Monday, April 6, 2020

कालभैरव कथा: यथार्थ दृष्टि

कालभैरव कथा: यथार्थ दृष्टि 
(कर्मवेद-प्रथम, अन्तिम तथा पंचमवेद शिव-शंकर अधिकृत है, ब्रह्मा अधिकृत नहीं)

शुद्ध मन की सर्वोच्च अन्तिम अवस्था ही आत्मीय अवस्था है। अर्थात्् एक व्यक्तिगत मन से संयुक्त मन की सर्वोच्च और अन्तिम अवस्था। इस सम्पूर्ण चक्र के ज्ञान से ही भविष्यवाणी, अनुमान, कर्मज्ञान, ध्यान और कम समय में अधिक शक्तिशाली योजना का व्यक्त होना होता है। सम्पूर्ण मानव समाज के समक्ष प्रत्यक्ष प्रमाण है कि कोई भी मानव निर्मित या रचित विषय एका-एक बाहर से नहीं आया, वह पहले हमारे मन के अन्दर में अदृश्य व्यक्तिगत प्रमाणित रुप से विकसित हुआ फिर वह सार्वजनिक प्रमाणित कार्य रुप में व्यक्त हुआ। शुद्ध सर्वोच्च मन से ही अन्त-में विकसित और बाह्य में व्यक्त हुई एक पौराणिक कथा है, जो इस प्रकार है।
एक बार सुमेरु पर्वत पर बैठे हुए ब्रह्मा जी के पास जाकर देवताओं ने उनसे अविनाशी तत्व बताने का अनुरोध किया। शिव जी की माया से मोहित ब्रह्मा जी उस तत्व को न जानते हुए भी इस प्रकार कहने लगे-”मैं ही एक मात्र संसार को उत्पन्न करने वाला स्वयंभू, अज, एक मात्र ईश्वर, अनादि भक्ति, ब्रह्म, घोर, निरंजन आत्मा हूँ। मैं ही प्रवृत्ति और निवृत्ति का मूलाधार, सर्वलीन पूर्ण ब्रह्म हूँ।“ ब्रह्मा जी के कहने पर वहाँ मुनिमण्डली में विद्यमान विष्णु जी ने उन्हें समझाते हुए कहा कि-मेरी आत्मा से तो तुम सृष्टि के रचयिता बने हो, मेरा अनादर करके तुम अपने प्रभुत्व की बात कैसे कर रहे हो? इस प्रकार ब्रह्मा और विष्णु अपना-अपना प्रभुत्व स्थापित करने लगे और अपने पक्ष में समर्थन में शास्त्र वाक्य उद्धृत करने लगे। अन्तत-वेदों से पूछने का निर्णय हुआ। तो स्वरुप धारण करके आये चारों वेदों ने क्रमश-अपना मत इस प्रकार प्रकट किया। ऋग्वेद-जिसके भीतर समस्त भूत निहित है तथा जिससे सब कुछ प्रवृत्ति होता है और जिसे परमतत्व कहा जाता है वह एक रुद्र रुप ही है। यजुर्वेद-जिसके द्वारा हम वेद भी प्रमाणित होते हैं तथा जो ईश्वर के सम्पूर्ण यज्ञों तथा योगों से भजन किया जाता है, सबका द्रष्टा वह एक शिव ही है। सामवेद-जो समस्त संसारी जनों को भरमाता है, जिसे योगीजन ढूंढते हैं और जिसकी शक्ति से सारा संसार प्रकाशित होता है, वह एक त्रयम्बक शिवजी ही हैं। अथर्ववेद-जिसकी भक्ति से साक्षात्कार होता है और जो सब सुख-दुखातीत अनादि ब्रह्म है वह केवल एक शंकर जी हैं। विष्णु ने वेदों के इस कथन को प्रताप बताते हुए नित्य शिवा से रमण करने वाले दिगम्बर पीतवर्ण-धूलिधूसरित प्रेमपनाथ, कुवेटाधारी, सर्वावेष्टि, वृपनवाहो, निःसंग शिवजी को परब्रह्म मानने से इनकार कर दिया। ब्रह्मा-विष्णु विवाद को सुनकर ओंकार ने शिवजी की ज्योति को नित्य और सनातन परब्रह्म बताया परन्तु फिर भी शिवमाया से विमोहित ब्रह्मा-विष्णु की बुद्धि नहीं बदली। उस समय उन दोनों के मध्य आदि-अन्त रहित एक ऐसी विशाल ज्योति प्रकट हुई और उससे ब्रह्मा का पंचम सिर जलने लगा। इतने में त्रिशूलधारी नील-लोहित वहाँ प्रकट हुये तो अज्ञानता वश ब्राह्मण ब्रह्मा उन्हें अपना पुत्र बताकर अपनी शरण में आने को कहने लगे। ब्रह्मा की सम्पूर्ण बातों को सुनकर शिव-शंकर जी अत्यन्त क्रुद्ध हुये और उन्होंने तत्काल भैरव को उत्पन्न करके उसे ब्रह्मा पर शासन करने का आदेश दिये। इस प्रकार भैरव ने अपनी बायीं अंगुली के नखाग्र से ब्रह्मा जी का पंचम सिर काट डाला। भयभीत ब्रह्मा शतरुद्री का पाठ करने लगे। ब्रह्मा-विष्णु को सत्य की प्रतीति हो गयी और वे शिव-शंकर की महिमा गान करने लगे। यह देखकर शिवजी ने उन दोनों को अभयदान दिया। इसके उपरान्त शिव-शंकर जी ने भैरव जी से कहा कि-तुम इन ब्रह्मा-विष्णु को मानते हुए ब्रह्मा के कपाल को धारण करके इसी के आश्रय से भिक्षावृत्ति करते हुये वाराणसी में चले जाओ। वहाँ उस नगरी के प्रभाव से तुम ब्रह्म हत्या के पाप से निवृत्त हो जाओगे। भैरव जी ज्यों ही काशी (वाराणसी) पहुँचे त्यों ही उनके हाथ से चिमटा कपाल छूटकर पृथ्वी पर गिर पड़ा और उस स्थान का नाम कपालमोचन तीर्थ पड़ गया। शिव-शंकर जी ने उसके भीषण होने के कारण ”भैरव“ और काल को भी भयभीत करने वाला होने के कारण ”कालभैरव“ तथा भक्तों के पापों को तत्काल नष्ट करने वाला होने के कारण ”पापभक्षक“ नाम देकर उसे काशीपुरी का अधिपति बना दिया। भगवान शिव-शंकर के पूर्ण रुप भैरव जी के उत्पत्ति की यह कथा, सनत्कुमार जी को नन्दीश्वर सुनाते हैं।
सर्वोच्च मन सें व्यक्त यह पौराणिक कथा स्पष्ट रुप से व्यक्त करती है कि ब्रह्मा और विष्णु से सर्वाेच्च शिव-शंकर हैं। चारो वेदों को प्रमाणित करने वाले शिव-शंकर हैं। चार सिर के चार मुखों से चार वेद व्यक्त करने वाले ब्राह्मण ब्रह्मा जब पांचवे सिर के पाँचवे मुख से अन्तिम वेद पर अधिपत्य व्यक्त करने लगे तब शिव-शंकर के पूर्ण रुप कालभैरव ने उनका पाँचवा सिर काट डाला जिससे यह स्पष्ट होता है कि काल ही सर्वोच्च है, काल ही भीषण है, काल ही सम्पूर्ण पापों का नाशक और भक्षक है, काल से ही काल डरता है। अर्थात्् पाँचवा वेद काल आधारित ही होगा। पुराणों में ही व्यक्त शिव-शंकर से विष्णु तथा विष्णु से ब्रह्मा को बहिर्गत होते अर्थात्् ब्रह्मा को विष्णु के समक्ष तथा विष्णु को शिव-शंकर के समक्ष समर्पित और समाहित होते दिखाया गया है। जिससे यह स्पष्ट होता है कि शिव-शंकर ही आदि और अन्त हैं। अर्थात्् जो पंचम वेद होगा वह अन्तिम वेद होगा साथ ही प्रथम वेद होगा। शिव-शंकर ही प्रलय, स्थिति और सृष्टिकर्ता हैं। चूँकि वेद शब्दात्मक होते हैं इसलिए पंचम वेद शब्द से ही प्रलय, स्थिति और सृष्टिकर्ता होगा।
लव कुश सिंह ”विश्वमानव“ द्वारा व्यक्त पुराण का धर्मनिरपेक्ष यथार्थ अनुभव की अन्तिम सत्य दृष्टि भी उपरोक्त को स्पष्ट रुप से व्यक्त करती है। जिसमें ब्रह्मा को एकात्म ज्ञान का रुप विष्णु को एकात्म ज्ञान सहित एकात्म कर्म का रुप तथा शिव-शंकर को एकात्म ज्ञान और एकात्म कर्म सहित एकात्म ध्यान का रुप व्यक्त किया गया है। यह सार्वजनिक प्रमाणित भी है कि एकात्म कर्म के बिना एकात्म ज्ञान और एकात्म ध्यान के बिना एकात्म ज्ञान और एकात्म कर्म दोनों प्रमाणित नहीं हो पाते अर्थात्् एकात्म ज्ञान, ज्ञान नहीं है। एकात्म ध्यान ही एकात्म ज्ञान है। यह एकात्म ध्यान का ही रुप काल चिन्तन है। काल की प्रधानता है। ज्ञान, कर्म और ध्यान का एकात्म रुप ही पंचम वेद का रुप है। चूँकि एकात्म ज्ञान विष्णु के अदृश्य व्यक्तिगत प्रमाणित आठवें पूर्णावतार श्रीकृष्ण द्वारा गीतोपनिषद् के रुप में व्यक्त किया जा चुका है तथा उनका जीवन ही अव्यक्त कर्मज्ञान का रुप रहा है। इसलिए ज्ञान का दृश्य रुप कर्म ही अन्तिम पंचम वेद का आधार है। परिणामस्वरुप विष्णु के दृश्य सार्वजनिक प्रमाणित दसवें पूर्णावतार निष्कलंक श्री कल्कि और शंकर के दृश्य सार्वजनिक प्रमाणित 22 वें पूर्णावतार भोगेश्वर के संयुक्तावतार तथा आत्मा-शिव-ईश्वर-ब्रह्म के दृश्य रुप लव कुश सिंह ”विश्वमानव“ द्वारा व्यक्त कर्मवेद ही प्रथम, अन्तिम तथा पंचमवेद है। चूँकि यह वेद शिव-शंकर अधिकृत है जो ज्ञान, कर्म और ध्यान का सम्मिलित रुप है इसलिए शिव-शंकर ही प्रलय, स्थिति और सृष्टिकर्ता है। और व्यक्तकर्ता विश्वमानव स्वयं शिव-शंकर के व्यक्त दृश्य सार्वजनिक प्रमाणित अन्तिम अवतार हैं। 
प्रचीन काल से ही पंचम वेद की उपलब्धता मानव समाज के लिए एक विवादास्पद विषय रहा है। बहुत से रचनाकार और समर्पित व्यक्तियों ने अपने-अपने साहित्य को पंचमवेद के रुप में प्रस्तुत किया था जैसे-महाभारत के लिए महर्षि वेदव्यास, शास्त्रीय कार्यों के लिए एक तमिलियन संत ने, अच्छे बुरे कर्मों का संकलन के लिए माध्वाचार्य, नाट्यशास्त्र अर्थात्् गन्धर्ववेद, चिकित्साशास्त्र अर्थात्् आयुर्वेद, गुरु ग्रंथ साहिब, लोकोक्तियाँ इत्यादि। परन्तु जब पंचम वेद अन्तिम होगा तो वह सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड स्थूल एवं सूक्ष्म दोनों को एक ही सिद्धान्त द्वारा प्रमाणित करने में सक्षम होगा और वही विश्व प्रबन्ध का अन्तिम शास्त्र साहित्य होगा। जो सिर्फ कर्मवेद-प्रथम, अन्तिम और पंचमवेद में ही उपलब्ध है। लव कुश सिंह ”विश्वमानव“ के विचार से कर्मवेद को ही अन्य नामों जैसे-01.कर्मवेद 02.शब्दवेद 03.सत्यवेद 04.सूक्ष्मवेद 05.दृश्यवेद 06.पूर्णवेद 07.अघोरवेद 08.विश्ववेद 09.ऋृशिवेद 10.मूलवेद 11.शिववेद 12.आत्मवेद 13.अन्तवेद 14.जनवेद 15.स्ववेद 16.लोकवेद 17.कल्किवेद 18.धर्मवेद 19.व्यासवेद 20.सार्वभौमवेद 21.ईशवेद 22.ध्यानवेद 23.प्रेमवेद 24.योगवेद 25.स्वरवेद 26.वाणीवेद 27.ज्ञानवेद 28.युगवेद 29.स्वर्णयुगवेद 30.समर्पणवेद 31.उपासनावेद 32.शववेद 33.मैंवेद 34.अहंवेद 35.तमवेद 36.सत्वेद 37.रजवेद 38.कालवेद 39.कालावेद 40.कालीवेद 41.शक्तिवेद 42.शून्यवेद 43.यथार्थवेद 44.कृष्णवेद सभी प्रथम, अन्तिम तथा पंचम वेद, से भी कहा जा सकता है। इस प्रकार प्रचीन काल से पंचम वेद की उपलब्धता का विवादास्पद विषय हमेशा के लिए समाप्त हो गया।



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