Wednesday, March 25, 2020

विश्वमानव और दलाई लामा (6 जुलाई, 1935 - )

दलाई लामा (6 जुलाई, 1935 - )

परिचय -
दलाई लामा एक मंगोलियाई पदवी है जिसका मतलब होता है-ज्ञान का महासागर। दलाई लामा के वंशज करूणा अवलोकेतेश्वर के बुद्ध के गुणों के साक्षत् रूप माने जाते हैं। बोधिसत्व ऐसे ज्ञानी लोग होते हैं जिन्होंने अपने निर्वाण को टाल दिया हो और मानवता की रक्षा के लिए पुनर्जन्म लेने का निर्णय लिया हो। उन्हें सम्मान से ”परमपावन“ कहा जाता है। अब तक कुल 14 दलाई लामा हो चुके हैं। जो ये हैं- 1-Gendun Drup (1391-1474) , 2- Gendun Gyatso (1475-1542), 3-Sonam Gyatso (1543-1588), 4-Yonten Gyatso (1589-1617), 5-Ngawang Lobsang Gyatso (1617-1682), 6-Tsangyang Gyatso (1683-1706), 7-Kelzang Gyatso (1708-1757), 8-Jamphel Gyatso (1758-1804), 9-Lungtok Gyatso (1805-1815), 10-Tsultrim Gyatso (1816-1837), 11-Khendrup Gyatso (1838-1856), 12-Trinley Gyatso (1857-1875), 13-Thubten Gyatso (1876-1933), 14-Tenzin Gyatso (born 1935)
14वें दलाई लामा तेनजिन ग्यात्सो तिब्बत के आध्यत्मिक गुरू हैं। इनका जन्म 6 जुलाई, 1935 को वर्तमान उत्तर-पूर्वी तिब्बत के ताकस्तेर क्षेत्र में रहने वाले येओमान परिवार में हुआ था। 2 वर्ष की अवस्था में बालक ल्हामो धोण्डुप की पहचान 13 वें दालाई लामा थुबटेन ग्यात्सो के अवतार के रूप में की गई। परमपावन ने अपनी मठवासीय शिक्षा 6 वर्ष की अवस्था में प्रारम्भ की। 23 वर्ष की अवस्था में वर्ष 1959 के वार्षिक मोनलम प्रार्थनाद्ध उत्सव के दौरान उन्होंने जोखांग मन्दिर ल्हासा में अपनी फाइनल परीक्षा दी। उन्होंने यह परीक्षा आॅनर्स के साथ पास की और उन्हें सर्वोच्च गेषे डिग्री ल्हारम्पा बौद्ध दर्शन में पीएच.डी प्रदान की गई। 
वर्ष 1949 में तिब्बत पर चीन के हमले के बाद परमपावन दलाई लामा से कहा गया कि वह पूर्ण राजनीतिक सत्ता अपने हाथ में ले लें। 1954 में वह कई चीनी नेताओं से बातचीत करने के लिए बीजिंग भी गये लेकिन आखिरकार वर्ष 1959 में ल्हासा में चीनी सेनाओं द्वारा तिब्बती राष्ट्रीय आन्दोलन को बेरहमी से कुचले जाने के बाद वह निर्वासन में जाने को मजबूर हो गये। इसके बाद से ही वह उत्तर भारत के शहर धर्मशाला में रह रहे हैं जो केन्द्रिय तिब्बती प्रशासन का मुख्यालय है। तिब्बत पर चीन के हमले के बाद परमपावन दलाई लामा ने संयुक्त राष्ट्र संघ से तिब्बत मुद्दे को सुलझाने की अपील की है। संयुकत राष्ट्र महासभा द्वारा इस सम्बन्ध में 1959, 1961 और 1965 में तीन प्रस्ताव किए जा चुके हैं।
हर तिब्बती परमपावन दलाई लामा के साथ गहरा व अकथनीय जुड़ाव रखता है। तिब्बतीयों के लिए परमपावन समूचे तिब्बत के भूमि के सौन्दर्य, उसकी नदियों व झीलों की पवित्रता, उसके आकाश की पुनीतता, उसके पर्वतों की दृढ़ता और उसके लोगों की ताकत के प्रतीक हैं। तिब्बत की मुक्ति के लिए अहिंसक संघर्ष जारी रखने हेतू परमपावन दलाई लामा को वर्ष 1989 में नोबेल का शान्ति पुरस्कार प्रदान किया गया। 20 अप्रैल, 1959 के टाइम पत्रिका के मुख पृष्ठ पर थे। उन्होंने लगातार अहिंसा की नीति का समर्थन करना जारी रखा है। यहाँ तक कि अत्यधिक दमन की परिस्थिति में भी। शान्ति, अहिंसा और सचेतन प्राणी की खुशी के लिए काम करना परमपावन दलाई लामा के जीवन का बुनियादी सिंद्धान्त है। वह वैश्विक पर्यावरणीय समस्याओं पर भी चिंता प्रकट करते रहते हैं। परमपावन दलाई लामा ने 52 से अधिक देशों का दौरा किया है और कई प्रमुख देशों के राष्ट्रपतियों, प्रधानमंत्रियों और शासकों से मिले हैं। उन्होंने कई धर्म के प्रमुखों और कई प्रमुख वैज्ञानिकों से मुलाकात की है।
परमपावन के शान्ति सन्देश, अहिंसा, अन्तर्धार्मिक मेलमिलाप, सार्वभौमिक उत्तरदायित्व और करूणा के विचारों को मान्यता के रूप में 1959 से अब तक उनको 60 मानद डाॅक्टरेट, पुरस्कार, सम्मान आदि प्राप्त हुए हैं। परमपावन ने 50 से अधिक पुस्तकें लिखीं हैं। परमपावन अपने आप को एक साधारण बौद्ध भिक्षु ही मानते हैं। दुनियाभर में अपनी यात्राओं और व्याख्यानों के दौरान उनका साधारण व करूणामय स्वभाव उनसे मिलने वाले हर व्यक्ति को गहराई तक प्रभावित करता है। उनका सन्देश है- प्यार, करूणा और क्षमाशीलता। 
दलाई लामा के सन्देश 
1.आज के समय की चुनौति का समाना करने के लिए मनुष्य को सार्वभौमिक उत्तरदायित्व की व्यापक भावना का विकास करना चाहिए। हम सबको यह सीखने की जरूरत है कि हम न केवल अपने लिए कार्य करें बल्कि पूरे मानवता के लाभ के लिए कार्य करें। मानव अस्तित्व की वास्तविक कुंजी सार्वभौमिक उत्तरदायित्व ही है। यह विश्व शान्ति, प्राकृतिक संसाधनों के समवितरण और भविष्य की पीढ़ी के हितों के लिए पर्यावरण की उचित देखभाल का सबसे अच्छा आधार है।
2.मेरा धर्म साधारण है, मेरा धर्म दयालुता है।
3.अपने पर्यावरण की रक्षा हमें उसी तरह से करना चाहिए जैसा कि हम अपने घोड़ों की करते हैं। हम मनुष्य, प्रकृति से ही जन्में हैं इसलिए हमारा प्रकृति के खिलाफ जाने का कोई कारण नहीं बनता। हम प्रकृति से विफर जाते हैं तो हम जिन्दा नहीं रह सकते।
4.एक शरणार्थी के रूप में हम तिब्बती लोग भारत के लोगों के प्रति हमेशा कृतज्ञता महसूस करते हैं, न केवल इसलिए कि भारत ने तिब्बतीयों की इस पीढ़ी को सहायता और शरण दिया है, बल्कि इसलिए भी कई पीढ़ीयों से तिब्बती लोगों ने इस देश से पथ प्रकाश और बुद्धिमता प्राप्त की है। इसलिए हम हमेशा भारत के प्रति आभारी रहते हैं। यदि सांस्कृतिक नजरिये से देखा जाये तो हम भारतीय संस्कृति के अनुयायी हैं।
5.हम चीनी लोगों या चीनी नेताओं के विरूद्ध नहीं हैं आखिर वे भी एक मनुष्य के रूप में हमारे भाई-बहन हैं। यदि उन्हें खुद निर्णय लेने की स्वतन्त्रता होती तो वे खुद को इस प्रकार की विनाशक गतिविधि में नहीं लगाते या ऐसा कोई काम नहीं करते जिससे उनकी बदनामी होती हो। मैं उनके लिए करूणा की भावना रखता हूँ।

”दार्शनिक आधार पर चर्चा करने से ही अलगाव बढ़ता है। जब तक व्यावहारिक रूप में धार्मिकता के आधार पर विचारों का सामंजस्य नहीं स्थापित होगा, तब तक हम ऊपर नहीं उठ सकते। दार्शनिक दृष्टि से धर्म में अन्तर होता है लेकिन धार्मिक दृष्टि से नहीं। नई सदी में कार्यो को संपादित करने वाले आप (नये पीढ़ी से) ही है, पुरानी पीढ़ी आपके पीछे है लेकिन सारा दायित्व आप के ऊपर ही है इसलिए पहले अच्छी तरह से शिक्षा ग्रहण करें।“(वाराणसी यात्रा में)
- दलाईलामा, तिब्बति धर्म गुरू 
साभार - अमर उजाला, इलाहाबाद दि0 18-12-1999

श्री लव कुश सिंह ”विश्वमानव“ द्वारा स्पष्टीकरण 
”कर्मवेदः प्रथम, अन्तिम तथा पंचमवेदीय श्रृंखला अर्थात् विश्वमानक शून्यः मन की गुणवत्ता का विश्वमानक श्रंृखला व्यावहारिकता पर आधारित ज्ञान-कर्मज्ञान का शास्त्र-साहित्य है। कई जन्मों और लम्बे प्रक्रिया के फलस्वरूप अब धर्म तो विवादमुक्त स्वरूप को प्राप्त कर सांमजस्य स्थापित कर चुका है। अब उसकी स्थापना के लिए पुरानी पीढ़ी सहयोग करें। आपने आने वाली पीढ़ी को दायित्व सौपा है और दायित्व पूर्ण भी किया गया परन्तु पुरानी पीढ़ी पीछे नहीं आगे रहना चाहती है। यह जानते हुये, देखते हुये, समझते हुये कि सदा से भारत का कल्याण युवाओं ने ही किया है परन्तु प्रत्येक समय पुरानी पीढ़ी ही निष्क्रीयता और बाधा रूप में खड़ी रहती है। अगर ऐसा नहीं है तो पुरानी पीढ़ी इस नये सार्वभौम सत्य-सिद्धान्त, वेद, व्यवस्था को अपने अहंकार को समाप्त कर स्वीकार करें, स्वागत करें, स्थापित करें, क्योंकि क्रियान्वयन पदों पर पुरानी पीढ़ी ही पीठासीन है। कर्मज्ञान का दान तो प्रारम्भ हो चुका है और यही संसाधन युक्त भारत के तीव्र विकास में बाधक था। नई पीढ़ी तो बहुत कुछ कर सकती है परन्तु वह कैसे करे? युवाओें को मत द्वारा विचार व्यक्त करने का अधिकार तो 18 वर्ष की उम्र में ही दे दिया परन्तु पैतृक सम्पत्ति का अधिकार किस उम्र में प्राप्त होगा? अब कर्मज्ञान प्राप्त होने से प्रत्येक ही संसाधन की आवश्यकता समझेगा। ध्यान रहे कर्मज्ञान से कृष्ण का निर्माण होता है तो परिणाम कौन भुगतेगा?“
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”पश्चिम जगत ने भौतिक जगत की सुख-सुविधाओं के लिए विश्व को बहुत कुछ दिया है। अब हमारी बारी है। उन्हें इसके एवज में कुछ चुकाने का समय है। हम उन्हें शान्ति व जीवन के लक्ष्य बारे में ज्ञान दें।“ (वाराणसी यात्रा में) - दलाईलामा, तिब्बति धर्म गुरू 
साभार - दैनिक जागरण, वाराणसी, दि0 15-01-2011

श्री लव कुश सिंह ”विश्वमानव“ द्वारा स्पष्टीकरण
पश्चिम जगत बहिर्मुखी है, पूर्वी जगत अन्तर्मुखी है। पश्चिम ने पदार्थ विज्ञान दिया तो पूर्वी जगत ने आध्यात्म विज्ञान दिया। अब दोनों के समन्वय और एकीकरण का समय आ गया है जिससे एक नये विश्व का निर्माण हो। जिसके लिए विश्वधर्म के शास्त्र - विश्वशास्त्र का आविष्कार हो चुका है। जिसका लक्ष्य ही शान्ति, जीवन का लक्ष्य, कर्मज्ञान, मानक आधारित विश्व इत्यादि है।
विश्वशास्त्र की शिक्षा ही सत्य मानक शिक्षा है जो निम्ननिखित पाठ्यक्रम के रूप में छात्रवृत्ति के साथ संचालित है।
1. पूर्ण ज्ञान में प्रमाण पत्र (Certificate in Complete Knowledge-CCK)
2. ईश्वर शास्त्र व व्यापार ज्ञान में प्रमाण पत्र (Certificate in Godics & Business Knowledge-CGBK)
3. अवतार ज्ञान में प्रमाण पत्र (Certificate in Avatar Knowledge-CAK)
4. गुरू ज्ञान में प्रमाण पत्र (Certificate in Guru Knowledge-CGK)
5. संस्थागत धर्म में डिप्लोमा (Diploma in Institutional Religion-DIR)
6. पूर्ण शिक्षा में स्नातक (Bachelor in Complete Education-BCE)
7. पूर्ण शिक्षा में परास्नातक (Master in Complete Education-MCE)
हमेशा यूरोप से सामाजिक तथा एशिया से आध्यात्मिक शक्तियों का उद्भव होता रहा है एवं इन दोनों शक्तियों के विभिन्न प्रकार के सम्मिश्रण से ही जगत का इतिहास बना है। वर्तमान मानवेतिहास का एक और नवीन पृष्ठ धीरे-धीरे विकसित हो रहा है एवं चारो ओर उसी का चिन्ह दिखाई दे रहा है। कितनी ही नवीन योजनाओं का उद्भव तथा नाश होगा, किन्तु योग्यतम वस्तु की प्रतिष्ठा सुनिश्चित है- सत्य और शिव की अपेक्षा योग्यतम वस्तु और हो ही क्या सकती है? (1प 310) - स्वामी विवेकानन्द
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”शून्य आत्मसात् करने से बोधिसत्व की प्राप्ति सम्भव“ (वाराणसी यात्रा में)
- दलाईलामा, तिब्बति धर्म गुरू 
साभार - दैनिक जागरण, वाराणसी, दि0 17-01-2011

श्री लव कुश सिंह ”विश्वमानव“ द्वारा स्पष्टीकरण
शून्य, आत्मसात् करने से ही बोधिसत्व की प्राप्ति होती है। सत्य है। हमें उस शून्य का अनुभव करना पड़ेगा जहाँ से समस्त ब्रह्माण्ड बहिर्गत है। उस शून्य को आत्मसात् व बोधिसत्व के प्राप्ति से ही निम्न आविष्कार सम्भव हो सका है-
सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में व्याप्त एक ही सत्य-सिद्धान्त द्वारा व्यक्तिगत व संयुक्त मन को एकमुखी कर सर्वोच्च, मूल और अन्तिम स्तर पर स्थापित करने के लिए शून्य पर अन्तिम आविष्कार WS-0 श्रृंखला की निम्नलिखित पाँच शाखाएँ है। 
1. डब्ल्यू.एस. (WS)-0 : विचार एवम् साहित्य का विश्वमानक
2. डब्ल्यू.एस. (WS)-00 : विषय एवम् विशेषज्ञों की परिभाषा का विश्वमानक
3. डब्ल्यू.एस. (WS)-000 : ब्रह्माण्ड (सूक्ष्म एवम् स्थूल) के प्रबन्ध और क्रियाकलाप का विश्वमानक
4. डब्ल्यू.एस. (WS)-0000 : मानव (सूक्ष्म तथा स्थूल) के प्रबन्ध और क्रियाकलाप का विश्वमानक
5. डब्ल्यू.एस. (WS)-00000 : उपासना और उपासना स्थल का विश्वमानक
और पूर्णमानव निर्माण की तकनीकी WCM-TLM-SHYAM.C है। 
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”भारत में आध्यात्मिकता का बोलबाला हजारों सालों से है इसके बावजूद भी यहाँ किसी भी धर्म को छुये बिना नैतिक मूल्यों की शिक्षा धर्म निरपेक्ष रूप से विकसित हुई है। यह आधुनिक युग में विश्व को भारत की सबसे बड़ी देन है। आज विश्व को ऐसे ही धर्मनिरपेक्ष नैतिक मूल्यों की शिक्षा की सख्त जरूरत है। बीसवीं सदी रक्तपात की सदी थी। 21वीं सदी संवाद की सदी होनी चाहिए। इससे कई समस्यायें अपने आप समाप्त हो जाती है। दुनिया में ऐसे लोगों की संख्या बहुत अधिक है जो किसी धर्म में विश्वास नहीं करते हैं इसलिए यह जरूरी है कि सेक्यूलर इथिक्स (धर्मनिरपेक्ष नैतिकता) को प्रमोट (बढ़ाना) करें जो वास्तविक और प्रैक्टिकल एप्रोच (व्यावहारिक) पर आधारित हो। धार्मिक कर्मकाण्डों के प्रति दिखावे का कोई मतलब नहीं है। आधुनिक शिक्षा व्यवस्था में मानव मूल्यों का अभाव है। यह सिर्फ मस्तिष्क के विकास पर जोर देती है। हृदय की विशालता पर नहीं। करूणा तभी आयेगी जब दिल बड़ा होगा। दुनिया के कई देशों ने इस पर ध्यान दिया है। कई विश्वविद्यालयों में इस पर प्रोजेक्ट चल रहा है।“ (सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय, वाराणसी में ”21वीं सदी में शिक्षा“ विषय पर बोलते हुये। इस कार्यक्रम में केंन्द्रीय तिब्बती अघ्ययन विश्वविद्यालय, सारनाथ, वाराणसी के कुलपति पद्मश्री गेशे नवांग समतेन, पद्मश्री प्रो.रामशंकर त्रिपाठी, महात्मा गाँधी काशी विद्यापीठ, वाराणसी के कुलपति प्रो. अवधराम, दीन दयाल उपाध्याय विश्वविद्यालय, गोरखपुर के पूर्व कुलपति प्रो. वेणी माधव शुक्ल, सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय, वाराणसी के पूर्व कुलपति प्रो. अभिराज राजेन्द्र मिश्र और वर्तमान कुलपति प्रो. वी.कुटुम्ब शास्त्री, प्रति कुलपति प्रो.नरेन्द्र देव पाण्डेय, प्रो. रमेश कुमार द्विवेदी, प्रो. यदुनाथ दूबे इत्यादि उपस्थित थे।)
- दलाईलामा, तिब्बति धर्म गुरू
साभार - दैनिक जागरण व हिन्दुस्तान, वाराणसी, दि0 18-01-2011

श्री लव कुश सिंह ”विश्वमानव“ द्वारा स्पष्टीकरण 
जब सभी सम्प्रदायों को धर्म मानकर हम एकत्व की खोज करते हैं तब दो भाव उत्पन्न होते हैं। पहला-यह कि सभी धर्मों को समान दृष्टि से देखें तब उस एकत्व का नाम सर्वधर्मसमभाव होता है। दूसरा-यह कि सभी धर्मों को छोड़कर उस एकत्व को देखें तब उसका नाम धर्म निरपेक्ष होता है। जब सभी सम्प्रदायों को सम्प्रदाय की दृष्टि से देखते हैं तब एक ही भाव उत्पन्न होता है और उस एकत्व का नाम धर्म होता है। इन सभी भावों में हम सभी उस एकत्व के ही विभिन्न नामों के कारण विवाद करते हैं अर्थात् सर्वधर्मसमभाव, धर्मनिरपेक्ष एवं धर्म विभिन्न मार्गों से भिन्न-भिन्न नाम के द्वारा उसी एकत्व की अभिव्यक्ति है। दूसरे रुप में हम सभी सामान्य अवस्था में दो विषयों पर नहीं सोचते, पहला- वह जिसे हम जानते नहीं, दूसरा- वह जिसे हम पूर्ण रुप से जान जाते हैं। यदि हम नहीं जानते तो उसे धर्मनिरपेक्ष या सर्वधर्मसमभाव कहते हैं जब जान जाते हैं तो धर्म कहते हैं। इस प्रकार आई0 एस0 ओ0/डब्ल्यू0 एस0- शून्य श्रृंखला उसी एकत्व का धर्मनिरपेक्ष एवं सर्वधर्मसमभाव नाम तथा कर्मवेद: प्रथम, अन्तिम तथा पंचमवेदीय श्रृंखला उसी एकत्व का धर्मयुक्त नाम है तथा इन समस्त कार्यों को सम्पादित करने के लिए जिस शरीर का प्रयोग किया जा रहा है उसका धर्मयुक्त नाम-लव कुश सिंह है तथा धर्मनिरपेक्ष एवं सर्वधर्मसमभाव सहित मन स्तर का नाम विश्वमानव है जब कि मैं (आत्मा) इन सभी नामों से मुक्त है।
आविष्कारक के आविष्कार के उपरान्त आविष्कार विषय का उपयोग ही मानव का कत्र्तव्य है। विश्वधर्म के अनुसार यह आविष्कार विषय ही सेक्यूलर इथिक्स (धर्मनिरपेक्ष नैतिकता), वास्तविक और प्रैक्टिकल एप्रोच (व्यावहारिक) है। जिस पर ही आधारित है मेरा निम्नलिखित आविष्कार-
सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में व्याप्त एक ही सत्य-सिद्धान्त द्वारा व्यक्तिगत व संयुक्त मन को एकमुखी कर सर्वोच्च, मूल और अन्तिम स्तर पर स्थापित करने के लिए शून्य पर अन्तिम आविष्कार WS-0 श्रृंखला की निम्नलिखित पाँच शाखाएँ है। 
1. डब्ल्यू.एस. (WS)-0 : विचार एवम् साहित्य का विश्वमानक
2. डब्ल्यू.एस. (WS)-00 : विषय एवम् विशेषज्ञों की परिभाषा का विश्वमानक
3. डब्ल्यू.एस. (WS)-000 : ब्रह्माण्ड (सूक्ष्म एवम् स्थूल) के प्रबन्ध और क्रियाकलाप का विश्वमानक
4. डब्ल्यू.एस. (WS)-0000 : मानव (सूक्ष्म तथा स्थूल) के प्रबन्ध और क्रियाकलाप का विश्वमानक
5. डब्ल्यू.एस. (WS)-00000 : उपासना और उपासना स्थल का विश्वमानक
और पूर्णमानव निर्माण की तकनीकी WCM-TLM-SHYAM.C है। 

काल प्रवाह में सुसंगत परिवर्तन लाने के लक्ष्य को प्राप्त करना ऐसा आसान कार्य नहीं है जो इने गिने मुट्ठी भर उत्साही लोगों द्वारा चन्द दिनों में किया जा सके। यह कार्य लाखों लोगों के युग-युगान्तर तक किये गये साग्रह एवं निष्ठापूर्ण प्रयास द्वारा ही सम्भव है। इसके लिए हमारी शिक्षा पद्धति को पुनर्गठित करना होगा जिससे मानव के विचारों, आदर्शों एवं कार्यों को नई दिशा प्रदान की जा सके।
  - स्वामी विवेकानन्द


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