श्रीमती प्रतिभा पाटिल (19 दिसम्बर, 1934 - )
परिचय -
महाराष्ट्र के जलगाँव जिले में 19 दिसम्बर, 1934 को जन्मी प्रतिभा देवी सिंह पाटिल (उपनाम - प्रतिभा ताई) के पिता का नाम श्री नारायण राव थ। साड़ी और बड़ी सी बिंदी लगाने वाली यह साधारण पहनावें वाली महिला राजनीति में आने से पहले सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में कार्य कर रही थी। उन्होंने जलगाँव के मूलजी जैठा कालेज से स्नातकोत्तर (एम.ए.) और मुम्बई के गवर्नमेन्ट लाॅ कालेज से कानून की पढ़ाई की। वे टेबल टेनिस की अच्छी खिलाड़ी थीं तथा उन्होंने कई अन्तर्विद्यालयी प्रतियोगिताओं में विजय प्राप्त की। 1962 में वे एम.जे.कालेज में कालेज क्वीन चुनी गयीं। उसी वर्ष उन्होंने एदलाबाद क्षेत्र से विधानसभा के चुनाव में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के टिकट पर विजय प्राप्त की। उनका विवाह शिक्षाविद् देवीसिंह रणसिंह शेखावत के साथ 7 जुलाई, 1965 को हुआ। उनकी एक पुत्री तथा एक पुत्र हैं। श्री शेखावत के पूर्वज राजस्थान के सीकर जिले के थे और बाद जलगाँव महाराष्ट्र जाकर बस गये थे। उन्होंने महिलाओं के कल्याण के लिए कार्य किया और मुम्बई-दिल्ली में कामकाजी महिलाओं के लिए छात्रावास, ग्रामीण युवाओं के लाभ हेतू जलगाँव में इंजिनियरिंग कालेज के अलावा श्रम साधना न्यास की स्थापना की। श्रीमती पाटिल ने महिला विकास महामण्डल, जलगाँव में दष्टिहीन व्यक्तियों के लिए औ़द्योगिक प्रशिक्षण विद्यालय और विमुक्त जातियों तथा बंजारा जनजातियों के निर्धन बच्चों के लिए एक स्कूल की स्थापना की। श्रीमती प्रतिभा पाटिल ने अनेक यात्राएँ की है- इन्टरनेशनल काउसिंल आॅफ सोशल वेलफेयर कान्फ्रेन्स, नैरोबी और पोर्ट रीको में भाग लिया। उन्होंने 1985 में इस सम्मेलन में शिष्टमण्डल के सदस्य के रूप में बुल्गारिया में, महिलाओं की स्थिति पर आॅस्ट्रिया सम्मेलन में शिष्टमण्डल की अध्यक्ष के रूप में, लंदन में 1988 के दौरान आयोजित राष्ट्रमण्डलीय अधिकारी सम्मेलन में, चीन के बीजिंग शहर में विश्व महिला सम्मेलन में भाग लिया। श्रीमती प्रतिभा पाटिल की विशेष रूचि ग्रामीण अर्थव्यवस्था के विकास और महिलाओं के कल्याण में है। श्रीमती प्रतिभा पाटिल ने जलगाँव जिले में महिला होमगार्ड का आयोजन किया और 1962 में उनकी कमाण्डेन्ट थी। वे राष्ट्रीय शहरी बैंक और ऋण संस्थाओं की उपाध्यक्ष रहीं तथा बीस सूत्रीय कार्यक्रम कार्यान्वयन समिति, महाराष्ट्र की अध्यक्षा थीं। श्रीमती प्रतिभा पाटिल ने अमरावती में दृष्टिहीनों के लिए एक औद्योगिक प्रशिक्षण विद्यालय, निर्धन और जरूरतमन्द महिलाओं के लिए सिलाई कक्षाओं, पिछड़े वर्गो और अन्य पिछड़े वर्गो के बच्चों के लिए नर्सरी स्कूल खोल कर उल्लेखनीय योगदान दिया तथा किसान विज्ञान केन्द्र, अमरावती में किसानों को फसल उगाने की नई एवं वैज्ञानिक तकनीकें सिखाने, संगीत और कम्प्यूटर की कक्षाएँ आयोजित की। श्रीमती प्रतिभा पाटिल ने 27 वर्ष की अवस्था में 1962 में राजनीतिक जीवन का प्रारम्भ कांग्रेस के वरिष्ठ नेता और महाराष्ट्र के भूतपूर्व मुख्यमंत्री यंशवंत राव चैहान की देखरेख में प्रारम्भ किया। 1962 से 1985 तक वे पाँच बार विधानसभा की सदस्य रहीं। इस दौरान वर्ष 1967 से 1972 तक वह महाराष्ट्र सरकार में राज्यमंत्री और 1972 से 1978 तक कैबिनेट मंत्री रहीं। इस अवधि में वे सार्वजनिक स्वास्थ्य, निषेध, पर्यटन, आवास और संसदीय कार्य इत्यादि मंत्रालयी कार्य सम्भाला। 1985 में वे राज्यसभा पहुँची और 1986 में राज्यसभा की उप सभापति बनीं। 18 नवम्बर, 1986 से 5 नवम्बर, 1988 तक वे सभापति, राज्यसभा भी रहीं। 1989 से 1990 में वे महाराष्ट्र प्रदेश कांग्रेस की प्रमुख बनीं। उन्हें वर्ष 1991 में दसवीं लोकसभा के लिए निर्वाचित किया गया और उन्होंने 1991 में अध्यक्षा, सदन समिति, लोकसभा के रूप में भी कार्य किया। श्रीमती प्रतिभा पाटिल को 8 नवम्बर, 2004 को राजस्थान का राज्यपाल के रूप में नियुक्त किया गया। उन्होंने भारत के राष्ट्रपति पद के लिए 22 जून, 2007 को राज्यपाल के पद से इस्तीफा दे दिया। वे 13वीं राष्ट्रपति के रूप में स्वतन्त्र भारत के 60 वर्ष के इतिहास में पहली महिला राष्ट्रपति हैं। उन्होंने 25 जुलाई, 2007 को संसद के सेन्ट्रल हाल में राष्ट्रपति पद की शपथ ली।
”विज्ञान व आध्यात्म में काफी समानताएं हैं और दोनों के लिए अनुशासन सबसे ज्यादा जरूरी है। इन दोनों का मानव के विकास में भारी योगदान है। जब तक ये एक साथ मिलकर काम नहीं करेंगें उनका पूरा लाभ हासिल नहीं किया जा सकता। विश्वविद्यालय समाज के लिए उपयोगी अनुसंधान पर जोर दें ताकि उनका लाभ जनता व देश को हो। ज्ञान के लिए शिक्षा अर्जित की जानी चाहिए और देश के युवाओं के विकास के लिए शिक्षा पद्धति में समग्र दृष्टिकोण अपनाया जाना जरूरी है। इसका मकसद युवाओं को बौद्धिक और तकनीकी दृष्टि से सक्षम बनाना होना चाहिए।“ (विज्ञान व आध्यात्मिक खोज पर राष्ट्रीय सम्मेलन, नई दिल्ली के उद्घाटन में बोलते हुए) - श्रीमती प्रतिभा पाटिल
साभार - हिन्दुस्तान, वाराणसी, दि0 13 मार्च, 2011
”भारत पूरी दुनिया को शान्ति की राह दिखाने में संक्षम है। शस्त्र विध्वंशकारी होता है तो शास्त्र पशुता से मानवतावाद की ओर ले जाता है। आज आवश्यकता केवल शिक्षित होने की नहीं बल्कि सुशिक्षित हाने की है। केवल भौतिक विकास को सर्वांगिण विकास नहीं कहा जा सकता । भारत की प्रकृति व यहाँ के ज्ञान के खजाने को ढूढ़ने में पूरी दुनिया लगी है। हमसे दुनियाँ ने बहुत कंुछ सिखा है। आज भी उसे शान्ति का रास्ता भारत ही दिखा सकता है।“
- श्रीमती प्रतिभा पाटिल
साभार - दैनिक जागरण, वाराणसी, दि0 2 मार्च, 2015
श्री लव कुश सिंह ”विश्वमानव“ द्वारा स्पष्टीकरण
स्वामी विवेकानन्द जी की वाणी है-
यदि हम अपने व्यक्तिगत एवं सामूहिक जीवन में वैज्ञानिक चेतना सम्पन्न एवं आध्यात्मिक एक साथ न हो पाए, तो मानवजाति का अर्थपूर्ण अस्तित्व ही संशय का विषय हो जाएगा। - स्वामी विवेकानन्द
धर्म तात्त्विक (आध्यात्मिक) जगत के सत्यों से उसी प्रकार सम्बन्धित है, जिस प्रकार रसायन शास्त्र तथा दूसरे भौतिक विज्ञान भौतिक जगत के सत्यों से। रसायन शास्त्र पढ़ने के लिए प्रकृति की पुस्तक पढ़ने की आवश्यकता है। धर्म की शिक्षाप्राप्त करने के लिए तुम्हारी पुस्तक अपनी बुद्धि तथा हृदय है। सन्त लोग प्रायः भौतिक विज्ञान से अनभिज्ञ ही रहते हैं। क्योंकि वे एक भिन्न पुस्तक अर्थात् आन्तरिक पुस्तक पढ़ा करते हैं; और वैज्ञानिक लोग भी प्रायः धर्म के विषय में अनभिज्ञ ही रहते हैं क्योंकि वे भी भिन्न पुस्तक अर्थात् वाह्य पुस्तक पढ़ने वाले हैं। - स्वामी विवेकानन्द
विज्ञान एकत्व की खोज के सिवा और कुछ नहीं है। ज्योंही कोई विज्ञान शास्त्र पूर्ण एकता तक पहुँच जायेगा, त्योंहीं उसका आगे बढ़ना रुक जायेगा क्योंकि तब तो वह अपने लक्ष्य को प्राप्त कर चुकेगा। उदाहरणार्थ रसायनशास्त्र यदि एक बार उस एक मूल द्रव्य का पता लगा ले, जिससे वह सब द्रव्य बन सकते हैं तो फिर वह और आगे नहीं बढ़ सकेगा। पदार्थ विज्ञान शास्त्र जब उस एक मूल शक्ति का पता लगा लेगा जिससे अन्य शक्तियां बाहर निकली हैं तब वह पूर्णता पर पहुँच जायेगा। वैसे ही धर्म शास्त्र भी उस समय पूर्णता को प्राप्त हो जायेगा जब वह उस मूल कारण को जान लेगा। जो इस मत्र्यलोक में एक मात्र अमृत स्वरुप है जो इस नित्य परिवर्तनशील जगत का एक मात्र अटल अचल आधार है जो एक मात्र परमात्मा है और अन्य सब आत्माएं जिसके प्रतिबिम्ब स्वरुप हैं। इस प्रकार अनेकेश्वरवाद, द्वैतवाद आदि में से होते हुए इस अद्वैतवाद की प्राप्ति होती है। धर्मशास्त्र इससे आगे नहीं जा सकता। यहीं सारे विज्ञानों का चरम लक्ष्य है।
- स्वामी विवेकानन्द
किसी भाषा के शब्दों से अपने विचार को लिखित रूप से प्रस्तुत करने वाले चरित्र को लेखक कहते हैं। एक लेखक शब्दों को एक सही क्रम में रखकर कुछ अर्थ और समझ को व्यक्त करने वाला कलाकार होता है।
जिस प्रकार लोग आत्मा की महत्ता को न समझकर शरीर को ही महत्व देते हैं उसी प्रकार लोग भले ही पढ़कर ही विकास कर रहें हो परन्तु वे शास्त्राकार लेखक की महत्ता को स्वीकार नहीं करते। जबकि वर्तमान समय में चाहे जिस विषय में हो प्रत्येक विकास कर रहे व्यक्ति के पीछे शास्त्राकार, लेखक, आविष्कारक, दार्शनिक की ही शक्ति है जिस प्रकार शरीर के पीछे आत्मा की शक्ति है। सदैव मानव समाज को एकात्म करने के लिए शास्त्र-साहित्य की रचना करना लेखक का काम रहा है। वही सत्य अर्थो में सभी से अभिनय करवाता है क्योंकि मनुष्य का चरित्र वही है जो उसका विचार है। और सभी विचारों को समाज में फैलाने वाला शास्त्राकार, लेखक ही है।
एक लेखक, शास्त्राकार नहीं हो सकता लेकिन एक शास्त्राकार, लेखक हो सकता है क्योंकि एक लेखक, लेखन की कला को जानता है। यदि उसे शास्त्राकार बनना है तो उसे अपने मन को ऊँचाई को समग्रता, सार्वभौमिकता की ओर ले जाना पड़ेगा। सामान्य रूप में एक लेखक विशेषीकृत विषय का लेखक होता है तो शास्त्राकार समग्रता, सार्वभौमिकता को धारण किया हुआ एकात्मता को विकसित करने के लिए लिखता है। दोनों में अन्तर मात्र मन की ऊँचाई का होता है। एक लेखक नीचे का पायदान है तो शास्त्राकार उसका सर्वोच्च मानक है।
जो लेखक शब्दों का जितना व्यापक कलाकार होगा जिससे समझ विकसित हो वह उतना ही लम्बे समय तक याद किया जाने वाला लेखक बनता है।
आपके विचार पूर्ण सत्य हैं और वो सब आविष्कृत किया जा चुका है।
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