Tuesday, March 17, 2020

मोक्षदायिनी काशी : वाराणसी

मोक्षदायिनी काशी : प्रतीक चिन्ह व अर्थ 
मोक्षदायिनी काशी : पंचम, प्रथम एवं सप्तम काशी
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काशी विश्वनाथ मन्दिर
काशी नरेश और रामनगर
रामलीला और रामनगर
मोक्षदायिनी काशी (वाराणसी) - घटना क्रम की दृष्टि में
मोक्षदायिनी काशी (वाराणसी) में श्री कृष्ण
मोक्षदायिनी काशी (वाराणसी) में भगवान बुद्ध
मोक्षदायिनी काशी (वाराणसी) में स्वामी विवेकानन्द
मोक्षदायिनी काशी (वाराणसी) में श्री लव कुश सिंह ”विश्वमानव“
मोक्षदायिनी काशी चैरासी (84) कोस यात्रा 
सोनभद्र 
सोन परिपथ
सोन संस्कृति
शिवद्वार
विन्ध्य पर्वत, क्षेत्र और धाम
छानबे क्षेत्र
विन्ध्यक्षेत्र से तय होता है भारत का मानक समय
मोक्षदायिनी काशी

मोक्षदायिनी काशी: प्रतीक चिन्ह व अर्थ 

समस्त विश्व को अणु रूप में धारण करने वाले देवता को विष्णु कहते हैं और समस्त विश्व को तन्त्र रूप में धारण करने वाले देवता को शिव कहते हैं। विष्णु, सार्वभौम आत्मा सत्य के प्रतीक हैं तो शिव, सार्वभौम आत्मा सिंद्धान्त के प्रतीक हैं। आत्मा, व्यक्तिगत प्रमाणित अदृश्य है तो सिद्धान्त सार्वजनिक प्रमाणित दृश्य है अर्थात विष्णु के ही दृश्य रूप शिव हैं। काशी का प्रतीक विश्वेश्वर शिवलिंग है।

मोक्षदायिनी काशी: पंचम, प्रथम एवं सप्तम काशी 

मोक्षदायिनी  काशी : वाराणसी
   
काशी, काश धातु से निष्पन्न है। काश का अर्थ है- ज्योतित होना या ज्योतित करना अर्थात जहाँ से ब्रह्म प्रकाशित हो। जिस स्थान या नगर से ज्ञान का प्रकाश चारों ओर फैलता है उसे काशी पुरी या काशी नगर कहते हैं। इस प्रकार ब्रह्म प्रकाशित करने वाला प्रत्येक नगर ही काशी है जिसमें से एक वाराणसी नगर है।

प्राचीन वाराणसी
वाराणसी का वास्तविक इतिहास शायद इतिहास के पन्नों से भी पुराना है। कहा जाता है कि वाराणसी विश्व के प्राचीन नगरों में से एक है। पुराणों के अनुसार मनु से 11वीं पीढ़ी के राजा काश के नाम पर काशी बसी। वहीं, वाराणसी नाम पड़ने के बारे में अथर्ववेद में वाराणसी को वरणावती नदी से सम्बन्धित कहा गया है। वरणा से ही वाराणसी शब्द बना है। कुछ वरुणा व अस्सी नदी के बीच बसने की वजह से दोनों नदियों के नाम पर इसे वाराणसी शब्द समझते हैं। काशी के पांच नाम प्रचलित रहे हैं। काशी, वाराणसी, अविमुक्त, आनंद-कानन और श्मशान या महाश्मशान। पुराणों और अन्य ग्रन्थों में इन नामों का उल्लेख है।
प्रागैतिहासिक काल के वाराणसी के आस-पास कुछ जगहों पर प्रस्तर युग में प्रयोग किये जाने वाले औजार मिले हैं। जिससे पता चलता है कि वाराणसी व आस-पास प्रस्तर युगीन लोग भी रहते थे। आर्यों के आने के पहले वाराणसी व इसके आस-पास आदिवासियों का निवास रहा है। महाभारत (वनपर्व) में ही पहली बार वाराणसी का एक तीर्थ के रूप में उल्लेख हुआ। ईसा की तीसरी सदी से आगे वाराणसी का धार्मिक महत्व तेजी से बढ़ता गया। काशी को शिवपुरी कहा गया। पुराणों में काशी के कई राजाओं का उल्लेख है। धन्वंतरि के पौत्र दिवोदास हुए। दिवोदास के बाद वाराणसी का कई बार विध्वंस हुआ और इसे कई बार बसाया गया। अलर्क ने वाराणसी को पुनः बसाया। अलर्क दिवोदास का पौत्र था। जैन धर्म के 23वें तीर्थकर पार्श्वनाथ का जन्म यहीं हुआ था। खुदाई में मिले पुरावशेषों से पता चलता है कि ईसा पूर्व आठवीं सदी में ऊंचे स्थान पर वसाहत की शुरूआत हुई थी। राजघाट में उसी काल का मिट्टी का एक तटबंध भी मिला है जो गंगा की बाढ़ से बस्ती को बचाने के लिए बनाया गया था। काशी धार्मिक सांस्कृतिक और कला का केन्द्र रही है। धर्म के मामले में काशी हिन्दुओं की राजधानी रही है।
इस प्राचीनतम् नगरी के प्रति हिन्दुओं में आस्था कूट-कूट कर भरी है। संस्कृत के एक श्लोक में कहा गया है कि काशी सारे दुःखों को समाप्त करने वाली मोक्षदायिनी नगरी है। नैषधचरित के रचनाकार श्री हर्ष ने इस प्रकार लिखा है-
वाराणसी निविशते न वसुन्धरायां तत्र स्थितिर्मखभुआं भवने निवासः।
तत्तीर्यमुक्तवपुषामत एव मुक्तिः स्वर्गात् परं पदमुपदेतु मुदेतुकीदृक।।
अर्थात, काशी समग्र भारत प्रतिरूप के रूप में मौजूद है। यह समस्त दुःखों को समाप्त करने वाली मोक्षनगरी है। यह इस भूमण्डल से बाहर है। यह पृथ्वी पर नहीं है। काशी अलग-अलग कालों में समय के साथ और विकसित होती गयी।
काशी संसार की सबसे पुरानी नगरी है। विश्व के सर्वाधिक प्राचीन ग्रन्थ ऋृग्वेद में काशी का उल्लेख मिलता है। पुराणों के अनुसार यह आद्य वैष्णव स्थान है। पहले यह भगवान विष्णु (माधव) की पुरी थी। जहाँ श्रीहरि के आनंदाश्रु गिरे थे, वहाँ बिन्दुसरोवर बन गया और प्रभु यहाँ बिंदुमाधव के नाम से प्रतिष्ठित हुए। ऐसी एक कथा है कि जब भगवान शंकर ने क्रुद्ध होकर ब्रह्मा जी का पाँचवा सिर काट दिया, तो वह उनके करतल से चिपक गया। बारह वर्षो तक अनेक तीर्थो में भ्रमण करने पर भी वह सिर उनसे अलग नहीं हुआ। किन्तु जैसे ही उन्होंने काशी की सीमा में प्रवेश किया, ब्रह्महत्या ने उनका पीछा छोड़ दिया और वह कपाल भी अलग हो गया। जहाँ यह घटना घटी वह स्थान कपालमोचन तीर्थ कहलाया। महादेव को काशी इतनी अच्छी लगी कि उन्होंने इस पावन पुरी को विष्णु जी से अपने नित्य आवास के लिए माँग लिया। तब से काशी उनका निवास स्थान बन गई।
पौराणिक कथाओं के अनुसार, काशी नगर की स्थापना हिन्दू भगवान शिव ने लगभग 5000 वर्ष पूर्व की थी। जिस कारण यह आज एक महत्वपूर्ण तीर्थ स्थल है। ये हिन्दूओं की पवित्र सप्तपुरियों में से एक है। स्कन्दपुराण, रामायण, महाभारत एवं प्राचीनतम वेद ऋृग्वेद सहित कई हिन्दू ग्रन्थों में इस नगर का उल्लेख आता है। सामान्यतः वाराणसी शहर को लगभग 3000 वर्ष प्राचीन माना जाता है। परन्तु हिन्दू परम्पराओं के अनुसार काशी को इससे भी अत्यन्त प्राचीन माना जाता है। गौतम बुद्ध (जन्म 567 ईसापूर्व) के काल में, वाराणसी काशी राज्य की राजधानी हुआ करता था। प्रसिद्ध चीनी यात्री ह्वेनत्सांग ने नगर को धार्मिक, शैक्षणिक एवं कलात्मक गतिविधियों का केन्द्र बताया है और इसका विस्तार गंगा नदी के किनारे 5 कि.मी. तक लिखा है।
पुरू कुल के राजा दिवोदास द्वारा दूसरी वाराणसी की स्थापना का उल्लेख महाभारत और अन्य ग्रन्थों में आता है। इस नगरी के बैरांट में होने की संभावना भी है। इस बारे में पंडित कुबेरनाथ शुक्ल के अनुसार बैरांट, बाण गंगा के दक्षिण (दाएं) किनारे पर है। वाम (बाएं) पर नहीं। इस प्रकार गोमती और बैरांट के बीच गंगा की धारा बाधक हो जाती है। गंगा के रास्ते बदलने, बाण गंगा में गंगा के बहने और गंगा-गोमती संगम सैदपुर (गाजीपुर) के पास होने के बारे में शुक्ल जी ने महाभारत के हवाले से बताया कि गंगा-गोमती संगम पर मार्कण्डेय तीर्थ था, जो वर्तमान में कैथी के समीप स्थित है। अतः यह कह सकते हैं कि गंगा-गोमती संगम सैदपुर के पास था तो यह महाभारत पूर्व हो सकता है, न कि तृतीय शताब्दी ईसवी के बाद का।
                        मार्कण्डेयस्य राजेन्द्रतीर्थमासाद्य दुर्लभ।
                        गोमतीगङ्गयोश्चैव सङ्गमें लोकविश्रुते।। महाभारत
एक अन्य कथा के अनुसार पुरु कुल के महाराज सुदेव के पुत्र राजा दिवोदास ने गंगातट पर वाराणसी नगर बसाया था। एक बार भगवान शंकर ने देखा कि पार्वती जी को अपने मायके (हिमालय क्षेत्र) में रहने में संकोच होता है तो उन्होंने किसी दूसरे सिद्ध क्षेत्र में रहने का विचार बनाया। उन्हें काशी अति प्रिय लगी। वे यहाँ आ गए। भगवान शिव के सान्निध्य में रहने की इच्छा से देवता भी काशी में आकर रहने लगे। राजा दिवोदास अपनी राजधानी काशी का अधिपत्य खो जाने से बड़े दुःखी हुए। उन्होंने कठोर तपस्या करके ब्रह्माजी से वरदान माँगा- देवता देवलोक में रहें, भूलोक (पृथ्वी) मनुष्यों के लिए रहे। सृष्टिकर्ता ने एवमस्तु कह दिया। इसके फलस्वरूप भगवान शंकर और देवगणों को काशी छोड़ने पर विवश होना पड़ा। शिवजी मन्दराचल पर्वत पर चले गये परन्तु काशी से उनका मोह भंग नहीं हुआ। महादेव को उनकी प्रिय काशी में पुनः बसाने के उद्देश्य से चैसठ योगनियों, सूर्यदेव, ब्रह्माजी और नारायण ने बड़ा प्रयास किया। गणेशजी के सहयोग से अन्ततोगत्वा यह अभियान सफल हुआ। ज्ञानोपदेश पाकर राजा दिवोदास विरक्त हो गये। उन्होंने स्वयं एक शिवलिंग की स्थापना करके उसकी अर्चना की और बाद में वे दिव्य रथ पर सवार होकर शिवलोक चले गये।
गंगा तट पर बसी काशी बड़ी पुरानी नगरी है। इतने प्राचीन नगर संसार में बहुत नहीं हैं। हजारों वर्ष पूर्व कुछ नाटे कद के साँवले लोगों ने इस नगर की नींव डाली थी। तभी यहाँ कपड़े और चाँदी का व्यापार शुरू हुआ। कुछ समय उपरान्त पश्चिम से आये ऊँचे कद के गोरे लोगों ने उनकी नगरी छीन ली। ये बड़े लड़ाकू थे। उनके घरद्वार न थे, न ही अचल सम्पत्ति थी। वे अपने को आर्य यानि श्रेष्ठ व महान कहते थे। आर्यो की अपनी जातियाँ थीं। अपने कुल घराने थे। उनका अपना एक राजघराना तब काशी में भी आ जमा। काशी के पास अयोध्या में भी तभी उनका राजकुल बसा। उसे राजा इक्ष्वाकु कुल कहते थे अर्थात सूर्यवंश। काशी में चन्द्रवंश की स्थापना हुई। सैकड़ों वर्ष काशी नगर पर भरत राजकुल के चन्द्रवंशी राजा राज करते रहे। काशी तब आर्यो के पूर्वी नगरों में से थी, पूर्व में उनके राज की सीमा से परे पूर्व के देश को अपवित्र माना जाता था।
महाभारत काल में काशी भारत के समृद्ध जनपदों में से एक था। महाभारत में वर्णित एक कथा के अनुसार एक स्वयंवर में पाण्डवों और कौरवों के पितामह भीष्म ने काशी नरेश की तीन पुत्रियों अंबा, अंबिका और अंबालिका का अपहरण किया था। इस अपहरण के परिणामरूवरूप काशी और हस्तिनापुर की शत्रुता हो गई। कर्ण ने भी दुर्योधन के लिए काशी के राजकुमारी का बलपूर्वक अपहरण किया था, जिस कारण काशी नरेश महाभारत के युद्ध में पाण्डवों की तरफ से लड़े थे। कालांतर में गंगा की बाढ़ ने हस्तिनापुर को डुबो दिया, तब पाण्डवों के वंशज वर्तमान इलाहाबाद जिले में यमुना किनारे कौशाम्बी में नई राजधानी बनाकर बस गये। उनका राज्य वत्स कहलाया और काशी पर वत्स का अधिकार हो गया।
इसके बाद ब्रह्मदत्त नाम के राजकुल का काशी पर अधिकार हुआ। उस कुल में बड़े पंडित शासक हुए और ज्ञान व पंडिताई ब्राह्मणों से क्षत्रियों के पास पहुँच गई थी। इनके समकालीन पंजाब में कैकेय राजकुल में राजा अश्वपति था। तभी गंगा - यमुना के दोआब में राज करने वाले पांचालों में राजा प्रवहण जैबलि ने भी अपने ज्ञान का डंका बजाया था। इसी काल में जनकपुर, मिथिला में विदेहों के शासक जनक हुए, जिनके दरबार में याज्ञवलक्य जैसे ज्ञानी महर्षि और गार्गी जैसी पंडिता नारियाँ शास्त्रार्थ करती थीं। इनके समकालीन काशी राज्य का राजा अजातशत्रु हुआ। ये आत्मा और परमात्मा के ज्ञान में अनुपम था। ब्रह्म और जीवन के सम्बन्ध पर, जन्म और मृत्यु पर तब देश में विचार हो रहे थे। इन विचारों को उपनिषद् कहते हैं। इसी से यह काल भी उपनिषद् काल कहलाता है।
युग बदलने के साथ ही वैशाली और मिथिला के लिच्छवियों में साधु वर्धमान महावीर हुए, कपिलवस्तु के शाक्यों में गौतम बुद्ध हुए। उन्हीं दिनों काशी का राजा अश्वसेन हुआ। इनके यहाँ पाश्र्वनाथ हुए जो जैन धर्म के 23वें तीर्थंकर हुए। उन दिनों भारत में चार राज्य मगध, कोसल, वत्स, उज्जयिनी प्रबल थे जो एक-दूसरे को जीतने के लिए आपस में बराबर लड़ते रहते थे। कभी काशी वत्सों के हाथ में जाती, कभी मगध के और कभी कोसल के। पाश्र्वनाथ के बाद और बुद्ध से कुछ पहले, कोसल-श्रावस्ती के राजा कंस ने काशी को जीतकर अपने राज्य में मिला लिया। उसी कुल के राजा महाकोसल ने तब अपनी बेटी कोसल देवी का मगध के राजा बिम्बसार से विवाह कर दहेज के रूप में काशी की वार्षिक आमदनी एक लाख मुद्रा प्रतिवर्ष देना आरम्भ किया और इस प्रकार काशी मगध के नियंत्रण में आ गई। राज के लोभ से मगध के राजा बिम्बसार के बेटे अजातशत्रु ने पिता को मारकर गद्दी छीन ली। तब विधवा बहन कोसल देवी के दुःख से दुःखी उसके भाई कोसल के राजा प्रसेनजित ने काशी की आमदनी अजातशत्रु को देना बन्द कर दिया जिसका परिणाम मगध और कोसल में युद्ध हुआ। इसमें कभी काशी कोसल के, कभी मगध के हाथ लगी। अन्ततः अजातशत्रु की जीत हुई और काशी उसके बढ़ते हुए साम्राज्य में समा गई। बाद में मगध की राजधानी राजगृह से पाटलिपुत्र चली गई और फिर कभी काशी पर उसका आक्रमण नहीं हो पाया।
भारत की सबसे बड़ी नदी करीब 2,525 किलोमीटर की दूरी तय कर गोमुख से गंगासागर तक जाती है। इस पूरे रास्ते में गंगा उत्तर से दक्षिण की ओर बहती है। केवल चुनार से वाराणसी तक में ही गंगा नदी दक्षिण से उत्तर दिशा में बहती है। यहाँ लगभग 84 घाट हैं। ये घाट लगभग 6.5 किमी लंबे तट पर बने हुए हैं। इन 84 घाटों में पंाच घाट अस्सी घाट, दशाश्वमेध घाट, आदिकेशव घाट, पंचगंगा घाट तथा मणिकर्णिका घाट बहुत ही पवित्र माने जाते है। इन्हें सामूहिक रूप से ”पंचतीर्थ“ कहा जाता है। अस्सी घाट सबसे दक्षिण में स्थित है जबकि आदिकेशव घाट सबसे उत्तर में स्थित है। वाराणसी में 100 से अधिक घाट हैं। शहर के कई घाट मराठा साम्राज्य के अधीनस्थ काल में बनवाए गये थे। वर्तमान वाराणसी के संरक्षकों में मराठा, शिंदे (सिंधिया), होल्कर, भोंसले और पेशवा परिवार रहे हैं। अधिकतर घाट स्नान घाट हैं। कुछ घाट अन्त्येष्टि घाट हैं जैसे मणिकर्णिका घाट, हरिश्चन्द्र घाट। कई घाट किसी कथा आदि से जुड़े हुए हैं जबकि कुछ घाट निजी स्वामित्व के भी हैं। पूर्व काशी नरेश का शिवाला घाट और काली घाट निजी सम्पदा है।
वाराणसी या काशी को हिन्दू धर्म में पवित्रतम नगर बताया गया है। यहाँ प्रतिवर्ष 10 लाख से अधिक तीर्थ यात्री आते हैं। यहाँ का प्रमुख आकर्षण काशी विश्वनाथ मन्दिर है जिसमें भगवान शिव के 12 ज्योर्तिलिंगों में से एक शिवलिंग यहाँ स्थापित है। हिन्दू मान्यतानुसार गंगा नदी सबके पाप मार्जन करती है और काशी में मृत्यु सौभाग्य से मिलती है और यदि मिल जाये तो आत्मा पुनर्जन्म के चक्र से मुक्त होकर मोक्ष पाती है। 51 शक्तिपीठ में से एक विशालाक्षी मन्दिर यहाँ स्थित है जहाँ भगवती सती की कान की मणिकर्णिका गिरी थी। वह स्थान मणिकर्णिका घाट के निकट स्थित है। हिन्दू धर्म में शाक्त मत के लोग देवी गंगा को भी शक्ति का अवतार ही मानते है। जगद्गुरू आदि शंकराचार्य ने हिन्दू धर्म पर अपनी टीका यहीं आकर लिखी थी जिसके परिणामस्वरूप हिन्दू पुनर्जागरण हुआ। काशी में वैष्णव और शैव सम्प्रदाय के लोग सदा ही धार्मिक सौहार्द से रहते आये हैं। वाराणसी बौद्ध धर्म के पवित्रतम स्थलों में से एक है और गौतम बुद्ध से सम्बन्धित चार तीर्थ स्थलों में से एक सारनाथ है। शेष तीन कुशीनगर, बोध गया और लुम्बिनी है। वाराणसी के मुख्य शहर से हटकर ही सारनाथ है। वाराणसी हिन्दुओं एवं बौद्धों के अलावा जैन धर्म के अवलंबियों के लिए भी पवित्र तीर्थ है। इसे 23वें तीर्थंकर श्री पाश्र्वनाथ का जन्मस्थान माना जाता है। वाराणसी पर इस्लाम संस्कृति ने भी अपना प्रभाव डाला है। काशी में प्राचीन काल से समय-समय पर अनेक महान विभूतियों को प्रदुर्भाव या वास होता रहा है। इनमें कुछ इस प्रकार हैं- महर्षि अगस्त्य, धन्वंतरि, गौतम बुद्ध, संत कबीर, अघोराचार्य बाबा किनाराम, रानी लक्ष्मीबाई, पाणिनी, पाश्र्वनाथ, पतंजलि, संत रैदास, स्वामी रामानन्दाचार्य, शंकराचार्य, गोस्वामी तुलसीदास, महर्षि वेदव्यास, वल्लभाचार्य। वाराणसी की संस्कृति का गंगा नदी एवं इसके धार्मिक महत्व से अटूट रिश्ता है। ये शहर सहस्रों वर्षों से भारत का, विशेषकर उत्तर भारत का संास्कृतिक एवं धार्मिक केन्द्र रहा है। हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत का बनारस घराना वाराणसी में ही जन्मा एवं विकसित हुआ। भारत के कई दार्शनिक, कवि, लेखक, संगीतज्ञ वाराणसी में रहे हैं जिनमें तैलंग स्वामी, जयशंकर प्रसाद, आचार्य रामचन्द्र शुक्ल, गिरिजा देवी, पं0 हरि प्रसाद चैरसिया, भारत रत्न उस्ताद बिस्मिल्लाह खां,  मदन मोहन मालवीय (बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के संस्थापक), लाल बहादुर शास्त्री (भारत के पूर्व एवं द्वितीय प्रधान मंत्री), कृष्ण महाराज (तबला वादक, पद्म विभूषण), रवि शंकर (सितारवादक, भारत रत्न), सिद्धेश्वरी देवी (खयालगायिका), विकास महाराज (सरोद के महारथी), नैना देवी (खयाल गायिका), भगवान दास (भारत रत्न), समता प्रसाद (गुदई महाराज) तबला वादक पद्मश्री, मुंशी प्रेमचंद (महान लेखक) प्रमुख है। यहाँ के निवासी काशिका भोजपुरी बोलते हैं जो हिन्दी की ही एक बोली है। वाराणसी को प्रायः मन्दिरों का शहर, भारत की धार्मिक राजधानी, भगवान शिव की नगरी, दीपों का शहर, ज्ञान नगरी आदि विशेषणों से सम्बोधित किया जाता है। प्रसिद्ध अमरीकी लेखक मार्क ट्वेन लिखते है- ”बनारस इतिहास से भी पुरातन है, परम्पराओं से पुराना है, किवदंतियों (लीजेन्ड्स) से भी प्राचीन है और जब इन सबको एकत्र कर दें, तो उस संग्रह से भी दोगुना प्राचीन है“
अस्सी और वरूणा के बीच में वाराणसी के बसने की कल्पना उस समय से उदय हुई जब नगर की धार्मिक महिमा बढ़ी और उसके साथ-साथ नगर के दक्षिण में आबादी बढ़ने से दक्षिण का भाग भी उसकी सीमा में आ गया। वैसे वरणा शब्द एक वृक्ष का भी नाम होता है। प्राचीनकाल में वृक्षों के नाम पर भी नगरों के नाम पड़ते थे। जैसे कोशंब से कौशांबी, रोहीत से रोहीतक इत्यादि। अतः यह सम्भव है कि वाराणसी और वरणावती दोनों ही नाम इस वृक्ष विशेष को लेकर ही पड़ा हो। वाराणसी नाम के उपरोक्त कारण से यह अनुमान कदापि नहीं लगाना चाहिए कि काशी राज्य के इस राजधानी शहर का केवल एक ही नाम था। अकेले बौद्ध साहित्य में ही इसके अनेक नाम मिलते हैं। उदय जातक में सुर्रूधन (अर्थात सुरक्षित), सुतसोम जातक में सुदर्शन (अर्थात दर्शनीय), सोमदण्ड जातक में ब्रह्मवर्द्धन, खंडहाल जातक में पुष्पवती, युवंजय जातक में रम्म नगर (अर्थात सुन्दर नगर), शंख जातक में मोलिनो (अर्थात मुकुलिनि) नाम आते हैं। इसे कासिनगर और कासिपुर के नाम से भी जाना जाता था। सम्राट अशोक के समय में इसकी राजधानी का नाम पोतलि था। यह निश्चय पूर्वक नहीं कहा जा सकता है कि ये सभी नाम एक ही शहर के थे या काशी राज्य की अलग-अलग समय पर रहीं एक से अधिक राजधानियों के नाम थे।
काशी का इतना माहात्म्य है कि सबसे बड़े पुराण स्कन्द महापुराण में काशी खण्ड के नाम से एक विस्तृत पृथक विभाग ही है। इस पुरी के बारह प्रसिद्ध नाम - काशी, वाराणसी, अविमुक्त, आनन्दकानन, महाश्मशान, रूद्रावास, काशिका, तपःस्थली, मुक्तिभूमि, शिवपुरी, त्रिपुरारिराजनगरी और विश्वनाथनगरी हैं। काशी खण्ड (26.34) और ब्रह्म पुराण के (207) के अनुसार वाराणसी शताब्दियों तक पाँच नामो से जानी जाती रही- काशी, वाराणसी, अविमुक्त, आनन्दकानन, महाश्मशान। 
1. इसका नाम काशी इसलिए है कि यह मनुष्य के निर्वाण पथ को प्रकाशित करती है अथवा भगवान शिव की परमसत्ता यहाँ प्रकाशित करती है। (स्कन्द, काशी खण्ड, 26.67)
2. वरणा और असी नदियों के बीच स्थित होने से इसका नाम वाराणसी पड़ा। (ब्रह्म, 33.49 और कूर्म, 1.31.63) जाबालोपनिषद् में कुछ विपरीत मत मिलते हैं, वहाँ अविमुक्त, वरणा और नासी का अलौकिक प्रयोग है। अविमुक्त को वरणा और नाशी के मध्य स्थित बताया गया है। वरणा त्रुटियों का नाश करने वाला और नाशी को पापों का नाश करने वाला बताया गया है। इस प्रकार काशी पाप से मुक्त करने वाली नगरी है।
3. अवि का अर्थ पाप है और काशी नगरी पापो से मुक्त है इसलिए इसका नाम अविमुक्त है। (लिंगपुराण, पूर्वाध, 92.143)
4. भगवान शंकर को काशी (वाराणसी) अत्यन्त प्रिय है इसलिए उन्होंने इसे आनन्दकानन नाम से अभिहित किया। (स्कन्द, काशी खण्ड , 32.111 और लिंगपुराण, 1.91.76)। पिनाकपाणि शम्भु ने इसे सर्वप्रथम आनन्दकानन और तदन्तर अविमुक्ति कहा। (स्कन्द, काशी खण्ड, 26.34)
5. महाश्मशान नाम इसलिए है कि वह निधनोपरान्त मनुष्य को संसार के बन्धनों से मुक्त करने वाली है। वस्तुतः श्मशान, प्रेतभूमि शब्द अशुद्धि का द्योतक है किन्तु काशी की श्मशान भूमि को संसार में सर्वाधिक पवित्र माना गया है। दूसरी बात यह है कि श्म का तात्पर्य है-शव और शान का तात्पर्य है-लेटना। (स्कन्द, काशी खण्ड, 30.103.4)। प्रलय होने पर महान आत्मा यहाँ शव या प्रेत रूप में निवास करते हैं इसलिए इसका नाम महाश्मशान है। 
पद्म पुराण (133.14) के अनुसार भगवान शंकर स्वयं कहते हैं कि अविमुक्त प्रसिद्ध प्रेतभूमि है। संहारक के रूप में यहाँ रहकर मैं संसार का विनाश करता हूँ। यद्यपि सामान्य रूप में काशी, वाराणसी और अविमुक्त तीनों का प्रयोग समान अर्थ में किया गया है किन्तु पुराणों में कुछ सीमा तक इनके स्थानीय क्षेत्र विस्तार में अन्तर का भी निर्देश है। वाराणसी उत्तर से दक्षिण तक वरणा और असी से घिरी हुई है। इसके पूर्व में गंगा तथा पश्चिम में विनायक तीर्थ है। इसका आकार धनुषाकार है जिसका गंगा अनुगमन करती है। मत्स्यपुराण (184.50-52) के अनुसार इसका विस्तार क्षेत्र ढ़ाई योजन पूर्व से पश्चिम और अर्ध योजन उत्तर से दक्षिण है। इसका प्रथम वृत सम्पूर्ण काशी क्षेत्र का सूचक है। पद्मपुराण, पाताल खण्ड के अनुसार यह एक वृत्त से घिरी हुई है जिसकी त्रिज्यापंक्ति मध्यमेश्वर से आरम्भ होकर देहली विनायक तक जाती है। यह दूरी दो योजन तक है। मत्स्यपुराण (181.61-62), अविमुक्त उस स्थान को कहते हैं जो 200 धनुष व्यासार्ध (800 हाथ या 1200 फुट) में विश्वेश्वर के मन्दिर के चतुर्दिक विस्तृत है। काशी खण्ड में अविमुक्त को पंचकोश तक विस्तृत बताया गया है, पर वहाँ वह शब्द काशी के लिए प्रयुक्त हुआ है। पवित्र काशी क्षेत्र सम्पूर्ण अन्र्तवृत पश्चिम में गोकर्णेश से लेकर पूर्व में गंगा की मध्य धारा तथा उत्तर में भारभूत से दक्षिण में ब्रह्मेष तक विस्तृत है।
संसार के इतिहास में जितनी अधिक प्राक्कालिकता, नैरन्तर्य और लोकप्रियता काशी को प्राप्त है उतनी किसी भी नगर की नहीं है। काशी लगभग 3000 वर्षो से भारत के हिन्दूओं का पवित्र तीर्थ स्थान रही है और उनकी भावनाओं का धार्मिक केन्द्र रही है। यह परम्परागत धार्मिक पवित्रता और शिक्षा का केन्द्र रही है। हिन्दू धर्म की विचित्र विषमता, संकीर्णता तथा नानात्व और अन्तर्विरोधों के बीच यह एक सूक्ष्म श्रृंखला है जो सबको समन्वित करती है। केवल सनातन हिन्दुओं के लिए ही नहीं बौद्धों और जैनों के लिए भी यह स्थान बहुत महत्व का है। भगवान बुद्ध ने बोध गया में ज्ञान प्राप्त होने पर सर्वप्रथम यही पर पहला उपदेश किया था। जैनियों के तीन तीर्थंकरों का जन्म यहीं हुआ था। इसे बनारस या वाराणसी भी कहा जाता है। पिछले सैकड़ो वर्षो से इसके महात्म पर विपुल साहित्य की सर्जना हुई है। पुराणों में इसका बहुत विस्तृत वर्णन मिलता है। पुराख्यानों से पता चलता है कि काशी प्राचीन काल से ही एक राज्य रहा जिसकी राजधानी वाराणसी थी। पुराणों के अनुसार क्षत्रवृद्ध नामक राजा ने काशी राज्य की स्थापना की। उपनिषदों में यहाँ के राजा अजातशत्रु का उल्लेख है जो ब्रह्म विद्या और अग्नि विद्या के प्रकाण्ड विद्वान थे। महाभारत के अनुशासन पर्व (30.10) के अनुसार अति प्राचीन काल में काशी में धन्वन्तरि के पौत्र दिवोदास ने आक्रमण कर भद्रश्रेण्ड्य के 100 पुत्रों को मार डाला था और वाराणसी पर अधिकार कर लिया था। इससे क्रुद्ध होकर भगवान शिव ने अपने गण निकुम्भ को भेजकर उसका विनाश करवा दिया। हजारों वर्ष तक काशी खण्डहर के रूप में पड़ी रही तदुपरान्त भगवान शिव स्वयं काशी में निवास करने लगे। तब से इसकी पवित्रता और बढ़ गयी। बौद्ध धर्म के ग्रन्थों से पता चलता है कि काशी बुद्ध के युग में राजगृह, श्रावस्ती तथा कौशाम्बी की तरह एक बड़ा नगर था। वह राज्य भी था। उस युग में यहाँ वैदिक धर्म का पवित्र तीर्थ स्थान और शिक्षा का केन्द्र भी था।
काशी का धार्मिक महत्व बहुत अधिक है। महाभारत वनपर्व (84.79.80) के अनुसार ब्रह्महत्या का अपराधी अविमुक्त में प्रवेश करके भगवान विश्वेश्वर की मूर्ति का दर्शन करने मात्र से ही पाप मुक्त हो जाता है। और यदि वहाँ पर मृत्यु को प्राप्त होता है तो उसे मोक्ष मिलता है। अविमुक्त में प्रवेश करते ही सभी प्रकार के प्राणियों को पूर्वजन्मों के हजारों पाप क्षण मात्र में नष्ट हो जाते हैं। धर्म में आशक्ति रखने वाले व्यक्ति की काशी में मृत्यु होने पर वह दुबारा संसार को नहीं देखता। संसार में योग के द्वारा मोक्ष (निर्वाण) की प्राप्ति नहीं हो सकती किन्तु अविमुक्त में योगी को मोक्ष सिद्ध हो जाता है (मत्स्य पुराण, 185.15-16)। कुछ स्थलों पर वाराणसी तथा वहाँ की नदियों के सम्बन्ध में रहस्यात्मक संकेत भी मिलते है। उदाहरणार्थ काशी खण्ड में असी को ”इड़ा“, वरणा को ”पिन्गला“ और अविमुक्त को ”सुषुम्ना“ तथा इन तीनों के सम्मिलित रूप को काशी कहा जाता है। (स्कन्द, काशी खण्ड, 512)। परन्तु लिंगपुराण का इससे भिन्न मत है इसमें असी, वरणा तथा गंगा को क्रमशः पिम्गला, इड़ा और सुषुम्ना कहा गया है।
काशी क्षेत्र में एक एक पग में एक एक तीर्थ की महत्ता है (स्कन्द, काशी खण्ड, 59.118) और काशी की तिलमात्र भूमि भी शिवलिंग से अछूती नहीं है ऐसा काशी खण्ड के दसवें अध्याय में ही 64 शिवलिंगो का वर्णन है। हिन्दू धर्म में कहते हैं कि प्रलयकाल में भी काशी का लोप नहीं होता। उस समय भगवान शंकर इसे अपने त्रिशूल पर धारण कर लेते हैं और सृष्टि काल आने पर इसे नीचे उतार देते हैं। यहीं नहीं, आदि सृष्टि स्थली भी यही भूमि बतलायी जाती है। इसी स्थान पर भगवान विष्णु ने सृष्टि उत्पन्न करने की कामना से तपस्या करके आशुतोष को प्रसन्न किया था और फिर उनके शयन करने पर उनके नाभि-कमल से ब्रह्मा उत्पन्न हुए, जिन्होंने संसार की रचना की। अगस्त्य मुनि ने भी विश्वेश्वर की बड़ी अराधना की थी और इन्हीं की अर्चना से श्रीवशिष्ठ जी तीनों लोकों में पूजित हुए तथा राजर्षि विश्वामित्र, ब्रह्मर्षि कहलाये।
पाँच कोस परिमाण के अविमुक्त (काशी) नामक क्षेत्र को विश्वेश्वर (विश्वनाथ) संज्ञक ज्योर्तिलिंग स्वरूप मानना चाहिए। रामकृष्ण मिशन के स्वामी शारदानन्द जी द्वारा लिखित श्री रामकृष्ण लीला प्रसंग नामक पुस्तक में श्री रामकृष्ण परमहंस देव का इस विषय में प्रत्यक्ष अनुभव वर्णित है। यह दृष्टान्त बाबा विश्वनाथ द्वारा काशी में मृतक को तारकमन्त्र प्रदान करने की सत्यता उजागर करता है। मुक्तिदायिनी काशी की यात्रा, यहाँ निवास और मरण तथा दाह संस्कार का सौभाग्य पूर्वजन्मों के पुण्यों के प्रताप तथा बाबा विश्वनाथ की कृपा से ही प्राप्त होता है। पाँच कोस की काशी चैतन्य स्वरूप है इसलिए यह प्रलय के समय भी नष्ट नहीं होती। प्राचीन ब्रह्मवैवर्त पुराण में इस सन्दर्भ में स्पष्ट उल्लेख है कि अमर ऋषिगण प्रलयकाल में श्री सनातन महाविष्णु से पूछते हैं- भगवन वह छत्र के आकार की ज्योति जल के ऊपर कैसे प्रकाशित है जो प्रलय के समय पृथ्वी के डूबने पर भी नहीं डूबती? महाविष्णु जी बोले- हे ऋषियों लिंग रूप धारी सदाशिव महादेव का हमने (सृष्टि के आरम्भ में) तीनों लोकों के कल्याण के लिए जब स्मरण किया, तब वे शम्भु एक बित्ता परिमाण के लिंग रूप में हमारे हृदय से बाहर आये और फिर वे बढ़ते हुए अतिशय वृद्धि कें साथ पाँच कोस के हो गये।
काशी क्षेत्र की सीमा निर्धारित करने के लिए पुराकाल में पंचक्रोशी मार्ग का निर्माण किया गया। जिस वर्ष अधिमास (अधिकमास या मलमास या पुरूषोत्तममास) लगता है उस वर्ष इस माह में पंचक्रोसी यात्रा की जाती है। पंचक्रोशी यात्रा मणिकर्णिका घाट से प्रारम्भ होती है। गंगा के किनारे-किनारे चलकर यात्री अस्सी घाट आते हैं। यहाँ से वे नगर में प्रवेश करते हैं। लंका, नरिया, करौंदी, आदित्य नगर, चितईपुर होते हुए यात्री प्रथम पड़ाव कन्दवा पर पहुँचते हैं। यहाँ वे कर्दमेश्वर महादेव का दर्शन पूजन करके रात्रि विश्राम करते हैं। दूसरे दिन सुबह में यात्री कन्दवा से अगले पड़ाव भीमचण्डी के लिए चलते हैं। यहाँ यात्री दुर्गा मन्दिर में दुर्गाजी की पूजा करते हैं। तीसरा पड़ाव रामेश्वर है। यहाँ शिव मन्दिर में यात्री शिव पूजा करते हैं। चैथा पड़ाव पाँचों-पण्डवा है जो शिवपुर में पड़ता है। यहाँ पाँचों पाण्डव (युधिष्ठिर, अर्जुन, भीम, नकुल तथा सहदेव) की मूर्तियाँ हैं, स्नान के लिए द्रौपदी कुण्ड है। रात्रि विश्राम के उपरान्त यात्री पाँचवें दिन अन्तिम पड़ाव कपिलधारा के लिए प्रस्थान करते हैं। यहाँ कपिलेश्वर महादेव की पूजा करते हैं। कपिलधारा से यात्रीगण मणिकर्णिका घाट आते हैं। यहाँ वे साक्षी विनायक (गणेश जी) का दर्शन करते हैं। ऐसी मान्यता है कि गणेश जी भगवान शिव के समक्ष इस बात का साक्ष्य देते हैं कि अमुक यात्री ने पंचक्रोशी यात्रा कर काशी की परिक्रमा की है। इसके उपरान्त यात्री काशी विश्वनाथ एवं काल-भैरव का दर्शन कर यात्रा संकल्प पूर्ण करते हैं। काशी परिक्रमा में पाँच की प्रधानता है। यात्री प्रतिदिन पाँच कोस की यात्रा करते हैं। पड़ाव संख्या पाँच है। परिक्रमा पाँच दिनों तक चलती है।
काशी में विश्वनाथ के पूजनोपरान्त तीर्थ यात्री को पाँच अवान्तर तीर्थों- दशाश्वमेध, लोलार्क, केशव, बिन्दुमाधव तथा मणिकर्णिका का भी परिभ्रमण करना आवश्यक है (मत्स्य पुराण)। वाराणसी के पास गंगा की धारा सीधी उत्तर की ओर बहती है इसलिए यहाँ की पवित्रता का और अधिक महात्म्य है। दशाश्वमेध घाट तो शताब्दीयों से अपनी पवित्रता के लिए ख्यातिलब्ध है। काशी खण्ड (अध्याय 52,56,68) के अनुसार दशाश्वमेध का पूर्व नाम रूद्रसर है किन्तु ब्रह्मा ने यहाँ दस अश्वमेध यज्ञ किये जिससे इसका नाम दशाश्वमेध हो गया। मणिकर्णिका (मुक्ति क्षेत्र) काशी का सर्वाधिक पवित्र तथा वाराणसी के धार्मिक जीवन क्रम का केन्द्र है। इसके आरम्भ के सम्बन्ध में एक रोचक कथा है- विष्णु ने अपने चिन्तन से यहाँ एक पुष्कर्णी का निर्माण किया और लगभग 50 हजार वर्षो तक वे यहाँ घोर तपस्या करते रहे। इससे शंकर प्रसन्न हुए और उन्होंने विष्णु के सिर को स्पर्श किया जिससे उनका एक मणिजड़ित कर्णभूषण सेतू के जल में गिर पड़ा। तभी से इस स्थल को मणिकर्णिका कहा जाने लगा। काशी खण्ड के अनुसार निधन के समय सज्जन मनुष्यों के कान में भगवान शंकर तारक मन्त्र फूँकते है इसलिए यहाँ स्थित मन्दिर का नाम तारकेश्वर है।
यहाँ पंचगंगा घाट भी है। पुराणों के अनुसार यहाँ किरणा, धूतपापा, गंगा, यमुना और सरस्वती का पवित्र सम्मेलन हुआ है। यद्यपि इनमें दो अब अदृश्य है। काशी खण्ड (59, 118-133) के अनुसार जो व्यक्ति इस पंचानद संगम स्थल पर स्नान करता है वह इस पंचभौतिक शरीर से मुक्त होकर वापस इस संसार में नहीं आता है। यह पाँच नदियों का संगम विभिन्न युगों में विभिन्न नामों से अभिहित किया गाया था। सत्ययुग में धर्ममय, त्रेता में धूतपातक, द्वापर में बिन्दु तीर्थ तथा कलियुग में इसका नाम पंचनद पड़ा।
इसके अतिरिक्त काशी के कुछ अनु तीर्थ भी प्रमुख हैं। इनमें ज्ञानवापी, दुर्गाकुण्ड का दुर्गा मन्दिर, काशी के कोतवाल कुत्ता वाहन वाले भैरवनाथ मन्दिर का नाम उल्लेखनीय है।
स्कन्द पुराण के काशी खण्ड (85, 112-113) में यह उल्लेंख है कि काशी से उत्तर में धर्म क्षेत्र सारनाथ विष्णु का निवास स्थान है जहाँ उन्होंने बुद्ध का रूप धारण किया था। सारनाथ, काशी से 7 मील पूर्वोत्तर में स्थित बौद्धों का प्रचीन तीर्थ है। ज्ञान प्राप्ति के पश्चात भगवान बुद्ध ने अपना प्रथम उपदेश यहीं दिया था। यहीं से उन्होंने ”धर्म चक्र प्रवर्तन“ प्रारम्भ किया था। जहां भगवान बुद्ध ने अपना प्रथम प्रवचन दिया था। इसमें उन्होंने बौद्ध धर्म के मूलभूत सिद्धान्तों का वर्णन किया था। यहाँ चैखण्डी स्तूप भी स्थित है जहाँ बुद्ध अपने प्रथम शिष्यों से (लगभग 5वीं शताब्दी ईसापूर्व) मिले थे। वहाँ एक अष्टभुजी मीनार बनवायी गयी थी। अशोक-पूर्व स्तूपों में से कुछ ही शेष हैं, जिनमें से एक धामेक स्तूप यहीं अब भी खड़ा है, हालांकि अब उसके मात्र आधारशिला के अवशेष ही शेष हैं। यहाँ पर सारंगनाथ महादेव का मन्दिर भी है जहाँ श्रावण मास में हिन्दुओं का मेला लगता है। सारनाथ, जैन तीर्थ भी है। जैन ग्रन्थों में इसे सिंहपुर कहा गया है। सारनाथ की दर्शनीय वस्तुए अशोक का चतुर्मुख सिंह स्तम्भ, भगवान बुद्ध का मन्दिर, धम्मेख स्तूप, चैखण्डी स्तूप, राजकीय संग्रहालय, जैन मन्दिर, चीनी मन्दिर, मूलगंध कुटी और नवीन विहार हैं। मुहम्मद गोरी ने इसे नष्ट-भ्रष्ट कर दिया था। सन् 1905 में पुरातत्व विभाग ने यहाँ खुदाई का काम प्रारम्भ किया उसी समय बौद्ध धर्म के अनुयायीयों और इतिहास के विद्वानों का ध्यान इधर गया। वर्तमान में सारनाथ लगातार विकास की ओर है।

बौद्धकाल में काशी
बौद्ध से पहले काशी एक स्वतंत्र समृद्ध राष्ट्र था। इस दौरान यहां के राजाओं का उपाधि नाम ब्रह्मदत्त था। जिसका उल्लेख जातक कथाओं मिलता है। महाभारत में भी इसकी चर्चा की गयी है। (शतं वै ब्रह्मदत्तानाम) पालि बौद्ध ग्रन्थों में काशी जिले की राजधानी वाराणसी की गणना भारत के प्रसिद्ध नगरों में की गयी है। वाराणसी अपने आकर्षक कपड़ों के लिए प्रसिद्ध थी। यहां के बुने कपड़ों को सबसे अच्छा माना जाता था। काशी चंदन के लिए भी जानी जाती थी। बुद्ध के समय में काशी व्यापारिक दृष्टि से काफी विकसित थी। यहां से तक्षशिला तक सीधा व्यापार होता था। काशी में घोड़े तथा हाथियों का बड़ा बाजार भी लगता था। बौद्ध धर्म के प्रचार के लिए वाराणसी का काफी महत्व था। यवन सेना ने आक्रमण के दौरान वाराणसी में पड़ाव डाला था।
ज्ञान प्राप्त होने के बाद बुद्ध ने यहीं पर पंचवर्गीय भिक्षुओं को अपना पहला उपदेश दिया था। पंचवर्गीय भिक्षुओं समेत बुद्ध के साठ साथियों का पहला संघ वाराणसी में ही बना था। सारनाथ में बौद्ध धर्म व संघ स्थापित किया गया। बौद्ध धर्म का प्रचार-प्रसार करने के लिए सारनाथ में बौद्ध केन्द्र स्तूप बौद्ध मंदिरों का भव्य निर्माण कराया गया।

मौर्यकाल में काशी
बौद्ध निर्वाण (483 ई0 पूर्व) से लगभग सवा दो सौ साल बाद सम्राट अशोक (272-232 ई0 पूर्व हुए) कलिंग युद्ध में हुए नर संहार के बाद हुए हृदयपरिवर्तन से सम्राट अशोक का ध्यान बुद्ध के बताये रास्तों पर गया। बौद्ध धर्म से प्रेरणा लेकर अशोक ने सारनाथ में धर्मराजिका स्तूप, अशोक स्तंभ और धम्मेख स्तूप का निर्माण करवाया। अशोक का बनवाया गया धर्मराजिका स्तूप नष्ट हो गया है। काशीराज चेतसिंह के दीवान बाबू जगत सिंह ने धर्मराजिका स्तूप को गिराकर उसके मसाले का प्रयोग कर बनारस में जगतगंज मोहल्ला बसाया। धर्मराजिका स्तूप का छह बार विस्तार और संस्कार हुआ था। अशोक निर्मित मूल स्तूप का व्यास 13.49 मीटर था। स्तूप पूरी तरह से बारहवीं सदी में समाप्त हो गया। कन्नौज काशी के गाहड़वाल शासक गोविन्द चंद की रानी ने सारनाथ में धर्मचक्र जिन विहार बनवाया। इसी के नजदीक दो प्रस्तर मूर्तियां भी मिली हैं। एक मूर्ति लाल पत्थर से बनी है। जबकि दूसरी मूर्ति धर्म चक्र प्रवर्तन मुद्रा में भगवान बुद्ध की है। यह मूर्ति गुप्तकालीन बेहतरीन कलाकृति का सर्वश्रेष्ठ उदाहरण है। सारनाथ में भग्न अशोक स्तम्भ भी मिला है। स्तंभ पर तीन लेख भी हैं। धम्मेख स्तूप वहां बना है। जहां बुद्ध धर्म चक्र प्रवर्तन करते थे। स्तूप का व्यास 28.35 मीटर, ऊँचाई 39.01 मीटर है।

शुंग वंश में काशी
मौर्य काल के अंत के बाद शुंग वंश ने अपनी जड़ें स्थापित कर लिया। वाराणसी के राजघाट के काशी रेलवे स्टेशन को बढ़ाने के लिए खुदाई की गयी। खुदाई में पुरानी वस्तुएं मिट्टी की मुद्राएं मिली थी। जिसे भारत कला भवन और इलाहाबाद म्यूनिसिपल म्यूजियम में सुरक्षित रखा गया है। खुदाई में मिली प्राचीन मुद्राओं पर यूनानी देवी देवताओं की आकृतियां और राजाओं के सिर छपे हुए हैं। इन मुद्राओं से पता चलता है कि वाराणसी और पश्चिम के व्यापारिक सम्बंध रहे हैं।

कुषाण काल
ईसा की प्रथम सदी के उत्तरार्द्ध में वाराणसी पर कुषाण का आधिपत्य था। इस दौरान काशी व्यावसायिक दृष्टि से काफी समृद्ध हुआ। व्यापारिक क्रिया कलाप बढ़ गये थे। इस काल में बौद्ध धर्म का प्रभाव ज्यादा था।
इसके साथ ही शैव धर्म का भी प्रभाव बढ़ रहा था। मान्यता है कि भार शिवों ने दस अश्वमेध यज्ञ करके गंगा में जिस स्थान पर स्नान किया वही स्थन बाद में दशाश्वमेध घाट कहलाया।

गुप्त काल में काशी
गुप्त काल के दौरान वाराणसी में बौद्ध और शैव धर्म का प्रचार-प्रसार तेजी से हो रहा था। इसी समय प्रसिद्ध चीनी यात्री फाह्यान वाराणसी (401-410ई0) में आया था (गंगा के किनारे होता हुआ वह वाराणसी पैदल ही आया था।) वाराणसी में वह ऋषिपतन मिगदाय (सारनाथ) भी गया। गायघाट के पास ईसा की पांचवी सदी कार्ति्तकेय की एक बहुत पुरानी मुर्ति मिली थी। जो इस समय बी0एच0यू0 स्थित भारत कला भवन में सुरक्षित है। गुप्त काल में सारनाथ अपने चर्मोत्कर्ष पर रहा। इस दौरान यह स्याल कला का प्रमुख केन्द्र हो गया।
गुप्त राजाओ का वाराणसी से काफी अच्छा सम्बन्ध था। गुप्त राजा श्री गुप्त ने सारनाथ में विहार के पास ही मंदिर बनवाया। साथ ही बौद्ध भिक्षुओं के गुजर-बसर के लिए 24 ग्राम दान में दिया था। वाराणसी के समीप भीतरी से गुप्त सम्राट स्कन्दगुप्त का विक्रमादित्य का सम्बन्ध बनारस से काफी गहरा था। आज का गाजीपुर उस समय वाराणसी में ही शामिल था। यहां के भितरी स्थान को गुप्तों का पैतृक गांव समझा जाता हैं।

हर्षवर्धन काल में काशी
हर्षवर्धन काल में वाराणसी काफी आकर्षक जगह थी। यहां की जलवायु बेहद संतुलित होती थी। फसलें काफी बढ़िया उत्पन्न होती थीं। चारों तरफ हरियाली रहती थी। इसी काल में चीनी यात्री ह्यूनत्सांग वाराणसी आया था। उसने अपने यात्रा वृत्तांत में लिखा कि बनारस जिला 4000 ली0 (800 मील) के गिर्द में था। इसकी राजधानी गंगा तट के पश्चिमी तट पर स्थित थी। शहर में मुहल्ले सटे हुए थे। इस दौरान आबादी घनी थी। लोग धनवान हुआ करते थे। साथ ही शिष्ट और शिक्षा के प्रति जागरूक थे। ज्यादातर लोग कई मतों को मानने वाले थे। बौद्ध धर्मानुयायी काफी कम थे। वाराणसी में तीस बौद्ध विहार थे। शहर में सौ से ज्यादा देवमंदिर थे। मंदिरों के खंड व छज्जे नक्काशीदार पत्थर व लकड़ी के बने थे। मंदिर के चारो तरफ काफी संख्या में पेड़ लगे थे। साथ ही स्वच्छ पानी का स्रोत भी वहां रहता था। एक मंदिर में देव की कांसे की 100 फीट ऊंची मूर्ति थी। जो लोगों को काफी आकर्षित करती थी। इस काल में ज्यादातर मंदिर शैव थे। वहीं, सारनाथ आठ भागों में विभाजित था। उसके चारो तरफ प्राचीर निर्मित था। प्राचीर के भीतर दो सौ ऊँचा चैत्य था। साथ ही बौद्ध विहार के पश्चिम में स्तूप था। इसकी ऊँचाई 300 फीट थी। इसकी कुर्सी पर बहुमूल्य वस्तुएं सजायी गयी थी।

गहड़वाल काल में काशी
ग्यारहवीं सदी के अंतिम दशक में गहड़वाल वंश शुरू हुआ। इस वंश का संस्थापक चंद्रदेव था। गाहड़वाल शासक गोविन्दचन्द्र ने उत्तर प्रदेश व बिहार में अपना राज्य स्थापित कर लिया था। इस दौरान उसकी राजधानी कन्नौज के साथ-साथ काशी भी थी। गोविन्द चन्द एक योग्य और पराक्रमी राजा था। बाद में उसका पुत्र विजय चंद्र गद्दी पर बैठा। तत्पश्चात् जयचंद काशी कन्नौज का राजा बना। 1194 में शहाबुद्दीन और कुतुबुद्दीन की सेना ने साझा हमला कर जयचंद को मार दिया। मुस्लिम सेना ने जमकर वाराणसी में लूट मचाई। गाहड़वालों के शासन के दौरान काशी व्यापार की दृष्टि से काफी बड़ी बाजार थी। वाराणसी में बजाज, जौहरी और सुगन्धित द्रव्यों के व्यापार सम्पन्न थे। इस काल में दूसरे प्रदेशों के पण्डित वाराणसी में आकर स्थाई निवास करने लगे थे। साथ ही मोक्ष प्राप्ति की आशा में साधु सन्यासी भी यहां आना शुरू कर दिये। इस दौरान काशी विद्या का भी प्रमुख केन्द्र बन गयी। काशी में वेद, पुराण स्मृतियों धर्म की शिक्षा दी जाती थी। इसी काल में वाराणसी में अनेक तीर्थों की स्थापना हुई। काशी देश की प्रमुख तीर्थ क्षेत्र बन गयी। प्राचीन काल में वाराणसी में प्रमुख रूप से अविमुक्तेश्वर की पूजा होती थी। जिनका नाम बाद में बदलकर विश्वेश्वर कर दिया गया।

मुगलकाल में बनारस
1526 में मुगल शासन का उदय हुआ। मुगल वंश की स्थापना बाबर ने की। बाबर ने 1528 व 1529 में अवध को जीता। इस युद्ध में वाराणसी पर उसकी नजर गयी। बाबर ने वाराणसी जीतकर 934 हिजरी में अपने सिपहसालार जलालुद्दीन खां शर्की को कुछ सेना के साथ यहां रख दिया। मुगल शासक हुमायूं ने चुनार का किला जीतने के बाद वाराणसी में कुछ समय के लिए डेरा डाला। हुंमायू ने भाग कर चैखण्डी में छिप कर शरण ली थी। जिससे उसकी जान बची अकबर (हुंमायू का बेटा) ने सन् 1588 में उसी स्मृति में चैखण्डी के ऊपरी भाग (शिखर) को बनवाया। उपरी भाग तक पहुँचने के लिए पैदल मार्ग है।माना जाता है कि इस घटना को यादगार बनाने के लिए राजा टोडरमल के पुत्र गोबरधन ने चैखंडी स्तूप पर 996 हिजरी में एक अठपहला गुम्बद का निर्माण करवाया। करीब 16 वर्षों तक वाराणसी पर शेरशाह व उसके पुत्र का अधिकार था। 1556 ई0 में मुगल शासक अकबर गद्दी पर बैठा। 1565 ई0 में अकबर बनारस आया। इस दौरान बनारस में अशांति फैली हुई थी। अकबर ने अपनी बुद्धिमत्ता का परिचय देते हुए यहां शांति स्थापित किया। लेकिन अकबर के जाने के बाद एक बार फिर स्थिति बदतर हो गयी। दोबारा अकबर फिर बनारस आया। इस बार उसने शहर को लूटने की आज्ञा दी। अकबर के शासन काल में राजा टोडरमल का बनारस से काफी सम्बन्ध रहा। विश्वनाथ का मंदिर उन्हीं के सहयोग से 1585 के आस-पास नारायण दत्त ने बनवाया था। उन्होंने ही 1589 में शिवपुर में द्रौपद्री कुंड की भी स्थापना की थी। महल हवेली बनारस में देहात अमानत, जाल्हूपुर और शिवपुर में। इस दौरान ब्राह्मणों की जमींदारी थी। जहांगीर के समय में काशी में 1623 ई0 के करीब जबर्दस्त प्लेग फैला था। उसी दौरान तुलसीदास की मृत्यु हुई थी। इसी काल में अंग्रेजी यात्री राल्फ फिच बनारस आया था। उसके अनुसार उस वक्त बनारस में कपड़े का व्यापार उन्नति पर था। शहर में ज्यादातर हिन्दू ही रहते थे जो मूर्ति पूजक थे। इस काल में हिन्दुओं को मरने के बाद या तो जला दिया जाता था या पानी में बहा दिया जाता था। विधवायें अपने पति के मरने के बाद सती हो जातीं या उनके सिर मूंड़ दिये जाते थे। विवाह के बाद गंगा में दूल्हा-दुल्हन का पूजन ब्राह्मण कराते थे। उस समय बनारस के बहुत सारे घाट कच्चे थे। अकबर व जहांगीर के काल में राजा मान सिंह ने भी बनारस में कई घाट और मंदिरों का निर्माण कराया था। माना जाता है कि मान सिंह ने एक दिन में 1000 मंदिर बनवाने की ठान ली। ऐसे में कई सारे पत्थरों पर मंदिरों के नक्शे खोद दिये गये। मानसिंह के बनवाये घाटों में से सबसे प्रसिद्ध मान मंदिर घाट है। इसी काल में गोस्वामी तुलसीदास का प्रादुर्भाव हुआ था। इस दौरान काशी का मध्य भाग जिसे अन्तर्गृही कहा जाता था, वैदिक धर्मावलम्बियों की यहां बस्ती थी। लोलार्क कुण्ड और त्रिलोचन घाट काशी के नेत्र समझे जाते थे। मणिकर्णिका तीर्थ काशी का सबसे प्रसिद्ध तीर्थ था। धार्मिक प्रवृत्ति के लोग पंचकोशी यात्रा भी करते थे। माना जाता है कि अयोध्या में 1574 ई0 में शुरू हुआ रामचरित मानस का लेखन कई वर्षों बाद काशी के भदैनी के पास समाप्त हुआ। इसी काल में बनारस में केदारघाट पर कुमारस्वामी के मठ की भी स्थापना हुई।

औरंगजेब काल में काशी
औरंगजेब कट्टर मुसलमान शासक था। गद्दी पर बैठते ही उसने हिन्दुओं की आस्था मंदिरों को निशाना बनाया जिसका असर काशी के मंदिरों पर भी पड़ा। इस दौरान कई मंदिरों को औरंगजेब की आज्ञा से तोड़ दिया गया। साथ ही काशी के निर्माणाधीन करीब 76 मंदिर गिरा दिये गये थे। सांस्कृतिक संस्थाओं को नष्ट कर दिया गया। औरंगजेब ने ही बनारस में विश्वनाथ मंदिर को गिरवा कर वहां ज्ञानवापी मस्जिद बनवा दिया। यह घटना 1669 के आस-पास की है। इस दौर में यहां काशी करवट कुंआ भी था। जिसमें दूर-दूर से यात्री आकर मुक्ति पाने की कामना से जान दे देते थे।

ब्रिटिश काल में काशी
मीर रूस्तम अली
सन् 1730 ई0 के आस-पास सआदत खां अवध के नवाब बनाये गये। बनारस को मीर रूस्तम अली को सौंपा गया। उसने बनारस का लोकप्रिय बुढ़वा मंगल चलाया। साथ ही इसने घाटों का भी निर्माण कराया। 

महाराजा मंशा राम (सन् 1737-1740)
मीर रूस्तम अली के बाद मनसा राम हुए। 

महाराजा बलवन्त सिंह (सन् 1740-1770)
मनसा राम के बाद महाराजा बलवंत सिंह। सन् 1750 के आस-पास इन्होंने रामनगर के किले का निर्माण कराया। महाराजा बलवंत सिंह का मराठों से भी अन-बन रही हालांकि बाद में मेल-जोल हो गई। बलवंत सिंह के शासन काल में बनारस अस्थिर था। जनता कई तरह के करों से परेशान थी। अपराध भी खूब हुए। 

महाराजा चेत सिंह (सन् 1770-1780)
बलवंत सिंह के बाद बनारस की बागडोर राजा चेत सिंह के हाथों में चली गयी। इसी दौरान मार्कहम वाराणसी का रेजीडेन्ट नियुक्त हुआ। अपने कार्यकाल के दौरान चेतसिंह को काफी परेशानियों से गुजरना पड़ा। कंपनी के खिलाफ साजिश रचने की जानकारी होने पर वारेन हेस्टिंग्स ने चेतसिंह को सबक सिखाने का निश्चय किया। 14 अगस्त 1781 को वारेन हेस्टिंग बनारस आया। यहां वह माधोदास सामिया। (वर्तमान स्वामी बाग, कबीर बाग में रूका) काफी संघर्ष के बाद चेतसिंह को पदच्युत कर दिया गया। 

महाराजा महीप नारायण सिंह (सन् 1781-1794)
हेस्टिंग्स ने रामनगर के सिंहासन पर महाराजा बलवंत सिंह के नाती महीपनारायण सिंह को बैठाया। इस समय अपराध काफी बढ़ गया। लोगों की मांग पर हेस्टिंग्ग ने अली इब्राहिम खां को फौजदारी अदालत का मुख्य न्यायाधीश नियुक्त किया। इसके साथ ही काशी 1770 ई0 में ईस्ट इंडिया कम्पनी के अधीन हो गयी। सन् 1784 में बनारस और आस-पास के क्षेत्र में भीषण अकाल पड़ी। लोग दाने-दाने के लिए तरस गये थे। भुखमरी और बीमारी से लोगों का जीना दुश्वार था। 

महाराजा उदीत नारायण सिंह (सन् 1794-1835)
इसके बाद महीपनारायण के पुत्र उदितनारायण सिंह गद्दी पर आसीन हुए। अंग्रेजों ने इनका अधिकार काफी सीमित कर दिया। पुत्र नहीं होने पर इन्होंने अपने भाई के पुत्र ईश्वरी प्रसाद नारायण सिंह को दत्तक पुत्र बना लिया।

महाराजा ईश्वरी नारायण सिंह बहादुर (सन् 1835-1889)
राजा ईश्वरी प्रसाद नारायण सिंह ने बनारस की गद्दी 1835 में सम्भाली। इनके दरबार में भी नौ रत्न थे। इन्होंने संस्कृत, फारसी के ग्रन्थों का प्रकाशन भी कराया। 1889 में इन्हेंने खुद का पुत्र नहीं होने पर नरनारायण सिंह के पुत्र प्रभुनारायण सिंह को दत्तक पुत्र बना कर राज्य दे दिया।

महाराजा प्रभु नारायण सिंह (सन् 1889-1931)
राजा प्रभुनारायण सिंह 1889 को बनारस राजा बने। ये संस्कृत, उर्दू और फारसी के विद्वान थे। साथ ही बलवान भी थे। 1911 में दिल्ली दरबार में इन्हें सम्मानित करते हुए हिजहाइनेस की उपाधि दी गयी। प्रभुनारायण सिंह ने प्रजा को सुविधाएँ देने के लिए चिकित्सालय, कुंए, पोखरे, कर्मनाशा पर बांध बनवाया (इन्हेंने रामनगर में इण्टर कालेज खोला) साथ ही काशी हिन्दू विश्वविद्यालय की स्थापना में मदन मोहन मालवीय जी का सहयोग किया। 

महाराजा आदित्य नारायण सिंह (सन् 1931-1939)
इसके बाद इनके पुत्र आदित्य नारायण सिंह गद्दी पर बैठे। लेकिन 1939 में इनकी असमय मृत्यु हो गयी।

महाराजा डाॅ0 विभूति नारायण सिंह (सन् 1939-1947)
इसके बाद राजा विभूतिनारायण सिंह जो कि आदित्य नारायण सिंह के दत्तक पुत्र थे। गद्दी पर बैठे। विभूति नारायण सिंह हिन्दी, संस्कृत और अंग्रेजी के विद्वान थे। भारत के स्वतंत्र होने पर रियासतों के विलय करने के प्रस्ताव पर 15 अक्टूबर 1948 राज्य को भारतीय संघ  में मिला दिया गया। इस दौरान रामबाग में एक समारोह भी हुआ। डाॅ0 विभूति नारायण सिंह भारतीय स्वतन्त्रता पूर्व अन्तिम नरेश थे। 25 दिसम्बर, सन् 2000 में डाॅ0 विभूति नारायण सिंह की मृत्यु उपरान्त तीन पुत्रियों और एक पुत्र में से एक मात्र पुत्र अनन्त नारायण सिंह ही काशी नरेश हैं और इस परम्परा के वाहक बनें।

स्वतंत्रता आन्दोलन में बनारस 
1869 में दयानंद सरस्वती काशी आये। उन्होंने पुरातनपंथी हिन्दुओं के आचार्यों-माधव व आनन्द से कई विषयों में शास्त्रार्थ किया। 1898 में डॉ0 भगवानदास ने ऐनी बेसेन्ट के साथ मिलकर सेन्ट्रल हिन्दू स्कूल की नींव डाली। 1905 में महत्वपूर्ण घटना काशी में हुई। गोपाल कृष्ण गोखले की अध्यक्षता में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का अधिवेशन हुआ। अधिवेशन में लाजपत राय, मदनमोहन मालवीय जैसे लोग शामिल हुए थे। पूरे भारत के साथ काशी के लोगों में भी अंग्रेजों के खिलाफ गुस्सा था। अंग्रेजी सरकार के विरोध में 1908 में काशी के युवा बंगाली छात्रों ने एक क्लब शुरू किया। इस क्लब को रेवोल्युशनरी पार्टी का सहयोग मिला था।
1909 में भिनगा नरेश उदय प्रताप सिंह जू देव ने उदय प्रताप कालेज की स्थापना की। 1916 में मदन मोहन मालवीय ने काशी हिन्दू विश्वविद्यालय की स्थापना की। 1921 में स्वतंत्रता के लिए गांधी जी ने असहयोग आंदोलन शुरू कर दिया। इस आंदोलन में मदनमोहन मालवीय, शिवप्रसाद गुप्त और डॉ0 भगवानदास की मौजूदगी ने काशी विद्यापीठ में राजनीतिक कार्यकर्ताओं की खूब जुटान होती थी। 1930 में नमक सत्याग्रह में भी काशी सक्रिय रही। 10 अप्रैल को कांग्रेस कार्यकर्ताओं ने विशाल समूह के साथ मिलकर नमक बनाया। कई जगह जन सभाएँ हुई। आंदोलन में बहुत से लोग गिरफ्तार हुए। 1932 में गांधी जी की गिरफ्तारी के बाद लोगों में अंग्रेजो के खिलाफ आक्रोश काफी बढ़ गया। इस दौरान जमकर सरकार विरोधी प्रदर्शन हुए नारे भी लगे। जनाक्रोश को दबाने के लिए जिला प्रशासन ने वाराणसी कांग्रेस कमेटी को अवैध घोषित करते हुए धारा 144 लगा दी। कुछ जगह लाठी चार्ज भी हुआ। प्रशासन ने कई लोगों को गिरफ्तार किया। बहुतों पर मुकदमे भी चले। 1935 में हुए चुनाव में वाराणसी की 5 सीटों में दो कांग्रेस, दो मुस्लिम लीग और एक निर्दलीय को मिली। 1941 में गांधी जी के नेतृत्व में सत्याग्रह शुरू हो गया। इस दौरान वाराणसी में करीब 500 लोगों ने गिरफ्तारी दी। 1942 में भारत छोड़ो प्रस्ताव पारित होने पर लोगों ने जमकर आंदोलन में भाग लिया। काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के छात्रों ने हड़ताल कर शहर के मुख्य मार्गों से जुलूस निकाला। आन्दोलन गहराता जा रहा था। छात्रों ने कई सरकारी कार्यालयों पर तिरंगा लहरा दिया। आंदोलन को रोकने के लिए पुलिस ने अंधाधुंध फायरिंग की। जिसमें कई लोग मारे गये तो कई घायल हो गये। लेकिन आंदोलन की आग कम होने की बजाय बढ़ती गयी। इस दौरान पुलिस ने काशी हिन्दू विश्वविद्यालय की घेरबंदी कर मालवीय जी और तत्कालीन कुलपति डॉ0 राधाकृष्णन के बंगलों को घेर लिया। विश्वविद्यालय में महीनों पुलिस बल तैनात रही। कई गांव जला दिये गये। साथ ही गांव वालों की सम्पत्ति भी जबरन ले ली गयी। 15 अगस्त 1947 को स्वतंत्रत होने पर तथा रामनगर रियासत विलय होने पर वाराणसी जिला वर्तमान रूप में सामने आया।

बनारस के दार्शनिक
भारतीय दर्शन में बनारस के दार्शनिकों का सदैव ही महत्वपूर्ण योगदान रहा है तथा इन दार्शनिकों की सुदीर्घ परम्परा रही है। समकालीन भारतीय संस्कृति को प्रभावित करने वाले दार्शनिक जिनका सम्बन्ध बनारस से रहा उनकी संक्षिप्त सूची इस प्रकार है- भारत रत्न डॉ0 भगवानदास (12 जनवरी 1869-18 सितम्बर 1958), महामहोपाध्याय पं0 गोपीनाथ कविराज, आचार्य नरेन्द्र देव(1889-1956) , पद्मभूषण डॉ0 बी0एल0 आत्रेय, डॉ0 गंगानाथ झा, वागीश शास्त्री, टी0 आर0 वी0 मूर्ति, प्रो0 नन्द किशोर देवराज, प्रो0 अशोक कुमार चटर्जी, प्रो0 रमाकान्त त्रिपाठी, प्रो0 एन0एस0एस0 रमन, प्रो0 रघुनाथ गिरि।

बनारस के संत-सन्यासी
रामानंद (1299-1411), कबीर (1398-1518 ई0), तैलंगस्वामी (1607-1887 ई0), स्वामी विशुद्धानंद सरस्वती (1820-1899 ई0), स्वामी करपात्री जी (1907-1982 ई0), देवरहवा बाबा (1910-1990 ई0)

बनारस की शिक्षा संस्थाएँ
अठ्ठारहवीं सदी में काशी में गुरू निःशुल्क विद्यार्थियों को पढ़ाते थे। साथ ही विद्यार्थियों के रहने और भोजन की भी व्यवस्था करते थे। इस कार्य में होने वाले खर्च में महाजन और राजा सहायता करते थे। अठ्ठारहवीं सदी में अंग्रेजों ने बनारस संस्कृत कालेज खोलने पर विचार किया। वाराणसी में तीन सार्वजनिक- बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय, सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय और महात्मा गाँधी काशी विद्यापीठ तथा एक मानित विश्वविद्यालय सेन्ट्रल इंस्टीट्यूट आॅफ तिबेतियन स्टडीज है। वाराणसी में बहुत से निजी एवं सार्वजनिक संस्थान हैं जहाँ हिन्दू धार्मिक शिक्षा की व्यवस्था है। प्राचीन काल से ही लोग यहाँ दर्शनशास्त्र, संस्कृत, खगोलशास्त्र, सामाजिक विज्ञान एवं धार्मिक शिक्षा आदि के ज्ञान के लिए आते रहें हैं। भारतीय परम्परा में प्रायः वाराणसी को सर्वविद्या की राजधानी कहा गया है। नगर में एक जामिया सलाफिया भी है जो सलाफी इस्लामी शिक्षा का केन्द्र है।

बनारस के साहित्यकार
दमोदर पंडित, कबीर दास, संत रैदास या रविदास, तुलसीदास, गोकुलनाथ, गोपीनाथ, कृष्णलाल शिष्य मनियार सिंह, सुखलाल कायस्थ, जानकी प्रसाद, धनीराम, रामसहाय, गणेश बन्दीज्य, रघुनाथ बंदीजन, घनश्याम शुक्ल, ऋषिनाथ, ठाकुर बद्रीजन, कवीन्द्राचार्य सरस्वती, कुवरि, गजराज उपाध्याय, पराग, अम्बिकादत्त व्यास, श्री दीनदयाल गिरि, गोपालचन्द्र गिरिधरदास, राजा शिव प्रसाद ‘सितारे हिन्द’, श्रीयुत गोकुलचन्द्र, श्रीयुत राम शंकर व्यास, देवकीनन्दन खत्री, श्रीयुत नकछेदी तिवारी, बाबू राधाकृष्णदास, जगन्नाथदास ‘रत्नाकर’, लाला भगवानदीन, डॉ0 श्यामसुन्दरदास, श्रीयुत बाबू कृष्णचन्द्र, आचार्य क्षितिमोहन सेन, महान उपन्यासकार मुंशी प्रेमचंद्र, हरिकृष्ण जौहर, विजयानन्द त्रिपाठी, आचार्य रामचन्द्र शुक्ल, आचार्य श्री केशव प्रसाद मिश्र, पण्डित श्री कृष्ण शुक्ल, देवनारायण द्विवेदी, अम्बिका प्रसाद गुप्त, निहाल चन्द वर्मा, जयशंकर प्रसाद, रामचन्द्र वर्मा, बज्ररत्न दास अग्रवाल, सॅवल जी नागर, रायकृष्णदास, कवि पुष्कर, दुर्गा प्रसाद खत्री, सत्यजीवन वर्मा ‘भारतीय’, पाण्डेय बेचन शर्मा ‘उग्र’, डॉ0 पीताम्बर दत्त बड़श्वाल, विनोद शंकर व्यास, चन्दशेखर पाण्डेय, बजरंगबली गुप्त विशारद, वाचस्पति पाठक, रघुनन्दन प्रसाद शुक्ल ‘अटल’, विश्वनाथ प्रसाद मिश्र, हजारी प्रसाद द्विवेदी, पण्डित सीताराम चतुर्वेदी, डॉ0 रामअवध द्विवेदी, करूणापति त्रिपाठी, पद्मानारायण आचार्य, बेनी राम श्री माली, गणेश प्रसाद सिंह ‘मानव’, डॉ0 शिवनारायण श्रीवास्तव, गीतकार सुरेन्द्र कुमार श्रीवास्तव, लालधर त्रिपाठी ‘प्रवासी’, पण्डित गंगाधर मिश्रा, हर्षनाथ, डॉ0 किशोरी लाल गुप्त, त्रिलोचन शास्त्री, शम्भू नाथ सिंह, कुशवाहा कांत, प्रो0 बच्चन सिंह, लोकनाथ श्रीवास्तव, डॉ0 विजयशंकर मल्ल, भोलाशंकर व्यास, पारसनाथ मिश्र सेवक, देवनाथ पाण्डेय ‘रसाल’, श्री ठाकुर प्रसाद सिंह, चन्द्रबली सिंह, कुसुम चतुर्वेदी, श्यामकृष्णदास, सुधाकर पाण्डेय, शिवप्रसाद सिंह, द्विजेन्द्र नाथ मिश्र ‘निर्गुण’, भोजपुरी कवि पण्डित चन्दशेखर मिश्र, चन्दशेखर मिश्र, डॉ0 श्याम तिवारी, त्रिभुवन सिंह, महेन्द्र शंकर ‘अधीर’, गोविन्द प्रसाद श्रीवास्तव, पुरुषोत्तम अग्रवाल, मोहन लाल तिवारी, हीराला तिवारी, डॉ0 कमल गुप्त, दयाशंकर शुक्ल ‘फक्कड़ काशिकेय’, विजय कुमार शाह, लालजी सिंह, श्री ब्रह्मदेव मधुर, सुदामा पाण्डेय धूमिल, श्रुतिनाथ मिश्र, शुकदेव सिंह, प्रेम किशोर पाण्डेय, वासुदेव सिंह, शम्भू नाथ त्रिपाठी, मृत्युंजय कुमार नारायण, विश्वनाथ प्रसाद, पण्डित नाथ तिवारी, रामवृक्ष मिश्र ‘बहाल’, रामदास ‘अकेला’, मोहम्मद सलीम राही, घनश्याम गुप्त, सुषमा पाल, जय प्रकाश वागी, भाष्कर पाठक

बनारस के पत्रकार
राजा शिवप्रसाद सितारे हिन्द, भारतेन्दु हरिश्चन्द्र, बाबूराव विष्णु पराड़कर, मुंशी प्रेमचन्द, मदन मोहन मालवीय, कृष्णदेव प्रसाद गौड़ (बेढ़ब बनारसी), पाण्डेय बेचन शर्मा ‘उग्र’, रामचन्द्र वर्मा, गंगाप्रसाद गुप्त, पं0 गंगाशंकर मिश्र, मुकुन्दीलाल श्रीवास्तव, पण्डित माधव प्रसाद मिश्र, सम्पादकाचार्य लक्ष्मण नारायण गर्दे, गोविन्दशास्त्री ‘दुग्वेकर’, दुर्गाप्रसाद खत्री, रामकृष्ण रघुनाथ खाडिलकर, पं0 रघुनंदन प्रसाद शुक्ल ‘अटल’,मनोरंजन कांजिलाल, विद्याभास्कर, रमापति राय शर्मा, पं0 कमला प्रसाद अवस्थी ‘अशोक’, पं0 कमलापति त्रिपाठी, पं0 देवनारायण द्विवेदी, आचार्य पं0 सीताराम चतुर्वेदी, पं0 दिनेशदत्त झा 

काशी विश्वनाथ मन्दिर

          काशी विश्वनाथ मन्दिर 12 ज्योतिर्लिगों में से एक है। यह मन्दिर पिछले कई हजारों वर्षो से वाराणसी में स्थित है। काशी विश्वनाथ मन्दिर का हिन्दू धर्म में एक विशिष्ट स्थान है। ऐसा माना जाता है कि एक बार इस मन्दिर के दर्शन करने और पवित्र गंगा में स्नान कर लेने से मोक्ष की प्राप्ति होती है। इस मन्दिर में दर्शन के लिए आदि शंकराचार्य, रामकृष्ण परमहंस, स्वामी विवेकानन्द, स्वामी दयानन्द, गोस्वामी तुलसीदास सभी का आगमन हुआ है। पहले सम्राट अकबर ने इस मन्दिर को बनवाने की अनुमति दी थी। बाद में औरंगजेब ने सन् 1669 में इसे तुड़वा दिया और ज्ञानवापी नामक सरोवर के स्थान पर एक मस्जिद बनवा दिया। वर्तमान मन्दिर का निर्माण महारानी अहिल्याबाई होल्कर द्वारा सन् 1780 में करवाया गया था। बाद में महाराजा रंजीत सिंह द्वारा सन् 1853 में 1000 कि.ग्रा. शुद्ध सोने द्वारा मढ़वाया गया। चीनी यात्री ह्वेनसांग के अनुसार उसके समय में 100 मन्दिर थे और एक मन्दिर में 100 फुट ऊँची तांबे की मूर्ति थी किन्तु दुर्भाग्यवश विधर्मियों द्वारा काशी के सहस्त्रों मन्दिर ध्वस्त कर दिये गये और उनके स्थान पर अपने धर्म स्थानों को निर्माण कर दिया। उस समय के प्रसिद्ध शासक औरंगजेब ने काशी का नाम मुहम्मदाबाद रख दिया था मगर यह चल नहीं पाया और काशी में फिर से मन्दिर बनने लगे। शिवलिंग को यात्रियों के सुविधानुसार यत्र तत्र स्थापित किया जाता रहा है (त्रिस्थलीसेतु, पृष्ठ-208)। अस्पृस्यता का जहाँ तक प्रश्न है, त्रिस्थली सेतु पृष्ठ-183 के अनुसार अन्त्यजों के द्वारा लिंग स्पर्श किये जाने में कोई दोष नहीं है क्योंकि विश्वनाथ जी प्रतिदिन ब्रह्मबेला में मणिकर्णिका घाट पर गंगा स्नान करके प्राणियों द्वारा ग्रहण की गयी अशुद्धियों को धो डालते हैं।

काशी नरेश और रामनगर
वाराणसी 18वीं शताब्दी में स्वतन्त्र काशी राज्य बन गया था और बाद के ब्रिटीश शासन के अधीन ये प्रमुख व्यापारिक और धार्मिक केन्द्र रहा। 1910 में ब्रिटीश प्रशासन ने वाराणसी को एक नया भारतीय राज्य बनाया और रामनगर को इसका मुख्यालय बनाया किन्तु इसका अधिकार क्षेत्र कुछ नहीं था। काशी नरेश (काशी के महाराजा) वाराणसी शहर के मुख्य सांस्कृतिक संरक्षक एवं सभी धार्मिक क्रियाकलापों के अभिन्न अंग हैं। आज भी काशी नरेश नगर के लागों में सम्मानित हैं। यहाँ के लोग इन्हें भगवान शिव के अवतार के रूप में मानते हैं। रामनगर वाराणसी जिला का एक तहसील है जो वाराणसी नगर के पूर्वी गंगा तट पर स्थित है। रामनगर में एक किला है जिसे रामनगर किला कहते हैं। और ये यहाँ के राजा काशी नरेश का आधिकारिक और पैतृक आवास है जिसे काशी नरेश राजा बलवंत सिंह ने उत्तम चुनार के बलुआ पत्थर से 18वीं शताब्दी में करवाया था। तब से ये राजाओं का आवास है। किला मुगल स्थापत्य शैली में नक्काशीदार छज्जों, खुले प्रागंण और सुरम्य गुम्बजदार मण्डपों से सुसज्जित बना है। काशी नरेश का एक अन्य महल चैत सिंह महल है जिसे शिवाला घाट के निकट महाराजा चैत सिंह ने बनवाया था। यहीं महाराजा चैत सिंह को ब्रिटीश अधिकारी ने 200 से अधिक सैनिकों के संग मार गिराया था। आधुनिक काशी राज्य वाराणसी का भूमिहार ब्राह्मण राज्य बना है। भारतीय स्वतन्त्रता उपरान्त सभी रजवाड़ों के समान काशी नरेश ने भी अपनी सभी प्रशासनिक शक्तियाँ छोड़ कर मात्र एक प्रसिद्ध हस्ती की भाँति रहना आरम्भ किये। वर्तमान स्थिति में ये मात्र एक सम्मान उपाधि रह गयी है। काशी नरेशों की सूची इस प्रकार है- मंशा राम (सन् 1737-1740), बलवन्त सिंह (सन् 1740-1770), चेत सिंह (सन् 1770-1780), महीप नारायण सिंह (सन् 1781-1794), उदीत नारायण सिंह (सन् 1794-1835), ईश्वरी नारायण सिंह बहादुर (सन् 1835-1889), प्रभु नारायण सिंह (सन् 1889-1931), आदित्य नारायण सिंह (सन् 1931-1939), डाॅ0 विभूति नारायण सिंह (सन् 1939-1947)। डाॅ0 विभूति नारायण सिंह भारतीय स्वतन्त्रता पूर्व अन्तिम नरेश थे। इसके बाद 15 अक्टुबर, 1948 को राज्य भारतीय संघ में मिल गया। सन् 2000 में डाॅ0 विभूति नारायण सिंह की मृत्यु उपरान्त तीन पुत्रियों और एक पुत्र में से एक मात्र पुत्र अनन्त नारायण सिंह ही काशी नरेश हैं और इस परम्परा के वाहक हैं।
काशी (वाराणसी) के रामनगर किले में और व्यास नगर (रामनगर व मुगलसराय के बीच) में वेदव्यास का मन्दिर है जहाँ माघ में प्रत्येक सोमवार मेला लगता है। गुरू पूर्णिमा (आषाढ़ मास पूर्णिमा) का प्रसिद्ध पर्व व्यास जी की जयंती के उपलक्ष्य में मनाया जाता है। पुराणों तथा महाभारत के रचयिता महर्षि का मन्दिर व्यासपुरी में विद्यमान है जो काशी से 5 मील की दूरी पर पूर्व स्थित है। महाराज काशी नरेश के रामनगर दुर्ग के पश्चिम भाग में भी व्यासेश्वर की मूर्ति विराजमान है जिसे साधारण जनता छोटा वेदव्यास के नाम से जानती है। वास्तव में वेदव्यास की यह सबसे प्राचीन मूर्ति है। व्यासजी द्वारा काशी को शाप देने के कारण विश्वेश्वर ने व्यासजी को काशी से निष्कासित कर दिया था। तब व्यासजी लोलार्क मन्दिर के आग्नेय कोण में गंगाजी के पूर्वी तट पर स्थित हुए। इस घटना का उल्लेख काशी खण्ड में इस प्रकार है-
लोलार्कादं अग्निदिग्भागे, स्वर्घुनी पूर्वरोधसि। 
स्थितो ह्यद्यापि पश्चेत्सः काशीप्रासाद राजिकाम्।। - स्कन्दपुराण, काशी खण्ड 96/201

रामलीला और रामनगर
दक्षिण-पूर्व एशिया के इतिहास में कुछ ऐसे प्रमाण मिलते हैं जिनसे ज्ञात होता है कि इस क्षेत्र में प्राचीन काल से ही भगवान राम के जीवन चरित्र का मंचन रामलीला का प्रचलन था। इस क्षेत्र के विभिन्न देशों में रामलीला के अनेक नाम और रूप हैं। इन्हें मुख्य रूप से दो वर्गो ”मुखौटा“ और ”छाया“ रामलीला में विभाजित किया जा सकता है। इण्डोनेशिया और मलेशिया में खेली जाने वाली लाखोन, कंपूचिया की ल्खोनखोल तथा म्यांमार में मंचित होने वाली यामप्वे मुखौटा रामलीला के उदाहरण हैं। मुखौटों के माध्यम से प्रदर्शित की जाने वाली रामलीला को थाईलैण्ड में खीन कहा जाता है। पुतलियों की छाया के माध्यम से प्रदर्शित की जाने वाली रामलीला, जावा तथा मलेशिया की वेयांग और थाईलैण्ड की नंग काफी मशहूर है। भारत के अलग-अलग क्षेत्रों में भी रामलीला के अलग-अलग रंग हैं। वर्तमान समय में कुछ रामलीला समितियाँ तो इन्टरनेट के माध्यम से इसका विश्व स्तर पर प्रचार भी कर रहीं हैं।
कहा जाता है कि रामलीला की शुरूआत वर्ष 1621 ई0 में रामचरितमानस के रचयिता गोस्वामी तुलसीदास की प्रेरणा से हुई। इसी वर्ष वाराणसी के अस्सी घाट पर गोस्वामी तुलसीदास ने एक नाटक के रूप में रामलीला का विमोचन किया था और धीरे-धीरे यह वाराणसी के प्रत्येक क्षेत्र में प्रारम्भ हो गया। कहा जाता है कि काशीराज उदित नारायण सिंह (सन् 1794-1835) की महारानी के एक ताने से ही रामनगर का रामलीला की शुरूआत हुई है। बात यह थी कि उस समय में अब के मीरजापुर के बरईपुर में भोेनू और बिट्ठल साहू नाम के दो व्यवसायी गाँव में रामलीला करवाते थे और काशीराज प्रतिदिन देखने जाते थे। एक बार धनुष यज्ञ की लीला में महाराजा को देर हो गई। आयोजकों ने महाराजा की प्रतिक्षा न करते हुये धनुष तुड़वा दिया। यह बात रास्ते में ही महाराजा कोे पता चल गई और वे वापस रामनगर किले चले गये। वे खुद की उपेक्षा से उदास थे। महारानी के पूछने पर जब उन्होंने सारी बात बतायी तो महारानी ने ताना मारा कि वे दोनों बनिया होकर रामलीला करा सकते हैं और आप महाराज होकर नहीं। इसके बाद काशी नरेश ने हर वर्ष रामलीला करवाने का संकल्प लिया था। उन्होंने किले में ही रामलीला शुरू करा दी। बाद में रामबाग में लीला होने लगी। इसके बाद 4 किलोमीटर के परिक्षेत्र में लीलास्थलों का चयन और शोधन किया गया और अयोध्या, जनकपुर, लंका, पंचवटी, पम्पासर, चित्रकूट आदि स्थान बनाये गये। रामनगर की विश्व प्रसिद्ध रामलीला 22 दिनों में पूरी होती है जो अनन्त चतुर्दशी से प्रारम्भ होकर शरद पूर्णिमा तक चलता है। रामनगर की रामलीला का उपक्रम सुमेरू मंदिर से प्रारम्भ होकर सुमेरू मंदिर पर ही विश्राम होता है। जो जपाख्य क्रम से जप का नियम है रावण जन्म से शुरू होकर यह रामलीला उपवन बिहार के प्रसंग के साथ समाप्त होती है। अनुश्रुतियों के अनुसार यह रामलीला सन् 1806 में प्रारम्भ हुई तथा लगभग 27 वर्ष तक किले में ही सम्पन्न होती रही। रामलीला के अभ्युदय के लिए अनेक प्रयास किये गये, जिसमें दूर-दराज के संतो महात्माओं को बुलाया गयाय उन्हें मार्ग व्यय, भोजन सुविधा, आवास का प्रबन्ध भी किया गया। करीब 200 वर्षों से यह रामलीला वर्तमान में यथारूप विभिन्न शोधित स्थलों पर मंचित की जाती है। करीब 4 किलोमीटर के परिक्षेत्र में स्थित स्थान यथा- अयोध्या, जनकपुरी, चित्रकूट, पंचवटी, लंका आदि नामों से प्रसिद्ध हैं।
रामनगर में विशिष्ट व्यक्तियों के क्रम में महर्षि वेदव्यास के बाद गोस्वामी तुलसीदास जी का भी उल्लेख आता है जिन्होंने तपोवन नामक स्थान पर वेदव्यास की स्वामी भक्ति में कुछ समय के लिए तप किया था। जैसा कि पूर्व में उल्लेख है, रामनगर सम्भ्रान्तों का नगर था। राजा द्वारा स्वयं सम्भ्रान्त लोगों को बसाया गया। जिस प्रकार मुगलों के दरबार में नवरत्नों की भूमिका थी उसी प्रकार काशीराज दरबार में सप्तर्षि का उल्लेख है, जिसमें मुख्य रूप से काष्ठ जिह्वा स्वामी, पंडित रामनिरंजन स्वामी, हरिहर प्रसाद सिंह चैधरी, राजा रघुराज सिंह, बंधन पाठक जी, स्वयंवर प्रसाद पाण्डेय आदि थे। इनके सतत् योगदान का उदाहरण वर्तमान में भी चल रही विश्व प्रसिद्ध रामलीला है। राजतंत्र के समानता वाले परिवारों में हरिशंकर प्रसाद ‘हजारी’, रणबहादुर सिंह, ब्रिटिश काल में पदस्थ व सम्मानित बिना वेतन मजिस्ट्रेट हरिनारायण तिवारी इत्यादि थे। सन् 1963 में रामलीला के संचालन के लिए एक समिति का गठन हुआ था जिसमें-
सभापति- झारखण्डी प्रसाद नारायण सिंह
उप सभापति-हजारी सूरत प्रसाद शुक्ल
मंत्री-महावीर प्रसाद
सदस्य-बृजबिहारी लाल (स्टेट कलेक्टर), चैधरी झुन्नी सिंह, श्री नारायण जी तिवारी, राजकिशोर दास जी, पंडित सुखनन्दन जी तिवारी, बाबू मुन्नी लाल अग्रवाल। दानाध्यक्ष, लक्ष्मण झा, पेशकार, मुंशी भवानी प्रसाद जी थे।

सुमेरू मंदिरसुमेरू मंदिर- देवी भागवत में सुमेरू पर्वत का वर्णन है। पर्वत के पश्चिम दिशा में मणिद्वीप तालाब का वर्णन है। इसके चारों तरफ चार पुरियाँ है। जिसमें नैऋत्य कोण में विष्णु का बैकुण्ठ, वायव्य कोण में कुबेर का अल्कापुरी, इशान कोण में शंकर का कैलाश, आग्नेय कोण में इन्द्र की अमरावती है। दक्षिण दिशा में इन्द्र का नन्दन वन है। सुमेरू पर्वत पर ही रात्रि में समस्त देवता विश्राम करते हैं। रामनगर स्थित सुमेरू मंदिर दुर्गा मंदिर के नाम से जाना जाता है। यह मंदिर अपनी विशिष्ट स्थापत्य कला के लिए उल्लेखनीय है। सुमेरू मंदिर पर शैव, वैष्णव, शाक्त सभी देवताओं का अवतार, भाव चित्रित है। सतयुग से लगायत द्वापर तक सम्पूर्ण अवतार का चित्रण मंदिर की भित्तियों पर किया गया है।

बाला त्रिपुर सुन्दरी मन्दिर - तीनों लोक- अंतरिक्ष, मृत्युलोक तथा नागलोक में जो परम सुन्दर है उसे त्रिपुर सुन्दरी कहा जाता है। जिसकी उपमा न दी जा सके वह त्रिपुर सुन्दरी दस महाविद्या में से एक प्रमुख महाविद्या के रूप में है। इन्हीं का नाम बाला त्रिपुर सुन्दरी, पीताम्बरा, कामाक्षी, ललिता भी है। रामनगर दुर्ग से आग्नेय कोण में इस मंदिर की स्थापना की गयी। आग्नेय कोण में स्थापना इसलिए क्योंकि शक्ति का स्थान अग्निकोण में है। कर्मकाण्ड व तंत्र विद्या में भी शक्ति का स्थान आग्नेय कोण ही है। इस मंदिर में चैसठ योगिनी का भी वर्णन है।

जनकपुर मंदिर - जनकपुर मंदिर की स्थापना सन् 1806 में बनारस स्टेट की कन्या उमा बबुई द्वारा कराया गया। पत्थर के नक्काशीदार खम्भों पर अवस्थित यह मंदिर श्रीराम विवाह के कोहबर की झाँकी के लिए विश्व प्रसिद्ध है। इस मंदिर पर ही रामलीला के राम विवाह एवं धनुष यज्ञ का मंचन होता है। मंदिर के गर्भ गृह में श्रीराम समेत चारों भाईयों एवं उनकी पत्नियों का एक साथ दर्शन पूरे विश्व में अन्यत्र कहीं नहीं है।

वेदव्यास मंदिर (साहुपुरी) - संभवतः यह मंदिर 18वीं शताब्दी में बना है। वेदव्यास की तपः स्थली होने के कारण यहाँ पर व्यास मेले का आयोजन होता है। व्यास मेला प्राचीन समय से ही मनाया जाता है। मेले के उद्देश्य में मात्र भ्रमण व निवास ही नहीं, बल्कि व्यास परिक्षेत्र से आध्यात्मिक सुख एवं पुण्य प्राप्ति भी है। मंदिर की प्रमुख विशेषता में यहाँ गर्भगृह में स्थित शिवलिंग हैं। यहाँ शिवलिंग प्रतिवर्ष अपने आकार में कुछ बढ़ जाते हैं।
काशीराज ग्रंथालय सरस्वती भण्डार - काशीराज ग्रंथालय अति प्राचीन है इसकी शुरूआत ईश्वरी प्रसाद नारायण सिंह ने किया था। बाद में जिसका संचालन विभूति नारायण सिंह के कार्यकाल तक हुआ। इस ग्रंथालय में अनेक दुर्लभ पुस्तकों का भण्डार है। वर्तमान में प्रशासकीय अक्षमताओं के चलते यह बंद पड़ा है।

पुराण प्रकाशन - किले में पुराण प्रकाशन की स्थापना पुरूषोत्तम शर्मा चतुर्वेदी ने की थी, जो की मेयो कॉलेज, अजमेर में विभागाध्यक्ष थे। यहीं पर विभूति नारायण सिंह अध्ययन कर रहे थे। पढ़ाई समाप्त होने के बाद जब विभूति नारायण सिंह कॉलेज से विदाई ले रहे थे उसी दिन श्री चतुर्वेदी भी सेवानिवृत्त हुए। विभूति नारायण सिंह के साथ ही पुरूषोत्तम शर्मा चतुर्वेदी भी रामनगर किले में आ गये। यहाँ उन्होंने प्रेस मशीन लगवाई जिसमें अभावग्रस्त बच्चों को कम्पोजिंग करना सिखाया तथा उन्हें पढ़ने योग्य बनाया। यहाँ से कई दुर्लभ ग्रन्थ व पुराणों पर टीका भी लिखी गयी।

दुर्गा मन्दिर (रामनगर) - रामनगर किले से लगभग दो किमी की दूरी पर स्थित दुर्गा मंदिर काशी नरेश महाराज बलवन्त सिंह के शासनकाल में निर्मित अद्भुत कृति है। विविध शैलीगत विशेषताओं के इस मंदिर में राजस्थान उड़ीसा मुगल क्षेत्रीय आदि शिल्प गत विशेषताओं के साथ ही शिल्प के कुछ अनूठे प्रयोग भी देखे जा सकते हैं। इसे सुमेरू मंदिर के नाम से भी जाना जाता है। इस मंदिर का निर्माण काशी राज परिवार के द्वितीय राजा बलवंत सिह (1740-1760) के द्वारा प्रारम्भ कराया गया परन्तु उनके जीवन काल में यह पूर्ण न हो सका। कालान्तर में महाराजा चेतसिंह ने मन्दिर के कलश आदि भाग का निर्माण कार्य कराया। यह मंदिर एक परकोटे के मध्य स्थित है। परकोटे के चारों ओर बुर्जनुमा कक्ष बने हैं। मन्दिर के सम्मुख एक तालाब है। मुख्य प्रवेश द्वार के दोनों ओर बंगाल शैली के झोपड़ीनुमा गृह बने है जो वर्तमान में आवास हेतु उपयोग होते हैं। प्रवेश द्वार के सामने ही एक ऊँची जगति पर दुर्गा मंदिर बना है। मंदिर की जगति पर दो भागों में विभिन्न सोपानों द्वारा प्रवेश किया जाता है। इस मंदिर की तल छन्द योजना में केवल वर्गाकार गर्भगृह है जिसमें चारों दिशाओ से प्रवेश द्वार बने है। उत्तर-दक्षिण एवं पश्चिम दिशा में बने द्वारों का उपयोग प्रवेश हेतु होता हैं परन्तु पूर्व दिशा में निर्मित द्वार पाषाण निर्मित है, जो अलंकरण व संयोजन के संतुलन हेतु निर्मित हैं। मुख्य प्रवेश द्वार पश्चिमाभिमुख है। चारों प्रवेश द्वारों के आगे मुखमण्डप का निर्माण हुआ है जो अलंकृत स्तंभों पर आधारित हैं प्रवेश द्वार के तोरण स्तंभो पर नृत्यरत मयूर की आकृतियां है। मंदिर का तोरण भाग इस्लामिक वास्तु से प्रभावित मेहराबनुमा अलंकरण युक्त है। पश्चिम द्वार पर गणेश, रिद्धि और सिद्धि देवियों के साथ अंकित किये गये हैं। चारों प्रवेश द्वार पर गणेश की पद्मासीन मूर्तियां उत्कीर्ण हैं। मंदिर के पूर्वी भित्ति पर जगन्नाथ सुभद्रा और बलभद्र की मूर्ति उत्कीर्ण है। दुर्गा मन्दिर के इस मूर्ति का उदाहरण पुरी के जगन्नाथ मूर्ति की आधार पर बना है। ऐसे भी उल्लेख और अनुभुतियाँ है कि यह मन्दिर एक वैष्णव मंदिर है। यहीं से रामनगर की रथयात्रा की प्रारम्भ होती है। मंदिर की वर्गाकार संरचना और उड़ीसा शैली के पीढ़ादेउल प्रकार के शिखर इसकी विशिष्टता है। इसका उदाहरण परशुरामेश्वर मंदिर भुवनेश्वर (उड़ीसा) से ले सकते हैं। जहाँ एक ओर मंदिर के प्रत्येक द्वार राजाओं पर दो-दो द्वारपालों के हाथ में दण्ड कमण्ड, कमल, शंख का अंकन इसे वैष्णव सम्प्रदाय से जोड़ता है वहीं पश्चिमी द्वार के सामने सिंह, उत्तरी द्वार के सामने गरूड़, एवं दक्षिणी द्वार के सामने नन्दी का अंकन इसे एक साथ शाक्त, वैष्णव, एवं शैव धर्म के प्रभाव को स्पष्ट करता है। कनतहंप्रवेश द्वार के सिरदलों पर बने मेहराब तथा उनमें लगी अलंकृत घुड़ियां मुगल वास्तु से प्रभावित हैं तो पश्चिमी द्वार राजाओं तथा सिरदल एवं पटों पर बनी मयूर की सर्पहारी तथा नृत्यरत आकृतियां गुजरात एवं राजस्थान की शिल्प अलंकरण शैली दर्शाती है। प्रवेश द्वारों पर बछड़ा सहित गाय का अंकन विशेष है जो कुषाण काल से लेकर गुप्तकाल तक अधिक प्रचलित रहा। मन्दिर के मण्डोवर पर उत्कीर्ण गजारूढ़ सिंह की आकृतियां अस्वाभाविक एवं काल्पनिक हैं। पंखधारी अस्वाभाविक सिंह आकृतियां शासकों के साम्राज्य विस्तार व शक्ति की सूचक है। ऐसा अंकन खजुराहों के मंदिरो पर बने गजधर एवं सिंह ब्याल आकृतियों को प्रतिबिम्बित करता है। प्राचीन भारतीय मंदिरों में प्रवेश द्वार पर गंगा व यमुना देवियों का अंकन गुप्त काल से मध्यकला के बीच देखा जाता है। इसमें मकरारूढ़ देवी गंगा एवं कच्छपारूढ़ देवी यमुना की मूर्तियां बनती है परन्तु रामनगर में प्रवेश द्वार के सिरदल पर देवियों को वाहनों पर बैठे दिखाया गया है। साथ ही देवी सरस्वती की उपस्थिती भी शैलीगत भिन्नता है। तीनो देवियों की एक साथ उपस्थिती का उदाहरण ऐलोरा में देखा जा सकता है। इसी प्रकार दक्षिणी भित्ति पर उत्कीर्ण नर-नारायण की चतुर्भुजी मूर्ति काशी में अद्वितीय है। ऐसी मूर्ति का प्रारम्भिक अंकन देवगढ़ के दशावतार मंदिर पर मिलता है। दक्षिणी भित्ति पर ही मल्लयुद्ध का एक सुन्दर दृश्य है। जो काशी के मनोरंजन के लोकप्रिय अंश को प्रस्तुत करती है। मंदिर के वरण्ड भाग पर उत्कीर्ण अप्सरा मूर्तियां संगीत विद्या का प्रतीक है। इनके हाथों में वीणा, सितार, सारंगी, शहनाई, संतूर, वायलिन, मृदंग, सरोद, तबला, ढ़ोलक, बासुरी आदि वाद्ययंत्र काशी के संगीत महत्व को दर्शाते है। वहीं वेशभूषा में लम्बा चोंगा, सिलवरों वाला पायजामा, ओढ़नी के साथ माथे पर बिंदी, मस्तक पर मुकुट के साथ पंखधारी राजस्थानी प्रभाव वाली आकृतियां सम्भवतः मणिकर्णिका के शिव मंदिर पर बनी आकृतियों से प्रभावित है जिन्हें जोधपुर के शिल्पियों द्वारा बनाया गया।
      मंदिर के उत्तर पूर्वी कोना (ईशान कोण) पर स्थित माता छिन्न मस्तिका देवी का मन्दिर इस अद्भुत मंदिर को और भी भव्यता प्रदान करता है। वर्तमान में प्रतिदिन सुबह-शाम होने वाली आरती तथा शंख घण्टा, घड़ियाल की ध्वनि के साथ मातारानी की जय का उद्घोष सम्पूर्ण वातावरण को द्विव्यता प्रदान करता है।

काशी चैरासी कोस यात्रा 
दण्डी स्वामी शिवानन्द सरस्वती जी बीसवीं शताब्दी के सुविख्यात सन्त धर्म सम्राट स्वामी हरिहरानन्द सरस्वती स्वामी करपात्री जी महाराज (सन् 1902-1982) के कृपापात्र शिष्य हैं और आपने सनातन धर्म के प्रचार-प्रसार में युगान्तकारी योगदान किया है। दण्डी स्वामी शिवानन्द जी का जन्म सन् 1932 ई0 में माघ शुक्ल बसन्त पंचमी, सरस्वती जन्मोत्सव के दिन प्रातः 7 बजे काशी के मणिकर्णिका घाट पर हुआ। दण्डी स्वामी शिवानन्द सरस्वती जी के बचपन का नाम शिवनारायण उपाध्याय था। इनके पिता अयोध्या हनुमानगढ़ी के रहने वाले थे। पिता का नाम भोला नाथ व माता का नाम उमा देवी था। सन् 1948 में इन्होंने करपात्री जी से दीक्षा ग्रहण की। स्वामी शिवानन्द सरस्वती जी ने अपने अथक परिश्रम से काशी की वृहद चैरासी कोस यात्रा की खोज की है। रूद्र प्रताप गौतम जी ने अपनी पुस्तक ”काशी यात्रा“ में लिखा है कि मुगल शासन काल में लुप्त हुई अनेक यात्रा के समान यह यात्रा भी लुप्त हो गई थी। चैरासी कोस परिक्रमा दर्शन यात्रा स्वामी शिवानन्द जी प्रतिवर्ष फाल्गुन शुक्ल प्रतिपदा के दिन प्रातः 8 बजे अपने भक्तों के साथ करते हैं।
यह यात्रा फूलमण्डी, ज्ञानवापी से चलकर मणिकर्णिका घाट में स्नान करने के बाद प्रारम्भ होती है। पंचगंगा घाट से नौका द्वारा गंगा पार कर सेमरा, बखरा, व्यासपुर होते हुए वेदव्यास नगर, चाँदी तारा गाँव पहुँचेगें। यह प्रथम पड़ाव है। दुर्गा जी, रामबाग दर्शन करके बालत्रिपुरी सुन्दरी देवी, रतनबाग, का दर्शन करते रामनगर उद्योग कारखाना जीवनाथपुर, पटनवाँ, गोपालपुर, भवानीपुर, नारायणपुर होते हुए विष्णुधाम, वैकुण्ठपुर मीरजापुर में दूसरा पड़ाव है। फिर वैकुण्ठपुर से शिवशंकरी धाम में दर्शन करते हुए कैलहट, जमुई बाजार, पाॅवर हाउस के पश्चिम राजकीय डिग्री काॅलेज होते हुए आचार्य जी के मन्दिर में तीसरा पड़ाव वल्ल्भाचार्य धाम है। फिर चुनार घाट होते हुए खानपुर, पाहों गाँव होते हुए कछवाँ बाजार में दाहिने तरफ पोखरा और हनुमान जी के मन्दिर में चैथा पड़ाव हनुमानधाम है। हनुमान धाम से कछवाँ रोड, कपसेठी कालिका बाड़ा होते हुए कालिकाधाम में पाँचवाँ पड़ाव है। यहाँ कुआँ और कुण्ड विद्यमान है। अनेई, यज्ञशाला होते हुए नकटी सिद्धेश्वरी भवानी में छठाँ पड़ाव है। फिर देवधूरा चेहरा, विन्दा सूरही गाँव खालिशपुर, रेलवे फाटक, चारा फैक्ट्री के दक्षिण बगल से सिन्धौरा बाजार रामबाबा आश्रम में इण्टर काॅलेज के पास सिद्ध हनुमान मन्दिर में पशुपति धाम में सातवाँ पड़ाव है। फिर सिन्धौरा से भरतपुर, जगदीशपुर वेला होते हुए हरिहरपुर करपात्री नगर में आठवाँ पड़ाव है। हरिहरपुर से धरहरा, राजबाड़ी मार्कण्डेय महादेव होते हुए गंगा किनारे राम मन्दिर मार्कण्डेश्वर धाम में नौवाँ पड़ाव है। नौका द्वारा गंगा पार करके टाण्डा, नाथूपुर, मजदहा, लक्ष्मणपुर में लक्ष्छू बाबा के दर्शन करके मन्दिर से दक्षिण से पूर्व नारद गाँव, परासी नहर, मोहरगंज, प्रभुपुर होते हुए सकलडीहाँ पोखरा महेश्वर शंकर जी के मन्दिर में दसवाँ पड़ाव है। सकलडीहा से अलीनगर जाने वाली सड़क से कुचमन रेलवे फाटक पार कर इण्डियन आॅयल, अलीनगर, गोधना त्रिमुहानी से गोधना गाँव होते हुए गोरी गाँव अमरनाथधाम नागेश्वर जी के मन्दिर में ग्यारहवाँ पड़ाव है। फिर जीवनाथपुर होते हुए रतनबाग में बाल त्रिपुरसुन्दरी मन्दिर का पुनः दर्शन करें। यह मन्दिर चैरासी कोस यात्रा का केन्द्र बिन्दु है। रतन बाग से रामनगर किला होते हुए सामने घाट। नगवाँ एवं असी से दो मार्ग हैं। एक असी घाट से होते हुए एवं दूसरा गली-गली से केदारेश्वर होते हुए। दशाश्वमेध सड़क से विश्वनाथ गली में साक्षी विनायक के दर्शन करके अन्नपूर्णा विश्वनाथ आदि के दर्शन करके ज्ञानवापी में नन्दी के पास व्यास गद्दी पर संकल्प छोड़कर यात्रा पूर्ण होती है।

काशी (वाराणसी) - घटना क्रम की दृष्टि में
मार्क ट्वेन ने लिखा है कि “वाराणसी इतिहास से भी प्राचीन है, परम्परा की दृष्टि से भी अतिशय प्राचीन है और मिथकों से कहीं अधिक प्राचीन है और यदि तीनों (इतिहास, परम्परा और मिथक) को एक साथ रखा जाए तो यह उससे दोगुनी प्राचीन है।” प्रस्तुत है अतीत के आईने में झाँकते हुए काशी से जुड़ी प्रमुख तिथियों एवं घटनाओं का विवरण-
द्वापर युग - काशी के राजा शौन हौत्र थे जिनके तीसरी पीढी में जन्मे दिवोदास भी काशी के राजा हुये।
9वीं सदी, ई0पू0 - शंकराचार्य की काशी-यात्रा और ‘शंकरदिग्विजय’ तथा ‘ब्रह्मसू-भाष्य’ की रचना।
816 ई0पू0 - आदि जगदगुरू शंकराचार्य का काशी में आगमन हुआ।
800 ई0पू0 - राजघाट (वाराणसी) में प्राचीनतम बस्ती और मिट्टी के तटबंध के पुरावशेष
8वीं सदी ई0पू0 - तेईसवें जैन तीर्थंकर पार्श्वनाथ का काशी में जन्म।
7वीं सदी ई0पू0 - काशी एक स्वतंत्र महाजनपद।
625 ई0पू0 - काशी सारनाथ में सर्वप्रथम भगवान बुद्ध ने बौद्धधर्म का उपदेश दिया था।
405 ई0पू0 - चीनी यात्री फाह्यान का काशी में आगमन हुआ।
340 ई0पू0 - सम्राट अशोक की वाराणसी-यात्रा। सारनाथ में अशोक-स्तंभ और धम्मेख तथा धर्मराजिक स्तूपों की स्थापना।
1 ई0 से 300 ई0 - राजघाट के पुरावशेषों के आधार पर वाराणसी के इतिहास में समृद्धि का काल।
सन् 302 - मणिकर्णिका घाट का निर्माण हुआ था
सन् 580 - पचगंगा घाट का निर्माण हुआ।
12वीं सदी - काशी पर गहड़वालों का शासन। गहड़वाल नरेश गोविन्दचंद्र के राजपंडित दामोदर द्वारा तत्कालीन लोकभाषा (कोसली) में उक्तिव्यक्ति प्रकरण की रचना। गोविंदचंद्र की रानी कुमारदेवी ने सारनाथ में विहार बनवाया। गहडवाल युग में काशी के प्रधान देवता अविमुक्तेश्वर शिव की विश्वेश्वर में तब्दीली।
सन् 1193 - काशीराज जयचंद की मृत्यु।
सन् 1194 - कुतुबुद्दीन का काशी पर आक्रमण हुआ, जिसने विष्णु-मंदिर को तोड़कर ढाई कंगूरे की मस्जिद बनवा दी।
सन् 1194 व 1197 - काशी पर शहाबुद्दीन और कुतुबुद्दीन ऐबक के हमले। काशी की भारीलूट। गहडवालों का अंत।
सन् 1248 - दूसरी बार मुहम्मद गोरी का आक्रमण हुआ।
सन् 1393 - माघ शुक्ल पूर्णिमा को काशी में रविदास का जन्म हुआ।
सन् 1516 - फरवरी माह में चैतन्य महाप्रभु का काशी में आगमन हुआ, जहाँ पर ठहरे थे वह स्थान चैतन्य वट के नाम से प्रसिद्ध है।
सन् 1526 - बाबर ने इब्राहीम लोदी को पराजित करने के बाद काशी पर भी आक्रमण किया।
सन् 1531 - बनारस व सारनाथ में हुमायूं का डेरा।
सन् 1538 - बनारस पर शेरशाह की चढ़ाई।
सन् 1553 - सिख सम्प्रदाय के प्रथम गुरु श्री गुरूनानक देव जी का काशी आगमन हुआ और काशी में कई वर्षघें तक ठहरे थे। यह स्थान आज गुरुबाग के नाम से प्रसिद्ध है।
सन् 1565 - काशी पर बादशाह अकबर का कब्जा।
सन् 1583-91 - प्रथम अंग्रेज यात्री रॉल्फ फिच की वाराणसी-यात्रा।
सन् 1584 - काशी में ज्ञानवापी स्थित प्राचीन विश्वेश्वर मन्दिर का निर्माण दिल्ली सम्राट अकबर के दरबारी राजा टोडरमल के द्वारा हुआ।
सन् 1585 - राजा टोडरमल और नारायण भट्ट की मदद से विश्वनाथ मंदिर का पुननिर्माण।
सन् 1600 - राजा मान सिंह द्वारा काशी में मानमंदिर और घाट का निर्माण।
सन् 1623 - सोमवंशी राजा वासुदेव के मंत्री नरेणु रावत के पुत्र श्री नारायण दास के दान से काशी में मणिकर्णिका घाट स्थित चक्रपुष्करणी तीर्थ का निर्माण हुआ।
सन् 1642 - विंदुमाधव मन्दिर ( प्रथम ) का निर्माण जयपुर के राजा जयसिंह द्वारा हुआ।
सन् 1656 - दारा शिकोह की बनारस यात्रा।
सन् 1666 - औरंगजेब की आगरा-कैद से भागकर छत्रपति शिवाजी कुछ दिन काशी में ठहरे।
सन् 1669 - औरंगजेब के आदेश से विश्वनाथ मंदिर गिरा कर उसके स्थान पर ज्ञानवापी की मस्जिद उठा दी गई। बिंदुमाधव का मन्दिर भी गिराकर वहां मस्जिद बनाई गई।
सन् 1669 - औरंगजेब के समय में उसकी आज्ञा से ज्ञानवापी का विश्वेश्वर मन्दिर तोड़ा गया।
सन् 1669 - छत्रपति शिवाजी आगरे के किले से औरंगजेब को चकमा देकर कैद से निकल कर सीधे काशी आये। यहाँ आकर पंचगंगा घाट पर स्नान किया।
सन् 1673 - काशी में औरंगजेब द्वारा बेनी माधव का मन्दिर तोड़ा गया।
सन् 1699 - आमेर के महाराज सवाई जयसिंह ने काशी में पंचगंगा घाट पर राम मन्दिर बनवाया था।
सन् 1714 - गंगापुर ग्राम में कार्ति्तक कृष्ण पक्ष में काशीराज महाराज बलवन्त सिंह का जन्म हुआ।
सन् 1725 - काशी राज्य की स्थापना।
सन् 1734 - नारायण दीक्षित पाटणकर का वाराणसी आगमनय उन्होंने यहां कई घाट बनवाए।
सन् 1737 - महाराजा जयसिंह नें मानमन्दिर वेधशाला का निर्माण कराया।
सन् 1740 - बलवन्त सिंह के पिता श्री मनसाराम का देहावसान हो गया।
सन् 1741-42 - गंगापुर में तत्कालीन काशीराज द्वारा दुर्ग का निर्माण कराया गया।
सन् 1737 - सवाई जयसिंह द्वारा मानमंदिर- वेधशाला की स्थापना।
सन् 1747 - राजा बलवन्त सिंह ने चन्देलवंशी राजा को पराजित कर विजयगढ़ पर अधिकार किया।
सन् 1752 - काशीराज बलवंत सिंह द्वारा रामनगर किले का निर्माण।
सन् 1754 - महाराज बलवन्त सिंह ने पलिता दुर्ग पर विजय पाया।
सन् 1755 - बंगाल, नागौर राज्य की रानी भवानी के द्वारा पंचक्रोशी स्थित कर्दमेश्वर महादेव के सरोवर का निर्माण हुआ।
सन् 1756 - रानी भवानी ने भीमचण्डी के सरोवर का निर्माण करवाया।
सन् 1770  - 21 अगस्त को महाराज बलवन्त सिंह का स्वर्गवास हुआ।
सन् 1770 -81 - काशी पर महाराज चेतसिंह का शासन था।
सन् 1777  - महारानी अहिल्याबाई ने विश्वनाथ मंदिर का नवनिर्माण कराया।
सन् 1781 - 16 अगस्त को काशी में शिवाला घाट पर अंग्रेजी सेना से राजा चेतसिंह के सिपाहियों का संघर्ष हुआ। यह विद्रोह राजभक्त नागरिकों द्वारा मारे गये।
सन् 1781 - अगस्त में काशी की देश भक्त जनता की क्रांति से भयभीत होकर वारनेहेस्टिंग्स जनाने वेश में नौका द्वारा चुनार भाग गया।
सन् 1781-94 - काशी राज्य पर महाराज महीप नारायण का राज्य था।
सन् 1785 - काशी में महारानी अहिल्या बाई द्वारा विश्वनाथ मन्दिर का निर्माण हुआ।
सन् 1787-95 - जोनाथन डंकन बनारस के रेजिडेंट।
सन  1787 - काशी में प्रथम बार भूमि का बन्दोबस्त मिस्टर डंकन साहब के द्वारा हुआ जो डंकन बन्दोबस्त के नाम से जाना जाता है।
सन् 1791 -  वाराणसी में संस्कृत पाठशाला (अब संस्कृत विश्वविद्यालय) का प्रस्ताव जोनाथन डंकन ने रखा था।
सन् 1794 - काशी राजकीय संस्कृत विद्यालय (क्वींस कालेज) की स्थापना।
सन् 1802 - बनारस की पहली पक्की एवं मुख्य सड़क दालमण्डी, राजादरवाजा, काशीपुरा, औसानगंज होते हुये जी.टी. रोड तक बनाई गई।
सन् 1814 - बनारस में लार्ड हेस्टिंग्स का आगमन और दरबार।
सन् 1816 - पश्चिम बंगाल के राजा जयनारायण द्वारा रेवड़ी तालाब मुहल्ले में अंग्रेजी भाषा के प्रथम विद्यालय ’जयनारायण हाईस्कूल’ (वर्तमान में यह इण्टर कालेज) की स्थापना।
सन् 1818 - काशी के अस्सी मुहल्ले में रानी लक्ष्मीबाई का जन्म हुआ।
सन् 1820 - वर्तमान न्यायालय भवन (कलेक्ट्री कचहरी) का निर्माण हुआ।
सन् 1822 - जेम्स प्रिंसेप ने बनारस का सर्वेक्षण किया।
सन् 1825 - बाजीराव पेशवा द्वितीय ने कालभैरव मन्दिर का निर्माण कराया।
सन् 1827 - फारसी शायर मिर्जा गालिब का काशी में आगमन, जो वर्तमान घुघरानी गली में ठहरे थे।
सन् 1828 - ज्ञानवापी के खंडित सरोवर की रक्षा हेतु ग्वालियर रानी बैजबाई ने एक कूप बनवाया।
सन् 1828-29 - जेम्स प्रिंसेप द्वारा बनारस की जनगणनाय कुल आबादी-1,80,000
सन् 1830 - विश्वेश्वरगंज स्थित गल्ला मण्डी (अनाज की सट्टी) का निर्माण हुआ।
सन् 1835 - काशीराज महाराज ईश्वरी नारायणसिंह राज्य पर बैठे तथा 1889 में उनका स्वर्गवास।
सन् 1839 - पंजाब के महाराजा रणजीत सिंह के द्वारा काशी विश्वनाथ मन्दिर के कलश पर स्वर्ण-पत्र-चढ़ाया गया।
सन् 1845 - बनारस का पहला सप्ताहिक समाचार पत्र ’बनारस’ प्रकाशित हुआ।
सन् 1853 - वाराणसी कैंट रेलवे स्टेशन का निर्माण पूरा हुआ।
सन् 1866 - काशी म्यूनिसिपल बोर्ड (नगर पालिका) की स्थापना हुई।
सन् 1867 - काशी में प्रथम बार चुंगी (कर) लगी।
सन् 1869 -  22 अक्टूबर को काशी में स्वामी दयानन्द सरस्वती का आगमन हुआ। दुर्गा कुण्ड पर राजा माधव सिंह बाग में विद्वानों से शास्त्रार्थ हुआ।
सन् 1872 - कमिश्नर सी.पी. कारमाइकल के नाम पर ज्ञानवापी में लाइब्रेरी की स्थापना।
सन् 1875 - कुँवर विजयनगरम् श्री गजपति सिंह के द्वारा टाउनहाल का निर्माण हुआ। जिसका उद्घाटन सन् 1876 में प्रिस ऑफ वेल्स के द्वारा हुआ।
सन् 1880-87 - राजघाट पुल (डर्फिन ब्रिज) का निर्माण हुआ।
सन् 1882 - नागरी प्रचारिणी सभा पुस्तकालय एवं बंग साहित्य पुस्तकालय की स्थापना।
सन् 1882 - काशी में गंगा की अधिक बाढ़ हुई थी। कोदई-चैकी तक नावें चली थीं।
सन् 1885 - काशी में कांग्रेस कमेटी की स्थापना हुई। इसकी प्रथम बैठक रामकली चैधरी के बाग में हुई थी। जिसके सदस्य डॉ0 छन्नू लाल, बसीउद्दीन मुख्तार, मु0 माधोलाल, उपेन्द्रनाथ, वृन्दावन वकील थे।
सन् 1887 - राजघाट स्थित गंगा पर रेल-सड़क पुल का उद्घाटन।
सन् 1888 - काशी यात्रा के लिये स्वामी विवेकानन्द का आगमन हुआ।
सन् 1889-31 - काशी राज्य पर महाराज प्रभुनारायण सिंह का राज्य था।
सन् 1890 - भेलुपुर स्थित जल संस्थान का महारानी विक्टोरिया के पौत्र प्रिंस एलबर्ट विक्टर द्वारा शिलान्यास।
सन् 1891 - सारनाथ में अनागारिक धर्मपाल द्वारा महाबोधि संस्था स्थापित हुई।
सन् 1892 - 14 नवम्बर को तत्कालीन संयुक्त प्रांत के गवर्नर द्वारा भेलुपुर जल संस्थान का उद्घाटन।
सन् 1893 - ‘काशी नागरी प्रचारिणी सभा’ की स्थापना।
सन् 1897 - पादरी जानसन के द्वारा काशी में गिरजाघरों का निर्माण हुआ। प्रथम-सिगरा, दूसरा-गोदौलिया का।
सन् 1898 - आर्यभाषा पुस्तकालय की स्थापना।
सन् 1904 - तत्कालीन काशी नरेश की अध्यक्षता में काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के स्थापना के लिये पहली बैठक हुई।
सन् 1910 - काशी में हिन्दी साहित्य सम्मेलन की स्थापना हुई।
सन् 1910 - सारनाथ संग्रहालय का निर्माण कराया गया।
सन् 1916 - पं0 मदन मोहन मालवीय के प्रयासों से काशी हिन्दू विश्वविद्यालय की स्थापना।
सन् 1918 - काशी में प्रथम सिनेमा घर का निर्माण बैजनाथ दास शाहपुरी द्वारा बांसफाटक पर मदन थियेटर के नाम से हुआ।
सन् 1920 - काशी विद्यापीठ की स्थापना।
सन् 1920 - महात्मा गांधी काशी में आये और तीन दिनों तक ठहरे।
सन् 1921 - 10 फरवरी को गांधी जी का पुनः काशी आगमन हुआ। तीसरी बार 1921 में उन्होंने विद्यापीठ का शिलान्यास किया।
सन् 1925 - 26 दिसम्बर को काकोरी षडयन्त्र के सम्बन्ध में वाराणसी में अनेक लोगों को गिरफ्तार किया गया। इसमें काशी के राजेन्द्र लाहिड़ी को फाँसी दी गयी।
सन् 1928 - वाराणसी मे बिजलीकरण।
सन् 1931 - जून मे प्रथम बार नेता जी सुभाषचन्द्र बोस का आगमन हुआ। दशाश्वमेध स्थित चितरंजन दास पार्क में अभिमन्यु दल द्वारा मानपत्र दिया गया। टाउनहाल के मैदान में नव जवान भारत सभा की ओर से एक सभा हुई।
सन् 1933-34 - रिक्शे की सवारी की शुरुआत ‘दी रेस्टोंरेंट’ के मालिक बद्री बाबू नें की।
सन् 1934 - 13 जनवरी को काशी में भूकम्प आया।
सन् 1934 - 28 दिसम्बर को राजा बलदेव दास बिड़ला के दान से सारनाथ में एक धर्मशाला का निर्माण हुआ।
सन् 1937 - ‘भारतमाता मन्दिर’ का महात्मा गांधी द्वारा उद्घाटन।
सन् 1939 - काशी राज्य में प्रजा की माँग पर काशी नरेश श्री महाराज आदित्य नारायण सिंह ने प्रजा परिषद की घोषणा की।
सन् 1940 - राजघाट (वाराणसी) के उत्खनन की शुरूआत।
सन् 1948 - 15 अक्टूबर को बनारस राज्य का भारतीय संघ में विलय हुआ।
सन् 1956 - बुद्ध-पूर्णिमा के दिन ‘बनारस’ को अधिकृत रूप से पुराना ‘वाराणसी’ नाम दिया गया।
सन् 1964 - तुलसी मानस मन्दिर (दुर्गाकुण्ड के पास) का निर्माण हुआ।
सन् 1986 - काशी में हरिश्चन्द्र घाट पर प्रथम शवदाह गृह स्थापित किया गया।


काशी (वाराणसी) में श्री कृष्ण
महाभारत काल में काशी भारत के समृद्ध जनपदों में से एक था। महाभारत में वर्णित एक कथा के अनुसार एक स्वयंवर में पाण्डवों और कौरवों के पितामह भीष्म ने काशी नरेश की तीन पुत्रियों अंबा, अंबिका और अंबालिका का अपहरण किया था। इस अपहरण के परिणामरूवरूप काशी और हस्तिनापुर की शत्रुता हो गई। कर्ण ने भी दुर्योधन के लिए काशी के राजकुमारी का बलपूर्वक अपहरण किया था, जिस कारण काशी नरेश महाभारत के युद्ध में पाण्डवों की तरफ से लड़े थे। कालांतर में गंगा की बाढ़ ने हस्तिनापुर को डुबो दिया, तब पाण्डवों के वंशज वर्तमान इलाहाबाद जिले में यमुना किनारे कौशाम्बी में नई राजधानी बनाकर बस गये। उनका राज्य वत्स कहलाया और काशी पर वत्स का अधिकार हो गया।

काशी (वाराणसी) में भगवान बुद्ध
स्कन्द पुराण के काशी खण्ड (85, 112-113) में यह उल्लेंख है कि काशी से उत्तर में धर्म क्षेत्र सारनाथ विष्णु का निवास स्थान है जहाँ उन्होंने बुद्ध का रूप धारण किया था। सारनाथ, काशी से 7 मील पूर्वोत्तर में स्थित बौद्धों का प्रचीन तीर्थ है। ज्ञान प्राप्ति के पश्चात भगवान बुद्ध ने अपना प्रथम उपदेश यहीं दिया था। यहीं से उन्होंने ”धर्म चक्र प्रवर्तन“ प्रारम्भ किया था। जहां भगवान बुद्ध ने अपना प्रथम प्रवचन दिया था। इसमें उन्होंने बौद्ध धर्म के मूलभूत सिद्धान्तों का वर्णन किया था। यहाँ चैखण्डी स्तूप भी स्थित है जहाँ बुद्ध अपने प्रथम शिष्यों से (लगभग 5वीं शताब्दी ईसापूर्व) मिले थे। वहाँ एक अष्टभुजी मीनार बनवायी गयी थी। अशोक-पूर्व स्तूपों में से कुछ ही शेष हैं, जिनमें से एक धामेक स्तूप यहीं अब भी खड़ा है, हालांकि अब उसके मात्र आधारशिला के अवशेष ही शेष हैं। यहाँ पर सारंगनाथ महादेव का मन्दिर भी है जहाँ श्रावण मास में हिन्दुओं का मेला लगता है। सारनाथ, जैन तीर्थ भी है। जैन ग्रन्थों में इसे सिंहपुर कहा गया है। सारनाथ की दर्शनीय वस्तुए अशोक का चतुर्मुख सिंह स्तम्भ, भगवान बुद्ध का मन्दिर, धम्मेख स्तूप, चैखण्डी स्तूप, राजकीय संग्रहालय, जैन मन्दिर, चीनी मन्दिर, मूलगंध कुटी और नवीन विहार हैं। मुहम्मद गोरी ने इसे नष्ट-भ्रष्ट कर दिया था। सन् 1905 में पुरातत्व विभाग ने यहाँ खुदाई का काम प्रारम्भ किया उसी समय बौद्ध धर्म के अनुयायीयों और इतिहास के विद्वानों का ध्यान इधर गया। वर्तमान में सारनाथ लगातार विकास की ओर है।

काशी (वाराणसी) में स्वामी विवेकानन्द
वाराणसी के वीरेश्वर महादेव की अराधना से प्राप्त होने के कारण, माता ने वीरेश्वर नाम दिया और प्रेम से ”विले“ पुकारती, परन्तु पिता ने नरेन्द्रनाथ नाम दिया। सन् 1886 ई0 में अपने गुरू रामकृष्ण परमहंस के स्वर्गवास के उपरान्त भारत भ्रमण के लिए निकले जिसमें वे सबसे पहले वाराणसी आये और गोलघर में दामोदर दास के धर्मशाला में रूके थे। सिधिंया घाट पर स्नान के दौरान उनका सामना बंगाली ड्योढ़ी के बाबू प्रमदा दास मिश्रा से हुआ और वे उनके घर गये। सन् 1889 ई0 में स्वामी विवेकानन्द वाराणसी में बाबा विश्वनाथ और माँ अन्नपूर्णा का आशीर्वाद लेने आये थे। वहाँ उन्होंने प्रतिज्ञा की थी कि या तो आदर्श की उपलब्धि करूँगा, नहीं तो देह का ही नाश कर दूँगा। फिर वे इलहाबाद चले गयें वहाँ से वे गाजीपुर गये जहाँ वे वहाँ के प्रसिद्ध संत पावहारी बाबा से मिले। स्वामी जी पुनः 1890 ई0 में काशी आये। स्वामी जी ने काशी में गंगा घाट व देवालयों के अलावा संत-महात्माओं से सम्पर्क किया। तैलंग स्वामी और स्वामी भास्करानन्द से खास मुलाकात किये। सन् 1893 ई0 में शिकागो धर्म सभा सम्बोधन के उपरान्त सन् 1902 के जनवरी-फरवरी माह में वे पुनः काशी आये। स्वामी विवेकानन्द ने वाराणसी कैण्ट से रविवार, 9 फरवरी, 1902 को स्वामी स्वरूपानन्द को लिखित पत्र में लिखा था -”बौद्ध धर्म और नव हिन्दू धर्म के सम्बन्ध के विषय में मेरे विचारों में क्रांतिकारी परिवर्तन हुआ है। उन विचारों को निश्चित रुप देने के लिए कदाचित् मैं जिवित न रहूँ परन्तु उसकी कार्य प्रणाली का संकेत मैं छोड़ जाऊँगा और तुम्हें और तुम्हारे भातृ-गणों को उस पर काम करना होगा।“ -(पत्रावली भाग-2, पृष्ठ-310) उस समय स्वामी जी अर्दली बाजार स्थित गोपाल विला (वर्तमान में एल.टी.कालेज) में ठहरे थे। स्वास्थ ठीक न होने के कारण वे वापस बेलूर मठ चले गये जहाँ वे 4 जुलाई 1902 को महासमाधि में लीन हुये थे। वाराणसी में लक्सा स्थित श्री रामकृष्ण मिशन सेवाश्रम और अद्वैत आश्रम के साथ नदेसर क्षेत्र के मिन्ट हाउस में आदम कद प्रतिमा लगी है जो स्वामी विवेकानन्द की याद सदैव दिलाता है। 

काशी (वाराणसी) में लव कुश सिंह ”विश्वमानव“
जिस प्रकार वर्तमान व्यावसायिक-समाजिक-धार्मिक इत्यादि मानवीय संगठन में विभिन्न पद जैसे प्रबन्ध निदेशक, प्रबन्धक, शाखा प्रबन्धक, कर्मचारी, मजदूर इत्यादि होते हैं उसी प्रकार यह सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड एक ईश्वरीय संगठन है जिसमें सभी अपने-अपने स्तर व पद पर होकर जाने-अनजाने कार्य कर रहें हैं। प्रत्येक व्यक्ति की अपनी बुद्धि-ज्ञान-चेतना-ध्यान इत्यादि गुण ही उसके कार्य का फल देती है जिसका जिम्मेदार वह व्यक्ति स्वयं होता है न कि ईश्वरीय संगठन का वह सार्वभौम सत्य-सिद्धान्त। मानवीय संगठन का विचार हो या ईश्वरीय संगठन का सार्वभौम सत्य-सिद्धान्त यह दोनों ही कर्मचारी के लिए मार्गदर्शक नियम है। जिस प्रकार कोई मानवीय संगठन आपके पूरे जीवन का जिम्मेदार हो सकता है उसी प्रकार ईश्वरीय संगठन भी आपके पूरे जीवन का जिम्मेदार हो सकता है। जिसका निर्णय आपके पूरे जीवन के उपरान्त ही हो सकता है परन्तु आपके अपनी स्थिति के जिम्मेदार आप स्वयं है। जिस प्रकार मानवीय संगठन में कर्मचारी समर्पित मोहरे की भाँति कार्य करते हैं उसी प्रकार ईश्वरीय संगठन में व्यक्ति सहित मानवीय संगठन भी समर्पित मोहरे की भाँति कार्य करते हैं, चाहे उसका ज्ञान उन्हें हो या न हो। और ऐसा भाव हमें यह अनुभव कराता है कि हम सब जाने-अनजाने उसी ईश्वर के लिए ही कार्य कर रहें है जिसका लक्ष्य है- ईश्वरीय मानव समाज का निर्माण जिसमें जो हो सत्य हो, शिव हो, सुन्दर हो और इसी ओर विकास की गति हो।
श्री लव कुश सिंह ”विश्वमानव“ का जीवन सार्वभौम सत्य-सिद्धान्त का सत्य और नाम-रूप-गुण-कर्म के जीवन्त उदाहरण है। प्रकृति के तीन गुण सत्व-रज-तम हैं। विश्वमन का विखण्डन होकर इन तीन गुणों से युक्त ही ब्रह्माण्ड की वस्तुएँ हैं। विखण्डन और संलयन फिर विखण्डन प्रकृति का नियम है। विखण्डन से अलग-अलग वस्तुएँ व्यक्त होती हैं जबकि संलयन से वस्तुओं का एकीकरण होता है। एकीकरण की दिशा में विकास होने से सत्व-रज-तम तीनों का संक्रमणीय-गुणात्मक-संकलनीय विकास होता है जब अन्तिम अवतार की बात है तो निश्चित रूप से सभी विचार धाराओं से उपर उठकर अन्तिम सत्य का ही प्रकटीकरण होगा। सत्व, ज्ञान का प्रतीक और श्वेत रंग का है जिससे सभी प्रकार की सुखात्मक अनुभूति होती है। रजस क्रिया प्रेरक है जो वस्तुओ ंको भी उत्तेजित करता है, इसका रंग लाल है। तमस अज्ञान या अंधकार का प्रतीक है जो निष्क्रियता और जड़ता का द्योतक है। इसका रंग काला है। ये तीनों गुण प्रकृति के अलावा विश्व की प्रत्येक वस्तु में अन्तर्भूत है। इसलिए प्रकृति तथा विश्व की सभी वस्तुओं को त्रिगुणात्मक कहा जाता है। लेकिन किसी वस्तु में कोई एक गुण तो किसी अन्य वस्तु में अन्य गुण प्रबल होता है। 
रज मार्ग के पुनर्जन्म मार्ग से श्री लव कुश सिंह ”विश्वमानव“ का जीवन स्वामी विवेकानन्द के अगले कड़ी के लिए इस प्रकार सिद्ध होता है कि स्वामी विवेकानन्द के ही कार्यो को आगे बढ़ाने व पूर्ण करने के लिए सार्वभौम सत्य-सिद्धान्त ने श्री लव कुश सिंह ”विश्वमानव“ की रचना की है। जिसके व्यक्तिगत व सार्वजनिक प्रमाणित अनेक उदाहरण है जिसका उल्लेख ”विश्वशास्त्र“ में विस्तार से है। स्वामी विवेकानन्द, अपने चिरशान्ति में लीन 4 जुलाई 1902 के मात्र 4 माह 25 दिन पूर्व वाराणसी में थे और जिस अर्दली बाजार में वे रूके थे उसी अर्दली बाजार में श्री लव कुश सिंह ”विश्वमानव“ ने विश्वबन्धुत्व के शासनिक प्रक्रिया के अनुसार स्थापनार्थ ”प्राकृतिक सत्य मिशन“ की स्थापना की थी।
सत्व के शिव मार्ग से, चन्द्रवंशीय कूर्म क्षत्रिय (चन्देल वंश), जिस वंश का राज कभी प्राचीन समय में काशी पर हुआ करता था, में जन्म लेने वाले श्री लव कुश सिंह ”विश्वमानव“ का सम्बन्ध वाराणसी से प्राकृतिक रूप से ही जुड़ा रहा। ऐसा नहीं कि वाराणसी से खुद को जोड़ने के लिए कहीं बाहर से वे वाराणसी आये हों। पहली बार उनके पिता ने लगभग 5 वर्ष की अवस्था में ज्योतिर्लिग काशी विश्वनाथ के दर्शन कराने सन् 1972 में लाये थे। फिर सन् 1981 में श्री लव कुश सिंह ”विश्वमानव“ के शरीर में हुए मुख्य तीन रोग (1. मई-जून, सन् 1981 में - कान के अन्दर से मांस का बढ़ना, 2. मई-जून, सन् 2000 में - नाभि का बढना, 3. सन् 2006 में बायें पैर में घाव) में से पहले का इलाज गोदौलिया स्थित डाॅ0 एस.नाथ के ई.एन.टी अस्पताल में सफलता पूर्वक हुआ था। इसी दौरान उनके पिता जी ने उन्हें असी से लेकर राजघाट तक गंगा किनारे पैदल यात्रा भी कराये। फिर उसी वर्ष कक्षा-11 वीं में काशिराज द्वारा स्थापित प्रभुनारायण राजकीय इण्टर काॅलेज, रामनगर, वाराणसी में शिक्षा हेतु प्रवेश हुआ। उस समय उनकी उम्र लगभग 14 वर्ष थी। अध्ययन के दौरान उन्हें रामनगर किले में चित्रकला प्रतियोगिता के लिए विद्यालय की ओर से भी जाने का अवसर मिला था जहाँ उस समय महाराज काशी नरेश श्री विभूति नारायण सिंह एवं कुँवर अनन्त नारायण सिंह के भी दर्शन के अवसर प्राप्त हुये थे। 2 वर्ष रामनगर में अध्ययन के दौरान गोलाघाट स्थित स्व.एस.एस.लाल के मकान में किराये पर रहना हुआ। जिनके छोटे पुत्र राकेश रंजन श्रीवास्तव उनके सहपाठी थे और वर्तमान में वे दिल्ली में एम.बी.बी.एस.डाॅक्टर हैं। रामनगर से शिक्षा पूर्ण होने के उपरान्त उनका प्रवेश सन् 1983 में श्री हरिश्चन्द्र स्नातकोत्तर महाविद्यालय, मैदागिन, वाराणसी में बी.एस.सी (बायोलाॅजी) में हुआ और वे सन् 1985 में लगभग 17 वर्ष 6 माह की अवस्था में परीक्षा उत्तीर्ण किये जो हो सकता हो यह एक रिकार्ड ही बन गया हो। चाहे साहित्यकार हरिश्चन्द्र के अर्थो में हो या सत्यवादी राजा हरिश्चन्द्र के अर्थो में श्री लव कुश सिंह ”विश्वमानव“ का कार्य दोनों को सत्य शक्ति का आधार ही प्रदान करता है। सन् 1987 में 6 माह का कम्प्यूटर पाठ्यक्रम तारा इन्स्टीट्यट, टकसाल बिल्डिंग, नदेसर, वाराणसी से पूर्ण करने के बाद आगे का कम्प्यूटर पाठ्यक्रम पूरा करने के लिए नई दिल्ली जाने के बाद सन् 1988 में पुनः कम्प्यूटर प्रोग्रामर के रूप में टकसाल बिल्डिंग, नदेसर, वाराणसी ही आ गये और लगभग 1 वर्ष तक इमलाक कालोनी, नदेसर में रहकर नौकरी किये। फिर उसके बाद अपनें जन्म स्थान बेगूसराय (बिहार) चले गये। फिर वाराणसी में व्यापारिक आगमन सन् 2004 में हुआ और अर्दली बाजार में चैरा माता मन्दिर के सामने सन् 2007 तक रहे और तब से वाराणसी को केन्द्र बनाकर आना-जाना लगातार बना रहा। सन् 2011 में काशीराज परिवार के कुॅवर अनन्त नारायण सिंह के भांजे व डाॅ0 अशोक सिंह के पुत्र के विवाह में शामिल होने का अवसर भी प्राप्त हुआ और बारात के साथ कुशीनगर की यात्रा भी हुई।

काशी चैरासी कोस यात्रा 
दण्डी स्वामी शिवानन्द सरस्वती जी बीसवीं शताब्दी के सुविख्यात सन्त धर्म सम्राट स्वामी हरिहरानन्द सरस्वती स्वामी करपात्री जी महाराज (सन् 1902-1982) के कृपापात्र शिष्य हैं और आपने सनातन धर्म के प्रचार-प्रसार में युगान्तकारी योगदान किया है। दण्डी स्वामी शिवानन्द जी का जन्म सन् 1932 ई0 में माघ शुक्ल बसन्त पंचमी, सरस्वती जन्मोत्सव के दिन प्रातः 7 बजे काशी के मणिकर्णिका घाट पर हुआ। दण्डी स्वामी शिवानन्द सरस्वती जी के बचपन का नाम शिवनारायण उपाध्याय था। इनके पिता अयोध्या हनुमानगढ़ी के रहने वाले थे। पिता का नाम भोला नाथ व माता का नाम उमा देवी था। सन् 1948 में इन्होंने करपात्री जी से दीक्षा ग्रहण की। स्वामी शिवानन्द सरस्वती जी ने अपने अथक परिश्रम से काशी की वृहद चैरासी कोस यात्रा की खोज की है। रूद्र प्रताप गौतम जी ने अपनी पुस्तक ”काशी यात्रा“ में लिखा है कि मुगल शासन काल में लुप्त हुई अनेक यात्रा के समान यह यात्रा भी लुप्त हो गई थी। चैरासी कोस परिक्रमा दर्शन यात्रा स्वामी शिवानन्द जी प्रतिवर्ष फाल्गुन शुक्ल प्रतिपदा के दिन प्रातः 8 बजे अपने भक्तों के साथ करते हैं।
यह यात्रा फूलमण्डी, ज्ञानवापी से चलकर मणिकर्णिका घाट में स्नान करने के बाद प्रारम्भ होती है। पंचगंगा घाट से नौका द्वारा गंगा पार कर सेमरा, बखरा, व्यासपुर होते हुए वेदव्यास नगर, चाँदी तारा गाँव पहुँचेगें। यह प्रथम पड़ाव है। दुर्गा जी, रामबाग दर्शन करके बालत्रिपुरी सुन्दरी देवी, रतनबाग, का दर्शन करते रामनगर उद्योग कारखाना जीवनाथपुर, पटनवाँ, गोपालपुर, भवानीपुर, नारायणपुर होते हुए विष्णुधाम, वैकुण्ठपुर मीरजापुर में दूसरा पड़ाव है। फिर वैकुण्ठपुर से शिवशंकरी धाम में दर्शन करते हुए कैलहट, जमुई बाजार, पाॅवर हाउस के पश्चिम राजकीय डिग्री काॅलेज होते हुए आचार्य जी के मन्दिर में तीसरा पड़ाव वल्ल्भाचार्य धाम है। फिर चुनार घाट होते हुए खानपुर, पाहों गाँव होते हुए कछवाँ बाजार में दाहिने तरफ पोखरा और हनुमान जी के मन्दिर में चैथा पड़ाव हनुमानधाम है। हनुमान धाम से कछवाँ रोड, कपसेठी कालिका बाड़ा होते हुए कालिकाधाम में पाँचवाँ पड़ाव है। यहाँ कुआँ और कुण्ड विद्यमान है। अनेई, यज्ञशाला होते हुए नकटी सिद्धेश्वरी भवानी में छठाँ पड़ाव है। फिर देवधूरा चेहरा, विन्दा सूरही गाँव खालिशपुर, रेलवे फाटक, चारा फैक्ट्री के दक्षिण बगल से सिन्धौरा बाजार रामबाबा आश्रम में इण्टर काॅलेज के पास सिद्ध हनुमान मन्दिर में पशुपति धाम में सातवाँ पड़ाव है। फिर सिन्धौरा से भरतपुर, जगदीशपुर वेला होते हुए हरिहरपुर करपात्री नगर में आठवाँ पड़ाव है। हरिहरपुर से धरहरा, राजबाड़ी मार्कण्डेय महादेव होते हुए गंगा किनारे राम मन्दिर मार्कण्डेश्वर धाम में नौवाँ पड़ाव है। नौका द्वारा गंगा पार करके टाण्डा, नाथूपुर, मजदहा, लक्ष्मणपुर में लक्ष्छू बाबा के दर्शन करके मन्दिर से दक्षिण से पूर्व नारद गाँव, परासी नहर, मोहरगंज, प्रभुपुर होते हुए सकलडीहाँ पोखरा महेश्वर शंकर जी के मन्दिर में दसवाँ पड़ाव है। सकलडीहा से अलीनगर जाने वाली सड़क से कुचमन रेलवे फाटक पार कर इण्डियन आॅयल, अलीनगर, गोधना त्रिमुहानी से गोधना गाँव होते हुए गोरी गाँव अमरनाथधाम नागेश्वर जी के मन्दिर में ग्यारहवाँ पड़ाव है। फिर जीवनाथपुर होते हुए रतनबाग में बाल त्रिपुरसुन्दरी मन्दिर का पुनः दर्शन करें। यह मन्दिर चैरासी कोस यात्रा का केन्द्र बिन्दु है। रतन बाग से रामनगर किला होते हुए सामने घाट। नगवाँ एवं असी से दो मार्ग हैं। एक असी घाट से होते हुए एवं दूसरा गली-गली से केदारेश्वर होते हुए। दशाश्वमेध सड़क से विश्वनाथ गली में साक्षी विनायक के दर्शन करके अन्नपूर्णा विश्वनाथ आदि के दर्शन करके ज्ञानवापी में नन्दी के पास व्यास गद्दी पर संकल्प छोड़कर यात्रा पूर्ण होती है।

काशी (वाराणसी) के विशय में अधिक जानकारी के लिए पढ़े-
दण्डी स्वामी शिवानन्द सरस्वती द्वारा रचित पुस्तकें-
01. काशी की महिमा, 02. काशी मोक्ष निर्णय, 03. काशी का इतिहास, 
04. वाराणसी प्रदक्षिणा यात्रा, 05. पंचकोशी यात्रा, 06. काशी दर्शन, 
07. काश्यां मरणान्मुक्ति, 08. काशी में सिद्ध शिवलिंगो का चमत्कार, 09. काशी में सोमवार से रविवार तक के वार यात्रा,
10. काशी का लघु माहात्म्य, 11. काशी की वार्षिक यात्रा, 12. काशी की पंचकोशी यात्रा महात्म्य,
13. काशी में प्रत्येक तिथि के दिन के एक वर्ष तक नेम से दर्शन यात्रा महात्म्य, 14. काशी गौरव,
15. वाराणसी महात्म्य, 16. काशी दिव्य दर्शन, 17. काशी का महात्म्य,
18. कामधेनु कलि काशी पंचकोशी माहात्म्य, 19. लोलार्क कुण्ड दर्शन स्नान महिमा, 20. काशी खण्डोक्त काशी दर्शन,
21. काशी की चैरासी कोस परिक्रमा यात्रा, दर्शन-पूजन माहात्म्य, 22. काशी वैभव,
23. काशी दर्शन, 24. काशी रहस्य भाषा टीका हिन्दी, 25. शिव रहस्य हिन्दी भाषा टीका

पुस्तक प्राप्ति का स्थान
1- करपात्री धाम मठ, केदारघाट, वाराणसी (उ0प्र0)
2- काशी विश्वेश्वर (व्यक्तिगत) मन्दिर, मीरघाट, चैखम्बा संस्कृत भवन, वाराणसी (उ0प्र0)
3- संकठा प्रसाद, कचैड़ी गली, चैक, वाराणसी (उ0प्र0)

सोनभद्र
सोनभद्र जनपद का सृजन 4 मार्च 1989 को किया गया। इसका भौगोलिक क्षेत्रफल 7388.80 वर्ग किमी है जो 23.52 और 25.32 उत्तरी अक्षांश तथा 82.72 एवं 83.33 पूरबी देशांतर के मध्य में स्थित है। इसकी सीमा बिहार, झारखण्ड, मध्यप्रदेश व छत्तीसगढ़ से मिलती है। जनपद का 54 प्रतिशत भूभाग वन है। इसकी तीन तहसीलें राबर्ट्सगंज, दुद्धी व घोरावल हैं। जनपद में कुल 8 विकासखण्ड है। जाडे़ के दिनों में तापमान 10 से 20 डिग्री सेल्सियस तक रहता है जबकि गर्मी में 21 से 40 डिग्री सेल्सियस तक रहता है। यहाँ औसत वर्षा 1134 मिमी आंकी गयी है। सोनभद्र का मुख्यालय सोनभद्र नगर (राबर्ट्सगंज) है।           
जनपद खनिज सम्पदाओं से समृद्ध है। यहाँ डोलोमाइट, माइका, संगमरमर, कोयला, बिल्डिंग स्टोन पर्याप्त मात्रा में है। यहाँ यूरेनियम, सोना व हाइड्रोकार्बन का भी पता लगया गया है। यहाँ सोन, कर्मनाशा, चन्दप्रभा, रिहन्द, कनहर, रेणु, घाघर, बेलन इत्यादि प्रमुख नदियां है।
अनपरा, ओबरा में तापीय विद्युतगृह स्थित हैं जबकि शक्तिनगर व बीजपुर में एन.टी.पी.सी. की इकाइयां स्थित हैं। रिहन्द डैम से भी बिजली का उत्पादन होता है। इन कुल इकाइयों में लगभग 7000 मेगावाट विद्युत का उत्पादन हो रहा है। आदित्य बिरला ग्रुप की इकाई हिण्डालको ने एल्युमुनियम उत्पादन द्वारा विश्व में अपना स्थान बनाया है। अन्य प्राइवेट उद्योगों में कनोरिया केमिकल, हाइटेक कार्बन प्लाण्ट व डाला - ओबरा में लगभग 150 स्टोन क्रशर इकाइयां स्थित हैं। यहाँ धांगर, बैगा, कोल, खरवार, घसिया इत्यादि आदिवासी जातियाँ भी निवासी करती हैं, जिनका प्रमुख लोकनृत्य करमा है।

सोन परिपथ 
एक महत्वपूर्ण पर्यटन परिपथ है जो शिवद्वार से प्रारम्भ होकर सलखन पर समाप्त होता है। 70 किलोमीटर के इस मार्ग पर प्राकृतिक, पुरातात्विक, ऐतिहासिक, स्थापत्य, भू-वैज्ञानिक धरोहर, धार्मिक स्थल व अभ्यारण्य स्थित है। परिपथ पर राजकुमारी चन्द्रकान्ता के प्रेम के किस्सोें व तिलिस्म के लिये प्रसिद्ध विजयगढ़ दुर्ग, शिव प्रतिमाओं के विविध स्वरूप, मानव सभ्यता के विकास के गवाह आदिमानवों द्वारा बनाये गये गुफाचित्र, प्राकृतिक परिवर्तनों के एक सौ चालीस करोड़ वर्ष के साक्षी फासिल्स (जिवाश्म), आजादी के मतवालों की तीर्थस्थली व स्वतंत्रता आन्दोलन का केन्द्र बिन्दु शहीद उद्यान, मुक्खा फाल के झरने की कल-कल और वन्य जीव विहार में कुलाचें भरते कृष्ण मृग व चिंकारा, प्रणय और शौर्य का प्रतीक वीर लोरिक पत्थर, सांप्रदायिक सौहार्द की अप्रतिम मिसाल मीरान शाह की मजार, सोनघाटी के विहंगम दृश्य और गौतम बुद्ध की मूर्तियाँ स्थित हैं। निश्चित रूप से अद्भुत, विस्मयकारी, रोमांचकारी व आस्था से भरी है सोन परिपथ की यात्रा जिसे आप एक दिन में भी पूरी कर सकते हैं। 

सोन संस्कृति
सोन संस्कृति की पौराणिक पृष्ठभूमि वैदिककालीन सभ्यता की पराकाष्ठा परक ऐतिहासिकता से सम्बद्ध है। अमरकण्टक से पटना तक की महानद सोन की यात्रा एक सशक्त व जीवन्त सांस्कृतिक जन-जीवन की अभिव्यक्ति है। माँ दुर्गा की असुरों की संहार परक प्रस्तुति से परित्राण प्राप्त करने का गौरव प्राप्त करने वाले आदिम वनवासियों की एक लम्बी जनसंख्या का बिखराव महानद सोन के तटवर्ती क्षेत्रों में रहा है। सोनभद्र की धरती मूलतः आध्यात्मिकता से जुड़ी रही है और इस आध्यात्मिक धरती ने अनेक ऋषियों, महर्षियों, परिव्राजकों, साधुओं, सन्यासिंयों व सिद्ध सम्प्रदायों को आकृष्ट किया। सन्त परम्पराओं का एक महत्वपूर्ण परिव्रजन इस क्षेत्र में हुआ जिसमें शैव व शाक्त प्रमुख थे। शैव सम्प्रदाय से जुड़े अघोर तन्त्र ने इसे बहुत सराहा और इसे अपनी कर्मभूमि बना लिया। शाक्तों में माँ दुर्गा के उपासकों ने इसे तान्त्रिक सिद्धियों का गढ़ माना। पर्वत, गुफाओं ओबराओं में तन्त्र साधना जगी, वहीं सोन के तटीय स्थलों पर तटीय स्थलों पर सिद्धियाँ व श्मशान पूजन व भैरव की अनेक अर्चनाएँ की गईं। यही नहीं प्रेत सिद्धियों से लेकर श्मशान भैरवी की कृपा प्राप्त करने के लिए साधकों का जमघट लगा रहता था। भगवान का पशुपात रूप जो नेपाल में पूजित रहा वह इस क्षेत्र में गोप पूजन के रूप में प्रचलित रहा। सोन के तट पर शव छेदन क्रिया की भी प्रशिक्षा आयुर्वेद के जिज्ञासुओं को दी जाती थी। शवों को सोन के जल में सुलाकर पत्थरों की ओट देकर यह क्रिया की जाती थी। धाराओं के प्रवाह से माँस कट-कट कर गिरता जाता था, जिसे मछलियाँ वगैरह खा लेती थीं, अस्थियों का ढाँचा व नसें आदि शेष रह जाती थीं, जिससे अध्ययनपरक कार्य चलता था। सम्पूर्ण सोन क्षेत्र माँ दुर्गा की आध्यात्मिक भक्ति में लीन रहा है परन्तु छोटी-बड़ी सभी बस्तियों में शिव मन्दिर भी मिलते हैं। शैव तन्त्र से प्रभावित अघोर तन्त्र शव-साधना में सिद्धहस्त था और शव में इकार की प्राण प्रतिष्ठा का जीवन्त रूप शिव को दे देना इनकी अलौकिक साधना का चरमोत्कर्ष है। अघोरपन्थी नाम के पश्चात् ”राम“ का प्रयोग करते थे। इस क्षेत्र में सवर्ण वर्ग में प्रायः ब्राह्मण वर्ग भी राम का प्रयोग अपने नाम में करता है।
उत्तर भारत से आने वाले सिद्ध-सम्प्रदायों में कनफटे व लोरिक पहनने वाले सिद्ध सन्तों का विशेष महत्व था, जिसमें इस क्षेत्र में पाशुपात तन्त्र के महान साधक लोरिक का नाम विशेष है, जिसने अपनी तान्त्रिक सिद्धियों से अनेक कौशल उदाहरण के रूप में छोड़ दिया। योगिराज भर्तृहरि भी इस क्षेत्र में आये थे लेकिन लोरिक की अलौकिक सिद्धियों के आगे उनकी एक न चली और वे गंगा पार चुनार तक ही प्रभावित कर सके। यहाँ प्रस्तुत है सोनभद्र क्षेत्र के कुछ धार्मिक, आध्यात्मिक, ऐतिहासिक स्थल का परिचय।

अ. फासिल्स (जिवाश्म) पार्क- वाराणसी-शक्तिनगर मार्ग पर सोनभद्र के मुख्यालय राबर्टसगंज से 12 किलोमीटर पर सलखन में फासिल्स पार्क स्थित है जो अमेरिका के येलो स्टोन नेशनल पार्क से बड़ा है। यह पार्क 25 हेक्टेयर में स्थित है। 23 अगस्त, 2001 को समाचार पत्र में प्रकाशित होने के बाद यह चर्चित हुआ। पूरे विश्व से सन् 2002 में 42 वैज्ञानिकों ने इसका अध्ययन कर पुष्टि की। प्राप्त फासिल्स से यह सिद्ध होता है कि सलखन में 150 मिलीयन वर्ष पहले समुद्र हिलोरे लेता था। 8 अगस्त, 2002 को तत्कालीन जिलाधिकारी द्वारा इस पार्क का उद्घाटन किया गया।

ब. अगोरी किला - 
शैव और शाक्त का समन्वित रूप सोनभद्र में अनादिकाल से ही पनपा, फला और उत्कर्ष को प्राप्त हुआ। अघोर साधना इसका जीवन्त उदाहरण है। आज भी अगोरी किला, जिसकी स्थापना मठ के रूप में 467 विक्रमी सम्वत् में अघोरभद्र अघोरी ने सोन, रेणु और विजुल नदी के संगम पर की थी, अघोर पन्थ के जीवन्तता का प्रतीक है। अगोरी, गोठानी, पंचमुखी, गौरीशंकर, कण्डाकोट प्रभूति के देवल शिव और शक्ति के समन्वित रूप को विकसित करते हैं। अघोरभद्र ने गोठानी ग्राम में शिव-शक्ति केन्द्र स्थापित कर शिवपीठ बनाया। उन्होंने ही कुण्डारिका शक्तिपीठ की स्थापना की, जिसे कुण्डवासिनी कहते हैं। सम्वत् 735 विक्रमी में अगोरी से अघोरियों का प्रभुत्व समाप्त हो गया। अघोर परम्परा के अनुयायी प्रसिद्ध सन्त बाबा कीनाराम की तपस्थली विन्ध्य पर्वत श्रृंखला में अमिलाधाम नाम से है। कण्डाकोट में महर्षि कीनाराम के स्मृति में ”सन्त कीनाराम महाविद्यालय“ की स्थापना हुई है।

स. विजयगढ़ किला - विजयगढ़ किला सोनभद्र के जिला मुख्यालय राबर्टसगंज 15 से 20 किलो मीटर की दूरी पर चुर्क या चतरा के रास्ते से आगे स्थित है। इस किले के मार्ग में ही धंधरौल बाँध व गुप्तकाशी के प्रसिद्ध मऊ स्थित शिवधाम बौद्ध विहार भी स्थित है।
कहते हैं कि पुरातन काल में दैत्यशिल्पी द्वारा इस किले का निर्माण कराया गया था। इस किले पर लम्बे समय तक खरवार राजाओं का अधिपत्य रहा। बाद में यह काशी नरेश चेत सिंह के स्वामित्व में आ गया। वर्षो तक इस दुर्ग के जरिये विजयगढ़ स्टेट पर चलने वाली हुकूमत को अंग्रेजों के आक्रमण ने खत्म कर दिया लेकिन यहाँ का तिलस्मि उनके लिए राज ही बना रहा। यहीं कारण रहा कि यहाँ से गुप्त स्थान के लिए सुरंग से होकर चेत सिंह आसानी से निकल गये और अंग्रेज अफसर हाथ मलते रह गये। तब से लेकर अब तक इस किले का तिलस्मि राज ही बना हुआ है। बताते हैं कि किले के अन्दर छिपे कथित खजाने और अन्दर बने नगर के रास्ते के खोज के लिए तमाम प्रयास किये गये लेकिन अदृश्य शक्तियों ने आगे बढ़ने नहीं दिया। पिछले अनेक वर्षो से दुर्ग के ऊपर स्थित रामसरोवर तालाब से जल लेकर हजारों कांवरिया सावन महीने में यहाँ से 65 किलोमीटर दूर पैदल विश्व प्रसिद्ध शिवद्वार धाम जाते हैं।
बाबू देवकीनन्दन खत्री ने इसी दुर्ग के ऊपर स्थित रामसरोवर तालाब के तट पर स्थित पेड़ों की छांव में बैठकर ”चन्द्रकांता संतति“ उपन्यास की रचना की थी। इसी उपन्यास पर चन्द्रकांता टी.वी. धारावाहिक बना था जिसकी नायिका चन्द्रकांता इसी किले से सम्बन्धित थी। 

स. रिहन्द बाँध - 70 वर्ग मील में फैला यह बाँध गोविन्द वल्लभ पन्त के नाम से जाना जाता है जो पिपरी नामक स्थान पर स्थित है। यह वाराणसी से शक्तिनगर मार्ग पर स्थित है। यह सन् 1954 से 1964 ई0 के समय में बनाया गया था। यह 934 मीटर लम्बा व 91 मीटर ऊँचा है। इस बाँध के पानी से जल विद्युत का भी उत्पादन होता है। इस बाँध के किनारे-किनारे पर अनेक थर्मल पावर उत्पादन इकाई लगायी गई हैं जिनसे बिजली का उत्पादन होता है। भारतीय मुद्रा के 100 रूपये के नोट पर कभी इसका चित्र छपा होता था।

द. मारकुण्डी - सोनभद्र जनपद में लुम्बिनी-दुद्धि राजमार्ग पर स्थित मारकुण्डी पर्वत महामुनि मार्कण्डेय की तपस्थली है जो आज भी मार्कण्डेय पुराण के 9000 श्लोकों का साक्षी है। सोनभद्र के वयोवृद्ध साहित्यकार पं0 रामजी पाण्डेय ”विमल“ ने अपने साहित्य ”सोनांचल“ में लिखा है कि- ”अघोरेश्वर भगवान शिव का वरदान प्राप्त कर अपनी अल्पायुता के सम्वर्द्धन की कामना से तपस्यार्थ मारकण्डेय ऋषि जिस पर्वत क्षेत्र पर तपस्या द्वारा शिव का आशीर्वाद प्राप्त किये वह पर्वत क्षेत्र कालान्तर में मारकुण्डी नाम से विख्यात हुआ। इसी स्थान पर मार्कण्डेय ऋषि ने मार्कण्डेय पुराण का प्रणयन किया और प्रत्यावर्तन के समय वाराणसी ने निकट मार्कण्डेय महादेव की प्रतिस्थापना भी की थी।“

य. मुक्खा जल प्रपात - 
विजयगढ़ रियासत से निकलकर बेलन नदी घोरावल व शिवद्वार के मध्य से प्रवाहित होती हुई प्रयाग की तमसा (टोंस) नदी में विलीन होती है। इसी बीच में मुक्खा जल प्रपात स्थित है जो सैकड़ों फीट ऊँचा है। जहाँ यहाँ एक ओर फैली प्राकृतिक सुषमा एवं अपार वन-सम्पदा दर्शनार्थियों को आकर्षित करती है, वहीं चट्टानों पर अंकित चित्रों के सहारे इतिहास की तह खोलने में सहायता प्राप्त होती है। बेलन संस्कृति भारत में अपना महत्वपूर्ण स्थान रखती है। इसी सलिला के तटवर्ती क्षेत्र से कला का इतिहास प्रारम्भ होता है। यह स्थान जो कभी चामुण्डा मन्दिर, शिकारगाह और कमलेश्वरी देवी के नाम से जाना जाता था वह आज अपनी स्वतन्त्र अस्मिता के कारण जनपद ही नहीं अपितु उत्तरी भारत में मुक्खा दरी के नाम से जाना जाता है। शिकारगाह के ठीक उत्तर स्थित शैलाश्रित गुहाचित्रों की अपनी एक आद्वितीय सुषमा किसी भी सैलानी को मदमस्त कर देती है।

र. रेणुकेश्वर महादेव मन्दिर - 
सोनभद्र जनपद के मुख्यालय सेे 60 किलोमीटर दूर शक्तिनगर मार्ग पर स्थित आदित्य बिड़ला समूह का हिन्डाल्को के टाउनशिप में रेणुकेश्वर महादेव मन्दिर स्थित है।

ल. माँ कुण्डवासिनी शक्तिपीठ - महादेवी कुण्डवासिनी का प्राचीन मन्दिर सोनभद्र जनपद के प्राचीन अगोरी-बड़हर राज्य के चतरवार और देवगढ़ की सीमा को बाँटती हुई महानद सोन के दक्षिण में स्थित है। इस स्थान का नाम ”कुड़ारी“ है। महामाया कुण्डवासिनी के दिव्य धाम का तन्त्र साधना में महत्वपूर्ण स्थान है। यहाँ शिवद्वार, कड़िया, गौरीशंकर, कण्डाकोट, गोठानी तीर्थ स्थानों को मिलाकर शडकोण की स्थिति कुड़ारी के अतिरिक्त कहीं नहीं है। इस क्षेत्र में एक त्रिकोण कुड़ारी, कड़िया एवं कण्डाकोट के मध्य बनता है जो ककार के साथ क्रमशः कुण्डवासिनी, कमलेश्वरी एवं गिरिजा अर्थात शक्ति प्रधान त्रिकोण है, तो दूसरा त्रिकोण शिवद्वार, गौरीशंकर एवं गोठानी के मध्य बनता है जो शिव-शक्ति पीठ का रूप है। कुण्डवासिनी धाम के पूर्व सेमिया-घोरिया के सन्निकट सोन का पुहकरिणी घाट पूर्वकाल में पुष्करिणी तीर्थ के रूप में विकसित था। यहाँ स्नान कर श्रद्धालु भक्त कुष्ठ रोग से निदान प्राप्त करते थे। पौराणिक पृष्ठभूमि में कुण्डवासिनी देवी का शोणाक्षी नाम से स्मरण किया गया है। यहाँ सती का दक्षिण नितम्ब गिरा था। देवी यहाँ ”नर्मदा“ या ”शोणाक्षी“ कहलाती हैं और शिव ”भद्रसेन“। कुड़ारी के थोड़ी ही दूर पर सोनभद्र में रेणु और विजुल नाम की दो नदियों का संगम होता है जहाँ शोणाक्षी के अधीश्वर भद्रसेन शिव शोभनाथ विद्यमान हैं। इस शक्तिपीठ स्थान पर चैत्र नवरात्र से लेकर आषाढ़ तक प्राचीनकाल से ही मेला लगता है।

व. धंधरौल बाँध -सोनभद्र के जिला मुख्यालय राबर्टसगंज से विजयगढ़ किला के मार्ग में ही धंधरौल बाँध स्थित है।

स. राधाकृष्ण मन्दिर - सोनभद्र जनपद के मुख्यालय से 60 किलोमीटर दूर शक्तिनगर मार्ग पर स्थित रेनुकूट के मुर्धवा ग्राम में मार्ग पर राधाकृष्ण मन्दिर स्थित है। इस मन्दिर का निर्माण चुनार क्षेत्र के जलालपुर निवासी बाबा कृष्णानन्द व गांगपुर निवासी स्वामी विद्यानन्द जी द्वारा हुआ है।

ह. ज्वाला देवी मन्दिर- सोनभद्र जनपद शक्तिनगर में ज्वाला देवी मन्दिर स्थित है।

क्ष. वैष्णों देवी मन्दिर - सोनभद्र जनपद के मुख्यालय से शक्तिनगर मार्ग पर डाला के पास आधुनिक समय में नवनिर्मित वैष्णों देवी मन्दिर स्थित है। यह मन्दिर कटरा, जम्मू में स्थित वैष्णों मन्दिर का प्रतिरूप है।

त्र. सर्वजीत साधना भवन, मुर्धवा, रेनुकूट - चुनार क्षेत्र के ग्राम शेरपुर निवासी स्व0 सर्वजीत सिंह के तीन पुत्र स्व. शिव मन्दिल सिंह, स्व0 राम मन्दिल सिंह एवं श्री हर मन्दिल सिंह के निवास पर स्थित है सर्वजीत साधना भवन। स्व0 राम मन्दिल सिंह के बड़े पुत्र श्री सिया राम सिंह, श्री लव कुश सिंह ”विश्वमानव“ के मित्र, सहपाठी व सहयोगी हैं जहाँ उन्होने विश्वशस्त्र के मूल सूत्र सन् 1998 से 2001 में लिखे थे।

शिवद्वार

सोनभद्र जनपद में लुम्बिनी-दुद्धि राजमार्ग से 39 किलो मीटर दूर पश्चिम-दक्षिण दिशा में अवस्थित शिवद्वार भगवान शिव की आदि नगरी है। इसकी सोनभद्र के इतिहास में अहम भूमिका रही है।
इसका धार्मिक, ऐतिहासिक, सांस्कृतिक एवं राजनैतिक महत्व अक्षुण्ण है। यहाँ पर बौद्धकालीन अवशेष तथा खण्डहर भी विद्यमान हैं। सन् 1966-67 ई0 में यहाँ पर एक विशाल ताम्रपत्र मिला था जिसकी लिपि पढ़ी नहीं जा सकी। आजकल यह दिल्ली के राष्ट्रीय संग्रहालय में विद्यमान है।
शिवद्वार का पूर्वकालीन नाम अयोध्यापति सम्राट शिवि की सम्प्रभुता का प्रतीक होने के कारण शिविगढ़ था और सम्प्रति शोढ़रीगढ़ के रूप में विद्यमान खण्डहर रूपी अवशेष उनकी कचहरी के ही हैं।
कैमूर पर्वत श्रृंखला में तपश्यालीन भस्मासुर की भक्ति पर प्रसन्न होकर उमा-महेश्वर ने जिस स्थान पर वर प्रदान किया वह स्थान आज भी ”वरदिया“ नाम से इस क्षेत्र में विद्यमान है। भस्मासुर के भय से तीनों लोकों का भ्रमण करने के पश्चात् शिव जिस स्थान पर छिपे उस स्थान को ”वर-कन्हरा“ कहा जाता है। इसी कन्हरा या कन्दरा से भगवान विष्णु ने मोहिनी का रूप धारण कर भस्मासुर को ऐसा नचाया कि वह स्वयं भस्म हो गया। आज भी कन्हरा में विष्णु का नयनाभिराम विग्रह दशावतार सहित विद्यमान है। गौतम भार्या अहिल्या के साथ छल करने के कारण गौतम ऋषि के श्राप द्वारा इन्द्र के शरीर में सहस्र भग हो गये। शाप से मुक्ति हेतु इन्द्र ने इसी शिवद्वार में भगवान शिव की अराधना की और पुनः पूर्ववत सुन्दर शरीर को प्राप्त किये। जिस स्थान ने इन्द्र के भगों का वहन किया वह ”भगवाही“ के नाम से प्रसिद्ध हुआ जिसे अब ”भगाही“ कहा जाता है। आद्वितीय और दुर्लभ भक्त बैजू अहीर से बैजनाथ हो जाने का स्थान भी शिवद्वार से 2 किलो मीटर पश्चिम ”बैजनथवाँ“ नाम से है। भैरव शिव के प्रमुख गण हैं। महाँव की भैरव मूर्ति, जो सन् 1990 ई0 में चोरी हो गई, जिससे इस क्षेत्र की भैरव साधना का एक जीवन्त अध्याय समाप्त हो गया।
शिवद्वार की शिव-पार्वती की संयुक्त प्रतिमा मोती महतो नाम के व्यक्ति को 1305 फसली में हल चलाते समय प्राप्त हुई थी और उनके द्वारा ही सर्वप्रथम मन्दिर का निर्माण हुआ। कालान्तर में बहुरिया अविनाश कुँअरि द्वारा भव्य मन्दिर का निर्माण अपने स्वर्गीय पति भूतपूर्व जमींदार बाबू जगत बहादुर सिंह गहरवार की स्मृति में कराया गया। तत्पश्चात् श्री श्री 1008 श्री स्वामी हरिचैतन्य ब्रह्मचारी जी महाराज (टीकरमाफी) की अध्यक्षता में बद्रीकाश्रम के शंकराचार्य के द्वारा सन् 1985 ई0 में वैदिक रीति से पुनः प्राण प्रतिष्ठा की गई। सावन माह में यहाँ काँवरियों की जलाभिषेक हेतु भीड़ लग जाती है। यहाँ मीरजापुर के बरियाघाट से गंगा जल लेकर लगभग 67 किलोमीटर तथा विजयगढ़ दुर्ग के ऊपर स्थित रामसरोवर तालाब से जल लेकर 65 किलोमीटर दूर पैदल यहाँ आते हैं। सन् 1986 ई0 से काँवर पद्धति को पुनः प्रारम्भ कराने का श्रेय सन् 1965 में जन्में श्री परमेश्वर दयाल श्रीवास्तव को जाता है जिनकी प्रेरणा से वर्तमान में यहाँ लाखों काँवरियां आते हैं।
मन्दिर के उत्तर शोढ़रीगढ़ है जो पूर्वकाल में सुन्दरीगढ़ के रूप में था, के ध्वस्त खण्डहर अपने इतिहास को व्यक्त करता है। जिसका सम्बन्ध चरणाद्रिगढ़ (चुनार) और अवन्तिका (उज्जयिनी) से था। यह क्षेत्र कभी मगध, कभी कौशाम्बी तो कभी काशी, तो कभी अयोध्या राज्य के अधीपत्य में रहा। सुन्दरीगढ़ 84 ग्रामों के सुरम्य परिक्षेत्र में अगोरी राज्य की शक्तिशाली छावनी एवं सशक्त क्षत्रपों की गरिमा से मण्डित था। 84 ग्रामों का सुरम्य क्षेत्र सुसंस्कृति एवं सभ्यता का परिचायक था, जिसके अवशेष आज भी आसपास के गांवों में विद्यमान हैं। अगोरी राज्य के अस्तित्व में आने के पूर्व यह समस्त क्षेत्र विजयगढ़ रियासत के अन्तर्गत था।
शिवद्वार त्रिकोणीय तान्त्रिक साधना के लिए जगत विख्यात था और साधना की राजधानी था। शिव का शिवा के साथ रमण करना ही सृजन का प्रतीक है। शिवद्वार में अवस्थित शिव-शिवा की संयुक्त प्रतिमा प्राचीनकाल से ही जीवन्त रूप में देव, दनुज, यक्ष, गन्धर्व, किन्नर तथा नर सभी के द्वारा पूज्य रही है। इसकी धार्मिक प्रतिष्ठा इसे द्वितीय काशी की गरिमा प्रदान करती है। इसे ही मीरजापुर गजेटियर में गुप्तकाशी की संज्ञा से अभिकल्पित किया गया है। 
शिवद्वार क्षेत्र में अनेक साहित्यकार भी हुए जिनमें दसवीं शताब्दी के कवि योगेश्वर, इनके समकालिन छित्तप, चित्तप और दाक्षिणात्य। बान्धवगढ़ाधिपति महाराजा रामचन्द्र जूदेव के पुत्र युवराज वीरभद्रदेव जिनका जन्म सम्वत् 1610 अर्थात 1554 ई0 में हुआ था। वीरभद्रदेव संस्कृत भाषा के उच्च कोटि के विद्वान थे। इनकी विद्वता का प्रमाण इनका ग्रन्थ ”कन्दर्पचूड़ामणि“ है। बाबू रणजंय प्रताप बहादुर सिंह, जिनका जन्म सन् 1820 ई0 में हुआ था। बाबू साहब राधा-माधव की त्रिलोक मोहिनी छवि के परम रसिक भक्त-कवि थे।  

शिवद्वार के विषय में अधिक जानकारी के लिए पढ़ें-
”शिवद्वार“-लेखक जितेन्द्र कुमार सिंह ”संजय“
पुस्तक प्राप्ति का स्थान
1.”चन्द्रकुटी“, देवगढ़, शिवद्वार, सोनभद्र (उ0प्र0) पिन-231010 
2. बुक स्टाल, रोडवेज बस स्टैण्ड, राबर्टसगंज, सोनभद्र (उ0प्र0)

विन्ध्य पर्वत, क्षेत्र और धाम का परिचय
विन्ध्य पर्वत क्षेत्र, भारत वर्ष की सभी पर्वंत क्षेत्र में सबसे लम्बी एवं विस्तृत श्रंृखला है जो कि भारत के बिहार, उत्तर प्रदेश, सम्पूर्ण मध्य प्रदेश एवं महाराष्ट्र आदि राज्यों तक अपनी अनुपम छटा विखेरती है। इसकी चैड़ाई लगभग 1050 किलोमीटर तथा ऊँचाई 300 मीटर है। इसकी श्रंृखलाएँ भारत को गंगा के मैदान एवं दक्षिण के पठार को विभक्त करती है। यह क्षेत्र अपने प्राकृतिक सौन्दर्य, वन्य जीवन, कल-कल निनाद करते झरने और इठलाती नदियाँ, गुफाएँ और भित्तचित्रों विभिन्न घटनाओं एवं गाथाओं से परिपूर्ण ऐतिहासिक किलों के साथ ही विभिन्न धार्मिक स्थलों एवं शक्तिपीठों को अपने आँचल में समेटे हुए है। सम्पूर्ण विन्ध्य क्षेत्र में शाक्त साधकों, सिद्धों, तान्त्रिकों आदि की एक लम्बी परम्परा रही हैं। विन्ध्य पर्वत क्षेत्र का एकान्त इन सिद्ध साधकों को सर्वदा ऊर्जा देता रहा है। यह क्षेत्र प्राचीन आर्यावर्त का मध्य बिन्दु भी था। प्राचीन भारत में हिमालय पर्वत तथा विन्ध्य पर्वत के मध्य के भूभाग को आर्यावर्त के नाम से जाना जाता है तथा विन्ध्य पर्वत के दक्षिण भाग का नाम दक्षिणावर्त या दक्षिणपथ था। विन्ध्य क्षेत्र भारतीय इतिहास की अनेक छोटी-बड़ी घटनाओं का साक्षी रहा है।
अपने लिए तो सभी जीते हैं लेकिन महानता के उच्च शिखर पर वही पहुँचता है जिसने अहं का नाश कर समाज व विश्व कल्याण के साथ गुरू के आदेशों को महत्व दिया। विन्ध्य पर्वत विश्व कल्याण की सर्वोपरि भावना के साथ ही गुरू आदेश पालन की प्रेरणा दे रहा है। जो युगों-युगों से गुरू के आदेश का पालन कर रहा है और विश्व कल्याण के लिए एक बार झुका तो फिर झुका ही रह गया। इसलिए इस पर्वत पर आदिशक्ति माँ विन्ध्यवासिनी के साथ दैवीय शक्तियाँ विराजमान हैंै। पुराणों के अनुसार जिस पर्वत पर माँ विन्ध्यवासिनी विराजमान हैं वही विन्ध्याचल पर्वत है। एक बार विन्ध्य पर्वत को सूर्य से ईष्र्या हो गई। क्योंकि सूर्य सुमेरू पर्वत की परिक्रमा करते लेकिन विन्ध्याचल पर्वत की नहीं। इस पर विन्ध्याचल पर्वत ने ब्रह्मा जी की घोर तपस्या की और वरदान हासिल कर लिया। वरदान मिलने के बाद विन्ध्य पर्वत ने अपना आकार इतना बढ़ा लिया कि सूर्य देवता भी छिप गये। पूरी दुनिया में हाहाकार मच गया, अँधेरा छा गया। देवी-देवता सभी त्राहि-त्राहि करने लगे। जब सबको मालूम हुआ कि विन्ध्याचल पर्वत अगस्त मुनि को अपना गुरू मानते हैं तो सब ने जाकर अगस्त मुनि से अपनी पीड़ा बतायी। देवताओं की बात सुनकर अगस्त विन्ध्याचल पर्वत से मिलने निकल पड़े। गुरू को सामने देखकर विन्ध्याचल पर्वत साष्टांग की मुद्रा में पूरब से पश्चिम की ओर लेट गया। विन्ध्याचल पर्वत के लेटते ही पूरी धरती से अँधेरा गायब हो गया। अगस्त मुनि ने कहा मैं दक्षिण की तरफ जा रहा हूँ, जब तक लौट कर न आऊँ तब तक यूँ ही झूके रहना। अगस्त मुनि एक बार जो गये तो फिर लौटकर वापस नहीं आये और विन्ध्याचल पर्वत आज भी झुका हुआ है।
जिस प्रकार अद्वैत वादी निराकार ब्रह्म की कल्पना करते हैं, वैष्णव उसी ईश्वर को विष्णु के रूप में, शैव उसी को शिव के रूप में, शौर्य सूर्य के रूप में, गाणपत्य उसी को गणपति के रूप में पूजते हैं। ठीक उसी प्रकार शाक्त सम्प्रदाय के लोग माँ को विन्ध्यवासिनी, चण्डी और दुर्गा महाशक्ति को ईश्वर के रूप में शारदीय नवरात्र में उपासना करते हैं। जिस प्रकार अयोध्या साकेतपुरी का, वृन्दावन गोलोक का, काशी शिवनगरी का प्रतिनिधित्व करता है उसी प्रकार विन्ध्यधाम इस ब्रह्माण्ड पर मणिद्वीप का प्रतिनिधित्व करता है। जो दिव्य और अलौकिक शक्तियों से परिपूर्ण होने के कारण मनुष्य को ही नहीं बल्कि देवताओं को भी यहाँ आने और माँ की शक्ति में लीन हो जाने के लिए विवश करता है। यही कारण है कि आदि-अनादि काल में सृजन, पालन और संहार के देवता ब्रह्मा, विष्णु और महेश ने मणिद्वीप के रहस्य को जानने के लिए मणिद्वीप में प्रवेश किया और माँ की ज्योति में लीन हो गये और त्रिदेवीयों के पुकार के उपरान्त बाहर निकले और अपने सृजन, पालन और संहार के कार्य में लग गये।
तीर्थराज प्रयाग और भगवान शंकर की नगरी के मध्य और पतित पावनी भगीरथी गंगा के दक्षिण तट पर स्थित पवित्र विन्ध्य धाम शिव-शक्ति के उपासना का अद्भुत केन्द्र है। यहाँ स्थित शिवालयों का उल्लेख पुराणों में भी वर्णित है। मान्यता है कि भगवान श्रीराम ने भी वन गमन के समय इस नगर को कृतार्थ किया था। यहाँ रामबाग बसाया था जो आज भी नगर का एक प्रसिद्ध मोहल्ला है। सृजन की प्रतीक मातृ शक्ति और विनाश के प्रतीक भगवान शंकर हैं। विन्ध्याचल में इन्हीं दो मन्दिरों की प्रधानता है। विन्ध्य क्षेत्र जैसा पावन सिद्धपीठ, शक्तिपीठ व मणिद्वीप स्थल पूरे ब्रह्माण्ड में दूसरा नहीं है क्योंकि यहाँ जगत जननी माँ विन्ध्यवासिनी स्वयं विराजमान हैं, जो अनन्त ब्रह्माण्ड नायिका हैं। पुराणों के अनुसार पूरे विश्व में कुल 108 शक्तिपीठ और 12 सिद्धपीठ स्थल हैं जो 1. कांचीपुर में कामाक्षी, 2. मलयगिरी में भ्रामरी, 3. केरल में कौमाणी, 4. बंगदेश में सुंदरी देवी, 5. नेपाल में महेश्वरी, 6. गया में मंगलावती, 7. करबीर में महालक्ष्मी, 8. मालवा में महाकाली, 9. प्रयाग में ललिता देवी, 10. अनर्थ प्रदेश में अम्बा देवी, 11. वाराणसी में विशालाक्षी और 12. विन्ध्याचल में विन्ध्यवासिनी हैं। जिसमें माँ विन्ध्यवासिनी का धाम प्रधान है। महाराज दक्ष पुत्री देवी सती के शरीर छोड़ने के बाद भगवान शिव ने उनके शरीर को लेकर जब ताण्डव किया था तो सती के अलग-अलग अंग 108 स्थानों पर गिरे थे। जहाँ-जहाँ ये अंग गिरे वह शक्तिपीठ के रूप में जाने गये। माँ सती के शरीर के पीठ का हिस्सा विन्ध्यधाम में गिरा था। 
देवी भागवत पुराण के अनुसार द्वापर युग में जब देवकी व वसुदेव कारागार में बंद थे और एक के बाद एक अपने पुत्रों की मौत से दुखी थे तो उन्होंने अपने पुरोहित महर्षि गर्ग से अपनी पीड़ा बतायी। जिस पर उन्होंने विन्ध्य पर्वत पर जाकर चण्डी पाठ (दुर्गा सप्तशती पाठ-700 श्लोकों का मंत्र संग्रह) किये जाने का सुझाव दिया था। अपने यजमानों के कारागार में बंद होने के कारण महर्षि गर्ग ने स्वयं अपने यजमानों की कामना पूर्ति के लिए विन्ध्य पर्वत पर आकर चण्डी पाठ किये परिणामस्वरूप योगमाया प्रकट हुईं। श्रीमद्भागवत् के दशम् स्कन्ध के अध्याय दो के अनुसार जब द्वापर युग में कंस का अत्याचार निरंतर बढ़ने लगा तो देवों ने देवी से इस संकट से मुक्त कराने की प्रार्थना की और साथ ही साथ निवेदन किया कि वे व्रज में आकर गोपी-ग्वालों के मध्य नंद के यहाँ रोहिणी के गर्भ से अवतरित हों। इस पर देवी ने सोचा कि रोहिणी के गर्भ में तो स्वयं शेष सिथत हैं, अतएव इन्हें यशोदा के गर्भ से अवतरित होना पड़ा। उधर कंस के कारागार में देवकी के गर्भ से श्रीकृष्ण अवतरित होते हैं। इन्हें लेकर वसुदेव भादो की भरी यमुना को पार करके गोकुल आते हैं। वहाँ कृष्ण को रखकर तथा यशोदा के पास से योगमाया को लेकर मथुरा में कंस के पास उपस्थित होते हैं। कंस अट्ठहास करता हुआ, बालिका को उठाकर ज्योंहि पृथ्वी पर पटकता है, देवी आकाश में जाकर स्थित हो कहतीं हैं- ”कंस तुम्हारा संहारकर्ता यहीं कहीं अवतरित हो चुका है।“ इतना कहने के पश्चात् देवी विन्ध्य पर्वत पर वास करने के निमित्त आ जाती हैं और महासरस्वती अष्टभुजा के नाम से जानी जाती हैं। वाममार्गी साधना का केन्द्र माँ तारा देवी मन्दिर भी यहाँ स्थित है जहाँ देश भर से तान्त्रिक, साधना के लिए आते हैं। इस स्थान से चंद कदमों की दूरी पर स्थित भैरव कुण्ड भी है। यही पर श्रीयंत्र भी है। खासकर बंगाली साधकों का यहाँ नवरात्रि शुरू होते ही जमावाड़ा लग जाता है। तान्त्रिकों के लिए यहाँ त्रिकोण महायंत्र की स्थापना है जो लघु त्रिकोण और बृहद् त्रिकोण दो रूपों में है। माँ विन्ध्यवासिनी देवी के मूल पीठ माँ का पश्चिमाभिमुख मन्दिर, सामने की तरफ बिन्दु रूप भगवान शंकर, बाएँ भाग दक्षिण दिशा में उत्तराभिमुख उध्र्वमुखी माँ काली और उत्तर पश्चिम में पूर्वाभिमुख माँ भगवती सरस्वती हैं जो लघु त्रिकोण कहलाता है। रजगुणमयी महालक्ष्मी माँ विन्ध्यवासिनी देवी के दर्शन करने के बाद काली खोह स्थित तमोगुणमयी माँ काली देवी और महासरस्वती माँ अष्टभुजा देवी धाम की यह पूरी यात्रा बृहद् या महात्रिकोण के नाम से प्रसिद्ध है। माँ विन्ध्यवासिनी देवी धन यानि एंश्वर्य, माँ काली देवी तन और माँ अष्टभुजा देवी मन की देवी हैं। त्रिकोण यात्रा में संकटमोचन, आनन्द भैरव, सिद्धनाथ भैरव, कपाल भैरव के भी दर्शन होते हैं।
माँ विन्ध्यवासिनी की मूर्ति अति प्राचीन है। इस मूर्ति विग्रह में शरीर सौष्ठव का अभाव है तथा यह काले प्रस्तर की निर्मित है। इस प्रकार की मूर्तियाँ लगभग 2000 वर्ष प्राचीन मानी गई है। काशी राज्य अन्तर्गत कंातिपुर एक रियासत थी जिसके राजा दानवेन्द्र राय की अगाध श्रद्धा माँ विन्ध्यवासिनी में थी। माँ विन्ध्यवासिनी का वर्तमान मन्दिर निर्माण कई स्तरों से गुजरते हुए अपने वर्तमान स्वरूप को प्राप्त हुआ है। ज्ञात सूत्रों के अनुसार मूल मन्दिर का निर्माण राजा दानवेन्द्र राय ने कराया था। बुन्देलखण्ड के राजा छत्रसाल की भी कुल देवी माँ विन्ध्यवासिनी थी। राजा छत्रसाल ने भी मन्दिर के बाहरी हिस्से के निर्माण कार्य में सहयोग किया था। माँ के गर्भगृह में महाराजा विजयानगरम् ने चाँदी का बना हुआ सिंहासन स्थापित कराया था। सिखों के 10वें गुरू गुरूगोविन्द सिंह जी भी माँ के दरबार में आ चुके हैं तथा महाराष्ट्र के पेशवा बालाजी बाजीराव भी बुन्देलखण्ड जाते समय अपनी सेना के साथ यहाँ आये थे। माँ विन्ध्यवासिनी देवी के अनेक नाम हैं जिनमें एक कजला देवी भी है। सर्वप्रथम जब मीरजापुर में कजली गायन आरम्भ हुआ तो गायन के पूर्व जो स्तुति की जाती थी उसमें कजला देवी का नाम लिया जाता था। इसी कारण से वर्षाकाल में गायी जाने वाली गीतों की पंक्तियों को कजली कहा जाने लगा।

छानबे क्षेत्र
वयोवृद्ध साहित्यकार पं0 रामजी पाण्डेय ”विमल“ ने अपनी कृति ”सोनांचल“ में मीरजापुर के पश्चिम स्थित छानबे क्षेत्र के सम्बन्ध में लिखा है कि - ”सुरम्य वन घाटियों का एलबम सोनभद्र का आवरण पृष्ठ अपनी एक विशिष्ट पौराणिकता संजोए हुये है। पुराकाल में दक्ष प्रजापति की यज्ञशाला छानबे क्षेत्र (मीरजापुर) में पार्वती के दग्ध शरीर को लेकर भगवान शिव ने ताण्डव किया था जिसके परिणामस्वरूप सती के अंग अनेक स्थानों पर गिरे थे जो शक्तिपीठ कहलाये। वहाँ से क्षुब्ध व कुपित, विक्षिप्त भगवान शिव दक्षिणांचल में प्रवेश किये। प्रवेश द्वार (आधुनिक शिवद्वार) और पर्वत मालाओं को लाँघते हुए अघोर क्षेत्र (अगोरी क्षेत्र) में प्रवेश किये, चोपन के निकट अगोरी की पहाड़ियों में भगवान शिव ने अज्ञातवास किया“  


विन्ध्यक्षेत्र से तय होता है भारत का मानक समय
लगभग 32.8 लाख वर्ग किलोमीटर क्षेत्रफल में फैले विश्व के 7वें सबसे बड़े देश भारत का मानक समय विन्ध्यक्षेत्र से ही तय होता है। जहाँ से भारत देश का मानक समय तय होता है वह स्थान मीरजापुर-इलाहाबाद राष्ट्रीय राजमार्ग पर अमरावती चैराहे से पश्चिम की ओर स्थित है। यहाँ इण्डियन स्टैण्डर्ड टाइम का बोर्ड भी लगा है। गर्व होता है कि देश का मानक समय माँ विन्ध्यवासिनी धाम से तय होता है। पुराणों के अनुसार रावण ने भी इसे मानक समय स्थल मानकर यहाँ शिवलिंग की स्थापना की थी। विन्ध्यधाम के समीप उत्तर तरफ स्थित प्राचीन विन्ध्येश्वर महादेव में आज भी प्रत्येक दिन पूजा होती है। विशेषज्ञों के अनुसार 82 डिग्री 30 मिनट पूर्वी देशान्तर को भारत का मानक देशान्तर यामोत्तर माना गया है। यह काल्पनिक रेखा उत्तर प्रदेश के मीरजापुर जनपद के विन्ध्यक्षेत्र से होकर दो ध्रुवों के बीच से गुजरती है। मानक समय का निर्धारण किसी देश के पूरब-पश्चिम के विस्तार के औसत केन्द्रीय भाग से गुजरने वाली मानक देशांतर के आधार पर किया जाता है। पंचांग में भी विन्ध्य क्षेत्र को मानक मानकर ही समय की गणना होती है। ऋषिकेश पंचांग के अनुसार मीरजापुर से 1 मिनट 32 सेकण्ड पूर्व देशांतर पर वाराणसी स्थित है।  



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