श्री लव कुश सिंह ”विश्वमानव“ का सम्पूर्ण कार्य
श्रीराम की जन्म तिथि नवमी (9) है, श्रीकृष्ण की जन्म तिथि अष्टमी (8) है। 9 के अंक का किसी अंक से गुणा करें, सारांश (अंको का योग) 9 ही रहता है। 8 का गुणा घटता-बढ़ता रहता है। अंक 8 लौकिक-संसारी है, 9 जटिल है जस का तस रहता है। डाॅ0 लोहिया का कहना था - ”राम मनुष्य हैं, मर्यादा और आदर्श पर चलते हुए देव बनते हैं, लेकिन कृष्ण देवता हैं। वे लोक संग्रह के लिए मनुष्य बनते हैं, देवत्व से नीचे उतरते हैं। राम और कृष्ण, भारतीय प्रज्ञा के सम्राट हैं।“ इसी क्रम में मेरा (लव कुश सिंह) का जन्म तिथि त्रयोदशी (13) है। प्रत्येक मास में कृष्ण पक्ष की तेरहवीं तिथि की रात्रि मास शिवरात्रि तथा फाल्गुन मास की कृष्ण पक्ष की तेरहवीं तिथि की रात्रि महाशिवरात्रि कहलाती है। हिन्दू धर्म में मनुष्य के जन्म के बारहवीं तिथि के संस्कार को बरही तथा शरीर से मुक्त होने के तेरहवीं तिथि के अन्तिम संस्कार को तेरहवीं कहते हैं अर्थात तेरह का अंक शिवशंकर का प्रतीक है।
देख तेरे संसार की हालत क्या हो गई इन्सान।
कितना बदल गया भगवान, कितना बदल गया इन्सान।
धर्म क्षेत्र से
1. काल और युग बोध
2. ईश्वर या काल चक्र
3. युगानुसार धर्म शास्त्र-साहित्य
4. व्यष्टि और समष्टि धर्मशास्त्र
5. विश्वात्मा/विश्वमन का विखण्डन व संलयन - शास्त्र संगठन और उसका दर्शन
6. काल के प्रथम भाग-अदृश्य काल में विश्वात्मा का प्रथम जन्म - श्री कृष्ण
7. काल के द्वितीय और अन्तिम भाग-दृश्य काल में विश्वात्मा के जन्म का पहला भाग-स्वामी विवेकानन्द
8. काल के द्वितीय और अन्तिम भाग-दृश्य काल में विश्वात्मा के जन्म का दूसरा और अन्तिम भाग-श्री लव कुश सिंह ”विश्वमानव“
9. सत्व मार्ग से - श्री कृष्ण और श्री लव कुश सिंह ”विश्वमानव“
10. रज मार्ग से - स्वामी विवेकानन्द और श्री लव कुश सिंह ”विश्वमानव“
11. तम मार्ग से - रावण और श्री लव कुश सिंह ”विश्वमानव“
12. अवतार और महाअवतार
13. विश्वव्यापी स्थापना का स्पष्ट मार्ग
14. क्या नई घटना घटित हुई थी 21 दिसम्बर, 2012 को?
राज्य क्षेत्र से
विश्वशास्त्र का आविष्कार किस प्रकार हुआ?
विश्वशास्त्र की उपयोगिता क्या है?
विश्वशास्त्र की रचना क्यों?
”विश्वशास्त्र“ से मुख्यतः सत्यकाशी (वाराणसी-विन्ध्याचल-शिवद्वार-सोनभद्र के बीच) क्षेत्र के लिए व्यक्त विषय
विश्वशास्त्र व शास्त्राकार से सम्बन्धित स्थान
विश्वशास्त्र संगठन
विश्वशास्त्र की स्थापना
विश्वशास्त्र के बाद का मनुष्य, समाज और शासन
विश्वशास्त्र - कितना छोटा और कितना बड़ा?
एक ही विश्वशास्त्र साहित्य के विभिन्न नाम
युगानुसार धर्म शास्त्र-साहित्य
विश्व सरकार के लिए पुनः भारत द्वारा शून्य आधारित अन्तिम आविष्कार
विश्वव्यापी स्थापना का स्पष्ट मार्ग
विश्वशास्त्र की भूमिका
विश्वशास्त्र की समीक्षा
मानक एवं मानकीकरण संगठन - अर्थ एवम् उपयोगिता तथा उसकी यात्रा
अन्तर्राष्ट्रीय माप-तौल ब्यूरो - परिचय उद्देश्य और उद्देश्य का कारण
अन्तर्राष्ट्रीय मानकीकरण संगठन (आई. एस. ओ.)
भारतीय मानक ब्यूरो - परिचय, उद्देश्य और कार्य
मानक के सम्बन्ध में विभिन्न वक्तव्य
आविष्कार विषय और उसकी उपयोगिता
विश्वकल्याणार्थ आविष्कार की स्थापना कब और कैसे?
विश्वमानक - शून्य श्रंृखला (निर्माण का आध्यात्मिक न्यूट्रान बम)
अवतारी संविधान से मिलकर भारतीय संविधान बनायेगा विश्व सरकार का संविधान
एकात्मकर्मवाद और विश्व का भविष्य
विश्व का मूल मन्त्र- ”जय जवान-जय किसान-जय विज्ञान-जय ज्ञान-जय कर्मज्ञान“
इसी ओर निर्देशित करती धार्मिक-सामाजिक-राजनीतिक नेत्त्वकर्ताओं के विचार
एक ही मानव शरीर के जीवन, ज्ञान और कर्म के विभिन्न विषय क्षेत्र से मुख्य नाम (सर्वोच्च, अन्तिम और दृश्य)
पाँचवें युग - स्वर्णयुग में प्रवेश का आमंत्रण
तम मार्ग से
रावण और श्री लव कुश सिंह ”विश्वमानव“
शासक और मार्गदर्शक आत्मा सर्वव्यापी है। इसलिए एकात्म का अर्थ संयुक्त आत्मा या सार्वजनिक आत्मा है। जब एकात्म का अर्थ संयुक्त आत्मा समझा जाता है तब वह समाज कहलाता है। जब एकात्म का अर्थ व्यक्तिगत आत्मा समझा जाता है तब व्यक्ति कहलाता है। व्यक्ति (अवतार) संयुक्त आत्मा का साकार रुप होता है जबकि व्यक्ति (पुनर्जन्म) व्यक्तिगत आत्मा का साकार रुप होता है। शासन प्रणाली में समाज का समर्थक दैवी प्रवृत्ति तथा शासन व्यवस्था प्रजातन्त्र या लोकतन्त्र या स्वतन्त्र या मानवतन्त्र या समाजतन्त्र या जनतन्त्र या बहुतन्त्र या स्वराज कहलाता है और क्षेत्र गण राज्य कहलाता है ऐसी व्यवस्था सुराज कहलाती है। शासन प्रणाली में व्यक्ति का समर्थक असुरी प्रवृत्ति तथा शासन व्यवस्था राज्यतन्त्र या राजतन्त्र या एकतन्त्र कहलाता है और क्षेत्र राज्य कहलाता है ऐसी व्यवस्था कुराज कहलाती है। सनातन से ही दैवी और असुरी प्रवृत्तियों अर्थात् दोनों तन्त्रों के बीच अपने-अपने अधिपत्य के लिए संघर्ष होता रहा है। जब-जब समाज में एकतन्त्रात्मक या राजतन्त्रात्मक अधिपत्य होता है तब-तब मानवता या समाज समर्थक अवतारों के द्वारा गणराज्य की स्थापना की जाती है। या यूँ कहें गणतन्त्र या गणराज्य की स्थापना-स्वस्थता ही अवतार का मूल उद्देश्य अर्थात् लक्ष्य होता है शेष सभी साधन अर्थात् मार्ग।
रावण राज्य, व्यक्ति का समर्थक असुरी प्रवृत्ति तथा शासन व्यवस्था राज्यतन्त्र या राजतन्त्र या एकतन्त्र था। रावण इस कारण ही असुर की श्रेणी में रखे गये न कि माँस-मदिरा के प्रयोग के कारण। तामसिंक प्रवृत्ति से युक्त रावण एक ज्ञानी ब्राह्मण थे।
परशुराम परम्परा (अवतारी परम्परा) के प्रचार-प्रसार और स्थापना के लिए निकले श्रीराम जिसका माध्यम था - वनवास, के द्वारा रावण की बहन सुपर्णखा से दुव्र्यवहार के कारण रावण ने श्रीराम की पत्नी सीता का हरण कर अपनी ताकत का प्रदर्शन किया था। इस कारण श्रीराम-रावण युद्ध हुआ और श्रीराम की विजय हुयी। फलस्वरूप रावण के राज्य लंका में परशुराम परम्परा की स्थापना हुयी। सीता के हरण के उपरान्त जब तक सीता रावण के राज्य में रहीं तब तक रावण के विभिन्न चरित्रों से परिचित भी हुईं थी।
हिन्दू धर्म में पुराणों के अनुसार शिवजी जहाँ-जहाँ स्वयं प्रगट हुए उन बारह स्थानों पर स्थित शिवलिंगों को ज्योतिर्लिंगों के रूप में पूजा जाता है। ये संख्या में 12 है। 12 ज्योतिर्लिंगों के नाम शिव पुराण (शतरुद्र संहिता, अध्याय 42/2-4) के अनुसार हैं। जिनकी अपनी-अपनी कथाएँ भी हैं। एक मतानुसार बारह ज्योतिर्लिंगों को बारह राशियों से जोड़कर भी देखा जाता है। ये राशियां इस प्रकार से हैं- 1.मेष-सोमनाथ, 2.वृष-श्रीशैल, 3.मिथुन-महाकाल, 4.कर्क-अमलेश्वर, 5.सिंह-वैद्यनाथ, 6.कन्या-भीमशंकर, 7.तुला-रामेश, 8.वृश्चिक-नागेश, 9.धनु-विश्वेशं, 10.मकर-त्र्यम्बकं, 11. कुंभ-केदार, 12. मीन-घृष्णेशं। ये राशियां चंद्र राशि समझें।
साधारण भाषा व सार्वभौम परिभाषा के रूप में जिन शिवलिंगो की कथा पौराणिक या अवतारों की कथा से जुड़ी होती है सिर्फ वही ज्योर्तिलिंग की योग्यता रखते हैं।
श्रीवैद्यनाथ ज्योतिर्लिङ्ग - झारखंड देवघर जिला (झारखंड) राज्य के संथाल परगना क्षेत्र में जसीडीह स्टेशन के पास देवघर (वैद्यनाथधाम) नामक स्थान पर श्रीवैद्यनाथ ज्योतिर्लिङ्ग सिद्ध होता है, क्योंकि यही चिताभूमि है। महाराष्ट्र में पासे परभनी नामक जंक्शन है, वहां से परली तक एक ब्रांच लाइन गयी है, इस परली स्टेशन से थोड़ी दूर पर परली ग्राम के निकट श्रीवैद्यनाथ को भी ज्योतिर्लिङ्ग माना जाता है। परंपरा और पौराणिक कथाओं से देवघर स्थित श्रीवैद्यनाथ ज्योतिर्लिङ्ग को ही प्रमाणिक मान्यता है। जो रावण की एक कथा से सम्बन्धित है।
श्रीरामेश्वर ज्योतिर्लिङ्ग- तमिलनाडु रामेश्वरम श्रीरामेश्वर तीर्थ तमिलनाडु प्रांत के रामनाड जिले में है। यहाँ लंका विजय के पश्चात् भगवान श्रीराम ने अपने अराध्यदेव शंकर की पूजा की थी। ज्योतिर्लिंग को श्रीरामेश्वर या श्रीरामलिंगेश्वर के नाम से जाना जाता है।
ज्योतिर्लिङ्ग के इतिहास में पहली बार ऐसा हुआ है कि श्रीराम-रावण की कथा में रावण को खलनायक पक्ष में रखने के बावजूद उनकी कथा से भी जुड़ा ज्योतिर्लिङ्ग है और वह श्रीराम के ज्योतिर्लिङ्ग से पहले ही स्थापित था। जो यह सिद्ध करता है कि रावण में कोई कमी नहीं थी। वर्तमान स्थिति में भी देखा जाये तो किसी की बहन के साथ दुव्र्यवहार का परिणाम ही तो युद्ध था।
युद्धोपरान्त सीता के दो पुत्र जन्म लिये। लव और कुश राम तथा सीता के जुड़वां बेटे थे। उनका जन्म तथा पालन वन में वाल्मीकि आश्रम में हुआ था। सब भाइयों के आग्रह को मानकर रामचन्द्र जी ने अश्वमेध यज्ञ का अनुष्ठान किये। यज्ञ एक वर्ष से भी अधिक समय तक चलता रहा। अश्वमेध यज्ञ जो अपनी व्यवस्था की सर्वोच्चता की घोषणा का प्रतीक होता था। अश्वमेध यज्ञ में सर्वोच्चता का प्रतीक घोड़ा छोड़ा जाता था जो घोड़ा पकड़कर युद्ध में पराजित कर देता था उसे राजा बना दिया जाता था। राम द्वारा छोड़े गये घोड़े को ‘लव’ और ‘कुश’ नाम के दो शुद्धात्मा बालक ने घोड़े को पकड़कर राम की सेना को लगभग हरा चुके थे। परन्तु बालकों की माता सीता जिन्हे राम द्वारा वर्णाश्रम विभाजित गुण एवम् कर्मो पर आधारित जाति के प्रभाव में आकर वनगमन दिया गया था, की उपस्थिति द्वारा एक-दूसरे के पिता-पुत्र रूप में परिचय के उपरान्त यह युद्ध रूक गया।
जब राम ने वानप्रस्थ लेने का निश्चय कर भरत का राज्यभिषेक करना चाहा तो भरत नहीं माने। अतः दक्षिण कोसल प्रदेश में कुश और उत्तर कोसल में लव का अभिषेक किया गया। कुश के लिये विन्ध्याचल के किनारे कुशावती और लव के लिये श्रावस्ती नगरों का निर्माण कराया फिर उन्हें अपनी-अपनी राजधानियों को जाने का आदेश दिया।
प्रत्येक पूर्णावतार के जीवन में उसके व्यक्त होने की कला तथा अगले पूर्णावतार के व्यक्त होने की कला का संकेत रूप दिया रहता है। ब्रह्मा के पूर्णावतार श्रीराम के जीवन मे वर्तमान परिस्थितियों पर कर्म करना राम कला थी जबकि लव कुश का व्यवहार-विरूद्व फिर समाहित होना अगले पूर्णावतार की कला का व्यक्तिगत प्रमाणित अदृश्य संकेत रूप था। विष्णु के व्यक्तिगत प्रमाणित पूर्णावतार श्रीकृष्ण के जीवन में रामकला समाहित समाज की धारा के विरूद्व चलकर समाज की धारा में ही समाहित हो जाना कृष्ण कला थी। जो कि अगले पूर्णावतार की कला का व्यक्तिगत प्रमाणित दृश्य संकेत रूप था। शिव-शंकर के पूर्णावतार तथा विष्णु के सार्वजनिक प्रमाणित पूर्णावतार के जीवन में कृष्णकला का सार्वजनिक प्रमाणित दृश्य रूप है। जबकि विश्व की धारा जहाँ तक पहँुच चुकी है, वहाॅ से स्वयं को जोड़ लेना ”विश्वमानव कला“ है।
वर्तमान समय के श्री लव कुश सिंह “विश्वमानव” भी रावण की भाँति ज्ञानी अर्थात सात्विक मन, एकान्त निवास, तामसिक भोजन एवं सात्विक कर्म से युक्त हैं। वे स्वयं नायक भी हैं और खलनायक भी। और साथ ही 13वें और अन्तिम भेगेश्वर ज्योतिर्लिंग के स्थापक भी। मूल पाशुपत शैव दर्शन सहित अनेक मतों का सफल एकीकरण के स्वरूप श्री लव कुश सिह “विश्वमानव” के जीवन, कर्म और ज्ञान के अनेक दिशाओं से देखने पर अनेक दार्शनिक, संस्थापक, संत, ऋषि, अवतार, मनु, व्यास, व्यापारी, रचनाकर्ता, नेता, समाज निर्माता, शिक्षाविद्, दूरदर्शिता इत्यादि अनेक रूप दिखते हैं।
इस प्रकार श्री लव कुश सिंह “विश्वमानव”, तामसिक और ज्ञानी प्रवृत्ति के महान चरित्र रावण की दिशा से उनकी अगली कड़ी के रूप में व्यक्त हैं।
इसी ओर निर्देशित करती धार्मिक-सामाजिक-राजनीतिक नेत्त्वकर्ताओं के विचार
स्वामी विवेकानन्द की सत्य दृष्टि
1. सत्य के दो अंग है। पहला जो साधारण मानवों को पांचेन्द्रियग्राह्य एवम् उसमें उपस्थापित अनुमान द्वारा गृहीत है और दूसरा-जिसका इन्द्रियातीत सूक्ष्म योगज शक्ति के द्वारा ग्रहण होता है। प्रथम उपाय के द्वारा संकलित ज्ञान को ”विज्ञान“ कहते है, तथा द्वितीय प्रकार के संकलित ज्ञान को ”वेद“ संज्ञा दी है। वेद नामक अनादि अनन्त अलौकिक ज्ञानराशि सदा विद्यमान है। स्वंय सृष्टिकत्र्ता उसकी सहायता से इस जगत के सृष्टि-स्थिति-प्रलय कार्य सम्पन्न कर रहे हैं। जिन पुरूषों में उस इन्द्रियातीत शक्ति का आविर्भाव है, उन्हें ऋषि कहते है और उस शक्ति के द्वारा जिस अलौकिक सत्य की खोज उन्होंने उपलब्धि की है, उसे ”वेद“ कहते हैं। इस ऋषित्व तथा वेद दृष्टत्व को प्राप्त करना ही यथार्थ धर्मानुभूति है। साधक के जीवन में जब तक उसका उन्मेष नहीं होता तब तक ”धर्म“ केवल कहने भर की बात है एवम् समझना चाहिए कि उसने धर्मराज्य के प्रथम सोपान पर भी पैर नहीं रखा है। समस्त देश-काल-पात्र को व्याप्त कर वेद का शासन है अर्थात वेद का प्रभाव किसी देश, काल या पात्र विशेष द्वारा सीमित नहीं हैं। सार्वजनिन धर्म का व्याख्याता एक मात्र ”वेद“ ही है।
2.”वेद“ का अर्थ है- ईश्वरीय ज्ञान की राशि। विद् धातु का अर्थ है-जानना। वेदान्त नामक ज्ञानराशि ऋषि नाम धारी पुरूषों के द्वारा आविष्कृत हुई है। ऋषि शब्द का अर्थ है- मन्त्रद्रष्टा। पहले ही से वर्तमान ज्ञान को उन्होंने प्रत्यक्ष किया है। वह ज्ञान तथा भाव उनके अपने विचारों का फल नहीं था। जब कभी आप सुनें कि वेदों के अमुक अंश के ऋषि अमुक है, तब यह मत सोचिए कि उन्होंने उसे लिखा या अपनी बुद्धि द्वारा बनाया है, बल्कि पहले ही से वर्तमान भाव राशि के वे द्रष्टा मात्र है - वे भाव अनादि काल से ही इस संसार में विद्यमान थे, ऋषि ने उनका आविष्कार मात्र किया। ऋषिगण आध्यात्मिक आविष्कारक थे।
3. हमारे शास्त्रों में परमात्मा के दो रूप कहे गये हैं- सगुण और निर्गुण। सगुण ईश्वर के अर्थ से वे सर्वव्यापी है। संसार की सृष्टि, स्थिति और प्रलय के कत्र्ता हैं। संसार के अनादि जनक तथा जननी हैं उनके साथ हमारा नित्य भेद है। मुक्ति का अर्थ - उनके सामीप्य और सालोक्य की प्राप्ति है। सगुण ब्रह्म के ये सब विशेषण निर्गुण ब्रह्म के सम्बन्ध में अनावश्यक और अयौक्तिक है इसलिए त्याज्य कर दिये गये। वह निर्गुण और सर्वव्यापी पुरूष ज्ञानवान नहीं कहा जा सकता क्योंकि ज्ञान मन का धर्म है। इस निर्गुण पुरूष के साथ हमारा क्या सम्बन्ध है? सम्बन्ध यह है कि हम उससे अभिन्न हैं। वह और हम एक हैं। हर एक मनुष्य उसी निर्गुण पुरूष का- जो सब प्राणियों का मूल कारण है- अलग-अलग प्रकाश है। जब हम इस अनन्त और निर्गुण पुरूष से अपने को अलग सोचते हैं तभी हमारे दुःख की उत्पत्ति होती है और इस अनिर्वचनीय निर्गुण सत्ता के साथ अभेद ज्ञान ही मुक्ति है। संक्षेपतः हम अपने शास्त्रों में ईश्वर के इन्हीं दोनो ”भावों“ का उल्लेख देखते हैं। यहाँ यह कहना आवश्यक है कि निर्गुण ब्रह्मवाद ही सब प्रकार के नीति विज्ञानोें की नींव है।
4. जैसा कि यह स्थूल शरीर, स्थूल शाक्तियों का आधार है, वैसे ही सूक्ष्म शरीर, सूक्ष्म शक्तियों का आधार है जिन्हें हम ”विचार“ कहते हैं। यह विचार शक्ति विभिन्न रूपों में प्रकाशित होती रहती है। इनमें कोई भेद नहीं हैं। केवल इतना ही है कि एक उसी वस्तु का स्थूल तथा दूसरा सूक्ष्म रूप है। इस सूक्ष्म शरीर और स्थूल शरीर में भी कोई पार्थक्य नहीं है। सूक्ष्म शरीर भी भौतिक है, केवल इतना ही कि वह अत्यन्त सूक्ष्म जड़ वस्तु है।
5.चाहे हम उसे वेदान्त कहें या किसी और नाम से पुकारें, परन्तु सत्य तो यह है कि धर्म और विचार में अद्वैत ही अन्तिम शब्द है, और केवल उसी के दृष्टिकोण से सब धर्मो और सम्प्रदायों को प्रेम से देखा जा सकता है। हमें विश्वास है कि भविष्य के प्रबुद्व मानवी समाज का यही धर्म होंगा।
6. सृष्टि के पूर्व ब्रह्म शब्दात्मक बनते है, फिर ओंकारात्मक या नादात्मक होते है। तत्पश्चात पहले कल्पों के विशेष शब्द जैसे- भूः, भुवः, स्वः अथवा गो, मानव, घट, पट इत्यादि का प्रकाश उसी आंेकार से होता है। सिद्ध संकल्प ब्रह्म में क्रमशः एक-एक शब्द के होते ही उसी क्षण उन सब पदार्थो का भी प्रकाश हो जाता है और इस विचित्र जगत् का विकास हो उठता है। अब समझे न कि कैसे शब्द ही सृष्टि का मूल है।
7. यह सारा व्यक्त इन्द्रिय ग्राह्य जगत रूप है, और इसके पीछे है अनन्त अव्यक्त स्फोट। स्फोट का अर्थ- समस्त जगत की अभिव्यक्ति का कारण शब्द-ब्रह्म। समस्त नामों अर्थात भावों की नित्य समवायी उपादान स्वरूप यह नित्य स्फोट ही वह शक्ति है, जिससे भगवान इस विश्व की सृष्टि करते है। यही नहीं बल्कि भगवान पहले स्फोट-रूप में परिणत हो जाते है और तत्पश्चात अपने को उससे भी स्थूल इस इन्द्रिय ग्राह्य जगत् के रूप में परिणत कर लेते है।
8. हमारे सम्मुख दो शब्द है- क्षुद्र ब्रह्माण्ड और बृहत् ब्रह्माण्ड। अन्तः और बहिः। हम अनुभूति के द्वारा ही इन दोनों से सत्य लाभ करते है। आभ्यन्तर अनुभूति और बाह्य अनुभूति। आभ्यन्तर अनुभूति के द्वारा संगृहीत सत्य समूह मनोविज्ञान, दर्शन और धर्म के नाम से परिचित है, और बाह्य अनुभूति सेे भौतिक विज्ञान की उत्पत्ति हुई है। अब बात यह है कि जो सम्पूर्ण सत्य है उसका इन दोनों जगत् की अनुभूति के साथ समन्वय होगा। क्षुद्र ब्रह्माण्ड, बृह्त ब्रह्माण्ड के सत्य समूह को साक्षी प्रदान करेगा, उसी प्रकार बृहत् ब्रह्माण्ड भी क्षुद्र ब्रह्माण्ड के सत्य को स्वीकार करेगा।
9. इस बाह्य जगत को बृहद् ब्रह्माण्ड तथा अन्तः जगत को क्षुद्र ब्रह्माण्ड कहते है। एक मनुष्य अर्थात् कोई भी प्राणी अर्थात् क्षुद्र ब्रह्माण्ड जिस नियम से गठित है उसी नियम से विश्व ब्रह्माण्ड अर्थात् बृहद् ब्रह्माण्ड भी गठित है। जैसे- हमारा एक मन, व्यक्तिमत मन है। उसी प्रकार एक विश्वमन संयुक्त मन भी है। सम्पूर्ण जगत एक अखण्ड स्वरूप है वेदान्त उसी को ब्रह्म कहता है।
10. पहले यह स्थूल शरीर, उसके पश्चात् सूक्ष्म शरीर, उसके पश्चात् जीव अथवा आत्मा यही मानव का यथार्थ स्वरूप है। मनुष्य का एक सूक्ष्म शरीर और एक स्थूल शरीर है ऐसा नही। शरीर एक ही है। तथापि सूक्ष्म आकार में वह स्थूल की अपेक्षा दीर्घकाल तक रहता है। तथा स्थूल शीघ्र ही नष्ट हो जाता है। सूक्ष्म शरीर भी दीर्घ काल के पश्चात विलिष्ट हो जायेगा, किन्तु जीव अयौगिक पदार्थ है इसलिए वह कभी ध्वंस प्राप्त नहीं होेगा।
11.समस्त जगत का एकत्व- यही श्रेष्ठ धर्ममत हैं। मैं अमुक हँू व्यक्ति विशेष- यह बहुत ही संकीर्ण भाव है। यथार्थ ”अहम्“ लिए, यह सत्य नहीं है। मैं विश्व व्यापक हँू- इस धारणा पर प्रतिष्ठित हो जाओ और श्रेष्ठ की उपासना सदा श्रेष्ठ रूप में करोे, कारण ईश्वर चैतन्य स्वरूप है, आत्म स्वरूप है, चैतन्य एवम् सत्य में ही उसकी उपासना करनी होगी। मानव चैतन्य स्वरूप है, और इसलिए मानव भी अनन्त है। और केवल अनन्त ही अनन्त की उपासना में समर्थ है। हम अनन्त की उपासना करेगें, वही सर्वोच्च आध्यात्मिक उपासना है।
12.अतः यदि भारत को महान बनाना है, तो इसके लिए आवश्यकता है संगठन की, शक्ति संग्रह की और बिखरी हुई इच्छाशक्ति को एकत्र कर उसमें समन्वय लाने की। अथर्ववेद संहिता की एक विलक्षण ऋचा याद आ गयी जिसमें कहा गया है, ‘‘तुम सब लोग एक मन हो जाओ, सब लोग एक ही विचार के बन जाओ। एक मन हो जाना ही समाज का गठन का रहस्य है बस इच्छाशक्ति का संचय और उनका समन्वय कर उन्हें एकमुखी करना ही सारा रहस्य है।
13. जो कुछ प्रकृति के विरूद्व लड़ाई करता है वह चेतना है। उसमें ही चैतन्य का विकास है। यदि एक चीटीं को मारने लगो तो देखोगे कि वह भी अपनी जीवन रक्षा के लिए एक बार लड़ाई करेगी। जहाँ चेष्टा या पुरूषकार है, जहाँ संग्राम है, वहीं जीवन का चिन्ह और चैतन्य का प्रकाश है।
14.समग्र संसार का अखण्डत्व, जिसकें ग्रहण करने के लिए संसार प्रतीक्षा कर रहा है, हमारे उपनिषदों का दूसरा भाव है। प्राचीन काल के हदबन्दी और पार्थक्य इस समय तेजी से कम होते जा रहे हैं। हमारे उपनिषदों ने ठीक ही कहा है- ”अज्ञान ही सर्व प्रकार के दुःखो का कारण है।“ सामाजिक अथवा आध्यात्मिक जीवन की हो जिस अवस्था में देखो, यह बिल्कुल सही उतरता है। अज्ञान से ही हम परस्पर घृणा करते है, अज्ञान से ही एक दुसरे को जानते नहीं और इसलिए प्यार नहीं करते। जब हम एक दुसरे को जान लेगे, प्रेम का उदय हेागा। प्रेम का उदय निश्चित है क्योंकि क्या हम सब एक नहीं हैं? इसलिए हम देखते है कि चेष्टा न करने पर भी हम सब का एकत्व भाव स्वभाव से ही आ जाता है। यहाँ तक की राजनीति और समाजनीति के क्षेत्रो में भी जो समस्यायें बीस वर्ष पहले केवल राष्ट्रीय थी, इस समय उसकी मीमांसा केवल राष्ट्रीयता के आधार पर और विशाल आकार धारण कर रही हैं। केवल अन्तर्राष्ट्रीय संगठन, अन्तर्राष्ट्रीय विधान ये ही आजकल के मूलतन्त्र स्वरूप है।
15.सत् का कारण असत् कभी नहीं हो सकता। शून्य से किसी वस्तु का उद्भव नहीः कार्य-कारणवाद सर्वशक्तिमान है और ऐसा कोई देश-काल ज्ञात नहीं, जब इसका अस्तित्व नहीं था। यह सिद्धान्त भी उतना ही प्राचीन है, जितनी आर्य जाति। इस जाति के मन्त्र द्रष्टा कवियों ने उसका गौरव गान गया है। इसके दार्शनिकों ने उसको सूत्रबद्ध किया और उसकी वह आधारशिला बनायी, जिस पर आज का भी हिन्दू अपने जीवन का समग्र योजना स्थिर करता है।
16.शिक्षा का मतलब यह नहीं है कि तुम्हारे दिमाग में ऐसी बहुत सी बातें इस तरह से ठूंस दी जाये, जो आपस में लड़ने लगे और तुम्हारा दिमाग उन्हें जीवन भर हजम न कर सकें। जिस शिक्षा से हम अपना जीवन निर्माण कर सकंे, मनुष्य बन सके, चरित्र गठन कर सकें और विचारों का सांमजस्य कर सके, वही वास्तव में शिक्षा कहलाने योग्य है। यदि तुम पाँच ही भावों को हजम कर तद्नुसार जीवन और चरित्र गठन कर सके तो तुम्हारी शिक्षा उस आदमी की अपेक्षा बहुत अधिक है जिसने एक पूरी की पूरी लाइब्रेरी ही कठंस्थ कर ली है।
17.योग का शब्दिक अर्थ है- मिलन। दार्शनिक दृष्टि से इसका अर्थ परमात्मा से मिलन होता है और जो इस परमात्मा से हमें जोड़ता है, वह योग है। पूरे ब्रह्माण्ड में एक ही ब्रह्म है लेकिन जब यह अज्ञानवश देखा जाता है, तो वह अनेक दिखलाई पड़ता है। अज्ञान के फलस्वरूप हम अपने को परमात्मा से अलग समझते है। इतना ही नहीं, विविध वस्तुओं की आन्तरिक एकता को देखें बिना हम उन्हें भी भिन्न समझते है। यहीं दुःख का उदय होता है।
18.एक शब्द में वेदान्त का आदर्श है- मनुष्य के सच्चे स्वरुप को जानना। और वेदान्त का यहीं संदेश है कि यदि तुम व्यक्त ईश्वर रुप अपने भाई की उपासना नहीं कर सकते, तो तुम उस ईश्वर की उपासना कैसे करोगे जो अव्यक्त है। चाहे जिस विद्या में हो, प्रकृत सत्य में कभी परस्पर विरोध रह नहीं सकता। आभ्यन्तर सत्य समूह के साथ बाह्य सत्य समूह का समन्वय है।
19.हिन्दू भावों को अंग्रेजी में व्यक्त करना, फिर शुष्क दर्शन, जटिल पौराणिक कथाएँ और अनूठे आश्चर्यजनक मनोविज्ञान से ऐसे धर्म का निर्माण करना, जो सरल, सहज और लोकप्रिय हो और उसके साथ ही उन्नत मस्तिष्क वालों को संतुष्ट कर सके- इस कार्य की कठिनाइयों को वे ही समझ सकते हैं, जिन्होंने इसके लिए प्रयत्न किया हो। अद्वैत के गुढ़ सिद्धान्त में नित्य प्रति के जीवन के लिए कविता का रस और जीवन दायिनी शक्ति उत्पन्न करनी है। अत्यन्त उलझी हुई पौराणिक कथाओं में से जीवन प्रकृत चरित्रों के उदाहरण समूह निकालने हैं और बुद्धि को भ्रम में डालने वाली योगविद्या से अत्यन्त वैज्ञानिक और क्रियात्मक मनोविज्ञान का विकास करना है और इन सब को एक ऐसे रुप में लाना पड़ेगा कि बच्चा-बच्चा इसे समझ सके।
महात्मा गाँधी के विचार
1.विज्ञान का युद्ध किसी व्यक्ति को तानाशाही, शुद्ध और सरलता की ओर ले जाता है। अहिंसा का विज्ञान अकेले ही किसी व्यक्ति को शुद्ध लोकतन्त्र के मार्ग की ओर ले जा सकता है। प्रेम पर आधारित शक्ति सजा के डर से उत्पन्न शक्ति से हजार गुना अधिक और स्थायी होती है। यह कहना निन्दा करने जैसा होगा कि अहिंसा का अभ्यास केवल व्यक्तिगत तौर पर किया जा सकता है और व्यक्तिवादिता वाले देश इसका कभी भी अभ्यास नहीं कर सकते हैं। शुद्ध अराजकता का निकटतम दृष्टिकोण अहिंसा पर आधारित लोकतन्त्र होगा। सम्पूर्ण अहिंसा के आधार पर संगठित और चलने वाला कोई समाज शुद्ध अराजकता वाला समाज होगा।
2.मैंने भी स्वीकार किया कि एक अहिंसक राज्य में भी पुलिस बल की जरूरत अनिवार्य हो सकती है। पुलिस रैंकों का गठन अहिंसा में विश्वास रखने वालों से किया जायेगा। लोग उनकी हर सम्भव मदद करेंगे और आपसी सहयोग के माध्यम से वे किसी भी उपद्रव का आसानी से सामना कर लेंगे। श्रम और पूंजी तथा हड़तालों के बीच हिंसक झगड़ें बहुत कम होंगें और हिसंक राज्यों में तो बहुत कम होंगे क्योंकि अहिंसक समाज की बाहुलता का प्रभाव समाज में प्रमुख तत्वों का सम्मान करने के लिए महान होगा। इसी प्रकार साम्प्रदायिक अव्यवस्था के लिए कोई जगह नहीं होगी।
3.आध्यात्मिक और व्यवहारिक शुद्धता बड़े पैमाने पर ब्रह्मचर्य और वैराग्यवाद से जुदा होता है। गाँधी जी ने ब्रह्मचर्य को भगवान के करीब आने और अपने को पहचानने का प्राथमिक आधार के रूप में देखा था। अपनी आत्मकथा में वे बचपन की दुल्हन कस्तुरबा के साथ अपनी कामेच्छा और इश्र्या के संघर्षो को बताते हैं। उन्होंने महसूस किया कि यह उनका व्यक्तिगत दायित्व है कि उन्हें ब्रह्मचर्य रहना है ताकि वे बजाय हवस के प्रेम को सिख पायें। गाँधी के लिए ब्रह्मचर्य का अर्थ था- इन्द्रियों के अन्तर्गत विचारों, शब्द और कर्म पर नियंत्रण।
4.गाँधी जी का मानना था कि अगर एक व्यक्ति समाज सेवा में कार्यरत है तो उसे साधारण जीवन की ओर ही बढ़ना चाहिए जिसे वे ब्रह्मचर्य के लिए आवश्यक मानते हैं। उनकी सादगी ने पश्चिमी जीवन शैली को त्यागने पर मजबूर करने लगा और वे दक्षिण अफ्रीका में फैलने लगे थे, इससे वे- खुद को शून्य के स्थिति में लाना, कहते हैं। जिसमें अनावश्यक खर्च, साधारण जीवन शैली को अपनाना और अपने वस्त्र स्वयं धोना आवश्यक है। अपने साधारण जीवन को दर्शाने के लिए उन्होंने बाद में अपनी बाकी जीवन में धोती पहनी।
5.गाँधी सप्ताह में एक दिन मौन धारण करते थे। उनका मानना था कि बोलने के परहेज से उन्हें आन्तरिक शान्ति मिलती है। उन पर यह प्रभाव हिन्दू मौन सिद्धान्त का है। वैसे दिनों में वे कागज पर लिखकर दूसरों के साथ सम्पर्क करते थे। 37 वर्ष की आयु से साढ़े तीन वर्षो तक गाँधी जी ने अखबारों को पढ़ने से इन्कार कर दिया जिसके जबाब में उनका कहना था कि जगत की आज जो स्थिर अवस्था है, उसने अपनी स्वयं का आन्तरिक अशान्ति की तुलना में अधिक भ्रमित किया है।
6.नियम के रूप में गाँधी विभाजन की अवधारणा के खिलाफ थे क्योंकि उनके धार्मिक एकता के दृष्टिकोण के प्रतिकूल थी। 6 अक्टुबर, 1946 में ”हरिजन“ में उन्होंने भारत का विभाजन, पाकिस्तान बनाने के लिए, के बारे में लिखा- ”पाकिस्तान की मांग जैसा कि मुस्लीम लीग द्वारा प्रस्तुत किया गया है, गैर इस्लामी है और मैं इसे पापयुक्त कहने से नहीं हिचकूँगा। इस्लाम मानव जाति के भाईचारे और एकता के लिए खड़ा है, न कि मानव परिवार के एक्य का अवरोध करने के लिए। इस वजह से जो यह चाहते हैं कि भारत दो युद्ध समूहों में बदल जाये, वे भारत और इस्लाम दोनों के दुश्मन हैं। वे मुझे टुकड़ों में काट सकते हैं, पर मुझे उस चीज के लिए राजी नहीं कर सकते जिसे मैं गलत समझता हूँ।“
महर्षि अरविन्द की वाणी
1.उत्पीड़न आज तक धार्मिक निष्ठा को नष्ट नहीं कर सका और आत्मचेतन भारत तो किसी तानाशाह की दण्डशलाका से दमित होने के लिए बहुत बड़ी ताकत है। अत्याचार कुचलते नहीं बल्कि सम्प्रत्यय और विश्वास की मोर्चाबन्दी करते है। और धरती पर ऐसी कोई शक्ति नहीं जो सच्चे लोगों के रक्त में एक बार अंकुरित हुये स्वतन्त्रता के बीज को उन्मूलित कर सके।
2.यह जनशक्ति ही है जो हमारी सम्पूर्ण आशा है...... सम्पूर्ण आश्वासन, भविष्य की हमारी सम्पूर्ण संभावना..... इसे सामाजिक और राजनीतिक प्रभुता प्राप्त करने के लिए अपने परिणाम, प्रबलता और महत्व में अनन्तगुना होना है।
3.एक चीज जिसे हमें सबसे पहले प्राप्त करना है वह है शक्ति-शारीरिक, मानसिक और नैतिक शक्ति और सर्वोपरि रूप से आध्यात्मिक शक्ति, जो दूसरी सारी शक्तियों का अक्षय स्रोत है। अगर हममें शक्ति है तो दूसरी हर चीज बहुत आसानी और स्वाभाविकता के साथ हमसे जुड़ जायेगी।
4.जिन्होंने अपने देश को स्वतन्त्र किया है वे सम्पूर्ण आत्मत्याग की यातना से गुजरे है। जो भारत को स्वतन्त्र करने की उत्कृष्ट आकांक्षा से प्रेरित है, उन्हें पहले उस मूल्य को अदा करना होगा, माता जिसका माँग करती है। पुनरूद्वार का अर्थ है पुनर्जन्म- नया जन्म और यह बुद्धि से नहीं मिलता, किसी नीति सेे नहीं मिलता, न ही इसे यांत्रिक परिवर्तन से प्राप्त किया जा सकता है। यह एक नया हृदय पाने से आता है, सब कुछ यज्ञाग्नि में झोंक देने से आता है। इसके लिए ”माता“ में पुनः जन्म लेना होता है।
5.भारत माता जो आदि जननी है। वह वस्तुतः पुनर्जन्म लेने का प्रयास कर रही है। वह असह्य वेदना और आँखों में आँसू लिए है उसे कठिनाई किस बात की है? इतनी विशाल होते हुए भी वह अशक्त क्यों है? अवश्य ही हममें कोई भारी दोष होगा। हमारे पास बाकी सब चीजे है बस हम शक्ति शून्य है। ऊर्जा का हममें अभाव है। हमने शक्ति को त्याग दिया है अथवा शक्ति द्वारा हम त्याग दिये गये है। हमारी माता का वास हमारे अन्तः करण में, मस्तिष्क में है। भुजाओं में नहीं है।
6.लोग अपने देश को एक जड़ पदार्थ का टुकड़ा समझते है। खेत, वन और पहाड़ियों - नदियों के रूप में, लेकिन मैं अपने देश को अपनी माता मानता हैं। मैं उसकी अराधना करता हँू। माता के रूप में उसकी पूजा करता हूँ। यदि कोई राक्षस किसी पुत्र की माता की छाती पर चढ़कर उसका खून चूसने लगे तो वह पुत्र क्या करेगा? मैं यह जानता हूँ कि मुझमें इस गिरे हुए राष्ट्र को उबारने की शक्ति है। मैं शारीरिक शक्ति की बात नहीं कर रहा हूँ। मैं कोई तलवार या बंदूक उठाकर लड़ने नहीं जा रहा हूँ। मैं ज्ञान की शक्ति से विजय प्राप्त करूँगा।
7.मातृभूमि में जीना गर्व की बात है और मातृभूमि के लिए मरना सौभाग्य की।
8.”आत्म-विश्वास, आत्म ज्ञान, आत्मसत्ता के बोध से सम्पन्न अपनी सरकार“ यह श्री अरविन्द के स्वराज की परिभाषा थी जितनी राजनीतिक उतनी ही वेदान्तिक।
9.हमारा देश यह राष्ट्र ”प्रकृति“ की कर्मशाला की एक नयी और अनगढ़ या आधुनिक परिस्थितियों द्वारा रची गयी जाति नहीं है, बल्कि इस धरती पर प्राचीनतम जातियों और सबसे महान सभ्यताओं में से एक है।- तेज और ओज में सबसे अधिक अदम्य, महत्ता में सबसे अधिक उर्वर, जीवन में गहनतम और अन्तः शक्ति में असाधारण। भारत की स्वतन्त्रता, एकता और महानता अब विश्व के लिए आवश्यक हो गयी है।
10.हमें हर व्यक्तिगत स्वार्थ को बृहत्तर राष्ट्रीय सन्दर्भ में मिटा देना सीखना है, ताकि मानवता में ईश्वर विकसित हो सके। यह राष्ट्रीयता है जो इस समय युग-धर्म, काल धर्म है और ईश्वर इसे हमारी, हम सबकी ”एक माता“ के अन्दर अभिव्यक्त कर रहा है।
11.आओ, माता की पुकार सुनों। वह हमारे हृदय में है और अपने प्रकाट्य की प्रतीक्षा कर रही है। उसकी सेवा करो अपने शरीरों से या अपनी बुद्धि से या वाणी या समृद्धि से अथवा अपनी प्रार्थना और आराधना से पीछे मत हटो।
12.हमारा उद्देश्य होगा मानवता के लिए भारत के निर्माण में सहायक होना- यह राष्ट्रीयता की चेतना है जिसका हम दावा करते है। और अनुसरण करते है। हम मानवता से कहते है- वह समय आ गया है जब तुम्हें बड़ा कदम उठाना है और भौतिक सत्ता से निकलकर एक उच्चतर, गहनतर और विशालतर जीवन में उठना है जिसकी ओर मानवता संचरण कर रही है।
13.राष्ट्र निर्माण... इस महान कार्य में राजनीति तो केवल एक अंग है। हम केवल राजनीति को ही अर्पित नहीं होगें, न केवल सामाजिक समस्याओं, न ईश्वर-मीमांसा या दर्शन या साहित्य या विज्ञान को बल्कि हम इन सबको एक ”सत्व“ में एक अस्तित्व में शामिल करेगें और हमें विश्वास है कि यह सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। यही हमारा राष्ट्रीय धर्म है। जिसके सार्वभौम होने का विश्वास भी हमें है।
14.यह भारत है जो इस सर्वोच्च आगे महान नियति के लिए नियत है। यह भारत है जो अपने अन्दर से विश्व के भावी धर्म को उत्सर्जित करेगा- उस शाश्वत धर्म को, जो सम्पूर्ण मानवजाति को ”एक आत्मा“ के रूप में निर्मित कर सकता है।
15.एक राष्ट्र के रूप में हम अपने जीवन की परिपूर्णता चाहते है.... हमारा उद्देश्य, हमारा दावा है कि हम एक राष्ट्र के रूप में विनाश को प्राप्त नहीं होंगे, बल्कि एक राष्ट्र के रूप में जियेंगें।
16.भारत की रचना विधाता ने संयोग के बेतरतीब ईटो से नहीं की है। भारत की नियति का निर्माण करने वाला देवता चक्षुहीन अर्थात अंधा नहीं है। इसकी योजना किसी चैतन्य शक्ति ने बनाई है। जो इसके विपरीत कार्य करेगा वह मरेगा ही मरेगा।
आचार्य रजनीश ”ओशो“ की वाणी
(अक्टुबर व नवम्बर 1978 में दिये गये प्रवचन का अंश)
(1) एक तरह का सिद्व एक ही बार होता है, दोबारा नहीं होता। क्योकि जो सिद्ध हो गया, फिर नही लौटता। गया फिर वापस नहीं आता। एक ही बार तुम उसकी झलक पाते हो- बुद्व की, महावीर की, क्राइस्ट ही, मुहम्मद की, एक ही बार झलक पाते हो, फिर गये सो गये। फिर विराट में लीन हो गये। फिर दोबारा उनके जैसा आदमी नहीं होगा, नहीं हो सकता। मगर बहुत लोग नकलची होगें। उनको तुम साधु कहते हो। उन नकलीची का बड़ा सम्मान है। क्योंकि वे तुम्हारे शास्त्र के अनुसार मालूम पड़ते हैं। जब भी सिद्ध आयेगा सब अस्त व्यस्त कर देगा सिद्ध आता ही है क्रान्ति की तरह ! प्रत्येक सिद्ध बगावत लेकर आता है, एक क्रान्ति का संदेश लेकर आता है एक आग की तरह आता है- एक तुफान रोशनी का! लेकिन जो अँधेरे में पड़े है। उनकी आँखे अगर एकदम से उतनी रोशनी न झेल सके और नाराज हो जाय तो कुछ आश्चर्य नहीं।
(2) जो एक गुरू बोल रहा है, वह अनन्त सिद्धों की वाणी है। अभिव्यक्ति में भेद होगा, शब्द अलग होगें, प्रतीक अलग होगें मगर जो एक सिद्ध बोलता है, वह सभी सिद्धो की वाणी है। इनसे अन्यथा नहीं हो सकता है। इसलिए जिसने एक सिद्ध को पा लिया, उसने सारे सिद्धो की परम्परा को पा लिया। क्यांेकि उनका सूत्र एक ही है। कुंजी तो एक ही है, जिसमें ताला खुलता है अस्तित्व का।
(3) परमात्मा त्यागी नहीं है, परमात्मा परम भोगी है, इस सारे अस्तित्व के भोग में लीन है। परमात्मा स्वयं त्यागी नहीं है। लेकिन तुम्हारे तथाकथित महात्माओं ने तुम्हें समझा दिया है। इस त्याग के कारण या तो तुम दीन हो जाते हो- एक परिणाम, कि तुम्हें लगता है मैं गर्हित, मैं निंदित, मैं पापी, मैं नारकीय, मुझसे त्याग नहीं होता! या, अगर तुम चालबाज हुये, चालाक हुये- वह तरकीब निकाल लेगा वह त्याग का आवरण खड़ा कर लेगा।
(4) जिसको ज्ञान होता है वह ब्रह्मस्वरूप हो गया। जिसने स्वयं को जाना वह स्वयं ब्रह्म हो गया। उसे जानते ही वही हो जाता है। फिर शेष सब उसके बाद है। वह समयातीत हो गया, काल और क्षेत्र के बाहर चला गया। वह प्रथम है, वही अन्तिम है। सबसे पहले वही, सबसे अन्त में भी वही। असल में फिर एक ही है, दो नहीं हैं। फिर कौन गुरू, कौन चेला। फिर कौन भक्त, कौन भगवान! इतना भेद भी नहीं बचता, नहीं बचना चाहिए। इस अभेद में ही आन्नद की वर्षा है, अमृत का अनुभव है।
(5) जब इन्द्रिया बाहर की तरफ जाती है, अलग-अलग हो जाती है। जैसे कि तुम किसी वर्तुल के केन्द्र से रेखायें खीचों परिधि की तरफ तो जैसे-जैसे ये परिधि की तरफ बढ़ेगी, एक दुसरे से अलग होने लगेगी। अगर तुम परिधि से केन्द्र की तरफ खीचों, तो जैसे-जैसे केन्द्र की तरफ आने लगेगी, वैसे-वैसे करीब होने लगेगी। केन्द्र पर आकर एक हो जायेगी। उस केन्द्र का नाम आत्मा है, जिस पर सारी इन्द्रिया एक है।
(6) मेरी दृष्टि में- जो सबसे चमकते हुये सितारे है वे हैं- कृष्ण, पंतजली, बुद्ध, महावीर, नागार्जुन, शंकर, गोरख, कबीर, नानक, रामकृष्ण, कृष्णमूर्ति। राम की कोई मौलिक देन नहीं है, कृष्ण की मौलिक देन है। इसलिए हिन्दूओं ने भी राम को पूर्णावतार नहीं कहा। नागार्जुन, बुद्ध में समाहित है। जो बुद्ध में बीज रूप था, उसी को नागार्जुन ने प्रकट किया है। ऐसे ही कृष्णमूर्ति भी बुद्ध में समा जाते है। कृष्णमूर्ति, बुद्ध का नवीनतम संस्करण है। रामकृष्ण, कृष्ण में सरलता से लीन हो जाते है। मीरा, नानक, कबीर में लीन हो जाते है। जैसे कबीर की ही शाखायें है। जैसे कबीर में जो इकट्ठा था। वह आधा नानक में प्रकट हुआ है, और आधा मीरा में। मीरा की इकतारे पर कबीर की नारी गायी है। नानक में कबीर का पुरूष बोला है। कबीर को गोरख में लीन किया जा सकता है। शंकर तो कृष्ण में सरलता से लीन हो जाते है। कृष्ण के ही एक अंग का दार्शनिक विवेचन है। बुद्ध की महिमा में महावीर की महिमा लीन हो सकती है। अब इन चार (कृष्ण, पंतजली, बुद्ध, गोरख) से मैं किसी को भी छोड़ न सकूगाँ। जैसे चार दिशाएं है। ऐसे ये चार व्यक्तित्व है। जैसे काल और क्षेत्र के चारो आयाम है। ऐसे ये चार आयाम है। जैसे परमात्मा की हमने चार भुजाएं सोची है। ऐसे ये चार भुजाएँ है। ऐसे तो एक ही है, लेकिन उस एक को चार भुजाएँ है। भारत की सारी संत-परम्परा गोरख की ऋणी है जैसे पंतजली के बिना भारत में योग की कोई सम्भावना न रह जायेगी, जैसे बुद्ध के बिना ध्यान को आधार शिला उखड़ जायेगी, जैसे कृष्ण के बिना प्रेम की अभिव्यक्ति को मार्ग न मिलेगा- ऐसे गोरख के बिन उस परम को पाने के लिए विधियों की जो तलाश शुरू हुई, साधना की जो व्यवस्था बनी, वह न बन सकेगी।
(7) कृष्ण ने कहा है कि जब सब सो जाते है तब भी योगी जागता है। इसका मतलब यह नहीं है कि योगी बैठे हैं या खड़े है कमरे में और जाग रहे हैं। इसका अर्थ यह है कि शरीर सो जाता है मगर भीतर एक ज्योति जलती रहती है। एक होश सधा रहता है। ऐसा अगर हो जाय तो फिर न तो तुम जानोगें कभी बुढ़ापा आया और न जानोगे कि कभी मौत आयी। इसका मतलब यह नहीं है कि बूढ़े नहीं होओगे। शरीर बूढ़ा होगा, मगर तुम बूढ़े नहीं होओगे। शरीर ही मरेगा, तुम अमृत हो गये। गोरख के दो नाम प्रचलित है। एक नाम है- गोरख गोपाल। वह सदा ताजे, युवा रहे। दुसरा नाम है बूढ़ाबाल। बूढ़े हो गये फिर भी बालक के जैसे रहे, उतने ही ताजे। जैसे- सुबह-सुबह की ताजी-ताजी ओस, सुबह-सुबह खिली हुई फूल की कली, ऐसे ही ताजे रहे, उनकी ताजगी कभी न गयी।
(8) तंन्त्र, वाममार्ग, अघोरपंथ, नाथपंथ। ये सब नाम तंन्त्र के ही नाम है। वाम मार्ग का अर्थ होता है। बायें हाथ का रास्ता। तुम्हारे पास दो हाथ है- एक दायां हाथ है, तुम्हारा दायां हाथ जुड़ा है बायें मस्तिष्क से जिससे- तर्क, गणित, कर्मठता कार्यकुशलता, चालाकी, राजनीति, संसार, गद्य, विज्ञान, हिसाब/किताब, उपयोगिता, बाजार। तुम्हारा दायां मस्तिष्क जो कि बायें हाथ से जुड़ा है, काव्य का स्रोत है- अनुभूति, भाव, कला, प्रज्ञा, आन्नद, मस्ती, नृत्य, संगीत, उत्सव, कल्पना। जो भी मधुर है। जो भी स्त्रैण है, जो भी सुन्दर है उस सब का जन्म तुम्हारे दायें मस्तिष्क में होता है। यह तो बायां हाथ है वह तुम्हारे भीतर स्वांतः सुखाय का प्रतीक है। इसका कोई लक्ष्य नहीं है इसकी कोई दिशा नहीं है। यह कहीं जा नहीं रहा है। यह तो इसी क्षण में आन्नद मस्त, मुग्ध, होकर जीने की कला है। संसार सदा से दायें हाथ पर जोर देता रहा है, क्योंकि दायें हाथ में उपयोगिता है।
(9) वाममार्ग का अर्थ होता है- जीवन का लक्ष्य काम नहीं, विश्राम है। जीवन का लक्ष्य धन नहीं है, ध्यान है। जीवन का लक्ष्य गणित नहीं है, काव्य है। जीवन का चरमशिखर विज्ञान से उपलब्ध नहीं होगा, धर्म से उपलब्ध होगा। वाममार्ग कहता है- प्रेम प्रार्थना है। कुछ भी छोड़ना नहीं है, क्यांेकि जो परमात्मा ने दिया है उसकी उपयोगिता है उसका उपयोग करो और सीढ़ी बनाओं। वाममार्ग का अद्भुत संदेश है- अगर तुम बुद्धिमान हो तो जहर का ऐसा उपयोग करोगें कि वह औषधि हो जाये अगर तुम बुद्धु हो तो औषधि को भी जहर बना लोगे। वाममार्ग है- जीवन का सहज स्वीकार, उत्साहपूर्ण स्वीकार ! जीवन का उसकी समग्र विधा में जीने की क्षमता साहस।
(10) अघोर का अर्थ होता है- सरल। किसी को ”घोरी“ कहो तो गाली हो सकती है घोर का अर्थ है- जटिल। अघोर का अर्थ होता है- सरल, बच्चे जैसा निर्दोष। अघोर तो सिर्फ थोड़े से बुद्धो के लिए उपयोग में लाया जा सकता है। गौतम बुद्ध-अघोरी, कृष्ण-अघोरी, क्राइस्ट-अघोरी, लोओत्सु-अघोरी। गोरख-अघोरी। सरल निर्दोष, सीधे-साधे। इतने सरल कि गणित जीवन में है ही नहीं। हिसाब किताब लगाने का भाव ही चला गया है।
(11) कृष्ण वाममार्गी है। तुम बुद्ध से ज्यादा प्रभावित हो जाते है क्योंकि वह राजमहल छोड़कर जाते है। तुम कृष्ण की अगर प्रशंसा भी करते हो तो थोड़े दबे-दबे कंठ से, थोड़े डरे-डरे, थोड़े भयभीत। अगर लोग कृष्ण की प्रशंसा भी करते है तो गीता वाले कृष्ण की करते है। पूरे कृष्ण को स्वीकार करने की हिम्मत बहुत कम लोगों की है। क्योंकि कृष्ण तो तुम्हारे जैसे मालुम पड़ते है बल्कि तुमसे भी आगे बढ़े हुये। तुम्हारा कृष्ण का स्वीकार अधुरा है। तुम कृष्ण में से बहुत सी बातें काट छांट कर डालना चाहोगे। तुम कृष्ण में संशोधन करने को सदा तत्पर हो। कृष्ण को लोग अपने-अपने हिसाब से मानते है। जितना मान सकते है उतना मान लेते है। बाकी छोड़ देते है। कृष्ण को पहचानने के लिए बड़ी गहरी आँखें चाहिए। कृष्ण को पहचानने के लिए जब तक भीतर की आँख न खुली हो। तब तक पहचानना मुश्किल है। क्योंकि वे वहीं खड़े है, भेद तो कुछ भी नहीं। उपर से भेद नहीं है भीतर से भेद है। तो जब तक भीतर देखने की क्षमता न हो, तब तक तुम कृष्ण को न समझ पाओंगे।
(12) उसके लिए सब हंसी खेल है, सब लीला है। इसलिए हमने कृष्ण को पूर्णावतार कहा। राम गम्भीर हैं छोटी-छोटी बात का हिसाब रखते है। नियम मर्यादा से चलते है- मर्यादा पुरूषोत्तम है। कृष्ण अमर्याद है न कोई नियम है न कोई मर्यादा। कृष्ण के लिए जीवन लीला है।
(13) कृष्ण का महत्व अतीत के लिए कम भविष्य के लिए ज्यादा है। सच ऐसा है कि कृष्ण अपने समय से कम से कम पाँच हजाार वर्ष पहले पैदा हुये। सभी महत्वपूर्ण व्यक्ति अपने समय से पहले पैदा होते हैं और सभी गैर महत्वपूर्ण व्यक्ति अपने समय के बाद पैदा होते हैं। बस महत्वपूर्ण और गैर महत्वपूर्ण में इतना फर्क है और सभी साधारण व्यक्ति अपने समय के साथ पैदा होते हैं महत्वपूर्ण व्यक्ति को समझना आसान नहीं होता । उसका वर्तमान और अतीत उसे समझने में असमर्थता अनुभव करता है जब हम समझने योग्य नहीं हो पाते तब हम उसकी पूजा शुरु कर देते हैं या तो हम उसका विरोध करते हैं। दोनों पूजाएं हैं एक मित्र की एक शत्रु की।
(14) राम कितने ही बड़े हों, लेकिन इस मुल्क के चित्त में वे पूर्ण अवतार की तरह नहीं हैं, अंश हैं उनका अवतार। उपनिषद् के ऋषि कितने ही बड़े ज्ञानी हों, लेकिन अवतार नहीं हैं। कृष्ण पूर्ण अवतार हैं। परमात्मा अगर पृथ्वी पर पूरा उतरे तो करीब-करीब कृष्ण जैसा होगा। इसलिए श्रीकृष्ण इस मुल्क के अधिकतम मन को छु पाये हैं; बहुत कारणों से। एक तो पूर्ण अवतार का अर्थ होता है, मल्टी-डाइमेन्सनल; जो मनुष्य के समस्त व्यक्तित्व को स्पर्श करता हो। राम वन-डाइमेन्सनल है। अब तक कृष्ण को पूरा प्रेम करने वाला आदमी नहीं हुआ। क्योंकि पूरे कृष्ण को प्रेम करना तभी सम्भव है, जब वह आदमी भी मल्टी-डाइमेन्सनल हो। हम आम तौर पर एक आयामी होते हैं। एक हमारा ट्रैक होता है व्यक्तित्व का, एक रेल की पटरी हीेती है, उस पटरी पर हम चलते है।
(15) कृष्ण का व्यक्तित्व बहुत अनूठा है अनूठेपन की पहली बात तो यह है कि कृष्ण हुए तो अतीत में लेकिन हैं भविष्य के। मनुष्य अभी भी इस योग्य नहीं हो पाया है कि कृष्ण का सम-सामयिक बन सके। अभी भी कृष्ण मनुष्य के समझ से बाहर है। भविष्य में यह सम्भव हो पायेगा कि कृष्ण को हम समझ पाये। इसके कुछ कारण हैं। सबसे बड़ा कारण यह है कि कृष्ण अकेले ही ऐसे व्यक्ति हैं जो धर्म की परम गहराइयों और ऊँचाइयों पर होकर भी गम्भीर नहीं हैं, उदास नहीं हैं, रोते हुए नहीं हैं साधारण सन्त का लक्षण रोता हुआ होना है। जिन्दगी से उदास, हारा हुआ, भागा हुआ। कृष्ण अकेले ही इस समग्र जीवन को पूरा ही स्वीकार कर लेते हैं। जीवन की समग्रता की स्वीकृति उनके व्यक्तित्व में फलित हुई है। इसलिए इस देश में और सभी अवतारों को आंशिक अवतार कहा है। कृष्ण को पूर्ण अवतार कहा गया है राम भी अंश ही हैं परमात्मा के, लेकिन कृष्ण पूरे परमात्मा हैं और यह कहने का, यह सोचने का, ऐसा समझने का कारण है। और वह कारण यह है कि कृष्ण ने सभी कुछ आत्मसात् कर लिया है। कृष्ण अकेले हैं तो शरीर को उसकी समस्त में स्वीकार कर लेते हैं, ‘टोटलिटी’ में। यह एक आयाम में नहीं सभी आयाम में सच है।
(16) कृष्ण शान्तिवादी नहीं हैं, कृष्ण युद्धवादी नहीं है। असल में वाद का मतलब ही होता है कि दो में से हम एक चुनते है। एक अन्य वादी है। कृष्ण कहते हैं, शान्ति में शुभ फलित होता हो तो स्वागत है, युद्ध में शुभ फलित होता हो तो स्वागत है। कृष्ण जैसे व्यक्तित्व की फिर जरुरत है जो कहे कि शुभ को भी लड़ना चाहिए, शुभ को भी तलवार हाथ में लेने की हिम्मत चाहिए निश्चित ही शुभ जब हाथ में तलवार लेता है, तो किसी का अशुभ नहीं होता। अशुभ हो नहीं सकता क्योंकि लड़ने के लिए कोई लड़ाई नहीं है। लेकिन अशुभ जीत न पाये इसलिए लड़ाई है तो धीरे-धीरे दो हिस्सा दुनियाँ के बट जायेंगे, जल्दी ही जहाँ एक हिस्सा भौतिकवादी होगा और एक हिस्सा स्वतंत्रता, लोकतन्त्र, व्यक्ति और जीवन के और मूल्यों के लिए होगा। लेकिन क्या ऐसे दूसरे शुभ के वर्ग को कृष्ण मिल सकते है? मिल सकते हैं। क्योंकि जब भी मनुष्य की स्थितियाँ इस जगह आ जाती है। जहाँ कि कुछ निर्णायक घटना घटने को होती है, तो हमारी स्थितियाँ उस चेतना को भी पुकार लेती हैं, उस चेतना को भी जन्म दे देती है वह व्यक्ति भी जन्म जाता है। इसलिए मैं कहता हूँ कि कृष्ण का भविष्य के लिए बहुत अर्थ है।
(17) मेरे लिए सन्यास की कोई मर्यादा नहीं, कोई बन्धन नहीं मेरे लिए सन्यास का कोई नियम नहीं, कोई अनुशासन नहीं। मेरे लिए सन्यास कोई डिसिप्लिन नहीं है मेरे लिए सन्यास व्यक्ति के परम विवेक में स्वतन्त्रता की उद्भावना है उस व्यक्ति को मैं सन्यासी कहता हूँ जो परम स्वतन्त्रता में जीने का साहस करता है। न ही कोई बन्धन ओढ़ता है, न ही कोई व्यवस्था, न ही कोई अनुशासन ओढ़ता है। सन्यासी का मेरे लिए यहीं अर्थ है। जीवन की सघनता में खड़े होकर अगर कोई सन्यास के फूल खिलाना चाहता है तो एक ही अर्थ हो सकता है कि वह कर्ता न रह जाय, भोक्ता न रह जाय अभिनेता हो जाय, साक्षी हो जाय। देखें, करे लेकिन कहीं भी बहुत गहरे में बधंे नहीं सन्यास सदा ही सावधिक है। आप कभी भी वापस लौट सकते है, कौन बाधा डालने वाला है? सन्यास आप ने लिया था, सन्यास आप छोड़ दे। आप के अतिरिक्त इसमें और कोई निर्णायक नहीं है। कम से कम सन्यासी सिर्फ धर्म का होना चाहिए। वह जैन न हो, ईसाई न हो, हिन्दू न हो। वह तो सिर्फ धर्म का हो। साथ ही ध्यान रहे, अब तक सन्यास सदा ही गुरु से बँधा रहा है- कोई गुरु दीक्षा देता है। सन्यास ऐसी चीज नहीं है जिसे कोई दे सके। सन्यास ऐसी चीज है जो लेनी पड़ती है, देता कोई नहीं या कहना चाहिए कि परमात्मा के सिवा कौन दे सकता है सन्यास?“
(18) रास का जो अर्थ है, वह सृष्टि की जो धारा है, उस धारा का ही गहरे- से -गहरा सूचक है। जीवन दो विरोधियों के बीच का खेल है। ये विरोधी लड़ भी सकते है, तब युद्ध हो जाता है। ये विरोधी मिल भी सकते है, तब प्रेम हो जाता है लेकिन लड़ना हो कि मिलना हो, दो की अनिवार्यता है। सृजन दो के बिना मुश्किल है । हम कृष्ण को गोपियों के साथ नाचते हुए देखते हैं। यह हमारी स्थूल आँखे जो देख सकती है, उतना ही दिखाई पड़ रहा है लेकिन कृष्ण का गोपियों के साथ नाचना साधारण नृत्य नहीं है। कृष्ण का गोपियों के साथ नाचना उस विराट रास का छोटा सा नाटक है जो समस्त में चल रहा है। नृत्य उसकी एक बहुत छोटी सी झलक है। उस रास का कोई कामुक अर्थ नहीं रह गया। कृष्ण, कृष्ण की तरह वहाँ नहीं नाचते कृष्ण वहाँ पुरुष तत्व की तरह नाचते है। गोपिकाएँ स्त्रियों की तरह वहाँ नाचती है, गहरे में वे प्रकृति ही हो जाती हैं। प्रकृति और पुरुष का नृत्य है वह। वहाँ व्यक्तियों से कोई लेना-देना नहीं है। ‘इन्डिविजुअल’ का कोई मतलब नहीं है, इसलिए यह भी सम्भव हो पाया कि एक कृष्ण बहुत गोपियों के साथ नाच सका। अन्यथा एक व्यक्ति बहुत स्त्रियों के साथ नाच नहीं सकता हैै। एक व्यक्ति बहुत स्त्रियों के साथ प्रेम का खेल नहीं खेल सकता है। और प्रत्येक गोपी को ऐसा दिखाई पड़ सका कि कृष्ण उसके साथ भी नाच रहा है। निश्चित ही- इसे हम व्यक्तिवाची मानेंगे तो कठिनाई में पड़ेंगे। विराट प्रकृति और विराट पुरुष के सम्मिलन का वह नृत्य निकटतम है। अद्वैत के नृत्य निकटतम है उत्सव के। नृत्य निकटतम है रहस्य के। यह जो नृत्य चल रहा है चाँद के नीचे, आकाश के नीचे, इस नृत्य को साधारण नृत्य मैं नहीं कहता हूँ इसलिए यह किसी के मनोरंजन के लिए नहीं हो रहा है, किसी को दिखाने के लिए नहीं हो रहा है। कहना चाहिए एक अर्थों में ‘ओवर फ्लोइंग’ है इतना आनन्द भीतर भरा है कि वह सब तरफ बह रहा है।
(19) जिसने बिना धैर्य के ध्यान किया, वह राजसी है जिसने बिना ध्यान के धैर्य रखा वह तामसी है और जिसने धैर्य और ध्यान का सन्तुलन बना लिया, वह सात्विक है। तब तुम्हें कृष्ण का सुख समझ में आ जायेगा की वह सत्व का क्या अर्थ है। धैर्य ऐसा, जैसे आलसी पुरुषों में होता है उन्हें कुछ पाने की जल्दी नहीं होती। पाने का ख्याल ही नहीं होता, कोई दौड़ ही नहीं होती। वे बैठे हैं, मिट्टी के ढेर है, कोई जीवन नहीं है, कोई उर्जा नहीं है, कोई गति नहीं है। फिर राजसी पुरुष हैं उनमें दौड़ तो बहुत होती है, रुकने की क्षमता नहीं होती ठहर नहीं सकते, प्रतीक्षा नहीं कर सकते, भाग सकते हैं जब कभी राजसी व्यक्ति जैसी उर्जा और आलसी जैसा धैर्य होता है तब ध्यान और धैर्य का संगम होता है। तब सोने में सुगन्ध आ जाती है तब सत्व का जन्म है। जीवन एक कला है वहाँ विपरीत को मिलाने की क्षमता होनी चाहिए।
(20) धर्म कोई विषय थोड़े ही है। धर्म की कोई सीमा थोड़े ही है। धर्म तो समस्त जीवन का नाम है। जीवन में जो कुछ भी समाविष्ट है, धर्म उस सभी के सम्बन्ध में वक्तव्य देने का हकदार है। राजनीतिज्ञ धर्म के सम्बन्ध में वक्तव्य नहीं दे सकता, क्योंकि राजनीति की सीमा है। लेकिन धार्मिक व्यक्ति राजनीति के सम्बन्ध में वक्तव्य दे सकता है। क्योंकि धर्म की कोई सीमा नही है धर्म असीम है धर्म तो पूरे जीवन को घेरता है जैसे आकाश घेरता है। धर्म से तो कोई भी चीज छोड़ी नहीं जा सकती। धार्मिक व्यक्ति की दृश्टि तो सब सम्बन्धों में होगी।
(21) भारत ने एक राजनीति तय कर ली- धर्म निरक्षेपता की इसका परिणाम धर्म पर होने वाला है। यह बात गलत है। कोई राष्ट्र धर्मनिरपेक्ष नहीं होना चाहिए। हाँ किसी विशिष्ट सम्प्रदाय का प्रभुत्व न हो यह ठीक है, लेकिन धर्मनिरपेक्ष तो कोई राज्य कैसे हो सकता है? हिन्दू न हो, मुसलमान न हो, यह ठीक है। होना ही नहीं चाहिए हिन्दू और मुसलमान। लेकिन यह अति है कि राष्ट्र हिन्दू हो जाता है, कि मुसलमान हो जाता है, दूसरी अति है कि राज्य अधार्मिक हो जाता है कि हमें धर्म से कुछ लेना देना नहीं है। आदमी के प्राण का इतना बहुमुल्य हिस्सा और तुम कहोगे हमें उससे कुछ लेना देना नहीं है! उसके घातक परिणाम होगें। राज्य को धर्म के तरफ सुविधा बनानी ही होगी। राज्य को धार्मिक नहीं होने की जरूरत है। हिन्दू, मूसलमान के अर्थ में, मगर होने की जरूरत है इस अर्थ में कि देश में ध्यान बढ़े, प्रेम बढ़े, शान्ति बढ़े। लोगों के जीवन में योग उतरे। लोगों के जीवन में एक अंतरंग अनुशासन जन्में और लोगों के भीतर आत्मा पैदा हो।
(22) यह जमाना बुरा आया है। अब तो एक ही उपाय है कि जो तुम्हारे हृदय में हो उसको तुम्हारे आचरण में बहने दो। अब वे दिन गये जब सूक्ष्म में जीते थे। अब तो स्थूल में बताना होगा। यह स्थूल युग आया। लोग शरीर को मानते हैं, आत्मा को तो मानते ही कहाँ? लोग संसार को मानते है, परमात्मा को मानते ही कहाँ? लोग पत्थर को मानते है, प्रेम को मानते ही कहाँ? यहाँ तो लोग जिसका दर्शन हो सके, स्पर्श हो सके, इंद्रियों से पकड़ में आ सके, उसको मानते है। तो अब तुम्हें धर्म को भी इस तरह लाना होगा। इसलिए अब हृदय में रखने की बात नहीं है इसे अपने हाथ में लाना होगा। बुद्ध ने करूणा बरसाई, मगर वह हृदय की थी, अस्पताल नहीं खोले, नही तो हाथ की हो जाती। बीमारों के हाथ पैर नहीं दबाये, नहीं तो हाथ की हो जाती। अगर इस दुनिया में ईसाइयत का प्रभाव बढ़ता जाता है तो इसका और कुछ कारण नहीं है, उसका कारण है कि ईसाइयत के पास स्थूल की पकड़ है और जो पुराने धर्म है- हिन्दू हंै, जैन हंै, बौद्व हंै, इनकी पकड़ अभी स्थूल पर नहीं है। इसकी पकड़ अभी सूक्ष्म पर है। ये पुराने दिनों की बात कर रहें हैं। ये सतयुग की बाते कर रहें है। अब जमाना और है जो चीज तुल सकती है तराजू पर, वही मानी जायेगी। हिन्दू बहुत परेशान रहते है कि लोग ईसाई क्यों बनाये जा रहें है, लोगों को रिश्वत दी जा रही है, लोगों को ईसाई बनाया जा रहा है। यह सब बकवास है। कोई किसी को जबरदस्ती ईसाई नहीं बना रहा है लेकिन ईसाइयत इस युग के बड़े अनुकूल मालूम पड़ती है गरीब को लगता है कि कुछ सहारा मिला। ईसाई मिशनरी आता है, वह पहले भोजन की ही बात करता है। ध्यान की तो वह कभी बात करता ही नहीं, वहाँ सिर्फ भोजन है। अस्पताल खोल देता है। स्कूल खोल देता है। लोगों को लगता है कि यह बात ठीक है, यह धर्म की बात हो रही है। आज दुनिया में एक तिहाई ईसाई है। सारे धर्मो पर छाती चली गयी है। उसका कुछ कारण इतना है कि देश के धर्म सतयुग की भाषा ही बोले चले जाते है। अभी भी हम कहते हैं कि साधु की सेवा करो और ईसाई कहता है कि साधु वह जो सेवा करें। इन दोनों का फर्क समझ लो।
(23) यह पूरा देश भाग्य के भोरोसे पर मर गया, इस पूरे देश पर आलस्य छा गया है, यह पूरा देश काहिल और सुस्त हो गया है, और इसमें अपनी काहिली और सुस्ती को बड़ा आध्यात्मिक रंग दिया कि भाग्य में जो होगा सो होगी। तो गरीबी है। भिखमंगी है तो भिखमंगी, गुलामी है तो गुलामी। भाग्य से सब कुछ होगा। उसकी जब इच्छा होगी तो सब ठीक हो जायेगा, हमें तो घिसटना है। इस देश का दुःख है कि हमने यह सूत्र पकड़ लिया आलस्य का, हम पड़े रह गये। पश्चिम की पीड़ा यह है कि उन्होंने सक्रियता पकड़ ली, इतनी ज्यादा पकड़ ली कि अब ये रात सोये कैसे, यह भी भूल गये। पश्चिम पागल हुआ जा रहा है। अतिसक्रियता के कारण। और पूर्व दीन-दरिद्र हो गया अति निष्क्रियता के कारण।
(24) उपाधियाँ मिलती है- पीएच0 डी0, डी0 लिट0 और डी0 फिल0। और उनका बड़ा सम्मान होता है। उनका काम क्या है? उनका काम यह है कि वे तय करते हैं कि गोरखनाथ कब पैदा हुए थे। कोई कहता है दसवीं सदी के अंत में, कोई कहता है ग्यारहवीं सदी के प्रारम्भ में। इस पर बड़ा विवाद चलता है। बड़े-बड़ विश्वविद्यालयों के ज्ञानी सिर खपा कर खोज में लगे रहते है। शास्त्रो की, प्रमाणों की, इसकी, उसकी। उनकी पूरी जिन्दगी इसी में जाती है। इससे बड़ा अज्ञान और क्या होगा? गोरख कब पैदा हुए, इसे जानकर करोगे क्या? इसे जान भी लिया तो पाओगे क्या? गोरख न भी पैदा हुए, यह भी सिद्ध हो जाये, तो भी क्या फायदा? हुए हों या न हुए हों, अर्थहीन है। गोरख ने क्या जिया उसका स्वाद लो। इसलिए तुम्हारे विश्वविद्यालय ऐसी व्यर्थता के कामों में संलग्न है कि बड़ा आश्चर्य होता है कि इन्हें विश्वविद्यालय कहो या न कहो। इनका काम ही........तुम्हारे विश्वविद्यालय में चलने वाली जितनी शोध है, सब कूड़ा-करकट है।
(25) दुनिया में दो तरह की शिक्षायें होनी चाहिए, अभी एक ही तरह की शिक्षा है। और इसलिए दुनिया में बड़ा अधुरापन है। बच्चों को हम स्कूल भेजते है, कालेज भेजते है, युनिवर्सिटी भेजते है, मगर एक ही तरह की शिक्षा वहाँ- कैसे जियो? कैसे आजिविका अर्जन करेें? कैसे धन कमाओं? कैसे पद प्रतिष्ठा पाओं। जीवन के आयोजन सिखाते हैं जीवन की कुशलता सिखाते है। दूसरी इससे भी महत्वपूर्ण शिक्षा वह है- कैसे मरो? कैसे मृत्यु के साथ आलिंगन करो? कैसे मृत्यु में प्रवेश करो? वह शिक्षा पृथ्वी से बिल्कुल खो गयी। ऐसा अतीत में नहीं था। अतीत में दोनों शिक्षाएं उपलब्ध थीं। इसलिए जीवन को हमने चार हिस्सों में बाँटा था। पच्चीस वर्ष तक विद्यार्थी का जीवन, ब्रह्मचर्य का जीवन। गुरू के पास बैठना। जीवन कैसे जीना है, इसकी तैयारी करनी है। जीवन की शैली सीखनी है। फिर पच्चीस वर्ष तक गृहस्थ का जीवन: जो गुरू के चरणों में बैठकर सिखा है उसका प्रयोग, उसका व्यावहारिक प्रयोग। फिर जब तुम पचास वर्ष के होने लगो तो तुम्हारे बच्चे पच्चीस वर्ष के करीब होने लगेगें। उनके गुरू के गृह से लौटने के दिन करीब होने लगेगें। अब उनके दिन आ गये कि वे जीवन को जिये। फिर भी पिता और बच्चे पैदा करते चला जाये तो यह अशोभन समझा जाता था। यह अशोभन है। अब बच्चे, बच्चे पैदा करेंगे। अब तुम इन खिलौनों से उपर उठो। तो पच्चीस वर्ष वानप्रस्थ। जंगल की तरफ मुँह- इसका अर्थ होता है कि अभी जंगल गये नहीं, अभी घर छोड़ा नहीं लेकिन घर की तरफ पीठ जंगल की तरफ मुँह। ताकि तुम्हारे बेटों को तुम्हारी सलाह की जरूरत पड़े तो पूछ लें। अपनी तरफ से सलाह मत देना। वानप्रस्थी स्वयं सलाह नहीं देता। फिर पचहत्तर वर्ष के जब तुम हो जाओंगे, तो सब छोड़कर जंगल चले जाना। वे शेष अंतिम पंचीस वर्ष मृत्यु की तैयारी थे। उसी का नाम सन्यास था। पचीस वर्ष जीवन के प्रारम्भ में जीवन की तैयारी, और जीवन के अंत में पच्चीस वर्ष मृत्यु की तैयारी।
(26) आज भारत गरीब है। भारत अपनी ही चेष्टा से इस गरीबी से बाहर नहीं निकल सकेगा, कोई उपाय नहीं है। भारत गरीबी के बाहर निकल सकता हैं, अगर सारी मनुष्यता का सहयोग मिले। क्योंकि मनुष्यता के पास इस तरह के तकनीक, इस तरह का विज्ञान मौजूद है कि इस देश की गरीबी मिट जाये। लेकिन तुम अकड़े रहे कि हम अपनी गरीबी खुद ही मिटायेगें, तो तुम हीं तो गरीबी बनाने वाले हो, तुम मिटाओंगे कैसे? तुम्हारी बुद्धि इसकी भीतर आधार है, तुम इसे मिटाओंगे कैसे? तुम्हें अपने द्वार-दरवाजे खोलने होगें। तुम्हें अपना मस्तिष्क थोड़ा विस्तार करना होगा। तुम्हे मनुष्यता का सहयोग लेना होगा। और ऐसा नहीं कि तुम्हारे पास कुछ देने को नहीं है। तुम्हारे पास कुछ देने को है दुनिया को। तुम दुनिया को ध्यान दे सकते हो। अगर अमेरिका को ध्यान खोजना है तो अपने बलबूते नहीं खोज सकेगा अमेरिका। उसे भारत की तरफ नजर उठानी पड़ेगी। मगर वे समझदार लोग हैं। ध्यान सीखने पूरब चले आते हैं। कोई अड़चन नहीं है उन्हें बाधा नहीं है। बुद्धिमानी का लक्षण यहीं है कि जो जहाँ से मिल सकता हो ले लिया जाये। यह सारी पृथ्वी हमारी हैं। सारी मनुष्यता इकट्ठी होकर अगर उपाय करे तो कोई भी समस्या पृथ्वी पर बचने का कोई भी कारण नहीं है।
(27) जब कोई देश गरीब होता है तब वहाँ कम्युनिज्म उठता है, धर्म नहीं। तब लोग मारने-मरने की उतारू हो जाते हैं। तब घिराव होता है, हड़तालें होती है, दंगे-फसाद होते है, हत्यायें-हिंसाए होती है। तब भजन नहीं उठता। भूखा अदमी हिंसा कर सकता है, प्रेम नहीं। भूखा आदमी क्रुद्ध होता है। भूखा आदमी करूणावान नहीं हो सकता है। इसलिए मैं तुमसे कहता हँू यह देश ज्यादा दिन गरीब रह गया- जैसा कि इस देश के नेताओं ने तय कर रखा है कि गरीबी रहे- तो इस देश में सिवाय कम्युनिज्म के और कोई सम्भावना न रह जायेगी। जाने-अनजाने यह देश कम्युनिज्म की तरफ ले जाया जा रहा है। ले जाने वाले शायद इस बात से परिचित भी न हो, होश भी न हो उन्हें, शायद वे तो यही कोशिश करते है कि देश कम्युनिस्ट न हो जाये, मगर तुम्हारे कोशिशो का सवाल नहीं है, अगर देश गरीब रहता है तो कम्युनिज्म के सिवाय कुछ और नहीं हो सकता। भजन नहीं पैदा हो सकता।
(28) मैं इस देश को फिर से युवा करना चाहता हूँ। लेकिन बुढ़े नाराज है। बहुत नाराज हैं। पंण्डित, पुरोहित, पुरातनवादी बहुत नाराज है। उन्हें लगता है, मैं धर्म भ्रष्ट कर रहा हँू। उन्हें पता ही नहीं। उन्हें अपने संस्कृति का भी पता नहीं।
(29) इस देश को कुछ बाते समझनी होगी। एक तो इस देश को यह बात समझनी होगी कि तुम्हारी परेशानियों, तुम्हारी गरीबी, तुम्हारी मुसीबतों, तुम्हारी दीनता के बहुत कुछ कारण तुम्हारे अंध विश्वासों में है, कम से कम डेढ़ हजार साल पिछे घिसट रहा है। ये डेढ़ हजार साल पूरे होने जरूरी है। भारत को खिचकर आधुनिक बनाना जरूरी है। मेरी उत्सुकता है कि इस देश का सौभाग्य खुले, यह देश भी खुशहाल हो, यह देश भी समृद्ध हो। क्योंकि समृद्ध हो यह देश तो फिर राम की धुन गुंजे, समृद्ध हो यह देश तो फिर लोग गीत गाँये, प्रभु की प्रार्थना करें। समृद्ध हो यह देश तो मंदिर की घंटिया फिर बजे, पूजा के थाल फिर सजे। समृद्ध हो यह देश तो फिर बाँसुरी बजे कृष्ण की, फिर रास रचे! यह दीन दरिद्र देश, अभी तुम इसमें कृष्ण को भी ले आओंगे तो राधा कहाँ पाओगे नाचनेवाली? अभी तुम कृष्ण को भी ले आओगें, तो कृष्ण बड़ी मुश्किल में पड़ जायेगें, माखन कहाँ चुरायेगें? माखन है कहाँ? दूध दही की मटकिया कैसे तोड़ोगे? दूध दही की कहाँ, पानी तक की मटकिया मुश्किल है। नलो पर इतनी भीड़ है! और एक आध गोपी की मटकी फोड़ दी, जो नल से पानी भरकर लौट रही थी, तो पुलिस में रिपोर्ट दर्ज करा देगी कृष्ण की, तीन बजे रात से पानी भरने खड़ी थी नौ बजते बजते पानी भर पायी और इन सज्जन ने कंकड़ी मार दी। धर्म का जन्म होता है जब देश समृद्ध होता है। धर्म समृद्ध की सुवास है। तो मैं जरूर चाहता हँू यह देश सौभाग्य शाली हो लेकिन सबसे बड़ी अड़चन इसी देश की मान्यताएं है। इसलिए मैं तुमसे लड़ रहा हँू। तुम्हारे लिए।
(30) मनुष्य जाति की अस्सी प्रतिशत क्षमता युद्व में चली जाती है। यही अस्सी प्रतिशत क्षमता खेतो में लगे, कारखानों में लगें, यह पृथ्वी स्वर्ग हो जायेगी। जो सपना तुम्हारे ऋषि-महर्षि देखते थे- आकाश में स्वर्ग का, वह अब पृथ्वी पर बन सकता है, कोई रूकावट नहीं। लेकिन पुरानी आदतंे। यह हमारा देश, वह उनका देश। हमें भी लड़ना है। गरीब से गरीब देश भी अणुबम बनाने की चेष्टा में संलग्न है। भूखे मर रहे, मगर अणुबम बनाना है। भारत देश जैसे देश के पीछे भी यही भाव है। भूखे मर जाये, मगर अपनी शान रखनी है।
(31) इन आने वाले पच्चीस वर्षो में बड़ी निर्णायक घड़ी है। या तो आदमी नष्ट होगा और यह पृथ्वी आदमी से शून्य हो जायेगी, या फिर एक नये आदमी का जन्म होगा- एक नयी सुबह! लेकिन ये जो छोटे-छोटे चिराग जले है, इन्हीं से आशा बनी है।
स्व0 लाल बहादुर शास्त्री जी की वाणी
शास्त्री जी ने ”जय जवन, जय किसान“ का नारा दिया था। शास्त्री जीे के प्रेरणा से फिल्म अभिनेता व निर्माता मनोज कुमार नेे कई देश भक्ति पर आधारित फिल्में बनाईं। उनके लिए स्वभाषा राजनीति का मुद्दा नहीं बल्कि अपने स्वाभिमान का प्रश्न और लाखों-करोड़ों को हीन ग्रन्थि से उबरकर आत्मविश्वास से भर देने का स्वप्न था- ”मैं चाहूँगा कि हिन्दुस्तान के साधारण लोग अपने अंग्रेजी के अज्ञान पर लजाएँ नहीं, बल्कि गर्व करें। इस सामंती भाषा को उन्हीं के लिए छोड़ दें जिनके माँ-बाप अगर शरीर से नही ंतो आत्मा से अंग्रेज रहें हैं।“
पं0 जवाहर लाल नेहरू की वाणी
यदि हम संसार का मार्ग ग्रहण करेंगे और संसार को और अधिक विभाजित करेंगे तो शान्ति, सहिष्णुता और स्वतन्त्रता के अपने उद्देश्य में सफल नहीं हो सकते। यदि हम इस युद्ध- विक्षिप्त दुनियाँ को शान्ति और सत्य का प्रकाश दिखाएँ तो सम्भव है कि हम संसार में कोई अच्छा परिवर्तन कर सकें। लोकतन्त्र से मेरा मतलब समस्याओं को शान्तिपूर्वक हल करने से है। अगर हम समस्याओं को शान्तिपूर्वक हल नहीं कर पाते तो इसका मतलब है कि लोकतन्त्र को अपनाने में हम असफल रहें हैं।
राम मनोहर लोहिया की वाणी
हालांकि लोहिया भी जर्मनी यानी विदेश से पढ़ाई कर के आये थे, लेकिन उन्हें उन प्रतीकों का अहसास था जिनसे इस देश की पहचान है। शिवरात्रि पर चित्रकूट में ”रामायण मेला“ उन्हीं की संकल्पना थी, जो सौभाग्य से अभी तक अनवरत चला आ रहा है। आज भी चित्रकूट के उस मेले में हजारों भूखे-नगें-निर्धन भारतवासीयों की भीड़ स्वयंमेव जुटती है तो लगता है कि ये ही हैं जिनकी चिंता लोहिया को थी, लेकिन आज इनकी चिंता करने के लिए लोहिया के लोग कहाँ है? लोहिया ही थे जो राजनीति की गंदी गली में शुद्ध आचरण की बात करते थे। वे एकमात्र ऐसे राजनेता थे जिन्होंने अपनी पार्टी की सरकार से खुलेआम त्यागपत्र की माँग की, क्योंकि उस सरकार के शासन में आन्दोलनकारियों पर गोली चलाई गई थी। ध्यान रहे स्वाधीन भारत में किसी राज्य में यह पहली गैर कांग्रेसी सरकार थी- ”हिन्दुस्तान की राजनीति में तब सफाई और भलाई आएगी जब किसी पार्टी के खराब काम की निन्दा उसी पार्टी के लोग करें। और मैं यह याद दिला दूँ कि मुझे यह कहने का हक है कि हम ही हिन्दुस्तान में एक राजनीतिक पार्टी हैं जिन्होेंने अपनी सरकार की भी निन्दा की थी और सिर्फ निन्दा ही नहीं बल्कि एक मायने में उसको इतना तंग किया कि उसे हट जाना पड़ा।“ गाँधी जी के साथ एक सप्ताह रहकर लोहिया ने गाँधी जी को वाइसराय के नाम पत्र लिखने के लिए प्रेरित किया। जिसमें गाँधी जी ने लिखा कि- ”अहिंसानिष्ठ सोशलिस्ट डाॅ0 लोहिया ने भारतीय शहरों को बिना पुलिस व फौज के शहर घोषित करने की कल्पना निकाली है।“ लोहिया जी के द्वारा दुनिया की सभी सरकारों को नई दुनिया की बुनियाद बनाने की योजना की कल्पना गाँधी जी के सामने रखी गई, जिसमें एक देश की दूसरे देश में जो पूँजी लगी है उसे जब्त करना, सभी लोगों को संसार में कहीं भी आने-जाने व बसने का अधिकार देना, दुनिया के सभी राष्ट्रों को राजनैतिक आजादी तथा विश्व नागरिकता की बात कही गई थी। गाँधी जी ने इसे ”हरिजन“ में छापा और अपनी ओर से समर्थन भी किया तथा अंग्रेजों के खिलाफ जल्दी लड़ाई छेड़ने को लेकर गाँधी जी ने दस दिन रूकने के लिए लोहिया को कहा। दस दिन बाद 7 अगस्त, 1942 को गाँधी जी ने तीन घंटे तक भाषण देकर कहा, कि ”हम अपनी आजादी लड़कर प्राप्त करेंगे।“ अगले दिन 8 अगस्त, 1942 को ”भारत छोड़ो“ प्रस्ताव बम्बई (वर्तमान में मुम्बई) में बहुमत से स्वीकृत हुआ। गाँधी जी ने ”करो या मरो“ का सन्देश दिया।
दीनदयाल उपाध्याय के विचार
”स्वराज्य“ और ”एकात्म मानवतावाद“ के उद्घोषक जिन्होंने ”स्व“ के तन्त्रों पर आधारित होकर भारत के निर्माण का सपना देखा था। इनकी दिशा से शेष कार्य यह है कि ”स्व“ के वैश्विक, ब्रह्माण्डीय, सार्वभौम रुप को व्यक्त करें तभी ”स्वराज्य“, ”एकात्म मानवतावाद“, ”स्वदेशी“, ”स्वतन्त्र“ का स्वस्थ स्वरुप स्थापित हो सकेगा अन्यथा नहीं। इनके मुख्य विचार निम्नवत् हैं-
1- मनुष्य पशु नहीं है केवल पेट भर जाने से वह सुखी और संतुष्ट हो जायेगा। उसकी जीवन यात्रा ”पेट“ से आगे ”परमात्मा“ तक जाती है। उसके मन उसकी बुद्धि और उसकी आत्मा का भी कुछ तकाजा है। इस तकाजे को ध्यान में रखे बिना बनाई गई प्रत्येक व्यवस्था अल्पकालिक ही नही घातक भी होगी।
2- पूंजीवादी और समाजवादी व्यवस्था परस्पर प्रेम और ममता पर नहीं, स्वार्थ, लोभ और कुतर्क पर आधारित विखण्डित व्यवस्थायें है। इनमें एकात्मता और परस्पर पूरकता नहीं प्रतिद्वन्द्विता शोषक वृत्तियों की प्रबलता और प्रभाव है।
3- कम्युनिस्टो के नारे ”कमाने वाला खायेगा“ - यह नारा यद्यपि कम्युनिस्ट लगाते है। किन्तु पुंजीवादी भी इस नारे के मूल में निहित सिद्वान्त से असहमत नहीं हैं। यदि दोनों में झगड़ा है तो केवल इस बात का कि कौन कितना कमाता है, कौन कितना कमा सकता है। पूंजीवादी साहस और पूंजी को महत्व देते है तो कम्युनिस्ट श्रम को। पूंजीवादी स्वयं के लिए अधिक हिस्सा माँगते है और कम्युनिस्ट अपने लिए। यह नारा अनुचित, अन्यायपूर्ण और समाजघाती है। हमारा नारा होना चाहिए- ”कमाने वाला खिलायेगा और जो जन्मा है वह खायेगा।“ खाने का अधिकार जन्म से प्राप्त होता है कमाने की पात्रता शिक्षा से आती है। यदि केवल कमाने वाला ही खायेगा तो बच्चो, बूढ़ो, रोगियों और अपाहिजो का क्या होगा? ”कमाने वाला खायेगा“ का दृष्टिकोण आसुरी और ”कमाने वाला खिलायेगा“ का विचार मानवीय है।
4- समाजिकता और संस्कृति का मापदण्ड समाज में कमाने वाला द्वारा अपने कत्र्तव्य के निर्वाह की तत्परता है। अर्थव्यवस्था का कार्य इस कत्र्तव्य के निर्वाह की क्षमता पैदा करना है। मात्र धन कमाने के साधन तथा तरीके बताना-पढ़ाना ही अर्थव्यवस्था का कार्य नहीं है। यह मानवता बढ़ाना भी उसका काम है। कि कत्र्तव्य भावना के साथ कमाने वाला खिलाये भी। यहाँ यह स्पष्ट समझ लिया जाना चाहिए कि वह कार्य और दायित्व की भावना से करें कि दान देने या चंदा देने की भावना से।
5- पूंजीवादी व्यवस्था ने केवल अर्थपरायण मानव का विचार किया तथा अन्य क्षेत्रों से उसे स्वतन्त्र छोड़ दिया तो समाजवादी व्यवस्था केवल ”जाति वाचक मानव“ का ही विचार करती है। उसमें व्यक्ति की रूचि, प्रकृति गुणो की विविधता और उसके आधार पर विकास करने के लिए कोई स्थान नहीं है इन दोनों अवस्थाओं-व्यवस्थाओं में मनुष्य के सत्य और उसकी पूर्णता को नहीं समझा गया। एक व्यवस्था उसे स्वार्थी, अर्थपरायण, संघर्शशील, प्रतिस्पर्धी, प्रतिद्वन्दी और मात्स्यन्याय प्रवण प्राणी मानती है तो दूसरी उसे व्यवस्थाओं और परिस्थितियों का दास बेचारा और नास्तिक- अनास्थामय प्राणी। शाक्तियों का केन्द्रिकरण दोनों व्यवस्थाओं में अभिप्रेत है। अतएव पूंजीवादी एवम् समाजवादी दोनो ही अमानवीय व्यवस्थाएँ हैं।
6- धन का अभाव मनुष्य को निष्करूण और क्रूर बना देता है। तो धन का प्रभाव उसे शोषक सामाजिक दायित्व निरपेक्ष, दम्भी और दमनकारी।
7- भारत और विश्व की समस्याओं का समाधान और प्रश्नों का उत्तर विदेशी राजनीतिक नारों या वादो (समाजवादी, पूंजीवादी आदि) में नहीं अपितु स्वयं भारत के सनातन विचार परम्परा में से उपजे हिन्दूत्व अर्थात भारतीय जीवन दर्शन में है। केवल यही एक ऐसा जीवन दर्शन है जो मनुष्य जीवन का विचार करते समय उसे टुकड़ों में नही बाँटता उसके सम्पूर्ण जीवन को इकाई मानकर उसका विचार करता है।
8-यह समझना भारी भूल होगी कि हिन्दूत्व वर्तमान वैज्ञानिक उन्नति का विरोधी है। आधुनिक विज्ञान और प्रौद्योगिक का प्रयोग इस पद्धति से होना चाहिए कि वे हमारे सामाजिक और सांस्कृतिक जीवन पद्धति के प्रतिकूल नहीं, अनुकूल हो। हमारा राष्ट्रीय लक्ष्य धर्मराज्य, जिसे गाँधी जी रामराज्य कहा करते थे, लोकतन्त्र, सामाजिक समरसता और राजनीतिक आर्थिक शाक्तियों के विकेन्द्रियकरण का होना चाहिए। आप इसे हिन्दूत्ववाद, मानवता अथवा अन्य कोई भी नया ”वाद“ या किसी भी नाम से पुकारें किन्तु केवल यही ही भारत की आत्मा के अनुकूल होगा। यही देशवासियों में नवीन उत्साह संचारित कर सकेगा। विनाश और विभ्रन्ति के चैराहे पर खड़े विश्व के लिए भी यह मार्गदर्शक का काम करेगा।
9- यदि धर्म का आधार त्याग दिया जाय तो अर्थ का अनर्थ हो सकता है। और धर्म उसमें जोड़ दिया जायेगा तो ”अर्थ“ हमारे ”काम“ की प्राप्ति का भी साधन बन जायेगा। धर्म और अर्थ दोनों एक दुसरे के पोषक और पूरक हो सकता है।
10- अपने ”स्व“ को विस्मृत करेगें तो हम पुनः परतन्त्र हो जायेगें। स्वदेशी को भावात्मक रूप से समझ कर उसे ही हमें अर्थ सृजन का आधार एवम् अवलम्ब बनाना चाहिए।
11- ग्रामों और वनांचलो में वास करने वाले मैले-कुचैले, अनपढ़ और पिछड़े बन्धु हमारे देवता है। हमें इनकी सेवा करनी है। यह हमारा सामाजिक दायित्व अर्थात धर्म है। जिस दिन हम इनके लिए अच्छे सुविधाजनक घर बनाकर देगें, जिस दिन इनके बच्चों और स्त्रियों को जीवन दर्शन का ज्ञान देंगें जिस दिन हम इनके हाथ और पाँव के विवाइयों को भरेंगें और जिस दिन इनको उद्योग धन्धों की शिक्षा देकर इनकी आय को ऊचाँ उठा देगें उसी दिन हमारा मातृ भाव व्यक्त होगा। आर्थिक योजनाओं तथा आर्थिक प्रगति की माप समाज की उपर की पीढ़ी पर पहुँचे व्यक्ति से नहीं बल्कि सबसे नीचे की सीढ़ी पर विद्यमान व्यक्ति से होगी। ग्रामों में जहाँ समय अचल खड़ा है जहाँ माता और पिता अपने बच्चों के भविष्य को बनाने में असमर्थ है, वहाँ जब तक हम आशा और पुरूषार्थ का संदेश नहीं पहुँचायेगें तब तक राष्ट्र का चैतन्य जागृत नहीं होगा।
जेपी का ”सम्पूर्ण क्रान्ति“
पटना के गाँधी मैदान पर लगभग 5 लाख लोगों के अतिउत्साही भीड़ भरी सभा में देश की गिरती हालत, प्रशासनिक भ्रष्टाचार, महंगाई, अनुपयोगी शिक्षा पद्धति और प्रधानमंत्री द्वारा अपने ऊपर लगाये गए आरोपों का सविस्तार उत्तर देते हुए 5 जून, 1975 की विशाल सभा में जे.पी. ने घोषणा की- ”भ्रष्टाचार मिटाना, बेरोजगारी दूर करना, शिक्षा में क्रान्ति लाना आदि ऐसी चीजें हैं जो आज की व्यवस्था से पूरी नहीं हो सकती, क्योंकि वे इस व्यवस्था की ही उपज हैं। वे तभी पूरी हो सकती है जब सम्पूर्ण व्यवस्था बदल दी जाए। और, सम्पूर्ण व्यवस्था परिवर्तन के लिए क्रान्ति-सम्पूर्ण क्रान्ति आवश्यक है। यह क्रान्ति है मित्रों और सम्पूर्ण क्रान्ति है। विधान सभा का विघटन मात्र इसका उद्देश्य नहीं है। यह तो महज मील का पत्थर है। हमारी मंजिंल तो बहुत दूर है और हमें अभी बहुत दूर तक जाना है। केवल मन्त्रिमण्डल का त्याग पत्र या विधानसभा का विघटन काफी नहीं है, आवश्यकता एक बेहतर राजनीतिक व्यवस्था का निर्माण करने की है। छात्रों की सीमित मांगें जैसे भ्रष्टाचार एवं बेरोजगारी का निराकरण, शिक्षा में क्रान्तिकारी परिवर्तन आदि बिना सम्पूर्ण क्रान्ति के पूरी नहीं की जा सकती। इस व्यवस्था ने जो संकट पैदा किया है वह सम्पूर्ण और बहुमुखी (टोटल एण्ड मल्टीडायमेन्सनल) है, इसलिए इसका समाधान सम्पूर्ण और बहुमुखी ही होगा। व्यक्ति का अपना जीवन बदले, समाज की रचना बदले, राज्य की व्यवस्था बदले, तब कहीं बदलाव पूरा होगा, और मनुष्य सुख और शान्ति का मुक्त जीवन जी सकेगा। हमें सम्पूर्ण क्रान्ति चाहिए, इससे कम नहीं।“
विशाल जनसभा में जे.पी. ने पहली बार ”सम्पूर्ण क्रान्ति“ के दो शबदों का उच्चारण किया। क्रान्ति शब्द नया नहीं था, लेकिन ”सम्पूर्ण क्रान्ति“ नया था। गाँधी परम्परा में ”समग्र क्रान्ति“ का प्रयोग होता था। जे.पी. का ”सम्पूर्ण“, गाँधी का ”समग्र“ है।
आजीवन पद-प्रतिष्ठा से दूर रहकर ”सम्पूर्ण क्रान्ति“ के उद्घोषक और लोक साहित्य को जिवित रखने के लिए प्रयत्नशील महानतम व्यक्तित्व। इनकी दिशा से शेष कार्य यह है कि व्यक्ति के पूर्णता के लिए साहित्य तथा सम्पूर्ण, सर्वोच्च और अन्तिम व्यवस्था का सूत्र व व्याख्या प्रस्तुत हो ताकि लोक साहित्य तथा सम्पूर्ण क्रान्ति का इनका सपना पूर्ण हो जाये।
विभिन्न - विचार
”हम अपनी योजनाओं को सक्रिय रुप से क्रियान्वित करंे, इसके लिए मानकों का होना अत्यन्त आवश्यक है तथा यह जरुरी है कि मानकों के निर्धारण व पालन हेतु प्रयत्नशील रहें।“ - पं0 जवाहर लाल नेहरु
(भारतीय मानक ब्यूरो त्रैमासिकी- ”मानक दूत“, वर्ष-19, अंक-1, 1999 से साभार)
”जय जवन, जय किसान“ - लाल बहादुर शास्त्री
”राष्ट्र के आधुनिकीकरण के लिए मानकीकरण एवं गुणता नियन्त्रण अनिवार्य है। ये उत्पाद को उसकी सामग्री और मानवीय साधनों के पूर्ण उपभोग में सहायता करते हैं उपभोक्ता का बचाव करते हैं और आंतरिक व्यवहार तथा निर्यात का स्तर ऊँचा उठाते हैं। इस प्रकार से ये आर्थिक विकास में भागीदार बनते हैं।“ - श्रीमती इन्दिरा गाँधी
(भारतीय मानक ब्यूरो त्रैमासिकी- ”मानक दूत“, वर्ष-19, अंक- 1’1999 से साभार)
”यह समय की माँग है कि जीवन के सभी क्षेत्रों में गुणता के प्रति राष्ट्रीय प्रतिबद्धता हो। हमारी संतुष्टि किसी भी प्रकार के उत्पादन से नहीं अपितु हमारे द्वारा उत्पादित उत्कृष्ट वस्तुओं और दी जाने वाली उत्कृष्ट सेवाओं से हो।“
- श्री राजीव गाँधी
(भारतीय मानक ब्यूरो त्रैमासिकी- ”मानक दूत“, वर्ष-20, अंक- 1-2, 2000 से साभार)
”मात्र जानकारियाँ देना शिक्षा नहीं है। यद्यपि जानकारी का अपना महत्व है और आधुनिक युग में तकनीकी की जानकारी महत्वपूर्ण भी है तथापि व्यक्ति के बौद्धिक झुकाव और उसकी लोकतान्त्रिक भावना का भी बड़ा महत्व है। ये बातें व्यक्ति को एक उत्तरदायी नागरिक बनाती है। शिक्षा का लक्ष्य है ज्ञान के प्रति समर्पण की भावना और निरन्तर सीखते रहने की प्रवृति। वह एक ऐसी प्रक्रिया है जो व्यक्ति को ज्ञान व कौशल दोनों प्रदान करती है तथा इनका जीवन में उपयोग करने का मार्ग प्रशस्त करती है। करूणा, प्रेम और श्रेश्ठ परम्पराओं का विकास भी शिक्षा के उद्देश्य हैं। जब तक शिक्षक शिक्षा के प्रति समर्पित और प्रतिबद्ध नहीं होता और शिक्षा को एक मिशन नहीं मानता तब तक अच्छी शिक्षा की कल्पना नहीं की जा सकती। शिक्षक उन्हीं लोगों को बनाया जाना चाहिए जो सबसे अधिक बुद्धिमान हों। शिक्षक को मात्र अच्छी तरह अध्यापन करके संतुश्ट नहीं हो जाना चाहिए। उसे अपने छात्रों का स्नेह और आदर अर्जित करना चाहिए। सम्मान शिक्षक होने भर से नहीं मिलता, उसे अर्जित करना पड़ता है।“ - डाॅ0 सर्वपल्ली राधाकृष्णन
(5 सितम्बर को भारत देश में शिक्षक दिवस इनके जन्म दिवस को ही मनाया जा जाता है)
”हमारे युग की दो प्रमुख विशेषताएँ विज्ञान और लोकतंत्र है। ये दोनों टिकाऊ हैं। हम शिक्षित लोगों को यह नहीं कह सकते कि वे तार्किक प्रमाण के बिना धर्म की मान्यताओं को स्वीकार कर लें। जो कुछ भी हमें मानने के लिए कहा जाए, उसे उचित और तर्क के बल से पुष्ट होना चाहिए। अन्यथा हमारे धार्मिक विश्वास इच्छापूरक विचार मात्र रह जाएंगे। आधुनिक मानव को ऐसे धर्म के अनुसार जीवन बिताने की शिक्षा देनी चाहिए, जो उसकी विवेक-बुद्धि को जँचे, विज्ञान की परम्परा के अनुकूल हो। इसके अतिरिक्त धर्म को लोकतन्त्र का पोषक होना चाहिए, जो कि वर्ण, मान्यता, सम्प्रदाय या जाति का विचार न करते हुए प्रत्येक मनुष्य के बौद्धिक और आध्यात्मिक विकास पर जोर देता हो। कोई भी ऐसा धर्म, जो मनुष्य-मनुष्य में भेद करता है अथवा विशेषाधिकार, शोषण या युद्ध का समर्थन करता है, आज के मानव को रूच नहीं सकता। स्वामी विवेकानन्द ने यह सिद्ध किया कि हिन्दू धर्म विज्ञान सम्मत भी है और लोकतन्त्र का समर्थक भी। वह हिन्दू धर्म नहीं, जो दोषों से भरपूर है, बल्कि वह हिन्दू धर्म, जो हमारे महान प्रचारकों का अभिप्रेत था।“ - डाॅ0 सर्वपल्ली राधाकृष्णन
”शोषित वर्ग की सुरक्षा उसके सरकार और कांग्रेस दोनों से स्वतन्त्र होने में है। हमें अपना रास्ता स्वयं बनाना होगा और स्वयं। राजनीतिक शक्ति शोषितों की समस्याओं का निवारण नहीं हो सकती, उनका उद्धार समाज में उनका उचित स्थान पाने में निहित है। उनको अपना रहने का बुरा तरीका बदलना होगा। उनको शिक्षित होना चाहिए। एक बड़ी आवश्यकता उनकी हीनता की भावना को झकझोरने, और उनके अन्दर उस दैवीय असंतोष की स्थापना करने की है जो सभी ऊँचाइयों का स्रोत है। ”शिक्षित बनो!!!, संगठित रहो!!!, संघर्ष करो!!! सामाजिक क्रान्ति साकार बनाने के लिए किसी महान विभूति की आवश्यकता है या नहीं यह प्रश्न यदि एक तरफ रख दिया जाय, तो भी सामाजिक क्रान्ति की जिम्मेदारी मूलतः समाज के बुद्धिमान वर्ग पर ही रहती है, इसे वास्तव में कोई भी अस्वीकार नहीं कर सकता। भविष्य काल की ओर दृष्टि रखकर वर्तमान समय में समाज को योग्य मार्ग दिखलाना यह बुद्धिमान वर्ग का पवित्र कर्तव्य है। यह कर्तव्य निभाने की कुशलता जिस समाज के बुद्धिमान लोग दिखलाते हैं। वहीं जीवन कलह में टिक सकता है।“
- बाबा साहेब भीम राव अम्बेडकर
‘हमारी संस्कृति कभी एकात्म नहीं रही। भारतीय संस्कृति की विशेषता विभिन्न संस्कृतियों को स्वीकार करने और उनके प्रति रचनात्मक दृष्टिकोण अपनाने की रही है।’’ - श्री के0 आर0 नारायणन,
साभार - आज, वाराणसी, दि0. 23-9-97
‘‘आम आदमी से दूर हटकर साहित्य तो रचा जा सकता है, लेकिन वह निश्चित तौर पर भारतीय जन जीवन का साहित्य नहीं हो सकता। आम आदमी से जुड़ा साहित्य ही समाज के लिए कल्याकाणकारी हो सकता हैं।’’ - श्री शंकर दयाल शर्मा,
साभार - दैनिक जागरण, वाराणसी, दि0-25-9-97
‘‘भारत के लिए फ्रांस की राष्ट्रपति प्रणाली ज्यादा उपयुक्त’’
- श्री आर0 वेंकटरामन,
साभार - दैनिक जागरण, वाराणसी, दि0-13-7-98
”विश्व का रूपान्तरण तभी सम्भव है जब सभी राष्ट्र मान ले कि मानवता के सामने एक मात्र विकल्प शान्ति, परस्पर समभाव, प्रेम और एकजुटता है। भारतीय धर्मो के प्रतिनिधियों से मित्रवत् सूत्रपात होगा। तीसरी सहस्त्राब्दि में एशियाई भूमि पर ईसाइयत की जड़े मजबूत होंगी। इस सहस्त्राब्दि को मनाने का अच्छा तरीका वही होगा। कि हम धर्म के प्रकाश की ओर अग्रसर हो और समाज के प्रत्येक स्तर पर न्याय और समानता के बहाल के लिए प्रयासरत हो। हम सबको विश्व का भविष्य सुरक्षित रखने और उसे समृद्ध करने के लिए एकजुट होना चाहिए। विज्ञान और तकनीकी के क्षेत्र में प्रगति के साथ-साथ आध्यात्मिक उन्नति भी उतनी ही आवश्यक है। धर्म को कदापि टकराव का बहाना नहीं बनाना चाहिए-भारत को आशीर्वाद“ (भारत यात्रा पर) -पोप जान पाल, द्वितीय,
साभार - अमर उजाला, इलाहाबाद, दि0 - 08-11-99
”लोकनायक जयप्रकाश के सम्पूर्ण क्रान्ति का नारा साकार नहीं हुआ, वे लोक साहित्य को जिवित रखने का प्रयास कर रहे थे। लोकनायक जयप्रकाश नारायण जन्म शताब्दी समारोह, जय प्रकाश नगर, बलिया (उ0 प्र0), 11 अक्टूबर’2001
-चन्द्रशेखर (पूर्व प्रधानमन्त्री, भारत)
”हिन्दू चिन्तन पर आधारित नई आचार संहिता बने।“
-श्री के. एस. सुदर्शन, प्रमुख राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ,
साभार - अमर उजाला, इलाहाबाद दि0 16-03-2000
‘शिक्षा प्रक्रिया मे व्यापक सुधारों की जरूरत है। ‘यह रास्ता दिल्ली की ओर जाता है’ लिखा साइन बोर्ड पढ़ लेना मात्र शिक्षा नहीं है। इसके बारे में चिन्तन करना पड़ेगा और कोई लक्ष्य निर्धारित करना पडे़गा। सामाजिक परिवर्तन किस तरह से, इसकी प्राथमिकताये क्या होगीं? यह तय करना पड़ेगा। इक्कीसवी शताब्दी के लिए हमें कार्यक्रम तय करने पडे़गे। मौजूदा लोकतन्त्र खराब नहीं है परन्तु इसको और बेहतर बनाने की आवश्यकता है।’’ - श्री रोमेश भण्डारी,
साभार - दैनिक जागरण, वाराणसी, दि0 11-9-97
‘‘हिन्दू धर्म की जो पकड़ थी, वह इस समय कमजोर पड़ गयी है क्योंकि भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलन के समय से राजनेताओं का वर्चस्व बढ़ा और उन्होंने धर्म रक्षको को दबा दिया, जिसके परिणामस्वरूप 163 साल तक शंकराचार्य की पदवी खाली रही। इसलिए आवश्यक है कि शिक्षा के क्षेत्र में धर्म की स्थापना हो। स्वस्थ एवं श्रेष्ठ साहित्य का सृजन हो। महापुरूषों को घूम-घूम कर सनातन धर्म का प्रचार-प्रसार करना चाहिए जिससे लोगो के हृदय में भारतीय धर्म-शास्त्र के प्रति आस्था-विश्वास बढ़े।’’
- स्वामी स्वरूपानन्द (द्वारिका पीठाधीश्वर जगद्गुरू शंकराचार्य)
साभार - आज, वाराणसी, दि0 10-5-97
‘‘सांई को भगवान कहना शास्त्र और वेद सम्मत नहीं है। इसलिए उनको भगवान, संत और गुरू नहीं माना जा सकता। सनातन धर्म ने देश को एक बनाया है। गंगा ने पूरे देश में एकता का पाठ सिखाया। लोग सांई को अवतार मान रहे हैं, जबकि अवतार उसे माना जाता है जो अपनी इच्छा से शरीर का धारण करते हैं।’’ (कबीरधाम, कवर्धा, छत्तीसगढ़, में आयोजित धर्म संसद का निर्णय)
- स्वामी स्वरूपानन्द (द्वारिका पीठाधीश्वर जगद्गुरू शंकराचार्य एवं संरक्षक, काशी विद्वत परिषद्)
‘‘कुछ लोग कहते हैं कि हमारी सरकार भूमण्डलीकरण के खिलाफ है, लेकिन मैं आपको विश्वास दिलाना चाहता हूॅ कि मैं गीता के संन्देश को सारे भूमण्डल में प्रसारित करने का हिमायती हूॅ।’’ (दिल्ली के एक सार्वजनिक सभा में)
- श्री अटल विहारी वाजपेयी (पूर्व प्रधानमंत्री, भारत)
साभार - आज, वाराणसी, दि0-11-4-98
”हिन्दुत्व महज धर्म नहीं, जीवन शैली है’’
- श्री अटल बिहारी वाजपेयी (पूर्व प्रधानमंत्री, भारत)
साभार - दैनिक जागरण, वाराणसी, दि0 28-9-98
‘‘जय जवान, जय किसान, जय विज्ञान’’
- श्री अटल विहारी वाजपेयी (पूर्व प्रधानमंत्री, भारत)
परमाणु बम परीक्षण ‘मई’ 98 के बाद भारत के लिए
”अकेेले राजशक्ति के सहारे समाजिक बदलाव सम्भव नहीं“
- श्री अटल विहारी वाजपेयी (पूर्व प्रधानमंत्री, भारत)
(30 जून, 1999 को लखनऊ मंे राष्ट्रीय पुर्ननिर्माण वाहिनी के शुभारम्भ मंे)
”लोकनायक का सम्पूर्ण जीवन एक प्रयोगशाला था। उन्होंने विचारों से अधिक मूल्यों को महत्व दिया। “ - श्री अटल बिहारी वाजपेयी (पूर्व प्रधानमंत्री, भारत)
‘‘काल का बोध न रखने वाले राष्ट्र का आत्मबोध व दिशाबोध भी समाप्त हो जाता है।’’ - श्री मुरली मनोहर जोशी,
साभार - दैनिक जागरण, वाराणसी, दि0 10-7-98
‘‘मैं आवाहन करता हूॅ-देश की युवा पीढ़ी का, जो इस महान गौरवशाली देश का नेतृत्व करें और संकीर्णता, भय, आसमानता, असहिष्णुता से ऊपर उठकर राष्ट्र को ज्ञान-विज्ञान के ऐसे धरातल पर स्थापित करे कि लोग कहें यही तो भारत महान है।’’ (विज्ञापन द्वारा प्रकाशित अपील)
- श्री मुरली मनोहर जोशी
साभार - दैनिक जागरण, वाराणसी, दि0 11-8-98
‘‘देश के सभी विद्यालयों में वेद की शिक्षा दी जायेगी’’
- श्री मुरली मनोहर जोशी
साभार - आज, वाराणसी, दि0 10/12/98
‘‘काशी की प्राचीन सीमा से बाहर ‘नयी काशी’ की स्थापना आध्यात्मिक व धार्मिक दानों दृष्टिकोण से अनुचित है क्योंकि सृष्टि की उत्पत्ति से लेकर प्रलयकाल तक काशी का स्थान भिन्न नहीं हो सकता ’’ - स्वामी शिवानन्द महाराज,
साभार - राष्ट्रीय सहारा, वाराणसी, दि0 8-9-98
‘‘शिक्षा के भारतीयकरण, राष्ट्रीयकरण और आध्यात्मिकता से जोड़े जाने का प्रस्ताव है, उसका क्या अर्थ है? क्या पिछले पचास वर्षो से लागू शिक्षा प्रणाली गैर भारतीय, विदेशी थी जिसमे भारत की भूत और वर्तमान वास्तविकताएं नहीं थीं?’’ (अटल विहारी वाजपेयी को लिखे पत्र में) -श्रीमती सोनिया गाॅधी,
साभार - आज, वाराणसी, दि0-23-10-98
‘‘शिक्षा में दूरदृष्टि होनी चाहिए तथा हमारी शिक्षा नीति और शिक्षा व्यवस्था ऐसी होनी चाहिए जिससे हम भविष्य देख सके और भविष्य की आवश्यकताओं को प्राप्त कर सकें।” - श्री केशरीनाथ त्रिपाठी
साभार - आज, वाराणसी, दि0-25-12-98
”दार्शनिक आधार पर चर्चा करने से ही अलगाव बढ़ता है। जब तक व्यावहारिक रूप में धार्मिकता के आधार पर विचारों का सामंजस्य नहीं स्थापित होगा, तब तक हम ऊपर नहीं उठ सकते। दार्शनिक दृष्टि से धर्म में अन्तर होता है लेकिन धार्मिक दृष्टि से नहीं। नई सदी में कार्यो को संपादित करने वाले आप (नये पीढ़ी से) ही है, पुरानी पीढ़ी आपके पीछे है लेकिन सारा दायित्व आप के ऊपर ही है इसलिए पहले अच्छी तरह से शिक्षा ग्रहण करें।“(वाराणसी यात्रा में) - दलाईलामा, तिब्बति धर्म गुरू
साभार - अमर उजाला, इलाहाबाद दि0 18-12-1999
”पश्चिम जगत ने भौतिक जगत की सुख-सुविधाओं के लिए विश्व को बहुत कुछ दिया है। अब हमारी बारी है। उन्हें इसके एवज में कुछ चुकाने का समय है। हम उन्हें शान्ति व जीवन के लक्ष्य बारे में ज्ञान दें।“ (वाराणसी यात्रा में) - दलाईलामा, तिब्बति धर्म गुरू
साभार - दैनिक जागरण, वाराणसी, दि0 15-01-2011
”शून्य आत्मसात् करने से बोधिसत्व की प्राप्ति सम्भव“ (वाराणसी यात्रा में)
- दलाईलामा, तिब्बति धर्म गुरू
साभार - दैनिक जागरण, वाराणसी, दि0 17-01-2011
”भारत में आध्यात्मिकता का बोलबाला हजारों सालों से है इसके बावजूद भी यहाँ किसी भी धर्म को छुये बिना नैतिक मूल्यों की शिक्षा धर्म निरपेक्ष रूप से विकसित हुई है। यह आधुनिक युग में विश्व को भारत की सबसे बड़ी देन है। आज विश्व को ऐसे ही धर्मनिरपेक्ष नैतिक मूल्यों की शिक्षा की सख्त जरूरत है। बीसवीं सदी रक्तपात की सदी थी। 21वीं सदी संवाद की सदी होनी चाहिए। इससे कई समस्यायें अपने आप समाप्त हो जाती है। दुनिया में ऐसे लोगों की संख्या बहुत अधिक है जो किसी धर्म में विश्वास नहीं करते हैं इसलिए यह जरूरी है कि सेक्यूलर इथिक्स (धर्मनिरपेक्ष नैतिकता) को प्रमोट (बढ़ाना) करें जो वास्तविक और प्रैक्टिकल एप्रोच (व्यावहारिक) पर आधारित हो। धार्मिक कर्मकाण्डों के प्रति दिखावे का कोई मतलब नहीं है। आधुनिक शिक्षा व्यवस्था में मानव मूल्यों का अभाव है। यह सिर्फ मस्तिष्क के विकास पर जोर देती है। हृदय की विशालता पर नहीं। करूणा तभी आयेगी जब दिल बड़ा होगा। दुनिया के कई देशों ने इस पर ध्यान दिया है। कई विश्वविद्यालयों में इस पर प्रोजेक्ट चल रहा है।“ (सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय, वाराणसी में ”21वीं सदी में शिक्षा“ विषय पर बोलते हुये। इस कार्यक्रम में केंन्द्रीय तिब्बती अघ्ययन विश्वविद्यालय, सारनाथ, वाराणसी के कुलपति पद्मश्री गेशे नवांग समतेन, पद्मश्री प्रो.रामशंकर त्रिपाठी, महात्मा गाँधी काशी विद्यापीठ, वाराणसी के कुलपति प्रो. अवधराम, दीन दयाल उपाध्याय विश्वविद्यालय, गोरखपुर के पूर्व कुलपति प्रो. वेणी माधव शुक्ल, सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय, वाराणसी के पूर्व कुलपति प्रो. अभिराज राजेन्द्र मिश्र और वर्तमान कुलपति प्रो. वी.कुटुम्ब शास्त्री, प्रति कुलपति प्रो.नरेन्द्र देव पाण्डेय, प्रो. रमेश कुमार द्विवेदी, प्रो. यदुनाथ दूबे इत्यादि उपस्थित थे।)
- दलाईलामा, तिब्बति धर्म गुरू
साभार - दैनिक जागरण व हिन्दुस्तान, वाराणसी, दि0 18-01-2011
”बौद्वो के अनुरोध पर गौतम बुद्व के विष्णु अवतार सिद्ध करने सम्बन्धी अवधारणा को आगे न बढ़ने पर सहमति।“ (मूलगंध कुटी बिहार, सारनाथ में) -जगदगुरू शंकराचार्य जयेन्द्र सरस्वमी
साभार - दैनिक जागरण, वाराणसी, दि0 20-01-2000
”हिन्दू-बौद्ध एकता से विश्व में बढ़ते ईसाइयों और इस्लाम के विस्तारवादी मनोवृत्ति को रोकने में निश्चित रूप से सफलता“ (लुम्बीनी में आयोजित सभा में) - श्री अशोक सिंघल, अन्तर्राष्ट्रीय कार्याध्यक्ष, विश्व हिन्दू परिषद
साभार - दैनिक जागरण, वाराणसी दि- 20-01-2000
”मीडिया को ‘फस्र्ट स्टेट’ का दर्जा मिले।“ (पत्रकारिता विभाग, बी0 एच0 यू0 मंे बोलते हुए)
-न्यायमूर्ति परशुराम वी0 सावंत, अध्यक्ष प्रेस काउंसिल आॅफ इण्डिया
साभार - अमर उजाला, इलाहाबाद दि0 22-02-2000
”विश्व को लोकतन्त्र, भारत का उपहार; ज्ञान और सूचना आधारित सहयोग; भारत और अमेरिका मिलकर विश्व को नई दिशा दे सकता है; भारत यदि शून्य और दशमलव न दिया होता तो कम्प्यूटर चिप्स बनाना असम्भव होता; प्रत्येक देश कहता है हम महान हैं परन्तु कैसे ? यह सिद्ध करना एक चुनौती है । इत्यादि।“(भारत यात्रा पर दि0 20-24 मार्च’ 2000 के समय वक्तव्य)
-श्री विल क्लिन्टन, राष्ट्रपति, संयुक्त राज्य अमेरिका
‘भारत, संयुक्त राष्ट्र संघ के पुनर्गठन में अपना योगदान दें।
- कौफी अन्नान, मार्च ‘97 में
”.......... लेकिन भूमण्डलीय क्रिया का प्रारम्भ कहीं निर्मित हो चुका है और यदि संयुक्त राष्ट्र संघ में नहीं तो कहाँ? ......... मैं जानता हूँ स्वयं की एक घोषणा कम महत्व रखती है। परन्तु दृढ़ प्रतिज्ञा युक्त एक घोषणा और यथार्थ लक्ष्य, सभी राष्ट्रों के नेताओं द्वारा निश्चित रुप से स्वीकारने योग्य, अपने सत्ताधारी की कुशलता का निर्णय के लिए एक पैमाने के रुप में विश्व के व्यक्तियों के लिए अति महत्व का हो सकता है। ........... और मैं आशा करता हूँ कि यह कैसे हुआ? देखने के लिए सम्पूर्ण विश्व पीछे होगा।“ -श्री कोफी अन्नान
साभार - ”द टाइम्स आफ इण्डिया“, नई दिल्ली, 7-11-2000
”शासन में फैले भ्रष्टाचार के खिलाफ छात्र आगे आएं।
- लाल कृष्ण आडवाणी, केन्द्रीय गृह मन्त्री, भारत
”शिक्षा का स्वदेशी माॅडल चाहिए” (गुरूकुल कांगड़ी विश्वविद्यालय के दीक्षांत समारोह में)
- लाल कृष्ण आडवाणी, केन्द्रीय गृह मन्त्री, भारत
साभार - दैनिक जागरण, वाराणसी, दि0 8-06-2008
”भारत बौद्धिक विस्फोट के मुहाने पर खड़ा है। हर क्षेत्र में भारतीयों का दखल हो रहा है। वह दिन समय नहीं, जब भारत भी पूरी दुनिया में अपना लोहा मनवाएगा। हालांकि इसका लाभ उठाने के लिए भारत को अतीत की पहेलीयों को सुलझाना होगा।“
-वी. एस. नाॅयपाल, (साहित्य के नोबेल पुरस्कार से सम्मानित)
साभार - अमर उजाला, वाराणसी, दि0 31 अक्टूबर 2000
”विश्व का कोई भी धर्म तभी आगे बढ़ता है जब वह अपने आप में नवीनता लाता है। सनातन धर्म नया बातों को अपने आप में पचाने की क्षमता रखता है“ -श्रीमती शीला दीक्षित
साभार - सन्मार्ग, वाराणसी, दि0 11 अगस्त 2002
”अच्छी शिक्षा व्यवस्था ही प्रबुद्ध नागरिक पैदा करती है, बच्चों को नेतिक शिक्षा प्रदान की जाय और रोजगार के नये अवसर पैदा किये जायें, राष्ट्रीय शान्ति व सार्वभौमिक सद्भाव के लिए सभी धर्म आध्यात्मिक आन्दोलन में शामिल हो जायें“
-श्री ए.पी.जे, अब्दुल कलाम, पूर्व राष्ट्रपति, भारत
साभार - दैनिक जागरण, वाराणसी, दि0 8 दिसम्बर 2002
”एशिया अथवा पूरी दुनिया में भारत एक उभरता हुआ देश भर नहीं है, बल्कि यह पहले से उभर चुका है और मेरा यह दृढ़ विश्वास है कि भारत और अमेरिका के बीच सम्बन्ध, जो साझा हितों और मूल्यों से बंधे हैं, 21वीं शताब्दी की सर्वाधिक निर्णायक साझोदारीयों में से एक है। मैं इसी साझेदारी के निर्माण के लिए यहाँ आया हूँ। यह वह सपना है जिसे हम मिलकर साकार कर सकते हैं। साझा भविष्य के प्रति मेरे विश्वास का आधार भारत के समृद्ध अतीत के प्रति मेरे सम्मान पर आधारित है। भारत वह सभ्यता है जो हजारों वर्षो से दुनिया की दिशा तय कर रही है। भारत ने मानव शरीर के रहस्यों से परदा उठाया। यह कहना अतिशयोक्ति न होगी कि हमारे आज के सूचना युग की जड़े भारतीय प्रयोगों से संबद्ध है, जिनमें शून्य की खोज शामिल है। भारत ने न केवल हमारे दिमाग को खोला बल्कि हमारे नैतिक कल्पना को भी विस्तारित किया। मैं संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद् का पुनर्गठन चाहूँगा, जिसमें भारत स्थायी सदस्य के रूप में मौजूद रहे।
विश्व में भारत सही स्थान हासिल कर रहा है, ऐसे में हमें दोनो देशों की साझेदारी को इस सदी की महत्वपूर्ण साझेदारी में परिवर्तन करने का ऐतिहासिक अवसर मिला है। चूँकि 21वीं सदी में ज्ञान ही मुद्रा है, इसलिए हम छात्रो, कालेजों और विश्वविद्यालयों में विनिमय को बढ़ावा देगें
व्यापक रूप में भारत और अमेरिका एशिया में साझेदार के तौर पर काम कर सकते हैं। दक्षिण पूर्व एशिया में आपके सहयोगियों की तरह हम भारत को लुक ईस्ट की नीति तक सीमित नहीं रखना चाहते, बल्कि हम चाहते हैं कि भारत पूर्वी एशिया में सक्रिय भूमिका निभाए। यह भारत की कहानी है। यही अमेरिका की भी कहानी है कि मतभेदों के बावजूद लोग मिलजुल कर काम कर सकते हैं। इस साझेदारी ने ही हमें वैश्विक विश्व में अद्भुत स्थान प्रदान किया है, हम स्वीकार सकते हैं कि हम एक साथ मिलकर क्या हासिल कर सकते हैं।, धन्यवाद, जय हिन्द, भारत व अमेरिका के बीच साझेदारी हमेशा बनी रहे।“ (भारत यात्रा पर भारतीय संसद के सयुक्त सत्र में सम्बोधन का अंश)
-श्री बराक ओबामा, राष्ट्रपति, संयुक्त राज्य अमेरिका
साभार - दैनिक जागरण, वाराणसी, दि0 9 नवम्बर 2010
”विश्वविद्यालयों में सिर्फ परीक्षाओं में ही नहीं, शोध कार्यों में भी नकल का बोलबाला है, कोई भी विश्वविद्यालय ऐसा नहीं जिसके किसी शोध को अन्तर्राष्ट्रीय तो क्या, राष्ट्रीय स्तर पर भी मान्यता मिली हो।“ (लखनऊ में आयोजित 21 राज्य विश्वविद्यालयों व अन्य के कुलपतियों के सम्मेलन में) -श्री बी.एल. जोशी
साभार - दैनिक जागरण, वाराणसी, दि0 10 नवम्बर 2010
”विश्वविद्यालय को कुलपतियों और शिक्षकों को शिक्षा का स्तर और उन्नत करना चाहिए। एक बार अपना दिल टटोलना चाहिए कि क्या वाकई उनकी शिक्षा स्तरीय है। हर साल सैकड़ों शोधार्थियों को पीएच.डी की उपाधि दी जा रही है, लेकिन उनमें से कितने नोबेल स्तर के हैं। साल में एक-दो शोध तो नोबेल स्तर के हों।“(रूहेलखण्ड विश्वविद्यालय, बरेली, उ0प्र0, के दीक्षांत समारोह में) -श्री बी.एल. जोशी, राज्यपाल, उ0प्र0, भारत
साभार - अमर उजाला, लखनऊ, दि0 21 नवम्बर 2012
”भारत के प्रत्येक नागरिक का यह कत्र्तव्य है कि वह भारत की संविधान की धारा 51 (ए) के अन्र्तगत बिना किसी जाति, वषं या मजहब के भेदभाव के गीता में दिये गये धर्म का पालन करें।“ (एक जनहित याचिका पर उच्च न्यायालय, इलाहाबाद का फैसला)
- श्री एस.एन. श्रीवास्तव, न्यायमूर्ति, इलाहाबाद, उ0प्र0, भारत
साभार - दी हिन्दू, चेन्नई, दि0 12 सितम्बर 2007
”मुसलमानों के लिए कुरान और क्रिश्चियनों के लिए बाइबिल है। हर मजहब अपना अपना धर्म शास्त्र रखता है। इसलिए यह हम कैसे कह सकते हैं कि गीता सम्पूर्ण राष्ट्र के लिए है।“ (एक जनहित याचिका पर उच्च न्यायालय, इलाहाबाद का फैसला)
- श्री एच.आर. भारद्वाज
साभार - दी हिन्दू, चेन्नई, दि0 12 सितम्बर 2007
”दुनिया भर के न्यायाधीशों को भारत से विश्व शान्ति का संदेश लेकर अपने देश जाना चाहिए तथा भारतीय संविधान के अनुच्छेद 51 में शान्ति, सुरक्षा, सह-अस्तित्व तथा आपसी भाईचारे के लिए जो व्यवस्था की गयी है, उसे अपनाना चाहिए। भारतीय संविधान का यह अनूठा अनुच्छेद अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति की भावना को बढ़ावा देती है। अनुच्छेद 51 दुनिया को नयी दिशा देने में सक्षम है। इतिहास गवाह है कि भारतीय दर्शन सदैव मानव जाति को शान्ति, सहयोग, सौहार्द तथा सत्य-अहिंसा का मार्ग दिखाता आया है।“ (लखनऊ में सी.एम.एस द्वारा संविधान के अनुच्छेद 51 पर आयोजित विश्व के मुख्य न्यायाधीशों व न्यायविद्ों के तीन दिवसीय 11वें अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलन के उद्घाटन समारोह में) -श्री फर्दिनो इनासियो रिबैलो
साभार - दैनिक जागरण, वाराणसी, दि0 12 दिसम्बर, 2010
”वैदिक काल से भारत के ज्ञान-विज्ञान एवं सत्य-अहिंसा के सिद्धान्तों का पूरा विश्व लोहा मानता आ रहा है। वर्तमान में उच्च कोटि के डाॅक्टर, इंजिनियर और सूचना विज्ञान के विशेषज्ञ पूरे विश्व में अपनी प्रतिभा के दम पर छाये हुये हैं। आर्थिक महाशक्ति के रूप में भारत की पहचान बन रही है। इन्हीं खूबियों के बूते भारत और सनातन धर्म फिर से विश्व गुरू की पदवी हासिल करेगा।“(गाँधी विद्या संस्थान, वाराणसी में) -गिरधर मालवीय
साभार - दैनिक जागरण, वाराणसी, दि0 26 दिसम्बर, 2010
”विश्व एक परिवार है न कि बाजार। भारतीय मानको में गुरू-शिष्य परम्परा की अवधारणा को मजबूती देने की जरूरत है। शैक्षणिक संस्थानों में नई चेतना, विचारधारा निकालनी होगी जिससे सामाजिक व राष्ट्रीय उत्थान को बल मिले। शान्ति, मूल्यों की शिक्षा ही आज की आवश्यकता है महामना की सोच मानवीय मूल्य के समावेश वाले युवाओं के मस्तिष्क का विकास था, चाहे वह इंजिनियर हो, विज्ञान या शिक्षाविद्। यहाँ के छात्र दुनिया में मानवीय मूल्य के राजदूत बनें ताकि देश में नम्बर एक बना बी.एच.यू. अब दुनिया के लिए आदर्श बने। इस विश्वविद्यालय सरीखा दूसरा कोई उत्कृष्ट संस्थान ही नहीं जहाँ संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा यूनेस्को चेयर फार पीस एंड इंटरकल्चर अंडरस्टैण्डिंग की स्थापना हुई। विश्वविद्यालय का दक्षिणी परिसर मुख्य परिसर की सिर्फ कापी भर नहीं है, बल्कि यह तो भविष्य में“ नये विश्वविद्यालय का रूप लेगा“ -डाॅ0 कर्ण सिंह,
साभार - दैनिक जागरण, वाराणसी, दि0 26 दिसम्बर, 2010
”पिछली सदी में राष्ट्रवाद की अवधारणा काफी प्रबल रही। यह अलग बात है कि सदी के बीच में ही परस्पर अंतर निर्भरता ने विश्वग्राम की चेतना को जन्म दिया। इस चेतना ने राष्ट्रवाद की अवधारणा को काफी हद तक बदल दिया है। आज निरपेक्ष व सम्पूर्ण संप्रभुता का युग समाप्त हो गया है। राजनीतिक प्रभुता को भी विश्व के साथ जोड़ दिया है। आज मामले अन्तर्राष्ट्रीय न्यायालय को सौंपे जा रहे हैं। मानवाधिकारों के नये मानक लागू हो रहे हैं। इन सबसे ऐसा लगता है जैसे राज्यों का विराष्ट्रीकरण हो रहा है। आज समस्याएं राष्ट्रीय सीमाओं के बाहर चली गई है। महामारी, जलवायु परिवर्तन, आर्थिक संकट आदि पूरे विश्व को प्रभावी कर रहा है। इनका हल वैश्विक स्तर पर बातचीत व सहयोग से ही संभव है। इसको देखते हुए हमें राष्ट्रवाद व अन्तर्राष्ट्रीयतावाद के विषय में गंभीरता से विचार करने की जरूरत है। इन स्थितियों को देखते हुए नई सदी में विज्ञान, प्रौद्योगिकी व नवप्रवर्तन राष्ट्र की सम्पन्नता के लिए खासे महत्वपूर्ण साबित होगें। छात्रों से इस दिशा में प्रयास करने व लीक से हटकर नया सोचने का आह्वान करता हूँ। “ (बी.एच.यू के 93वें दीक्षांत समारोह व कृष्णमूर्ति फाउण्डेशन, वाराणसी में बोलते हुए) -श्री हामिद अंसारी
साभार - दैनिक जागरण, वाराणसी, दि0 13 मार्च, 2011
”विज्ञान व आध्यात्म में काफी समानताएं हैं और दोनों के लिए अनुशासन सबसे ज्यादा जरूरी है। इन दोनों का मानव के विकास में भारी योगदान है। जब तक ये एक साथ मिलकर काम नहीं करेंगें उनका पूरा लाभ हासिल नहीं किया जा सकता। विश्वविद्यालय समाज के लिए उपयोगी अनुसंधान पर जोर दें ताकि उनका लाभ जनता व देश को हो। ज्ञान के लिए शिक्षा अर्जित की जानी चाहिए और देश के युवाओं के विकास के लिए शिक्षा पद्धति में समग्र दृष्टिकोण अपनाया जाना जरूरी है। इसका मकसद युवाओं को बौद्धिक और तकनीकी दृष्टि से सक्षम बनाना होना चाहिए।“ (विज्ञान व आध्यात्मिक खोज पर राष्ट्रीय सम्मेलन, नई दिल्ली के उद्घाटन में बोलते हुए) - श्रीमती प्रतिभा पाटिल
साभार - हिन्दुस्तान, वाराणसी, दि0 13 मार्च, 2011
”तू जमाना बदल“ - यदुनाथ सिंह, पूर्व विधायक, चुनार क्षेत्र
”रामनगर (वाराणसी) से विन्ध्याचल (मीरजापुर) तक का क्षेत्र पुराणों में वर्णित सत्यकाशी का क्षेत्र है।“
- यदुनाथ सिंह, पूर्व विधायक, चुनार क्षेत्र
साभार - राष्ट्रीय सहारा, लखनऊ, दि0 17 जून, 1998)
”वर्तमान समय में देश स्तर पर व्यवस्था परिवर्तन की चर्चा बहुत अधिक हो रही है। इसमें मेरे विचार से सर्वप्रथम आरक्षण के मापदण्ड पर पुनः विचार करने का समय आ गया है। देश के स्वतन्त्रता के समय जातिगत आरक्षण की आवश्यकता थी और वह सीमित समय के लिए ही लागू किया गया था परन्तु राजनीतिक लाभ के कारणों से वह वर्तमान तक लागू है। हम समाज से मनुवादी व्यवस्था को समाप्त करने की बात करते हैं परन्तु एक तरफ आज समाज इससे धीरे-धीरे मुक्त हो रहा है और दूसरी तरफ संविधान ही इसका समर्थक बनता जा रहा है। ऐसी स्थिति में आरक्षण व्यवस्था का मापदण्ड जाति आधारित से शारीरिक, आर्थिक और मानसिक आधारित कर देनी चाहिए जो धर्मनिरपेक्ष और सर्वधर्मसमभाव भी है और लोकतन्त्र का धर्म भी धर्मनिरपेक्ष और सर्वधर्मसमभाव है
मेरे विचार में व्यवस्था परिवर्तन का दूसरा आधार युवाओं को अधिकतम अधिकार से युक्त करने पर विचार करने का समय आ गया है। देश में 18 वर्ष के उम्र पर वोट देने का अधिकार तथा विवाह का उम्र लड़कों के लिए 21 वर्ष तथा लड़कियों के लिए 18 वर्ष तो कर दिया गया है परन्तु उन्हें पैतृक सम्पत्ति सम्बन्धी अधिकार अभी तक नहीं दिया गया है। इसलिए उत्तराधिकार सम्बन्धी अधिनियम की भी आवश्यकता आ गयी है। जिसमें यह प्राविधान हो कि 25 वर्ष की अवस्था में उसे पैतृक सम्पत्ति अर्थात दादा की सम्पत्ति जिसमें पिता की अर्जित सम्पत्ति शामिल न रहें, उसके अधिकार में हो जाये।
किसी भी विचार पर किया गया आदान-प्रदान ही व्यापार होता है और यह जितनी गति से होता है उतनी ही गति से व्यापार, विकास और विनाश होता है। देश के विकास के लिए धन के आदान-प्रदान को तेज करना पड़ेगा और ऐसे सभी बिन्दुओं का पहचान करना होगा जो धन के आदान-प्रदान में बाधा डालती है। इसलिए कालेधन का मुद्दा अहम मुद्दा है। ऐसे प्राविधान की आवश्यकता है कि जिससे यह धन देश के विकास में लगे।
विभिन्न प्रकार के अनेकों साहित्यों से भरे इस संसार में यह भी एक समस्या है कि हम किस साहित्य को पढ़े जिससे हमें ज्ञान की दृष्टि शीघ्रता से प्राप्त हो जाये। विश्वशास्त्र इस समस्या को हल करते हुए एक ही संगठित पुस्तक के रूप में उपलब्ध हो चुका है। यह इस सत्यकाशी क्षेत्र की एक महान और ऐतिहासिक उपलब्धि है जिसके कारण यह क्षेत्र सदैव याद किया जायेगा।
- यदुनाथ सिंह, पूर्व विधायक, चुनार क्षेत्र
”देश का विदेश में जमा काला धन देश में लाना है।“ - बाबा रामदेव
”भ्रष्टाचार मिटाने के लिए जनलोकपाल लागू करवाना है।“ - अन्ना हजारे
”शिक्षा का नया माॅडल विकसित करना होगा। पिछले 25 वर्षो से हम अमीर लोगों की समस्या सुलझा रहे हैं। अब हमें गरीबों की समस्या सुलझानें का नैतिक दायित्व निभाना चाहिए। देश में 25 वर्ष से कम उम्र के 55 करोड़ लोग हैं। हमें सोचना होगा कि हम उन्हें नौकरी और प्रशिक्षण कैसे देगें। भौतिकी, रसायन, गणित जैसे पारम्परिक विषयों को पढ़ने का युग समाप्त हो गया। अब तो हमें रचनात्मकता, समन्वय, लीडरशिप, ग्लोबल तथा प्रोफेशनल विषयों को पढ़ने तथा सूचना तकनीक के जरिए पढ़ाई पर ध्यान केन्द्रित करने की जरूरत है। हमारे देश में जो अध्यापक हैं, वे शोध नहीं करते और जो शोध करते हैं वे पढ़ाते नहीं। हमें पूरी सोच को बदलनी है।“
- सैम पित्रोदा, अध्यक्ष, राष्ट्रीय नवोन्मेष परिषद्
(प्रधानमंत्री के सूचना तकनीकी सलाहकार व राष्ट्रीय ज्ञान आयोग के पूर्व अध्यक्ष)
साभार - हिन्दुस्तान, वाराणसी, 27 नवम्बर, 2011
”भारतवासियों के रूप में हमें भूतकाल से सीखना होगा, परन्तु हमारा ध्यान भविष्य पर केन्द्रित होना चाहिए। मेरी राय में शिक्षा वह मंत्र है जो कि भारत में अगला स्वर्ग युग ला सकता है। हमारे प्राचीनतम ग्रन्थों ने समाज के ढांचे को ज्ञान के स्तम्भों पर खड़ा किया गया है। हमारी चुनौती है, ज्ञान को देश के हर एक कोने में पहुँचाकर, इसे एक लोकतांत्रिक ताकत में बदलना। हमारा ध्येय वाक्य स्पष्ट है- ज्ञान के लिए सब और ज्ञान सबके लिए।
मैं एक ऐसे भारत की कल्पना करता हूँ जहाँ उद्देश्य की समानता से सबका कल्याण संचालित हो, जहाँ केन्द्र और राज्य केवल सुशासन की परिकल्पना से संचालित हों, जहाँ लोकतन्त्र का अर्थ केवल पाँच वर्ष में एक बार मत देने का अधिकार न हो, बल्कि जहाँ सदैव नागरिकों के हित में बोलने का अधिकार हो, जहाँ ज्ञान विवेक में बदल जाये, जहाँ युवा अपनी असाधारण ऊर्जा तथा प्रतिभा को सामूहिक लक्ष्य के लिए प्रयोग करे। अब पूरे विश्व में निरंकुशता समाप्ति पर है, अब उन क्षेत्रों में लोकतन्त्र फिर से पनप रहा है जिन क्षेत्रों को पहले इसके लिए अनुपयुक्त माना जाता था, ऐसे समय में भारत आधुनिकता का माॅडल बनकर उभरा है।
जैसा कि स्वामी विवेकानन्द ने अपने सुप्रसिद्ध रूपक में कहा था कि- भारत का उदय होगा, शरीर की ताकत से नहीं, बल्कि मन की ताकत से, विध्वंस के ध्वज से नहीं, बल्कि शांति और प्रेम के ध्वजा से। अच्छाई की सारी शक्तियों को इकट्ठा करें। यह न सोचें कि मेरा रंग क्या है- हरा, नीला अथवा लाल, बल्कि सभी रंगों को मिला लें और सफेद रंग की उस प्रखर चमक को पैदा करें, जो प्यार का रंग है।“ (प्रथम भाषण का संक्षिप्त अंश) - श्री प्रणव मुखर्जी, राश्ट्रपति, भारत
साभार - दैनिक जागरण, 26 जुलाई, 2012
सोमवार, 9 जून 2014 ई0
1. आध्यात्मिक एवं दार्शनिक विरासत के आधार पर साकार होगा एक भारत-श्रेष्ठ भारत का सपना।
2. सोशल मीडिया का प्रयोग कर सरकार को बेहतर बनाने की कोशिश।
3. सबका साथ, सबका विकास।
4. 100 नये माॅडल शहर बसाना।
5. 5T - ट्रेडिशन (Tradition), ट्रेड (Trade), टूरिज्म (Tourism), टेक्नालाॅजी (Technology) और टैलेन्ट (Talent) का मंत्र। (भारत के 16वीं लोकसभा के संसद के संयुक्त सत्र को सम्बोधित करते हुये)े
- श्री प्रणव मुखर्जी, राष्ट्रपति, भारत
”काशी के राष्ट्र गुरू बने बिना भारत जगत गुरू नहीं बन सकता। देश अतीत की तरह आध्यात्मिक ऊँचाई पर पहुँचेगा तो स्वतः आर्थिक वैभव प्राप्त हो जायेगा। इसी खासियत की वजह से इतिहास में कभी भारत सोने की चिड़िया थी।“ - श्री नरेन्द्र मोदी, प्रधानमंत्री, भारत
साभार - दैनिक जागरण, वाराणसी संस्करण, दि0 18-05-2014
श्री लव कुश सिंह ”विश्वमानव“ के विचार
आविष्कारकर्ता - मन (मानव संसाधन) का विश्व मानक एवं पूर्ण मानव निर्माण की तकनीकी
अगला दावेदार - भारत सरकार का सर्वोच्च नागरिक सम्मान - ”भारत रत्न“
1- दो या दो से अधिक माध्यमों से उत्पादित एक ही उत्पाद के गुणता के मापांकन के लिए मानक ही एक मात्र उपाय है। सतत् विकास के क्रम में मानकों का निर्धारण अति आवश्यक कार्य है। उत्पादों के मानक के अलावा सबसे जरुरी यह है कि मानव संसाधन की गुणता का मानक निर्धारित हो क्योंकि राष्ट्र के आधुनिकीकरण के लिए प्रत्येक व्यक्ति के मन को भी आधुनिक अर्थात् वैश्विक-ब्रह्माण्डीय करना पड़ेगा। तभी मनुष्यता के पूर्ण उपयोग के साथ मनुष्य द्वारा मनुष्य के सही उपयोग का मार्ग प्रशस्त होगा। उत्कृष्ट उत्पादों के लक्ष्य के साथ हमारा लक्ष्य उत्कृष्ट मनुष्य के उत्पादन से भी होना चाहिए जिससे हम लगातार विकास के विरुद्ध नकारात्मक मनुष्योें की संख्या कम कर सकें। भूमण्डलीकरण सिर्फ आर्थिक क्षेत्र में कर देने से समस्या हल नहीं होती क्योंकि यदि मनुष्य के मन का भूमण्डलीकरण हम नहीं करते तो इसके लाभों को हम नहीं समझ सकते। आर्थिक संसाधनों में सबसे बड़ा संसाधन मनुष्य ही है। मनुष्य का भूमण्डलीकरण तभी हो सकता है जब मन के विश्व मानक का निर्धारण हो। ऐसा होने पर हम सभी को मनुष्यों की गुणता के मापांकन का पैमाना प्राप्त कर लेगें, साथ ही स्वयं व्यक्ति भी अपना मापांकन भी कर सकेगा। जो विश्व मानव समाज के लिए सर्वाधिक महत्व का विषय होगा। विश्व मानक शून्य श्रृंखला मन का विश्व मानक है जिसका निर्धारण व प्रकाशन हो चुका है जो यह निश्चित करता है कि समाज इस स्तर का हो चुका है या इस स्तर का होना चाहिए। यदि यह सार्वभौम सत्य-सिद्धान्त आधारित होगा तो निश्चित ही अन्तिम मानक होगा।
2- भारत विश्व गुरू कभी हुआ करता था लेकिन अब नहीं है। इसका सबसे बड़ा प्रमाण यह है कि भारत वैश्विक सिद्धान्तों से प्रभावित है। भारत उस दिन वर्तमान युग में पुनः विश्व गुरू बन जायेगा जब वह अपने सार्वभौम सिद्धान्तों से विश्व को प्रभावित व संचालित करने लगेगा। काशी-सत्यकाशी क्षेत्र इस दृश्य काल में मतों (वोटों) से नहीं बल्कि शिव-तन्त्र के शास्त्र से किसी का हो सकता है। सार्वभौम सत्य - आत्म तत्व के आविष्कार से भारत विश्व गुरू तो है ही परन्तु दृश्य काल में विश्व गुरू बनने के लिए सार्वभौम सत्य-सिद्धान्त चाहिए जिससे विश्व संविधान व लोकतन्त्र को मार्गदर्शन मिल सके। शिक्षा द्वारा मानव मन को सत्य से जोड़ने व काल का बोध कराने, काशी को राष्ट्रगुरू व भारत को जगतगुरू बनाने तथा ज्ञान को सबके द्वार पर पहुँचाने का कार्य आपकी इच्छानुसार प्रारम्भ किया जा रहा है। आपने कहा, हमने शुरू किया।“
3- “रत्न“ उसे कहते हैं जिसका अपना व्यक्तिगत विलक्षण गुण-धर्म हो और वह गुण- धर्म उसके न रहने पर भी प्रेरक हो। पद पर पीठासीन व्यक्तित्व का गुण-धर्म मिश्रित होता है, वह उसके स्वयं की उपलब्धि नहीं रह जाती। भारत के रत्न वही हो सकते हैं जो स्वतन्त्र भारत में संवैधानिक पद पर न रहते हुये अपने विलक्षण गुण-धर्म द्वारा भारत को कुछ दिये हों और उनके न रहने पर भी भारतीय नागरिक प्रेरणा प्राप्त करता हो। इस क्रम में ”भारत रत्न“ का अगला दावेदार मैं हूँ और नहीं तो क्यों? इतना ही नहीं नोबेल पुरस्कार के साहित्य और शान्ति के सयंुक्त पुरस्कार के लिए भी योग्य है जो भारत के लिए गर्व का विषय है।
4- शास्त्रार्थ, शास्त्र पर होता है। शास्त्राकार से और पर नहीं।
5- भारत का प्रत्येक नागरिक अपने जीवकोपार्जन के मार्ग व संघर्ष में अपने विषय का जानकार व अनुभव तो प्राप्त कर रहा है परन्तु कुछ पाने के क्रम में कुछ छूट भी जाता है इसलिए प्रत्येक नागरिक को अपने अहंकार को भूलकर यह स्वीकार करना होगा कि वह अपने विषय से हटकर अन्य विषय के विषय में कम या नहीं जानता है। अतः एक आदर्श नागरिक बनने के क्रम में न्यूनतम ज्ञान सभी को एक समान रूप से चाहिए, पुननिर्माण वहीं कार्य है।
6- तुम पूरे जीवन कुत्ते के पूँछ को सीधी करने की कोशिश करो, नहीं हो पायेगी परन्तु तुम पूँछ सीधी करने का रेकार्ड बनाकर विश्व में पहला स्थान पा सकते हो ऐसे रेकार्ड आजकल गिनीज बुक आॅफ वल्र्ड रेकार्ड में लिखे जाते हैं। यही बात समाज के बारे में भी है समाज वहीं रहता है सुधार कार्य करने वाले महान हो जाते हैं।
7- भारत को विश्व गुरू बनाना व अच्छे दिन लाना, यह फल है जिसका जड़ व्यक्ति के मस्तिष्क और गाँव में है। जड़ को मजबूत करने से भारत नामक वृक्ष से अपने आप फल निकलने लगेगें। पुनर्निर्माण व्यक्ति के मस्तिष्क को मजबूत करने का ही कार्यक्रम है। शेष व्यक्ति व शासन मिलकर पूरा कर लेगें इसका हमें विश्वास है।
8- जो मन कर्म में न बदले, वह मन नहीं और व्यक्ति का अपना स्वरूप नहीं।
9- राष्ट्र निर्माण का वेबसाइट www.moralrenew.com राष्ट्रपति श्री प्रणव मुखर्जी द्वारा प्रस्तुत किये गये मार्गदर्शक बिन्दुओं का सम्मिलित रूप है। नये शहर के रूप में वाराणसी के दक्षिण थ्री इन वन ”सत्यकाशी नगर“ की योजना उस क्षेत्र के विकास पर आधारित है तो आध्यात्मिक एवं दार्शनिक विरासत के आधार पर एक भारत-श्रेष्ठ भारत के सपने को साकार करने के लिए पुनर्निर्माण - सत्य शिक्षा का राष्ट्रीय तीव्र मार्ग (RENEW- Real Education National Express Way) के वेबसाइट www.moralrenew.com द्वारा भारत देश के समाजवाद पर आधारित आम आदमी के लिए प्रस्तुत है। किसी व्यक्ति के बौद्धिक विकास के लिए आवश्यक है कि उसे भोजन, स्वास्थ्य और निर्धारित आर्थिक आय को सुनिश्चित कर दिया जाय और यह यदि उसके शैक्षिक जीवन से ही कर दिया जाय तो शेष सपने को वह स्वयं पूरा कर लेगा। यदि वह नहीं कर पाता तो उसका जिम्मेदार भी वह स्वयं होगा, न कि अभिभावक या ईश्वर। पुनर्निर्माण, इसी सुनिश्चिता पर आधारित है।
10- मानव एवम् संयुक्त मानव (संगठन, संस्था, ससंद, सरकार इत्यादि) द्वारा उत्पादित उत्पादों का धीरे-धीरे वैश्विक स्तर पर मानकीकरण हो रहा है। ऐसे में संयुक्त राष्ट्र संघ को प्रबन्ध और क्रियाकलाप का वैश्विक स्तर पर मानकीकरण करना चाहिए। जिस प्रकार औद्योगिक क्षेत्र अन्तर्राष्ट्रीय मानकीकरण संगठन (International Standardisation Organisation-ISO) द्वारा संयुक्त मन (उद्योग, संस्थान, उत्पाद इत्यादि) को उत्पाद, संस्था, पर्यावरण की गुणवत्ता के लिए ISO प्रमाणपत्र जैसे- ISO-9000 श्रंृखला इत्यादि प्रदान किये जाते है उसी प्रकार संयुक्त राष्ट्र संघ को नये अभिकरण विश्व मानकीकरण संगठन (World Standardisation Organisation-WSO) बनाकर या अन्र्तराष्ट्रीय मानकीकरण संगठन को अपने अधीन लेकर ISO/WSO-0 का प्रमाण पत्र योग्य व्यक्ति और संस्था को देना चाहिए जो गुणवत्ता मानक के अनुरूप हों। भारत को यही कार्य भारतीय मानक व्यूरो (Bureau of Indiand Standard-BIS) के द्वारा IS-0 श्रंृखला द्वारा करना चाहिए। भारत को यह कार्य राष्ट्रीय शिक्षा प्रणाली (National Education System-NES) व विश्व को यह कार्य विश्व शिक्षा प्रणाली (World Education System-WES) द्वारा करना चाहिए। जब तक यह शिक्षा प्रणाली भारत तथा संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा जनसाधारण को उपलब्ध नहीं हो जाती तब तक यह ”पुनर्निर्माण“ द्वारा उपलब्ध करायी जा रही है।
11- वेबसाइट www.moralrenew.com, जहाँ आपको मिलता है मनोरंजन को छोड़ कर, आपके शारीरिक-आर्थिक-मानसिक विकास के लिए सभी साधन। यह भारतीय फेसबुक है जहाँ आप भारतीयता के साथ पायेगें आज के युग के अनुसार विकास करने का न्यूनतम आवश्यक ज्ञान। और उपयोग करने वाले शत-प्रतिशत पहचान युक्त व्यक्ति क्योंकि जब तक पंजीकृत व्यक्ति का निवास व पहचान पत्र हमें नहीं प्राप्त होता, तब तक वह ब्लाॅग व विज्ञापन देने का काम नहीं कर सकता। हम आपको, आपके विकास के मुख्य-धारा में लाना चाहते हैं क्यांेकि सबके लिए 24 घण्टे का ही दिन है। मौज कर लो या अपने लक्ष्य के लिए काम कर लो।
12- आस्था कहीं भी लगा लो लेकिन क्षमता से अधिक उम्मीद मत करो। मानने से वस्तु में गुण नहीं आते लेकिन व्यापार विकसित हो जाता है।
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