पृष्ठभूमि, जन्म एवं निवास स्थल
भारत देश
भारत को एक सनातन राष्ट्र माना जाता है क्योंकि यह मानव सभ्यता का पहला राष्ट्र था। भारतीय दर्शन के अनुसार सृष्टि उत्पत्ति के पश्चात् ब्रह्मा के मानसपुत्र स्वायंभुव मनु ने व्यवस्था सम्भाली। इनके दो पुत्र, प्रियव्रत और उत्तानपाद थे। उत्तानपाद भक्त ध्रुव के पिता थे। इन्हीं प्रियव्रत के 10 पुत्र थे। 3 पुत्र बाल्यकाल से ही विरक्त थे। इस कारण प्रियव्रत ने पृथ्वी को सात भागों में विभक्त कर एक-एक भाग प्रत्येक पुत्र को सौंप दिया। इन्हीं में से एक थे-आग्नीध, जिन्हें जम्बूद्वीप का शासन कार्य सौंपा गया। वृद्धावस्था में आग्नीध ने अपने 9 पुत्रों को जम्बूद्वीप के विभिन्न 9 स्थानों का शासन दायित्व सौंपा। इन 9 पु़त्रों में सबसे बड़े थे-नाभि, जिन्हें हिमवर्ष का भू-भाग मिला। इन्होंने हिमवर्ष को स्वयं के नाम से जोड़कर, अजनाभवर्ष प्रचारित किया। यह हिमवर्ष या अजनाभवर्ष ही प्राचीन भारत देश था। राजा नाभि के पुत्र थे-ऋषभ। ऋषभदेव के 100 पुत्रों में भरत ज्येष्ठ एवं सबसे गुणवान थे। ऋषभदेव ने वानप्रस्थ लेने पर उन्हें राजपाट सौंप दिया। पहले भारतवर्ष का नाम ऋषभदेव के पिता नाभिराज के नाम पर अजनाभवर्ष प्रसिद्ध था। भरत के नाम से ही लोग अजनाभखण्ड को भारतवर्ष कहने लगे। विष्णु पुराण, वायु पुराण, लिंग पुराण, श्रीमद्भागवत, महाभारत इत्यादि में भारत का उल्लेख आता है। इससे पता चलता है कि महाभारत काल से पहले ही भारत नाम प्रचलित था। एक अन्य मत के अनुसार दुष्यन्त और शकुन्तला के पुत्र भरत के नाम पर भारत नाम पड़ा परन्तु विभिन्न स्रोतों में वर्णित तथ्यों के आधार पर यह मान्यता गलत साबित होती है। पूरी वैष्णव परम्परा और जैन परम्परा में बार-बार दर्ज है कि समुद्र से लेकर हिमालय तक फैले इस देश का नाम प्रथम तीर्थंकर दार्शनिक राजा भगवान ऋषभदेव के पुत्र भरत के नाम पर भारतवर्ष पड़ा। इसके अतिरिक्त जिस पुराण में भारतवर्ष का विवरण है वहाँ इसे ऋषभ पुत्र भरत के नाम पर ही पड़ा बताया गया है। इस सम्बन्ध में यह ध्यान देना होगा कि 7वें मनु के आगे 2 वंश हो गये थे-पहला इक्ष्वाकु या सूर्यवंश और दूसरा चन्द्रवंश। इसी चन्द्रवंश में दुष्यन्त-शकुन्तला के पुत्र भरत का जन्म हुआ। जिसका स्पष्ट उल्लेख ब्रह्मवैवर्त पुराण में है। इस सन्दर्भ में गीता के विभिन्न श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण, अर्जुन को भारत कह कर सम्बोधित करते हैं। इसके अतिरिक्त ऋषभ पुत्र भरत तथा दुष्यन्त पुत्र भरत में 6 मन्वन्तर का अन्तराल है। अतः यह देश अत्यन्त प्राचीन काल से ही भारत है।
भारत गणराज्य, पौराणिक जम्बूद्वीप, दक्षिण एशिया में स्थित भारतीय उपमहाद्वीप का सबसे बड़ा देश है। भारत भौगोलिक दृष्टि से विश्व का सातवाँ सबसे बड़ा और जनसंख्या की दृष्टि से दूसरा बड़ा देश है। भारत के पश्चिम में पाकिस्तान, उत्तर-पूर्व में चीन-नेपाल-भूटान और पूर्व में बांग्लादेश-म्यांमार देश स्थित है। हिन्द महासागर में इसके दक्षिण-पश्चिम में मालदीव, दक्षिण में श्रीलंका और दक्षिण-पूर्व मंे इण्डोनेशिया है। इसके उत्तर में हिमालय पर्वत है और दक्षिण में हिन्द महासागर है। पूर्व में बंगाल की खाड़ी है तथा पश्चिम में अरब सागर है। भारत में कई बड़ी नदिया हैं। गंगा नदी भारतीय सभ्यता में अत्यन्त पवित्र मानी जाती हैं। अन्य बड़ी नदियाँ नर्मदा, ब्रह्मपुत्र, यमुना, गोदावरी, कावेरी, कृष्णा, चम्बल, सतलज, व्यास हैं। यह विश्व का सबसे बड़ा लोकतन्त्र है। यहाँ 300 से अधिक भाषाएँ बोली जाती हैं। यह विश्व की कुछ प्राचीनतम सभ्यताओं का पालना रहा है जैसे-सिन्धु घाटी सभ्यता और महत्वपूर्ण ऐतिहासिक व्यापार पथो का अभिन्न अंग रहा है। विश्व के चार प्रमुख धर्म-सनातन-हिन्दू, बौद्ध, जैन तथा सिख भारत में जन्में और विकसित हुए।
भगवान के सभी अवतार इसी प्राचीन भारत में अवतरित हुए। विश्वधर्म अर्थात् सार्वभौम धर्म के प्रति विश्व का ध्यानाकर्षण करने वाले योद्धा सन्यासी राष्ट्रपुत्र स्वामी विवेकानन्द इसी भारत में जन्म लिये थे।
बिहार राज्य
बारहवीं सदी में बख्तियार खिलजी ने बिहार पर अधिपत्य जमा लिया। उसके बाद मगध, देश की प्रशासनिक राजधानी नहीं रहा। जब शेरशाह सूरी ने सोलहवीं सदी में दिल्ली के मुगल बादशाह हुमायूँ को हराकर दिल्ली की सत्ता पर कब्जा किया तब बिहार का नाम पुनः प्रकाश में आया, पर यह अधिक दिनों तक नहीं रह सका। अकबर ने बिहार पर कब्जा करके बिहार का बंगाल में विलय कर दिया। इसके बाद बिहार की सत्ता की बागडोर बंगाल के नबाबों के हाथ में चली गई।
1857 के स्वतन्त्रता संग्राम के प्रथम सिपाही विद्रोह में बिहार के बाबू कँुवर सिंह ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। 1912 में बंगाल का विभाजन के फलस्वरूप बिहार नाम का राज्य अस्तित्व में आया। 1935 में उड़ीसा इससे अलग कर दिया गया। स्वतन्त्रता संग्राम के दौरान बिहार के चम्पारण के विद्रोह को, अंग्रेजों के खिलाफ बगावत फैलाने में अग्रगण्य घटनाओं में से एक गिना जाता है। स्वतन्त्रता के बाद बिहार का एक और विभाजन हुआ और सन् 2000 में झारखण्ड राज्य इससे अलग कर दिया गया। भारत छोड़ो आन्दोलन में भी बिहार की गहन भूमिका रही।
मुंगेर और बेगूसराय
मुंगेर, भारत गणराज्य के बिहार राज्य में स्थित एक शहर और जिला है। महाभारत काल का मोदगिरी आज मुंगेर के नाम से जाना जाता है। मुंगेर, बंगाल के अन्तिम नबाब मीरकासिम की राजधानी भी था। यहीं पर मीरकासिम ने गंगा नदी के किनारे एक भव्य किले का निर्माण कराया था। यह किला 1934 में आए भीषण भूकम्प से क्षतिग्रस्त हो गया था लेकिन इसका अवशेष अभी भी शेष है। इस किले के सम्बन्ध में कहा जाता है कि यह महाभारत काल का ही है। यहीं पर कष्टहरिणी घाट हिन्दू धर्मावलम्बियों के लिए पवित्र माना जाता है। प्रचलित किंवदंतियों के अनुसार गंगा नदी के घाट पर स्नान करने से एक व्यक्ति का सभी कष्ट दूर हो गया था, उसी वक्त से इस घाट को कष्टहरिणी घाट के नाम से जाना जाता है। इस पवित्र घाट के समीप ही नदी के बीच में माता सीता चरण का मन्दिर स्थित है। यहाँ जाने के लिए नाव का सहारा लिया जाता है।
1870 ईस्वी में बेगूसराय, मुंगेर जिले के सब-डिवीजन के रूप में स्थापित हुआ। 1972 (लवकुश सिंह ”विश्वमानव“ के जन्म के 5 वर्ष बाद) में बेगूसराय, बिहार राज्य का स्वतन्त्र जिला बना जो मध्य बिहार में स्थित है। बेगूसराय, बिहार के औ़द्यौगिक नगर के रूप में जाना जाता है। यहाँ मुख्य रूप से तीन बड़े उद्योग हैं-इण्डियन आॅयल कारपोरेशन लिमिटेड का बरौनी तेलशोधक कारखाना, बरौनी थर्मल पावर स्टेशन और हिन्दुस्तान फर्टिलाइजर। इसके अलावा कई छोटे-छोटे और सहायक उद्योग भी हैं। यहाँ कृषि उद्योगों की सम्भावना अधिक है। इण्डियन आॅयल कारपोरेशन लिमिटेड के बरौनी तेलशोधक कारखाना के कर्मचारीयों के निवास स्थान के लिए निर्मित टाउनशिप के अस्पताल में ही सोमवार, 16 अक्टुबर, 1967 को सनातन धर्म के दसवें और अन्तिम महा-अवतार श्री लव कुश सिंह ”विश्वमानव“ का जन्म हुआ था। बेगूसराय शहर पूरब से पश्चिम लम्बवत् रूप से राष्ट्रीय राजमार्ग से जुड़ा है। इसके उत्तर में समस्तीपुर, दक्षिण में गंगा नदी और लक्खीसराय, पूरब में खगड़िया और मुंगेर तथा पश्चिम में समस्तीपुर और पटना जिले हैं। बेगूसराय, बिहार और देश के दूसरे भागों से सड़क और रेलमार्ग से अच्छी तरह जुड़ा हुआ है। नई दिल्ली-गुवाहाटी रेलवे लाईन, बेगूसराय होकर गुजरती है। बेगूसराय से 5 किलोमीटर की दूरी पर ऊलाव में एक छोटा हवाई अड्डा भी है, जहाँ नगर आने वाले महत्वपूर्ण व्यक्तियों का आगमन होता है। बरौनी जंक्शन से दिल्ली, गुवाहाटी, अमृतसर, वाराणसी, लखनऊ, मुम्बई, चेन्नई, कोलकाता आदि महत्वपूर्ण शहरों के लिए रेलगाड़िया चलती हैं। गंगा नदी पर राजेन्द्र पुल उत्तर और दक्षिण बिहार को जोड़ता है। यहीं प्रसिद्ध सिमरिया घाट है, मान्यता है कि सीता माता यहाँ मिथिला से गंगा स्नान करने आती थीं। श्री लव कुश सिंह ”विश्वमानव“ भी अपने बाल्यकाल में इस घाट पर अनेकों बार स्नान और कार्तिक मास में लगने वाले मेले तथा छठ पर्व के पुण्य को प्राप्त कर चुके हैं। प्रसिद्ध कवि रामधारी सिंह ”दिनकर“ का जन्म स्थान भी यही सिमरिया गांव ही है। राष्ट्रीय राजमार्ग संख्या 28 और 31 बेंगूसराय से होकर गुजरती है।
जन्म
सोमवार, 16 अक्टुबर, 1967 (आश्विन, शुक्त पक्ष-त्रयोदशी, रेवती नक्षत्र)
-भारत का मध्यम स्वतन्त्रता-आर्थिक व मानसिक स्वतन्त्रता का समय।
-भारत में एकदलीय सरकार।
-स्वामी विवेकानन्द के चिरशान्ति में लीन होने के 65 वर्ष 3 माह 11 दिन बाद का समय।
-लियोनिड (लियो-सिंह राशि) उल्काओं का अमेरिका में प्रथम बौछार के 10 माह 29 दिन बाद का समय।
-अंक 7 (दिनांक 16 का 1 व 6 जोड़ने पर)-एक ऐसा जन्मांक जो षुभ माना जाता है।
-दिनांक 16-एक ऐसा दिनांक जो माह के बीच में रहकर संतुलन स्थापित करता है।
-श्रीराम की जन्म तिथि नवमी (9) है, श्रीकृष्ण की जन्म तिथि अष्टमी (8) है। 9 के अंक का किसी अंक से गुणा करें, सारांश (अंको का योग) 9 ही रहता है। 8 का गुणा घटता-बढ़ता रहता है। अंक 8 लौकिक-संसारी है, 9 जटिल है जस का तस रहता है। डाॅ0 लोहिया का कहना था-”राम मनुष्य हैं, मर्यादा और आदर्श पर चलते हुए देव बनते हैं, लेकिन कृष्ण देवता हैं। वे लोक संग्रह के लिए मनुष्य बनते हैं, देवत्व से नीचे उतरते हैं। राम और कृष्ण, भारतीय प्रज्ञा के सम्राट हैं।“ इसी क्रम में लव कुश सिंह का जन्म तिथि त्रयोदशी (13) है। प्रत्येक मास में कृष्ण पक्ष की तेरहवीं तिथि की रात्रि मास शिवरात्रि तथा फाल्गुन मास की कृष्ण पक्ष की तेरहवीं तिथि की रात्रि महाशिवरात्रि कहलाती है। हिन्दू धर्म में मनुष्य के जन्म के बारहवीं तिथि के संस्कार को बरही तथा शरीर से मुक्त होने के तेरहवीं तिथि के अन्तिम संस्कार को तेरहवीं कहते हैं अर्थात् तेरह का अंक शिवशंकर का प्रतीक और दिन सोमवार जो शिव-शंकर का दिन माना जाता है।
-माह अक्टुबर-एक ऐसा माह जिसमें सार्वाधिक महापुरूषों और सार्वजनिक जीवन में सफल व्यक्तियों ने जन्म ग्रहण किया। जैसे-डाॅ0 एनी वुड बेसेन्ट, अग्रणी थियोसोफिस्ट, (1 अक्टुबर), राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी (2 अक्टुबर), ”जय जवान-जय किसान“ का नारा देने वाले व काशी क्षेत्र के निवासी भूतपूर्व द्वितीय प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री (2 अक्टुबर), फिल्म अभिनेता राजकुमार (8 अक्टुबर), फिल्म अभिनेत्री रेखा (10 अक्टुबर), ”सम्पूर्ण क्रान्ति“ के उद्घोषक लोक नायक जय प्रकाश नारायण (11 अक्टुबर), नानाजी देशमुख व महानायक फिल्म अभिनेता अमिताभ बच्चन (11 अक्टुबर), ”मिसाइल मैन“ के नाम से विख्यात पूर्व राष्ट्रपति ए. पी. जे. अब्दुल कलाम (15 अक्टुबर), ”ड्रीम गर्ल“ के नाम से विख्यात अभिनेत्री हेमामालिनी (16 अक्टुबर), अभिनेता शमशेर राजकपूर उर्फ शम्मी कपूर (21 अक्टुबर), भारत के पूर्व राष्ट्रपति के. आर. नारायणन(27 अक्टुबर), माइक्रोसाफ्ट के संस्थापक विलियम हेनरी गेट्स-।।। (28 अक्टुबर), भारत के शारीरिक एकीकरण करने वाले लौहपुरूष सरदार बल्लभ भाई पटेल (31 अक्टुबर) इत्यादि।
-माह अक्टुबर (विश्व स्तर पर) एक ऐसा माह जिसमें सार्वाधिक जीवन के विभिन्न क्षेत्रों से जुड़े विश्व दिवसों का आयोजन व निर्धारण हो चुका था-विश्व प्रौढ़ दिवस एवं विश्व संगीत दिवस (1 अक्टूबर), महात्मा गाॅधी के जन्म दिवस पर अन्तर्राष्ट्रीय अहिंसा दिवस (2 अक्टूबर), विश्व प्राकृतिक दिवस (3 अक्टूबर), विश्व आवास दिवस एवं विश्व पशु कल्याण दिवस (4 अक्टूबर), विश्व पारिस्थितिक दिवस (5 अक्टूबर), विश्व शिक्षक दिवस (5 अक्टूबर), विश्व प्राणी दिवस (6 अक्टूबर), विश्व डाक दिवस (9 अक्टूबर), विश्व मानसिक स्वास्थ्य दिवस (10 अक्टूबर), विश्व मानक दिवस (14 अक्टूबर), विश्व खाद्य दिवस (16 अक्टूबर), विश्व मितव्ययिता दिवस (28 अक्टूबर)।
-माह अक्टुबर (भारत देश स्तर पर) एक ऐसा माह जिसमें सार्वाधिक जीवन के विभिन्न क्षेत्रों से जुड़े राष्ट्रीय दिवसों का आयोजन व निर्धारण हो चुका था। जैसे-राष्ट्रीय स्वैच्छिक रक्तदान दिवस व वयोबृद्ध दिवस (1 अक्टूबर), राष्ट्रीय अखण्डता दिवस (4 अक्टूबर), वायुसेना दिवस (8 अक्टूबर), प्रादेशिक सेना दिवस (9 अक्टूबर), सफेद छड़ी दिवस (15 अक्टूबर), सीमा सुरक्षा दिवस व पुलिस स्मरण दिवस (21 अक्टूबर), राष्ट्रीय एकता दिवस (31 अक्टूबर) इत्यादि।
-बिहार के बेगूसराय जिले के रिफाइनरी टाउनशिप में स्थित इण्डियन आॅयल कार्पोरेशन के अस्पताल में लव कुश सिंह का जन्म समय 02. 15 ए. एम. बजे। इनकी माता का नाम श्रीमती चमेली देवी तथा पिता का नाम श्री धीरज नारायण सिंह जो इण्डियन आॅयल कार्पारेशन लि0 (आई. ओ. सी. लि.) के बरौनी रिफाइनरी में कार्यरत थे और उत्पादन अभियंता के पद से सन् 1995 में स्वैच्छिक सेवानिवृत हो चुके हंै। दादा का नाम स्व. राजाराम व दादी का नाम श्रीमती दौलती देवी था। जन्म के समय दादा स्वर्गवासी हो चुके थे।
मुंगेर - राम का जन्म स्थान
(साभार-प्रस्तुत शोध-सत्य पं0 नरेश चन्द्र मिश्र, निवासी - लखी सराय, बिहार प्रदेश, भारत द्वारा प्रस्तुत है जो जौनपुर, उत्तर प्रदेश, भारत से प्रकाशित ”खुला सच“ मासिक पत्रिका के अप्रैल, 2001 के अंक में प्रकाशित हुई थी।)
प्रचलित अयोध्या की बाबरी मस्जिब और उसी में श्रीराम की जन्मभूमि प्रसंग पर धर्म की आड़ में मजहबी जुनून में कितनी खून की होली खेली गयी है, कहना व्यर्थ है। फिर भी प्रशासन मौन है, इतिहास और पुरातत्वविद् किंकत्र्तव्यविमूढ़ हैं। किसी ने भी कभी इतिहास और पुरातत्व के आईने में देखने और जानने का प्रयत्न नहीं किया कि अयोध्या विवादास्पद भी तो हो सकती है। रामायण के अन्त में कह दिया गया है कि राम के स्वर्गारोहण पर अयोध्या लुप्त हो गयी। पुनः कृतयुग में राजा ऋषभ इसे बसयजन्म के समय दादा स्वर्गवासी हो चुके थे। बसायेंगे। अतएव वह अयोध्या अद्यतन भविष्य के गर्भ में है। दीर्घ अन्तराल पर रामायण कालीन साक्ष्य हमें सही रूप में प्राप्त हो सकते हैं, यदि उनके भौगोलिक परिवेश पर सावधानीपूर्वक ध्यान दिया जाये।
आज की आम धारणा है कि रामायण कल्पना प्रसूत है। कतिपय स्थानों के उत्खनन से भी साक्ष्य नहीं मिलने के कारण उक्त धारणा को बल मिला है। डाॅ0 बी0 बी0 लाल के सहयोग के रूप में वर्षों तक उत्खनन के अनन्तर भी रामायण कालीन साक्ष्य प्राप्त नहीं करने पर डाॅ0 स्वरूप प्रसाद गुप्त अपनी झुंझलाहट व्यक्त करते हुये कहते हैं-”तब क्या ये सब स्थान वे नहीं, जिनका नाम हमें रामायण में मिलता है? तो कौन से नये नन्दिग्राम, श्रंगेश्वरपुर, प्रयाग और चित्रकूट हैं, वहाँ हम जायें? बतलायें न ये इतिहासकार, हम वहीं चलें। (साभार-पांचजन्य, 11 फरवरी, 1990, पृष्ठ-9)“
उत्खनन के बाद भी साक्ष्य प्राप्त नहीं करने पर अयोध्या, चित्रकूट आदि की गरिमा पर प्रश्नवाचक चिन्ह लगाना प्रस्तुत आलेख का अभीष्ट नहीं। हमारी धार्मिक मान्यता उनसे जुड़ी है, पर इतिहास को हमारी धार्मिक मान्यता नहीं चाहिए, उसे पुरातत्व साक्ष्य चाहिए। ये साक्ष्य चाहे कल्प-भेद के ही नाम पर क्यों न हो। यद्यपि इतिहास में कल्पभेद का स्थान नहीं, पर इससे क्या? इतिहास को साक्ष्य चाहिए और उसे प्रस्तुत करना ही मेरे प्रयत्न का अभिष्ट है।
महर्षि वाल्मीकि ने सर्वप्रथम रामायण की रचना की। ”रामायण सत कोटि अपारा“ का वही उत्स बनी। मगर उसकी मूल प्रति आज है कहाँ? प्रो0 जैकोबी और फ्रांस के पुरातत्वविद् लेवी आदि विद्वानों ने स्वीकार किया है कि वाल्मीकि ने रामायण में सिर्फ पाँच काण्डों की ही रचना की थी। बालकाण्ड और उत्तरकाण्ड बाद में जोड़े गये, जिनकी रचना उन्होंने नहीं की थी। रेवरेण्ड फादर बुल्के ने अपनी पुस्तक ”राम कथा“ में लिखा है कि रामायण वस्तुतः राम के वनवास काल के पर्यटन का प्रतीक है। आगे चलकर लोगों में जब क्रमशः इस भावना ने जन्म लिया कि रावण कौन था, दशरथ की किस पत्नी से किस पुत्र का जन्म हुआ आदि जिज्ञासा शान्ति हेतु बालकाण्ड और उत्तरकाण्ड रचे गये। इस प्रकार वाल्मीकि ने सिर्फ राम के वनवास काल का वर्णन किया। बाद में लोगों ने तोड़-मरोड़कर राम का सम्पूर्ण चरित्र उपस्थित करने के नाम पर जिस रामायण की रचना की, वही प्रति वाल्मीकि कृत अभिंहित हुई। इसी आधार पर बाद की लिखी रामायण तो ”हिज मास्टर्स वाॅयस“ मात्र रही। इतिहास भी साक्षी है, मौर्य शासन काल से रामायण में संशोधन सह परिवर्द्धन होता रहा, जो 16वीं शताब्दी तक रहा। इसी अन्तराल में सम्राट विक्रमादित्य ने वीरान सरयू नदी के तट पर एक मन्दिर की स्थापना की और वहीं अयोध्या नाम की नगरी बसी। यह मात्र जनश्रुति है, जिसका उद्घाटन मार्टिन, टिफेन्थेलर और कर्निधम ने किया। फिर तो बिना भू-भाग की पहचान किये जनश्रुति को ही आधार मानकर यत्र-तत्र रामायण कालीन स्थान के कल्पना तीर्थ की स्थापना कर ली गयी।
गड़बड़ी वहीं से शुरू होती है जब महाराज दशरथ अपनी पुत्री शान्ता अपने मित्र अंगाधिपति लोमपाद को गोद देते हैं। इसके साथ ही रामायण में लोमपाद की भूमिका समाप्त कर दी गयी। फिर कहीं उस नाम की चर्चा तक नहीं होती। यह कैसा दोनों के बीच मित्रता का विचित्र सम्बन्ध था, चिन्त्य है। अगर दशरथ अपना पुत्र गोद देते तो कम से कम लोमपाद का उत्तराधिकारी तो बनता, किन्तु पुत्री को गोद देना अपने में विचित्र घटना है। बाद में तो दशरथ को चार पुत्र हुए, मित्रता के नाम पर एक भी तो लोमपाद को गोद देते, पर ऐसा नहीं हुआ।
मत्स्य पुराण अध्याय-48 में लिखा है-आनववंशी राजा बलि के ज्येष्ठ पुत्र अंग अंगाधिपति हुए। उनकी छठीं पीढ़ी में राजा दशरथ हुए, जिनकी पुत्री शान्ता थी। यथा-
तस्य सत्यरथः पुत्रस्तस्माद् दशरथ किल।
लोमपाद इति ख्यातस्तस्य शान्ता सुता भवत्।।
अथ दाशरथीवीरः चतुरंगो महायशः।
ऋष्यश्रृंग प्रसादेन यज्ञे स्वकुलवर्धन।।
अर्थात - उनका (चित्राथ का) पुत्र सत्यरथ हुआ। उससे दशरथ का जन्म हुआ, जो लोमपाद के नाम से विख्यात थे। उनको शान्ता नाम की एक कन्या हुई। ऋष्यश्रृंग के प्रसाद से कुलवर्धन चतुरंग का जन्म हुआ।
महर्षि सूत जी का यह कथन बड़ा महत्व रखता है। यह बड़ी विचित्र बात है कि एक दशरथ ने दूसरे दशरथ को अपनी पुत्री शान्ता गोद दी। दोनों निःसन्तान दशरथ की पुत्री थी? रामायण के अनुसार भी अगर शान्ता उस दशरथ की पुत्री थी, जिसके पुत्र राम, लक्ष्मण, भरत और शत्रुध्न हुए, तब भी स्वीकार करना होगा कि लोमपाद ही वह दशरथ थे।
इसी तरह दशरथ कोशलेश नहीं, अंगाधिपति थे। दशरथ और उनकी पत्नी कौशल्या दोनों का सम्बन्ध कौशल से हो, जंचने वाली बात नहीं है। यद्यपि रामायणकार ने इस भ्रम के निवाराणार्थ दो कोशल की रचना कर डाली है। यदि वे इक्ष्वाकुकुल से सम्बन्धित रहते, तो यज्ञ रक्षार्थ सिद्धाश्रम जाते हुए महर्षि विश्वामित्र, मार्ग में राम से यह कभी नहीं कहते कि यह देश पहले कुकुत्स्थ (इक्ष्वाकु पौत्र) के वंश में था। जैसा कि वाल्मीकि रामायण में लिखा है। यहाँ यह भी विचारणीय है कि इक्ष्वाकु के पुत्र निमि ही प्रथम जनक हुए, जिनकी परम्परा के जनक की पुत्री ही और भतीजियों की दशरथ के पुत्रों से शादी हुई। इस तरह दोनों का कुल इक्ष्वाकु हो जाता और संगोत्रीय विवाह का दोष होता है।
प्रचलित रामायण के अनुसार इक्ष्वाकु ने अयोध्या नाम की नगरी बसायी थी। मत्स्य पुराण अध्याय-12 के अनुसार इक्ष्वाकु के पौत्रों ने सुमेरू पर्वत के उत्तर और दक्षिण पाश्र्व में अपनी राजधानी बनायी थी। यथा-
इक्ष्वाकोः पुत्रतामाप विकुक्षिर्नाम देवराष्ट्र।
ज्येष्ठः पुत्र शतस्यासीद दशपंच च तत्सुता।।
मेरोरूत्तर तस्ते तु जाताः पार्थिव सत्तमाः।
चतुर्दशोत्तरचान्यच्छतमस्य तथा भवन्।
मेरोर्दक्षिण तौ वे राजानः सम्प्रकीर्तिता।।
अर्थात-देवराज विकुक्षि इक्ष्वाकु के पुत्र के रूप में उत्पन्न हुये। वे इक्ष्वाकु के सौ पुत्रों में ज्येष्ठ थे। उनके पन्द्रह पुत्र थे, जो सुमेरू गिरि की उत्तर दिशा में श्रेष्ठ राजा हुए। विकुक्षि के एक सौ चैदह पुत्र और हए थे, जो सुमेरू गिरि की दक्षिण दिशा के शासक कहे गये है।
मत्स्य आदि पुराणों में मेरू-सुमेरू पर्वत की जो भौगोलिक स्थिति दी गयी है, उसके अनुसार बिहार राज्य के अन्तर्गत मुंगेर प्रमण्डल मुख्यालय से दक्षिण-पश्चिम आज मैरा पहाड़ के नाम से जाना जाता है। उक्त पुराणों के अनुसार मेरू पर्वत की पश्चिम दिशा में विपुल पर्वत (राजगृह का), पूर्व दिशा में मन्दराचल (भागलपुर के बांसी का), दक्षिण दिशा में गन्धमादन (जमुई जिला का) और उत्तर दिशा में सुपाश्र्व (लखी सराय का) है। आनन्द रामायण के अनुसार राम, सीता के साथ पुष्पक विमान द्वारा गया शहर से पूर्व दिशा की ओर चलकर मगध होते मेरू पर्वत पर आये थे। इस पर्वत के उत्तर और दक्षिण में बहने वाली नदी ”मोरवे“ कहलाती है। मैरा पहाड़ और मोरवे नदी, मेरू का अपभ्रंश है। स्थानीय इसे श्रृंगी ऋषि पहाड़ कहते हैं क्योंकि यही विभाण्डक ऋषि के पुत्र श्रृंगी ऋषि का आश्रम था। वाल्मीकि रामायण बालकाण्ड के अनुसार अंगाधिपति लोमपाद की राजधानी से इसकी दूरी 3 योजन (12 कोस) बतलायी गयी है, जो मुंगेर शहर से ठीक मिल जाती है। आज भी इस पर्वत के उत्तर पाश्र्व में सुमेरू बाबा की पूजा होती है।
इसी पर्वत के उत्तर दिशा में दो कोस की दूरी पर ”अयोध्या“ नामक गाँव है। पुनः उत्तर दिशा में दो कोस की दूरी पर गंगा नदी के तट पर ”सूर्यगढ़ा“ नामक प्रसिद्ध स्थान है, जो सूर्य और सूर्यवंशी राजाओं के गढ़ के नाम मत्स्य पुराण उक्ति सार्थक करता है। सरकार ने तो इसे पर्यटन केन्द्र के रूप में विकसित करना भी प्रारम्भ कर दिया है। सूर्यगढ़ा से लगभग 3 कोस पश्चिम ”मानो“ नामक गाँव सूर्यपुत्र, वैवश्यत मनु का तथा यहाँ से 4 कोस पश्चिम ”नरीगढ़“ मनुपुत्र नरिष्यन्त के गढ़ का प्रतीक है, जो कोसों के क्षेत्र में जंगल में परिणत है। गाँव ”अयोध्या“ से 2 कोस पश्चिम ”गोहरी“ नामक गाँव है। ”गोहरी“, ”गो“ और ”हरी“ से बना है। यहीं पर महर्षि वशिष्ठ का आश्रम था। यहीं से उनकी गौ (कामधेनु) हरी (हरण) गयी थी। पुत्रशोकार्थ महर्षि वशिष्ठ जिस सुमेरू पर्वत के श्रृंग से कूदकर प्राणान्त करना चाहते थे, वह गोहरी गाँव से मात्र दो कोस पूर्व दिशा में है। कालिदास प्रणीत ”रघुवंश“ के दिलीप वृत्त के अनुसार अयोध्या और वशिष्ठ आश्रम के मध्य वन खण्ड का प्रसंग है, वह इस स्थान को देखने से यथार्थ प्रतीत होता है।
उक्त मेरू पर्वत के दक्षिण पाश्र्व में भी इक्ष्वाकु राजा की राजधानी थी। जमुई जिले का सम्पूर्ण भू-भाग दण्डकाय था। अरण्य तो आज कट चुका है परन्तु दण्ड के नाम पर ”दण्ड“ नामक गाँव है। इसी के समीप ”काकन“ नामक गाँव है। जनश्रुति के अनुसार यही किष्किन्धा है। पुरातत्वविद् बी0 सी0 भट्टाचार्य ने भी ”द जैन आइकाॅनोग्राफी“ के पृष्ठ-65 में इसे किष्किन्धा ही स्वीकार किया है।
उक्त मेरू पर्वत का उत्तरी श्रृंग ”नीलगिरि“ कहलाता था। शिखर पर स्वच्छ जलपूर्ण सरोवर है। यही पर ऋक्षराज से बालि और सुग्रीव का जन्म हुआ था। काकभुशुण्डि जी ने भी राम की बाल लीला के दर्शन हेतु यहीं जन्म लिया था। दुर्गम चढ़ाई के बाद सन् 1938 में मुझे इस सरोवर के दर्शन का सौभाग्य प्राप्त हुआ था। उसी के समीप प्रस्तर निर्मित कूप तथा प्रस्तर निर्मित गदा है जो 30-35 लोगों से भी नहीं उठ सके। इसी पर्वत पर विभाण्डक, श्रृंगी, पुलस्य, विश्रवा आदि ऋषियों के आश्रम थे। यहीं कुबेर, विभीषण और सूपर्णखा ने जन्म लिया था।
इसी पर्वत के उत्तर-दक्षिण पाश्र्व में ”उरेन पहाड़ी“ पर वनवास काल में राम ने चित्रकूट की पर्णशाला बनायी थी। इसलिए तो वाल्मीकि ने चित्रकूट में भरत और सीताजी को नीलगिरि कानन का दर्शन कराया है। तुलसीदास ने भी लिखा है-
गिरि सुमेरू उत्तर दिसि दूरी। नील सैल इक सुन्दर भूरि।
रामायण काल से पीछे की ओर मुड़कर देखें तो यहीं भगवान शंकर और पार्वती का क्रीड़ास्थल था। यहीं उन्होंने कामदेव को जलाया था, इसलिए इसका नाम ”अंग देश“ पड़ा। यहीं पर मनुपुत्र सु़द्युम्न का लिंग परिवर्तन हुआ था क्योंकि सुमेरू गिरि की तलहटी में सुद्युम्न शिकार खेलने आये थे और शिवजी द्वारा उनका स्थान प्रभावित था कि जो नरसंज्ञक जीव इस क्षेत्र में प्रवेश करेगा, उसका लिंग परिवर्तित हो जायेगा। भागवत पुराण स्कन्ध-9, अध्याय-1 में इसकी विशेष चर्चा है। राजधानी से चलकर विश्वामित्र के साथ राम और लक्ष्मण ने यहीं रात्रिवास किया था। इस स्थान का परिचय देते हुए विश्वामित्र ने राम से कहा था-
अनंग, इति विश्यातस्तदा प्रभूति राघव।
सचांग विषयः श्रीमान् यत्रांगं स मुमोचह।। (वाल्मीकि रामायण, बालकाण्ड)
अर्थात्-हे राम! तबसे (कामदेव के जलने पर) वह अनंग नाम से विख्यात हुआ और यह स्थान अंग देश कहलाया। क्योंकि यहीं उसने अपना अंग त्यागा था।
वाल्मीकि रामायण के अनुसार राजधानी से सिद्धाश्रम विश्वामित्र के यज्ञ रक्षार्थ राम और लक्ष्मण पैदल चले। प्रथम रात्रिवास दो कोस की दूरी पर गंगा नदी के तट पर किया और दूसरा रात्रिवास यहाँ (उरेन पहाड़ी पर) किया। राम की राजधानी मुंगेर शहर से दो कोस की दूरी पर सीताकुण्ड के पास थी। वहाँ से इस स्थान की दूरी लगभग 12 कोस की है। प्रातः काल यहाँ से प्रस्थान कर सायंकाल के पूर्व ताड़का को राम ने मारा। वह स्थान यहाँ से 6 कोस दक्षिण की टेका पहाड़ी है। यहाँ रात्रिवास कर प्रातः काल राम सिद्धाश्रम पहुँचे थे। यहीं महर्षि विश्वामित्र के यज्ञ की रक्षा राम-लक्ष्मण ने लगातार 6 दिनों तक की। विश्वामित्र ने दशरथ से सिर्फ 10 दिनों के लिए राम और लक्ष्मण को माँगा था, जिसमें पूरे 6 दिना यज्ञ रक्षार्थ व शेष चार दिन मार्ग तय हेतु थे। महर्षि के साथ पैदल चलकर राम तीसरे दिन सिद्धाश्रम पहुँच गये थे। राम की राजधानी से इसकी दूरी लगभग 20 कोस की है। इससे भी राजधानी से तीसरे दिन यहाँ पहुँचने की बात पुष्ट होती है। वाल्मीकि रामायण के अरण्य काण्ड में सिद्धाश्रम को दण्डकारण्य में बतलाया गया हे। इससे भी सिद्धाश्रम के अंग क्षेत्र में तथा दण्डकारण्य में होने की पुष्टि होती है। सिद्धाश्रम का वह स्थान वर्तमान ”अड़सार“, ”अमरथ“, ”अगहरा“ और ”मरिचा“ नामक गाँवों का क्षेत्र है, जो जमुई जिला मुख्यालय से पश्चिम की ओर लगभग 5 कोस की दूरी पर है। पुराण पुरूष (विष्णु) के आँखों से निःसृत अश्रु से बना सरोवर अश्रुसर अपभ्रंश होकर आज ”अड़सार“ कहा जाता है। सिद्धाश्रम में एक दिव्य आम्रवृक्ष पर दिव्य शिवलिंग उद्भूत हुआ, वही आम्रस्थ शिव का प्रतीक ”अमरथ“ गाँव है। एक बार वशिष्ठ जी ने राम से कहा था कि सिद्धाश्रम की भूमि पापों को हरने वाली ”धहरा“ है, वही अधहारा का प्रतीक ”अगहरा“ गाँव है। ताड़का पुत्र मारीच सिद्धाश्रम में रहता था। ”मरिचा“ नामक गाँव उसकी याद दिलाता है। ”एकात्म उपपुराण“ से सिद्धाश्रम को जाना जा सकता है।
मेरू पर्वत के उत्तर जिस ”उरेन“ की चर्चा उपर कर आया हूँ, वहीं चित्रकूट में राम ने वनवास काल में अपनी पर्णकुटी बनायी थी। चित्रकूट को ”उत्पलारण्य“ कहा जाता है। वहीं अरण्य का अपभ्रंश आज ”उरेन“ है। मेरू गिरि के उत्तर नीलगिरि कानन में चित्रकूट में राम की पर्णकुटी थी। चित्रकूट के पूर्व दिशा में कज्जल पर्वत का नाम आया है। (देखें ”माया“ पत्रिका, 31 दिसम्बर, 1990, पृष्ठ-15)। उक्त कज्जल गिरि और उसी के नाम पर ”कजरा“ नामक स्टेशन है जो किउल-जमालपुर पूर्वी रेलमार्ग पर अवस्थित है। इसी चित्रकूट से चलकर राम ने अत्रि ऋषि से भेंट की थी। वह अत्रिवन अपभ्रंश होकर अटवन/ईटीन कहा जाता है। यहाँ रात्रिवास कर राम प्रातः काल प्रस्थान कर दण्डकारण्य में प्रवेश कर जाते हैं। यहाँ से दो कोस की दूरी पर दण्डकारण्य की सीमा दक्षिण में शुरू हो जाती है। बिहार राष्ट्र भाषा परिषद्, पटना से प्रकाशित ग्रन्थ ”पुराण परिशीलन“ में भी चित्रकूट और दण्डकारण्य को सटा हुआ बताया गया है।
दक्षिण दिशा में जहाँ दण्डकारण्य की सीमा प्रारम्भ होती है, वहाँ से लगभग 4 कोस दक्षिण में विन्ध्याचल है। ”महाभारत“ में दी गयी भौगोलिक स्थिति के अनुसार आज यह मगध के दक्षिण सीमा का काम करता है। इसी पर्वत पर गिद्धराज जटायु का ज्येष्ठ बन्धु ”सम्पाति“ का निवास स्थान था। ये दोनों भाई दशरथ के परम मित्र थे। यह स्थान गिद्धेश्वर कहा जाता है। आज भी यहाँ बहुसंख्यक गिद्धों का वास रहता है। यहाँ रहस्यमयी गुफा है जिसका जिक्र रामायण में आया है। इसी विन्ध्य पर्वत पर वानरों ने ”लोध्रवनी“ में सीता की खोज की थी। वह स्थान गिद्धेश्वर से लगभग 3 कोस पर दुर्गम पहाड़ पर स्थित लोधवनी/लोधापानी है, जहाँ अति प्राचीन गढ़ का भग्नावशेष तथा प्रस्तर कूप आदि हैं। ”इन्द्र लिवन“ में हनुमान जी के पहुँचने का प्रसंग रामायण में आया है। लोधवनी से 3 कोस पश्चिम का ”शक्र-शक्राणी (इन्द्र-इन्द्राणी)“ नामक पर्वत है। एक स्वतन्त्र लेख में मैंने इसे इन्द्र की पुरी सप्रमाण सिद्ध की है यहाँ इसकी विशेष चर्चा अप्रासंगिक होगी।
सिद्धाश्रम में महर्षि विश्वामित्र का यज्ञ सम्पन्न होने पर महर्षि के साथ राम और लक्ष्मण धनुर्यज्ञ में सम्मिलित होने जनकपुर के लिए प्रस्थान करते हैं। 12 कोस की दूरी तय करने पर उत्तर दिशा में शिलवे पहाड़ तले आते हैं और वहाँ शिला बनी अहल्या का राम उद्धार करते हैं। अहल्या के शिला होने के कारण यह पहाड़ ”शिलवे“ कहा जाने लगा। यहीं गौतम ऋषि का आश्रम था। उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर शिवजी ज्योतिर्लिंंग के रूप में प्रकट हुए थे। स्थानीय ”पंचवदन“ के नाम से इनकी पूजा करते हैं। वरूण के कहने पर गौतम ने एक हाथ गहरा गड्ढा खोदा था जिसे वरूण ने अक्षय जल से भर दिया था। आज भी वह अक्षय जल ज्यों का त्यों स्वच्छ, शीतल और स्वादिष्ट है।
इसी पर्वत पर मुद्गल ऋषि का भी आश्रम था। जनकपुर से बारात सहित राम जब इस स्थान के समीप पहुँचे, धनुर्यज्ञ में पराजित राजाओं ने भयानक आक्रमण कर बाण से भरत को मूर्छित कर दिया। राम के आदेशानुसार लक्ष्मण इसी आश्रम से संजीवनी आदि बूटी ले गये थे। आज भी वह पर्वत जड़ी-बूटीयों तथा मधु से मीठे क्षीरी वृक्षों से भरा है। बाहर के लोग पर्याप्त मात्रा में वहाँ से संजीवनी और लक्ष्मण आदि बूटी ले जाते हैं। आनन्द रामायण में इसका पूरा विवरण है। विन्ध्य गिरि संलग्न शिलवे पर्वत स्थिति मुद्गल ऋषि के नाम पर मुद्गलपुर आज ”मुंगेर“ के नाम से विख्यात है। शिलवे पहाड़ अंजना नदी के तट पर है। इसी नदी के तट पर श्वेताम्बर जैन के 24वें तीर्थंकर महावीर केवली (कैवल्य प्राप्त) हए थे। तब से यह केवली का अपभ्रंश किउली नदी कहलाती है। अंजना मुद्गल ऋषि की पोती तथा गौतम की पुत्री थी इसलिये यह गौतमी नदी भी कहलायी।
अंजना से हनुमान जी का जन्म हुआ था। जमुई पूर्वी रेलवे स्टेशन से एक माइल की दूरी पर दक्षिण दिशा में आज भी अंजना नदी बहती है। उसी के ”बनरीदह“ नामक स्थान में हनुमान जी का जन्म हुआ था। प्रतिवर्ष मकर संक्रान्ति के अवसर पर बड़ा भारी मेला वहाँ लगता है। उसी के समीपवर्ती मेरू पर्वत पर उनके पिता केशरी का राज्य था। वाल्मीकि रामायण, उत्तर काण्ड के पंचतिस सर्ग में इसका उल्लेख है। पाश्चात्यविद् W.W.
Hunter us Statistical
Account of Bengal Vol.XV, Page-22 में पूरा विवरण देकर उसी स्थान को हनुमान जी का जन्म स्थान बतलाया है।
अंजना नदी के समीपस्थ पर्वत पर मोहिनी के प्रभाव से शिवजी के अमोघ वीर्य का पतन हुआ था। इसे सप्तर्षियों ने प.सम्पुट द्वारा अंजना के कर्णरन्ध्र में प्रवेश कराया था जिससे हनुमान जी की उत्पत्ति हुई थी। आज भी उक्त पर्वत पर पतनेश्वर महादेव का मन्दिर है जो अमोघ वीर्य पतन की याद दिलाता है।
महर्षि विश्वामित्र के आश्रम सिद्धाश्रम की चर्चा उपर कर चुका हुँ। महर्षि अगस्त्य का आश्रम भी उसी के पास था क्योंकि महर्षिद्वय समानरूप से ताड़का राक्षसी से प्रभावित थे। इसीलिए तो ताड़का के पति सुन्द को अगस्त्य ने मारा तथा ताड़का को विश्वामित्र ने राम से मरवाया। इसे दूसरे रूप में यों समझा जा सकता है-राम, सीता और लक्ष्मण के साथ मन्दाकिनी गंगा के तट पर सुतीक्ष्ण ऋषि से मिलकर अगस्त्य जी से मिलने को उनके आश्रम का पता पूछते हैं। सुतीक्ष्ण जी कहते हैं-यहाँ से सीधे दक्षिण की ओर 16 कोस की दूरी पर पिप्पली वन है, जहाँ मारकण्डेय ऋषि का आश्रम है। वहाँ से 4 कोस दूर दक्षिण में अगस्त्य का आश्रम है। आज भी गंगा से लगभग 16 कोस की दूरी पर ”पिपरा“ नामक गाँव पिप्पली वन की याद दिलाता है और ”कण्डे“ गाँव मार्कण्डेय का स्थान सूचित करता है। यहाँ से 4 कोस दक्षिण विन्ध्य पर्वत है। इसी के तलहटी में अगस्त्य ऋषि का आश्रम था। विश्वामित्र का सिद्धाश्रम भी इसी विन्ध्य की तलहटी में मात्र 3 कोस पूर्व दिशा में था। जहाँ अगस्त्य जी का आतिथ्य ग्रहण तथा रात्रिवास कर प्रातः काल ऋषि के परामर्श के अनुसार राम पंचवटी के लिए प्रस्थान किये। महुआ के जंगल को पारकर सीधे उत्तर दिशा में पाकड़ वन पार कर 8 कोस की दूरी पर पंचवटी वन में पहुँचे। आज का ”पंचमहुआ“ गाँव तथा ”पकड़ीबरावां“ स्थान महुआ और पाकड़ वन की याद दिलाता है। पंचवटी का वन बड़ा भयानक तथा सघन था। ब्रह्माजी ने उस सघन वन को काटने हेतु लक्ष्मण को तीक्ष्ण धार का दिव्यास्त्र दिया। जंगल की कटाई के क्रम में तपस्यारत शूपर्णखा के पुत्र साम्ब का सर कट गया। वहीं पर स्वच्छ जल पूर्ण कमल के फूलों से सुशोभित सरोवर के तट पर लक्ष्मण ने गिद्धराज जटायु की सहायता से पर्णकुटी बनायी। पंचवटी का वह स्थान नवादा जिला के अन्तर्गत साम्बे, सरकटी और अपसर गाँवो ंके नाम पर पहचाना जा सकता है। साम्बे गाँव शूपर्णखा पुत्र साम्ब का, सरकटी उसके सर कटने का तथा अपसर सरोवर का प्रतीक है। आज भी वहाँ बहुत दूर तक फैला सरोवर है। वहाँ उत्खनन से सातवीं शताब्दी की प्रस्तर मूर्तियाँ मिली हैं जो राम, लक्ष्मण और सीता की हैं। (देखें-नवभारत टाइम्स, पटना, 10 जून 1990, पृष्ठ-2)
सीता हरण के बाद राम पम्पासर पहुँचे। वह पम्पासर आज के बड़े गाँव का प्रसिद्ध सरोवर है। यह नालन्दा के पास है। बुकानन ने भी अपने यात्रा वृतान्त में बड़ागाँव का प्राचीन नाम पम्पापुर बतलाया है। सूर्यपुराण (भाषा) में इसी सरोवर को पम्पासर कहा है। देखें-Journal
of Francis Buchartan Kept During The Survey of the Districe of Patna and Gaya
in 1811-1812, P.P.95.
रावण वध के अनन्तर ब्रह्महत्या पाप की निवृत्ति हेतु अगस्त्य मुनि के परामर्श पर राम ने मुंगेर के सीताकुण्ड स्थान पर एक सौ अश्वमेध यज्ञ किया। यज्ञ स्थल से दो कोस की दूरी पर उत्तरवाहिनी गंगा तट पर वाल्मीकि का आश्रम था तथा यज्ञ स्थल के समीप ही राम की राजधानी थी। सीता ने एक बार संयोग व्रत का नौ दिनों का अनुष्ठान किया। वह वाल्मीकि आश्रम में रहती थी। उस व्रत के लिए नित्य कमल का फूल लाने राम की राजधानी के सरोवर पर ठीक मध्यान्हकाल में लव पहुँच जाता था। यह सब आनन्द रामायण से जाना जा सकता है। आज भी सीताकुण्ड के समीप वृहत् स्तूप है जिसे गढ़ की संज्ञा दी जाती है। उत्खनन से साक्ष्य प्राप्त हो सकते हैं।
रामायण कालीन साक्ष्य/प्रमाण मत्स्य पुराण और वाल्मीकि रामायण में हैं। उक्त ग्रन्थों की प्रचलित प्रतियों के सावधानीपूर्वक अध्ययन से रामायण कालीन स्थलों पर कोई सहज ही पहुँच सकता है जो मुंगेर के भू-भाग में लुप्त और सहस्राब्इियों से सुप्त पड़े हैं। यहाँ की फिजा, यहाँ की मिट्टी, आज स्वयं अपनी कहानी सुना रही है। इसकी कहानी सुनिये और यहाँ की मिट्टी देखिये।
उत्तर प्रदेश
उत्तर प्रदेश, जनसंख्या के आधार पर भारत का सबसे बड़ा राज्य है। जिसकी विधायिक राजधानी लखनऊ तथा न्यायिक राजधानी इलाहाबाद है। उत्तर प्रदेश 9 राज्यों-दिल्ली, उत्तराखण्ड, हिमाचल प्रदेश, हरियाणा, राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, झारखण्ड और बिहार से घिरा राज्य है। उत्तर प्रदेश की पूर्वोततर दिशा में नेपाल देश है। सन् 2000 में भारतीय संसद ने उत्तर प्रदेश के उत्तर-पश्चिमी मुख्यतः पहाड़ी भाग से उत्तराखण्ड राज्य का निर्माण किया और अभी भी इस राज्य के और विभाजन की मांग उठ रही है। उत्तर प्रदेश का अधिकतर हिस्सा सघन आबादी वाले गंगा और यमुना के मैदान हैं। करीब 16 करोड़ जनसंख्या के साथ उत्तर प्रदेश केवल भारत का अधिकतम जनसंख्या वाला प्रदेश ही नहीं बल्कि सर्वाधिक आबादी वाली विश्व की उपराष्ट्रीय इकाई भी है। विश्व के केवल 5 देश-चीन, भारत, संयुक्त राज्य अमेरिका, इण्डोनेशिया और ब्राजील, उत्तर प्रदेश के जनसंख्या से अधिक हैं। उत्तर प्रदेश, भारत के उत्तर में स्थित है। प्रदेश के उत्तरी एवं पूर्वी भाग की तरफ पहाड़ तथा पश्चिमी एवं मध्य भाग में मैदान है। उत्तर प्रदेश को मुख्यतः तीन क्षेत्रों में विभाजित किया जा सकता है। उत्तर में हिमालय, मध्य में गंगा का मैदानी भाग और दक्षिण का विन्ध्याचल क्षेत्र। यहाँ की जलवायु मुख्यतः उष्णदेशीय मानसून की है परन्तु समुद्र तल से ऊँचाई बदलने के साथ इसमें परिवर्तन होता है। यह राज्य 2,38,566 वर्ग किलोमीटर में फैला हुआ है।
साहित्य के क्षेत्र में उत्तर प्रदेश का स्थान सर्वोपरि है। साहित्य और भारतीय सेना, दो ऐसे क्षेत्र हैं जिस पर यहाँ के निवासी गर्व करते हैं। आदिकवि वाल्मीकि, गोस्वामी तुलासीदास, कबीरदास, सूरदास से लेकर भारतेन्दु हरिश्चन्द्र, आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी, आचार्य रामचन्द्र शुक्ल, मुंशी प्रेमचन्द्र, जयशंकर प्रसाद, सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला, सुमित्रानन्दन पन्त, हरिवंश राय बच्चन, महादेवी वर्मा, राही मासूम रजा, अज्ञेय जैसे अनेकांे महान कवि और लेखक उत्तर प्रदेश के हैं। उर्दू साहित्य में भी इस राज्य का बहुत महत्वपूर्ण योगदान रहा है। फिराक गोरखपुरी, जोश मलीहाबादी, चकबस्त जैसे अनगिनत शायर यहीं से प्रदेश व देश का नाम रोशन किये। मानवीय संवेदना और राष्ट्रप्रेम की भावना से ओतप्रोत हिन्दी साहित्य का क्षेत्र बहुत ही व्यापक रहा है। यद्यपि पक्षपातपूर्ण व्यवहार के चलते हिन्दी के साहित्यकारों को नोबेल पुरस्कार नहीं मिला फिर भी उनकी सराहना करने वालों की कोई कमी नहीं है।
संगीत उत्तर प्रदेश के व्यक्ति के जीवन में बहुत महत्वपूर्ण स्थान रखता है। यह तीन प्रकार से बाँटा जा सकता है।
1. पारम्परिक संगीत एवं लोक संगीत, यह पारम्परिक मौकों शादी-विवाह, होली, त्योहारों आदि के समय पर गाया जाता है।
2. शास्त्रीय संगीत, यहाँ उत्कृष्ठ शास्त्रीय गायन और वादन की परम्परा रही है।
3. हिन्दी फिल्मी संगीत एवं भोजपुरी संगीत। कत्थक उत्तर प्रदेश का एक परिष्कृत शास्त्रीय नृत्य है जो हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत के साथ किया जाता है। कत्थक नाम कथा शब्द से बना है। इस नृत्य में नर्तक किसी कहानी या संवाद को नृत्य के माध्यम से प्रस्तुत करता है जिसका प्रारम्भ 6-7वीं शताब्दी में उत्तर भारत में हुआ था। प्राचीन समय में यह एक धार्मिक नृत्य हुआ करता था जिसमें नर्तक महाकाव्य गाते थे और अभिनय करते थे। 13वीं शताब्दी तक आते-आते कत्थक सौन्दर्यपरक हो गया तथा नृत्य में सूक्ष्म अभिनय एवं मुद्राओं पर अधिक ध्यान दिया जाने लगा। कत्थक नृत्य के प्रमुख कलाकार पं0 बिरजू महाराज हैं। फरी नृत्य, जांघिया नृत्य, पंवरिया नृत्य, कहरवा, जोगिरा, निर्गुन, कजरी, सोहर, चइता गायन उत्तर प्रदेश की लोकसंस्कृतियाँ हैं।
जौनपुर
जौनपुर, भारत के उत्तर प्रदेश का एक प्रमुख शहर एवं लोकसभा क्षेत्र है। मध्यकाल में शर्की शासकों की राजधानी रहा जौनपुर वाराणसी से 58 किलोमीटर दूर है। इस शहर की स्थापना 14वीं शताब्दी में फिरोज तुगलक ने अपने चचेरे भाई सुल्तान मुहम्मद की याद में की थी। सुल्तान मुहम्मद का वास्तविक नाम जौना खां था। इसी कारण इस शहर का नाम जौनपुर रखा गया। 1394 के आसपास मलिक सरवर ने जौनपुर को शर्की साम्राज्य के रूप में स्थापित किया। शर्की शासक कला प्रेमी थे। उनके काल में यहाँ अनेक मकबरों, मस्जिदों और मदरसों का निर्माण किया गया। यह शहर मुस्लिम संस्कृति और शिक्षा के केन्द्र के रूप में भी जाना जाता है। यहाँ की अनेक खूबसूरत इमारतें अपने अतीत की कहानियाँ कहती प्रतीत होती हैं। वर्तमान में यह शहर चमेली के तेल, तम्बाकू की पत्तियों, इमरती और स्वीटमीट के लिए प्रसिद्ध है। शिक्षा, संस्कृति, संगीत, कला और साहित्य के क्षेत्र में अपना महत्वपूर्ण स्थान रखने वाले जनपद जौनपुर में हिन्दू-मुस्लिम साम्प्रदायिक सद्भाव को जो अनूठा स्वरूप शर्कीकाल में विद्यमान रहा है, उसकी गंध आज भी विद्यमान है। जौनपुर में अटाला मस्जिद, जामी मस्जिद, लाल दरवाजा मस्जिद, खालिश मुखलिश मस्जिद, शाही ब्रिज, शाही किला, ख्वाब गाह, दरगाह चिश्ती, पानशरीफ-ए, जहांगीरी मस्जिद, अकबरी ब्रिज और शर्की सुल्तानों के मकबरे दर्शनीय हैं।
शीतला चैकिया धाम और परशुराम से सम्बन्ध रखने वाला जमदग्नि आश्रम एक धार्मिक केन्द्र के रूप में विख्यात है। वाराणसी, इलाहाबाद, अयोध्या, लखनऊ, गोरखपुर, आजमगढ़ आदि शहरों से जौनपुर के लिए नियमित बस व रेल सेवाएं उपलब्ध रहती हैं।
इसी जौनपुर जिले के सदर तहसील के अन्तर्गत एक गाँव खपरहा है जहाँ से लगभग 280 वर्ष पूर्व श्री लव कुश सिह ”विश्वमानव“ के पूर्वज उत्तर प्रदेश के मीरजापुर जिले के चुनार तहसील के नरायनपुर विकास खण्ड के नियामतपुर कलाँ गाँव में आये थे।
मीरजापुर और चुनार (विस्तृत विवरण इस अध्याय में पीछे दिया जा चुका है)
मीरजापुर, भारत के उत्तर प्रदेश राज्य का एक शहर और जिला मुख्यालय है, जो जिला सोनभद्र, चन्दौली, वाराणसी, संत रविदास नगर भदोही और इलाहाबाद जिले से घिरा हुआ है। इस जिले का नाम शासक मिर्जा के नाम पर रखा गया है। ब्रिटीश सरकार द्वारा कब्जा कर लेने के बाद इस नगर का नाम इसके पूर्व शासक के नाम पर रख दिया गया। स्थानीय मान्यताओं के अनुसार मीरजापुर, राजा नान्नेर द्वारा स्थापित किया गया था और पूर्व में यह शहर पर्वत पुत्री गिरिजा के नाम पर गिरिजापुर के नाम से जाना जाता था लेकिन ब्रिटीश विजय के उपरान्त इसे मीरजापुर के नाम से जाना जाने लगा।
मीरजापुर, बनारस राज्य का अंग था। सन् 1775 ई0 में इसकी प्रभुसत्ता अवध के नबाब कादीर द्वारा ईस्ट इण्डिया कम्पनी को सौंप दी गई। किन्तु इसका प्रबन्धात्मक प्रशासन सन् 1794 ई0 तक काशी नरेेश के जमींदार के अन्दर ही बना रहा। 27 अक्टुबर, 1794 को राजा महीप नारायण सिंह से सन्धि के शर्ताे के अनुसार अपने नियंत्रण को तत्कालीन गर्वनर जनरल को हस्तान्तरित कर दिया गया। सन् 1861 ई0 तक इलाहाबाद से अलग होकर यह जनपद अपने वर्तमान युग में प्रतिष्ठित हुआ। अप्रैल, 1998 में इस जनपद के दक्षिणी और पूर्वी भाग को अलग करते हुए सोनभद्र जनपद का सृजन किया गया। प्रशासनिक दृष्टि से मीरजापुर जनपद को चार तहसील चुनार, लालगंज, सदर और मड़िहान में बाँटा गया। विकास की गतिविधियों को संचालित करने के लिए 12 विकास खण्ड मीरजापुर शहर, कोन, छानबे, मझवां, पहाड़ी, सीखड़, नरायनपुर, जमालपुर, मड़िहान, राजगढ़ और हलियां बनाया गया। जनपद में 106 न्याय पंचायत, 763 ग्राम पंचायत, 1987 राजस्व गाँव जिसमें 265 गैर आबादी वाले गाँव सम्मिलित हैं। 14 जून 1997 से मीरजापुर मण्डल का सृजन किया गया जिसमें सन्त रविदास नगर भदोही, सोनभद्र तथा मीरजापुर जनपद सम्मिलित है। वर्तमान में मीरजापुर मण्डल का नाम बदलकर विन्ध्याचल मण्डल कर दिया गया है।
पर्यटन की दृष्टि से मीरजापुर काफी महत्वपूर्ण जिला माना जाता है। यहाँ की प्राकृतिक सुन्दरता और धार्मिक वातावरण बरबस लोगों का ध्यान अपनी ओर खींचती है। इसके दर्शनीय स्थल विन्ध्य पर्वत, क्षेत्र और धाम, चुनारगढ किला़, चुनार नगर में-शाह कासिम सुलेमानी का दरगाह, आचार्य कूप और विट्ठल महाप्रभु, चुनार क्षेत्र में जरगो बाँध, बेचूवीर धाम, लखनियाँ दरी, चूना दरी, भण्डारी देवी, सिद्धपीठ दुर्गा खोह, परमहंस स्वामी अड़गड़ानन्द आश्रम, सिद्धनाथ की दरी, सिद्धनाथ धाम ”धुईं बाबा“, शिवशंकरी धाम, गोपालपुर, माँ शीतला धाम, सक्तेशगढ़, बिलखरा, खमरिया, बावनघाट, कुण्ड, ओझलापुल, भर्ग राजाओं के अवशेष, रामगया घाट पर बीच गंगा में स्थित स्तम्भ, हलिया उपरौंध में अर्धनिर्मित शिला महल, मीरजापुर नगर का घण्टाघर व पक्काघाट व अनके मन्दिर तथा प्राकृतिक पर्यटन स्थल में टांडा जल प्रपात, विन्ढम झरना, खजूरी बाँध, सिरसी बाँध इत्यादि हैं।
मीरजापुर जनपद के चार तहसील चुनार, लालगंज, सदर और मड़िहान में से एक तहसील चुनार है जो जिला मुख्यालय से 33 किलोमीटर और वाराणसी-कन्याकुमारी राष्ट्रीय राजर्माग संख्या-7 पर वाराणसी से 42 किलोमीटर पर स्थित है। दिल्ली-हावड़ा रेल लाईन पर यह मुगलसराय और इलाहाबाद के बीच स्थित है। चुनार तहसील के अन्तर्गत जनपद के 12 विकासखण्ड में से जमालपुर, नरायनपुर, सीखड़ और आधे राजगढ़ विकासखण्ड का क्षेत्र और दो नगरपालिका क्षेत्र चुनार और अहरौरा प्रशासनिक कार्य के अन्तर्गत आता है।
श्री लव कुश सिंह ”विश्वमानव“ की दृष्टि में सत्यकाशी (वाराणसी-सोनभद्र-शिवद्वार-विन्ध्याचल के बीच) क्षेत्र
श्री लव कुश सिंह ”विश्वमानव“ की दृष्टि में मीरजापुर जिला
श्री लव कुश सिंह ”विश्वमानव“ की दृष्टि में चुनार क्षेत्र
सम्भल-कल्कि अवतार के कलियुग में हिन्दुस्तान के सम्भल में होने पर सभी हिन्दू सहमत हैं परन्तु सम्भल कहाँ है इसमें अनेक मतभेद हैं। कुछ विद्वान सम्भल को उड़ीसा, हिमालय, पंजाब, बंगाल और शंकरपुर में मानते हैं। कुछ सम्भल को चीन के गोबी मरूस्थल में मानते हैं जहाँ मनुष्य पहुँच ही नहीं सकता। कुछ वृन्दावन में मानते हैं। कुछ सम्भल को मुरादाबाद (उ0प्र0) जिले में मानते हैं जहाँ कल्कि अवतार मन्दिर भी है। विचारणीय विषय ये है कि ”सम्भल में कल्कि अवतार होगा या जहाँ कल्कि अवतार होगा वही सम्भल होगा।“ सम्भल का शाब्दिक अर्थ समान रूप से भला या शान्ति करना या शान्ति होना अर्थात् जहाँ शान्ति व अमन हो या शान्ति फैलाने वाला हो, होता है। कल्कि पुराण में सम्भल में 68 तीर्थो का वास बताया गया है। कलियुग में केवल सम्भल ही एक मात्र ऐसा तीर्थ स्थान होगा जो कल्याण दायक और शान्ति प्रदान करने वाला होगा। तीर्थ का अर्थ-पवित्र स्थान, दर्शन, दिल, मन, हृदय, घाट, तालाब, पानी का स्थान, अमर जीवन दाता जल, लोगों के आने जाने और जमघट के स्थान के अर्थ में होता है।
नियामतपुर कलाॅ
श्रीराम, श्रीकृष्ण और शिव की नगरी काशी (वाराणसी) वाले प्रदेश उत्तर प्रदेश के मीरजापुर जिला, विन्ध्य क्षेत्र के भगवान विष्णु के 5वें वामन अवतार के कर्मक्षेत्र चुनार क्षेत्र का ग्राम नियामतपुर कलाँ (काशी चैरासी कोस यात्रा और सत्यकाशी के उभय क्षेत्र में स्थित) ही अनिर्वचनीय कल्कि महाअवतार भोगेश्वर श्री लव कुश सिंह ”विश्वमानव“ का निवास स्थल है। जो सत्यकाशी पंचदर्शन के बीच स्थित है।
ग्राम नियामतपुर कलाँ, मीरजापुर जनपद के तहसील चुनार के विकासखण्ड नरायनपुर के अन्तर्गत आता है। जो चुनार से 16 कि. मी. वाराणसी की ओर तथा 26 कि. मी वाराणसी से मीरजापुर राष्ट्रीय राजमार्ग संख्या-7 पर स्थित है। नियामतपुर कलाँ का डाकघर पुरूषोत्तमपुर, थाना अदलहाट, तहसील चुनार, जिला मीरजापुर है।
जौनपुर जिले के सदर तहसील के गाँव खपरहा से आने वाले राम प्रताप ने ग्राम नियामतपुर कलाँ को अपना निवास स्थल बनाया। उन्हीं के वशंज का अधिकतम जनसंख्या वाला यह गाँव है। वर्तमान समय में अन्य गाँव से आये कूर्मि क्षत्रिय जाति (चन्ननउ), ब्राह्मण (पाण्डेय और उपाध्याय), धोबी, मल्लाह, बरई, चमार, खटिक हैं। एक घर यादव और बनिया भी हैं। जैसा भारत के गाँवों की प्रकृति होती है वैसा ही यह गाँव भी है। वाराणसी के पास और शिक्षा के विकास से नई पीढ़ी में शहरीकरण की भावना का विकास तेजी से हुआ है।
श्री लव कुश सिंह ”विश्वमानव“ के पूर्वज
चन्द्र के वंशजों से चन्द्रवंश का साम्राज्य बढ़ा जिनका सम्पूर्ण भारत में फैलाव होता गया। वर्तमान में इस चन्द्रवंश की अनेक शाखाएँ है-चन्द्र, सोम या इन्दु वंश, यदुवंश, भट्टी या भाटी वंश, सिरमौरिया वंश, जाडेजा वंश, यादो या जादौन वंश, तुर्वसु वंश, पुरू वंश, कुरू वंश, हरिद्वार वंश, अनुवंश, दुहयु वंश, क्षत्रवृद्धि वंश, तंवर या तोमर वंश, वेरूआर वंश, विलदारिया वंश, खाति वंश, तिलौता वंश, पलिवार वंश, इन्दौरिया वंश, जनवार वंश, भारद्वाज वंश, पांचाल वंश, कण्व वंश, ऋषिवंशी, कौशिक वंश, हैहय वंश, कल्चुरी वंश, चन्देल वंश, सेंगर वंश, गहरवार वंश, चन्द्रवंशी राठौर, बुन्देला वंश, काठी वंश, झाला वंश, मकवाना वंश, गंगा वंश, कान्हवंश या कानपुरिया वंश, भनवग वंश, नागवंश चन्द्रवंशी, सिलार वंश, मौखरी वंश, जैसवार वंश, चैपट खम्भ वंश, कर्मवार वंश, सरनिहा वंश, भृगु वंश, धनवस्त वंश, कटोच वंश, पाण्डव वंश (पौरव शाखा से, इसमें ही पाण्डव व कौरव थे। महाभारत युद्ध में कौरवों का नाश हो गया जिसमें धृतराष्ट्र के एक मात्र शेष बचे पुत्र युयुत्स के वंशज कौरव वंश की परम्परा बनाये रखे हैं। पाण्डव वंश की शाखा अर्जुन के पौत्र परीक्षित से चली।)
विझवनिया चन्देल वंश (विशवन क्षेत्र में आबाद होने के कारण विशवनिया या विझवनिया नाम पड़ा। इनकी एक शाखा विजयगढ़ क्षेत्र सोनभद्र, दूसरी जौनपुर जिले के सुजानगंज क्षेत्र के आस-पास 15 कि. मी. क्षेत्र में आबाद हैं। इनकी दो मुख्य तालुका खपरहा और बनसफा जौनपुर में है। इसी खपरहा से श्री लव कुश सिंह ”विश्वमानव“ के पूर्वज नियामतपुर कलाँ व शेरपुर, चुनार क्षेत्र, मीरजापुर में गये थे। श्री लव कुश सिंह ”विश्वमानव“ उनके तेरहवें पीढ़ी के हैं।), रकसेल वंश, वेन वंश, जरौलिया वंश, क्रथ वंश, जसावट वंश, लंघिया वंश, खलोरिया वंश, अथरव वंश, वरहिया वंश, लोभपाद वंश, सेन वंश, चैहान वंश, परमार वंश, सोलंकी वंश, परिहार या प्रतिहार वंश, जाट वंश, गूजर वंश, लोध वंश, सैथवार, खत्री (हैहयवंशी की शाखा), पाल वंश। ओसवाल (ओसिया मरवाड़) और माहेश्वरी (इष्टदेव महेश्वर) पूर्व में चन्द्रवंशी क्षत्रिय थे।
चन्द्रवंश वंशावली बहुत ही वृहद है। इनमें से अनेक शाखाएँ-प्रशाखाएँ होती गई। इनमें से क्षत्रिय से ब्राह्मण भी हुए तथा बहुत से ऋषि भी हुए। चन्द्रवंशी क्षत्रियों में यदु तथा पुरूवंश का बहुत बड़ा विस्तार हुआ और अनेक शाखाएँ-प्रशाखाएँ भारतवर्ष में फैलती गई।
जौनपुर जिले के सदर तहसील के अन्तर्गत एक गाँव खपरहा है जहाँ से लगभग 280 वर्ष पूर्व श्री लव कुश सिह ”विश्वमानव“ के पूर्वज उत्तर प्रदेश के मीरजापुर जिले के चुनार तहसील के नरायनपुर विकास खण्ड के नियामतपुर कलाँ गाँव में आये थे। खपरहा गाँव से आने वाले अन्य भाई तहसील चुनार के अन्य गाँव शेरपुर, चन्दापुर और बगही को भी अपना निवास स्थान बनाये थे।
जौनपुर जिले के सदर तहसील के गाँव खपरहा से आने वाले राम प्रताप के 10वीं पीढ़ी में गया हुए।
गया के चार पुत्र 1. बेनी, 2. रंगी 3. जंगी 4. राजा राम हुये (11वीं पीढ़ी)। बेनी निःसंतान रह गये। जंगी से केवल पुत्रीयाँ ही जन्म लीं। रंगी के एक पुत्र बहादुर (विवाह ग्राम-गांगपुर) हुये। बहादुर से दो पुत्र पन्नालाल सिंह (विवाह गंगा रत्ती देवी पुत्री . . . . . . . . . . . . . . . सिंह, ग्राम प्रतापपुर), दयाशंकर सिंह (विवाह . . . . . . . . . . . . . . . देवी पुत्री . . . . . . . . . . . . . . सिंह, ग्राम खम्भवा) और एक पुत्री मीरा देवी (विवाह ग्राम भौरख) हुई जिनकी पीढ़ीयाँ अब भी नियामतपुर कलाँ में हैं। रंगी ने अपने छोटे भाई राजा राम का पैतृक हिस्सा भी अपने कब्जे में कर लिया था जिसके कारण वर्षों तक मुकदमे बाजी हुई। जो राजा-रंगी की लड़ाई के नाम से उस समय बहुत चर्चित हुआ था। उस समय के लोग ऐसा कहते थे।
जंगी का पहला विवाह चुनार तहसील के फत्तेपुर ग्राम में हुआ था जिनसे दो पुत्री पहली सुखदेई (इनका विवाह ग्राम नुआॅव) दूसरी रामदेई (इनका विवाह ग्राम सहसपुरा) में हुआ। जंगी का दूसरा विवाह चुनार तहसील के दीक्षितपुर ग्राम में हुआ था जिनसे दो पुत्री पहली रामपत्ती (इनका विवाह ग्राम ममनियाँ) दूसरी खेतना देवी (इनका विवाह ग्राम छिलैयां) में हुआ।
राजा राम की वंशावली आगे है।
श्री लव कुश सिंह ”विश्वमानव“ के पिता पक्ष
श्री लव कुश सिंह ”विश्वमानव“ के माता पक्ष
श्री लव कुश सिंह की दृष्टि में राजा राम और दौलती देवी परिवार
श्री लव कुश सिंह की दृष्टि में श्री धीरज नारायण सिंह और चमेली देवी परिवार
श्री लव कुश सिंह की दृष्टि में श्री लव कुश सिंह और शिव कुमारी देवी परिवार
शेरपुर
श्री लव कुश सिंह की दृष्टि में सर्वजीत सिंह परिवार
श्री लव कुश सिंह की दृष्टि में श्री सिया राम सिह-उर्मिला देवी
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