श्रीमदभवद्गीता की शक्ति सीमा तथा
कर्मवेद: पंचमवेद समाहित विश्वशास्त्र के प्रारम्भ का आधार
अधिकतम व्यक्ति ऐसा सोचते हैं कि ज्ञान का अन्त नहीं हो सकता और व्यक्ति ऐसा भी मानते हैं कि जिसका जन्म (प्रारम्भ) हुआ है उसका मृत्यु (अन्त) भी होता है। इस प्रकार यदि ज्ञान का प्रारम्भ हुआ है तो उसका अन्त भी होगा।
स्वामी विवेकानन्द की दृष्टिः-
01. विज्ञान एकत्व की खोज के सिवा और कुछ नहीं है। ज्योंही कोई विज्ञान शास्त्र पूर्ण एकता तक पहुँच जायेगा, त्योंहीं उसका आगे बढ़ना रुक जायेगा क्योंकि तब तो वह अपने लक्ष्य को प्राप्त कर चुकेगा। उदाहरणार्थ रसायनशास्त्र यदि एक बार उस एक मूल द्रव्य का पता लगा ले, जिससे वह सब द्रव्य बन सकते हैं तो फिर वह और आगे नहीं बढ़ सकेगा। पदार्थ विज्ञान शास्त्र जब उस एक मूल शक्ति का पता लगा लेगा जिससे अन्य शक्तियां बाहर निकली हैं तब वह पूर्णता पर पहुँच जायेगा। वैसे ही धर्म शास्त्र भी उस समय पूर्णता को प्राप्त हो जायेगा जब वह उस मूल कारण को जान लेगा। जो इस मत्र्यलोक में एक मात्र अमृत स्वरुप है जो इस नित्य परिवर्तनशील जगत का एक मात्र अटल अचल आधार है जो एक मात्र परमात्मा है और अन्य सब आत्माएं जिसके प्रतिबिम्ब स्वरुप हैं। इस प्रकार अनेकेश्वरवाद, द्वैतवाद आदि में से होते हुए इस अद्वैतवाद की प्राप्ति होती है। धर्मशास्त्र इससे आगे नहीं जा सकता। यही सारे विज्ञानों का चरम लक्ष्य है। (हिन्दू धर्म, पृष्ठ-16, राम कृष्ण मिशन प्रकाशन)
02. यह समझना होगा कि धर्म के सम्बन्ध में अधिक और कुछ जानने को नहीं, सभी कुछ जाना जा चुका है। जगत के सभी धर्म में, आप देखियेगा कि उस धर्म में अवलम्बनकारी सदैव कहते हैं, हमारे भीतर एक एकत्व है अतएव ईश्वर के सहित आत्मा के एकत्व ज्ञान की अपेक्षा और अधिक उन्नति नहीं हो सकती। ज्ञान का अर्थ इस एकत्व का आविष्कार ही है। यदि हम पूर्ण एकत्व का आविष्कार कर सकें तो उससे अधिक उन्नति फिर नहीं हो सकती। (धर्म विज्ञान, पृष्ठ-7, राम कृष्ण मिशन प्रकाशन)
03. मैं जिस आत्मतत्व की बात कर रहा हूँ वही जीवन है, शक्तिप्रद है और अत्यन्त अपूर्व है। केवल वेदान्त में ही वह महान तत्व है जिससे सारे संसार की जड़ हिल जायेगी और जड़ विज्ञान के साथ धर्म की एकता सिद्ध होगी।
(हिन्दू धर्म, पृष्ठ-44, राम कृष्ण मिशन प्रकाशन))
लव कुश सिंह ”विश्वमानव“ की दृष्टिः-
01. पूर्ण ज्ञान अर्थात् अपने मालिक स्वयं केन्द्र में स्थित मार्गदर्शक दर्शन ;ळनपकमत च्ीपसवेवचीलद्ध अर्थात् ळ एवं विकास दर्शन ;क्मअमसवचउमदज च्ीपसवेवचीलद्ध अर्थात् क् है। इसकी परिधि आदान-प्रदान या व्यापार या क्रियाचक्र या क्रियान्वयन दर्शन ;व्चमतंजपदह च्ीपसवेवचीलद्ध अर्थात् व् है। यही आध्यात्म अर्थात् अर्थात् अदृश्य विज्ञान का सर्वोच्च एवं अन्तिम आविष्कार है। तथा यही पदार्थ अर्थात् दृश्य विज्ञान द्वारा आविष्कृत परमाणु की संरचना भी है। जिसके केन्द्र में ळ के रुप में प्रोटान-च् है तथा क् के रुप में न्यूट्रान-छ है। इसकी परिधि व् के रुप में इलेक्ट्रान-म् है। प्राच्य अदृश्य आध्यात्म विज्ञान तथा पाश्चात्य दृश्य पदार्थ विज्ञान में एकता का यही सूत्र है। विवाद मात्र नाम के कारण है। जिसके अनुसार इलेक्ट्रान या क्रियान्वयन दर्शन में विभिन्न सम्प्रदायों, संगठनों, दलों के विचार सहित व्यक्तिगत विचार जिसके अनुसार अर्थात् अपने मन या मन के समूहों के अनुसार वे समाज तथा राज्य का नेतृत्व करना चाहते हैं। जबकि ये सार्वजनिक सत्य नहीं है। इसलिए ही इन विचारों की समर्थन शक्ति कभी स्थिर नहीं रहती जबकि केन्द्र या आत्मा या एकता में विकास दर्शन स्थित है। केन्द्र में प्रोटान की स्थिति अदृश्य मार्गदर्शक दर्शन या अदृश्य विकास दर्शन की स्थिति, चूँकि यह सार्वजनिक सत्य विकास दर्शन का अदृश्य रुप है इसलिए यह व्यक्तिगत प्रमाणित है। इसी कारण आध्यात्म भी विवाद और व्यष्टि विचार के रुप में रहा जबकि यह सत्य था। लेकिन न्यूट्रान की स्थिति दृश्य मार्गदर्शक दर्शन या दृश्य विकास दर्शन की स्थिति है इसलिए यह सार्वजनिक सत्य है सम्पूर्ण मानक है, समष्टि सत्य है, सत्य सिद्धान्त है जिसकी स्थापना से व्यक्ति मन उस चरम स्थिति में स्थापित होकर उसी प्रकार तेजी से विश्व निर्माण कर सकता है जिस प्रकार पदार्थ विज्ञान द्वारा आविष्कृत न्यूट्रान बम इस विश्व का विनाश कर सकता है।
02. वर्तमान दृश्य पदार्थ विज्ञान के सत्य-सिद्धान्त के अनुसार सम्पूर्ण तत्व तीन अवस्थाओं में रहता है। जिनमें दो आभासी अवस्था तथा एक वास्तविक अवस्था। ये तीनों अवस्था क्रमशः ठोस, द्रव और गैस अवस्था है। इस तीनों अवस्थाओं में एक यदि उसकी सामान्य वातावरण में वास्तविक अवस्था है तो शेष दो उसकी विशेष वातावरण में आभासी अवस्था हो सकती है। जबकि परमाणु (न्यूक्लियस व इलेक्ट्रान) तीनों अवस्थाओं में विद्यमान रहता है। तत्वों में व्यक्त होने का सत्य-सिद्धान्त यह है कि परमाणु में इलेक्ट्रानों की संख्या के घटने बढ़ने से विभिन्न तत्व व्यक्त होते हैं। पुनः तत्वों के मिश्रण से विभिन्न यौगिक पदार्थ व्यक्त होते हैं अर्थात् एक ही परमाणु से इलेक्ट्रानों की संख्या को घटा-बढ़ाकर सभी तत्वों के गुणों को प्राप्त कर सकते हैं। यदि यह सम्भव हो कि एक चेतना युक्त परमाणु स्वयं अपने इलेक्ट्रानों को घटा-बढ़ा सके तो वह परमाणु सभी तत्वों के गुणों या प्रकृति को व्यक्त करने लगेगा। ऐसी स्थिति में उस जटिल परमाणु को किसी विशेष तत्व का परमाणु निर्धारित करना असमभव हो जायेगा। फिर उसे ”एक में सभी, सभी में एक“ कहना पड़ेगा अर्थात् उसकी निम्नतम एवं सर्वोच्चतम अन्तिम स्थिति ही उसकी निर्धारण योग्य प्रकृति होगी।
वर्तमान अदृश्य आध्यात्म विज्ञान के अद्वैत सत्य-सिद्धान्त के अनुसार व्यक्ति भी तीन अवस्थाओं में रहता है जिसमें से दो आभासी अवस्था तथा एक वास्तविक अवस्था। ये तीनों अवस्था क्रमशः आत्मीय काल, अदृश्य काल तथा दृश्य काल अवस्था है। इन तीनों अवस्थाओं में यदि मन की एक वास्तविक अवस्था है तो शेष दो विशेष वातावरण में आभासी अवस्था हो सकती है। जबकि आत्मा सहित मन तीनों अवस्थाओं में रहता है। व्यक्ति के महत्ता के व्यक्त होने का सत्य-सिद्धान्त यह है कि व्यक्ति में मन की उच्चता और निम्नता से विभिन्न महत्ता के व्यक्तियों का व्यक्त होना होता है। पुनः इन व्यक्तियों के साथ आने से विभिन्न मतों पर आधारित सम्प्रदाय और संगठन व्यक्त होते हैं। अर्थात् एक ही व्यक्ति के मन की उच्चता एवं निम्नता से हम सभी महत्ता के व्यक्तियों, सम्प्रदायों और संगठनों के योग्य हो सकते हैं। अर्थात् प्रत्येक व्यक्ति में मन के निम्नतम स्थिति पशु मानव से सर्वोच्च और अन्तिम स्थिति विश्व मन से युक्त विश्वमानव तक को व्यक्त करने की सम्भावना नीहित है क्योंकि मानव वह चेतना युक्त आत्मा है जो स्वयं अपने मन की उच्चता एवं निम्नता पर आवश्यकता और समयानुसार नियन्त्रण कर सकता है और सभी तरह के व्यक्तियों या गुणों को व्यक्त कर सकता है। ऐसी स्थिति में उस जटिल व्यक्ति को किसी विशेष प्रकृति का व्यक्ति निर्धारण करना असम्भव हो जायेगा। फिर उसे ”एक में सभी, सभी में एक“ कहना पड़ेगा। अर्थात् उसकी निम्नतम पशु मानव और सर्वोच्चतम तथा अन्तिम विश्वमानव स्थिति ही उसकी निर्धारण योग्य प्रकृति होगी।
03. भारत के प्रचीन ऋषि बिना किसी यन्त्र की सहायता से यह जान चुके थे कि वस्तुओं का सम्पूर्ण नाश नहीं होता केवल उसका अवस्था परिवर्तन होता है जिस पर आधारित होकर ही उन्होंने विश्व कल्याणार्थ धर्म का आविष्कार किये थे। यह व्यक्तिगत प्रमाणित अदृश्य दिशा से धर्म का आविष्कार था। इसलिए ही यह धर्म विवाद का विषय रहा। परन्तु इसी विषय को भी पदार्थ विज्ञान ने भी सिद्ध कर दिखाया है, और इस ओर से सम्पूर्ण एकत्व का मन के विश्व मानक -शून्य श्रंृखला का आविष्कार सार्वजनिक प्रमाणित दृश्य दिशा की ओर से धर्म का आविष्कार। अब और कोई दिशा नहीं जिस ओर से धर्म का आविष्कार किया जा सके। परिणामस्वरुप यह अन्तिम विश्वव्यापी विवादमुक्त रुप से धर्म का आविष्कार है।
04. सर्वोच्च और अन्तिम मन स्तर द्वारा व्यक्त ज्ञान-कर्मज्ञान के अन्तिम होने को इस प्रकार समझा जा सकता है। मान लीजिए बहुत से व्यक्ति हिमालय के चारो ओर से एवरेस्ट चोटी पर चढ़ रहे हैं। कुछ प्रारम्भ में हैं कुछ उससे ऊपर, कुछ और ऊपर, इस प्रकार से एक व्यक्ति शिखर पर बैठा है। प्रारम्भ से अन्तिम तक के व्यक्ति के पास वहाँ की स्थिति पर एक मन स्तर है। शिखर पर बैठा व्यक्ति अपने अन्तिम होने का प्रमाण सिर्फ दो मार्गों द्वारा व्यक्त कर सकता है। पहला यह कि वह उस अन्तिम स्तर का वर्णन करे। इस मार्ग में जब तक सभी व्यक्ति शिखर तक नहीं पहुँच जाते उसके अन्तिम होने की प्रमाणिकता सिद्ध नहीं हो पाती। इस मार्ग को व्यक्तिगत प्रमाणित ज्ञान का मार्ग कहते हैं। यह संतों का मार्ग है। दूसरा मार्ग यह है कि शिखर पर बैठा व्यक्ति अन्तिम को प्रारम्भ से अन्तिम तक के मनस्तर को इस भाँति जोड़े कि प्रत्येक मनस्तर पर बैठा व्यक्ति अपने स्थान से ही अन्तिम की अनुभूति कर ले। इस मार्ग को सार्वजनिक प्रमाणित कर्मज्ञान का मार्ग कहते हैं। प्रथम मार्ग जो कठिन मार्ग था, वह था श्रीकृष्ण का मार्ग। द्वितीय मार्ग जो सरल मार्ग है वह है-लव कुश सिंह ”विश्वमानव“ का मार्ग जिसके अनुसार प्रत्येक व्यक्ति को उसके मन स्तर की ओर से सार्वजनिक प्रमाणित सर्वव्यापी सर्वोच्च और अन्तिम कर्म आदान-प्रदान या परिवर्तन से जोड़ दिया गया है जिससे उसके अतीत का अनुभव कर सीधे व्यक्तिगत प्रमाणित आत्मोन्भूति तथा विवादमुक्त सिद्धान्तों की प्राप्ति प्रत्येक मनुष्य कर सके। अन्तिम के पूर्ण प्रमाण प्रस्तुत कर देने के बावजूद व्यक्ति को यह अधिकार है कि वह इसे अन्तिम न होने का प्रमाण प्रस्तुत करे परन्तु ऐसा न हो कि सम्पूर्ण जीवन व्यर्थ के प्रयत्न में ही निकल जाये और हाथ कुछ भी न मिले। इसलिए बुद्धिमानी इसी में है कि अन्तिम का परीक्षण एक समय सीमा तक करें और व्यक्त मार्ग के अनुसार जीवन में धारण कर जीवन को संचालित करें।
05. इस बाह्य जगत को बृहद ब्रह्माण्ड तथा अन्तः जगत को क्षुद्र ब्रह्माण्ड कहते हैं। एक मनुष्य अथवा कोई भी प्राणी अर्थात् क्षुद्र ब्रह्माण्ड जिस नियम से गठित होता है उसी नियम से विश्व ब्रह्माण्ड अर्थात् बृहद ब्रह्माण्ड भी गठित है। जैसे हमारा एक मन व्यक्तिगत मन है। उसी प्रकार एक विश्वमन संयुक्त मन भी है। सम्पूर्ण जगत एक अखण्ड स्वरुप है वेदान्त उसी को ब्रह्म कहता है। ब्रह्म जब बृहद ब्रह्माण्ड के पश्चात् या अतीत में अनुभव होता हो तब उसे ईश्वर या परमात्मा कहते हैं। और जब ब्रह्म इस क्षुद्र ब्रह्माण्ड के पश्चात् या अतीत में अनुभव होता है तब उसे आत्मा कहते हैं। द्वैतवादी आत्मा और परमात्मा को दो मानते हैं जबकि अद्वैतवादी दोनों को एक ही मानते हैं। और इस आत्मा को ही मनुष्य के अन्दर स्थित ईश्वर या परमात्मा मानते हैं। अर्थात् इस मनुष्य से ही व्यक्तिगत मन और विश्व मन या संयुक्तमन दोनों ही व्यक्त होता है। जिस मनुष्य शरीर से सर्वोच्च और अन्तिम, सर्वव्यापी संयुक्तमन या विश्वमन व्यक्त होगा उसी शरीर को हम ईश्वर या परमात्मा का साकार अन्तिम रुप या अवतार कहेंगे।
06. इस ईश्वर या परमात्मा के व्यक्तिगत प्रमाणित साकार प्रक्षेपण को पुराण में शिव-शंकर तथा सार्वजनिक प्रमाणित साकार प्रक्षेपण को पूर्णावतार कहते हैं। जिसका व्यक्त गुण सर्वोच्च और अन्तिम एकात्म ज्ञान और एकात्म कर्म समाहित एकात्म ध्यान होता है। इसके अंशों का प्रक्षेपण सार्वजनिक प्रमाणित साकार रुप में अंशावतार तथा व्यक्तिगत प्रमाणित साकार रुप में विष्णु व ब्रह्मा कहते हैं। इसलिए ही पुराणों में शिव-शंकर से निकलते हुए विष्णु अर्थात् एकात्म ज्ञान समाहित एकात्म कर्म को तथा विष्णु से निकलते हुए ब्रह्मा अर्थात् एकात्म ज्ञान को प्रक्षेपित किया गया है। ब्रह्मा और विष्णु को देव तथा अन्तिम शिव-शंकर को महादेव कहते हैं।
07. इन तीनों देवताओं ब्रह्मा, विष्णु और शिव-शंकर के मूल गुणों के आधार पर उनके वास्तविक रुप अर्थात् चार वेदों को व्यक्त करने वाले चार मुखों से युक्त सृष्टिकर्ता ब्रह्मा का रुप, चार भुजाओं से युक्त पालनकर्ता विष्णु का रुप तथा ब्रह्मा और विष्णु समाहित पाँचों वेदों को व्यक्त करने वाले पाँच मुखों से युक्त कल्याण कर्ता शिव-शंकर का अन्तिम रुप, तीनों देवताओं का दिव्यरुप कहलाता है। जबकि ईश्वर या आत्मा या परमात्मा के व्यक्तिगत प्रमाणित सर्वव्यापी सत्य-आत्मा रुप को व्यक्तिगत प्रमाणित विश्वरुप तथा सार्वजनिक प्रमाणित सर्वव्यापी सिद्धान्त रुप को अन्तिम सार्वजनिक प्रमाणित विश्वरुप कहते हैं। ईश्वर या परमात्मा या आत्मा के पूर्णावतार के साकार रुप से विष्णु और शिव-शंकर के दिव्यरुप सहित सार्वजनिक प्रमाणित विश्वरुप का संयुक्त रुप व्यक्त होगा। इसलिए ही विष्णु और शिव-शंकर को एक दूसरे का रुप कहा गया है।
08. कार्य की प्रथम शाखा अर्थात् भुजा-कालानुसार व्यक्तिगत और संयुक्त विचारों-दर्शनों से युक्त अर्थात् सुदर्शन चक्र, जिससे निम्न और संकीर्ण विचारांे का परिवर्तन या वध होता है। दूसरी भुजा-उद्घोष अर्थात् शंख जिससे चुनौति दी जाती है। तीसरी भुजा-रक्षार्थ अर्थात् गदा जिससे आत्मीय स्वजनों की रक्षा की जाती है। चैथी और अन्तिम भुजा-निर्लिप्त अर्थात् कमल जिससे सांसारिकता और असुरी गुणों से मुक्त समाज में आश्रय पाना आसान होता है क्योंकि सांसारिकता और असुरी गुणों से युक्त व्यक्ति अपने अहंकारी दृष्टि से ही देखते हैं। परिणामस्वरुप अच्छे विचार को सुरक्षित विकास का अवसर प्राप्त होता है। इन सभी गुणों से युक्त हो शक्तिशाली और तीव्र वेग अर्थात् गरुड़ पक्षी रुपी वाहन से व्यक्त होना, ये ही पालनकर्ता विष्णु के मूल लक्षण हैं जिससे वे समाज में व्यक्त हो संसार का पालन करते हैं जो लव कुश सिंह ”विश्वमानव“ के जीवन, कर्म व व्यक्त होने के मार्ग से पूर्ण प्रमाणित है और चतुर्भुज रुप है।
09. जिस प्रकार अदृश्य शिव अर्थात् अदृश्य विशेश्वर का प्रतीक चिन्ह शिव-लिंग है उसी प्रकार दृश्य शिव अर्थात् दृश्य भोगेश्वर का प्रतीक चिन्ह शिव-लिंग सहित सुदर्शन-चक्र और शंख है। कारण अन्तिम अवतार शिव-शंकर का पूर्णावतार है जिसमें विष्णु समाहित हैं। परिणामस्वरुप दृश्य शिव अर्थात् दृश्य भोगेश्वर का प्रतीक चिन्ह पूर्ण शिव तथा आधा विष्णु के प्रतीक चिन्ह से ही व्यक्त होगा। जिस प्रकार काशी अदृश्य विशेश्वर का निवास स्थान है उसी प्रकार सत्यकाशी दृश्य भोगेश्वर का निवास स्थान है।
10. चारों वेदों के ज्ञान और अनेकों उपनिषद् समाहित ”गीता“ व्यक्तिगत प्रमाणित मार्ग से आत्म ज्ञान, दिव्य-दृष्टि, सर्वव्यापी रुप-विश्वरुप, चतुर्भुज दिव्यरुप तथा कर्म की ओर प्रेरित करने का शास्त्र साहित्य है। क्योंकि इस उपदेश को कहीं से भी दो व्यक्ति एक साथ सुन नहीं रहे थे। जब तक कम से कम दो व्यक्ति एक साथ किसी विषय या घटना को देखें या सुने नहीं वह सार्वजनिक प्रमाणित नहीं कहलाती है। इस उपदेश को सुनने व देखने वालों में पहला स्थान -सिर्फ अर्जुन अकेले देख व सुन रहा था। दूसरा स्थान-वृक्ष पर धड़ से अलग बरबरीक का सिर सिर्फ देख रहा था। तीसरा स्थान-दिव्य दृष्टि के द्वारा संजय अकेले देखकर साथ बैठे अन्धे धृतराष्ट्र व अन्धी बनीं गान्धारी को वर्णन सुना रहा था। चैथा स्थान-दोनों पक्षों की सेना सिर्फ श्रीकृष्ण और अर्जुन के अलावा न तो कुछ देख पा रही थी न ही सुन पा रही थी। पाँचवां स्थान-स्वयं महाभारत शास्त्र साहित्य के रचयिता महर्षि व्यास जी अकेले देख व सुन रहे थे। इन पाँचों स्थितियों में कहीं भी ऐसी स्थिति नहीं है जिससे यह कहा जा सके कि गीता का उपदेश सार्वजनिक प्रमाणित रुप से दिया गया था बल्कि यह व्यक्तिगत प्रमाणित रुप से सिर्फ अर्जुन को व्यक्तिगत रुप सेे दिया गया था और विश्वरुप भी सिर्फ व्यक्तिगत प्रमाणित रुप से ही देखा गया था न कि सभी व्यक्ति जिनकी अलग-अलग स्थितियाँ है उनके लिए। इस प्रकार व्यक्त आत्म ज्ञान सत्य होते हुए भी व्यक्तिगत प्रमाणित ही है। गीतोपनिषद् व्यक्तिगत सम्पूर्ण समाधान का शास्त्र साहित्य है न कि सार्वजनिक सम्पूर्ण समाधान का शास्त्र साहित्य। यदि वह सम्पूर्ण समाधान का शास्त्र साहित्य होता तो ईश्वर के कुल दस अवतारों में दसवें और अन्तिम अवतार का कार्य क्या होता? अर्थात् उनके लिए कोई कार्य शेष नहीं होता। ब्रह्मा के पूर्ण अवतार और ईश्वर के अंशावतार आदर्श व्यक्ति चरित्र से युक्त श्रीराम थे। विष्णु के पूर्णावतार तथा ईश्वर के व्यक्तिगत प्रमाणित पूर्णावतार आदर्श सामाजिक व्यक्ति चरित्र (व्यक्तिगत प्रमाणित आदर्श वैश्विक व्यक्ति चरित्र) से युक्त श्रीकृष्ण थे। तो शिव-शंकर के पूर्णावतार तथा ईश्वर के सार्वजनिक प्रमाणित पूर्णावतार आदर्श वैश्विक व्यक्ति चरित्र से युक्त पूर्णावतार का कार्य क्या होता?
11. ”गीता“ समाहित ”कर्मवेद: प्रथम, अन्तिम तथा पंचमवेद“ सार्वजनिक प्रमाणित मार्ग से आत्म ज्ञान, कर्म-ज्ञान, दिव्य-दृष्टि, सर्वव्यापी रुप-विश्वरुप, चतुर्भुज दिव्यरुप, पंचमुखी दिव्यरुप का शास्त्र साहित्य है। क्योंकि यह व्यक्ति से अनेक व्यक्ति और सम्पूर्ण विश्व एक साथ पढ़, सुन और देख सकता है। अर्थात् यह उपदेश सार्वजनिक रुप से दिया गया है न कि व्यक्तिगत रुप से। जिसमें कर्म करने की शिक्षा भिन्न-भिन्न अनेकों स्थितियों पर खड़े व्यक्ति के लिए दी गयी है। कर्मवेद, व्यक्ति सहित सार्वजनिक सम्पूर्ण समाधान का शास्त्र साहित्य है तथा शिव-शंकर के पूर्णावतार तथा ईश्वर के सार्वजनिक प्रमाणित पूर्णावतार आदर्श वैश्विक व्यक्ति चरित्र से युक्त पूर्णावतार से व्यक्त है।
12. ”दिव्य रुप“ और ”विश्व रुप“ कभी साकार सार्वजनिक प्रमाणित नहीं हो सकता। वह जब भी होगा प्रथमतया ”गीता“ की भाँति व्यक्तिगत प्रमाणित निराकार तथा ”कर्मवेद“ की भाँति सार्वजनिक प्रमाणित निराकार रुप में। कारण वह व्यक्तिगत प्रमाणित निराकार आत्मा या सार्वभौम सत्य तथा सार्वजनिक प्रमाणित निराकार सार्वभौम सत्य-सिद्धान्त की व्यापकता की एक साथ अनुभूति है। जो व्यापक ज्ञान, उपदेशक के जीवन का व्यापक ज्ञान, उसके बाद एक साथ देखने का गुण दिव्य दृष्टि के द्वारा ही देखी जा सकती है। कर्मवेद और विश्व मानक-शून्य श्रंृखला की असीम शाखाएं इसका उदाहरण हैं। ”गीता“ में अर्जुन को पहले व्यापक ज्ञान दिया गया फिर दिव्य दृष्टि दी गयी तब विश्व रुप और दिव्य रुप दिखाया गया। जो सेनाओं के होते हुए भी सिर्फ अर्जुन को ही दिखाई दिया। इसके लिए अर्जुन ही योग्य पात्र था क्योंकि वह उपदेशक के जीवन के अधिक पास से परिचित था जिससे वह दिव्य रुप और विश्व रुप को सरलता से देख सकता था। उपदेश के लिए दोनों सेनाओं से दूर रथ को ले जाना इसलिए आवश्यक था कि जो इसके योग्य पात्र न थे वे इसमें व्यवधान उत्पन्न न करें और न ही सुन सकें। परिणामस्वरुप उन्हें दिव्यरुप और विश्वरुप दिखाई नहीं दिया। सृष्टि का रुक जाना उसे कहते हैं जब सम्पूर्ण समाज की अन्तिम स्थिति से आगे निर्माण या सृष्टि नहीं होती तथा ऐसा व्यक्ति जो उसके आगे निर्माण की बात कर रहा हो और जो उस पर ही निर्भर है, उसे पीछे या भूतकाल के विषय में विवशतावश उलझा देने से सृष्टि अर्थात् आगे का निर्माण कार्य रुक जाता है। गीता उपदेश के समय ऐसा ही हुआ था क्योंकि उपदेश के लिए विवशतावश श्रीकृष्ण भूतकाल में चले गये थे इसलिए ही कहा गया है कि उपदेश के समय सम्पूर्ण सृष्टि अर्थात् समय रुक गया था।
13. ”परिवर्तन संसार का नियम है“ यह इसलिए नहीं कहा गया था कि वह संसार के लिए है मनुष्य के लिए नहीं। यह इसलिए कहा गया था कि मनुष्य अपने मनस्तर में परिवर्तन लाते हुए सदा उच्च से उच्चतर, उच्चतर से उच्चतम, उच्चतम से सर्वोच्च और अन्तिम की ओर गति करते रहे और कम समय में सांसारिकता से मन स्तर को उपर उठाकर परिवर्तन को धारण करते हुए सांसारिकता का संचालन कर सके। यदि मनुष्य परिवर्तन को संसार के लिए समझ स्वयं में परिवर्तन नहीं लाता तो यहीं परिवर्तन एक समय पर बुरा प्रभाव डालते हुए अन्ततः उसके शरीर को भी शीघ्र ही परिवर्तित कर देता है।
14. जिस प्रकार अदृश्य हवा, बिजली इत्यादि का रुप बिना साधन के व्यक्त नहीं होता उसी प्रकार अदृश्य आत्मा का दृश्य रुप भी बिना साधन शरीर के व्यक्त नहीं होता। शरीर से एकात्म का व्यक्त होना ही आत्मा का व्यक्त होना है जब कि सम्पूर्ण विश्वव्यापी और सर्वोच्च एकात्म ज्ञान, एकात्म कर्म और एकात्म ध्यान का व्यक्त होना ही आत्मा का पूर्ण दृश्य व्यक्त होना है। जिस शरीर से एकात्म अर्थात् सार्वभौम सत्य-सिद्धान्त व्यक्त होता है उसे साकार-सगुण-ईश्वर तथा सार्वभौम सत्य-सिद्धान्त को निराकार निर्गुण ईश्वर कहते हैं। जिस प्रकार बिना सगुण (माध्यम या शरीर) के निर्गुण (हवा, बिजली, सत्य-सिद्धान्त) की प्रमाणिकता असम्भव है उसी प्रकार बिना निर्गुण के सगुण की प्रमाणिकता असम्भव है।
इस प्रकार हम पाते है कि ज्ञान का अर्थ सिर्फ सार्वभौम एकत्व है जिसका अन्त ”सार्वभौम सत्य“ के रूप में ”गीता“ द्वारा तथा ”सार्वभौम सत्य-सिद्धान्त“ के रूप में ”विश्वशास्त्र“ द्वारा हो चुका है। इस ज्ञान के अलावा सभी ज्ञान, विज्ञान, तकनीकी तथा समाज का ज्ञान है। अभी ज्ञान का अन्त हुआ है। फिर विज्ञान के ज्ञान का अन्त होगा और उसके बाद तकनीकी के ज्ञान का भी अन्त हो जायेगा। विज्ञान के अन्त ”गाॅड पार्टीकील“ अर्थात एक ऐसा कण जो ईश्वर की तरह हर जगह है और उसे देख पाना मुश्किल है जिसके कारण कणों में भार होता है, के खोज के लिए ही जेनेवा (स्विट्जरलैण्ड-फ्रंास सीमा पर) में यूरोपियन आर्गनाइजेशन फाॅर न्यूक्लियर रिसर्च (सर्न) द्वारा रूपये 480 अरब के खर्च से महामशीन लगाई गई है। जिसमें 15000 वैज्ञानिक और 8000 टन की चुम्बक लगी हुई है।
”विश्वशास्त्र“, विकास क्रम के उत्तरोत्तर विकास के क्रमिक चरणों के अनुसार लिखित है जिससे एक प्रणाली के अनुसार पृथ्वी पर हुए सभी व्यापार को समझा जा सके। फलस्वरूप मनुष्य के समक्ष व्यापार के अनन्त मार्ग खुल जाते हैं। किसी भी सिनेमा अर्थात फिल्म को बीच-बीच में से देखकर डाॅयलाग की भावना व कहानी को पूर्णतया नहीं समझा जा सकता। मनुष्य समाज में यही सबसे बड़ी समस्या है कि व्यक्ति कहीं से कोई भी विचार या वक्तव्य या कथा उठा लेता है और उस पर बहस शुरू कर देता है। जबकि उसके प्रारम्भ और क्रमिक विकास को जाने बिना समझ को विकसित करना असम्भव होता है। ज्ञान सूत्रों का संकलन और उसे चार वेदों में विभाजन, उसे समझने-समझाने के लिए उपनिषद्, पुराण इत्यादि के वर्गीकरण व क्रमिक विकास का कार्य सदैव चलता रहा है। काल और युग के अनुसार यह कार्य सदैव होता रहा है। जिससे समाज के सत्यीकरण का कार्य होता रहा है। सामाजिक विकास के क्षेत्र में परिवर्तन, देश-काल के परिस्थितियों के अनुसार किया जाता रहा है जबकि सत्यीकरण मूल सार्वभौम सत्य-सिद्धान्त से जोड़कर किया जाने वाला कार्य है। सत्यीकरण, अवतारों की तथा परिवर्तन मनुष्यों की कार्य प्रणाली है। इस क्रम में प्रयोग किया गया शास्त्र, अपने समस्त पिछले शास्त्रों का समर्थन व आत्मसात् करते हुए ही होता है, न कि विरोध। किसी भी विषय की शक्ति सीमा निर्धारित करना, उसका विरोध नहीं होता बल्कि उसे और आगे विकसित करने के बिन्दु को निर्धारित करता है।
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