Monday, April 6, 2020

पुराण: धर्म, धर्मनिरपेक्ष एवम् यथार्थ अनुभव की अन्तिम सत्य दृष्टि

पुराण: धर्म, धर्मनिरपेक्ष एवम् यथार्थ अनुभव की अन्तिम सत्य दृष्टि


मानव की पूर्णता और अपूर्णता पर सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड का सन्तुलन, स्थिरता, शान्ति और विकास निर्भर है। इसकी अनुभूति भारतीय चिन्तकों अर्थात् व्यक्तिगत प्रमाणित अदृश्य आध्यात्म वैज्ञानिकों ऋषि, मुनि गणों ने प्राचीन काल में ही प्राप्त कर ली थी। एक लम्बी अवधि में कर्म द्वारा उत्पन्न ज्ञान सूत्रों के संकलन के फलस्वरूप उस सर्वव्यापी सभी में प्रकाशित आत्मा को व्यक्तिगत प्रमाणित रूप से जाना जा सका। जो अब धीरे-धीरे सार्वजनिक प्रमाणित दृश्य पदार्थ वैज्ञानिको द्वारा स्वीकार किया जा रहा है। परिणामस्वरूप आत्मा विवाद मुक्त सार्वजनिक प्रमाणित हो जायेगी। साधारण व्यक्ति जो अन्तिम आविष्कार के ज्ञान से अनभिज्ञ है वह आज भी ईश्वर या आत्मा को बाह्य माध्यमों जैसे-मूर्ति, दूर या अन्यत्र या पुराणों में प्रक्षेपित ब्रह्मा, विष्णु ,और शिव-शंकर के रुप में ही कल्पना करता है। इतना ही नहीं वह स्वप्न में भी नहीं सोच सकता कि ईश्वर स्वयं वही है, उसके जैसा है, उसके साथ भी वही है। यदि नहीं तो राम और कृष्ण को ईश्वर न मानकर हम आप जैसा मानव ही मानना चाहिए और यदि हेै तो सदा ही इसके लिए तैयार रहना चाहिए कि वह स्वयं ही श्रीकृष्ण हो सकता है या उनके आस-पास राम और कृष्ण हो सकते हैं। इतना जानने के बाद भी उनकी दृष्टि सदैव अपनों से दूर ऐसी जगह टिकी रहती है जहाँ मानवीय गुणों से मुक्त ईश्वर की कल्पना की जा सके। परिणामस्वरुप राम, कृष्ण और वे आचार्य गण जिन्होंने मानव के कल्याण के लिए जो कर्म किये उनका फल क्या हुआ? वे तो अमरत्व प्राप्त कर गये और साधारण व्यक्ति जहाँ थे वहीं ही नहीं बल्कि और नीचे गिरते चले गये। और स्वयं को उस ईश्वर पर निर्भर कर अपने अन्दर बैठे ईश्वर को निष्क्रीय कर डाले। परिणामस्वरुप स्वयं के चेतना, ज्ञान और कर्म से ही दुःख और विपत्तियों को बुला कर वे ईश्वर को ही दोषी बनाते रहे हैं। वे यह भूल जाते हैं या जान नहीं पाते कि वह ईश्वर तो वही है वह दुःख भी उसने स्वयं ही निर्मित किये हैं। 
ज्ञान सूत्र्रों के संकलन के उपरान्त जन सामान्य को एकात्मज्ञान-आत्मा के ज्ञान को समझने के लिए गुरु-शिष्य वार्ता और ओउम शब्द का सहारा लिया गया। जिसे उपनिषद् कहा गया। उपनिषद् में सामान्य व्यक्ति के मन में उस आत्मा के विषय में उठने वाले प्रश्नों का उत्तर उन्हीं की भाषा में समझाया गया है।
भारतीय दर्शन का मूल आधार कपिलमुनि का क्रिया-कारण सिद्वान्त जो आज तक विवादमुक्त ब्रह्माण्डीय या सार्वजनिक रुप से प्रमाणित रहा और वह कभी भी विवादग्रस्त हो ही नहीं सकता क्योंकि वर्तमान का दृश्य पदार्थ विज्ञान भी सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में झांककर यह देख चुका है कि कहीं भी कोई बस्तु स्थिर नहीं है अर्थात वह क्रिया के अधीन है। और जो कारण है वह ही स्थिर है। भारतीय चिन्तन में इसी कारण को आत्मा-शिव-ईश्वर-ब्रह्म कहा गया है। जो क्रिया में भी है लेकिन ऐसा है कि नहीं है। जैसे सूर्यास्त के उपरान्त हम यह कह सकते हैं कि सूर्य नहीं है परन्तु वह है। इसके लिए बाह्य नेत्र नहीं, अन्त-नेत्र की आवश्यकता पड़ जाती है। भारतीय चिन्तकों ने इस क्रिया को भी दो रुपों में देखा था-अदृश्य रुप एवमं दृश्य रुप। जो प्रत्येक विषय के साथ है और दोनों रुप देश-काल बद्ध सत्य है। जीव के लिए यह स्थूल शरीर और सूक्ष्म शरीर का रुप है। मानव जीव के लिए जो कारण अथातर््ा आत्मा से युक्त अर्थात् मन से मुक्त अर्थात् इन्द्रिय इच्छाओं से मुक्त स्थूल एवम सूक्ष्म शरीर है वह दैवी या शिव मानव स्थूल एवम सूक्ष्म शरीर है जिसे मानव जीव में आध्यात्मिकता युक्त दैवी भैातिक शरीर कहते है तथा जो कारण अर्थात् आत्मा से मुक्त अर्थात् मन से बद्ध अथार्त इन्द्रिय इच्छाओं से बद्ध स्थूल एवमं सूक्ष्म शरीर है उसे दृश्य जीवन में भौतिकता युक्त असुरी भौतिक शरीर कहते है। प्रत्येक सूक्ष्म शरीर अपने स्थूल शरीर त्याग के बाद सूक्ष्म शरीर अवस्था में रहता है। पुन-प्रत्येक सूक्ष्म शरीर अपने उद्देश्य अथार्त स्थूल शरीर त्याग के अन्तिम समय में मूल इच्छा को पूर्ण करने हेतु उचित वातावरण के मिलने पर स्थूल शरीर ग्रहण कर पुन-अपनी चेतना शक्ति से दैवी शरीर, जीव मानव शरीर या निम्न जीव शरीर की प्राप्ति के लिए स्वतंत्र हो जाता है। एक ही उद्देश्य के अनेक सूक्ष्म शरीरो का एकीकरण और एक ही सूक्ष्म शरीर का अपने उद्देश्य की प्राप्ति हेतु अनेक स्थूल शरीर का विभिन्न समयों में धारण भी होता है। अर्थात् प्रत्येक स्थूल शरीर ही पुनर्जन्म है चाहे वह शरीर उसे पहचान या न पहचाने। यह बिल्कुल दृश्य पदार्थ विज्ञान की क्रिया परमाणु से अणु, अणु से यौगिक पदार्थ और पुन-यौगिक पदार्थ से अणु, अणु से परमाणु के एकीकरण और विखण्डन की क्रिया के अनुसार ही होता है। जो स्थूल शरीर आत्मतत्व को व्यक्त करने के लिए क्रमश-एकात्मज्ञान ,एकात्मज्ञान सहित एकात्मकर्म, एकात्मज्ञान और एकात्मकर्म सहित एकात्मध्यान की श्रृंखला में व्यक्त होता है वह अवतारी स्थूल शरीर कहलाता है। अवतारी शरीर भी अपने अवतारी श्रृंखला का पुनर्जन्म ही होता है। पुनजनर््म और अवतार में बस अन्तर यह होता हेै कि पुनर्जन्म शरीर अपने पूर्व जीवन को सार्वजनिेक रुप से सिद्ध नहीं कर पाता है क्योंकि उसके जैसे उद्देश्यों को लेकर अन्य भी पुनर्जन्म में ही होते है। जबकि अवतारी शरीर व्यक्तिगत एवमं सार्वजनिक रुप से आसानी से पुनर्जन्म सिद्ध कर देता है क्योंकि वह पूर्व के सर्वोच्च कार्य की श्रृंखला की अगली कड़ी ही होता है, जिसका उद्देश्य उस समय में व्यक्त अन्य पुनर्जन्म शरीरों में सिर्फ एक और अकेला होता है। परिणामस्वरूप अवतारी शरीरों का सूक्ष्म शरीर भी स्पष्ट रूप से व्यक्त होता हैै।
उपरोक्त सिद्वान्त से युक्त हो भारतीय मनीषियों ने उसी आत्मतत्व को समझाने के लिए मनुष्य के व्यवहारिक जीवन की भांति कथा रूप में प्रस्तुत किये जिसे पुराण कहा जाता है। चूँकि शिव-आत्मा-ईश्वर-ब्रह्म इस ब्रह्माण्ड का आदि भी और अन्त भी है इसलिए शिवपुराण एक महापुराण है जिसमें सृष्टि की उत्पत्ति से वर्तमान तक की उत्थान और पतन की कथा समाहित है जो आज भी अपूर्ण है। वह तभी पूर्ण होगी जब तक स्वयं अृदश्य शिव का दृश्य व्यक्त रूप, व्यक्त नहीं हो जाता, और मानव जाति चरम विकसित अवस्था को प्राप्त नहीं हो जाती। इसलिए सम्पूर्ण मानव जाति को सफलतापूर्वक एकात्म करने वाला-एकात्मज्ञान, एकात्मज्ञान सहित एकात्मकर्म, एकात्मज्ञान और एकात्मकर्म सहित एकात्मध्यान की श्रृंखला को व्यक्त करने वाले शरीर की कथा, शिवपुराण की कथा का अंश कथा है।
शिवपुराण की कथा मानव जाति के कल्याणार्थ व्यावहारिक ज्ञान के माघ्यम से परमार्थ और सर्वमंगल के भाव से प्रस्तुत की गयी थी परन्तु कालान्तर में स्वार्थवश या भारतीय धर्म शास्त्रों के सत्य से अनभिज्ञ रहने के कारण मानव जाति के कल्याणार्थ ही विभिन्न धर्मों और सम्प्रदायों का जन्म हो गया। परिणामस्वरूप मानव जाति का यह सत्य जो उसके व्यावहारिक जीवन, कार्य की कुशलता और मनुष्य जीवन के उद्देश्य के ज्ञान के लिए ही था विवादित हो स्वयं एक धर्म का ही होकर रह गया। यही नहीं स्थिति यहां तक आ गयी कि स्वयं उस धर्म के लोग भी इसके यथार्थ से दूर हटकर मात्र एक ऐसी कथा समझने लगे जो या तो काल्पनिक है या इस पृथ्वी से कहीं दूर घटित होती है। दूसरे धर्मों और सम्प्रदायों के लिए तो पुराण कथा इस ”नक कटे“ की कहानी जैसी हो गयी है जो मिथिलांचल (बिहार) में आज भी सुनी जा सकती है। हुआ यह कि एक व्यक्ति का किसी परिस्थितिवश नाक कट गया। उसके गांव के लोग उसे नक-कटा, नक-कटा कह कर चिढ़ाने लगे। यह उसके लिए परेशानी का कारण बन गया। उसने उपाय निकालकर कहना शुरू किया कि मुझे ईश्वर दिखते है। लोग कहने लगे मुझे भी दिखाओ। फिर वह बोला वह तो नाक कटवाने के बाद ही दिखेंगे। उन लोगों में से एक की प्रबल इच्छा होने पर अकेले में उसकी नाक काट डाली। जिसकी नाक कटी वह बोला कि ईश्वर कहाँ दिख रहे है। पहला बोला-अब तुम्हे भी यही कहना होगा कि ईश्वर दिखते हैं अन्यथा तुम्हे भी लोग नक-कटा कहेंगे। इस प्रकार दोनों मिलकर गांव के अधिकतम व्यक्तियों की नाक कटवा डाली। परिणामस्वरूप जब कई नक कटे हो गये तो नक कटा कहने की समस्या ही समाप्त हो गयी। अन्य धर्मो और सम्प्रदायों के व्यक्ति उस नक कटे की भंाँति व्यक्तिगत रूप से तो सत्य को समझ ही रहे है लेकिन सार्वजनिक रूप से सत्य को कहने पर उन्हें ही व्यक्तिगत रूप से समस्याओं से घिरना पडे़गा क्योंकि फिर वे पुराण जो भारतीय धर्म शास्त्र का साहित्य है जो उन्ही लोगों के कारण हिन्दू धर्म का शास्त्र-साहित्य हो गया, उसका समर्थक माना जाने लगेगा। जो स्वंय उनके धर्म के विरूद्ध हो जायेगा। परिणामस्वरूप वे स्वयं सहित अन्य को उस नक कटे की भाँति मात्र प्रतिष्ठा के कारण लगातार अन्धेरे में झोके चले जा रहे है। उन्हें यह नहीं मालूम कि जो स्थायी व्यक्त अर्थात् मूद्रित, लिखित, रेकार्ड नहीं हो पाता, वह प्रतिष्ठा का मूल्यांकन भी नही कर पाता क्योंकि आज की समस्याओं से घिरे समाज में चर्चाओं आधारित प्रतिष्ठा एक समय बाद इस तरह खो जाती है कि कहीं कुछ हुआ ही नहीं। सोचने का विषय है कि राम के चरित्र को वाल्मीकि ने न लिखा होता तो राम कि प्रतिष्ठा क्या होती? यदि कृष्ण के सम्पूर्ण कार्यो को व्यास ने न लिखा होता तो आज कृष्ण की प्रतिष्ठा क्या होती? इसलिए प्रतिष्ठा तो वही निर्धारित करता है जो स्थायी व्यक्त है अन्यथा कोई कितना भी महान क्यों न हो वह यदि स्थायी व्यक्त रूप में नहीं तो कुछ भी नहीं। 
वर्तमान समय में अनेक धर्मो, पन्थों, सम्प्रदायों के उत्पन्न हो जाने से एक नया शब्द आ गया है ”सेकुलर“ कोई इसे ”घर्मनिरपेक्ष“ कहता है तो कोई ”सर्वधर्मसमभाव“ या ”पंथनिरपेक्ष“। इसका सही अर्थ तो यह है कि ”जब सभी सम्प्रदायों को धर्म मानकर हम एकत्व का खोज करते है, तब दो भाव उत्पन्न होते है। पहला यह कि सभी धर्मो को समान दृष्टि से देखे तब उस एकत्व का नाम सर्वधर्मसमभाव होता है। दूसरा यह कि सभी धर्मो को छोड़ कर उस एकत्व को देखे तब उस एकत्व का नाम धर्मनिरपेक्ष होता है। जब सभी सम्प्रदायों को सम्प्रदाय की दृष्टि से देखते है तब उस एकत्व का नाम धर्म होता है। सम्प्रदाय या पंथ एक ही है। इन सभी रूपों में हम सभी उस एकत्व के ही विभिन्न नामों के कारण विवाद करते है अर्थात सर्वधर्मसमभाव, धर्मनिरपेक्ष, धर्म एवमं पंथनिरपेक्ष विभिन्न मार्गों से भिन्न-भिन्न नाम द्वारा उसी एकत्व की अभिव्यक्ति है। दूसरे रूप में हम सभी सामान्य अवस्था में दो विषयों पर नहीं सोचते। पहला वह जिसे हम जानते नहीं, दूसरा वह जिसे हम पूर्ण रूप से जान जाते है। यदि हम नहीं जानते तो उसे धर्मनिरपेक्ष, सर्वधर्मसमभाव या पंथनिरपेक्ष कहते है जब जान जाते है तब धर्म कहते है। ”फिर भी विभिन्न धर्म या सम्प्रदाय बाह्य रूप से एक न हो सके तो भी प्रश्न यह है कि क्या वे एकता नहीं चाहते? यदि नहीं चाहते तो निश्चित ही वह ब्रह्माण्ड मंे मानव जाति का स्पष्ट व्यक्त दुश्मन ही है। प्रश्न यह है कि किसी व्यक्ति को अपने विकास के लिए ज्ञान-कर्मज्ञान नहीं चाहिए? यदि नहीं चाहिए तो कम से कम निश्चित रूप से वह मानव नहीं हो सकता। प्रश्न यह कि एकता, शान्ति, स्थिरता, विकास इत्यादि के लिए गठित संयुक्त राष्ट्र संघ को अपने उद्देश्य की प्राप्ति के लिए एकीकरण का सिद्धान्त नहीं चाहिए? यदि नहीं चाहिए तो कम से कम यह निश्चित है कि संयुक्त राष्ट्र संघ एक मात्र झूठा नाटक है। यदि चाहिए तो बस हो गया पुराणों का धर्मनिरपेक्ष, सर्वधर्मसमभाव, पंथनिरपेक्ष और धर्म रूप में विश्वव्यापी प्रमाणीकरण क्योंिक जब हम ब्रह्मा कहते है तब उसे किसी धर्म से जोड़ दिया जाता है। लेकिन तब एकात्म ज्ञान कहते है तब वह किसी धर्म का नहीं बल्कि मानव से संयुक्त राष्ट्र संघ के लिए धर्मनिरपेक्ष, सर्वधर्मसमभाव और पंथनिरपेक्ष हो जाता है। यह होना भी था क्योकि जो व्यक्तिगत और सार्वजनिक जीवन का सत्य है वह मानव जाति को सदा से समेटे हुये है या यूॅ कहंे मानव उसी में ही साॅसें ले रहा है। चाहे उसका नाम-रूप कुछ भी क्यों न हो। 21वीं शदी और भविष्य के लिए विश्व शान्ति, एकता स्थिरता, विकास रक्षा के लिए यह एकीकरण तो विवशता भी बन चुकी है।

क. पुराणों की सत्य दृष्टि
अन्त-दृष्टि में भिन्नता होने से ही अलग-अलग मनुष्य एक ही विषय को भिन्न-भिन्न रूपों में देखते है और अपने स्वरूप या दृष्टि के अनुसार उसकी व्याख्या करते है। यह उसी प्रकार से होता है जैसे एक सोने के गिलास को एक बच्चा खिलौने की दृष्टि से देखेगा, तो धन की प्राथमिकता वाला व्यक्ति उसे धन रूप में देख सकता है, तो एक चोर उसी को चोरी करने योग्य वस्तु की दृष्टि से देखेगा, तो कोई प्यासा व्यक्ति उसे पीने के पात्र के रूप में देखेगा। इसी प्रकार पुराण कथा के सम्बन्ध में भी हैं। तो फिर पुराणों को समझने के लिए की सत्य दृष्टि क्या है? आत्मतत्व निराकार है उसकी उपस्थिति गुणों से ही प्रमाणित होती है। जैसे-अदृश्य हवा और विद्युत इत्यादि का प्रमाण उसके गुणों और यन्त्रों के गतिमान होने पर प्रमाणित होती है। उसी प्रकार आत्मा का पूर्ण सार्वजनिक प्रमाणित व्यक्त गुण एकात्म ज्ञान, एकात्मकर्मं और एकात्मध्यान का संयुक्त रूप है। जिन्हें पुराणों में क्रमश-ब्रह्मा, विष्णु और शंकर के सगुण रूप में प्रक्षेपित किया गया है। परन्तु मनीषी यह जानते थे कि एकात्मज्ञान बिना एकात्मकर्म के सामाजिक प्रमाणित नहीं हो पाता और एकात्मज्ञान और एकात्मकर्म बिना एकात्मध्यान के सार्वजनिक या ब्रह्माण्डीय प्रमाणित नहीं हो पाता। इसलिए पुराण में शिव-शंकर से विष्णु को तथा पुन-विष्णु से ब्रह्मा को बहिर्गत अर्थात्् ब्रह्मा को विष्णु के समक्ष तथा विष्णु को शिव-शंकर के समक्ष समर्पित या समाहित होते दिखाया गया है। परिणामस्वरूप एकात्मज्ञान, एकात्मज्ञान सहित एकात्मकर्म और एकात्मज्ञान तथा एकात्मकर्म सहित एकात्मध्यान क्रमश-ब्रह्मा, विष्णु और शिवशंकर का सत्य गुण हैं चूँकि शिव-आत्मा-ईश्वर-ब्रह्म का पूर्ण सार्वजनिक प्रमाणित गुण एकात्मज्ञान, एकात्मकर्मं और एकात्मध्यान का संयुक्त रूप है जो शंकर के अधीन है। इसलिए उनका पूर्ण रूप शिव-शंकर है। और महादेव, त्रिदेव, विश्वेश्वर जैसे सर्वोच्च नाम को प्राप्त हैं। सिर्फ शंकर, एकात्मध्यान के रूप है। सिर्फ विष्णु, एकात्मकर्म के रूप है। सिर्फ ब्रह्मा, एकात्मज्ञान के रूप है। पूर्ण विष्णु एकात्मज्ञान सहित एकात्मकर्म के रूप है। ब्रह्मा, विष्णु और शिव-शंकर ईश्वर-आत्मा-शिव-ब्रह्म के संक्रमणीय, संग्रहणीय गुणात्मक मूल गुण के सगुण रूप है। जिनका कार्य तभी सक्रिय होता हैं जब दृश्य जगत में आत्मीय कर्म, आत्मीय ज्ञान और आत्मीय ध्यान की सर्वोच्चता समाप्त हो जाती है। दृश्य जगत में आत्मीय ध्यान के संरक्षक देवताओं के राजा इन्द्र और उनके परिवार के मूल सगुण रूप में है। जब भी दृश्य जगत में देवता जैसा कर्म होता था तो इन्द्र परिवार से उसके सूक्ष्म शरीर को जोड़ा जाता है। और जब भी दृश्य जगत में अवतार जैसा कार्य होता है तब उन्हें ईश्वर के मूल गुणों ब्रह्मा, विष्णु, शिव-शंकर से उनके सूक्ष्म शरीर को जोड़ा जाता है। इसके अलावा दृश्य जगत में एक पक्ष और होता है जो आत्मीय से मुक्त ज्ञान, कर्म और ध्यान से जुड़ा रहता है। वह है-असुर पक्ष। इनके भी सूक्ष्म शरीरों को मूल असुर परिवार से जोड़ा जाता है। ब्र्रह्मा, विष्णु, शिव-शंकर का लोक ब्रह्म, विष्णु, शिव लोक तथा इन्द्र का इन्द्र लोक या स्वर्गलोक तथा असुरों का लोक-नरक लोक कहा जाता है। लोक का अर्थ मन स्तर से है जहाँ उनकी अपनी मन का स्तर और दृष्टि है। सत्य रूप से नरक, स्वर्ग और अन्य लोक एक ही मन की क्रमश-निम्न, उच्च, उच्चतर और सर्वोच्च अवस्था युक्त स्थान या स्तर है। अब यहाँ पुराणों में प्रेक्षेपित सगुण रूपों के साथ उनके परिवारों का धर्मनिरपेक्ष-सत्य दृष्टि प्रस्तुत की जा रही है। उस सत्य दृष्टि-गुण से उन्हें देखने पर पुराणों की दैनिक जीवन में उपयोगिता आत्मसात् करने लगेगी। उदाहरण के रूप में यदि ब्रह्मा बोल रहे है तो यह समझें कि एकात्म ज्ञान व्यक्त हो रहा है। यदि नारद बोल रहे है तो समझे कि एकात्म मन व्यक्त हो रहा है।-इस प्रकार। इस क्रम में मनुष्य को उसके कार्य क्षेत्र के अनुसार सर्वोच्च आदर्श मानक चरित्र प्रक्षेपित किये गये जिससे मनुष्य मार्गदर्शन प्राप्त कर सके। कार्य क्षेत्र अनुसार सर्वोच्च आदर्श मानक चरित्र निम्नवत् हैं-

ख. बह्मा अर्थात् एकात्मज्ञान परिवार (व्यक्तिगत कार्य क्षेत्र स्तर)
व्यक्तिगत कार्य क्षेत्र स्तर पर चरित्र और मानक चरित्र को जानने के लिए पहले समाज की सबसे छोटी और मूल इकाई व्यक्ति को जानना होगा। व्यक्ति के साथ शरीर, ज्ञान, वाणी और मन होता है जब तक यह स्वतन्त्र है तब तक वह वह व्यक्ति है जैसे ही उसकी दिशा सार्वभौम एकात्म हो जाती है वह आदर्श मानक चरित्र में परिवर्तित हो जाता है अर्थात् ईश्वरीय हो जाता है। इसी को पुराणों में ब्रह्मा एवं परिवार को प्रक्षेपित किया गया जिससे व्यक्ति व्यक्तिगत क्षेत्र स्तर पर स्वयं को समझ सके। बह्मा एकात्मज्ञान परिवार इस प्रकार हैं-
चूँकि एकात्मज्ञान का व्यक्त रूप एकात्मवाणी है अर्थात्् एकात्मज्ञान बिना एकात्म वाणी के नहीं हो सकती तथा एकात्मवाणी बिना एकात्मज्ञान के नहीं हो सकता इसलिए ब्रह्मा को एकात्मज्ञान और उनके अर्धांगनी सरस्वती को एकात्मवाणी के रूप में प्रक्षेपित किया गया है। अर्धनारीश्वर रूप में एकात्म ज्ञान और एकात्मवाणी दोनों ही, प्रत्येक में अर्थात्् ब्रह्मा और सरस्वती दोनों में विद्यमान है। चूँकि ज्ञान रूपी कमल, सांसारिकता रूपी कीचड़ और जल मेें रहते हुये भी उससे मुक्त और अमिश्रित रहता है तथा हंस, गुण-अवगुण के बीच रहते हुये भी सिर्फ गुणों को आत्मसात् करने का गुण रखता है। इसलिए ब्रह्मा और सरस्वती को क्रमश-सांसारिकता और अवगुणों से ऊपर रहने वाले कमल और हंस को आसन और वाहन के रूप में प्रक्षेपित किया गया है। चूँकि एकात्मज्ञान और एकात्मवाणी से युक्त सांसारिकता और अवगुणों से मुक्त, एकात्मज्ञान और वाणी से सृष्टिकर्ता, नीति और ध्यान अर्थात्् कालबोध से मुक्त, ये सत्व गुण ब्राह्मण के है इसलिए ब्रह्मा और सरस्वती को ब्राह्मण और ब्राह्मणी के रूप में प्रक्षेपित कर श्वेत वस्त्र धारण कराया गया है। साथ ही ब्रह्मा को कमण्डल, दण्ड, वेद धर्मग्रन्थ तथा नाम जप के लिए रूद्राक्षमाला धारण कराया गया है। उसी प्रकार सरस्वती को वाद्ययन्त्र वीणा (आत्मा को झंकरीत करने वाला), शास्त्र-साहित्य तथा नाम जप के लिए रूद्राक्ष माला धारण कराया गया है जिससे उनका स्वरूप क्रमश-दृष्टि और विद्या के मूल ईश्वर रूप में प्रक्षेपित हुआ है। क्यांेकि जहाँ सृष्टिकत्र्ता है, वहीं विद्या है, जहाँ विद्या है वही सृष्टिकत्र्ता है। एकात्म ज्ञान के पाॅच वेदों के अधिकारी प्रक्षेपित करते हुये ब्रह्मा को पाॅच सिर व मुख से युक्त प्रक्षेपित किया गया था। उसके उपरान्त सृष्टि के उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय के अधिकारी सर्वशक्तिमान सर्वव्यापी शिव-शंकर पर आधारित पुराण कथा के एक कथा (कालभैरव जन्म कथा) के माध्यम से ब्राह्मण ब्रह्मा के पाॅचवे सिर को काटकर पाॅचवे वेद को शिव-शंकर अधिकृत प्रक्षेपित किया गया। परिणामस्वरूप ब्रह्मा को चारों वेदों को प्रक्षेपित करते चार सिर व मुुख शेष (दिव्यरूप-चार सिर व मुुख) है। देश-काल मुक्त स्थिर एकात्मज्ञान और एकात्मवाणी का ही देश-काल बद्ध अस्थिर ज्ञान और वाणी रूप मन है, जिसे ब्रह्मा और सरस्वती के एक ही मानस पुत्र नारद के रूप में प्रक्षेपित किया गया है। चॅॅूकि असुर, देवता और ईश्वर सभी के समक्ष मन की उपस्थिति होती है इसलिए नारद (एकात्म मन) के पूर्णत-ईश्वर नाम ”नारायण“ का उच्चारण करते हुये सभी लोको अर्थात्् सभी स्थानों में भ्रमण करने वाले ब्राह्मण के रूप में प्रक्षेपित किया गया है। जिस प्रकार समस्त ज्ञानियों के समष्टि संयुक्त मूल रूप मे ब्रह्मा (एकात्म ज्ञान) का प्रक्षेपण है, उसी प्रकार समस्त मनों के समष्टि संयुक्त मूलरूप में नारद (एकात्म मन) का प्रक्षेपण है। पुराणों में जहाँ-जहाँॅ नारद की उपस्थिति होती हैं, वहाँ-वहाँ यह समझना चाहिए कि एकात्म मन व्यक्त हो रहा है, सूचना व्यक्त हो रहा है या एकात्म मन का प्रश्न व्यक्त हो रहा है। यह एकात्म मन जिसके समक्ष व्यक्त हो रहा हैं उसका मन भी हो सकता है, अन्य व्यक्तियों का भी हो सकता है या कोई अन्य माध्यम भी हो सकता है। परन्तु पुराणों में उसे अलग-अलग न प्रक्षेपित कर समष्टि संयुक्त मूल रूप नारद (एकात्म मन) के रूप में प्रक्षेपित किया गया है। इसी प्रकार जहाँ-जहाँ ब्रह्मा और सरस्वती व्यक्त हो रहे हैं वहाँ-वहाँ यह समझना चाहिए कि एकात्म ज्ञान और एकात्मवाणी व्यक्त हो रहा है। जो सृष्टि अर्थात् एक नये एकात्म मन या सूचना या प्रश्न आधारित शाखा का निर्माण कर रहा है। 
यहाँ ज्ञानी और मन के प्रकृति पर ध्यान देने योग्य यह है कि ज्ञानी, नीति मुक्त, ध्यान मुक्त, परिणामज्ञान से मुक्त कालमुक्त, स्थिर और व्यक्त-अव्यक्त एक समान होता है जबकि मन, नीति, मुक्त, ध्यानमुक्त, परिणामज्ञान से मुक्त, कालबद्ध, अस्थिर और व्यक्त-अव्यक्त एक समान होता है। यही कारण है कि पुराण में ब्रह्मा (एकात्म ज्ञान) देवता और असुर दोनों को प्राप्त होते दिखाया गया है फलस्वरूप सृष्टि तो हो जाती हैं परन्तु उसका परिणाम कभी देवताओं का अधिपत्य होता है तो कभी असुरों का क्योंकि देवता स्वकल्याण सहित लोक कल्याण के लिए उसका (एकात्म ज्ञान) उपयोग करते है तो असुर सिर्फ स्वकल्याण के लिए उसका (एकात्म ज्ञान) दुरूपयोग करते है। अन्तत-असुरों के अधिपत्य से स्थिति देवताओं और स्वयं ब्रह्मा के नियन्त्रण से बाहर हो जाती है और विष्णु (एकात्म ज्ञान सहित एकात्म कर्म) की आवश्यकता पड़ जाती हैं। नारद (एकात्म मन) के साथ सूचना ही सूचना तथा प्रश्न ही प्रश्न होता है। जब नारद (एकात्म मन), ब्रह्मा (एकात्म ज्ञान) के समक्ष व्यक्त होते है तब नारद (एकात्म मन) सूचना तो व्यक्त कर दंेते है परन्तु प्रश्नो का उत्तर नहीं जान पाते क्योंकि बह्मा (एकात्म ज्ञान), स्वयं ही स्थिर और परिणाम ज्ञान से मुक्त अवस्था है, उनका ज्ञान तो सूचना पर ही निर्भर रहता है परिणामस्वरूप ब्रह्मा (एकात्मज्ञान), नारद (एकात्म मन) को विष्णु (एकात्म ज्ञान सहित एकात्म कर्म) के पास उत्तर के लिए भेज देते है या स्वयं जाते है।
ब्रह्मा अर्थात्् एकात्म ज्ञान का व्यक्त रूप एकात्म वाणी अर्थात्् सरस्वती है। एकात्म ज्ञान का कारण एकात्म वाणी तथा एकात्म वाणी का कारण एकात्म ज्ञान होता है। वह वाणी जो आत्मा के लिए हो और वह ज्ञान जो आत्मा के लिए हो अर्थात्् सम्भाव वाणी और ज्ञानयुक्त मानव शरीर ही ब्रह्मा का अवतार है। बिना कर्म के ज्ञान प्रमाणित नहीं होता अर्थात्् ज्ञान वही है जो व्यवहारिक हो। इस ज्ञान की खोज में भारत के ऋषि-मुनि, क्षत्रिय राजाओं ने लम्बे समय में चिन्तन और कर्म करके एकात्मज्ञान के शास्त्र-साहित्यों का भण्डार बना दिये है। उनमें से कुछ एकात्मज्ञान की ओर ले जाते है। तो कुछ संस्कारित मानव समाज के लिए व्यक्तिगत प्रमाणित अदृश्य कर्म ज्ञान उपलब्ध कराते हैं। इस प्रकार वे सभी ऋषि-मुनि, और क्षत्रिय राजा एकात्म ज्ञान अर्थात्् ब्रह्मा के ही अंशावतार है।

ग. विष्णु अर्थात् एकात्म ज्ञान सहित एकात्म कर्म परिवार (सामाजिक कार्य क्षेत्र स्तर)
चूँकि एकात्म कर्म का व्यक्त रूप एकात्म प्रेम है अर्थात् एकात्म कर्म बिना एकात्म प्रेम के नहीं हो सकता तथा एकात्म प्रेम बिना एकात्म कर्म के नहीं हो सकता। साथ ही एकात्म ज्ञान और एकात्म वाणी तो अकेले हो सकती है परन्तु एकात्म कर्म और एकात्म प्रेम बिना एकात्म ज्ञान और एकात्म वाणी के नहीं हो सकती इसलिए ब्राह्मण ब्रह्मा और ब्रह्मणी सरस्वती को विष्णु और उसकी अर्धांगनि लक्ष्मी में समाहित करते हुये विष्णु को एकात्म ज्ञान तथा एकात्म कर्म से युक्त और लक्ष्मी को एकात्म वाणी और एकात्म प्रेम से युक्त कर प्रक्षेपित किया गया है अर्थात् विष्णु और लक्ष्मी से ही ब्रह्मा और सरस्वती बर्हिगत है। अर्धनारीश्वर रूप में एकात्म ज्ञान, एकात्म वाणी, एकात्म प्रेम, एकात्म कर्म सभी प्रत्येक मेें अर्थात्ा विष्णु और लक्ष्मी दोनों में विद्यमान है। चंूकि विष्णु में बह्मा समाहित हैं इसलिए विष्णु के सृष्टि संचालन में सृष्टि करना भी समाहित है। संचालन गुण-सात योग का प्रतीक सात फनों से युक्त पूर्ण सांसारिकता युक्त कीचड़ और जल (क्षीर सागर) की निम्न तल में रहने वाला शेषनाग विष्णु-लक्ष्मी का आसन तथा सांसारिकता में रहते हुए भी अनाशक्त रहने का प्रतीक क्षीरसागर का निम्नतल निवासस्थल के रूप में प्रक्षेपित किया गया है। संचालन की तीव्रता का प्रतीक शक्तिशाली और वेगवान गरूड़ पक्षी विष्णु के वाहन के रूप में तथा एकात्म प्रेम की सार्वभौमिकता का प्रतीक दिन अर्थात् प्रकाश में न देखने वाला और रात में देखने वाला और कहीं भी बैठ जाने वाला उल्लू पक्षी लक्ष्मी के वाहन के रूप में प्रक्षेपित किया गया है। चंूकि एकात्म ज्ञान, एकात्म वाणी, एकात्म कर्म, एकात्म प्रेम से युक्त संचालन, सांसारिकता से बद्ध एवम् मुक्त अर्थात् अनासक्त, नीति और ध्यान अर्थात् जीवन कालबोध से युक्त, सत्व-रज गुण से युक्त अर्थात् मानक अनासक्त गृहस्थ मानव है इसलिए विष्णु और लक्ष्मी को क्रमश-पीला अैर लाल वस्त्र धारण करा, लक्ष्मी को विष्णु की चरण सेवा करते प्रक्षेपित किया गया है। साथ ही विष्णु को सुदर्शन चक्र अर्थात् अच्छे विचार का मार्ग शस्त्र के रूप में, उद्घोष के लिए शंख, रक्षा के लिए गदा तथा ज्ञान का प्रतीक कमल पुष्प धारण करा कर प्रक्षेपित किया गया है। चूँकि ज्ञान रूप कमल का जड़ या मूल विष्णु के निवास स्थान सांसारिकता रूपी जल का निम्न तल कीचड़ होता है इसलिए उनकी नाभि से निकलकर जल के उपरी तल अर्थात् सांसारिकता से मुक्त ज्ञान का प्रतीक कमल को ही ब्रह्मा का निवास स्थान बना प्रक्षेपित किया गया है। विष्णु की भांति लक्ष्मी को उदघेाष के लिए शंख, ज्ञान का प्रतीक कमल, आशिर्वाद मुद्रा और धन का दान करते हुये प्रक्षेपित किया गया है। जहॅंा अर्धांगनी में एकात्म वाणी और एकात्म प्रेम है वहीं संचालन है, समृद्वि है, धन है। जहाँ धन है, समृद्धि है वहीं संचालन है वहीं अर्धागनी का एकात्म वाणी और एकात्म प्रेम है इसलिए विष्णु और लक्ष्मी का स्वरूप क्रमश-सृष्टि संचालन और धन के मूल ईश्वर के रूप में प्रक्षेपित हुआ है। सृष्टि संचालन के लिए एकात्म कर्म, बिना एकात्म प्रेम के नहीं हो सकता तथा बिना एकात्म कर्म के सृष्टि संचालन और एकात्म प्रेम नहीं हो सकता। इसलिए विष्णु-लक्ष्मी के बीच बाधक रूप में उनका कोई पुत्र रूप प्रक्षेपित नहीं है। पुराणों में जहाँं-जहाँ विष्णु और लक्ष्मी व्यक्त हो रहे है वहाँ-वहाँ यह समझना चाहिए कि एकात्म ज्ञान, एकात्म वाणी, एकात्म कर्म और एकात्म प्रेम व्यक्त हो रहा है जो सृष्टि संचालन सहित देवताओं के अधिपत्य के लिए वातावरण का निर्माण कर रहा है। समस्त संचालकों के समष्टि मूल रूप में विष्णु (एकात्म ज्ञान सहित एकात्म कर्म) का प्रक्षेपण है और इनका दिव्यरूप-चतुर्भुज एवं विश्वरूप है।
कार्य की प्रथम शाखा अर्थात्् भुजा-कालानुसार व्यक्तिगत और संयुक्त विचारों-दर्शनों से युक्त अर्थात्् सुदर्शन चक्र, जिससे निम्न और संकीर्ण विचारांे का परिवर्तन या बध होता है। दूसरी भुजा-उद्घोष अर्थात्् शंख जिससे चुनौती दी जाती है। तीसरी भुजा-रक्षार्थ अर्थात्् गदा जिससे आत्मीय स्वजनों की रक्षा की जाती है। चैथी और अन्तिम भुजा-निर्लिप्त अर्थात्् कमल जिससे सांसारिकता और असुरी गुणो से मुक्त समाज में आश्रय पाना आसान होता है क्योंकि सांसारिकता और असुरी गुणों से युक्त व्यक्ति अपने अहंकारी दृष्टि से ही देखते हैं। परिणामस्वरुप अच्छे विचार को सुरक्षित विकास का अवसर प्राप्त होता है। इन सभी गुणों से युक्त हो शक्तिशाली और तीव्र वेग अर्थात्् गरुड़ पक्षी रुपी वाहन से व्यक्त होना, ये ही पालनकर्ता विष्णु के मूल लक्षण हैं जिससे वे समाज में व्यक्त हो संसार का पालन करते हैं।
विष्णु के अवतारों में चाहे श्रीराम, श्रीकृष्ण रहे हो या बुद्ध या लव कुश सिंह विश्वमानव किसी को भी पुत्र सुख प्राप्त नहीं हुआ। या तो उन्होंने उसे त्याग दिया या रहते हुये भी नहीं के जैसा रहा है।
यहां संचालक के प्रकृति पर घ्यान देने योग्य यह है कि संचालक, नीति युक्त, ध्यान युक्त परिणाम ज्ञान से युक्त, काल युक्त अर्थात् कालानुसार, स्थिति और व्यक्त-अव्यक्त असमान होता है। यही कारण है कि ब्रह्मा (एकात्म ज्ञान) द्वारा सृष्टि होने पर जब असुरों का अधिपत्य हो जाता है तब विष्णु (एकात्म ज्ञान सहित एकात्म कर्म) द्वारा पुन-देवताओं का अधिपत्य स्थापित कर दिया जाता है परन्तु यह स्थायी नहींे हो पाता क्योंकि विष्णु स्वयं कालानुसार ही होते है, कालमुक्त नहीं परिणामस्वरूप शिव-शंकर (एकात्म ज्ञान और एकात्म कर्म सहित एकात्म ध्यान) की आवश्यकता आ जाती है। सृष्टि संचालन के लिए कर्म में सूचनाओं और सूचना माध्यमों अर्थात नारद (एकात्म मन) की प्राथमिकता के साथ आवश्यकता पड़ती है इसलिए नारद (एकात्म मन) का विष्णु परिवार के यहां उपस्थिति सर्वाधिक होता है। स्वयं विष्णु (एकात्म ज्ञान सहित एकात्म कर्म) को भी नारद (एकात्म मन) की आवश्यकता हमेशा रहती है क्योंकि देवताओं के अधिपत्य के लिए वातावरण का मुख्य निर्माण नारद द्वारा ही होता है। विष्णु (एकात्म ज्ञान और एकात्म कर्म) के समक्ष व्यक्त होकर नारद (एकात्म मन) सूचना तो व्यक्त कर देंते हैं परन्तु प्रश्नों के उत्तर में विष्णु (एकात्म ज्ञान सहित एकात्म कर्म) सिर्फ उसी प्रश्न का उत्तर देते है जो देवताओं के अधिपत्य के लिए समयानुसार वातावरण बनाने में सहायक हो क्योंकि विष्णु, स्वयं स्थिर नीति, ध्यान, कालयुक्त, व्यक्त-अव्यक्त असमान परिणाम ज्ञान से युक्त अवस्था है। उनका कर्म तो सूचना पर ही निर्भर रहता है और वे नारद (एकात्म मन) की प्रकृति को भलि-भांति जानते है कि मन समय से मुक्त होता है जो असमय सूचना प्रसार कर कर्म नीति को निष्फल कर सकता है। इसलिए जो प्रश्न समयानुसार नहीं होते उनका उत्तर वे अगले कर्म के उपरान्त समयानुसार होने पर देते हैं। जिस प्रश्न का उत्तर विष्णु के परिणाम ज्ञान के बाहर होता है उसे वे शिव-शंकर (एकात्म ज्ञान और एकात्म कर्म सहित एकात्म ध्यान) के पास उत्तर पाने के लिए नारद को भेज देते या स्वयं जाते हैं।
महाविष्णु के कुल चैबीस (1.सनकादि ऋषि (ब्रह्मा के चार पुत्र), 2.नारद, 3.वाराह, 4.मत्स्य, 5.यज्ञ (विष्णु कुछ काल के लिये इंद्र रूप में), 6.नर-नारायण, 7.कपिल, 8.दत्तात्रेय, 9.हयग्रीव, 10.हंस पुराण, 11.पृष्णिगर्भ, 12.ऋषभदेव, 13.पृथु, 14.नृसिंह, 15.कूर्म, 16.धनवंतरी, 17.मोहिनी, 18.वामन, 19.परशुराम, 20.राम, 21.व्यास, 22.कृष्ण, बलराम, 23.गौतम बुद्ध (कई लोग बुद्ध के स्थान पर बलराम को कहते है, अन्यथा बलराम शेषनाग के अवतार कहलाते हैं), 24.कल्कि) अवतार माने जाते हैं जिनमें कुल दस (1.मत्स्य, 2.कूर्म, 3.वाराह, 4.नृसिंह, 5.वामन, 6.परशुराम, 7.राम, 8.श्रीकृष्ण, 9.बुद्ध और 10.कल्कि) मुख्य अवतार हैं।

घ. शिव-शंकर अर्थात् एकात्म ज्ञान और एकात्म कर्म सहित एकात्म ध्यान परिवार (वैश्विक/ब्रह्माण्डिय कार्य क्षेत्र स्तर)
चूँकि एकात्म ध्यान अर्थात् कालधारण का व्यक्त रूप एकात्म समर्पण है अर्थात् एकात्म ध्यान बिना एकात्म समर्पण के नहीं हो सकता तथा एकात्म समर्पण बिना एकात्म ध्यान के नहीं हो सकता। साथ ही एकात्म ज्ञान सहित एकात्म कर्म और एकात्म वाणी सहित एकात्म प्रेम तो अकेले हो सकता है परन्तु एकात्म ध्यान और एकात्म समर्पण बिना एकात्म ज्ञान सहित एकात्म कर्म और एकात्म वाणी सहित एकात्म प्रेम के नहीं हो सकता इसलिए आदर्श मानक अनासक्त गृहस्थ विष्णु और गृहणी लक्ष्मी को शिव-शंकर और उनकी अर्धागनी शक्ति-पार्वती में समाहित करते हुये शिव-शंकर को एकात्म ज्ञान, एकात्म कर्म तथा एकात्म ध्यान से युक्त और शक्ति-पार्वती को एकात्म वाणी, एकात्म प्रेम तथा एकात्म समर्पण से युक्त कर प्रक्षेपित किया गया है। अर्थात् शिव-शंकर और शक्ति-पार्वती से ही विष्णु और लक्ष्मी बहिर्गत है। अर्धनारीश्वर रूप में एकात्म ज्ञान, एकात्म वाणी, एकात्म कर्म, एकात्म प्रेम, एकात्म ध्यान और एकात्म समर्पण सभी प्रत्येक में अर्थात् शिव-शंकर और शक्ति पार्वती दोनों में विद्यमान है। चूँकि शिव-शंकर में विष्णु तथा विष्णु में ब्र्रह्मा समाहित है इसलिए शिव-शंकर के प्रलय या संहार में सृष्टि संचालन या स्थिति और सृष्टि करना दोनों समाहित है। शिव-शंकर में शिव रूप सृष्टि और संचालन या स्थिति का तथा शंकर रूप-संहार या प्रलय का प्रक्षेपण है। इसी प्रकार शक्ति-पार्वती में शक्ति रूप सत्ता का तथा पार्वती रूप-समपर्ण का प्रक्षेपण है। सृष्टि, संचालन और संहार में आवश्यक गुण ऐश्वर्य और वैभव से दूरी का प्रतीक पर्वत (कैलाश) शिव-शंकर और शक्ति-पार्वती के निवास स्थान के रूप में प्रक्षेपित है। निरर्थक वस्तुओं का सदुपयोग का प्र्र्र्रतीक मृगछाल का आसन तथा अपनी मस्ती में मस्त, निडर, शक्तिशाली परन्तु अहिंसक अर्थात् आक्रमण के उपरान्त आक्रमण करनें वाला स्थिर शांन्तचित्त, समर्पण गुणों से युक्त बैल (नन्दी) चैपाया पालतू पशु को शिव-शंकर के वाहन के रूप में तथा एकात्म समर्पण गुण पतिपरमेश्वर के चरणों में आसन तथा अपनी मस्ती में मस्त, निडर, शक्तिशाली परन्तु हिंसक अर्थात् प्रथमतया आक्रमण करने वाला, अस्थिर सतर्क चिंत्त, समर्पण न करने वाले गुणों से युक्त शेर चैपाया ंजंगली पशु को शक्ति-पार्वती के वाहन के रूप में प्रक्षेपित किया गया है। शिव-शंकर का दिव्यरूप-पाँच सिर व मुख वाला दिखाया गया है। इनके परिवार में दो पुत्र-गणेश व कार्तिकेय दिखाये गये हैं।
एकात्म नेतृत्व के प्रक्षेपण शिव-शंकर पुत्र गणेश हैं। गण अर्थात् जन के ईश अर्थात् ईश्वर, इस प्रकार गणेश का अर्थ जनता का ईश्वर से है। जनता का ईश्वर के गुण क्या होने चाहिए इसका ही प्रक्षेपण गणेश हैं। खाने के दाँत अलग और दिखाने के दाँत अलग होने चाहिए। नाक इतनी बड़ी होनी चाहिए जिससे दूर तक को सूँघा जा सके। कान इतने बड़े हों का दूर तक को सुना जा सके। पेट इतना बड़ा हो कि बहुत कुछ खाया व पचाया जा सके। सवारी चूहे से तात्पर्य कहीं भी छेद कर जाया जा सके या किसी को भी धीरे-धीरे ऐसा काटा जा सके कि पता ही न चले। गणेश की दो पत्नी बुद्धि और सिद्धि हैं। के मुख्य रूप से इतना जो करेगा वो ही घी के लड्डू को खायेगा। गणेश का दिव्य रूप-पाँच मुख व सिर वाला है अर्थात् पाँच वेदों के ज्ञान से युक्त भी होना चाहिए।
एकात्म रक्षा के प्रक्षेपण शिव-शंकर पुत्र कार्तिकेय हैं। इनकी सवारी मोर से तात्पर्य हर खतरे को समाप्त कर देना है। कार्तिकेय का दिव्य रूप-छः मुख व सिर वाला है अर्थात् रक्षा के लिए चार दिशा सहित आकाश और पाताल में एक साथ दृष्टि रहनी चाहिए।
शंकर अर्थात्् एकात्मध्यान का व्यक्त रूप एकात्म समर्पण अर्थात्् पार्वती है। एकात्म ध्यान का कारण एकात्म समर्पण तथा एकात्म समर्पण का कारण एकात्म ध्यान होता है। वह ध्यान जो आत्मा के लिए हो और वह समर्पण जो ध्यान के लिए हो अर्थात्् समभाव और ध्यान युक्त मानव शरीर ही शंकर का अवतार है। इस ध्यान का अर्थ काल चिन्तन है। विभिन्न कालों में विभिन्न रूपों में काल के प्रति समर्पण कराने अर्थात्् एकात्मज्ञान और एकात्मकर्म की परीक्षा और परीक्षोपरान्त मार्ग प्रशस्त करने के लिए व्यक्तिगत प्रमाणित शंकर अर्थात्् एकात्म ध्यान के 21 अंशावतार जाने जाते है।
सम्पूर्ण आध्यात्मिक सूक्ष्म एवम् स्थूल सिद्धान्तों को व्यक्त करने का माध्यम मात्र मानव शरीर और कर्म क्षेत्र मात्र समाज ही है। साथ ही उसका मूल्यांकनकत्र्ता मानव का अपना मन स्तर ही है। इसलिए अवतार सम्पूर्ण सिद्धान्तों को कालानुसार व्यक्त सगुण रूप मानव शरीर ही होता है। मूलरूप से अवतार शिव-आत्मा-ईश्वर-ब्रह्म अर्थात्् सार्वभौम सत्य-सिद्धान्त के अवतार होते है परन्तु एकात्म ज्ञान अर्थात् ब्रह्मा और एकात्मध्यान अर्थात्् शंकर सार्वजनिक प्रमाणित दृश्य न हो सकने के कारण एकात्म कर्म-विष्णु के ही अवतार के रूप में जाना जाता है। क्योंकि एक मात्र कर्म ही मानव समाज में सार्वजनिक प्रमाणित होता है। इस एकात्म कर्म का कारण एकात्म प्रेम और एकात्म प्रेम का कारण मात्र एकात्म कर्म होता है। 
विकास क्रम को सार्वभौम सत्य-सिद्धान्तानुसार सदैव बनाये रखने वाले माध्यम शरीर को अवतार कहते हैं। अवतार के सम्बन्ध में कुछ मान्यता सृष्टि के प्रारम्भ से विकास क्रम को देखते हैं तो कुछ मानव सभ्यता के प्रारम्भ से। परन्तु दोनों ही सत्य हैं और विकास क्रम को ही प्रमाणित करती है। एक के अनुसार-सृष्टि के प्रारम्भ में जलीय जीव (1.मत्स्य, 2.कच्छप, 3.वाराह), फिर जल-थल जीव (4.नर सिंह), फिर थल मानव (5.वामन, 6.परशुराम, 7.राम, 8.कृष्ण, 9.बुद्ध, 10.कल्कि) का विकास हुआ और माध्यम को अवतार कहा गया। दूसरे के अनुसार-जल-प्लावन के समय मछली से मार्गदर्शन (मछली की गति का सिद्धान्त) पाकर मानव की रक्षा करने वाला 1.मत्स्यावतार, 2 कूर्मावतार (कछुए के गुण का सिद्धान्त), 3.वाराह अवतार (सुअर के गुण का सिद्धान्त) 4.नर-सिंह अवतार (सिंह के गुण का सिद्धान्त), 5.वामन अवतार (समाज का सिद्धान्त) 6.परशुराम अवतार (लोकतन्त्र का सिंद्धान्त) 7.राम अवतार (आदर्श व्यक्ति चरित्र का सिद्धान्त), 8.कृष्ण अवतार (व्यष्टि-आदर्श सामाजिक व्यक्ति चरित्र और समष्टि-सार्वभौम सत्य आत्मा का सिद्धान्त), 9.बुद्ध अवतार (धर्म-संघ-बुद्धि का सिद्धान्त) और अन्तिम 10.कल्कि अवतार (व्यष्टि-आदर्श वैश्विक व्यक्ति चरित्र और समष्टि-सार्वभौम सत्य-सिद्धान्त)। ग्रन्थों में अवतारों की कई कोटि बतायी गई है जैसे अंशाशावतार, अंशावतार, आवेशावतार, कलावतार, नित्यावतार, युगावतार इत्यादि। जो भी सार्वभौम सत्य-सिद्धान्त को व्यक्त करता है वे सभी अवतार कहलाते हैं। व्यक्ति से लेकर समाज के सर्वोच्च स्तर तक सार्वभौम सत्य-सिद्धान्त को व्यक्त करने के क्रम में ही विभिन्न कोटि के अवतार स्तरबद्ध होते है। अन्तिम सार्वभौम सत्य-सिद्धान्त को व्यक्त करने वाला ही अन्तिम अवतार के रूप में व्यक्त होगा। अब तक हुये अवतार, पैगम्बर, ईशदूत इत्यादि को हम सभी उनके होने के बाद, उनके जीवन काल की अवधि में या उनके शरीर त्याग के बाद से ही जानते हैं। एक ही समय में कई अवतार हो सकते हैं परन्तु मुख्य अवतार का निर्धारण उसके कार्य के प्रभाव क्षेत्र से जाना जाता है।
उपरोक्त के अनुसार यह स्पष्ट है कि शास्त्राकार लेखक द्वारा पौराणिक देवी-देवताओं में ब्रह्मा-विष्णु-शिवशंकर परिवार के कार्य क्षेत्रानुसार मानक के रूप में प्रक्षेपित किये गये थे। मनुष्य की इच्छा पाने की अधिक होती है अलावा इसके कि हो जाने की। ऐसे व्यक्ति जो हो जाने में विश्वास रखते थे वे ही धरती पर मनुष्य रूप में आये और अवतार हो कर चले गये। अवतार का अर्थ ही होता है सर्वोच्च लक्ष्य सिद्धान्त के अनुसार नीचे उतरना जबकि मनुष्य का अर्थ होता है नीचे से ऊपर की ओर बढ़ना। शास्त्राकार लेखक ने मानव जाति को ईश्वर की ओर विकास करने या ईश्वर के रूप में बन जाने के लिए इन देवी-देवताओं का रूप प्रक्षेपित किया था लेकिन ये पूजा और आयोजन में बदल गया और अन्य धर्म-सम्प्रदाय के आ जाने से यह एक विशेष धर्म का ही जाना जाने लगा। जिस प्रकार आम की लकड़ी से कुर्सी, मेज, दरवाजा, खिड़की बनाया गया और आम गायब होकर कुर्सी, मेज, दरवाजा, खिड़की हो गया उसी प्रकार सम्पूर्ण पृथ्वी के मनुष्य के मागदर्शन के लिए व्यक्त मानक देवी-देवताओं का अर्थ गायब होकर मूर्तिपूजा में बदलकर एक धर्म का हो गया।
जिस प्रकार लोग आत्मा की महत्ता को न समझकर शरीर को ही महत्व देते हैं उसी प्रकार लोग भले ही पढ़कर ही विकास कर रहें हो परन्तु वे शास्त्राकार लेखक की महत्ता को स्वीकार नहीं करते। जबकि वर्तमान समय में चाहे जिस विषय में हो प्रत्येक विकास कर रहे व्यक्ति के पीछे शास्त्राकार, लेखक, आविष्कारक, दार्शनिक की ही शक्ति है जिस प्रकार शरीर के पीछे आत्मा की शक्ति

च. ब्रह्माण्ड परिवार






No comments:

Post a Comment