डाॅ0 कर्ण सिंह (9 मार्च, 1931 - )
परिचय -
कर्ण सिंह का जन्म सन् 1931 में हुआ है। वे भारतीय राजनेता, लेखक और कूटनीतिज्ञ हैं। जम्मू और कश्मीर के महाराजा हरि सिंह और महारानी तारा देवी के प्रत्यक्ष उत्तराधिकारी (युवराज) के रूप में जन्में डाॅ0 कर्ण सिंह ने 18 वर्ष की ही उम्र में राजनीतिक जीवन में प्रवेश कर लिया था और वर्ष 1949 में प्रधानमंत्री पं0 जवाहरलाल नेहरू के हस्तक्षेप पर उनके पिता ने उन्हें राजप्रतिनिधि (रीजेंट) नियुक्त कर दिया था। इसके पश्चात् अगले 18 वर्षो के दौरान वे राजप्रतिनिधि, निर्वाचित सदर-ए-रियासत और अन्ततः राज्यपाल के पदों पर रहे। 1967 में डाॅ0 कर्ण सिंह प्रधानमंत्री इन्दिरा गाँधी के नेतृत्व में केन्द्रीय मन्त्रिमण्डल में शामिल किये गये। इसके तुरन्त बाद वे भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के प्रत्याशी के रूप में जम्मू और कश्मीर के उधमपुर संसदीय क्षेत्र से भारी बहुमत से लोक सभा के सदस्य निर्वाचित हुए। इसी क्षेत्र से वे वर्ष 1971, 1977 और 1980 में पुनः चुने गये। डाॅ0 कर्ण सिंह पर्यटन और नगर विमानन, स्वास्थ्य और परिवार नियोजन, शिक्षा और संस्कृति मन्त्री के रूप में कार्य कर चुके हैं। डाॅ0 कर्ण सिंह देशी रजवाड़े के अकेले ऐसे पूर्व शासक थे, जिन्होंने स्वेच्छा से प्रिवीपर्स का त्याग किया। उन्होंने अपनी सारी राशि अपने माता-पिता के नाम पर भारत में मानव सेवा के लिए स्थापित ”हरि-तारा धर्मार्थ न्यास“ को दे दी। उन्होंने जम्मू के अपने अमर महल (राजभवन) को संग्रहालय एवं पुस्तकालय में परिवर्तित कर दिया। इसमें पहाड़ी लघुचित्रों और आधुनिक भारतीय कला का अमूल्य संग्रह तथा बीस हजार से अधिक पुस्तकों का निजी संग्रह है। डाॅ0 कर्ण सिंह धर्मार्थ न्यास के अन्तर्गत चल रहे 100 से अधिक हिन्दू तीर्थ-स्थलों तथा मन्दिरों सहित जम्मू और कश्मीर के अन्य कई न्यासों का काम-काज देखा जाता है। हाल ही में उन्होंने अन्तर्राष्ट्रीय विज्ञान, संस्कृति और चेतना केन्द्र की स्थापना की है। यह केन्द्र सृजनात्मक दृष्टिकोण से एक महत्वपूर्ण केन्द्र के रूप में उभर रहा है। डाॅ0 कर्ण सिंह ने देहरादून स्थित दून स्कूल से सीनियर कैम्ब्रिज परीक्षा प्रथम श्रेणी के साथ उत्तीर्ण की और इसके बाद जम्मू और कश्मीर विश्वविद्यालय से स्नातक उपाधि प्राप्त की। वे इसी विश्वविद्यालय के कुलाधिपति भी रह चुके हैं। वर्ष 1957 में उन्होंने दिल्ली विश्वविद्यालय से राजनीतिक विज्ञान में एम.ए. उपाधि हासिल की। उन्होंने श्री अरविन्द की राजनीतिक विचारधारा पर शोध प्रबन्ध लिख कर दिल्ली विश्वविद्यालय से डाॅक्टरेट उपाधि का अलंकरण प्राप्त किया। डाॅ0 कर्ण सिंह कई वर्षो तक जम्मू और कश्मीर विश्वविद्यालय और बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के कुलाधिपति रहे हैं। वे केन्द्रीय संस्कृत बोर्ड अध्यक्ष, भारतीय लेखक संघ, भारतीय राष्ट्र मण्डल सोसायटी और दिल्ली संगीत सोसायटी के सभापति रहें हैं। वे जवाहरलाल नेहरू स्मारक निधि के उपाध्यक्ष, टेम्पल आॅफ अण्डरस्टेंडिंग (एक अन्तर्राष्ट्रीय अन्तर्विश्वास संगठन) के अध्यक्ष, भारत पर्यावरण और विकास जनायोग के अध्यक्ष, इण्डिया इन्टरनेशनल सेन्टर और विराट हिन्दू समाज के सभापति हैं। उन्हें अनेक मानद उपाधियों और पुरस्कारों से सम्मानित किया गया है। इनमें बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय, अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय और सोका विश्वविद्यालय, टोक्यो से प्राप्त डाॅक्टरेट की मानद उपाधियाँ उल्लेखनीय हैं। वे कई वर्षो तक भारतीय वन्यजीव बोर्ड के अध्यक्ष और अत्यधिक सफल प्रोजेक्ट टाइगर के अध्यक्ष रहने के कारण उसके आजीवन संरक्षी हैं। उनके महत्वपूर्ण संग्रह ”वन मैन्स वल्र्ड (एक आदमी की दुनिया)“ और हिन्दूवाद पर लिखे निबन्धों की काफी सराहना हुई है। उन्होंने अपनी मातृ भाषा डोगरी में कुछ भक्तिपूर्ण गीतों की रचना भी की है। भारतीय सांस्कृतिक परम्परा में अपनी गहन अन्तर्दृष्टी ओर पश्चिमी साहित्य और सभ्यता की विस्तृत जानकारी के कारण वे भारत और विदेशों में एक विशिष्ट विचारक और नेता के रूप में जाने जाते हैं। संयुक्त राज्य अमेरिका में भारतीय राजदूत के रूप में उनका कार्यकाल हालंाकि कम ही रहा है, लेकिन इस दौरान उन्हें दोनों ही देशों में व्यापक और अत्यधिक अनुकूल कवरेज मिली।
”विश्व एक परिवार है न कि बाजार। भारतीय मानको में गुरू-शिष्य परम्परा की अवधारणा को मजबूती देने की जरूरत है। शैक्षणिक संस्थानों में नई चेतना, विचारधारा निकालनी होगी जिससे सामाजिक व राष्ट्रीय उत्थान को बल मिले। शान्ति, मूल्यों की शिक्षा ही आज की आवश्यकता है“
”महामना की सोच मानवीय मूल्य के समावेश वाले युवाओं के मस्तिष्क का विकास था, चाहे वह इंजिनियर हो, विज्ञान या शिक्षाविद्। यहाँ के छात्र दुनिया में मानवीय मूल्य के राजदूत बनें ताकि देश में नम्बर एक बना बी.एच.यू. अब दुनिया के लिए आदर्श बने। इस विश्वविद्यालय सरीखा दूसरा कोई उत्कृष्ट संस्थान ही नहीं जहाँ संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा यूनेस्को चेयर फार पीस एंड इंटरकल्चर अंडरस्टैण्डिंग की स्थापना हुई। विश्वविद्यालय का दक्षिणी परिसर मुख्य परिसर की सिर्फ कापी भर नहीं है, बल्कि यह तो भविष्य में“ नये विश्वविद्यालय का रूप लेगा“
-डाॅ0 कर्ण सिंह,
साभार - दैनिक जागरण, वाराणसी, दि0 26 दिसम्बर, 2010
श्री लव कुश सिंह ”विश्वमानव“ द्वारा स्पष्टीकरण
भौतिकवादी समाज विश्व को एक बाजार समझता है लेकिन आध्यात्मवादी समाज विश्व को परिवार समझता है। इस समझ के कारण ही भारत ने ”वसुधैव-कुटुम्बकम्“, ”बहुजन हिताय-बहुजन सुखाय“, ”विश्वबन्धुत्व“, ”एकात्म मानवतावाद“ जैसे शब्दो का प्रयोग किया है। गुरू-शिष्य परम्परा की अवधारणा-भावना तभी स्वतः स्फूर्त होगी जब शिक्षा पाठ्यक्रम मस्तिष्क को विश्व व्यापक बनाने वाली हो, जिससे ऐसे मनुष्य का निर्माण हो जो सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को अपना स्वरूप समझता हो, और शिक्षा को मात्र रोजगार पाने की सीमा तक न समझता हो। और जब ऐसा होगा तभी शैक्षणिक संस्थानों में नई चेतना, विचारधारा निकलेगी जिससे सामाजिक व राष्ट्रीय उत्थान को बल मिलेगा।
महामना की सोच बहुत व्यापक थी परन्तु संस्थापक के जाने के बाद अक्सर ऐसा होता है कि संस्था अपने मार्ग से भटक जाती है। जहाँ समन्वयात्मक मस्तिष्क का निर्माण करना था वहाँ विशेषीकृत मस्तिष्क का निर्माण प्रारम्भ हो गया। काशी हिन्दू विश्वविद्यालय (बी.एच.यू), देश का नम्बर एक विश्वविद्यालय है इसमें कोई शक नहीं परन्तु जो शोध-आविष्कार इस विश्वविद्यालय को करना था वह माधव विद्या मन्दिर इण्टरमीडिएट कालेज, पुरूषोत्तमपुर, मीरजापुर, उ0प्र0 (दसवीं -1981, 13 वर्ष 6 माह में), प्रभु नारायण राजकीय इण्टर कालेज, रामनगर, वाराणसी, उ0प्र0 (बारहवीं-1983, 15 वर्ष 6 माह में) और हरिश्चन्द्र स्नातकोत्तर महाविद्यालय, वाराणसी, उ0प्र0 (बी.एससी.ं, सन्-1985, 17 वर्ष 6 माह में) के कालेज, के मार्ग से शिक्षित व्यक्ति ने कर डाला।
अब महामना को सच्ची श्रद्धांजली तभी मिलेगी जब विश्वविद्यालय का दक्षिणी परिसर को ”सत्यकाशी हिन्दू विश्ववि़द्यालय (एस.एच.यू)“ के रूप में नये विश्वविद्यालय का रूप दिया जाये।
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