इस भाग की सूची
सत्यकाशी : दृश्य काल के प्रथम युग का तीर्थ
क्षेत्र वासीयों गर्व से कहो- ”हम सत्यकाशी निवासी हैं“
सत्यकाशी क्षेत्र से व्यक्त हुये मुख्य विषय
व्यक्ति, एक विचार और अरबों रूपये का व्यापार
सत्यकाशी क्षेत्र के लिए व्यक्त विषय
01. चार शंकराचार्य पीठ के उपरान्त 5वाँ और अन्तिम पीठ “सत्यकाशी पीठ”
02. “सत्यकाशी महोत्सव” व “सत्यकाशी गंगा महोत्सव” आयोजन
03. सार्वभौम देवी माँ कल्कि देवी मन्दिर - माँ वैष्णों देवी की साकार रूप
04. भोगेश्वर नाथ - 13वाँ और अन्तिम ज्योतिर्लिंग
05. सत्यकाशी पंचदर्शन
06. ज्ञान आधारित मनु-मनवन्तर मन्दिर
07. ज्ञान आधारित विश्वात्मा मन्दिर
08. विश्वधर्म मन्दिर - धर्म के व्यावहारिक अनुभव का मन्दिर
09. नाग मन्दिर
10. विश्वशास्त्र मन्दिर (Vishwshastra Temple)
11. एक दिव्य नगर - सत्यकाशी नगर
12. होटल शिवलिंगम् - शिवत्व का एहसास
13. इन्द्रलोक - ओपेन एयर थियेटर
14. हस्तिनापुर - महाभारत का लाइट एण्ड साउण्ड प्रोग्राम
15. सत्य-धर्म-ज्ञान केन्द्र: तारामण्डल की भाँति शो द्वारा कम समय में पूर्ण ज्ञान
16. सत्यकाशी आध्यात्म पार्क
17. वंश नगर - मनु से मानव तक के वंश पर आधारित नगर
18. 8वें सांवर्णि मनु - सम्पूर्ण एकता की मूर्ति (Statue of Complete Unity)
19. विस्मृत भारत रत्न स्मारक (Forgotten Bharat Ratna Memorial)
20. विश्वधर्म उपासना स्थल - उपासना और उपासना स्थल के विश्वमानक (WS-00000) पर आधारित
21. सत्यकाशी ब्रह्माण्डीय एकात्म विज्ञान विश्वविद्यालय (Satyakashi Universal Integration Science University-SUISU)
पाँचवें युग - स्वर्णयुग के तीर्थ सत्यकाशी क्षेत्र में प्रवेश का आमंत्रण
01. सत्यकाशी क्षेत्र निवासीयों को आमंत्रण
02. काशी (वाराणसी) को आमंत्रण
03. धार्मिक संगठन/संस्था को आमंत्रण
04. रियल इस्टेट/इन्फ्रास्ट्रक्चर व्यवसायिक कम्पनी को आमंत्रण
05. रियल इस्टेट एजेन्ट को आमंत्रण
सत्यकाशी महायोजना - प्रोजेक्ट को पूर्ण करने की योजना
सत्यकाशी : दृश्य काल के प्रथम युग का तीर्थ
सत्यकाशी क्षेत्र में पिकनिक की दृष्टि से वाराणसी और आस-पास क्षेत्र से हजारो लोग आते रहते हैं। स्वामी अड़गड़ानन्द के कारण गुरू पूर्णिमा को लाखों लोगों का आगमन एक साथ होता है, वैसे तो सालोंभर लोग आते रहते हैं। दिपावली के बाद आने वाले एकादशी को बेचुबीर मेला के कारण लाखों लोग कई प्रदेशों से आकर तीन दिन रूकते हैं। इसलिए यह क्षेत्र लोगों से परिचित है आवश्यकता है इस प्रकाशित क्षेत्र के सही उपयोग का। इस क्षेत्र के समग्र विकास के लिए ही योजनाबद्ध की गई है - ”सत्यकाशी महायोजना“ जो आध्यात्मिक-पौराणिक-धार्मिक और पर्यटन के शक्तिशाली आधार से युक्त है। ”सत्यकाशी महायोजना“ की नयी परियोजनाएँ, वहीं हैं जो विश्व में अभी कहीं नहीं हैं अर्थात वाराणसी-विन्ध्य के लिए आने वाले पर्यटक और धार्मिक व्यक्ति के लिए इस क्षेत्र में आना रूचिकर बन जायेगा।
परियोजना - सत्यकाशी महायोजना (PROJECT - REAL KASHI)
अन्तिम अवतार - कल्कि
के लीला भूमि क्षेत्र और दृश्य काल के तीर्थ सत्यकाशी क्षेत्र
में लगने वाले प्रोजेक्ट में निवेश करें।
प्रोजेक्ट की विषेशताएँ-
1. विश्व में प्रथम निर्माण
2. निवेशक के धन द्वारा सीधे उन्हें ही भूमि की रजिस्ट्री
3. 100 से 150 बीघे के प्लाट पर एक प्रोजेक्ट और संयुक्त विकास का कार्यक्रम।
4. दर्शनीय प्रोजेक्ट होने के कारण प्लाट के मूल्य में शीघ्रता से तेजी से विकास।
5. प्रोजेक्ट के लिए काशी (वाराणसी) में भूमि का अभाव
पर्यटन मनुष्य की मजबूरी है, दर्शनीय स्थल के निर्माण से विकास होता है।
क्षेत्र वासीयों गर्व से कहो-”हम सत्यकाशी निवासी हैं“
कर्मवेदान्त की प्रथम शिक्षा आधारित गीता उपदेश में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा कि आदि में मैं (आत्मा) और अन्त में भी मैं (आत्मा) हूँ। अदृश्य (सार्वजनिक प्रमाणित) काल में उन्होंने युद्ध क्षेत्र में अपने योगेश्वर रुप (सार्वभौम ज्ञान/आत्मा का विश्व रुप अर्थात् भोगेश्वर का अदृश्य रुप) द्वारा यह व्यक्त किये और वर्तमान के दृश्य (सार्वजनिक प्रमाणित) काल में श्री लव कुश सिंह ”विश्वमानव“ ने ”विश्वशास्त्र“ द्वारा भोगेश्वर रुप (सार्वभौम दृश्य कर्मज्ञान/सिद्धान्त का विश्व रुप अर्थात् आत्मा का दृश्य रुप अर्थात् योगेश्वर का दृश्य रुप) को व्यक्त किये जिसका पूर्ण दर्शन समाज को अब हो रहा है। क्योंकि ज्ञान, कर्म का अदृश्य रुप और कर्म, ज्ञान का दृश्य रुप है। अर्थात् कर्म को जानो व्यक्ति के ज्ञान को जान जाओगे। भगवान श्रीकृष्ण ने गीता उपदेश में कर्म करने की शिक्षा तो दी लेकिन उस सिद्धान्त की शिक्षा न दी जिसके आधार पर उन्होनें धर्म स्थापना की। बस यहीं सिद्धान्त ही कर्मवेद है। जिसका ज्ञान न होने के कारण ही मानसिक गुलामी के साथ आश्रितों की संख्या बढ़ रही है। वर्तमान समय विश्वव्यापी धर्म स्थापना का है न कि धर्म प्रचार का क्योंकि धर्म स्थापना की आवश्यकता की पहचान तीन सम्बन्धों द्वारा ज्ञात होता है। देश सम्बन्ध, रिश्ता सम्बन्ध और रक्त सम्बन्ध। श्रीराम के समय देश सम्बन्ध खराब तथा शेष दो सम्बन्ध ठीक था। श्रीकृष्ण के समय देश सम्बन्ध और रिश्ता सम्बन्ध खराब था, सिर्फ रक्त सम्बन्ध ठीक था और वर्तमान समय में तीनों सम्बन्ध खराब हो चुके हैं। परिणामसवरुप कर्म आधारित मानव सम्बन्ध बढ़ रहे है और बस यहीं सम्बन्ध धर्म है। राज्य और समाज क्षेत्र के बीच बढ़ती दूरी भी धर्म स्थापना का प्रतीक है।
वेदान्त की अन्तिम शाखा- कर्म वेदान्त के प्रथम चरण में कर्म की शिक्षा भगवान श्रीकृष्ण (पूर्ण ब्रह्म की प्रथम कड़ी) द्वारा, वेदान्त की व्यवहारिकता की शिक्षा स्वामी विवेकानन्द के द्वारा और अन्त में कर्मवेदान्त अर्थात् पूर्ण व्यवहारिक कर्म ज्ञान का विश्व रुप की शिक्षा श्री लव कुश सिंह ”विश्वमानव“ द्वारा व्यक्त ”विश्वशास्त्र“ द्वारा पूर्ण हुई है।
इस क्षेत्र के कल्याण का एक और अन्तिम रास्ता है- श्री लव कुश सिंह ”विश्वमानव“ द्वारा ”विश्वशास्त्र“ में व्यक्त व सार्थक योजनाबद्ध किया गया ‘‘सत्यकाशी महायोजना’’। जिसमें सहयोग ही आपका स्वयं के लिए सहयोग है। जो बुद्धि युक्त है और जो बुद्धि एवं धन युक्त है- वे इस निर्माण का भरपुर लाभ उठा लेंगे लेकिन वे जो सिर्फ धनयुक्त हैं वे सिर्फ देखते रह जायेंगे। जो जितना क्रमशः उच्चतर -शारीरिक, आर्थिक एवं मानसिक विषयों का आदान-प्रदान करता है वहीं विकास करता है जीवकोपार्जन तो पशु पक्षी भी कर लेते हैं। दूर-दृष्टि से लाभ उठायें और गर्व से कहें- ”हम सत्यकाशी निवासी हैं“
सत्यकाशी -पंचम, अन्तिम और सप्तम काशी
काशी, काश धातु से निष्पन्न है। काश का अर्थ है- ज्योतित होना या ज्योतित करना अर्थात जहाँ से ब्रह्म प्रकाशित हो। जिस स्थान या नगर से ज्ञान का प्रकाश चारों ओर फैलता है उसे काशी पुरी या काशी नगर कहते हैं। इस प्रकार ब्रह्म प्रकाशित करने वाला प्रत्येक नगर ही काशी है जिसमें से एक वाराणसी-विन्ध्याचल-शिवद्वार-सोनभद्र के बीच का क्षेत्र है जिसका स्वरूप जीवनदायिनी का है क्योंकि यहाँ से जीवनदायिनी ”विश्वशास्त्र” व्यक्त हुआ है।
सार्वभौम सत्य-सिद्धान्त और समाज समर्थित सत्यकाशी योजना जिसका क्षेत्र है- वाराणसी-विन्ध्याचल-शिवद्वार-सोनभद्र के बीच का भगवान विष्णूु और भगवान शिव से जुड़ा क्षेत्र। जो धर्मक्षेत्र से व्यापक सार्थक एवं पौराणिक आधारों पर प्रश्न करता है कि- क्यों काशी नरेश होते हुए भी उनका किला काशी शहर में नहीं? क्यों देवकी के आठवें पुत्र कृष्ण के बदले में पुत्री को कंस ने मारना चाहा तो वह विन्ध्य पर्वत पर आ बसीं? क्यों समष्टि (समाज या सार्वजनिक) धर्म के स्थापनार्थ विष्णु के पाँचवे अवतार वामन अवतार ने जब राजा बलि से तीन पग जमीन मांगा तब अवतार ने पहला पग चुनार क्षेत्र में ही रखा जिसके कारण इसका पुराना नाम चरणाद्रिगढ़ था? क्यों ब्रह्मलीन श्री श्री 1008 सत्ययोगानन्द उर्फ भुईधरा बाबा (भगवान रामकृष्ण की अगली कड़ी) ने सदी का सबसे लम्बा (दि0 13.11.97 से 22.06.98 तक) तथा अदृश्य काल का अन्तिम यज्ञ- विष्णु महायज्ञ और ज्ञानयज्ञ चुनार क्षेत्र में ही आयोजित किये? क्यों विश्व का अन्तिम शास्त्र ”विश्वशास्त्र“ इसी क्षेत्र से व्यक्त हुआ? क्यों विश्वव्यापी धर्म स्थापना (समष्टि धर्म स्थापना) पाँचवे अवतार वामन अवतार के बाद पुनः इस क्षेत्र से प्रारम्भ हो रहा है।
उपरोक्त प्रश्नों का जबाब भी सत्यकाशी योजना के जन्मदाता गण व्यापकता के साथ देते हैं। भौतिकवादी काशी वासीयों से मुक्त-शिवभक्त काशी नरेश की सत्यता के लिए प्रकृतिक चक्र द्वारा इनका किला काशी शहर में नहीं जिससे वे अन्त में अन्तिम काशी-सत्यकाशी के सत्यकाशी नरेश भी कहलायें। चुनार क्षेत्र पाँचवें अवतार वामन के चरणों से एक श्राप द्वारा ग्रसित हो चुका था कि इस क्षेत्र में जन्म लेने वाले व्यक्ति की चाहें जितना भी समष्टि (समाज) धर्म के लिए प्रयत्न क्यों न करें वे व्यष्टि (व्यक्तिगत) धर्म से अधिक न उठ सकेंगे। जब तक की इस क्षेत्र से बाहर जन्म लेकर कोई पुनः समष्टि धर्म स्थापनार्थ नहीं आ जाता। यह सब इसलिए है कि प्राकृतिक चक्र द्वारा विकसित और सन्तुलित क्षेत्र जो वाराणसी-विन्ध्याचल-शिवद्वार-सोनभद्र के बीच स्थित है। बस यहीं है पुराणों में वर्णित सात काशीयों में अन्तिम काशी-सत्यकाशी। यदि काशी (वाराणसी), शिवाकाशी, उत्तरकाशी और दक्षिण काशी (वैदुर्यपत्तन, बरकला, केरल प्रदेश) को मुख्य काशी माना जाय तो सत्यकाशी पंचम काशी है। और दो काशीयों को और सम्मिलित किया जाता है तो सत्यकाशी सप्तम काशी होगी। इस प्रकार शिव पुराण में वर्णित सात काशीयों में सत्यकाशी पंचम, अन्तिम तथा सप्तम काशी होगी।
इस प्रकार हम देखते है कि आध्यात्मिक, सार्थक, दूरदर्शी, प्रमाणित, पौराणिक, समाज समर्थित काशी की परम्परा का पालन करते हुए सत्यकाशी योजना है। जबकि लक्ष्य एक व्यापक जनसमुदाय को एक नयी दिशा द्वारा संरक्षण, विकास और आजिविका प्रदान करना है। इसलिए उचित स्थान पर इसका निर्माण आवश्यक है।
सत्यकाशी क्षेत्र से व्यक्त हुये मुख्य विषय
1. द्वापर युग में आठवें अवतार श्रीकृष्ण द्वारा प्रारम्भ किया गया कार्य ”नवसृजन“ के प्रथम भाग ”सार्वभौम ज्ञान“ के शास्त्र ”गीता“ के बाद कलियुग में शनिवार, 22 दिसम्बर, 2012 से काल व युग परिवर्तन कर दृश्य काल व पाँचवें युग का प्रारम्भ, व्यवस्था सत्यीकरण और मन के ब्रह्माण्डीयकरण के लिए दसवें और अन्तिम अवतार-कल्कि महावतार श्री लव कुश सिंह ”विश्वमानव“ द्वारा व्यक्त द्वितीय और अन्तिम भाग ”सार्वभौम कर्मज्ञान“ और ”पूर्णज्ञान का पूरक शास्त्र“, ”विश्वशास्त्र: द नाॅलेज आॅफ फाइनल नाॅलेज“ के रूप में व्यक्त हुआ।
2.जिस प्रकार सुबह में कोई व्यक्ति यह कहे कि रात होगी तो वह कोई नई बात नहीं कह रहा। रात तो होनी है चाहे वह कहे या ना कहे और रात आ गई तो उस रात को लाने वाला भी वह व्यक्ति नहीं होता क्योंकि वह प्रकृति का नियम है। इसी प्रकार कोई यह कहे कि ”सतयुग आयेगा, सतयुग आयेगा“ तो वह उसको लाने वाला नहीं होता। वह नहीं ंभी बोलेगा तो भी सतयुग आयेगा क्योंकि वह अवतारों का नियम है। सुबह से रात लाने का माध्यम प्रकृति है। युग बदलने का माध्यम अवतार होते हैं। जिस प्रकार त्रेतायुग से द्वापरयुग में परिवर्तन के लिए वाल्मिकि रचित ”रामायण“ आया, जिस प्रकार द्वापरयुग से कलियुग में परिवर्तन के लिए महर्षि व्यास रचित ”महाभारत“ आया। उसी प्रकार प्रथम अदृश्य काल से द्वितीय और अन्तिम दृश्य काल व चैथे युग-कलियुग से पाँचवें युग-स्वर्णयुग में परिवर्तन के लिए शेष समष्टि कार्य का शास्त्र ”विश्वशास्त्र“ सत्यकाशी क्षेत्र जो वाराणसी-विन्ध्याचल -शिवद्वार-सोनभद्र के बीच का क्षेत्र है, से भारत और विश्व को अन्तिम महावतार श्री लव कुश सिंह ”विश्वमानव“ द्वारा मानवों के अनन्त काल तक के विकास के लिए व्यक्त किया गया है।
3.कारण, अन्तिम महावतार श्री लव कुश सिंह ”विश्वमानव“ और ”आध्यात्मिक सत्य“ आधारित क्रिया ”विश्वशास्त्र“ से उन सभी ईश्वर के अवतारों और शास्त्रों, धर्माचार्यों, सिद्धों, संतों, महापुरूषों, भविष्यवक्ताओं, तपस्वीयों, विद्वानों, बुद्धिजिवीयों, व्यापारीयों, दृश्य व अदृश्य विज्ञान के वैज्ञानिकों, सहयोगीयों, विरोधीयों, रक्त-रिश्ता-देश सम्बन्धियों, उन सभी मानवों, समाज व राज्य के नेतृत्वकर्ताओं और विश्व के सबसे बड़े लोकतन्त्र के संविधान को पूर्णता और सत्यता की एक नई दिशा प्राप्त हो चुकी है जिसके कारण वे अधूरे थे।
व्यक्ति, एक विचार और अरबों रूपये का व्यापार
श्रीराम के नाम पर कितने का करोबार है?
श्रीकृष्ण के नाम पर कितने का करोबार है?
शिव-शंकर के नाम पर कितने का करोबार है?
बुद्ध के नाम पर कितने का करोबार है?
माँ वैष्णों देवी के नाम पर कितने का करोबार है?
सांई बाबा के नाम पर कितने का करोबार है?
विश्व के तमाम धर्म संस्थापकों व धर्मो के नाम पर कितने का करोबार है?
क्या ये उस कारोबार के मालिक हैं?
क्या ये उसका हिसाब व लाभ लेने आते हैं?
जबकि संसार के किसी भी व्यापारिक संगठन से सर्वाधिक रोजगार देने वाला उपरोक्त करोबार है।
हे मनुष्यों
जिस दिन तुम इसे समझ जाओगे।
उस दिन तुम धर्म को समझ जाओगे।
धर्म के फल व्यापार को अपनाओं,
धर्म-अधर्म का निर्णायक मत बनों।
इसलिए
कल्कि अवतार, सत्यकाशी, सत्य शिक्षा, दृश्य योग, दृश्य ध्यान,
मन (मानव संसाधन) के विश्वमानक इत्यादि नये युग के नये आविष्कारों
के व्यापार को समझों
यही धर्म का फल
और
संसार के कल्याण का
सत्य-शिव-सुन्दर
कर्म है।
”जब तक देश व विश्व के नेतृत्वकर्ता व्यवस्था परिवर्तन, शिक्षा प्रणाली में परिवर्तन, आध्यात्मिक आन्दोलन, एकीकरण, विश्वबन्धुत्व, वसुधैव-कुटुम्बकम्, बहुजन हिताय-बहुजन सुखाय, एकात्म मानवतावाद, सम्पूर्ण क्रान्ति इत्यादि की आवश्यकता की याद दिलाते रहेंगे, वे मेरे अघोषित ब्राण्ड एम्बेसडर बने रहेंगे और सत्यकाशी क्षेत्र अपनी महत्ता को बढ़ाता रहेगा, क्योंकि उनके पास इसे प्राप्त करने का कोई प्रारूप नहीं है। पहला प्रारूप सत्यकाशी क्षेत्र द्वारा प्रस्तुत किया गया है और यह अन्तिम भी हो सकता है।“ - सत्यकाशी ट्रस्ट
विश्वशास्त्र से मुख्यतः सत्यकाशी क्षेत्र के लिए व्यक्त विषय
(शास्त्रीय आधार और विस्तार के लिए ”विश्वशास्त्र का अध्याय - दो देखें“)
सत्यकाशी भी एक विचार है। मात्र इस विचार से मानव समाज का कितना बड़ा लाभ हो सकता है, यह चिन्तन का विषय है। कोई भी धार्मिक स्थल जैसे वैष्णों देवी, चित्रकूट, शिरडी, मथुरा, वृन्दावन, वाराणसी इत्यादि किसी विचार पर ही विकसित हुए और जिस विचार से वे विकसित हुए उस स्थान पर उस नाम का प्रयोग ही प्रमुख है क्योंकि उस नाम के कारण ही व्यक्ति वहाँ पहुँचते हैं। उस नाम को सदैव आगे रखना ही वहाँ का सारा रहस्य है और उसी में वहाँ का कल्याण है। उस नाम के आगे वहीं के किसी व्यक्ति के माता-पिता का नाम अंश मात्र होता है। होना भी यही चाहिए माता-पिता व्यक्तिगत श्रद्धा के पात्र हैं। जब समाज का विकास करना हो तब नाम भी सामाजिक ही होना चाहिए या ऐसे व्यक्ति के नाम पर होना चाहिए जिनका समाज के लिए योगदान रहा हो। क्योंकि उस नाम पर ही व्यक्ति उस स्थान की यात्रा करता है। इसे ऐसे समझा जाये कि ऐसे व्यक्ति जिनका लक्ष्य धन रहा था वे अपने धन के बल पर अपनी मूर्ति अपने घर पर ही लगा सकते हैं परन्तु जिनका लक्ष्य धन नहीं था, उनका समाज ने उन्हें, उनके रहते या उनके जाने के बाद अनेकों प्रकार से सम्मान दिया है ये सार्वजनिक प्रमाणित है।
किसी वस्तु को मान लेने से उसमें गुण नहीं आ जाते इसलिए मानने में नहीं जानने में रूचि व विश्वास रखना चाहिए। मानने में आलस्य है, समर्पण है, परतन्त्रता है। जानने में पुरूषार्थ है, संघर्ष है, स्वतन्त्रता है। मानना आसान है जानना कठिन है इसलिए तुम सब जानने से बचते हो। मान लेना आसान है। इसलिए समस्यायें हैं। जानना, मनुष्य से सम्बन्धित व्यक्तिगत विषय है। मानना, तो भीड़ (जन समूह) से संचालित होती है। सत्यकाशी के सम्बन्ध में भी यही बात है। मैं मानने के लिए नहीं बल्कि जानने के लिए सत्यकाशी को व्यक्त किया हूँ। अभी जानें और लाभों को समझें, मानने का काम आने वाली पीढ़ी पर छोड़ दें।
भगवान श्री कृष्ण के मथुरा-वृन्दावन को भी लोग उनके जाने के 4000 वर्ष बाद ही जाने जब चैतन्य महाप्रभु का आगमन हुआ और वह ”महाभारत“ शास्त्र साहित्य में लिखा था।
कितना विचित्र संयोग है कि विन्ध्य क्षेत्र से ही भारत का मानक समय निर्धारित होता है और इसी क्षेत्र से युग परिवर्तन की घोषणा हो रही है। यह भी विचित्रता ही है कि व्यासजी द्वारा काशी को शाप देने के कारण विश्वेश्वर ने व्यासजी को काशी से निष्कासित कर दिया था और वे गंगा पार आ गये और गंगा पार सत्यकाशी क्षेत्र से ही उनके बाद विश्वशास्त्र रचना हुई है। श्री लव कुश सिंह ”विश्वमानव“ कृत ”विश्वशास्त्र“ से मुख्यतः सत्यकाशी क्षेत्र के लिए निम्नलिखित विषय व्यक्त हुये हैं-
01. चार शंकराचार्य पीठ के उपरान्त 5वाँ और अन्तिम पीठ “सत्यकाशी पीठ”
02. “सत्यकाशी महोत्सव” व “सत्यकाशी गंगा महोत्सव” आयोजन
03. सार्वभौम देवी माँ कल्कि देवी मन्दिर - माँ वैष्णों देवी की साकार रूप
04. भोगेश्वर नाथ - 13वाँ और अन्तिम ज्योतिर्लिंग
05. सत्यकाशी पंचदर्शन
06. ज्ञान आधारित मनु-मनवन्तर मन्दिर
07. ज्ञान आधारित विश्वात्मा मन्दिर
08. विश्वधर्म मन्दिर - धर्म के व्यावहारिक अनुभव का मन्दिर
09. नाग मन्दिर
10. विश्वशास्त्र मन्दिर (Vishwshastra Temple)
11. एक दिव्य नगर - सत्यकाशी नगर
12. होटल शिवलिंगम् - शिवत्व का एहसास
13. इन्द्रलोक - ओपेन एयर थियेटर
14. हस्तिनापुर - महाभारत का लाइट एण्ड साउण्ड प्रोग्राम
15. सत्य-धर्म-ज्ञान केन्द्र: तारामण्डल की भाँति शो द्वारा कम समय में पूर्ण ज्ञान
16. सत्यकाशी आध्यात्म पार्क
17. वंश नगर - मनु से मानव तक के वंश पर आधारित नगर
18. 8वें सांवर्णि मनु - सम्पूर्ण एकता की मूर्ति (Statue of Complete Unity)
19. विस्मृत भारत रत्न स्मारक (Forgotten Bharat Ratna Memorial)
20. विश्वधर्म उपासना स्थल - उपासना और उपासना स्थल के विश्वमानक (WS-00000) पर आधारित
21. सत्यकाशी ब्रह्माण्डीय एकात्म विज्ञान विश्वविद्यालय (Satyakashi Universal Integration Science University-SUISU)
उपरोक्त एक-एक प्रोजेक्ट के साथ जिसमें सम्भव हो सकेगा आवासीय कालोनी बसती चली जायेंगी। सभी परियोजना आपस में कम से कम 5 कि.मी दूर स्थित होगीं जिससे विकास करने के लिए अन्य निवासियों को भी स्वयं के संसाधन पर अवसर मिल सके।
ये धार्मिक-दर्शनीय निर्माण जिस गाँव क्षेत्र में बनेगें उनके विकास के सम्बन्ध में विचार करें। घूमना मनुष्य की मजबूरी है। दर्शनीय स्थलों का निर्माण करें। अपने आप व्यापार व कल्याण हो जायेगा। किसी विषय के विकास व विस्तार के लिए आवश्यक होता है कि पहले उस विषय के भूतकाल व वर्तमान की स्थिति क्या है, उसे जाना जाय। क्योंकि इन्हीं आॅकड़ों पर आधारित होकर ही विकास व विस्तार की कार्य योजना बनायी जाती है। यह वैसे ही है जैसे कोई भी विद्यार्थी जब किसी कक्षा में प्रवेश लेता है तब उसे पिछली कक्षा की योग्यता अर्थात भूतकाल व वर्तमान की स्थिति बतानी पड़ती है। काशी क्षेत्र के विकास व विस्तार के पहले मानव व काशी क्षेत्र की भूतकाल व वर्तमान की स्थिति क्या है, इसे जाने जो विकास व विस्तार के लिए आधार आॅकड़े हैं। अगर ये सत्य हैं तो विकास व विस्तार भी के रूप में सत्यकाशी भी सत्य ही होगा।
उपरोक्त परियोजनाओं के बहुत से स्थान व्यापारिक नीति के अन्तर्गत गोपनीय रखे गये हैं क्योंकि उससे भूमि के मूल्य में अधिक उतार-चढ़ाव की सम्भावना हो जायेगी। जो परियोजना निर्माता कम्पनीयों के लिए उचित नहीं होगा। ये केवल बिल्डर्स एण्ड ऐसोसिएट एसोसिएशन (Builders & Associate Association) को ही बताया जायेगा जिनके द्वारा डिजिटल प्रापर्टी और एजेन्ट नेटवर्क (Digital Property & Agent Network) संचालित होगा।
01. चार शंकराचार्य पीठ के उपरान्त 5वाँ और अन्तिम पीठ ”सत्यकाशी पीठ“
चार शंकराचार्य पीठ के स्थापक आदि शंकराचार्य का परिचय - भगवान श्रीकृष्ण द्वारा भगवद्गीता मंे कथित वचन- ”जब जब धर्म की हानि और अधर्म की वृद्धि होती है तब तब मैं अवतार धारणा करता हूँ“ को चरितार्थ करने हमारी पावन मातृभूमि भारतवर्ष में विभिन्नकाल में तेजस्वी सन्त और महापुरूष अवतरित होते रहे है। एक बार पुनः इसी वचन को हम दक्षिण भारत में केरल राज्य के कालडी नामक ग्राम में आठवीं शताब्दी ई0 मंे पूर्ण होता हुआ पाते है। जब श्रीशंकर ने सनातनी नम्बूदरी ब्राह्मण दम्पति विशिष्टा और शिवगुरू के घर मंे जन्म लिया। आठ वर्ष की आयु मंे शंकर का उपनयन -संस्कार हो गया था, पर इसके पूर्व ही उन्होंने पण्डितों को आश्चर्यचकित करते हुए अनेक धर्मग्रन्थांे में प्रवीणता प्राप्त कर ली थी। सोलह वर्ष की अल्पायु मंे ही शिक्षा पूरी करके उन्हांेने षट्दर्शन का सांगोपांग अध्ययन कर लिया। फलतः उनका मन बाह्य जगत से पूर्णतया विरक्त हो गया। अब उन्हांेने संन्यास ग्रहण करने का निश्चय कर लिया। उनके इस संकल्प में उनकी प्रिय एवं वात्सल्यपूर्ण माँ ही एक बड़ा अवरोध थी। क्यांेकि अपनी माँ का वे अत्यधिक आदर करते थे। वैराग्य और प्रेम में द्वन्द्व खड़ा हो गया किन्तु शंकर को तो सर्वाेच्च कोटि का अखिल विश्व का धर्मगुरू होना था। अतः कुछ विचित्र परिस्थितियांे के उत्पन्न हो जाने से उन्हें माँ की सन्यासी होने की आज्ञा मिल गयी। शंकर ने अपनी माँ को वचन दिया था- ”यद्यपि मंै एक सन्यासी का जीवन व्यतीत करने जा रहा हूँ किन्तु तुम्हारे जीवन के अन्तिम दिनांे मंे तुम्हारे पास ही होउगाँ।“ तीव्र वैराग्य भाव से उत्तप्त आसक्ति के अन्तिम बन्धन को छिन्न करके शंकर नर्मदातट पर पहँुचे और वहाँ उन्हांेने विख्यात गौड़पाद के आत्मज्ञानी शिष्य गोविन्दपाद की शिष्यता ग्रहण की। दीक्षा के पश्चात गुरूश्रेष्ठ गोविन्दपाद ने शंकर को भगवान वेदव्यास के वेदान्तसूत्रांे पर भाष्य लिखने का आदेश दिया। इन महत्कार्य को सम्पादित करके आचार्य शंकर दिग्विजय यात्रा पर निकल पड़े। हिमालय से कन्याकुमारी और कश्मीर से आसाम में कामरूप तक उन्हांेने पैदल भ्रमण किया। इस महान यात्रा में उन्हांेने लगभग सभी समकालीन प्रकाण्ड विद्वानों को शास्त्रार्थ में पराजित किया। पराजित विद्वानांे मंे से अधिकांश उनके शिष्य या अनुयायी हो गये। आचार्य शंकर की सब से बड़ी विजय थी, प्रकाण्ड विद्वान एवं महान कर्मकाण्डी मण्डन मिश्र तथा उनकी तत्सम् विद्वान धर्म पत्नी उभय भारती को पराजित करना। यह दम्पत्ति वैदिक कर्मकाण्ड के कट्टर अनुयायी थे। कुमारिल भट्ट के शिष्य थे। शास्त्रार्थ की पूर्व शर्त के अनुसार मण्डन मिश्र, आचार्य शंकर के प्रमुख चार शिष्य मंे गौरवशाली स्थान प्राप्त हुआ। सन्यास ग्रहण करने के बाद उनका नामकरण सुरेश्वराचार्य हो गया। आचार्य शंकर के अन्य तीन शिष्य थें- पद्मपाद, तोटकाचार्य और हस्तामलक। आचार्य शंकर के उस समय के सबसे प्रबल विरोधी सम्भवतः बौद्ध ही जो वैदिक धर्म के समस्त रूपों का विरोध ही करते थे। किन्तु अन्ततोगत्वा आचार्य शंकर ने अपनी दिव्य वाग्मिता से उन सभी को पराभूत किया और उनमें से अधिकांश तो उनके अनुयायी बन गये। अद्वैत वेदान्त की महिमा और श्रेष्ठता प्रतिष्ठापित कर देने के बाद आचार्य शंकर ने भारत की चार दिशाओं मंे चार मठ स्थापित किये। पूर्व मंे जगन्नाथपुरी मंे गोवर्धन मठ, उत्तर में हिमालय बद्रीकाश्रम में जोशी या ज्योतिर्मठ, पश्चिम मंे द्वारका में शारदा मठ और दक्षिण में कर्नाटक राज्य के अन्तर्गत श्रृंगेरी मठ। इन मठों मंे उन्हांेने अपने उपरोक्त चार प्रमुख शिष्यांे को उनका पीठाधिपति नियुक्त किया। आज भी ये मठ अध्यात्मविद्या के केन्द्र हंै जहाँ पर सहस्त्रों ज्ञानपिपासु जाते रहते हैं। आचार्य शंकर ने संन्यासियों की दस सुविख्यात श्रेणियाँ भी स्थापित की जो गिरी, पुरी, भारती, सरस्वती, तीर्थ, आश्रम, वन, अरण्य, पर्वत और सागर नाम से प्रसिद्ध है। अपने अद्वैत दर्शन द्वारा सारे देश को प्लावित करके एवं धर्म मंे युगान्तरकारी सुधार ले आने के उपरान्त आचार्य शंकर सन 830 में बत्तीस वर्ष की आयु मंे हिमालय पर्वत पर केदारनाथ महासमाधि मंे लीन हो गये। आज सैकड़ो वर्षो के बाद भी भारत के धार्मिक जीवन पर उनके व्यापक एवं प्रभावशाली कार्याे का सफल प्रभाव पूर्णतः विद्यमान है। वे हमंे निरन्तर प्र्रेरित करते रहे तथा उनके द्वारा हमारा मार्गदर्शन होता रहे यही हमारी ऐकान्तिक कामना है।
श्री शंकराचार्य की वाणी
मन से बाहर अज्ञान का अस्तित्व नहीं है। केवल मन ही अविद्या है, वही समस्त बन्धनों एवं पुनर्जन्म का कारण है। जब मन नष्ट हो जाता है तो सारे प्रपंच नष्ट हो जाते है। जिस प्रकार पीलिया या पाण्डुरोग के रोगी को श्वेत वस्तुएँ भी पीली दिखाई देती हंै उसी प्रकार अज्ञान के कारण मनुष्य आत्मा को देहरूप देखता है। ब्रह्म के साथ आत्मा के ऐक्य की अनुभूति से ही मुक्ति सम्भव है। योग, सांख्य, कर्म, विद्या अथवा अन्य किसी उपाय से वह सम्भव नहीं। मैं देवाधिदेव हूँ, मैं द्वेश और ईष्र्या के स्पर्श मात्र से अलिप्त हूँ, मैं वह जो मुमुक्षु साधको की कामना पूर्ण करता हूँ, मैं अजर, मैं अमर हूँ, ईश्वर हूँ, मैं प्रत्यगात्मचैतन्य हूँ, परमानन्द पूर्ण हूँ, मैं परमशिव हूँ, मैं अनन्त हूँ, आत्मसाक्षात्कार करने वालो पुरूषो मैं मैं सर्वश्रेष्ठ हूँ, मैं आत्मानन्द का भोक्ता हूँ, अशिक्षित बालक अथवा अन्य प्राणी जिस अपने मैं की गरिमा का अनुभव करते है, वह मैं हूँ, मैं आनन्दमयी हूँ, ज्ञानमय हूँ, आत्मानुभूतिमय हूँ, मैं बाह्य वस्तु के विचार तक से कोसो दूर हूँ, मेरा हृदय उस आनन्द में मग्न है जो इन्द्रियांे का विषय नहीं है। केवल मैं ही जगत का मूल हूँ, उपनिषदों के उद्यान में बिहार करनेवाला मैं ही हूँ, मैं वह बड़वाग्नि हूँ, जो दुःखो के उफनाते हुए सागर को सुखा देगी। मैं ऋषि हूँ, ऋषियों का समूह मैं ही हूँ, सृष्टि-सृजन की क्रिया मैं हूँ, और मैं स्वयं ही सृष्टि हूँ, मैं प्रगति हूँ, मैं तृप्ति हूँ, तृप्तिरूपी दीप का प्रकाश मैं ही हूँ, मैं देह से भिन्न हूँ, अतः मैं जन्म, जरा, क्षीणता, क्षय तथा आदि के आवर्तन से मुक्त हूँ, शब्द, रूप, रस, स्पर्श, गन्ध आदि इन्द्रिय विषयांे से मैं निर्लिप्त हूँ, क्यांेकि मैं इन्द्रियरहित हूँ,। मैं मन नहीं हूँ, अतः मोह, द्वेष और भय से मुक्त हूँ, उपनिषदांे में उल्लेख है वह प्राणरहित, मनरहित, शुद्ध, उच्च से भी उच्च और अविनाशी है वह परब्रह्म मैं ही हूँ, जो शाश्वत शुद्ध, बुद्ध, मुक्त है जो अखण्ड, असीम एकमेवाद्वितीयम् है, जो सत्य ज्ञानमनन्तम रूप है। आकाश के समान मैं अन्तः वाह्य में व्याप्त हूँ, अविकारी और सर्वत्र सम हूँ, मैं शुद्ध, बुद्ध, निर्लिप्त, निर्मल, अविनाशी हूँ,। मैं निर्गुण और निष्क्रिय हूँ, मैं शाश्वत, निर्विकल्प, शुद्ध, निर्मल, निर्विकार, निराकार, अपरिवर्तनशील, नित्यमुक्त हूँ। मैं इन्द्रिय सुखो से विरक्त हूँ, परमानन्द, ज्ञान, आत्मानुभूति से पूर्ण हूँ, मैं इन्द्रिय जगत की कामनओं से सर्वत्र पृथक हूँ, जो अतीन्द्रिय है उसी में आनन्दित हूँ, समस्त शक्तिशाली तत्वों का मंगल मैं हूँ, क्यांेकि मैं उन सब में महान हूँ, मैं कामजन्य संवेगो से मुक्त हूँ, मैं एक हूँ,। अभेद हूँ, यह इस प्रकार अथवा ऐसे के भेद से पृथक हूँ, मैं निःसंदेह पुरूषांे का वन्दनीय हूँ, मैं गुणदोष की आन्तरिक भावनाओ से रहित हूँ,। मैं एकत्व का उद्घाटक हूँ, वेदान्त सिद्धान्त के सम्यक ज्ञान से जिनकी बुद्धि शुद्ध हो गयी है उनके लिए एकमात्र मैं ही परमासत्ता हूँ। रात्रि के अन्धकार की तरह अज्ञान को नष्ट करने वाला सूर्य मैं ही हूँ। मैं समस्त अशुभांे का निदान हूँ,। मैं समस्त आरोपित उपाधियांे से रहित औदार्य की पराकाष्ठा हूँ। धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष प्रदान कर सभी इच्छओं को पूर्ण करने वाला मैं ही हूँ,। मैं समस्त औषधियांे में ओज हूँ। सारे जगत का ताना बाना मैं हूँ, मैं पवित्र मन्त्ररूपी पंकज से निःसृत आत्माभिव्यक्ति की आनन्दमय सुरभि से उनमत्त भ्रमर हूँ। मैं ज्ञान हूँ, मैं ज्ञेय हूँ, मैं ज्ञाता हूँ,। मैं सभी प्रकार के ज्ञान का साधन हूँ, ज्ञाता, ज्ञान और ज्ञेय से परे शुद्ध अस्तित्व मात्र मैं ही हूँ, मैं, न बुद्धि, न अहंकार चिन्ता, कान, जीभ, और आँख भी नहीं, आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी भी मैं नहीं हूँ,। मैं चिदानन्दस्वरूप शिव हूँ, मैं शिव हूँ, मैं प्राण नहीं हूँ,। पंच वायु, सप्ततत्व, पंचकोश, हाथ, पाँव, जिह्वा या अन्य कर्मेन्द्रिय भी नहीं हूँ, मैं चिदानन्दस्वरूप शिव हूँ, मैं शिव हूँ। मुझे न लोभ, न मोह, न द्वेष है, न राग, न मद, न मत्सर, धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की भी मुझे कामना नहीं है। मैं चिदानन्दस्वरूप शिव हूँ, मै शिव हूँ। मैं सुख, दुःख, पाप, पुण्य कुछ भी नहीं जानता । मन्त्र, तीर्थ, वेद, यज्ञ भी मैं नहीं जानता। मैं न भोक्ता हूँ, न भोग्य और न भोग। मैं चिदानन्दस्वरूप शिव हूँ, मैं शिव हूँ। मुझे मृत्यु नहीं, किसी प्रकार का भय नहीं, मुझमंे जातिभेद नहीं है, न मेरे पिता है, न माता, मैं अजन्मा हूँ, न मेरे मित्र हैं, न सुहृद, न शिष्य, न गुरू मैं चिदानन्दस्वरूप शिव हूँ, मैं शिव हूँ। मैं निराकार हूँ, निर्विकल्प हूँ, मैं सर्वव्यापी हूँ, सर्वत्र हूँ, फिर भी इन्द्रियातीत हूँ, मैं न मोक्ष हूँ, न ज्ञेय, मैं चिदानन्दस्वरूप शिव हूँ, मैं शिव हूँ। बहुत से व्यक्ति जटाजूट बढ़ा लेते है, बहुत से सिर मुड़ा लेते है। बहुत से अपने केश निकाल डालते है, बहुत से गेरूआ वस्त्र धारण कर लेते है अथवा अन्य रंगो के वस्त्र पहन लेते है, किन्तु ये सब बातें उदर पोषण के लिए ही होता है। मोहग्रस्त व्यक्ति सम्मुख स्पष्ट सत्य देखकर भी नहीं देखते। मित्र और शत्रु, पुत्र, सगे-सम्बंधी, युद्ध या सन्धि किसी के प्रति भी आसक्त मत हो। यदि तुम विष्णुपद की प्राप्ति की इच्छा करते हो तो सभी विषयांे को समदृष्टि से देखो। ज्ञान की प्राप्ति केवल विचार से ही हो सकती है। अन्य किसी साधन से नहीं। यह ठीक उसी प्रकार है जैसे बिना प्रकाश की सहायता के कोई वस्तु दृष्टिगोचर नहीं होती। प्रत्येक वस्तु का जन्म अज्ञान से होता है। ज्ञान के जागृत होते ही उसका नाश हो जाता है। मन जब दर्पण की भाँति निर्मल हो जाता है तब उसमें ज्ञान प्रकट होता है। अतः मन को शुद्ध करने का प्रयत्न करना चाहिए। आत्मा का स्वतः अथवा किसी दूसरे के द्वारा न तो ग्रहण किया जा सकता है, न त्याग और न आत्मा स्वयं किसी वस्तु का ग्रहण या त्याग ही करती है। यही सम्यक ज्ञान है। सम्यक ज्ञान परम शोधक अग्नि है। यह समस्त वेद और देवताओं का परम रहस्य है। मैं सर्वव्यापी, सम, शान्त, निरपेक्ष, सच्चिदानन्द ब्रह्म हूँ, मैं यह शरीर नहीं हूँ, जो स्वयं असत् है। इसी को ज्ञानी सत्य ज्ञान कहते हैं। पूर्ण ज्ञान प्राप्त योगी अपने ज्ञान चक्षुओं से स्व आत्मा में ही सम्पूर्ण जगत को देखता है। उसे सर्वत्र स्व आत्मा ही दिखाई देता है। अन्य कुछ नहीं। आत्मा पर आरोपित उपाधियांे का विनाश केवल पूर्ण ज्ञान से होता है। अन्य किसी उपाय से नहीं। वेदांे के अनुसार ब्रह्म और जीव में एकत्व की अनुभूति ही पूर्ण ज्ञान है। सत्य ज्ञान, अहंकार को समूल नष्ट करके समस्त कर्माे को भस्म कर देता है। तत्पश्चात्, न कर्ता रह जाता है न कर्म। न फलो का भोक्ता। मुक्ति के लिए कोई चाहे तीर्थ यात्रा करते हुए, गंगासागर जाए या व्रत या दान पुण्य करे, किन्तु ज्ञान के बिना मुक्ति नहीं मिल सकती। आत्मा से तत्क्षण, तत्काल और यही आत्मानुभूति होती है। सब उपनिषदों का सार तत्व यही है कि पूर्ण मुक्ति ज्ञान से ही होती है। ज्ञान का फल तुरंत यहीं इसी जन्म में प्राप्त हो जाता है। अतः उसके लिए किसी प्रकार के संशय कि फल मिलेगा या नहीं अथवा भयभीत होने की कोई आवश्यकता नहीं। सत्यज्ञान, जो वेदान्त का विषय है इस संकल्प को जन्म देता है कि आत्मा ही ब्रह्म है। इसकी उपलब्धि से व्यक्ति पुनर्जन्म के बन्धन से तुरन्त पूर्णतः मुक्त हो जाता है। ज्ञानी पुरूष को विवेक द्वारा सम्पूर्ण दृश्य जगत को आत्मा में ही विलीन कर लेना चाहिए और निरन्तर यह चिन्तन करते रहना चाहिए कि आत्मा, आकाश के सदृश्य निर्मल है। मैं देवताआंे को प्रणाम नहीं करता। जो सभी देवताओ से परे है वह किसी देवता को प्रणाम नहीं करता। उस स्थिति की उपलब्धि के उपरान्त फिर साधक शास्त्रविहित कर्म नहीं करता। मैं बारम्बार स्वयं अपनी आत्मा को, जो समस्त साधनाआंे का मूल है, प्रणाम करता हूँ। जिसकी प्राप्ति के बाद फिर अन्य कोई वस्तु प्राप्त करने को नहीं रह जाती। जिसके आनन्द के बाद फिर किसी अन्य आनन्द की कामना नहीं रहती और जिसके ज्ञान के बाद फिर कुछ भी ज्ञातव्य नहीं रह जाता, उसी को तू ब्रह्म जान। जो आत्मतत्व है उसी को तू ब्रह्म जान वह असीम अनन्त परम सत्य है। वह महान है इसीलिए उसे ब्रह्म कहा जाता है। जो कुछ हम देखते हैं, जो कुछ सुनते हैं, वह ब्रह्म ही हैं। अन्य कुछ नहीं। परम तत्व का ज्ञान हो जाने पर समस्त विश्व सच्चिदानन्द अद्वैय ब्रह्म ही दिखाई देता है। सर्वाेच्च और दिव्य ब्रह्म ज्ञान से जो व्यक्ति विमुख है उनका जीवन व्यर्थ है। वे मनुष्य होते हुए भी पशुवत् हैं। ब्रह्म अनन्त का भण्डार है, अतः एकमात्र ब्रह्म ही परम सत्ता है। फलतः जो सत् के ज्ञान है वे उसी में शरण लेते है। ज्ञान और कर्म के बीच पर्वत सदृश अडिग विरोध है। भगवान व्यास ने इस पर बहुत विचार करने के पश्चात् अपने पुत्र को इस प्रकार बोध कराया- इन दोनों मार्गों की वेदों मे शिक्षा दी गयी है। एक है कर्म का मार्ग या प्रवृत्ति और दूसरा त्याग का मार्ग या निवृत्ति। परम अद्वैत की महानता की तुलना में देवादि भी दैत्य जैसे प्रतीत होने लगते है। और देवलोक, दानवलोक जैसा प्रतीत होने लगता है। जिसका भ्रम नष्ट हो गया है। वह आत्मज्ञान को किसी कर्म अथवा किसी अन्य ज्ञान के साथ संयुक्त करने की इच्छा नहीं करता। सत्य, परमधाम है। वह परमधाम है क्यांेकि उपनिषदों का भी वही गन्तव्य स्थल है। सत्य का अर्थ है- मन, वाणी और कर्म से कपटाचरण का अभाव। असंख्य ग्रन्थों में जिस बात का उल्लेख हुआ है उसकी व्याख्या अर्धश्लोक में ही किये दे रहा हँू। ब्रह्म सत्य है, जगत मिथ्या, जीव ब्रह्म ही है, वह ब्रह्म से पृथक नहीं।
आचार्य शंकर पर स्वामी विवेकानन्द के कुछ शब्द -
‘‘.......और इस बार प्राकट्य दक्षिण में हुआ। एक ब्राह्मण बालक उत्थित हुआ, जिसके विषय में कहा जाता है कि उसने सोलह वर्ष की आयु में अपना समस्त लेखनकार्य भाष्यरचना आदि सम्पूर्ण कर लिया था। यह असाधारण बालक शंकराचार्य थे। इस सोलह वर्षीय बालक द्वारा लिखे ग्रन्थ आधुनिक जगत् के लिए एक महान आश्चर्य है, और ऐसा ही वह बालक था। उनकी अभिलाषा यही थी कि भारतवर्ष में पुरातन पावन परम्पराआंे का पुनः स्थापना हो। विचार करने की बात है कि उस बालक के सम्मुख कितना महान कार्य था। आचार्य शंकर एक महान तत्वज्ञानी थे। उन्हांेने यह स्पष्ट किया कि बौद्ध धर्म का सार तत्वतः वेदान्त दर्शन से भिन्न नहीं है। शंकर की सर्वाेपरि गरिमा उनका गीता का प्रचार है। उस महापुरूष ने अपने उदात्त जीवन में अनेक महान कार्य किये किन्तु गीता का प्रचार और गीता पर उनका उत्कृष्ट भाष्य उनके सर्वाेत्तम कार्याे में से है। आचार्य शंकर ने वेदांे के सनातन धर्म की पूर्ण रक्षा की। अनेक अनुयायी उन्हंे शिव का अवतार मानते है.....तुम्हंे शंकर का अनुसरण करना चाहिए।
पाँचवें शंकराचार्य पीठ के स्थापक श्री लव कुश सिंह “विश्वमानव” -
कर्मवेदान्त की प्रथम शिक्षा आधारित गीता उपदेश में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा कि आदि में मैं (आत्मा) और अन्त में भी मैं (आत्मा) हूँ। अदृश्य (सार्वजनिक प्रमाणित) काल में उन्होंने युद्ध क्षेत्र में अपने योगेश्वर रुप (सार्वभौम ज्ञान/आत्मा का विश्व रुप अर्थात् भोगेश्वर का अदृश्य रुप) द्वारा यह व्यक्त किये और वर्तमान के दृश्य (सार्वजनिक प्रमाणित) काल में श्री लव कुश सिंह ”विश्वमानव“ ने ”विश्वशास्त्र“ द्वारा भोगेश्वर रुप (सार्वभौम दृश्य कर्मज्ञान/सिद्धान्त का विश्व रुप अर्थात् आत्मा का दृश्य रुप अर्थात् योगेश्वर का दृश्य रुप) को व्यक्त किये जिसका पूर्ण दर्शन समाज को अब हो रहा है। क्योंकि ज्ञान, कर्म का अदृश्य रुप और कर्म, ज्ञान का दृश्य रुप है। अर्थात् कर्म को जानो व्यक्ति के ज्ञान को जान जाओगे। भगवान श्रीकृष्ण ने गीता उपदेश में कर्म करने की शिक्षा तो दी लेकिन उस सिद्धान्त की शिक्षा न दी जिसके आधार पर उन्होनें धर्म स्थापना की। बस यहीं सिद्धान्त ही कर्मवेद है। जिसका ज्ञान न होने के कारण ही मानसिक गुलामी के साथ आश्रितों की संख्या बढ़ रही है। वर्तमान समय विश्वव्यापी धर्म स्थापना का है न कि धर्म प्रचार का क्योंकि धर्म स्थापना की आवश्यकता की पहचान तीन सम्बन्धों द्वारा ज्ञात होता है। देश सम्बन्ध, रिश्ता सम्बन्ध और रक्त सम्बन्ध। श्रीराम के समय देश सम्बन्ध खराब तथा शेष दो सम्बन्ध ठीक था। श्रीकृष्ण के समय देश सम्बन्ध और रिश्ता सम्बन्ध खराब था, सिर्फ रक्त सम्बन्ध ठीक था और वर्तमान समय में तीनों सम्बन्ध खराब हो चुके हैं। परिणामसवरुप कर्म आधारित मानव सम्बन्ध बढ़ रहे है और बस यहीं सम्बन्ध धर्म है। राज्य और समाज क्षेत्र के बीच बढ़ती दूरी भी धर्म स्थापना का प्रतीक है।
वेदान्त की अन्तिम शाखा- कर्म वेदान्त के प्रथम चरण में कर्म की शिक्षा भगवान श्रीकृष्ण (पूर्ण ब्रह्म की प्रथम कड़ी) द्वारा, वेदान्त की व्यवहारिकता की शिक्षा स्वामी विवेकानन्द के द्वारा और अन्त में कर्मवेदान्त अर्थात् पूर्ण व्यवहारिक कर्म ज्ञान का विश्व रुप की शिक्षा श्री लव कुश सिंह ”विश्वमानव“ द्वारा व्यक्त ”विश्वशास्त्र“ द्वारा पूर्ण हुई है।
इस योग्यता के कारण सत्यकाशी पीठ - पाँचवें शकराचार्य पीठ के रूप में स्थापित होती है।
02. “सत्यकाशी महोत्सव” व “सत्यकाशी गंगा महोत्सव” आयोजन
वाराणसी-विन्ध्याचल-शिवद्वार-सोनभद्र के बीच स्थित क्षेत्र जिसे हम सभी ”गुप्तकाशी“ के नाम से जानते हैं, अपने आप में व्यापक पौराणिक व ऐतिहासिक प्रमाणों को छुपाये हुये है। परन्तु वह अब ”जीवनदायिनी सत्यकाशी: पंचम, अन्तिम और सप्तम काशी“ के रुप में हमारे समक्ष व्यक्त हो चुका है। इस जागरण की कड़ी में ’’सत्यकाशी महोत्सव’’ व ’’सत्यकाशी गंगा महोत्सव’’ नाम से दो महोत्सव सत्यकाशी जागरण के लिए ही प्रारम्भ किए गये हैं। प्रारम्भ में दोनांे महोत्सव का स्थान एक है, परन्तु आगे चलकर ’’सत्यकाशी महोत्सव’’ सत्यकाशी नगर निर्माण स्थल पर हो जाएगा। यह आयोजन ”जीवनदायिनी सत्यकाशी“ के इतिहास और उसकी वर्तमान योग्यता को उपर लाना चाहते हैं, वह इसलिए कि इस क्षेत्र की पहचान को भारतीयता की पहचान से जोड़ सकें। ’’सत्यकाशी’’ पंचम, सप्तम एवं अन्तिम काशी हैं और दृश्य काल के तीर्थ के रूप में व्यक्त है, उसके अनेक कारण हैं जिसमें निम्न मुख्य हैंः-
1. यह क्षेत्र ”समाज” के जन्मदाता भगवान विष्णु के पांचवें अवतार - वामन अवतार का क्षेत्र है।
2. यह क्षेत्र शक्ति क्षेत्र है जिसमें अनेक महत्वपूर्ण, प्राचीन, ऐतिहासिक, पौराणिक धर्मस्थल-पर्यटन स्थल स्थित हैं।
3. यह क्षेत्र जीवनदायिनी शास्त्र ’’कर्मवेदः प्रथम, अन्तिम तथा पंचम वेद’’ समाहित विश्व के अन्तिम शास्त्र ”विश्वशास्त्र” को प्रस्तुत करने वाला क्षेत्र है।
4. अन्तिम अवतार - कल्कि महाअवतार का क्षेत्र हैं, यह 8वें मनु - सावर्णि मनु का क्षेत्र है, यह व्यास क्षेत्र है, यह काल, मनवन्तर, युग परिवर्तक का क्षेत्र है इत्यादि।
’’सत्यकाशी गंगा महोत्सव’’ स्थल
प्रत्येक वर्ष देव दिपावली के दिन उत्तरमुखी गंगातट, स्वामी विवेकानन्द घाट (रैपुरियाॅ), नरायनपुर में दीप दान का आयोजन जिससे यह भावना जागृत हो कि ”मैं सत्यकाशी निवासी हूँ।”
’’सत्यकाशी महोत्सव’’ स्थल
सत्यकाशी नगर स्थल में।
03. सार्वभौम देवी माँ कल्कि देवी मन्दिर - माँ वैष्णों देवी की साकार रूप
वैष्णों देवी की कथा
(कटरा-जम्मू में कथा के सम्बन्ध में बिकने वाली पुस्तिका, इन्टरनेट पर उपलब्ध कथा और गुलशन कुमार कृत ”माँ वैष्णों देवी“ प्रदर्शित फिल्म पर आधारित कथा)
वैष्णों देवी मन्दिर शक्ति को समर्पित एक पवित्रतम् हिन्दू मन्दिर है जो भारत के जम्मू और कश्मीर राज्य में कटरा के पास पहाड़ी पर स्थित है। यह उत्तरी भारत के सबसे पूज्यनीय पवित्र स्थानों में से एक है। मन्दिर 5300 फीट की ऊँचाई और कटरा से लगभग 12 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। हिन्दू धर्म में वैष्णों देवी को, जो माता रानी और वैष्णवी के नाम से भी जानी जाती है, देवीजी का अवतार हैं। हर वर्ष लाखो तीर्थयात्री मन्दिर का दर्शन करते हैं। और यह भारत में तिरूमला वेंकटेश्वर मन्दिर के बाद दूसरा सर्वाधिक देखा जाने वाला धार्मिक तीर्थ स्थल है। इस मन्दिर की देख-रेख श्री माता वैष्णो देवी तीर्थ मण्डल द्वारा की जाती है। तीर्थ यात्रा को सुविधाजनक बनाने के लिए उधमपुर से कटरा तक एक रेल सम्पर्क बनाया जा रहा है।
हिन्दू महाकाव्य के अनुसार, माँ वैष्णों देवी ने दक्षिण भारत में रत्नाकर सागर के घर जन्म लिया। इनके लौकिक माता-पिता लम्बे समय तक निःसन्तान थे। दैवी बालिका के जन्म से एक रात पहले, रत्नाकर ने वचन लिया कि बालिका जो भी चाहे, वे उसकी इच्छा के रास्ते में कभी नहीं आयेंगें। माँ वैष्णों देवी को बचपन में त्रिकुटा नाम से बुलाया जाता था। बाद में भगवान विष्णु के वंश से जन्म लेने के कारण वे वैष्णवी कहलायी। जब त्रिकुटा नौ साल की थीं, तब उन्होंने अपने पिता से समुद्र किनारे पर तपस्या करने की अनुमति चाही। त्रिकुटा ने राम के रूप में भगवान विष्णु से प्रार्थना की। सीता की खोज करते समय श्रीराम अपनी सेना के साथ समुद्र किनारे पहुँचें। उनकी दृष्टि गहरे ध्यान में लीन इस दिव्य बालिका पर पड़ी। त्रिकुटा ने श्रीराम से कहा- उसने उन्हें पति रूप में स्वीकार किया है। श्रीराम ने उसे बताया कि उन्होंने इस अवतार में केवल सीता के प्रति निष्ठावान रहने का वचन लिया है लेकिन भगवान ने उसे आश्वासन दिया कि कलियुग में वे कल्कि के रूप में प्रकट होगें और उससे विवाह करेगें। इस बीच, श्रीराम ने त्रिकुटा से उत्तर भारत में स्थित माणिक पहाड़ियों की त्रिकुटा श्रृंखला में अवस्थित गुफा में ध्यान में लीन रहने के लिए कहा। रावण के विरूद्ध श्रीराम की विजय के लिए माँ ने नवरात्र मनाने का निर्णय लिया। इसलिए उक्त सन्दर्भ में लोग, नवरात्र के 9 दिनों की अवधि में रामायण का पाठ करते हैं। श्री राम ने वचन दिया था कि समस्त संसार द्वारा माँ वैष्णों देवी की स्तुति गाई जायेगी। त्रिकुटा, वैष्णों देवी के रूप में प्रसिद्ध होगी और सदा के लिए अमर हो जायेगी।
श्रीरामचरितमानस के किष्किन्धाकाण्ड में एक देवी का वर्णन मिलता है। इन्होंने श्रीहनुमानजी तथा अन्य वानर वीरों को जल व फल दिया था तथा उन्हें गुफा से निकालकर सागर के तट पर पहुँचाया था। ये देवी स्वयंप्रभा हैं। यही देवी माता वैष्णव के रूप में प्रतिष्ठित हैं। कलयुग के अंतिम चरण में भगवान का कल्कि अवतार होगा । पुराणों के अनुसार यह अवतार भी भारत में ही सम्भलपुर नाम के एक गाँव में विष्णुयश नामक एक विप्र के यहाँ होगा। तब ये कल्कि भगवान दुष्टों को दंडित करेंगे और धरती पर धर्म की स्थापना करेंगे तथा देवी स्वयंप्रभा से श्रीरामावतार में दिए गए वचनानुसार विवाह करेंगे।
समय के साथ-साथ, देवी माँ के बारे में कई कहानियाँ उभरी, ऐसी ही एक कहानी है श्रीधर की। श्रीधर माँ वैष्णों के प्रबल भक्त थे। वे वर्तमान कटरा से 2 किलोमीटर की दूरी पर स्थित हंसली गाँव में रहते थे। एक बार माँ ने मोहक युवा लड़की के रूप में उनको दर्शन दिये। युवा लड़की ने विनम्र पण्डित से भण्डारा (भिक्षुकों व भक्तों के लिए एक प्रीतिभोज) आयोजित करने के लिए कहा। पण्डित गाँव और निकटस्थ जगहों से लोगों को आमंत्रित करने के लिए चल पड़े। उन्होंने एक स्वार्थी राक्षस ”भैरव नाथ“ को भी आमंत्रित किया। भैरव नाथ ने श्रीधर से पूछा कि वे कैसे अपेक्षाओं को पूरा करने के लिए योजना बना रहें हैं। उसने श्रीधर को विफलता की स्थिति में बुरे परिणामों का स्मरण कराया, चूँकि पण्डित जी चिंता में डूब गये, दिव्य बालिका प्रकट हुई और कहा कि वे निराश न हों सब व्यवस्था हो चुकी है। उन्होंने कहा कि 360 से अधिक श्रद्धालुओं को छोटी-सी कुटिया में बिठा सकते हो। उनके कहे अनुसार ही भण्डारा में अतिरिक्त भोजन और बैठने की व्यवस्था के साथ निर्विध्न आयोजन सम्पन्न हुआ। भैरव नाथ ने स्वीकार किया कि बालिका में अलौकिक शक्तियाँ थी और आगे और परीक्षा लेने का निर्णय लिया। उसने त्रिकुटा पहाड़ियों तक उस दिव्य बालिका का पीछा किया। 9 महीनों तक भैरव नाथ उस रहस्यमय बालिका को ढूढता रहा, जिसे वह देवी माँ का अवतार मानता था। भैरव से दूर भागते हुये देवी ने पृथ्वी पर एक बाण (तीर) चलाया, जिससे पानी फूटकर बाहर निकला। यही नदी बाणगंगा के रूप में जानी जाती है। ऐसी मान्यता है कि बाणगंगा में में स्नान करने पर, देवी माता पर विश्वास करने वालों के सभी पाप धुल जाते हैं। नदी के किनारे, जिसे चरण पादुका कहा जाता है, देवी माँ के पैरों के निशान हैं जो आज तक उसी तरह विद्यमान हैं। इसके बाद वैष्णों देवी ने अधकावरी के पास गर्भ जून में शरण ली, जहाँ वे 9 महीनों तक ध्यान-मग्न रहीं और आध्यात्मिक ज्ञान और शक्तियाँ प्राप्त की। भैरव द्वारा उन्हें ढूढ़ लेने पर उनकी साधना भ्ंाग हुई। जब भैरव ने उन्हें मारने की कोशिश की, तो विवश होकर वैष्णों देवी ने महाकाली का रूप लिया। दरबार में पवित्र गुफा के द्वार पर देवी माँ प्रकट हुई। देवी ने ऐसी शक्ति के साथ भैरव का सिर, धड़ से अलग किया कि खोपड़ी पवित्र गुफा से 2.5 किलोमीटर की दूरी पर भैरव घाटी नामक स्थान पर जा गिरी। भैरव ने मरते समय क्षमा याचना की। देवी जानती थीं कि उन पर हमला करने के पीछे भैरव की प्रमुख मंशा मोक्ष प्राप्त करने की थी। उन्होंने न केवल भैरव को पुनर्जन्म के चक्र से मुक्ति प्रदान की, बल्कि उसे वरदान भी दिया कि भक्त द्वारा यह सुनिश्चित करने के लिए कि तीर्थ-यात्रा सम्पन्न हो चुकी है, यह आवश्यक होगा कि वह देवी माँ के दर्शन के बाद, पवित्र गुफा के पास भैरव नाथ के मन्दिर के भी दर्शन करें। इस बीच वैष्णों देवी ने तीन पिण्ड सहित एक चट्टान का आकार ग्रहण किया और सदा के लिए ध्यानमग्न हो गईं। इस बीच पण्डित श्रीधर अधीर हो गये। वे त्रिकुटा पर्वत की ओर उसी रास्ते बढ़े, जो उन्होंने सपने में देखा था। अन्ततः वे गुफा के द्वार पर पहुँचें। उन्होंने कई विधियों से ”पिण्डों“ की पूजा को अपनी दिनचर्या बना ली। देवी उनकी पूजा से प्रसन्न हुई और उन्हें आशीर्वाद दिया। तब से श्रीधर और उनके वंशज माँ वैष्णों देवी की पूजा करते आ रहे हैं।
कल्कि अवतार एवं वैष्णों देवी का सम्बन्ध
श्रीरामचरितमानस के किष्किन्धाकाण्ड में एक देवी का वर्णन मिलता है। इन्होंने श्रीहनुमानजी तथा अन्य वानर वीरों को जल व फल दिया था तथा उन्हें गुफा से निकालकर सागर के तट पर पहुँचाया था। ये देवी स्वयंप्रभा हैं। यही देवी माता वैष्णव के रूप में प्रतिष्ठित हैं। कलयुग के अंतिम चरण में भगवान का कल्कि अवतार होगा । पुराणों के अनुसार यह अवतार भी भारत में ही सम्भलपुर नाम के एक गाँव में विष्णुयश नामक एक विप्र के यहाँ होगा। तब ये कल्कि भगवान दुष्टों को दंडित करेंगे और धरती पर धर्म की स्थापना करेंगे तथा देवी स्वयंप्रभा से श्रीरामावतार में दिए गए वचनानुसार विवाह करेंगे। इस अनुसार माँ वैष्णो देवी, कल्कि अवतार की पत्नी हुईं। माँ वैष्णों देवी पिण्ड रूप में हैं उनका ही साकार रूप सार्वभौम देवी - माँ कल्कि देवी के रूप में कल्कि अवतार द्वारा प्रक्षेपित किया गया है।
कलयुगनाशिनी सार्वभौम देवी - कल्कि देवी की कथा
माँ कल्कि देवी कथा
रामावतार में दिये गये देवी को वचन के आधार पर माँ वैष्णों देवी और कल्कि अवतार के सम्बन्ध पर आधारित है दृश्य काल व पाँचवें युग - स्वर्ण युग की सार्वभौम देवी - माँ कल्कि देवी की कथा। जिस पर श्री लव कुश सिंह ”विश्वमानव“ द्वारा फिल्म भी लिखा गया है। माँ कल्कि देवी मन्दिर का प्रथम स्थापना का क्षेत्र सत्यकाशी क्षेत्र ही है।
माँ कल्कि देवी का परिचय एवं रूप
माँ वैष्णों देवी की साकार रूप सार्वभौम देवी माँ कल्कि देवी मन्दिर, की स्थापना सत्यकाशी और काशी चैरासी कोस यात्रा के उभय क्षेत्र में स्थित ग्राम भवानीपुर और गांगपुर के बीच गंगा किनारे होगा।
अब तक के मंत्र व्यक्तिगत मंत्र हैं सार्वभौम देवी माँ कल्कि देवी का सार्वजनिक मंत्र है-
कलियुगनाशिनी विध्न विनाशिनि, मातः कल्कि सुरेश्वरी। शान्तिं ज्ञानं भक्ति सर्वं, भक्तेश्यः सततंतु प्रदेहि।।
मन्त्र अर्थ - कलियुग नाशिनी, विध्नहरिणी हे माॅ कल्कि मेरे पड़ोसीयों को शान्ति, ज्ञान और धन प्रदान करें।
कथा दिन - शनिवार, सायंकाल
प्रसाद - खिचड़ी
04. भोगेश्वर नाथ - 13वाँ और अन्तिम ज्योतिर्लिंग
13वाँ और अन्तिम ज्योतिर्लिंग भोगेश्वर नाथ की स्थापना माँ शीतला धाम, अदलपुरा के ठीक पूर्व दिशा में गंगा नदी के बीच होगा। यहाँ गंगा दो भागों में बँटी हुई हैं। प्रतीकात्मक रूप में अनिर्वचनीय कल्कि महाअवतार भोगेश्वर श्री लव कुश सिंह ”विश्वमानव“ द्वारा सन् 2011 में ही वहाँ की मिट्टी से शिवलिंग बना चुके हैं। जिस प्रकार श्रीराम के द्वारा रामेश्वरम् (तमीलनाडु, भारत) में रेत से सम्पन्न हुआ था। इस स्थापना स्थल के पूर्व ग्राम - जलालपुर माॅफी हैं जहाँ ”सत्यकाशी ट्रस्ट“ की स्थापना सन् 2012 में ही हो चुकी है। इस ज्योतिर्लिंग के विशेषता यह है कि ज्योतिर्लिंग के दोनों ओर से श्रीविष्णु का प्रतीक शंख और सु-दर्शन चक्र समर्पित है। जो अहिंसा के सन्देश के साथ श्रीविष्णु का महादेव में समाहित होना दिखाता है।
05. सत्यकाशी पंचदर्शन
सत्यकाशी तीर्थ में निम्नलिखित 5 दर्शन सर्वकल्याणकारी और मनोकामना पूर्ण करने वाले हैं।
1. श्री कल्कि अवतार एवं कलिकेश्वर महादेव मन्दिर - यह ग्राम चुनार क्षेत्र के नरायनपुर विकास खण्ड के ग्राम- रामजी पुर में स्थित है। इस प्राचीन शंकर व हनुमान मन्दिर के जीर्णोद्धार के उपरान्त श्री कल्कि अवतार की मूर्ति लगाई गयी साथ ही स्थापित शिवलिंग का नामकरण कलिकेश्वर महादेव किया गया। सत्यकाशी पंचदर्शन के अन्तर्गत यह मन्दिर आता है।
2. माँ शिवशंकरी धाम
3. 13वाँ और अन्तिम ज्योतिर्लिंग: भोगेश्वर नाथ - जलालपुर माॅफी
4. माँ कल्कि देवी मन्दिर - भवानीपुर-गांगपुर के बीच
5. श्री वैकुण्ठ धाम - नरायनपुर
पंच दर्शन यात्रा कल्कि अवतार मन्दिर से प्रारम्भ होकर पुनः यहीं समाप्त होती है।
06. ज्ञान आधारित मनु-मनवन्तर मन्दिर
हिन्दू पुराण के अनुसार ब्रह्माण्ड का सृजन क्रमिक रूप से सृष्टि के ईश्वर ब्रह्मा द्वारा होता है जिनकी जीवन 100 ब्राह्म वर्ष होता है। ब्रह्मा के 1 दिन को 1 कल्प (1. हेमत् कल्प, 2. हिरण्यगर्भ कल्प, 3. ब्राह्म कल्प, 4. पाद्य्म कल्प, 5. श्वेत बाराह कल्प-वर्तमान) कहते हैं। 1 कल्प, 14 मनु (पीढ़ी) के बराबर होता है। 1 मनु का जीवन मनवन्तर कहलाता है और 1 मनवन्तर में 71 चतुर्युग (अर्थात 71 बार चार युगों का आना-जाना) के बराबर होता है। ब्रह्मा का एक कल्प (अर्थात 14 मनु अर्थात 71 चतुर्युग) समाप्त होने के बाद ब्रह्माण्ड का एक क्रम) समाप्त हो जाता है और ब्रह्मा की रात आती है। फिर सुबह होती है और फिर एक नया कल्प शुरू होता है। इस प्रकार ब्रह्मा 100 वर्ष व्यतीत कर स्वयं विलिन हो जाते हैं। और पुनः ब्रह्मा की उत्पत्ति होकर उपरोक्त क्रम का प्रारम्भ होता है। गिनीज बुक आॅफ वर्ल्ड रिकार्ड्स ने कल्प को समय का सर्वाधिक लम्बा मापन घोषित किया है।
हिन्दू धर्म अनुसार, मानवता के प्रजनक की आयु होती है। यह समय मापन की खगोलीय अवधि है। मन्वन्तर एक संस्कृत शब्द है, जिसका संधि-विच्छेद करने पर मनु़ अन्तर मिलता है। इसका अर्थ है मनु की आयु।
प्रत्येक मन्वन्तर एक विशेष मनु द्वारा रचित एवं शासित होता है, जिन्हें ब्रह्मा द्वारा सृजित किया जाता है। मनु विश्व की और सभी प्राणियों की उत्पत्ति करते हैं, जो कि उनकी आयु की अवधि तक बनती और चलती रहतीं हैं, (जातियां चलतीं हैं, ना कि उस जाति के प्राणियों की आयु मनु के बराबर होगी)। उन मनु की मृत्यु के उपरांत ब्रह्मा फिर एक नये मनु की सृष्टि करते हैं, जो कि फिर से सभी सृष्टि करते हैं। इसके साथ साथ विष्णु भी आवश्यकता अनुसार, समय समय पर अवतार लेकर इसकी संरचना और पालन करते हैं। इनके साथ ही एक नये इंद्र और सप्तर्षि भी नियुक्त होते हैं।
चैदह मनु और उनके मन्वन्तर को मिलाकर एक कल्प बनता है। यह ब्रह्मा का एक दिवस होता है। यह हिन्दू समय चक्र और वैदिक समय रेखा के अनुसार होता है। प्रत्येक कल्प के अन्त में प्रलय आती है, जिसमें ब्रह्माण्ड का संहार होता है और वह विराम की स्थिति में आ जाता है, जिस काल को ब्रह्मा की रात्रि कहते हैं।
इसके उपरांत सृष्टिकर्ता ब्रह्मा फिर से सृष्टि रचना आरम्भ करते हैं, जिसके बाद फिर संहारकर्ता भगवान शिव इसका संहार करते हैं। और यह सब एक अंतहीन प्रक्रिया या चक्र में होता रहता है।
काल के गणनाओं में इतना अन्तर है कि एक मनुष्य इतने समयान्तराल में प्रमाणिकता के लिए जीवित नहीं रह सकता। अतः वर्तमान समय की आवश्यकता और उसकी उपयोगिता पर कार्य करने वालों में खोजें।
वर्तमान श्वेतवाराह कल्प के मनु और वंश
1. मनुर्भरत वंश की प्रियव्रत शाखा
अ. पौराणिक वंश अवतार काल
01. स्वायंभुव मनु यज्ञ भूतकाल
02. स्वारचिष मनु विभु भूतकाल
03. उत्तम मनु सत्यसेना भूतकाल
04. तामस मनु हरि भूतकाल
05. रैवत मनु वैकुण्ठ भूतकाल
2. मनुर्भरत वंश की उत्तानपाद शाखा
06. चाक्षुष मनु अजित भूतकाल
ब. ऐतिहासिक वंश
07. वैवस्वत मनु वामन वर्तमान
स. भविष्य के वंश
08. सांवर्णि मनु सार्वभौम भविष्य
09. दत्त सावर्णि मनु रिषभ भविष्य
10. ब्रह्म सावर्णि मनु विश्वकसेन भविष्य
11. धर्म सावर्णि मनु धर्मसेतू भविष्य
12, रूद्र सावर्णि मनु सुदामा भविष्य
13. रौच्य या देव सावर्णि मनु योगेश्वर भविष्य
14. भीम या इन्द्र सावर्णि मनु वृहद्भानु भविष्य
वैदिक-सनातन-हिन्दू धर्म में जो बातें उपलब्ध होती है, उनमें सबसे प्राचीन वंश स्वायंभुव मनु से प्रारम्भ होता है। स्वायंभुव मनु से पहले का समय प्रागैतिहासिक काल था। स्वायंभुव मनु से ही ऐतिहासिक काल प्रारम्भ होता है। स्वायंभुव मनु से प्रारम्भ हुये ऐतिहासिक काल को पौराणिक, ऐतिहासिक व भविष्य के वंश में विभाजित किया जा सकता है। स्वायंभुव मनु के स्वयं उत्पन्न होने के कारण इन्हें स्वायंभुव मनु कहा गया है यह सर्वमान्य सत्य है कि बिना स्त्री-पुरूष के सम्बन्ध से किसी का उत्पन्न होना विश्वसनीय नहीं माना जा सकता है। यह हो सकता है कि स्वायंभुव मनु के पूर्वजों के बारे में हमें कोई जानकारी नहीं थी इसलिए इन्हें स्वायंभुव मनु कहा गया। स्वायंभुव मनु के बारे में भिन्न-भिन्न धर्म ग्रन्थों में भिन्न-भिन्न नाम से वर्णन किया गया है जैसे आदेश्वर, अशिरष, वैवस्वत मनु, आदम और नूह। अतः यहाँ से शुरू होता है - ”सर्वप्रथम विकसित मानव का इतिहास“।
14 मनु पर ज्ञान आधारित मनु-मनवन्तर मन्दिर, की स्थापना जीवनदायिनी सत्यकाशी क्षेत्र में उचित स्थान देखकर की जायेगी क्योंकि इसकी स्थापना के पीछे स्थान का कोई विशेष कारण और स्थान के लिए शास्त्रीय आधार नहीं है, इसके लिए पूरा सत्यकाशी क्षेत्र ही शास्त्रीय आधार के अन्तर्गत है।
निर्माण स्थल केवल
बिल्डर्स एण्ड ऐसोसिएट एसोसिएशन (Builders & Associate Association) के लिए गोपनीय जिनके द्वारा
डिजिटल प्रापर्टी और एजेन्ट नेटवर्क (Digital Property & Agent Network)
संचालित होगा।
07. ज्ञान आधारित विश्वात्मा मन्दिर
आत्मा
संाख्य दर्शन के सिद्वान्त से विश्वमन तीन मन - सत्व, रज और तम में विखण्डित होता है जिससे समस्त विश्व व्यक्त होता है अर्थात निम्नलिखित मूल प्रकार के मन से युक्त आत्मा व्यक्त होकर अनेक अंश-अंशांस के रूप में मन से युक्त आत्माएँ व्यक्त होती रहती हैं फिर इनका संलयन और संयुग्मन होता है तब व्यक्त होता हैं - ”विश्व मन से युक्त आत्मा - एक पूर्ण मानव“
1. रज मन - ये मन सकारात्मक सार्वभौम और व्यक्तिगत विकासशील मन का रूप होता है। इसमें वे सभी मन आते हैं जो समाज व देश का शारीरिक, आर्थिक व मानसिक विकास करते हैं।
3. तम मन - ये मन नकारात्मक सार्वभौम और व्यक्तिगत विकासशील मन का रूप होता है। इसमें वे सभी मन आते हैं जो समाज व देश का शारीरिक, आर्थिक व मानसिक नकारात्मक विकास करते हैं।
3. सत्व मन - ये मन सार्वभौम आत्मा पर केन्द्रित मन होते हैं। इसके निम्नलिखित दो प्रकार होते हैं।
अ. निवृत्ति मार्गी - इस प्रकार के मन समाज व देश के शारीरिक, आर्थिक व मानसिक आदान-प्रदान से उदासीन रहते हैं तथा स्वआनन्द में ही रहते हैं। इसमें साधु-सन्त इत्यादि के मन आते हैं।
ब. प्रवृत्ति मार्गी - इस प्रकार के मन समाज व देश के शारीरिक, आर्थिक व मानसिक आदान-प्रदान में भाग लेते हैं तथा स्वआनन्द के साथ रहते हैं। इसमें गृहस्थ और अवतार इत्यादि के मन आते हैं। प्रवृत्ति मार्गी मन, निवृत्ति मार्गी मन से युक्त होते हैं।
इस प्रकार पूर्ण अवतार (पुरूष) मन के तीनों गुण सत्व, रज और तम का पूर्ण संलयन का साकार रूप होगा परन्तु वह तीनों गुणों से युक्त होते हुये भी उससे मुक्त होगा और अपने पूर्ववर्ती मन के तीनों गुण सत्व, रज और तम के सर्वोच्च अवस्था की अगली कड़ी होगा।
सार्वभौम आत्मा पर केन्द्रित प्रवृत्ति मार्गी अवतारों का कार्य सकारात्मक व नकारात्मक दोनों के मनो को सार्वभौम आत्मीय केन्द्रित करना होता है। सकारात्मक मन बार-बार पुर्नजन्म लेकर सार्वभौम आत्मीय केन्द्र की ओर गति करता है। इस प्रकार जो भी अन्तिम अवतार होगा व सकारात्म्क मन से आये सर्वोच्च अन्तिम मन का पुनर्जन्म भी होगा और अवतारों की श्रृंखला की अगली कड़ी भी होगा। साथ ही सर्वोच्च नकारात्मक मन की अगली कड़ी भी होगा। अर्थात
सकारात्मक मन की ओर से आये वर्तमान तक के अन्तिम सार्वभौम मन स्वामी विवेकानन्द हैं इसलिए अन्तिम कल्कि अवतार उनका पुनर्जन्म भी होगा। सार्वभौम आत्मा पर केन्द्रित प्रवृत्ति मार्ग की ओर से आये अन्तिम अवतार श्री कृष्ण हैं इसलिए अन्तिम कल्कि अवतार उनकी अगली कड़ी भी होगा। नकारात्मक मन की ओर से आये वर्तमान तक के अन्तिम रावण है इसलिए अन्तिम कल्कि अवतार उनकी अगली कड़ी भी होगा।
इसी प्रकार काल (समय) के दो रूप हैं- अदृश्य काल और दृश्य काल। अदृश्य काल व्यक्तिगत प्रमाणित आध्यात्म विज्ञान पर आधारित है तो दृश्य काल सार्वजनिक प्रमाणित पदार्थ विज्ञान पर आधारित काल है। दूसरे रूप में जब व्यक्ति का मन अन्तः विषयों पर केन्द्रित रहता है तब वह अदृश्य काल में तथा जब बाह्य विषय पर केन्द्रित रहता है तब वह दृश्य काल में स्थित रहता है। इस प्रकार अन्तिम अवतार का सम्बन्ध काल चक्र और पुनर्जन्म चक्र से निम्न प्रकार होगा-
काल चक्र मार्ग के
01. प्रथम भाग - अदृश्य काल में विश्वात्मा का प्रथम जन्म - योगेश्वर श्री कृष्ण
02. द्वितीय और अन्तिम भाग - दृश्य काल में विश्वात्मा के जन्म का पहला भाग - स्वामी विवेकानन्द
03. द्वितीय और अन्तिम भाग - दृश्य काल में विश्वात्मा के जन्म का अन्तिम भाग - कल्कि अवतार
पुर्नजन्म चक्र मार्ग के
01. सत्व मार्ग से - श्री कृष्ण और कल्कि अवतार
02. रज मार्ग से - स्वामी विवेकानन्द और कल्कि अवतार
03. तम मार्ग से - रावण और कल्कि अवतार
जो भी अपने आप को कल्कि अवतार के रूप में व्यक्त करेगा वह उपरोक्त सार्वभौम सत्य-सिद्धान्त सम्बन्ध से युक्त होना चाहिए। यदि श्री लव कुश सिंह ”विश्वमानव“ कल्कि अवतार हैं तो उपरोक्त सम्बन्ध अवश्य होगें और इसका विवरण इस शास्त्र में विस्तार से दिया गया है। सम्पूर्ण शास्त्र का संगठन इस पर ही आधारित है।
सत्य से सार्वभौम सत्य-सिद्धान्त तक का मार्ग अवतारों का मार्ग है। सार्वभौम सत्य-सिंद्धान्त की अनुभूति ही अवतरण है। इसके अंश अनुभूति को अंश अवतार तथा पूर्ण अनुभूति को पूर्ण अवतार कहते है। अवतार मानव मात्र के लिए ही कर्म करते हैं न कि किसी विशेष मानव समूह या सम्प्रदाय के लिए। अवतार, धर्म, धर्मनिरपेक्ष व सर्वधर्मसमभाव से युक्त अर्थात एकात्म से युक्त होते है। इस प्रकार अवतार से उत्पन्न शास्त्र मानव के लिए होते हैं, न कि किसी विशेष मानव समूह के लिए। उत्प्रेरक, शासक और मार्गदर्शक आत्मा सर्वव्यापी है। इसलिए एकात्म का अर्थ संयुक्त आत्मा या सार्वजनिक आत्मा है। जब एकात्म का अर्थ संयुक्त आत्मा समझा जाता है तब वह समाज कहलाता है। जब एकात्म का अर्थ व्यक्तिगत आत्मा समझा जाता है तब व्यक्ति कहलाता है। अवतार, संयुक्त आत्मा का साकार रुप होता है जबकि व्यक्ति व्यक्तिगत आत्मा का साकार रुप होता है। शासन प्रणाली में समाज का समर्थक दैवी प्रवृत्ति तथा शासन व्यवस्था प्रजातन्त्र या लोकतन्त्र या स्वतन्त्र या मानवतन्त्र या समाजतन्त्र या जनतन्त्र या बहुतन्त्र या स्वराज कहलाता है और क्षेत्र गणराज्य कहलाता है। ऐसी व्यवस्था सुराज कहलाती है। शासन प्रणाली में व्यक्ति का समर्थक असुरी प्रवृत्ति तथा शासन व्यवस्था राज्यतन्त्र या राजतन्त्र या एकतन्त्र कहलाता है और क्षेत्र राज्य कहलाता है ऐसी व्यवस्था कुराज कहलाती है। सनातन से ही दैवी और असुरी प्रवृत्तियों अर्थात् दोनों तन्त्रों के बीच अपने-अपने अधिपत्य के लिए संघर्ष होता रहा है। जब-जब समाज में एकतन्त्रात्मक या राजतन्त्रात्मक अधिपत्य होता है तब-तब मानवता या समाज समर्थक अवतारों के द्वारा गणराज्य की स्थापना की जाती है। या यूँ कहें गणतन्त्र या गणराज्य की स्थापना ही अवतार का मूल उद्देश्य अर्थात् लक्ष्य होता है शेष सभी साधन अर्थात् मार्ग।
भगवान विष्णु के 24 अवतार (1. श्री सनकादि, 2. वराहावतार, 3. नारद मुनि, 4. नर-नारायण, 5. कपिल, 6. दत्तात्रेय, 7. यज्ञ, 8. ऋषभदेव, 9. पृथु, 10. मत्स्यावतार, 11. कूर्म अवतार, 12. धन्वन्तरि, 13. मोहिनी, 14. हयग्रीव, 15. नृसिंह, 16. वामन, 17.गजेन्द्रोधारावतार, 18. परशुराम, 19. वेदव्यास, 20. हन्सावतार, 21. राम, 22. कृष्ण, 23. बुद्ध, 24. कल्कि) का वर्णन श्री विष्णु पुराण एवं श्री भविष्य पुराण में स्पष्ट उल्लेख है। जिनमें मुख्य 10 अवतार (1. मत्स्य, 2. कूर्म, 3. वाराह, 4. नृसिंह, 5. वामन, 6. परशुराम, 7. राम, 8. कृष्ण, 9. बुद्ध, 10. कल्कि) ही माने जाते हैं।
अवतारों के प्रत्यक्ष और प्रेरक दो कार्य विधि हैं। प्रत्यक्ष अवतार वे होते हैं जो स्वयं अपनी शक्ति का प्रत्यक्ष प्रयोग कर समाज का सत्यीकरण करते हैं। यह कार्य विधि समाज में उस समय प्रयोग होता है जब अधर्म का नेतृत्व एक या कुछ मानवों पर केन्द्रित होता है। प्रेरक अवतार वे होते हैं जो स्वयं अपनी शक्ति का अप्रत्यक्ष प्रयोग कर समाज का सत्यीकरण जनता एवं नेतृत्वकर्ता के माध्यम से करते हैं। यह कार्य विधि समाज में उस समय प्रयोग होता है जब समाज में अधर्म का नेतृत्व अनेक मानवों और नेतृत्वकर्ताओं पर केन्द्रित होता है।
इन विधियों में से कुल मुख्य दस अवतारों में से प्रथम सात (मत्स्य, कूर्म, वाराह, नृसिंह, वामन, परशुराम, राम) अवतारों ने समाज का सत्यीकरण प्रत्यक्ष विधि के प्रयोग द्वारा किया था। आठवें अवतार (श्रीकृष्ण) ने दोनों विधियों प्रत्यक्ष ओर प्रेरक का प्रयोग किया था। नवें (भगवान बुद्ध) और अन्तिम दसवें अवतार की कार्य विधि प्रेरक ही है।
प्रत्येक अवतार का मूल समष्टि धर्म की स्थापना रहा है। इसके लिए वे व्यष्टि धर्म (व्यक्ति-परिवार) केन्द्रित धर्म सदैव अवतारों द्वारा या आत्मीय/प्राकृतिक बल द्वारा अवनति को प्राप्त होते रहते हैं।
मनुष्य ”पाने“ में अधिक विश्वास करता है इसके लिए वह ”दर्शन“, ”दान“ इत्यादि का कार्य कर सब-कुछ पा लेना चाहता है जबकि जो ”हो जाने या बन जाने“ में विश्वास करते हैं वहीं अवतार, महापुरूष इत्यादि के रूप में व्यक्त होते हैं। शरीर प्राप्त कर, उसका पालन और संसाधन प्राप्त करना तथा पीढ़ी बढ़ाना ये सामान्य सी जैविक प्रक्रिया है, मनुष्य का शरीर पाने के कारण यह जीवन का एक अनिवार्य कर्म तो है ही परन्तु लक्ष्य नहीं। किसी अवतार, महापुरूष या कालानुसार प्रसिद्ध व्यक्ति का दर्शन या उनसे मिल लेने से कोई लाभ नहीं होता जब तक कि मनुष्य उन जैसा बनने का प्रयत्न ना करे या उनके द्वारा निर्धारित कार्य न करे।
काल (समय) के दो रूप हैं- अदृश्य काल और दृश्य काल। अदृश्य काल व्यक्तिगत प्रमाणित आध्यात्म विज्ञान पर आधारित है तो दृश्य काल सार्वजनिक प्रमाणित पदार्थ विज्ञान पर आधारित काल है। दूसरे रूप में जब व्यक्ति का मन अन्तः विषयों पर केन्द्रित रहता है तब वह अदृश्य काल में तथा जब बाह्य विषय पर केन्द्रित रहता है तब वह दृश्य काल में स्थित रहता है।
पूर्ण मनुष्य के निर्माण प्रक्रिया में निम्नलिखित दस चरण पूरे हुए हैं अर्थात पूर्णता के लिए इन दस चरण में व्यक्त मुख्य-गुण सिद्धान्त का संयुक्त व्यक्तित्व ही पूर्ण मनुष्य के रूप में निर्मित होता है-
01. अदृश्य काल
पहलायुग: सत्ययुग
अ. व्यक्तिगत प्रमाणित पूर्ण प्रत्यक्ष अवतार
01. अदृश्य काल के व्यक्तिगत प्रमाणित काल में व्यक्तिगत प्रमाणित अदृश्य प्राकृतिक चेतना से युक्त सत्य आधारित सतयुग में विष्णु के प्रथम अवतार - मत्स्य अवतार
मुख्य-गुण सिद्धान्त - मछलियों ंके स्वभाव जल की धारा के विपरीत दिशा (राधा) में गति करने से ज्ञान (अर्थात राधा का सिद्धान्त) प्रथम अवतार मत्स्य अवतार का गुण था जो अगले अवतार में संचरित हुई।
02. अदृश्य काल के व्यक्तिगत प्रमाणित काल में व्यक्तिगत प्रमाणित अदृश्य प्राकृतिक चेतना से युक्त सत्य आधारित सतयुग में विष्णु के द्वितीय अवतार - कूर्म या कच्छपावतार
मुख्य-गुण सिद्धान्त - एक सहनशील, शांत, धैर्यवान, लगनशील, दोनों पक्षांे के बीच मध्यस्थ की भूमिका वाला गुण (समन्वय का सिद्धान्त) सहित प्रथम अवतार के गुण सहित वाला गुण द्वितीय अवतार कूर्म अवतार का गुण था जो अगले अवतार में संचरित हुई।
03. अदृश्य काल के व्यक्तिगत प्रमाणित काल में व्यक्तिगत प्रमाणित अदृश्य प्राकृतिक चेतना से युक्त सत्य आधारित सतयुग में विष्णु के तृतीय अवतार - बाराह अवतार
मुख्य-गुण सिद्धान्त - एक मेधावी, सूझ-बुझ, सम्पन्न, पुरूषार्थी, धीर-गम्भीर, निष्कामी, बलिष्ठ, सक्रिय, शाकाहारी, अहिंसक और समूह प्रेमी, लोगों का मनोबल बढ़ाना, उत्साहित और सक्रिय करने वाला गुण (प्रेरणा का सिद्धान्त) सहित द्वितीय अवतार के समस्त गुण से युक्त वाला गुण तृतीय अवतार वाराह अवतार का गुण था जो अगले अवतार में संचरित हुई।
04. अदृश्य काल के व्यक्तिगत प्रमाणित काल में व्यक्तिगत प्रमाणित अदृश्य प्राकृतिक चेतना से युक्त सत्य आधारित सतयुग में विष्णु के चैथे अवतार - नृसिंह अवतार
मुख्य-गुण सिद्धान्त - प्रत्यक्ष रूप से एका-एक लक्ष्य को पूर्ण करने वाले (लक्ष्य के लिए त्वरित कार्यवाही का सिद्धान्त) गुण सहित तृतीय अवतार के समस्त गुण से युक्त वाला गुण चतुर्थ अवतार नरसिंह अवतार का गुण था जो अगले अवतार में संचरित हुई।
05. अदृश्य काल के व्यक्तिगत प्रमाणित काल में व्यक्तिगत प्रमाणित अदृश्य प्राकृतिक चेतना से युक्त सत्य आधारित सतयुग में विष्णु के पाचवें अवतार - वामन अवतार
मुख्य-गुण सिद्धान्त - भविष्य दृष्टा, राजा के गुण का प्रयोग करना, थोड़ी सी भूमि पर गणराज्य व्यवस्था की स्थापना व व्यवस्था को जिवित करना, उसके सुख से प्रजा को परिचित कराने वाले गुण (समाज का सिद्धान्त) सहित चतुर्थ अवतार के समस्त गुण से युक्त गुण पाँचवें अवतार का गुण था जो अगले अवतार में संचरित हुई।
ब. सार्वजनिक प्रमाणित अंश प्रत्यक्ष अवतार
06. अदृश्य काल के व्यक्तिगत प्रमाणित काल में व्यक्तिगत प्रमाणित अदृश्य प्राकृतिक चेतना से युक्त सत्य आधारित सतयुग में विष्णु के छठवें अवतार - परशुराम अवतार
मुख्य-गुण सिद्धान्त - गणराज्य व्यवस्था को ब्रह्माण्ड में व्याप्त व्यवस्था सिद्धान्तों को आधार बनाने वाले गुण और व्यवस्था के प्रसार के लिए योग्य व्यक्ति को नियुक्त करने वाले गुण (लोकतन्त्र का सिद्धान्त और उसके प्रसार के लिए योग्य उत्तराधिकारी नियुक्त करने का सिद्धान्त) सहित पाँचवें अवतार के समस्त गुण से युक्त वाला गुण छठें अवतार परशुराम का गुण था जो अगले अवतार में संचरित हुई।
दूसरायुग: त्रेतायुग
स. सार्वजनिक प्रमाणित पूर्ण प्रत्यक्ष अवतार
07. अदृश्य काल के सार्वजनिक प्रमाणित काल में सार्वजनिक प्रमाणित अदृश्य प्राकृतिक चेतना से युक्त यज्ञ आधारित त्रेता युग में विष्णु के सातवंे अवतार - श्री राम अवतार - रामायण (मानक व्यक्ति चरित्र)
मुख्य-गुण सिद्धान्त - आदर्श चरित्र के गुण तथा छठें अवतार तक के समस्त गुण को प्रसार करने वाला गुण (व्यक्तिगत आदर्श चरित्र के आधार पर विचार प्रसार का सिद्धान्त) सातवें अवतार श्रीराम का गुण था जो अगले अवतार में संचरित हुई।
तीसरायुग: द्वापरयुग
द. व्यक्तिगत प्रमाणित पूर्ण प्रेरक अवतार
08. दृश्य काल के व्यक्तिगत प्रमाणित काल में व्यक्तिगत प्रमाणित पूर्ण दृश्य सत्य चेतना से युक्त भक्ति और प्रेम आधारित द्वापर युग में विष्णु के आठवें अवतार
- योगेश्वर श्री कृष्ण अवतार महाभारत (मानक सामाजिक व्यक्ति चरित्र)
मुख्य-गुण सिद्धान्त - आदर्श सामाजिक व्यक्ति चरित्र के गुण, समाज मंे व्याप्त अनेक मत-मतान्तर व विचारों के समन्वय और एकीकरण से सत्य-विचार के प्रेरक ज्ञान को निकालने वाले गुण (सामाजिक आदर्श व्यक्ति का सिद्धान्त और व्यक्ति से उठकर विचार आधारित व्यक्ति निर्माण का सिद्धान्त) सहित सातवें अवतार तक के समस्त गुण आठवें अवतार श्रीकृष्ण का गुण था। जिससे व्यक्ति, व्यक्ति पर विश्वास न कर अपने बुद्धि से स्वयं निर्णय करें और प्रेरणा प्राप्त करता रहे। जो अगले अवतार में संचरित हुई।
चैथायुग: कलियुग
य. सार्वजनिक प्रमाणित अंश प्रेरक अवतार
09. दृश्य काल के व्यक्तिगत प्रमाणित काल में सार्वजनिक प्रमाणित अंश दृश्य सत्य चेतना से युक्त संघ और योजना आधारित कलियुग के प्रारम्भ में विष्णु के ं नवें अवतार - बुद्ध अवतार
मुख्य-गुण सिद्धान्त - प्रजा को प्रेरित करने के लिए धर्म, संघ और बुद्धि के शरण में जाने की मूल शिक्षा देना नवें अवतार भगवान बुद्ध का गुण (धर्म, संघ और बुद्धि का सिद्धान्त) था। जो अगले अवतार में संचरित हुई।
पहले सभी आत्मा और अब अन्त में मैं विश्वात्मा
(पूर्ण विवरण अध्याय - दो में उपलब्ध)
01. दृश्य काल
पाँचवाँयुगः सत्ययुग/स्वर्णयुग
र. सार्वजनिक प्रमाणित पूर्ण प्रेरक अवतार
10. दृश्य काल के सार्वजनिक प्रमाणित काल में सार्वजनिक प्रमाणित पूर्ण दृश्य सत्य चेतना से युक्त संघ और योजना आधारित कलियुग के अन्त में विष्णु के दसवाँ और अन्तिम
- भोगेश्वर श्री लव कुश सिंह ”विश्वमानव“ निष्कलंक कल्कि अवतार - विश्वभारत (मानक वैश्विक व्यक्ति चरित्र)
आदर्श वैश्विक व्यक्ति चरित्र सहित सभी अवतारों का सम्मिलित गुण व मन निर्माण की प्रक्रिया से निर्मित अन्तिम मन स्वामी विवेकानन्द के मन के गुण मिलकर दसवें अन्तिम अवतार श्री लव कुश सिंह ”विश्वमानव“ में व्यक्त हुआ।
मुख्य-गुण सिद्धान्त - विश्वधर्म/वेदान्तधर्म/अद्वैतधर्म/एकताधर्म/लोकतन्त्रधर्म/समष्टिधर्म/प्राकृतिकधर्म/सत्यधर्म/संयुक्तमनधर्म/ईश्वर धर्म/हिन्दूधर्म/सार्वजनिकधर्म/दृश्यधर्म/मानवधर्म/धर्मनिरपेक्षधर्म - लव कुश सिंह ”विश्वमानव“ - सन् 2012 ई0 - पूर्ववर्ती सभी धर्मो व मतो का समन्वय व एकीकरण करते हुये निराकार आधारित लोकतंत्र व्यवस्था का वृक्ष शास्त्र विश्व-नागरिक धर्म का धर्मयुक्त धर्मशास्त्र-कर्मवेद: प्रथम, अन्तिम तथा पंचम वेदीय श्रृंखला विश्व-राज्य धर्म का धर्मनिपेक्ष धर्मशास्त्र- विश्वमानक शून्य-मन की गुणवत्ता का विश्वमानक श्रृंखला, आदर्श मानक सामाजिक व्यक्ति चरित्र समाहित आदर्श मानक वैश्विक व्यक्ति चरित्र अर्थात सार्वजनिक प्रमाणित आदर्श मानक वैश्विक व्यक्ति चरित्र का प्रस्तुतीकरण।
सामान्य व्यावहारिक रूप में भविष्य में जन्म लेने वाले किसी भी व्यक्ति का नाम निश्चित करना असम्भव है। अगर अवतार के उदाहरण में देखें तो सिर्फ उस समय की सामाजिक आवश्यकताओं के अनुसार उसके गुण की ही कल्पना की जा सकती है या उसके हो जाने के उपरान्त उसके नाम को सिद्ध करने की कोशिश की जा सकती है। इसलिए उस अवतार का जो भी नाम कल्पित है वह केवल गुण को ही निर्देश कर सकता है। इस प्रकार ”कल्कि“ जो ”कल की“ अर्थात ”भविष्य की“ के अर्थो में रखा गया है। ”मैं“, उसके ”सार्वभौम मैं“ का गुण है। ”अहमद“, उसके अपने सार्वभौम सत्य-सिद्धान्त पर अतिविश्वास होने के कारण अंहकार का नशा अर्थात अहंकार के मद से युक्त अहंकारी जैसा अनुभव करायेगा। उसका कोई गुरू नहीं होगा, वह स्वयं से प्रकाशित स्वयंभू होगा जिसके बारे में अथर्ववेद, काण्ड 20, सूक्त 115, मंत्र 1 में कहा गया है कि
”ऋषि-वत्स, देवता इन्द्र, छन्द गायत्री। अहमिद्धि पितुष्परि मेधा मृतस्य जग्रभ। अहं सूर्य इवाजिनि।“
अर्थात ”मैं परम पिता परमात्मा से सत्य ज्ञान की विधि को धारण करता हूँ और मैं तेजस्वी सूर्य के समान प्रकट हुआ हूँ।“
मेरा यह जीवन और कार्य 28वें चतुर्युगी के अन्तिम युग कलियुग के 10वें और अन्तिम अवतार कल्कि का ही कार्य है जो ”सार्वभौम“ अवतार-गुण से युक्त है। जो पूर्णतः शास्त्र प्रमाणित है। और इस कार्य से श्वेतबाराह कल्प के 29वें चतुर्युगी का प्रथम युग सत्ययुग/स्वर्णयुग का प्रारम्भ होता है।
सभी प्रकार के सत्व, रज और तम से युक्त मन और उनसे व्यक्त मनु, अवतार, संत, महापुरूष के मनों से युक्त अर्थात ”विश्व मन से युक्त आत्मा - एक पूर्ण मानव“, विश्वात्मा मैं ही हूँ।
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08. विश्वधर्म मन्दिर - धर्म के व्यावहारिक अनुभव का मन्दिर
धर्म के व्यावहारिक अनुभव का मन्दिर - विश्वधर्म मन्दिर, की स्थापना जीवनदायिनी सत्यकाशी क्षेत्र में उचित स्थान देखकर की जायेगी क्योंकि इसकी स्थापना के पीछे स्थान का कोई विशेष कारण और स्थान के लिए शास्त्रीय आधार नहीं है, इसके लिए पूरा सत्यकाशी क्षेत्र ही शास्त्रीय आधार के अन्तर्गत है।
यह एक विशाल कैम्पस होगा जिसमें एक प्रवेश द्वार और एक ही निकास द्वार होगा। प्रवेश द्वार से प्रवेश करते ही विश्व के प्रमुख धर्मो के अलग-अलग द्वार होगें। जिन्हें जिस धर्म का अनुभव प्राप्त करना हो वे उस द्वार से प्रवेश करेंगे। और उस धर्म के अनुसार वस्त्र, पूजा पद्धति, धर्म शास्त्र, खान-पान इत्यादि का पूरा अनुभव पूरे दिन प्राप्त करेंगे। और अन्त में निकास द्वार से अपने पुराने वस्त्र को धारण कर बाहर आयेंगे। इसका तात्पर्य यह है कि जन्म (प्रवेश द्वार) की एक ही विधि है और मृत्यु (निकास द्वार) की भी एक ही विधि है जो किसी धर्म से सम्बन्धित नहीं है। बीच का जीवन ही उस धर्म का अनुभव है। धर्म में प्रवेश के उपरान्त धर्म परिवर्तन का कोई मार्ग नहीं है। उसके लिए आपको निकास द्वार (मृत्यु) से बाहर आकर फिर जन्म लेना पड़ेगा फिर किसी दूसरे धर्म का अनुभव आप प्राप्त कर सकते हैं। यह धर्म के व्यावहारिक अनुभव का मन्दिर - विश्वधर्म मन्दिर, पूर्णतः व्यापारिक ढंग से संचालित होगा।
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09. नाग मन्दिर
सूर्यवंश या कूर्मवंश ही प्रमुख क्षत्रिय वंश है। समूचे भारत में इसके अनेक कुल और वंश आज कूर्मि जाति के कुलों और वंशों के रूप में मिलते हैं। कालान्तर में किसी प्रसिद्ध राजा या ऋषि आदि के नाम पर भी कुछ कूर्मि लोग अपनी वंश परम्परा मानते हैं किन्तु समस्त कूर्मि जाति का उद्भव मुख्य रूप से कूर्मवंश या सूर्यवंश से होने के कारण कूर्मि जाति अपने को कूर्मवंशी कहती है। जिस प्रकार कुरू के वंशज कौरव, पाण्डु के वंशज पाण्डव तथा यदु के वंशज यादव कहलाये, उसी प्रकार महर्षि कूर्म के वंशज कौर्मि के नाम से विख्यात हुए। वर्तमान समय में कूर्मि, कुटुम्बी, कुनबी, कुलंबी आदि उसी के ही अपभ्रंस रूप हैं। महर्षि कूर्म के वंशज कूर्मवंशीय क्षत्रिय के नाम से जाने जाते हैं। बाम्बे गजेटियर बेलगाम जिल्द-21 के अनुसार कुनबी (कुर्मी) लोगों के कुल सम्बन्धी नाम 292 हैं। सम्पूर्ण संख्या में से 102 की उत्पत्ति चन्द्र वंश से, 78 की उत्पत्ति सूर्य वंश से तथा 81 की उत्पत्ति ब्रह्म वंश से मानी जाती है। शेष 31 कुलों के सम्बन्ध में कहा जाता है कि उनका सम्बन्ध विविध वंशों से है।
त्रेता युग के प्रारम्भ में ब्रह्मा के मारीचि नामक पुत्र के प्रथम पुत्र कश्यप (द्वितीय पुत्र अत्रि) हुए (वायु पुराण, 6.43)। दक्ष वंश की 60 कन्याओं मंे से 10 कन्याओं का विवाह धर्म के साथ, 13 कन्याओं का विवाह महर्षि कश्यप के साथ, 27 कन्याओं का विवाह चन्द्रमा के साथ, 2 कन्याओं का विवाह भूत के साथ, 2 कन्याओं का विवाह अंगीरा के साथ, 2 कन्याओं (पुलोमा और कालका, इनसे पौलोम और कालकेय नाम के साठ हजार रणवीर दानवों का जन्म हुआ जो कि कालान्तर में निवातकवच के नाम से विख्यात हुए।) का विवाह कश्यप के साथ और शेष 4 कन्याओं (विनता, कद्रु, पतंगी व यामिनी) का विवाह भी तार्कष्यधारी कश्यप के साथ ही कर दिया। महर्षि कश्यप की पत्नी विनता के गर्भ से गरूड़ (भगवान विष्णु का वाहन) और वरूण (सूर्य का सारथि) पैदा किए। कद्रू की कोख से अनेक नागों का जन्म हुआ। रानी पतंगी से पक्षियों का जन्म हुआ। यामिनी के गर्भ से शलभों (पतिंगों) का जन्म हुआ।
कश्यप की 1. दिति नामक स्त्री के दूसरे पुत्र दैत्य से दैत्य जाति की स्थापना हुई।
कश्यप की 2. दनु नामक स्त्री से उत्पन्न वंश दानव वंश कहा गया।
कश्यप की 3. क्रोधवसा नामक स्त्री से उत्पन्न पुत्र का नाम नाग था और इनके वंशज नागवंशी कहलाये। इनका साम्राज्य वर्तमान तुर्किस्तान में था जिसे प्राचीन समय में नागलोक कहा जाता था। इनके राज्य की उत्तरी सीमा अराल सागर थी जहाँ का प्रतापी राजा शेष नाग था। नागवंशीयों की मूलतः 7 शाखाएँ हुयीं जिनमें मुख्यतः कारकोटक, नाग, वासुकि, कश्यपनाग, कन्दर्प महानाग तथा शेषनाग हैं। पत्नी से साँप, बिच्छु आदि विषैले जन्तु पैदा किए। नागवंशीयों के आसपास गरूण वंश का राज्य था। कारकोटक नाग वंश की कन्या उलूपी की शादी, चन्द्रवंशी-पाण्डुवंशी अर्जुन से हुई थी। इन्हीं नागवंशियों की एक शाखा भारशिव नागों की थी। ये कुषाण वंश के पतन के बाद मथुरा, कान्तिपुरी (मिर्जापुर) राज्यों के शासक रहे। इन भारशिव नागों ने वाराणसी पर भी अधिकार करके अपना राज्य स्थापित किया था। महाकवि भारशिव, नागवंशियों के महान लेखक व कवि हुए थे। इन्होंने भारशि नागों को ”भर“ शब्द से प्रयुक्त किया। भारशिव का समय 592 से 661 ई0 के आस-पास था। भार जाति के लोग राज्य शासन में होने के कारण ”राजभर“ कहलाये। जिनमें राजा बिहारीमल, राजा सुहेलदेव जिन्होंने गोण्डा (उत्तर प्रदेश) में देवी पाटन का निर्माण कराया। राजा सुहेलदेव की 5वीं पीढ़ी में राजा सूर्यमल हुये, इनके पुत्र कुमार नागुल गुरू गोरखनाथ के शिष्य गुरू रत्ननाथ के शरण में चले गये और 1354 ई0 में गुरू रत्ननाथ की मदद से कुमार नागुल ने देवी पाटन पर पुनः अधिकार कर लिया। राजा सूर्यमल की 6 पुत्रीयों का विवाह गुरू रत्ननाथ की मदद से क्षत्रिय कुलों में की गई। राजा मानिक 1092 से 1134 ई0 तक श्रावस्ती के राजा रहे। राजा कर्ण मिर्जापुर जिले में कर्ण (कान्तित) क्षेत्र के राजा थे और यहीं से भदोही क्षेत्र भी इनके शासन में था। सन् 1751 ई0 में वाराणसी के राजा बलवन्त सिंह ने कान्तित और भदोही को अपने अधिकार में कर लिये। राजा हरदेव 1168 ई0 से 1213 ई0 तक शासन में रहे और इन्होने अपने नाम से हरदोई नामक नगर बसाया। राजा डलदेव ने अपनी राजधानी गंगा किनारे डलमऊ नाम से बसाये। इनके सगे भाई राजा बलदेव ने अपनी राजधानी राजबरेली वर्तमान रायबरेली नाम से बसाया। इन दोनों भाईयों का शासन काल 1400 से 1413 ई0 तक रहा।
कश्यप की 4. ताम्रा नामक स्त्री से उत्पन्न वंश का नाम जटायुवंश और गरूणवंश था।
कश्यप की 5. काष्ठा नामक स्त्री से घोड़े आदि एक खुर वाले पशु उत्पन्न हुए।
कश्यप की 6. अरिष्ठा नामक स्त्री से से गन्धर्व का जन्म हुआ।
कश्यप की 7. सुरसा नामक स्त्री से यातुधान (राक्षस) उत्पन्न हुए।
कश्यप की 8. इला नामक स्त्री से वृक्ष, लता आदि पृथ्वी में उत्पन्न होने वाली वनस्पतियों का जन्म हुआ।
कश्यप की 9. मुनी नामक स्त्री से अप्सरागण का जन्म हुआ।
कश्यप की 10. सुरभि नामक स्त्री से भैंस, गाय तथा दो खुर वाले पशुओं की उत्पति की।
कश्यप की 11. शरमा नामक स्त्री से बाघ आदि हिंसक जीवों को पैदा किया।
कश्यप की 12. तिमिय नामक स्त्री से जलचर जन्तुओं को अपनी संतान के रूप में उत्पन्न किया।
कश्यप की 13. अदिति नामक स्त्री से आदित्य (सूर्य) उत्पन्न हुए। अदिति, मनुर्भरतवंश के 45वीं पीढ़ी में उत्तानपाद शाखा के प्रजापति दक्ष की पुत्री थी (बृहद्वेता, 3.57)। प्राचीन विश्व में प्रमुख 2 वंश 1. सूर्य वंश और 2. चन्द्र वंश इन्हीं की सन्तानों से विकसित हुए।
नागवंश पर आधारित होकर नाग मन्दिर का निर्माण होगा। जिसकी स्थापना जीवनदायिनी सत्यकाशी क्षेत्र में उचित स्थान देखकर की जायेगी क्योंकि इसकी स्थापना के पीछे स्थान का कोई विशेष कारण और स्थान के लिए शास्त्रीय आधार नहीं है, इसके लिए पूरा सत्यकाशी क्षेत्र ही शास्त्रीय आधार के अन्तर्गत है।
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10. विश्वशास्त्र मन्दिर (Vishwshastra Temple)
8वें सावर्णि मनु और अनिर्वचनीय कल्कि महाअवतार भोगेश्वर श्री लव कुश सिंह ”विश्वमानव“ द्वारा सत्यकाशी क्षेत्र से व्यक्त विश्वशास्त्र, सार्वभौम सत्य का शास्त्र नहीं बल्कि सार्वभौम सत्य समाहित सार्वभौम सिद्धान्त का शास्त्र है इसलिए यह शिव-तन्त्र का शास्त्र है। इसलिए इसके धर्म और धर्मनिरपेक्ष-सर्वधर्मसमभाव क्षेत्र से अनेक नाम हैं क्योंकि यह सभी विषयों से सम्बन्धित है। ”विश्वशास्त्र“ सभी प्रश्नों का आध्यात्मिक, सामाजिक, राजनैतिक और प्रबन्धकीय आधार सहित व्याख्या करता है जिसकी स्थापना विश्व शान्ति, एकता, स्थिरता, विकास, सुरक्षा, प्रबन्ध इत्यादि का अन्तिम, विवशता व मानवतापूर्ण मार्ग है। सम्पूर्ण शास्त्र का संगठन एक सिनेमा की तरह प्रारम्भ होता है जो व्लैक होल से ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति, सौर मण्डल, पृथ्वी ग्रह से होते हुए पृथ्वी पर होने वाले व्यापार, मानवता के लिए कर्म करने वाले अवतार, धर्म की उत्पत्ति से होते हुए धर्म ज्ञान के अन्त तक का चित्रण प्रस्तुत करता है। पूर्ण ज्ञान के लिए इस पूरे सिनेमा रूपी शास्त्र को देखना पड़ेगा। जिस प्रकार सिनेमा के किसी एक अंश को देखने पर पूरी कहानी नहीं समझी जा सकती उसी प्रकार इसके किसी एक अंश से पूर्ण ज्ञान नहीं हो सकता।
विश्वशास्त्र मन्दिर, एक शिवलिंग के आकार का मन्दिर है जिसमें शिवज्योति (शिव-प्रकाश) के रूप में विश्वशास्त्र रखा रहेगा। जो यह सिद्ध करेगा कि निराकार ग्रन्थ - विश्वशास्त्र ही गुरू है, प्रकाश है। मुख्य मन्दिर सत्यकाशी क्षेत्र में स्थापित होगा क्योंकि यह इसी सत्यकाशी क्षेत्र से ही व्यक्त हुआ है। साथ ही भारत के प्रत्येक जनपद (जिला) में भी एक मन्दिर स्थापित होगा। मन्दिर का प्रबन्ध व रखरखाव जन्म आधारित ब्राह्मण के हाथों में होगा।
”हम गुरु बिना कोई ज्ञान प्राप्त नहीं कर सकते। अब बात यह है कि यदि मनुष्य, देवता अथवा कोई स्वर्गदूत हमारे गुरु हों, तो वे भी तो ससीम है; फिर उनसे पहले उनके गुरु कौन थे? हमें मजबूर होकर यह चरम सिद्धान्त स्थिर करना ही होगा कि एक ऐसे गुरु हैं, जो काल के द्वारा सीमाबद्ध या अविच्छिन्न नहीं है। उन्हीं अनन्तज्ञान सम्पन्न गुरु को जिनका आदि भी नहीं और अन्त भी नहीं, ईश्वर कहते हैं। साधारण गुरुओं से श्रेष्ठ एक और श्रेणी के गुरु होते हैं, और वे हैं-इस संसार में ईश्वर के अवतार। वे केवल स्पर्श से, यहाँ तक कि इच्छा मात्र से ही आध्यात्मिकता प्रदान कर सकते हैं। उनकी इच्छा मात्र से पतित से पतित व्यक्ति क्षण मात्र में साधु हो जाता है। वे गुरुओं के भी गुरु हैं-नरदेहधारी भगवान हैं। मुझे इस बात का खेद है कि वर्तमान काल में जातियों के बीच इतना विवाद (विरोध) है। यह तो अवश्य बन्द होना चाहिए। यह दोनों ओर से निरर्थक है, विशेषकर उच्च जाति-वालों (ब्राह्मणों) की ओर से, क्योंकि अब इन अधिकारों और विशेष हकों के दिन बीत गये। समाज के प्रत्येक उच्च पदाधिकारों का कर्तव्य है कि वह अपने विशेषाधिकारों की कब्र आप ही खोदें और जितना शीघ्र हो, उतना ही सब के लिए बेहतर होगा। जितनी देर होगी, उतना ही वह सड़ेगा और उतनी ही बुरी मौत वह मरेगा। इसीलिए भारतवर्ष में ब्राह्मण का यह कर्तव्य है कि वह शेष मानव जाति की मुक्ति के लिए कर्मशील बने। यदि वह ऐसा करता है और जब तक वह ऐसा करता है तभी तक वह ब्राह्मण है; पर जब वह केवल पैसा कमाने में लग जाता है तब वह ब्राह्मण नहीं है। कोई भी व्यक्ति, चाहे वह शूद्र हो या चाण्डाल, ब्राह्मण को भी तत्वज्ञान की शिक्षा दे सकता है। सत्य की शिक्षा अत्यन्त नीच व्यक्ति से भी ली जा सकती है-वह व्यक्ति किसी भी जाति या पन्थ का क्यों न हो। हमारे अधिकांश उपनिषद् क्षत्रियों के लिखे हुए हैं। भारतवर्ष में हमारे मध्य आचार्य अधिकतर क्षत्रिय ही थे और उनके उपदेश सदा सार्वभौमिक रहे हैं।...राम, कृष्ण, बुद्ध-जिनकी पूजा अवतार मानकर की जाती है-ये सब क्षत्रिय ही थे। जाति प्रथा तो वेदान्त धर्म के विरूद्ध है। जाति एक सामाजिक रूढ़ी है और हमारे सभी महान आचार्य उसे तोड़ने का प्रयत्न करते आये हैं। बौद्ध धर्म से लगाकर सभी पंथों ने जाति के विरूद्ध प्रचार किया है, किन्तु प्रत्येक समय वह श्रृंखला दृढ़ होती ही। जाति तो केवल भारत वर्ष की राजनीतिक संस्थाओं से निकली हुई है; वह एक परम्परागत व्यावसायिक संस्था है। धर्म में कोई जाति नहीं होती, जाति तो केवल एक सामाजिक रूढी़ है। तुमने मांस खाने वाले क्षत्रियों की बात उठाई है। क्षत्रिय लोग चाहे मांस खाये या ना खाये, वे ही हिन्दू धर्म की उन सब वस्तुओं के जन्मदाता हैं जिनको तुम महत और सुन्दर देखते हो। उपनिषद् किसने लिखे थे? राम कौन थे? कृष्ण कौन थे? बुद्ध कौन थे? जैनों के तिर्थंकर कौन थे? जब कभी क्षत्रियों ने धर्म का उपदेश दिया, उन्होंने सभी को धर्म पर अधिकार दिया। और जब कभी ब्राह्मणों ने कुछ लिखा उन्होंने औरों को सब प्रकार के अधिकारों से वंचित करने की चेष्टा की। गीता और व्यास सूत्र पढ़ो या किसी से सुन लो। गीता में मुक्ति की राह पर सभी नर-नारियों, सभी जातियों और सभी वर्णों को अधिकार दिया गया है, परन्तु व्यास गरीब शूद्रों को वंचित करने के लिए वेद की मनमानी व्याख्या कर रहे हैं। क्या ईश्वर तुम जैसा मूर्ख है कि एक टुकड़े मांस से उसकी दया रुपी नदी में बाधा खड़ी हो जायेगी? अगर वह ऐसा ही है तो उसका मोल एक फूटी कौड़ी भी नहीं।” - स्वामी विवेकानन्द
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11. एक दिव्य नगर - सत्यकाशी नगर
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12. होटल शिवलिंगम् - शिवत्व का एहसास
यह होटल एक अलग प्रकार की सोच का प्रतीक होगा। इस बहुमंजिला आधुनिक सुविधाओं वाला तारांकित होटल का आकर शिवलिंग के आकार का होगा। इस होटल के बाहरी दिवार काले काँच के होगें और उसके अन्दर बरामदा होगा। रात में जब बरामदे से रोशनी होगी तब पूरा होटल प्रकाशित शिवलिंग के रूप में दिखेगा। इस होटल में रूकने मात्र से ही शिवत्व का एहसास होगा और यह अनुभव होगा कि हम शिव में ही आये हैं और निवास कर रहे हैं।
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13. इन्द्रलोक - ओपेन एयर थियेटर
यह ओपेन एयर थियेटर एक अलग प्रकार की सोच का ओपेन एयर थियेटर होगा। जहाँ सांस्कृतिक कार्यक्रम का अनुभव इन्द्रलोक में होते हुये कायक्रम का अनुभव करायेगा।
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14. हस्तिनापुर - महाभारत का लाइट एण्ड साउण्ड प्रोग्राम
हस्तिनापुर - महाभारत का लाइट एण्ड साउण्ड प्रोग्राम महाभारत के मुख्य-मुख्य कथाओं का जीवन्त प्रस्तुतिकरण का कार्यक्रम होगा जिससे मनुष्य के ज्ञान-बुद्धि का कम समय में ही विकास हो सके और उसका व्यावहारीकरण हो सके।
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15. सत्य-धर्म-ज्ञान केन्द्र: तारामण्डल की भाँति शो द्वारा कम समय में पूर्ण ज्ञान
तारामण्डल की भाँति शो द्वारा कम समय में पूर्ण ज्ञान के लिए सत्य-धर्म-ज्ञान केन्द्र, जिसकी स्थापना जीवनदायिनी सत्यकाशी क्षेत्र में उचित स्थान देखकर की जायेगी क्योंकि इसकी स्थापना के पीछे स्थान का कोई विशेष कारण और स्थान के लिए शास्त्रीय आधार नहीं है, इसके लिए पूरा सत्यकाशी क्षेत्र ही शास्त्रीय आधार के अन्तर्गत है। जिस प्रकार तारामण्डल में बैठकर कम समय में ही आकाशीय ग्रह-नक्षत्र और ब्रह्माण्ड के विषय में जानकारी प्राप्त की जाती है उसी प्रकार सत्य-धर्म-ज्ञान केन्द्र में बैठकर कम समय में ही धर्म की उत्पत्ति से लेकर उसके अन्त और व्यवहारीकरण तक का ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं।
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16. सत्यकाशी आध्यात्म पार्क
सत्यकाशी आध्यात्म पार्क, जिसकी स्थापना जीवनदायिनी सत्यकाशी क्षेत्र में उचित स्थान देखकर की जायेगी क्योंकि इसकी स्थापना के पीछे स्थान का कोई विशेष कारण और स्थान के लिए शास्त्रीय आधार नहीं है, इसके लिए पूरा सत्यकाशी क्षेत्र ही शास्त्रीय आधार के अन्तर्गत है। सत्यकाशी आध्यात्म पार्क, स्कूली बच्चों से लेकर बड़ों के लिए एक ऐसा पार्क होगा जहाँ मनोरजंन के साथ-साथ बौद्धिक विकास की सम्पूर्ण व्यवस्था स्वाभाविक रूप से आपके अंगों से प्रवेश करेगी।
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17. वंश नगर - मनु से मानव तक के वंश पर आधारित नगर
मनु से मानव तक के वंश पर आधारित नगर-वंश नगर, जिसकी स्थापना जीवनदायिनी सत्यकाशी क्षेत्र में उचित स्थान देखकर की जायेगी क्योंकि इसकी स्थापना के पीछे स्थान का कोई विशेष कारण और स्थान के लिए शास्त्रीय आधार नहीं है, इसके लिए पूरा सत्यकाशी क्षेत्र ही शास्त्रीय आधार के अन्तर्गत है। वंश नगर, मानव के वशांवली पर आधारित अर्थात वंश वृक्ष के आधार पर आधुनीक सुविधाओं वाला आवासीय क्षेत्र होगा। अर्थात उसके सड़कों का नामकरण वंश वृक्ष के अनुसार होगा।
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18. 8वें सांवर्णि मनु - सम्पूर्ण एकता की मूर्ति (Statue of Complete Unity)
एकता की मूर्ति (Statue of Unity)
स्टैच्यू ऑफ यूनिटी 182 मीटर (597 फीट) ऊँचा गुजरात सरकार द्वारा प्रस्तावित भारत के प्रथम उप प्रधानमन्त्री तथा प्रथम गृहमन्त्री सरदार पटेल का स्मारक है। गुजरात के मुख्यमन्त्री नरेन्द्र मोदी ने 31 अक्टूबर 2013 को सरदार पटेल के जन्मदिवस के मौके पर इस विशालकाय मूर्ति के निर्माण का शिलान्यास किया। यह स्मारक सरदार सरोवर बांध से 3.2 किमी की दूरी पर साधू बेट नामक स्थान पर है जो कि नर्मदा नदी पर एक टापू है। यह स्थान भारतीय राज्य गुजरात के भरूच के निकट नर्मदा जिले में है।
अभी तक की सबसे ऊँची स्टैच्यू 128 मीटर की चीन में स्प्रिंग टैम्पल बुद्ध की है। उससे कम ऊँची मूर्ति भी भगवान बुद्ध की ही है जिसकी उँचाई 116 मीटर है। बुद्ध की यह मूर्ति सन् 2008 में म्याँमार सरकार ने बनवायी थी। लौह पुरुष सरदार पटेल, जिनकी स्मृति में यह विशाल स्मारक लोहे से ही बनाया जायेगा। गुजरात सरकार द्वारा 7 अक्टूबर 2010 को इस परियोजना की घोषणा की गयी थी। घोषणा में यह बताया गया कि प्रस्तावित स्मारक की कुल ऊँचाई आधार से लेकर शीर्ष तक 240 मीटर होगी जिसमें आधार तल की ऊँचाई 58 मीटर रहेगी और प्रतिमा 182 मीटर (597 फुट) आधार को जोड़कर - 240 मीटर (790 फुट) ऊँची होगी। प्रतिमा का निर्माण इस्पात के फ्रेम, प्रबलित सीमेण्ट कंक्रीट और काँसे की पर्त चढ़ाकर किया जायेगा। टर्नर कन्स्ट्रक्शन, जो बुर्ज खघ्लीफा के सलाहकार थे, उन्हीं के सहयोगी संगठन- माइकल ग्रेव्स एण्ड एसोशिएट्स एवं मीनहार्ड ग्रुप दोनों मिलकर पूरी परियोजना की निगरानी करेंगे। परियोजना को पूरा होने में 56 सप्ताह का समय लगेगा जिसमें लगभग 15 महीने योजना, 40 महीने निर्माण तथा 2 महीने सहयोगी संगठनों द्वारा इसके हस्तान्तरण की प्रक्रिया में लगेंगे। पूरी परियोजना में प्रतिमा और अन्य भवन, जिनमें स्मारक, आगन्तुक केन्द्र, बाग, होटल, सभागार, मनोरंजन-उद्यान तथा शोध संस्थान आदि सभी शामिल हैं, की कुल लागत 2500 करोड़ रुपये होगी।
भरूच में भाजपा के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी के साथ नरेन्द्र मोदी ने परियोजना की आधार शिला रखने के बाद जनता को बताया कि इस स्मारक के निर्माण हेतु राशि जनता व सार्वजनिक प्रतिष्ठानों से दान प्राप्त करके जुटायी जायेगी। उन्होंने यह भी बताया कि पूरी तरह से बन जाने के बाद यह विश्व का सबसे ऊँचा स्मारक होगा। सरदार पटेल की प्रतिमा बनाने के लिये लोहा पूरे भारत के गाँव में रहने वाले किसानों से खेती के काम में आने वाले पुराने और बेकार हो चुके औजारों का संग्रह करके जुटाया जायेगा। सरदार बल्लभभाई पटेल राष्ट्रीय एकता ट्रस्ट ने इस कार्य हेतु पूरे भारतवर्ष में 36 कार्यालय खोले हैं। लोहा एकत्र करने का काम निर्माण प्रारम्भ होने की तारीख (26 जनवरी 2014) से पहले ही पूरा कर लिया जायेगा।
सम्पूर्ण एकता की मूर्ति (Statue of Complete Unity)
हिन्दू पुराण के अनुसार ब्रह्माण्ड का सृजन क्रमिक रूप से सृष्टि के ईश्वर ब्रह्मा द्वारा होता है जिनकी जीवन 100 ब्राह्म वर्ष होता है। ब्रह्मा के 1 दिन को 1 कल्प (1. हेमत् कल्प, 2. हिरण्यगर्भ कल्प, 3. ब्राह्म कल्प, 4. पाद्य्म कल्प, 5. श्वेत बाराह कल्प-वर्तमान) कहते हैं। 1 कल्प, 14 मनु (पीढ़ी) के बराबर होता है। 1 मनु का जीवन मनवन्तर कहलाता है और 1 मनवन्तर में 71 चतुर्युग (अर्थात 71 बार चार युगों का आना-जाना) के बराबर होता है। ब्रह्मा का एक कल्प (अर्थात 14 मनु अर्थात 71 चतुर्युग) समाप्त होने के बाद ब्रह्माण्ड का एक क्रम) समाप्त हो जाता है और ब्रह्मा की रात आती है। फिर सुबह होती है और फिर एक नया कल्प शुरू होता है। इस प्रकार ब्रह्मा 100 वर्ष व्यतीत कर स्वयं विलिन हो जाते हैं। और पुनः ब्रह्मा की उत्पत्ति होकर उपरोक्त क्रम का प्रारम्भ होता है। गिनीज बुक आॅफ वर्ल्ड रिकार्ड्स ने कल्प को समय का सर्वाधिक लम्बा मापन घोषित किया है।
हिन्दू धर्म अनुसार, मानवता के प्रजनक की आयु होती है। यह समय मापन की खगोलीय अवधि है। मन्वन्तर एक संस्कृत शब्द है, जिसका संधि-विच्छेद करने पर मनु़ अन्तर मिलता है। इसका अर्थ है मनु की आयु।
प्रत्येक मन्वन्तर एक विशेष मनु द्वारा रचित एवं शासित होता है, जिन्हें ब्रह्मा द्वारा सृजित किया जाता है। मनु विश्व की और सभी प्राणियों की उत्पत्ति करते हैं, जो कि उनकी आयु की अवधि तक बनती और चलती रहतीं हैं, (जातियां चलतीं हैं, ना कि उस जाति के प्राणियों की आयु मनु के बराबर होगी)। उन मनु की मृत्यु के उपरांत ब्रह्मा फिर एक नये मनु की सृष्टि करते हैं, जो कि फिर से सभी सृष्टि करते हैं। इसके साथ साथ विष्णु भी आवश्यकता अनुसार, समय समय पर अवतार लेकर इसकी संरचना और पालन करते हैं। इनके साथ ही एक नये इंद्र और सप्तर्षि भी नियुक्त होते हैं।
चैदह मनु और उनके मन्वन्तर को मिलाकर एक कल्प बनता है। यह ब्रह्मा का एक दिवस होता है। यह हिन्दू समय चक्र और वैदिक समय रेखा के अनुसार होता है। प्रत्येक कल्प के अन्त में प्रलय आती है, जिसमें ब्रह्माण्ड का संहार होता है और वह विराम की स्थिति में आ जाता है, जिस काल को ब्रह्मा की रात्रि कहते हैं।
इसके उपरांत सृष्टिकर्ता ब्रह्मा फिर से सृष्टि रचना आरम्भ करते हैं, जिसके बाद फिर संहारकर्ता भगवान शिव इसका संहार करते हैं। और यह सब एक अंतहीन प्रक्रिया या चक्र में होता रहता है।
वंश - स. भविष्य के वंश
श्री विष्णु पुराण (तृतीय अंश, अध्याय-तीन) में लिखा है कि - वेद रूप वृक्ष के सहस्त्रों शाखा-भेद हैं, उनका विस्तार से वर्णन करने में तो कोई भी समर्थ नहीं है अतः संक्षेप यह है कि प्रत्येक द्वापरयुग में भगवान विष्णु व्यासरूप से अवतीर्ण होते हैं और संसार के कल्याण के लिए एक वेद के अनेक भेद कर देते हैं। मनुष्यों के बल, वीर्य और तेज को अलग जानकर वे समस्त प्राणियों के हित के लिए वेदों का विभाग करते हैं। जिस शरीर के द्वारा एक वेद के अनेक विभाग करते हैं भगवान मधुसूदन की उस मूर्ति का नाम वेदव्यास है।
इस वैवस्वत मनवन्तर (सातवाँ मनु) के प्रत्येक द्वापरयुग में व्यास महर्षियों ने अब तक पुनः-पुनः 28 बार वेदों के विभाग किये हैं। पहले द्वापरयुग में ब्रह्मा जी ने वेदों का विभाग किया। दूसरे द्वापरयुग के वेदव्यास प्रजापति हुए। तीसरे द्वापरयुग में शुक्राचार्य जी, चैथे द्वापरयुग में बृहस्पति जी व्यास हुए, पाँचवें में सूर्य और छठें में भगवान मृत्यु व्यास कहलायें। सातवें द्वापरयुग के वेदव्यास इन्द्र, आठवें के वसिष्ठ, नवें के सारस्वत और दसवें के त्रिधामा कहे जाते हैं। ग्यारहवें में त्रिशिख, बारहवें में भरद्वाज, तेरहवें में अन्तरिक्ष और चैदहवें में वर्णी नामक व्यास हुए। पन्द्रहवें में त्रव्यारूण, सोलहवें में धनंन्जय, सत्रहवे में क्रतुन्जय और अठ्ठारवें में जय नामक व्यास हुए। फिर उन्नीसवें व्यास भरद्वाज हुए, बीसवें गौतम, इक्कीसवें हर्यात्मा, बाइसवें वाजश्रवा मुनि, तेइसवें सोमशुष्पवंशी तृणाबिन्दु, चैबीसवें भृगुवंशी ऋक्ष (वाल्मीकि) पच्चीसवें मेरे (पराशर) पिता शक्ति, छब्बीसवें मैं पराशर, सत्ताइसवें जातुकर्ण और अठ्ठाइसवें कृष्णद्वैपायन। अगामी द्वापरयुग में द्रोणपुत्र अश्वत्थामा वेदव्यास होगें।
सूर्य की पत्नी 4. छाया से दो पुत्र 1. शनिश्चर 2. 8वें मनु - सांवर्णि मनु व हुये। सबसे प्राचीन वंश स्वायंभुव मनु के पुत्र उत्तानपाद शाखा में ब्रह्मा के 10 मानस पुत्रों में से मन से मरीचि व पत्नी कला के पुत्र कश्यप व पत्नी अदिति के पुत्र आदित्य (सूर्य) की चैथी पत्नी छाया से दो पुत्रों में से एक 8वें मनु - सांवर्णि मनु होगें जिनसे ही वर्तमान मनवन्तर 7वें वैवस्वत मनु की समाप्ति होगी। ध्यान रहे कि 8वें मनु - सांवर्णि मनु, सूर्य पुत्र हैं। सांवर्णि मनु के गुण अवतार ”सार्वभौम“ हैं ऐसा शास्त्र में दिया गया है।
सामान्य व्यावहारिक रूप में भविष्य में जन्म लेने वाले किसी भी व्यक्ति का नाम निश्चित करना असम्भव है। अगर अवतार के उदाहरण में देखें तो सिर्फ उस समय की सामाजिक आवश्यकताओं के अनुसार उसके गुण की ही कल्पना की जा सकती है या उसके हो जाने के उपरान्त उसके नाम को सिद्ध करने की कोशिश की जा सकती है। इसलिए उस अवतार का जो भी नाम कल्पित है वह केवल गुण को ही निर्देश कर सकता है। इस प्रकार ”कल्कि“ जो ”कल की“ अर्थात ”भविष्य की“ के अर्थो में रखा गया है। ”मैं“, उसके ”सार्वभौम मैं“ का गुण है। ”अहमद“, उसके अपने सार्वभौम सत्य-सिद्धान्त पर अतिविश्वास होने के कारण अंहकार का नशा अर्थात अहंकार के मद से युक्त अहंकारी जैसा अनुभव करायेगा। उसका कोई गुरू नहीं होगा, वह स्वयं से प्रकाशित स्वयंभू होगा जिसके बारे में अथर्ववेद, काण्ड 20, सूक्त 115, मंत्र 1 में कहा गया है कि ”ऋषि-वत्स, देवता इन्द्र, छन्द गायत्री। अहमिद्धि पितुश्परि मेधा मृतस्य जग्रभ। अहं सूर्य इवाजिनि।।“ अर्थात ”मैं परम पिता परमात्मा से सत्य ज्ञान की विधि को धारण करता हूँ और मैं तेजस्वी सूर्य के समान प्रकट हुआ हूँ।“ जबकि सबसे प्राचीन वंश स्वायंभुव मनु के पुत्र उत्तानपाद शाखा में ब्रह्मा के 10 मानस पुत्रों में से मन से मरीचि व पत्नी कला के पुत्र कश्यप व पत्नी अदिति के पुत्र आदित्य (सूर्य) की चैथी पत्नी छाया से दो पुत्रों में से एक 8वें मनु - सांवर्णि मनु होगें जिनसे ही वर्तमान मनवन्तर 7वें वैवस्वत मनु की समाप्ति होगी। ध्यान रहे कि 8वें मनु - सांवर्णि मनु, सूर्य पुत्र हैं। अर्थात कल्कि अवतार और 8वें मनु - सांवर्णि मनु दोनों, दो नहीं बल्कि एक ही हैं और सूर्य पुत्र हैं।
”सार्वभौम“ गुण 8वें सांवर्णि मनु का गुण है। अवतारी श्रृंखला अन्तिम होकर अब मनु और मनवन्तर श्रृंखला के भी बढ़ने का क्रम है क्योंकि यही क्रम है।
श्री विष्णु पुराण (तृतीय अंश, अध्याय-दो) में लिखा है कि - यह सम्पूर्ण विश्व उन परमात्मा की ही शक्ति से व्याप्त है, अतः वे ”विष्णु“ कहलाते हैं। समस्त देवता, मनु, सप्तर्षि तथा मनुपुत्र और देवताओं के अधिपति इन्द्रगण, ये सब भगवान विष्णु की ही विभूतियाँ हैं।
सूर्य अपनी पत्नी छाया से शनैश्चर, एक और मनु तथा तपती, तीन सन्तानें उत्पन्न कीं। सूर्य-छाया का दूसरा पुत्र आठवाँ मनु, अपने अग्रज मनु का सवर्ण होने से सावर्णि कहलाया। नवें मनु दक्ष सावर्णि होगें दसवें मनु ब्रह्मसावर्णि होगें, ग्यारहवाँ मनु धर्म सावर्णि बारहवा मनु रूद्रपुत्र सावर्णि तेरहवा रूचि रूद्रपुत्र सावर्णि चैदहवा मनु भीम सावर्णि।
प्रत्येक चतुर्युग के अन्त में वेदों का लोप हो जाता है, उस समय सप्तर्षिगण ही स्वर्गलोक से पृथ्वी में अवतीर्ण होकर उनका प्रचार करते हैं। प्रत्येक सत्ययुग के आदि में (मनुष्यों की धर्म-मर्यादा स्थापित करने के लिए) स्मृति-शास्त्र के रचयिता मनु का प्रादुर्भाव होता है।
इन चैदह मनवन्तरों के बीत जाने पर एक सहस्त्र युग रहने वाला कल्प समाप्त हुआ कहा जाता है। फिर इतने समय की रात्रि होती है।
स्थितिकारक भगवान विष्णु चारों युगों में इस प्रकार व्यवस्था करते हैं- समस्त प्राणियों के कल्याण में तत्पर वे सर्वभूतात्मा सत्ययुग में कपिल आदिरूप धारणकर परम ज्ञान का उपदेश करते हैं। त्रेतायुग में वे सर्वसमर्थ प्रभु चक्रवर्ती भूपाल होकर दुष्टों का दमन करके त्रिलोक की रक्षा करते हैं। तदन्तर द्वापरयुग में वे वेदव्यास रूप धारण कर एक वेद के चार विभाग करते हैं और सैकड़ों शाखाओं में बाँटकर बहुत विस्तार कर देते हैं। इस प्रकार द्वापर में वेदों का विस्तार कर कलियुग के अन्त में भगवान कल्किरूप धारणकर दुराचारी लोगों को सन्मार्ग में प्रवृत्त करते हैं। इसी प्रकार, अनन्तात्मा प्रभु निरन्तर इस सम्पूर्ण जगत् के उत्पत्ति, पालन और नाश करते रहते हैं। इस संसार में ऐसी कोई वस्तु नहीं है जो उनसे भिन्न हो।
एकात्म मन के विचार से निर्मित करना ही ईश्वरीय कार्य है। कालक्रम में यह अन्तर बढ़ जाता है। मनुष्य अपने आवश्यकताओं-संसाधनों में फँस कर मूल सिद्धान्त-विचार से दूर हो जाता है। इस अन्तर को समाप्त करने के लिए मनु का आगमन होता है। मनु, भी मनुष्य ही होते हैं बस वे एकात्म मन के विचार से निर्मित करने के लिए मनुष्यों को उस काल के अनुसार नयी व्यवस्था देते हैं। एक मनवन्तर के अन्तर्गत समय-समय पर इस कार्य को छोटे रूप में अवतारों द्वारा स्थापित किया जाता है। एक मनवन्तर के अन्तर्गत चार युग की व्यवस्था है जो एकात्म मन के विचार में अन्तर आने के समय के कालक्रम का विभाजन है।
सबसे प्राचीन वंश स्वायंभुव मनु के पुत्र उत्तानपाद शाखा में ब्रह्मा के 10 मानस पुत्रों में से मन से मरीचि व पत्नी कला के पुत्र कश्यप व पत्नी अदिति के पुत्र आदित्य (सूर्य) की चैथी पत्नी छाया से दो पुत्रों में से एक 8वें मनु - सांवर्णि मनु होगें जिनसे ही वर्तमान मनवन्तर 7वें वैवस्वत मनु की समाप्ति होगी। ध्यान रहे कि 8वें मनु - सांवर्णि मनु, सूर्य पुत्र हैं। ”मैं“, उसके ”सार्वभौम मैं“ का गुण है। ”अहमद“, उसके अपने सार्वभौम सत्य-सिद्धान्त पर अतिविश्वास होने के कारण अंहकार का नशा अर्थात अहंकार के मद से युक्त अहंकारी जैसा अनुभव करायेगा। उसका कोई गुरू नहीं होगा, वह स्वयं से प्रकाशित स्वयंभू होगा जिसके बारे में अथर्ववेद, काण्ड 20, सूक्त 115, मंत्र 1 में कहा गया है कि
”ऋषि-वत्स, देवता इन्द्र, छन्द गायत्री। अहमिद्धि पितुष्परि मेधा मृतस्य जग्रभ। अहं सूर्य इवाजिनि।“
अर्थात ”मैं परम पिता परमात्मा से सत्य ज्ञान की विधि को धारण करता हूँ और मैं तेजस्वी सूर्य के समान प्रकट हुआ हूँ।“
पहले मनु - स्वायंभुव मनु से 7वें मनु - वैवस्वत मनु तक शारीरिक प्राथमिकता के मनु का कालक्रम हैं। 8वें मनु - सांवर्णि मनु से 14वें और अन्तिम - इन्द्र सांवर्णि मनु तक बौद्धिक प्राथमिकता के मनु का कालक्रम है इसलिए ही 9वें मनु से 14वें मनु तक के नाम के साथ में ”सांवर्णि मनु“ उपनाम की भाँति लगा हुआ है। अर्थात 9वें मनु से 14वें मनु में सार्वभौम गुण विद्यमान रहेगा और बिना ”विश्वशास्त्र“ के उनका प्रकट होना मुश्किल होगा।
मेरा यह जीवन और कार्य 8वें सावर्णि मनु का ही कार्य है जो ”सार्वभौम“ अवतार-गुण से युक्त है। जो पूर्णतः शास्त्र प्रमाणित है। और इस कार्य से श्वेतबाराह कल्प के आठवें मनवन्तर और 29वें चतुर्युगी के प्रथम युग सत्ययुग/स्वर्णयुग का प्रारम्भ होता है।
भविष्य के शेष मनु निम्न होगें-
मनु अवतार काल
09. दत्त सावर्णि मनु रिषभ भविष्य
10. ब्रह्म सावर्णि मनु विश्वकसेन भविष्य
11. धर्म सावर्णि मनु धर्मसेतू भविष्य
12, रूद्र सावर्णि मनु सुदामा भविष्य
13. दैव सावर्णि मनु योगेश्वर भविष्य
14. इन्द्र सावर्णि मनु वृहद्भानु भविष्य
मात्र एक विचार- ”ईश्वर ने इच्छा व्यक्त की कि मैं एक हूँ, अनेक हो जाऊँ“ और ”सभी ईश्वर हैं“ , यह प्रारम्भ और अन्तिम लक्ष्य है। मनुष्य की रचना ”पाॅवर और प्राफिट (शक्ति और लाभ)“ के लिए नहीं बल्कि असीम मस्तिष्क क्षमता के विकास के लिए हुआ है। फलस्वरूप वह स्वयं को ईश्वर रूप में अनुभव कर सके, जहाँ उसे किसी गुरू की आवश्यकता न पड़ें, वह स्वंयभू हो जाये, उसका प्रकाश वह स्वयं हो। एक गुरू का लक्ष्य भी यही होता है कि शिष्य मार्गदर्शन प्राप्त कर गुरू से आगे निकलकर, गुरू तथा स्वयं अपना नाम और कृति इस संसार में फैलाये, ना कि जीवनभर एक ही कक्षा में (गुरू में) पढ़ता रह जाये। एक ही कक्षा में जीवनभर पढ़ने वाले को समाज क्या नाम देता है, समाज अच्छी प्रकार जानता है। ”विश्वशास्त्र“ से कालक्रम को उसी मुख्यधारा में मोड़ दिया गया है। एक शास्त्राकार, अपने द्वारा व्यक्त किये गये पूर्व के शास्त्र का उद्देश्य और उसकी सीमा तो बता ही सकता है परन्तु व्याख्याकार ऐसा नहीं कर सकता। स्वयं द्वारा व्यक्त शास्त्र के प्रमाण से ही स्वयं को व्यक्त और प्रमाणित करूँगा- शास्त्राकार महर्षि व्यास (वर्तमान में लव कुश सिंह ”विश्वमानव“)
शब्द से सृष्टि की ओर...
सृष्टि से शास्त्र की ओर...
शास्त्र से काशी की ओर...
काशी से सत्यकाशी की ओर...
और सत्यकाशी से अनन्त की ओर...
एक अन्तहीन यात्रा...............................
वर्तमान सृष्टि चक्र की स्थिति भी यही हो गयी है कि अब अगले अवतार के मात्र एक विकास के लिए सत्यीकरण से काल, मनवन्तर व मनु, अवतार, व्यास व शास्त्र सभी बदलेगें। इसलिए देश व विश्व के धर्माचार्यें, विद्वानों, ज्योतिषाचार्यों इत्यादि को अपने-अपने शास्त्रों को देखने व समझने की आवश्यकता आ गयी है क्योंकि कहीं श्री लव कुश सिंह ”विश्वमानव“ और ”आध्यात्मिक सत्य“ आधारित कार्य ”विश्वशास्त्र“ वही तो नहीं है? और यदि नहीं तो वह कौन सा कार्य होगा जो इन सबको बदलने वाली घटना को घटित करेगा?
शनिवार, 22 दिसम्बर, 2012 से प्रारम्भ हो चुका है-
1. काल के प्रथम रूप अदृश्य काल से दूसरे और अन्तिम दृश्य काल का प्रारम्भ।
2. मनवन्तर के वर्तमान 7वें मनवन्तर वैवस्वत मनु से 8वें मनवन्तर सांवर्णि मनु का प्रारम्भ।
3. अवतार के नवें बुद्ध से दसवें और अन्तिम अवतार-कल्कि महावतार का प्रारम्भ।
4. युग के चैथे कलियुग से पाँचवें युग स्वर्ण युग का प्रारम्भ।
5. व्यास और द्वापर युग में आठवें अवतार श्रीकृष्ण द्वारा प्रारम्भ किया गया कार्य “नवसृजन“ के प्रथम भाग ”सार्वभौम ज्ञान“ के शास्त्र ”गीता“ से द्वितीय अन्तिम भाग ”सार्वभौम कर्मज्ञान“, पूर्णज्ञान का पूरक शास्त्र“, लोकतन्त्र का ”धर्मनिरपेक्ष धर्मशास्त्र“ और आम आदमी का ”समाजवादी शास्त्र“ द्वारा व्यवस्था सत्यीकरण और मन के ब्रह्माण्डीयकरण और नये व्यास का प्रारम्भ।
सम्पूर्ण एकता और स्वच्छ मन के प्रतीक 8वें मनवन्तर सांवर्णि मनु की मूर्ति ही “सम्पूर्ण एकता की मूर्ति” के रूप में सत्यकाशी क्षेत्र में स्थापित होगी। इस मूर्ति की विशेषता यह होगी कि यह पूर्ण पारदर्शी अर्थात मूर्ति के आर-पार देखा जा सकेगा जो स्वच्छ मन का प्रतीक होगा। मनवन्तर परिवर्तन के प्रतीक के रूप में यह स्मारक शराब की विभिन्न खाली बोतलों से निर्मित होगा। जिसके लिए खाली बोतलों को दान में माँगा जायेगा।
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19. विस्मृत भारत रत्न स्मारक (Forgotten Bharat Ratna Memorial)
भारत रत्न स्मारक (Bharat Ratna Memorial)
भारत सरकार ने अभी तक अपने सर्वोच्च नागरिक पुरस्कार “भारत रत्न” प्राप्त सम्मानित के लिए कोई भी स्मारक की योजना नहीं बना पायी है।
विस्मृत भारत रत्न स्मारक (Forgotten Bharat Ratna Memorial)
भारत रत्न पुरस्कार 2 जनवरी 1954 को प्रारम्भ किया गया था। सामान्यतः कोई कानून या व्यवस्था बनने के बाद उस दिन से ही लागू होता है जिस दिन से प्रारम्भ होता है। और उन सब पर प्रभावी होता है जो जिवित हैं और कत्र्तव्यरत हैं। परन्तु भारत रत्न पुरस्कार व्यवस्था बनने के बाद 3 (सरदार वल्लभ भाई पटेल, गोपीनाथ बोरदोलोई, मदन मोहन मालवीय) ऐसे व्यक्तित्व को यह पुरस्कार दिया गया जो भारत रत्न व्यवस्था बनने के पहले ही जन्मे और उनकी मृत्यु भी हो गयी। इसमें कोई शक नहीं कि वे इसके योग्य नहीं थे। परन्तु इस अनुसार तो भारत के निर्माण में योगदान देने वाले अनेकों प्रतिभाशाली व्यक्तित्व हो चुके हैं। इसका प्रायश्चित मात्र इससे ही हो सकता है कि हम ”विस्मृत भारत रत्न स्मारक“ का निर्माण कर संयुक्त रूप से ऐसे व्यक्तित्व को याद करें जिन्हें हम वर्तमान में भारत रत्न पुरस्कार से सम्मानित नहीं कर सकते।
सम्पूर्ण भारत की बुद्धि भूतकाल में चल रही है जिसका सबसे बड़ा प्रमाण प्रतिभा की पहचान मृत्युपरान्त करना और पुरस्कृत करना है। “भारत रत्न” पुरस्कार कोई फैशन शो और धन कुबेर का मेरिट लिस्ट नहीं जो वस्त्र, शरीर और धन से प्राप्त किया जाता है। यह भारत और इस पृथ्वी के कल्याण के लिए किये गये कार्य का पुरस्कार है, कार्य करो और पा लो, यह सबके लिए अवसर है”
”विस्मृत भारत रत्न स्मारक“, सत्यकाशी क्षेत्र में स्थापित होने वाला वह स्मारक है जिसमें धर्म-सम्प्रदाय को भूलकर ऐसे व्यक्तित्व को स्थान दिया जायेगा जिनका भारत के निर्माण में महत्वपूर्ण योगदान था परन्तु उस समय ऐसी कोई व्यवस्था-कानून नहीं था जिससे उन्हें सम्मानित किया जा सके और हम सभी उनके इस सृष्टि के निर्माण-विकास में दिये योगदान कों भूलना नहीं चाहते।
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20. विश्वधर्म उपासना स्थल - उपासना और उपासना स्थल के विश्वमानक (WS-00000) पर आधारित
उपासना और उपासना स्थल के विश्वमानक (WS-00000) पर आधारित विश्वधर्म उपासना स्थल, जिसकी स्थापना जीवनदायिनी सत्यकाशी क्षेत्र में उचित स्थान देखकर की जायेगी क्योंकि इसकी स्थापना के पीछे स्थान का कोई विशेष कारण और स्थान के लिए शास्त्रीय आधार नहीं है, इसके लिए पूरा सत्यकाशी क्षेत्र ही शास्त्रीय आधार के अन्तर्गत है। विश्वधर्म उपासना स्थल, उपासना के सत्य अर्थ को व्यक्त करता हुआ ऐसा ज्ञान आधारित उपासना स्थल होगा जिसमें प्रवेश मात्र से ही आप विश्वव्यापकता का अनुभव करने लगेगें। साथ ही दृश्य ध्यान और दृश्य योग से भी युक्त हो जायेगें।
“समस्त जगत का एकत्व- यही श्रेष्ठ धर्ममत हैं। मैं अमुक हँू व्यक्ति विशेष- यह बहुत ही संकीर्ण भाव है। यथार्थ ”अहम्“ लिए, यह सत्य नहीं है। मैं विश्व व्यापक हँू- इस धारणा पर प्रतिष्ठित हो जाओ और श्रेष्ठ की उपासना सदा श्रेष्ठ रूप में करोे, कारण ईश्वर चैतन्य स्वरूप है, आत्म स्वरूप है, चैतन्य एवम् सत्य में ही उसकी उपासना करनी होगी। मानव चैतन्य स्वरूप है, और इसलिए मानव भी अनन्त है। और केवल अनन्त ही अनन्त की उपासना में समर्थ है। हम अनन्त की उपासना करेगें, वही सर्वोच्च आध्यात्मिक उपासना है।” - स्वामी विवेकानन्द
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21. सत्यकाशी ब्रह्माण्डीय एकात्म विज्ञान विश्वविद्यालय (Satyakashi Universal Integration Science University-SUISU)
सत्यकाशी ब्रह्माण्डीय एकात्म विज्ञान विश्वविद्यालय, जिसकी स्थापना जीवनदायिनी सत्यकाशी क्षेत्र में उचित स्थान देखकर की जायेगी क्योंकि इसकी स्थापना के पीछे स्थान का कोई विशेष कारण और स्थान के लिए शास्त्रीय आधार नहीं है, इसके लिए पूरा सत्यकाशी क्षेत्र ही शास्त्रीय आधार के अन्तर्गत है।
विभिन्न सम्प्रदाय (धर्म), जाति, मत, दर्शन इत्यादि में विभाजित इस मानव समाज में वर्तमान तथा आने वाले भविष्य के समय की मूल आवश्यकता है- मानव के मनों का एकीकरण अर्थात मानव मन का भूमण्डलीकरण एवं ब्रह्माण्डीयकरण। इसकी आवश्यकता इसलिए भी है क्योंकि मानव अपने विज्ञान व तकनीकी ज्ञान से प्राप्त संसाधनो का प्रयोग करते हुये, एक तरफ तो ब्रह्माण्ड की ओर चल पड़ा है तो दूसरी तरफ विध्वंस के लिए अनेक हथियारों का भी निर्माण कर चुका है। ऐसी स्थिति में हमें निश्चित रूप से ऐसे एकीकरण की आवश्यकता है जिससे हम इस पृथ्वी से मानसिक स्तर के विवादों को समाप्त कर सकें।
माया सभ्यता के अनुसार विश्व के मानव समाज यह भी मान रहें हैं कि 21 दिसम्बर, 2012 को दुनिया का अन्त हो जायेगा। जबकि हिन्दू धर्म शास्त्र विष्णु पुराण, भागवत पुराण, अग्नि पुराण, गरूड़ पुराण, पद्म पुराण इत्यादि में भगवान के दसवें और महाअवतार ”कल्कि“ का होना अभी शेष है। जिनसे कलियुग के अंधकार व विनाश को समाप्त करने का कार्य सम्पन्न होगा, साथ ही सत्ययुग का आरम्भ होगा। सिक्ख धर्म के पवित्र ग्रन्थ ”दशम् ग्रन्थ“ में भी ”कल्कि अवतार“ का वर्णन मिलता है।
सृजन और विनाश, का स्तर शारीरिक, आर्थिक व मानसिक होता है। जो एक व्यक्ति, समाज, देश और विश्व राष्ट्र के लिए होता है। व्यक्ति पर हुये शारीरिक, आर्थिक व मानसिक सृजन और विनाश को व्यक्ति ही अनुभव करता है परन्तु समाज, देश और विश्व राष्ट्र पर हुये शारीरिक, आर्थिक व मानसिक सृजन व विनाश को सार्वजनिक रूप से सभी देखते है। समाज, देश और विश्व राष्ट्र पर शारीरिक व आर्थिक सृजन और विनाश वर्तमान में तो चल ही रहा है जिसे सार्वजनिक रूप से मानव समाज देख रहा है।
भौतिकवादी पश्चिमी संस्कृति किसी भी सृजन व विनाश को मानसिक स्तर पर सोच ही नहीं सकता क्योंकि वह समस्त क्रियाकलाप को बाह्य जगत में ही घटित होता समझाता है जबकि वर्तमान समय मानसिक स्तर पर विनाश व सृजन का है। इस आधार पर यह कहा जा सकता है कि माया सभ्यता के अनुसार 21 दिसम्बर, 2012 को जो विनाश व सृजन होगा, वह मानसिक स्तर का ही होगा। जिसके परिणामस्वरूप सभी सम्प्रदाय, मत, दर्शन एक उच्च स्तर के विचार या सत्य में विलीन अर्थात विनाश को प्राप्त करेगा। फलस्वरूप उच्च स्तर के विचार या सत्य में स्थापित होने से सृजन होगा। कुल मिलाकर माया सभ्यता के कैलेण्डर का अन्त तिथि 21 दिसम्बर, 2012, दुनिया के अन्त की तिथि नहीं बल्कि वह वर्तमान युग के अन्त की अन्तिम तिथि का अनुमान है जिसके बाद नये युग का आरम्भ होगा।
ईश्वर भी इतना मूर्ख व अज्ञानी नहीं है कि वह स्वयं को इस मानव शरीर में पूर्ण व्यक्त किये बिना ही दुनिया को नष्ट कर दे। इसके सम्बन्ध में हिन्दू धर्म शास्त्रो में सृष्टि के प्रारम्भ के सम्बन्ध में कहा गया है कि- ”ईश्वर ने इच्छा व्यक्त की कि मैं एक हूँ, अनेक हो जाऊँ“। इस प्रकार जब वही ईश्वर सभी में है तब निश्चित रूप से जब तक सभी मानव ईश्वर नहीं हो जाते तब तक दुनिया के अन्त होने का कोई प्रश्न ही नहीं उठता और विकास क्रम चलता रहेगा।
21 दिसम्बर, 2012 के बाद का समय नये युग के प्रारम्भ का समय है जिसमें ज्ञान, ध्यान, चेतना, भाव, जन, देश, विश्व राष्ट्र, आध्यात्मिक जागरण, मानवता इत्यादि का विश्वव्यापी विकास होगा। परिणामस्वरूप सभी मानव को ईश्वर रूप में स्थापित होने का अवसर प्राप्त होगा। और यही विश्व मानव समाज की मूल आवश्यकता है। प्राचीन वैदिक काल में समाज को नियंत्रित करने के लिए ज्ञानार्जन सबके लिए खुला नहीं था परन्तु वर्तमान और भविष्य की आवश्यकता यह है कि समाज को नियंत्रित करने के लिए सभी को पूर्ण ज्ञान से युक्त कर सभी के लिए ज्ञान को खोल दिया जाय। यही कारण था कि वेद को प्रतीकात्मक रूप में लिख कर गुरू-शिष्य परम्परा द्वारा उसकी व्याख्या की जाती रही थी जिससे राजा और समाज को नियंत्रण में रखा जा सके।
सभी मानव को ईश्वर रूप में स्थापित होने के लिए जो माध्यम चाहिए वह है- ”एकात्म विज्ञान“ व ”ईश्वर शास्त्र“ विषय से मानव को शिक्षित करना। इस आवश्यकता हेतू ही इस ट्रस्ट का गठन किया जा रहा है जिससे इस विषय पर शैक्षणिक पाठ्यक्रम के लिए पाठ्य पुस्तको का सृजन किया जा सके। और शिक्षा पाठ्यक्रम में अनिवार्य रूप से अध्ययन के लिए शामिल कराया जा सके।
उद्देश्य एवं कार्यक्रम:-
(01) मानव मन का एकीकरण अर्थात मानव मन का भूमण्डलीकरण एवं ब्रह्माण्डीयकरण पर आधारित ”एकात्म विज्ञान (Integration Science)“ व ”ईश्वर शास्त्र (Godics)“ विषय के लिए विद्यालयों के विद्यार्थीयों के योग्य पाठ्य पुस्तक तैयार करना तथा शिक्षा पाठ्यक्रम में अनिवार्य रूप से शामिल कराने हेतू प्रयत्न करना।
(02) मानव मन का एकीकरण अर्थात मानव मन का भूमण्डलीकरण एवं ब्रह्माण्डीयकरण पर आधारित पूर्ण मानव निर्माण की तकनीकी डब्ल्यू.सी.एम-टी.एल.एम-श्याम डाॅट सी (WCM-TLM-SHYAM.C) के शिक्षा द्वारा विश्व स्तरीय मानव संसाधन का निर्माण करना तथा अध्यापकों को प्रशिक्षित करना और उन्हें जन समूहों, औद्योगिक संस्थानों, गुणवत्ता संस्थानों, प्रबन्ध संस्थानों, शिक्षा संस्थानों इत्यादि तक इसकी शिक्षा पहुॅचाने के योग्य बनाना।
(03) मानव मन का एकीकरण अर्थात मानव मन का भूमण्डलीकरण एवं ब्रह्माण्डीयकरण पर आधारित विस्तारित एवं आविष्कृत विचार एवम् साहित्य, विषय एवम् विशेषज्ञ, ब्रह्माण्ड (अदृश्य एवम् दृश्य) के प्रबन्धक और क्रियाकलाप, मानव (अदृश्य एवम् दृश्य) के प्रबन्ध और क्रियाकलाप तथा उपासना स्थल का विश्वमानक द्वारा भारत सहित विश्व में वैज्ञानिक दृष्टिकोण, मानवतावाद, ज्ञानार्जन तथा सुधार की भावना का विकास करना।
(04) मानव मन का एकीकरण अर्थात मानव मन का भूमण्डलीकरण एवं ब्रह्माण्डीयकरण पर आधारित भारत के संविधान तथा संयुक्त राष्ट्र संघ के चार्टर अर्थात संविधान को सत्य स्वरूप में स्थापित करने तथा भारत गणराज्य तथा संयुक्त राष्ट्र संघ के पुनर्गठन के लिए मार्गदर्शन देना साथ ही मन की गुणवत्ता के विश्वमानक की स्थापना के लिए उनके सम्बन्धित संगठनों / संस्थाओं को प्रेरित करना।
(05) मानव मन का एकीकरण अर्थात मानव मन का भूमण्डलीकरण एवं ब्रह्माण्डीयकरण पर आधारित संविधान की महत्ता, आवश्यकता, उपयोगिता तथा स्वतंत्रता, संस्कृति सामाजिक, आचार संहिता, एकता, रक्षा, अखण्डता, प्राकृतिक, पर्यावरण, स्वास्थ्य, राष्ट्रीयता, आर्थिक, मानक, मानदेय इत्यादि के प्रति जागरूक करना, नागरिकोें को सविंधान में लिखित मूल कत्र्तव्य को परिभाषित करना एवं उसके प्रति जागृत करना तथा अन्तर्राष्ट्रीय सहयोग को विकसित करना।
(06) मानव मन का एकीकरण अर्थात मानव मन का भूमण्डलीकरण एवं ब्रह्माण्डीयकरण पर आधारित सर्वेभवन्तु-सुखिनः, बसुधैव-कुदुम्बकम्, बहुजन हिताय - बहुजन सुखाय, विश्व-बन्धुत्च, एकात्ममानवतावाद, धर्मनिरपेक्षता, सर्वधर्मसममाव, एकात्मकर्मवाद, संपूर्ण एकता, स्वराज, सुराज, नीतिक, नैतिक व दार्शनिक परम्परा का पुनस्र्थापना करना और उन्हें नवीन तथा अन्तिम रुप से परिभाषित करना।
(07) मानव मन का एकीकरण अर्थात मानव मन का भूमण्डलीकरण एवं ब्रह्माण्डीयकरण पर आधारित दार्शनिक, सार्वमौम, सिद्धान्त तथा भौतिक-सार्वमौम-सिद्धान्त में समन्वय स्थापित करने हेतू व्यक्ति से ब्रह्माण्ड स्तर तक के विवादमुक्त स्वरूप को व्यक्त करना।
(08) मानव मन का एकीकरण अर्थात मानव मन का भूमण्डलीकरण एवं ब्रह्माण्डीयकरण पर आधारित शोध संस्थाओं, अध्यात्मिक पर्यटन स्थलो, उद्देश्यो की पूर्ति हेतू विश्वमानक आधारित उपासना स्थलों, विद्यालयों, महाविद्यालयों, विश्वविद्यालयों या अन्य प्रकार के शैक्षिक - तकनीकी संस्थानों की प्रतिष्ठा करना, उनका निर्वाह और परिचालन करना तथा उनकी सहायता करना।
(09) मानव मन का एकीकरण अर्थात मानव मन का भूमण्डलीकरण एवं ब्रह्माण्डीयकरण पर आधारित स्वस्थ एवं पूर्ण लोकतंत्र की प्राप्ति के लिए संविधान, शिक्षा प्रणाली एवं अन्य सभी प्रणालियों के सत्य स्वरुप को परिभाषित कर उसकी स्थापना हेतू जनसाधारण, शासन, अन्य समितियों व सामाजिक - धार्मिक संगठन को प्रेरित करना व उनकी सहायता करना।
(10) मानव मन का एकीकरण अर्थात मानव मन का भूमण्डलीकरण एवं ब्रह्माण्डीयकरण पर आधारित स्वस्थ लोकतंत्र के धर्म एवं सभी धर्मो तथा उनके सभी धर्म ग्रन्थोें के सत्य और धर्म निरपेक्ष-सर्वधर्मसमभाव स्वरुप को व्यक्त करते हुये उनमें समभाव-समदृष्टि द्वारा समन्वय स्थापित करना ।
(11़) मानव मन का एकीकरण अर्थात मानव मन का भूमण्डलीकरण एवं ब्रह्माण्डीयकरण पर आधारित शारीरिक, आर्थिक, मानसिक व्याधियों की मुक्ति हेतू विभिन्न प्रकार के प्राकृतिक चिकित्सा प्रणालियों को संचालित करना तथा नवीन प्रणालियों के विकास हेतू शोध व शिक्षण संस्थाओं की स्थापना करना ।
(12) मानव मन का एकीकरण अर्थात मानव मन का भूमण्डलीकरण एवं ब्रह्माण्डीयकरण पर आधारित साहित्य, संगीत, कला, दृश्य-श्रव्य माध्यम जैसे वृतचित्र, चलचित्र, विज्ञान, शास्त्र, मानवीय मूल्यों इत्यादि को विकसित करने वाले विषयों से सम्बन्धित गोष्ठी, सेमिनार, प्रदर्शनी व कार्यक्रम आयोजित कर ऐसी गतिविधियों को बढ़ावा देना तथा उस पर आधारित साहित्यों-शास्त्रों का प्रकाशन कर जन साधरण तक पहुँचाकर शिक्षित समाज की परिकल्पना को साकार करना।
(13) मानव मन का एकीकरण अर्थात मानव मन का भूमण्डलीकरण एवं ब्रह्माण्डीयकरण पर आधारित मानवीय मूल्यों इत्यादि को विकसित करने वाले विषयों को बौद्धिक सम्पदा अधिनियम, काॅपीराइट अधिनियम, पेटेण्ट अधिनियम इत्यादि के अन्तर्गत पंजीकृत कराते हुये उस पर एकाधिकार रखना और उसे प्रसारित करने के योग्य बनाकर समान विचारधारा वाले ट्रस्ट/समिति को विक्रय या वितरण के लिए तय किये गये नियमानुसार उपलब्ध कराना।
(14) समाजोत्थान व कल्याणार्थ वृद्ध गृह, वृद्धा आश्रम, विकलांग विद्यालय, स्वास्थ्य मेला, सामूहिक विवाह, गौशाला, हैण्डीक्राफ्ट प्रशिक्षण इत्यादि संचालित करना।
(15) पिछड़े, अनुसूचित, अनुसूचित जन जाति व अल्पसंख्यक वर्ग के महिला एवं पुरूश को तकनीकी शिक्षण-प्रशिक्षण प्रदान करना।
(16) निराश्रित/बेसहारा महिला व अनाथ बच्चों के लिए शिक्षा, आश्रम एवं स्वरोजगार की व्यवस्था करना।
(17) उद्देश्य की प्राप्ति हेतू समान विचारधारा वाले ट्रस्ट/समिति का गठन कराना व उन्हें स्वायत्तता के साथ अधीनस्त करना।
(18) प्रादेशिक सरकार, भारत सरकार, अन्य देशो तथा संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा चलाये जा रहे समाजोपयोगी कार्यक्रम व उद्योगो से सम्बन्धित क्रार्यक्रम में भाग लेना तथा उनके द्वारा आयोजित प्रशिक्षणो को संचालित करना जो विशेष रुप से मानव संसाधन विकास से सम्बन्धित हों।
(19) उद्देश्यों की पूर्ति में सहायक होने वाले वृत-पत्रों और नियतकालीन पत्र-पत्रिकाओं तथा पुस्तकों और पत्रको का मुद्रण और प्रकाशन करना, दृश्य-श्रव्य माध्यमों का निर्माण करना एवम् उनका निःशुल्क अथवा अन्य प्रकार से वितरण या विक्रय करना।
(20) ऐसे अन्य किसी कार्य का परिचालन करना जो उपरोक्त किसी भी उद्देश्य से सम्बन्धित हो तथा अपरोक्ष या परोक्ष रुप से उसकी पूर्ति में सहायक हो सकता हो उसे करना।
ट्रस्ट का प्रतीक चिन्ह:-
ट्रस्ट के प्रतीक चिन्ह का अर्थ:-
ट्रस्ट के प्रतीक चिन्ह का अर्थ ”दर्शन शास्त्र“ तथा ”पदार्थ / भौतिक विज्ञान“ के सर्वोच्च और अन्तिम सिद्धान्त में एकीकरण तथा ईश्वर के मस्तिष्क को व्यक्त करता है।
भौतिक विज्ञान के अनुसार - भौतिक विज्ञान के नवीनतम आविष्कार के आविष्कारक महान वैज्ञानिक एवम् ब्रह्माण्ड वैज्ञानिक ब्रिटिश स्टीफेन विलियम हाकिंग (जिन्हें दूसरा आईन्सटाइन कहा जाता है) के अनुसार- ‘‘ब्लैक होल (सर्वोच्च गुरूत्वाकर्षण की ब्रह्माण्डीय अति सघन वस्तु) के पी-ब्रेन्स माॅडल में पी-ब्रेन स्थान के तीन आयामों और अन्य सात आयामों में चलती है जिनके बारे में हमें कुछ पता नहीं चलता। यदि हम सभी बलों के एकीकरण का एक सार्वभौम समीकरण विकसित करें तो हम ईश्वर के मस्तिष्क को जान जायेगें क्योंकि हम भविष्य के कार्य का निर्धारण कर सकेगें, और यह मनुष्य के मस्तिष्क के द्वारा सर्वोच्च अविष्कार होगी। (साभार-प्रो0 स्टीफेन हाकिंग के भारत यात्रा पर राष्ट्रीय सहारा समाचार पत्र के 27 जनवरी ‘2001 को प्रकाशित ‘हस्तक्षेप’ अंक से)’। भौतिक विज्ञान के वर्तमान ब्रह्माण्ड व्याख्या के अनुसार ब्लैक होल एक तन्त्र या ब्रह्माण्ड के अन्त का प्रतीक है अर्थात् वह एक तन्त्र या ब्रह्माण्ड के प्रारम्भ का भी प्रतीक होगा। इस प्रकार बाह्य अनुभूति से हम पाते है कि एक सिंगुलारिटी (एकलता) है तथा तीन और सात आयाम है।
दर्शन शास्त्र के व्यक्तिगत प्रमाणित मार्गदर्शक दर्शन के अनुसार - दर्शन शास्त्र से व्यक्त भारत के सर्वप्राचीन दर्शनों (बल्कि विश्व के) में से एक और वर्तमान तक अभेद्य सांख्य दर्शन में ब्रह्माण्ड विज्ञान की विस्तृत व्याख्या उपलब्ध है। स्वामी विवेकानन्द जी के व्याख्या के अनुसार- ‘‘प्रथमतः अव्यक्त प्रकृति (अर्थात तीन आयाम- सत, रज, और तम), यह सर्वव्यापी बुद्धितत्व (1. महत्) में परिणत होती है, यह फिर सर्वव्यापी अंहतत्व (2. अहंकार) में और यह परिणाम प्राप्त करके फिर सर्वव्यापी इंद्रियग्राह्य भूत (3. तन्मात्रा- सूक्ष्मभूतः गंध, स्वाद, स्पर्श, दृष्टि, ध्वनि 4. इन्द्रिय ज्ञानः श्रोत, त्वचा, नेत्र, जिह्वा, घ्राण) में परिणत होता है। यही भूत समष्टि इन्द्रिय अथवा केन्द्र समूह (5. मन) और समष्टि सूक्ष्म परमाणु समूह (6. इन्द्रिय-कर्मः वाक, हस्त, पाद, उपस्थ, गुदा) में परिणत होता है। फिर इन सबके मिलने से इस स्थूल जगत प्रपंच (7. स्थूल भूतः आकाश, वायु, अग्नि, जल, पृथ्वी) की उत्पत्ति होती है। सांख्य मत के अनुसार यही सृष्टि का क्रम है और बृहत् ब्रह्माण्ड में जो है-वह व्यष्टि अथवा क्षूद्र ब्रह्माण्ड में भी अवश्य रहेगा। जब साम्यावस्था भंग होती है, तब ये विभिन्न शक्ति समूह विभिन्न रूपों में सम्मिलित होने लगते है और तभी यह ब्रह्माण्ड बहिर्गत होता है। और समय आता है जब वस्तुओं का उसी आदिम साम्यावस्था में फिर से लौटने का उपक्रम चलता है। (अर्थात एक तन्त्र का अन्त) और ऐसा भी समय आता है कि सब जो कुछ भावापन्न है, उस सब का सम्पूर्ण अभाव हो जाता है। (अर्थात सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड का अन्त)। फिर कुछ समय पश्चात् यह अवस्था नष्ट हो जाती है तथा शक्तियों के बाहर की ओर प्रसारित होने का उपक्रम आरम्भ होता है। तथा ब्रह्माण्ड धीरे-धीरे तंरगाकार में बहिर्गत होता है। जगत् की सब गति तरंग के आकार में ही होता है- एक बार उत्थान, फिर पतन। प्रलय और सृष्टि अथवा क्रम संकोच और क्रम विकास (अर्थात एक तन्त्र या सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड का अन्त और आरम्भ) अनन्त काल से चल रहे है।ं अतएव हम जब आदि अथवा आरम्भ की बात करते है तब हम एक कल्प (अर्थात चक्र) आरम्भ की ओर ही लक्ष्य रखते है।’’
उपरोक्त दोनो में एकीकरण करते हुये दर्शन शास्त्र के सार्वजनिक प्रमाणित विकास / विनाश दर्शन के अनुसार - सृष्टि में, सृष्टि का कारण मानक अर्थात आत्मा अर्थात ब्लैक होल से सत्व गुण युक्त मार्गदर्शक दर्शन (Guider Philosophy) से प्रारम्भ होकर स्थिति में रज गुण युक्त क्रियान्वयन दर्शन (Operating Philosophy) से होते हुये प्रलय में तम गुण युक्त विकास / विनाश दर्शन(Destroyer / Development Philosophy) को व्यक्त करता है। जिससे आदान-प्रदान (Transaction), ग्रामीण (Rural), आधुनिकता / अनुकलनता (Advancement/Adaptability), विकास (Development), शिक्षा (Education), प्राकृतिक सत्य (Natural Truth) व धर्म (Religion) या एकत्व या केन्द्र व्यक्त होता है। ट्रस्ट के प्रतीक चिन्ह में यही दर्शाया गया है। साथ ही ट्रस्ट के अंग्रेजी नाम का संक्षिप्त नाम SUISU प्रतीक चिन्ह के नीचे लिखा है और उपर संक्षिप्त नाम का उच्चारण YES YOU I YES YOU लिखा है। जिसका हिन्दी अर्थ ”हाँ तुम मैं हाँ तुम“ है। अर्थात तुम तभी हो जब मैं तुम्हारे साथ है। इस मैं का सार्वभौम रूप ही मनुष्य का सत्य रूप है।
कोई भी विकास दर्शन अपने अन्दर पुराने सभी दर्शनों को समाहित कर लेता है अर्थात उसका विनाश कर देता है और स्वयं मार्गदर्शक दर्शन का स्थान ले लेता है। अर्थात सृष्टि-स्थिति-प्रलय फिर सृष्टि। चक्रीय रूप में ऐसा सोचने वाला ही नये परिभाषा में आस्तिक और सिर्फ सीधी रेखा में सृष्टि-स्थिति-प्रलय सोचने वाला नास्तिक कहलाता है।
निर्माण स्थल केवल
बिल्डर्स एण्ड ऐसोसिएट एसोसिएशन (Builders & Associate Association) के लिए गोपनीय जिनके द्वारा
डिजिटल प्रापर्टी और एजेन्ट नेटवर्क (Digital Property & Agent Network)
संचालित होगा।
पाँचवें युग - स्वर्णयुग
के तीर्थ सत्यकाशी क्षेत्र में प्रवेश का आमंत्रण
काल अर्थात समय को समय से बांधा नहीं जा सकता। कोई भी व्यक्ति समष्टि के लिए किसी निश्चित दिन का दावा नहीं कर सकता कि इस दिन से किसी युग का परिवर्तन, किसी युग का अन्तिम दिन या किसी युग के प्रारम्भ का दिन है। क्योंकि हम दिन, दिनांक या कैलेण्डर का निर्धारण ब्रह्माण्डीय गतिविधि अर्थात सूर्य, चाँद, ग्रह इत्यादि के गति को आधार बनाकर निर्धारित करते है। इसी प्रकार युग का निर्धारण पूर्णतया मानव मन की केन्द्रित स्थिति से निर्धारित होता है न कि किसी निर्धारित अवधि के द्वारा। मन की केन्द्रित स्थिति निम्न स्थितियों में होती है-
0 या 5. स्थिति - अदृश्य मार्ग से मन का आत्मीय केन्द्रित स्थिति।
1. स्थिति - व्यक्तिगत प्रमाणित अश्दृय मार्ग से मन का आत्मीय केन्द्रित स्थिति अर्थात व्यक्तिगत प्रमाणित माध्यम द्वारा आत्मा पर केन्द्रित मन। यह स्थिति सतयुग की अन्तिम स्थिति है। इस युग में कुल 6 अवतार मत्स्य, कूर्म, वाराह, नृंिसंह, वामन और परशुराम हुये।
2. स्थिति -सार्वजनिक प्रमाणित अश्दृय मार्ग से मन का आत्मीय केन्द्रित स्थिति अर्थात सार्वजनिक प्रमाणित माध्यम - प्रकृति व ब्रह्माण्ड द्वारा आत्मा पर केन्द्रित मन। यह स्थिति त्रेतायुग की अन्तिम स्थिति है। इस युग में सातवें अवतार श्री राम हुयें।
3. स्थिति - व्यक्तिगत प्रमाणित दृश्य मार्ग से मन का आत्मीय केन्द्रित स्थिति अर्थात व्यक्तिगत प्रमाणित व्यक्ति व भौतिक वस्तु माध्यम द्वारा आत्मा पर केन्द्रित मन। यह स्थिति द्वापर युग की अन्तिम स्थिति है। इस युग में आँठवें अवतार श्री कृष्ण हुयें।
4. स्थिति - सार्वजनिक प्रमाणित दृश्य मार्ग से मन का आत्मीय केन्द्रित स्थिति अर्थात सार्वजनिक प्रमाणित व्यक्ति व भौतिक वस्तु माध्यम द्वारा आत्मा पर केन्द्रित मन। यह स्थिति कलियुग की अन्तिम स्थिति है। इस युग में नवें अवतार बुद्ध हुये और दसवें और अन्तिम अवतार श्री लव कुश सिंह ”विश्वमानव“ व्यक्त हैं।
0 या 5. स्थिति - दृश्य मार्ग से मन का आत्मीय केन्द्रित स्थिति।
उपरोक्त स्थिति में स्थित मन से ही उस युग में शास्त्र-साहित्यों की रचना होती रही है। और उस अनुसार ही प्रत्येक व्यक्ति अपनी स्थिति का पता लगा सकता है कि वह किस युग में जी रहा है।
उपरोक्त में से कोई भी स्थिति जब व्यक्तिगत होती है तब वह व्यक्ति उस युग में स्थित होता है चाहे समाज या सम्पूर्ण विश्व किसी भी युग में क्यों न हो। इसी प्रकार जब उपरोक्त स्थिति में से कोई भी स्थिति में समाज या सम्पूर्ण विश्व अर्थात अधिकतम व्यक्ति उस स्थिति में स्थित होते है तब समाज या सम्पूर्ण विश्व उस युग में स्थित हो जाता है।
युग परिवर्तन सदैव उस समय होता है जब समाज के सर्वोच्च मानसिक स्तर पर एक नया अध्याय या कड़ी जुड़ता है। और एक नये विचार से व्यवस्था या मानसिक परिवर्तन होता है। इस प्रकार यह आत्मसात् करना चाहिए कि सम्पूर्ण समाज इस समय चैथे युग-कलियुग के अन्त में है और जैसे-जैसे ”विश्वशास्त्र“ के ज्ञान से युक्त होता जायेगा वह पाँचवे युग-स्वर्ण युग में प्रवेश करता जायेगा। और जब बहुमत हो जायेगा तब सम्पूर्ण समाज या विश्व पाँचवे युग-स्वर्ण युग में स्थित हो जायेगा।
प्रत्येक काल के युग में युग परिवर्तन के कारण अवतार के अवतरण से एक नये तीर्थ का भी प्रकाश हो जाता है। इस प्रकार दृश्य काल के प्रथम और काल के पाँचवें युग का तीर्थ - सत्यकाशी क्षेत्र है।
किसी विषय के विकास व विस्तार के लिए आवश्यक होता है कि पहले उस विषय के भूतकाल व वर्तमान की स्थिति क्या है, उसे जाना जाय। क्योंिक इन्हीं आॅकड़ों पर आधारित होकर ही विकास व विस्तार की कार्य योजना बनायी जाती है। यह वैसे ही है जैसे कोई भी विद्यार्थी जब किसी कक्षा में प्रवेश लेता है तब उसे पिछली कक्षा की योग्यता अर्थात भूतकाल व वर्तमान की स्थिति बतानी पड़ती है। काशी क्षेत्र के विकास व विस्तार के पहले मानव व काशी क्षेत्र की भूतकाल व वर्तमान की स्थिति आप सबके सामने है जो माना व जाना जा चुका है। साथ ही विकास व विस्तार के लिए ये ही आधार आॅकड़े हैं। अगर ये सत्य हैं तो विकास व विस्तार भी सत्य ही होगें। जगत का प्रत्येक विषय विकास और विस्तार कर रहा है। मोक्षदायिनी काशी का भी विस्तार हो चुका है जो जीवनदायिनी सत्यकाशी के रूप में अपनी योग्यता को प्रस्तुत कर व्यक्त है। इस क्रम आप आमत्रिंत हैं-
1. सत्यकाशी क्षेत्र निवासीयों को आमंत्रण
2. काशी (वाराणसी) को आमंत्रण
3. धार्मिक संगठन/संस्था को आमंत्रण
4. रियल इस्टेट/इन्फ्रास्ट्रक्चर व्यवसायिक कम्पनी को आमंत्रण
5. रियल इस्टेट एजेन्ट को आमंत्रण
शब्द से सृष्टि की ओर...
सृष्टि से शास्त्र की ओर...
शास्त्र से काशी की ओर...
काशी से सत्यकाशी की ओर...
और सत्यकाशी से अनन्त की ओर...
एक अन्तहीन यात्रा...............................
”सत् का कारण असत् कभी नहीं हो सकता। शून्य से किसी वस्तु का उद्भव नहीः कार्य-कारणवाद सर्वशक्तिमान है और ऐसा कोई देश-काल ज्ञात नहीं, जब इसका अस्तित्व नहीं था। यह सिद्धान्त भी उतना ही प्राचीन है, जितनी आर्य जाति। इस जाति के मन्त्र द्रष्टा कवियों ने उसका गौरव गान गया है। इसके दार्शनिकों ने उसको सूत्रबद्ध किया और उसकी वह आधारशिला बनायी, जिस पर आज का भी हिन्दू अपने जीवन का समग्र योजना स्थिर करता है। हिन्दुओं के बारह महीनों में कितने ही पर्व होते हैं और उनका उद्देश्य यही है कि धर्म में जितने बड़े-बड़े भाव है उनको सर्वसाधारण में फैलायें। परन्तु इसमें एक दोष भी है। साधारण लोग इनका यथार्थ भाव न जान उत्सवों में ही मग्न हो जाते हैं और उनकी पूर्ति होने पर कुछ लाभ न उठा ज्यों के त्यों बने रहते हैं। इस कारण ये उत्सव धर्म के बाहरी वस्त्र के समान धर्म के यथार्थ भावों को ढांके रहते हैं। समस्त ब्रह्माण्ड जब नित्य आत्मा ईश्वर का ही विराट शरीर है तब विशेष-विशेष स्थानों (तीर्थस्थान) के महात्म्य में आश्चर्य की क्या बात है? विशेष स्थानों पर उनका विशेष विकास है। कहीं पर आप ही से प्रकट होते हैं और कहीं शुद्ध सत्य मनुष्य के व्याकुल आग्रह से प्रकट होते हैं। फिर भी यह तुम निश्चित जानो कि इस मानव शरीर की अपेक्षा और कोई बड़ा तीर्थ नहीं है। इस शरीर में जितना आत्मा का विकास हो सकता है उतना और कहीं नहीं।“ - स्वामी विवेकानन्द
1. सत्यकाशी क्षेत्र निवासीयों को आमंत्रण
सत्यकाशी क्षेत्र का इतिहास और इसकी आध्यात्मिक विरासत अत्यन्त समृद्ध है। जरूरत थी इसकी समृद्धि पर एक ऐसे प्रोजेक्ट की जो इसे क्षेत्र को ऐसे उद्योग में स्थापित कर दे जो बीघे-विस्से में बँट रहे यहाँ के परिवार के सामने रोजगार के अन्तहीन मार्ग को खोल दे। आप सिर्फ अपने परिवार के बच्चे के प्रति चिन्तित हैं, मैं पूरे क्षेत्र के बच्चों के प्रति चिन्तित हूँ। यही आप में और मुझमें अन्तर है। सत्यकाशी क्षेत्र व्यापारिक शिक्षा संस्थानों से परिपूर्ण है। मैं यह चाहता हूँ कि इस क्षेत्र के विद्यार्थी विश्वशास्त्र के माध्यम से पूर्ण ज्ञान से युक्त और मानसिक रूप से स्वतन्त्र हों क्योंकि यह क्षेत्र हमारे प्रत्यक्ष कर्म का क्षेत्र है। विश्वशास्त्र में ब्रह्माण्ड और पृथ्वी की स्थिति सहित सभी धर्मो, दर्शनों, अवतारों और उनके संस्थापकों के ज्ञान, सभी देवी-देवताओं की शक्तियाँ और उत्पत्ति का कारण व कथा, महर्षि व्यास के पौराणिक कथा लेखन कला रहस्य का पहली बार खुलासा, पृथ्वी पर चल रहें अनेकों प्रकार के व्यापार इत्यादि के समावेश के साथ, वर्तमान और भविष्य की आवश्यकता का सम्पूर्ण प्रक्रिया उपलब्ध है। द्वापरयुग में भी सभी विचारों का एकीकरण कर एक शास्त्र ”गीता“ बनाया गया था। गीता, ज्ञान का शास्त्र है जबकि विश्वशास्त्र ज्ञान समाहित कर्मज्ञान का शास्त्र है। गीता, प्रकृति (सत्व, रज और तम) गुणों से ऊपर उठकर ईश्वरत्व से एकाकार की शिक्षा देती है जबकि विश्वशास्त्र उससे आगे ईश्वरत्व से एकाकार के उपरान्त ईश्वर कैसे कार्य करता है उस कर्मज्ञान के बारे में बताती है। आप चुनार क्षेत्र के लोग अपने दक्षिण दिशा के लोंगो को ”दखिनहाँ“ कहते हैं परन्तु आप लोंगो को मालूम होना चाहिए कि आप काशी (वाराणसी) के लिए ”दखिनहाँ“ हैं। पहले आप काशी के बराबर बनें। इस बराबरी का नाम ही सत्यकाशी है। भगवान बुद्ध ने बुद्धि, संघ और धर्म के शरण में जाने की शिक्षा दी थी। विश्वशास्त्र बुद्धि का सर्वोच्च उदाहरण है। श्रीराम के कारण चित्रकूट पर्यटन व धार्मिक क्षेत्र बना, श्रीकृष्ण के कारण मथुरा, द्वारिका पर्यटन व धार्मिक क्षेत्र बना, भगवान बुद्ध के कारण सारनाथ, कुशीनगर, बोधगया पर्यटन व धार्मिक क्षेत्र बना। ”विश्वशास्त्र“ के कारण सत्यकाशी स्थापित है। भगवान बुद्ध के कारण काशी के उत्तर में काशी का प्रसार हुआ, विश्वशास्त्र के कारण काशी के दक्षिण में काशी का प्रसार हो रहा है। अभी पिछले वर्षे में जगदगुरू शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानन्द जी ने दण्डी स्वामी शिवानन्द द्वारा लिखित और उनके द्वारा खोज पर आधारित पुस्तक ”वृहद चैरासी कोस परिक्रमा“ का श्री विद्यामठ में विमोचन किये हैं। सत्यकाशी क्षेत्र के निवासीयों को जानना चाहिए कि इस चैरासी कोस परिक्रमा में सत्यकाशी क्षेत्र के भाग वैकुण्ठपुर (नरायनपुर), शिवशंकरी धाम व चुनार भी शामिल हो चुके हैं। यदि आप पर्यटन उद्योग को समझते होंगे तो आपको यह मालूम होना चाहिए कि यह फैक्ट्री की भाँति बन्द नहीं होता। ”सत्यकाशी“ नाम किसी व्यक्ति का नाम नहीं, यह तो पूरे क्षेत्र का नाम है, न ही यह ”म्यूजिकल वाटर पार्क“ जैसी आम जनता को कुछ भी लाभ न देने वाली योजना है। आगे के वर्षों में पूर्वांचल राज्य का बनना तय है। ऐसे में मीरजापुर जिले से अलग होकर चुनार भी एक जिला बन सकता है। जिसके नाम का निर्धारण ”चुनार गढ़“, ”चरणाद्रि“, ”नैनागढ़“, ”सत्यकाशी“ इत्यादि या इनको मिलाकर नाम निर्धारण पर भी विचार करने की आवश्यकता आ गई है। सत्यकाशी क्षेत्र में स्थित बी.एच.यू. के दक्षिणी परिसर को मालवीय जी के सपनों को साकार करने हेतू उसे स्वतन्त्र बनाकर नाम ”सत्यकाशी हिन्दू विश्वविद्यालय“ करने के लिए भी प्रयास करना चाहिए। सत्यकाशी क्षेत्र के व्यक्ति भी ”सत्यकाशी“ शब्द का प्रयोग विभिन्न प्रकार जैसे- सत्यकाशी होटल, सत्यकाशी स्टुडियो, सत्यकाशी टेन्ट हाउस, सत्यकाशी हास्पिटल, सत्यकाशी पब्लिक स्कूल, सत्यकाशी बुक सेन्टर, सत्यकाशी क्रिकेट क्लब द्वारा सत्यकाशी कप, सत्यकाशी जागरण यात्रा इत्यादि नामों का प्रयोग कर अपने क्षेत्र का विकास कर सकते हैं। सत्यकाशी क्षेत्र में अनेक दर्शनीय स्थल हैं जहाँ व्यक्ति घूमने के लिए जाते हैं। ट्रेवेल्स से जुड़े व्यापारी विशेष स्थानों को घुमाने की योजना बनाकर ”सत्यकाशी दर्शन“ के नाम पर लाभ प्राप्त कर सकते हैं। जिन गाँवों के नाम भगवान के नाम पर हैं उस गाँव में उस भगवान के भव्य मन्दिर का निर्माण करना चाहिए एवं कोई न कोई उत्सव-आयोजन भी प्रारम्भ करना चाहिए। बहुत सारे व्यक्ति ऐसा सोचते हैं कि मन्दिरों से क्या होगा? लेकिन उन्हें नहीं पता कि मन्दिरों का कारोबार यदि बन्द हो जाये तो बेरोजगार हुए लोगों को कोई उद्योगपति या सरकार रोजगार कैसे दे पायेगी? जबकि रोजगार की समस्यायें दिन-प्रतिदिन जटिल होती जा रही है। ये सब केवल थोड़े से सोच में परिवर्तन से हो सकता है। ये अब भी हो सकता है अन्यथा करना तो पड़ेगा ही। क्षेत्रवासी इसे करें हम सभी तो राष्ट्रीय व अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर सत्यकाशी को स्थापित करने में लगे ही हैं।
चुनार व मड़िहाऩ विधान सभा क्षेत्र को विकसित बनाने वाला प्रस्तावित ”सत्यकाशी नगर“ प्रत्येक दिन एक-एक कदम बढ़ रहा है और उसका नामकरण यूँ ही नहीं बल्कि वह वर्तमान की उपलब्धि, व्यापक पौराणिक आधार व कारण लिए हुए है। काशी (वाराणसी) के पास अब टाउनशिप के विकास के लिए बड़ी जमीन नहीं बची है। उन्हें पर्यटन के लिए चुनार व मीरजापुर के सिद्ध पहाड़ी क्षेत्र में ही आना होगा। काशी के विभिन्न धार्मिक संस्थाओं के लिए भी हर प्रकार से यह क्षेत्र सुयोग्य है। चुनार क्षेत्रवासियों को अपने इतिहास को जानना चाहिए क्योंकि संसार में वो ही व्यक्ति, नाम एवं स्थान अमरता व विकास को प्राप्त होता है जिसका पौराणिक इतिहास हो या विश्व ऐतिहासिक कार्य हो, शेष सभी पशु-पक्षियों व कीड़ांे-मकोड़ों के भाँति आते हैं और चले जाते हैं।
आप सभी इस गलतफहमी में कभी न पड़े कि इस योजना को हमने प्रस्तुत किया है तो इसके निर्माण की जिम्मेदारी भी हमारी है। यह उसी भाँति है जिस प्रकार एक मकान के नक्शे को बनाने वाले के पास अनेकों प्रकार के नक्शे होते है या आपके जमीन के अनुसार नक्शा बनाता है और आप उसे लेकर अपना मकान बनाते हंै। सत्यकाशी क्षेत्र के समग्र विकास के लिए एक नक्शा प्रस्तुत कर दिया है और आप सभी अपना घर स्वयं बना लें, या उनसे कहें जिन्हें आप अपना बहुमूल्य वोट देते हंै और पीछे-पीछे अपने व्यक्तिगत स्वार्थ व हित के लिए लगे रहते हैं। हम केवल आपको उस नक्शे से परिचय मात्र करा रहे हैं जिससे इस क्षेत्र को पीढ़ी दर पीढ़ी के लिए खुशहाली का मार्ग प्राप्त हो जाये। इस क्षेत्र के लिए हमारे कार्य की सीमा यहीं समाप्त होती है क्योंकि इससे जिन ईंट, गिट्टी, सीमेण्ट, बालू, भूमि इत्यादि के व्यापारी को लाभ है अगर वे नहीं सोचेंगे तो मुझे कोई लाभ नहीं है। मैं इस प्रकार का व्यापारी नहीं हूँ। ऐसा कार्य करने वाला जे.पी. ग्रुप आपके क्षेत्र में है। यहाँ के लोगों व अधिवक्ताओं को सम्पर्क कर प्रस्ताव देना चाहिए क्योंकि इससे कचहरी कार्य में भी तेजी आयेगी। हम लोग भी रियल स्टेट व टाउनशिप बनाने वाली कम्पनीयों तक इसे पहुँचा रहे हैं। मुझे सिर्फ सत्यकाशी क्षेत्र से मतलब है, नगर निर्माण से नहीं। सत्यकाशी परियोजना एक अतिदूरदर्शी विचार है जिसे लोग आज भी समझ सकते है और आने वाले समय में भी। इन परियोजनाओं को आपके सामने प्रस्तुत करने के साथ ही उन सक्षम व्यापारिक कम्पनीयों तक भी पहुँचाया जा रहा है जो इस कार्य को कर व्यापारिक दृष्टि से लाभ कमाने में रूचि रखती हैं। मैंने भी अपने जीवन में बहुत से धार्मिक स्थलों को देखा है और उनका अध्ययन किया है, और उस आधार पर ही इसे समाज के सामने लाने का प्रयत्न किया है।
इन सब कार्यों से आप हमसे यह पूछ सकते हैं कि ये सब करने से हमें क्या लाभ है? आपका प्रश्न सांसारिक व स्वाभाविक है क्योंकि आप उसे ही कार्य समझते हैं जिससे धन प्राप्त होता है। परन्तु मैं आपसे पूछता हूँ कि श्रीराम के नाम पर कितने का व्यापार है? श्रीकृष्ण के नाम पर कितने का कारोबार है?, शिव-शंकर, वैष्णों देवी, सांई बाबा इत्यादि के नाम पर कितने का कारोबार है? और इस कारोबार का मालिक कौन है? क्या उसका लाभ लेने के लिए वे आते हैं? ये ऐसे नाम व विचार के व्यापार हैं जो कभी बन्द नहीं होने वाले और न ही उसका वे लाभ लेने वाले हैं। ये एक विचार है, इस विचार पर मनुष्यों की आजिविका चलती है। सत्यकाशी, एक विचार है। अगर इससे इस क्षेत्र का लाभ होता है तो करो, अन्यथा कभी मत करो, इससे मेरा कोई मतलब नहीं है। प्रत्येक व्यापार एक विशेष विचार पर आधारित होता है। साधारणतया लोग यही सोचते हैं कि ज्ञान की बातों से क्या होगा, परन्तु ज्ञान ही समस्त व्यापार का मूल होता है। किसी विचार पर आधारित होकर आदान-प्रदान का नेतृत्वकर्ता व्यापारी और आदान-प्रदान में षामिल होने वाला ग्राहक होता है। ”रामायण“, ”महाभारत“, ”रामचरितमानस“ इत्यादि किसी विचार पर आधारित होकर ही लिखी गई है। यह वाल्मिीकि, महर्षि व्यास और गोस्वामी तुलसीदास का दुर्भाग्य है कि वे ऐसे समय में जन्म लिये जब काॅपीराइट और रायल्टी जैसी व्यवस्था नहीं थी अन्यथा वे वर्तमान समय के सबसे धनवान व्यक्ति होते। परन्तु इसी को दूरदर्शन पर दिखाकर रामानन्द सागर और बी.आर.चोपड़ा ने इसे सिद्ध किया। ”विश्वशास्त्र“ इसी श्रंृखला की अगली कड़ी है जिसका बाजार विश्वभर में मानव सृष्टि रहने तक है और इससे प्राप्त धन को सत्यकाशी के विकास में लगाने की योजना है।
सर्वप्रथम युग शारीरिक शक्ति आधारित था, फिर आर्थिक शक्ति आधारित वर्तमान युग चल रहा है। अब आगे आने वाला समय ज्ञान शक्ति आधारित हो रही है। वर्तमान में रहने का अर्थ है कि वैश्विक ज्ञान जहाँ तक पहुँच चुका है उसके बराबर स्वयं को रखना। किसी व्यक्ति या क्षेत्र को विकसित क्षेत्र तभी कहा जाता है जब वह शारीरिक, आर्थिक व मानसिक तीनों क्षेत्र में विकास करे। मानसिक विकास का परिणाम समाज क्षेत्र के सहयोग से सार्वजनिक कार्य का पूर्ण होना होता है। समाज का प्रथम जन्म चुनार क्षेत्र में भगवान विष्णु के 5वें अवतार वामन अवतार द्वारा हुआ था, जब प्रजा राज्य पर आधारित होने लगी थी। वर्तमान में भी ऐसी स्थिति बनी हुई है कि जनता अपने राज्य आधारित नेताओं से सम्पूर्ण विकास की उम्मीद रखती है। जबकि समाज आधारित कार्य शून्य है। समाज का अर्थ लोगों के बीच मात्र उठना-बैठना नहीं है बल्कि लोंगो के सहयोग से सार्वजनिक कार्य करना है। पद पर बैठकर मनुष्य पद के अनुसार एक निश्चित काम ही कर सकता है समाज का विकास नहीं। इसलिए राजनीतिक नेताओं से उनकी क्षमता से अधिक उम्मीद न करें। क्षेत्र के विकास के लिए आप सभी को स्वयं आगे आकर उन कार्यो के लिए उन नेताओं को विवश करना पड़ेगा जो आपके और क्षेत्र के विकास के लिए पीढ़ी दर पीढ़ी काम आने वाली है। जो स्थायी हो, जो नेताओं पर निर्भर न होकर यहाँ के निवासियों पर निर्भर हो। तब समाज का जन्म होगा। सत्यकशी क्षेत्र को जानें और अपने मन को इस क्षेत्र के ऊपर रखकर और ज्ञान र्में िस्थत होकर सोचें कितने सौ करोड़ रूपये का कभी न बन्द होने वाला प्राजेक्ट आपके सामने आपके क्षेत्र के लिए और आपको प्रत्यक्ष लाभ देने के लिए पड़ा हुआ है। इसी को कहते हैं-उपलब्ध संसाधनों पर आधारित होकर योजना बनाना। और अन्त में अपने बारे में-
लगा ली दो घूँट, यारो की खुशी से,
जानता था लोग समझेगें षराबी।
छुपाना था खुद को, जहाँ से,
तो लोगों बताओ,पीने में क्या थी खराबी।
सत्यकाशी क्षेत्र के कल्याण का एक और अन्तिम रास्ता है- श्री लव कुश सिंह ”विश्वमानव“ द्वारा ”विश्वशास्त्र“ में व्यक्त व सार्थक योजनाबद्ध किया गया ‘‘सत्यकाशी निर्माण’’। जिसमें सहयोग ही इस क्षेत्र के निवासियों का स्वयं के लिए सहयोग है। जो बुद्धि युक्त है और जो बुद्धि एवं धन युक्त है- वे इस निर्माण का भरपुर लाभ उठा लेंगे लेकिन वे जो सिर्फ धनयुक्त हैं वे सिर्फ देखते रह जायेंगे। जो जितना क्रमशः उच्चतर -शारीरिक, आर्थिक एवं मानसिक विषयों का आदान-प्रदान करता है वहीं विकास करता है जीवकोपार्जन तो पशु पक्षी भी कर लेते हैं। दूर-दृष्टि से लाभ उठायें और गर्व से कहें- ”हम सत्यकाशी निवासी हैं“ और इसके लिए हम आपको आमंत्रित करते हैं।
2. काशी (वाराणसी) को आमंत्रण
काशी, काश धातु से निष्पन्न है। काश का अर्थ है- ज्योतित होना या ज्योतित करना अर्थात जहाँ से ब्रह्म प्रकाशित हो। जिस स्थान या नगर से ज्ञान का प्रकाश चारों ओर फैलता है उसे काशी पुरी या काशी नगर कहते हैं। ब्रह्म प्रकाशित करने वाला प्रत्येक नगर ही काशी है।
काशी क्या है ? काशी सत्य का प्रतीक है। इसके सत्य अर्थ को समझने के लिए सार्वभौम सत्य-सिद्धान्त आधारित सृष्टि के उत्पत्ति से प्रलय को व्यक्त करने वाला शिव-शंकर अधिकृत कर्मवेद: प्रथम, अन्तिम तथा पंचम वेद को समझना पड़ेगा। कालभैरव जन्म कथा इसका प्रमाण है। सर्वोच्च मन सें व्यक्त यह पौराणिक कथा स्पष्ट रुप से व्यक्त करती है कि ब्रह्मा और विष्णु से सर्वोच्च शिव-शंकर हैं। चारो वेदों को प्रमाणित करने वाले शिव-शंकर हैं। चार सिर के चार मुखों से चार वेद व्यक्त करने वाले ब्राह्मण ब्रह्मा जब पाँचवे सिर के पाँचवे मुख से अन्तिम वेद पर अधिपत्य व्यक्त करने लगे तब शिव-शंकर के द्वारा व्यक्त उनके पूर्ण रुप कालभैरव ने उनका पाँचवा सिर काट डाला जिससे यह स्पष्ट होता है कि काल ही सर्वोच्च है, काल ही भीषण है, काल ही सम्पूर्ण पापों का नाशक और भक्षक है, काल से ही काल डरता है। अर्थात् पाँचवा वेद काल आधारित ही होगा। पुराणों में ही व्यक्त शिव-शंकर से विष्णु तथा विष्णु से ब्रह्मा को बहिर्गत होते अर्थात् ब्रह्मा को विष्णु के समक्ष तथा विष्णु को शिव-शंकर के समक्ष समर्पित और समाहित होते दिखाया गया है। जिससे यह स्पष्ट होता है कि शिव-शंकर ही आदि और अन्त हैं। अर्थात् जो पंचम वेद होगा वह अन्तिम वेद होगा, साथ ही प्रथम वेद भी होगा। शिव-शंकर ही प्रलय, स्थिति और सृष्टिकर्ता हैं। चूँकि वेद शब्दात्मक होते हैं इसलिए पंचम वेद शब्द से ही प्रलय, स्थिति और सृष्टिकर्ता होगा। पुराण-शास्त्र को रचने वाले व्यास हैं तो पुराण जिस कला से रची गयी है वह व्यास ही बता सकते हैं या जो शास्त्र रचने की योग्यता रखता हो। सृष्टि की उत्पत्ति और प्रलय या प्रलय और उत्पत्ति की क्रिया उसी भाँति है जैसे जन्म के बाद मृत्यु, पुनः मृत्यु के बाद जन्म अर्थात् उत्पत्ति और प्रलय या जन्म और मृत्यु एक ही विषय हैं इसलिए ही कहा जाता है कि जो प्रथम है वहीं अन्तिम है। कर्मवेद में सृष्टि की उत्पत्ति से प्रलय को व्यक्त किया गया है जिसके बीच सात चरण है और यही सात काशी है। यदि गिने तो प्रलय प्रथम तथा उत्पत्ति अन्तिम व सातवाँ चरण है। इस प्रकार उत्पत्ति व प्रलय अलग-अलग दिखाई पड़ते हुए भी एक हैं। सृष्टि के विकास क्रम में ही मनुष्य की सृष्टि है यह जैसे-जैसे प्राकृतिक नियम से दूर होता जाता है वह पतन की अवस्था को प्राप्त होता जाता है जिसकी निम्नतम अवस्था पशुमानव अर्थात् पूर्णतः इन्द्रिय के वश में संचालित होने वाली अवस्था है। अब यदि यह पशुमानव अवस्था चरम शिवत्व की स्थिति तक उठना चाहे तो उसे मानवीय व प्राकृतिक मूल पाँच चरणों को पार करना पड़ता है। यदि वह अन्तः जगत अर्थात् सार्वभौम सत्य ज्ञान से सृष्टि की उत्पत्ति की ओर जाता है तब वह योगेश्वर की अवस्था प्राप्त करता है। यदि वह वाह्य जगत् अर्थात् सार्वभौम सत्य-सिद्धान्त ज्ञान से सृष्टि के प्रलय की ओर जाता है तब वह भोगेश्वर की अवस्था प्राप्त करता है। योगेश्वर व भोगेश्वर एक ही हैं बस एक अवस्था में दूसरा प्राथमिकता पर नहीं होता है। इस प्रकार सृष्टि के आदि में काशी और अन्त में सत्यकाशी व्यक्त होता है। इनके बीच पाँच अन्य काशी होती हैं। इस क्रमानुसार काशी: पंचम, प्रथम तथा सप्तम काशी तथा सत्यकाशी: पंचम, अन्तिम तथा सप्तमकाशी की स्थिति में होता है। योगेश्वर अवस्था ही अदृश्य विश्वेश्वर की अवस्था है तथा भोगेश्वर अवस्था ही दृश्य विश्वेश्वर की अवस्था है जबकि दोनों एक हैं और प्रत्येक वस्तु की भाँति एक-दूसरे के दृश्य और अदृश्य रुप हैं। इसलिए ही विष्णु और शिव-शंकर को एक दूसरे का रुप कहते हैं।
सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति और अन्त को प्रदर्शित करते शिव अधिकृत कर्मवेद: प्रथम, अन्तिम तथा पंचम वेद में सात सत्य चक्र हैं। ये चक्र कालानुसार सात सत्य हैं जो सात काशीयों को व्यक्त करते हैं। वर्तमान काल अन्तिम सत्य चक्र अर्थात् सातवें चक्र में है। इसलिए ही सातवाँ काशी ही अन्तिम काशी है। मानव शरीर के उत्पत्ति के दो केन्द्र हैं- प्रथम मानव ब्रह्म से उत्पन्न, उसके उपरान्त मानव मानव से उत्पन्न हो रहा है। ऐसी स्थिति में मानव, ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति की ओर से अन्त सत्य चक्र की ओर जाता है तो उसे पाँच सत्यचक्र के ज्ञान से युक्त होना पड़ता है। और उसे पाँचवे सत्य पर उत्पत्ति की दिशा में काशी (वाराणसी) और अन्त की दिशा में सत्यकाशी के सत्यचक्र का ज्ञान होता है। जो अन्तिम है वहीं प्रथम है और जो प्रथम है वहीं अन्तिम है। इस प्रकार काशी: पंचम, प्रथम तथा सप्तम काशी तथा सत्यकाशी क्रमशः पंचम, अन्तिम तथा सप्तम काशी है। काशी और सत्यकाशी एक ही का अदृश्य और दृश्य रुप है। सत्यकाशी, काशी का ही विस्तार मात्र है। काशी मोक्षपुरी है सत्यकाशी जीवनदायिनी है क्योंकि यहाँ से जीवन शास्त्र ”विश्वशास्त्र“ व्यक्त हुआ है। जीवन ही मृत्यु है और मृत्यु ही जीवन है।
काशी: प्रतीक चिन्ह व अर्थ
समस्त विश्व को अणु रूप में धारण करने वाले देवता को विष्णु कहते हैं और समस्त विश्व को तन्त्र रूप में धारण करने वाले देवता को शिव कहते हैं। विष्णु, सार्वभौम आत्मा सत्य के प्रतीक हैं तो शिव, सार्वभौम आत्मा सिंद्धान्त के प्रतीक हैं। आत्मा, व्यक्तिगत प्रमाणित अदृश्य है तो सिद्धान्त सार्वजनिक प्रमाणित दृश्य है अर्थात विष्णु के ही दृश्य रूप शिव हैं। काशी का प्रतीक विश्वेश्वर शिवलिंग है।
सत्यकाशी: प्रतीक चिन्ह व अर्थ
समस्त विश्व को अणु रूप में धारण करने वाले देवता को विष्णु कहते हैं और समस्त विश्व को तन्त्र रूप में धारण करने वाले देवता को शिव कहते हैं। विष्णु, सार्वभौम आत्मा सत्य के प्रतीक हैं तो शिव, सार्वभौम आत्मा सिंद्धान्त के प्रतीक हैं। आत्मा, व्यक्तिगत प्रमाणित अदृश्य है तो सिद्धान्त सार्वजनिक प्रमाणित दृश्य है अर्थात विष्णु के ही दृश्य रूप शिव हैं। काशी का प्रतीक विश्वेश्वर शिवलिंग है। सत्यकाशी के प्रतीक में विष्णु का प्रतीक शंख और सु-दर्शन चक्र समर्पित है।
इस क्रम में काशी (वाराणसी) को सत्यकाशी के निर्माण में अग्रसर होने के लिए हम आमंत्रित करते हैं।
3. धार्मिक संगठन/संस्था को आमंत्रण
विन्ध्य पर्वत क्षेत्र, भारत वर्ष की सभी पर्वंत क्षेत्र में सबसे लम्बी एवं विस्तृत श्रंृखला है जो कि भारत के बिहार, उत्तर प्रदेश, सम्पूर्ण मध्य प्रदेश एवं महाराष्ट्र आदि राज्यों तक अपनी अनुपम छटा विखेरती है। इसकी चैड़ाई लगभग 1050 किलोमीटर तथा ऊँचाई 300 मीटर है। इसकी श्रंृखलाएँ भारत को गंगा के मैदान एवं दक्षिण के पठार को विभक्त करती है। यह क्षेत्र अपने प्राकृतिक सौन्दर्य, वन्य जीवन, कल-कल निनाद करते झरने और इठलाती नदियाँ, गुफाएँ और भित्तचित्रों विभिन्न घटनाओं एवं गाथाओं से परिपूर्ण ऐतिहासिक किलों के साथ ही विभिन्न धार्मिक स्थलों एवं शक्तिपीठों को अपने आँचल में समेटे हुए है। सम्पूर्ण विन्ध्य क्षेत्र में शाक्त साधकों, सिद्धों, तान्त्रिकों आदि की एक लम्बी परम्परा रही हैं। विन्ध्य पर्वत क्षेत्र का एकान्त इन सिद्ध साधकों को सर्वदा ऊर्जा देता रहा है। यह क्षेत्र प्राचीन आर्यावर्त का मध्य बिन्दु भी था। प्राचीन भारत में हिमालय पर्वत तथा विन्ध्य पर्वत के मध्य के भूभाग को आर्यावर्त के नाम से जाना जाता है तथा विन्ध्य पर्वत के दक्षिण भाग का नाम दक्षिणावर्त या दक्षिणपथ था। विन्ध्य क्षेत्र भारतीय इतिहास की अनेक छोटी-बड़ी घटनाओं का साक्षी रहा है।
पर्यटन की दृष्टि से मीरजापुर काफी महत्वपूर्ण जिला माना जाता है। यहाँ की प्राकृतिक सुन्दरता और धार्मिक वातावरण बरबस लोगों का ध्यान अपनी ओर खींचती है। इसके दर्शनीय स्थल चुनारगढ़, सक्तेशगढ़, बिलखरा, खमरिया, बावनघाट, कुण्ड, ओझलापुल, भर्ग राजाओं के अवशेष, रामगया घाट पर बीच गंगा में स्थित स्तम्भ, हलिया उपरौंध में अर्धनिर्मित शिला महल, मीरजापुर नगर का घण्टाघर व पक्काघाट व अनके मन्दिर तथा प्राकृतिक पर्यटन स्थल में टांडा जल प्रपात, विन्ढम झरना, खजूरी बाँध, सिरसी बाँध, लखनियां दरी, चूना दरी, सिद्धनाथ की दरी, जरगो बाँध इत्यादि हैं।
काशी (वाराणसी) और विन्ध्य क्षेत्र के बीच स्थित होने के कारण चुनार क्षेत्र भी ऋषियों-मुनियों, महर्षियों, राजर्षियों, संत-महात्माओं, योगियों-सन्यासियों, साहित्यकारों इत्यादि के लिए आकर्षण के योग्य क्षेत्र रहा है। प्राचीन काल में सोनभद्र सम्मिलित मीरजापुर व चुनार क्षेत्र सभी काशी के ही अभिन्न अंग थे। चुनार प्राचीन काल से आध्यात्मिक, पर्यटन और व्यापारिक केन्द्र के रूप में स्थापित है। गंगा किनारे स्थित होने से इसका सीधा व्यापारिक सम्बन्ध कोलकाता से था और वनों से उत्पादित वस्तुओं का व्यापार होता था। चुनार किला और नगर के पश्चिम में गंगा, पूर्व में पहाड़ी जरगो नदी, उत्तर में ढाब का मैदान तथा दक्षिण में प्राकृतिक सुन्दरता का विस्तार लिए विन्ध्य पर्वत की श्रृंखलाएँ हैं जिसमें अनेक जल प्रपात, गढ़, गुफा और घाटियाँ हैं। विन्ध्य पर्वत श्रृंखला के इस पहाड़ी पर ही हरिद्वार से मैदानी क्षेत्र में बहने वाली गंगा का और विन्ध्य पर्वत की श्रृंखला से पहली बार संगम हुआ है जिसपर चुनार किला स्थित है। अनेक स्थानों पर वर्णन है कि श्रीराम यहीं से गंगा पार करके वनगमन के समय चित्रकूट गये थे। फादर कामिल बुल्के के शोध ग्रन्थ ”राम कथा: उद्भव और विकास“ के अनुसार कवि वाल्मीकि की तपस्थली चुनार ही है इसलिए कहीं-कहीं इसे चाण्डालगढ़ भी कहा गया है। इसे पत्थरों के कारण पत्थरगढ़, नैना योगिनी के तपस्थली के कारण नैनागढ़, भर्तृहरि के कारण इसे भर्तृहरि की नगरी भी कहा जाता है।
सत्यकाशी क्षेत्र से व्यक्त हुये मुख्य विषय
1. द्वापर युग में आठवें अवतार श्रीकृष्ण द्वारा प्रारम्भ किया गया कार्य ”नवसृजन“ के प्रथम भाग ”सार्वभौम ज्ञान“ के शास्त्र ”गीता“ के बाद कलियुग में शनिवार, 22 दिसम्बर, 2012 से काल व युग परिवर्तन कर दृश्य काल व पाँचवें युग का प्रारम्भ, व्यवस्था सत्यीकरण और मन के ब्रह्माण्डीयकरण के लिए दसवें और अन्तिम अवतार-कल्कि महावतार श्री लव कुश सिंह ”विश्वमानव“ द्वारा व्यक्त द्वितीय और अन्तिम भाग ”सार्वभौम कर्मज्ञान“ और ”पूर्णज्ञान का पूरक शास्त्र“, ”विश्वशास्त्र: द नाॅलेज आॅफ फाइनल नाॅलेज“ के रूप में व्यक्त हुआ।
2.जिस प्रकार सुबह में कोई व्यक्ति यह कहे कि रात होगी तो वह कोई नई बात नहीं कह रहा। रात तो होनी है चाहे वह कहे या ना कहे और रात आ गई तो उस रात को लाने वाला भी वह व्यक्ति नहीं होता क्योंकि वह प्रकृति का नियम है। इसी प्रकार कोई यह कहे कि ”सतयुग आयेगा, सतयुग आयेगा“ तो वह उसको लाने वाला नहीं होता। वह नहीं ंभी बोलेगा तो भी सतयुग आयेगा क्योंकि वह अवतारों का नियम है। सुबह से रात लाने का माध्यम प्रकृति है। युग बदलने का माध्यम अवतार होते हैं। जिस प्रकार त्रेतायुग से द्वापरयुग में परिवर्तन के लिए वाल्मिकि रचित ”रामायण“ आया, जिस प्रकार द्वापरयुग से कलियुग में परिवर्तन के लिए महर्षि व्यास रचित ”महाभारत“ आया। उसी प्रकार प्रथम अदृश्य काल से द्वितीय और अन्तिम दृश्य काल व चैथे युग-कलियुग से पाँचवें युग-स्वर्णयुग में परिवर्तन के लिए शेष समष्टि कार्य का शास्त्र ”विश्वशास्त्र“ सत्यकाशी क्षेत्र जो वाराणसी-विन्ध्याचल -शिवद्वार-सोनभद्र के बीच का क्षेत्र है, से भारत और विश्व को अन्तिम महावतार श्री लव कुश सिंह ”विश्वमानव“ द्वारा मानवों के अनन्त काल तक के विकास के लिए व्यक्त किया गया है।
3.कारण, अन्तिम महावतार श्री लव कुश सिंह ”विश्वमानव“ और ”आध्यात्मिक सत्य“ आधारित क्रिया ”विश्वशास्त्र“ से उन सभी ईश्वर के अवतारों और शास्त्रों, धर्माचार्यों, सिद्धों, संतों, महापुरूषों, भविष्यवक्ताओं, तपस्वीयों, विद्वानों, बुद्धिजिवीयों, व्यापारीयों, दृश्य व अदृश्य विज्ञान के वैज्ञानिकों, सहयोगीयों, विरोधीयों, रक्त-रिश्ता-देश सम्बन्धियों, उन सभी मानवों, समाज व राज्य के नेतृत्वकर्ताओं और विश्व के सबसे बड़े लोकतन्त्र के संविधान को पूर्णता और सत्यता की एक नई दिशा प्राप्त हो चुकी है जिसके कारण वे अधूरे थे।
ऐसे आध्यात्मिक वातावरण वाले क्षेत्र में धार्मिक संगठन/संस्था को अपने स्थान बनाने के लिए हम आमंत्रित करते हैं।
4. रियल इस्टेट/इन्फ्रास्ट्रक्चर व्यवसायिक कम्पनी को आमंत्रण
रियल स्टेट में निवेश की निम्न विधियाँ है जो अच्छा लाभ देती है-
1. रियल इस्टेट (प्रापर्टी) में निवेश की पारम्परिक विधि (प्राकृतिक चेतना विधि) -
इस विधि को पारम्परिक विधि कहते हैं क्योंकि इसमें किसी बुद्धि की आवश्यकता नहीं होती। यदि आपके पास धन है तो किसी भी शहर में या उसके आस-पास भूमि-मकान खरीद ले, आपका धन समय के साथ बढ़ता रहेगा। इसे प्राकृतिक चेतना विधि इसलिए कहते हैं कि यह स्वाभाविक विकास के साथ विकास करता है अर्थात उसके कीमत के विकास में आपका कोई योगदान नहीं होता।
2. रियल इस्टेट (प्रापर्टी) में निवेश की आधुनिक विधि (सत्य चेतना विधि) -
इस विधि को आधुनिक विधि कहते हैं क्योंकि इसमें बुद्धि-योजना-व्यापार नीति की अत्यधिक आवश्यकता होती। यदि आपके पास धन है तो किसी भी शहर में या उसके आस-पास भूमि खरीद ले, और वहाँ के लिए एक अच्छी योजना बनायें, उसे प्रचारित करें जिससे आपका धन समय के साथ-साथ तथा आपके योजना के कारण तेजी से बढ़ता रहेगा। इसे सत्य चेतना विधि इसलिए कहते हैं कि यह स्वाभाविक विकास के साथ-साथ आपकी योजना के कारण विकास करता है अर्थात उसके कीमत के विकास में आपकी योजना का योगदान होता है। ऐसी योजना या तो सरकार बनाती है या कोई सरकारी नियमानुसार व्यापारिक-सामाजिक संस्था।
सरकार की योजना में नगर विकास, औद्योगिक क्षेत्र का विकास, पर्यटन क्षेत्र, शैक्षणिक संस्थान इत्यादि के विकास से होता है और उस क्षेत्र के भूमि की कीमत तेजी से बढ़ जाती है। इसका लाभ वहीं लोग ले पाते हैं जो सरकार की योजना को पहले ही जान जात हैं।
ऐसी योजना सरकारी नियमानुसार व्यापारिक-सामाजिक संस्था बना सकती हैं। भारत देश एक आध्यात्मिक एवं सांस्कृतिक विविधता वाला देश है। घूमना मनुष्य की प्रकृति है। उसे उसके घर में चाहे कितना भी संसाधन क्यों न उपलब्ध हो, वह घूमने-पर्यटन करने जायेगा ही जायेगा। साथ ही वह सत्य-सुन्दर-शान्त स्थान पर रहना भी चाहेगा। और जब मनुष्य ऐसे स्थान पर रहना प्रारम्भ करने लगता है तब अपने-आप मनुष्य की आवश्यकता से सम्बन्धित वस्तुओं का व्यापार व व्यापारी भी उन्हीं में से निकल आते हैं। फिर जहाँ मनुष्य निवास करने लगता है तब सरकार व सरकारी व्यवस्था भी अपने-आप वहाँ पहुँचने लगती है। ऐसी योजनाओं के बहुत से उदाहरण हैं जहाँ का विकास का मूल कारण सरकारी नियमानुसार व्यापारिक-सामाजिक संस्था ही हैं।
वर्तमान समय में चल रहा निम्नलिखित उदाहरण इस विधि का प्रमाण है-
निवेश के सत्य चेतना विधि द्वारा निर्मित हो रहा है - चन्द्रोदय मन्दिर, वृन्दावन, मथुरा (उ0प्र0)
भारत देश के उत्तर प्रदेश राज्य का ब्रज क्षेत्र (जिला-मथुरा) अर्थात सम्पूर्ण ब्रज क्षेत्र कंस-श्रीकृष्ण से सम्बन्धित है। मथुरा कंस की नगरी थी और श्रीकृष्ण का जन्म स्थान। श्रीकृष्ण के बाल-लीला का क्षेत्र ब्रज क्षेत्र है। श्रीकृष्ण की नगरी द्वारिका (गुजरात प्रदेश) में थी। ब्रज क्षेत्र भारत के लोगों के लिए एक आस्था का स्थान है। इस आस्था का उपयोग करते हुये वृन्दावन में एक योजना इस्काॅन के भक्तों ने बनाया जिसका नाम - “कृष्ण भूमि - ए वन्डर लैण्ड” रखा और विशाल मन्दिर-टाउनशिप की योजना दी।
110 एकड़ के इस मन्दिर-टाउनशिप योजना में श्रीकृष्ण से सम्बन्धित 70 एकड़ में फैले श्री कृष्ण मन्दिर, वेदान्त वन, विश्व का पहला कृष्ण लीला थीम पार्क की योजना दी गयी। जिसमें 5 एकड़ में फैला 210 मीटर अर्थात 700 फिट विश्व के सबसे ऊँचे श्रीकृष्ण मन्दिर का नाम “चन्द्रोदय मन्दिर” रखा गया। शेष 40 एकड़ में आधुनिक संविधा एवं संसाधन से युक्त आवासीय व व्यापारिक स्थान की योजना बनायी गयी।
यह योजना जिस भूमि पर बनायी गयी, वह इस योजना के पहले एक उपेक्षित स्थान व सस्ते कीमत का रहा होगा परन्तु योजना के घोषित होते ही आस-पास की भूमि, आवासीय, व्यापारिक स्थान की कीमत तेजी से बढ़ गयी। इस टाउनशिप में आवासीय व व्यापारिक स्थानों की कीमत का निर्धारण तो इस योजना के व्यापारीगण ही किये। श्रीकृष्ण से आस्था, मन्दिर की विशालता और आधुनिक सुविधा ने लोगों को वहाँ खींचा और एक क्षेत्र का सम्पूर्ण विकास हो गया। आवासीय-व्यापारिक स्थान के विक्रय से जो लाभ हुआ उससे मन्दिर बनना प्रारम्भ हुआ। मन्दिर बनना प्रारम्भ हुआ तो आवासीय-व्यापारिक स्थान का कीमत बढ़ा।
निष्कर्ष यह है कि भारत देश में ऐसी योजना बनाने और उसे स्थापित करने की बहुत सी सम्भावनाएँ हैं। योजना बनाकर किसी भी स्थान का महत्व बढाया जा सकता है। स्थान की विशेषता होने पर लोग वहाँ रहना भी चाहते हैं। केवल शहर का विस्तार करते रहने से लोग स्वाभाविक रूप से ही रियल स्टेट में निवेश करते हैं। विशेषताएँ बना देने से इच्छा बनती है और निवेश में तेजी आती है।
ऐसी योजना पर काम करने के लिए रियल इस्टेट/इन्फ्रास्ट्रक्चर व्यवसायिक कम्पनी को हम आमंत्रित करते हैं।
5. रियल इस्टेट एजेन्ट को आमंत्रण
निवेश की आधुनिक विधि को सत्य चेतना विधि कहते हैं क्योंकि इसमें बुद्धि-योजना-व्यापार नीति की अत्यधिक आवश्यकता होती। यदि आपके पास धन है तो किसी भी शहर में या उसके आस-पास भूमि खरीद ले, और वहाँ के लिए एक अच्छी योजना बनायें, उसे प्रचारित करें जिससे आपका धन समय के साथ-साथ तथा आपके योजना के कारण तेजी से बढ़ता रहेगा। इसे सत्य चेतना विधि इसलिए कहते हैं कि यह स्वाभाविक विकास के साथ-साथ आपकी योजना के कारण विकास करता है अर्थात उसके कीमत के विकास में आपकी योजना का योगदान होता है। ऐसी योजना या तो सरकार बनाती है या कोई सरकारी नियमानुसार व्यापारिक-सामाजिक संस्था।
सरकार की योजना में नगर विकास, औद्योगिक क्षेत्र का विकास, पर्यटन क्षेत्र, शैक्षणिक संस्थान इत्यादि के विकास से होता है और उस क्षेत्र के भूमि की कीमत तेजी से बढ़ जाती है। इसका लाभ वहीं लोग ले पाते हैं जो सरकार की योजना को पहले ही जान जात हैं।
ऐसी योजना सरकारी नियमानुसार व्यापारिक-सामाजिक संस्था बना सकती हैं। भारत देश एक आध्यात्मिक एवं सांस्कृतिक विविधता वाला देश है। घूमना मनुष्य की प्रकृति है। उसे उसके घर में चाहे कितना भी संसाधन क्यों न उपलब्ध हो, वह घूमने-पर्यटन करने जायेगा ही जायेगा। साथ ही वह सत्य-सुन्दर-शान्त स्थान पर रहना भी चाहेगा। और जब मनुष्य ऐसे स्थान पर रहना प्रारम्भ करने लगता है तब अपने-आप मनुष्य की आवश्यकता से सम्बन्धित वस्तुओं का व्यापार व व्यापारी भी उन्हीं में से निकल आते हैं। फिर जहाँ मनुष्य निवास करने लगता है तब सरकार व सरकारी व्यवस्था भी अपने-आप वहाँ पहुँचने लगती है। ऐसी योजनाओं के बहुत से उदाहरण हैं जहाँ का विकास का मूल कारण सरकारी नियमानुसार व्यापारिक-सामाजिक संस्था ही हैं।
सत्यकाशी क्षेत्र में लगने वाली परियोजनाएँ निवेश की आधुनिक विधि (सत्य चेतना विधि) के अनुसार योजनाबद्ध हैं। जिसमें रियल स्टेट ऐजेन्ट के लिए आर्थिक लाभ प्राप्त करने का अच्छा अवसर है। इस अवसर का लाभ उठाने के लिए हम उन्हें आमंत्रित करते हैं।
अधिक विस्तार से जानने के लिए-
सत्यकाशी महायोजना - प्रोजेक्ट को पूर्ण करने की योजना
इतिहास गवाह है मँहगाई कभी कम नहीं हुयी है। समय के साथ प्रत्येक का विकास होता रहा है। बढ़ती जनसंख्या, बढ़ती आवश्यकता और बढ़ते धन के साथ प्रत्येक वस्तु की कीमत भी बढ़ रही है। निवेश के अनेक साधन के बावजूद भूमि-मकान में निवेश सबसे सुरक्षित साधन है। सामान्यतः व्यक्ति इसमें निवेश करना पसन्द करते हैं। किसी भी भूमि की उपयोगिता को अलग-अलग व्यक्ति अलग-अलग नजरिये से भी देख सकते हैं। एक किसान, का नजरिया कृषि योग्य भूमि के लिए हो सकता है तो एक व्यापारी का व्यापार की दृष्टि से हो सकता है, तो किसी हाउसिंग डेवलपमेन्ट कम्पनी का घर-मकान बनाकर बेचने का हो सकता है, तो किसी का उद्योग स्थापित करने की दृष्टि, तो किसी का धार्मिक स्थल बनाने का हो सकता है। यह सब दृष्टि, उस भूमि और उसके आस-पास के संसाधन व उस क्षेत्र की ऐतिहासिकता से सम्बन्धित होता है। रियल स्टेट में निवेश की निम्न विधियाँ है जो अच्छा लाभ देती है-
1. रियल इस्टेट (प्रापर्टी) में निवेश की पारम्परिक विधि (प्राकृतिक चेतना विधि) -
इस विधि को पारम्परिक विधि कहते हैं क्योंकि इसमें किसी बुद्धि की आवश्यकता नहीं होती। यदि आपके पास धन है तो किसी भी शहर में या उसके आस-पास भूमि-मकान खरीद ले, आपका धन समय के साथ बढ़ता रहेगा। इसे प्राकृतिक चेतना विधि इसलिए कहते हैं कि यह स्वाभाविक विकास के साथ विकास करता है अर्थात उसके कीमत के विकास में आपका कोई योगदान नहीं होता।
2. रियल इस्टेट (प्रापर्टी) में निवेश की आधुनिक विधि (सत्य चेतना विधि) -
इस विधि को आधुनिक विधि कहते हैं क्योंकि इसमें बुद्धि-योजना-व्यापार नीति की अत्यधिक आवश्यकता होती। यदि आपके पास धन है तो किसी भी शहर में या उसके आस-पास भूमि खरीद ले, और वहाँ के लिए एक अच्छी योजना बनायें, उसे प्रचारित करें जिससे आपका धन समय के साथ-साथ तथा आपके योजना के कारण तेजी से बढ़ता रहेगा। इसे सत्य चेतना विधि इसलिए कहते हैं कि यह स्वाभाविक विकास के साथ-साथ आपकी योजना के कारण विकास करता है अर्थात उसके कीमत के विकास में आपकी योजना का योगदान होता है। ऐसी योजना या तो सरकार बनाती है या कोई सरकारी नियमानुसार व्यापारिक-सामाजिक संस्था।
सरकार की योजना में नगर विकास, औद्योगिक क्षेत्र का विकास, पर्यटन क्षेत्र, शैक्षणिक संस्थान इत्यादि के विकास से होता है और उस क्षेत्र के भूमि की कीमत तेजी से बढ़ जाती है। इसका लाभ वहीं लोग ले पाते हैं जो सरकार की योजना को पहले ही जान जात हैं।
ऐसी योजना सरकारी नियमानुसार व्यापारिक-सामाजिक संस्था बना सकती हैं। भारत देश एक आध्यात्मिक एवं सांस्कृतिक विविधता वाला देश है। घूमना मनुष्य की प्रकृति है। उसे उसके घर में चाहे कितना भी संसाधन क्यों न उपलब्ध हो, वह घूमने-पर्यटन करने जायेगा ही जायेगा। साथ ही वह सत्य-सुन्दर-शान्त स्थान पर रहना भी चाहेगा। और जब मनुष्य ऐसे स्थान पर रहना प्रारम्भ करने लगता है तब अपने-आप मनुष्य की आवश्यकता से सम्बन्धित वस्तुओं का व्यापार व व्यापारी भी उन्हीं में से निकल आते हैं। फिर जहाँ मनुष्य निवास करने लगता है तब सरकार व सरकारी व्यवस्था भी अपने-आप वहाँ पहुँचने लगती है। ऐसी योजनाओं के बहुत से उदाहरण हैं जहाँ का विकास का मूल कारण सरकारी नियमानुसार व्यापारिक-सामाजिक संस्था ही हैं।
वर्तमान समय में चल रहा निम्नलिखित उदाहरण इस विधि का प्रमाण है-
निवेश के सत्य चेतना विधि द्वारा निर्मित हो रहा है - चन्द्रोदय मन्दिर, वृन्दावन, मथुरा (उ0प्र0)
भारत देश के उत्तर प्रदेश राज्य का ब्रज क्षेत्र (जिला-मथुरा) अर्थात सम्पूर्ण ब्रज क्षेत्र कंस-श्रीकृष्ण से सम्बन्धित है। मथुरा कंस की नगरी थी और श्रीकृष्ण का जन्म स्थान। श्रीकृष्ण के बाल-लीला का क्षेत्र ब्रज क्षेत्र है। श्रीकृष्ण की नगरी द्वारिका (गुजरात प्रदेश) में थी। ब्रज क्षेत्र भारत के लोगों के लिए एक आस्था का स्थान है। इस आस्था का उपयोग करते हुये वृन्दावन में एक योजना इस्काॅन के भक्तों ने बनाया जिसका नाम - “कृष्ण भूमि - ए वन्डर लैण्ड” रखा और विशाल मन्दिर-टाउनशिप की योजना दी।
110 एकड़ के इस मन्दिर-टाउनशिप योजना में श्रीकृष्ण से सम्बन्धित 70 एकड़ में फैले श्री कृष्ण मन्दिर, वेदान्त वन, विश्व का पहला कृष्ण लीला थीम पार्क की योजना दी गयी। जिसमें 5 एकड़ में फैला 210 मीटर अर्थात 700 फिट विश्व के सबसे ऊँचे श्रीकृष्ण मन्दिर का नाम “चन्द्रोदय मन्दिर” रखा गया। शेष 40 एकड़ में आधुनिक संविधा एवं संसाधन से युक्त आवासीय व व्यापारिक स्थान की योजना बनायी गयी।
यह योजना जिस भूमि पर बनायी गयी, वह इस योजना के पहले एक उपेक्षित स्थान व सस्ते कीमत का रहा होगा परन्तु योजना के घोषित होते ही आस-पास की भूमि, आवासीय, व्यापारिक स्थान की कीमत तेजी से बढ़ गयी। इस टाउनशिप में आवासीय व व्यापारिक स्थानों की कीमत का निर्धारण तो इस योजना के व्यापारीगण ही किये। श्रीकृष्ण से आस्था, मन्दिर की विशालता और आधुनिक सुविधा ने लोगों को वहाँ खींचा और एक क्षेत्र का सम्पूर्ण विकास हो गया। आवासीय-व्यापारिक स्थान के विक्रय से जो लाभ हुआ उससे मन्दिर बनना प्रारम्भ हुआ। मन्दिर बनना प्रारम्भ हुआ तो आवासीय-व्यापारिक स्थान का कीमत बढ़ा।
निष्कर्ष यह है कि भारत देश में ऐसी योजना बनाने और उसे स्थापित करने की बहुत सी सम्भावनाएँ हैं। योजना बनाकर किसी भी स्थान का महत्व बढाया जा सकता है। स्थान की विशेषता होने पर लोग वहाँ रहना भी चाहते हैं। केवल शहर का विस्तार करते रहने से लोग स्वाभाविक रूप से ही रियल स्टेट में निवेश करते हैं। विशेषताएँ बना देने से इच्छा बनती है और निवेश में तेजी आती है।
हम सभी साधारण जीवन में ऐसा देखते हैं कि जहाँ कहीं भी कोई फैक्ट्री, नगर निर्माण या विस्तार का कार्य प्रारम्भ हो जाता है। वहाँ एक अलग ही दुनियाँ बसने लगती है और एक व्यापक जन समुदाय को अपने जीवन संचालन के लिए मार्ग प्राप्त हो जाता है। जो किसी जाति, सम्प्रदाय या धर्म आधारित नहीं होती। वह सिर्फ व्यक्ति की योग्यता पर आधारित और वह पीढ़ी दर पीढ़ी के लिए होती है।
सार्वभौम सत्य-सिद्धान्त और समाज समर्थित सत्यकाशी योजना जिसका क्षेत्र है- वाराणसी-विन्ध्याचल-शिवद्वार-सोनभद्र के बीच का भगवान विष्णूु और भगवान शिव से जुड़ा क्षेत्र। जो धर्मक्षेत्र से व्यापक सार्थक एवं पौराणिक आधारों पर प्रश्न करता है कि- क्यों काशी नरेश होते हुए भी उनका किला काशी शहर में नहीं? क्यों देवकी के आठवें पुत्र कृष्ण के बदले में पुत्री को कंस ने मारना चाहा तो वह विन्ध्य पर्वत पर आ बसीं? क्यों समष्टि (समाज या सार्वजनिक) धर्म के स्थापनार्थ विष्णु के पाँचवे अवतार वामन अवतार ने जब राजा बलि से तीन पग जमीन मांगा तब अवतार ने पहला पग चुनार क्षेत्र में ही रखा जिसके कारण इसका पुराना नाम चरणाद्रिगढ़ था? क्यों ब्रह्मलीन श्री श्री 1008 सत्ययोगानन्द उर्फ भुईधरा बाबा (भगवान रामकृष्ण की अगली कड़ी) ने सदी का सबसे लम्बा (दि0 13.11.97 से 22.06.98 तक) तथा अदृश्य काल का अन्तिम यज्ञ- विष्णु महायज्ञ और ज्ञानयज्ञ चुनार क्षेत्र में ही आयोजित किये? क्यों विश्व का अन्तिम शास्त्र ”विश्वशास्त्र“ इसी क्षेत्र से व्यक्त हुआ? क्यों विश्वव्यापी धर्म स्थापना (समष्टि धर्म स्थापना) पाँचवे अवतार वामन अवतार के बाद पुनः इस क्षेत्र से प्रारम्भ हो रहा है।
उपरोक्त प्रश्नों का जबाब भी सत्यकाशी योजना के जन्मदाता गण व्यापकता के साथ देते हैं। भौतिकवादी काशी वासीयों से मुक्त-शिवभक्त काशी नरेश की सत्यता के लिए प्रकृतिक चक्र द्वारा इनका किला काशी शहर में नहीं जिससे वे अन्त में अन्तिम काशी-सत्यकाशी के सत्यकाशी नरेश भी कहलायें। चुनार क्षेत्र पाँचवें अवतार वामन के चरणों से एक श्राप द्वारा ग्रसित हो चुका था कि इस क्षेत्र में जन्म लेने वाले व्यक्ति की चाहें जितना भी समष्टि (समाज) धर्म के लिए प्रयत्न क्यों न करें वे व्यष्टि(व्यक्तिगत) धर्म से अधिक न उठ सकेंगे। जब तक की इस क्षेत्र से बाहर जन्म लेकर कोई पुनः समष्टि धर्म स्थापनार्थ नहीं आ जाता। यह सब इसलिए है कि प्राकृतिक चक्र द्वारा विकसित और सन्तुलित क्षेत्र जो वाराणसी-विन्ध्याचल-शिवद्वार-सोनभद्र के बीच स्थित है। बस यहीं है पुराणों में वर्णित सात काशीयों में अन्तिम काशी-सत्यकाशी। यदि काशी (वाराणसी), शिवाकाशी, उत्तरकाशी और दक्षिण काशी (वैदुर्यपत्तन, बरकला, केरल प्रदेश) को मुख्य काशी माना जाय तो सत्यकाशी पंचम काशी है। और दो काशीयों को और सम्मिलित किया जाता है तो सत्यकाशी सप्तम काशी होगी। इस प्रकार शिव पुराण में वर्णित सात काशीयों में सत्यकाशी पंचम, अन्तिम तथा सप्तम काशी होगी।
इस प्रकार हम देखते है कि आध्यात्मिक, सार्थक, दूरदर्शी, प्रमाणित, पौराणिक, समाज समर्थित काशी की परम्परा का पालन करते हुए सत्यकाशी योजना है। जबकि लक्ष्य एक व्यापक जनसमुदाय को एक नयी दिशा द्वारा संरक्षण, विकास और आजिविका प्रदान करना है। इसलिए उचित स्थान पर इसका निर्माण आवश्यक है।
सत्यकाशी विकास एवं विस्तार के श्रंृखला में सत्यकाशी क्षेत्र में निर्माण किये जाने वाले परियोजना-
01. चार शंकराचार्य पीठ के उपरान्त 5वाँ और अन्तिम पीठ “सत्यकाशी पीठ”
02. “सत्यकाशी महोत्सव” व “सत्यकाशी गंगा महोत्सव” आयोजन
03. सार्वभौम देवी माँ कल्कि देवी मन्दिर - माँ वैष्णों देवी की साकार रूप
04. भोगेश्वर नाथ - 13वाँ और अन्तिम ज्योतिर्लिंग
05. सत्यकाशी पंचदर्शन
06. ज्ञान आधारित मनु-मनवन्तर मन्दिर
07. ज्ञान आधारित विश्वात्मा मन्दिर
08. विश्वधर्म मन्दिर - धर्म के व्यावहारिक अनुभव का मन्दिर
09. नाग मन्दिर
10. विश्वशास्त्र मन्दिर (Vishwshastra Temple)
11. एक दिव्य नगर - सत्यकाशी नगर
12. होटल शिवलिंगम् - शिवत्व का एहसास
13. इन्द्रलोक - ओपेन एयर थियेटर
14. हस्तिनापुर - महाभारत का लाइट एण्ड साउण्ड प्रोग्राम
15. सत्य-धर्म-ज्ञान केन्द्र: तारामण्डल की भाँति शो द्वारा कम समय में पूर्ण ज्ञान
16. सत्यकाशी आध्यात्म पार्क
17. वंश नगर - मनु से मानव तक के वंश पर आधारित नगर
18. 8वें सांवर्णि मनु - सम्पूर्ण एकता की मूर्ति (Statue of Complete Unity)
19. विस्मृत भारत रत्न स्मारक (Forgotten Bharat Ratna Memorial)
20. विश्वधर्म उपासना स्थल - उपासना और उपासना स्थल के विश्वमानक (WS-00000) पर आधारित
21. सत्यकाशी ब्रह्माण्डीय एकात्म विज्ञान विश्वविद्यालय (Satyakashi Universal Integration Science University-SUISU)
निवेश के सत्य चेतना विधि पर आधारित चन्द्रोदय मन्दिर, वृन्दावन, मथुरा (उ0प्र0) की भाँति ही उपरोक्त परियोजनाओं को सत्यकाशी क्षेत्र में स्थापित किया जाना है। जिसमें उच्च लाभ के लिए निवेश का एक व्यापक अवसर है।
शब्द से सृष्टि की ओर...
सृष्टि से शास्त्र की ओर...
शास्त्र से काशी की ओर...
काशी से सत्यकाशी की ओर...
और सत्यकाशी से अनन्त की ओर...
एक अन्तहीन यात्रा...............................
जनता जहाँ रहने लगती है, सरकार व संसाधन अपने-आप चली आती है।
हर भारत वासी का एक सपना, सत्यकाशी में घर एक हो अपना।
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