Tuesday, March 17, 2020

श्री लव कुश सिंह विश्वमानव - बुड्ढा कृष्ण - कृष्ण का भाग दो और अन्तिम

श्री लव कुश सिंह विश्वमानव - बुड्ढा कृष्ण - कृष्ण का भाग दो और अन्तिम


5 दिसम्बर, 2011 को लव कुश सिंह ”विश्वमानव“ हस्तिनापुर (मेरठ, उ0 प्र0) गये थें। वे वहाँ के किले के खण्डहर में घंटों घूमते रहे। वहाँ से लौटने के बाद वे अपने निवास पर आकर निम्न दिव्य सत्य अनुभूति को पंक्तिबद्ध किये।

दिव्य सत्य अनुुभूति- 

आओ कृष्ण मैं जानती थी कि तुम आओगे, इसलिए ही तो हजारो वर्षो से मैं तुम्हारी प्रतीक्षा कर रही हूँ। मैं जानती थी कि जिस व्यक्ति का सम्पूर्ण ध्यान सदैव हस्तिनापुर में ही रमता था, जिसके समस्त लक्ष्यों की केन्द्र बिन्दू थी, वह हस्तिनापुर जरूर आयेगा। - द्रौपदी ने कहा।
हाँ सखी मैं आ गया, किसी को दिया हुआ वचन मैं कैसे भूल सकता हूँ? मैंने तुम्हें वचन दिया था कि इतिहास तुम्हें चाहे जो कुछ भी कहें परन्तु भविष्य तुम्हें नारी आदर्श के सर्वोच्च शिखर पर देखेगा, जिसके आगे सम्पूर्ण संसार की नारीयाँ तुम्हारें अंश रूप में जानी जायेंगी। - मैंने कहा।
एक लक्ष्य से दूसरे बड़े लक्ष्य की ओर मन को स्थित कर देने का स्वभाव आज भी तुममे है। - द्रौपदी ने कहा।
सखी, यह जीवन ही ऐसा है। जहाँ से मृत्यु होती है फिर वहीं से पूर्णता के लिए अगले लक्ष्य के लिए जीवन आरम्भ होता है और यह क्रम तब तक चलता रहता है, जब तक कि वह पूर्ण होकर मुझमें विलीन होकर मुझ जैसा नहीं हो जाता। देखो, ये मेरे सफेद हुए बाल, ये मेरे आँखों में आँसू, मेरा अकेलापन और मेरा अधूरापन। महाभारत युद्ध के बाद मैं बिल्कुल अकेला हो चुका था, न कोई लक्ष्य, न कौरवों की आवश्यकता, न पाण्डवों की आवश्यकता। जिस अवस्था में मैं तुम्हे छोड़कर गया था, अब यह संसार मुझें वहीं से आगे की ओर बढ़ते हुये देखेगा। - मैंने कहा।
सखी, मेरे बाल रूप को, मेरे युवा रूप को, मेरे प्रेम रूप को, मेरे गीता उपदेश को यह संसार समझने लगा है। मैं सिर्फ अपना बचा शेष कार्य पूर्ण करने आया हूँ। ”नव मनुष्य और सृष्टि निर्माण“, जिसमें अब न तो पाण्डवों की आवश्यकता है न ही कौरवों की। अब तो न पाण्डव हैं न ही कौरव हैं, वे तो पिछले समय में ही मुक्त हो चुके। अब तो पाण्डव व कौरव एक ही शरीर में विद्यमान हैं। जिस किसी को देखो वह कुछ समय पाण्डव रूप में दिखता है तो अगले समय में वही कौरव रूप में दिखने लगता है। फिर वही पाण्डव रूप में दिखने लगता है। सब कुछ विवशता वश एकीकरण की ओर बढ़ रहा है। अब युद्ध कहाँ, अब तो उस एकीकरण के मार्ग को दिखाना मात्र मेरा शेष कार्य हैं। और इस कार्य में मैं बिल्कुल अकेला, निःसंग, न कोई मेरे लिए जीवन की कामना करने वाला, न ही कोई मेरी मृत्यु की कामना करने वाला, न ही मुझसे मिलने की चेष्टा करने वाला, न ही मुझसे कुछ सुनने वाला, न मुझे कुछ सुनाने वाला और न ही गोपीयाँ हैं। दर असल मैं मृत ही पैदा ही हुआ था, एक मरा हुआ जीवित मनुष्य, यही मेरा इस जीवन का रूप था। और मेरे इस जीवन को संसार बुढ़े कृष्ण के रूप में याद करेगा जो मुझ परमात्मा के पूर्ण कार्य का भाग दो होगा, जिसे लोगों ने देख व जान नहीं पाया था। आज मैं बहुत कुछ बताना चाहता हूँ सखी क्योंकि तुम्हारे सिवा मुझे कौन सुनता ही था और कौन समझता ही था, और कौन विश्वास ही करता था। - मैं बोलता जा रहा था।
सखी, अब गोपीयाँ भी मेरे साथ नहीं, क्योंकि अब उन्हें हृदय से निकली उस वंशी की मधुर तान समझ में नहीं आती, न ही उस पर सारे बंधनों को तोड़कर नाचना आता है। जिस प्रकार आत्मा की उपस्थिति में प्रकृति नाचती है, उसी प्रकार अब तो मनुष्यों ने आत्मा के स्थान पर करेंसी (मुद्रा) बना लिया है जिसकी उपस्थिति में ही ये आधुनिक प्रकृति के अंश रूपी गोपीयाँ नाचती है। और इसलिए ही ये भोग की वस्तु बनती जा रही हैं। इसके जिम्मेदार भी वे स्वयं ही है। सखी स्त्री हो या पुरूष सभी को सार्वभौम आत्मा से जुड़कर हृदय और बुद्धि के तल पर ही जीना चाहिए। शरीर और आवश्यकता के तल पर जीने से भोग ही होता है, समभोग नहीं। सार्वभौम आत्मा से जुड़कर हृदय और बुद्धि के तल पर जीने से शरीर की स्वस्थता और दीर्घायु भी प्राप्त होती है। 
परन्तु तुम तो पूर्ण थें, फिर भी तुम मुक्त नहीं हुये। -द्रौपदी ने कहा।
सखी, मैं मुक्त कहाँ हो पाया। मुक्त तो वे लोग हुये जिनकी इच्छायें पूर्ण हुईं। तुम्हारी भी इच्छा पूर्ण नहीं हो पायी इसलिए तुम भी मुक्त नहीं हो पायी और मेरी भी इच्छा पूर्ण नहीं हुई इसलिए मैं भी मुक्त नहीं हो पाया। मेरे शरीर त्यागने के समय तुम मेरे पास थी और मैं चाहकर भी तुमसे नहीं बताया कि मेरी इच्छा क्या थी क्योंकि इससे तुम्हें दुःख होता। मैं पूर्ण परमात्मा पूर्णावतार सृष्टि करने के उद्देश्य से धरती पर अवतरित हुआ था। सखी, पूर्ण होने के बावजूद भी जब परमात्मा शरीर में होता है तब वह भी अन्य मनुष्य और प्रकृति द्वारा उत्पन्न परिस्थितियों से भी विवश हो जाता है। उस समय मेरे सामने दो स्थितियाँ ऐसी आयी, जिसके आगे मैं विवश हुआ और मै पूर्ण होते हुये भी अपूर्ण हो गया, फलस्वरूप मुझे फिर आना पड़ा। पहला, मेरा अनुमान था कि महाभारत युद्ध शीघ्र ही समाप्त हो जायेगा और समस्या हल हो जायेगी। फिर मैं दोनों पक्षों के साथ मिल-मिलाकर, ज्ञान, कर्मज्ञान की शिक्षा से नव मनुष्य व सृष्टि निर्माण का कार्य प्रारम्भ करूँगा। परन्तु हो गया इसका उल्टा, महाविनाश। फिर मैं किसे शिक्षा देता। दूसरा, यह कि जो शिक्षा मुझे युद्ध के उपरान्त देनी थी, वह योद्धा अर्जुन के युद्ध क्षेत्र में शस्त्र रख देने के कारण मुझे ज्ञान, कर्मज्ञान में से अधूरी शिक्षा केवल ज्ञान को अर्जुन को देने पड़े शेष कर्मज्ञान की शिक्षा के लिए कोई शेष योग्य बचा ही नहीं। सखी, ”गीता“ में मैंने सिर्फ इतना ही तो बताया था कि प्रकृति के तीन गुणों सत्व, रज और तम से मुक्त होकर ही मुझ परमात्मा को जाना जा सकता है। अब ”विश्वशास्त्र“ से मैं ये बताने आया हूँ कि परमात्मा को जान लेने के बाद संसार में कर्म कैसे किया जाता है, जो परमात्मा द्वारा सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में क्रियाशील है। यही कर्मज्ञान है और जो कुछ भी मैंने गीता में कहा था उसका दृश्य रूप है। - मैं बोलता गया।
तुम नहीं जानती सखी, ये स्थिति मेेरे लिए कितनी विवशतापूर्ण थी। क्या पितामह भीष्म ज्ञानी नहीं थे, क्या गुरू द्रोणाचार्य, कृपाचार्य, महाराज धृतराष्ट्र, शकुनि, कर्ण ज्ञानी नहीं थे। सब ज्ञानी थे परन्तु सभी, मनुष्य और प्रकृति द्वारा उत्पन्न परिस्थितियों से विवश थे। सखी, युद्ध में योद्धा को कभी भी हृदय की नहीं सुननी चाहिए। तुम्हारा पति और मेरा सखा ही नहीं बल्कि अर्जुन मेरी बहन सुभद्रा का पति था, और युद्ध क्षेत्र में मैं उसका सारथी भी था। यह सब इसलिए ही हुआ था क्योंकि मैं अर्जुन के हृदय को जानता था और युद्ध की अनिवार्यता को भी, फिर भी वह युद्ध क्षेत्र में शस्त्र रखकर मुझे विवश कर दिया, और मुझे अपनी सारी ज्ञान शक्ति उस पर खर्च करनी पड़ी जो मेरी योजना थी ही नहीं। यह ज्ञान शक्ति भी मैंने उसे अकेले में ले जाकर इसलिए कहा क्योंकि अन्य कोई उसे भ्रमित न कर सके।- मैंने कहा।
सखा, अगर फिर भी अर्जुन युद्ध के लिए न मानता तो क्या होता। - द्रौपदी ने कहा।
तो मैं अर्जुन का ही वध कर देता, क्योंकि यह भी मेरी विवशता ही होती। मैंने भी अनेको युद्ध लड़े थे, सखी। परन्तु एक योद्धा की तरह, कहीं भी मैंने हृदय की ओर नहीं देखा। क्या कंस मेरे मामा नहीं थे। लोग यह समझते हैं कि मैंने युद्ध के डर से मथुरा छोड़ा था परन्तु मैं तुम्हंे बताना चाहता हूँ कि मैं युद्ध से नहीं बल्कि गोपियों के डर से मथुरा छोड़ा था। ये गोपियाँ मेरे दिल पर युद्ध कर बार-बार मुझे परास्त कर रही थीं, और मैं पल-पल कमजोर होता जा रहा था। हृदय का भाव जब बढ़ता है तब कर्म कमजोर पड़ जाता है सखी। इसलिए ही मैंने मथुरा छोड़ा था और फिर कभी नहीं गया। जाते-जाते गोपियों से मैंने अवश्य कहा था कि जिसे द्वारिका चलना हो चले परन्तु कोई नहीं आया, यह गोपियों के प्रेम की परीक्षा ही थी। अब कोई आत्मा पर विश्वास नहीं करता सभी शरीर पर ही विश्वास करते हैं जबकि मनुष्य की समस्त अभिव्यक्ति उसी आत्मा के कारण ही प्रकाशित हो रही होती है। - मैं लगातार बोलता जा रहा था।
सखी, जब परमात्मा शरीर मे पूर्ण रूप से प्रकाशित होता है तब भी वह शरीर के माध्यम से ही होता है। इसलिए बहुत से मनुष्य उस पर विश्वास करते हैं, वहीं बहुत से मनुष्य विश्वास नहीं भी करते हैं। इसलिए उस पूर्ण परमात्मा को अपनी उपस्थिति बताने के लिए कर्म करने पड़ते हैं। अगर प्रारम्भ में ही सभी विश्वास कर लें तो युद्ध कैसा और महाभारत क्यों होता। परन्तु इस बार ऐसा कुछ नहीं होगा। इस बार मैं नहीं मेरा अपना रूप, मेरा शास्त्र- ”विश्वशास्त्र“ अनन्त काल तक युद्ध करेगा। जिस प्रकार मेरी ”गीता“ आज तक युद्ध कर रही है। महाभारत युद्ध में मेरे ज्ञान के विश्वरूप योगेश्वर रूप में सभी स्थित थे और अब वर्तमान में मेरे कर्मज्ञान के विश्वरूप भोगेश्वर रूप में सभी शास्त्र, दर्शन, महापुरूष, विचारक समाहित होते चले जायेंगे। और मुझे किसी भी प्रकार की परीक्षा देने की आवश्यकता ही नहीं होगी क्योंकि जब तक मनुष्य इसे समझने की कोशिश करेंगे तब तक मैं अपना काम कर चुका रहूँगा और यह युद्ध किसी पर निर्भर भी नहीं है क्योंकि इस बार समाज स्वयं इसके लिए तैयार है और उसकी विवशता भी है। सखी, इस संसार में कोई विश्वगुरू, विश्वगुरू नहीं बना सकता। सिर्फ कोई गुरू ही विश्वगुरू बना सकता है और गुरू तो एक मात्र परमात्मा ही है। मैं ही हूँ। मेरा सार्वभौम रूप ही है। और इस प्रकार मैं पूर्ण पुरूष और तुम पूर्ण प्रकृति के रूप में सदैव इस संसार के सर्वोच्च ऊँचाई पर स्थित रहेंगे। - मैं धारा प्रवाह बोलता जा रहा था।
परन्तु कृष्ण ये सब तो तुम कर रहे हो, इससे मुझे कैसे मुक्ति मिलेगी ओर मैं कैसे सर्वोच्च हूँ। - द्रौपदी बोली।
सखी, यह शरीर पाँच तत्वों से बना है। तुमने पाँच पतियों को धारण कर एकाकार किया था और प्रकृति के गुणों की सर्वोच्च अभिव्यक्ति थी। संसार में तो स्त्रियाँ एक पति को भी संभाल सकने का गुण नहीं रख पा रही है फिर वे तुम से तुलना के योग्य कहाँ हैं। वे तो तुम्हारी अंश मात्र हैं। कहाँ अंश और कहाँ पूर्ण प्रकृति। अंश का लक्ष्य पूर्णता को प्राप्त करना होता है। अन्यथा जीवन यात्रा चलती रहती है। अभी तो पुरूष की पूर्णता का क्रम चल रहा है। उसके बाद प्रकृति की पूर्णता का क्रम चलेगा, और उस यात्रा के अन्त में तुम पहले से ही बैठी मिलोगी। प्रकृति की पूर्ण यात्रा के अन्तिम छोर का स्थान खाली नहीं हैं, उस पर तुम पहले ही आदर्श रूप में विराजमान हो। जब अंश प्रकृति की पूर्णता की यात्रा समाप्त होगी तब तुम्हारे जीवन से शिक्षा ग्रहण कर तुम्हें अपने आदर्श के रूप में देखेंगे। परन्तु सखी, तुमने यह कैसे जाना कि मैं हस्तिनापुर अवश्य आउँगा। - मैं बोला।
सखा, जो पूर्ण होता है, वह पूर्णता का ही निर्माण करता है। तुमने जो कुछ भी किया वह अंश रूप में किया, किसी को प्रेम दिया, किसी को सखा बनाया, किसी को धन दिया, किसी को ज्ञान दिया, किसी को बल दिया इत्यादि अंश रूप में ही दिया परन्तु किसी को भी अपने जैसा नहीं बनाया। इससे ही मैंने जाना कि उस पूर्णता को पूर्ण करने तुम अवश्य आओगे और इस क्रम में तुम्हारा हस्तिनापुर आना अवश्य होगा। आखिरकार मैं तुम्हारी सखी थी, तुम्हें सदैव देखती, सुनती और समझती थी। मै सदैव तुम्हें अपने पास अनुभव करती थी। हम सदैव साथ-साथ थे। एक समान्तर रेखा की तरह जो कभी मिलीं नहीं परन्तु रहीं साथ-साथ। - द्रौपदी ने कहा।
सखी, जब दो समानान्तर रेखा दूर तक साथ-साथ जाती हैं, तब रेखाएँ तो जानती हैं कि हम एकाकार नहीं हैं परन्तु दूर से देखने वाला व्यक्ति उसे एकाकार होते ही देखता है। सखी, पितामह भीष्म जब युद्ध क्षेत्र में शरशैया पर लेटे थे तो मैं उनसे मिलने गया था। उन्होंने मुझसे पूछा था। कृष्ण, मैं पिछले 71 जन्मों में झाँककर देख चुका हूँ और मैंने देखा कि मैंने ऐसी कोई गलती नहीं की है जिससे मैं इस दण्ड का भागीदार बनूँ तो तुम बताओ कृष्ण ऐसा मेरे साथ क्यों हुआ। तब मैंने कहा था सखी, पितामह, आप 72वें जन्म में जाकर देखें, आप एक तितली को काँटा चुभोये थे और इतने जन्मों के बाद वह अनेक काँटों में ब्याज के रूप में बढ़ चुका है, जो अब आपको तीर के रूप में चुभे हुये हैं। तब उन्होंने संतुष्ट होकर कहा था- मान गये द्वारिकाधीश, तुम योगेश्वर परमात्मा हो, तुम्हें प्रणाम। और वे संतोष से लेट गये थे। सखी, तुम बताओ मैंने ऐसा क्यों कहा।
सखा, पितामह 71 जन्म को जानते थे कि नहीं ये तो वही जान सकते हैं। और आप उनके 72वें जन्म को जानते थे कि नहीं, ये भी आप ही जान सकते हैं। दोनों बाते व्यक्तिगत रूप से प्रमाणित हैं न कि सार्वजनिक रूप से। परन्तु समाज आप दोनों को ही सार्वजनिक रूप से ज्ञानी तो समझती ही है। सखा इस समय भी आपकी उपस्थिति को लोग कैसे जान पायेंगे - द्रोपदी ने कहा। 
सखी, तुम्हारे उत्तर से अब यह स्पष्ट हो चुका है कि तुम अब पूर्ण हो चुकी हो। अब तुममे और मुझमें कोई अन्तर नहीं है। तुममें, मैं और मुझमें, तुम। आदि में, मैं और अन्त में भी, मैं। और अब, सभी में, मैं और मुझमें, सभी। सखी, व्यक्ति, समाज, राज्य की आवश्यकताओं को देखो, भविष्यवक्ताओं की भविष्यवाणीयों को देखो, ये सब मुझे पुकार रही हैं। ग्रहों के चालों, सूर्य व चन्द्र ग्रहण को देखो, ये सब मेरी उपस्थिति को बता रही हैं। मैं आया था, मैंने अपना कार्य पूर्ण किया मैं जा भी रहा हूँ, तुमसे एकाकार होकर। मैं मुक्त था, मैं मुक्त हूँ, मैं मुक्त ही रहूँगा। आओ सखी चलें। यह पूर्ण पुरूष और पूर्ण प्रकृति का महामिलन है। मैं ही योगेश्वर हूँ, मैं ही भोगेश्वर हूँ। आदि में योगेश्वर हूँ और अन्त में भोगेश्वर हूँ। मैं प्रकृति को नियंत्रित कर व्यक्तिगत प्रमाणित अदृश्य रूप से विकसित होकर सार्वजनिक प्रमाणित दृश्य जगत में व्यक्त होता हूँ। अब ईश्वर भी अपने कत्र्तव्य से मुक्त है और प्रकृति भी। जो ईश्वर है वही प्रकृति है। जो प्रकृति है वही ईश्वर है। दोनों एक-दूसरे के अदृश्य और दृश्य रूप हैं। प्रत्येक में दोनों विद्यमान हैं। यही अर्धनारीश्वर है।  

ध्यान रहे कि 12 ज्येतिर्लिग में से प्रथम साोमनाथ तीर्थ (गुजरात, भारत) के ”भीड़िया तीर्थ“ में एक शिलालेख पर लिखा है कि-”भगवान श्रीकृष्ण ई0 पू0 3102 चैत्र शुक्ल प्रतिपदा (शुक्रवार, 18 फरवरी) के दिन और मध्यान्ह के बाद 2 बजकर 27 मिनट 30 सेकण्ड के समय इस हिरण्य के पवित्र तक से प्रस्थान किये।“ जिस दिन भगवान श्रीकृष्ण धराधाम से स्वधाम गए। उसी दिन से धरती पर कलियुग का आगमन हो गया और धीरे-धीरे इसका प्रभाव बढ़ने लगा । 


No comments:

Post a Comment