ऋषि
ऋषि मुनि, योगी, सन्त अथवा कवि का दूसरा नाम है। ऋषि शब्द की व्युत्पत्ति ऋक्ष (रीक्ष) है क्योंकि वह भी मुनि के भाँति पर्वत गुफा में व्यतीत करता है। सप्तर्षि आकाश में है और हमारे कपाल में भी। ऋषि आकाश, अन्तरिक्ष और शरीर तीनों में होते हैं।
आदि पुरूष महर्षि कूर्म-कश्यप
त्रेता युग के प्रारम्भ में मारीचि कश्यप हुए हैं (वायु पुराण, 6.43)। सम्पूर्ण मानव जाति के आदि पुरूष कूर्म कश्यप अत्यन्त पुरातन काल में विद्यमान थे। कश्यप ऋषि प्राचीन वैदिक ऋषियों में प्रमुख ऋषि हैं जिनका उल्लेख एक बार ऋग्वेद में हुआ है। अन्य संहिताओं में भी यह नाम बहुप्रयुक्त है। इन्हें सर्वदा धार्मिक एंव रहस्यात्मक चरित्र वाला बतलाया गया है एंव अतिप्राचीन कहा गया है। एक बार समस्त पृथ्वी पर विजय प्राप्त कर परशुराम ने वह कश्यप मुनि को दान कर दी। कश्यप मुनि ने कहा-”अब तुम मेरे देश में मत रहो।“ अतः गुरु की आज्ञा का पालन करते हुए परशुराम ने रात को पृथ्वी पर न रहने का संकल्प किया। वे प्रति रात्रि में मन के समान तीव्र गमनशक्ति से महेंद्र पर्वत पर जाने लगे। ऐतरेय ब्राह्मण के अनुसार उन्होंने विश्वकर्मभौवन नामक राजा का अभिषेक कराया था। ऐतरेय ब्राह्मणों ने कश्यपों का सम्बन्ध जनमेजय से बताया गया है। शतपथ ब्राह्मण में प्रजापति को कश्यप कहा गया है
”स यत्कुर्मो नाम। प्रजापतिः प्रजा असृजत। यदसृजत् अकरोत् तद् यदकरोत् तस्मात् कूर्मः कश्यपो वै कूर्म्स्तस्मादाहुः सर्वाः प्रजाः कश्यपः“
वैदिक काल में ऋषियों का वर्णन आया है। कुछ को छोड़कर सभी ऋषि परिवार वाले थे। वैदिक काल के ऋषि दार्शनिक, विद्वान, योद्धा एवं कृषक तीनों थे। ऋचाओं को लिखने वाले ऋषियों को देवर्षि की संज्ञा प्राप्त थी। प्राचीन ऋषियों में बहुत से ऋषि, राजर्षि से ब्रह्मर्षि हो गये तथा ब्रह्मर्षि से राजर्षि भी हुए लेकिन इनकी संख्या कम है। आरम्भ में ब्राह्मण कोई जाति नहीं थी बल्कि यह विद्यापीठ था। यही कारण है कि अनेक राजर्षि, ब्रह्मर्षि उपाधि प्राप्त किये। यही नहीं प्राचीन वंशावली में भी सूर्य के 12 पुत्रों में बहुत से अग्निहोत्र करने के कारण ब्राह्मण की उपाधि धारण किये। सूर्य के पुत्र वरूण से ही ब्रह्म वंश चला जिसमें भृगु, वशिष्ठ, वाल्मिकि, जमदग्नि, पुलस्त्य थे जबकि ब्रह्म वंशीय भी विशुद्ध सूर्यवंशीय ही है। केवल अग्निहोत्र करने के कारण ही ये ब्राह्मण कहलाये।
स्वामी विवेकानन्द की दृष्टि में ऋषि और परम्परा
1.”वेद“ का अर्थ है- ईश्वरीय ज्ञान की राशि। विद् धातु का अर्थ है-जानना। वेदान्त नामक ज्ञानराशि ऋषि नाम धारी पुरूषों के द्वारा आविष्कृत हुई है। ऋषि शब्द का अर्थ है- मन्त्रद्रष्टा। पहले ही से वर्तमान ज्ञान को उन्होंने प्रत्यक्ष किया है। वह ज्ञान तथा भाव उनके अपने विचारों का फल नहीं था। जब कभी आप सुनें कि वेदों के अमुक अंश के ऋषि अमुक है, तब यह मत सोचिए कि उन्होंने उसे लिखा या अपनी बुद्धि द्वारा बनाया है, बल्कि पहले ही से वर्तमान भाव राशि के वे द्रष्टा मात्र है - वे भाव अनादि काल से ही इस संसार में विद्यमान थे, ऋषि ने उनका आविष्कार मात्र किया। ऋषिगण आध्यात्मिक आविष्कारक थे।
2. वेद का अर्थ अनादि सत्यों का समूह है। वेदज्ञ ऋषियों ने इन सत्यों को प्रत्यक्ष किया था। बिना अतिन्द्रिय दृष्टि के साधारण दृष्टि से ये सत्य प्रत्यक्ष नहीं होते। इसी से वेद में ऋषि का अर्थ मन्त्रार्थ दर्शी है, यज्ञोपवीतधारी ब्राह्मण नहीं। ब्राह्मण आदि जाति विभाग वेद के बाद हुआ था। वेद शब्दात्मक अर्थात् भावात्मक है अथवा अनन्त भाव राशि की समष्टि को ही वेद कहते हैं। ”शब्द“ इस पद का वैदिक प्राचीन अर्थ सूक्ष्म भाव है, जो फिर आगे स्थूल रुप से अपने को व्यक्त करता है इसलिए प्रलय काल में भावी सृष्टि का सूक्ष्म बीज समूह वेद में ही संपुटित रहता है। इसी से पुराण में पहले-पहल मीनावतार से वेद का उद्धार दिखाई देता है। प्रथमावतार से ही वेद का उद्धार हुआ।
3. सत्य के दो अंग है। पहला जो साधारण मानवों को पांचेन्द्रियग्राह्य एवम् उसमें उपस्थापित अनुमान द्वारा गृहीत है और दूसरा-जिसका इन्द्रियातीत सूक्ष्म योगज शक्ति के द्वारा ग्रहण होता है। प्रथम उपाय के द्वारा संकलित ज्ञान को ”विज्ञान“ कहते है, तथा द्वितीय प्रकार के संकलित ज्ञान को ”वेद“ संज्ञा दी है। वेद नामक अनादि अनन्त अलौकिक ज्ञानराशि सदा विद्यमान है। स्वंय सृष्टिकत्र्ता उसकी सहायता से इस जगत के सृष्टि-स्थिति-प्रलय कार्य सम्पन्न कर रहे हैं। जिन पुरूषों में उस इन्द्रियातीत शक्ति का आविर्भाव है, उन्हें ऋषि कहते है और उस शक्ति के द्वारा जिस अलौकिक सत्य की खोज उन्होंने उपलब्धि की है, उसे ”वेद“ कहते हैं। इस ऋषित्व तथा वेद दृष्टत्व को प्राप्त करना ही यथार्थ धर्मानुभूति है। साधक के जीवन में जब तक उसका उन्मेष नहीं होता तब तक ”धर्म“ केवल कहने भर की बात है एवम् समझना चाहिए कि उसने धर्मराज्य के प्रथम सोपान पर भी पैर नहीं रखा है। समस्त देश-काल-पात्र को व्याप्त कर वेद का शासन है अर्थात वेद का प्रभाव किसी देश, काल या पात्र विशेष द्वारा सीमित नहीं हैं। सार्वजनिन धर्म का व्याख्याता एक मात्र ”वेद“ ही है।
स्वामी विवेकानन्द की दृष्टि में ऋषि का मन स्तर
1. संस्कृत में ”जाति“ का अर्थ है वर्ग या श्रेणी विशेष। यह सृष्टि के मूल में ही विद्यमान है। विचित्रता अर्थात् जाति का अर्थ ही सृष्टि है। ”एकोऽहं बहुस्याम्“- मैं एक हूँ अनेक हो जाऊँ। विभिन्न वेदों में इस प्रकार की बात पायी जाती है। सृष्टि के पूर्व एकत्व रहता है, सृष्टि हुई कि विचित्रता शुरु हुई। अतः यदि यह विचित्रता बन्द हो जाय तो सृष्टि का ही लोप हो जायेगा। जब तक कोई जाति शक्तिशाली और क्रियाशील रहेगी, तब तक वह विचित्रता अवश्य पैदा करेगी। ज्यांेहि उसका ऐसी विचित्रता उत्पादन करना बन्द होता है या बन्द कर दिया जाता है त्योंहि वह जाति नष्ट हो जाती है जाति का मूल अर्थ था एवं सैकड़ो वर्ष तक यहीं अर्थ प्रचलित था- प्रत्येक व्यक्ति को अपनी प्रकृति को, अपने विशेषत्व को प्रकाशित करने की स्वाधीनता। आधुनिक शास्त्र ग्रन्थों में भी जातियों का आपस में खाना-पीना निषिद्ध नहीं हुआ है और न किसी प्राचीन ग्रन्थ में अनका आपस में ब्याह-शादी करना मना है। तो फिर भारत के अधःपतन का कारण क्या था?- जाति सम्बन्धी इस भाव का त्याग। जैसे गीता कहती है- जाति नष्ट हुई कि संसार भी नष्ट हुआ। यह हमें सत्य ही प्रतीत होता है कि इस विचित्रता का नाश होते ही जगत का भी नाश हो जायेगा। आजकल का वर्ण विभाग यथार्थ जाति नहीं है, बल्कि जाति की प्रगति में वह एक रुकावट ही है।
2 तुमने मांस खाने वाले क्षत्रियों की बात उठाई है। क्षत्रिय लोग चाहे मांस खाये या ना खाये, वे ही हिन्दू धर्म की उन सब वस्तुओं के जन्मदाता हैं जिनको तुम महत और सुन्दर देखते हो। उपनिषद् किसने लिखे थे? राम कौन थे? कृष्ण कौन थे? बुद्ध कौन थे? जैनों के तिर्थंकर कौन थे? जब कभी क्षत्रियों ने धर्म का उपदेश दिया, उन्होंने सभी को धर्म पर अधिकार दिया। और जब कभी ब्राह्मणों ने कुछ लिखा उन्होंने औरों को सब प्रकार के अधिकारों से वंचित करने की चेष्टा की। गीता और व्यास सूत्र पढ़ो या किसी से सुन लो। गीता में मुक्ति की राह पर सभी नर-नारियों, सभी जातियों और सभी वर्णों को अधिकार दिया गया है, परन्तु व्यास गरीब शूद्रों को वंचित करने के लिए वेद की मनमानी व्याख्या कर रहे हैं। क्या ईश्वर तुम जैसा मूर्ख है कि एक टुकड़े मांस से उसकी दया रुपी नदी में बाधा खड़ी हो जायेगी? अगर वह ऐसा ही है तो उसका मोल एक फूटी कौड़ी भी नहीं।
3. जब वह वेतन के लिए दूसरे की सेवा करने में लगा है, तब वह शूद्र है; जब वह अपने लाभ के लिए कोई व्यापार कर रहा है, तब वैश्य है, अत्याचार के विरूद्ध जब वह लड़ रहा है, तब उसमें क्षत्रिय के गुण प्रकट होते हैं; और जब वह परमेश्वर का ध्यान करता है या अपना समय ईश्वरसम्बन्धी वार्तालाप में बिताता है, तब वह ब्राह्मण है, अतएव यह स्पष्ट है कि एक जाति दूसरी जाति में परिवर्तित हो जाना बिल्कुल सम्भव है। अन्यथा, विश्वामित्र ब्राह्मण और परशुराम क्षत्रिय कैसे हुए।
4. भारतवर्ष में...तुम्हारी जाति सब से ऊँची तब गिनी जायेगी, जब तुम किसी ऋषि से पूर्वज का सम्बन्ध जोड़ सको, अन्यथा नहीं। ‘‘ब्राह्मण आदर्श’’ से मेरा मतलब क्या है? मेरा मतलब है- आदर्श ब्राह्मणत्व, जिसमें संसारी भाव बिल्कुल नहीं और यथार्थ ज्ञान प्रचुर मात्रा में हो। ब्राह्मण-जाति और ब्राह्मण-गुण दो भिन्न बातें हैं। भारत-वर्ष में मनुष्य अपनी जाति के कारण ब्राह्मण माना जाता है। पर पाश्चात्य देशों में तो वह ब्राह्मण गुणों के कारण ही ब्राह्मण माना जा सकेगा।
5.जाति प्रथा तो वेदान्त धर्म के विरूद्ध है। जाति एक सामाजिक रूढ़ी है और हमारे सभी महान आचार्य उसे तोड़ने का प्रयत्न करते आये हैं। बौद्ध धर्म से लगाकर सभी पंथों ने जाति के विरूद्ध प्रचार किया है, किन्तु प्रत्येक समय वह श्रृंखला दृढ़ होती ही। जाति तो केवल भारत वर्ष की राजनीतिक संस्थाओं से निकली हुई है; वह एक परम्परागत व्यावसायिक संस्था है। धर्म में कोई जाति नहीं होती, जाति तो केवल एक सामाजिक रूढ़ि है।
6.कोई भी व्यक्ति, चाहे वह शूद्र हो या चाण्डाल, ब्राह्मण को भी तत्वज्ञान की शिक्षा दे सकता है। सत्य की शिक्षा अत्यन्त नीच व्यक्ति से भी ली जा सकती है-वह व्यक्ति किसी भी जाति या पन्थ का क्यों न हो। हमारे अधिकांश उपनिषद् क्षत्रियों के लिखे हुए हैं। भारतवर्ष में हमारे मध्य आचार्य अधिकतर क्षत्रिय ही थे और उनके उपदेश सदा सार्वभौमिक रहे हैं।...राम, कृष्ण, बुद्ध-जिनकी पूजा अवतार मानकर की जाती है-ये सब क्षत्रिय ही थे।
7.कोई भी व्यक्ति, जो ब्राह्मण होने का दावा करता है, अपने इस दावे को, पहले तो अपनी आध्यात्मिकता प्रकट कर और तत्पश्चात् दूसरों को भी उसी श्रेणी में उठाकर, प्रभावित करें। पर दिखायी यह देता है कि उनमें से अधिकतर ऐसे हैं, जो केवल जन्म के कारण मिथ्या अभिमान कर रहे हैं। ब्राह्मणों! सावधान! यह मृत्यु के लक्षण हैं! उठकर खड़े हो जाओ और अपने आस-पास के अ-ब्राह्मणों को उन्नत बनाकर अपना मनुष्यत्व, ब्राह्मणत्व दिखाओ। यह कार्य न तो स्वामी भाव से करो, और न ही इस कार्य में पूर्व तथा पश्चिम के अन्धविश्वास एवं कपट व्यवहार-युक्त घृणास्पद अहंभाव ही हो; यह कार्य तो केवल सेवा की भावना में किया जाय। कारण, यह निश्चित सत्य है कि जो सेवा करना जानता है, वही शासन करना भी जानता है। यदि कोई ब्राह्मण समझता है कि उसमें आध्यात्मिक संस्कृति के लिए विशेष योग्यता है, तो उसे खुले क्षेत्र में शूद्र के साथ उतर आने में क्या डर है? क्या बढ़िया घोड़ा अड़ियल टट्टू के साथ घुड़दौड़ करने में डरेगा?
ऋषियों द्वारा संतुलित जीवन और संतुलित समाज के लिए दी गयी व्यवस्था -
संतुलित जीवन के लिए शरीर और कर्म की अवस्था निम्नवत् है-
अ. शरीर की अवस्था के निम्न रूप है-
1. ब्रह्मचर्य आश्रम - 5 से 25 वर्ष उम्र तक - ज्ञान-विज्ञान-तकनीकी शिक्षा तथा व्यवहार।
2. गृहस्थ आश्रम - 26 से 50 वर्ष उम्र तक - परिवारिक जीवन में ज्ञान युक्त कत्र्तव्य और दायित्व।
3. वानप्रस्थ आश्रम - 51 से 75 वर्ष उम्र तक - माॅगें जाने पर अपने अनुभव से परिवार व समाज का मार्गदर्शन।
4. सन्यास आश्रम - 76 से शरीर त्याग तक - आत्मा में स्थित होकर ब्रह्माण्डीय दायित्व व कर्तव्य।
ब. कर्म की अवस्था के निम्नरूप है-
1. ब्राह्मण आश्रम - सूक्ष्म बुद्वि व आत्मा में स्थित हो धर्म से कार्य।
2. क्षत्रिय आश्रम - भाव व मन में स्थित हो बल से कार्य।
3. वैश्य आश्रम - इन्द्रिय व प्राण में स्थित हो धन से कार्य।
4. शूद्र आश्रम - शरीर में स्थित हो शरीर से कार्य।
ऋषि, ऋषि परम्परा और श्री लव कुश सिंह ”विश्वमानव“
अपने व्यक्तिगत कार्यो को करते हुये वैश्विक ज्ञान जहाँ तक पहुँच चुका है वहाँ तक स्वयं को वर्तमान करते हुये मानवता, समाज, देश व विश्व के सकारात्मक, रचनात्मक एवं एकात्मक बौद्धिक विकास के लिए सार्वभौम सत्य-सैद्धान्तिक अनुभव आधारित मार्ग प्रशस्त करना भारतीय ऋषियों का काम रहा है।
श्री लव कुश सिंह “विश्वमानव” इस प्रकार के ऋषि कार्य को मात्र 26 वर्ष (सन् 1993) की अवस्था से ही करते हुये 45 वर्ष (सन् 2012) तक में पूर्ण कर उसके बाद समाज व राष्ट्र का समर्पित करने के लिए प्रयत्नशील हैं। (क्लिक करें/देखें - श्री लव कुश सिंह “विश्वमानव” का सम्पूर्ण कार्यें)। अपने वानप्रस्थ जीवन के प्रारम्भ 17 अक्टूबर, 2017 के बाद उनका सम्पूर्ण कार्य व्यक्ति, समाज व राष्ट्र के ऊपर ही निर्भर करेगा कि उससे मार्गदर्शन प्राप्त करें और आध्यात्मिक एवं दार्शनिक विरासत के आधार पर एक मात्र इस अन्तिम मार्ग द्वारा एक भारत-श्रेष्ठ भारत निर्माण का और भारत अपने विश्व-गुरू पद को पुनः वर्तमान समय में प्राप्त करे। क्योंकि ऋषियों की यह परम्परा रही है कि वानप्रस्थ जीवन के उपरान्त माॅगें जाने पर ही अपने अनुभव से परिवार व समाज का मार्गदर्शन किया जाता है। इस सम्बन्धित अन्तिम पत्र भी भारत सरकार को दिया जा चुका है। (क्लिक करें/देखें/डाउनलोड करेंें - पत्र)
पूर्ण मानव निर्माण की तकनीकी के आविष्कारक श्री लव कुश सिंह विश्वमानव स्वयं एक आदर्श मानक वैश्विक नागरिक नहीं हैं क्योंकि वे एक आध्यात्मिक आविष्कारक हैं और वे इस आविष्कार के लिए अनेक गलतियाँ, अन्याय, अनुभव के लिए विचित्र जीवन शैली इत्यादि से स्वंय को माध्यम बनाये हैं इसलिए उनके आविष्कार का उपयोग करें, उनके जीवन को समझने का प्रयत्न न ही करें तो आपका समय बचेगा।
श्री लव कुश सिंह विश्वमानव स्वयं एक आदर्श मानक वैश्विक नागरिक नहीं हो सके लेकिन उन्होंने अपने देश भारत और राष्ट्र पृथ्वी के लिए एक आदर्श नागरिक का आदर्श जरूर प्रस्तुत किया है और भारतीय संविधान के धारा-51(ए) के अन्तर्गत नागरिक का मौलिक कत्र्तव्य के अनुसार कार्य करने का कत्र्तव्य पूर्ण किये है। भारतीय संविधान के धारा-51(ए) निम्नवत् है-
1. स्ंाविधान के प्रति प्रतिबद्धता, इसके आदर्शो, धाराओं, राष्ट्रीय ध्वज व राष्ट्रीय गान का आदर करना।
2. स्वतंत्रता के लिए संघर्ष हेतू प्रेरित करने वाले सुआदर्शाे का अनुकरण करना व उन्हें चिरस्थायी बनाना।
3. भारत की सर्वोच्चता, एकता और अखण्डता की रक्षा करना तथा समर्थन करना।
4. जब भी आवश्यकता पड़े देश की रक्षा करना व राष्ट्रीय सेवाओं हेतू समर्पित होना।
5. समाज में भाई-चारें की भावना का विस्तार करना, मातृत्व भाव, धार्मिक, भाषायिक, क्षेत्रीय विभिन्नताओं में एकता कायम करना तथा नारी सम्मान आदि का ध्यान देना।
6. अपने मिश्रित संस्कृति का मूल्यांकन करना उसको स्थायित्व देना और इसकी परम्परा को कायम रखना।
7. प्राकृतिक सम्पदा की रक्षा करना जिसमें जलवायु, जंगल, झील, नदियां, जंगली जीवों व समस्त जीवों के प्रति दया का भाव सम्मिलित है।
8. वैज्ञानिक भावना को प्रोत्साहित करना, मानवीय भावनाओं के स्वरूप की परख करते रहना।
9. जन सम्पत्ति की सुरक्षा करना और हिंसा आदि का परित्याग करना।
10. व्यक्तिगत, सामूहिक गतिविधियों के प्रत्येक क्षेत्र में सर्वोच्चता हासिल करना, जिससे राष्ट्र शतत उत्थान, प्रयत्न व प्राप्ति की ओर अग्रसर होता रहे।
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