Tuesday, March 17, 2020

मानव सभ्यता का विकास और जाति की उत्पत्ति

मानव सभ्यता का विकास और जाति की उत्पत्ति
वंश
वंश  - अ. पौराणिक वंश 1. मनुर्भरत वंश की प्रियव्रत शाखा
वंश  - अ. पौराणिक वंश 2. मनुर्भरत वंश की उत्तानपाद शाखा 
आदि पुरूष महर्षि कूर्म-कश्यप
क्षत्रिय और कूर्म क्षत्रिय
वंश  - ब. ऐतिहासिक वंश 1. ब्रह्म वंश
वंश  - ब. ऐतिहासिक वंश 2. सूर्य वंश
वंश  - ब. ऐतिहासिक वंश 3. चन्द्र वंश
वंश  - स. भविष्य के वंश
गोत्र
कूर्मवंशी क्षत्रिय रियासतें
कूर्मवंशी क्षत्रिय वंश के महान विभूतियाँ, संत, अमर शहीद
विश्व-विश्वबन्धुत्व और वसुधैव कुटुम्बकम् - आर्य 
विज्ञान ने भी आर्य द्रविड़ के भेद को नकारा

मानव सभ्यता का विकास और जाति की उत्पत्ति

पृथ्वी की उत्पत्ति कैसे हुई, मानव एवं अन्य जीवधारी तथा वनस्पतियों का क्रमिक विकास कैसे हुआ? इसे जानने के केवल दो क्रमिक विकास के रास्ते हैं।
अ. अदृश्य काल - यह वह समय है जिसमें आधुनिक भौतिक विज्ञान का विकास नहीं हुआ था। इस काल में 1. सत्ययुग, 2. त्रेतायुग और 3. द्वापर युग था।
    1. धार्मिक मत का रास्ता: वर्तमान से 5000 वर्ष पुराने वैदिक धर्म के अनुसार
    2. वैज्ञानिक मत का रास्ता: आधुनिक विज्ञान उपलब्ध नहीं था।
ब. दृश्य काल - यह वह समय है जिसमें आधुनिक भौतिक विज्ञान का विकास हो चुका था। इस काल में 4. कलियुग था।
    1. धार्मिक मत का रास्ता: वर्तमान से 2000 वर्ष पुराने ईसाइ धर्म और वर्तमान से 1400 वर्ष पुराने इस्लाम धर्म के अनुसार
    2. वैज्ञानिक मत का रास्ता: आधुनिक विज्ञान के अनुसार
धार्मिक मतानुसार सृष्टि की रचना ईश्वर ने की और ईश्वर द्वारा ही जल-प्रलय किया गया। सभी धर्मो में जीव उत्पत्ति, सृष्टि संरचना एवं जल-प्रलय की विचारधारा समान ही है। जो ईसाई, मुस्लिम, चीनी, असीरियन, मैक्सिको, पर्शिया, युनान, अर्गगीज और पुराण जैसे शास्त्र व इतिहास में मिलता है। धार्मिक दृष्टिकोण से सबसे प्राचीन और धर्म का प्रारम्भ वैदिक धर्म ही सनातन धर्म है जिसमें विश्व के शेष अन्य धर्म-सम्प्रदायों का अंश विद्यमान है। ईश्वरीय आदेश पर मात्र नूह या मनु तथा उनके साथ अन्य जीवधारी ही बचे, जिससे सृष्टि के सृजन का कार्य चला।
वैज्ञानिक मान्यता के अनुसार, अरबों वर्ष पहले इस पृथ्वी का आविर्भाव हुआ। प्रारम्भ में यह आग के गोले के रूप में थी। धीरे-धीरे यह ठण्डी होती गई। करोड़ों वर्ष बीतने पर इसमें जल, वायु, मिट्टी, अग्नि और आकाश पंच महाभूतों के संयोजन से जीवन का क्रमशः विकास हुआ। धीरे-धीरे महासागरों का आविर्भाव हुआ। प्रारम्भ में इसमें जल में रहने वाले जीवों का विकास हुआ, जैसे मछली। फिर जल और थल दोनों में जीवित रह सकने वाले प्राणी विकसित हुए, जैसे मेढक, केंकड़ा इत्यादि। तदन्तर केवल स्थल में जीवित रहने वाली प्राणी विकसित हुए। कालचक्र की गति चलती रही और नभचर प्राणियों का भी विकास हुआ। प्रकृति के तमाम थपेड़ों अनेकानेक बार बाढ़, जलप्लावन, अकाल, सामूहिक मृत्यु आदि से बहुत से जीवों की जातियां विकसित भी हुई और बहुत सी लुप्त भी हो गईं, जैसे विशालकाय डायनासोर। क्रमिक विकास के द्वारा जीवधारीयों में मछली, स्तनपायी, वानर, चिम्पैंजी, वनमानुष और फिर मनुष्य का विकास हुआ। वैज्ञानिक मान्यता है कि मनुष्य का पूर्वज बंदर था। विचार की शक्ति से धीरे-धीरे बन्दर जैसा प्राणी चार पैरों में से अगले दो पैरों का उपयोग फल आदि तोड़ने में करने लगा और चैपाये से दो पाये वाले मनुष्य का विकास हुआ। बन्दर की पूँछ का उपयोग न होने से धीरे-धीरे वह गायब हो गई। मनुष्य की रीढ़ के अन्तिम छोर पर उसका अवशेष अब भी पाये जाते हैं। जिनका कालक्रम लगभग निम्नलिखित रूप से था -
अ. वनस्पतियों की उत्पत्ति
1. शैवाल काई - 2 अरब वर्ष पहले लगभग
2. घास काई - 50 करोड़ वर्ष पहले लगभग
3. वृक्ष समुदाय - 10 करोड़ वर्ष पहले लगभग
ब. जीवधारीयों की उत्पत्ति
1. एक कोशिय कीट - 2 अरब वर्ष पहले लगभग
2. घोघें, केकड़े, रीढ़दार मछली, मगर मेढ़क - 50 करोड़ वर्ष पहले लगभग
3. रेंगने वाले जीव, डायनासोर, बड़ी मछलीयाँ - 50 करोड़ वर्ष पहले लगभग
4. स्तनपायी जीव एवं वानराकार जीव, लंगूर, बन्दर आदि - 9 करोड़ वर्ष पहले लगभग
5. वानराकार मानव, चिम्पैंजी, गोरिल्ला आदि - 10 लाख वर्ष पहले लगभग
6. आदिमानव और स्तनपायी - 5 लाख वर्ष पहले लगभग
7. आधुनिक मानव एवं पशु - 15 हजार वर्ष पहले लगभग
8. नदीघाटी सभ्यताएँ - 5000 ई.पू. लगभग
9. ऐतिहासिक काल - 1500 ई.पू.े लगभग
इस प्रकार धार्मिक एवं वैज्ञानिक मतों का तालमेल एवं वर्णन लगभग समान ही है। जिस इतिहास के बारे में जानकारी नहीं है, मात्र कल्पना, तर्क तथा तत्कालीन वस्तुओं, घटनाओं के आधार पर काल निर्धारण किया जाता है, वह प्रागैतिहासिक काल कहा जाता है। और जिस इतिहास के बारे में क्रमबद्ध सही जानकारी प्राप्त होती है, उसे ऐतिहासिक काल कहा जाता है। यह आधार हमारी सृष्टि रचना एवं आदिमानव की उत्पत्ति एवं विकास पर भी लागू होती है। विश्व की संस्कृति एवं सभ्यताओं का उद्भव व विकास नदी घाटीयों से प्रारम्भ हुआ। विश्व की सभी सभ्यताओं का समय लगभग एक ही है। जो पूर्वी विश्व के भू-भाग से प्रारम्भ हुई, इस कारण उनमें आपस में बहुत ही सामंजस्य है।
सभ्यता का नाम नदी का नाम उद्भव-विकास काल
1. मिश्र नील नदी की घाटी 3000 ई.पूर्व लगभग
2. मेसोपोटामिया दजला फारस टिंपिस 3000 ई.पूर्व लगभग
    अ. सुमेरियन
    ब. असीरिया
    स. बेबीलोनिया
    द. कैल्दिया
3. सिन्धु सिन्धु नदी 3000 ई.पूर्व लगभग
4. हित्ती काला सागर अरमेनिया 3000 ई.पूर्व लगभग
5. मितन्नी दजला फरात 3000 ई.पूर्व लगभग
6. हिब्रृ पेलेस्टाइन जाईन नदी 3000 ई.पूर्व लगभग
7. फोनेसियन भू-मध्य सागर 3000 ई.पूर्व लगभग
8. इजियन इशिया माइनर 3000 ई.पूर्व लगभग
9. यूनान भू-मध्य सागर 3000 ई.पूर्व लगभग
10. चीन ह्वांगहो 3000 ई.पूर्व लगभग
11. ईरान फारस (ईरान की खाड़ी) 3000 ई.पूर्व लगभग
12.पारसीक फारस (ईरान की खाड़ी) 3000 ई.पूर्व लगभग
उपरोक्त सभ्यताओं के अभ्युदय का स्थान पूर्वी विश्व है जो कैस्पियन सागर एवं आस-पास का क्षेत्र है। यहीं से आज के आधुनिक मानव एवं मानव सभ्यताओं ने जन्म लिया। यहीं से मानव विकास क्रम तथा मानव जातियों का वर्गीकरण प्रारम्भ हुआ, जो क्रमशः इस प्रकार है- 1. नार्डिक, 2. अल्पाइन, 3. मेडिटोरियन, 4. मंगोल, 5. निग्रो, 6. आस्ट्रेलियन। इनमें नार्डिक, अल्पाईन और मेडिटोरियन का नाक-नक्शा-रंग एक होने के कारण ये काकेसियन कहे जाते थे। इन्हीं काकेसियन की नार्डिक जाति की ईरानी शाखा के वंशधर स्वायंभुव मनु थे।
स्वायंभुव मनु के समय में समस्त भूमण्डल सात खण्डों में विभाजित था जिनका पौराणिक व आधुनिक नाम निम्नप्रकार है। ये सभी सातों खण्ड महाद्वीप के नाम से प्रसिद्ध हुए थें। सभी द्वीप आपस में जुड़े हुए थे। इनमें आने-जाने का मार्ग जलीय एवं स्थलीय दोनों था।

भूमण्डल के भाग
भाग पौराणिक नाम आधुनिक नाम उपभाग नाम  आधुनिक नाम
1. पलक्षद्वीप यूरोप
2. शाल्मलीद्वीप अफ्रिका
3. कुशद्वीप आस्ट्रेलिया
4. पुष्करद्वीप अंटार्कटिका
5. क्रौंचद्वीप उत्तरी अमेरिका
6. शाकद्वीप दक्षिणी अमेरिका
7. जम्बूद्वीप एशिया 1. हरिवर्ष तुर्किस्तान
2. किंपुरूष वर्ष उत्तरी चीन
3. इलावृत्त वर्ष पामीर
4. कुरू वर्ष साइबेरिया
5. केतुमान वर्ष रूसी
6. भद्राश्य वर्ष दक्षिणी चीन
7. रम्य या स्वर्णमय वर्ष चीनी तातार
8. हिरण्मय वर्ष मंगोलिया
9. हिमवर्ष (हिमालय से अरब सागर तक) भारत

इस प्रकार धीरे-धीरे मनुष्य समाज का भी विकास होता गया। समाज के विकास की प्रमुख अवस्थाएँ 1. शिकारी अवस्था, 2. पशुपालन अवस्था, 3. कृषक अवस्था और 4. औद्यौगिक अवस्था हैं। विश्व में सभ्यता का विकास सबसे पहले कहाँ हुआ, यह पालतू पशु और अनाज के उत्पादन के प्रारम्भ के आधार पर निर्धारित होता है अर्थात आदिम कृषक ही सभ्यता के आदि जनक हैं। पंजाब और पड़ोसी पहाड़ी इलाके सहित वह ऐसा विस्तृत प्रदेश है जो हिमालय और हिन्दुकुश पर्वत के बीच है, जिसमें सबसे पहले गेंहूँ का उद्भव हुआ। विश्व में सभ्यता की प्रथम किरण फैलाने वाले भारतीय कृषक ही थे। कृषक अवस्था मनुष्य के विकास की सर्वाधिक महत्वपूर्ण अवस्था थी। पृथ्वी पर आज जो सभ्यता विकसित रूप में मिलती हैं उसकी नींव इसी अवस्था की देन है। वैदिक साहित्य और पौराणिक साहित्य में कृषक और कृषि की महत्ता अत्यन्त गम्भीरता से स्वीकार की गई है। कृषि की सुविधा के लिए घर बसे। कई घर मिलकर गाँव और नगर बसे। पति-पत्नी और उनके बच्चे मिलकर कुटुम्ब बने। कुटुम्बी जीवन, मनुष्य की सभ्यता के विकास की सबसे महत्वपूर्ण कदम था। कृषक अवस्था में खेतों और फसल की सुरक्षा के लिए कृषक को सदैव चैकन्ना रहना, शत्रुओं से लड़ना और अपने तथा सम्बन्धी कुटुम्ब की सुरक्षा करना उसका प्रथम कत्र्तव्य था अर्थात कृषक स्वभाव और कर्म से विशुद्ध क्षत्रिय था। इस प्रकार जियो और जीने दो की भावना विकसित हुई। धीरे-धीरे विभिन्न सूमहो के बीच आपसी संघर्ष में जो विजयी होता था वही सरदार और कालान्तर में राजा बनने लगा। इस प्रकार राज्य नामक संस्था का जन्म हुआ।
कृषि आविष्कारक भूमि और खेत (क्षेत्र) के स्वामी के लिए ही क्षेत्रपति, भूपति, भूमिपति, भूमिस्वामी आदि सम्मानसूचक शब्द आविर्भूत हुए। भू या कु जैसे भूमण्डल और कुमण्डल $ रमी अर्थात रमण करने वाला। इस प्रकार भू में रमण करने वाले उस महत्वपूर्ण कृषिकत्र्ता और प्राचीनतम मनुष्य जाति को कुरमी कहा गया। क्षत्रिय संज्ञा भी उसके महान कृषिकार और खेतांे के स्वामी के रूप में आयी। जिनके वंशज आज भी कूर्मवंशी क्षत्रिय, कूर्मि क्षत्रिय, कुरमी, कुनबी आदि विभिन्न नामों से समूचे भारत में कृषि कार्य में लगे हुए हैं। कृषि के आविष्कार से खेती सम्बन्धी आवश्यकताओं के कारण विभिन्न व्यवसाय और जातियाँ उद्भव में आईं। वेदांे में हल, पाट, शकट आदि कृषि उपकरण बनाने वाले को तक्षा (बढ़ई) कहा जाता था। कर्मकार (लोहार) लोहे ओर अन्य धातुओं को गलाकर हल की फाल आदि बनाने वाले को कहा जाने लगा। चर्मकार, धनुष के लिए प्रत्यंचा तथा चाबुक के लिए चमड़े आदि उपलब्ध कराता था। वासो या वाय (जुलाहा) द्वारा अपने बेम (करघे) पर कपड़ा बुनने का काम करने वाले को कहा गया। इसी प्रकार सोने का काम करने वाले को स्वर्णकार, तेल के काम करने वाले को तेली, वाणिज्य व्यवसायी को वणिक (बनिया), घड़ा बनाने वाले को कुम्भकार (कुम्हार) आदि कहा जाने लगा। इस प्रकार समाज में विभिन्न जातियाँ उत्पन्न हुईं। अनेक जातियों और वर्गो का उद्भव कृषक अवस्था में हुआ। कृषक, दो फसलों के बीच में मिलने वाले समय में चिन्तन, मनन आदि के द्वारा धीरे-धीरे सभ्यता और संस्कृति के विभिन्न ज्ञान, विद्या, वेद, उपनिषद् आदि अनेक रूप में आये। प्राचीन ”ऋषि जीवन“ भी ”कृषि जीवन“ की ही देन था। ऋग्वेद, सामवेद, यजुर्वेद और अथर्ववेद के सारे ज्ञान-विज्ञान की जड़ें, इसी ”कृषि क्रान्ति“ में निहित है।
ऋग्वेद के अनुसार उस समय समाज तीन वर्गों में विभाजित था। 1. योद्धा, 2. पुरोहित और 3. श्रमिक वर्ग। योद्धा वर्ग समाज की सुरक्षा के लिए कार्य करता था। इसी वर्ग से सरदार व राजा बनें। पुरोहित खाली समय में बौद्धिक सृजन करते थे और बौद्धिक श्रेष्ठता के कारण वे राजा के मंत्री, धर्म नियंत्रक और न्यायाधीश आदि का पद प्राप्त करते थे। श्रमिक वर्ग विभिन्न प्रकार के श्रम करके समाज की आवश्यकताओं की पूर्ति करता था। इनमें आपस में एक से दूसरे वर्ग में आने-जाने का मार्ग पूरी तरह खुला हुआ था परन्तु धीरे-धीरे पुरोहितों का स्थान समाज में सर्वोपरि हो गया। वेदों में कृषकों को आर्य कहा गया है। लकड़ी के हल से भूमि का कर्षण करने की क्रिया अर्थात उसकी जुताई करके उसे बीज बोने के लिए तैयार करने की क्रिया ”अर्“ कहलाती है तथा अर् करने वाले व्यक्ति को आर्य कहा जाता है। भारत की आर्य सभ्यता कृषि के प्रारम्भ करने वाले उन्हीं कृषकों की सभ्यता है। इस प्रकार जो भूमि को जोतकर कृषि करता था, उसी को आर्य कहते थे, शेष सभी को अनार्य। अर् शब्द का परिवर्तित रूप हर हो गया और उसी का बदला हुआ रूप हल है। आज भी मध्य प्रदेश व विन्ध्य क्षेत्र के ग्रामीण क्षेत्रों में हल को हर कहते हैं। वैदिक काल में कृषक को अत्यन्त महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त था। इसी प्रकार बौद्ध काल में भी कृषक को महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त था और गांवों में छोटा स्वशासित लोकतंत्र स्थापित था। 
स्वायंभुव मनु की पत्नी का नाम शतरूपा था जो कालान्तर में बिगड़ते-बिगड़ते सत्रृप, सत्रप, सत्रपति, क्षत्रपति, क्षत्रप होता गया। क्षत्रप बाद में क्षत्रिय हो गया ऐसा विद्वानों का कथन है। क्षत्रिय कोई जाति नहीं बल्कि समाज है, धर्म है, गौरव है, अस्मिता है, संस्कृति है और राष्ट्र की धरोहर है। भारत का इतिहास ही क्षत्रिय इतिहास है। यदि भारतीय इतिहास से क्षत्रिय इतिहास हटा दिया जाय तो शेष इतिहास शून्य हो जायेगा। क्षत्रियों का मुख्य उद्देश्य ”परित्राणांय साधूनाम् विनाशाय च दुष्कृताम“ है। क्षत्रिय संस्कृति में धमार्थ अपने बन्धु को भी दण्ड देना धर्म है-ऐसी प्रवृत्ति रही है।
पंजाब की पाँच नदियों सिन्धु (सिन्ध), बितस्ता (झेलम), असिक्नी (चेनाब), परूष्णी (रावी) और बिवास (व्यास), का पंचनद क्षेत्र ही आर्यो का सबसे पहले का निवास स्थान था। इन पाँच नदियों के किनारे बसने वाले आर्यो ने धीरे-धीरे पाँच जातियों का रूप धारण कर लिया। ऋग्वेद में इनको पंचजन कहा गया है। ये पंचजन थे- अनु, द्रुह्य, तुर्वष, यदु और पुरूष। इन पंचजनों का समाज कृषिजीवी समाज था। अत्यन्त प्राचीन काल से ही जबकि वर्ण व्यवस्था और कट्टर जातिपाँति का उद्भव भी नहीं हुआ था, पंचनद के ये कृषक कुटुम्बी ही भारत के विभिन्न भूभागों में फैल चुके थे। जो समस्त वर्णो, जातियों, व्यवसायों, सभ्यताओं ओर संस्कृतियों की जनक है। इन्हीं कृषक क्षत्रियों से चिन्तनशील प्रबुद्ध ब्रह्मज्ञानी लोग निकले जो ब्राह्मण कहलाने लगें। अनेक क्षत्रिय ऋषि और बिदुषियाँ वैदिक मंत्रों की दृष्टा थीं।
प्रजाजनों की रक्षा करना, ज्ञान-विज्ञान तथा कलाकौशल के प्रचार-प्रसार के निमित्त उदारपूर्वक दान देना, दीनदुखियों की आर्थिक सहायता करना, सत्कर्मों को स्वयं करना और दूसरों से कराना, स्वयं विद्याध्ययन करना और दूसरों को सद्ग्रन्थों की प्रेरणा देना, भोग-विलास तथा विषय-वासना में न फँसते हुए इन्द्रियों पर विजय प्राप्त कर सदैव शरीर तथा आत्मा को शक्तिशाली बनाये रखना एवं दूसरों को भी विषय-वासनाओं में लिप्त न होने देना, क्षत्रिय का धर्म है (मनुस्मृति, 1.89)। क्षत्रिय का धर्म दुष्टों को दण्ड देना है, सिर मुड़ाकर सन्यासी बनना नहीं (महाभारत, शान्तिपर्व, 29.46)। क्षत से, कष्ट-क्लेष से जो दूसरों को बचाये, वही क्षत्रिय कहा जाता है (महाभारत, शान्तिपर्व, 29.138)। शौर्य, तेज, धैर्य, कार्यकुशलता, धर्मयुद्ध से कभी पीछे न हटना, दान देना एवं प्राणिमात्र में ईश्वर को व्याप्त समझकर सबके पालन-पोषण तथा सुरक्षा की भावना रखना, ये क्षत्रिय के स्वभावजन्य गुणकर्म हैं (भगवद्गीता, 18.43)। क्षत्रिय, क्षत्री सैन्य या शासक वर्ग का सदस्य (जो बाद में दूसरे वर्ग में हो गया था, क्षत्र, शासन या सत्ता)। सैनिक जाति का सदस्य, हिन्दुओं के अन्तर्गत चार प्रमुख जातियों या वर्गो में से दूसरी सैनिक जाति का सदस्य है आक्सफोर्ड इंग्लिश डिक्शनरी (खण्ड-5, पृष्ठ-756)।
गुण-कर्म-स्वभाव में परिवर्तन होने से किसी भी मनुष्य का वर्ण भी बदल जाता है। इसकी शास्त्रोक्त व्यवस्था प्राचीन धर्मग्रन्थों में मिलती है। मनुस्मृति के अनुसार- शूद्र भी अपने उच्च कर्मो के द्वारा ब्राह्मणत्व को प्राप्त करता है। इसी प्रकार ब्राह्मण भी नीच कर्म करने से शूद्रत्व की प्राप्ति करता है। इसी प्रकार क्षत्रिय और वैश्य भी गुण-कर्म के परिवर्तन से ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र वर्ण में तद्नुसार परिवर्तित हो जाते हैं। जन्म से सभी शूद्र पैदा होते हैं, संस्कारित होने पर द्विज, वेदों के अध्ययन से विप्र तथा ब्रह्म को जानने से ब्राह्मण होते हैं। इसी आधार पर क्षत्रिय कुलोत्पन्न विश्वामित्र, वेश्यापुत्र जाबाल, वैश्य कुलोत्पन्न वसुकरण और तुलाधर, शूद्र कुलोत्पन्न कवष ऐलषु, चाण्डाल कुलोत्पन्न मातंग और धर्मव्याध, दासीपुत्र कक्षीवान आदि अपने विद्या के बल पर ही ऋषि पद प्राप्त किये थे। पराशर ऋषि चाण्डाल कन्या से उत्पन्न हुए थे। व्यास का जन्म केवट की लड़की से हुआ था। वशिष्ट का जन्म वेश्या के गर्भ से हुआ था। ये सभी तपबल से ऋषिपद प्राप्त किये थे (महाभारत)। गौतम बुद्ध कहते हैं कि- जन्म से न कोई वृषल (शूद्र) होता है, न जन्म से कोई ब्राह्मण होता है। कर्म से ही लोग शूद्र होते हैं और कर्म से ही ब्राह्मण होते हैं।
विकास क्रम को सार्वभौम सत्य-सिद्धान्तानुसार सदैव बनाये रखने वाले माध्यम शरीर को अवतार कहते हैं। अवतार के सम्बन्ध में कुछ मान्यता सृष्टि के प्रारम्भ से विकास क्रम को देखते हैं तो कुछ मानव सभ्यता के प्रारम्भ से। परन्तु दोनों ही सत्य हैं और विकास क्रम को ही प्रमाणित करती है। एक के अनुसार - सृष्टि के प्रारम्भ में जलीय जीव (1. मत्स्य, 2. कच्छप, 3. वाराह), फिर जल-थल जीव (4. नर सिंह), फिर थल मानव (5. वामन, 6. परशुराम, 7. राम, 8. कृष्ण, 9. बुद्ध, 10. कल्कि) का विकास हुआ और माध्यम को अवतार कहा गया। दूसरे के अनुसार - जल-प्लावन के समय मछली से मार्गदर्शन (मछली की गति का सिद्धान्त) पाकर मानव की रक्षा करने वाला 1. मत्स्यावतार, 2 कूर्मावतार (कछुए के गुण का सिद्धान्त), 3. वाराह अवतार (सुअर के गुण का सिद्धान्त) 4. नर-सिंह अवतार (सिंह के गुण का सिद्धान्त), 5. वामन अवतार (समाज का सिद्धान्त) 6. परशुराम अवतार (लोकतन्त्र का सिंद्धान्त) 7. राम अवतार (आदर्श व्यक्ति चरित्र का सिद्धान्त), 8. कृष्ण अवतार (व्यष्टि-आदर्श सामाजिक व्यक्ति चरित्र और समष्टि-सार्वभौम सत्य आत्मा का सिद्धान्त), 9. बुद्ध अवतार (धर्म-संघ-बुद्धि का सिद्धान्त) और अन्तिम 10. कल्कि अवतार (व्यष्टि-आदर्श वैश्विक व्यक्ति चरित्र और समष्टि-सार्वभौम सत्य-सिद्धान्त)। ग्रन्थों में अवतारों की कई कोटि बतायी गई है जैसे अंशाशावतार, अंशावतार, आवेशावतार, कलावतार, नित्यावतार, युगावतार इत्यादि। जो भी सार्वभौम सत्य-सिद्धान्त को व्यक्त करता है वे सभी अवतार कहलाते हैं। व्यक्ति से लेकर समाज के सर्वोच्च स्तर तक सार्वभौम सत्य-सिद्धान्त को व्यक्त करने के क्रम में ही विभिन्न कोटि के अवतार स्तरबद्ध होते है। अन्तिम सार्वभौम सत्य-सिद्धान्त को व्यक्त करने वाला ही अन्तिम अवतार के रूप में व्यक्त होगा। अब तक हुये अवतार, पैगम्बर, ईशदूत इत्यादि को हम सभी उनके होने के बाद, उनके जीवन काल की अवधि में या उनके शरीर त्याग के बाद से ही जानते हैं। एक ही समय में कई अवतार हो सकते हैं परन्तु मुख्य अवतार का निर्धारण उसके कार्य के प्रभाव क्षेत्र से जाना जाता है।

वंश
वैदिक-सनातन-हिन्दू धर्म में जो बातें उपलब्ध होती है, उनमें सबसे प्राचीन वंश स्वायंभुव मनु से प्रारम्भ होता है। स्वायंभुव मनु से पहले का समय प्रागैतिहासिक काल था। स्वायंभुव मनु से ही ऐतिहासिक काल प्रारम्भ होता है। स्वायंभुव मनु से प्रारम्भ हुये ऐतिहासिक काल को पौराणिक, ऐतिहासिक व भविष्य के वंश में विभाजित किया जा सकता है। स्वायंभुव मनु के स्वयं उत्पन्न होने के कारण इन्हें स्वायंभुव मनु कहा गया है यह सर्वमान्य सत्य है कि बिना स्त्री-पुरूष के सम्बन्ध से किसी का उत्पन्न होना विश्वसनीय नहीं माना जा सकता है। यह हो सकता है कि स्वायंभुव मनु के पूर्वजों के बारे में हमें कोई जानकारी नहीं थी इसलिए इन्हें स्वायंभुव मनु कहा गया। स्वायंभुव मनु के बारे में भिन्न-भिन्न धर्म ग्रन्थों में भिन्न-भिन्न नाम से वर्णन किया गया है जैसे आदेश्वर, अशिरष, वैवस्वत मनु, आदम और नूह। अतः यहाँ से शुरू होता है - ”सर्वप्रथम विकसित मानव का इतिहास“। वैदिक-सनातन-हिन्दू धर्म के पुराणों में 14 मनुओं का वर्णन किया गया है। इन्हीं के नाम से मन्वन्तर चलते हैं। जो निम्नलिखित हैं-
1. मनुर्भरत वंश की प्रियव्रत शाखा 
अ. पौराणिक वंश  अवतार काल
1. स्वायंभुव मनु यज्ञ  भूतकाल
2. स्वारचिष मनु विभु भूतकाल
3. उत्तम मनु सत्यसेना भूतकाल
4. तामस मनु हरि भूतकाल
5. रैवत मनु वैकुण्ठ भूतकाल
2. मनुर्भरत वंश की उत्तानपाद शाखा 
6. चाक्षुष मनु अजित भूतकाल
ब. ऐतिहासिक वंश  
7. वैवस्वत मनु वामन वर्तमान
स. भविश्य के वंश
8. सांवर्णि मनु सार्वभौम भविष्य
9. दत्त सावर्णि मनु रिषभ भविष्य
10. ब्रह्म सावर्णि मनु विश्वकसेन भविष्य
11. धर्म सावर्णि मनु धर्मसेतू  भविष्य
12, रूद्र सावर्णि मनु सुदामा भविष्य
13. दैव सावर्णि मनु योगेश्वर भविष्य
14. इन्द्र सावर्णि मनु वृहद्भानु भविष्य

वंश  - अ. पौराणिक वंश 1. मनुर्भरत वंश की प्रियव्रत शाखा
संसार के सर्वप्रथम मनु-स्वायंभुव मनु थे। उनके दो पुत्र थे- प्रियव्रत और उत्तानपाद। साथ ही तीन पुत्रियाँ थीं- आकूति, प्रकूति तथा देवहूति। देवहूति का विवाह कर्दम ऋषि से हुयी जिनसे विश्व का प्राचीन और प्रथम दर्शन - सांख्य दर्शन को देने वाले कपिल मुनि पैदा हुये और एक पुत्री देवी कला हुयी जिनका विवाह मरीचि ऋषि (जन्हें ‘अरिष्टनेमि’ के नाम से भी जाना जाता है) से हुआ। प्रियव्रत और उत्तानपाद के वंशज मनुर्भरत कहे गये हैं। मनुर्भरतों की कुल 45 पीढ़ियाँ थीं। अन्तिम व्यक्ति दक्ष प्रजापति थें। उस समय के समूची मानवजाति के प्रजापति ये ही 45 पीढ़ियाँ थीं।
मनुर्भरत वंश की प्रियव्रत शाखा में 1. स्वायंभुव 2. स्वारचिष, 3. उत्तम, 4. तामस, 5. रैवत मनु हुए। भारतीय संस्कृति का इतिहास, पृष्ठ- 91 में आचार्य चतुरसेन लिखते हैं- स्वायंभुव की पत्नी का नाम शतरूपा था। प्रियव्रत ने पृथ्वी के भाग किये और देशों के नाम रखे (श्रीमद्भागवत)। पहले पर्शियन राज्य के चार खण्ड थे- सुग्द, मरू (मर्व), हरिपुर और निशा। कुछ काल बाद हरपू, हरितपुर, हिरात और वक्रित (काबुल) को भी मिलाकर सम्राज्य संगठित किया गया (हिस्ट्र आॅफ परसिया, जिल्द-1), जो पूर्वी साम्राज्य और पश्चिमी साम्राज्य के नाम से विख्यात हुआ। दारा ने साम्राज्य के इन दोनों प्रांतो को 13 भागों में विभक्त किया जिन्हें शत्रप कहते हैं। शत्रप, शतरूपा के पुत्र होने से उनके नाम पड़े, क्योंकि उस काल में मातृगोत्र प्रचलित था। मनु के 3 कन्याओं में से देवहूति का विवाह पुलह के पुत्र कर्दम ऋषि से हुआ। कर्दम तथा देवहूति का पुत्र प्रसिद्ध सांख्य दर्शन के रचयिता कपिल थे। कर्दम ऋषि की कन्या का विवाह प्रियव्रत से हुआ, जिससे 10 पुत्र और 2 पुत्रियाँ हुई। प्रियव्रत ने षष्ठीव्रत चलाया। 
प्रियव्रत की दो पत्नीयाँ थी। पहली पत्नी से तीसरे उत्तम नाम के मनु हुए। दूसरी पत्नी से 10 पुत्र हुए जिनमें से 7 पुत्रों को समस्त भूमण्डल को सात महाद्वीप बनाकर बाँट दिया। 1. आग्नीध्र को जम्बूद्वीप (एशिया), 2. इन्द्रजिन्ह को पलक्षद्वीप (यूरोप), 3. यज्ञबाहु को शाल्मलीद्वीप (अफ्रीका), 4. रूक्म को कुशद्वीप (आस्ट्रेलिया), 5. शुक्र को पुष्करद्वीप (अंटार्कटिका), 6. धृतपृष्ठ को कौचद्वीप (उत्तरी अमेरिका), 7. मेधातिथि को शाकद्वीप (दक्षिणी अमेरिका)। शेष तीन पुत्र 8. महावीर, 9. सवन और 10. कवि तपस्वी हो गये थे।
प्रियव्रत ने जम्बूद्वीप अपने पुत्र अग्नीन्ध्र को दिया। प्रियव्रत के पुत्र अग्नीन्ध्र्र ने अपने 9 पुत्रों को 1.नाभि को हिमवर्ष (हिमालय से अरब सागर तक), 2. हरि को हरिवर्ष (तुर्किस्तान), 3. इलाव्रत को इलावर्ष (पामीर), 4. रम्यक को चीनी तातार, 5. हिरण्मय को मंगोलिया, 6. कुरू को कुरूवर्ष (साइबेरिया), 7. किमुरूप को उत्तरी चीन, 8. भद्राश्व को दक्षिणी चीन और 9. केतुमान को रूसी दिया। 
भारत के प्रजापति नाभि थे, जिनके त्यागी और ज्ञानी पुत्र ऋषभदेव थे। वे जैनियों के आदि तीर्थंकर माने गये हैं। इन्हीं ऋषभदेव के पुत्र भरत थे जिन्हें जड़भरत के नाम से भी जाना जाता है। इस देश का नाम भारतवर्ष इन्हीं मनुर्भरत के नाम पर पड़ा (श्रीमद्भागवत, प्रथम अध्याय, 131)। अपने प्रताप, ज्ञान और कौशल के बल पर 8 द्वीपों पर उनका अधिकार था। नाभि के पुत्रों का अनुशासन भारत के बाहर के देशों में भी हो गया था। 
मनुर्भरत वंश की प्रियव्रत शाखा स्वांयभुव मनु से लेकर 28वें पीढ़ी में 5वें रैवत मनु तक पैदा हुए। उसके बाद इस वंश के शासकों का पता नहीं चलता। इस शाखा से 17 शाखाएँ चलीं जो इस प्रकार हैं- 1. अग्नीन्ध्र वंश, 2. इन्द्रजिम्न वंश, 3. यज्ञवाहु वंश, 4. रूक्म वंश, 5. शुक्र वंश, 6. घृतपुष्ट वंश, 7. मेधातिथि वंश, 8. हरि वंश, 9. किमपुरूष वंश, 10. इलावृत वंश, 11. कुरू वंश, 12. केतुमान वंश, 13. रम्य वंश, 14. भद्राश्व वंश, 15. हिरण्यवान वंश, 16. नाभि वंश, 17. मनुर्भरत वंश।

वंश  - अ. पौराणिक वंश 2. मनुर्भरत वंश की उत्तानपाद शाखा 
मनुर्भरत वंश की उत्तानपाद शाखा में 6वें मनु चाक्षुष और वर्तमान में चल रहे 7वें मनु वैवस्वत मनु हुए और इस शाखा से ही भारतीय राजवंश चला तथा 45वें पीढ़ी के प्रजापति दक्ष पर समाप्त हुआ। सुसंगठित सभ्य समाज का गठन करने वाले पृथुवैन्य तथा प्रचेतस् उत्तानपाद शाखा में ही हुए हैं। भारतीय संस्कृति का इतिहास (पृष्ठ-93) आचार्य चतुरसेन के अनुसार - चाक्षुष मन्वन्तर में बड़ी-बड़ी घटनाएँ हुईं है। भरतवंश का विस्तार हुआ। राजा की मर्यादा स्थिर हुई। पृथुवैन्य को संसार का प्रथम राजा घोषित किया गया। राज परिषद् धारण किये गये। राज व्यवस्था आधारित की। इसी के नाम पर भूमि का नाम पृथ्वी पड़ा। इसी काल में वेद रचना आरम्भ हुई। भूमि सम की गई। कृषि का आरम्भ हुआ। नगर गांव बसाये गये। इस वंष के राजा प्रचेतस ने जंगलों को जलाकर भूमि को साफ किया और खेती कराई।
मनुर्भरत वंश की उत्तानपाद शाखा से 36वें पीढ़ी के प्रजापति व 6वें मनु चाक्षुष मनु थे। इनके वंशज 10 पीढ़ी तक प्रजापति रहे। 46वें पीढ़ी के दक्ष इनमें से अन्तिम प्रजापति थे। स्वायंभुव मनु के तीसरी पीढ़ी में दूसरे पुत्र उत्तानपाद से दो पुत्र 1. उत्तम (उत्तमजायी पठान हो गये) व 2. ध्रुव हुये। स्वायंभुव मनु के चैथी पीढ़ी में ध्रुव से एक पुत्र श्लिष्ठ/भव्य हुये। स्वायंभुव मनु के पाँचवी पीढ़ी में श्लिष्ठ से 5 पुत्र 1. ऋभु 2. रिपुन्जय 3. वीर 4. बृकल 5. वृक हुए। स्वायंभुव मनु के छठीं से पैंतीस पीढ़ी अज्ञात है। 36वें पीढ़ी में 6वें मनु चाक्षुष मनु थे। ऐतरेय ब्राह्मण (8.4.1) के अनुसार चाक्षुष मनु के 6 प्रतापी पुत्र 1. अत्यराति, जानन्तिपति अर्मीनिया की अराट जाति, 2. अभिमन्यु, मन्युपुरी या सुषानगर के दो पुत्र मन्यु (मन्यु जाति ग्रीक देश) व केशी (केशीवर जाति परशिया देश) 3. सुघुम्न 4. पुर 5. तपोरत 6. उर (उर लोक, उरजन, करतार, चालडिया) के चार पुत्र इलावृत (एलामवंश ईरान), बेबिल (बेबिल जाति बेबिलोनिया), अंगिरा (अंगिरा जाति अंकारा एवं टर्की) व अंग हुए। उर के पुत्र अंगिरा को समुद्रपर्यन्त पृथ्वी का स्वामी कहा गया है। अंगिरा की राजधानी पुर थी, जिसके नाम पर पुरसिया नामक एक स्थान एलबुर्ज (ईरानी बैकुंठ) के समीप है। अंग से बेन, बेन से पृथवेन, पृथवेन से अंतरद्धान, अंतरद्धान से हविद्र्धान, हविद्र्धान से प्राचीन (वर्हिर्षि), वर्हिर्षि से पाँच पुत्र प्रचेतस दक्ष, वृष्ण, वज्र, आजब व गय हुये। इसी वंश को उमा-सती घटना में शिव ने नष्ट कर दिया था। दक्ष का अन्तिम वंश कितनी पीढ़ी तक चला इसका प्रमाण नहीं मिलता परन्तु दक्ष वंश की कन्याओं के विवाह से यह लगभग 22 पीढ़ी तक चलने का अनुमान लगाया जाता है क्योंकि आगे आने वाली पीढ़ीयों में ब्रह्मा के पुत्र मरीच, मरीच के पुत्र कश्यप, अष्टवसु धर का विवाह दक्ष वंश में ही हुआ था।
स्वायंभुव मनु से लेकर दक्ष वंश तक का काल सत्ययुग काल कहा गया। इसी दक्ष वंश के प्रजापति उर के वंशजों का एक राज्य कर्तार प्रदेश (वर्तमान कतर) में था जहाँ का राजा सर्वप्रथम विष्णु कर्तार नाम से हुआ। इस गद्दी पर बैठने वाले सभी विष्णु कर्तार कहलाये। गद्दी पर बैठने वाले पाँचवें विष्णु कर्तार के पुत्र का नाम नाभि कर्तार, और नाभि कर्तार के पुत्र का नाम कमल कर्तार, और कमल कर्तार के पुत्र का नाम ब्रह्मा कर्तार था। विष्णु कर्तार के साम्राज्य का विस्तार प्रथम विष्णु कर्तार ने वर्तमान क्षीर सागर तथा अराल सागर तक फैलाया। इन सागरों के आस-पास नागवंशीयों तथा गरूण वंशीयों का साम्राज्य था जिसे प्रथम विष्णु ने विजित कर अपने अधीन कर लिया। ब्रह्मा कर्तार ने ही सर्वप्रथम वेदों की ऋचाओं की संरचना एवं संकलन किया। 
पुराणों में विष्णु कर्तार व ब्रह्मा कर्तार ही विष्णु और ब्रह्मा के नाम से दिखाये गये हैं। शिव के बारे में आगे तथ्य मिलेगें। इस प्रकार यह पौराणिक वंशावली चलती गई।
मनुर्भरत वंश की उत्तानपाद शाखा से 22 शाखाएँ चलीं जो इस प्रकार हैं- 1. उत्तमजायी वंश (सभी उत्तमजायी पठान हो गये), 2. ध्रुव वंश, 3. 6वें मनु-चाक्षुषमनु वंश, 4. अत्याराति या अराट वंश, 5. मन्यु वंश, 6. ग्रीक वंश, 7. केशी वंश, 8. पुरू या पोरस वंश, 9. तपसी या तपोरत वंश, 10. विकुण्ठा वंश, 11. उर वंश, 12. उरूलोक वंश, 13. उर्जन वंश, 14. चाल्डिया वंश, 15. कर्तार वंश, 16. एलाम वंश, 17. बेबिल वंश, 18. अंगिरा वंश, 19. तुर्वसु वंश, 20. अंग वंश, 21. बेन वंश, 22. दक्ष वंश।
देव-दैत्य-दानव-नाग-गरूड़ इत्यादि दायाद बान्धव जन एक ही स्थान कश्यप सागर तट पर रहते थे। तब उनमें विविध भू-सम्पत्ति के मामले में परस्पर संग्राम होते रहे (मत्स्य पुराण, 47.41)। 
आचार्य चतुरसेन कृत भारतीय संस्कृति का इतिहास पृष्ठ-90 के अनुसार-मोहनजोदड़ों और हड़प्पा की सिन्धु घाटी की सभ्यता को पुरातत्वविद् 3250 ईसापूर्व की मानते हैं। लगभग यही काल मनुर्भरतों की सभ्यता का है। अभी सिन्धु घाटी के लेख नहीं पढ़े गये परन्तु यह अनुमान है कि या तो इस सभ्यता के लोग मनुर्भरत ही हैं या उनसे विजित जाति के कोई समसामयिक जाति वाले। यह समय लगभग सत्ययुग व त्रेता युग का संधिकाल का समय था जो लगभग ई.पूर्व 3000 वर्ष माना जाता है। 

ब. ऐतिहासिक वंश
ब्रह्मा के 10 मानस पुत्रों 1. मन से मरीचि, 2. नेत्रों से अत्रि, 3. मुख से अंगिरा, 4. कान से पुलस्त्य, 5. नाभि से पुलह, 6. हाथ से कृतु, 7. त्वचा से भृगु, 8. प्राण से वशिष्ठ, 9. अँगूठे से दक्ष तथा 10. गोद से नारद उत्पन्न हुये। मरीचि ऋषि, जिन्हें ‘अरिष्टनेमि’ के नाम से भी जाना जाता है, का विवाह देवी कला से हुआ। संसार के सर्वप्रथम मनु-स्वायंभुव मनु की पुत्री देवहूति से कर्दम ऋषि का विवाह हुआ था। देवी कला कर्दम ऋषि की पुत्री और विश्व का प्राचीन और प्रथम सांख्य दर्शन को देने वाले कपिल देव की बहन थी। मरीचि ऋशि द्वारा देवी कला की कोख से महातेजस्वी दो पुत्र 1. कश्यप और 2. अत्रि हुये। 1. कश्यप से सूर्य वंश और ब्रह्म वंश तथा 2. अत्रि से चन्द्र वंश का आगे चलकर विकास हुआ। 

आदि पुरूष महर्षि कूर्म-कश्यप
त्रेता युग के प्रारम्भ में मारीचि कश्यप हुए हैं (वायु पुराण, 6.43)। सम्पूर्ण मानव जाति के आदि पुरूष कूर्म कश्यप अत्यन्त पुरातन काल में विद्यमान थे। कश्यप ऋषि प्राचीन वैदिक ऋषियों में प्रमुख ऋषि हैं जिनका उल्लेख एक बार ऋग्वेद में हुआ है। अन्य संहिताओं में भी यह नाम बहुप्रयुक्त है। इन्हें सर्वदा धार्मिक एंव रहस्यात्मक चरित्र वाला बतलाया गया है एंव अतिप्राचीन कहा गया है। एक बार समस्त पृथ्वी पर विजय प्राप्त कर परशुराम ने वह कश्यप मुनि को दान कर दी। कश्यप मुनि ने कहा-”अब तुम मेरे देश में मत रहो।“ अतः गुरु की आज्ञा का पालन करते हुए परशुराम ने रात को पृथ्वी पर न रहने का संकल्प किया। वे प्रति रात्रि में मन के समान तीव्र गमनशक्ति से महेंद्र पर्वत पर जाने लगे। ऐतरेय ब्राह्मण के अनुसार उन्होंने विश्वकर्मभौवन नामक राजा का अभिषेक कराया था। ऐतरेय ब्राह्मणों ने कश्यपों का सम्बन्ध जनमेजय से बताया गया है। शतपथ ब्राह्मण में प्रजापति को कश्यप कहा गया है
”स यत्कुर्मो नाम। प्रजापतिः प्रजा असृजत। यदसृजत् अकरोत् तद् यदकरोत् तस्मात् कूर्मः कश्यपो वै कूर्म्स्तस्मादाहुः सर्वाः प्रजाः कश्यपः“
महर्षि कश्यप पिंघले हुए सोने के समान तेजवान थे। उनकी जटाएं अग्नि-ज्वालाएं जैसी थीं। महर्षि कश्यप ऋषि-मुनियों में श्रेष्ठ माने जाते थे। सुर-असुरों के मूल पुरूष मुनिराज कश्यप का आश्रम मेरू पर्वत के शिखर पर था, जहां वे पर-ब्रह्म परमात्मा के ध्यान में मग्न रहते थे। मुनिराज कश्यप नीतिप्रिय थे और वे स्वयं भी धर्म-नीति के अनुसार चलते थे और दूसरों को भी इसी नीति का पालन करने का उपदेश देते थे। उन्होने अधर्म का पक्ष कभी नहीं लिया, चाहे इसमें उनके पुत्र ही क्यों न शामिल हों। महर्षि कश्यप राग-द्वेष रहित, परोपकारी, चरित्रवान और प्रजापालक थे। वे निर्भिक एवं निर्लोभी थे। कश्यप मुनि निरन्तर धर्मोपदेश करते थे, जिनके कारण उन्हें ‘महर्षि’ जैसी श्रेष्ठतम उपाधि हासिल हुई। समस्त देव, दानव एवं मानव उनकी आज्ञा का अक्षरशः पालन करते थे। उन्ही की कृपा से ही राजा नरवाहनदत्त चक्रवर्ती राजा की श्रेष्ठ पदवी प्राप्त कर सका। महर्षि कश्यप अपने श्रेष्ठ गुणों, प्रताप एवं तप के बल पर श्रेष्ठतम महाविभूतियों में गिने जाते थे। महर्षि कश्यप सप्तऋषियों में प्रमुख माने गए। सप्तऋषियों की पुष्टि श्री विष्णु पुराण में इस प्रकार होती है- 
वसिष्ठः काश्यपोयात्रिर्जमदग्निस्सगौतमः। विश्वामित्रभरद्वाजौ सप्त सप्तर्शयोभवः।। 
 (अर्थात् सातवें मन्वन्तर में सप्तऋषि इस प्रकार हैं, वसिष्ठ, कश्यप, अत्रि, जमदग्नि, गौतम, विश्वामित्र और भारद्वाज।)
महर्षि कश्यप ने समाज को एक नई दिशा देने के लिए ‘स्मृति-ग्रन्थ’ जैसे महान् ग्रन्थ की रचना की। इसके अलावा महर्षि कश्यप ने ‘कश्यप-संहिता’ की रचना करके तीनों लोकों में अमरता हासिल की। ऐतिहासिक दस्तावेजों के अनुसार ‘कस्पियन सागर’ एवं भारत के शीर्ष प्रदेश कश्मीर का नामकरण भी महर्षि कश्यप जी के नाम पर ही हुआ। महर्षि कश्यप द्वारा संपूर्ण सृष्टि की सृजना में दिए गए महायोगदान की यशोगाथा हमारे वेदों, पुराणों, स्मृतियों, उपनिषदों एवं अन्य अनेक धार्मिक साहित्यों में भरी पड़ी है, जिसके कारण उन्हें ‘सृष्टि के सृजक’ उपाधि से विभूषित किया जाता है। 
महर्षि कश्यप की पत्नी मनुर्भरतवंश के 45वीं पीढ़ी में उत्तानपाद शाखा के प्रजापति दक्ष की पुत्री अदिति थी (बृहद्वेता, 3.57)। वह परम विदुषी, चतुर और गुणवती थी। दक्ष की पुत्री होने के कारण अदिति को दक्षायणी भी कहा गया है (निरूक्त, 11.23)। अदिति ऋषिका थी। उसने वेदों के कई मंत्रों की रचना की है। ऋग्वेद मंडल 4 सूक्त 18 का मंत्र 7 अदिति के नाम से और ऋग्वेद मंडल 10 सूक्त 72 का मंत्र 19 दाक्षायणी अदिति के नाम से है। अदिति अपने शाब्दिक अर्थ में बंधनहीनता और स्वतंत्रता की द्योतक है। दिति का अर्थ बँधकर और बाँधना होता है। इसी से पाप के बंधन से रहित होना भी अदिति के संपर्क से ही संभव माना गया है। ऋग्वेद (1,162,22) में उससे पापों से मुक्त करने की प्रार्थना की गई है। कुछ अर्थों में उसे गो का भी पर्याय माना गया है। ऋग्वेद का वह प्रसिद्ध मंत्र (8,101,15)- मा गां अनागां अदिति वधिश्ट- गाय रूपी अदिति को न मारो। जिसमें गोहत्या का निषेध माना जाता है - इसी अदिति से संबंध रखता है। इसी मातृदेवी की उपासना के लिए किसी न किसी रूप में बनाई मूर्तियां प्राचीन काल में सिंधुनद से भूमध्यसागर तक बनी थीं। कश्यप और अदिति के सम्बन्ध में रामचरित मानस में भी गोस्वामी तुलसीदास जी ने उल्लेख किया है-
कश्यप-अदिति महातप कीन्हा। तिनकँह मैं पूरब वर दीन्हा।।
ते दसरथ कौसल्या रूपा। कोसलपुरी प्रगट नर भूपा ।।
तिन्हके गृह अवतरिहँु जाई। रघुकुल तिलक सो चारिउ भाई।। 
(रामचरित मानस, बालकाण्ड, दोहा-187)
कश्यप और अदिति दोनों ही समाजसेवी, विद्याप्रेमी और लोकहितकारी कार्यो में निरन्तर लगे रहने वाले थे। कश्यप और अदिति दोनों ने दीर्घकाल तक तपस्या की। तदन्तर उनके बारह पुत्र उत्पन्न हुए, जो आदित्य कहलाये। आचार्य चतुरसेन इन पुत्रों के सम्बन्ध में लिखते हैं- इनमें ज्येष्ठ पुत्र वरूण थे जो पुराणों में ब्रह्मा के नाम से प्रसिद्ध हैं तथा विदेशों में अलोहिम, अल्लाह और इलाही इत्यादि के नाम से विख्यात हैं। सूर्य का विष्णु नाम पुराणों में विख्यात हुआ। आगे ये बारहो आदित्य कुल ”देवकुल“ कहलाए। चतुरसेन के अनुसार- इनके कुलों का संयुक्त नाम भी आदित्य कुल प्रसिद्ध हुआ। इनमें वरूण सबसे ज्येष्ठ थे और विवस्वान् सबसे छोटे। विवस्वान् का ही नाम सूर्य या विष्णु था। इन्हीं सूर्य के पुत्र वैवस्वत मनु थे। इन्हीं वैवस्वत मनु से मानव सूर्यवंश चला। अदिति के बारह पुत्रों में इन्द्र भी अत्यन्त पराक्रमी थे। अदिति के पुत्रों की कीर्तिकथा का वर्णन ऋग्वेद (10.72.5) के अनुसार- ऐ दक्ष, तेरी दुहिता अदिति ने उन देवों को जन्म दिया है जो भद्र और अमृत बन्धु हैं, उनकी बन्धुता कभी नष्ट होने वाली नहीं है, वे अमर हैं।
महर्षि कश्यप एक महान विचारक, वक्ता, वैज्ञानिक, विद्वान, कलाकार, साहित्यकार, कवि और अत्यन्त कुशल कृषिकार थे। वे सफल साधक और महान समाजसेवी थे। वे महान तपस्वी और त्यागी थे। सद्गृहस्थ होने के साथ-साथ उन्होंने जनहित के लिए अपने जीवन को तपा-तपा कर अन्यन्त निर्मल और दीप्तिमान कर लिया था। किसी भी प्रकार का दोष उनमें शेष नहीं बचा था। महर्षि कूर्म ने कृषि और औषधियों के सम्बन्ध में वैज्ञानिक प्रयोग करके उसकी प्रगति के लिए अनेक प्रयास किये। इस दिशा में उन्हें सफलता भी मिली। उन्होंने कृषि के विकास के लिए जल में डूबी हुई भूमि को जल से बाहर निकालने का भी पुरूषार्थ किया। अपने पराक्रम और चतुराई से उन्होंने एक विशाल भूभाग पर अपना स्थायी आधिपत्य स्थापित कर लिया था। कश्यप द्वीप के नाम से उन्होंने मध्य एशिया में अपना उपनिवेश स्थापित किया था (महाभारत, भीष्म पर्व, 6.11)। कश्यप सागर (वर्तमान कैस्पियन सी) उनकी सीमा के भीतर था (हिस्ट्री आॅफ पर्सिया, खण्ड-1, प्ष्ठ-28)। कश्यप सागर वर्तमान समय में ईरान के काश्यपी प्रदेश में है। 
महर्षि कश्यप ने कश्यप सागर के किनारे अनेक विकास कार्य समपन्न किये। इसी कश्यप सागर में ही पौराणिक समुद्र-मन्थन हुआ था। समुद्र मन्थन से लक्ष्मी की उपलब्धि हुई थी। इस आख्यान का तात्पर्य यही है कि महर्षि कश्यप के निर्देश में आर्यजनों ने मध्य एशिया में अपने श्रम, चातुर्य और पराक्रम के सहारे सोने की खानों का पता लगाया और खोदाई करके बड़ी मात्रा में सोना प्राप्त किया (कूर्म पुराण, पूर्व भाग, 1.27-29)। समुद्री प्रदेश के चारों ओर धनधान्य की खोज के लिए उन्होंने सारी भूमि को छान डाला और अन्य कई दुर्लभ वस्तुओं की खोज कर डाली। उन्होंने कृषि के विकास के लिए अथक प्रयास करके पर्याप्त समृद्धि प्राप्त की। इसे ही कल्पनाशील कवि हृदय आर्यजनों ने समुद्र मंन्थन का नाम दिया था जो ईश्वर के दूसरे अवतार-कूर्मावतार की कथा से जुड़ा हुआ है। काश्यपों के द्वारा ही कश्मीर बसाया गया था। हिमालय के उत्तरी-पश्चिमी कोने पर सर्वाधिक ऊँचाई वाले पहाड़ी का जो कोण बनता है उसकी एक भुजा कराकुर्रम पर्वत और दूसरी भुजा हिन्दुकुश पर्वत है। कराकुर्रम पर्वत कूर्म के ही अधिकार में था। अफगानिस्तान की ओर से आने वाली और कुर्रम दर्रे से होकर बत्रू जिले में होती हुई सिन्धु नदी में मिल जाने वाली सुप्रसिद्ध कुर्रम नदी महर्षि कूर्म की ही अधिकारिक सीमा में थी। काश्यप पर्वत, जिसे आजकल काकेशश पर्वत कहा जाता है, की चोटी पर महर्षि काश्यप कठिन साधनाएँ और तपस्या किया करते थे। उन्हीं की किर्ति को अमर रखते हुए उसे आजकल कश्यपतुंग के नाम से जाना जाता है। बौधायन धर्मसूत्र में धर्म पर लिखने वाले कतिपय आचार्यो के प्रमाण दिये गये हैं। इनमें काश्यप, कात्य, गौतम, प्रजापति, मनु हारित और मौद्गल्य प्रमुख हैं। महर्षि कश्यप वैदिक मंत्र दृष्टा थे। ऋग्वेद के प्रथम मंडल के सूक्त 99 की रचना महर्षि कश्यप द्वारा ही की गई है। वर्तमान में कश्यप के 72 मंत्र ही ऋग्वेद में मिलते हैं। आज भी उनके नाम पर विख्यात कश्यप सागर (कैस्पियन सी), क्रुमु नदी, कुर्रम पर्वत और कूर्माचंल प्रदेश आदि उनकी यशस्वी कीर्तिकथा का उदघोष करते हैं। आज के कूर्मवंशी क्षत्रिय उन्हीं की वंशज हैं।
कुमाऊँ शब्द की व्युत्पति के सम्बन्ध में विभिन्न मत प्रचलित रहें हैं। भाषिक दृष्टि से यही उचित जान पड़ता है कि यह शब्द मूलतः संस्कृत में कूर्म है। चम्पावत के समीप 2196 मीटर ऊँचा कांतेश्वर पर्वत है जिसे सम्बन्ध में मान्यता है कि भगवान विष्णु अपने द्वितीय अवतार-कूर्मावतार में इस पर्वत पर तीन वर्ष तक रहे। तब से यह पर्वत कांतेश्वर के स्थान पर कूर्म-अंचल अर्थात कूर्मांचल नाम से जाना जाने लगा। इस पर्वत की आकृति कच्छप की पीठ जैसी जान पड़ती है। सम्भवतः इसी कारण इस क्षेत्र का नाम कूर्मांचल पड़ा होगा। पहले शायद कूर्म शब्द प्रयोग में आता होगा क्योंकि कूर्म शब्द का प्रयोग स्थानीय भाषा में बहुतायत से मिलता है। कुमाऊँ का अस्तित्व भी वैदिक काल से है। स्कन्दपुराण के मानस खण्ड व अन्य पौराणिक साहित्य में मानस खण्ड के नाम से वर्णित क्षेत्र कुमाऊँ मण्डल ही है। इस क्षेत्र में अनेक प्राचीन मन्दिर और तीर्थ स्थल हैं।

क्षत्रिय और कूर्म क्षत्रिय
कृषि के आविष्कार के साथ ही कुटुम्ब या परिवार नामक संस्था का आविर्भाव और विकास हुआ जो आज भी सामाजिक जीवन की महत्वपूर्ण इकाई के रूप में स्थापित है। कुटुम्ब के सदस्य को कुटुम्बिक कहा जाता था। धीरे-धीरे बोलचाल की भाषा में जिस प्रकार ब्राह्मण से बाभन, बम्भन, बरहमन आदि शब्द बनते गये, लक्ष्मण से लखन, स्वर्णकार से सोनार, कुम्भकार से कुम्हार शब्द बन गये वैसे ही लोक प्रचलन में कुटुम्बी का टु गायब हो गया और कुम्बी, कुरमी, कुणबी, कणवी आदि शब्द प्रचलन में आने लगे। कुटुम्ब को कुल भी कहा जाता था। कुल से कुलम्बी, कुलवदी, कुलमी, कुरमी, कूर्मा, कापू, कम्मा, कूर्मि क्षत्रिय आदि शब्द भारत के विभिन्न प्रदेशों में उच्चारण और प्रयोग भेद से प्रचलित होते गये। महर्षि पंतजलि ने व्याकरण महाभाष्य (1.1.1) में ”गौ“ शब्द का उदाहरण देकर बतलाया है कि किस प्रकार एक मूल शब्द अपभ्रंश के कारण अनेक रूप धारण कर लेता है। मूलतः यह कूर्मि क्षत्रिय जाति उस सभ्यता की जनक है जिसने कृषि का आविष्कार करके उसकी प्रगति की और आर्यो को यायावर (घुमक्कड़) जीवन की अवस्था से स्थिर जीवन शैली वाली श्रेष्ठ और सुसंस्कृत जाति के रूप में परिणत किया। आर्यो के पूज्यतम देवराज इन्द्र थे, जिन्हें अनेक वैदिक मंत्रों में ”तुवि कूर्मि“ अर्थात महान पराक्रमी कर्मयोगी कहा गया है (ऋग्वेद, 3.10.3)। कूर्मि का शाब्दिक अर्थ है- कर्मशील, पराक्रमी। तुवि कूर्मि कार अर्थ है- अत्यन्त कार्यकुशल, महान पराक्रमी, महान कर्मयोगी। महान कूर्मि कर्मयोगी है और वह स्तुति, सत्कार तथा आह्वान के योग्य है। वह सत्यस्वरूप और महाबली है। वह अकेले भी विध्नबाधाओं और शत्रुसमूहों से कभी भी पराजित नहीं होता, सदैव विजयी होता है (ऋग्वेद, 8.16.8)। वैदिक कालीन सुप्रसिद्ध मनीषी महर्षि कूर्म की वंशधर कूर्मवंशी क्षत्रिय जाति भारत की ही नहीं अपितु विश्व की प्राचीनतम विशुद्ध क्षत्रिय जाति है। कुरमी का शाब्दिक अर्थ भी सार्थक है। कु अर्थात पृथ्वी, रमी अर्थात रमी हुई या संलग्न। कुरमी अर्थात वह व्यक्ति या जाति जिसका कर्मक्षेत्र भूमि है।
ऐतिहासिक प्रमाणों से यह तथ्य उजागर होता है कि कूर्मि जाति के पूर्वज उच्च कोटि के विशुद्ध पराक्रमी तथा शूरवीर क्षत्रिय थे। कूर्मि जाति विशुद्ध क्षत्रिय वर्ण की है, इसके अतिरिक्त कुछ भी नहीं है। कूर्मि जाति के आदि पूर्वज महर्षि कूर्म क्षत्रिय थे। अतः उनके वंशजों का क्षत्रित्व स्वयं सिद्ध है (लघु नारदीय उपपुराण, चन्द्रवंशीय राजर्षि वर्णन, श्लोक 41 और 56)। यह अप्रतीम, अद्वितीय एवं वज्रबाहु महान कूर्मि सनातन काल से जगत को जीवनोपयोगी पदार्थ निश्चित तथा निर्बाध रूप से प्रदान करता आ रहा है (ऋग्वेद, 8.2.31)। कूर्मि का जीवन कर्मशीलता, साहस, संग्राम, संघर्ष, आशा, उत्साह, उमंग तथा उल्लास का होता है। वह साहस के साथ संकटों का सामना करता है। वह संसार में परिस्थितियों का कभी दास नहीं बनता, अपितु उनका स्वामी बनकर जीवन को ज्योतिर्मय बना लेने में समर्थ होता है। वह मंगलमयी, आशामयी, उदात्त भावनाओं का केन्द्र है। वह अपने चारों ओर, न केवल अपनी जाति में, न केवल अपने देश या राष्ट्र में, न केवल पृथ्वी पर, अपितु समस्त विश्व में सुख, शान्ति, सौमनस्य, सौहार्द तथा प्रकाश का साम्राज्य चाहता है। उसका दृष्टिकोण अत्यधिक विशाल होता है (ऋग्वेद, 6.52.5)।
बृहत् हिन्दी कोश (सम्पादक कालिका प्रसाद, ज्ञानमण्डल, वाराणसी, पृष्ठ-303) में कूर्म शब्द के अर्थ हैं- कूर्म- विष्णु के दस अवतारों में से दूसरा कच्छपावतार, कूर्मक्षेत्र- एक हिन्दू तीर्थ, कूर्म पुराण- 18 पुराणों में से एक, जिसमें कूर्मावतार की कथा है। कूर्म कश्यप चूंकि प्रजापालक और सृष्टा थे, अतः उन्हें प्रजापति भी कहा गया है (शतपथ ब्राह्मण, 7.5.1.5)। कूर्म शब्द इतना व्यापक हुआ कि आकाश और पृथ्वी का नाम ही कूर्म पड़ गया (यजुर्वेद, 24.34 और शतपथ ब्राह्मण, 7.5.1.5)। कूर्मि- कु अर्थात पृथ्वी और उर्मि अर्थात गोद। इस प्रकार कूर्मि शब्द से तात्पर्य है पृथ्वी की गोद में पलने वाला या पृथ्वीपुत्र। कहा भी गया है- भूमि मेरी माता है और मैं उसका पुत्र हूँ। कूरम- कु अर्थात पृथ्वी और रम अर्थात पति या बल्लभ। अतः कूरम शब्द का अर्थ है भूपति या पृथ्वीपति जो कि क्षत्रिय शब्द का पर्यायवाची है। कहा गया है- क्षेत्रात् रमेत सः क्षत्रियः।
इन्साइक्लोपीडिया ब्रिटेनिका (चैदहवां संस्करण, 1768 ई. जिल्द-13, पृष्ठ-517) में कुनबी जाति के बारे में कहा गया है- कुनबी, महान हिन्दू कृषक जाति है, जो मुख्यतः पश्चिमी भारत में पायी जाती है। यह मद्रास के तेलगू प्रदेश के कापू, बेलगाम के कुलबी, दक्षिण के कुलम्बी, दक्षिणी कोकण के कुलवदी, गुजरात के कणबी तथा भड़ोच के पाटीदारों के समरूप है। कुनबियों में विधवा पुनर्विवाह तथा बहुपत्नी प्रथा को सामाजिक स्वीकृति है किन्तु बहुपत्नी प्रथा बहुत कम व्यवहार में है। वर्षाऋतु के मध्य में मनाया जाने वाला ”पोला“ उनका प्रमुख त्योहार है। इसमें वे हल-बैलों का जुलुस निकालते हैं। नृवंशीय दृष्टि से महरट्टा (मराठा) तथा कृषिकर्मी कुनबी समान हैं। दोनों में ही विशिष्ट मौलिक पैतृक गुण हैं। कुनबी (गृहस्थ वैदिकोत्तर संस्कृत कुटुम्बिक जो आदिम शब्द का संस्कृत रूप हो सकता है) पश्चिमी भारत की महान कृषक जाति है। उत्तर में, जहाँ गंगा के अगल-बगल तथा उसके दक्षिण में यह जाति अधिक संख्या में है, कुनबी नाम कुरमी हो जाता है।
वेदों के भाष्यकार सायणाचार्य ”कूर्म“ तथा ”कूर्मि“ शब्दों की व्याकरण सम्मत व्याख्या करते हुए लिखते है- कूर्मः (रसो वीर्य तेजो वा) अस्ति अस्य इति कूर्मी अर्थात रसवान, वीर्यवान, तेजवान कूर्मी। जिसके पास जीवनरस, वीर्यबल तथा तेजस्विता रहती है, वही कूर्मि है। कूर्मः (प्राणी बलं क्षत्रं राष्ट्रं वा) अस्ति अस्य इति कूर्मी अर्थात प्राणवान, बलवान, क्षत्री (क्षत्रपति), राष्ट्री (राष्ट्रपति) कूर्मी। जिसके अधिपत्य में प्राण, बल, क्षत्र (क्षत्रियत्व अथवा राष्ट्रपतित्व) है, वही कूर्मि है। कूर्मः (भारतवर्ष देशो) अस्ति अस्य इति कूर्मी अर्थात कूर्म नामक भारतवर्ष जिसके आधिपत्य में है, वही कूर्मि है।
कर्मशीलता और दूरदर्शिता के बल पर ही परमात्मा ने इस सृष्टि की रचना की, इसलिए उसे ”कूर्म“ और ”कश्यप“ कहा जाता है। ”कूर्म“ का शाब्दिक अर्थ ”कर्मशील“ और ”कश्यप“ का शाब्दिक अर्थ ”दृष्टा“ है। कर्म और ज्ञान दोनों की समन्वित शक्तियों के बल पर अभी भी सृष्टि का विकास हो रहा है। सृष्टिकर्ता को कूर्म कहा जाता है क्योंकि उसमें श्रेष्ठ कर्मशीलता और पराक्रम है। साथ ही वह महान ज्ञानी, सर्वदृष्टा और सूक्ष्मदर्शी है, इसलिए उसे कश्यप भी कहा जाता है। इस प्रकार कूर्म और कश्यप दोनों एक ही शक्ति के दो पहलू हैं। यह सारा जगत परमेश्वर द्वारा रचा गया है, इसलिए उसकी संबा कूर्म है। कश्यप ही कूर्म है। परमेश्वर का ही नाम कश्यप है (ऋग्वेदादि भाष्य भूमिका, पृष्ठ-315)। कश्यप, पश्यक अर्थात सर्वद्रष्टा होता है क्योंकि वह सब कुछ सूक्ष्मता के साथ देख लेता है (तैत्तिरीय अरण्यक, 1.8.8)। उस सृष्टिकर्ता का नाम कूर्म है। कूर्म का रूप धारण करके ही प्रजापति ने सम्पूर्ण प्रजाओं का सृजन किया। सृष्टि का सृजन करने के कारण ही उसे कूर्म कहा जाता है। कश्यप ही कूर्म है। इसी कारण समस्त प्रजाएँ काश्यप्य अर्थात कश्यप से उत्पन्न कही जाती है (शतपथ ब्राह्मण, 7.5.1.5)। सृष्टि और प्रजा का पालनकर्ता होने के कारण ही कूर्म को प्रजापति कहा गया है। कूर्म के अत्यन्त तेजस्वी होने के कारण उस आदित्य अर्थात सूर्य भी कहा गया है (शतपथ ब्राह्मण, 7.5.1.6)। कूर्म-कश्यप, मानव जाति का आदि पुरूष था। सम्पूर्ण प्रजाएँ कूर्म-कश्यप से ही उत्पन्न हुईं (महाभारत, आदिपर्व, 65.11)। यजुर्वेद में भी उसे प्रजापति और आदित्य दोनों कहा गया है (यजुर्वेद, 13.30 का महीधर भाष्य)। राजर्षि कूर्म सुप्रसिद्ध वैदिक ऋषि गृत्समद के पुत्र थे (ऋग्वेद, 1.27)। अति प्राचीन काल में उसी महान ऋषि कूर्म के वंशज कूर्मवंशी कहलाये। चूंकि कूर्म और सूर्य अर्थात आदित्य एक हैं इसलिए उन्हें सूर्यवंशी भी कहा जाता है। संसार की सारी जातियाँ कूर्म-कश्यप से उत्पन्न हुईं हैं परन्तु वे अपने मूल पुरूष को भूल गईं हैं। महान गोत्र प्रवर्तक के रूप में कूर्म-कश्यप की किर्ति अमर है। आरम्भ में अंगिरा, कश्यप, वशिष्ठ और भृगु नामक चार ऋषि ही मूल गोत्र प्रवर्तक थे और शेष गोत्रों के प्रवर्तक बाद में हुए। गोत्र प्रवर्तकों की तपस्या और साधना से साधु समाज में उनके नाम सम्मानित और प्रचलित हुए (महाभारत, शान्ति पर्व, 296. 17 और 18)। कश्यप चूंकि सम्पूर्ण मानव जाति के आदि पुरूश थे इसलिए उनका गोत्र सर्वाधिक लोकप्रिय और बड़ा है। जिस व्यक्ति को अपने गोत्र का ज्ञान नहीं होता, वह कश्यप को ही अपना गोत्र प्रवर्तक मानकर कश्यप गोत्र रख लेता है। कूर्म-कश्यप की सन्तान कूर्मि जाति उस आदि पूर्वज के नाम पर स्वयं को कूर्मवंशी, कूर्मि, काश्यप, कश्यप गोत्री आदि मानती और कहती है।
”स यः स कूर्मो सौ स आदित्यः“ के अनुसार आदित्य (सूर्य) का नाम कूर्म है। अतः सूर्यवंश, कूर्मवंश का ही नामान्तरण है। उपरोक्त वंश संरचना से स्पष्ट है कि वैवस्वत मन्वन्तर के आद्य त्रेता युग के प्रारम्भ में मारीचि कश्यप हुए हैं (वायु पुराण, 6.43)। सम्पूर्ण मानव जाति के आदि पुरूष कूर्म कश्यप अत्यन्त पुरातन काल में विद्यमान थे। महर्षि कश्यप की पत्नी मनुर्भरतवंश के 45वीं पीढ़ी में उत्तानपाद शाखा के प्रजापति दक्ष की पुत्री अदिति थी (बृहद्वेता, 3.57)। इनसे 12 आदित्यों का जन्म हुआ। सबसे बड़े आदित्य वरूण तथा सबसे छोटे आदित्य विवस्वान (सूर्य) थे। इन्हीं विवस्वान या सूर्य से सूर्यवंश चला। विवस्वान के पुत्र मनु, वैवस्वत मनु जिनका मन्वन्तर चल रहा है, हुए।
सूर्यवंश या कूर्मवंश ही प्रमुख क्षत्रिय वंश है। समूचे भारत में इसके अनेक कुल और वंश आज कूर्मि जाति के कुलों और वंशों के रूप में मिलते हैं। कालान्तर में किसी प्रसिद्ध राजा या ऋषि आदि के नाम पर भी कुछ कूर्मि लोग अपनी वंश परम्परा मानते हैं किन्तु समस्त कूर्मि जाति का उद्भव मुख्य रूप से कूर्मवंश या सूर्यवंश से होने के कारण कूर्मि जाति अपने को कूर्मवंशी कहती है। जिस प्रकार कुरू के वंशज कौरव, पाण्डु के वंशज पाण्डव तथा यदु के वंशज यादव कहलाये, उसी प्रकार महर्षि कूर्म के वंशज कौर्मि के नाम से विख्यात हुए। वर्तमान समय में कूर्मि, कुटुम्बी, कुनबी, कुलंबी आदि उसी के ही अपभ्रंस रूप हैं। महर्षि कूर्म के वंशज कूर्मवंशीय क्षत्रिय के नाम से जाने जाते हैं। बाम्बे गजेटियर बेलगाम जिल्द-21 के अनुसार कुनबी (कुर्मी) लोगों के कुल सम्बन्धी नाम 292 हैं। सम्पूर्ण संख्या में से 102 की उत्पत्ति चन्द्र वंश से, 78 की उत्पत्ति सूर्य वंश से तथा 81 की उत्पत्ति ब्रह्म वंश से मानी जाती है। शेष 31 कुलों के सम्बन्ध में कहा जाता है कि उनका सम्बन्ध विविध वंशों से है। 
त्रेता युग के प्रारम्भ में ब्रह्मा के मारीचि नामक पुत्र के प्रथम पुत्र कश्यप (द्वितीय पुत्र अत्रि) हुए (वायु पुराण, 6.43)। दक्ष वंश की 60 कन्याओं मंे से 10 कन्याओं का विवाह धर्म के साथ, 13 कन्याओं का विवाह महर्षि कश्यप के साथ, 27 कन्याओं का विवाह चन्द्रमा के साथ, 2 कन्याओं का विवाह भूत के साथ, 2 कन्याओं का विवाह अंगीरा के साथ, 2 कन्याओं (पुलोमा और कालका, इनसे पौलोम और कालकेय नाम के साठ हजार रणवीर दानवों का जन्म हुआ जो कि कालान्तर में निवातकवच के नाम से विख्यात हुए।) का विवाह कश्यप के साथ और शेष 4 कन्याओं (विनता, कद्रु, पतंगी व यामिनी) का विवाह भी तार्कष्यधारी कश्यप के साथ ही कर दिया। महर्षि कश्यप की पत्नी विनता के गर्भ से गरूड़ (भगवान विष्णु का वाहन) और वरूण (सूर्य का सारथि) पैदा किए। कद्रू की कोख से अनेक नागों का जन्म हुआ। रानी पतंगी से पक्षियों का जन्म हुआ। यामिनी के गर्भ से शलभों (पतिंगों) का जन्म हुआ। 
भागवत पुराण, मार्कण्डेय पुराण के अनुसार महर्षि कश्यप का विवाह दक्ष वंश की 13 कन्याओं से हुआ जिनके नाम हैं- 1. दिति, 2. दनु, 3. क्रोधवशा, 4. ताम्रा, 5. काष्ठा, 6. अरिष्ठा, 7. सुरसा, 8. इला, 9. मुनी, 10. सुरभि, 11. शरमा और 12. तिमिय 13. अदिति। इन 13 स्त्रीयों से 13 मानव जातियाँ बनीं और इनसे इस वंश का विस्तार होता गया। ये वंश ईरान तथा मध्य ऐशिया में अपना राज्य कायम किये हुए थे। कश्यप एक गोत्र का भी नाम है। यह बहुत व्यापक गोत्र है। जिसका गोत्र नहीं मिलता उसके लिए कश्यप गोत्र की कल्पना कर ली जाती है, क्योंकि एक परम्परा के अनुसार सभी जीवधारियों की उत्पत्ति कश्यप से हुई। इन्ही से ही सृष्टि का सृजन हुआ और जिसके परिणामस्वरूप महर्षि कश्यप जी ‘सृष्टि के सृजक’ कहलाए। जिनमें से कुछ का विवरण इस प्रकार हैं-
कश्यप की 1. दिति नामक स्त्री के ज्येष्ठ पुत्र देव से देव जाति की स्थापना देवराज इन्द्र ने अपने पिता देव के नाम पर किया था। वैदिक काल से सुर और असुर एक ही थे। बाद में इनको अलग-अलग किया गया। देवों के राजा इन्द्र वैकुण्ठपुरी के स्वामी बन बैठे और गद्दी का नाम इन्द्रासन रख दिया। इस पर बैठने वाले इन्द्र कहे जाने लगे। तिब्बत में या तिब्बत के पास इन्द्रलोक था जो कैलाश पर्वत के ऊपर स्वर्ग लोक में है। देवों के गुरू बृहस्पति थे जो हिन्दू धर्म के संस्थापक 4 ऋषियों में से एक अंगिरा के पुत्र हैं। बृहस्पति के पुत्र कच थे जिन्होंने दैत्यों के गुरू शुक्राचार्य से संजीवनी विद्या सीखी थी।
कश्यप की 1. दिति नामक स्त्री के दूसरे पुत्र दैत्य से दैत्य जाति की स्थापना हुई। दैत्यों की एक शाखा मय सभ्यता के रूप में जानी जाती थी। मय का राज्य मयेरिका जाना जाता था जिसकी राजधानी मयसिको तथा वर्तमान नाम अमेरिका हो गया। दूसरी शाखा मेसोपोटामिया तथा तीसरी शाखा बेबीलोन में थी। जो असुर सभ्यता के नाम से जानी जाती थी। असुरों की राजधानी असीरिया थी। दिति के गर्भ से परम् दुर्जय हिरण्यकश्यपु और हिरण्याक्ष नामक दो पुत्र एवं सिंहिका नामक एक पुत्री पैदा की। श्रीमद्भागवत् के अनुसार इन तीन संतानों के अलावा दिति के गर्भ से कश्यप के 49 अन्य पुत्रों का जन्म भी हुआ, जोकि मरून्दण कहलाए। कश्यप के ये पुत्र निःसंतान रहे। देवराज इन्द्र ने इन्हें अपने समान ही देवता बना लिया। जबकि हिरण्याकश्यपु को चार पुत्रों अनुहल्लाद, हल्लाद, परम भक्त प्रहल्लाद, संहल्लाद आदि की प्राप्ति हुई। इसी वंश में राजा बलि, बाणासुर, कुंभ, निकुंभ थे। राजा बलि, प्रहल्लाद के पुत्र विरोचन के पुत्र थे और बलि के पुत्र का नाम वाणासुर था। बलि का राज्य वर्तमान केरल प्रदेश में था जिसे पाताल लोक कहा गया है। इसी वंश के सुमाली की चार कन्याओं का विवाह पुलस्त्य के पुत्र विश्रवा से हुआ था जिनकी कैकसी रानी से रावण, कुम्भीनसी रानी से कुम्भकर्ण, राका रानी से विभीषण और पुष्पोत्कटा रानी से सूपर्णखा का जन्म हुआ था। इस प्रकार पिता शुद्ध आर्य वंश और माता शुद्ध दैत्य वंश की थी। भृगु ऋषि तथा हिरण्यकश्यपु की पुत्री दिव्या के पुत्र शुक्राचार्य दैत्यों के गुरू थे। शुक्राचार्य की पुत्री का नाम देवयानी व पुत्र शंद और अर्मक थे। देवयानी का विवाह चन्द्रवंशी राजा ययाति से हुआ था। 
कश्यप की 2. दनु नामक स्त्री से उत्पन्न वंश दानव वंश कहा गया। पत्नी दनु के गर्भ से द्विमुर्धा, शम्बर, अरिष्ट, हयग्रीव, विभावसु, अरूण, अनुतापन, धुम्रकेश, विरूपाक्ष, दुर्जय, अयोमुख, शंकुशिरा, कपिल, शंकर, एकचक्र, महाबाहु, तारक, महाबल, स्वर्भानु, वृषपर्वा, महाबली पुलोम और विप्रचिति आदि 61 महान् पुत्रों की प्राप्ति हुई। दनु की पुत्री पुलोमी से पुलोमा जाति की उत्पत्ति हुई। इसी पुलोमा वंश की कन्या शची की शादी इन्द्र से हुयी थी। प्रहलाद की बहन की भी शादी इसी वंश में हुयी थी। दानव वंश के लोगों द्वारा मय सभ्यता का प्रचार-प्रसार मयेरिका (वर्तमान अमेरिका) में किया गया। 
कश्यप की 3. क्रोधवसा नामक स्त्री से उत्पन्न पुत्र का नाम नाग था और इनके वंशज नागवंशी कहलाये। इनका साम्राज्य वर्तमान तुर्किस्तान में था जिसे प्राचीन समय में नागलोक कहा जाता था। इनके राज्य की उत्तरी सीमा अराल सागर थी जहाँ का प्रतापी राजा शेष नाग था। नागवंशीयों की मूलतः 7 शाखाएँ हुयीं जिनमें मुख्यतः कारकोटक, नाग, वासुकि, कश्यपनाग, कन्दर्प महानाग तथा शेषनाग हैं। पत्नी से साँप, बिच्छु आदि विषैले जन्तु पैदा किए। नागवंशीयों के आसपास गरूण वंश का राज्य था। कारकोटक नाग वंश की कन्या उलूपी की शादी, चन्द्रवंशी-पाण्डुवंशी अर्जुन से हुई थी। इन्हीं नागवंशियों की एक शाखा भारशिव नागों की थी। ये कुषाण वंश के पतन के बाद मथुरा, कान्तिपुरी (मिर्जापुर) राज्यों के शासक रहे। इन भारशिव नागों ने वाराणसी पर भी अधिकार करके अपना राज्य स्थापित किया था। महाकवि भारशिव, नागवंशियों के महान लेखक व कवि हुए थे। इन्होंने भारशि नागों को ”भर“ शब्द से प्रयुक्त किया। भारशिव का समय 592 से 661 ई0 के आस-पास था। भार जाति के लोग राज्य शासन में होने के कारण ”राजभर“ कहलाये। जिनमें राजा बिहारीमल, राजा सुहेलदेव जिन्होंने गोण्डा (उत्तर प्रदेश) में देवी पाटन का निर्माण कराया। राजा सुहेलदेव की 5वीं पीढ़ी में राजा सूर्यमल हुये, इनके पुत्र कुमार नागुल गुरू गोरखनाथ के शिष्य गुरू रत्ननाथ के शरण में चले गये और 1354 ई0 में गुरू रत्ननाथ की मदद से कुमार नागुल ने देवी पाटन पर पुनः अधिकार कर लिया। राजा सूर्यमल की 6 पुत्रीयों का विवाह गुरू रत्ननाथ की मदद से क्षत्रिय कुलों में की गई। राजा मानिक 1092 से 1134 ई0 तक श्रावस्ती के राजा रहे। राजा कर्ण मिर्जापुर जिले में कर्ण (कान्तित) क्षेत्र के राजा थे और यहीं से भदोही क्षेत्र भी इनके शासन में था। सन् 1751 ई0 में वाराणसी के राजा बलवन्त सिंह ने कान्तित और भदोही को अपने अधिकार में कर लिये। राजा हरदेव 1168 ई0 से 1213 ई0 तक शासन में रहे और इन्होने अपने नाम से हरदोई नामक नगर बसाया। राजा डलदेव ने अपनी राजधानी गंगा किनारे डलमऊ नाम से बसाये। इनके सगे भाई राजा बलदेव ने अपनी राजधानी राजबरेली वर्तमान रायबरेली नाम से बसाया। इन दोनों भाईयों का शासन काल 1400 से 1413 ई0 तक रहा। 
कश्यप की 4. ताम्रा नामक स्त्री से उत्पन्न वंश का नाम जटायुवंश और गरूणवंश था। इस वंश के लोग विष्णुवंशीयों से पराजित होकर यत्र-तत्र बिखर गये। इसी वंश की शाखा भारत के दक्षिणी समुद्री किनारे पर बसी, जो जटायु वंश के नाम से प्रसिद्ध हुयी, जिनका वर्णन राम काल में आता है। पत्नी से बाज, गीद्ध आदि शिकारी पक्षियों को अपनी संतान के रूप में जन्म दिया।
प्राचीन समय में देव, दैत्य, दानव, आर्य इन सभी जातियों का आपस में विवाह सम्बन्ध होते थे। देव और दैत्य को सुर और असुर भी कहा जाता था। दोनों की राज्य सीमा परस्पर मिली हुई थी। देवों के राजा इन्द्र और असुर राजाओं के युद्ध को देवासुर संग्राम का नाम दिया गया। ये संग्राम पुराणों में देवासुर संग्राम के नाम से विख्यात है। समय-समय पर हिरण्यकशिपु से लेकर नहुष के भाई तक या बाणासुर तक 12 देवासुर संग्राम लगभग 300 वर्षों में हुए। युद्ध का कारण दो धर्म गुरूओं की वैमनस्यता थी। देवों के गुरू बृहस्पति व दैत्यों के गुरू शुक्राचार्य थे। सुर और असुर जाति थी न कि देवता एवं राक्षस। इस युद्ध को नहुष पुत्र रजि ने समाप्त किया। इस संग्राम से अनेक गम्भीर राजनीतिक प्रभाव हुए। सबसे अधिक यह कि भारत में आर्यावर्त की स्थापना हुई।
कश्यप की 5. काष्ठा नामक स्त्री से घोड़े आदि एक खुर वाले पशु उत्पन्न हुए। 
कश्यप की 6. अरिष्ठा नामक स्त्री से से गन्धर्व का जन्म हुआ।
कश्यप की 7. सुरसा नामक स्त्री से यातुधान (राक्षस) उत्पन्न हुए। 
कश्यप की 8. इला नामक स्त्री से वृक्ष, लता आदि पृथ्वी में उत्पन्न होने वाली वनस्पतियों का जन्म हुआ। 
कश्यप की 9. मुनी नामक स्त्री से अप्सरागण का जन्म हुआ।
कश्यप की 10. सुरभि नामक स्त्री से भैंस, गाय तथा दो खुर वाले पशुओं की उत्पति की। 
कश्यप की 11. शरमा नामक स्त्री से बाघ आदि हिंसक जीवों को पैदा किया।
कश्यप की 12. तिमिय नामक स्त्री से जलचर जन्तुओं को अपनी संतान के रूप में उत्पन्न किया।
कश्यप की 13. अदिति नामक स्त्री से आदित्य (सूर्य) उत्पन्न हुए। अदिति, मनुर्भरतवंश के 45वीं पीढ़ी में उत्तानपाद शाखा के प्रजापति दक्ष की पुत्री थी (बृहद्वेता, 3.57)। प्राचीन विश्व में प्रमुख 2 वंश 1. सूर्य वंश और 2. चन्द्र वंश इन्हीं की सन्तानों से विकसित हुए।

वंश  - ब. ऐतिहासिक वंश 1. सूर्य वंश
प्राचीन विश्व में 2 वंश ही प्रमुख रूप से प्रचलित रहें हैं- 1. सूर्य वंश और 2. चन्द्र वंश। सूर्यवंश (सूर्य उपासक) और चन्द्रवंश (चन्द्र उपासक), इन दो वंशों से ही क्षत्रियों की उत्पत्ति हुई है। सूर्यवंश के मूल पुरूष सूर्य तथा चन्द्रवंश के प्रथम पुरूष बुध दोनों के नाना मनुर्भरत दक्ष प्रजापति थे। ये दोनों आपस में मौसेरे भाई थे। इन वंशों के बीच आपस में वैवाहिक सम्बन्ध होते थे। 
कश्यप-अदिति के आदित्य (सूर्य) - इनकी चार पत्नीयाँ 1. तपसी 2. संज्ञा, 3. बडवा और 4. छाया थी। चारो पत्नीयों से कुल 16 पुत्र (पत्नी संज्ञा से एक यम, पत्नी बडवा से बारह पुत्र, पत्नी तपसी से एक और पत्नी छाया से दो पुत्र) हुये।
सूर्य की पत्नी 1. तपसी से एक पुत्र तपन सन्यासी हो गये।
सूर्य की पत्नी 2. संज्ञा से यम नामक पुत्र और यमी नामक पुत्री थी। यम की दो पत्नीयाँ 1. संध्या और 2. वसु थी।  यम की पहली पत्नी संध्या से सांध्य (सीदीयन जाति) पुत्र हुये जिनके तीन पुत्र 1. हंस (जर्मन जाति) 2. नीप (नेपियन जाति) 3. पाल (पलास जाति)। यम की दूसरी पत्नी वसु से 8 पुत्र 1. धर 2. धुन 3. सोम 4. अह 5. अनिल 6. अनल 7. प्रत्यूष और 8. प्रभाष पैदा हुये जो अष्टवसु कहलाये। अष्टवसु धर की पत्नी उमा से महाप्रतापी पुरूष त्रयम्बक रूद्र पुत्र उत्पन्न हुए थे जिन्हें शिव की उपाधि मिली। यही रूद्र शिव शिवदान (वर्तमान सूडान) प्रदेश के राजा थे जिन्हें दक्ष ने अपनी पुत्री उमा के विवाह में दान में दिया था। यही उमा अपने पति का अपमान न सहन कर सकने के कारण अपने पिता के यज्ञ कुण्ड में कूदकर आत्मदाह कर लिया था। इस पर क्रुद्ध होकर शिव ने इस वंश का नाश ही कर दिया था और यहीं से उमा का नाम सती हो गया।
शिव गद्दी पर बैठने वाले सभी राजा शिव कहलायें। इस वंश में 12 चक्रवर्ती राजा हुये। शेष अन्य छोटे राजा थे। इस प्रकार कुल 52 साम्राज्य शिव वंश के थे। शिव वंश का साम्राज्य वर्तमान भारत का शैव पीठ, ईरान का रूद्रवर क्षेत्र, वर्तमान अफ्रीका के सूडान (शिवदान), वर्तमान उमा प्रदेश (उर्मिया झील के आस-पास का क्षेत्र), बगदाद का उत्तरी हिस्सा, कुर्दिस्तान का दक्षिणी भाग, अरब के काव्य क्षेत्र काबा तक स्थापित था। इसके अतिरिक्त एशिया माइनर सरवन प्रदेश तथा वाणासुर की राजधानी ”वन“ में रूद्र शिव का निवास रहा। रूद्र शिव से 11 कुल चले जिनसे द्रविण और हूण जाति का विकास हुआ।
  अन्य अष्टवसुओं से विभिन्न वंश व कुल चले जिसमें देवल ऋषि, रेविण्डस जाति आदि हुये।
यम ने अपने नाम पर यमपुरी बसाया जो वैवस्वत मनु के वैमात्रिक (सूर्य के चार पत्नीयों से उत्पन्न 16 पुत्रों में से एक) भाई थे। हिस्ट्री आॅफ परसिया के प्रथम भाग पृष्ठ सं0 117 से 123 के अनुसार - प्राचीन काल में जल प्लावन के कारण ईरान का कुछ भू-भाग जलमग्न हो गया था ज्वालामुखी के उद्गार के कारण समुद्र का जल प्लावित होकर स्थल भाग में आ गया और वहाँ के समस्त जीवधारी नष्ट हो गये, जिससे नारकीय स्थिति उत्पन्न हो गयी और मृत्यु लोक जैसा लगने लगा। कालान्तर में जब जल सूख गया तब सूर्य के पुत्र यम और वरूण ने वहाँ नगरी बसायी। यम द्वारा बसायी नगरी को यमपुरी या नरकपुरी और वरूण द्वारा बसायी नगरी को वैकुण्ठपुरी कहा गया। जो वर्तमान में भी सुशानगर अथवा ईरानियन पैराडाइज (चाल्डिया) के नाम से जाना जाता है। यमपुरी और वैकुण्ठपुरी के बीच दजला, फरात और टिपरीस नदी बहती है जिसका जल आज भी लाल, पीला व धवल है। उस समय इन नदीयों को पार करने का कोई साधन नहीं था इसलिए लोग गाय, बैल एवं अन्य जानवरों की पूँछ पकड़ तैरकर पार करते थे और यमपुरी और वैकुण्ठपुरी के बीच आते-जाते थे। इसी को वर्तमान में मरणोपरान्त वैतरणी नदी पार करने की कथा से जोड़ कर कहा जाता है।
सूर्य की पत्नी 3. बडवा से जन्में पुत्रों को जहाँ वेदों में आदित्य कहा गया वहीं सूर्य को भी आदित्य कहा गया है। वैदिक या आर्य लोग दोनों की ही स्तुति करते थे। इसका यह अर्थ नहीं कि आदित्य ही सूर्य हैं या सूर्य ही आदित्य हैं। हालांकि आदित्यों को सौर-देवताओं में शामिल किया गया है और उन्हें सौर मण्डल का कार्य सौंपा गया है।
12 आदित्य के नाम पुराणों और अन्य शास्त्रों में निम्नलिखित प्रकार से हैं- 
पुराणों में अन्य जगह
1. वरूण (ब्रह्मवंश) 1. वरूण (ब्रह्मवंश) 1. वरूण (ब्रह्मवंश)
2. अर्यमा 2. अर्यमा  2. अर्यमा 
3. पूषा 3. पूषा  3. पूषा 
4. त्वष्टा 4. त्वष्टा 4. त्वष्टा 
5. सविता 5. सविता 5. इन्द्र
6. भग 6. भग 6. भग 
7. धाता 7. धाता  7. धाता 
8. विधाता 8. विष्णु 8. विष्णु 
9. मित्र 9. मित्र 9. मित्र 
10. शुक्र 10. शुक्र  10. पर्जन्य
11. अस्मक 11. अंशुमान 11. अंशुमान
12. विवस्वान (सूर्यवंश) 12. विवस्वान (सूर्यवंश) 12. विवस्वान (सूर्यवंश)

सूर्य की पत्नी 3. बड़वा के सबसे बड़े आदित्य वरूण से ही ब्रह्मवंश चला जिसका विवरण आगे हैं। 
सूर्य की पत्नी 3. बड़वा के पुत्र अर्यमा की दो पत्नीयाँ थी। पहली पत्नी से दो पुत्र अग्निवेष (अग्निवंशीय) तथा विश्वसन हुये। दूसरी पत्नी पादुका से तीन पुत्र आर्यक, आर्यब और आर्यन हुये जिनके नाम से तीन राज्य अरब, इराक और ईरान स्थापित हुये। तत्कालीन समय में सूर्यवंश व चन्द्रवंश दोनों का साम्राज्य मध्य एशिया और उसके आसपास था जो जम्बूद्वीप (एशिया) में था। इसलिए दोनों वंशों का संयुक्त नाम आर्यमा कहलाया, और आर्यमा का मूल भी सूर्य थे इसलिए सभी मिलकर आर्य संस्कृति में संगठित हो गये तथा आर्य कहलाये। इतिहासकारों ने आर्यो के मूल निवास के जिस स्थान का वर्णन किया है वह समस्त भारत, अफगानिस्तान, फारस, ईरान, इराक, अरब एवं कैस्पियन सागर के आस-पास के क्षेत्र थे। 
सूर्य की पत्नी 3. बड़वा के सबसे छोटे आदित्य विवस्वान से 7वें मनु - वैवस्वत मनु हुये। महाराज मनु के दूसरी पीढ़ी में कुल 10 सन्तानें 1. इक्ष्वाकु, 2. नाभागारिष्ट, 3. कारूष, 4. धृष्ट, 5. नाभाग या नृग, 6. नरिश्यन्त,  7. धृषध, 8. प्रान्शु या कुशनाभ, 9. शर्याति और 10. पुत्री इला (इनका विवाह चन्द्र के पुत्र बुध से हुआ) हुयीं। महाराज मनु के तीसरी पीढ़ी में विकुक्षि या शशाद, दण्ड (98 पुत्र)। दण्ड ने दण्डक राज्य के स्वामी बने उन्होंने शुक्राचार्य के वंशजो को अपना गुरू बनाया। दण्ड द्वारा अपने पुरोहित की पुत्री अजा के साथ बालात्कार करने के कारण पुरोहित ने दण्ड के राज्य का नाश कर दिया और उस स्थान पर जो पहला नगर बसा उसका नाम नासिक पड़ा जो आज भी नासिक नाम से प्रसिद्ध है। 
चैथी पीढ़ी में पुरंजय (काकुत्स्थ या इन्द्रबाहु), पाँचवीं पीढ़ी में अनेनस या अनरण्य, छठीं पीढ़ी में पृथु, सातवीं पीढ़ी में विप्राश्व या विश्वगश्व, आठवीं पीढ़ी में आद्र्र या चन्द्र, नवीं पीढ़ी में युवनाश्व-1, दसवीं पीढ़ी में श्रावस्त, ग्यारहवीं पीढ़ी में व्रहदश्व, बारहवीं पीढ़ी में कुवलयाश्व या धुन्धमार के तीन पुत्र, तेरहवीं पीढ़ी में दृढ़ाश्व, चन्द्राश्व, कपिलाश्व, चैदहवीं पीढ़ी में प्रमोद (के दो पुत्र), पंन्द्रहवीं पीढ़ी हर्याश्व-1 निमि (मैथिल राजवंश के संस्थापक), सोलहवीं पीढ़ी निकुम्भ, सत्रहवीं पीढ़ी बर्हणाश्व या वर्हयाश्व (दो पुत्र एक पुत्री), अठ्ारहवीं पीढ़ी अकृषाश्व, कृशाश्व, हेमवती पुत्री, उन्नीसवीं पीढ़ी सेनजीत (दो पुत्र), बीसवीं पीढ़ी युवनाश्व-2, हर्याश्व-2, इक्कीसवीं पीढ़ी मान्धाता (तीन पुत्र), बाइसवीं पीढ़ी पुरूकुत्स्थ, मुचुकचन्द, अम्बरीष-1, तेईसवीं पीढ़ी त्रसदस्यु, पुरूकुत्स, चैबीसवीं पीढ़ी सुंभूत तृक्षिवेद या विजय या संभृत्य इत्यादि हुये। इसी क्रम में सत्यव्रत (तीन गम्भीर अपराध करने के कारण इनका नाम त्रिशंकु पड़ा था), हरिश्चन्द्र, रोहित, सगर (इनके 60 हजार पुत्र थे जो कपिल मुनि के श्राप से भस्म हो गये थे), भगीरथ (जो गंगा को लाये थे), रघु, दिलीप, अज, दशरथ, चालीसवीं पीढ़ी में राम, लक्ष्मण, भरत, शत्रुध्न इत्यादि हुए। इकतालीसवीं पीढ़ी में राम के दो पुत्र (कुश, लव), लक्ष्मण के दो पुत्र (अंगद, चन्द्रकेतु), भरत के दो पुत्र (तक्ष, पुष्कल) व शत्रुध्न के दो पुत्र (सुबाहु, श्रुतसेन) हुये।
सम्पूर्ण भारत में सूर्यवंशियों की उस समय निम्न शाखाएँ थी-
राज्य  सीमायें
1. उत्तर कौसल राजवंश घाघरा से गंगा तक अर्थात सरयू नदी के इस पार से उस पार तक
2. दक्षिण कौसल राजवंश विलासपुर, सम्भलपुर तथा रायपुर के आस-पास (मध्य प्रदेश)
3. मैथिल राजवंश वर्तमान मिथिला क्षेत्र
4. शर्याति या आनर्त राजवंश सौराष्ट्र या गुजरात का क्षेत्र
5. वैशाली राजवंश वर्तमान वैशाली क्षेत्र
6. घाष्र्टक राजवंश वाह्लीक वर्तमान वलक बुखारा तथा अफगानिस्तान
7. नारिष्यन्त राजवंश वर्तमान रीवा से सोन बिहार राज्य
8. नाभाग या नृगवंश ईरान का गिरगेशिया प्रदेश
मनु के 9 पुत्रों से 9 क्षत्रिय वंश चले जो भारतवर्ष के भिन्न-भिन्न क्षेत्रों में स्थापित हुए। यह वंश सूर्य से राजा रामचन्द्र एवं इसके आगे तक चला। श्री रामचन्द्र जी अपने जीवन काल में ही अपने साम्राज्य का बँटवारा अपने पुत्रों-भतीजों में निम्न प्रकार कर दिये-
(क) राम के पुत्र कुश - राम के पुत्र कुश को कुशावती राज्य दिया गया था परन्तु अपने पिता राम के स्वर्गारोहण के कुछ दिनों बाद कुश अयोध्या चले गये थे (कालिदास कृत रघुवंश, सर्ग 16, श्लोक 4-42)। कालिदास कृत रघुवंश में कुश शाखा का वर्णन राजा अग्निवर्ण तक ही मिलता है किन्तु वंश आगे भी चला और उसकी शाखाएँ-प्रशाखाएँ भारत में आज भी मिलती हैं। स्कन्दपुराण के अन्तर्गत सह्याद्रिखण्ड में वर्णन आता है कि अग्निवर्ण के वंश में अश्वपति नामक राजा हुए उन्होंने पुत्रेष्टि यज्ञ कराया जिसके फलस्वरूप उनके 12 पुत्र, अनुज, देवक, पृथ, ऋतुपर्ण, जय, सुषिध्रु, सौदाम, सुमन्तु, कौडिन, मण्डूक, कुषिक एवं मार्तण्ड हुए। इनमें से प्रत्येक अलग-अलग कुल का वर्द्धक हुआ। आज भी कुशवंशोद्भव कूर्मि गुजरात, उत्तर प्रदेश तथा मध्य प्रदेश के कुछ जिलों (खरगोन, धार आदि में) पाये जाते हैं। इसी कुशवंश के कूर्मि कड़वा नाम से जाने जाते हैं। कुश से कुशवाहा या कछवाहा वंश चला जिनकी राजधानी कुशावती या कुशस्थली वर्तमान द्वारिका क्षेत्र में रही। इसी वंश में राजा नल तथा शाक्य के पुत्र गौतम बुद्ध पैदा हुए। सेंगर क्षत्रिय भी इसी वंश की शाखा हैं। कुश वंश में ही मीरजा राजा जय सिंह के पुत्र कीरत सिंह के वंशज मौन सिंह ने मौन वंश की स्थापना की। सवाई जय सिंह ने अपनी राजधानी जयपुर में बसाया और इसी वंश की एक शाखा रोहतास तथा दूसरी ने राजस्थान के नरवर, आमेर तथा जयपुर क्षेत्र में अपना राज्य स्थापित किया।
(ख) राम के पुत्र लव - श्रीराम के पुत्र लव को उत्तर कौशल का भू-भाग जहाँ श्रावस्ती (वर्तमान नाम सहेत-समेंत)-अवन्तिका राज्य दिया गया। इनके आगे राजा प्रसेनजित, वृहद्वल इत्यादि हुए। बाद में लव ने पश्चिमी पंजाब के बहुत बड़े भू-भाग क्षेत्र पर अधिकार कर लिया जहाँ पर उन्होंने अपने नाम पर लव कोट अर्थात वर्तमान लाहौर नगर बसाया जहाँ पर उनकी राजधानी थी। लववंशी राजा शिलादित्य ने गायनी वर्तमान गजनी में अपना छोटा सा राज्य स्थापित किया। बाद में उनकी हत्या पारसियों द्वारा कर दी गयी। उनकी रानी पुष्पावती से एक पुत्र गोहदेव या गुहादित्य था जिनसे गहलोत वंश प्रसिद्ध हुआ। इस वंश की दो रावल और राणा शाखा है। प्रचलित कथा के अनुसार गुजरात के कूर्मि अयोध्या से बहिष्कृत होकर मथुरा में बसे थे। फिर वहाँ से विवश होकर हटे और मारवाड़ होते हुये गुजरात के सौराष्ट्र प्रदेश में आये। राजस्थान में ये चित्तौड़, मेवाड़, बूँदी, बीकानेर, कोटा आदि क्षेत्र में हैं। इसी वंश में महाराणा प्रताप का जन्म हुआ था। वर्तमान समय में महाराणा महेन्द्र इसी वंश के हैं। गुजरात में वे लव्वा कणवी कहे जाते हैं। गुजरात में कूर्मियों की मुख्य शाखाएँ है- कड़वा, लेवा, आंजन और मतिया। लवा के दो भेद हैं-1. पाटीदार और 2. कृषक। नेपाल के महाराजाधिराज जयप्रताप मल्ल ने स्वरचित नेपालक्षितिपाल वंशावली में नेपाल के नरेशों को लववंशज बताया है (इन्स्क्रिप्सन फ्राम नेपाल, पृष्ठ-29-31)।
(ग) लक्ष्मण के पुत्र अंगद - लक्ष्मण के पुत्र अंगद को हिमालय की तलहटी का क्षेत्र मिला जहाँ उन्होंने अपनी अपनी राजधानी अंगद नगर के नाम से बनाया।
(घ) लक्ष्मण के पुत्र चन्द्रकेतु - लक्ष्मण के पुत्र चन्द्रकेतु को हिमालय की तलहटी के आस-पास का क्षेत्र मिला जहाँ उन्होंने अपनी अपनी राजधानी चन्द्रवक के नाम से बनाया। इन्हें मल्ल की उपाधि मिली। आज भी इस क्षेत्र में क्षत्रियवंश मल्ल हैं।
(च) भरत के पुत्र तक्ष - भरत के पुत्र तक्ष को रावलपिण्डी के आस-पास कैकेय देश का राज्य मिला जिन्होने अपने नाम पर तक्षशिला को राजधानी बनाया। तक्ष के नाम से तक्षकवंश चला।
(छ) भरत के पुत्र पुष्कल - भरत के पुत्र पुष्कल को भी रावलपिण्डी के कैकेय देश एवं आस-पास का राज्य मिला उन्होने अपनी राजधानी पुष्कलावती में बनायी जिसे वर्तमान में पेशावर कहा जाता है। इस वंश का ज्यादा निवास गांधार राज्य में था। इनके वंशज अब इस्लाम धर्म ग्रहण कर लिये हैं।
(ज) शत्रुध्न के पुत्र सुबाहु - शत्रुध्न के पुत्र सुबाहु को विदिशा क्षेत्र का राज्य दिया गया।
(झ) शत्रुध्न के पुत्र श्रुतसेन - शत्रुध्न के पुत्र श्रुतसेन को मथुरा का राज्य मिला। जहाँ उन्होंने अपनी राजधानी बनायी।
इस प्रकार इच्छवाकु से लेकर रामचन्द्र के वंशजों से सूर्यवंश का साम्राज्य बढ़ा जिनका सम्पूर्ण भारत में फैलाव होता गया। वर्तमान में इस सूर्यवंश की अनेक शाखा-प्रशाखा हो चुकी हैं जैसे हक्ष्वाकुवंश, दण्डकवंश, काकुत्सवंश, सगरवंश, श्रावस्तवंश, सूर्यवंश, सोनखरीवंश, कुशवाहा या कछवाहा वंश, शाक्य या गौतम वंश, मौनसवंश, पुण्डीरवंश, कलूवालवंश, नंदवक वंश, कुशभवनियाँ वंश, करौनी वंश, पहाड़ी सूर्यवंशी कछवाहे, जशावत, झुटियाड़, घोड़ावाहा, आसव, गहलौत, महथानवंश, चामियालवंश, मडियार वंश, गोहिल वंश, भोसले वंश, सिकरवार, निकुंभ वंश, सिरनेत वंश, नरौनी वंश, कटहरिया वंश, रघुवंश, बडगूजर वंश, मडाढ वंश, लोहतमिया लोहथम्म वंश, गौड या गौर वंश, निमिवंश, निमुडीवंश, निशानवंश, गौतमिया वंश, अण्टैया वंश, कंडवार वंश, पुष्कलवंश, दीक्षित या दीखित वंश, नेतवनीवंश, किनवार वंश, गायकवाड वंश, मल्लवंश, विश्वेन वंश, वटमेला वंश, गाई वंश, दागी या डांगी वंश, बम्बवार वंश, अवकहो वंश, तवकहो वंश, दोनवार वंश, वैसवंश, भाले सुल्तान वंश, चन्दौसिया वंश, रावत वंश, राठौर वंश, रैकवार वंश, जायस वंश, कैलवाड़ वंश, शूरवार वंश, विलसडिया वंश, खोरिया वंश, दहिया वंश, मौर्य वंश, कछनियाँ वंश, काकन वंश, धाकर वंश, उदमतिया वंश, सिंघेल वंश, काकतीय वंश, लिच्छवि वंश, गर्ग वंश, ठाकरिया या ठकुराई वंश, जोतियाना या झोतियाना वंश, शुंग वंश, नागवंश, दुर्ग वंश, श्री पर्वत वंश, भतिहाल वंश, सिंगोहिया वंश, केशरी वंश, जेठवा वंश, बडनर वंश, कमरी वंश, वल्ला वंश, काठी वंश, तक्षक वंश, गोरखा वंश, राजपाली वंश, पाल वंश, वाकाटक वंश, खाती वंश, चककाहन वंश, जमुवाल वंश, ज्ञात वंश, वेदी वंश, गुप्त वंश, जनकरा वंश, वज्जि वंश, सुरवइया वंश, कोलिय वंश, काशिब वंश, बंधलगोत्री वंश, सूरजवंशी राजपूत, अगस्तवार, बुलिवंश, वाकला वंश, रघेल वंश, ग्रहवार या गृहवार वंश, दाहिमा वंश, बहरेलिया वंश, डोगरा वंश, शाही वंश, शिन्दे या सिन्धिया वंश, महरवार वंश, चालुक्य वंश। 
अग्रवाल के पूर्वज सूर्यवंशी ही थे। सूर्यवंशी राजा मान्धाता के पुत्र अम्बरीष की 50वीं पीढ़ी बाद राजा महीधर हुये जिनकी राजधानी चन्द्रावती वर्तमान चम्पारण में थी। इनका विवाह महेन्द्रसुर वर्तमान मन्दसौर नगर (मध्य प्रदेश) के राजा महेन्द्र की पुत्री मेघावती से हुआ था, इनसे ही महाराजा अग्रसेन का जन्म हुआ था। अग्रसेन ने अपनी राजधानी अग्रोहा बनायी। जैनधर्म स्वीकार करने के बाद ये हिंसा से मुक्त होकर वैश्य कर्म में आ गये। इनके साथ 18 राजकुमार भी सम्मिलित हुये। 18 राजकुमारों से  18 जातियाँ बनी। 1. गुलाब देव से गर्ग, 2. गेदूमल से गोहिल, 3. करण से कछल, 4. मणिपाल से कंसल, 5. मृगदेव से विन्दल, 6. द्रावक देव से ढोलन, 7. सिंधुपाल से सिंघल, 8. जैत्रसंघ से जिन्दल, 9. मंत्रीपति से मित्तल, 10. तम्बोलकर्ण से तिंगल, 11. ताराचन्द से तायल, 12. वीरभान से बंसल, 13. वसुदेव से देरण, 14. नारसेन से नागिल, 15. अमृतसेन से मंगल, 16. इन्द्रसेन से ऐरन, 17. माधवसेन से मधुकुल, 18. गोधर से गोहन।
सूर्य की पत्नी 4. छाया से दो पुत्र 1. 8वें मनु - सांवर्णि मनु व 2. शनिश्चर हुये। सबसे प्राचीन वंश स्वायंभुव मनु के पुत्र उत्तानपाद शाखा में ब्रह्मा के 10 मानस पुत्रों में से मन से मरीचि व पत्नी कला के पुत्र कश्यप व पत्नी अदिति के पुत्र आदित्य (सूर्य) की चैथी पत्नी छाया से दो पुत्रों में से एक 8वें मनु - सांवर्णि मनु होगें जिनसे ही वर्तमान मनवन्तर 7वें वैवस्वत मनु की समाप्ति होगी। ध्यान रहे कि 8वें मनु - सांवर्णि मनु, सूर्य पुत्र हैं। सांवर्णि मनु के गुण अवतार ”सार्वभौम“ हैं ऐसा शास्त्र में दिया गया है। 

वंश  - ब. ऐतिहासिक वंश 2. ब्रह्म वंश
कश्यप-अदिति के आदित्य (सूर्य) की चार पत्नीयाँ 1. तपसी 2. संज्ञा, 3. बडवा और 4. छाया थी। सूर्य की पत्नी 3. बड़वा के सबसे बड़े आदित्य वरूण से ही ब्रह्मवंश चला। वरूण की प्रथम पत्नी दैत्यराज हिरण्यकशिपु की पुत्री दिव्या थी और द्वितीय पत्नी दानव राज पुलोमा की पुत्री थी। सूर्य के पुत्र वरूण हिन्दू धर्म के एक प्रमुख देवता हैं। प्राचीन वैदिक धर्म में उनका स्थान बहुत ही महत्त्वपूर्ण था, परन्तु वेदों में उसका रूप इतना अमूर्त हैं कि उसका प्राकृतिक चित्रण मुश्किल है। माना जाता है कि वरुण की स्थिति अन्य वैदिक देवताओं की अपेक्षा प्राचीन है, इसीलिए वैदिक युग में वरुण किसी प्राकृतिक उपादान का वाचक नहीं है। अग्नि व इंद्र की अपेक्षा वरुण को संबोधित सूक्तों की मात्रा बहुत कम है फिर भी उसका महत्व कम नहीं है। इंद्र को महान योद्धा के रूप में जाना जाता है तो वरुण को नैतिक शक्ति का महान पोषक माना गया है, वह ऋत (सत्य) का पोषक है। अधिकतर सूक्तों में वरूण के प्रति उदात्त भक्ति की भावना दिखाई देती है। ऋग्वेद के अधिकतर सूक्तों में वरुण से किए गए पापों के लिए क्षमा प्रार्थना की गई हैं। वरुण को अन्य देवताओं जैसे इंद्र आदि के साथ भी वर्णित किया गया है। वरुण से संबंधित प्रार्थनाओं में भक्ति भावना की पराकाष्ठा दिखाई देती है। उदाहरण के लिए ऋग्वेद के सातवें मंडल में वरूण के लिए सुंदर प्रार्थना गीत मिलते हैं। उनको ”असुर“ की उपाधि दी गयी थी, मतलब की वो ”देव“ देवताओं के समूह से अलग थे। उनके पास जादुई शक्ति मानी जाती थी, जिसका नाम था माया। उनको इतिहासकार मानते हैं कि असुर वरुण ही पारसी धर्म में ”अहुरामज्दा“ कहलाए। बाद की पौराणिक कथाओं में वरुण को मामूली जल-देव बना दिया गया। इसी ब्रह्म वंश में ही अंगिरा, भृगु उनके बाद बृहस्पति, शुक्र हुये। इनके वंश में ही दधीचि, सारस्वत, उर्व, जमदग्नि, परशुराम इत्यादि हुए।

वंश  - ब. ऐतिहासिक वंश 3. चन्द्र वंश
ब्रह्मा के 10 मानस पुत्रों 1. मन से मरीचि, 2. नेत्रों से अत्रि, 3. मुख से अंगिरा, 4. कान से पुलस्त्य, 5. नाभि से पुलह, 6. हाथ से कृतु, 7. त्वचा से भृगु, 8. प्राण से वशिष्ठ, 9. अँगूठे से दक्ष तथा 10. गोद से नारद उत्पन्न हुये। मरीचि ऋषि, जिन्हें ‘अरिष्टनेमि’ के नाम से भी जाना जाता है, का विवाह देवी कला से हुआ। संसार के सर्वप्रथम मनु-स्वायंभुव मनु की पुत्री देवहूति से कर्दम ऋषि का विवाह हुआ था। देवी कला कर्दम ऋषि की पुत्री और विश्व का प्राचीन और प्रथम सांख्य दर्शन को देने वाले कपिल देव की बहन थी। मरीचि ऋशि द्वारा देवी कला की कोख से महातेजस्वी दो पुत्र 1. कश्यप और 2. अत्रि हुये। 1. कश्यप से सूर्य वंश और ब्रह्म वंश तथा 2. अत्रि से चन्द्र वंश का आगे चलकर विकास हुआ। 
अत्रि के पुत्र चन्द्र (ऐल)- त्रेता युग के प्रारम्भ में ब्रह्मा के मारीचि नामक पुत्र के द्वितीय पुत्र अत्रि (चित्रकूट के अनसूइया के पति अत्रि नहीं) हुए। अत्रि के पुत्र चन्द्र हुये, यह महाभारत से भी प्रमाणित है।
अत्रे पुत्रो अभवत् सोमः सोमस्य तु बुद्धः स्मृत।
बुद्धस्य तु महेन्द्राभः पुत्रो आसीत् पुरूखा। (महाभारत, अध्याय 44, श्लोक 4-18)
मनुर्भरतवंश के 45वीं पीढ़ी में उत्तानपाद शाखा के प्रजापति दक्ष की 60 कन्याओं में से 27 कन्याओं का विवाह चन्द्र से हुआ था। इन 27 कन्याओं के नाम से 27 नक्षत्रों 1. अश्विनी 2. भरणी 3. कृत्तिका 4. रोहिणी 5. मृगशिरा 6. आद्रा 7. पुनर्वसु 8. पुष्य 9. आश्लेषा 10. मघा 11. पूर्वा फाल्गुनी 12. उत्तरा फाल्गुनी 13. हस्ति 14. चित्रा 15. स्वाति 16. विशाखा 17. अनुराधा 18. ज्येष्ठा 19. मूल 20. पूर्वाषाढ़ 21. उत्तराषाढ़ 22. श्रवण 23. घनिष्ठा 24. शतभिषा 25. पूर्वभाद्रपद 26. उत्तर भाद्रपद 27. रेवती) का नाम पड़ा जो आज तक प्रचलित है। चन्द्र के नाम पर चन्द्रवंश चला। चन्द्र बहुत ही विद्वान, भूगोलवेत्ता, सुन्दरतम व्यक्तित्व वाला तथा महान पराक्रमी था। साहित्यिक अभिलेखों के अनुसार सुन्दर होने के कारण देवगुरू वृहस्पति की पत्नी तारा इस पर आसक्त हो गई, जिसे चन्द्र ने पत्नी बना लिया। इस कारण भयानक तारकायम संग्राम हुआ। प्राचीन ग्रन्थों के अनुसार चन्द्र ने चन्द्रग्रह का पता लगाकर अपने नाम चन्द्र, बुध ग्रह का पता लगाकर अपने पुत्र बुध के नाम एवं तारागणों का पता लगाकर अपनी पत्नी तारा के नाम पर तारा और 27 पत्नीयों के नाम पर नक्षत्रों के नाम रखे। वर्तमान समय में भी इन नक्षत्रों के नाम पर वशंधर व जातियाँ मिलती हैं जैसे अश्विनी (अरब की अश्व व वाजस्व जाति), आश्लेषा (एरी व आस्यवियन जाति), मघा (जुल्डस जाति), अनुराधा (अरक्सीज जाति असीरियन), रेवती (रेविन्डस जाति) इत्यादि। चन्द्र वंशीयों का अधिकतर क्षेत्र ईरान एवं उसके आस-पास में था इसलिए अधिकांश चन्द्रवंशीयों के वंशधर कालान्तर में यहूदी, इसाई और इस्लाम धर्म ग्रहण कर लिए। आज भी चन्द्रवंशीयों के वंशधर अपने पूर्वज चन्द्र व उनकी पत्नी तारा की स्मृति में अपने झण्डे का प्रतीक चन्द्र व तारा रखे हैं।
चन्द्रवंश के प्रमुख राजवंश के अतिरिक्त इन कन्याओं से कई कुल उत्पन्न हुए। चन्द्र के पुत्र बुध हुये इनका विवाह सूर्य के पुत्र अर्यमा के पुत्र 7वंे मनु-वैवस्वत मनु की पुत्री इला से हुआ। चन्द्रवंश यहीं से चला। इला के नाम पर इसे ऐल वंश भी कहा जाता है। सर्वप्रथम सूर्य की पत्नी 3. बड़वा के सबसे छोटे आदित्य 7वें मनु - वैवस्वत मनु अपने दामाद चन्द्र के पुत्र बुध के साथ ईरान के रास्ते हिन्दूकुश पर्वत पार करके भारत भूमि पर आये। वैवस्वत मनु ने अपने पूर्वज सूर्य के नाम पर सरयू नदी के किनारे सूर्य मण्डल की स्थापना किये और अपनी राजधानी अवध अर्थात वर्तमान भारत के अयोध्या में बनायी जिसे सूर्य मण्डल कहा जाता है। इसी प्रकार बुध ने अपने पूर्वज के नाम से गंगा-यमुना के संगम के पास प्रतिष्ठानपुरी में चन्द्र मण्डल की स्थापना कर अपनी राजधानी बनायी जो वर्तमान में झूंसी-प्रयाग भारत के इलाहाबाद जनपद में है। सूर्य मण्डल और चन्द्र मण्डल का संयुक्त नाम ”आर्यावर्त“ विख्यात हुआ। आर्यो का आगमन काल ई.पूर्व 4584 से 4500 ई.पूर्व के बीच माना जाता है। इसी समय के बीच विश्व में नदी घाटी सभ्यता का अभ्युदय हुआ था। बुध के दो पुत्र सुद्युम्न और पुरूरवा हुये। 
बुध के पुत्र सुद्युम्न के तीन पुत्र उत्कल, गयाश्व और शविनिताश्व हुए। उत्कल, उड़ीसा राज्य के स्थापक, गयाश्व गया राज्य के स्थापक हुये। शविनिताश्व, पश्चिम चले गये।
बुध के पुत्र पुरूरवा का विवाह इन्द्र द्वारा दी गई उर्वसी अप्सरा से हुआ। पुरूरवा महान प्रतापी हुए। उन्हें माता का इलावृत वर्ष भी मिला। इसी वंश में आयु, नहुष, क्षत्रवृद्धि, रजि, यति, ययाति, कैकेय इत्यादि हुये। ययाति की प्रथम पत्नी दैत्य गुरू शुक्राचार्य की पुत्री देवयानी थी तथा दूसरी पत्नी दैत्यराज वृषपर्वा की पुत्री शर्मिष्ठा थी।
चन्द्र वंश के राजा ययाति की प्रथम पत्नी देवयानी (दैत्य गुरू शुक्राचार्य की पुत्री) से दो पुत्र यदु (यदुवंश) और तुर्वसु (तुर्वसु) तथा दूसरी पत्नी शर्मिष्ठा (दानव वंश के वृषपर्वा की पुत्री) से तीन पुत्र पुरू (पुरू वंश), अनु (अनुवंश) और द्रह्यु (द्रह्यु वंश) हुये। इन पाँच पुत्रों से पाँच शाखाएँ चली। 
यदुवंश से ही कोष्टु वंश, आवन्त वंश, अन्धक वंश, तैतिर वंश, वृष्णि वंश, भाटी वंश, जाडेजा वंश व जादौन वंश का विस्तार हुआ। इसी यदुवंश में दुर्योधन के मामा शकुनि, चन्देरी राज्य के संस्थापक शिशुपाल, जरासन्ध, सत्यजित, देवक, उग्रसेन, देवकी, कृष्ण के मामा कंस, शूरसेन, वसुदेव, कुन्ती, सात्यकी, सुभद्रा, बलराम इत्यादि हुये। यदुवंश के सात्वत के पुत्रों में भजमान से भजमान वंश चला। भजमान के 4 पुत्र विदूरथ, महाराजन, राजन तथा पुरंज्जय थे। बड़ा पुत्र होने के कारण विदूरथ राज्याधिकारी बना। शेष को केवल श्रेष्ठतानुसार गायें तथा एक-एक क्षेत्र का अधिपति बनाया गया। विदूरथ आमीरपल्ली का राज्याधिकारी बना। महाराजन को महानन्द की उपाधि मिली और इन्हें नन्द गाँव, राजन को उपनन्द की उपाधि और बरसाना गाँव तथा पुरंज्जय को नन्द महर की उपाधि व गोकुल का क्षेत्र दिया गया। बाद में इस वंश में श्रीकृष्ण, बलराम के वंशजों का भी बहुत अधिक विस्तार हुआ जिनके वंशज आज भी हैं। श्रीकृष्ण (पत्नीयाँ 1. रूक्मिणी 2. कालिन्दी 3. मित्रवृन्दा 4. सत्या 5. भद्रा 6. जाम्बवती 7. सुशीला 8. लक्ष्मणा) के 10 पुत्र 1. प्रद्युम्न 2. चारूदेण 3. सुवेष्ण 4. सुषेण 5. चारूगुप्त 6. चारू 7. चारूवाह 8. चारूविन्द 9. भद्रचारू 10. चारूक हुये। श्रीकृष्ण के बाद मथुरा के राजा ब्रजनाभ हुये।
इस प्रकार चन्द्र के वंशजों से चन्द्रवंश का साम्राज्य बढ़ा जिनका सम्पूर्ण भारत में फैलाव होता गया। वर्तमान में इस चन्द्रवंश की अनेक शाखाएँ है- चन्द्र, सोम या इन्दु वंश, यदुवंश, भट्टी या भाटी वंश, सिरमौरिया वंश, जाडेजा वंश, यादो या जादौन वंश, तुर्वसु वंश, पुरू वंश, कुरू वंश, हरिद्वार वंश, अनुवंश, दुहयु वंश, क्षत्रवृद्धि वंश, तंवर या तोमर वंश, वेरूआर वंश, विलदारिया वंश, खाति वंश, तिलौता वंश, पलिवार वंश, इन्दौरिया वंश, जनवार वंश, भारद्वाज वंश, पांचाल वंश, कण्व वंश, ऋषिवंशी, कौशिक वंश, हैहय वंश, कल्चुरी वंश, चन्देल वंश, सेंगर वंश, गहरवार वंश, चन्द्रवंशी राठौर, बुन्देला वंश, काठी वंश, झाला वंश, मकवाना वंश, गंगा वंश, कान्हवंश या कानपुरिया वंश, भनवग वंश, नागवंश चन्द्रवंशी, सिलार वंश, मौखरी वंश, जैसवार वंश, चैपट खम्भ वंश, कर्मवार वंश, सरनिहा वंश, भृगु वंश, धनवस्त वंश, कटोच वंश, पाण्डव वंश (पौरव शाखा से, इसमें ही पाण्डव व कौरव थे। महाभारत युद्ध में कौरवों का नाश हो गया जिसमें धृतराष्ट्र के एक मात्र शेष बचे पुत्र युयुत्स के वंशज कौरव वंश की परम्परा बनाये रखे हैं। पाण्डव वंश की शाखा अर्जुन के पौत्र परीक्षित से चली।), विझवनिया चन्देल वंश (विशवन क्षेत्र में आबाद होने के कारण  विशवनिया या विझवनिया नाम पड़ा। इनकी एक शाखा विजयगढ़ क्षेत्र सोनभद्र, दूसरी जौनपुर जिले के सुजानगंज क्षेत्र के आस-पास 15 कि.मी. क्षेत्र में आबाद हैं। इनकी दो मुख्य तालुका खपड़हा और बनसफा जौनपुर में है। इसी खपड़हा से श्री लव कुश सिंह ”विश्वमानव“ के पूर्वज नियामतपुर कलाँ व शेरपुर, चुनार क्षेत्र, मीरजापुर में गये थे। श्री लव कुश सिंह ”विश्वमानव“ उनके तेरहवें पीढ़ी के हैं।), रकसेल वंश, वेन वंश, जरौलिया वंश, क्रथ वंश, जसावट वंश, लंघिया वंश, खलोरिया वंश, अथरव वंश, वरहिया वंश, लोभपाद वंश, सेन वंश, चैहान वंश, परमार वंश, सोलंकी वंश, परिहार या प्रतिहार वंश, जाट वंश, गूजर वंश, लोध वंश, सैथवार,  खत्री (हैहयवंशी की शाखा), पाल वंश। ओसवाल (ओसिया मरवाड़) और माहेश्वरी (इष्टदेव महेश्वर) पूर्व में चन्द्रवंशी क्षत्रिय थे। 
चन्द्रवंश वंशावली बहुत ही वृहद है। इनमें से अनेक शाखाएँ-प्रशाखाएँ होती गई। इनमें से क्षत्रिय से ब्राह्मण भी हुए तथा बहुत से ऋषि भी हुए। चन्द्रवंशी क्षत्रियों में यदु तथा पुरूवंश का बहुत बड़ा विस्तार हुआ और अनेक शाखाएँ-प्रशाखाएँ भारतवर्ष में फैलती गई। 
स. भविष्य के वंश
सूर्य की पत्नी 4. छाया से दो पुत्र 1. 8वें मनु - सांवर्णि मनु व 2. शनिश्चर हुये। ये 8वें मनु-सांवर्णि मनु के द्वारा ही मनवन्तर बदलेगा साथ ही युग भी बदलेगा। सांवर्णि मनु के गुण अवतार ”सार्वभौम“ हैं ऐसा शास्त्र में दिया गया है। मेरा मानना है कि सामान्य व्यावहारिक रूप में भविष्य में जन्म लेने वाले किसी भी व्यक्ति का नाम निश्चित करना असम्भव है। अगर अवतार के उदाहरण में देखें तो सिर्फ उस समय की सामाजिक आवश्यकताओं के अनुसार उसके गुण की ही कल्पना की जा सकती है या उसके हो जाने के उपरान्त उसके नाम को सिद्ध करने की कोशिश की जा सकती है। इसलिए उस अवतार का जो भी नाम कल्पित है वह केवल गुण को ही निर्देश कर सकता है। इस प्रकार ”कल्कि“ जो ”कल की“ अर्थात ”भविष्य की“ के अर्थो में रखा गया है। ”मैं“, उसके ”सार्वभौम मैं“ का गुण है। ”अहमद“, उसके अपने सार्वभौम सत्य-सिद्धान्त पर अतिविश्वास होने के कारण अंहकार का नशा अर्थात अहंकार के मद से युक्त अहंकारी जैसा अनुभव करायेगा। उसका कोई गुरू नहीं होगा, वह स्वयं से प्रकाशित स्वयंभू होगा जिसके बारे में अथर्ववेद, काण्ड 20, सूक्त 115, मंत्र 1 में कहा गया है कि ”ऋषि-वत्स, देवता इन्द्र, छन्द गायत्री। अहमिद्धि पितुष्परि मेधा मृतस्य जग्रभ। अहं सूर्य इवाजिनि।“ अर्थात ”मैं परम पिता परमात्मा से सत्य ज्ञान की विधि को धारण करता हूँ और मैं तेजस्वी सूर्य के समान प्रकट हुआ हूँ।“ जबकि सबसे प्राचीन वंश स्वायंभुव मनु के पुत्र उत्तानपाद शाखा में ब्रह्मा के 10 मानस पुत्रों में से मन से मरीचि व पत्नी कला के पुत्र कश्यप व पत्नी अदिति के पुत्र आदित्य (सूर्य) की चैथी पत्नी छाया से दो पुत्रों में से एक 8वें मनु - सांवर्णि मनु होगें जिनसे ही वर्तमान मनवन्तर 7वें वैवस्वत मनु की समाप्ति होगी। ध्यान रहे कि 8वें मनु - सांवर्णि मनु, सूर्य पुत्र हैं।

मनु  अवतार काल
9. दत्त सावर्णि मनु रिषभ भविष्य
10. ब्रह्म सावर्णि मनु विश्वकसेन भविष्य
11. धर्म सावर्णि मनु धर्मसेतू  भविष्य
12, रूद्र सावर्णि मनु सुदामा भविष्य
13. दैव सावर्णि मनु योगेश्वर भविष्य
14. इन्द्र सावर्णि मनु वृहद्भानु भविष्य

गोत्र
मूलतः गोत्र निम्नलिखित आधार पर बनते रहे हैं-
1. गोत्र ऋषि - गोत्र ऋषि का तात्पर्य ऐसे ऋषि से है जो उस वंश का मूल पुरूष या संस्थापक हो।
2. प्रवर ऋषि - गोत्र के जितने प्रवर्तक ऋषि होते हैं उन्हें प्रवर ऋषि कहा जाता है चाहे वे मूल वंश के हो अथवा शिष्य परम्परागत हों।
गोत्र के सम्बन्ध में कई प्रकार के उदाहरण मिलते हैं तथा गोत्र विभाजन के भी अनेक उदाहरण हैं जिसके कारण निम्नलिखित हैं-
1. मूल वंश का गोत्र - यह गोत्र उनके मूल पुरूषों के नाम से बनता है। जैसे सूर्यवंश के मूल पुरूष ”कश्यप“ व चन्द्रवंश के मूल पुरूष ”अत्रि“ के नाम से गोत्र प्रचलित है।
2. वीर्यजन्य गोत्र - यह गोत्र भी मूल वंश की शाखा से प्रचलित होता है। जैसे चन्द्र वंश में कण्व शाखा वाला कण्व गोत्र धारण किये हैं और इसी प्रकार वत्स शाखा वालों का गोत्र वत्स है।
3. शब्द जन्य गोत्र - यह गोत्र मूल वंश को छोड़कर कुलगुरू के नाम से चलता है। जैसे सूर्यवंश का मूल गोत्र कश्यप है किन्तु इस वंष में गुरू वशिष्ठ के नाम से भी गोत्र चल रहा है।
4. उपाधिजन्य गोत्र - यह गोत्र दीक्षा लेने अथवा उपाधि ग्रहण करने के कारण प्रचलित है। जैसे सूर्यवंश का एक व्यक्ति दीक्षा प्राप्त करने के कारण दीक्षित की उपाधि ग्रहण कर लिया और उसका वंश दीक्षित गोत्र कहलाया। इसी प्रकार व्याध्रपद गोत्र भी उपाधिजन्य गोत्र है।
5. स्थानजन्य गोत्र - यह गोत्र स्थान के नाम पर चलता है जैसे कौशल गोत्र, मेढतिया गोत्र इत्यादि।
6. शिष्य परम्परागत गोत्र - यह गोत्र गुरू-शिष्य परम्परा के कारण शिष्य द्वारा गुरू के नाम पर गोत्र धारण करने से बनता है। एक ही गुरू के शिष्य होने के कारण ब्राह्मण और क्षत्रियों के गोत्र आपस में मिलते हैं।
कूर्मवंशीय क्षत्रियों का विश्व में वंश विस्तार निम्नलिखत संस्थाओं और परिस्थितियों द्वारा हुई।
1.कुल और वंश (पाणिनि अष्टाध्यायी, 2.1.19) - परिवार को कुल कहा जाता था। कई पीढ़ियों तक कोई कुल चलते रहने पर उसे वंश कहा जाता था। वंश रक्त सम्बन्ध से भी बनता था तथा विद्या सम्बन्ध से भी।
2.गोत्र (पाणिनि अष्टाध्यायी, 4.1.162-165) - रक्त समबन्ध पर आश्रित इकाई को गोत्र कहा जाता था। किसी एक वंश स्थापक से किसी वंश का विकास होता था। उदाहरणार्थ वत्स द्वारा संस्थापित वत्स गोत्र में उसके पुत्र को वात्स, पौत्र को वात्स्य तथा प्रपौत्र को वात्सल्य कहा जाता था। पितृ कुल के छः पूर्वज और उनके छः पीढ़ी तक के वंशज सपिण्ड कहलाते थे। पाणिनी द्वारा अत्रि, अंगिरा, भृगु आदि अनेक प्राचीन तथा प्रसिद्ध गोत्रों का उल्लेख किया गया है। कभी-कभी गोत्र के कोई अत्यन्त प्रसिद्ध वंशज अपने नाम से नया गोत्र स्थापित कर देते थे। उदाहरणार्थ अंगिरस गोत्रोत्पन्न कपि तथा बोध से नये गोत्र प्रारम्भ हो गये (पाणिनि अष्टाध्यायी, 4.1.107)। यदि पिता अज्ञात हो तो माता के नाम से भी गोत्र प्रारम्भ हो जाते थे (पाणिनि अष्टाध्यायी, 4.1.14)। कभी-कभी किसी प्रसिद्ध व्यक्ति के नाम से भी वंश चल पड़ने के उदाहरण मिलते हैं। यथा मुखर से मौखरि। इस प्रकार के लौकिक गोत्र को गोत्रावयव कहा जाता था (पाणिनि अष्टाध्यायी, 4.1.79)।
3.चरण (पाणिनि अष्टाध्यायी, 4.3.104)- वेद के विशिष्ट शाखाओं के अध्ययन के लिए जिन विद्यालयों की स्थापना की जाती थीं, उन्हें चरण कहा जाता था। उस शाखा का अध्यापन कराने वाले आचार्य के नाम से चरण का नाम पड़ता था। उनके शिष्य नये चरणों की स्थापना कर सकते थे। उदाहरणार्थ वेदव्यास के शिष्य आरूणि तथा कलापी द्वारा नये चरणों की स्थापना की गई थी।
4.संघ (पाणिनि अष्टाध्यायी, 3.3.86)- इनके दो मुख्य भेद थे। निकाय और गण।
(क)-निकाय (पाणिनि अष्टाध्यायी, 3.3.42) - इसमें जन्म के कारण छोटे-बड़े का भेदभाव नहीं माना जाता था। यह धार्मिक संघ था।
(ख)-गण (पाणिनि अष्टाध्यायी, 3.3.86) - राजनीतिक संघ को गण कहा जाता था। इसमें सभी जातियों के लोग सम्मिलित रहते थे। शासक क्ष़ित्रयों के विशेष वर्ग को मूर्धाभिशिक्त राजन्य कहा जाता था (पाणिनि अष्टाध्यायी, 6.2.34)। संघ की शासन समिति के सदस्य केवल राज्य श्रेणी के क्षत्रिय ही हो सकते थे। संघ शासन में राजनीतिक दलों का भी अस्तित्व था, जिन्हें वर्ग (वग्र्य) कहा जाता था। उदाहरणार्थ अन्धक-वृष्णि संघ में अक्रूर वग्र्य अर्थात अक्रूर दल के अनुयायी तथा वासुदेव वग्र्य अर्थात वासुदेव वग्र्य के अनुयायी। गण से एक प्रजातंत्रात्मक इकाई का बोध होता था। ऐसी कई प्रजातंत्रात्मक इकाइयों के समुदाय को संघ कहा जाता था।
किसी संस्था के मुख्य व्यक्ति, व्यक्ति नहीं बल्कि संस्था होता है। उसका पद ही उसका पहचान होता है और उसके द्वारा की गई समस्त कार्यवाही व्यक्ति की नहीं बल्कि संस्था की होती है। व्यक्ति की मृत्यु हो जाती है परन्तु संस्थायें लम्बी अवधि तक चलती रहती है। उदाहरणस्वरूप वर्तमान समय में देश, संस्थायें और पीठ हैं। जैसे विदेशों में जाने पर जब किसी देश का मुख्य व्यक्ति कोई समझौता करता है तब वह देश होता है न कि व्यक्ति। प्राचीन समय में भी इसी प्रकार के अनेक पीठ थे और बनते चले गये जैसे- ब्राह्मण, परशुराम, विश्वामित्र, व्यास, वशिष्ठ, नारद, इन्द्र, गोरक्षपीठ (क्षत्रिय पीठ), शंकराचार्य पीठ (ब्राह्मण पीठ) इत्यादि। जब तक संस्था नहीं रहती तब तक व्यक्ति, व्यक्ति रहता है जब उसके द्वारा संस्था स्थापित हो जाती है तब व्यक्ति, व्यक्ति न रहकर संस्था हो जाता है। उस संस्थापक व्यक्ति के जीवन काल तक उसे साकार रूप में फिर उसके उपरान्त उसके निराकार रूप विचार का साकार रूप संस्था के रूप में समाज याद करता है। ऐसी स्थिति में जब संस्थापक व्यक्ति का नाम ही संस्था का नाम हो तब संस्था द्वारा किये गये समस्त कार्य एक भ्रमात्मक स्थिति को उत्पन्न करते हैं और एक लम्बे समय के उपरान्त यह नहीं समझ में आता कि वह संस्थापक व्यक्ति इतने लम्बे समय तक कैसे जिवित था? सत्य तो यह है कि शरीर मर जाता है लेकिन विचार या विचार पर किये गये कार्य नहीं मरते। इस सत्य के आधार की दृष्टि से यदि हम देखें तो स्थिति स्पष्ट हो जायेगी कि-
1. वशिष्ठ के सम्बन्ध में - सर्वप्रथम वशिष्ठ सूर्यवंश के प्रथम पुरूष महाराज इच्छवाकु के सामने पैदा होते हैं। दूसरी बार वशिष्ठ मैथिली वंश के यज्ञ में ऋत्विक कार्य सम्पन्न कराते हैं। इच्छवाकु से मैथिली वंश में चैथी पीढ़ी का अन्तर है। तीसरी बार वशिष्ठ राजा त्रिशंकु के समय में प्रकट होते हैं। चैथी बार वशिष्ठ राजा दिलीप के समय भी होते हैं पाँचवीं बार महाराजा दशरथ के समय उपस्थित होते हैं। छठवीं बार महाभारत काल में होते हैं जो आबू पर्वत पर अग्नि पैदा करके अग्नि से क्षत्रिय पैदा करते हैं।
2. नारद के सम्बन्ध में - युग कोई भी हो वहाँ नारद की उपस्थिति सदैव रहती है। नारद त्रेता के राम काल में भी हैं तो द्वापर के कृष्ण काल में भी और इनसे प्राचीन ब्रह्मा-विष्णु-महेश काल में भी।
3. विश्वामित्र के सम्बन्ध में - विश्वामित्र सूर्यवंश के 32वीं पीढ़ी के राजा हरिश्चन्द्र का राज्य दान में लेते हैं। फिर इसी वंश की 62वीं पीढ़ी में राजा दशरथ से यज्ञ रक्षार्थ उनके पुत्र राम और लक्ष्मण को साथ ले गये थे।
4. ब्राह्मण के सम्बन्ध में - यह एक विद्यापीठ था जो उस समय राजर्षि, ब्रह्मर्षि, देवऋषि इत्यादि उपाधियों को प्रदान करता था जैसे वर्तमान समय के शिक्षा संस्थान उपाधियाँ प्रदान कर रहीं हैं। संस्कृत विश्वविद्यालयों से आज भी शास्त्री, आचार्य, शिक्षा शास्त्री इत्यादि उपाधि उनको दी जा रहीं हैं जो इसके योग्य हैं। बिना कोई परीक्षा उत्तीर्ण किये विशेषज्ञता के आधार पर विश्वविद्यालय मानद उपाधि भी प्रदान करती हैं। 
5. परशुराम के सम्बन्ध में - त्रेता युग में जनकपुरी में सीता स्वयंवर के समय परशुराम उपस्थित होते हैं और द्वापर युग में भीष्म और कर्ण को भी शिक्षा देते हैं। साथ ही भविष्य के एक मात्र शेष अन्तिम अवतार कल्कि के भी वे गुरू होगें, ऐसा पुराण में है।
6. दुर्वासा के सम्बन्ध में - दुर्वासा ऋषि राम काल के थे जो अत्रि-अनुसूईया के पुत्र थे और राम वनवास समय में श्री राम से मिले भी थे। फिर दुर्वासा महाभारत काल में द्वापर के अन्त तक भी उपस्थित रहते हैं।
7. व्यास के सम्बन्ध में - समाज को एकात्म करने के लिए शास्त्र की रचना करना व उसका प्रचार-प्रसार करने के लिए व्यास सदैव हर युग में उपस्थित रहते हैं।
वैदिक काल में ऋषियों का वर्णन आया है। कुछ को छोड़कर सभी ऋषि परिवार वाले थे। वैदिक काल के ऋषि दार्शनिक,  विद्वान, योद्धा एवं कृषक तीनों थे। ऋचाओं को लिखने वाले ऋषियों को देवर्षि की संज्ञा प्राप्त थी। प्राचीन ऋषियों में बहुत से ऋषि, राजर्षि से ब्रह्मर्षि हो गये तथा ब्रह्मर्षि से राजर्षि भी हुए लेकिन इनकी संख्या कम है। आरम्भ में ब्राह्मण कोई जाति नहीं थी बल्कि यह विद्यापीठ था। यही कारण है कि अनेक राजर्षि, ब्रह्मर्षि उपाधि प्राप्त किये। यही नहीं प्राचीन वंशावली में भी सूर्य के 12 पुत्रों में बहुत से अग्निहोत्र करने के कारण ब्राह्मण की उपाधि धारण किये। सूर्य के पुत्र वरूण से ही ब्रह्म वंश चला जिसमें भृगु, वशिष्ठ, वाल्मिकि, जमदग्नि, पुलस्त्य थे जबकि ब्रह्म वंशीय भी विशुद्ध सूर्यवंशीय ही है। केवल अग्निहोत्र करने के कारण ही ये ब्राह्मण कहलाये।
राजर्षि से ब्रह्मर्षि एवं वेदर्षि होने वाले 1. विश्वामित्र 2. गर्ग 3. भारद्वाज 4. पूर्तिमास 5. कौशिक 6. माण्डव्य 7. शाण्डिल्य 8. अत्रि 9. मुद्गल 10. याज्ञवल्क्य 11. पराशर 12. कण्व 13. शुक या सनत् कुमार 14. व्यास 15. लोमस 16. माल्यवन्त 17. बकदालक्य 18. हरित 19. कश्यप 20. अगस्त्य 21. गौतम 22. शौनक 23. कौण्डिल्य 24. विष्णु 25. कापल 26. दुर्वासा 27. कुर्म 28. भृगु 29. वशिष्ठ 30. वाल्मिकि थे।
राजर्षि से ब्रह्मर्षि एवं वेदर्षि होने वाले 31. मान्धाता 32. गालव 33. मधुछन्दा 34. पुरूकुत्स 35. मेधातिथि 36. जेत 37. शुनदशेष 38. शव्य 39. नोघ 40. कुत्स 41. भृजस्व 42. कक्षिवन 43. पुरूक्षेत्र 44. दीघ्रतमस 45. होमहूति 46. ऋषभ 47. उत्कल 48. देवश्रवा 49. देवदूत 50. प्रजापति 51. बुध 52. गविष्ट 53. कुमार 54. ईस 55. सुतम्भरा 56. गरूण 57. पुरू 58. विश्वश्याम 59. ध्युम्न 60. विश्वचर्शा 61. वसुयु 62. विश्वनर 63. ब्रभु 64. अनस्यु 65. पृथु 66. वसु 67. प्रतिरथ 68. प्रतिभान 69. पुर्मीढ 70. गोपवन 71. सतबन्धु 72. विरूप 73. उष्ण 74. काव्य 75. कृष्णा 76. विश्वक 77. नृमेध्न 78. अपाला 79. सूतकक्ष 80. सुकक्ष 81. विन्दु 82. पूतदक्ष 83. जमदग्नि 84. नेमि 85. प्रस्कण्व 86. वित्त 87. पर्वत 88. नगद 89. त्रिशिरा 90. हर्विद्धान 91. अंगिरस 92. शंश 93. दमन 94. मथित 95. बिमद 96. वसुक 97. मौजवान 98. धानाक 99. आमतिपा 100. घोष 101. विश्वधारा 102. वत्सप्रि 103. सत्पक 104. वैकुण्ठ 105. वृहदुख्यो 106. गोपायन 107. मानव 108. पलात 109. वसुकर्मा 110. अयास्य 111. सुमित्र 112. वृहस्पति 113. गौरीकीर्ति 114. जणकर्ण 115. स्यूमिरम्भ 116. शौचिक 117. विश्वकर्मा 118. सूर्य 119. सानिमी 120. पायु 121. रेण 122. नारायण 123. अरूण 124. शर्याति 125. तान्व 126. अब्र्रुद 127. भिषग 128. वरू 129. अष्टक 130. भूतांश 131. पण्योसुर 132. शरमा 133. अष्ट्रादृष्ट 134. उपस्तुत 135. भिक्षु 136. बृहदियु 137. चित्रमहा 138. कुसिक 139. बृहव्य 140. सुकीर्ति 141. शंकपूत 142. अंग 143. श्रद्धा 144. कामायनी 145. यमी 146. शरविष्ट 147. केतुभुवन 148. ऐलुष 149. चक्षु 150. सवर्त 151. पुलोमि 152. रक्षोहा 153. कपोत 154. अनिल 155. शम्बर 156. सवर्त 157. ध्रुव 158. पतंग 159. अरिष्टनेमि 160. जयप्रथ 161. उलो 162. सुपर्ण 163. देवता 164. श्यावास्य 165. रहुगण 166. कर्णसुत 167. अम्बरीष 168. च्यवन 169. उर्वशी 170. द्रोण 171. राम 172. धर्म 173. राजहव्य 174. सुहोत्र 175. सुनहोत्र 176. नर 177. नाभण 178. भिशोभी 179. अश्वमेध।
सूर्यवंशी और चन्द्रवंशी क्षत्रियों के अनेक गोत्र अभी भी कूर्मवंशी क्षत्रियों और मराठों में प्रचलित हैं जैसे- 1.कश्यप, 2.भारद्वाज, 3.शौनक, 4.जमदग्नि, 5.वशिष्ठ, 6.कौण्डिन्य, 7.विश्वामित्र, 8.गौतम, 9.ब्रह्म या ब्रह्मा 10.बकदालभ्य, 11.शाण्डिल्य, 12.कपिल, 13.गाग्र्य, 14.विश्वावसु, 15.माल्यवन्त 16.दुर्वासा, 17.सनत्कुमार, 18.गार्गायण, 19.सौतल्य, 20.कौशिक इत्यादि। 

अ. स्कन्द पुराण, सह्याद्रि खण्ड के अनुसार सूर्य वंश के अन्तर्गत 12 गोत्र और चन्द्र वंश के अन्तर्गत 59 गोत्र पाये जाते हैं।
सूर्य वंश के अन्तर्गत 12 गोत्र ये हैं-1. भारद्वाज, 2. पूतमाक्ष, 3. वशिष्ठ, 4. कश्यप, 5. हारीत, 6. विष्णु, 7. ब्रह्माजनार्दन, 8. सौवल अथवा सौतल्य, 9. कौटिम अथवा कौडिन, 10. माण्डव्य, 11. कौशिक और 12. विश्वामित्र।
चन्द्र वंश के अन्तर्गत 25 गोत्र ये हैं- 1.पद्यमाक्ष, 2.नद, 3.गौतम, 4.कौण्डिन, 5.सौनल्प, 6.चम्पक, 7.वशिष्ठ, 8.कश्यप, 9.विश्वामित्र, 10.भृगु, 11.भारद्वाज, 12.अत्रि, 13.हिरण्य, 14.हारित, 15.देवराज, 16.मृकण्डु, 17.अंगिरा, 18.गर्ग, 19.माण्डव्य, 20.शौनक, 21.भद्र, 22.कृपायु, 23.शूलक, 24. शीलचामर 25. मार्तण्ड, 26. विश्वासू, 27. दाल्भ, 28. पूतिमाष, 29. जांबील, 30. गणक, 31. वैरूक्ष, 32. जगदग्नि, 33. भावन, 34. सौमन, 35. अभिदुन्दुभि, 36. द्राविण, 37. गोप, 38. कुमर, 39. मैत्रेय, 40. मंडन, 41. बकदालभ्य, 42. रोमारण, 43. कुमर, 44. भावनि, 45. मालिवन्त, 46. अग्रिक्ष, 47. मुद्गल, 48. पारिजात, 49. दामोदर, 50. साल्यन, 51. पार्थप, 52. चारणामाक्ष, 53. उग्र, 54. अम्बष्ठ, 55. ऋषिभावन, 56. सोमकान्त, 57. भीम, 58. चमक और 59. प्रात।

ब. महाराष्ट्र कुल वंशावली के अनुसार सूर्य वंश के अन्तर्गत 12 गोत्र और चन्द्र वंश के अन्तर्गत 25 गोत्र पाये जाते हैं। 
सूर्य वंश के अन्तर्गत 12 गोत्र ये हैं-1. भारद्वाज, 2. पूतमाक्ष, 3. वशिष्ठ, 4. कश्यप, 5. हारीत, 6. विष्णु, 7. ब्रह्माजनार्दन, 8. सौवल अथवा सौतल्य, 9. कौटिम अथवा कौडिन, 10. माण्डव्य, 11. कौशिक और 12. विश्वामित्र।
चन्द्र वंश के अन्तर्गत 25 गोत्र ये हैं- 1.प्रह्लाद, 2.अत्रि, 3.वशिष्ठ, 4.शुक, 5.कण्व, 6.पराशर, 7.विश्वामित्र, 8.भरद्वाज, 9.कपिल, 10.शौनक, 11.याज्ञवलक्य, 12.जमदग्नि, 13.गौतम, 14.मुद्गल, 15.व्यास, 16.लोमष, 17.अगस्ति, 18.कौशिक, 19.वत्स, 20.पुलस्ति, 21.मकन, 22.दुर्वासा, 23.नारद, 24. कश्यप और 25. बकदालभ्य। 

कूर्मवंशी क्षत्रिय के कुछ कुल . 1.कूर्मवंश, 2. सूर्यवंश, 3. कुशवंश, 4. लववंश, 5. कूर्मवंश (कूर्म ऋषि से), 6. कुरूवंश, 7. यदुवंश, 8. माधव, 9. सावन्त, 10. शाकावन्त, 11. यशवन्त, 12. सुलंक, 13, नायक, 14. चालुक्य, 15. चन्देल, 16. पटेल, 17. चैधरी, 18. पंवार, 19. शिलार, 20. तोमर, 21. ठाकुर, 22. गुर्जर, 23. राचोड़, 24. राठोड़ (राठौर), 25. घोड़चढ़े, 26. घोरपदे, 27. चन्द्रावल, 28. शूरसेन, 29. सचान, 30. संगवान, 31. सोवान, 32. चैहान (चव्हाण), 33. चन्दनन, 34. परिहार, 35. देशमुख, 36. राणा (राणे), 37. रावल, 38. रावत, 39. जगताप, 40. सुरवे, 41. भोंसले, 42. सावलें, 43. शाकल, 44. निकाग, 45. कदम्ब, 46. बुन्देला, 47. पाठारीय, 48. पाटीदार, 49. गायकवाड़, 50. पटनवार, 51. जयसवार, 52. वयसवार, 53. मनवार, 54. कटियार, 55. सैंठवार, 56. सिंगरौर, 57. अवधिया, 58. कनौजिया, 59. गुजराती, 60. मराठे (महाराट्ट), 61. वंशवार, 62. बक्कालिगर, 63. घमैला, 64. श्रीन्दे (शिन्दे), 65. सिसौदे, 66. नायडू, 67. राडी (रेड्डी), 68. राउ-राव, 69. सामवंत, 70. क्षत्रिय (क्षत्री), 71. चन्देरीय।

कूर्मवंशी क्षत्रिय के कुछ उपाधियाँ - 
उत्तर प्रदेश, भारत में- 1. चनऊ, 2. पटनवार, 3. जयसवार, 4. अथरिया, 5. खरेबिन्द, 6. पातालिया, 7. गुजराती, 8. अवधिया, 9. ढेलफोरा, 10. अवधवासी, 11. सैंथवार, 12. कलिहा, 13. शामसवार, 14. वैशवार, 15. सिंगरौर, 16. चन्द्रौल, 17. सचान, 18. उत्तम, 19. उमराव, 20. महते, 21. निरंजन, 22. कटियार, 23. गंगवार, 24. कनौजिया, 25. यदुवंशी, 26. राठौर, 27. चैधरी, 28. सिंह, 29. वर्मा। बिहार प्रदेश, भारत में- 1. जयसवार, 2. अवधिया, 3. समसवार, 4. घमैला, 5. दोजवार, 6. धानुक, 7. मंडल, 8. महतो, 9. सिंह, 10. प्रसाद, 11. राव, 12. राम, 13. चैधरी, 14. लाल, 15. राय, 16. गुप्ता, 17. चन्देल, 18. रमैया, 19. मंगल, 20. पटेल, 21. तैलंग, 22. अभात, 23. कैवर्त, 24. सिन्हा, 25. रावत, 26. चपरिया, 27. विश्वास, 28. शरण, 29. मूलवासी, 30. घनमैला, 31. कोचैसा, 32. सैंठवार, 33. व्याहुत, 34. ग्राई, 35. धीजमा, 36. घोड़चढ़े, 37. पाण्डे, 38. भगत, 39. पटनवार, 40. मथुरवार, 41. बड़वार, 42. शंखवार, 43. कूर्मि, 43. बसरियार, 44. टिंडवार। उड़ीसा प्रदेश, भारत में- 1. प्रधान, 2. रावत, 3. महन्ती, 4. नायक, 5. राय, 5. पटनायक इत्यादि। महाराष्ट्र प्रदेश, भारत में- 1. परदेशी, 2. रावत, 3. चैधरी, 4. कश्यप, 5. सिंह, 6. देसाई, 7. भांेसले, 8. पंवार, 9. पाटिल, 10. देशमुख, 11. काकड़े, 12. शिन्दे, 13. राठौर, 14. साठे, 15. धौंगड़े इत्यादि। गुजरात प्रदेश, भारत में- गुजरात में कूर्मियों की मुख्य शाखाएँ है- कड़वा, लेवा, आंजन और मतिया और प्रचलित उपाधियाँ हैं-1. पटेल, 2. पाटीदार, 3. अमीन

कूर्मवंशी क्षत्रिय रियासतें
भगवान बुद्ध के काल में दो जनपदों में विभक्त मल्ल कूर्मियों का संघ राज्य था। एक जनपद की राजधानी कुशावती या कुशीनारा था। दूसरे जनपद की राजधानी पावा थी। जैन कल्पसूत्रों में भी 9 मल्लों का वर्णन किया गया है। उत्तर प्रदेश के देवरिया जिले के कसया नामक नगर को ही बौद्ध काल में कुशीनारा कहा जाता था। अपनी इसी प्रिय नगरी में ही गौतम बुद्ध ने अपने नश्वर शरीर को त्याग कर निर्वाण प्राप्त किया था। वहाँ के मल्लों ने बुद्ध के मृत शरीर को तथा बाद में उनके पवित्र अस्थि कलश को अपने संस्थागार में दर्शनार्थियों के लिए सुरक्षित रखा था। वर्तमान देवरिया तथा गोरखपुर जिलों में सैंथवार नामक उपजाति के कूर्मिक्षत्रिय बौद्धकाल के प्राचीन मल्ल हैं। मल्लों के पावानगरी में जैन तीर्थंकर भगवान महावीर ने अपना देह त्याग किया था। इससे स्पष्ट है कि प्राचीन भारत में भी कूर्मियों का शासन था और वे विशुद्ध क्षत्रिय थे।
बौद्ध काल में 16 महाजनपद थे। ”अंगुत्तर निकाय“ तथा संस्कृत गंन्थ ”महावास्तु“ में सोलह महाजनपदों का उल्लेख हैं। ये हैं- 1. अंग, 2. मगध, 3. काशी, 4. कोशल, 5. वज्जि, 6. मल्ल, 7. चेटि (चेदि), 8. वंस (वत्स), 9. कुरू, 10. पंचाल, 11. मच्छ (मत्स्य), 12. शूरसेन, 13. अस्सक (अश्मक), 14. अवन्ति, 15. गंधार और 16. कम्बोजा। बुद्ध के समकालीन चार बड़े राज्य थे- 1. कोशल, 2. मगध, 3. अवन्ती और 4. वत्स। बौद्ध धर्म के कतिपय प्रसिद्ध और महान व्यक्ति मल्ल ही थे, जैसे आनन्द, अनुरूद्ध, उपालि इत्यादि। मल्लों के शासक पुरिस कहे जाते थे। वे पुलिस की तरह थे। सैनिक प्रवृत्ति के होते थे। बुद्ध का कहना था कि मल्लसंघ अपने सदस्यों को प्राणदण्ड दे सकते थे। वे न्याय रक्षा से बहिर्गत करने तथा देश से निर्वासित करने के लिए भी पूर्णतः स्वतन्त्र थे। उनके अधिवेशन संथागार या उद्यान (आराम) में सम्पन्न होते थे।
मारकण्डेय पुराण (57.50) में पुलिन्द तथा सुमीन देशों के पश्चात् कुरूमी (कुरूमिन) देश का उल्लेख किया गया है। 606 ई0 में हर्षवर्धन राज्यासीन हुये थे उनके राजकवि बाणभट्ट ने अपने हर्षचरित् नामक ग्रन्थ में विन्ध्याचल का वर्णन करते हुए लिखा है- निकटवासी कुटुम्बी लोग सभी ओर से जंगल में प्रवेश कर रहे हैं।
प्रमुख रियासते इस प्रकार थीं- 1. कोल्हापुर राज्य (महाराष्ट्र-भोंसला वंश), 2. सतारा राज्य (महाराष्ट्र-भोंसला वंश), 3. ग्वालियर राज्य (मध्य प्रदेश-सिंधीया वंश), 4. धार राज्य (मध्य प्रदेश-पंवार वंश), 5. देवास राज्य (मध्य प्रदेश-पंवार वंश), 6. बड़ौदा राज्य (गुजरात-गायकवाड़ वंश)। 

कूर्मवंशी क्षत्रिय वंश के महान विभूतियाँ, संत, अमर शहीद
वाल्मिकि रामायण (युद्ध काण्ड, सर्ग-2, श्लोक-12) के अनुसार हनुमान-बालि-सुग्रीव-अंगद आदि कापू कूर्मि जाति के थे जिसमें श्रीराम ने कहा है- ऐसा प्रिय वचन कहने वाला हनुमान कूर्मी के समान मेरा हितैषी इस पृथ्वी पर दूसरा नहीं है। हनुमान-बालि-सुग्रीव-अंगद आदि का राज्य हैदराबाद, तमिलनाडु तथा कर्नाटक के कुछ भाग में था। राज्य की राजधानी किष्किन्धा में थी जिसे अब गोलकुण्डा कहते हैं। श्री हनुमान वहाँ के प्रधान सेनापति थे। यह सब कापू जाति के थे जिन्हें कपि कहा गया। इन्हीं की सहायता से श्रीराम ने रावण पर विजय पायी। हैदराबाद स्टेट इम्पीरीयल गजट आॅफ इण्डिया-1908 (वाल्यूम-13, पृष्ठ-247) के अनुसार इनकी जनसंख्या 39,53,000 थी जो विश्व जनसंख्या का 26 प्रतिशत थी। राम की सेना में हनुमान-बालि-सुग्रीव-अंगद आदि की बहुत पूंछ अर्थात मांग अर्थात सम्मान होती थी। जैसे किसी गांव में जाकर हम वहाँ के प्रधान को ही पूंछते है। महात्मा तुलसीदास ने इस पंूछ यानी सम्मान के स्थान पर दुम लगाकर बन्दर बना दिया। ताकि कापू कूर्मियों का महत्व राम से अधिक न हो जाये व इनका इतिहास भी समाप्त हो जाये। स्वाभाविक भी है जो नचाता है वह मालिक है और जो नाचता है वह बन्दर ही होता है। श्रीराम नचाने वाले थे और सेना इशारे पर नाचने वाली थी। इसी प्रकार तब कोई भालू, रीछ या गिद्ध राम की सेना में नहीं था।
अन्य कूर्मवंशी क्षत्रिय वंश के महान विभूतियाँ, संत, अमर शहीद इस प्रकार हैं- 1.राजा भोज (शासनकाल 1000-1055 ई0), 2. महान कूटनीतिज्ञ महादजी (माधवजी) सिंधिया (1727-1794 ई0), 3. महान संत तुकाराम (1608-1649 ई0), 4. महाकवि वेमना रेड्डी, 5. योगिराज स्वामी सियाराम जी (1873-1929 ई0), 6. महान तपस्वी स्वामी आत्मानन्द जी (1929-1989 ई0), 7. स्वामी निखिलात्मानन्द जी, 7. स्वामी त्यागात्मानन्द जी, 8. स्वामी सदाशिवानन्द जी, 9. क्रान्तिदूत राजा जयलाल सिंह, 10. शहीद रामानन्द सिंह, 11. शहीद राजेन्द्र प्रसाद सिंह, 12. शहीद राम गोविन्द सिंह, 13. शहीद जयदेव प्रसाद, 14. शहीद शक्ति नाथ महतो, 15. झारखण्ड के मसीहा निर्मल महतो, 16. शहीद विश्वनाथ महतो, 17. पुरूलिया के पंच शहीद- डोमन महतो, मोहन महतो, शीतल महतो, सहदेव महतो और नकुल महतो, 18. नागपुर के शहीद शंकर महल्ले, 19. जबलपुर के शहीद विद्यार्थी गुलाब सिंह पटेल, 20. राष्ट्र निर्माता लौहपुरूष सरदार वल्लभभाई पटेल, 21. परम प्रतापी छत्रपति शिवाजी महाराज, 22. पूर्व राष्ट्रपति नीलम संजीव रेड्डी, 23. प्रकाण्ड शिक्षाविद् कट्टमंची रामलिंग रेड्डी, 24. कलियुगी भीम प्रो. राममूर्ति नायडू, 25. विक्रम संवत् के प्रवर्तक महाराजा विक्रमादित्य, 26. वीर रानी चेन्नमा, 27. भारत कोकिला स्वतंत्रता सेनानी सरोजीनी नायडू तथा उनकी पुत्री पूर्व गवर्नर पद्मजा नायडू, 28. फणीश्वर नाथ ”रेणु“ इत्यादि और भारत सरकार में अनेक पूर्व एवं वर्तमान मंत्री।
ब्रह्माण्ड के इस सौरमण्डल के इस पृथ्वी ग्रह के भारत देश के इसी कूर्मवंशीय क्षत्रिय वंश के चन्द्रवंशी-चन्देलवंश में श्री लव कुश सिंह ”विश्वमानव“ का जन्म हुआ है जिनसे व्यक्त सम्पूर्ण एकीकरण का यह सार्वभौम शास्त्र - ”विश्वशास्त्र“ है।
अदृश्य काल के व्यक्तिगत प्रमाणित काल में व्यक्तिगत प्रमाणित अदृश्य प्राकृतिक चेतना से युक्त सत्य आधारित सतयुग में द्वितीय अवतार - कूर्म या कच्छपावतार का अवतरण तब हुआ, जब मानव जाति का विकास हुआ और जनसंख्या बढ़ी तो लोग अपनी अपनी तरह से अपनी व्यवस्था करने लगे और दो व्यवस्थाएॅ बनी समाज या गणराज्य और राज्य। दोनों व्यवस्थाओं के समुदाय अपनी-अपनी व्यवस्था को श्रेष्ठ मानते थे और चाहते थे कि दूसरे भी उनकी व्यवस्था को स्वीकार करें। इस कारण दोनों में लड़ाइ-झगड़े युद्ध होने लगे, जिनमें लोग मरने लगे परिणामस्वरूप मानव जाति की प्रगति रूक गई। उनमें से एक पुरूष जो इस भयंकर स्थिति को समझा और अपनी सहनशीलता, धैर्य, लगन व शान्ति से दोनों पक्षो को समझाया। अर्थात् उसकी आत्मा अदृश्य प्राकृतिक चेतना अर्थात् प्रकृति द्वारा निर्मित परिस्थितियों में प्राथमिकता से कार्य करना, में स्थापित हो गयी। परिणामस्वरूप दोनों पक्षों के बीच अपने अपने विचारों का मंथन (समुद्र मंथन अर्थात् विचार समुद्र के भांति अनन्त है उसका मंथन) हुआ और वह पुरूष दोनों के विचारों में एकता करते हुये चैदह मुख्य महत्व के विषयों (चैदह रत्नों) पर एकता स्थापित की जो दोनों पक्षो को मान्य थी चूँकि प्रथम अवतार को मछली के गुणों से प्रेरित नाम दिया गया था इसलिए इस अवतार का नाम कालान्तर में कछुए से तुलना कर कच्छपावतार या कूर्मावतार नाम दिया गया। उस पुरूष द्वारा सत्य सिद्धान्त (कछुये का सामजस्य व समन्वय सिद्धान्त) की धारण कर प्रयोग होने के कारण कहा गया।
समुद्र मंथन द्वारा प्राप्त अमृत (सार्वभौम सत्य) प्राप्ति के लिए देव-दानवों में परस्पर बारह दिन तक निरंतर युद्ध हुआ था। इस परस्पर मारकाट के दौरान पृथ्वी के चार स्थानों (प्रयाग, हरिद्वार, उज्जैन, नासिक) पर कलश से अमृत बूँदें गिरी थीं। देवताओं के बारह दिन मनुष्यों के बारह वर्ष के तुल्य होते हैं। अतएव कुंभ भी बारह होते हैं। उनमें से चार कुंभ पृथ्वी पर होते हैं और शेष आठ कुंभ देवलोक में होते हैं, जिन्हें देवगण ही प्राप्त कर सकते हैं, मनुष्यों की वहाँ पहुँच नहीं है। जिस समय में चंद्रादिकों ने कलश की रक्षा की थी, उस समय की वर्तमान राशियों पर रक्षा करने वाले चंद्र-सूर्यादिक ग्रह जब आते हैं, उस समय कुंभ का योग होता है अर्थात जिस वर्ष, जिस राशि पर सूर्य, चंद्रमा और बृहस्पति का संयोग होता है, उसी वर्ष, उसी राशि के योग में, जहाँ-जहाँ अमृत बूँद गिरी थी, वहाँ-वहाँ कुंभ पर्व होता है। कुंभ पर्व के आयोजन को लेकर दो-तीन पौराणिक कथाएँ प्रचलित हैं जिनमें से सर्वाधिक मान्य कथा देव-दानवों द्वारा समुद्र मंथन से प्राप्त अमृत (सार्वभौम सत्य) कुंभ से अमृत (सार्वभौम सत्य) बूँदें गिरने को लेकर है।
शिव निराकार हैं तो शंकर साकार रूप में प्रक्षेपित हैं। शिव अर्थात सम्पूर्ण जगत का मूल कारण जो सर्वत्र विद्यमान है। फलस्वरूप शिव का साकार पूर्ण अवतरण रूप सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में व्याप्त सार्वभौम सत्य-सिद्धान्त ज्ञान से युक्त होकर जगत के अधिकतम चरित्रों को आत्मसात् करने वाला और उससे मुक्त होता है। शिव-शंकर की दृष्टि में जगत का प्रत्येक वस्तु उपयोगी ही है, न की अनुपयोगी। अर्थात अनुपयोगी लगने वाले विषय, वस्तु, विचार इत्यादि को भी उपयोगी बना लेना महादेव शिव-शंकर का दिव्य गुण है। शिव-शंकर की पूजा हम मूर्ति, चित्र, या प्रतीक शिवलिंग के माध्यम से करते। शिव-शंकर की संस्कृति तो मात्र कल्याण की प्राथमिकता वाली संस्कृति है। शिव-शंकर के पूर्णावतार का अर्थ है- निम्नतम नकारात्मक से सर्वोच्च और अन्तिम सकारात्मक गुणों का महासंगम। शिव-शंकर के अन्य गुणों में निःसंग रहना, एकान्तवास करना, सम्पूर्ण विश्व-ब्रह्माण्ड पर ध्यान रखना तथा विश्व के कल्याण के लिए प्रेरणा देना है। साथ ही अपनी मस्ती में मस्त इस भाॅति मस्त रहना भी है जैसे न ही कोई चिन्ता है और नही कोई कार्य करना है। जबकि वह विश्व कल्याण के लिए अपने कत्र्तव्य पर ध्यान भी लगाये रहते हैं।
शिव-शकंर अवतार के आठ रूप और उनके अर्थ निम्नवत हैं-
1.शर्व-सम्पूर्ण पृथ्वी को धारण कर लेना अर्थात पृथ्वी के विकास या सृष्टि कार्य में इस रूप को पार कियें बिना सम्भव न होना।
2.भव-जगत को संजीवन देना अर्थात उस विषय को देना जिससे जगत संकुचित व मृत्यु को प्राप्त होने न पाये।
3.उग्र-जगत के भीतर और बाहर रहकर श्री विष्णु को धारण करना अर्थात जगत के पालन के लिए प्रत्यक्ष या प्रेरक कर्म करना। 
4.भीम-सर्वव्यापक आकाशात्मक रूप अर्थात आकाश की भाॅति सर्वव्यापी अनन्त ज्ञान जो सभी नेतृत्व विचारों को अपने में समाहित कर ले।
5.पशुपति-मनुष्य समाज से पशु प्रवृत्तियों को समाप्त करना अर्थात पशु मानव से मनुष्य को उठाकर ईश्वर मानव की ओर ले जाना। दूसरे रूप में जीव का शिव रूप में निर्माण।
6.ईशान-सूर्य रूप से दिन में सम्पूर्ण संसार में प्रकाश करना अर्थात ऐसा ज्ञान जो सम्पूर्ण संसार को पूर्ण ज्ञान से प्रकाशित कर दे।
7.महादेव-चन्द्र रूप से रात में सम्पूर्ण संसार में अमृत वर्षा द्वारा प्रकाष व तृप्ति देना अर्थात ऐसा ज्ञान जो संसार को अमृतरूपी शीतल ज्ञान से प्रकाशित कर दे।
8.रूद्र-जीवात्मा का रूप अर्थात शिव का जीव रूप में व्यक्त होना।
शिव-शंकर देवता व दानव दोनों के देवता हैं जबकि श्री विष्णु सिर्फ देवताओं के देवता हैं। अर्थात शिव-शंकर जब रूद्र रूप की प्राथमिकता में होगें तब उनके लिए देवता व दानव दोनो प्रिय होगें लेकिन जब उग्र रूप की प्राथमिकता में होगें तब केवल देवता प्रिय होगें। अर्थात शिव-शंकर का पूर्णवतार इन आठ रूपों से युक्त हो संसार का कल्याण करेंगें।
निराकार विचार के समान सार्वभौम सत्य-सिद्धान्त का भी अपना कोई गुण नहीं होता। जब वह पूर्णरूपेण किसी साकार शरीर से व्यक्त होता है तब उसका गुण एकात्म ज्ञान, एकात्म वाणी, एकात्म प्रेम, एकात्म कर्म, एकात्म समर्पण और एकात्म ध्यान के सर्वोच्च संयुक्त रूप में व्यक्त होता है। चूँकि पुनः इन गुणों का अलग-अलग कोई रूप नहीं होता इसलिए इन गुणों से युक्त करते हुये समाज के परिवर्तक और नियंत्रक ऋृषि-मुनि गणों ने मानक चरित्रों का साकार निरूपण या प्रक्षेपण किये। जैसे एकात्म ज्ञान व एकात्म वाणी से युक्त ब्रह्मा परिवार, एकात्म ज्ञान-एकात्म वाणी सहित एकात्म प्रेम व एकात्म कर्म से युक्त विष्णु परिवार, एकात्म ज्ञान-एकात्म वाणी-एकात्म प्रेम-एकात्म कर्म सहित एकात्म समर्पण व एकात्म ध्यान से युक्त शिव-शंकर परिवार। क्रमशः ये आदर्श मानक व्यक्ति चरित्र, आदर्श मानक सामाजिक व्यक्ति चरित्र व आदर्श मानक वैश्विक व्यक्ति चरित्र के रूप में प्रस्तुत किये गये।
जीव जगत के कल्याण में जल और नदी की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। कल्याण व एकात्म ध्यान (शिव) की एक धारा (गंगा) हिमालय से निकलकर सागर में मिलकर गंगासागर हो जाती है। वहीं हिमालय से दूसरी धारा (यमुना) प्रतिष्ठानपुरी (वर्तमान में झूंसी-प्रयाग, इलाहाबाद, भारत) में गंगा में मिल जाती है। गंगा जहाँ शिव से जुड़ी हैं वहीं यमुना विष्णु (एकात्म कर्म) के आठवें अवतार श्री कृष्ण से जुड़ी हुयी है। अर्थात शिव के प्रवाह का प्रतीक गंगा प्रयाग से आगे, शक्तिपीठ माँ विन्ध्यवासिनी, पाँचवें वामन अवतार के क्षेत्र चरणाद्रिगढ़ (चुनार), सत्यकाशी और काशी होते हुये सागर तक जाती है तो विष्णु के प्रवाह का प्रतीक यमुना की यात्रा और लक्ष्य प्रयाग तक ही है।
प्रयाग (इलाहाबाद, उ0प्र0) में ही अमृत (सार्वभौम सत्य) कुम्भ से अमृत की बूँदे गिरीं, यहीं यमुना का लक्ष्य गंगा में मिलना है परन्तु कहा जाता है कि गंगा और यमुना के अलावा सरस्वती का भी संगम यहीं है इसलिए संगम का नाम त्रिवेणी भी है। विचार करने योग्य है शिव (एकात्म ध्यान) के प्रतीक गंगा, विष्णु (एकात्म कर्म) के प्रतीक यमुना और विचार मंथन से निकाला अमृत (सार्वभौम सत्य) जब सब यही है तो ब्रह्मा (एकात्म ज्ञान) के प्रतीक सरस्वती (एकात्म वाणी) भी यहीं से ही व्यक्त हो सकता है और उसे ही व्यक्त कर आत्मीय स्वीकारोक्ति के साथ बिना बाधा के लगातार हृदय से निकली वाणी द्वारा मनुष्य को उससे जोड़कर उसके स्व रूप का परिचय कराना ही ईश्वरीय कार्य है।

विश्व-विश्वबन्धुत्व और वसुधैव कुटुम्बकम्
आर्य 
आर्य धर्म, प्राचीन आर्यो का धर्म और श्रेष्ठ धर्म दोनों समझे जाते हैं। प्राचीन आर्यों के धर्म में प्रथमतः प्राकृतिक देवमण्डल की कल्पना है जो भारत, ईरान, यूनान, रोम, जर्मनी आदि सभी देशों में पाई जाती है। इसमें आकाश और पृथ्वी के बीच में अनेक देवताओं की सृष्टि हुई है। भारतीय आर्यो का मूल धर्म ऋग्वेद में अभिव्यक्त है। ईरानीयों का अवेस्ता में, यूनानीयों का उलिसीज और ईलियाद में। देवमण्डल के साथ आर्यो में कर्मकाण्ड का विकास हुआ जिसमें मंत्र, यज्ञ, श्राद्ध, अतिथि सत्कार आदि मुख्यतः सम्मिलित थे। आर्य आध्यात्मिक दर्शन (ब्रह्म, आत्मा, विश्व, मोक्ष आदि) और आर्य नीति का विकास भी समानान्तर हुआ। शुद्ध नैतिक आधार पर अवलंबित परम्परा विरोधी सम्प्रदायों- बौद्ध, जैन आदि ने भी अपने धर्म को आर्य धर्म अथवा सद्धर्म कहा। सामाजिक अर्थ में ”आर्य“ का प्रयोग पहले ”सम्पूर्ण मानव“ के अर्थ में होता था। कभी-कभी इसका प्रयोग सामान्य जनता के लिए भी होता था। फिर अभिजात और श्रमिक वर्ग में अन्तर दिखाने के लिए आर्य वर्ण और शूद्र वर्ण का प्रयोग होने लगा। फिर आर्यो ने अपनी सामाजिक व्यवस्था का आधार वर्ण को बनाया और समाज चार वर्णो में वृत्ति और श्रम के आधार पर विभक्त हुआ। ऋक्संहिता में चारों वर्णो की उत्पत्ति और कार्य का उल्लेख इस प्रकार है-ब्राह्मणोस्य मुखमासीद् बाहू राजन्यः कृतः। ऊरू तदस्य यद्वैश्यः पदभ्यां शूद्रोजायत।। (10.90.22) अर्थात इस विराट पुरूष के मुँह से ब्राह्मण, बाहु से क्षत्रिय, ऊरू से वैश्य और पद से शूद्र उत्पन्न हुआ।
आजकल की भाषा में ये वर्ग बौद्धिक, प्रशासकीय, व्यावसायिक तथा श्रमिक थे। मूल में इनमें तरलता थी। एक ही परिवार में कई वर्ण के लोग रहते और परस्पर विवाहादि सम्बन्ध और भोजन-पान आदि होते थे। क्रमशः ये वर्ग परस्पर वर्जनशील होते गये। ये सामाजिक विभाजन आर्य परिवार की प्रायः सभी शाखाओं में पाए जाते हैं। यद्यपि इनके नामों और सामाजिक स्थिति में देशगत भेद मिलते हैं। प्रारम्भिक आर्य परिवार पितृसत्तात्मक था, यद्यपि आदित्य, अदिति से उत्पन्न। दैत्य, दिति से उत्पन्न आदि शब्दों में मातृसत्तात्मक ध्वनि वर्तमान है। दम्पति की कल्पना में पति-पत्नी का गृहस्थी के ऊपर समान अधिकार था। परिवार में पुत्रजन्म की कामना की जाती थी। दायित्व के कारण कन्या का जन्म परिवार को गम्भीर बना देता था, किन्तु उसकी उपेक्षा नहीं की जाती थीं। घोषा, लोपामुद्रा, अपाला, विश्वारा आदि स्त्रियां मंत्रद्रष्टा ऋषिपद को प्राप्त हुईं थी। विवाह प्रायः युवावस्था में होता था। पति-पत्नी को परस्पर निर्वाचन का अधिकार था। विवाह धार्मिक कृत्यों के साथ सम्पन्न होता था जो परिवर्ती ब्राह्म विवाह से मिलता जुलता था।
प्रारम्भिक आर्य संस्कृति में विद्या, साहित्य ओर कला का ऊँचा स्थान है। भारोपीय भाषा, ज्ञान के सशक्त माध्यम के रूप में विकसित हुई। इसमें काव्य, धर्म, दर्शन आदि विभिन्न शास्त्रों का उदय हुआ। आर्यो का प्राचीनतम साहित्य वेद भाषा, काव्य और चिन्तन सभी दृष्टियों से महत्वपूर्ण है। ऋग्वेद में ब्रह्मचर्य और शिक्षण पद्धति के उल्लेख पाये जाते हैं जिससे पता लगता है कि शिक्षण व्यवस्था का संगठन आरम्भ हो गया था और मानव अभिव्यक्तियों ने शास्त्रीय रूप धारण करना शुरू कर दिया था। ऋग्वेद में कवि को ऋषि अर्थात मन्त्र दृष्टा माना गया है। वह अपनी अंतःदृष्टि से सम्पूर्ण विश्व का दर्शन करता था। उषा, सवितृ, अरण्यानी आदि के सूक्तों में प्रकृति निरीक्षण और मानव की सौन्दर्य प्रियता तथा रसानुभूति का सुन्दर चित्रण है। ऋग्वेदसंहिता में पुर और ग्राम आदि के उल्लेख भी पाए जाते हैं। लोहे के नगर, पत्थर की सैकड़ों पुरियाँ, सहस्रद्वार तथा सहस्रस्तंभ अट्टालिकाएं निर्मित होती थी। साथ ही सामान्य गृह और कुटी भी बनते थे। भवन निर्माण में इष्टका (ईंट) का उपयोग होता था। यातायात के लिए पथों को निर्माण और यान के रूप में कई प्रकार के रथों का उपयोग किया जाता था। गीत, नृत्य और वादित्र का संगीत के रूप में प्रयोग होता था। बाण, क्षोणी, कर्करि, प्रभृति वाद्यों के नाम पाए जाते हैं। पुत्रिका (पुत्तलिका, पुतली) के नृत्य का भी उल्लेख मिलता है। अलंकरण की प्रथा विकसित थी। स्त्रियां निष्क, अज्जि, बासी, वक्, रूक्म आदि गहने पहनती थीं। विविध प्रकार के मनोविनोद में काव्य, संगीत, द्युत, घुड़दौड़, रथदौड़ आदि सम्मिलित थे।
नैतिक अर्थ में ”आर्य“ का प्रयोग महाकुल, कुलीन, सभ्य, सज्जन, साधु आदि के लिए पाया जाता है। सायणाचार्य ने अपने ऋग्भाष्य में आर्य का अर्थ विज्ञ, यज्ञ का अनुष्ठाता, विज्ञ स्तोता, विद्वान, आदरणीय अथवा सर्वत्र गंतव्य, उत्तम वर्ण, मनु, कर्मयुक्त और कर्मानुष्ठान से श्रेष्ठ आदि किया है। आदरणीय के अर्थ में तो संस्कृत साहित्य में आर्य का प्रयोग बहुत हुआ है। पत्नी, पति को आर्यपुत्र कहती थी। पितामह को आर्य (हिन्दी में आजा) और पितामही को आर्या (हिन्दी में आजी, ऐया, अइया) कहने की प्रथा रही है। नैतिक रूप से प्रकृत आचरण करने वाले को आर्य कहा गया है। प्रारम्भ में आर्य का प्रयोग प्रजाति अथवा वर्ण के अर्थ में भले ही होता रहा हो, आगे चलकर भारतीय इतिहास में इसका नैतिक अर्थ ही अधिक प्रचलित हुआ जिसके अनुसार किसी भी वर्ण अथवा जाति का व्यक्ति अपनी श्रेष्ठता अथवा सज्जनता के कारण आर्य कहा जाने लगा।
आर्य, भारतीयों विशेषकर उत्तर भारतीयों के वैदिक कालीन पूर्वजों को कहा जाता है। आर्य प्रजाति की आदिभूमि के सम्बन्ध में अभी तक विद्वानों में बहुत मतभेद है। भाषावैज्ञानिक अध्ययन के प्रारम्भ में प्रायः भाषा और प्रजाति को अभिन्न मानकर एकोद्भव (मानोजेनिक) सिद्धान्त का प्रतिपादन किये। माना गया है कि भारोपीय भाषाओं को बोलने वाले के पूर्वज कहीं एक ही स्थान में रहते थे और वहीं से विभिन्न देशों में गये। भाषावैज्ञानिक साक्ष्यों की अपूर्णता और अनिश्चितता के कारण यह आदिभूमि कभी एशिया, कभी पामीर-कश्मीर, कभी आस्ट्रिया-हंगरी, कभी जर्मनी, कभी स्वीडन-नार्वे और आज दक्षिण रूस के घास के मैदानों में ढूँढ़ी जाती है। आज आर्यो की विविध शाखाओं के बहुद्भव (पाॅलिजेनिक) होने का सिद्धान्त भी प्रचलित होता जा रहा है जिसके अनुसार यह आवश्यक नहीं कि आर्य-भाषा-परिवार की सभी जातियाँ एक ही मानववंश की रही हों। भाषा का ग्रहण तो समपर्क और प्रभाव से भी होता आया है। कई जातियों ने तो अपनी मूल भाषा छोड़कर विजातीय भाषा को पूर्णतः अपना लिया है। जहाँ तक भारतीय आर्यो के उद्गम का प्रश्न है, भारतीय साहित्य में उनके बाहर से आने के सम्बन्ध में एक भी उल्लेख नहीं है। कुछ लोगों ने परमपरा और अनुश्रुति के अनुसार मध्यदेश तथा कंजगल और हिमालय तथा विन्ध्य के बीच का प्रदेश अथवा आर्यावर्त (उत्तर भारत) ही आर्यो की आदिभूमि माना है। पौराणिक परम्परा से विच्छिन्न केवल ऋग्वेद के आधार पर कुछ विद्वानों ने सप्तसिंधु (सीमांत एवं पंजाब) को आर्यो की आदिभूमि माना है। लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक ने ऋग्वेद में वर्णित दीर्घ अहोरात्र, प्रलंबित उषा आदि के आधार पर आर्यो की मूलभूमि को ध्रुव प्रदेश में माना था। बहुत से यूरोपीय विद्वान और उनके अनुयायी भारतीय विद्वान, अब भी भारतीय आर्यो को बाहर से आया हुआ मानते हैं।
अब आर्यो के भारत के बाहर से आने का सिद्धान्त गलत सिद्ध कर दिया गया है। ऐसा माना जाता है कि इस सिद्धान्त का प्रतिपादन करके अंग्रेज और यूरोपीय लोग भारतीयों में यह भावना भरना चाहते थे कि भारतीय लोग पहले से गुलाम हैं। इसके अतिरिक्त अंग्रेज इसके द्वारा उत्तर भारतीय आर्यो तथा दक्षिण भारतीय द्रविड़ों में फूट डालना चाहते थे।

विज्ञान ने भी आर्य द्रविड़ के भेद को नकारा
नई दिल्ली 8 दिसंबर 2009। सदियों से भारतीय इतिहास पर छायी आर्य आक्रमण संबंधी झूठ की चादर को विज्ञान की खोज ने एक झटके में ही तार-तार कर दिया है। विज्ञान की आँखो ने जो देखा है उसके अनुसार तो सच यह है कि आर्य आक्रमण नाम की चीज न तो भारतीय इतिहास के किसी कालखण्ड में घटित हुई और न ही आर्य तथा द्रविड़ नामक दो पृथक मानव नस्लों का अस्तित्व ही कभी धरती पर रहा है। इतिहास और विज्ञान के मेल के आधार पर हुआ यह क्रांतिकारी जैव-रासायनिक डीएनए गुणसुत्र आधारित अनुसांधान फिनलैण्ड के तारतू विश्वविद्यालय, एस्टोनिया मंे हाल ही में सम्पन्न हुआ है। कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय के प्रोफेसर डा0 कीवीसील्ड के निर्देशन में एस्टोनिया स्थित एस्टोनियन बायोसंेटर, तारतू विश्वविद्यालय के शोध छात्र ज्ञानेश्वर चैबे ने अपने अनुसंधान में यह सिद्ध किया है कि सारे भारतवासी जीन अर्थात गुणसूत्रों के आधार पर एक ही पूर्वजो की संताने हैं, आर्य और द्रविड़ का कोई भेद गुणसूत्रों के आधार पर नहीं मिलता है, और तो जो अनुवंाशिक गुणसूत्र भारतवासियांे मंे पाए जाते है। वे डीएनए गुणसूत्र दुनिया के किसी अन्य देश में नहीं पाए गए। शोधकार्य मंे अखण्ड भारत अर्थात वर्तमान भारत, पाकिस्तान, बंगलादेश, श्रीलंका और नेपाल की जनसंख्या मंे विद्यमान लगभग सभी जातियांे, उपजातियांे, जनजातियांे, मंे लगभग 13000 नमूनांे के परीक्षण परिणामांे का इस्तेमाल किया गया। इनके नमूनांे के परीक्षण से प्राप्त परिणाम की तुलना मध्य एशिया यूरोप और जापान आदि देशांे मंे रहने वाली मानव नस्लों के गुणसूत्र से की गई। इस तुलना में पाया गया कि सभी भारतीय चाहे वह किसी भी धर्म के मानने वाले है, 99 प्रतिशत समान पूर्वजांे की संताने हंै। भारतीयांे के पूर्वजांे का डीएनए गुणसूत्र यूरोप, मध्य एशिया और चीन-जापान आदि देशांे की नस्लों से बिलकुल अलग है। और इस अन्तर को स्पष्ट पहचाना जा सकता है। 

जेनेटिक हिस्ट्री आफ साउथ एशिया 
ज्ञानेश्वर चैबे को जिस बिन्दु पर शोध के लिए पीएच0 डी0 उपाधि स्वीकृत की गई है। उसका शीर्षक है- ”डेमोग्राफिक हिस्ट्री आॅफ फ्राम साउथ एशिया: द प्रिवेलिंग जेनेटिक कांटिनिटी फ्राॅम प्रीहिस्टोरिक टाइम्स“ अर्थात ”दक्षिण एशिया का जनसांख्यिक इतिहास: पूर्वऐतिहासिक काल से लेकर अब तक की अनुवांशिकी निरंतरता।“ संपूर्ण शोध की उपकल्पना ज्ञानेश्वर के मन में उस समय जागी जब वह हैदराबाद स्थित ”संेटर फार सेल्यूलर एंड मोलेक्यूलर बायोलॅाजी अर्थात सीसीएमबी“ मंे अंतर्राष्ट्रीय स्तर के ख्यातलब्ध भारतीय जैव वैज्ञानिक डाॅ0 लालजी सिंह और डाॅ0 के0 थंगराज के अन्तरगत परास्नातक बाद की एक शोधपरियोजना मंे जुटे थे। ज्ञानेश्वर के मन में विचार आया कि जब डीएनए जांच के द्वारा किसी बच्चे के माता पिता के बारे मंे सच्चाई का पता लगाया जा सकता है। तो फिर भारतीय सभ्यता के पूर्वज कौन थे, इसका भी ठीक-ठीक पता लगाया जा सकता है। बस फिर क्या था, उनके मन में इस शोधकार्य को कर डालने की जिद पैदा हो गई। ज्ञानेश्वर बताते हंै- बचपन से मेरे मन में यह सवाल उठता रहा है कि हमारे पूर्वज कौन थे? बचपन में जो पाठ पढ़े, उससे तो भ्रम की स्थिति पैदा हो गई थी कि क्या हम आक्रमणकारियांे की संतान है? दूसरे एक मानवोचित उत्सुकता भी रही। आखिर प्रत्येक व्यक्ति के जीवन में कभी न कभी तो यह जानने की उत्सुकता पैदा होती ही है कि उसके परदादा-परदादी कौन थे, कहाँ से आए थे, उनका मूलस्थान कहाँ है और इतिहास के बीते हजारो वर्षाे मंे उनके पुरखों ने प्रकति की मार कैसे सही, कैसे उनका अस्तित्व अब तक बना रहा है? ज्ञानेश्वर के अनुसार, पिछले एक दशक में मानव जेनेटिक्स और जीनोमिक्स के अध्ययन में जो प्रगति हुई है। उससे यह संभव हो गया है कि हम इस बात का पता लगा लें कि मानव जाति में किसी विशेष नस्ल का उद्भव कहाँ हुआ, वह उद्विकास प्रक्रिया मंे दुनिया के किन-किन स्थानों से गुजरी, कहाँ-कहाँ रही और उनके मूल पुरखे कौन रहे है? उनके अनुसार, माता-पिता दोनांे के डीएनए में ही उनके पुरखों का इतिहास भी समाया हुआ रहता है। हम जितनी गहराई से उनके डीएनए संरचना का अध्ययन करेंगे, हम यह पता कर लेंगे कि उनके मूल जनक कौन थे? और तो और इसके द्वारा पचासों हजार साल पुराना अपने पुरखों का इतिहास भी खोजा जा सकता है। 

कैब्रिज के डाॅ0 कीवीसील्ड ने किया शोध निर्देशन 
हैदराबाद की प्रयोगशाला में शोध करते समय उनका संपर्क दुनिया के महान जैव वैज्ञानिक प्रोफेसर कीवीसील्ड के साथ आया। प्रो0 कीवीसील्ड संसार में मानव नस्लो की वैज्ञानिक ऐतिहासिकता और उनकी बसावट पर कार्य करने वाले उच्चकोटि के वैज्ञानिक माने जाते हैं। इस नई सदी के प्रारंभ मंे ही प्रोफेसर कीवीसील्ड ने अपने अध्ययन में पाया था कि दक्षिण एशिया की जनसंाख्यिक संरचना अपने जातिय एवं जनजातिय स्वरूप मंे न केवल विशिष्ट है वरन् वह शेष दुनिया से स्पष्टतः भिन्न है। संप्रति प्रोफेसर डाॅ0 कीवीसील्ड कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय के बायोसंेटर का निर्देशन कर रहे हंै। प्रोफेसर डाॅ0 कीवीसील्ड की प्रेरणा से ज्ञानेश्वर चैबे ने एस्टोनियन बायोसेंटर में सन् 2005 में अपना शोधकार्य प्रारंभ किया और देखते ही देखते जीवविज्ञान संबंधी अंतर्राष्ट्रीय स्तर के शोध जर्नल्स मंे उनके दर्जनों से ज्यादा शोध पत्र प्रकाशित हो गए। इसमें से अनेेक शोध पत्र जहाँ उन्हांेने अपने गुरूदेव प्रोफेसर कीवीसील्ड के साथ लिखे वहीं कई अन्य शोधपत्र अपने उन साथी वैज्ञानिकों के साथ संयुक्त रूप से लिखे जो इसी विषय से मिलते जुलते अन्य मुद्दों पर काम कर रहे हैं। अपने अनुसंधान के द्वारा ज्ञानेश्वर ने इसके पूर्व हुए उन शोधकार्यो को भी गलत सिद्ध किया है। जिनमें यह कहा गया है कि आर्य और द्रविड़ दो भिन्न मानव नस्लंे हंै और आर्य दक्षिण एशिया अर्थात भारत मंे कहीं बाहर से आए। उनके अनुसार पूर्व के शोधकार्यो मंे एक तो बहुत ही सीमित मात्रा में नमूनें लिए गए थे, दूसरे उन नमूनांे की कोशिकीय संरचना और जीनोम इतिहास का अध्ययन ”लो रीजोलूशन“ अर्थात न्यून आवर्धन पर किया गया इसके विपरीत हमने अपने अध्ययन में व्यापक मात्रा में नमूनों का प्रयोग किया और ”हाई रीजोलूशन“ अर्थात उच्च आवर्धन पर उन नमूनों पर प्रयोगशाला मंे परीक्षण किया तो हमंे भिन्न परिणाम प्राप्त हुए। 

माइटोकांड्रियल डीएनए में छुपा है पुरखांे का इतिहास 
ज्ञानेश्वर द्वारा किए शोध में माइटोकांड्रियल डीएनए और वाई क्रोमोसोम्स और उनसे जुडे हेप्लोग्रुप के गहन अध्ययन द्वारा सारे निष्कर्ष प्राप्त किए गए हैं। उल्लेखनीय है कि माइटोकांड्रिया मानव की प्रत्येक कोशिका में पाया जाता है। जीन अर्थात मानव गुणसूत्र के निर्माण मंे भी इसकी प्रमुख भूमिका रहती है। प्रत्येक मानव जीन अर्थात गुणसूत्र के दो हिस्से रहते हैं। पहला न्यूक्लियर जीनोम और दूसरा माइटोकांड्रियल जीनोम। माइटोकांड्रियल जीनोम गुणसूत्र का वह तत्व है जो किसी कालखण्ड में किसी मानव नस्ल में होने वाले उत्परिवर्तन को अगली पीढ़ी तक पहँुचाता है और वह इस उत्परिवर्तन को आने वाली पीढ़ियांे में सुरक्षित भी रखता है। इसे इस प्रकार भी समझा जा सकता है कि माइटोकांड्रियल डीएनए वह तत्व है जो एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक माता के पक्ष की सूचनाएँ अपने साथ हूबहू स्थानांतरित करता है। यहाँ यह समझाना जरूरी है कि किसी भी व्यक्ति की प्रत्येक कोशिका मंे उसकी माता और उनसे जुड़ी पूर्व की हजारों पीढ़ियांे के माइटोकांड्रियल डीएनए सुरक्षित रहते है। इसी प्रकार वाई क्रोमोसोम्स पिता से जुड़ी सूचना को एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को स्थानांतरित करते है। वाई क्रोमोसोम्स प्रत्येक कोशिका के केंद्र मंे रहता है और किसी भी व्यक्ति में उसके पूर्व के सभी पुरूष पूर्वजों के वाई क्रोमोसोम्स सुरक्षित रहते हंै। इतिहास के किसी मोड़ पर किसी व्यक्ति की नस्ल में कब और किस पीढ़ी मंे उत्परिवर्तन हुआ, इस बात का पता प्रत्येक व्यक्ति की कोशिका मंे स्थित वाई क्रोमोसोम्स और माइटोकांड्रियल डीएनए के अध्ययन से आसानी से लगाया जा सकता है। यह बात किसी समूह और समुदाय के संदर्भ मंे भी लागू होती है। 

एक वंशवृक्ष से जुड़े है सभी भारतीय 
ज्ञानेश्वर ने अपने अनुसंधान को दक्षिण एशिया में रहने वाले विभिन्न धर्माे जातियांे की जनसांख्यिकी संरचना पर कंेद्रित किया। शोध मंे पाया गया है कि तमिलनाडु की सभी जातियों-जनजातियों, केरल, कर्नाटक, आंध्रप्रदेश जिन्हें पूर्व मंे कथित द्रविड़ नस्ल से प्रभावित माना गया है, की समस्त जातियों के डीएनए गुणसूत्र, तथा उत्तर भारतीय जातियों जनजातियों के डीएनए का उत्पत्ति आधार गुणसूत्र एक समान है। उत्तर भारत मंे पाये जाने वाले कोल, कंजर, दुसाध, धरकार, चमार, थारू, क्षत्रिय और ब्राह्मणांे के डीएनए का मूल स्रोत दक्षिण भारत मंे पाई जाने वाली जातियो के मूल स्रोत से कहीं से भी अलग नहीं है इसी के साथ जो गुणसूत्र उपरोक्त जातियांे में पाए गए हैं। वही गुणसूत्र मकरानी, सिंधी, बलोच, पठान, ब्राहई, बुरूशो और हजारा आदि पाकिस्तान मंे पाये जाने वाले समूहों के साथ पूरी तरह से मेल खाते है।


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