प्रमण्डल मुख्यालय से दक्षिण-पश्चिम आज मैरा पहाड़ के नाम से जाना जाता है। उक्त पुराणों के अनुसार मेरू पर्वत की पश्चिम दिशा में विपुल पर्वत (राजगृह का), पूर्व दिशा में मन्दराचल (भागलपुर के बांसी का), दक्षिण दिशा में गन्धमादन (जमुई जिला का) और उत्तर दिशा में सुपाश्र्व (लखी सराय का) है। आनन्द रामायण के अनुसार राम, सीता के साथ पुष्पक विमान द्वारा गया शहर से पूर्व दिशा की ओर चलकर मगध होते मेरू पर्वत पर आये थे। इस पर्वत के उत्तर और दक्षिण में बहने वाली नदी ”मोरवे“ कहलाती है। मैरा पहाड़ और मोरवे नदी, मेरू का अपभ्रंश है। स्थानीय इसे श्रृंगी ऋषि पहाड़ कहते हैं क्योंकि यही विभाण्डक ऋषि के पुत्र श्रृंगी ऋषि का आश्रम था। वाल्मीकि रामायण बालकाण्ड के अनुसार अंगाधिपति लोमपाद की राजधानी से इसकी दूरी 3 योजन (12 कोस) बतलायी गयी है, जो मुंगेर शहर से ठीक मिल जाती है। आज भी इस पर्वत के उत्तर पाश्र्व में सुमेरू बाबा की पूजा होती है।
इसी पर्वत के उत्तर दिशा में दो कोस की दूरी पर ”अयोध्या“ नामक गाँव है। पुनः उत्तर दिशा में दो कोस की दूरी पर गंगा नदी के तट पर ”सूर्यगढ़ा“ नामक प्रसिद्ध स्थान है, जो सूर्य और सूर्यवंशी राजाओं के गढ़ के नाम मत्स्य पुराण उक्ति सार्थक करता है। सरकार ने तो इसे पर्यटन केन्द्र के रूप में विकसित करना भी प्रारम्भ कर दिया है। सूर्यगढ़ा से लगभग 3 कोस पश्चिम ”मानो“ नामक गाँव सूर्यपुत्र, वैवश्यत मनु का तथा यहाँ से 4 कोस पश्चिम ”नरीगढ़“ मनुपुत्र नरिष्यन्त के गढ़ का प्रतीक है, जो कोसों के क्षेत्र में जंगल में परिणत है। गाँव ”अयोध्या“ से 2 कोस पश्चिम ”गोहरी“ नामक गाँव है। ”गोहरी“, ”गो“ और ”हरी“ से बना है। यहीं पर महर्षि वशिष्ठ का आश्रम था। यहीं से उनकी गौ (कामधेनु) हरी (हरण) गयी थी। पुत्रशोकार्थ महर्षि वशिष्ठ जिस सुमेरू पर्वत के श्रृंग से कूदकर प्राणान्त करना चाहते थे, वह गोहरी गाँव से मात्र दो कोस पूर्व दिशा में है। कालिदास प्रणीत ”रघुवंश“ के दिलीप वृत्त के अनुसार अयोध्या और वशिष्ठ आश्रम के मध्य वन खण्ड का प्रसंग है, वह इस स्थान को देखने से यथार्थ प्रतीत होता है।
उक्त मेरू पर्वत के दक्षिण पाश्र्व में भी इक्ष्वाकु राजा की राजधानी थी। जमुई जिले का सम्पूर्ण भू-भाग दण्डकाय था। अरण्य तो आज कट चुका है परन्तु दण्ड के नाम पर ”दण्ड“ नामक गाँव है। इसी के समीप ”काकन“ नामक गाँव है। जनश्रुति के अनुसार यही किष्किन्धा है। पुरातत्वविद् बी0 सी0 भट्टाचार्य ने भी ”द जैन आइकाॅनोग्राफी“ के पृष्ठ-65 में इसे किष्किन्धा ही स्वीकार किया है।
उक्त मेरू पर्वत का उत्तरी श्रृंग ”नीलगिरि“ कहलाता था। शिखर पर स्वच्छ जलपूर्ण सरोवर है। यही पर ऋक्षराज से बालि और सुग्रीव का जन्म हुआ था। काकभुशुण्डि जी ने भी राम की बाल लीला के दर्शन हेतु यहीं जन्म लिया था। दुर्गम चढ़ाई के बाद सन् 1938 में मुझे इस सरोवर के दर्शन का सौभाग्य प्राप्त हुआ था। उसी के समीप प्रस्तर निर्मित कूप तथा प्रस्तर निर्मित गदा है जो 30-35 लोगों से भी नहीं उठ सके। इसी पर्वत पर विभाण्डक, श्रृंगी, पुलस्य, विश्रवा आदि ऋषियों के आश्रम थे। यहीं कुबेर, विभीषण और सूपर्णखा ने जन्म लिया था।
इसी पर्वत के उत्तर-दक्षिण पाश्र्व में ”उरेन पहाड़ी“ पर वनवास काल में राम ने चित्रकूट की पर्णशाला बनायी थी। इसलिए तो वाल्मीकि ने चित्रकूट में भरत और सीताजी को नीलगिरि कानन का दर्शन कराया है। तुलसीदास ने भी लिखा है-
गिरि सुमेरू उत्तर दिसि दूरी। नील सैल इक सुन्दर भूरि।
रामायण काल से पीछे की ओर मुड़कर देखें तो यहीं भगवान शंकर और पार्वती का क्रीड़ास्थल था। यहीं उन्होंने कामदेव को जलाया था, इसलिए इसका नाम ”अंग देश“ पड़ा। यहीं पर मनुपुत्र सु़द्युम्न का लिंग परिवर्तन हुआ था क्योंकि सुमेरू गिरि की तलहटी में सुद्युम्न शिकार खेलने आये थे और शिवजी द्वारा उनका स्थान प्रभावित था कि जो नरसंज्ञक जीव इस क्षेत्र में प्रवेश करेगा, उसका लिंग परिवर्तित हो जायेगा। भागवत पुराण स्कन्ध-9, अध्याय-1 में इसकी विशेष चर्चा है। राजधानी से चलकर विश्वामित्र के साथ राम और लक्ष्मण ने यहीं रात्रिवास किया था। इस स्थान का परिचय देते हुए विश्वामित्र ने राम से कहा था-
अनंग, इति विश्यातस्तदा प्रभूति राघव।
सचांग विषयः श्रीमान् यत्रांगं स मुमोचह।। (वाल्मीकि रामायण, बालकाण्ड)
अर्थात्-हे राम! तबसे (कामदेव के जलने पर) वह अनंग नाम से विख्यात हुआ और यह स्थान अंग देश कहलाया। क्योंकि यहीं उसने अपना अंग त्यागा था।
वाल्मीकि रामायण के अनुसार राजधानी से सिद्धाश्रम विश्वामित्र के यज्ञ रक्षार्थ राम और लक्ष्मण पैदल चले। प्रथम रात्रिवास दो कोस की दूरी पर गंगा नदी के तट पर किया और दूसरा रात्रिवास यहाँ (उरेन पहाड़ी पर) किया। राम की राजधानी मुंगेर शहर से दो कोस की दूरी पर सीताकुण्ड के पास थी। वहाँ से इस स्थान की दूरी लगभग 12 कोस की है। प्रातः काल यहाँ से प्रस्थान कर सायंकाल के पूर्व ताड़का को राम ने मारा। वह स्थान यहाँ से 6 कोस दक्षिण की टेका पहाड़ी है। यहाँ रात्रिवास कर प्रातः काल राम सिद्धाश्रम पहुँचे थे। यहीं महर्षि  विश्वामित्र के यज्ञ की रक्षा राम-लक्ष्मण ने लगातार 6 दिनों तक की। विश्वामित्र ने दशरथ से सिर्फ 10 दिनों के लिए राम और लक्ष्मण को माँगा था, जिसमें पूरे 6 दिना यज्ञ रक्षार्थ व शेष चार दिन मार्ग तय हेतु थे। महर्षि के साथ पैदल चलकर राम तीसरे दिन सिद्धाश्रम पहुँच गये थे। राम की राजधानी से इसकी दूरी लगभग 20 कोस की है। इससे भी राजधानी से तीसरे  दिन यहाँ पहुँचने की बात पुष्ट होती है। वाल्मीकि रामायण के अरण्य काण्ड में सिद्धाश्रम को दण्डकारण्य में बतलाया गया हे। इससे भी सिद्धाश्रम के अंग क्षेत्र में तथा दण्डकारण्य में होने की पुष्टि होती है। सिद्धाश्रम का वह स्थान वर्तमान ”अड़सार“, ”अमरथ“, ”अगहरा“ और ”मरिचा“ नामक गाँवों का क्षेत्र है, जो जमुई जिला मुख्यालय से पश्चिम की ओर लगभग 5 कोस की दूरी पर है। पुराण पुरूष (विष्णु) के आँखों से निःसृत अश्रु से बना सरोवर अश्रुसर अपभ्रंश होकर आज ”अड़सार“ कहा जाता है। सिद्धाश्रम में एक दिव्य आम्रवृक्ष पर दिव्य शिवलिंग उद्भूत हुआ, वही आम्रस्थ शिव का प्रतीक ”अमरथ“ गाँव है। एक बार वशिष्ठ जी ने राम से कहा था कि सिद्धाश्रम की भूमि पापों को हरने वाली ”धहरा“ है, वही अधहारा का प्रतीक ”अगहरा“ गाँव है। ताड़का पुत्र मारीच सिद्धाश्रम में रहता था। ”मरिचा“ नामक गाँव उसकी याद दिलाता है। ”एकात्म उपपुराण“ से सिद्धाश्रम को जाना जा सकता है।
मेरू पर्वत के उत्तर जिस ”उरेन“ की चर्चा उपर कर आया हूँ, वहीं चित्रकूट में राम ने वनवास काल में अपनी पर्णकुटी बनायी थी। चित्रकूट को ”उत्पलारण्य“ कहा जाता है। वहीं अरण्य का अपभ्रंश आज ”उरेन“ है। मेरू गिरि के उत्तर नीलगिरि कानन में चित्रकूट में राम की पर्णकुटी थी। चित्रकूट के पूर्व दिशा में कज्जल पर्वत का नाम आया है। (देखें ”माया“ पत्रिका, 31 दिसम्बर, 1990, पृष्ठ-15)। उक्त कज्जल गिरि और उसी के नाम पर ”कजरा“ नामक स्टेशन है जो किउल-जमालपुर पूर्वी रेलमार्ग पर अवस्थित है। इसी चित्रकूट से चलकर राम ने अत्रि ऋषि से भेंट की थी। वह अत्रिवन अपभ्रंश होकर अटवन/ईटीन कहा जाता है। यहाँ रात्रिवास कर राम प्रातः काल प्रस्थान कर दण्डकारण्य में प्रवेश कर जाते हैं। यहाँ से दो कोस की दूरी पर दण्डकारण्य की सीमा दक्षिण में शुरू हो जाती है। बिहार राष्ट्र भाषा परिषद्, पटना से प्रकाशित ग्रन्थ ”पुराण परिशीलन“ में भी चित्रकूट और दण्डकारण्य को सटा हुआ बताया गया है।
दक्षिण दिशा में जहाँ दण्डकारण्य की सीमा प्रारम्भ होती है, वहाँ से लगभग 4 कोस दक्षिण में विन्ध्याचल है। ”महाभारत“ में दी गयी भौगोलिक स्थिति के अनुसार आज यह मगध के दक्षिण सीमा का काम करता है। इसी पर्वत पर गिद्धराज जटायु का ज्येष्ठ बन्धु ”सम्पाति“ का निवास स्थान था। ये दोनों भाई दशरथ के परम मित्र थे। यह स्थान गिद्धेश्वर कहा जाता है। आज भी यहाँ बहुसंख्यक गिद्धों का वास रहता है। यहाँ रहस्यमयी गुफा है जिसका जिक्र रामायण में आया है। इसी विन्ध्य पर्वत पर वानरों ने ”लोध्रवनी“ में सीता की खोज की थी। वह स्थान गिद्धेश्वर से लगभग 3 कोस पर दुर्गम पहाड़ पर स्थित लोधवनी/लोधापानी है, जहाँ अति प्राचीन गढ़ का भग्नावशेष तथा प्रस्तर कूप आदि हैं। ”इन्द्र लिवन“ में हनुमान जी के पहुँचने का प्रसंग रामायण में आया है। लोधवनी से 3 कोस पश्चिम का ”शक्र-शक्राणी (इन्द्र-इन्द्राणी)“ नामक पर्वत है। एक स्वतन्त्र लेख में मैंने इसे इन्द्र की पुरी सप्रमाण सिद्ध की है यहाँ इसकी विशेष चर्चा अप्रासंगिक होगी।
सिद्धाश्रम में महर्षि विश्वामित्र का यज्ञ सम्पन्न होने पर महर्षि के साथ राम और लक्ष्मण धनुर्यज्ञ में सम्मिलित होने जनकपुर के लिए  प्रस्थान करते हैं। 12 कोस की दूरी तय करने पर उत्तर दिशा में शिलवे पहाड़ तले आते हैं और वहाँ शिला बनी अहल्या का राम उद्धार करते हैं। अहल्या के शिला होने के कारण यह पहाड़ ”शिलवे“ कहा जाने लगा। यहीं गौतम ऋषि का आश्रम था। उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर शिवजी ज्योतिर्लिंंग के रूप में प्रकट हुए थे। स्थानीय ”पंचवदन“ के नाम से इनकी पूजा करते हैं। वरूण के कहने पर गौतम ने एक हाथ गहरा गड्ढा खोदा था जिसे वरूण ने अक्षय जल से भर दिया था। आज भी वह अक्षय जल ज्यों का त्यों स्वच्छ, शीतल और स्वादिष्ट है।
इसी पर्वत पर मुद्गल ऋषि का भी आश्रम था। जनकपुर से बारात सहित राम जब इस स्थान के समीप पहुँचे, धनुर्यज्ञ में पराजित राजाओं ने भयानक आक्रमण कर बाण से भरत को मूर्छित कर दिया। राम के आदेशानुसार लक्ष्मण इसी आश्रम से संजीवनी आदि बूटी ले गये थे। आज भी वह पर्वत जड़ी-बूटीयों तथा मधु से मीठे क्षीरी वृक्षों से भरा है। बाहर के लोग पर्याप्त मात्रा में वहाँ से संजीवनी और लक्ष्मण आदि बूटी ले जाते हैं। आनन्द रामायण में इसका पूरा विवरण है। विन्ध्य गिरि संलग्न शिलवे पर्वत स्थिति मुद्गल ऋषि के नाम पर मुद्गलपुर आज ”मुंगेर“ के नाम से विख्यात है। शिलवे पहाड़ अंजना नदी के तट पर है। इसी नदी के तट पर श्वेताम्बर जैन के 24वें तीर्थंकर महावीर केवली (कैवल्य प्राप्त) हए थे। तब से यह केवली का अपभ्रंश किउली नदी कहलाती है। अंजना मुद्गल ऋषि की पोती तथा गौतम की पुत्री थी इसलिये यह गौतमी नदी भी कहलायी।
अंजना से हनुमान जी का जन्म हुआ था। जमुई पूर्वी रेलवे स्टेशन से एक माइल की दूरी पर दक्षिण दिशा में आज भी अंजना नदी बहती है। उसी के ”बनरीदह“ नामक स्थान में हनुमान जी का जन्म हुआ था। प्रतिवर्ष मकर संक्रान्ति के अवसर पर बड़ा भारी मेला वहाँ लगता है। उसी के समीपवर्ती मेरू पर्वत पर उनके पिता केशरी का राज्य था। वाल्मीकि रामायण, उत्तर काण्ड के पंचतिस सर्ग में इसका उल्लेख है। पाश्चात्यविद् W.W. Hunter us Statistical Account of Bengal Vol.XV, Page-22 में पूरा विवरण देकर उसी स्थान को हनुमान जी का जन्म स्थान बतलाया है।
अंजना नदी के समीपस्थ पर्वत पर मोहिनी के प्रभाव से शिवजी के अमोघ वीर्य का पतन हुआ था। इसे सप्तर्षियों ने प.सम्पुट द्वारा अंजना के कर्णरन्ध्र में प्रवेश कराया था जिससे हनुमान जी की उत्पत्ति हुई थी। आज भी उक्त पर्वत पर पतनेश्वर महादेव का मन्दिर है जो अमोघ वीर्य पतन की याद दिलाता है।
महर्षि विश्वामित्र के आश्रम सिद्धाश्रम की चर्चा उपर कर चुका हुँ। महर्षि अगस्त्य का आश्रम भी उसी के पास था क्योंकि महर्षिद्वय समानरूप से ताड़का राक्षसी से प्रभावित थे। इसीलिए तो ताड़का के पति सुन्द को अगस्त्य ने मारा तथा ताड़का को विश्वामित्र ने राम से मरवाया। इसे दूसरे रूप में यों समझा जा सकता है-राम, सीता और लक्ष्मण के साथ मन्दाकिनी गंगा के तट पर सुतीक्ष्ण ऋषि से मिलकर अगस्त्य जी से मिलने को उनके आश्रम का पता पूछते हैं। सुतीक्ष्ण जी कहते हैं-यहाँ से सीधे दक्षिण की ओर 16 कोस की दूरी पर पिप्पली वन है, जहाँ मारकण्डेय ऋषि का आश्रम है। वहाँ से 4 कोस दूर दक्षिण में अगस्त्य का आश्रम है। आज भी गंगा से लगभग 16 कोस की दूरी पर  ”पिपरा“ नामक गाँव पिप्पली वन की याद दिलाता है और ”कण्डे“ गाँव मार्कण्डेय का स्थान सूचित करता है। यहाँ से 4 कोस दक्षिण विन्ध्य पर्वत है। इसी के तलहटी में अगस्त्य ऋषि का आश्रम था। विश्वामित्र का सिद्धाश्रम भी इसी विन्ध्य की तलहटी में मात्र 3 कोस पूर्व दिशा में था। जहाँ अगस्त्य जी का आतिथ्य ग्रहण तथा रात्रिवास कर प्रातः काल ऋषि के परामर्श के अनुसार राम पंचवटी के लिए प्रस्थान किये। महुआ के जंगल को पारकर सीधे उत्तर दिशा में पाकड़ वन पार कर 8 कोस की दूरी पर पंचवटी वन में पहुँचे। आज का ”पंचमहुआ“ गाँव तथा ”पकड़ीबरावां“ स्थान महुआ और पाकड़ वन की याद दिलाता है। पंचवटी का वन बड़ा भयानक तथा सघन था। ब्रह्माजी ने उस सघन वन को काटने हेतु लक्ष्मण को तीक्ष्ण धार का दिव्यास्त्र दिया। जंगल की कटाई के क्रम में तपस्यारत शूपर्णखा के पुत्र साम्ब का सर कट गया। वहीं पर स्वच्छ जल पूर्ण कमल के फूलों से सुशोभित सरोवर के तट पर लक्ष्मण ने गिद्धराज जटायु की सहायता से पर्णकुटी बनायी। पंचवटी का वह स्थान नवादा जिला के अन्तर्गत साम्बे, सरकटी और अपसर गाँवो ंके नाम पर पहचाना जा सकता है। साम्बे गाँव शूपर्णखा पुत्र साम्ब का, सरकटी उसके सर कटने का तथा अपसर सरोवर का प्रतीक है। आज भी वहाँ बहुत दूर तक फैला सरोवर है। वहाँ उत्खनन से सातवीं शताब्दी की प्रस्तर मूर्तियाँ मिली हैं जो राम, लक्ष्मण और सीता की हैं। (देखें-नवभारत टाइम्स, पटना, 10 जून 1990, पृष्ठ-2)
सीता हरण के बाद राम पम्पासर पहुँचे। वह पम्पासर आज के बड़े गाँव का प्रसिद्ध सरोवर है। यह नालन्दा के पास है। बुकानन ने भी अपने यात्रा वृतान्त में बड़ागाँव का प्राचीन नाम पम्पापुर बतलाया है। सूर्यपुराण (भाषा) में इसी सरोवर को पम्पासर कहा है। देखें-Journal of Francis Buchartan Kept During The Survey of the Districe of Patna and Gaya in 1811-1812, P.P.95.
      रावण वध के अनन्तर ब्रह्महत्या पाप की निवृत्ति हेतु अगस्त्य मुनि के परामर्श पर राम ने मुंगेर के सीताकुण्ड स्थान पर एक सौ अश्वमेध यज्ञ किया। यज्ञ स्थल से दो कोस की दूरी पर उत्तरवाहिनी गंगा तट पर वाल्मीकि का आश्रम था तथा यज्ञ स्थल के समीप ही राम की राजधानी थी। सीता ने एक बार संयोग व्रत का नौ दिनों का अनुष्ठान किया। वह वाल्मीकि आश्रम में रहती थी। उस व्रत के लिए नित्य कमल का फूल लाने राम की राजधानी के सरोवर पर ठीक मध्यान्हकाल में लव पहुँच जाता था। यह सब आनन्द रामायण से जाना जा सकता है। आज भी सीताकुण्ड के समीप वृहत् स्तूप है जिसे गढ़ की संज्ञा दी जाती है। उत्खनन से साक्ष्य प्राप्त हो सकते हैं।
रामायण कालीन साक्ष्य/प्रमाण मत्स्य पुराण और वाल्मीकि रामायण में हैं। उक्त ग्रन्थों की प्रचलित प्रतियों के सावधानीपूर्वक अध्ययन से रामायण कालीन स्थलों पर कोई सहज ही पहुँच सकता है जो मुंगेर के भू-भाग में लुप्त और सहस्राब्इियों से सुप्त पड़े हैं। यहाँ की फिजा, यहाँ की मिट्टी, आज स्वयं अपनी कहानी सुना रही है। इसकी कहानी सुनिये और यहाँ की मिट्टी देखिये।


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