धर्म स्थापनार्थ दुष्ट वध और साधुजन का कल्याण कैसे और किसका?
प्रत्येक पुर्णावतार समाज का दर्पण होता है अर्थात अवतारो का जीवन समाज का स्पष्ट व्यक्त रूप होता है। सभी मानव शरीर की संरचना सामान्यतः समान होती है लेकिन उसका जीवन विचारो द्वारा निर्मित होकर निम्न से उच्च, उच्चतर और सर्वोच्च एवम् अन्तिम स्तर तक में व्यक्त होता है। इसी प्रकार अवतार भी मानव शरीर के रूप में होता है परन्तु उसका जीवन सत्य-विचार अर्थात सार्वभौम सत्य-सिद्वान्त द्वारा निर्मित एवम् व्यक्त होता है इसलिए समाज के जो विचार सत्य-सिद्वान्त के अनुरूप नहीं होते उस विचार का अवतारों के जीवन से टकराहट या विवाद अवश्य होता है। परिणामस्वरूप एक प्रश्न व्यक्त हो जाता है। इस प्रश्न का मूल आधार प्रथम पक्ष-सार्वजनिक सत्य -सिद्वान्त को व्यक्त करने वाला अवतार पक्ष की ओर से अन्तः आध्यात्मिक विषय ज्ञान, कर्म और ध्यान होता है तो दूसरा पक्ष-व्यक्तिगत विचार को व्यक्त करने वाला अवनति से युक्त समाज पक्ष की ओर से बाह्य भौतिक विषय-उम्र, वेश-भूषा, खान-पान, धन, सफलता-असफलता इत्यादि होता है। यही विषय दोनों पक्षों की अपनी दृष्टि भी होती है जिससे वह अन्य को देखता है। दोनों पक्षों के अपने अपने विषय पर जब भी आघात होता है तो वे पक्ष क्रियाशील हो भड़क उठते है। जिससे दोनों पक्षों का प्रदर्शन समाज के अन्य व्यक्ति देखते हैं और अपने-अपने प्रकृति के अनुसार विचार व्यक्त करते हैं। चूंकि अवतार इन मूल विषयों के ज्ञान से युक्त होते हैं इसलिए वे इन मूल विषयों पर इच्छानुसार, आवश्यकतानुसार और समयानुसार आघात करते रहते हैं जिससे अन्य व्यक्तियों के विचारों का तरंग उठता रहे। इसी मूल सूत्र से अवतार अपने पक्षों को निर्धारित करते हुये सिद्वान्तों को व्यक्त करने का माध्यम चुनते हुये सम्पूर्ण प्रक्रिया पूर्ण करते हंै। अवतारो का विपरीत पक्ष अवतारो के सिद्वान्तों के प्रसार के लिए उसी भांति कार्य करता है जिस प्रकार तरंग उत्पन्न करने के लिए जल में पत्थर फेंकना अनिवार्य होता है। इस प्रकार तरंग के लिए पत्थर और जल दोनों अनिवार्य साधन होते है उसी प्रकार सिद्वान्त के लिए आघात और विरोधी पक्ष दोनों अनिवार्य साधन होते है। इसलिए अवतार विरोधी पक्ष को अपना महत्वपूर्ण माध्यम ही मानकर भक्ति के अन्तर्गत विरोधी भक्त के रूप में अन्य भक्तों के समान ही उनका सम्मान करते है। क्योंकि समर्पण भक्त पक्ष में होने के कारण अवतारों के विषय में चर्चा करता है तो विरोधी भक्त विपक्ष में होने के कारण अवतारों के विषय में चर्चा करता है, इस प्रकार अवतारों के लिए दोनों ही उनके लिए कर्म करते हैं। परन्तु जब ये अपनी सीमा से बाहर आकर अवतारों के जीवन पर आघात करते हैं तब उनका वध करना ही एक मात्र रास्ता बन जाता है। विरोधी भक्ति रूपी विपक्ष के अलावा एक विपक्ष और होता है जिसे ज्ञानी स्वार्थी विपक्ष कहते हैंै। इसके अन्र्तगत वे ज्ञानी, सिद्ध, महात्मा, आध्यात्मिक, बुद्विजीवि, विचारक इत्यादि आतें हैं जो अवतारों के ज्ञान, कर्म और ध्यान को भलि-भांति समझते हैं परन्तु न तो पक्ष में ही व्यक्त होते है न ही विपक्ष में क्योंकि इनके अन्दर यह अहंकार रूपी भ्रम होता है कि अपनी व्यक्तिगत पहचान, गुरूता और नेतृत्व समाप्त न हो जाये जबकि इन्हंे अपने क्षेत्र में और भी सशक्त सफलता प्राप्ति का मार्ग ही अवतार होते है। ऐसे ज्ञानी स्वार्थीयों के उपर अवतार द्वारा इस प्रकार के आघात किये जाते हैं-जनसाधरण को ज्ञानी बना देना, मानसिक वध कर देना, वे जिस पद पर बैठे हैं या अपने को प्रदर्शित करते हैं उसके प्रति प्रमाणिकता के साथ ऐतिहासिक रूप से कत्र्तव्य विमुख, मूर्ख और गणराज्य या समाज द्रोही सिद्ध कर देना इत्यादि।
अवतारों की दृष्टि सत्य-सिद्वान्त ही होती है इसलिए वे कर्तव्य पथ पर आने वाले अन्य मानवों को सत्य-सिद्धान्त दृष्टि से ही देखते है इसलिए उन्हें उनके कर्मो का व्यापक धर्म शास्त्रीय आधार भी प्राप्त होता जाता है। अवतारों के लिए कोई भी सांसारिक सम्बन्ध जैसे माता-पिता, भाई-बहन, पत्नी-पुत्र, रिश्तेदार इत्यादि सर्वोच्च नहीं होता, सिर्फ वे ही सम्बन्ध सर्वोच्चता प्राप्त करते है जो उनके कत्र्तव्य पथ पर ज्ञान, कर्म और ध्यान के अनुरूप सत्य-सिद्ध होते है। माँ को सर्वोच्च स्थान प्राप्त होने के बावजूद स्वामी विवेकानन्द की गुरू माता श्री माँ शारदा ने स्वयं कहा है कि- ‘‘जान लो कि अपनी माता की सेवा ही तुम्हारा सर्वोच्च कत्र्तव्य है, यदि तुम्हारी आध्यात्मिक प्रगति में बाधक होती हो तो बात दूसरी है’’। वहीं दूसरी ओर एक माँ द्वारा अपने संन्यासी पुत्र के सांसारिक जीवन मे लौटाने के लिए श्री माँ शारदा से कहती है तो श्री माँ शारदा का उत्तर होता है- ‘‘संन्यासी की माता बनना तो एक दुर्लभ सौभाग्य है, लोग तो एक पीतल के लोटे को भी नहीं छोड़ सकते। क्या संसार का त्याग करना सहज है? तुम क्यों चिन्ता करती हो?“ इसी प्रकार रामानन्द सागर द्वारा निर्मित (श्रीकृष्ण) धारावाहिक जो दूरर्दशन पर प्रसारित भी हुआ, जिसमें समरासुर के महल में श्रीकृष्ण पुत्र प्रद्युम्न को उसके पालन-पोषण करने वाली माता और ज्ञान तथा शिक्षा देने वाली गुरू-भानुमती ने मायावी विद्या के प्रथम शिक्षा में ही कहा था कि- ‘‘हे पुत्र धर्मयुद्ध में यदि मैं भी तुम्हारे विरूद्ध हो जाऊँ तो तुम भी मुझे अपना दुश्मन ही समझना।’’
अवतारों का अवतरण और ज्ञान, ध्यान, कर्म आधारित कत्र्तव्य पथ ठीक उसी वातावरण के मूल से प्रारम्भ होता है जो सम्बन्ध समाज की अवनति का मूल निम्नतम कारण होता है। ये सम्बन्ध निम्नतम क्रम में क्रमशः देश-सम्बन्ध, रिश्ता-सम्बन्ध और रक्त सम्बन्ध है। इस प्रकार आदर्श चरित्र युक्त ब्रह्मा-एकात्म ज्ञान के पूर्णावतार श्रीराम का अवतरण देश के राजा दशरथ के देश और रक्त सम्बन्ध से युक्त वातावरण में हुआ था क्योंकि उस समय सामाजिक अवनति का कारण सिर्फ देश-सम्बन्ध ही था। आदर्श पूर्ण सामाजिक मानव ब्र्रह्मा समाहित विष्णु-एकात्म ज्ञान समाहित एकात्म कर्म के पूर्णावतार श्रीकृष्ण का अवतरण देश के राजा कंस के देश और रिश्ता सम्बन्ध से युक्त वातावरण देवकी-वासुदेव के यहाँ हुआ था क्योंकि उस समय देश-सम्बन्ध और रिश्ता-सम्बन्ध ही समाज या गणराज्य की अवनति का कारण था। आदर्श पूर्ण सार्वजनिक या ब्र्रह्माण्डीय मानव विष्णु समाहित शिव-शंकर-एकात्म ज्ञान और एकात्म कर्म समाहित एकात्म ध्यान के पूर्णावतार श्री लव कुश सिंह ‘‘विश्वमानव’’ का अवतरण देश के राजा साधारण जनता के देश और रक्त-सम्बन्ध से युक्त वातावरण श्रीमती चमेली देवी-श्री धीरज नारायण सिंह के यहाँ हुआ है क्योंकि इस समय देश और रक्त-सम्बन्ध ही समाज या गणराज्य की अवनति का मूल कारण है।
कर्तव्य पथ पर अग्रसर होने के पूर्व ब्रह्मा के पूर्णावतार श्रीराम को वे सभी संसाधन उनके श्रद्धेय श्रेष्ठजनों से प्राप्त हुये परन्तु जैसे ही उनका कर्तयव्य पथ पर अग्रसर होने का समय आया तो विवशतावश श्रद्धेय श्रेष्ठजनों द्वारा चैदह वर्षों के लिए बनवास के लिए भेज दिये गयंे। आदर्श चरित्र प्रस्तुत करने के लिए अवतरित श्रीराम अपने श्रद्धेय श्रेष्ठजनों का विरोध इसलिए न कर सके क्योंकि वे स्वयं ही आदर्श के मूर्ति थे। श्रीराम के पिता दशरथ इस विवशता और पुत्र शोक में अपने प्राण त्याग दिये। श्रीराम आज्ञा पालन करते हुये वनवास को गये परन्तु वे स्वयं श्रद्धेय श्रेष्ठजनों के अधीनस्थ रहने और अधिकारों के दुरूपयोग को भली-भांति समझ चुके थे। परिणामस्वरूप आदर्श सामाजिक मानव को प्रस्तुत करने के लिए अवतरित ब्रह्मा समाहित विष्णु के पूर्णावतार श्रीकृष्ण कर्तव्य पथ पर अग्रसर होने के पूर्व ही श्रद्धापूर्वक श्रद्धेय श्रेष्ठजनों के अधिकार क्षेत्र से मुक्त होकर ही अपने कर्तव्य को पूर्ण किये। वर्तमान एवम् भविष्य के वैश्विक आदर्श सार्वजनिक या ब्रह्माण्डीय मानव को प्रस्तुत करने के लिए अवतरित विष्णु समाहित शिव-शंकर के पूर्णावतार श्री लव कुश सिंह ”विश्वमानव“ को वे सभी संसाधन उनके श्रद्धेय श्रेष्ठजनों से कतव्र्य पथ पर अग्रसर होने के पूर्व प्राप्त हुये परन्तु जैसे ही कर्तव्य पथ पर अग्रसर होने का समय आया उनके श्रद्धेय श्रेष्ठजन ही दुश्मन की भांति विरोध में खडे़ हो गये। परिणामस्वरूप विश्वमानव ने उनका विरोध और उपयोग साम, दाम, दण्ड, भेद की रीति से करते हुये सार्वजनिक प्रमाणित आधार बना उनका अन्ततः त्याग और दण्ड निर्धारण इसलिए किये क्योंकि वे स्वयं आदर्श के मूर्ति नहीं हैं। जो शिव-शंकर के गुण-प्रलय अर्थात सम्पूर्ण विरोध, स्थिति अर्थात सम्पूर्ण धारण, सृष्टि अर्थात सम्पूर्ण नवनिर्माण को भी व्यक्त करता है।
जिस प्रकार दर्पण के समक्ष खड़े होने पर अपना ही स्पष्ट सत्य चेहरा दिखायी पड़ता है उसी प्रकार अवतार के समक्ष जब समाज खड़ा होता है तो समाज का स्पष्ट सत्य चेहरा दिखायी पड़ता है। विष्णु समाहित शिव-शंकर के अन्तिम पूर्णावतार विश्वमानव वर्तमान समाज का स्पष्ट सत्य रूप ही हंै। जिससे व्यक्तिगत जीवन से लेकर सार्वजनिक जीवन के श्रद्धेय श्रेष्ठजनों का सिद्धान्तहीन और आदर्शहीन रूप व्यक्त हो रहा है। जो न्यूटन की क्रिया-प्रतिक्रिया के नियमानुसार-प्रारम्भ से अब तक जितनी शक्ति से क्रिया इन श्रद्धेय श्रेष्ठजनों ने अपने आश्रितों पर कर रखा था वहीं इस अन्तिम पूर्णावतार द्वारा ठीक उतना ही शक्ति से प्रतिक्रिया इन श्रद्धेय श्रेष्ठजनों पर विश्व ऐतिहासिक सार्वजनिक प्रमाणित रूप से हुआ है। जिससे इन श्रद्धेय श्रेष्ठजनों में अपने आश्रितों के प्रति सद्भाव, विश्वास, सत्य आधारित प्रेरक शक्ति और त्याग का भाव निर्मित हो सके। जो उनके भविष्य रूप ही है। जो वर्तमान होता है वही भविष्य होता है क्योंकि भविष्य वर्तमान द्वारा ही निर्मित होता है। यदि श्रीराम सदृश्य चरित्रों का निर्माण कर समाज में रामराज्य लाना हो तो उसके पहले राजा दशरथ और राजा जनक जैसे श्रद्धेय श्रेष्ठजनों का निर्माण करना पडे़गा इसलिए वर्तमान समाज में पहले श्रद्धेय श्रेष्ठजन स्वयं में परिवर्तन लाये फिर श्रीराम जैसे चरित्रों की कामना करें।
अवतारी गुणों के युद्ध का आधार सिद्धान्त होता हैं इसलिए वे सिद्धान्त के अनुसार ही कर्म करते है न कि चरित्र और सांसारिकता के आधार पर। चरित्र और सांसारिकता के आधार पर कार्य करने वाले ही कलंकित हो जाते है जबकि अवतारी गण सदा ही निष्कलंक रह जाते है। अवतारों द्वारा सिद्धान्तानुसार विवशतावश किया गया अन्याय पूर्ण लगने वाला कर्म मूलतः चरित्र और सांसारिकता आधारित अन्य व्यक्तियों के कर्मोे द्वारा ही वातावरण निर्मित होता है। जिस पर वे विवशतावश कर्म करते है परन्तु वह किसी भाॅति प्रारब्ध का निर्माण नहीं करता क्योंकि यह सिद्धान्त और चेतना से युक्त होता है। चूॅकि अवतारीगण ईश्वर के सगुण रूप होते है और ईश्वर दण्ड का विधान करता है इसलिए अवतार दण्ड का निर्धारण करते समय किसी भी मानवीय रिश्तों में बद्ध न हो सिद्धान्ततः दण्ड निर्धारण करते है। वध के चार रूप है-शारीरिक, आर्थिक, मानसिक और विश्व ऐतिहासिक मानसिक वध। शारीरिक वध में स्थूल शरीर का सूक्ष्म शरीर में परिवर्तन होता है जो पुनः स्थूल शरीर धारण के लिए मुक्त हो जाता है जो कम कष्टप्रद है। आर्थिक वध में व्यक्ति का जीवन असन्तुलित हो आर्थिक गुलामी या परतन्त्र हो जाता है जो आजादी या स्वतन्त्रता के लिए मुक्त रहता हैं। यह शारीरिक वध से अधिक कष्टप्रद है। मानसिक वध में मन का परिवर्तन नये मन में हो संकीर्णता मानसिक गुलामी या परतन्त्र हो जाता है। जो व्यापकता आजादी या स्वतन्त्रता के लिए मुक्त रहता है। यह वध सबसे कम कष्टप्रद होता है क्योंकि इससे सिर्फ व्यक्ति को विचार बदलना पड़ता है या व्यक्ति को आजीवन आभास ही नहीं हो पाता कि उसका मानसिक वध हो चुका है। अन्तिम विश्व ऐतिहासिक मानसिक वध में अन्तिम अपरिवर्तनीय विश्व एतिहासिक सार्वभौम सत्य-सिद्धान्त आधारित शास्त्र-साहित्य द्वारा सार्वजनिक प्रमाणित रूप से मन का परिवर्तन नये व्यापक मन में होता हैं जिसके अनुसार कर्म करने पर मानसिक वध होते हुये भी व्यक्ति ऐतिहासिक अमरता, महानता, सत्-पुरूष इत्यादि श्रृंखला को प्राप्त हाता हैं जबकि ऐसे ही कर्म के लिए समर्पित, नियुक्त, पीठासीन, स्वयं को प्रदर्शित करने के बावजूद निष्क्रिय रहने या संकीर्णता युक्त कर्म करने पर असत्य-पुरूष, अहंकारी, मूर्ख, दुष्ट, असुर इत्यादि श्रंृखला को प्राप्त होता हैं यह सर्वाधिक कष्टकर इसलिए होता है कि व्यक्ति का अव्यक्त चरित्र उसके व्यक्त कर्मो के आधार पर सार्वजनिक प्रमाणित रूप से सीमाबद्ध कर व्यक्त कर दिया जाता है जो वह स्वयं देखता हैं।
श्रद्धेय श्रेष्ठजनों में व्यक्तिगत रूप से वे सभी रक्त सम्बन्ध से जुडे़ उम्र से बडे़ व्यक्ति सहित सामाजिक और सार्वजनिक रूप से वे सभी रिश्ता व देश-सम्बन्ध से जुडे उम्र में बड़े व्यक्ति हैं इनके बीच सामाजिक, धार्मिक, साम्प्रदायिक, जातिय, राजनीतिज्ञ संगठनों के नेतृत्वकत्र्ता, जनप्रतिनिधि, विचारक, बुद्धिजीवि, सूचना प्रसार माध्यमों से जुड़े व्यक्ति इत्यादि है। इन सम्पूर्ण श्रद्धेय श्रेष्ठजनों में अधिकतम का आदर्श एकात्म आधारित ज्ञान, कर्म और ध्यान न होकर उम्र, धन, शरीर, वेश-भूषा, खान-पान आधारित संासारिक दृष्टि से दूसरों का मूल्यांकन, लोभ, मायाग्रस्त, संकीर्णता, स्वार्थी, ज्ञानी स्वार्थी, योग्यता बिना सर्वोच्च और सम्मानित कहलाने की महत्वाकांक्षा, अधिकारों का दुरूपयोग, अहंकार, आवश्यकता से अधिक संग्रह की भावना, जिस कार्य के लिए नियुक्त या पीठासीन या स्वयं को प्रदर्शित उसी के प्रति निष्क्रीयता, धन के आधार पर अपने ही पुत्रों में भेद-भाव दृष्टि, घूस अर्थात घोटाले वाले पदों पर नियुक्ति से हर्ष, धन मिले तो देशभक्ति के लिए सीमा पर सैकड़ों पुत्र बलिदान देने के लिए तैयार और धन न मिले तो देश के अन्दर देशभक्ति के लिए जनसेवा, कल्याण, भ्रष्टाचार का विरोध इत्यादि के लिए धन, पुत्र, समय तो दूर इच्छा भी न देने की भावना, अपनी संकीर्णता की सर्वोच्चता के लिए आश्रितो को आत्महत्या तक के लिए विवश और जिन्दा जलाने में भी कोई हिचक नहीं इत्यादि असुरी प्रवृत्तियों से पूर्णतया युक्त हैं जो भविष्य रूपी आश्रितों का भी मन निर्माण कर अपने जैसा ही मानव बना रहे है। जिसका परिणाम ही नैतिक पतन, प्रत्येक स्तर पर अलगाव या विखण्डन, रक्त और रिश्ता सम्बन्ध से टकराहट, अपराध, भ्रष्टाचार इत्यादि है। भले ही श्रद्धेय श्रेष्ठजन इसका दोषी युवाओं को ठहराते हो परन्तु यह जानना चाहिए कि वृक्ष का सम्पूर्ण स्रोत जड़ होता है और यदि ऐसा नहीं है तो श्रद्धेय श्रेष्ठजनों को भी अपनी श्रेष्ठता और आदर्श का प्रमाण देना चाहिए जिसके लिए सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड कर्म क्षेत्र के रूप में उनके भी समक्ष व्यक्त खुला है।
उपरोक्त सिद्धान्त के अनुसार जहाँ पूर्व में श्रद्धेय श्रेष्ठ जनों का आश्रितों से सम्बन्ध-सत्य अर्थात एकात्म कार्य (सार्वजनिक एकता का कार्य) पर आधारित था वही अन्त में सम्बन्ध-असत्य सम्बन्ध अर्थात व्यक्तिगत कार्य (व्यक्तिगत स्वार्थ का कार्य) पर आधारित हो गया। जिसके परिणामस्वरूप ही ब्रह्मा के पूर्णावतार और ईश्वर के अंशावतार श्रीराम के उपरान्त धर्म की अवनति लगातार होती रही। विष्णु के पूर्णावतार और ईश्वर के अंशावतार श्रीकृष्ण द्वारा श्रद्धेय श्रेष्ठ जनों के विरूद्ध युद्ध इसका स्पष्ट उदाहरण है। अन्त में शंकर के पूर्णावतार और ईश्वर के पूर्णावतार लव कुश सिंह ”विश्वमानव“ के वर्तमान समय में श्रद्धेय श्रेष्ठ जनों का पूर्ण मानसिक वध हुआ हैं जिसके सम्बन्ध में लव कुश सिंह ”विश्वमानव“ की ये वाणियाँ है- ‘‘वह मनुष्य क्या करें? जो धर्म, न्याय व सत्य की रक्षा करना चाहता हो लेकिन समाज में रहने के कारण उनसे बड़े लोग भी है यदि बड़े लोग ही अधर्म, अन्याय व असत्य पर हो तो विरोध करने पर वह मनुष्य समाज की नजर में बुरा हो जाता है। यदि विरोध न करे तो वह मनुष्य स्वयं अपनी नजर में अधर्मी, अन्यायी व असत्य पर चलने वाला हो जाता है।’’ और ’’शिक्षा का उद्देश्य नौकरी और धन अर्जित करना तो है जो उसे जीवकोपार्जन प्रदान करता हैं। साथ ही समाज को उचित आवश्यकता प्रदान करना, अन्याय और भ्रष्टाचार के विरूद्ध आवाज उठाना, या ऐसे कार्य करने वालों को शारीरिक, आर्थिक व मानसिक रूप से सहयोग प्रदान करना भी है। जो अपनत्व एवम् स्वार्थ की भावना से पूर्णतया मुक्त हो।’’
लव कुश सिंह ”विश्वमानव“ के सार्वजनिक और व्यक्तिगत जीवन के रोचक तथ्य से पूर्णतया स्पष्ट है कि वे सिद्धान्त रूप का परिचय और चेतना सदा ही समय-समय पर व्यक्तिगत श्रद्धेय श्रेष्ठ जनों (माता-पिता और रिश्तेदार) तथा सार्वजनिक श्रद्धेय श्रेष्ठ जनों को देते रहे। वहीं भौतिक शरीर के जन्मदाता माता-पिता के आदेशों को नहीं के बराबर तथा आध्यात्मिक शरीर के जन्मदाता माता-पिता श्री माँ शारदा-श्रीरामकृष्ण परमहंस के आदेशों को अक्षरशः पालन बाल्यावस्था से ही करते रहे हंै। अपने भौतिक शरीर के जन्मदाता माता-पिता में से मूल कारण पिता तथा अन्य सार्वजनिक श्रद्धेय श्रेष्ठ जनों को अपने स्वरूप को अन्त तक समझाने के बावजुद ही उन्होंने धर्म स्थापनार्थ प्रथम दुष्ट वध का निर्णय लिये है। चूँकि वर्तमान समय में सार्वाधिक व्यक्त सार्वजनिक सत्य यह है कि युवाओं को भ्रमित और समाज-देश के प्रति कर्तव्यविमुख पिता और सार्वजनिक श्रद्धेय श्रेष्ठ जनों द्वारा ही किया जा रहा है। इसलिए इन श्रद्धेय श्रेष्ठ जनों को लव कुश सिंह ”विश्वमानव“ द्वारा समझा पाना सिद्धान्त कैसे सम्भव था? लव कुश सिंह ”विश्वमानव“ यह जानते हुये भी बार-बार उनका व्यक्तिगत और सार्वजनिक प्रमाणित प्रदर्शन अर्थात लीला करते रहें जिससे उन्हें सबसे कष्टकारी कार्य के लिए सैद्धान्तिक व प्रमाणिक आधार प्राप्त हो सके। और अन्ततः उन्होंने विश्व एतिहासिक साहित्य द्वारा व्यक्तिगत सहित सार्वजनिक श्रद्धेय श्रेष्ठ जनो का विश्व एतिहासिक मानसिक वध सार्वजनिक रूप से किये।
पिता सहित सार्वजनिक श्रद्धेय श्रेष्ठ जनों को विश्व ऐतिहासिक मानसिक वध के सम्बन्ध में लव कुश सिंह ”विश्वमानव“ कहते है कि ‘‘हे मानवों, तुम कहते हो सिद्धान्त का कोई महत्व नहीं, यह तो स्वयं को ही धोखा देने वाला विचार है क्योंकि तुम इस जगत से बाहर नहीं हो। अतः तुम तो सिद्धान्तः सिद्धान्त के अधीन ही हो चाहे तुुम इसे स्वीकार और आत्मसात् करो या न करों। यह सिद्धान्त ही तुम्हें दण्ड देता है जिससे तुम अपने कर्म का फल दुःख और सुख के रूप में अनुभव करते हो। यहाँ तक कि तुम्हारा शरीर मृत्यु को प्राप्त हो जाता है। यह क्या है? यह तो सिद्धान्त के समक्ष समर्पण ही तो है। जो अवश्यमभावी है, अटल है जिसकी जीत अटलनीय है। परिवर्तन या आदान-प्रदान या प्राकृतिक सत्य, सार्वजनिक प्रमाणित विवाद मुक्त दृश्य विश्वव्यापी, सार्वकालिक, सार्वदेशीय सिद्धान्त ही तो है। इसकी शाखाओं को आत्मसात् न करने से ही तुम दुःख भोगते हो और सतत् अहंकार युक्त होकर सिद्धान्त से अलग सत्ता स्थापित करना चाहते हो परन्तु हाय रे मुर्खों, मृत्यु के रूप में सिद्धान्त अन्ततः तुमको अपने समक्ष समर्पण के लिए विवश ही कर देता है।’’ ‘‘हे मानवों जिस प्रकार साहित्य, सिनेमा, टी.वी. सीरियल समाज आदि का दर्पण है उसी प्र्रकार सिद्धान्त से व्यक्त अवतार, अवतारों द्वारा व्यक्त शास्त्र-साहित्य और अवतारों की जीवन कथा भी समाज का दर्पण ही होता है। जिस प्रकार सिद्धान्त तुम्हें फल देता है, उस प्रकार अवतार, अवतार द्वारा व्यक्त शास्त्र-साहित्य तथा जीवन कथा साहित्य भी तुम्हें फल देने और समर्पण कराने में पूर्ण रूपेण सक्षम होता है। यह फल-उत्थान, पतन और अस्तित्वविहीन कर देने का फल होता है’’ ‘‘हे मानवों, क्या तुम ब्रह्मा अर्थात एकात्म ज्ञान और एकात्मवाणी के अंशावतारों से व्यक्त चारों वेद, और चारों वैदिक साहित्य के एकात्म ज्ञान के प्रति समर्पित नहीं हो, तुम कठिन से कठिन प्रयत्न कर लो परन्तु एकात्म ज्ञान के इस सर्वोच्च और अन्तिम साहित्य से उपर तुम नहीं जा सकते। क्या तुम ब्रह्मा अर्थात् एकात्मज्ञान और एकात्मवाणी के पूर्णावतार और ईश्वर-ब्रह्म-शिव-आत्मा के अंशावतार आदर्श व्यक्ति चरित्र के व्यक्त करता श्रीराम के चरित्र के प्रति समर्पित नहीं हो, तुम कठिन से कठिन प्रयत्न कर लो व्यक्तिगत चरित्र के इस सर्वोच्च और अन्तिम शिखर से तुम उपर कभी नहीं जा सकते अर्थात व्यक्तिगत साहित्य ‘‘रामायण’’ उस काल के समाज का दर्पण तथा आदर्श व्यक्तिगत चरित्र का सर्वोच्च और अन्तिम उदाहरण है। उसी प्रकार क्या तुम विष्णु अर्थात एकात्मज्ञान और एकात्मवाणी समाहित एकात्मकर्म और एकात्मप्रेम के पूर्णावतार तथा ईश्वर-ब्रह्म-शिव-आत्मा के अंशावतार आदर्श सामाजिक व्यक्ति चरित्र के व्यक्त करता श्रीकृष्ण के चरित्र और चारों वेद अनंेक वैदिक साहित्यों के एकात्मज्ञान समाहित एकात्मकर्म का समन्वयक साहित्य ‘‘गीता’’ के प्रति समर्पित नहीं हो? तुम कठिन से कठिन प्रयत्न कर लो आदर्श सामाजिक व्यक्ति चरित्र एकात्मज्ञान समाहित एकात्म कर्म का सामाजिक साहित्य ‘‘गीता’’ के उस सर्वोच्च और अन्तिम शिखर से उपर तुम कभी भी नहीं जा सकते अर्थात ‘‘महाभारत’’ और ‘‘गीता’’ उस काल के समाज का दर्पण है तथा आदर्श सामाजिक व्यक्ति चरित्र सहित सामाजिक कर्म का सर्वोच्च और अन्तिम उदाहरण है। उसी प्रकार क्या तुम शंकर अर्थात एकातमज्ञान, एकातमवाणी, एकात्मकर्म, एकात्मप्रेम समाहित एकात्मध्यान और एकात्मसमर्पण के पूर्णावतार तथा ईश्वर-ब्रह्म-शिव-आत्मा के पूर्णावतार आदर्श वैश्विक व्यक्ति चरित्र के व्यक्तकर्ता लव कुश सिंह ”विश्वमानव“ के चरित्र और एकात्मज्ञान तथा एकात्मकर्म समाहित एकात्मध्यान के शास्त्र-साहित्य, सामाजिक साहित्य गीता समाहित वैश्विक शास्त्र-साहित्य ‘‘विश्वभारत समाहित विश्वशास्त्र’’ और ”कर्मवेदः प्रथम, अन्तिम तथा पंचम वेद“ के प्रति समर्पित नहीं हो? तुम कठिन से कठिन प्रयत्न कर लो आदर्श सामाजिक व्यक्ति चरित्र समाहित आदर्श वैश्विक चरित्र और वैदिक शास्त्र-साहित्य कर्मवेद के उस सर्वोच्च और अन्तिम शिखर से उपर तुम कभी नहीं जा सकते अर्थात ‘‘विश्वमानव’’, ‘‘विश्वभारत’’, ‘विश्वशास्त्र’’ और ‘‘कर्मवेद’’ उस वर्तमान और भविष्य के काल के समाज का दर्पण तथा आदर्श वैश्विक व्यक्ति चरित्र समाहित वैश्विक कर्म का सर्वोच्च और अन्तिम उदाहरण है।’’ ‘‘हे मानव, कालक्रम के कालानुसार आवश्यकता के कारण चारों वेदों और उपनिषदों का सार सहित श्रीराम का आदर्श व्यक्ति चरित्र, श्रीकृष्ण में समाहित हो ‘‘गीता’’ और ‘‘महाभारत’’ के रूप में व्यक्त हो गया तथा ‘‘गीता’’ और ‘‘महाभारत’’ सहित श्रीकृष्ण का आदर्श सामाजिक व्यक्ति चरित्र, लव कुश सिंह ”विश्वमानव“ में समाहित हो ‘‘कर्मवेद’’ और ”विश्वशास्त्र’’ अन्तिम ओर सर्वोच्च रूप में व्यक्त हो गया हैं। जो वर्तमान और भविष्य की आवश्यकता है और इसके समक्ष तुम्हारा सम्पूर्ण समर्पण सुनिश्चित है।’’ ‘‘हे मानव, वर्तमान और भविष्य की आवश्यकता न तो आदर्श व्यक्ति चरित्र (श्रीराम) की आवश्यकता है, न ही आदर्श समाजिक व्यक्ति चरित्र (श्रीकृष्ण) की, अब तो आवश्यकता है सिर्फ आदर्श वैश्विक व्यक्ति चरित्र (विश्वमानव) की, और तुम इसके लिए विवश भी हो अन्यथा तुम कालानुसार न होकर अस्तित्वविहीन हो जाओगे।’’ ‘‘हे मानव, रामायण और महाभारत तो श्रीराम और श्रीकृष्ण के कार्य पूर्ण होने के बाद प्रस्तुत किये गये थे परन्तु विश्वशास्त्र तो तुम्हारे समक्ष वर्तमान है। रामायण और महाभारत में व्यक्त चरित्रों को असुरी और सुरी प्रवृत्तियों में विभाजित कर कर्म फल ही तो दिया गया है परिणामस्वरूप असुरी प्रवृत्तियों से युक्त साकार एवम् निराकर चरित्र सदा के लिए कलंकित ही तो हो गयी है। यह साहित्य द्वारा दण्ड नहीं तो क्या है? क्योंकि आज जो कुछ भी तुम जान रहे हो वह रामायण और महाभारत साहित्य द्वारा ही तो जान रहे हो। उसी प्रकार विश्वशास्त्र साहित्य में व्यक्त साकार एवम् निराकार सुरी और असुरी प्रवृत्तियों को ही कर्मफल दिया गया है। वे सभी चरित्र तुम्हारे समक्ष वर्तमान साकार और जीवन्त है। जिस प्रकार रामायण और महाभारत की कथा को तुम परिवर्तित नहीं कर सकते उसी प्रकार विश्वशास्त्र की कथा को भी तुम परिवर्तित नहीं कर सकतें।’’
‘‘हे मानव, जो पुत्र आदर्श वैश्विक चरित्र, सर्वोच्च और अन्तिम वैदिक शास्त्र-साहित्य ज्ञान-कर्म-ध्यान का व्यक्त विश्व ऐतिहासिक कार्य कर रहा हो और उसके व्यक्तिगत और सार्वजनिक श्रद्धेय श्रेष्ठजन ही उसके इस महानतम् कार्य में बाधक के रूप में बार-बार व्यक्त हो, उनकी इच्छा क्या हो सकती है? और वे अपने आश्रित से अब किस उपलब्धि की उम्मीद कर सकते है? हे मानव जिस देश का राजा या प्रधानमंत्री या सामाजिक नेतृत्वकत्र्ता ही जनसाधारण के कार्य जिसके लिए वह नियुक्त है, उसे महत्व न दे तो उस राजा या प्रधानमंत्री या नेतृत्वकत्र्ता की इच्छा क्या हो सकती है? और ऐसे राजा या प्रधानमंत्री या नेतृत्वकत्र्ता अपनी जनता से अब किस सहयोग की अपेक्षा रखते है? हे मानव ये स्पष्ट असुरी प्रवृत्तियाँ ही हंै इसलिए इनका विश्व ऐतिहासिक मानसिक वध अहंकार के वश में नहीं बल्कि सिद्धान्त के वश में हो कर, कर दिया गया है।’’ और इन सबको सत्य अर्थो में स्थापित और व्यक्त करने के लिए अनियंत्रित ब्रह्मास्त्र समाहित सुदर्शन चक्र अर्थात नारायणास्त्र समाहित पशु प्रवृत्तियों के सम्पूर्ण नाश के लिए पशुपास्त्र विश्व ऐतिहासिक शास्त्र-साहित्य व्यक्त किया गया है जो अनियंत्रित रूप से गतिषील है। जिसका समर्थन धर्मपक्ष, विरोध अधर्म पक्ष तथा निश्क्रियता अस्तित्व विहिन करने में सक्षम है जबकि पूर्ण समर्पण ही एक मात्र मार्ग है। ‘‘हे मानव, क्या तुम नहीं जानते प्रत्येक पूर्णावतार के साथ उसके सहयोगी निराकार एवम् साकार रूप में एवम् समस्त साधन उसके साथ ही अवतरित होते है जिससे अवतारों को व्यापक आधार प्राप्त होता है और ऐसा ही अन्तिम अवतरण लव कुश सिंह ”विश्वमानव“ के साथ भी हुआ है।’’
लव कुश सिंह ”विश्वमानव“ के रूप में अन्तिम अवतरण से यह स्पष्ट रूप से व्यक्त और सार्वजनिक प्रमाणित हो चुका है कि चरित्र को प्राथमिकता देने से समाज में सत्य-सिद्धान्त की अवनति होती है। वहीं सत्य-सिद्वान्त को प्राथमिकता देने से चरित्र की अवनति नहीं होती बल्कि वह समाज का दर्पण बन समाज को ही प्रक्षेपित हो जाती है। जो समाज के लिए शिक्षा का विषय बन जाती है। इस प्रकार अवतारों के जीवन का अध्ययन समाज के सभी अच्छाइयों और बुराइयों का स्पष्ट दर्शन कराता हैं। अन्त में लव कुश सिंह ”विश्वमानव“ कहते हैं कि-”हे मानव, जब भी मैं (आत्मा) व्यक्त होता हँू तब मुझे श्रद्धेय श्रेष्ठ जन ही कर्तव्य विमुख और अधर्म पर चलने वाले मिलते हैंैं परिणामस्वरूप मुझे उनका शारीरिक और मानसिक वध विवशतावश करना पड़ता है। इसलिए श्रद्धेय श्रेष्ठ जन पहले स्वंय में परिवर्तन लाये फिर आश्रितों को शिक्षा दें, हे मानव प्रत्येक अवतरण में मुझे श्रद्धेय श्रेष्ठ जनों का वध करते समय असीम कष्ट और दया उत्पन्न होता है परन्तु मैं भी क्या करूँ मैं भी तो सिद्वान्त के वश में ही होकर ऐसा करता हूँ।’’ ‘‘हे मानव, तुम यह भी कह सकते हो कि यदि श्रद्धेय श्रेष्ठ जनों द्वारा निर्मित बाधा युक्त मार्ग मुझे न मिलता तो में यह कार्य न कर पाता परन्तु हे मानव तुम्हें यह जानना चाहिए कि अवतारों का लक्ष्य निश्चित और स्पष्ट होता है। मात्र वे साधन व मार्ग को अपने योग माया द्वारा जोड़ते है। जिस ओर बाधा होती है उस ओर बढ़ना वे बन्द कर देते है। हे मानव निश्चित लक्ष्य तक पहुँचने के लिए अनेक मार्ग होते है। जिसका लक्ष्य स्पष्ट होता है उसे बाधा नहीं होती है। उसे किसी के मार्गदर्शन की आवश्यकता नहीं रहती। मार्गदर्शन और बाधा, लक्ष्य विहिन व्यक्ति को दृढ़ता के लिए आवश्यक होते है परन्तु लक्ष्य युक्त के लिए बाधा और मार्गदर्शन नहीं बल्कि साधन की आवश्यकता होती है। हे मानव, तुमने कुम्हार को मिट्टी के बर्तन बनाते देखा होगा, वह तब तक ही रचनाकार कहा जाता है जब तक कि उसका मिट्टी के उपर उॅगलियों का दबाव बर्तन का रूप न ले लें। जैसे ही वह बर्तन बनने के बाद भी दबाव जारी रखेगा, बर्तन के टूटने से वह रचनाकार नहीं बल्कि मूर्ख कहा जायेगा। हे मानव, तुम मेरे इस जीवन में एक भी ऐसा श्रद्धेय श्रेष्ठ जन नहीं दिखा सकते जो मेरा रचनाकार बना हो, क्योकि श्रद्धेय श्रेष्ठ जनों का दबाव तो अब भी जारी है जबकि मैं उपयोगी बर्तन बन अपने लक्ष्य को प्राप्त कर चुका हँू। अगर श्रेष्ठ जन मेरे रचनाकार होते तो आज के पूर्व मुझे सिर्फ साधन उपलब्ध कारते न कि निष्क्रिय और बाधा रूप में मेरे सामने व्यक्त होते।‘‘ ’’हे मानव, क्या तुम नहीं जानते मैं जब भी आता हूँ तो उसी रूप में आता हूं जैसा समाज का रूप होता हैं।”
शंकर अर्थात् एकात्मध्यान का व्यक्त रूप एकात्म समर्पण अर्थात् पार्वती है। एकात्म ध्यान का कारण एकात्म समर्पण तथा एकात्म समर्पण का कारण एकात्म ध्यान होता है। वह ध्यान जो आत्मा के लिए हो और वह समर्पण जो ध्यान के लिए हो अर्थात् समभाव और ध्यान युक्त मानव शरीर ही शंकर का अवतार है। इस ध्यान का अर्थ काल चिन्तन है। विभिन्न कालों में विभिन्न रूपों में काल के प्रति समर्पण कराने अर्थात् एकात्मज्ञान और एकात्मकर्म की परीक्षा और परीक्षोपरान्त मार्ग प्रशस्त करने के लिए व्यक्तिगत प्रमाणित शंकर अर्थात् एकात्म ध्यान के 21 अंशावतार जाने जाते है। जो निम्नवत् है।
01. ऋषि दधीचि के समय- ”पिप्पलाद अवतार“
02. वेश्या की परीक्षा के समय - ”वैश्यनाथ अवतार“
03. विश्वानर मुनि के समय - ”गृहपति अवतार“
04. इन्द्र्र की रक्षा के लिए कश्यप मुनि के समय - ”एकादश रूद्र अवतार“
05. पार्वती की परीक्षा के समय - ”ब्रह्मचारी अवतार“
06. पार्वती को माॅगते समय - ”सुनट नर्तक अवतार“
07. पार्वती के पिता के समक्ष अपनी निन्दा के समय - ”साधु अवतार“
08. पार्वती द्वारा भैरव को श्राप देने पर भैरव के स्नेह में पार्वती का शारदा रूप सहित - ”महेश अवतार“
09. राजा भद्रायु की परीक्षा के लिए - ”द्विजेश्वर अवतार“
10. भील आहुक-आहुका पति-पत्नी की परीक्षा के लिए - ”मतिनाथ अवतार“
11. इछवाकुवंशीय श्रद्धेय की नवमी पीढ़ी में राजा नभग की परीक्षा के लिए-”कृष्ण दर्शन अवतार“
12. इन्द्र, बृहस्पति सहित अन्य देवताओं की परीक्षा के लिए- ”अवधुतेश्वर अवतार“
13. विदर्भ नरेश सत्यरथ और उसकी पत्नी के मृत्यु के उपरान्त अबोध बालक के कल्याण- ”भिक्षुवर्ण अवतार“
14. व्याघ्रपाद के पुत्र उपमन्यु की परीक्षा के समय- ”सुरेश्वर अवतार“
15. कूर्म अवतार के समय - विषपान और देवताओं के घमण्ड को तोड़ने के लिए - ”नीलकण्ठ यक्षश्रेश्वर अवतार“
16. कूर्म अवतार के समय विष्णु गणों के आतंक को समाप्त करने के लिए - ”वृषभ अवतार“
17. नृसिंह अवतार के समय नृसिंह का क्रोध शान्त करने के लिए - ”शरभ अवतार“
18. रामावतार के समय - ”दुर्वासा अवतार“
19. रामावतार के समय - ”हनुमान अवतार“
20. कृष्णावतार के समय - ”विभु अश्वश्थामा अवतार“ और
21. अर्जुन की परीक्षा में - ”किरात अवतार“
शिव निराकार हैं तो शंकर साकार रूप में प्रक्षेपित हैं। शिव अर्थात सम्पूर्ण जगत का मूल कारण जो सर्वत्र विद्यमान है। फलस्वरूप शिव का साकार पूर्ण अवतरण रूप सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में व्याप्त सार्वभौम सत्य-सिद्धान्त ज्ञान से युक्त होकर जगत के अधिकतम चरित्रों को आत्मसात् करने वाला और उससे मुक्त होता है। शिव-शंकर की दृष्टि में जगत का प्रत्येक वस्तु उपयोगी ही है, न की अनुपयोगी। अर्थात अनुपयोगी लगने वाले विषय, वस्तु, विचार इत्यादि को भी उपयोगी बना लेना महादेव शिव-शंकर का दिव्य गुण है। शिव-शंकर की पूजा हम मूर्ति, चित्र, या प्रतीक शिवलिंग के माध्यम से करते। शिव-शंकर की संस्कृति तो मात्र कल्याण की प्राथमिकता वाली संस्कृति है। शिव-शंकर के पूर्णावतार का अर्थ है- निम्नतम नकारात्मक से सर्वोच्च और अन्तिम सकारात्मक गुणों का महासंगम। शिव-शंकर के अन्य गुणों में निःसंग रहना, एकान्तवास करना, सम्पूर्ण विश्व-ब्रह्माण्ड पर ध्यान रखना तथा विश्व के कल्याण के लिए प्रेरणा देना है। साथ ही अपनी मस्ती में मस्त इस भाॅति मस्त रहना भी है जैसे न ही कोई चिन्ता है और नही कोई कार्य करना है। जबकि वह विश्व कल्याण के लिए अपने कत्र्तव्य पर ध्यान भी लगाये रहते हैं।
22वे भोगेश्वर अवतार के रूप में लव कुश सिंह ”विश्वमानव“ समस्त संसार के समक्ष व्यक्त हैं, और मनुष्य जीव के अस्तित्व तक शनिचर और शंकर रूपी ”विश्वशास्त्र“ समस्त संसार के ज्ञान की परीक्षा लेने के लिए सदैव सामने व्यक्त रहेगा।
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