जीवनदायिनी सत्यकाशी : प्रतीक चिन्ह व अर्थ
जीवनदायिनी सत्यकाशी : पंचम, अन्तिम और सप्तम काशी
जीवनदायिनी सत्यकाशी : काशी (वाराणसी)-सोनभद्र-शिवद्वार-विन्ध्याचल के बीच का क्षेत्र
मीरजापुर
चुनार एवं चुनार क्षेत्र
जीवनदायिनी सत्यकाशी में श्रीराम
जीवनदायिनी सत्यकाशी में श्री कृष्ण
जीवनदायिनी सत्यकाशी में भगवान बुद्ध
जीवनदायिनी सत्यकाशी में स्वामी विवेकानन्द
जीवनदायिनी सत्यकाशी में श्री लव कुश सिंह ”विश्वमानव“
जरगो नदी और लव कुश सिंह ”विश्वमानव“
पाँचवें युग - स्वर्णयुग के तीर्थ सत्यकाशी क्षेत्र में प्रवेश का आमंत्रण
पाँचवें युग - स्वर्णयुग में प्रवेश का आमंत्रण
समस्त विश्व को अणु रूप में धारण करने वाले देवता को विष्णु कहते हैं और समस्त विश्व को तन्त्र रूप में धारण करने वाले देवता को शिव कहते हैं। विष्णु, सार्वभौम आत्मा सत्य के प्रतीक हैं तो शिव, सार्वभौम आत्मा सिंद्धान्त के प्रतीक हैं। आत्मा, व्यक्तिगत प्रमाणित अदृश्य है तो सिद्धान्त सार्वजनिक प्रमाणित दृश्य है अर्थात विष्णु के ही दृश्य रूप शिव हैं। काशी का प्रतीक विश्वेश्वर शिवलिंग है। सत्यकाशी के प्रतीक में विष्णु का प्रतीक शंख और सु-दर्शन चक्र समर्पित है।
जीवनदायिनी सत्यकाशी : पंचम, अन्तिम और सप्तम काशी
सार्वभौम सत्य-सिद्धान्त और समाज समर्थित सत्यकाशी योजना जिसका क्षेत्र है- वाराणसी-विन्ध्याचल-शिवद्वार-सोनभद्र के बीच का भगवान विष्णूु और भगवान शिव से जुड़ा क्षेत्र। जो धर्मक्षेत्र से व्यापक सार्थक एवं पौराणिक आधारों पर प्रश्न करता है कि- क्यों काशी नरेश होते हुए भी उनका किला काशी शहर में नहीं? क्यों देवकी के आठवें पुत्र कृष्ण के बदले में पुत्री को कंस ने मारना चाहा तो वह विन्ध्य पर्वत पर आ बसीं? क्यों समष्टि (समाज या सार्वजनिक) धर्म के स्थापनार्थ विष्णु के पाँचवे अवतार वामन अवतार ने जब राजा बलि से तीन पग जमीन मांगा तब अवतार ने पहला पग चुनार क्षेत्र में ही रखा जिसके कारण इसका पुराना नाम चरणाद्रिगढ़ था? क्यों ब्रह्मलीन श्री श्री 1008 सत्ययोगानन्द उर्फ भुईधरा बाबा (भगवान रामकृष्ण की अगली कड़ी) ने सदी का सबसे लम्बा (दि0 13.11.97 से 22.06.98 तक) तथा अदृश्य काल का अन्तिम यज्ञ- विष्णु महायज्ञ और ज्ञानयज्ञ चुनार क्षेत्र में ही आयोजित किये? क्यों विश्व का अन्तिम शास्त्र ”विश्वशास्त्र“ इसी क्षेत्र से व्यक्त हुआ? क्यों विश्वव्यापी धर्म स्थापना (समष्टि धर्म स्थापना) पाँचवे अवतार वामन अवतार के बाद पुनः इस क्षेत्र से प्रारम्भ हो रहा है।
उपरोक्त प्रश्नों का जबाब भी सत्यकाशी योजना के जन्मदाता गण व्यापकता के साथ देते हैं। भौतिकवादी काशी वासीयों से मुक्त-शिवभक्त काशी नरेश की सत्यता के लिए प्रकृतिक चक्र द्वारा इनका किला काशी शहर में नहीं जिससे वे अन्त में अन्तिम काशी-सत्यकाशी के सत्यकाशी नरेश भी कहलायें। चुनार क्षेत्र पाँचवें अवतार वामन के चरणों से एक श्राप द्वारा ग्रसित हो चुका था कि इस क्षेत्र में जन्म लेने वाले व्यक्ति की चाहें जितना भी समष्टि (समाज) धर्म के लिए प्रयत्न क्यों न करें वे व्यष्टि(व्यक्तिगत) धर्म से अधिक न उठ सकेंगे। जब तक की इस क्षेत्र से बाहर जन्म लेकर कोई पुनः समष्टि धर्म स्थापनार्थ नहीं आ जाता। यह सब इसलिए है कि प्राकृतिक चक्र द्वारा विकसित और सन्तुलित क्षेत्र जो वाराणसी-विन्ध्याचल-शिवद्वार-सोनभद्र के बीच स्थित है। बस यहीं है पुराणों में वर्णित सात काशीयों में अन्तिम काशी-सत्यकाशी। यदि काशी (वाराणसी), शिवाकाशी, उत्तरकाशी और दक्षिण काशी (वैदुर्यपत्तन, बरकला, केरल प्रदेश) को मुख्य काशी माना जाय तो सत्यकाशी पंचम काशी है। और दो काशीयों को और सम्मिलित किया जाता है तो सत्यकाशी सप्तम काशी होगी। इस प्रकार शिव पुराण में वर्णित सात काशीयों में सत्यकाशी पंचम, अन्तिम तथा सप्तम काशी होगी।
इस प्रकार हम देखते है कि आध्यात्मिक, सार्थक, दूरदर्शी, प्रमाणित, पौराणिक, समाज समर्थित काशी की परम्परा का पालन करते हुए सत्यकाशी योजना है। जबकि लक्ष्य एक व्यापक जनसमुदाय को एक नयी दिशा द्वारा संरक्षण, विकास और आजिविका प्रदान करना है। इसलिए उचित स्थान पर इसका निर्माण आवश्यक है।
जीवनदायिनी सत्यकाशी
काशी (वाराणसी)-सोनभद्र-शिवद्वार-विन्ध्याचल के बीच का क्षेत्र
मीरजापुर
मीरजापुर, भारत के उत्तर प्रदेश राज्य का एक शहर और जिला मुख्यालय है, जो जिला सोनभद्र, चन्दौली, वाराणसी, संत रविदास नगर भदोही और इलाहाबाद जिले से घिरा हुआ है। इस जिले का नाम शासक मिर्जा के नाम पर रखा गया है। ब्रिटीश सरकार द्वारा कब्जा कर लेने के बाद इस नगर का नाम इसके पूर्व शासक के नाम पर रख दिया गया। स्थानीय मान्यताओं के अनुसार मीरजापुर, राजा नान्नेर द्वारा स्थापित किया गया था और पूर्व में यह शहर पर्वत पुत्री गिरिजा के नाम पर गिरिजापुर के नाम से जाना जाता था लेकिन ब्रिटीश विजय के उपरान्त इसे मीरजापुर के नाम से जाना जाने लगा।
मीरजापुर, बनारस राज्य का अंग था। सन् 1775 ई0 में इसकी प्रभुसत्ता अवध के नबाब कादीर द्वारा ईस्ट इण्डिया कम्पनी को सौंप दी गई। किन्तु इसका प्रबन्धात्मक प्रशासन सन् 1794 ई0 तक काशी नरेेश के जमींदार के अन्दर ही बना रहा। 27 अक्टुबर, 1794 को राजा महीप नारायण सिंह से सन्धि के शर्ताे के अनुसार अपने नियंत्रण को तत्कालीन गर्वनर जनरल को हस्तान्तरित कर दिया गया। सन् 1861 ई0 तक इलाहाबाद से अलग होकर यह जनपद अपने वर्तमान युग में प्रतिष्ठित हुआ। अप्रैल, 1998 में इस जनपद के दक्षिणी और पूर्वी भाग को अलग करते हुए सोनभद्र जनपद का सृजन किया गया। प्रशासनिक दृष्टि से मीरजापुर जनपद को चार तहसील चुनार, लालगंज, सदर और मड़िहान में बाँटा गया। विकास की गतिविधियों को संचालित करने के लिए 12 विकास खण्ड मीरजापुर शहर, कोन, छानबे, मझवां, पहाड़ी, सीखड़, नरायनपुर, जमालपुर, मड़िहान, राजगढ़ और हलियां बनाया गया। जनपद में 106 न्याय पंचायत, 763 ग्राम पंचायत, 1987 राजस्व गाँव जिसमें 265 गैर आबादी वाले गाँव सम्मिलित हैं। 14 जून 1997 से मीरजापुर मण्डल का सृजन किया गया जिसमें सन्त रविदास नगर भदोही, सोनभद्र तथा मीरजापुर जनपद सम्मिलित है। वर्तमान में मीरजापुर मण्डल का नाम बदलकर विन्ध्य मण्डल कर दिया गया है।
पर्यटन की दृष्टि से मीरजापुर काफी महत्वपूर्ण जिला माना जाता है। यहाँ की प्राकृतिक सुन्दरता और धार्मिक वातावरण बरबस लोगों का ध्यान अपनी ओर खींचती है। इसके दर्शनीय स्थल चुनारगढ़, सक्तेशगढ़, बिलखरा, खमरिया, बावनघाट, कुण्ड, ओझलापुल, भर्ग राजाओं के अवशेष, रामगया घाट पर बीच गंगा में स्थित स्तम्भ, हलिया उपरौंध में अर्धनिर्मित शिला महल, मीरजापुर नगर का घण्टाघर व पक्काघाट व अनके मन्दिर तथा प्राकृतिक पर्यटन स्थल में टांडा जल प्रपात, विन्ढम झरना, खजूरी बाँध, सिरसी बाँध, लखनियां दरी, चूना दरी, सिद्धनाथ की दरी, जरगो बाँध इत्यादि हैं जिनमें से कुछ के वर्णन इस प्रकार हैं-
1. तारकेश्वर महादेव - विन्ध्याचल के पूर्व में स्थित तारकेश्वर महादेव की कथा पुराणों में मिलता है। मन्दिर के समीप एक कुण्ड स्थित है। माना जाता है कि तारक नामक असुर ने मन्दिर के समीप एक कुण्ड खोदा था। भगवान शिव ने ही तारक का वध किया था। इसलिए उन्हें तारकेश्वर महादेव भी कहा जाता है। कुण्ड के समीप काफी सारे शिवलिंग स्थित हैं। पौराणिक कथा के अनुसार भगवान विष्णु ने तारकेश्वर के पश्चिम दिशा की ओर एक कुण्ड खोदा था और भगवान शिव के मन्दिर का निर्माण किया था। इसके अतिरिक्त, ऐसा भी कहा जाता है कि तारकेश्वर देवी लक्ष्मी का निवास स्थल है। देवी लक्ष्मी यहाँ अन्य रूप में देवी सरस्वती के साथ वैष्णवी रूप में निवास करती हैं।
2. शिवपुर - पौराणिक कथा के अनुसार भगवान श्री राम चन्द्र ने अपने पिता दशरथ का श्राद्ध विन्ध्याचल क्षेत्र में ही किये थे। इस जगह पर भगवान राम ने भगवान शिव की प्रतिमा की स्थापना की थी। इसी कारण यह मन्दिर रामेश्वर तथा स्थान शिवपुर के नाम से जाना जाता है। लक्ष्मण जी ने भी यहाँ शिवलिंग की स्थापना की जिसे लक्ष्मणेश्वर कहा जाता है।
3.सीताकुण्ड - अष्टभुजा मन्दिर के पश्चिम दिशा की ओर सीता जी ने एक कुण्ड खुदवाया था। उस समय से इस जगह को सीता कुण्ड के नाम से जाना जाता है। कुण्ड के समीप ही सीता जी ने भगवान शिव की स्थापना की थी जिसे सीतेश्वर कहते हैं। साथ ही रामकुण्ड भी है।
4.कांतित शरीफ - ख्वाजा इस्माइल चिस्ती का मकबरा, कांतित शरीफ में स्थित है। प्रत्येक वर्ष हिन्दू व मुस्लिम दोनों मिलकर उर्स का पर्व मनाते हैं। मकबरे के समीप ही मुगल काल का एक मस्जिद स्थित है जो काफी लम्बी है। जिसके कारण इसे लोग पहलवान मस्जिद के नाम से जानते हैं।
5.पुण्यजल नदी - मीरजापुर और विन्ध्याचल शहर के बीच बहने वाली नदी को पुण्यजल अथवा ओझल के नाम से जाना जाता है। कहा जाता है कि जिस प्रकार सभी यज्ञों में अश्वमेघ यज्ञ और सभी पर्वतों में हिमालय पर्वत प्रसिद्ध है उसी प्रकार सभी तीर्थ में ओझल सबसे प्रमुख मानी जाती है। इस नदी का जल, गंगा नदी के जल के समान ही पवित्र है। यह जगह देवी काली, महालक्ष्मी, महासरस्वती और तारकेश्वर महादेव मन्दिर से घिरी है।
6.गुरूद्वारा गुरू दा बाघ - मीरजापुर स्थित गुरूद्वारा गुरू दा बाघ काफी प्रमुख गुरूद्वारों में से है। इस गुरूद्वारे का निर्माण दसवें सिख गुरू गोविन्द सिंह की याद में करवाया गया था। यह शहर से लगभग 5 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है।
7.काशी हिन्दू विश्वविद्यालय का दक्षिणी परिसर - 2700 एकड़ का काशी हिन्दू विश्वविद्यालय का यह परिसर मीरजापुर जनपद के बरकछा नामक जगह पर स्थित है जो सोनभद्र मार्ग पर पहाड़ी पर लगभग 10 किलोमीटर पर स्थित हैं। यहाँ भी वाराणसी के मुख्य परिसर की भाँति व्यवस्थाएँ विकसित हो रहीं हैं। यह परिसर भी एक स्वतन्त्र विश्वविद्यालय जैसी क्षमता रखता है। जिसके सम्बन्ध में डाॅ0 कर्ण सिंह, प्रख्यात चिंतक व काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी, उ0प्र0, भारत के चांसलर भी बोल चुके हैं कि - ”विश्व एक परिवार है न कि बाजार। भारतीय मानको में गुरू-शिष्य परम्परा की अवधारणा को मजबूती देने की जरूरत है। शैक्षणिक संस्थानों में नई चेतना, विचारधारा निकालनी होगी जिससे सामाजिक व राष्ट्रीय उत्थान को बल मिले। शान्ति, मूल्यों की शिक्षा ही आज की आवश्यकता है। महामना की सोच मानवीय मूल्य के समावेश वाले युवाओं के मस्तिष्क का विकास था, चाहे वह इंजिनियर हो, विज्ञान या शिक्षाविद्। यहाँ के छात्र दुनिया में मानवीय मूल्य के राजदूत बनें ताकि देश में नम्बर एक बना बी.एच.यू. अब दुनिया के लिए आदर्श बने। इस विश्वविद्यालय सरीखा दूसरा कोई उत्कृष्ट संस्थान ही नहीं जहाँ संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा यूनेस्को चेयर फार पीस एंड इंटरकल्चर अंडरस्टैण्डिंग की स्थापना हुई। विश्वविद्यालय का दक्षिणी परिसर मुख्य परिसर की सिर्फ कापी भर नहीं है, बल्कि यह तो भविष्य में नये विश्वविद्यालय का रूप लेगा।“(दैनिक जागरण, वाराणसी, दि0 26-12-2010)
चुनार क्षेत्र
मीरजापुर जनपद के चार तहसील चुनार, लालगंज, सदर और मड़िहान में से एक तहसील चुनार है जो जिला मुख्यालय से 33 किलोमीटर और वाराणसी-कन्याकुमारी राष्ट्रीय राजर्माग संख्या-7 पर वाराणसी से 42 किलोमीटर पर स्थित है। दिल्ली-हावड़ा रेल लाईन पर यह मुगलसराय और इलाहाबाद के बीच स्थित है। चुनार तहसील के अन्तर्गत जनपद के 12 विकासखण्ड में से जमालपुर, नरायनपुर, सीखड़ और आधे राजगढ़ विकासखण्ड का क्षेत्र और दो नगरपालिका क्षेत्र अहरौरा और चुनार प्रशासनिक कार्य के अन्तर्गत आता है।
काशी (वाराणसी) और विन्ध्य क्षेत्र के बीच स्थित होने के कारण चुनार क्षेत्र भी ऋषियों-मुनियों, महर्षियों, राजर्षियों, संत-महात्माओं, योगियों-सन्यासियों, साहित्यकारों इत्यादि के लिए आकर्षण के योग्य क्षेत्र रहा है। प्राचीन काल में सोनभद्र सम्मिलित मीरजापुर व चुनार क्षेत्र सभी काशी के ही अभिन्न अंग थे। चुनार प्राचीन काल से आध्यात्मिक, पर्यटन और व्यापारिक केन्द्र के रूप में स्थापित है। गंगा किनारे स्थित होने से इसका सीधा व्यापारिक सम्बन्ध कोलकाता से था और वनों से उत्पादित वस्तुओं का व्यापार होता था। चुनार किला और नगर के पश्चिम में गंगा, पूर्व में पहाड़ी जरगो नदी, उत्तर में ढाब का मैदान तथा दक्षिण में प्राकृतिक सुन्दरता का विस्तार लिए विन्ध्य पर्वत की श्रृंखलाएँ हैं जिसमें अनेक जल प्रपात, गढ़, गुफा और घाटियाँ हैं।
सतयुग में एक विचित्र स्थिति उत्पन्न हो गयी हुआ यह कि एक प्रतापी, धर्मपरायण, प्रजावत्सल, सेवाभावी, दानवीर, सौम्य, सरल यानी सर्वगुण सम्पन्न राजा हुआ-बलि। लोग इसके गुण गाने लगे और समाजवादी राज्यवादी होने लगे। राजा बलि का राज्य बहुत अधिक फैल गया। समाजवादियों के समक्ष यानी मानवजाति के समक्ष एक गम्भीर संकट पैदा हो गया कि अगर राज्य की अवधारणा दृढ़ हो गयी तो मनुष्य जाति को सदैव दुःख, दैन्य व दारिद्रय में रहना होगा क्योंकि अपवाद को छोड़कर राजा स्वार्थी होगें, परमुखपेक्षी व पराश्रित होगे। अर्थात अकर्मण्य व यथास्थिति वादी होगे। यह भयंकर स्थिति होगी परन्तु समाजवादी असहाय थे। राजा बलि को मारना संभव न था और उसके रहते समाजवादी विचारधारा का बढ़ना सम्भव न था। ऐसी स्थिति में एक पुरूष की आत्मा अदृश्य प्राकृतिक चेतना द्वारा निर्मित परिस्थितियों में प्राथमिकता से वर्तमान में कार्य करना, में स्थापित हो गयी। वह राजा बलि से थोड़ी सी भूमि समाज या गणराज्य के लिए माॅगा। चूँकि राजा सक्षम और निश्ंिचत था कि थोड़ी भूमि में समाज या गणराजय स्थापित करने से हमारे राज्य पर कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा। इसलिए उस पुरूष को राजा ने थोड़ी भूमि दे दी। जिस पर स्वतन्त्र, सुखी, स्वराज आधारित समाज-गणराज्य स्थापित किया और उसका प्रभाव धीरे-धीरे बढ़ता गया और वह राजा बलि के सुराज्य को भी समाप्त कर दिया और समाज या गणराज्य की स्थापना की गयी। चूँकि यह पुरूष बौना अर्थात् छोटे कद का तथा स्वभाव और ज्ञान में ब्राह्मण गुणों से युक्त था इसलिए कालान्तर में इसे बामन अवतार का नाम दिया गया। ध्यान देने योग्य है कि प्रथम अवतार-मत्स्य ने समाज की रक्षा शुद्ध रूप से साध्य अर्थात् गणराज्य या समाज को साधन अर्थात् जनता का सहयोग प्राप्त कर की थी। दूसरा और तीसरा अवतार -कूर्म और बाराह ने साघ्य को साधन अर्थात् जनता के दोनों विचारों के समुदाय में समन्वय स्थापना कर की थी। चैथे- नृसिंह अवतार ने सीधे असुरों के राजा का वध कर ही साध्य अर्थात् गणराज्य या समाज की स्थापना की थी क्योंकि तब तक असुरों के एक राजा ही हुआ करते थे और राजा के वध के बाद नये राजा के अनुसार ही प्रजा का भी वहीं विचार होता था जो राजा का होता था। पाॅचवे- वामन अवतार ने राजा के सहयोग से ही उसके सुराज्य को समाप्त करने के लिए साधन का प्रयोग कर साध्य की प्राप्ति की। राजा बलि द्वारा इस अवतार को दी गई भूमि का क्षेत्र ही वर्तमान का उ0प्र0 के मीरजापुर जनपद का चुनार क्षेत्र है। जिस पर इस अवतार के कार्य का प्रथम चरण प्रारम्भ हुआ था जिसके कारण ही चुनार का प्रचीन नाम चरणाद्रिगढ़ था। जहाॅ आज भी मूल मानव जाति कूर्मि का बाहुल्य हैं। पाॅचवे अवतार तक अव्यक्त ऐकेश्वर वाद का ही अधिकतम प्रभाव समाज पर रहा।
चूंकि गणराज्य स्थापना का पहला चरण (आदि चरण) का क्षेत्र यह चुनार क्षेत्र ही था इसलिए इसका नाम चरणाद्रि पड़ा जो कालान्तर में चुनार हो गया। पहला चरण जिस भूमि पर पड़ा वह चरण के आकार का है। हमारे प्राचीन भूगोलविज्ञानियों ने अपने सर्वेक्षणों से यह पता लगा लिया कि विन्ध्य की सुरम्य उपत्यका में स्थित यह पर्वत मानव के चरण के आकार का है। विन्ध्य पर्वत श्रृंखला के इस पहाड़ी पर ही हरिद्वार से मैदानी क्षेत्र में बहने वाली गंगा का और विन्ध्य पर्वत की श्रृंखला से पहली बार संगम हुआ है जिसपर चुनार किला स्थित है। अनेक स्थानों पर वर्णन है कि श्रीराम यहीं से गंगा पार करके वनगमन के समय चित्रकूट गये थे। फादर कामिल बुल्के के शोध ग्रन्थ ”राम कथा: उद्भव और विकास“ के अनुसार कवि वाल्मीकि की तपस्थली चुनार ही है इसलिए कहीं-कहीं इसे चाण्डालगढ़ भी कहा गया है। इसे पत्थरों के कारण पत्थरगढ़, नैना योगिनी के तपस्थली के कारण नैनागढ़, भर्तृहरि के कारण इसे भर्तृहरि की नगरी भी कहा जाता है।
चुनार क्षेत्र के पत्थर और चीनी मिट्टी की कलाकृतियाँ प्रसिद्ध हैं। राजा-रजवाड़ों के समय चुनार के पत्थरों की काफी माँग थी। राजाओं द्वारा बनवाये गये किले व घाट इसके प्रमाण हैं। लगभग 3000 वर्ष पूर्व गुप्त साम्राज्य में भी इन पत्थरों का जमकर प्रयोग हुआ। चक्रवर्ती सम्राट अशोक द्वारा निर्मित ”अशोक स्तम्भ“ इसका उदाहरण है जिसका एक भाग सारनाथ (वाराणसी) के संग्रहालय में आज भी रखा हुआ है। काशी (वाराणसी) व मीरजापुर के घाटों व मन्दिरों का निर्माण भी यहीं के पत्थरों से हुआ है। वाराणसी स्थित सारनाथ बौद्ध मन्दिर, भारत माता मन्दिर व सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय भी इसके प्रमाण हैं। भारत का संसद भवन-नई दिल्ली, रामकृष्ण मिशन का बेलूड़ मठ का मन्दिर व लखनऊ में बन रहे अनेक स्मारक चुनार के पत्थरों से ही बने हैं। क्षेत्र में सीमेण्ट फैक्ट्री भी स्थित है।
1. चुनार किला -
सन् 1029 ई0 में कन्नौज के राजा सहदेवा ने इस किले को अपना राजधानी बनाया और पहाड़ के कन्दरा में नैनाजोगिनी की मूर्ति स्थापित की, जिससे इसका एक नाम नैनागढ़ भी पड़ा। राजा सहदेवा के दो बेटे थे- छोटक और इन्दु और एक बेटी सोनवा थी। राजा सहदेवा ने प्रतिज्ञा की थी कि जो मेरे साथ युद्ध में जीतेगा उसी से मैं अपनी बेटी का विवाह करूँगा। 52 राजा हारकर इस किले मंे कैद हुये और अंत में महोबा के राजा जासन के पुत्र उदल ने राजा सहदेवा के बेटे छोटक को कैद तथा इन्दू को मारकर अपने भाई आल्हा से सोनवा का विवाह कराया और सोनवा को महोबा ले गया। किले में सोनवा का मण्डप अब भी है।
यह किला पहले बनारस राज्य के अधीन हुआ उसके बाद 12वीं सदी में पृथ्वीराज चैहान, ज्वालासेन और शहाबुद्दीन गौरी (1194 ई0) के बाद 1206 ई0 में जब शाह कुतुबुद्दीन ऐबक सिंहासन पर बैठा तो उस ने सहदेव जमालुद्दीन को यहाँ का राज्यपाल नियुक्त किया। 1266 ई0 में जब गयासुद्दीन बलवन सिंहासन पर बैठा तब मिर्जा महमूद बेग यहाँ का राज्यपाल बना। सन् 1333 ई0 में स्वामी राजा चन्देल के अधिकार में यह किला आने के कारण इसे चन्देलगढ़ भी कहा गया है। सन् 1488 ई0 से सन् 1528 ई0 तक यह किला राजा वीर सिंह और वीरभान सिंह के पास रहा। सन् 1529 ई0 में जब बनारस राज्य बाबर के अधिकार में आया तो वह अपनी सेना को इस किले में रखा। उस समय किले के चारो ओर जगंल और जंगली जानवर रहते थे। जानवरों ने उसकी सेना के अनेक सिपाहीयों को भी मारा था। आगरा में बाबर की मृत्यु के बाद सन् 1530 ई0 में शेरषाह सूरी ने इस किले पर अधिकार जमाया और किले में कुछ निर्माण भी कराये। जब हुमायूँ को दिल्ली में खबर मिली तो वह अपनी सेना लेकर चुनार के किले पर चढ़ाई कर दी और 6 महीने तक युद्ध होता रहा। शेरशाह सूरी ने हुमायूँ को हरा दिया। सन् 1545 ई0 में शेरशाह सूरीं के मरने के बाद यह किला हुमायूँ के दिल्ली राज्य के अधिकार में आया। सन् 1556 ई0 में जब हुमायूँ मरा तब अकबर नाबालिंग था जिसके कारण उसके मंत्री बैरम खां को दिल्ली का शासन दिया गया। अकबर ने इस किले का एक दरवाजा बनवाया जिस पर हिजरी सन् 981 खुदा हुआ है। यह दरवाजा अब पानी घाट कहलाता है। अकबर के बाद जहांगीर, शाहजहां और औरंगजेब भी इस किले के अधिपति बने। जहांगीर ने सन् 1605 ई0 में नबाब इफितारखां को यहाँ का राज्यपाल बनाया। सन् 1658 ई0 में जब औरंगजेब दिल्ली के सिंहासन पर बैठा तब उस ने मिर्जा बहराम को यहाँ का राज्यपाल बनाया और उसके माध्यम से किले में एक मस्जिद बनवाया जो अभी भी है। सन् 1713 ई0 में फारूख सियर, 1719 ई0 में मुहम्मद शाह के बाद 1760 ई0 में यह किला नबाब शुजाउद्दौला के अधिकार में आया। 1764 ई0 में अंगे्रज मेजर मुनरो अपनी सेना लेकर इस किले पर चढ़ाई कर दिया परन्तु असफल रहा। 1765 ई0 में अंग्रेज जनरल कारनिक ने इस किले पर चढ़ाई की परिणामस्वरूप जनरल कारनिक और नबाब शुजाउद्दौला में समझौता हुआ। सन् 1768 ई0 में यह अंग्रेजों के अधीन हो गया।
सन् 1947 ई0 में भारत देश के स्वतन्त्रता प्राप्ति के साथ यह भारत सरकार के अधीन हो गया। देश विभाजन के पश्चात् कश्मीरी शरणार्थी यहाँ अनकों वर्ष तक रहे। इसके उपरान्त 1950 ई0 में बंगाल की विधवाएँ यहाँ आयीं। सन् 1966 ई0 में यहाँ पी.ए.सी. की 28वीं वाहिनी रहने लगी जो वर्तमान तक हैं।
इस किले का अधिकांश प्रयोग युद्ध बन्दियों, युद्ध सामग्री निर्माण, सेना छावनी इत्यादि के लिए ही किया गया। कहा जाता है कि यहाँ से अनेक सुरंगे निकलकर दूर-दूर तक जाती है। इस किले के रहस्यमय कथाओं के कारण ही सुप्रसिद्ध उपन्यासकार देवकीनन्दन खत्री ने ”चन्द्रकान्ता“ उपन्यास की रचना की जिस पर चर्चित दूरदर्शन धारावाहिक भी बन चुका है।
किले में भर्तृहरि की समाधि, समाधि के सम्बन्ध में बाबर का हुक्मनामा, औरंगजेब का हुक्मनामा, सोनवा मण्डप, शेरशाह सूरी का शिलालेख, अनेक अरबी भाषा में लिखे शिलालेख, आलमगीरी मस्जिद, बावन खम्भा व बावड़ी, जहांगीरी कमरा, रनिवास, मुगलकालीन बारादरी, तोपखाना व बन्दी गृह, लाल दरवाजा, वारेन हेस्टिंग का बंगला, बुढ़े महादेव मन्दिर इत्यादि किले के उत्थान-पतन की कहानियाँ कहती हैं।
2. चुनार नगर -
चुनार किले से लगा हुआ ही चुनार नगर है जिसकी भौगोलिक स्थिति बड़ी आकर्षक है। नगर के चारों ओर नदी-नाले, पर्वत-जंगल, झरने, तालाब आदि की बहुतायत है। चुनार नगर उतना ही प्राचीन है जितना चुनार किला। दोनों की स्थापना व विकास साथ-साथ चलता रहा है। चुनार नगर क्षेत्र के ऐतिहासिक स्थलों में रौजा इफतियार खां, गंगेश्वरनाथ, आचार्य कूप, कदम रसूल, शाह कासिम सुलेमानी का दरगाह, गदाशाह, मुहम्मदशाह, बच्चूशाह, नवलगीर, सूरदास, बालूघाट के भगवान बामन अवतार, भैरो जी, चक्र देवी, आनन्दगिर का मठ, राघो जी के महाबीर, गंगाराम का स्थल, गुरू नानक की संघत, गोसाई साहब का मठ, सतीवाड़, हजारी की हवेली, टेकउर के टिकेश्वर महादेव का श्रीचक्र त्रिकोण, अंग्रेजो का कब्रिस्तान इत्यादि के अपने-अपने इतिहास हैं।
चुनार किले से लगा हुआ ही चुनार नगर है जिसकी भौगोलिक स्थिति बड़ी आकर्षक है। नगर के चारों ओर नदी-नाले, पर्वत-जंगल, झरने, तालाब आदि की बहुतायत है। चुनार नगर उतना ही प्राचीन है जितना चुनार किला। दोनों की स्थापना व विकास साथ-साथ चलता रहा है। चुनार नगर क्षेत्र के ऐतिहासिक स्थलों में रौजा इफतियार खां, गंगेश्वरनाथ, आचार्य कूप, कदम रसूल, शाह कासिम सुलेमानी का दरगाह, गदाशाह, मुहम्मदशाह, बच्चूशाह, नवलगीर, सूरदास, बालूघाट के भगवान बामन अवतार, भैरो जी, चक्र देवी, आनन्दगिर का मठ, राघो जी के महाबीर, गंगाराम का स्थल, गुरू नानक की संघत, गोसाई साहब का मठ, सतीवाड़, हजारी की हवेली, टेकउर के टिकेश्वर महादेव का श्रीचक्र त्रिकोण, अंग्रेजो का कब्रिस्तान इत्यादि के अपने-अपने इतिहास हैं।
(अ) शाह कासिम सुलेमानी का दरगाह -
यह शाह कासिम सुलेमानी का मकबरा है जो अकबर और जहाँगीर के समकालीन थे। यह चुनार किले के दक्षिण तरफ गंगा किनारे 30 बीघे के क्षेत्र में स्थित है। दूर-दूर से लोग फरियाद लेकर यहाँ बाबा के दरगाह में हाजिरी लगाने के लिए हिन्दू-मुसलमान दोनों आते हैं। कहते हैं कि यहाँ मिन्नत मानने वाले की मुराद जरूर पूरी होती है। यहाँ वर्ष में दो बार मेला लगता है। मेला जमादेउल अव्वल की 17वीं से 19वीं तारीख (अक्टुबर-नवम्बर) को उर्स के अवसर पर तथा दूसरी बार हिन्दी के चैत्र महीने के प्रत्येक बृहस्पतिवार को। 5वें जुमेरात का मेला ”धोबिया मेला“ के नाम से विख्यात है। इसमें हिन्दुओं की संख्या अधिक होती है। उर्स के मौके पर चिश्तिीयों की दरगाह की भाँति यहाँ कौव्वाली और गाने-बजाने का कार्यक्रम नहीं होता। मकबरा स्थान पर खलीफा की नियुक्ति होती है जिन्हें सज्जादा नशीन कहा जाता है और पदवी ”दीवाना“ होती है। दरगाह के प्रबन्धक इसी पदवी से सम्मानित होते हैं। वर्तमान में सैयद अताउर्रहमान दीवाना इस स्थान के वर्तमान खलीफा हैं।
शाह कासिम सन् 956 हिजरी (1539 ई0) में पेशावर (पाकिस्तान) के पास बद्री नदी के निकटवर्ती गांव के अफगान वंश में पैदा हुए थे। जहाँ उनके अनेक चमत्कार विख्यात हैं। इनके पूर्वज सुलेमान पर्वत के भूखण्ड के निवासी थे इसी कारण इन्हें सुलेमानी कहा जाता है। इनके पूर्वज भी संत थे। शाह कासिम 27 वर्ष की उम्र में 7 वर्ष के लिए तीर्थ करने के उद्देश्य से निकल पड़े। बाबा मक्का, मदीना, करबला, बगदाद, बसरा, नजफ, यरूशलम और सीरिया में ह्यूमा तक गये। ह्यूमा इनके पीर-ए-मुर्शीद (आध्यात्मिक गुरू) का स्थान था इसलिए वहाँ दो बार गये और 13 महीने रहकर अपने पीर की सेवा की।
अकबर के बाद जब जहाँगीर गद्दी पर बैठा और अपने पुत्र खुसरो का दमन करने के लिए लाहौर गया तो उसे बताया गया कि संत उसके पुत्र का समर्थक है। जहाँगीर ने इस बात का विश्वास करके इनके पास एक थाल में हथकड़ी तथा दूसरे में तलवार रखकर भेजा। खून-खराबे से दूर संत ने हथकड़ी कबूल की। इस प्रकार संत को बन्दी बनाकर हिजरी 1015 (सन् 1606) ई0 में चुनार के लिए रवाना किया गया। बंदी संत की टोली जब चुनार पहुँची तो इन्होंने एक सेवक से मिट्टी के पात्र में जल लाने को कहा। जल लाते समय पात्र सेवक के हाथ से गिरकर टूट गया। यह देखकर संत ने कहा कि उनके जीवन के अन्तिम क्षण निकट हैं और उनकी समाधि चुनार में ही बनेगी। बाद में उनका कथन सत्य निकला। चुनार के किले में उन्होंने अनेक चमत्कार किये जिससे सम्राट को यकीन हुआ कि ये अराजकता के प्रचारक नहीं हैं बल्कि पहुँचे हुये संत हैं। बाद में जहाँगीर ने इनसे मिलने की अनुमति चाही लेकिन संत ने इन्कार कर दिया। किले के भैरोबुर्ज से एक दिन इन्होंने एक तीर छोड़ा और शिष्यों को आदेश दिया कि तीर जहाँ गिरे वहीं इन्हें दफन किया जाये। तीर पहले उस स्थान पर गिर रहा था, जहाँ बस्ती थी। तब संत ने कहा ”टुक और“ अर्थात थोड़ा और आगे। कहते हैं तीर थोड़ा और आगे जाकर गिरा और उसी स्थान पर मकबरा बना। बाद में इस स्थान का नाम टिकौर हो गया।
बाबा साहेब की मृत्यु हिजरी 1016 (सन् 1607) ई0 के जमादेउल अव्वल की 19वें दिन हुई थी। उनका शव 6 माह तक सुरक्षित रखा गया था। जहाँ शव सुरक्षित रखा गया था वह कमरा आज भी उनके पुत्र मुहम्मद वासिल की समाधि के निकट है। संत का आज का मकबरा उनके पुत्र मुहम्मद वासिल ने बनवाया था। बाद में जहाँगीर ने 30 बीघा भूमि कर मुक्त इस दरगाह को दी थी। फिर शाहजहाँ ने 50 बीघा जमीन तथा बादशाह फरूखसियार ने बेगपुर गाँव अनुदान मे देकर दरगाह के खर्च की स्थायी व्यवस्था दी। आगे चलकर संत के पुत्रों तथा पौत्रों की समाधियाँ भी यहीं बनी। यहीं दरगाह में बहादुरशाह जफर के पुत्र जहांदार शाह की बीबी की कब्र भी है। संत सुलेमानी की दो स्त्रियाँ खदीजा बीबी और माही बीबी थी। मुहम्मद वासिल की माँ खदीजा बीबी की मृत्यु संत को बंदी बनाने के पूर्व लाहौर में ही हो चुकी थी किन्तु मुहम्मद कबीर की माँ माही बीबी चुनार आयीं और मृत्योपरान्त यही दफन की गयीं। संत के ज्येष्ठ पुत्र कबीर की समाधि कन्नौज में है।
(ब) आचार्य कूप और विट्ठल महाप्रभु
काशी चैरासी कोस यात्रा के अत्नर्गत यह वल्ल्भाचार्य धाम भी है। शंकराचार्य के अद्वैत मत के पश्चात् द्वैत, द्वैताद्वैत, विशिष्टाद्वैत, शुद्धद्वैत आदि का प्रवर्तन हुआ। इसके बाद वल्लभाचार्य ने पुष्टि मार्ग की अवधारणा की। पुष्टि में भगवान के अनुग्रह को विशेष महत्व दिया गया तथा कहा गया कि भगवान के पोषण (पुष्टि) के अभाव में जीव को मुक्ति नहीं मिल सकती। वल्लभ सम्प्रदाय के जनक तथा पुष्टि मार्ग का प्रसार करने वाले वल्लभाचार्य जी ने पृथ्वी की तीन बार प्रदक्षिणा की थी। अपने अन्तिम प्रदक्षिणा में जब वे चुनार से गुजर रहे थे तब यहीं विट्ठलनाथ जी का जन्म विक्रम सम्वत् 1572 में पौष कृष्ण नवमी को हुआ। वल्लभाचार्य की ससुराल वाराणसी स्थित तैलंग ब्राह्मण मधुमंगल जी के यहाँ महालक्ष्मी जी से हुयी थी। अपने पृथ्वी परिक्रमा के अवसर पर वल्लभाचार्य ने 84 स्थानों पर भगवान का परायण किया था। इन स्थानों को महाप्रभु की बैठक कहा जाता है। इस दृष्टि से चुनार की पावनभूमि को दोहरा महत्व प्राप्त है क्योंकि यहाँ महाप्रभु की बैठक भी है और यहीं महाप्रभु विट्ठलनाथ का अवतरण भी हुआ था। इस स्थान को ”चरणाट्धाम“ कहते हैं।
वल्लभाचार्य जी का जब देहान्त हुआ था तब विट्ठलनाथ जी मात्र 15 वर्ष के थे। तब विट्ठलनाथ जी के ज्येष्ठ भ्राता गोपीनाथ जी को सम्प्रदाय का आचार्य बनाया गया। कुछ समय उपरान्त उनका भी निधन हो गया। अपने छोटी सी उम्र में ही विट्ठलनाथ जी ने काफी अध्ययन कर लिये थे और उन्हें आचार्य बनाया गया। कम समय में ही उनकी कीर्ति पूरे देश में फैल गयी। गुसाई विट्ठलनाथ जी की आगे चलकर दो विवाह हए। प्रथम पद्मावती जी से हुआ और इनसे 6 पुत्र और 4 पुत्रियोें की प्राप्ति हुई। दूसरे विवाह से मात्र एक पुत्र घनश्याम जी हुए।
विट्ठलनाथ जी हिन्दी, संस्कृत और ब्रजभाषा के प्रकाण्ड विद्वान और दार्शनिक थे। उनकी विद्वता से प्रभावित होकर कई देश के प्रतापी राजा-महाराजा उनके शिष्य बन गये। टोडरमल और बीरबल भी उनके समर्थक माने जाते थे। कहा जाता है कि उनके उपदेश से प्रभावित होकर अकबर ने गोकुल और ब्रज में गोवध पर प्रतिबन्ध लगा दिया था। उन्होंने 4 दर्जन से अधिक ग्रन्थों की रचना की। विट्ठलनाथ जी ने अष्टछाप नामक संगठन भी बनाया था जिसमें सूरदास, कुम्भनदास, परमानन्ददास, श्रीकृष्णदास, गोविन्द स्वामी, नन्दादास, छीत स्वामी और चतुर्भुजदास थे। अपने पिता की भाँति इन्होंने पूरे देश में 28 बैठकें स्थापित कीं जिसमें 16 ब्रज में, 8 गुजरात में और 4 अन्य स्थानों पर स्थित हैं। पौष मास में यहाँ प्राकट्य महोत्सव होता है जिसमें सारे देश से लोग भाग लेने आते हैं। वाराणसी से हजारों लोग इसमें सम्मिलित होते हैं इस अवसर पर चुनार लघुकाशी का रूप ले लेता है।
विट्ठलनाथ जी का जब जन्म हुआ तब वल्लभाचार्य जी यात्रा में थे, उन्हें नवजात शिशु के साथ यात्रा पर जाना कष्टप्रद लगा। वल्लभाचार्य ने पुत्र को एक डोलची में रखकर एक कूप में लटका दिया और भगवान भरोसे छोड़कर आगे निकल गये। यात्रा से लौटकर उन्होंने देखा कि कुँए के मुंडेर पर एक मधुमक्खी का छत्ता लगा है जिसमें शहद की एक-एक बूँद नीचे डोलची में रखे पुत्र के मुख पर गिर रहा है और बालक पूर्ण स्वस्थ और आनन्दित है। तभी से इस स्थान को जन्म स्थान होने का गौरव प्राप्त है। सम्प्रदाय के लोंगो ने कुँए को पक्का बनवाकर उस का नाम ”आचार्य कूप“ रख दिया। आस-पास धर्मशाला और पक्का तालाब बनवाकर उस जगह बाग लगवा दिये। सावन के हर रविवार को यहाँ स्नान का मेला लगता है।
वि.सं. 1642 को 70 वर्ष की आयु में वे सदेह श्रीनाथ जी के स्वरूप में लीन हो गये। इसके बाद उनके ज्येष्ठ पुत्र गिरधरलाल जी उनके कार्यो को आगे बढ़ाये।
3. चुनार क्षेत्र
चुनार क्षेत्र के अन्तर्गत जमालपुर, नरायनपुर, सीखड़, राजगढ़ का क्षेत्र और नगरपालिका क्षेत्र अहरौरा तथा चुनार आता है। सम्पूर्ण चुनार क्षेत्र का ऐतिहासिक, प्राकृतिक, धार्मिक व आध्यात्मिक महत्व अति विशाल और समृद्ध है। इनमें से कुछ निम्नलिखित हैं।
(अ) जरगो बाँध -
जरगो बाँध मीरजापुर-वाराणसी (काशी)-राबर्ट्सगंज (सोनभद्र) के त्रिभुज के केन्द्र में पहाड़ियों के बीच में स्थित है जो तीनों शहर से लगभग 50 किमी की दूरी पर है। जरगो बाँध सन् 1950 से 1958 के दौरान रु0 1,21,36,700.00 की लागत से निर्मित हुआ है। जिसका मुख्य लाभ सिचाई व मत्स्य पालन के क्षेत्र में है। जरगो बाँध द्वारा मीरजापुर के 3150 एकड़, चन्दौली के 33744 एकड़ तथा गाजीपुर के 17691 एकड़ अर्थात् कुल 64585 एकड़ की सिचाई होती है। जरगो बाँध में 143.0 वर्ग किलोमीटर (55 वर्ग मील) से वर्षा का जल एकत्रित होता है। तथा स्थिर जल का झील क्षेत्र 31.2 वर्ग किमी (12 वर्ग मील) है। सिंचाई के लिए उपयोगी जल 5005 लाख क्यूबिक फीट तथा अनुपयोगी जल 320 लाख क्यूबिक फीट है। मिट्टी द्वारा बने बाँध की कुल लम्बाई 8 किमी 240 मीटर (5 मील 800 फीट) है। जिसकी अधिकतम ऊँचाई लगभग 30 मीटर (100 फीट) है। जल निकासी के लिए 30 फीट की ऊँचाई और 15 फीट की चैड़ाई के 12 गेट है। जो दो स्थानों पर 8 और 4 की संख्या में बनाये गये हैं। जिससे 70400 क्यूबिक फीट प्रति सेकेण्ड की गति से जल निकल सकता है। जल का अधिकतम स्तर 323 फीट समुद्रतल (एस0 एल0), झील का अधिकतम स्तर 322 फुट समुद्र तल (गेट से) है। अनुपयोगी जल का स्तर 282 फीट समुद्रतल है। जरगो बाँध का पूर्ण क्षेत्र 1,97,000 एकड़ है तथा कृषि योग्य क्षेत्र 1,28,050 एकड़ है। जरगो बाँध के नहरों की लम्बाई लगभग 244.8 किमी (153 मील) है।
जरगो बाँध को मध्य प्रदेश से आने वाली बाण सागर परियोजना के नहरों से जोड़ा जा रहा है। इस प्रकार वर्षा जल पर आधारित इस बाँध में जल की स्थिरता सुनिश्चित हो जायेगी।
(ब) बेचूवीर धाम - वाराणसी-शक्तिनगर मार्ग पर अहरौरा बाजार से लगभग 14 किलोमीटर की दूरी पर, जरगो बाँध के दक्षिण घने पहाड़ों एवं जंगलो के बीच बेचूवीर धाम स्थित है। लगभग 300 वर्ष पूर्व बेचू यादव गुलरिहां गाँव के निवासी थे। यह गाँव सन् 1952 में जरगो बाँध बनने से समाप्त हो गया। उस समय यह पूरा क्षेत्र पहाड़ी और घनघोर जंगल का क्षेत्र था। बेचू यादव अपनी विधवा माँ, पत्नी और छोटे भाई के साथ वहाँ रहते और गाय-भैंस चराया करते थे। साथ ही वे पहलवान और अनन्य शिव भक्त भी थे। जगंल में रहने के कारण वे जगंली हिंसक जानवरों से लड़ने में भी कुशल थे। एक बार जरगो नदी के दक्षिण तरफ एक हिंसक शेर आ गया था जो जानवरों के साथ दो चरवाहों को भी मार डाला था। माँ की आज्ञा से वे शेर से लड़ने चले गये। शेर के साथ उनका युद्ध कार्तिक मास अष्टमी से लेकर कार्तिक मास दशमी तक चलता रहा और तीसरे दिन शेर ने दम तोड़ दिया। बेचू यादव इस युद्ध में काफी घायल हो गये जिसकी सूचना गाँव वालों को उनके पालतू कुत्ते ने दिया। गाँव वालों के सामने वे भी दम तोड़ दिये और उन्हें उनके कहने के अनुसार वहीं दफन कर दिया गया।
जंगल महाल के बजाहुर नदी के किनारे प्राचीन समय में बेचूवीर की चैरी स्थित थी। साधकों द्वारा व्यवस्था व सुविधा की दृष्टि से बरही गाँव में लाकर चैरी बनाकर स्थापित कर दिया गया जहाँ बेचू यादव के वंशज ही पूजा करते आ रहे हैं। बेचूवीर धाम सहित चारों दिशाओं में प्रेत बाधा निवारण के लिए विभिन्न देवी-देवताओं के स्थान हैं। बेचूवीर धाम के दक्षिण-पूर्व की ओर बरहिया माता का स्थान है। इन्हें खोरियाडीह भी कहते हैं। बेचूवीर के पश्चिम टेड़ुवा के पहाड़ में टेड़ुआ खोह है जिसमें तालाब होने की बात कही जाती है। इसी स्थान पर ढेसुर के प्राचीन वृक्ष में सात परियों और एक वीर का भी स्थान है। बेचूवीर धाम के दक्षिण तरफ एक प्राचीन नीम के वृक्ष में नर पहलवान और मोहिनी माता का निवास स्थान है। बेचूवीर धाम में पिछले 300 वर्षो से कार्तिक अष्टमी से लेकर कार्तिक एकादशी तक चार किलोमीटर क्षेत्र में मेला लगता है। इस मेले में उत्तर प्रदेश के विभिन्न जिलों के अलावा मध्य प्रदेश, बिहार, पश्चिम बंगाल, महाराष्ट्र, हिमाचल प्रदेश सहित अन्य प्रदेशों से लाखों लोग आते हैं। लोगों के अनुसार इस मेले में प्रेत निस्तारण, संतानोत्पत्ति अथवा मनोवाछिंत फल प्राप्ति के लिए लगातार 5 बार आना पड़ता है। इस मेले के दर्शन से यह अनुभव होगा कि जंगल की संस्कृति और कबीले की जिन्दगी कैसी रही होगी?
(स) भण्डारी देवी -
वाराणसी-शक्तिनगर मार्ग पर अहरौरा बाजार से उत्तर दिशा में 3000 फिट ऊँचे पर्वत पर माँ भण्डारी देवी का मन्दिर स्थित है। जहाँ दूर-दूर से भक्त दर्शन करने आते हैं। मन्दिर के पास ही एक तालाब है जिसके बारे में लोगों की मान्यता है कि देवी जी यहीं नित्य स्नान करने आती हैं। भक्तजन इसे गंगा की तरह पवित्र मानते हैं। यहीं पर्वतों की चट्टानों पर कुछ पद चिन्ह भी है जिन्हें देवी माँ का पद चिन्ह माना जाता है। मन्दिर के नीचे विशाल आँगन होने की बात कही जाती है लेकिन चट्टानों के खिसक जाने के कारण अन्दर जाने के सभी मार्ग बन्द हो चुके हैं। अहरौरा से दक्षिण-पूर्व स्थित राजा कर्णपाल सिंह का पर्वत है। जनश्रुति है कि यहीं माँ भण्डारी देवी का मायका है। सावन के महीने में माँ देवी मायके में रहती हैं। इस महीने के बाद भक्तजन उन्हें किर्तन-भजन के साथ मन्दिर ले आते हैं। पुरातात्विक दृष्टि से माँ भण्डारी देवी पर्वत का विशेष महत्व है। मन्दिर के उत्तर तरफ थोड़ी दूर पर पुरातत्व विभाग ने एक स्थान को सुरक्षित कर रखा है। इसके अन्दर पत्थरों पर अज्ञात लिपियों में कुछ लिखा हुआ है।
(द) लखनियाँ दरी - वाराणसी-शक्तिनगर मार्ग पर अहरौरा बाजार से लगभग 8 किलोमीटर की दूरी पर लखनियाँ दरी स्थित है। बाबू देवकीनन्दन खत्री की रचना ”चन्द्रकान्ता“ का प्रेरणास्रोत यही क्षेत्र रहा है। लखनियाँ दरी सहित, मानिकपुर गाँव के समीप की पहाड़ी का कमरा तथा जंगल महाल, बरही क्षेत्र के अनेक स्थान आज भी चन्द्रकान्ता की कथा की याद दिलाते हैं। लखनियाँ दरी के भित्ति चित्रों के निर्माण का काल 400 वर्ष पूर्व बताया जाता है। कुछ लोगों ने इसे मुगलकालीन बताया है। लखनियाँ दरी के सम्बन्ध में कहावत है कि एक राजकुमार अपनी पत्नी और अंगरक्षकों के साथ लखनियाँ में नदी पार कर रहा था। उसी समय अचानक बाढ़ आ गई जिसमें सभी बह गये। रानी ने अपने पति की प्राण रक्षा के लिए प्रयत्न किया परन्तु वह असफल रही। पति की मृत्यु के बाद दुःखी रानी ने मृत्यु का वरण करने से पूर्व एक अत्यन्त सुरक्षित गुफा की दीवार पर अपने खून से कुछ भित्ति चित्रों का निर्माण कर दिया। कहा जाता है कि उसी स्थान पर रानी ने अपने प्राण त्याग दिये। आज भी इस स्थान के ऊपर सती माता का एक चैरी स्थित है। पास में ही झलरिया दरी भी एक महत्वपूर्ण साधना स्थली है। इस क्षेत्र में आज भी खतरनाक जंगली जानवरों की बहुलता है।
(य) चूना दरी - लखनियाँ दरी के पास ही चूना दरी स्थित है। चूना दरी के लिये वाहन का रास्ता नहीं है। भौगोलिक दृष्टि से डोगिया जलाशय व अहरौरा जलाशय के निर्माण के पूर्व यह एक खतरनाक नदी मानी जाती थी। बरसात के दिनों में इसमें काफी उफान होता था। चूना दरी को डोगिया जलाशय द्वारा और लखनियाँ दरी को हाईचैनल तथा अहरौरा जलाशय द्वारा नियंत्रित कर सिचाई के उपयोग में लिया गया है।
(र) गुरूद्वारा बाग - श्री गुरू तेगबहादुर जी का यह गुरूद्वारा, वाराणसी-शक्तिनगर मार्ग पर 40 किलोमीटर की दूरी पर मीरजापुर जिले के अहरौरा में स्थित है। यह गुरूद्वारा नौंवे सिख गुरू तेगबहादुर को समर्पित है। यह गुरूद्वारा, गुरूद्वारा बाग साहिब के नाम से प्रसिद्ध है। माना जाता है कि 1666 में वाराणसी की यात्रा के दौरान गुरू जी इस जगह पर आए थे। 1742 में प्रकाशित पवित्र गुरू ग्रन्थ साहिब की हस्तलिपि आज भी यहाँ संरक्षित है। इसके अतिरिक्त हाथ से लिखी हुई पोथी, जिस पर गुरू गोविन्द सिंह के हस्ताक्षर हैं, मौजूद है। यह पोथी लोंगो के सामने केवल गुरू तेग बहादुर और गुरू गोविन्द सिंह की जयंती पर ही प्रदर्शित की जाती है।
(ल) सिद्धपीठ दुर्गा खोह - दुर्गाखेह चुनार से 2 किलोमीटर दक्षिण की ओर राजगढ़ सड़क पर स्थित है। इसी मार्ग पर सक्तेशगढ़, जौगढ़, परमहंस स्वामी अड़गड़ानन्द आश्रम और सिद्धनाथ की दरी है। काशी खण्ड के अनुसार रूरू दैत्य के पुत्र दुर्ग के तप पर प्रसन्न होकर ब्रह्मा ने उसे अजेय होने का वर दिया था। इस शक्ति को प्राप्त कर दुर्ग दैत्य ऋषियों, मुनियों तथा देवीयों को कष्ट देने लगा। देवों ने शिव से रक्षा की गुहार की। शिव ने देवी पार्वती से दुर्ग का वध करने का अनुरोध किया। तब देवी पार्वती ने अपनी शक्ति से कालरात्रि को सुन्दर स्त्री के रूप में प्रकट करके दैत्यों के पास भेजा। दुर्ग ने आदेश दिया कि इसे मेरे पास ले आओ। दैत्यों ने ज्योंहि कालरात्रि को पकड़ना चाहा कि वे उनके दीर्घश्वास से भस्म हो गये। इस दृश्य को देखकर दुर्ग अपनी विशाल सेना लेकर कालरात्रि से युद्ध करने चल दिया। कालरात्रि तब चुनार स्थित इसी विन्ध्य पर्वत की श्रृंखला पर देवी पार्वती के पास आ गयीं। उसी समय दैत्य दुर्ग भी अपनी सेना लेकर यहाँ आया। देवी ने सहस्र भुजा धारण कर दुर्ग एवं उसकी सेना का संहार किया। दुर्ग का वध करने के कारण देवी को दुर्गा नाम दिया गया।
दुर्गाखोह पहुँचने के लिए सीढ़ियों से उतरना पड़ता है। जहाँ सिढ़ियाँ समाप्त होती हैं वहीं देवी के प्रकट होने का वर्णन है। मन्दिर के प्रांगण में पहुँचते ही बाँयी ओर अपने समय के सिद्ध-साधक कवल गिरि की समाधि है। इन्होंने यहाँ जिवित समाधि ली थी। दुर्गा खोह का वर्तमान स्वरूप दो भागों में विभाजित है। घाटी के इस पार देवी का प्राचीन प्राकट्य स्थल है और उस पार पर्वत खण्ड पर वर्तमान मन्दिर। वर्षा काल में एक छोटा सा जल प्रपात घाटी में गिरता है जो कुण्ड से घाटीयों में होते हुए गंगा में मिल जाता है। इस कुण्ड के निर्माण के सम्बन्ध में कहा जाता है कि दुर्ग के वध के पश्चात् यहाँ इतना रूधिर बहा कि इससे यहाँ एक कुण्ड बन गया। कहा जाता है कि त्रेतायुग में श्रीराम ने वनगमन के समय इधर से जाते समय शारदीय नौरात्रि में देवी दुर्गा की पूजा की थी। द्वापरयुग में राजा सुरथ ने यहाँ चैत्र नवरात्र में मन्दिर बनवाया और पहाड़ पर स्थित प्रतिमा को मन्दिर में स्थापित किया। राजा सुरथ रूधिर से भरे कुण्ड को देखकर दुर्गा को बलि प्रिय समझा और अनेको जीव की बलि यहाँ दी थी। श्रीराम के कारण शारदीय नौरात्रि व राजा सुरथ के कारण चैत्र नवरात्र का महत्व होने से दोनों नवरात्रि में यहाँ दर्शनार्थीयों की विशेष भीड़ रहती है। वैसे सावन माह तथा मंगलवार को दर्शनार्थीयों का आना-जाना सदैव लगा रहता है।
(व) परमहंस स्वामी अड़गड़ानन्द आश्रम -
महर्षि व्यास द्वारा रचित और श्रीकृष्ण के मुख से व्यक्त गीता के उसी मनस्तर पर स्थित होकर उसकी व्याख्या ”यथार्थ गीता“ से व्यक्त करने वाले संत श्री स्वामी अड़गड़ानन्द जी का यह आश्रम है जो जरगो नदी के उद्गम स्थल सिद्धनाथ की दरी से दो किलोमीटर पहले जरगो नदी के किनारे स्थित है। आश्रम चुनार से 20 किलोमीटर दक्षिण की ओर राजगढ़ मार्ग पर स्थित है। यह आश्रम प्रारम्भ में एक किले का खण्डहर था जो विजयपुर राज्य के अधीन था। स्वामी जी ने राजा शक्ति सिंह द्वारा निर्मित इस किले को विजयपुर की रानी को एक नारियल भेजकर प्राप्त किया। भक्तों के परिश्रम और ईश्वरीय कृपा से यहाँ अद्भुत तथा मनोहारी आश्रम का निर्माण हुआ। स्वामी जी द्वारा व्यक्त ”यर्थाथ गीता“, गीता की अन्तिम यथार्थ व्याख्या है अर्थात इससे अच्छी व्याख्या अब सम्भव नहीं है। गुरू पूर्णिमा के अवसर पर यहाँ लाखों भक्त आते हैं। स्वामी जी ”विश्वगौरव“ सम्मान से विभूषित हैं। संत श्री स्वामी अड़गड़ानन्द जी यहाँ से पूर्व सती अनुसूईया आश्रम, चित्रकूट (सतना, म0प्र0) तथा जगतानन्द आश्रम, बरैनी, कछवां (मीरजापुर, उ0प्र0) में थे।
(ष) सिद्धनाथ की दरी - सिद्धनाथ की दरी चुनार से 20 किलोमीटर दक्षिण की ओर राजगढ़ मार्ग पर स्थित है। यहाँ के प्राकृतिक जल प्रपात को देखने और उसमें क्रिड़ा के लिए दूरदराज से प्रत्येक दिन सैकड़ो लोग यहाँ आते हैं। सार्वजनिक अवकाश के दिन यह संख्या हजारों में पहुँच जाती है। यहाँ 300 फिट की ऊँचाई से गिरने वाला जल ही जरगो नदी का जल है। जनश्रुति के अनुसार बहुत पहले यहाँ एक सिद्ध पुरूष हुआ करते थे, उन्हीं के नाम से इसे सिद्धनाथ की दरी कहते हैं।
(ह) सिद्धनाथ धाम ”धुईं बाबा“ - क्षेत्रवासियों के अनुसार सैकड़ों वर्ष पूर्व एक संत चुनार क्षेत्र के भरेहटा गांव के पश्चिम की ओर और जरगो नदी के पूर्वी तट पर कुटी बनाकर रहा करते थे। कुटी के सामने वे धूनी (हवन कुण्ड) बना रखे थे जिसमें हमेशा आग जलती रहती थी। एक बार जरगो नदी में बाढ़ आ गया। गांव के कई बच्चे उसमें स्नान कर रहे थे जिसमें से एक बच्चा डूब गया। बच्चे के शव को जब गांव वाले घर जाने लगे तो संत ने धूनी के पास लिटाने के लिए कहा। शव को धूनी के पास लिटाने के बाद उसमें प्राण आ गये और बच्चा जिवित हो गया था। उसके बाद संत वहाँ से हमेशा के लिए कहीं चले गये। तब से अब तक उस धूनी की आग कभी नहीं बुझायी जाती। इस धाम को सिद्धनाथ धाम या धुईं बाबा धाम के नाम से जानते हैं। यहाँ वर्ष भर मुण्डन संस्कार, विवाह, हवन-पूजन का कार्यक्रम चलता रहता है और धूनी की राख से पीड़ित जनों के कष्ट दूर किये जाते हैं। बाबा में आस्था रखने वाले भक्त और समाजसेवी गणों द्वारा यहाँ धर्मशाला, हैण्डपम्प, कुँआ, पानी की टंकी इत्यादि जनसुविधाओं का निर्माण कराया गया है।
(क) सत्ययोगानन्द मठ - विश्व ऐतिहासिक सत्यकाशी: पंचम, अन्तिम तथा सप्तम काशी का वह स्थल (राष्ट्रीय राजमार्ग-7 पर वाराणसी-काशी: पंचम, प्रथम तथा सप्तम काशी से 18 कि.मी. तथा 1 कि.मी गंगा किनारे ) श्मशान घाट, गोपालपुर, जहाँ ब्रह्मलीन श्री श्री 1008 सत्ययोगानन्द ”भुईधराबाबा“ (भगवान राम-कृष्ण परमहंस की अगली कड़ी) ने ब्रह्म या ईश्वर के अन्तिम, भगवान विष्णु के दसवें अन्तिम कल्कि तथा भगवान शंकर के बाईसवें और अन्तिम भोगेश्वर सार्वजनिक प्रमाणित पूर्ण प्रेरक संयुक्त पूर्णावतार श्री लव कुश सिंह ”विश्वमानव“ (स्वामी विवेकानन्द की अगली पूर्ण ब्रह्म की अन्तिम कड़ी) को धर्म क्षेत्र के भोग द्वारा व्यक्त करने के लिए सदी के सार्वाधिक लम्बे बृहस्पतिवार, 13 नवम्बर, 1997 से सोमवार, 22 जून, 1998 (आसाढ़ मास शिवरात्रि) तक तथा अदृश्य काल (व्यक्तिगत प्रमाणित) के अन्तिम अदृश्य महायज्ञ- विष्णु महायज्ञ और ज्ञान यज्ञ का आयोजन किये थे। यज्ञ प्रारम्भ होने के 21 वें दिन बुधवार, 3 दिसम्बर 1997 को आयोजक एवम् संचालनकर्ता सत्ययोगानन्द जी के ब्रह्मलीन होने के पश्चात् छठें दिन सोमवार, 8 दिसम्बर, 1997 को श्री लव कुश सिंह ”विश्वमानव“ व्यक्त हुये और स्वामी विवेकानन्द के सम्मान में उनके शिकागो वकृतता के दिन उम्र 30 वर्ष 7 माह 29 दिन अर्थात यज्ञ अवधि के 7 दिन पूर्व सोमवार, 15 जून, 1998 को उतना ही उम्र पूर्ण करने के पश्चात् मंगलवार, 16 जून, 1998 से सोमवार, 22 जून, 1998 तक धर्म, धर्मनिरपेक्ष, सर्वधर्मसमभाव, प्राच्य, पाश्चात्य, राज्यक्षेत्र, धर्मक्षेत्र और समाजक्षेत्र में एकता, काल परिवर्तन, हिन्दू, वर्तमान एवं भविष्य की आवश्यकता, सत्य चेतना आधारित 21वीं सदी के विश्व प्रबन्ध के सूत्र अर्थात कर्मवेदीय सार सूत्र व्याख्या, विश्व और भोगेश्वर रूप, नवयुग के लिए घोषणा, यज्ञ की पूर्णाहूति, दृश्यकाल (सार्वजनिक प्रमाणित) के लिए प्रथम और अन्तिम दृश्य महायज्ञ- प्रकृतिक सत्य मिशन तथा पंचम, अन्तिम तथा सप्तम काशी: सत्यकाशी निर्माण के लिए विश्व ऐतिहासिक व्याख्यान व्यक्तिगत रूप से दिये थे। इसी स्थान पर विश्वमानव के अप्रत्यक्ष सम्बन्ध कर्मगुरू ब्रह्मलीन श्री श्री 1008 सत्ययोगानन्द ”भुईधराबाबा“ की समाधि भी है। जिनके समाधि स्थल के साथ ही श्री लव कुश सिंह ”विश्वमानव“ का समाधि स्थल सुनिश्चित व उनके द्वारा घोषित है, यहीं पर ”सत्ययोगानन्द मठ ट्रस्ट“ की स्थापना की गई है।
(ख) सीखड़ - मीरजापुर जनपद के चुनार तहसील का सीखड़ विकास खण्ड चुनार नगर से पश्चिम दिशा में गंगा उस पार का क्षेत्र है। सीखड़ क्षेत्र के पूर्व में गंगा नदी है जिसके उस पार चुनार का ऐतिहासिक किला है। दक्षिण में भी गंगा बहती है जिसके उस पार विन्ध्य पर्वत श्रेणियाँ है। उत्तर में काशी (वाराणसी) का क्षेत्र है तथा पश्चिम में जनपद का विकास खण्ड मझवां का क्षेत्र है। सीखड़ का वास्तविक नाम ”श्रीखण्ड“ था जिसे अंग्रेजों ने अपनी भाषा में सीखर कर दिया जो बाद में सीखड़ हो गया। सीखड़ का उल्लेख विभिन्न ऐतिहासिक पुस्तकों ”आइने अकबरी“, ”तैमूर वंश“, ”वृहत्तर भारत“, ”शिव पुराण“ एवं आल्हा उदल की रचनाओं में भी मिलता है। सीखड़ की स्थापना किसने की इसके सम्बन्ध में दो मान्यता है। पहले के अनुसार सीखड़ को भर्तृहरि के शिष्यों ने बसाया था। उन्होंने इसके नाम पर ही अर्थात लक्ष्मी का क्षेत्र रखा था। शिष्यों ने जब इसे बसाया था तब इस क्षेत्र में जल भरा रहता था जिसके बीचो-बीच एक ऊँचा टीला बनाया। इस पर खड़े होने के बाद उनकी दृष्टि जहाँ तक गयी, उस पूरे क्षेत्र का नाम ”कृयात“ रखा गया जो वर्तमान में इस क्षेत्र के परगने का नाम है जिसका अर्थ भी लक्ष्मी का क्षेत्र है। इस टीले पर ही शिष्यों ने साधना स्थल भी बनाया। इस टीले का भग्नावशेष आज भी है जिस पर वर्तमान में आदर्श कन्या इण्टर कालेज खुल चुका है। दूसरे मत के अनुसार उक्त टीले का निर्माण राजा नवल किशोर सिंह ने अपना राजमहल बनाने के उद्देश्य से किया था। कहा जाता है कि इस टीले का निर्माण रावण की लंका के तर्ज पर किया गया था। राजा नवल सिंह ने इस टीले के चारो ओर गड्ढा खुदवाया था जो हमेशा जल से भरे रहते थे। इस टीले पर वे अपना राज महल बनवाये जिसका स्मृति चिन्ह तक समाप्त हो चुका है। कहा जाता है कि नवल किशोर के पूर्वर्जो के पास इतना धन था कि उन्होंने चन्द्रगुप्त मौर्य को धन देकर मगध का सम्राट बनने में सहायता दी थी। राजा नवल किशोर के पतन के बाद क्षेत्र पर राय गोविन्द चंद का अधिकार हो गया था। बाद में यह अंग्रेजों के अधिपत्य में चला गया। ऐतिहासिक ग्रन्थों के अनुसार गाजी तैमूरलंग की सेनाएँ इस क्षेत्र को रौंदती पश्चिम दिशा की ओर बढ़ गयी थीं। यह भी कहा जाता है कि सीखड़ गाँव के एक चिश्ती ने मुगल सम्राट हुमायूँ के प्राण बचाये थे। यह भी कहा जाता है कि मुगल सम्राट अकबर को यहाँ गाजी तैमुरलंग द्वारा रचित पुस्तक ”तैमूर वंश“ की प्राप्ति हुई थी। शेरशाह सूरी ने भी यहाँ निवास किया था।
ऐसा भी माना जाता है कि विवाहोपरान्त भगवान शिव ने यहाँ महाभारत काल तक निवास किया था। सीखड़ विकास खण्ड हिन्दू-मुस्लिम एकता का भी अनूठा उदाहरण विश्व समुदाय के लिए बन चुका है। हिन्दूओं के पवित्र मेला सीखड़ की रामलीला में अधिकतर कार्य मुस्लिम वर्ग के लोग ही किया करते हैं।
(ग) माँ शीतला धाम - सीखड़ क्षेत्र में, चुनार के गंगा के उस पार 5 किलोमीटर पर अदलपुरा में स्थित माँ शीतला धाम का प्राचीन मन्दिर है जो गंगा किनारे स्थित है और सीखड़ के धार्मिक महत्व को सिद्ध करती है। यहाँ पर प्रतिवर्ष लाखों श्रद्धालु दर्शन-पूजन के लिए आते हैं। नवरात्र में यहाँ अधिक दर्शनार्थी आते हैं।
(घ) राम सरोवर - यह चुनार नगर से 3 किलोमीटर पर पूर्व दिशा में स्थित है। आज से सैकड़ो वर्ष पहले इस क्षेत्र में अकाल पड़ा जिससे चारो तरफ त्राहि-त्राहि मच गयी। उस समय चुनार गढ़ एक छोटा सा कस्बा था। यहाँ के तालुकेदार पं0 माधोराम व साधोराम नामक दो भाईयों से क्षेत्र की जनता का करूण रूदन देखा नहीं गया और उन्होंने सबको अनाज देने की घोषणा की। इस वजह से उनके यहाँ भीड़ लग गई। यह देखकर उन्होंने सोचा कि इनसे एक तालाब खुदवाया जाये। यह बात लोगों को अच्छी भी लगी और रामसरोवर बनकर तैयार हुआ। इस तालाब की खुदाई के दौरान एक शिवलिंग मिला जिसकी प्राण-प्रतिष्ठा इस तालाब के बगल में कर दी गई और मन्दिर का नाम रामेश्वर महादेव रखा गया। सन् 1901 में यहाँ 10 दिनों के मेले का आयोजन प्रारम्भ हुआ जिसमें घुड़दौड़, कुश्ती, तैराकी, तीरंदाजी, तलवारबाजी के साथ-साथ तीतर-बटेर का लड़ाना और नौटंकी तथा रामलीला भी होती है। बाद में यहाँ पशुओं का बाजार भी लगने लगा जहाँ पूरे हिन्दुस्तान से पशु व्यापारी आते हैं।
(च) स्वयंमेश्वर महादेव - यह नरायनपुर से अदलहाट मार्ग पर रानीबाग से दो किलोमीटर की दूरी पर डेहरी गाँव में स्थित मुगलकाल से भी प्राचीन शिव मन्दिर है। इस मन्दिर को मुगलकाल में क्षतिग्रस्त कर दिया गया था जिसका अवशेष अभी भी शेष है। मन्दिर के पुजारी और गाँव के निवासी श्री राम सागर त्रिपाठी के अनुसार इस मन्दिर को पुनः बनाने का विचार जब-जब किया गया तब-तब स्वप्न आया कि मन्दिर बनाने की आवश्यकता नहीं, उसे मैं स्वयं बना लूँगा। शिवलिंग के एक ओर स्थित नीम और दूसरी ओर स्थित पीपल के वृक्ष ने आपस में मिलकर ऐसा सुन्दर मन्दिर का निर्माण किया है जो देखने में किसी आश्चर्य से कम नहीं हैं।
(छ) श्री राम मन्दिर, कोलना - चुनार क्षेत्र में स्थित ग्राम-कोलना में स्थित यह मन्दिर अति प्राचीन व भव्य है।
(ज) बाबा सुन्दरम् पचपेड़वा बाबा - यह नरायनपुर विकास खण्ड के रामजीपुर ग्राम में स्थित है। इस स्थान पर एक ही वृक्ष में आम, नीम, पीपल, बरगद और पकड़ी संयुक्त रूप से प्राचीन काल से ही है। वर्तमान में आम और नीम का वृक्ष लुप्त हो चुका है। इस स्थान पर अनेक रोग-व्याधियों व भूत-प्रेत बाधा का निवारण दर्शन मात्र से स्वतः ही हो जाता है। गंगा दशहरा के शुभ-अवसर पर यहाँ प्रत्येक वर्ष रामचरित मानस का पाठ व अखण्ड भण्डारा का आयोजन गाँव केे ही श्री स्कन्द कुमार पाण्डेय ”व्यास“ एवं आसपास के गाँव के सहयोग से किया जाता है।
(य) जलालपुर माॅफी - कहा यह जाता है कि जब हुमायूँ चुनार के किले पर अधिकार करने के लिए यहाँ कई महीने रूका था तब वह किले के पास स्थित गाँव जलालपुर में रूका था यहीं अकबर गर्भ में आया था। बाद में जब अकबर को यह बात ज्ञात हुई तब उसने अपने नाम के साथ जलालुद्दीन भी लगाया साथ ही इस गाँव का अपने शासन काल में कर भी माॅफ किया जिस कारण इस गाँव का नाम जलालपुर माॅफी हो गया। जहाँ सत्यकाशी ट्रस्ट की स्थापना की गई है।
(र) ऊँश्री अहिरावीर डीह बाबा - यह अति प्राचीन मन्दिर जलालपुर माॅफी गाँव में स्थित है।
बात बहुत पुराने समय की है जब इस गाँव के आस-पास जंगल हुआ करता था और कुछ बस्तीयाँ भी थीं। उस समय का कुँआ और विशाल नीम का पेड़ आज भी है। गाँव के बुढ़े-बुजुर्ग व्यक्ति बताते हैं कि अहिरावीर बाबा प्रतिदिन रात में पूरे गाँव का पूरा चक्रमण करते हैं और यह मान्यता आज भी चली आ रही है। आस-पास के निवासी आज भी इस मन्दिर में अपनी मन्नतें माँगने आते हैं और पूरी श्रद्धा-भक्ति से पूजन-अर्चन करते हैं। मान्यता है कि आज भी बाबा लोगों को दर्शन देते रहते हैं।
(ल) श्री नये वीर बाबा - अदलपुरा में स्थित माँ शीतला धाम के प्राचीन मन्दिर के सामने गंगा दो भागो में विभक्त होकर पुनः एक हो गईं है जिसके बीच सैकड़ों बीघे का टीला है। इसी टीले पर श्री नये वीर बाबा की चैरी है। चैरी के पश्चिम में अदलपुरा स्थित माँ शीतला धाम का मन्दिर है तो पूर्व में जलालपुर गाँव है। प्राचीन समय की बात है जब यहाँ साधन का अभाव था। लोग बर्रे, रेड़ी (अरण्डी), चना, जौ के खेती कर जीवन चलाते थे। बाग-बगीचे भी थे। गंगा नदी का किनारा होने के कारण भूमि बहुत ही उपजाऊ थी लेकिन वर्तमान समय में भूमि पर कुश इत्यादि झाड़ी का जंगल फैल चुका है। प्राचीन समय के उस काल में एक व्यक्ति रात्रि में अपने खेत की सिंचाई कर रहा था। उसके पास एक व्यक्ति लालटेन लेकर पहुँच गया और कहा कि तुम्हारा समय खत्म हो चुका है और मेरा समय शुरू हो चुका है। तुम अपने घर जाओ और अब कभी इतनी रात को खेत पर काम मत करना, कह कर वह आदमी थोड़ा दूर जाकर अदृश्य हो गया। खेत पर काम करने वाला व्यक्ति उसके बातों को गम्भीरता से न लेकर रात्रि में काम करता रहा। चैथे दिन उसकी मृत्यु हो गई। मृत व्यक्ति की पत्नी को स्वप्न आया कि ”मैं नये वीर बाबा का कहना न मानने के कारण ही तुम्हारे पति की मृत्यु हुई है।“ तब से लेकर अब तक इस चैरी पर पूजा-अर्चन-कीर्तन चलता रहता है। लोगों की मन्नतें पूरी होने से दिनों-दिन यहाँ श्रद्धालुओं की संख्या बढ़ती जा रही है। यहाँ पर पीपल, नीम व वरगद का संयुक्त वृक्ष प्रदीप कुमार, धनारू, ओम प्रकाश, महेन्द्र कुमार सिंह, गुड्डु इत्यादि ने पूरी श्रद्धा-भक्ति के साथ रोपित करते हुए सौन्दर्यीकरण का कार्य सम्पन्न किये और जारी भी है।
(व) श्री विष्णु मन्दिर, वैकुण्ठपुर, नरायनपुर - यह प्राचीन मन्दिर नरायनपुर में वाराणसी से 21 कि.मी. राष्ट्रीय राजमार्ग-7 (वाराणसी से कन्याकुमारी मार्ग) पर स्थित है। दण्डी स्वामी शिवानन्द द्वारा लिखित पुस्तक में काशी चैरासी कोस यात्रा व सत्यकाशी पंचदर्शन के अन्तर्गत यह मन्दिर आता है।
(व) माँ शिवशंकरी धाम -
यह प्राचीन मन्दिर वाराणसी से 29 कि.मी. राष्ट्रीय राजमार्ग-7 (वाराणसी से कन्याकुमारी मार्ग) पर स्थित है। दण्डी स्वामी शिवानन्द द्वारा लिखित पुस्तक में काशी चैरासी कोस यात्रा व सत्यकाशी पंचदर्शन के अन्तर्गत शिवशंकरी धाम मन्दिर आता है। शिवशंकरी धाम मन्दिर दिल्ली-हावड़ा मुख्य रेल मार्ग पर अहरौरा रोड और कैलहट रेलवे स्टेशन के बीच रेल मार्ग के किनारे स्थित है। मन्दिर रेल लाइन बनने से पूर्व भी थी। यहाँ दानों नवरात्र चैत्र और शारदीय में भक्तों की संख्या बढ़ जाती है परन्तु वर्ष भर मुण्डन संस्कार, विवाह, हवन-पूजन का कार्यक्रम चलता रहता है। चैत्र नवरात्र में मेले के आयोजन की सैकड़ों वर्ष पुरानी परम्परा है। मन्दिर में अर्धनारीश्वर की मूर्ति विराजमान है। माँ में आस्था रखने वाले भक्त और समाजसेवी गणों द्वारा यहाँ धर्मशाला, हैण्डपम्प, कुँआ, पानी की टंकी इत्यादि जनसुविधाओं का निर्माण कराया गया है। सत्यकाशी पंचदर्शन के अन्तर्गत यह मन्दिर आता है।
चुनार के विषय में अधिक जानकारी के लिए पढ़ें-
”चुनारगढ़ का सांस्कृतिक वैभव“
लेखक श्री शिव प्रसाद ”कमल“ (पत्रकार)
पुस्तक प्राप्ति का स्थान
1.कल्पना मन्दिर, चुनार बाजार, मीरजापुर (उ0प्र0)
2.लोकरूचि प्रकाशन, राबर्टसगंज, सोनभद्र (उ0प्र0)
”कुछ पुराना हाल चुनार का“
संपादित श्री लक्ष्मी चन्द्र श्रीवास्तव ”रमेन्दु“
पुस्तक प्राप्ति का स्थान
1. जनसेवी प्रकाशन, बालूघाट, चुनार, मीरजापुर (उ0प्र0)
2. बी. 26/72, नबाबगंज, वाराणसी (उ0प्र0) पिन-221010
सत्यकाशी क्षेत्र में श्री राम
शिवपुर, मीरजापुर में पौराणिक कथा के अनुसार भगवान श्री राम चन्द्र ने अपने पिता दशरथ का श्राद्ध विन्ध्याचल क्षेत्र में ही किये थे। इस जगह पर भगवान राम ने भगवान शिव की प्रतिमा की स्थापना की थी। इसी कारण यह मन्दिर रामेश्वर तथा स्थान शिवपुर के नाम से जाना जाता है। लक्ष्मण जी ने भी यहाँ शिवलिंग की स्थापना की जिसे लक्ष्मणेश्वर कहा जाता है।
विन्ध्याचल अष्टभुजा मन्दिर के पश्चिम दिशा की ओर सीता जी ने एक कुण्ड खुदवाया था। उस समय से इस जगह को सीता कुण्ड के नाम से जाना जाता है। कुण्ड के समीप ही सीता जी ने भगवान शिव की स्थापना की थी जिसे सीतेश्वर कहते हैं। साथ ही रामकुण्ड भी है। अनेक स्थानों पर वर्णन है कि श्रीराम चुनार किले के पासं से गंगा पार करके वनगमन के समय चित्रकूट गये थे। फादर कामिल बुल्के के शोध ग्रन्थ ”राम कथा: उद्भव और विकास“ के अनुसार कवि वाल्मीकि की तपस्थली चुनार ही है इसलिए कहीं-कहीं इसे चाण्डालगढ़ भी कहा गया है। कहा जाता है कि त्रेतायुग में श्रीराम ने वनगमन के समय चुनार से जाते समय शारदीय नौरात्रि में चुनार के राजगढ़ मार्ग स्थित दुर्गा खोह में स्थित देवी दुर्गा की पूजा की थी।
सत्यकाशी क्षेत्र में श्री कृष्ण
पुराणों के अनुसार राजा शैवास का दुर्ग चुनार की ही दुर्ग था जिनका काल 2 से 3 हजार वर्ष ईसा पूर्व था। बाद में मगध नरेश जरासंध ने इस पर अधिकार कर लिया। द्वापर युग में बृहद्रथ के पुत्र जरासंध मगध देश का राजा बने। उसने इस चरण के आकार वाले पहाड़ पर एक गढ़ का निर्माण कराया और उसका नाम राज्यगिरि रखा। बीस सहस्र राजाओं को हराकर उन्हें इसी गढ़ में कैद कर दिया। जब राजा युधिष्ठिर ने राजसूय यज्ञ करने की तैयारी की तो श्रीकृष्ण से उन्होंने कहा कि राजसूय यज्ञ में सभी काम राजाओं द्वारा कराया जाता है इसलिए जिन राजाओं को जरासंध ने राज्यगिरि में कैद कर रखा है पहले आप उन्हें छुड़ाकर लायें तब मेरा यज्ञ पूरा हो। यह सुनकर श्रीकृष्ण युधिष्ठिर के भाई अर्जुन और भीम को साथ लेकर जरासंध को मारने मगध देश को गये। वहाँ कृष्ण ब्राह्मण के भेष में होकर जरासंध से कहे कि तू मेरे भाई से लड़। भीम से युद्ध के उपरान्त जरासंध मारा गया। श्रीकृष्ण जरासंध के बेटे सहदेव को मगध देश का राज्य दिये और उसे साथ लेकर राज्यगिरि आये और सभी बन्दी राजाओं को मुक्त कराकर हस्तिनापुर राजसूय यज्ञ के लिए ले गये। जरासंध का कैदखाना चुनार के किले में अभी भी है। श्रीकृष्ण के पैर का निशान एक पत्थर पर है जिसे चरणपादुका कहते हैं।
सत्यकाशी क्षेत्र में भगवान बुद्ध
कलियुग के बौद्ध काल में विन्ध्यक्षेत्र का सार्वाधिक भाग गणराज्य में शामिल था। बौद्ध ग्रन्थ ”अंगुत्तर निकाय“ के अनुसार बौद्धों का कहना है कि तथागत भगवान बुद्ध ने चुनार किले में रूककर अपना एक चतुर्मास व्यतीत किये थे। छठवीं शताब्दी ईसा पूर्व को बौद्ध काल के नाम से जाना जाता है। इतिहासकारों के अनुसार इस काल में राजतन्त्रों एवं गणतन्त्रों का अस्तित्व विद्यमान था। यह प्राचीन भारत में होने वाले द्वितीय नगरीय प्रमाण को समेटे हुए था। बौद्ध काल में विन्ध्यक्षेत्र का सर्वाधिक भाग इसमें सम्मिलित था। यही नहीं जनपद मीरजापुर भी बौद्ध काल में ही स्थापित हुआ था। आज भी देश के कोने-कोने से बड़ी संख्या में बौद्ध धर्मावलम्बी किले में पवित्र स्थान का दर्शन करने आते हैं।
सत्यकाशी क्षेत्र में स्वामी विवेकानन्द
स्वामी विवेकानन्द द्वारा स्थापित ”राम कृष्ण मिशन“ की एक शाखा सत्यकाशी क्षेत्र के मीरजापुर शहर से विन्ध्याचल मार्ग पर स्थित है। जहाँ से अन्य शाखाओं की भाँति ”शिव भाव से जीव सेवा“ व आध्यात्मिक सत्य पर आधारित वेदान्त ज्ञान कार्य सफलतापूर्वक चल रहा है।
सत्यकाशी क्षेत्र में श्री लव कुश सिंह ”विश्वमानव“
चन्द्रवंशीय कूर्म क्षत्रिय (चन्देल वंश), के अधिकतम जनसंख्या वाला चुनार क्षेत्र के नरायनपुर विकास खण्ड, काशी चैरासी कोस यात्रा व सत्यकाशी क्षेत्र के उभय स्थान व जरगो नदी के गंगा संगम से दक्षिण में स्थित नियामतपुर कलाँ (काशी हिन्दू विश्वविद्यालय-बी.एच.यू, वाराणसी के दक्षिण गंगा उस पार), गाँव ”विश्वशास्त्र - द नाॅलेज आॅफ फाइनल नाॅलेज“ के रचनाकार श्री लव कुश सिंह ”विश्वमानव“ का पैतृक निवास स्थल है जो सत्यकाशी पंचदर्शन यात्रा के घेरे में भी स्थित है। श्री लव कुश सिंह ”विश्वमानव“ का जन्म भले ही रिफाइनरी टाउनशिप अस्पताल, जिला-बेगूसराय (जन्म के समय जिला-मुंगेर, बिहार प्रदेश) है और मुण्डन शिव भक्त रावण से जुड़ी घटना वाले ज्योतिर्लिंग श्री वैद्यनाथ में हुआ परन्तु उनका पैतृक निवास स्थल यही गाँव है। अधिकतम रिश्तेदार और उनका विवाह भी इसी क्षेत्र के किरियात क्षेत्र के धनैता (मझरा) गाँव में है। अन्य रिश्तेदारियाँ शेरपुर, बकियाबाद, पचेवरा, फिरोजपुर, केशवपुर, भगीरथपुर, कोलना, जौगढ़, रामरायपुर, जलालपुर माॅफी, गांगपुर, रामजीपुर, बघेड़ा इत्यादि में हैं। नईबस्ती बघेड़ा, संत रविदास मन्दिर (मीरजापुर, उ0प्र0) के दक्षिण पैतृक भूमि का स्थान जहाँ दृश्यकाल के ”शब्दब्रह्म“ की प्राप्ति 1992 में हुई। निवास स्थान नियामतपुर कलाँ, जहाँ शास्त्र को सन् 2010 से अन्तिम रूप देने का कार्य हुआ और मथुरा में पूर्ण किया गया। माधव विद्या मन्दिर इण्टरमीडिएट कालेज, पुरूषोत्तमपुर, मीरजापुर, उ0प्र0 में कक्षा-7 से 10वीं तक (सन् 1977 से 1981) तक में अध्ययन हुआ। उनका अधिकतम जीवन तो भारत के अनेक स्थानों पर बीता है परन्तु शास्त्र की उत्पत्ति और अधिकतम रचना सत्यकाशी क्षेत्र में ही हुई है और इस क्षेत्र के सभी धार्मिक व दर्शनीय स्थल पर उनका भ्रमण होता रहा है।
जरगो नदी और श्री लव कुश सिंह ”विश्वमानव“
श्रीराम की जन्म तिथि नवमी (9) है, श्रीकृष्ण की जन्म तिथि अष्टमी (8) है। 9 के अंक का किसी अंक से गुणा करें, सारांश (अंको का योग) 9 ही रहता है। 8 का गुणा घटता-बढ़ता रहता है। अंक 8 लौकिक-संसारी है, 9 जटिल है जस का तस रहता है। डाॅ0 लोहिया का कहना था - ”राम मनुष्य हैं, मर्यादा और आदर्श पर चलते हुए देव बनते हैं, लेकिन कृष्ण देवता हैं। वे लोक संग्रह के लिए मनुष्य बनते हैं, देवत्व से नीचे उतरते हैं। राम और कृष्ण, भारतीय प्रज्ञा के सम्राट हैं।“ इसी क्रम में श्री लव कुश सिंह ”विश्वमानव“ का जन्म तिथि त्रयोदशी (13) है। प्रत्येक मास में कृष्ण पक्ष की तेरहवीं तिथि की रात्रि मास शिवरात्रि तथा फाल्गुन मास की कृष्ण पक्ष की तेरहवीं तिथि की रात्रि महाशिवरात्रि कहलाती है। हिन्दू धर्म में मनुष्य के जन्म के बारहवीं तिथि के संस्कार को बरही तथा शरीर से मुक्त होने के तेरहवीं तिथि के अन्तिम संस्कार को तेरहवीं कहते हैं अर्थात तेरह का अंक शिवशंकर का प्रतीक है। इसी कारण श्री लव कुश सिंह ”विश्वमानव“ से व्यक्त अधिकतम विषय के साथ अन्तिम लगा हुआ है।
जिस प्रकार ब्रह्मा के पूर्णावतार श्री राम से सरयू नदी, विष्णु के पूर्णावतार श्री कृष्ण से यमुना नदी और शिव-शंकर से गंगा नदी जुड़ी हुयी है उसी प्रकार शिव-शंकर के पूर्णावतार श्री लव कुश सिंह ”विश्वमानव“ के जन्म, जीवन व कर्म से गंगा व जरगो नदी जुड़ी हुयी है। जन्म गंगा किनारे स्थित जिला-बेगूसराय (जन्म के समय जिला-मुंगेर, बिहार प्रदेश) है वहाँ के नजदीकी सिमरिया घाट पर स्नान व छठ पूजा में भाग लेने का अवसर भी उनको मिलता रहा है। जीवन में जरगो नदी से लगाव मामा, बुआ, मौसी एवं स्वयं उनका गाँव जरगो किनारे होने से हमेशा रहा है। कर्म में इसी नदी के बहाव क्षेत्र के विकास की योजना है।
महर्षि व्यास द्वारा रचित और श्रीकृष्ण के मुख से व्यक्त गीता के उसी मनस्तर पर स्थित होकर उसकी व्याख्या ”यथार्थ गीता“ से व्यक्त करने वाले संत श्री स्वामी अड़गड़ानन्द जी का आश्रम जरगो नदी के उद्गम स्थल पर स्थित है तो द्वापर युग में आठवें अवतार श्रीकृष्ण द्वारा प्रारम्भ किया गया कार्य ”नवसृजन“ के प्रथम भाग ”सार्वभौम ज्ञान“ के शास्त्र ”गीता“ के बाद कलियुग में शनिवार, 22 दिसम्बर, 2012 से काल व युग परिवर्तन कर दृश्य काल व पाँचवें युग का प्रारम्भ, व्यवस्था सत्यीकरण और मन के ब्रह्माण्डीयकरण के लिए दसवें और अन्तिम अवतार-कल्कि महावतार श्री लव कुश सिंह ”विश्वमानव“ द्वारा व्यक्त द्वितीय और अन्तिम भाग ”सार्वभौम कर्मज्ञान“ और ”पूर्णज्ञान का पूरक शास्त्र“, ”विश्वशास्त्र: द नाॅलेज आॅफ फाइनल नाॅलेज“ के व्यक्त करने वाले श्री लव कुश सिंह ”विश्वमानव“ का निवास ग्राम नियामतपुर कलाँ गंगा-जरगो संगम के पास स्थित है। संत श्री स्वामी अड़गड़ानन्द जी प्रारम्भ हैं तो श्री लव कुश सिंह ”विश्वमानव“ अन्त हैं। ”गीता“ बीज है तो ”विश्वशास्त्र“ वृक्ष है।
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