काशी का अर्थ
ज्योतिर्लिंग: अर्थ और द्वादस (12) ज्योतिर्लिंग
ज्योतिर्लिंगों का स्थान
शिव और महाशिवरात्रि
तीसरी आँख (Third Eye)
भोगेश्वरनाथ: 13वाँ और अन्तिम ज्योतिर्लिंग
काशी का अर्थ
काशी, काश धातु से निष्पन्न है। काश का अर्थ है- ज्योतित होना या ज्योतित करना अर्थात जहाँ से ब्रह्म प्रकाशित हो। जिस स्थान या नगर से ज्ञान का प्रकाश चारों ओर फैलता है उसे काशी पुरी या काशी नगर कहते हैं। ब्रह्म प्रकाशित करने वाला प्रत्येक नगर ही काशी है।
काशी क्या है ? काशी सत्य का प्रतीक है। इसके सत्य अर्थ को समझने के लिए सार्वभौम सत्य-सिद्धान्त आधारित सृष्टि के उत्पत्ति से प्रलय को व्यक्त करने वाला शिव-शंकर अधिकृत कर्मवेद: प्रथम, अन्तिम तथा पंचम वेद को समझना पड़ेगा। कालभैरव जन्म कथा इसका प्रमाण है। सर्वोच्च मन सें व्यक्त यह पौराणिक कथा स्पष्ट रुप से व्यक्त करती है कि ब्रह्मा और विष्णु से सर्वोच्च शिव-शंकर हैं। चारो वेदों को प्रमाणित करने वाले शिव-शंकर हैं। चार सिर के चार मुखों से चार वेद व्यक्त करने वाले ब्राह्मण ब्रह्मा जब पाँचवे सिर के पाँचवे मुख से अन्तिम वेद पर अधिपत्य व्यक्त करने लगे तब शिव-शंकर के द्वारा व्यक्त उनके पूर्ण रुप कालभैरव ने उनका पाँचवा सिर काट डाला जिससे यह स्पष्ट होता है कि काल ही सर्वोच्च है, काल ही भीषण है, काल ही सम्पूर्ण पापों का नाशक और भक्षक है, काल से ही काल डरता है। अर्थात् पाँचवा वेद काल आधारित ही होगा। पुराणों में ही व्यक्त शिव-शंकर से विष्णु तथा विष्णु से ब्रह्मा को बहिर्गत होते अर्थात् ब्रह्मा को विष्णु के समक्ष तथा विष्णु को शिव-शंकर के समक्ष समर्पित और समाहित होते दिखाया गया है। जिससे यह स्पष्ट होता है कि शिव-शंकर ही आदि और अन्त हैं। अर्थात् जो पंचम वेद होगा वह अन्तिम वेद होगा, साथ ही प्रथम वेद भी होगा। शिव-शंकर ही प्रलय, स्थिति और सृष्टिकर्ता हैं। चूँकि वेद शब्दात्मक होते हैं इसलिए पंचम वेद शब्द से ही प्रलय, स्थिति और सृष्टिकर्ता होगा। पुराण-शास्त्र को रचने वाले व्यास हैं तो पुराण जिस कला से रची गयी है वह व्यास ही बता सकते हैं या जो शास्त्र रचने की योग्यता रखता हो। सृष्टि की उत्पत्ति और प्रलय या प्रलय और उत्पत्ति की क्रिया उसी भाँति है जैसे जन्म के बाद मृत्यु, पुनः मृत्यु के बाद जन्म अर्थात् उत्पत्ति और प्रलय या जन्म और मृत्यु एक ही विषय हैं इसलिए ही कहा जाता है कि जो प्रथम है वहीं अन्तिम है। कर्मवेद में सृष्टि की उत्पत्ति से प्रलय को व्यक्त किया गया है जिसके बीच सात चरण है और यही सात काशी है। यदि गिने तो प्रलय प्रथम तथा उत्पत्ति अन्तिम व सातवाँ चरण है। इस प्रकार उत्पत्ति व प्रलय अलग-अलग दिखाई पड़ते हुए भी एक हैं। सृष्टि के विकास क्रम में ही मनुष्य की सृष्टि है यह जैसे-जैसे प्राकृतिक नियम से दूर होता जाता है वह पतन की अवस्था को प्राप्त होता जाता है जिसकी निम्नतम अवस्था पशुमानव अर्थात् पूर्णतः इन्द्रिय के वश में संचालित होने वाली अवस्था है। अब यदि यह पशुमानव अवस्था चरम शिवत्व की स्थिति तक उठना चाहे तो उसे मानवीय व प्राकृतिक मूल पाँच चरणों को पार करना पड़ता है। यदि वह अन्तः जगत अर्थात् सार्वभौम सत्य ज्ञान से सृष्टि की उत्पत्ति की ओर जाता है तब वह योगेश्वर की अवस्था प्राप्त करता है। यदि वह वाह्य जगत् अर्थात् सार्वभौम सत्य-सिद्धान्त ज्ञान से सृष्टि के प्रलय की ओर जाता है तब वह भोगेश्वर की अवस्था प्राप्त करता है। योगेश्वर व भोगेश्वर एक ही हैं बस एक अवस्था में दूसरा प्राथमिकता पर नहीं होता है। इस प्रकार सृष्टि के आदि में काशी और अन्त में सत्यकाशी व्यक्त होता है। इनके बीच पाँच अन्य काशी होती हैं। इस क्रमानुसार काशी: पंचम, प्रथम तथा सप्तम काशी तथा सत्यकाशी: पंचम, अन्तिम तथा सप्तमकाशी की स्थिति में होता है। योगेश्वर अवस्था ही अदृश्य विश्वेश्वर की अवस्था है तथा भोगेश्वर अवस्था ही दृश्य विश्वेश्वर की अवस्था है जबकि दोनों एक हैं और प्रत्येक वस्तु की भाँति एक-दूसरे के दृश्य और अदृश्य रुप हैं। इसलिए ही विष्णु और शिव-शंकर को एक दूसरे का रुप कहते हैं।
सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति और अन्त को प्रदर्शित करते शिव अधिकृत कर्मवेद: प्रथम, अन्तिम तथा पंचम वेद में सात सत्य चक्र हैं। ये चक्र कालानुसार सात सत्य हैं जो सात काशीयों को व्यक्त करते हैं। वर्तमान काल अन्तिम सत्य चक्र अर्थात् सातवें चक्र में है। इसलिए ही सातवाँ काशी ही अन्तिम काशी है। मानव शरीर के उत्पत्ति के दो केन्द्र हैं- प्रथम मानव ब्रह्म से उत्पन्न, उसके उपरान्त मानव मानव से उत्पन्न हो रहा है। ऐसी स्थिति में मानव, ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति की ओर से अन्त सत्य चक्र की ओर जाता है तो उसे पाँच सत्यचक्र के ज्ञान से युक्त होना पड़ता है। और उसे पाँचवे सत्य पर उत्पत्ति की दिशा में काशी (वाराणसी) और अन्त की दिशा में सत्यकाशी के सत्यचक्र का ज्ञान होता है। जो अन्तिम है वहीं प्रथम है और जो प्रथम है वहीं अन्तिम है। इस प्रकार काशी: पंचम, प्रथम तथा सप्तम काशी तथा सत्यकाशी क्रमशः पंचम, अन्तिम तथा सप्तम काशी है। काशी और सत्यकाशी एक ही का अदृश्य और दृश्य रुप है। सत्यकाशी, काशी का ही विस्तार मात्र है। काशी मोक्षपुरी है सत्यकाशी जीवनदायिनी है क्योंकि यहाँ से जीवन शास्त्र ”विश्वशास्त्र“ व्यक्त हुआ है। जीवन ही मृत्यु है और मृत्यु ही जीवन है।
काशी शब्द का नाम ही कानों में सुनाई पड़ने से जिस शिवत्व का बोध होता है उससे पूरा शरीर ऐसे स्थिर, शान्त, सुन्दर, एक, सत्य, शुद्ध, ओउम, आत्मा, ब्रह्म, विश्वास, धर्म, केन्द्र या CENTRE की चरम अनुभूति से कम्पित हो जाता है जो भगवान विश्वनाथ की शिव नगरी का वास्तविक परिचय है। क्या इस अनुभूति के परे भी कोई जीवन है? क्या इस चरम आनन्द की स्थिति के उपरान्त भी आनन्द की चरम स्थिति को तलाश सकता है? क्या ऐसी स्थिति में मानव क्षण भर भी रहकर वह अपना सर्वस्व उसमें स्थित नहीं कर देगा? क्या उसे बारम्बार वह अनुभूति आकर्षित करता नहीं रहेगा? इन सब प्रश्नों का उत्तर मात्र यहीं है कि वह स्वयं शिव हो जाता है। वह उसी में विलीन हो जाता है। शिव पुराण जो हमारे भारतीय संस्कृति के धर्मग्रन्थों के श्रृंखला का एक महत्वपूर्ण धर्मग्रन्थ है। उसमें सात काशी की उपलब्धता का वर्णन प्राप्त होता है जिनमें से तो पाँच काशीयों की पहचान की जा चुकी है। वे हैं- काशी (वाराणसी), उत्तरकाशी, शिवाकाशी, दक्षिणकाशी (वैदुर्यपत्तन-बरकला केरल) और छोटा काशी। जिनमें सबसे प्राचीन काशी नगरी (वाराणसी) का मुख्य स्थान है। यहाँ का वातावरण अनेकों उत्थान पतन एवं घटनाओं के बावजूद भी उस शिवत्व की अनुभूति का एहसास आज भी अनुभव किया जा सकता है। लेकिन बढ़ते भौतिकता और उस शिवत्व से दूर जाती नयी पीढ़ी कितनें दिनों तक इस ऐतिहासिक नगरी की सभ्यता, परम्परा और शुद्धता कोेे यथावत् बनाये रख पायेगी। यह दिनों दिन अविश्वसनीय होता जा रहा है। शिक्षा, धर्म-ज्ञान और शिवत्व से जुड़ी यह नगरी वर्तमान में अपने पहचान के विषयों से धीरे-धीरे इतनी दूर हट गया है कि पुनः इसे सही अर्थों में लाना असम्भव हो चुका है। यह सत्य है कि सुधार कभी सफल नहीं हो पाता यदि सुधार चाहिए तो आवश्यक होता है कि सुधार नहीं बल्कि निर्माण हो। इस दूरदर्शी विचारों से प्रभावित होकर काशी की परम्परा को पुनः स्थापित करने हेतु निर्माण के रास्ते से वाराणसी के दक्षिण गंगा पार समाज समर्थित ”सत्यकाशी“ को व्यक्त किया गया है।
बिना गुण के अन्य काशीयों की स्थापना तो आध्यात्मिक एवं धार्मिक दोनों दृष्टिकोण से निश्चित ही अनुचित है परन्तु गुण-धर्म से युक्त स्थान व सीमा में काशी की स्थापना अनुचित नहीं उचित है। अब जबकि पाँच मुख वाले महादेव शिव-शंकर का वेद-कर्मवेद व्यक्त हो चुका है। सभी काशीयों का व्यक्त होना भी अतिआवश्यक है। क्योंकि अनेक तीर्थस्थलों को व्यक्त करने से मनुष्य की सृष्टि में कैसे-कैसे लाभ होते हैं यह तो आप सब भली-भाँति जानते हैं। आद्य शंकराचार्य जी ने भी भारत के चारों दिशाओं में चार पीठों की स्थापना उसी लाभ के लिए किये थे। सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में सभी वस्तु का प्रसार हो रहा है इसलिए अब समय आ गया है कि काशी का भी प्रसार हो क्योंकि प्रसार ही जीवन है। संकुचन ही मृत्यु है। ‘नयी काशी’ योजना का उचित स्थान (रामनगर से पड़ाव) पर निर्माण किसी भी दृष्टि से अनुचित नहीं है। क्योंकि रामनगर में शिवभक्त और शिव के अवतार माने जाने वाले महाराजा काशी नरेश तथा पड़ाव में शिव की एक धारा- अघोर के अवधूत भगवान राम का आश्रम व समाधि स्थल है तथा काशी का सम्बन्ध सत्य-धर्म-ज्ञान से है। सृष्टि की उत्पत्ति से लेकर प्रलयकाल तक काशी का स्थान भिन्न नहीं हो सकता परन्तु काशी एक नहीं बल्कि सात काशियों का संयुक्त रूप है, जो पुराणों में वर्णित भी है और सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के उत्पत्ति और अन्त को प्रदर्शित करता शिव अधिकृत कर्मवेदः प्रथम, अन्तिम तथा पंचमवेद में सात सत्य चक्र भी है जो सात काशियों को व्यक्त करते हैै जिसके अनुसार काशी (वाराणसी) पंचम, प्रथम तथा सप्तम एवं (वाराणसी)-विन्ध्याचल-शिवद्वार-सोनभद्र के बीच का सत्यकाशी-पंचम, अन्तिम तथा सप्तम काशी है जो शिव-शक्ति क्षेत्र है और पौराणिक भूमि भी है। सम्पूर्ण विश्व को मार्गदर्शन देने की ज्ञान बुद्धि भी अब सत्यकाशी क्षेत्र से व्यक्त हो चुका है। काशी मोक्षदायिनी जरुर है परन्तु विश्व को जीवन देने वाली जीवनदायिनी तो सत्यकाशी ही है क्योंकि इसी क्षेत्र से जीवन शास्त्र ”विश्वशास्त्र“ व्यक्त हुआ है। मोक्ष तभी मिलता है जब जीवन मिलता है और जीवन तभी मिलता है जब मोक्ष मिलता है। इसलिए काशी और सत्यकाशी एक ही है अन्तर मात्र प्रसार का है। यह सत्य है कि अदृश्य शिव अकेले रह सकते हैं परन्तु दृश्य शिव-शंकर तो शक्ति के बिना रह नहीं सकते इसका ही परिणाम है शक्ति क्षेत्र-सत्यकाशी में दृश्य शिव-शंकर का व्यक्त होना।
भविष्य पुराण से व्यक्त है कि- ‘‘ग्यारह टोपी (राष्ट्रपति) तक मतपत्रों का राज्य चलेगा इसके बाद किसी पार्टी को बहुमत प्राप्त नहीं होगा। माता-पिता, साधु-सन्त, ब्राह्मण-विद्वान अपमानित होंगे। तब भयानक युद्ध होगा। भारत पुनः अपने अस्तित्व में आकर विश्वगुरु पद पर स्थापित होगा।’’ वह समय तो वर्तमान में चल रहा है जो भी अपना गुण-धर्म त्यागता है वह अपमानित होने का रास्ता स्वयं निर्माण करता है। ऐसे ही अपमानित कोई भी नहीं करता बल्कि वे जिस पद जैसे- माता-पिता, साधु-सन्त, ब्राह्मण-विद्वान पर बैठे रहते हैं। उसका भी धर्म निर्वहन नहीं करते परिणामस्वरुप सत्य-धर्म-ज्ञानियों के लिए वे न तो सम्मान के योग्य होंगे न ही अपमान के। भारत पुनः अपने अस्तित्व में आकर विश्व गुरु पद पर स्थापित होगा। यह बात तो सत्य है परन्तु यह स्वतः नहीं हो जायेगा कोई न कोई तो इसका माध्यम अवश्य बनेगा और वह अन्तिम माध्यम ही शिव-शंकर के पूर्णावतार के रूप में होगा क्योंकि ब्रह्मा के पूर्णावतार श्रीराम तथा विष्णु के पूर्णावतार श्रीकृष्ण हो चुके हैं। इसलिए तीसरे नेत्र कीें दृष्टि से सत्यकाशी के निर्माण में काशी को ही अग्रसर होना चाहिए। यह काशी के लिए सम्मानजनक होगा।
काशी का स्थान, निर्माण, रक्षा और प्रसार महादेव विश्वेश्वर भगवान भोले शंकर के अधीन है और उनकी पहचान है-अनासक्त एकात्म ज्ञान, एकात्म कर्म एवं एकात्म ध्यान के संगम की व्यक्त अवस्था अर्थात् ऐसा सर्वोच्च और अन्तिम ज्ञान तथा कर्म जो सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड (तीनों लोंको) के काल्याणार्थ अन्तिम रास्ता हो, समस्त विश्व एक मात्र कर्म के लिए बद्ध हो और ज्ञान से मुक्त हो। दर्शन के मुख्य तीन स्तर-अद्वैत, विशिष्टाद्वैत तथा द्वैत की स्थिति अदृश्य काल में अदृश्य तथा दृश्य काल में दृश्य की स्थिति होती है। वर्तमान समय चक्र की स्थिति दृश्य काल के दृश्य विशिष्टाद्वैत की स्थिति की ओर है। ऐसी स्थिति में सम्पूर्ण दृश्य जगत को ही सत्य मानकर व्यक्ति कार्य करते हैं। यही भौतिकवाद की स्थिति भी है। ध्यान का विषय है-शिव से काशीवासी और काशी है या काशीवासी और काशी से शिव हैं। यह भी ध्यान रहे कि व्यासजी द्वारा काशी को शाप देने के कारण विश्वेश्वर ने व्यासजी को काशी से निष्कासित कर दिया था। तब व्यासजी लोलार्क मन्दिर के आग्नेय कोण में गंगाजी के पूर्वी तट पर स्थित हुए। इस घटना का उल्लेख काशी खण्ड में इस प्रकार है-
लोलार्कादं अग्निदिग्भागे, स्वर्घुनी पूर्वरोधसि।
स्थितो ह्यद्यापि पश्चेत्सः काशीप्रासाद राजिकाम्।।
- स्कन्दपुराण, काशी खण्ड 96/201
और गंगा पार क्षेत्र से ही जीवन शास्त्र ”विश्वशास्त्र“ व्यक्त हुआ है। ध्यान का विषय है-शिव से काशीवासी और काशी है या काशीवासी और काशी से शिव हैं’’
काशी: प्रतीक चिन्ह व अर्थ
समस्त विश्व को अणु रूप में धारण करने वाले देवता को विष्णु कहते हैं और समस्त विश्व को तन्त्र रूप में धारण करने वाले देवता को शिव कहते हैं। विष्णु, सार्वभौम आत्मा सत्य के प्रतीक हैं तो शिव, सार्वभौम आत्मा सिंद्धान्त के प्रतीक हैं। आत्मा, व्यक्तिगत प्रमाणित अदृश्य है तो सिद्धान्त सार्वजनिक प्रमाणित दृश्य है अर्थात विष्णु के ही दृश्य रूप शिव हैं। काशी का प्रतीक विश्वेश्वर शिवलिंग है।
सत्यकाशी: प्रतीक चिन्ह व अर्थ
समस्त विश्व को अणु रूप में धारण करने वाले देवता को विष्णु कहते हैं और समस्त विश्व को तन्त्र रूप में धारण करने वाले देवता को शिव कहते हैं। विष्णु, सार्वभौम आत्मा सत्य के प्रतीक हैं तो शिव, सार्वभौम आत्मा सिंद्धान्त के प्रतीक हैं। आत्मा, व्यक्तिगत प्रमाणित अदृश्य है तो सिद्धान्त सार्वजनिक प्रमाणित दृश्य है अर्थात विष्णु के ही दृश्य रूप शिव हैं। काशी का प्रतीक विश्वेश्वर शिवलिंग है। सत्यकाशी के प्रतीक में विष्णु का प्रतीक शंख और सु-दर्शन चक्र समर्पित है।
ज्योतिर्लिंग: अर्थ और द्वादस (12) ज्योतिर्लिंग
शब्द कोश के अनुसार- कोई भी चीज जिसके बारे में बातचीत या विचार किया जा सके, चाहे वह वास्तविक हो या काल्पनिक, मानसिक हो या भौतिक ”वस्तु“ कहलाती है और तत्व शब्द का अर्थ है - सार, रहस्य, यथार्थता इत्यादि। इस आधार पर धर्म के सम्बन्ध में वस्तु तत्व का अर्थ धर्म में सर्वस्वीकृत मूत्र्त या अमूत्र्त विषय एवं धारणाएँ होगा। वस्तु तत्व को भाषायिक स्वरूप प्रदान कर इनके श्रेष्ठ, उचित या योग्य होने के सम्बन्ध में विभिन्न संदर्भों के अन्तर्गत वार्तालाप, संभाषण, तर्क आदि किये जा सकते हैं। अतः धर्म के वस्तु तत्व जैसे ईश्वर, मुक्ति, नियतिवाद, कर्म, स्वर्ग-नरक आदि के सम्बन्ध में भिन्न-भिन्न लेखकों ने प्रश्न उठायें हैं, प्राकल्पनाएँ, सिद्धान्त, व्याख्याएँ, परिभाषाएँ एवं धारणाएँ प्रस्तुत की हैं।
इस आधार पर यह कहा जा सकता है कि धर्म के वस्तु-तत्व वे होते हैं जो सत्ता/अस्तित्व/अमूत्र्त को अर्थपूर्णता प्रदान करते हैं और समाज को सक्रिय चेतन आयाम प्रदान करते हैं। इन वस्तु तत्वों को समाज/समुदाय की विकासोन्मुख स्थिति, बौद्धिक वर्ग एवं जन सामान्य की स्थिति, नये मूल्यपरक दृष्टिकोण आदि को ध्यान में रखते हुए शक्तिशाली, अपूर्व बुद्धिमान व्यक्ति पुराने के स्थान पर नवीन धर्मतत्वों की स्थापना कर सकते हैं या उन्हें रूपान्तरित कर सकते हैं। अतः धर्म के वस्तु तत्व-तत्वों का निर्धारण देशकाल, परिस्थितियों के आधार पर अथवा युगानुरूप दृष्टिकोण के आधार पर किया जा सकता है। धर्म के वस्तु तत्व व्यक्ति के अपूर्व कल्पना शक्ति के द्योतक होते हैं। इनके द्वारा अमूर्त को मूर्त रूप में व्याख्यायित कर समझने का व्यावहारिक यत्न किया जाता है।
धर्म में वस्तु तत्व प्रतीक के रूप में होते हैं। ऋग्वेद में प्रतीक शब्द का प्रयोग अवयव के अर्थ में किया गया है। उपनिषद् में प्रतीक शब्द का प्रयोग मुख के लिए करते हुए कहा गया है कि जो अन्न के अक्षय भाव को जानता है, वह मुख रूप से प्रतीक के द्वारा इसका भक्षण करता है। इससे स्पष्ट होता है कि प्रतीक प्रयोग प्राचीनकाल में अवयव, मुख, अंग आदि विभिन्न अर्थो में किये जाते रहें हैं।
शब्दकोश के अनुसार सामान्यतः प्रतीक वे होते हैं जो किसी भौतिक एवं अभौतिक वस्तु का प्रतिनिधित्व करते हैं। ये संकेत, चिन्ह, लक्षण (स्वभाव), चरित्र आदि अर्थ को भी समाहित करते हैं। ये वे कृत्रिम चिन्ह या संकेत हैं जो किसी वस्तु-विचार या कल्पना को व्यक्त करते हैं। ये मानव मन का ही आविष्कार है तथा चेतन-अचेतन दोनों मनः अवस्थाओं द्वारा प्रयुक्त किये जाते हैं। अतः प्रतीक केवल मानस प्रत्यक्ष तथा कल्पना में आने वाले विचारों, भावों और अनुभूतियों के गोचर संकेत अथवा चिन्ह हैं, के रूप में भी परिभाषित किया गया है। भारतीय चिंतकों के अनुसार प्रतीक का अर्थ है- ”ओर आना या समीप पहुँचना“। ये मनुष्य को अपने साधना मार्ग अथवा सद्गुणों के विकास में अगले सोपान (सीढ़ी) तक ले जाते हैं। इनके आधार पर मनुष्य अपने ध्येय की ओर बढ़ता है किन्तु वे प्रतीक सीढ़ीयाँ उच्चतर तत्व की प्राप्ति के लिए सहायक साधन मात्र हैं, स्वयं लक्ष्य या उच्चतर तत्व नहीं। इनका प्रयोग हम मूल वस्तु को समझने के लिए करते हैं। ये सदा ही अनुभव या अवबोध से भिन्न होते हैं।
प्रतीक के निम्नलिखित लक्षण होते हैं-
1. प्रतीक व चिन्ह दोनों अपने से पृथक किसी अन्य वस्तु की ओर संकेत करते हैं। ये एक दूसरे से भिन्न होते हैं, किन्तु कई बार इनमें अंतर न कर पाने के कारण इन्हें एक मान लिया जाता है। एक चिन्ह के स्थान पर दूसरे चिन्ह को स्वेच्छानुसार प्रयोग किया जा सकता है किन्तु किसी एक प्रतीक के स्थान पर अन्य प्रतीक का स्वेच्छापूर्वक प्रयोग अथवा उसकी रचना नहीं की जा सकती। प्रतीक में अपनी विशेष शक्ति अन्तर्निहित होती है।
2. प्रतीक वस्तुओं का प्रतिनिधित्व करते हुए प्रतीक्य की ओर संकेत करते हैं, उसमें सहभागी होते हैं किन्तु कभी भी प्रतीक्य का स्थान ग्रहण नहीं कर सकते है। जैसे - राष्ट्रध्वज (प्रतिनिधि) राष्ट्र की शक्ति, गौरव, मर्यादा, सम्मान में सहभागी होता है किन्तु यह सम्मान ध्वजरूपी प्रतिनिधि का नहीं वरन् उसका होता है जिसका कि वह प्रतिनिधित्व करता है।
3. इनकी सहायता से वह अदृश्य, अनुभवातीत सत्ता भी इनके सत्स्वरूप संकेत के कारण बोधगम्य हो जाती है जिसे अन्य इन्द्रियानुभविक प्रकारों से नहीं जाना जा सकता है।
4. प्रतीक की सार्थकता समाज द्वारा उनकी स्वीकृति पर निर्भर होती है। प्रतीक बनने तथा प्रतीक के रूप में समाज द्वारा स्वीकार किये जाने की प्रक्रिया साथ ही साथ होती है। यद्यपि प्रतीक सर्वप्रथम किसी के मन में उत्पन्न होते हैं और अचेतन पर निर्भर हैं फिर भी इसकी रचना व ग्राह्य सामाजिक क्रिया का परिणाम है कल्पित या मनगढ़न्त नहीं।
5. प्रतीकों में संगठनात्मक व विघटनात्मक दोनों शक्तियाँ विद्यमान रहती हैं।
प्रतीकों के ये लक्षण सामान्य प्रतीकों के साथ-साथ धार्मिक प्रतीकों में भी पायी जाती हैं। इस दृष्टि से सामान्य प्रतीकों तथा धार्मिक प्रतीकों में पर्याप्त समानता है परन्तु इस समानता के होते हुए भी धार्मिक प्रतीक सामान्य प्रतीक से भिन्न होते हैं। प्रत्येक धार्मिक प्रतीक का प्रयोजन उसकी ओर संकेत करना है जो सीमातीत है। ये ऐसे विषय को अभिव्यक्त करते हैं जो आस्था का विषय है तथा स्वरूपतः विश्व की उन वस्तुओं से परे है जिन्हें ज्ञान का विषय बनाया जा सकता है। ऐसे विषय यथा-परमसत्ता जो कि निरूपाधिक इन्द्रियातीत सत्ता है, को धार्मिक प्रतीकों के अभाव में नहीं जाता जा सकता। जबकि सामान्य प्रतीक जिन वस्तुओं की ओर संकेत करते हैं उन्हें प्रतीकों की सहायता लिये बिना भी जाना जा सकता है। परमसत्ता अनुभवातीत और अज्ञेय है अर्थात् इन्द्रियगम्य नहीं है। अतः इस परमसत्ता के सम्बन्ध में कुछ कहने के लिए विभिन्न प्रतीकों की सहायता लेनी पड़ती है। इन प्रतीकों के माध्यम से मनुष्य परमसत्ता के प्रति अपनी भावनाओं तथा अभिवृत्तियों को व्यक्त कर सकता है। इन धर्म प्रतीकों के द्वारा परमसत्ता का ज्ञान (बौद्धिक) तो नहीं हो सकता, किन्तु इनके प्रतीक के द्वारा अगम्य परमसत्ता (अन्तिम सत्ता) का सांकेतिक, अप्रत्यक्ष आभास अवश्य हो सकता है। प्रतीक इसी सत्स्वरूप के प्रति अन्तिम संलग्नता को व्यक्त करते हैं। ये हमारे कार्यो को दैवत्व से सम्बद्ध करते हैं।
धार्मिक प्रतीकों का क्षेत्र विस्तृत है। ईश्वर, देवता, इष्ट, धर्मगुरू, प्रतिमा, शब्द, सिद्धान्त, देवकथा, पवित्र वस्तुएँ, सृष्टि, स्वर्ग-नरक, पाप-पुण्य, पूजा आदि सभी धर्म में, प्रतीक रूप में व्यवहार्य हैं। गौतम बुद्ध, ईसामसीह आदि ऐतिहासिक पुरूष ही नहीं वरन् धर्म प्रतीक भी हैं। प्रतीक सभी अनुभवात्मक जगत में सत्यस्वरूप की ओर संकेत करते हैं जो कि इन्द्रियातीत है। लक्ष्य प्राप्ति होने पर प्रतीकों का कोई प्रयोजन नहीं है।
अतः कहा जा सकता है कि धर्म में जो वस्तु तत्व स्वीकार्य किये जाते हैं वे प्रतीक रूप होते हैं। चाहे वे धार्मिक उपादान (ईश्वर, आत्मा, अवतार, ईश्वर के अंश से उत्पन्न मानव, क्रास, शंख, चक्र, धर्म पुस्तकें आदि) हों या धार्मिक कृत्य चर्च, मन्दिर जाना, उपासना करना, नमाज या प्रार्थना करना, यज्ञ करना आदि। ये किसी न किसी रूप में सभी धर्मो में प्रचलित होते हैं तथा मानव आस्थाओं के परिचायक होते हैं।
स्वामी विवेकानन्द के प्रतीक के सम्बन्ध में विचार-
”उन्हें (सिद्ध गुरुओं) मंत्र द्वारा शिष्यों में आध्यात्मिक ज्ञान का बीजारोपड़ करना पड़ता है। ये मंत्र क्या हैं? भारतीय दर्शन के अनुसार नाम और रुप ही इस जगत की अभिव्यक्ति के कारण हैं। मानवीय अन्तर्जगत में एक भी ऐसी चित्तवृत्ति नहीं रह सकती, जो नाम-रुपात्मक न हो। बृहत् ब्रह्माण्ड में भी ब्रह्मा, हिरण्यगर्भ या समष्टि महत् ने पहले अपने आप को नाम के, और फिर बाद में रुप के आकार में अर्थात् इस परिदृश्यमान जगत के आकार में अभिव्यक्त किया। यह सारा व्यक्त इन्द्रियग्राह्य जगत रुप है, और इसकें पीछे है अनन्त अव्यक्त स्फोट। स्फोट का अर्थ- समस्त जगत की अभिव्यक्ति का कारण शब्द-ब्रह्म है। समस्त नामों अर्थात् भावों की नित्य समवायी उपादान स्वरुप यह नित्य स्फोट ही वह शक्ति है, जिससे भगवान इस विश्व की सृष्टि करते हैं। यहीं नहीं बल्कि भगवान पहले स्फोट रुप में परिणत हो जाते हैं और तत्पश्चात् अपने को उससे भी स्थूल इस इन्द्रियग्राह्य जगत केे रुप में परिणत कर लेते हैं। इस स्फोट का एक मात्र वाचक शब्द है-”ऊँ“। और चूँकि हम किसी भी उपाय से शब्द को भाव से अलग नहीं कर सकते, इसलिए यह ”ऊँ“ भी इस नित्य स्फोट से नित्य संयुक्त है। एकमेव यह ”ऊँ“ ही इस प्रकार सर्वभावाव्यापी वाचक शब्द है, अन्य कोई भी इसके समान नहीं। स्फोट ही सारे भावों का उपादान है, फिर भी वह स्वयं पूर्ण रुप से विकसित कोई विशिष्ट भाव नहीं है। अर्थात् यदि उन सब भेदों को, जो एक भाव को दूसरे से अलग करते हैं, निकाल दिया जाय, तो जो कुछ बचा रहता है, वहीं स्फोट है। इसलिए इस स्फोट को ”नादब्रह्म“ कहते हैं। जो वाचक शब्द उसे सब से कम विशेषभावापन्न करेगा, पर साथ ही उसके स्वरुप को यथासम्भव पूरी तरह प्रकाशित करेगा, वहीं उसका सबसे सच्चा वाचक होगा। और यह वाचक शब्द है- एकमात्र ”ऊँ“ क्योंकि ये तीनों अक्षर अ, उ और म्, जिनका एक साथ उच्चारण करने से ”ऊँ“ होता है, समान शब्दों के साधारण वाचक के तौर पर लिये जा सकते हैं (भक्ति योग, राम कृष्ण मिशन)। सृष्टि के पूर्व ब्रह्म शब्दात्मक बनते है, फिर ओंकारात्मक या नादात्मक होते है। तत्पश्चात् पहले कल्पों के विशेष शब्द जैसे- भूः, भुवः, स्वः अथवा गो, मानव, घट, पट इत्यादि का प्रकाश उसी आंेकार से होता है। सिद्ध संकल्प ब्रह्म में क्रमशः एक-एक शब्द के होते ही उसी क्षण उन सब पदार्थो का भी प्रकाश हो जाता है और इस विचित्र जगत् का विकास हो उठता है। अब समझे न कि कैसे शब्द ही सृष्टि का मूल है (विवेकानन्द जी के संग में, पृष्ठ-62, राम कृष्ण मिशन)। प्रतीक का अर्थ है वे वस्तुएं, जो थोड़े-बहुत अंश में ब्रह्म के स्थान में उपास्य-रूप से ली जा सकती है जो वस्तु ब्रह्म नहीं है, उसमें ब्रह्म-बुद्धि करके ब्रह्म का अनुसंधान प्रतीकोपासना कहलाता है। (योग क्या है?, पृष्ठ-48, राम कृष्ण मिशन)। संसार के मुख्य धर्मों में से वेदान्त, बौद्ध धर्म और ईसाई धर्म के कुछ सम्प्रदाय बिना किसी आपत्ति के प्रतिमाओं का उपयोग करते हैं। केवल इस्लाम और प्रोटेस्टेण्ट ये ही दो ऐसे धर्म हैं जो इस सहायता की आवश्यकता नहीं मानते। फिर भी मुसलमान प्रतिमा के स्थान में अपने पीरों और शहीदों की कब्रों का उपयोग करते हैं। ईसाई और इस्लाम धर्म में जो कुछ प्रतिमा-उपासना विद्यमान है, वह उस श्रेणी की है, जिसमें प्रतीक या प्रतिमा की उपासना केवल प्रतीक या प्रतिमा रूप से होती है- ब्रह्म दृष्टि से नहीं। अतएव वह कर्मानुष्ठान के ही समान है-उससे न भक्ति मिल सकती है, न मुक्ति। इस प्रकार की प्रतिमा-पूजा में उपासक ईश्वर को छोड़ अन्य वस्तुओं में आत्मसमर्पण कर देता है और इसलिए प्रतिमा, कब्र, मन्दिर आदि के इस प्रकार उपयोग को ही सच्ची मूर्तिपूजा कहते है। पर वह न तो कोई पाप कर्म है और न कोई अन्याय-वह तो बस एक कर्म मात्र है, और उपासकों को उसका फल भी अवश्य मिलता है। (भक्तियोग पृष्ठ-51, राम कृष्ण मिशन)“
उस एक सार्वभौम आत्मतत्व को जानने के लिए ज्ञान सूत्रों के माध्यम से वेदों में, ईश्वर नाम (ओउम्) के माध्यम से उपनिषद् में, उस आत्मतत्व के गुणों व ब्रह्माण्डीय वस्तुओं (सूर्य, चाँद, ग्रह, नक्षत्र, तत्व इत्यादि) के गुणों के साकार निरूपण (मूर्ति) के माध्यम से पुराणों में, प्रकृति (सत्व, रज, तम, आसुरी, दैवी व उसके अन्य अंश गुणों) के माध्यम से गीता/गीतोपनिषद् में व्यक्त किया गया है। इन सभी माध्यमों सहित वर्तमान पदार्थ विज्ञान, समाज विज्ञान, राजनीति विज्ञान, शासन प्रणाली इत्यादि के माध्यम से सार्वजनिक प्रमाणित गीता अर्थात विश्वशास्त्र में व्यक्त किया गया है।
पौराणिक साकार चरित्रों के निरूपण से ही समाज में जो पहचान बनी वह धर्म- हिन्दू धर्म कहलाया जबकि अवतारगण (सनातन समर्थक) का इनसे कोई सम्बन्ध नहीं रहा और न ही वे इनकी पूजा करते हुये दर्शाये गये। अवतारगण मात्र शिव (सार्वभौम आत्मा) और उसके प्रतीक रूप शिवलिंग तक ही सीमित रहे। क्योंकि वे जानते थे कि ये सब मात्र माध्यम हैं न कि लक्ष्य।
हिन्दू धर्म में पुराणों के अनुसार शिवजी जहाँ-जहाँ स्वयं प्रगट हुए उन बारह स्थानों पर स्थित शिवलिंगों को ज्योतिर्लिंगों के रूप में पूजा जाता है। ये संख्या में 12 है। 12 ज्योतिर्लिंगों के नाम शिव पुराण (शतरुद्र संहिता, अध्याय 42/2-4) के अनुसार हैं। जिनकी अपनी-अपनी कथाएँ भी हैं। एक मतानुसार बारह ज्योतिर्लिंगों को बारह राशियों से जोड़कर भी देखा जाता है। ये राशियां इस प्रकार से हैं- 1.मेष-सोमनाथ, 2.वृष-श्रीशैल, 3.मिथुन-महाकाल, 4.कर्क-अमलेश्वर, 5.सिंह-वैद्यनाथ, 6.कन्या-भीमशंकर, 7.तुला-रामेश, 8.वृश्चिक-नागेश, 9.धनु-विश्वेशं, 10.मकर-त्र्यम्बकं, 11. कुंभ-केदार, 12. मीन-घृष्णेशं। ये राशियां चंद्र राशि समझें।
साधारण भाषा व सार्वभौम परिभाषा के रूप में जिन शिवलिंगो की कथा पौराणिक या अवतारों की कथा से जुड़ी होती है सिर्फ वही ज्योर्तिलिंग की योग्यता रखते हैं।
ज्योतिर्लिंगों का स्थान
1. सोमनाथ - गुजरात प्रभास पाटन, सौराष्ट्र श्री सोमनाथ सौराष्ट्र, (गुजरात) के प्रभास क्षेत्र में विराजमान है। इस प्रसिद्ध मंदिर को अतीत में छह बार ध्वस्त एवं निर्मित किया गया है। 1022 ई. में इसकी समृद्धि को महमूद गजनवी के हमले से सार्वाधिक नुकसान पहुँचा था।
2. मल्लिकार्जुन - आंध्र प्रदेश कुर्नूल आन्ध्र प्रदेश प्रांत के कृष्णा जिले में कृष्णा नदी के तटपर श्रीशैल पर्वत पर श्रीमल्लिकार्जुन विराजमान जिसे दक्षिण का कैलाश कहते हैं।
3. महाकालेश्वर - मध्य प्रदेश महाकाल, उज्जैन श्री महाकालेश्वर (मध्यप्रदेश) के मालवा क्षेत्र में क्षिप्रा नदी के तटपर पवित्र उज्जैन नगर में विराजमान है। उज्जैन को प्राचीनकाल में अवंतिकापुरी कहते थे।
4. ओमकारेश्वर - मध्य प्रदेश नर्मदा नदी में एक द्वीप पर मालवा क्षेत्र में श्री ओमकारेश्वर स्थान नर्मदा नदी के बीच स्थित द्वीप पर है। उज्जैन से खण्डवा जाने वाली रेलवे लाइन पर मोरटक्का नामक स्टेशन है, वहां से यह स्थान 10 मील दूर है। यहां ओमकारेश्वर और मामलेश्वर दो पृथक-पृथक लिङ्ग हैं, परन्तु ये एक ही लिङ्ग के दो स्वरूप हैं। श्रीओमकारेश्वर लिंग को स्वयंभू समझा जाता है।
5. केदारनाथ - उत्तराखंड केदारनाथ श्री केदारनाथ हिमालय के केदार नामक श्रृङ्गपर स्थित हैं। शिखर के पूर्व की ओर अलकनन्दा के तट पर श्री बदरीनाथ अवस्थित हैं और पश्चिम में मन्दाकिनी के किनारे श्री केदारनाथ हैं। यह स्थान हरिद्वार से 150 मील और ऋषिकेश से 132 मील दूर उत्तरांचल राज्य में है।
6. श्रीभीमशंकर - महाराष्ट्र भीमशंकर श्री भीमशंकर का स्थान मुंबई से पूर्व और पूना से उत्तर भीमा नदी के किनारे सह्याद्रि पर्वत पर है। यह स्थान नासिक से लगभग 120 मील दूर है। सह्याद्रि पर्वत के एक शिखर का नाम डाकिनी है। शिवपुराण की एक कथा के आधार पर भीमशंकर ज्योतिर्लिङ्ग को असम के कामरूप जिले में गुवाहाटी के पास ब्रह्मपुर पहाड़ी पर स्थित बतलाया जाता है। कुछ लोग मानते हैं कि नैनीताल जिले के काशीपुर नामक स्थान में स्थित विशाल शिवमंदिर भीमशंकर का स्थान है।
7. श्रीकाशी विश्वनाथ - वाराणसी (उत्तर प्रदेश) स्थित काशी के श्रीविश्वनाथजी सबसे प्रमुख ज्योतिर्लिंगों में एक हैं। गंगा तट स्थित काशी विश्वनाथ शिवलिंग दर्शन हिंदुओं के लिए सबसे पवित्र है।
8. श्रीत्रयम्बकेश्वर - महाराष्ट्र त्रयम्बकेश्वर, निकट नासिक श्री त्र्यम्बकेश्वर ज्योतिर्लिङ्ग महाराष्ट्र प्रांत के नासिक जिले में पंचवटी से 18 मील की दूरी पर ब्रह्मगिरि के निकट गोदावरी के किनारे है। इस स्थान पर पवित्र गोदावरी नदी का उद्गम भी है।
9. श्रीवैद्यनाथ - झारखंड देवघर जिला (झारखंड) राज्य के संथाल परगना क्षेत्र में जसीडीह स्टेशन के पास देवघर (वैद्यनाथधाम) नामक स्थान पर श्रीवैद्यनाथ ज्योतिर्लिङ्ग सिद्ध होता है, क्योंकि यही चिताभूमि है। महाराष्ट्र में पासे परभनी नामक जंक्शन है, वहां से परली तक एक ब्रांच लाइन गयी है, इस परली स्टेशन से थोड़ी दूर पर परली ग्राम के निकट श्रीवैद्यनाथ को भी ज्योतिर्लिङ्ग माना जाता है। परंपरा और पौराणिक कथाओं से देवघर स्थित श्रीवैद्यनाथ ज्योतिर्लिङ्ग को ही प्रमाणिक मान्यता है।
10. श्रीनागेश्वर - गुजरात दारुकावन, द्वारका श्रीनागेश्वर ज्योतिर्लिङ्ग बड़ौदा क्षेत्रांतर्गत गोमती द्वारका से ईशानकोण में बारह-तेरह मील की दूरी पर है। निजाम हैदराबाद राज्य के अन्तर्गत औढ़ा ग्राम में स्थित शिवलिङ्ग को ही कोई-कोई नागेश्वर ज्योतिर्लिङ्ग मानते हैं। कुछ लोगों के मत से अल्मोड़ा से 17 मील उत्तर-पूर्व में यागेश (जागेश्वर) शिवलिङ्ग ही नागेश ज्योतिर्लिङ्ग है।
11. श्रीरामेश्वर - तमिलनाडु रामेश्वरम श्रीरामेश्वर तीर्थ तमिलनाडु प्रांत के रामनाड जिले में है। यहाँ लंका विजय के पश्चात् भगवान श्रीराम ने अपने अराध्यदेव शंकर की पूजा की थी। ज्योतिर्लिंग को श्रीरामेश्वर या श्रीरामलिंगेश्वर के नाम से जाना जाता है।
12.. श्रीघुश्मेेश्वर - महाराष्ट्र निकट एल्लोरा, औरंगाबाद जिला श्रीघुश्मेश्वर (गिरीश्नेश्वर) ज्योतिर्लिंग को घुश्मेश्वर या घृश्णेश्वर भी कहते हैं। इनका स्थान महाराष्ट्र प्रांत में दौलताबाद स्टेशन से बारह मील दूर बेरूल गांव के पास है।
शिव
शिव, ईश्वर का रूप हैं। हिन्दू धर्म के प्रमुख देवताओं में से हैं। वेद में इनका नाम रुद्र है। यह व्यक्ति की चेतना के अन्तर्यामी हैं। इनकी अर्धाङ्गिनी (शक्ति) का नाम पार्वती है। इनके पुत्र स्कन्द और गणेश हैं। शिव अधिक्तर चित्रों में योगी के रूप में देखे जाते हैं और उनकी पूजा लिंग के रूप में की जाती है। भगवान शिव को संहार का देवता कहा जाता है। भगवान शिव सौम्य आकृति एवं रौद्ररूप दोनों के लिए विख्यात हैं। अन्य देवों से शिव को भिन्न माना गया है। सृष्टि की उत्पत्ति, स्थिति एवं संहार के अधिपति शिव हैं। त्रिदेवों में भगवान शिव संहार के देवता माने गए हैं। शिव अनादि तथा सृष्टि प्रक्रिया के आदिस्रोत हैं और यह काल महाकाल ही ज्योतिषशास्त्र के आधार हैं। शिव का अर्थ यद्यपि कल्याणकारी माना गया है, लेकिन वे हमेशा लय एवं प्रलय दोनों को अपने अधीन किए हुए हैं।
शिव में परस्पर विरोधी भावों का सामंजस्य देखने को मिलता है। शिव के मस्तक पर एक ओर चंद्र है, तो दूसरी ओर महाविषधर सर्प भी उनके गले का हार है। वे अर्धनारीश्वर होते हुए भी कामजित हैं। गृहस्थ होते हुए भी श्मशानवासी, वीतरागी हैं। सौम्य, आशुतोष होते हुए भी भयंकर रुद्र हैं। शिव परिवार भी इससे अछूता नहीं हैं। उनके परिवार में भूत-प्रेत, नंदी, सिंह, सर्प, मयूर व मूषक सभी का समभाव देखने को मिलता है। वे स्वयं द्वंद्वों से रहित सह-अस्तित्व के महान विचार का परिचायक हैं।
तीनों भुवनों की अपार सुंदरी तथा शीलवती गौरां को अर्धांगिनी बनाने वाले शिव प्रेतों व पिशाचों से घिरे रहते हैं। उनका रूप बड़ा अजीव है। शरीर पर मसानों की भस्म, गले में सर्पों का हार, कंठ में विषधर, जटाओं में जगत-तारिणी पावन गंगा तथा माथे में प्रलयंकर ज्वाला है। बैल को वाहन के रूप में स्वीकार करने वाले शिव अमंगल रूप होने पर भी भक्तों का मंगल करते हैं और श्री-संपत्ति प्रदान करते हैं।
सम्पूर्ण आध्यात्मिक सूक्ष्म एवम् स्थूल सिद्धान्तों को व्यक्त करने का माध्यम मात्र मानव शरीर और कर्मक्षेत्र मात्र मानव समाज ही है। साथ ही उसका मूल्यांकन कत्र्ता मानव का अपना स्तर ही है। इसलिए अवतार सम्पूर्ण सिद्धान्तों का कालानुसार व्यक्त सगुण रूप मानव शरीर ही होता है। मूल रूप से अवतार शिव-आत्मा-ईश्वर-ब्र्रह्मा अर्थात् सार्वभौम सत्य-सिद्धान्त के अवतार होते है परन्तु एकात्मज्ञान अर्थात् ब्रह्मा और एकात्मध्यान अर्थात् शंकर सार्वजनिक प्रमाणित दृश्य न हो सकने के कारण विष्णु के ही अवतार के रूप में जाने जाते हैं क्योंकि एक मात्र कर्म ही मानव समाज में सार्वजनिक प्रमाणित होता है। इस एकात्मकर्म का कारण एकात्म प्रेम तथा एकात्म प्रेम का कारण एकात्मकर्म होता है।
शंकर अर्थात् एकात्मध्यान का व्यक्त रूप एकात्म समर्पण अर्थात् पार्वती है। एकात्म ध्यान का कारण एकात्म समर्पण तथा एकात्म समर्पण का कारण एकात्म ध्यान होता है। वह ध्यान जो आत्मा के लिए हो और वह समर्पण जो ध्यान के लिए हो अर्थात् समभाव और ध्यान युक्त मानव शरीर ही शंकर का अवतार है। इस ध्यान का अर्थ काल चिन्तन है। विभिन्न कालों में विभिन्न रूपों में काल के प्रति समर्पण कराने अर्थात् एकात्मज्ञान और एकात्मकर्म की परीक्षा और परीक्षोपरान्त मार्ग प्रशस्त करने के लिए व्यक्तिगत प्रमाणित शंकर अर्थात् एकात्म ध्यान के 21 अंशावतार जाने जाते है। शिव पुराण मे शिव जी और उनके अवतार के बारे मे विस्तार से लिखा है। जो निम्नवत् है।
01. ऋषि दधीचि के समय- ”पिप्पलाद अवतार“
02. वेश्या की परीक्षा के समय - ”वैश्यनाथ अवतार“
03. विश्वानर मुनि के समय - ”गृहपति अवतार“
04. इन्द्र्र की रक्षा के लिए कश्यप मुनि के समय - ”एकादश रूद्र अवतार“
05. पार्वती की परीक्षा के समय - ”ब्रह्मचारी अवतार“
06. पार्वती को माॅगते समय - ”सुनट नर्तक अवतार“
07. पार्वती के पिता के समक्ष अपनी निन्दा के समय - ”साधु अवतार“
08. पार्वती द्वारा भैरव को श्राप देने पर भैरव के स्नेह में पार्वती का शारदा रूप सहित - ”महेश अवतार“
09. राजा भद्रायु की परीक्षा के लिए - ”द्विजेश्वर अवतार“
10. भील आहुक-आहुका पति-पत्नी की परीक्षा के लिए - ”मतिनाथ अवतार“
11. इछवाकुवंशीय श्रद्धेय की नवमी पीढ़ी में राजा नभग की परीक्षा के लिए-”कृष्ण दर्शन अवतार“
12. इन्द्र, बृहस्पति सहित अन्य देवताओं की परीक्षा के लिए- ”अवधुतेश्वर अवतार“
13. विदर्भ नरेश सत्यरथ और उसकी पत्नी के मृत्यु के उपरान्त अबोध बालक के कल्याण- ”भिक्षुवर्ण अवतार“
14. व्याघ्रपाद के पुत्र उपमन्यु की परीक्षा के समय- ”सुरेश्वर अवतार“
15. कूर्म अवतार के समय - विषपान और देवताओं के घमण्ड को तोड़ने के लिए - ”नीलकण्ठ यक्षश्रेश्वर अवतार“
16. कूर्म अवतार के समय विष्णु गणों के आतंक को समाप्त करने के लिए - ”वृषभ अवतार“
17. नृसिंह अवतार के समय नृसिंह का क्रोध शान्त करने के लिए - ”शरभ अवतार“
18. रामावतार के समय - ”दुर्वासा अवतार“
19. रामावतार के समय - ”हनुमान अवतार“
20. कृष्णावतार के समय - ”विभु अश्वश्थामा अवतार“ और
21. अर्जुन की परीक्षा में - ”किरात अवतार“
शिव निराकार हैं तो शंकर साकार रूप में प्रक्षेपित हैं। शिव अर्थात सम्पूर्ण जगत का मूल कारण जो सर्वत्र विद्यमान है। फलस्वरूप शिव का साकार पूर्ण अवतरण रूप सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में व्याप्त सार्वभौम सत्य-सिद्धान्त ज्ञान से युक्त होकर जगत के अधिकतम चरित्रों को आत्मसात् करने वाला और उससे मुक्त होता है। शिव-शंकर की दृष्टि में जगत का प्रत्येक वस्तु उपयोगी ही है, न की अनुपयोगी। अर्थात अनुपयोगी लगने वाले विषय, वस्तु, विचार इत्यादि को भी उपयोगी बना लेना महादेव शिव-शंकर का दिव्य गुण है। शिव-शंकर की पूजा हम मूर्ति, चित्र, या प्रतीक शिवलिंग के माध्यम से करते। शिव-शंकर की संस्कृति तो मात्र कल्याण की प्राथमिकता वाली संस्कृति है। शिव-शंकर के पूर्णावतार का अर्थ है- निम्नतम नकारात्मक से सर्वोच्च और अन्तिम सकारात्मक गुणों का महासंगम। शिव-शंकर के अन्य गुणों में निःसंग रहना, एकान्तवास करना, सम्पूर्ण विश्व-ब्रह्माण्ड पर ध्यान रखना तथा विश्व के कल्याण के लिए प्रेरणा देना है। साथ ही अपनी मस्ती में मस्त इस भाॅति मस्त रहना भी है जैसे न ही कोई चिन्ता है और नही कोई कार्य करना है। जबकि वह विश्व कल्याण के लिए अपने कत्र्तव्य पर ध्यान भी लगाये रहते हैं।
शिव-शकंर अवतार के आठ रूप और उनके अर्थ निम्नवत हैं-
1.शर्व-सम्पूर्ण पृथ्वी को धारण कर लेना अर्थात पृथ्वी के विकास या सृष्टि कार्य में इस रूप को पार कियें बिना सम्भव न होना।
2.भव-जगत को संजीवन देना अर्थात उस विषय को देना जिससे जगत संकुचित व मृत्यु को प्राप्त होने न पाये।
3.उग्र-जगत के भीतर और बाहर रहकर श्री विष्णु को धारण करना अर्थात जगत के पालन के लिए प्रत्यक्ष या प्रेरक कर्म करना।
4.भीम-सर्वव्यापक आकाशात्मक रूप अर्थात आकाश की भाॅति सर्वव्यापी अनन्त ज्ञान जो सभी नेतृत्व विचारों को अपने में समाहित कर ले।
5.पशुपति-मनुष्य समाज से पशु प्रवृत्तियों को समाप्त करना अर्थात पशु मानव से मनुष्य को उठाकर ईश्वर मानव की ओर ले जाना। दूसरे रूप में जीव का शिव रूप में निर्माण।
6.ईशान-सूर्य रूप से दिन में सम्पूर्ण संसार में प्रकाश करना अर्थात ऐसा ज्ञान जो सम्पूर्ण संसार को पूर्ण ज्ञान से प्रकाशित कर दे।
7.महादेव-चन्द्र रूप से रात में सम्पूर्ण संसार में अमृत वर्षा द्वारा प्रकाष व तृप्ति देना अर्थात ऐसा ज्ञान जो संसार को अमृतरूपी शीतल ज्ञान से प्रकाशित कर दे।
8.रूद्र-जीवात्मा का रूप अर्थात शिव का जीव रूप में व्यक्त होना।
शिव-शंकर देवता व दानव दोनों के देवता हैं जबकि श्री विष्णु सिर्फ देवताओं के देवता हैं। अर्थात शिव-शंकर जब रूद्र रूप की प्राथमिकता में होगें तब उनके लिए देवता व दानव दोनो प्रिय होगें लेकिन जब उग्र रूप की प्राथमिकता में होगें तब केवल देवता प्रिय होगें। अर्थात शिव-शंकर का पूर्णवतार इन आठ रूपों से युक्त हो संसार का कल्याण करते हैं। हिन्दू धर्म में भगवान शिव को अनेक नामों से पुकारा जाता है जैसे-
1. अर्धनारीश्वर - शिव और शक्ति के मिलन से अर्धनारीश्वर नाम प्रचलित हुआ।
2. भोला - भोले का अर्थ है कोमल हृदय, दयालु व आसानी से माफ करने वाला। यह विश्वास किया जाता है कि भगवान शंकर आसानी से किसी पर भी प्रसन्न हो जाते हैं।
3. लिंगम - यह रोशनी की लौ व पूरे ब्रह्मांड का प्रतीक है।
4. नटराज - नटराज को नृत्य का देवता मानते है क्योंकि भगवान शिव तांडव नृत्य के प्रेमी हैं।
महाशिवरात्रि
महाशिवरात्रि हिन्दुओं का एक प्रमुख त्योहार है। भगवान शिव का यह प्रमुख पर्व फाल्गुन कृष्ण चतुर्दशी को शिवरात्रि पर्व मनाया जाता है। माना जाता है कि सृष्टि के प्रारंभ में इसी दिन मध्यरात्रि भगवान् शंकर का ब्रह्मा से रुद्र के रूप में अवतरण हुआ था। प्रलय की वेला में इसी दिन प्रदोश के समय भगवान शिव तांडव करते हुए ब्रह्मांड को तीसरे नेत्र की ज्वाला से समाप्त कर देते हैं। इसीलिए इसे महाशिवरात्रि अथवा कालरात्रि कहा गया। इसमे आत्मा और परमात्मा का मिलन, अथवा शिव और पार्वती का विवाह, माना जाता है।
शिव-शंकर परिवार
पत्नी - पार्वती - पार्वती हिमालय की पुत्री तथा भगवान शंकर की पत्नी हैं। पार्वती की माता का नाम मेनका था। उमा, गौरी, अम्बिका भवानी आदि भी पार्वती के ही नाम हैं।
पुत्र 1. स्कन्द
शिवजी और पार्वती के पुत्र हैं। उनका वाहन मोर है। यह देवताओं के सेनापति हैं। इनके अन्य नाम कुमार और कार्तिकेय हैं।
पुत्र 2. गणेश
गणेश शिवजी और पार्वती के पुत्र हैं। उनका वाहन मूषक है। गणों के स्वामी होने के कारण उनका एक नाम गणपति भी है। ज्योतिष में इनको केतु का देवता माना जाता है, और जो भी संसार के साधन हैं, उनके स्वामी श्री गणेशजी हैं। हाथी जैसा सिर होने के कारण उन्हें गजानन भी कहते हैं। गणेशजी का नाम हिन्दू मत के अनुसार किसी भी कार्य के लिये पहले मान्य है। पत्नी - दो 1.रिद्धि 2. सिद्धि (दक्षिण भारतीय संस्कृति में गणेशजी ब्रह्मचारी रूप में दर्शाये गये हैं) पुत्र - दो 1. शुभ 2. लाभ
पूर्व पत्नी - सती
पौराणिक कथाओं मे सती को शिव की पूर्व पत्नी बोला जाता है, और राजा दक्ष की कन्या का नाम दिया जाता है मगर सती शब्द शक्ति नाम का अपभ्रंश है, शक्ति का दूसरा नाम ही सती है।
शक्ति पीठ
हिन्दू धर्म के अनुसार जहां सती देवी के शरीर के अंग गिरे, वहां वहां शक्ति पीठ बन गयीं। ये अत्यंत पावन तीर्थ कहलाये। ये तीर्थ पूरे भारतीय उपमहाद्वीप पर फैले हुए हैं। पुराणों के अनुसार, सती के शव के विभिन्न अंगों से बावन शक्तिपीठो का निर्माण हुआ था। इसके पीछे यह अन्र्तकथा है कि दक्ष प्रजापति ने कनखल (हरिद्वार) में ”बृहस्पति सर्व“ नामक यज्ञ रचाया। उस यज्ञ में ब्रह्मा, विष्णु, इंद्र और अन्य देवी-देवताओं को आमंत्रित किया गया, लेकिन जान-बूझकर अपने जमाता भगवान शंकर को नहीं बुलाया। शंकरजी की पत्नी और दक्ष की पुत्री सती पिता द्वारा न बुलाए जाने पर और शंकरजी के रोकने पर भी यज्ञ में भाग लेने गयीं। यज्ञ-स्थल पर सती ने अपने पिता दक्ष से शंकर जी को आमंत्रित न करने का कारण पूछा और पिता से उग्र विरोध प्रकट किया। इस पर दक्ष प्रजापति ने भगवान शंकर को अपशब्द कहे। इस अपमान से पीड़ित हो, सती ने यज्ञ-अग्नि पुंड में कूदकर अपनी प्राणाहुति दे दी। भगवान शंकर को जब इस दुर्घटना का पता चला तो क्रोध से उनका तीसरा नेत्र खुल गया। भगवान शंकर के आदेश पर उनके गणों के उग्र कोप से भयभीत सारे देवता और ऋषिगण यज्ञस्थल से भाग गये। भगवान शंकर ने यज्ञपुंड से सती के पार्थिव शरीर को निकाल कर कंधे पर उठा लिया और दुःखी हो इधर-उधर घूमने लगे। तदनन्तर जहाँ-जहाँ सती के शव के विभिन्न अंग और आभूषण गिरे, वहाँ बावन शक्ति पीठों का निर्माण हुआ। अगले जन्म में सती ने हिमवान राजा के घर पार्वती के रूप में जन्म लिया और घोर तपस्या कर शिवजी को पुन पति रूप में प्राप्त किया।
तंत्र चूणामणि अनुसार
पुराण ग्रंथों, तंत्र साहित्य एवं तंत्र चूड़ामणि में जिन बावन शक्तिपीठो का वर्णन मिलता है। इन बावन शक्ति पीठांे के अतिरिक्त हिमाचल-प्रदेश में नयना देवी का पीठ (पंचकूला) भी विख्यात है। गुफा में प्रतिमा स्थित है। कहा जाता है कि यह भी शक्तिपीठ है और सती का एक नयन यहाँ गिरा था। इसी प्रकार उत्तराखंड के पर्यटन स्थल मसूरी के पास सुरपुंडा देवी का मंदिर (धनौल्टी में) है। यह भी शक्तिपीठ है। कहा जाता है कि यहाँ पर सती का सिर धड़ से अलग होकर गिरा था।
1. ”शक्ति“ अर्थात देवी दुर्गा, जिन्हें दाक्षायिनी या पार्वती रूप में भी पूजा जाता है।
2. ”भैरव“ अर्थात शिव का अवतार, जो देवी का संगी हैं।
3. ”अंग या आभूषण“ अर्थात, सती के शरीर का कोई अंग या आभूषण, जो श्री विष्णु के द्वारा सुदर्शन चक्र से काटे जाने पर पृथ्वी के विभिन्न भागों में गिरा, वह भाग पूज्य है, और शक्तिपीठ कहलाता है।
अन्य मंदिर कुछ और शक्ति पीठ मंदिर कहे जाते हैं- 1. विंध्यवासिनी मंदिर, मिर्जापुर, उत्तर प्रदेश, 2. महामाया मंदिर, अंबिकापुर, छत्तीसगढ़, 3. योगमाया मंदिर, दिल्ली, महरौली, दिल्ली
एक ही पक्ष को जानना/सुनना/देखना, एक नेत्र से देखना कहा जाता है। दूसरे पक्ष को भी जानना/सुनना/देखना, दो नेत्र से देखना कहा जाता है। दोनों पक्षों को जानना/सुनना/देखना, और संतुष्टि के लिए समन्वय स्थापित करना समन्वायात्मक दृष्टि कही जाती है जबकि संतुष्टि सहित दोनों पक्षों की शक्ति को रचनात्मकता की ओर लगा देना तीसरे नेत्र की दृष्टि कही जाती है। चूंकि यह दृष्टि रचनात्मक होती है इसलिए दोनों पक्षों को अपने विचार पर उनके ही दिशा से व्यापक विचार होता है इसलिए पक्षों को उनके अंहकार पर चोट जैसा अनुभव कराता है। उन्हें लगता है कि हमारा अस्तित्व नहीं रहा। इसी को तीसरे नेत्र से भस्म कर देना कहते हैं। पौराणिक कथाओं में नारद मुनि और शिव-शंकर द्वारा रचनात्मक विकास दर्शन के प्रयोग के अनेक घटनाएँ उपलब्ध हैं। कोई भी रचनात्मक विकास दर्शन अपने अन्दर पुराने सभी दर्शनों को समाहित कर लेता है अर्थात उसका विनाश कर देता है और स्वयं रचनात्मक मार्गदर्शक दर्शन का स्थान ले लेता है। अर्थात सृष्टि-स्थिति-प्रलय फिर सृष्टि। चक्रीय रूप में ऐसा सोचने वाला ही नये परिभाषा में आस्तिक और सिर्फ सीधी रेखा में सृष्टि-स्थिति-प्रलय सोचने वाला नास्तिक कहलाता है।
तीसरे नेत्र के दृष्टि सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में व्याप्त कर्मज्ञान की दृष्टि है। कर्मज्ञान की दृष्टि ही रचनात्मक विकास दर्शन की दृष्टि होती है। जो सभी प्रकार के विचार के उपर स्वयं को स्थापित कर लेता है। इस दृष्टि के निम्नलिखित बिन्दु है (विस्तार के लिए अध्याय - तीन देखें) -
सूत्र-1. ज्ञानातीत चक्र: चक्र -0 - धर्म ज्ञान से बिना युक्त के मुक्त अर्थात् अपना मालिक अन्य और धर्म ज्ञान से युक्त होकर मुक्त अर्थात् अपना मालिक स्वंय की स्थिति। ज्ञानावस्था से होकर यही चक्र 7 भी कहलाता है। यह स्थिति शिशु और ज्ञानी की होती है।
सूत्र-2. भौतिकवाद या भोगवाद कर्म चक्र:
चक्र-1. TRANSACTION - आदान-प्रदान चक्र। यही ज्ञानावस्था में चक्र-6 कहलाता है।
उपचक्र 1.1 - शारीरिक
उपचक्र 1.2 - आर्थिक/संसाधन
उपचक्र 1.3 - मानसिक
चक्र-2. RURAL - ग्रामीण चक्र
उपचक्र 2.1 - शारीरिक
उपचक्र 2.2 - आर्थिक/संसाधन
उपचक्र 2.3 - मानसिक
चक्र-3. ADVANCEMENT या ADAPTABILITY - आधुनिकता या अनुकूलन चक्र
उपचक्र 3.1 - शारीरिक
उपचक्र 3.2 - आर्थिक/संसाधन
उपचक्र 3.3 - मानसिक
चक्र-4. DEVELOPMENT - विकास चक्र
उपचक्र 4.1 - शारीरिक
उपचक्र 4.2 - आर्थिक/संसाधन
उपचक्र 4.3 - मानसिक
चक्र-5. EDUCATION - शिक्षा चक्र
उपचक्र 5.1 - शारीरिक
उपचक्र 5.2 - आर्थिक/संसाधन
उपचक्र 5.3 - मानसिक
सूत्र-3. आध्यात्मवाद-ज्ञानचक्र:
चक्र-6. NATURAL TRUTH - प्राकृतिक सत्य चक्र: यही चक्र अज्ञानावस्था में चक्र-1 कहलाता है।
उपचक्र-1.1 - अदृश्य प्राकृतिक अर्थात अदृश्य आत्मा
उपचक्र 1.2 - दृश्य प्राकृतिक अर्थात दृश्य आत्मा
सूत्र-4. ज्ञानातीत चक्र: चक्र -7 - RELIGION - धर्मचक्र: अपना मालिक स्वंय की स्थिति। यही अज्ञानावस्था में चक्र-0 भी कहलाता है।
इस प्रकार - to stepup TRADE through CENTRE (सभी कर्म व्यापार को सार्वभौम आत्मा केन्द्र के ज्ञान द्वारा आगे बढ़ाना) अर्थात विस्तार में to stepup Transaction, Rural, Advancement (Adoptability), Development, Education through Center for Enhancement of Natural Truth & Religious Education (सभी कर्म आदान-प्रदान, ग्रामीण, आधुनिकता-अनुकूलन, विकास, शिक्षा को प्राकृतिक सत्य और धार्मिक शिक्षा के ज्ञान द्वारा आगेे बढ़ाना) हुआ अर्थात जो व्यक्ति और संस्था समभाव और निष्पक्ष में स्थित होकर सभी शारीरिक, आर्थिक व मानसिंक कर्म आदान-प्रदान, ग्रामीण, आधुनिकता-अनुकूलन, विकास, शिक्षा को सदैव एक साथ करता है वही मानक व्यक्ति और संस्था कहलाता है।
किसी भी व्यक्ति (व्यष्टि मन), संस्था (समष्टि मन) और भौगोलिक क्षेत्र के लिए उपरोक्त सर्वेक्षण के आधार बिन्दु के अनुसार देखना, तीसरे नेत्र द्वारा देखना और कमी के पूर्ति हेतु रचनात्मक योजना बनाना, स्वयं की सर्वोच्चता स्थापित करते हुये अन्य को भस्म कर देने जैसा ही होता है। उपरोक्त बिन्दुओ ंके आधार पर सर्वेक्षण एक सत्य मानक सर्वेक्षण और रचनात्मक योजना ब्रह्माण्डीय विकास की दिशा के मुख्य धारा की ओर होता है।
भोगेश्वर रुप: कर्मज्ञान का विश्वरुप
सत्य-धर्म-ज्ञान या सार्वभौम आत्मा प्रारम्भ में अव्यक्त व्यक्तिगत प्रमाणित है तो अन्त में दृश्य सार्वभौम सत्य-सिद्धान्त का रुप लेकर ही सार्वजनिक प्रमाणित होगा। जिसके द्वारा यह प्रमाणित हो जायेगा कि सम्पूर्ण जगत में जो भी गतिशील है, वास्तव में वह गतिशील नहीं बल्कि उसके पीछे जो सत्य-सिद्धान्त है उसके द्वारा ही सिद्धान्तानुसार गतिशील है। इस सिद्धान्त को व्यक्त करने वाला मानव ही है अर्थात् भले ही वह सिद्धान्त किसी एक व्यक्ति के माध्यम से व्यक्त होता है लेकिन वह विचार नहीं बल्कि सार्वजनिक प्रमाणित सत्य-सिद्धान्त ही होगा। इस प्रकार किसी भी विषय से जुड़ना योग है और मैं या आत्मा या ईश्वर या ब्रह्म या शिव से जुड़ना योगेश्वर है।
पाश्चात्य का समस्त कार्यप्रणाली भोग पर आधारित है। जिस प्रकार ईश्वर जीवन का एक सत्य है। इसी प्रकार भोग भी जीवन का एक सत्य है। क्योंकि कोई भी एक क्षण कर्म किये बिना नहीं रह सकता फिर कर्म होने पर भोग तो निश्चित है। इस प्रकार किसी भी विषय पर कर्म करना भोग है और मैं या आत्मा या ब्रह्म या शिव या ईश्वर से जुड़कर भोग या कर्म करना भोगेश्वर है।
योगेश्वर का अर्थ सार्वभौम अदृश्य सत्य-धर्म-ज्ञान या आत्मा का विश्वरुप है तथा भोगेश्वर का अर्थ योगेश्वर का दृश्य रुप अर्थात् सार्वभौम अदृश्य-सत्य-धर्म-ज्ञान या आत्मा का दृश्य रुप सार्वभौम कर्म ज्ञान अर्थात् भोग ज्ञान अर्थात् सार्वभौम सत्य-सिद्धान्त है। योगेश्वर सार्वभौम विश्व ज्ञान का प्रतीक है तो भोगेश्वर सार्वभौम विश्व कर्मज्ञान अर्थात् सत्य जीवन प्रणाली का प्रतीक है। भोगेश्वर, योगेश्वर का ही दृश्य रुप है। भोगेश्वर में योगेश्वर समाहित है। श्रीकृष्ण ने महाभारत में गीता उपदेश के समय अपने योगेश्वर रुप अर्थात् ज्ञान के विश्वरुप की व्याख्या कर अर्जुन को अनासक्त कर्म की ओर प्रेरित किये थे लेकिन कहीं भी उन्होंने उस कर्म ज्ञान की व्याख्या नहीं की जिसके आधार पर वे धर्म की स्थापना के लिए उपलब्ध साधनों पर अपनी योजना तैयार किये अर्थात् भगवान श्रीकृष्ण में योगेश्वर रुप चरम विकसित व्यक्त अवस्था में तथा भोगेश्वर रुप चरम विकसित अव्यक्त अवस्था में था। वेदान्त की शाखाओं में कर्मवेदान्त अन्तिम शाखा है जो सबसे महत्वपूर्ण शाखा भी है जिसके बिना मानव संसाधन विकास, प्रबन्धकीय प्रशिक्षण, मानवाधिकार इत्यादि पर खर्च बढ़ता ही जायेगा और पूर्ण स्वस्थ समाज, लोकतन्त्र, उद्योग और मानव का निर्माण भी नहीं हो पायेगा। ज्ञान मार्ग से मानव को पूर्णता एवं विज्ञान के साथ उपयोगिता की आवश्यकता के कारण ही समयानुसार यह ज्ञान भोगेश्वर रुप में व्यक्त हुआ है। मानव का मानक विश्वमानव के भोगेश्वर रुप में योगेश्वर रुप चरम विकसित अव्यक्त अवस्था में तथा भोगेश्वर रुप चरम विकसित व्यक्त अवस्था में है।
भौतिकता युक्त पाश्चात्य का आध्यात्मिकता युक्त प्राच्य का सामंजस्य स्थापित कर कर्म करना ही अब इक्कीसवीं सदी और भविष्य की जीवन प्रणाली है अर्थात् भोगेश्वर रुप ही भविष्य की जीवन प्रणाली है। यदि यह सम्भव हो कि एक चेतना युक्त परमाणु स्वयं अपने इलेक्ट्रानों को घटा-बढ़ा सके तो वह परमाणु सभी तत्वों के गुणांें या प्रकृति को व्यक्त करने लगेगा। ऐसी स्थिति में उस जटिल और मूल परमाणु को किसी विशेष तत्व का परमाणु निर्धारित करना असम्भव हो जायेगा। फिर उसे ”एक में सभी, सभी में एक“ कहना पड़ेगा अर्थात् उसकी निम्नतम् एवं सर्वोच्चतम अन्तिम स्थिति ही उसकी निर्धारण योग्य प्रकृति होगी।
मानव वह चेतना युक्त आत्मा है जो स्वयं अपने मन की उच्चता और निम्नता पर आवश्यकता एवं समयानुसार नियन्त्रण कर सकता है और सभी तरह के व्यक्तियों के गुणों या प्रकृति को व्यक्त कर सकता है। ऐसी स्थिति में उस जटिल व्यक्ति को किसी विशेष प्रकृति का व्यक्ति निर्धारण करना असम्भव हो जायेगा। फिर उसे ”एक में सभी, सभी में एक“ कहना पड़ेगा अर्थात् उसकी निम्नतम पशुमानव और उच्चतम विश्वमानव स्थिति ही उसकी निर्धारण योग्य प्रकृति होगी।
जिस प्रकार अदृश्य काल से आत्मीय काल की अवस्था में स्थित भगवान श्रीकृष्ण एक जटिल और अनिर्धारण योग्य चरित्र थे, जिनको पूर्ण रुप में स्वीकार या आत्मसात् करना साधारण मानव के लिए कठिन है। सिवाय इसके कि- ‘‘एक में सभी, सभी में एक’’ या ”एक साधारण नागरिक, एक सर्वोच्च और अन्तिम मानव“। इस प्रकार ऐसे व्यक्ति स्वयं अपने उद्देश्यों के विग्रह हो जाते हैं और स्वयं उनका जीवन मानक नहीं बन पाता सिर्फ उनका ज्ञान ही मानक होता है।
अवतारों में उपरोक्त अवस्था अवश्य विशेष रुप से पायी जाती है। जिससे वे उचित समय के आने तक स्वयं को व्यक्त नहीं होने देते और विभिन्न मन स्तर के क्रियाकलाप करते हुए वे उन क्रियाकलापों के फल से मुक्त रहकर लीला करते रहते हैं। लीला का अर्थ उन्हीं क्रियाकलापों से होता है। जो लीला कर्ता को वास्तविक चरित्र या कर्म नहीं होता परन्तु वे अवश्य ऐसा करते हैं। क्योंकि शरीर धारण की कीमत तो चुकानी ही पड़ती है। इस प्रकार आत्मीय काल अवस्था में स्थित अर्थात् स्वयं अपनी अन्तः एवं वाह्य प्रकृति को नियन्त्रित कर उचित समय आने पर वे स्वयं व्यक्त होते हैं और व्यक्त होने तक का जीवन हँसते, खेलते हुए ध्यान से युक्त होता है। जिससे वे बखूबी दूसरों के प्रकृति को जानकर उसके कर्मानुसार फल, सलाह और सचेत करते रहते हैं। अन्ततः अपने उद्देश्यों के लिए विरोधी और समर्पण भक्ति के रुप में उनका प्रयोग करते हैं।
हिन्दू धर्म में पुराणों के अनुसार शिवजी जहाँ-जहाँ स्वयं प्रगट हुए उन बारह स्थानों पर स्थित शिवलिंगों को ज्योतिर्लिंगों के रूप में पूजा जाता है। ये संख्या में 12 है। 12 ज्योतिर्लिंगों के नाम शिव पुराण (शतरुद्र संहिता, अध्याय 42/2-4) के अनुसार हैं। जिनकी अपनी-अपनी कथाएँ भी हैं। एक मतानुसार बारह ज्योतिर्लिंगों को बारह राशियों से जोड़कर भी देखा जाता है। ये राशियां इस प्रकार से हैं- 1.मेष-सोमनाथ, 2.वृष-श्रीशैल, 3.मिथुन-महाकाल, 4.कर्क-अमलेश्वर, 5.सिंह-वैद्यनाथ, 6.कन्या-भीमशंकर, 7.तुला-रामेश, 8.वृश्चिक-नागेश, 9.धनु-विश्वेशं, 10.मकर-त्र्यम्बकं, 11. कुंभ-केदार, 12. मीन-घृष्णेशं। ये राशियां चंद्र राशि समझें।
साधारण भाषा व सार्वभौम परिभाषा के रूप में जिन शिवलिंगो की कथा पौराणिक या अवतारों की कथा से जुड़ी होती है सिर्फ वही ज्योर्तिलिंग की योग्यता रखते हैं।
जिस प्रकार शिव भक्त रावण से जुड़ी घटना के कारण ज्योतिर्लिंग श्री वैद्यनाथ स्थापित है और सातवें अवतार श्रीराम से जुड़ी ज्योतिर्लिंग श्री रामेश्वर है। उसी प्रकार श्री लव कुश सिंह ”विश्वमानव“ से जुड़ा है- 13वाँ और अन्तिम ज्योतिर्लिंग- भोगेश्वरनाथ। जिसकी स्थापना, निर्माण व प्रबन्ध सत्यकाशी ट्रस्ट के अधीन है। सत्यकाशी पंचदर्शन के अन्तर्गत यह मन्दिर सम्मिलित है। 13वाँ और अन्तिम ज्योतिर्लिंग- भोगेश्वरनाथ को व्यक्त और स्थापित करने की श्री लव कुश सिंह ”विश्वमानव“ की योग्यता यह है कि उन्होंने कश्मीरी शैव तन्त्र व पाशुपत दर्शन से जीवन जीते हुए शिव तन्त्र का शास्त्र कर्मवेद: प्रथम, अन्तिम तथा पंचम वेद समाहित - ”विश्वशास्त्र - द नाॅलेज आॅफ फाइनल नाॅलेज“ की रचना सत्यकाशी क्षेत्र से ही की है।
भोगेश्वरनाथ: 13वाँ और अन्तिम ज्योतिर्लिंग क्यों?
1.काशी मोक्षदायिनी है तो जीवनदायिनी काशी कहाॅँ गयी ? जीवनदायिनी काशी ही सत्यकाशी है जहाँ से पाँचवाँ वेद-कर्मवेद समाहित जीवनशास्त्र - विश्वशास्त्र व्यक्त हुआ है। यह सत्यकाशी क्षेत्र, वाराणसी-विन्ध्याचल-शिवद्वार-सोनभद्र के बीच का क्षेत्र है।
2.प्रत्येक मास में कृष्ण पक्ष की तेरहवीं तिथि की रात्रि मास शिवरात्रि तथा फाल्गुन मास की कृष्ण पक्ष की तेरहवीं तिथि की रात्रि महाशिवरात्रि कहलाती है। मनुष्य के जन्म के बारहवीं तिथि के संस्कार को बरही तथा शरीर से मुक्त होने के तेरहवीं तिथि के अन्तिम संस्कार को तेरहवीं कहते हैं अर्थात तेरह का अंक शिव-शंकर का प्रतीक है। तब तेरहवां ज्योर्तिलिंग कहाॅँ है क्योकि केवल द्वादस ज्योतिर्लिंग ही हम सब जानते हैं, ंइस तेरहवें ज्योतिर्लिंग की स्थापना ही सत्यकाशी तीर्थ का महत्व है।
3.आदि शंकराचार्य ने चार वेदों को प्रतीक मंें लेते हुए चार पीठ की स्थापना की जिस पर चार शंकराचार्य विद्यमान हैं और अब अन्तिम शास्त्र विश्वशास्त्र में समाहित पाँचवें वेद - कर्मवेद के साथ पाँचवें पीठ की आवश्यकता है जो सत्यकाशी पीठ है।
4.समस्त विश्व को अणु रूप में धारण करने वाले देवता को विष्णु कहते हैं और समस्त विश्व को तन्त्र के रूप में धारण करने वाले देवता को शिव कहते हैं। विष्णु, सार्वभौम आत्मा के प्रतीक हैं और शिव, सार्वभौम सिद्धान्त के प्रतीक हैं। आत्मा अदृश्य है, सिद्धान्त दृश्य है अर्थात विष्णु के ही दृश्य रूप शिव हैं। इसलिए ही सत्यकाशी तीर्थ में स्थापित होने वाले 13वें ज्योतिर्लिंग के प्रतीक में विष्णु का प्रतीक सुदर्शन चक्र और शंख समर्पित है।
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