धर्म और योग
01. धर्म-विज्ञान
01. धर्म मनुष्य के भीतर से ही उत्पन्न है, वह बाहर की किसी वस्तु से उत्पन्न नहीं है। हमारा विश्वास है, धर्म चिन्तन मनुष्य के पक्ष में प्रकृतिगत है; वह मनुष्य के स्वभाव के सहित ऐसे अविच्छिन्न भाव से जड़ित है कि जब तक मनुष्य अपनी देह तथा मन का त्याग नहीं कर पाता, जब तक वह चिन्ता और जीवन त्याग नहीं कर पाता, तब तक उसके लिए धर्मत्याग असम्भव है। (धर्म-विज्ञान, पृष्ठ-2)
02. वर्तमान काल में सब प्रश्नों में से प्रधान प्रश्न यह है-माना-ज्ञात और ज्ञेय के दोनों ओर अज्ञेय और अनन्त अज्ञात विद्यमान है-किन्तु इस अनन्त अज्ञात को जानने का यत्न क्या है? क्यों हम ज्ञात को लेकर ही सन्तुष्ट नहीं होते? क्यों हम भोजन, पान और समाज का कुछ कल्याण करके ही सन्तुष्ट नहीं रहते? आजकल सुनते रहते हैं-जगत का उपकार करो-यही एक मात्र धर्म है, जगत् से अतीत सत्ता की समस्या लेकर अस्थिर होने का कोई फल नहीं है। यह भाव आजकल इतना अधिक प्रबल हो गया है कि यह एक स्वतः सिद्ध सत्य के रूप में उपस्थित है। (धर्म-विज्ञान, पृष्ठ-3)
03. यदि मनुष्य वर्तमान लेकर सन्तुष्ट रहे और जगदातीत सत्ता के समस्त अनुसन्धान का एकदम परित्याग कर दे, तो मानव जाति को पशु की भूमि में फिर से आना होगा। धर्म-जगदातीत सत्ता का अनुसन्धान ही-मनुष्य और पशु में प्रभेद बनाये रखता है। (धर्म-विज्ञान, पृष्ठ-4)
04. अब प्रश्न आता है, धर्म के द्वारा क्या वास्तव में कोई फल होता है? हाँ होता है। उससे मानव अनन्त जीवन प्राप्त करता है! मनुष्य वर्तमान में जो है, वह इस धर्म की ही शक्ति से हुआ है, और इससे ही यह मनुष्य नामक प्राणी देवता बनेगा। धर्म यही करने में समर्थ है। (धर्म-विज्ञान, पृष्ठ-6)
05. प्रश्न है-हमारा चरम लक्ष्य क्या है? जहाँ से हमने आरम्भ किया है, वहीं अवश्य ही अन्त करना होगा; और जब ईश्वर से आपकी गति आरम्भ हुई है, तब ईश्वर में ही अवश्य फिर लौटना होगा। (धर्म-विज्ञान, पृष्ठ-7)
06. एक और प्रश्न आता है-हम उन्नति पथ में अग्रसर होते होते क्या धर्म के नये सत्य का अविष्कार नहीं करेंगे? हाँ भी, नहीं भी। प्रथमतः यह समझना होगा कि धर्म के सम्बन्ध में अधिक और कुछ जानने को नहीं है, सभी कुछ जाना जा चुका है। जगत् के सभी धर्म में, आप देखियेगा कि उस धर्म के अवलम्बनकारी सदैव कहते हैं, हमारे भीतर एक एकत्व है। अतएव ईश्वर के सहित आत्मा के एकत्व-ज्ञान की अपेक्षा और अधिक उन्नति नहीं हो सकती। ज्ञान का अर्थ इस एकत्व का अविष्कार ही है। हम आप सब को नर-नारी रूप में पृथक् देखते हैं-यही बहुत्व है। (धर्म-विज्ञान, पृष्ठ-7)
07. “ईश्वर को जब तक आप नहीं जान लेते, तब तक मनुष्य को किस प्रकार जानियेगा?“-ये ईश्वर, यही अनन्त, अज्ञात या निरपेक्ष सत्ता या अनन्त या नामातीत वस्तु-उन्हें जिस नाम से इच्छा हो, उसी नाम से पुकारा जाता है-ये ही वर्तमान जीवन के, जो कुछ ज्ञात है और जो कुछ ज्ञेय है, सब के ही एकमात्र युक्तियुक्त व्याख्यास्वरूप है। चाहे जिस वस्तु की बात-सम्पूर्ण जड़ वस्तु की कोई बात लीजिए। केवल जड़तत्त्व सम्बन्धी विज्ञान में से कोई भी एक, जैसे-रसायन, पदार्थ विद्या, गणित, ज्योतिष या प्राणितत्व विद्या की बात लीजिये-उसकी विशेष रूप से आलोचना कीजिये, क्रमशः यह तत्वानुसन्धान अग्रसर हो, देखियेगा-स्थूल क्रमशः सूक्ष्म, अतिसूक्ष्म पदार्थ में लय हो रहा है-अन्त में आपको ऐसे स्थान में आना होगा, जहाँ इन सब जड़ वस्तुओं को छोड़कर इन्हें अतिक्रमण करके अर्थात् फाँदकर अजड़ में जाना ही होगा। सब विधाओं में ही स्थूल क्रमशः सूक्ष्म में मिल जाता है, पदार्थ विद्या दर्शन में पर्यवसित हो जाती है। इसी प्रकार मनुष्य को बाध्य होकर जगदातीत सत्ता की आलोचना में उतरना होता है। (धर्म-विज्ञान, पृष्ठ-3)
08. यह बात कहने में अच्छी है कि वर्तमान में जो देख रहे हो वह सब लेकर ही तृप्त रहो; गाय, कुत्ते और अन्यान्य पशुगण इसी प्रकार वर्तमान के द्वारा ही सन्तुष्ट हैं, और इसी कारण वे पशु बने हैं। सब प्राणियों में से मनुष्य ही स्वभावतः उपर की ओर दृष्टि उठाकर देखता है। इसी उध्र्वदृष्टि ऊपर की ओर गमन और पूर्णत्व के अनुसन्धान को ही “परिमाण“ अथवा “उद्धार“ कहते हैं और ज्योंहि मनुष्य उच्चतर दिशा की ओर गमन करना प्रारम्भ करता है, त्योंहि वह इस परिमाणस्वरूप सत्य की धारणा की दिशा में अपने को अग्रसर करता है। परिमाण-अर्थ, वेशभूषा अथवा घर पर निर्भर नहीं करता, यह मानव मस्तिष्क के भीतर की आध्यात्मिक भाव रत्नराशि के तारतम्य पर निर्भर करता है। (धर्म-विज्ञान, पृष्ठ-5)
09. शिशु गुण अपनी निज की दृष्टि से अर्थात् किस वस्तु से कितनी मिठाई मिलती है, इस हिसाब से समग्र जगत् का विचार कर लेते हैं जो लोग अज्ञान से घिरे होने के कारण शिशु सदृश है, जगत् में उन सब शिशुओं का विचार भी उसी प्रकार का है। निम्न वस्तु की दृष्टि से उच्चतर वस्तु का विचार करना कदापि उचित नहीं है। प्रत्येक विषय का विचार उसकी गुरुता के हिसाब से करना होगा। अनन्त का विचार अनन्त की गुरुता के हिसाब से करना होगा। धर्म मानव जीवन का सर्वांश है-केवल वर्तमान नहीं-भूत, भविष्यत्, वर्तमान-सर्वांशव्यापी है। अतएव यह, अनन्त आत्मा और अनन्त ईश्वर के बीच अनन्त सम्बन्ध स्वरूप है। (धर्म-विज्ञान, पृष्ठ-6)
10. रासायनिक गुण सब प्रकार की ज्ञात वस्तुओं को उनके मूल धातुओं का रूप देने का यत्न कर रहे हैं। यदि इस अवस्था पर कभी वे पहुंचे, तब फिर इससे ऊपर और आगे नहीं बढ़ सकेंगे; तब रसायन विद्या सम्पूर्ण होगी। धर्म विज्ञान के सम्बन्ध में भी यही बात है। यदि हम पूर्ण एकत्व का अविष्कार कर सकें तो उससे अधिक उन्नति फिर नहीं हो सकती। (धर्म-विज्ञान, पृष्ठ-8)
11. हमारे सम्मुख दो शब्द हैं-क्षुद्र ब्रह्माण्ड और बृहत् ब्रह्माण्ड; अन्तः और बहिः हम अनुभूति के द्वारा ही इन दोनों से सत्य लाभ करते हैं; अभ्यान्तर अनुभूति और बाह्य अनुभूति। आभ्यान्तर अनुभूति के द्वारा संगृहीत सत्य समूह मनोविज्ञान, दर्शन और धर्म के नाम से परिचित हैं, और वाह्य अनुभूति से भौतिक विज्ञान की उत्पत्ति हुई है। अब बात यह है कि जो सम्पूर्ण सत्य है, उसका इन दोनों जगत् की अनुभूति के साथ समन्वय होगा। क्षुद्र ब्रह्माण्ड, बृहत् ब्रह्माण्ड के सत्यसमूह को साक्षी प्रदान करेगा, उसी प्रकार वृहत् ब्रह्माण्ड की क्षुद्र ब्रह्माण्ड के सत्य को स्वीकार करेगा। चाहे जिस विद्या में हो, प्रकृत सत्य में कभी परस्पर विरोध रह नहीं सकता, आभ्यान्तर सत्य समूह के साथ बाह्य सत्य का समन्वय है। (धर्म-विज्ञान, पृष्ठ-10)
12. अंग्रेजी में हम सब शब्द नेचर का व्यवहार करते हैं। प्राचीन हिन्दू दार्शनिकगण उसके लिए दो विभिन्न संज्ञाओं का प्रयोग करते थे; प्रथम-“प्रकृति“ और दूसरा उसकी अपेक्षा अधिक वैज्ञानिक नाम है-“अव्यक्त“-जो व्यक्त अथवा प्रकाशित अथवा भेदात्मक नहीं है-उससे ही सब पदार्थ उत्पन्न हुये है, उससे अणु-परमाणु सब आये हैं; उससे ही भूत, शक्ति, मन, बुद्धि सब आये हैं। यह अत्यन्त विस्मयकारक है कि भारतीय दार्शनिकगण अनेक युग पहले ही कह गये है कि मन सूक्ष्म जड़मात्र है। (धर्म-विज्ञान, पृष्ठ-12)
13. प्राचीन आचार्यगण ने इस अव्यक्त का लक्षण बताया है-“तीन शक्तियों की साम्यावस्था“। उनमें से एक का नाम सत्व, दूसरी का रजः और तीसरी का तमः है। तमः निम्नतम शक्ति है-आकर्षणस्वरूप रजः उसकी अपेक्षा किंचित् उच्चतर है-विकर्षणस्वरूप; तथा सर्वोच्च जो शक्ति है वह इन दोनों की संयमस्वरूप है-वहीं सत्व है। अतएव ज्योंहि ये आकर्षण और विकर्षण दोनों शक्तियां सत्त्व के द्वारा पूर्णतः संयत होती है अथवा सम्पूर्ण साम्यावस्था में रहती है, तब सृष्टि अथवा विकार का अस्तित्व नहीं रहता, किन्तु ज्योंहि यह साम्यावस्था नष्ट होती है, ज्योंहि उनका सामंजस्य नष्ट होता है और उनमें से एक शक्ति दूसरी शक्तियों की अपेक्षा प्रबलतर हो उठती है, त्योंहि परिवर्तन तथा गति का आरम्भ होता है और इन सब का परिणाम चलता रहता है। इसी प्रकार व्यापार चक्रगति से चल रहा है। (धर्म-विज्ञान, पृष्ठ-12)
14. ब्रह्माण्ड के सम्पूर्ण वाह्य भाग को-आजकल हम जिसे स्थूल जड़ कहते हैं-प्राचीन हिन्दूगण भूत कहते थे। उनके मतानुसार उनमें से एक ही, शेष सब का कारण है; क्योंकि अन्यान्य सब भूत इसी एक भूत से उत्पन्न हुए हैं। इस भूत को आकाश की संज्ञा प्राप्त है तथा उसके साथ प्राण नाम की एक और वस्तु रहती है। (धर्म-विज्ञान, पृष्ठ-14)
15. जितने दिन सृष्टि रहती है, उतने दिन में प्राण और आकाश रहते हैं। कल्पान्त में प्राण और आकाश तक उसी अनन्त पुरुष में सुप्त भाव में थे, किन्तु किसी प्रकार का व्यक्त प्रपंच नहीं था। इस अवस्था को अव्यक्त कहते हैं-उसका ठीक शब्दार्थ स्पन्दन रहित अथवा अप्रकाशित है। (धर्म-विज्ञान, पृष्ठ-15)
16. प्राण स्वयं आकाश की सहायता के अभाव में कोई काम नहीं कर पाता। यह प्राण स्वयं नहीं रह सकता अथवा किसी मध्यवर्ती के बिना काम नहीं कर सकता। -वह कभी आकाश से पृथक् नहीं रह सकता। शक्ति और भूत की अति सूक्ष्मावस्था को ही प्राचीन दार्शनिकगण ने प्राण और आकाश की संज्ञा दी है। प्राण को आप जीवनीशक्ति कह सकते हैं, किन्तु उसको केवल मनुष्य के जीवन में सीमाबद्ध करने से अथवा आत्मा के साथ अमिट समझने से भी काम नहीं चलेगा। अतएव सृष्टि प्राण और आकाश के संयोग से उत्पन्न है तथा उसका आदि भी नहीं है, अन्त भी नहीं है। (धर्म-विज्ञान, पृष्ठ-17)
17. अतः अव्यक्त प्रकृति, यह सर्वव्यापी बुद्धित्व में अथवा महत्त में परिणत होती है, यह फिर सर्वव्यापी अहंतत्व अथवा अहंकार में और यह परिणाम प्राप्त करके फिर सर्वव्यापी इन्द्रियग्राह भूत (इन्द्रिय और तन्मात्रा) में परिणत होता है। यही भूत-समष्टि इन्द्रिय अथवा केन्द्र समूह में और समष्टि सूक्ष्म परमाणु समूह में परिणत होती है। फिर इन सब के मिलने पर इस स्थूल जगत-प्रपंच की उत्पत्ति होती है। साख्य मत के अनुसार यही सृष्टि का क्रम है और बृहत् ब्रह्माण्ड में जो है, वह व्यष्टि अथवा क्षुद्र ब्रह्माण्ड में भी अवश्य रहेगा। (धर्म-विज्ञान, पृष्ठ-33)
18. सांख्यवादियों का एक मत अनन्यसाधारण है। उनके मतानुसार एक मनुष्य अथवा कोई भी एक प्राणी जिस नियम से गठित है, समग्र विश्व ब्रह्माण्ड भी ठीक उसी नियम से विरचित है। इसलिए हमारा जैसे एक मन है, उसी प्रकार एक विश्वमन भी है। (धर्म-विज्ञान, पृष्ठ-25)
19. जितने दिनों से जगत् है उतने दिनों से मन का अभाव-उस एक विश्वमन का अभाव-कभी नहीं हुआ। प्रत्येक मानव, प्रत्येक प्राणी उस विश्वमन से ही निर्मित हो रहा है, क्योंकि वह सदा ही वर्तमान हैं और उन सब के निर्माण के लिए उपादान प्रदान कर रहा है। (धर्म-विज्ञान, पृष्ठ-27)
20. जगत में प्रकृति के प्रथम विकास को सांख्य वादीगण महत् या समष्टि बुद्धि कहते हैं। इसका ठीक शब्दार्थ है-सर्वश्रेष्ठ तत्व। इसे अहंज्ञान नहीं कहा जा सकता, कहने पर भूल होगी। अहंज्ञान इस बुद्धितत्व का अंशविशेष मात्र है, परन्तु बुद्धितत्व सार्वजनिन तत्व है। अहंज्ञान, अव्यक्त ज्ञान और ज्ञानातीत अवस्था-ये सब ही उसके अन्तर्गत आते हैं। (धर्म-विज्ञान, पृष्ठ-31)
21. महत्तत्व ही उन सब परिवर्तनों का कारण है जिनके फलस्वरूप यह शरीर निर्मित हुआ है। महतत्व या समष्टि बुद्धि के भीतर ज्ञान की निम्न भूमि, साधारण ज्ञान की अवस्था और ज्ञान से अतीत अवस्था में सब ही विद्यमान है। (धर्म-विज्ञान, पृष्ठ-27)
22. ज्ञान की निन्म भूमि हम पशुओं में देखते हैं और उसे-सहजात ज्ञान कहते हैं। सहजात ज्ञान में प्रायः कभी भूल नहीं होती। एक पशु इस सहजात ज्ञान के प्रभाव से कौन सी घास खाने योग्य है, कौन सी घास विषाक्त है, यह सुविधापूर्वक समझ लेता है। (धर्म-विज्ञान, पृष्ठ-37)
23. उनके पश्चात् हमारा (मानव का) साधारण ज्ञान आता है-यह सहजात ज्ञान की अपेक्षा उच्चतर अवस्था है। हमारा साधारण ज्ञान भ्रान्तिमय है, यह पग-पग पर भ्रम में जा पड़ता है। इसे ही आप युक्ति अथवा विचारशक्ति कहते हैं। अवश्य सहजात ज्ञान की अपेक्षा उसका प्रसार अधिक दूर तक है, किन्तु सहजात ज्ञान की अपेक्षा युक्ति विचार में अधिक भ्रम की आशंका है। (धर्म-विज्ञान, पृष्ठ-37)
24. मन की और एक उच्चतर अवस्था विद्यमान है,-ज्ञानातीत अवस्था-इस अवस्था में केवल योगीगण का ही अर्थात् जिन्होंने यत्न करके इस अवस्था को प्राप्त किया है, उनका ही अधिकार है। वह सहजात ज्ञान के समक्ष भ्रान्ति से विहिन है और युक्तिविचार से भी उसका अधिक प्रसार है। वह सर्वोच्च अवस्था है। (धर्म-विज्ञान, पृष्ठ-37)
25. जिस प्रकार मनुष्य के भीतर महत् ही ज्ञान की निम्नभूमि, साधारण ज्ञानभूमि और ज्ञानातीत भूमि और ज्ञानातीत भूमि है, उसी प्रकार इस वृहत् ब्रह्माण्ड में भी यही सर्वव्यापी बुद्धितत्व अथवा महत्-सहजात ज्ञान, युक्ति विचार से उत्पन्न ज्ञान और विचार से अतीत ज्ञान, इन तीन प्रकारों से स्थित है। (धर्म-विज्ञान, पृष्ठ-38)
26. ज्ञान का अर्थ है-सदृश वस्तु के साथ उसका मिलन। कोई नया संस्कार आने पर यदि आप लोगों के मन में उसके सदृश सब संस्कार पहले से ही वर्तमान रहे, तभी आप तृप्त होते हैं, और इस मिलन अथवा सहयोग को ही ज्ञान कहते हैं। अतएव ज्ञान का अर्थ, पहले से ही हमारी जो अनुभूति-समष्टि विद्यमान है, उसके साथ और एक सजातीय अनुभूति को एक ही कोष में प्रतिष्ठित कर देना है। तथा पहले से ही आपका एक ज्ञान भण्डार न रहने पर कोई नया ज्ञान ही आपका नहीं हो सकता, यही उसका सर्वोत्तम प्रबल प्रमाण है। (धर्म-विज्ञान, पृष्ठ-38)
27. सांख्यमत के अनुसार सृष्टिवाद में सृष्टि अथवा क्रम विकास और प्रलय अथवा क्रम संकोच-ये दोनों स्वीकृत हुये हैं। सभी उसी अव्यक्त प्रकृति के क्रम विकास से उत्पन्न है, और ये सब क्रम संकुचित होकर व्यक्त आकार धारण करते हैं। सांख्य मत के अनुसार ऐसी किसी जड़ अथवा भौतिक वस्तु का अस्तित्व सम्भव नहीं है, ज्ञान का कोई अंशविशेष जिसका उपादान न हो। ज्ञान ही वह उपादान है, जिससे यह प्रपंच निर्मित हुआ है। (धर्म-विज्ञान, पृष्ठ-25)
28. कपिल का प्रधान मत है-परिणाम। वे कहते हैं, एक वस्तु दूसरी वस्तु का परिणाम अथवा विकार स्वरूप है; क्योंकि उनके मत के अनुसार कार्य-कारण भाव का लक्षण यह है कि-कार्य अन्य रूप में परिणत कारण मात्र है। (धर्म-विज्ञान, पृष्ठ-52)
29. कपिल का मत है कि समग्र ब्रह्माण्ड ही एक शरीर स्वरूप है जो कुछ हम देखते हैं, वे सब स्थूल शरीर है, उन सबके पश्चात् सूक्ष्म शरीर समूह और उनके पश्चात् समष्टि अहंतत्व, उसके भी पश्चात् समष्टि बुद्धि है। किन्तु यह सब ही प्रकृति के अन्तर्गत हैं। उसमें से जो हमारे प्रयोजन का है, हम ग्रहण कर रहे हैं; इसी प्रकार जगत के भीतर समष्टि मनस्तत्व विद्यमान है, उससे भी हम चिरकाल से प्रयोजन के अनुसार ले रहे हैं। किन्तु देह का बीज माता-पिता से प्राप्त होना चाहिए। इससे वंश की अनुक्रमणिकता और पुनर्जन्मवाद दोनों ही तत्व स्वीकृत हो जाते हैं। (धर्म-विज्ञान, पृष्ठ-25)
30. समग्र प्रकृति के पश्चात् निश्चित रूप में कोई सत्ता है, जिसका आलोक उन पर पड़कर महत्, अहंज्ञान और यह सब नाना वस्तुओं के रूप में प्रतीत हो रहा है। और इस सत्ता को ही कपिल पुरुष अथवा आत्मा कहते है। वेदान्ती भी उसे आत्मा कहते हैं। कपिल के मत के अनुसार पुरुष अमिश्र पदार्थ है। वह यौगिक पदार्थ नहीं है। वही एकमात्र व जड़ पदार्थ है और सब प्रपंच-विकार ही जड़ है। पुरुष ही एकमात्र ज्ञाता है। (धर्म-विज्ञान, पृष्ठ-52)
31. समस्त प्रकृति आत्मा के भोग अथवा अभिज्ञता का संचय करने के लिए काम करती जा रही है, और आत्मा उसी चरम लक्ष्य में जाने के लिए यह अभिज्ञता संचय कर रही है तथा मुक्ति ही यह चरम लक्ष्य है। सांख्य दर्शन के मत के अनुसार इस आत्मा की संख्या बहुत है। अनन्त संख्यक आत्माएं विद्यमान है। उसका और एक सिद्धान्त यह है कि “ईश्वर नहीं है“, जगत् का सृष्टिकर्ता कोई नहीं है। सांख्यवादी कहते हैं प्रकृति ही जब इन सब विभिन्न रूपों का सृजन करने में समर्थ है तब ईश्वर स्वीकार करने का प्रयोजन नहीं है। (धर्म-विज्ञान, पृष्ठ-55)
32. साख्य दर्शन सब आत्माओं के एकत्व के प्रति विश्वासी नहीं है। वेदान्त के मतानुसार सब जीवात्माएं ब्रह्मनामधेय एक विश्वात्मा में अमिश्र है, किन्तु सांख्य दर्शन के प्रतिष्ठाता कपिल द्वैतवादी थे। अवश्य उन्होंने जगत का विश्लेषण जहाँ तक किया है, वह अत्यन्त अद्भुत है। वे हिन्दू परिणामवादियों के जनक स्वरूप हैं, और परिवर्ती सब दार्शनिक शास्त्र उनकी ही चिन्तन प्रणाली के परिणाम मात्र हैं। (धर्म-विज्ञान, पृष्ठ-24)
33. ज्ञान चैतन्य सम्पूर्ण रूप से प्रकृति के अधिकार में हैं, आत्मा में ज्ञान चैतन्य नहीं है। वेदान्त कहता है-आत्मा का स्वरूप असीम है अर्थात् वह पूर्णसत्ता, ज्ञान और आनन्द स्वरूप है। तथापि हमारा सांख्य के साथ इस विषय में एक मत है कि वे जिसे ज्ञान कहते हैं, वह एक यौगिक पदार्थ मात्र है। (पृष्ठ-56)
34. जैसे सोना गलाना हो तो उसमें पोटैशियम साइनाइड मिलाना होता है। पोटैशियम साइनाइड अलग रह जाता है, उस पर कोई रासायनिक कार्य नहीं होता, किन्तु सोना गलाने का काम सफल करने के लिए उसके सान्निध्य का प्रयोजन है। पुरुष के सम्बन्ध में भी यही बात है। वह प्रकृति के साथ मिश्रित नहीं होता, वह बुद्धि या महत् अथवा किसी प्रकार का विकार नहीं है, वह शुद्ध पूर्ण आत्मा है-“मेरे साक्षी स्वरूप विद्यमान रहने के कारण प्रकृति यह सब चेतन और अचेतन का सृजन कर रही हैै।“ (गीता, 9/10) (धर्म-विज्ञान, पृष्ठ-45)
35. पुरुष में चैतन्य है, किन्तु पुरुष को बुद्धिमान अथवा ज्ञानवान नहीं कहा जा सकता, किन्तु वह ऐसी वस्तु है, जिसके रहने पर ही ज्ञान सम्भव होता है। पुरुष में जो चित्त है, वह प्रकृति से मिलकर हमारे निकट बुद्धि अथवा ज्ञान के नाम से परिचित होता है। जगत् में जो कुछ सुख, आनन्द एवं शान्ति है, सब पुरुष की है; परन्तु वह सब मिश्र है क्योंकि उसमें पुरुष और प्रकृति का मिश्रण है। “जहाँ किसी प्रकार का सुख है, जहाँ किसी प्रकार का आनन्द है वहाँ उस अमृत स्वरूप पुरुष का एक कण विद्यमान है, यह समझ लेना होगा।“ (वृहदारण्यक उपनिषद्) (धर्म-विज्ञान, पृष्ठ-46)
36. यदि हम एक मानव का विश्लेषण कर सकें तो समग्र जगत् का विश्लेषण कर लिया; क्योंकि वे सब एक ही नियम से निर्मित हैं। अतएव यदि यह सत्य हो कि इस व्यष्टि श्रेणी के पीछे ऐसे एक व्यक्ति विद्यमान है जो समस्त प्रकृति से अतीत है, जो किसी प्रकार के उपादान से निर्मित नहीं है अर्थात्-पुरुष-तो यह एक ही युक्ति समष्टि ब्रह्माण्ड पर भी घटित होगी तथा उसके पश्चात् भी एक चैतन्य स्वीकार करने का प्रयोजन होगा। जो सर्वव्यापी चैतन्य प्रकृति के समग्र विकारों के पश्चात् भाग में विद्यमान है, उसे वेदान्त सब का नियता-ईश्वर कहता है। (धर्म-विज्ञान, पृष्ठ-64)
37. पहले यह स्थूल शरीर, उसके पश्चात् सूक्ष्म शरीर, उसके पश्चात् जीव अथवा आत्मा-यही मानव का यथार्थ स्वरूप है। मनुष्य का एक सूक्ष्म शरीर और एक स्थूल शरीर है, ऐसा नहीं है। शरीर एक ही है तथापि सूक्ष्म आकार में वह स्थूल की अपेक्षा दीर्घ काल तक रहता है, तथा स्थूल शीघ्र नष्ट हो जाता है। द्वैतवादियों के मतानुसार यह जीव अर्थात् मनुष्य का यथार्थ स्वरूप जो है वह अणु अर्थात् अति सूक्ष्म है। (धर्म-विज्ञान, पृष्ठ-125)
38. सूक्ष्म शरीर भी दीर्घकाल के पश्चात् विश्लिष्ट हो जायेगा, किन्तु जीव अयौगिक पदार्थ है, इसलिए वह कभी ध्वंस प्राप्त नहीं होगा। किसी अयोगिक पदार्थ का जन्म नहीं हो सकता, केवल जो यौगिक है उसका ही जन्म हो सकता है। (धर्म-विज्ञान, पृष्ठ-126)
39. लाख लाख प्रकार के आकार में मिश्रित यह समग्र प्रकृति ईश्वर की इच्छा के अधीन है। ईश्वर सर्वव्यापी, सर्वज्ञ और निराकार है, एवं वह दिन-रात इस प्रकृृति को परिचालित करता है। समस्त प्रकृति ही उसके शासन के अधीन विद्यमान है। किसी प्राणी को स्वाधीनता नहीं है, वह हो ही नहीं सकती। ईश्वर ही रास्ता है। यही द्वैतवादात्मक वेदान्त का उपदेश है। (धर्म-विज्ञान, पृष्ठ-126)
40. इस मानव देह को कर्मदेह कहते हैं, इस मानवदेह में ही हम अपना भविष्यत् यदृष्ट स्थिर किया करते है। हम एक वृहत् वृत्त के आकार में भ्रमण कर रहे हैं, तथा मानवदेह ही उस वृत्त के मध्य में एक बिन्दु है, जहाँ हमारी भविष्यत् अवस्था स्थिर होती है। इस कारण ही अन्यान्य सब प्रकार की देहों की अपेक्षा मानवदेह ही श्रेष्ठतम् निर्दिष्ट की जाती है। देवतागण भी मनुष्य जन्म ग्रहण किया करते है। द्वैत वेदान्त यहाँ तक कहता है। (धर्म-विज्ञान, पृष्ठ-129)
41. तथापि ईश्वर की कृपा एवं शुभ कर्म के अनुष्ठान के द्वारा वे (जीवात्मा) पुनः विकास प्राप्त होगी। प्रत्येक जीवात्मा को मुक्तिलाभ के समान सुयोग और सम्भावना प्राप्त है एवम् काल में सब ही शुद्धस्वरूप होकर प्रकृति के बन्धन से मुक्त होंगी। किन्तु इतना होने पर भी इस जगत का लोप नहीं होगा, क्योंकि वह अनन्त है। यही वेदान्त का द्वितीय प्रकार का सिद्धान्त है-जिसके मतानुसार ईश्वर, आत्मा और प्रकृति है, तथा आत्मा और प्रकृति ईश्वर का देहस्वरूप है और ये तीनों मिलकर एक है-विशिष्टाद्वैत वेदान्त कहते हैं। (धर्म-विज्ञान, पृष्ठ-131)
42. यह समग्र जगत् एक अखण्ड स्वरूप है, और उसे ही अद्वैत वेदान्त-दर्शन में ब्रह्म कहते हैं। ब्रह्म जब ब्रह्माण्ड के पश्चात् प्रदेश में है ऐसा लगता है, तब उसे ईश्वर कहते हैं। अतएव यह आत्मा ही मानव का अभ्यन्तरस्थ ईश्वर है। केवल एक पुरुष-उन्हें ईश्वर कहते हैं, तथा जब ईश्वर और मानव दोनों के स्वरूप का विश्लेषण किया जाता है तब दोनों को एक के रूप में जाना जाता है। (धर्म-विज्ञान, पृष्ठ-67)
43. “सभी हाथों से आप काम कर रहे हैं, सभी मुखों से आप खा रह रहे हैं, सब नासिकाओं से आप श्वास-प्रश्वास ले रहे हैं, सब मन से आप चिन्ता अथवा विचार कर रहे हैं।“ (गीता, अध्याय-13) समग्र जगत ही आप है। जो कुछ है, सब आप है, यथार्थ “आप“-वह एक अविभक्त आत्मा-जिस क्षुद्र सीमाबद्ध व्यक्ति विशेष को आप “आप“ समझते हैं, वह नहीं। तथा आप जो अमुक राम, श्याम, हरि है, यह बात भी किसी काल में सत्य नहीं है, यह केवल स्वप्न मात्र है। यही जानकर मुक्त होइए। यह अद्वैतवादियों का सिद्धान्त है। (धर्म-विज्ञान, पृष्ठ-67-68)
44. यदि आप अपने को बद्ध के रूप में सोंचे तो आप बद्ध ही रहेंगे; आप स्वतः ही अपने बन्धन के कारण होंगे। तथा यदि आप उपलब्धि करे कि आप मुक्त हैं तो इसी मुहुर्त आप मुक्त हैं। यही ज्ञान है-मुक्तिप्रद ज्ञान, तथा समग्र प्रकृति का चरम लक्ष्य ही मुक्ति है। (धर्म-विज्ञान, पृष्ठ-68)
45. एक ही सूर्य विविध जल बिन्दुओं में प्रतिबिम्बित होकर नाना रूप दिखा रहा है। लाख लाख जलकणों में लाख लाख सूर्य का प्रतिबिम्ब पड़ा है तथा प्रत्येक जल कण में ही सूर्य की सम्पूर्ण प्रतिमूर्ति विद्यमान है; किन्तु सूर्य वास्तव में एक है। इन सब जीवगण के सम्बन्ध में भी यही बात है-वे उसी एक अनन्त पुरुष के प्रतिबिम्ब मात्र है। स्वप्न कदापि सत्य के बिना रह नहीं सकता, और वह सत्य-वही एक अनन्त सत्ता है। शरीर, मन अथवा आत्मा भाव में मानने पर आप स्वप्न मात्र हैं, किन्तु आपका यथार्थ स्वरूप अखण्ड सच्चिदानन्द है।-अद्वैतवादी यही कहते है। यह सब जन्म, पुनर्जन्म, यह आना-जाना यह सब उस स्वप्न का अंशभाग है। आप अनन्त स्वरूप है। आप फिर कहाँ जायेंगे? आत्मा कभी उत्पन्न नहीं होती, कभी मरेगी भी नहीं, आत्मा के किसी काल में माता-पिता, शत्रु-मित्र कुछ भी नहीं है; क्योंकि आत्मा अखण्ड सच्चिदानंद स्वरूप है। जिस व्यक्ति ने इसका साक्षात्कार किया है उसने ही मुक्तिलाभ किया है, वह इस स्वप्न को भगं करके उसके बाहर चला गया है, उसने अपना यथार्थ स्वरूप जाना है। अद्वैतवेदान्त का यही उपदेश है। (धर्म-विज्ञान, पृष्ठ-133-134)
46. वेदान्त दर्शन एक एक करके इन तीन सोपानों (द्वैत, विशिष्टद्वैत, अद्वैत) का अवलम्बन करके अग्रसर हुआ है तथा हम इस तृतीय सोपान (अद्वैत) को पार करके अधिक अग्रसर नहीं हो सकते, क्योंकि हम एकत्व के उपर अधिक जा नहीं सकते। (धर्म-विज्ञान, पृष्ठ-134)
47. धर्मज्ञान को उच्चतम चूड़ा में आरोहण करने के लिए मानव जाति को जिन सब सोपानों का अवलम्बन करना पड़ा है, प्रत्येक व्यक्ति को भी उसका ही अवलम्बन करना होगा। केवल प्रभेद यह है कि समग्र मानव जाति को एक सोपान से दूसरे सोपान में आरोहण करने के लिए लाख-लाख वर्ष लगे हो, किन्तु व्यक्तिगण कुछ वर्षों में ही मानव जाति का समग्र जीवन यापन कर ले सकते हैं, अथवा वे और भी शीघ्र, सम्भवतः छः मास के भीतर ही उसे सम्पूर्ण कर ले सकते हैं। (धर्म-विज्ञान, पृष्ठ-135)
48. जो व्यक्ति कहता है, इस जगत् का अस्तित्व है, किन्तु ईश्वर नहीं है, वह निर्बोध है, क्योंकि यदि जगत् हो, तो जगत् का एक कारण रहेगा और उसक कारण का नाम ही ईश्वर है। कार्य रहने पर ही उसका कारण है, यह जानना होगा। जब यह जगत् अन्तर्हित होगा, तब ईश्वर भी अन्तर्हित होंगे। जब आप ईश्वर के सहित अपना एकत्व अनुभव करेंगे, तब आपके पक्ष में यह जगत् फिर नहीं रहेगा। जिसे हम इस क्षण जगत् के रूप में देख रहे हैं, वही हमारे सम्मुख ईश्वर के रूप में प्रतिभासित होगा, एवं जिनको एक दिन हम बहिर्देश में अवस्थित समझते थे, वे ही हमारी आत्मा के अन्तरात्मा रूप में प्रतीत होंगे।-“तत्वमसि“-वही तुम हो। (धर्म-विज्ञान, पृष्ठ-135)
02. योग क्या है?
01. इन सारी योग प्रणाणिलों में जो कुछ गुह्य या रहस्यात्मक है, सब छोड़ देना पड़ेगा। जिससे बल मिलता है उसी का अनुसरण करना चाहिए। अन्यान्य विषयों में जैसा है, धर्म में भी ठीक वैसे ही है-जो तुमको दुर्बल बनाता है, वह समूल त्याज्य है। रहस्य-स्पृहा मानव मस्तिष्क को दुर्बल कर देती है। इसके कारण ही आज योग शास्त्र नष्ट सा हो गया है किन्तु वास्तव में यह एक महाविज्ञान है
02. वह तरीका जिसके माध्यम से हम अपनी सारी भावनाओं को परम तत्व की ओर मोड़कर आनन्द प्राप्ति कर सकते हैं, यानि भक्ति के द्वारा भगवान से सम्बद्ध हो सकते हैं, भक्तियोग कहलाता है। विवेक का वह तरीका जिसके माध्यम से हम उससे ऐक्य स्थापित कर सकते हैं या उसकी अनुभूति प्राप्ति कर सकते हैें, ज्ञान योग या बुद्धि-विज्ञान कहलाता है। अनाशक्ति की कला जिसके माध्यम से हम कर्म से सम्बन्ध रखते हुए भी कर्म के जाल में नहीं फँस सकते, वह कर्मयोग या कर्म का विज्ञान कहलाती है। अन्त में वह तरीका जिसके माध्यम से हम मन को नियत्रित कर सकते हैं, जो सारे दुःखों का जड़ है, राजयोग कहलाता है। (योग क्या है?, पृष्ठ-14)
03. एक ईसाई रहस्यवादी ने ठीक ही कहा है कि “अगर हम लोग प्रार्थना के क्षेत्र में बहुत दूर चले गये हो तो हमें कर्म पर जोर देना चाहिए, अगर हम लोग आन्तरिक जीवन में मध्य तक ही पहुंचे हो तो हमें बाहरी जीवन में बहुत कम ही उतरना चाहिए, अगर हम आध्यात्मिक जीवन में बिल्कुल ही न बढ़े हों तो हमें व्यावहारिक दुनिया में बिल्कुल ही नहीं उतरना चाहिए।“ (योग क्या है?, पृष्ठ-44)
04. खासतौर से वह नेता जो धर्म और सुधार की आड़ में वास्तव में राजनैतिक सत्ता के खतरनाक ख्ेाल में व्यस्त था। जब ये अभागे व्यक्ति राजनीति में प्रथम बार प्रवेश करते हैं तो सचमुच में उनमें मानव कल्याण की भावना रहती है क्योंकि वे मानव को ईश्वर की सन्तान समझते है, लेकिन वे बहुत जल्द ही सत्ता के जाल में फंस जाते है और इनमें से अधिकांश इससे निकल नहीं पाते। ऐसे ही व्यक्ति ने अपने आप को कुछ स्वार्थी तत्वों से जोड़कर कुछ क्षेत्रों में धर्म को घृणास्पद बना दिया है। (योग क्या है?, पृष्ठ-44)
05. श्री रामकृष्ण ने कहा था-“वर्षा के प्रारम्भ के समय गंगा में जन्में छोटे-छोटे केकड़ों को तुमने देखा है? इस व्यापक विश्व में तुम उस एक छोटे से केकड़े से भी क्षुद्र हो। तुम विश्व के लोगों की मदद कर रहे हो, यह कहने का साहस ही कैसे करते हो. . .? पहले मनुष्य को भगवान से अधिकार प्राप्त करने दो, उसे उसकी शक्ति से सम्पन्न होने दो, तभी वह दूसरों की मदद करने की बात सोच सकता है। पहले मनुष्य को सभी अहंकारों से मुक्त होना चाहिए। तभी आनन्दमयी माँ उसे संसार की सेवा करने का आदेश देगी।“(योग क्या है?, पृष्ठ-45)
06. योग के बारे में कुछ लोग तो यहाँ तक सोचने पर विवश हैं, कि यह व्यर्थ का प्रयास है, क्योंकि जब हम जीवन के सभी क्षेत्रों में अनेक सफल व्यक्तियों को देखते और जानते हैं, वहाँ योग के क्षेत्र में हम मुश्किल से किसी ऐसे व्यक्ति से मिलते हैं जो यह कह सकता है कि वह अपनी मंजिल पर वास्तव में पहुँच चुका है, वशर्ते वह धोखेबाज और आत्मप्रवंचना का शिकार न हो। हजार वर्ष में कभी ऐसा होता है कि कोई महात्मा या दूरद्रष्टा जन्म लेता है जो अधिकार के साथ धर्म के सारतत्व पर बोल सकता हो और ऐसे व्यक्ति की आवाज भी शीघ्र ही भ्रम में तिरोहित हो जाती है जो विश्व में चतुर्दिक व्याप्त है। (योग क्या है, पृष्ठ-80)
07. फिर भी एक बात निश्चित है, अगर पथ की पहचान सही हो और लक्ष्य असंभव न हो तो दृढ़ संकल्पी और लगनशील यात्री के लिए प्रयास करते रहने के अलावा दूसरा कोई विकल्प नहीं रहता यद्यपि “पथ पहाड़ियों में पूरे रास्ते भर चक्करदार ही रहता है।“ अन्तिम मंजिल तक पहुँचने में सैकड़ो असफल हो सकते हैं, लेकिन प्रयास जो एक बार प्रारम्भ हो चुका है, छोड़ा नहीं जा सकता, अन्यथा वहीं यात्री कायर ही कहलायेगा। (योग क्या है, पृष्ठ-81)
08. वेदान्त यह भी कहता है कि कोई व्यक्ति अपनी वर्तमान क्रियाओं द्वारा भविष्य को बहुत अधिक हद तक निश्चित कर सकता है। जिसका अर्थ है-कि प्रत्येक व्यक्ति अपने इस जीवन के अच्छे कार्यों द्वारा अपने गत कर्मों के बुरे प्रभावों को मिटा डालने के लिए बहुत हद तक स्वतंत्र है। (योग क्या है, पृष्ठ-82)
09. शास्त्र कहते हैं कि कोई साधक यदि एक जीवन में सफलता प्राप्त करने में असफल होता है तो वह पुनः जन्म लेता है और अपने अधूरे कार्य को अधिक सफलता से आगे बढ़ाता है। (योग क्या है, पृष्ठ-83)
10. विभिन्न योगों में कोई विशेष विभाजन रेखा नहीं है। आध्यात्मिक अभ्यास के दौरान कर्म, भक्ति और ज्ञान सभी एक दूसरे से प्रायः मिल जाते हैं। साधक का स्वभाव ही यह निश्चित करेगा कि इन तीनों में से किस का अधिक प्रभाव उसके जीवन पर पड़ा है। (योग क्या है, पृष्ठ-41)
11. योगी कहते हैं अप्राकृतिक नाम की कोई चीज नहीं है, पर हाँ, प्रकृति में दो प्रकार की अभिव्यक्तियाँ हैं-एक है स्थूल और दूसरी है सूक्ष्म। सूक्ष्म कारण है और स्थूल कार्य। स्थूल सहज ही इन्द्रियों द्वारा उपलब्ध की जा सकती है, पर सूक्ष्म नहीं। राजयोग के अभ्यास से सूक्ष्म की अनूभुति होती रहती है। (राजयोग, पृष्ठ-2)
12. भारतवर्ष में जितने वेदमतानुयायी दर्शनशास्त्र है, उन सब का एक ही लक्ष्य है,और वह है-पूर्णता प्राप्त करके आत्मा को मुक्त कर लेना। इसका उपाय है-योग। “योग“ शब्द बहुभावव्यापी है। सांख्य और वेदान्त उभयमत किसी न किसी प्रकार के योग का समर्थन करते हैं। (योगःपृष्ठ-3)
13. हमारे समस्त ज्ञान स्वानुभूति पर टिके हैं। अनुमानिक ज्ञान (सामान्य से सामान्यतर या सामान्य से विशेष, दोनों) की बुनियाद स्वानुभूति है। जिनको निश्चित विज्ञान ;म्गंबज ैबपमदबमद्ध जैसे गणित, गणित-ज्योतिष इत्यादि, कहते हैं, उनकी सत्यता सहज ही लोगों की समझ में आ जाती है, क्योंकि वे प्रत्येक व्यक्ति से कहते हैं-“तुम स्वयं यह देख लो कि यह बात सत्य है अथवा नहीं, और तब उस पर विश्वास करो।“ विज्ञानविद् तुमको किसी भी विषय पर विश्वास कर बैठने को नहीं कहेंगे। (राजयोगःपृष्ठ-5)
14. संसार के समस्त धर्म उस प्रत्यक्ष अनुभव पर स्थापित है जो ज्ञान की सार्वभौमिक और सुदृढ़ भित्ति है। सभी धर्माचार्यों ने ईश्वर को देखा था। उन सभी ने आत्मदर्शन किया था, अपने अनन्त स्वरुप का ज्ञान सभी को हुआ था, सब ने अपनी भविष्य अवस्था देखी थी, और जो कुछ उन्होंने देखा था, उसी का वे प्रचार कर गये। (राजयोग, पृष्ठ-7)
15. योग विद्या के आचार्यगण कहते हैं कि धर्म पूर्णकालीन अनुभूतियों पर केवल स्थापित नहीं, वरन् इन अनुभूतियों से स्वयं सम्पन्न हुए बिना कोई भी धार्मिक नहीं हो सकता। जिस विद्या के द्वारा ये अनुभूतियाँ होती हैं, उसका नम है योग। धर्म के सत्यों का जब तक कोई अनुभव नहीं कर लेता, तब तक धर्म की बात करना ही व्यर्थ है। (राजयोग, पृष्ठ-8)
16. प्रत्येक विद्या की अपनी एक निर्दिष्ट प्रणाली है। मैं तुम्हें सैकड़ो उपदेश दे सकता हूँ, परन्तु तुम यदि साधना न करो, तो तुम कभी धार्मिक न हो सकोगे। सभी युगों में, सभी देशों में, निष्काम, शुद्धस्वभाव साधु-महापुरुष इसी सत्य का प्रचार कर गये हैं। संसार का हित छोड़कर कोई कामना उनमें नहीं थी। (राजयोग, पृष्ठ-10)
17. इस तरह के ज्ञान की उपयोगिता क्या है? पहले तो, ज्ञान ही ज्ञान का सर्वोच्च पुरस्कार है, दूसरे, इसकी उपयोगिता भी है-यह समस्त दुःखों का हरण करेगा। ज्ञान लाभ का एकमात्र उपाय है-एकाग्रता। (राजयोग, पृष्ठ-12)
18. जिस प्रकार वासनाएँ और अमरत्व मानव के अन्तर्भाव में हैं, उसी प्रकार उसके भीतर ही उन अभावों के मोचन शक्ति भी है। और जहाँ कहीं और कभी किसी वासना, अभाव या प्रार्थना की पूर्ति होती है, तो समझना होगा कि वह इस अनन्त भण्डार से ही पूर्ण होती है, किसी अप्राकृतिक पुरुष से नहीं। (राजयोग, पृष्ठ-2)
19. मनुष्य को आत्मोन्नति के लिए अधिक धन अनुकूल नहीं। फिर बिल्कुल निर्धन होनें पर भी उन्नति दूर रहती है। संसार में जितने भी महात्मा पैदा हुए हैं, सभी मध्यम श्रेणी के लोगों से हुए थे। मध्यम श्रेणी वालों में सब विरोधी शक्तियों का समन्वय रहता है। (राजयोग, पृष्ठ-30)
20. ईश्वर के निकट प्रार्थना करें-अर्थ, स्वास्थ्य अथवा स्वर्ग के लिए नहीं, वरन् हृदय में ज्ञान और सत्य तत्व के उन्मेंष के लिए। इसको छोड़ बाकी सब प्रार्थनाएँ स्वार्थ से भरी है। इसके बाद भाव करनी होगी, “मेरा शरीर वज्रवत् दृढ़, सबल और स्वस्थ है। यह देह ही मेरी मुक्ति में एकमात्र सहायक है। इसी की सहायता से मैं यह जीवन समुद्र पार कर लूंगा।“ (राजयोग, पृष्ठ-34)
21. योगी कहते हैं-इन सब विशिष्ट अभिव्यक्तियों के पीछे एक साधारण सत्ता है। उसको पकड़ सकने या जान लेने पर सब कुछ जाना जा सकता है। इसी प्रकार वेदों में सम्पूर्ण जगत को एक अखण्ड निरपेक्ष सत्यस्वरुप में पर्यवसित किया है। जिन्होंने इस “अस्ति“-स्वरुप को पकड़ा है वे ही सम्पूर्ण विश्व को समझ सके हैं। (राजयोग, पृष्ठ-38)
22. आत्मा की उन्नति का वेग बढ़ाकर किस प्रकार थोेड़े समय में मुक्ति पायी जा सकती है, यह सारी योग विद्या का लक्ष्य और उद्देश्य है। संसार के सभी महापुरुष, साधु और सिद्ध पुरुषों ने क्या किया? उन्होंने एक जन्म में ही, समय को कम करके, उन सब अवस्थाओं का भोग कर लिया है, जिनमें से होते हुए साधारण मानव करोड़ो जन्म में मुक्त होता हे। (राजयोग, पृष्ठ-50)
23. योगी कहते हैं कि-मनुष्य में जो शक्ति काम-क्रिया, काम-चिन्तन, आदि रुपों में प्रकाशित हो रही है, उसका दमन करने पर वह सहज ही ओजधातु में परिणत हो जाती है। (राजयोग, पृष्ठ-67)
03. ज्ञान योग
01. प्रत्येक व्यक्ति केवल अपने ही विश्व को देखता है, इसलिए उस विश्व की उत्पत्ति उसके बन्धन के साथ होती है और उसकी मुक्ति से वह विश्व मय हो जाता है। तथापि वह औरों के लिए, जो बन्धन में हैं, अवशेष रहता है। नाम और रुप से ही विश्व बना है। समुद्र की तरंग, उस हद तक ही तरंग कहला सकती है, जब तक कि नाम और रुप से वह सीमित है। यदि तरंग लुप्त हो जाये तो वह समुद्र ही है। यह नाम और रुप माया कहलाता है। और पानी ब्रह्म। (पत्रावली भाग-1,-424)
02. अपने ही विचारों से भयभीत हो जाना एक आम अनुभव है। लेकिन हम चाहें जितना ही इस चिन्तन की उपेक्षा करें, हम जीवन और मृत्यु के वास्तविकता से बच नहीं सकते। (योग क्या है। पृष्ठ-50)
03. एक ज्ञान योगी जीवन की किसी भी समस्या का सामना करने से भयभीत नहीं होता और वह मृत्यु के भूत से भी नहीं डरता। वह जीवन के सभी पक्षों-सुखात्मक और दुःखात्मक दोनों को देखने के लिए तैयार रहता है, किन्तु इसके साथ ही वह इनके फंदों से बचने के लिए उपाय भी सोचता है। (योग क्या है, पृष्ठ-50)
04. आधुनिक पदार्थ विज्ञान भी यह मत नहीं देता कि जिन वस्तुओं को हम द्रव्य के रुप में देखते हैं वह वास्तव में ठोस पदार्थ ही है और अपने अन्तिम विश्लेषण में क्या यह द्रव विचार या प्रतीक नहीं बन जाता? लेकिन फिर भी हमारे आँखों के सामने इस भैतिक जगत का भ्रम बना हुआ है। (योग क्या है, पृष्ठ-51)
05. यह जानते हुए भी कि उसका भौतिक शरीर देर सवेर नष्ट होगा ही, वह हमेंशा अपने शरीर से अलग अपने चेतना की ज्योति जगाये रखने का प्रयास करता है। इस तरह जब एक व्यक्ति सारी अवास्तविक वस्तुओं को इंकार कर देता है, तब जो अवरोध रहता है, वहीं आत्म तत्व और सत्य होता है। (योग क्या है, पृष्ठ-52)
06. रात में एक पेड़ का ठूठ भय पैदा करता है, एक मित्र आता है और उस भयभीत पथिक से कहता है कि जिस वस्तु को देखकर वह डर गया है, वह भूत न होकर पेड़ है। पथिक इस विचार को अपने मन में रखकर उसके पास जाता है, देखता है कि जिसमें उसने भूत की कल्पना की थी, वह वास्तव में पेड़ के सिवाय कुछ भी नहीं है। यह उदाहरण कुछ हद तक ज्ञान योग के तरीकों को ही उद्घाटित करता है। जो भी इस कठिन पथ का अनुसरण करने का प्रयास करता है, उसके पास पूर्ण निर्भीकता तथा अतिमानवीय मानसिक बल होना चाहिए। (योग क्या है, पृष्ठ-53)
07. कितने लोग ईमानदारी पूर्वक कह सकते हैं कि उनके पास साहस और आत्मबल है? यह एक असाधारण गुण है और शायद शताब्दी में विवेकानन्द जैसे एक ही होते हैं जो अपने बंधुओं में विशिष्ट होते हैं। (योग क्या है, पृष्ठ-53)
08. हिन्दू शास्त्र ज्ञानयोग की साधना करने वालों के लिए कुछ विशेष प्रारम्भिक अनुशासनों का निर्देश देते हैं। इनमें से सबसे प्रमुख है-सत्य और असत्य के भेद का विवेक, इस लोक और परलोक के सुखों से विरक्ति, मन-नियन्त्रण और इन्द्रिय-निग्रह बाह्य वस्तुओं से विकर्षण, शारीरिक सहनशीलता, गुरु के उपदेशों की ग्रहण शक्ति से युक्त होकर अपनी शक्ति के प्रति पूर्ण आस्था और सर्वतोभावेन मानव अस्तित्व के बन्धनों से मुक्त होने की अदम्य लालसा। कोई भी व्यक्ति इनकार नहीं कर सकता कि सब मिलाकर ये प्रारम्भिक योग्यताएँ औसत आदमी से लगभग असम्भव क्षमता की माँग करती है। (योग क्या है, पृष्ठ-54)
09. धर्मशास्त्र राय देते हैं कि वे ही व्यक्ति ज्ञान साधना की सफलता की आशा रख सकते हैं जिन्होंने इसके प्रारम्भिक अनुशासन को अपने पूर्व जन्म में ही सफलतापूर्वक हासिल कर लिया है। (योग क्या है, पृष्ठ-54)
10. अनुभव से यह सिद्ध हो चुका है कि सभी विचार, चाहें वह अच्छे हों या बुरे, व्यक्ति के जीवन पर अत्यधिक प्रभाव छोड़ते हैं। इसलिए, अगर कोई स्वयं को बलवान समझे तो अनजानें ही उसमें धीरे-धीरे शक्ति का प्रादुर्भाव होगा। अगर कोई साधक अपने को कालातीत आत्मा के रुप में मानता है, तो उसमें एक अवचेतन प्रक्रिया सम्पन्न होगी और वह दैहिक कमजोरियों से स्वयं मुक्त हो जायेगा। (योग क्या है, पृष्ठ-55)
11. तात्पर्य यह कि ज्ञान योग की कठिन साधना केवल उसी व्यक्ति द्वारा सम्भव है जो दृढ़ इच्छा-शक्ति और विश्लेषण-बुद्धि से पूर्णरुपेण सम्पन्न हो। (योग क्या है, पृष्ठ-57)
12. साधक के लिए यह वैधिक विश्वास ही पर्याप्त नहीं है कि ज्ञान योग का पथ उसकी प्रकृति के सर्वथा अनुकूल है। उसे खुले मैदान और खुले आकाश के नीचे अपना आध्यात्मिक युद्ध लड़ने के लिए तैयार रहना होगा। उसे लगातार मानवीय कमजोरियों और सूक्ष्मवृत्तियों से लड़ना पड़ेगा क्योंकि मन इसी बातों में रमता है, उसे इस कठोर संघर्ष से तब तक विराम नहीं मिलेगा जब तक कि वह अपनी मानसिक ऊँचाई को प्राप्त नहीं कर लेता और अपने को सुरक्षित नहीं कर पाता। (योग क्या है, पृष्ठ-57)
13. पवित्रता (इच्छाओं और वासनाओं का दमन) के क्षेत्र में जो जितना ही सफल होगा, वह उतना ही ज्ञान योग की साधना में सफल होगा। मन का दृढ़ नियन्त्रण और उच्च ध्यान-स्थिति, ये दोनों ज्ञान योग की साधना के लिए आवश्यक हैं और ये दोनों ज्ञान योग द्वारा वर्णित तरीकों को अपनाकर अच्छी तरह प्राप्त किये जा सकते हैं। (योग क्या है, पृष्ठ-58)
14. जब एक साधक शरीर बोध का अतिक्रमण कर जाता है, तो स्वभावतः उसके शरीर का अन्त हो जाता है और यह देखा गया है कि सामान्यतः एक ज्ञानी परमसत्ता के अनुभव के बाद अपने उस विराट अनुभव के बाद अपने उस विराट अनुभव को झेल नहीं पाता। फिर भी शंकर की तरह कुछ अपवाद हैं जिन्होंने विराट के अनुभव के बाद भी मानवता कों ऐसी स्थिति की उपलब्धि के साधनों की शिक्षा देने के लिए अपने उच्च विचारों को कायम रखा। ये आत्माएं बन्धन से प्राप्त अनन्त मुक्ति को स्वयमेंव तज देती हैं जिसे उन्होंने दूसरों की मुक्ति दिलाने के लिए प्राप्त किया है। उनके लिए उच्चतम अनुभव का द्वार हमेंशा खुला रहता है, लेकिन वे उस द्वार में प्रवेश करने से इनकार कर देते हैं, जब तक वे उन लोगों को जो दुःख से पीड़ित हैं और प्रकाश की तलाश में हैं, अपने साथ न ले जा सकें। वे लोग बहुत बड़े सिद्ध, भविष्यदृष्टा और संत हैं जो गहन अंधकार से मानवता को बचाने के लिए अपनी आत्मा की मशाल को जलाए रखते हैं। वे वहीं लोग हैं जो साधारण जीवन जीते हुए कम से कम थोड़ी देर के लिए थके हारे संसार को खाई में गिरने से रोकते हैं। वे धरती पर भगवान के सच्चे प्रतिनिधि होते हैं। (योग क्या है। पृष्ठ-62)
04. राजयोग
01. राजयोग विद्या पहले मनुष्य को उसकी अपनी आभ्यन्तरिक अवस्थाओं के पर्यवेक्षण का रास्ता दिखा देती है। मन ही उस पर्यवेक्षण का यन्त्र है। (राजयोग, पृष्ठ-11)
02. मन की शक्तियाँ इधर-उधर बिखरी हुई प्रकाश की किरणों के समान है। जब उन्हें केन्द्रीभूत किया जाता है, तब वे सब कुछ आलोकित कर देती है। यही ज्ञान का हमारा एक मात्र उपाय है। वाह्य जगत् में हो अथवा अन्तर्जगत् में; लोग इसी को काम में ला रहे है। पर वैज्ञानिक जिस सूक्ष्म पर्यवेक्षण शक्ति का प्रयोग वहिर्जगत् में करता है, मनस्तत्त्वान्वेसी उसी का मन पर करते है। (राजयोग, पृष्ठ-11)
03. मानव-मन की शक्ति की कोई सीमा नहीं। वह जितना ही एकाग्र होता है, उतनी ही उसकी शक्ति एक लक्ष्य पर आती है; बस यही रहस्य है। (राजयोग, पृष्ठ-13)
04. राजयोग की शिक्षा किसी धर्म विशेष पर आधारित नहीं है। तुम्हारा धर्म चाहे जो हो-तुम चाहे आस्तिक हो या नास्तिक, यहूदी या बौद्ध या ईसाई-इससे कुछ बनता-बिगड़ता नहीं; तुम मनुष्य हो, बस यही पर्याप्त है। प्रत्येक मनुष्य में धर्मतत्व का अनुसंधान करने की शक्ति है, उसे उसका अधिकार है। (राजयोग, पृष्ठ-14)
05. राजयोग की साधना में दीर्घकाल और निरन्तर अभ्यास की आवश्यकता है। इस अभ्यास का कुछ अंश शरीर संयम-विषयक है, परन्तु इसका अधिकांश मनःसंयमात्मक है। जिन्होंने इन आभ्यान्तरिक शक्तियों का अविष्कार करके उन्हें इच्छानुसार चलाना सीख लिया है, वे सम्पूर्ण प्रकृति को वश में कर सकते हैं। सम्पूर्ण जगत् को वशीभूत करना और सारी प्रकृति पर अधिकार हासिल करना-इस वृहत् कार्य को योगी अपना कत्र्तव्य समझते हैं। (राजयोग, पृष्ठ-14-16)
06. वहिर्वादी और अन्तर्वादी जब अपने अपने ज्ञान की चरमसीमा प्राप्त कर लेंगे, तब दोनों अवश्य एक ही स्थान पर पहुँच जायेंगे। (राजयोग, पृष्ठ-16)
07. पांतजल-सूत्र राजयोग का शास्त्र है और उस पर सर्वोच्च प्रमाणिक ग्रन्थ है। अन्यान्य दार्शनिकों का किसी दार्शनिक विषय में पतंजलि से मतभेद होने पर भी, वे सभी निश्चित रूप से, उनकी साधन प्रणाली का अनुमोदन करते हैं। (राजयोग, पृष्ठ-3)
08. पांतजल दर्शन सांख्यमत पर स्थापित है। इन दोनों मतों में अन्तर बहुत थोड़ा है। इनके दो प्रधान मतभेद ये हैं-पहला तो, पतंजलि आदि-गुरु के रूप में एक सगुण ईश्वर की सत्ता स्वीकार करते हैं, जबकि सांख्य का ईश्वर लगभग-पूर्णता प्राप्त एक व्यक्तिमात्र है, जो कुछ समय तक एक सृष्टि-कल्प का शासन करता है। और दूसरा, योगीगण आत्मा या पुरुष के समान मन को भी सर्वव्यापी मानते हैं, पर सांख्यमत वाले नहीं। (राजयोग, पृष्ठ-3)
09. वह मन जिसमें एक लक्ष्यता और एकाग्रता का अभाव है, वह कभी भी सत्य की अनुभूति के लिए उपयुक्त साधन नहीं बन सकता। मनुष्य का मन जब पूर्णरूपेण शान्त और स्थिर रहता है, तब कभी-कभी अचानक ही उसमें सत्य का उदय होता है, भले ही उसने इसको चेतन भाव से खोजने का प्रयास न किया हो। (योग क्या है?, पृष्ठ-63)
10. सभी योगों में राजयोग का विशेष दुरूपयोग हुआ है। मन असीमित शक्तियों का भण्डार है। जब यह एकाग्रित होना प्रारम्भ करता है, तब कभी-कभी मनुष्य विलक्षण सिद्धियों का अनुभव करने लगता है। एकाग्रता के इन साधनों द्वारा मन एक ऐसा सुन्दर यंत्र बन सकता है कि इसका स्वामी अपने में कुछ प्राकृतिक शक्तियों को, जैसे भविष्य को देख लेना या दूसरे के विचारों को पढ़ लेना विकसित कर सकता है। यद्यपि ऐसी शक्तियाँ अपने आप में शायद ही कोई आध्यात्मिक मूल्य रखती है, फिर भी इसका प्राप्तकर्ता आसानी से इनसे लाभ कमाने की ओर प्रवृत्त हो सकता है। (योग क्या है?, पृष्ठ-66)
11. सच्चा आदमी सदा ही स्पष्ट और निर्भीक होता है क्योंकि उसे कुछ भी छिपाना नहीं पड़ता और किसी भी प्रकार के छल से उसे दिमाग को बोझिल या अशान्त करने की भी आवश्यकता नहीं रहती। लगातार साधना द्वारा किसी भी व्यक्ति के लिए सत्य में ऐसे दृढ़ विश्वास को विकसित करना सम्भव है कि वह अंत में किसी भी स्थिति में जीवन की कठिन और विचित्र समस्याओं का सामना कर सके। (योग क्या है?, पृष्ठ-71)
12. वह मनुष्य जिसने निर्लोभ की साधना की है, वह सांसारिक इच्छाओं द्वारा विचलित नहीं होता। (योग क्या है?, पृष्ठ-72)
13. संयम (ब्रह्मचर्य) एक दूसरा गुण है जो किसी भी प्रकार की योग साधना के लिए आवश्यक है। वह व्यक्ति जो विचार, वाणी और कर्म से पवित्र होता है, वह अनेक कठिनाईयों से मुक्त होता है जबकि वासना का गुलाम व्यक्ति इन दुःखों को स्वयं बुला लेता है। (योग क्या है?, पृष्ठ-72)
14. साधना में यह सदा ही अपेक्षित है कि नकारात्मक विचारो की अपेक्षा सकारात्मक विचारों पर विशेष बल दिया जाय। जैसा कि श्री राम कृष्ण कहा करते थे-“अगर तुम पूर्व दिशा की ओर जाते हो तो तुम पश्चिम दिशा से उतनी ही दूर हो।“ (योग क्या है?, पृष्ठ-73)
15. राजयोग आठ अंगों में विभक्त है। पहला है-यम अर्थात् अहिंसा, सत्य, अस्तेय (चोरी का अभाव), ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह। दूसरा है नियम-अर्थात् शौच, सन्तोष, तपस्या, स्वाध्याय (आध्यात्मक-शास्त्रपाठ) और ईश्वर-प्राणिधान अर्थात् ईश्वर को आत्मसमर्पण। तीसरा है आसन-अर्थात् बैठने की प्रणाली। चैथा है-प्राणायाम। पांचवां है-प्रत्याहार-अर्थात् मन की विषयाभिमुखी गति को फेरकर उसे अन्तर्मुखी करना। छठा है-धारणा अर्थात् किसी स्थल पर मन को एकाग्र करना। सातवां है-ध्यान। और आठवां है-समाधि अर्थात् ज्ञानातीत अवस्था। (राजयोग, पृष्ठ-22)
16. “यम और नियम“-चरित्र निर्माण के साधन है। इनको नींव बनाये बिना किसी तरह की योगसाधना सिद्ध न होगी। यम और नियम के दृढ़ प्रतिष्ठ हो जाने पर योगी अपनी साधना का फल अनुभव करना आरम्भ कर देते हैं। इनके न रहने पर साधना का कोई फल न होगा। (राजयोग, पृष्ठ-22)
17. यम और नियम के बाद “आसन“ आता है। जब तक बहुत उच्च अवस्था की प्राप्ति नहीं हो हो जाती, तब तक रोज नियमानुसार कुछ शारीरिक और मानसिक क्रियायें करनी पड़ती है अतएव जिससे दीर्घकाल तक एक भाव में बैठा जा सके, ऐसे एक आसन का अभ्यास है। जिनको जिस आसन से सुभीता मालूम होता है, उनको उसकी आसन पर बैठना चाहिए। (राजयोग, पृष्ठ-22)
18. आसन के सम्बन्ध में इतना समझ लेना होगा कि मेंरूदण्ड को सहजभाव से रखना आवश्यक है-ठीक सीधा बैठना होगा-वक्ष, ग्रीवा और मस्तक सीधे और समुन्नत रहे, जिससे देह का सारा भार पसलियों पर पड़े। राजयोग का यह भाग हठयोग से बहुत कुछ मिलता-जुलता है। (राजयोग, पृष्ठ-23)
19. हठयोग केवल स्थूलदेह को लेकर व्यस्त रहता है। इसका उद्देश्य केवल स्थूल देह को सबल बनाना है। मनुष्य किस प्रकार दीर्घजीवी हो, यही हठयोग का एकमात्र उद्देश्य है। शरीर किस प्रकार पूर्ण स्वस्थ रहे, यही हठयोगियों का एकमात्र लक्ष्य है। हठयोगियों का यही दृढ़ संकल्प हैं कि मुझे और पीड़ा न हो। और इस दृढ़ संकल्प के बल से उनको पीड़ा होती भी नहीं। वे दीर्घजीवी हो सकते हैं, सौ वर्ष तक जीवित रहना तो उनके लिए मामूली सी बात है। उनकी 150 वर्ष की आयु हो जाने पर भी देखोगे, वे पूर्ण युवा और सतेज है; उनका एक केश भी सफेद नहीं हुआ। किन्तु इसका फल बस यही तक है। वे बस एक बड़े स्वस्थकाय जीव भर रहते है। (राजयोग, पृष्ठ-23-24)
20. “प्राणायाम“ के द्वारा जिस मन का मैल धुल गया है, वही मन ब्रह्म में स्थिर होता है। इसलिए शास्त्रों में प्राणायाम के विषय का उल्लेख है। पहले नाड़ी शुद्धि करनी पड़ती है तभी प्राणायाम करने की शक्ति आती है। (राजयोग, पृष्ठ-25)
21. अँगूठे से दाहिनी नथुना दबाकर बायें नथुने से यथाशक्ति वायु अन्दर खींचो, फिर बीच में तनिक देर भी विश्राम किये बिना बायीं नासिका बन्द करके दाहिनी नासिका से वायु निकालो। फिर दाहिनी नासिका से वायु ग्रहण करके बायीं नासिका से निकालो। दिन भर में चार बार अर्थात् उषा, मध्याहन, सायाहन और निशीथ, इन चार समय पूर्वोक्त क्रिया का तीन बार या पांच बार अभ्यास करने पर, एक पक्ष या महीने भर में नाड़ी शुद्धि हो जाती है। उसके बाद प्राणायाम पर अधिकार होगा। (राजयोग, पृष्ठ-25)
22. साधना में बहुत से विध्न भी हैं। पहला तो व्याधिग्रस्त देह है। दूसरा विध्न है-सन्देह। (राजयोग, पृष्ठ-25-26)
23. चित्तवृत्तियों के निरोध से प्राणायाम का क्या सम्बन्ध है। श्वास-प्रश्वास मानो देह-यन्त्र का गतिनियामक मूल यन्त्र है। एक बृहत् इंजन पर निगाह डालने पर देखोगे कि एक बड़ा चक्र घूम रहा है और उस चक्र की गति क्रमशः सूक्ष्म से सूक्ष्मतर यन्त्रों मेंे संचारित होती है। इस प्रकार उस इंजन के अत्यन्त सूक्ष्मतम यन्त्र तक गतिशील हो जाते है। श्वास-प्रश्वास ठीक वैसा ही एक गतिनियामक चक्र है। वही इस शरीर के सब अंगों में जहाँ जिस प्रकार कि शक्ति की आवश्यकता है, उसकी पूर्ति कर रहा है और उस शक्ति को नियमित कर रहा है। (राजयोग, पृष्ठ-30)
24. अभ्यास का उपयुक्त समय है प्रातः और सायं। जब रात बीतती है और पौ फटती है तथा जब दिन बीतता है और रात आती है, इन दो समयों में प्रकृति अपेक्षाकृत शान्तभाव धारण करती है। ब्रह्ममुहुर्त और गोधुलि ये दो समय मन की स्थिरता के लिए अनुकूल है। (राजयोग, पृष्ठ-33)
25. यथार्थ प्राणायाम की साधना में अधिकारी होने के लिए बहुत से अलग-अलग उपाय है। श्वास-प्रश्वास की क्रिया उनमें से एक उपाय मात्र है। प्राणायाम का अर्थ प्राणों का संयम। भारतीय दार्शनिकों के मतानुसार सारा जगत् दो पदार्थों से निर्मित है। उनमें से एक का नाम है-आकाश। (राजयोग, पृष्ठ-35)
26. यह प्राण ही गतिरूप में प्रकाशित हुआ है-यही गुरूत्वाकर्षण या चुम्बकीय शक्ति के रूप में प्रकाशित हो रहा है। यह प्राण ही स्नायविक शक्तिप्रवाह के रूप में, विचारशक्ति के रूप में और समुदाय दैहिक क्रिया के रूप में प्रकाशित हुआ है। विचारशक्ति से लेकर अति सामान्य दैहिक तब सब कुछ प्राण का ही विकास है। वाह्य और अन्तर्जगत् की समस्त शक्तियां जब अपनी मूल अवस्था में पहुंचाती है, तब उसी को प्राण कहते है। (राजयोग, पृष्ठ-36)
27. इस प्राणायाम में सिद्ध होने पर हमारे लिए मानो अनन्तशक्ति का द्वार खुल जाता है। मान लो, किसी व्यक्ति की समझ में यह प्राण का विषय पूरी तरह आ गया और वह उस पर विजय प्राप्त करने में भी कृतकार्य हो गया; तो फिर संसार में ऐसी कौन सी शक्ति है, जो उसके अधिकार में न आयें? उसकी आज्ञा से चन्द्र-सूर्य अपनी जगह से हिलने लगते हैं, क्षुद्रतम परमाणु से वृहत्तम सूर्य तक सभी उसके वशीभूत हो जाते हैं, क्योंकि उसने प्राण को जीत लिया है। प्रकृति को वशीभूत करने की शक्ति प्राप्त करना ही प्राणायाम की साधना का लक्ष्य है। (राजयोग, पृष्ठ-37)
28. किस प्रकार इस प्राण पर विजय पायी जाय, यही प्राणायाम का एकमात्र उद्देश्य है। जो योगी इस विषय में कृतकार्य होते हैं, वे सिद्धि पा लेते हैं; तब कोई भी शक्ति उन पर प्रभुत्व नहीं जमा सकती। वे एक प्रकार से सर्वशक्तिमान और सर्वत्र हो जाते हैं। (राजयोग, पृष्ठ-38-39)
29. कोई भी वस्तु स्थिर नहीं। मेरा शरीर, तुम्हारा शरीर नामक वास्तव में कोई वस्तु नहीं। वैसा कहना केवल मुख की बात है। है केवल एक अखण्ड जड़राशि। उसी के किसी बिन्दु का नाम है चन्द्र, किसी का सूर्य, किसी का मनुष्य, किसी का पृथ्वी; कोई बिन्दु उद्भिद् है, तो कोई खनिज पदार्थ। इनमें से कोई भी सदा एक भाव में नहीं रहता, सभी वस्तुओं का सतत् परिवर्तन हो रहा है; जड़ का एक बार संश्लेषण होता है फिर विश्लेषण। (राजयोग, पृष्ठ-42)
30. यह भी सिद्ध हो चुका है कि यह शक्ति समष्टि दो तरह से अवस्थित है-कभी स्तिमित या अव्यक्त अवस्था में और कभी व्यक्त अवस्था में। व्यक्त अवस्था में वह इन नानाविध शक्तियों के रूप धारण करती है। इस प्रकार वह अनन्त काल से कभी व्यक्त और कभी अव्यक्त भाव धारण करती आ रही है। इस शक्तिरूपी प्राण के संयम का नाम ही प्राणायाम है।(राजयोग, पृष्ठ-43)
31. प्राणायाम के साथ साथ श्वास-प्रश्वास की क्रिया का सम्बन्ध बहुत थोड़ा है। यथार्थ प्राणायाम का अधिकारी होने में यह श्वास-प्रश्वास की क्रिया एक उपाय मात्र है। मनुष्य देह में प्राण का सबसे स्पष्ट प्रकाश है-फेफडे़ की गति। (राजयोग, पृष्ठ-43)
32. प्राणायाम का यथार्थ अर्थ है-फेफड़े की इस गति का रोध करना। प्राणायाम श्वास-प्रश्वास की क्रिया नहीं है। पेशियों की जो शक्ति फेफड़ों को चलाती है, उसका वश में लाना ही प्राणायाम है। जब प्राण पर विजय प्राप्त हो जायेगी, तब हम देखेंगे कि शरीरस्थ प्राण की अन्यान्य सभी क्रियाएं हमारे अधिकार में आ गयी है।(राजयोग, पृष्ठ-44)
33. देह के सारे अंगों को प्राण अर्थात् इस जीवनी शक्ति द्वारा भरा जा सकता है, और जब तुम इसमें कृतकार्य होंगे, तो सम्पूर्ण शरीर तुम्हारे वश हो जायेगा; देह की समस्त व्याधियाँ, सारे दुःख तुम्हारी इच्छा के अधीन हो जायेंगे। इतना ही नहीं, दूसरे के शरीर पर भी अधिकार जमाने में तुम कृतकार्य हो जाओगे। (राजयोग, पृष्ठ-45)
34. जगत् को हिला-डुला देने वाली तीव्र इच्छाशक्ति सम्पन्न महापुरुष अपने प्राण में बहुत ऊँचा कम्पन उत्पन्न करके उस प्राण के वेग को इतना अधिक कर सकते हैं और उसको इतनी शक्ति से युक्त कर सकते हैं कि वह दूसरे को पल भर में लपेट लेती है, हजारो मनुष्य उनकी ओर खिंच जाते हैं और संसार के आधे लोग उनके भाव से परिचालित हो जाते हैं। जगत् में जितने महापुरुष हुए, सभी प्राणाजित थे। प्राण कहाँ अधिक है और कहाँ अल्प, इसका ज्ञान प्राप्त करना भी प्राणायाम का अंग है। (राजयोग, पृष्ठ-48)
35. जैसे हम अनुवीक्षण यन्त्र और दूरबीन की सहायता से अपनी दृष्टि का क्षेत्र बढ़ा सकते हैं, उसी प्रकार मन को विभिन्न प्रकार के स्पन्दनों से युक्त करके हम दूसरे स्तर का समाचार अर्थात् वहां क्या हो रहा है, यह जान सकते हैं। (राजयोग, पृष्ठ-52)
36. जिस प्राणायाम में प्राण के स्थूल रूपों को बाह्य उपायों द्वारा जीतने की चेष्टा की जाती है, उसे पदार्थ विज्ञान या भौतिक विज्ञान कहते हैं; और जिस प्राणायाम में प्राण के मानसिक विकासों को मानसिक उपायों द्वारा संयत करने की चेष्टा की जाती है, उसी को राजयोग कहते हैं। (राजयोग, पृष्ठ-53)
37. योगियों के मतानुसार मेंरूदण्ड के भीतर इड़ा और पिंगला नाम के दो स्नायविक शक्तिप्रवाह, और मेंरूदण्डस्थ मज्जा के बीच सुषुम्ना नाम की एक शून्य नाली है। इस शून्य नाली के सब से नीचे कुण्डलिनी का आधारभूत पद्म अवस्थित है। जब यह कुण्डलिनी शक्ति जगती है, तब वह इस शून्य नाली के भीतर से मार्ग बनाकर ऊपर उठने का प्रयत्न करती है; और ज्यों ज्यों वह एक एक सोपान उपर उठती जाती है, त्यों त्यों मन के स्तर पर स्तर मानो खुलते जाते हैं। जब वह कुण्डलिनी शक्ति मस्तक पर चढ़ जाती है तब योगी सम्पूर्ण रूप से शरीर और मन से पृथक् हो जाते हैं और उनके आत्मा अपने मुक्त स्वभाव की उपलब्धि करती है। (राजयोग, पृष्ठ-54)
38. सबसे नीचे वाला पद्म सुषम्ना के सबसे नीचे भाग में अवस्थित है उसका नाम है-मूलाधार। इसके बाद है-स्वाधिष्ठान। तीसरा-मणिपुर। चैथा-अनाहत, पांचवा-विशुद्ध, छठां-आज्ञा ओर सातवां है-सहस्रार या सहस्रदल पद्म। यह सहस्रार सब से उपर, मस्तिष्क में स्थित है। (राजयोग, पृष्ठ-66)
39. सब चक्रों में से सब से नीचे स्थित-मूलाधार, मस्तिष्क में स्थित सहस्रार और नाभिदेश में स्थित-मणिुपर इन तीन चक्रों की बात हमें विशेष रूप से ध्यान में रखनी होगी। (राजयोग, पृष्ठ-55)
40. जिस केन्द्र में विषय-अभिघात से उत्पन्न गति प्रवाहों के बचे हुए अंश या संस्कार समष्टि मानो संचित सी रहती है, उसे मूलाधार कहते हैं, और उस कुण्डलीकृत क्रिया शक्ति को कुण्डलिनी कहते हैं। (राजयोग, पृष्ठ-59)
41. कुण्डलिनी को जगा देना ही तत्व-ज्ञान, ज्ञानातीत अनुभूति या आत्मानुभूति का एकमात्र उपाय है। कुण्डलिनी को जाग्रत करने के अनेक उपाय है। किसी को कुण्डलिनी भगवान के प्रति प्रेम के बल से ही जाग्रत हो जाती है; किसी की सिद्ध-महापुरुषों की कृपा से और किसी की सूक्ष्म ज्ञान विचार द्वारा। (राजयोग, पृष्ठ-60)
42. मेंरूमज्जा-मध्यस्थ ज्ञानात्मक और कर्मात्मक स्नायुगुच्छ स्तम्भ ही योगियों की इड़ा और पिंगला नाड़ियां है। प्रधानतः उन दोनों नाड़ियों के भीतर से ही पूर्वोक्त अन्तर्मुखी और बहिर्मुखी शक्ति प्रवाहद्वय आना जाना कर रहे हैं। (राजयोग, पृष्ठ-58)
43. इस साधना (प्राणायाम साधना) का पहला फल यह देखोगे कि तुम्हारे मुख की कान्ति बदलती जा रही है। मुख की शुष्कता या कठोरता का भाव प्रदर्शित करने वाली रेखाएं दूर हो जायेगी। मन की शान्ति मुख से फुटकर बाहर निकलेगी। दूसरे, तुम्हारा स्वर बहुत मधुर हो जायेगा। (राजयोग, पृष्ठ-63)
44. प्राणायाम के बाद “प्रत्याहार“ की साधना करनी पड़ती है। इन्द्रियों के द्वार-स्वरूप ये बाहर के यन्त्र है। फिर हैं इन्द्रियाँ। ये इन्द्रियाँ मस्तिष्क में स्थित स्नायु केन्द्रों की सहायता से शरीर पर कार्य करती है। इसके बाद है मन। जब ये समस्त एकत्र होकर किसी बाहरी वस्तु के साथ संलग्न होते हैं, तभी हम उस वस्तु का अनुभव कर सकते है। (राजयोग, पृष्ठ-58)
45. मन को संयत करने का फल क्या है? यही कि मन संयत हो जाने पर वह फिर विषयों का अनुभव करने वाली भिन्न भिन्न इन्द्रियों के साथ अपने को संयुक्त न करेगा और ऐसा होने पर सब प्रकार के भाव और इच्छाएं हमारे वश में आ जायेंगी। (राजयोग, पृष्ठ-70)
46. विश्वास के बल से आरोग्य लाभ कराने वाला सम्प्रदाय दुःख, कष्ट, अशुभ आदि के अस्तित्व को बिल्कुल अस्वीकार कर देने की शिक्षा देता है। इसमें सन्देह नहीं कि इनका दर्शन बहुत कुछ सिर के पीछे से हाथ ले जाकर नाक पकड़ने की तरह है; किन्तु वह भी एक प्रकार का योग है। (राजयोग, पृष्ठ-70)
47. वशीकरण विद्या वाले इसी प्रकार सूचनाशक्ति या आज्ञा से कुछ देर के लिए अपने वश्य व्यक्तियों में एक प्रकार का अस्वाभाविक प्रत्याहार ले आते हैं जिसे साधारणतः वशीकरण सूचना कहते हैं, वह केवल रोगग्रस्त देह और कमजोर मन पर ही अपना प्रवाह फैला सकता है। (राजयोग, पृष्ठ-70)
48. वशीकरणकारी या विश्वासबल से आरोग्य करने वाले थोड़े समय के लिए जो अपने वश्य व्यक्तियों के शरीरस्थ शक्तिकेन्द्रों (इन्द्रियों) को वशीभूत कर लेते हैं, वह अत्यन्त निन्दाई कर्म है, क्योंकि वह उस वश्य व्यक्ति को अन्त में सर्वनाश के रास्ते ले जाता है। (राजयोग, पृष्ठ-71)
49. उस (वश्य) व्यक्ति पर यह प्रक्रिया जितनी की जाती है, उतना ही वह अपने मन की शक्ति क्रमशः खोने लगता है, और अन्त में मन को पूर्ण रूप से जीतना तो दूर रहा, उसका मन बिल्कुल शक्तिहीन और विचित्र सा हो जाता है तथा पागलखाने में ही उसकी चरमगति आ ठहरती है। (राजयोग, पृष्ठ-71)
50. वह इच्छाशक्ति हम पर किसी भी रूप से क्यों न प्रयुक्त हो, और चाहे उससे हमारी इन्द्रियाँ प्रत्यक्ष वशीभूत हो जायें, चाहे वह एक प्रकार की पीड़ित या विकृतावस्था में हमें इन्द्रियों को संयत करने के लिए बाध्य करे। इसलिए सावधान! दूसरे को अपने उपर इच्छाशक्ति का संचालन न करने देना। अथवा दूसरे पर ऐसी इच्छाशक्ति का प्रयोग करके अनजाने उसका सत्यनाश न कर देना। यह सत्य है कि कोई कोई लोग कुछ व्यक्तियों की प्रवृत्ति का मोड़ फेरकर कुछ दिनों के लिए उनका कुछ कल्याण करने में कृत कार्य होते हैं, परन्तु साथ ही वे दूसरों पर इस वशीकरणशक्ति का प्रयोग करके, बिना जाने, लाखों नर-नारियों को एक प्रकार से विकृत जड़ावस्थापन्न कर डालते हैं, जिसके परिणामस्वरूप उन वश्य व्यक्तियों की आत्मा का अस्तित्व तक मानों लुप्त हो जाता है। इसलिए जो कोई व्यक्ति तुमसे अन्धविश्वास करने को कहता है, अथवा अपनी श्रेष्ठतम इच्छाशक्ति के बल से लोगों को वशीभूत करके अनुसरण करने के लिए बाध्य करता है, वह मनुष्य जाति का भारी अनिष्ट करता है-भले ही वह इसे इच्छापूर्वक न करता हो। (राजयोग, पृष्ठ-71)
51. अतएव अपने मन का संयम करने के लिए सदा अपने ही मन की सहायता लो, और सदा याद रखो कि तुम यदि रोगग्रस्त नहीं हो, तो कोई भी बाहरी इच्छाशक्ति तुम पर कार्य न कर सकेगी जो व्यक्ति तुमसे अन्धे के समान विश्वास कर लेने को कहता हो, उससे दूर ही रहो, वह चाहे कितना भी बड़ा आदमी या साधु क्यों न हो। (राजयोग, पृष्ठ-72)
52. जो इच्छामात्र से अपने मन को केन्द्रों में संलग्न करने अथवा उनसे हटा लेने में सफल हो गया है उसी का प्रत्याहार सिद्ध हुआ है। प्रत्याहार का अर्थ है, एक ओर आहरण करना अर्थात् खींचना-मन की बहिर्गति को रोककर, इन्द्रियों की अधीनता से मन को मुक्त करके उसे भीतर की ओर खींचना। (राजयोग, पृष्ठ-73)
53. प्रत्याहार के बाद है-“धारणा“। धारणा का अर्थ है-मन को देह के भीतर या उसके बाहर किसी स्थानविशेष में धारण या स्थापन करना। मन को स्थानविशेष में धारण करने का अर्थ क्या है? इसका अर्थ यह है कि मन को शरीर के अन्य सब स्थानों से अलग करके किसी एक विशेष अंश के अनुभव में बलपूर्वक लगाये रखना। (राजयोग, पृष्ठ-75)
54. योगाभ्यास करने पर जो चिह्न योगियों में प्रकट होते हैं, देह की स्वस्थता उनमें प्रथम है। स्वर भी मधुर हो जायेगा, स्वर में जो कुछ दोष है, सब निकल जायेगा। कभी कभी घण्टाध्वनि की तरह का शब्द सुन पड़ेगा। कभी कभी देखोगे, आलोक के छोटे छोटे कण हवा में तैर रहे हैं और क्रमशः कुछ-कुछ बड़े होते जा रहे हैं। जब ये लक्षण प्रकाशित होंगे, तब समझना कि तुम दु्रत गति से साधना में उन्नति कर रहे हो। (राजयोग, पृष्ठ-76-77)
55. देह के भीतर या उसके बाहर किसी स्थान में मन को कुछ समय तक स्थिर रखने की पुनः पुनः चेष्टा करते रहने से, उसका उस दिशा में अविच्छिन्न गति से प्रवाहित होने की शक्ति प्राप्त होगी। इस अवस्था का नाम है-“ध्यान“। जब ध्यानाशक्ति इतनी तीव्र हो जाती है कि मन अनुभूति के बाहरी भाग को छोड़कर केवल उसके अन्तर्भाग या अर्थ की ही ओर सम्पूर्ण रूप से जाता है, तब उस अवस्था का नाम है-“समाधि“। (राजयोग, पृष्ठ-91)
56. धारणा, ध्यान और समाधि इन तीनों को एक साथ लेने से “संयम“ कहते हैं अर्थात् यदि किसी का मन पहले किसी वस्तु में एकाग्र हो सकता है, फिर उस एकाग्रता की अवस्था में कुछ समय तक रह सकता है, ओर उसके बाद ऐसी दीर्घ एकाग्रता की अवस्था में वह अनुभूति के केवल आभ्यान्तरिक भाग पर, जिसका कि वह वस्तु वाह्य प्रकाश है, अपने आपको लगाये रख सकता है, तो सभी कुछ ऐसे शक्ति सम्पन्न मन के वशीभूत हो जाता है। (राजयोग, पृष्ठ-92)
57. जीव की कितने प्रकार की अवस्थायें हैं, उनमें यह ध्यानावस्था ही सर्वोच्च है। जब कोई व्यक्ति इस ध्यानावस्था से अर्थात् साक्षीभाव से सारी वस्तुओं की चर्चा कर सकता है, तभी उसे यथार्थ सुख प्राप्त होता है। अन्य प्राणी इन्द्रियों में सुख पाते हैं, मनुष्य बुद्धि में और देवमानव आध्यात्मिक ध्यान में। (राजयोग, पृष्ठ-92)
58. इस समाधि में प्रत्येक मनुष्य का, यही नहीं प्रत्येक प्राणी का अधिकार है। सब से निम्नतर प्राणी से लेकर अत्यन्त उन्नत देवता तक सभी, कभी न कभी, इस अवस्था को अवश्य प्राप्त करेंगे; और जब किसी को यह अवस्था प्राप्त हो जायेगी, तभी हम कहेंगे कि उसने यथार्थ धर्म की प्राप्ति की है। (राजयोग, पृष्ठ-94)
59. जब मनुष्य समाधिस्थ होता है, तो समाधि प्राप्त करने के पहल यदि वह महामूर्ख रहा हो, अज्ञानी रहा हो, तो समाधि से वह महाज्ञानी होकर नीचे आता है। (राजयोग, पृष्ठ-83)
60. सारा नीतिशास्त्र, मनुष्य के सारे काम, मनुष्य के सारे विचार इस निःस्वार्थपरतारूप एक मात्र भाव (भित्ति) पर स्थापित है। मानव जीवन के सारे भाव इस निःस्वार्थपरतारूप एकमात्र भाव के अन्दर ढाले जा सकते हैं। (राजयोग, पृष्ठ-86)
61. परमार्थिक ज्ञान सारे देश में वस्तुतः एक होने पर भी, किसी देश में वह देवदूत से, किसी देश में देव विशेष से, अथवा फिर कहीं साक्षात् भगवान से प्राप्त हुआ क्यों सुना जाता है। इसका तात्पर्य क्या है? यही कि मन ने अपनी प्रकृति के अनुसार ही अपने भीतर से उस ज्ञान को प्राप्त किया है, किन्तु जिन्होंने उसे पाया है, उन्होंने अपनी शिक्षा और विकास के अनुसार इस बात का वर्णन किया है कि उन्हें वह ज्ञान कैसे मिला। असल बात तो यह है कि ये सभी उस ज्ञानातीत अवस्था में अचानक जा पड़े थे। (राजयोग, पृष्ठ-88)
62. योगीगण कहते हैं कि उस ज्ञानातीत अवस्था में अचानक जा पड़ने से एक भारी धोखे की आशंका रहती है। अनेक स्थलों में तो मस्तिष्क के बिल्कुल नष्ट हो जाने की सम्भावना रहती है। (राजयोग, पृष्ठ-88)
63. राजयोग यथार्थ धर्म विज्ञान है। वह सारी उपासना, सारी प्रार्थना, विभिन्न प्रकार की साधना पद्धति और समुदाय अलौकिक घटनाओं की युक्तिसंगत व्यवस्था है। (राजयोग, पृष्ठ-61)
64. सिर्फ पुस्तकों पर निर्भर रहने से मानव-मन केवल अवनति की ओर जाता है। यह कहने से और घोर नास्तिकता क्या हो सकती है कि ईश्वरीय ज्ञान केवल इस पुस्तक में या उस शास्त्र में आबद्ध है। (राजयोग, पृष्ठ-91)
65. मनुष्य पहले भगवान से आता है, मध्य में वह मनुष्य के रूप में रहता है और अन्त में पुनः भगवान के पास चला जाता है। यह हुई द्वैतभाव की भाषा। अद्वैतवाद की भाषा में यह भाव व्यक्त करने पर कहना पड़ेगा कि मनुष्य भगवान है, और आकर फिर उन्हीं में लौट जाता है। (राजयोग, पृष्ठ-107)
66. हम गुरु बिना कोई ज्ञान प्राप्त नहीं कर सकते। अब बात यह है कि यदि मनुष्य, देवता अथवा कोई स्वर्गदूत हमारे गुरु हो, तो वे भी तो ससीम है; फिर उनसे पहले उनके गुरु कौन थे? हमें मजबूर होकर यह चरम सिद्धान्त स्थिर करना ही होगा कि एक ऐसे गुरु हैं, जो काल के द्वारा सीमाबद्ध या अविच्छिन्न नहीं है। उन्हीं अनन्तज्ञानसम्पन्न गुरु को, जिनका आदि भी नहीं और अन्त भी नहीं, ईश्वर कहते हैं। (राजयोग, पृष्ठ-134)
67. प्रत्यक्ष उपलब्धि करना ही यथार्थ धर्म है, वही धर्म का सार है, और शेष सब-उदाहरणार्थ, धर्म सम्बन्धी भाषण सुनना, धार्मिक ग्रन्थों का पाठ करना या विचार करना-उस रास्ते के लिए तैयारी मात्र है। वह यथार्थ धर्म नहीं है। केवल किसी मत के साथ बौद्धिक सहमति अथवा असहमति धर्म नहीं है। (राजयोग, पृष्ठ-154)
68. भोग अवश्यम्भावी है, वह तो करना ही होगा, अतएव जितनी जल्दी हो वह कर लिया जाय, उतना ही मंगल है। अतएव पति-पत्नी सम्बन्धी, मित्र सम्बन्धी तथा और भी जो सब छोटी छोटी प्रेम की आकांक्षाएं हैं सभी का भोग कर डालो। यदि अपना स्वरूप तुम्हे सदा याद रहे, तो तुम शीघ्र ही निर्विघ्न इसके पास हो जाओेगे। भोग-सुख-दुःख का यह अनुभव ही-हमारा एकमात्र महान शिक्षक है। (राजयोग, पृष्ठ-177)
05. भक्ति योग
01. निष्कपट भाव से ईश्वर की खोज को भक्तियोग कहते हैं। इस खोज का आरम्भ, मध्य और अन्त प्रेम में होता है। ईश्वर के प्रति एक क्षण की भी प्रेमोन्मत्तता हमारे लिए शाश्वत् मुक्ति की देने वाली होती है। इस प्रेम से किसी काम्य वस्तु की प्राप्ति नहीं हो सकती, क्योंकि जब तक सांसारिक वासनाएँ घर किये रहती है, तब तक प्रेम का उदय ही नहीं होता। भक्ति कर्म से श्रेष्ठ और ज्ञान तथा योग से उच्च है क्योंकि इन सबका एक न एक लक्ष्य है पर भक्ति स्वयं ही साध्य और साधन स्वरूप है। (भक्तियोग, पृष्ठ-3)
02. भक्तियोग का एक बड़ा लाभ यह है कि वह हमारे चरम लक्ष्य (ईश्वर) की प्राप्ति का सबसे सरल और स्वाभाविक मार्ग है। पर साथ ही उससे एक भय की आशंका यह है कि वह अपनी निम्न या गौणी अवस्था में मनुष्य को बहुधा भयानक मतान्ध और कट्टर बना देता है। देखोगे, जो व्यक्ति अपने सम्प्रदाय के अपने मतवाले लोगों के प्रति दयालु हैं, भला और सच्चा है, सहानुभूति सम्पन्न है, वही अपने सम्प्रदाय से बाहर के लोगों के प्रति बुरा से बुरा काम करने में भी न हिचकेगा। (भक्तियोग, पृष्ठ-4-5) परन्तु जब भक्ति परिपक्व होकर उस अवस्था को प्राप्त हो जाती है, जिसे हम “परा“ कहते हैं, तब इस प्रकार की भयानकता मतान्धता और कट्टरता की फिर आशंका नहीं रह जाती।
03. ज्ञानी और भक्त दोनों ही अपनी-अपनी साधना प्रणाली पर विशेष जोर देते हैं; वे भूल जाते हैं कि पूर्ण भक्ति के उदय होने से पूर्ण ज्ञान बिना मांगे ही प्राप्त हो जाता है और इसी प्रकार पूर्ण ज्ञान के साथ पूर्ण भक्ति भी आप ही आ जाती है।(भक्तियोग, पृष्ठ-6)
04. यह आसक्ति किसके प्रति? उन्हीं परम प्रभु ईश्वर के प्रति। किसी अन्य पुरुष (चाहे वह कितना ही बड़ा क्यों न हो) के प्रति आसक्ति को कभी भक्ति नहीं कह सकते। (भक्तियोग, पृष्ठ-10)
05. जो व्यक्ति मुक्तिलाभ के बाद भी अपने व्यक्तित्व की रक्षा के इच्छुक है-“भगवान से स्वतन्त्र रहना चाहते है, उन्हें अपनी स्पृधयों को चरितार्थ करने और सगुण ब्रह्म का सम्भोग का यथेष्ठ अवसर मिलेगा। ऐसे लोगों के बारे में भागवत पुराण में कहा है-“हे राजन, हरि के गुण ही ऐसे है कि समस्त बन्धनों से मुक्त, आत्माराम ऋषिमुनि भी भगवान की अहैतुकी भक्ति करते है। (श्रीमद् भागवत, 1/7/10) (भक्तियोग, पृष्ठ-17)
06. एक मात्र ईश्वर की उपासना ही भक्ति है। देव, पितर या अन्य किसी की उपासना भक्ति नहीं कही जा सकती। विभिन्न देवताओं की जो विभिन्न उपासना-पद्धतियाँ है, उनकी गणना कर्मकाण्ड में ही की जाती है। उसके द्वारा उपासक को किसी प्रकार के स्वर्ग-भोग के रूप में एक विशिष्ट फल ही मिलता है, उससे न भक्ति होती है, न मुक्ति। परन्तु जब उस देवता या उस पुरूष को ब्रह्मरूप मानकर उसकी उपासना की जाती है, तो उससे वही फल प्राप्त होता है जो ईश्वरोपासना से। (भक्तियोग, पृष्ठ-49-50)
07. श्री राम कृष्ण कहते थे-जिस प्रकार एक कंजूस धन से, एक माँ बेटे से और एक प्रेमी अपनी प्रेमिका से प्रेम करता है, अगर कोई व्यक्ति इन तीनो के प्रेम से युक्त होकर भगवान की खोज करें, तो वह आसानी से उसका अनुभव कर सकता है। लेकिन कौन ऐसा करता है? व्यक्ति तो सांसारिक सम्बन्धों के लिए ही घड़े भर आँसू बहाता है, भगवान के लिए कौन रोता है? (योग क्या है?, पृष्ठ-17)
08. वे लोग वास्तव में बहुत भाग्यशाली है जो भगवान के प्रति अपने बाल सुलभ एवम् सहज प्रेम के कारण या तो भगवान की ओर मुड़ते है या वे स्वयं भगवान द्वारा खोज लिये जाते है और भगवान की भुजाओं में ले लिये जाते हैं लेकिन उनके बारे में क्या कहा जाय जो पूर्णरूपेण लगनशील होते हुये भी भगवान के प्रति स्वतः।स्फूर्त प्रेम नहीं रखते। इतना ही नहीं, वे अनेक प्रकार की आशंकाओं से आक्रान्त रहते है-जैसे क्या ईश्वर सचमुच में हैं? (योग क्या है?, पृष्ठ-18)
09. बिना प्रार्थना और उत्कट लालसा के कोई व्यक्ति भगवान को नहीं जान सकता। यह सर्वप्रथम तो विरोधाभास सा लगता है, लेकिन यह विवाद तुरन्त ही शान्त हो जाता है जब सन्देहशील व्यक्ति महान संतों एवं द्रष्टाओं के प्रमाणों में विश्वास करने लग जाता है जो यह कहते है कि-हाँ, ईश्वर प्रार्थनाओं का उत्तर देते है, और कोई भी प्रेम एवं निःस्वार्थ भाव से की गई प्रार्थना व्यर्थ नहीं जाती। (योग क्या है?, पृष्ठ-18)
10. यह बात एक बालक भी जानता है कि मिट्टी का लोंदा भगवान नहीं है, लेकिन वह लोंदा जब एक मूर्ति का रूप ग्रहण कर लेता है तो भक्त के हृदय में भगवान के प्रति प्रेम-भावना को जागृत करता है। तब उसका मन मूर्ति में प्रयुक्त मिट्टी का अतिक्रमण कर जाता है परम चेतना की स्थिति को भी प्राप्त करता है। (योग क्या है?, पृष्ठ-23)
11. प्रार्थना और पूजा के अलावे महान आत्माओं की संगति भी भक्ति के विकास में बड़ी महत्वपूर्ण होती है। यह कहा जाता है कि साधुओं की क्षणिक संगति भी एक ऐसी नाव का काम करती है जिसमें बैठकर संसार-सागर को आसानी से पार किया जा सकता है। (योग क्या है?, पृष्ठ-23)
12. भक्ति विचित्र रूप धारण करती है, कुछ भक्त भगवान को पिता के रूप में, कुछ माँ के रूप में और कुछ बालक आदि के रूप में देखते हैं। यह तब तक चलता है जब तक कि सारी सांसारिक साधन भक्त के स्वभावानुसार प्रयुक्त नहीं हो जाती। (योग क्या है?, पृष्ठ-28)
13. जब एक विशेष भक्त ऐसी उत्कट भक्ति का विकास कर लेता है तब उसे न तो दीर्घ जीवन की लालसा रहती है और न मृत्यु का कोई भय। अगर वह जीता है तो मानवता के लिए वरदान बनता है और वह ऐसी ज्योति प्रज्वलित करता है जो उस पथ पर चलने वाले दूसरे भक्तों को शाश्वत् रूप से प्रकाशित करती है। वह मृत्यु में भी अमरत्व प्राप्त करता है क्योंकि वह भगवान के सभी सच्चे प्रेमियों के हृदय में विराजमान रहता है। (योग क्या है?, पृष्ठ-28-29)
14. प्रतीक का अर्थ है वे वस्तुएं, जो थोड़े-बहुत अंश में ब्रह्म के स्थान में उपास्य-रूप से ली जा सकती है जो वस्तु ब्रह्म नहीं है, उसमें ब्रह्म-बुद्धि करके ब्रह्म का अनुसंधान प्रतीकोपासना कहलाता है। (योग क्या है?, पृष्ठ-48)
15. संसार के मुख्य धर्मों में से वेदान्त, बौद्ध धर्म और ईसाई धर्म के कुछ सम्प्रदाय बिना किसी आपत्ति के प्रतिमाओं का उपयोग करते हैं। केवल इस्लाम और प्रोटेस्टेण्ट ये ही दो ऐसे धर्म हैं जो इस सहायता की आवश्यकता नहीं मानते। फिर भी मुसलमान प्रतिमा के स्थान में अपने पीरों और शहीदों की कब्रों का उपयोग करते हैं।
16. ईसाई और इस्लाम धर्म में जो कुछ प्रतिमा-उपासना विद्यमान है, वह उस श्रेणी की है, जिसमें प्रतीक या प्रतिमा की उपासना केवल प्रतीक या प्रतिमा रूप से होती है-ब्रह्म दृष्टि से नहीं। अतएव वह कर्मानुष्ठान के ही समान है-उससे न भक्ति मिल सकती है, न मुक्ति। इस प्रकार की प्रतिमा-पूजा में उपासक ईश्वर को छोड़ अन्य वस्तुओं में आत्मसमर्पण कर देता है और इसलिए प्रतिमा, कब्र, मन्दिर आदि के इस प्रकार उपयोग को ही सच्ची मूर्तिपूजा कहते है। पर वह न तो कोई पाप कर्म है और न कोई अन्याय-वह तो बस एक कर्म मात्र है, और उपासकों को उसका फल भी अवश्य मिलता है। (भक्तियोग, पृष्ठ-51)
17. जो भक्त होना चाहता है, उसे यह जान लेना चाहिए कि “जितने मत है उतने पथ है।“ उसे अवश्य जान लेना चाहिए कि विभिन्न धर्मों के भिन्न सम्प्रदाय उसी प्रभु की महिमा की अभिव्यक्तियाँ है। “लोग तुम्हे कितने नाम से पुकारते हैं। लोगों ने विभिन्न नामों से तुम्हें विभाजित सा कर दिया है परन्तु फिर भी प्रत्येक नाम में तुम्हारी पूर्णशक्ति वर्तमान है। भक्त को यह भी ध्यान रखना चाहिए कि अन्य सम्प्रदायों के तेजस्वी प्रवर्तकों के प्रति उसके मन में घृणा उत्पन्न न हो, वह उनकी निन्दा न करे और न कभी उनकी निन्दा सुने ही।“ (भक्तियोग, पृष्ठ-56)
18. भक्तिकाल के उपायों तथा साधनों के सम्बन्ध में भगवान रामानुज वेदान्त-सूत्रों की टीका करते हुए कहते हैं, “भक्ति की प्राप्ति विवेक, विमोक (दमन), अभ्यास, क्रिया (यज्ञादि), कल्याण (पवित्रता), अनवसाद (बल) और अनुद्धर्स (उल्लास का विरोध) से होती है।“ (भक्तियोग, पृष्ठ-56)
19. “विवेक“ का अर्थ यह कि अन्य बातों के साथ ही हमें खाद्याखाद्य का भी विचार रखना चाहिए। खाद्य वस्तु के अशुद्ध होने के तीन कारण होते हैं-(1) जातिदोष अर्थात् खाद्य वस्तु का प्रकृतिगत दोष-जैसे लहसुन, प्याज आदि; (2) आश्रयदोष अर्थात् दुष्ट और पापी व्यक्तियों के पास से आने में दोष; और (3) निमित्तदोष अर्थात् किसी अपवित्र वस्तु, जैसे-धूल, केश आदि के संस्पर्श से होने वाला दोष। (भक्तियोग, पृष्ठ-56)
20. सूक्ष्म शरीर (मन) का संयम करना स्थूल शरीर के संयम से निश्चय ही श्रेष्ठ है, परन्तु साथ ही साथ सूक्ष्म के लिए स्थूल का भी संयम परमावश्यक है। इसलिए आरम्भिक दशा में साधक को आहार-सम्बन्धी उन सब नियमों का विशेष रूप से पालन करना चाहिए, जो उसकी गुरु-परम्परा से चले आ रहे हैं। आजकल हमारे अनेक सम्प्रदायों में इस आहारादि विचार की इतनी बढ़ी चढ़ी है, अर्थहीन नियमों की इतनी पाबन्दी है कि उन सम्प्रदायों ने मानो धर्म को रसोईघर में ही सीमित कर रखा है जो लोग खाद्याखाद्य के इस विचार को ही जीवन का सार कत्र्तव्य समझ बैठे हैं, उनकी गति ब्रह्मलोक में न होकर पागलखाने में होना ही अधिक सम्भव है। (भक्तियोग, पृष्ठ-58)
21. वास्तव में खाद्य के सम्बन्ध में यह शुद्धाशुद्ध विचार गौण है। “जो कुछ आहत हो, वही आहार है।“ आहार-शुद्धि का अर्थ है-आसक्ति, द्वेष और मोह से रहित होकर विषय का ज्ञान प्राप्त करना। अतएव यह ज्ञान या “आहार“ शुद्ध हो जाने से उस व्यक्ति का सत्त्व पदार्थ अर्थात् अन्तःकरण शुद्ध हो जाता है, और सत्वशुद्धि हो जाने से अनन्त पुरुष के यथार्थ स्वरूप का ज्ञान और अविच्छिन्न स्मृति प्राप्त हो जाती है। (भक्तियोग, पृष्ठ-57)
22. “विमोक“ अर्थात् इन्द्रिय निग्रह-इन्द्रियों को विषयों की ओर जाने से रोकना ओर उनको वश में लाकर अपनी इच्छा के अधीन रखना। इसे धार्मिक साधना की नींव ही कह सकते हैं। (भक्तियोग, पृष्ठ-59)
23. “अभ्यास“ अर्थात् आत्मसंयम और आत्मत्याग का अभ्यास। भगवान श्रीकृष्ण गीता में कहते हैं, “हे कौन्तेय, अभ्यास और वैराग्य से यह प्राप्त होता है“ (गीता, 6/35) (भक्तियोग, पृष्ठ-59)
24. “क्रिया“ अर्थात् यज्ञ। पंच महायज्ञों का नियमित रूप से अनुष्ठान करना होगा। (भक्तियोग, पृष्ठ-59)
25. “कल्याण“ अर्थात् पवित्रता ही एकमात्र ऐसी भित्ति है, जिस पर सारा भक्तिप्रसाद खड़ा है। वाह्य शौच और खाद्याखाद्य विचार ये दोनों सरल है, पर अन्तःशुद्धि बिना उसका कोई मूल्य नहीं। अन्तःशुद्धि के लिए इन गुणों को उपास्यस्वरूप बतलाया गया है-(1) सत्य (2) आर्जाव अर्थात् सरला (3) दया अर्थात् निःस्वार्थ परोपकार (4) दान (5) अहिंसा अर्थात् मन, वचन और कर्म से किसी की हिंसा न करना (6) अनमिध्या अर्थात् परद्रव्यलोभ, वृथा चिन्तन और दूसरे द्वारा किये गये अनिष्ट आचरण के निरन्तर चिन्तन का त्याग। (भक्तियोग, पृष्ठ-59)
26. इन गुणों में से अहिंसा विशेष ध्यान देने योग्य है। सब प्राणियों के प्रति अहिंसा का भाव हमारे लिए परमावश्यक है। अहिंसा की कसौटी है-ईष्र्या का अभाव। मानवजाति का सच्चा प्रेमी तो वह है, जो किसी के प्रति ईष्र्या भाव नहीं रखता। बहुधा देखा जाता है कि संसार में जो बड़े मनुष्य कहे जाते हैं, वे अक्सर एक दूसरे के प्रति केवल थोड़े से नाम, कीर्ति या चांदी के चन्द टुकड़ों के लिए ईष्र्या करने लगते हैं। (भक्तियोग, पृष्ठ-60)
27. जिस प्रकार घास-फूस खाने वाले जानवरों की कोई विशेष उन्नत नहीं कहा जा सकता, उसी प्रकार वही भी कोई खाद्य विशेष त्याग देने से ही ज्ञानी या उन्नत स्वभाव का नहीं हो जाती। जिसके हृदय में कभी भी किसी के प्रति अनिष्ट विचार तक नहीं आता, जो अपने बड़े से बड़े शत्रु की भी उन्नति पर आनन्द मनाता है, वही वास्तव में भक्त है, वही योगी है और वही सब का गुरु है-फिर भले ही वह प्रतिदिन शूअर मांस ही क्यों न खाता हो। (भक्तियोग, पृष्ठ-61)
28. जब बाह्य कर्मों के साधन में छोटी छोटी बातों का पालन करना सम्भव न हो, तो उस समय केवल अन्तःशौच का अवलम्बन करना श्रेयस्कर है। पर धिक्कार है उस व्यक्ति को, धिक्कार है उस राष्ट्र को, जो धर्म के सार को तो भूल जाता है और अभ्यासवश वाह्य अनुष्ठानांे को ही कसकर पकड़े रहता है तथा उन्हें किसी तरह छोड़ता नहीं! (भक्तियोग, पृष्ठ-61)
29. “अनवसाद“ अर्थात् बल। श्रुति कहती है-“बलहीन व्यक्ति आत्मसम्मान नहीं कर सकता“। इस दुर्बलता का तात्पर्य है-शारीरिक और मानसिक दोनों प्रकार की दुर्बलताएं। “युवा, स्वस्थकाय, सबल“ व्यक्ति ही सिद्ध हो सकता है। दुर्बल चित्त व्यक्ति भी आत्मलाभ नहीं कर सकता। जो मनुष्य भक्त होने का इच्छुक है, उसे सदैव प्रसन्न चित्त रहना चाहिए। (भक्तियोग, पृष्ठ-62)
30. “अनुद्धर्ष“। साथ ही साथ यह भी ध्यान रखना चाहिए कि मनुष्य कहीं अत्यधिक आमोद में मत्त न हो जाय। यह अनुद्धर्ष है। अत्यन्त हास्य-कौतुक हमें गंभीर चिन्तन के अयोग्य बना देता है। उससे मानसिक शक्ति व्यर्थ ही क्षय हो जाती है। इन्हीं सब साधनांे द्वारा क्रमशः ईश्वर भक्ति का उदय होता है। (भक्तियोग, पृष्ठ-63)
31. सब प्रकार की साधनाओं का उद्देश्य है-आत्मशुद्धि। नाम-जप, कर्मकाण्ड, प्रतीक, प्रतिमा आदि केवल आत्मशुद्धि के लिए हैं। इसके बिना कोई भी पराभक्ति के क्षेत्र में प्रवेश नहीं कर सकता। यह त्याग ही सारी आध्यात्मिकता का प्रथम सोपान है, उसका सार है-यही वास्तविक धर्म है। जब मानवता संसार की समस्त वस्तुओं को दूर फेंक, गंभीर तत्वों के अनुसंधान में लग जाती है, तभी वास्तविक आध्यात्मिकता की नींव पड़ती है। (भक्तियोग, पृष्ठ-64)
32. कर्मयोगी सारे कर्मफलों का त्याग करता है; वह जो कुछ कर्म करता है, उसके फल में वह आसक्त नहीं होता। राजयोगी जानता है कि सारी प्रकृति का लक्ष्य आत्मा को भिन्न-भिन्न प्रकार के सुख-दुःखात्मक अनुभव प्राप्त कराना है। राजयोगी प्रकृति के अपने नानाविध सुख-दुःखों के अनुभवों से वैराग्य की शिक्षा पाता है। ज्ञान योगी का वैराग्य सब से कठिन है, क्योंकि आरम्भ से ही उसे यह जान लेना पड़ता है कि यह ठोस दिखने वाली प्रकृति निरीमिथ्या है। (भक्तियोग, पृष्ठ-65)
33. सब प्रकार के वैराग्यों में भक्तियोगी का वैराग्य सब से स्वाभाविक है। उनमें न कोई कठोरता है, न कुछ छोड़ना पड़ता है, न हमें अपने आप से कोई चीज छोड़नी पड़ती है, और न बलपूर्वक किसी चीज से हमें अपने आपको अलग ही करना पड़ता है। भक्ति के लिए जिस वैराग्य की आवश्यकता होती है, उसके प्राप्त करने के लिए किसी का नाश करने की आवश्यकता नहीं होती। वह वैराग्य तो स्वभावतः ही आ जाता है। (भक्तियोग, पृष्ठ-65-67)
34. यही ईश्वर-प्रेम क्रमशः बढ़ते हुए एक ऐसा रूप धारण कर लेता है, जिसे “पराभक्ति“ कहते हैं।, तब तो इस प्रेमिक पुरुष के लिए अनुष्ठान की और आवश्यकता नहीं रह जाता, शास्त्रों का कोई प्रयोजन नहीं रह जाता; प्रतिमा, मन्दिर, गिरजे, विभिन्न सम्प्रदाय, देश, राष्ट्र-ये सब छोटे छोटे सीमित भाव और बन्धन अपने ही आप चले जाते हैं। तब संसार में ऐसी कोई भी वस्तु नहीं बच रहती, जो उसको बांध सके, जो उसकी स्वाधीनता को नष्ट कर सके। (भक्तियोग, पृष्ठ-67)
35. “तदीयता“। जब मनुष्य अपने आपको बिल्कुल भूल जाता है और जब उसे यह भी ज्ञान नहीं रहता कि कोई चीज अपनी है, तभी यह “तदीयता“ की अवस्था प्राप्त होती है। तब सब कुछ उसके लिए पवित्र हो जाता है, क्योंकि वह सब उसके प्रेमास्पद का ही तो है। सांसारिक प्रेम में भी, प्रेमी अपनी प्रेमिका की प्रत्येक वस्तु को बड़ी प्रिय और पवित्र मानता है। अपनी प्रणयिनी के कपड़े के एक छोटे से टुकड़े को भी वह प्यार करता हैं इसी प्रकार जो मनुष्य भगवान से प्रेम करता है, उसके लिए सारा संसार प्रिय हो जाता है, क्योंकि यह संसार आखिर उन्हीं का तो है। (भक्तियोग, पृष्ठ-81)
36. भक्त कहता है कि हमें ऐसा रहना चाहिए, मानों हम दुनिया की सारी चीजों के लिए मर-से गये हों और वास्तव में यही यथार्थ समर्पण है। यही सच्ची शरणागति है-“जो होने का है, हो“। उसके हृदय के अन्तरतम प्रदेश से तो बस यही प्रार्थना निकलती है, “प्रभो, लोग तुम्हारे नाम पर बड़े बड़े मन्दिर बनवाते हैं, बड़े बड़े दान देते हैं; पर मैं तो निर्धन हूँ; मेरे पास कुछ भी नहीं है। अतः मैं अपने इस शरीर को ही तुम्हारे श्री चरण कमलों में समर्पित करता हूँ। मेरा परित्याग न करना प्रभो!“ जिसने एक बार इस अवस्था का आस्वादन कर लिया है, उसके लिए प्रेमास्पद भगवान के श्री चरणों में यह चिर आत्मसमर्पण कुबेर के धन और इन्द्र के ऐश्वर्य से भी श्रेष्ठ है, नाम-परा और सुख-सम्पदा की महान आकांक्षा से भी महत्तर है। (भक्तियोग, पृष्ठ-86-87)
37. भक्त के लिए पराविद्या और पराभक्ति दोनों एक ही है। “ब्रह्मज्ञानी के मतानुसार परा और अपरा ये दो प्रकार की विद्याएं जानने योग्य है। अपरा विद्या में ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद, अथर्ववेद, शिक्षा (उच्चारणादि की विद्या), कल्प (यज्ञ पद्धति), व्याकरण, निरूक्त (वैदिक शब्दों की उत्पत्ति और अर्थ बताने वाला शास्त्र), छन्द और ज्योतिष आदि है; तथा पराविद्या द्वारा उस अक्षर ब्रह्म का ज्ञान होता है।“ इस प्रकार परा विद्या स्पष्टतः ब्रह्मविद्या है। (भक्तियोग, पृष्ठ-88)
38. एक बर्तन से दूसरे बर्तन में तेल डालने पर जिस प्रकार एक अविच्छिन्न धारा में गिरता है, उसी प्रकार जब मन भगवान के सतत् चिन्तन में लग जाता है, तो पराभक्ति की अवस्था प्राप्त हो जाती है। (भक्तियोग, पृष्ठ-88)
39. केवल प्रेम के लिए प्रेम करना संसार में निस्संदेह प्रेम की सर्वोच्च अभिव्यक्ति है और यही पूर्ण निःस्वार्थ प्रेम है। इस प्रकार का प्रेम जब आध्यात्मिकता के क्षेत्र में कार्य करने लगता है, तो वही हमें पराभक्ति में ले जाता हैं। (भक्तियोग, पृष्ठ-89)
06. प्रेम योग
01. भक्ति विभिन्न रूपों में प्रकाशित होती है-(1) श्रद्धा (2) प्रीति (3) विरह (4) तदीयता। (भक्तियोग, पृष्ठ-79)
02. “श्रद्धा“। इस श्रद्धा का मूल है प्रेम। हम जिससे प्रेम नहीं करते, उसके प्रति कभी भी श्रद्धालु नहीं हो सकते।
03. “प्रीति“। अर्थात् ईश्वर-चिन्तन में आनन्द। (भक्तियोग, पृष्ठ-79)
04. “विरह“-प्रेमास्पद के अभाव में उत्पन्न होने वाला तीव्र दुःख। यह दुःख संसार के समस्त दुःखों में सबसे मधुर है-अत्यंत मधुर है। जब मनुष्य भगवान को न पा सकने के कारण संसार में एकमात्र जानने योग्य वस्तु को न जान सकने के कारण भीतर तीव्र वेदना अनुभव करने लगता है और फलस्वरूप अत्यन्त व्याकुल हो बिल्कुल पागल-सा हो जाता है तो उस दशा को विरह कहते हैं। मन की ऐसी दशा में प्रेमास्पद को छोड़ उसे और कुछ अच्छा नहीं लगता (इतर-विचिकित्सा)। बहुधा यह विरह सांसारिक प्रणय में देखा जाता है। जब स्त्री-पुरुष में यथार्थ और प्रगाढ़ प्रेम होता है, तो उन्हें ऐसे किसी भी व्यक्ति की उपस्थिति अच्छी नहीं लगती, जो उनके मन का नहीं होता। (भक्तियोग, पृष्ठ-79)
05. प्रकृति में सर्वत्र हम प्रेम का विकास देखते हैं। पहला मानव समाज में जो कुछ सुन्दर और महान है, वह समस्त प्रेम प्रसूत है, दूसरा फिर जो कुछ खराब, यही नहीं, बल्कि पैशाचिक है, वह भी उसी प्रेमाभाव का विकृत रूप है। दूसरा जिस प्रकार अपने आप से प्यार करता है। पहला उसी प्रकार दूसरों से प्यार करता है। पहली दशा में प्रेम की गति ठीक और उचित दिशा में है, पर दूसरी दशा में वह बुरी दिशा में। जो आग हमारे लिए भोजन पकाती है, वह एक बच्चे को जला भी सकती है। किन्तु इसमें आग का कोई दोष नहीं। (भक्तियोग, पृष्ठ-69)
06. भक्तियोग उच्चतर प्रेम का विज्ञान है। वह हमें दर्शाता है कि हम प्रेम को ठीक रास्ते से कैसे लगायें, कैसे उसे वश में लायें, उसका सद्व्यवहार किस प्रकार करें, किस प्रकार एक नये मार्ग में उसे मोड़ दें और उसके श्रेष्ठ और महत्तम फल अर्थात् जीवन्मुक्त अवस्था किस प्रकार प्राप्त करें। और जो परमेंश्वर के प्रेम में उन्मुक्त हो गया है, उसकी स्वभावतः, नीच विषयों में कोई प्रवृत्ति नहीं रह सकती। (भक्तियोग, पृष्ठ-70)
07. समष्टि से प्रेम किये बिना हम व्यष्टि से प्रेम कैसे कर सकते हैं? ईश्वर ही वह समष्टि है। सारे विश्व का यदि एक अखण्ड रूप से चिन्तन किया जाय, तो वही ईश्वर है, और उसे पृथक-पृथक रूप से देखने पर वही यह दृश्यमान संसार है-व्यष्टि है। समष्टि वह इकाई है, जिसमें लाखों छोटी छोटी इकाईयों का मेंल है। इस समष्टि के माध्यम से ही सारे विश्व को प्रेम करना सम्भव है। (भक्तियोग, पृष्ठ-82)
08. प्रेम की उपमा एक त्रिकोण से दी जा सकती है, जिसका प्रत्येक कोण एक एक अविभाज्य गुण का सूचक है। जिस प्रकार बिना तीन कोण के एक त्रिकोण नहीं बन सकता, उसी प्रकार निम्नलिखित तीन गुणों के बिना यथार्थ प्रेम का होना असम्भव है। (भक्तियोग, पृष्ठ-90)
09. पहला कोण तो यह है कि प्रेम में किसी प्रकार का क्रय-विक्रय (खरीद-बेच) नहीं होता। (भक्तियोग, पृष्ठ-90)
10. दूसरा कोण यह है कि प्रेम में कोई भय नहीं रहता। (भक्तियोग, पृष्ठ-92)
11. तीसरा कोण यह है कि प्रेम में कोई प्रतद्वन्द्वी अर्थात् दूसरा प्रेमपात्र नहीं होता। (भक्तियोग, पृष्ठ-93)
12. जो प्रेमी स्वार्थपरता और भय के परे हो गया है, जो फलाकांक्षा शून्य हो गया है, उसका आदर्श क्या है? वह परमेंश्वर से भी यही कहेगा। “मैं तुम्हे सर्वस्व अर्पण करता हूँ, मैं तुमसे कोई चीज नहीं चाहता। वास्तव में ऐसा कुछ भी नहीं है, जिसे मैं अपना कह सकूँ।“ जब मनुष्य इस प्रकार की अवस्था प्राप्त कर लेता है, तब उसका आदर्श पूर्ण पे्रम का आदर्श हो जाता है। वह आदर्श तो सार्वभौमिक प्रेम, अनन्त और असीम प्रेम, पूर्ण स्वतंत्र प्रेम का आदर्श होता है; यही क्यों, वह साक्षात् प्रेम स्वरूप होता है। (भक्तियोग, पृष्ठ-96)
13. जब भक्त इस अवस्था में पहुंच जाता है, तब उसमंे ये सब तर्क-वितर्क नहीं उठते कि भगवान को प्रमाणित किया जा सकता है अथवा नहीं, भगवान सर्वज्ञ और सर्वशक्तिमान है या नहीं। उसके लिए भगवान तो प्रेममय है-प्रेम के सर्वोच्च आदर्श है, और बस यह जानना ही उसके लिए यथेष्ट है। भगवान प्रेमरूप होने के कारण स्वतः सिद्ध है। (भक्तियोग, पृष्ठ-98)
14. कोई कोई कहते हैं कि समस्त मानवी कार्यों की एकमात्र प्रेरक-शक्ति है स्वार्थपरता। किन्तु वह भी तो प्रेम ही है; पर हाँ, वह प्रेम विशिष्टता के कारण निम्नभावापन्न हो गया है-बस इतना ही। जब मैं अपने को संसार की सारी वस्तुओं में अवस्थित सोचता हूँ, तब निश्चय ही मुझमें किसी प्रकार की स्वार्थपरता नहीं रह सकती। (भक्तियोग, पृष्ठ-98)
15. प्रेम के इस परमोच्च और पूर्ण आदर्श को मानवी भाषा में प्रकट करना असम्भव है। उच्चतम मानवी कल्पना भी उसकी अनन्त पूर्णता तथा सौन्दर्य का अनुभव करने में असमर्थ है। मनुष्य दैवी विषयों के सम्बन्ध में अपने मानवी ढंग से ही सोच सकता है, वह पूर्ण निरपेक्ष सत्ता हमारे समक्ष हमारी सापेक्ष भाषा में ही प्रकाशित हो सकती है। पराभक्ति के कई व्याख्याताओं ने इस दैवी प्रेम को अनेक प्रकार से समझने और उसका प्रत्यक्ष अनुभव करने की चेष्टा की है। (भक्तियोग, पृष्ठ-99)
16. इस दैवी प्रेम के-(1) शान्त (2) दास्य (3) सख्य (4) वात्सल्य (5) मधुर (6) अवैध (परकीय) छः रूप है।
17. इस प्रेम के निम्नतम रूप को “शान्त“ भक्ति कहते हैं। जब उसकी उपासना में प्रबल प्रेम की उन्मत्तता नहीं रहती है तब वह उपासना शान्त भक्ति या शान्त प्रेम कहलाती है। (भक्तियोग, पृष्ठ-100)
18. इससे (शान्त प्रेम) से कुछ ऊँची अवस्था है-“दास्य“। इस अवस्था में मनुष्य अपने को ईश्वर का दास समझता है। विश्वासी सेवक की अपने स्वामी के प्रति अनन्य भक्ति ही उसका आदर्श है।
19. इसके (दास्य प्रेम) के बाद है-“सख्य प्रेम“। इस सख्य प्रेम का साधक भगवान से कहता है-“तुम मेरे प्रिय सख्य हो“। जिस प्रकार एक व्यक्ति अपने मित्र के सम्मुख अपना हृदय खोल देता है और यह जानता है कि उसका मित्र उसके अवगुणों पर कभी ध्यान न देगा, वरन् उसकी सदा सहायता ही करेगा-उन दोनों में जिस प्रकार समानता का एक भाव रहता है। इस तरह भगवान हमारे अन्तरंग मित्र हो जाते हैं, जिनके हम अपने जीवन की सारी बातें दिल खोलकर बता सकते हैं, जिनके समक्ष हम अपने हृदय के गुप्त भावों को भी बिना हिचकिचाहट के प्रकट कर सकते हैं। भगवान मानो हमारे संगी हो, सखा हो। हम सभी इस संसार में मानो खेल रहे हैं। जिस प्रकार बच्चे अपना खेल खेलते हैं। (भक्तियोग, पृष्ठ-100)
20. इसके (सख्य प्रेम) के बाद है-“वात्सल्य प्रेम“। उसमें भगवान का चिन्तन पिता रूप से न करके सन्तान रूप से करना पड़ता है। प्रेम कहता है कि भगवान को महामहिम, ऐश्वर्यशाली, जगननाथ या देवदेव के रूप में सोचने की मेरी इच्छा ही नहीं होती। भगवान के साथ सम्बन्धित यह जो भयोत्पादक ऐश्वर्य की भावना है, उसी को दूर करने के लिए वह भगवान को अपनी सन्तान के रूप में प्यार करता है। माता-पिता अपने बच्चे से भयभीत नहीं होते, उसके प्रति उनकी भक्ति नहीं होती। वे उस बच्चे से कुछ याचना नहीं करते। बच्चा तो सदा पाने वाला ही होता है और उसके लिए वे लोग सौ बार भी मरने को तैयार रहते हैं। बस इसी प्रकार भगवान से वात्सल्याभाव से प्रेम किया जाता है जो सम्प्रदाय भगवान के अवतार में विश्वास करते हैं, उन्हीं में यह वात्सल्य भाव की उपासना स्वाभाविक रूप से आती और पनपती है। मुसलमानों के लिए भगवान को एक सन्तान के रूप में मानना असम्भव है। वे तो डर कर इस भाव से दूर रहेंगे। पर ईसाई और हिन्दू इसे सहज ही समझ सकते हैं, क्योंकि उनके तो बालक ईसा और बालक कृष्ण हैं। भारतीय रमणियाँ बहुधा अपने आपको श्रीकृष्ण की माता के रूप में सोचती हैं। (भक्तियोग, पृष्ठ-102-103)
21. मानवी जीवन में प्रेम का यह दैवी आदर्श एक और प्रकार से प्रकाशित होता है। उसे “मधुर“ कहते हैं और वही सब प्रकार के पे्रमों में श्रेष्ठ है। दैवी प्रेम के इस मधुर भाव में भगवान का चिन्तन पतिरूप में किया जाता है-ऐसा विचार कर कि हम सभी स्त्रियाँ हैं, इस संसार में और कोई पुरुष नहीं; एकमात्र पुरुष है-वे। हमारे वे प्रेमास्पद ही एकमात्र पुरुष है जो प्रेम पुरुष-स्त्री के प्रति और स्त्री-पुरुष के प्रति प्रदर्शित करती है, वही प्रेम भगवान को देना होगा। भगवान ही मनुष्य के मन और शरीर की समस्त शक्तियों के एकमात्र लक्ष्य है-एकापन है, फिर वे शक्तियाँ किसी भी रूप से क्यांे न प्रकट हो। मानव हृदय का समस्त प्रेम-सारे भाव भगवान की ओर हो जाय। वे ही हमारे एकमात्र प्रेमास्पद है। यह मानवहृदय भला और किसे प्यार करेगा? वे परम सुन्दर है, परम महान् है-अहा! वे साक्षात् सौन्दर्य स्वरूप है, महत्त्व स्वरूप है। इस दुनिया में भला और कौन पति होने के उपयुक्त है? उनके सिवा जगत में भला और कौन हमारा प्रेमपात्र हो सकता है? अतः वे ही हमारे पति हो, वे ही हमारे प्रेमास्पद हो। “हे प्रियतम, तुम्हारे अधरों के केवल एक चुम्बन के लिए! जिसका तुमने एक बार चुम्बन किया है, तुम्हारे लिए उसकी पिपासा बढ़ती ही जाती है। उसके समस्त दुःख चले जाते हैं। वह तुम्हे छोड़ और सब भुल जाता है।“ प्रियतम के उस चुम्बन के लिए-उनको अधरों के उस स्पर्श के लिए व्याकुल होओ, जो भक्त को पागल कर देता है, जो मनुष्य को देवता बना देता है। (भक्तियोग, पृष्ठ-103-104, 106-107)
22. प्रेमान्माद की यही (मधुर प्रेम) चरम अवस्था है। पर सच्चा भगवत्प्रेमी यहाँ पर भी नहीं रूकता; उसके लिए तो पति और पत्नी की प्रेमोन्मत्तता भी यथेष्ट नहीं। अतएव ऐसे भक्त “अवैध (परकीय)“ प्रेम का भाव ग्रहण करते हैं, क्योंकि वह अत्यन्त प्रबल होता है। फिर देखो, उसकी अवैधता उनका लक्ष्य नहीं है। इस प्रेम का स्वभाव ही ऐसा है कि उसे जितनी बाधा मिलती है, वह उतना ही उग्र रूप धारण करता है। पति-पत्नी का प्रेम अबाध रहता है-उसमें किसी प्रकार की विध्नबाधा नहीं आती। इसलिए भक्त कल्पना करता है, मानो कोई स्त्री परपुरुष में आसक्त है और उसके माता, पिता या स्वामी उसके इस प्रेम का विरोध करते हैं। (भक्तियोग, पृष्ठ-107)
23. श्रीकृष्ण वृन्दावन के कुंजों में किस प्रकार लीला करते थे, किस प्रकार सब लोग उन्मत्त होकर उनसे प्रेम करते थे, किस प्रकार उनकी बाँसुरी की मधुर तान सुनते ही चिर-धन्या गोपियाँ सब कुछ भूलकर, इस संसार और इसके समस्त बन्धनों को भूलकर, यहाँ के सारे कत्र्तव्य तथा सुख-दुःख को बिसराकर, उन्मत्त-सी उनसे मिलने के लिए छुट पड़ती थीं-यह सब मानवी भाषा द्वारा व्यक्त नहीं किया जा सकता। हे मानव, तुम दैवी प्रेम की बाते तो करते हो, पर साथ ही इस संसार की असार वस्तुओं में भी मन दिये रहते हो। क्या तुम सच्चे हो-क्या तुम्हारा मन और मुख एक हैै? “जहाँ राम है, वहां काम नहीं, और जहाँ काम है, वहां राम नहीं।“ (भक्तियोग, पृष्ठ-107-108)
24. जब प्रेम का यह उच्चतम आदर्श प्राप्त हो जाता है, तो ज्ञान फिर न जाने कहाँ चला जाता है। तब भला ज्ञान की इच्छा भी कौन करे? तब तो मुक्ति, उद्धार, निर्वाण की बातें न जाने कहाँ गायब हो जाती है। इस दैवी प्रेम में छके रहने से फिर भला कौन मुक्त होना चाहेगा? “प्रभो! मुझे धन, जन, सौन्दर्य, विद्या यहाँ तक कि मुक्ति भी नहीं चाहिए। बस इतनी ही साध है, कि जन्म जन्म में तुम्हारे प्रति मेरी अहैतुकी भक्ति बनी रहे।“ (भक्तियोग, पृष्ठ-109)
25. भक्त कहता है, “मैं जानता हूँ कि वे और मैं दोनों एक हैं, पर तो भी मैं उनसे अपने को अलग रखकर उन प्रियतम का सम्भोग करूंगा।“ प्रेम के लिए प्रेम-यही भक्ति का सर्वोच्च सुख है। प्रियतम का सम्भोग करने के लिए कौन न हजार बार भी बद्ध होने को तैयार रहेगा? एक सच्चा भक्त प्रेम को छोड़ और किसी वस्तु की कामना नहीं करता। वह स्वयं प्रेम करना चाहता है कि भगवान भी उससे प्रेम करे। (भक्तियोग, पृष्ठ-109)
26. मैं एक ऐसे महापुरुष को जानता हूँ, जिन्हें लोग पागल कहते थे। इस पर उनका उत्तर था, “भाईयों सारा संसार ही तो एक पागलखाना है। कोई सांसारिक प्रेम के पीछे पागल हे, कोई नाम के पीछे, कोई यश के लिए, तो कोई पैसे के लिए। फिर कोई ऐसे भी है, जो उद्धार पाने या स्वर्ग जाने के लिए पागल है। इस विराट पागलखाने में मैं भी एक पागल हूँ-मैं भगवान के लिए पागल हूँ। तुम पैसे के लिए पागल हो, और मैं भगवान के लिए। जैसे तुम पागल हो, वैसा ही मैं भी। फिर भी मैं सोचता हूँ कि मेरा ही पागलपन सब से उत्तम है और इसके सामने अन्य सब कुछ उड़ जाता है।“ (भक्तियोग, पृष्ठ-109)
27. प्रेम के धर्म में हमें द्वैतभाव से आरम्भ करना पड़ता है। उस समय हमारे लिए भगवान हमसे भिन्न रहते हैं, और हम भी अपने को उनसे भिन्न समझते हैं। फिर प्रेम बीच में आ जाता है तब मनुष्य भगवान की ओर अग्रसर होने लगता है और भगवान भी क्रमशः मनुष्य के अधिकाधिक निकट आने लगते हैं। इस प्रेम के प्रकाश में मनुष्य स्वयं सम्पूर्ण रूप से परिवर्तित हो जाता है और अन्त में इस सुन्दर और प्राणों को उन्मत्त बना देने वाले सत्य का अनुभव करता है कि प्रेम, प्रेमी और प्रेमास्पद तीनों एक ही है। (भक्तियोग, पृष्ठ-110-111)
07. कर्मयोग
01. संसार में कुछ व्यक्ति ऐसे हैं जो भगवान के प्रति शरणागति और प्रार्थना की तुलना में कत्र्तव्य भावना से अधिक प्रेरित होते हैं। मृत्यु के बाद क्या होगा-इस दृष्टि से वे संसार को देखना पसंद नहीं करते। उनके लिए वर्तमान संसार ही यथार्थ संसार है और इसमें उनका मन और शक्ति इतनी लग जाती है कि उन्हें सपनों अथवा दार्शनिक धारणाओं के लिए समय नहीं रहता। वे अनुभव करते हैं कि वे अपने कत्र्तव्य अपने प्रति और राष्ट्र के प्रति है। अगर उनका हृदय व्यापक है तो वे अपने कत्र्तव्य की जिम्मेंदारी विश्व और मानवता के प्रति भी मानते हैं। स्वभाव से ही कर्मठ एवं महत्त्वाकांक्षी होने के कारण वे हर समय किसी न किसी काम में व्यस्त रहते है। जब तक वे किसी एक विचार को कार्य में परिणत करते हैं, तब तक सैकड़ों विचार उनमें दिमाग में प्रवेश कर जाते हैं। अगर वे जीवन में सफल होते हैं, तो वे बहुत बड़े देशभक्त, राजनैतिक नेता, समाज सुधारक, परोपकारी, वैज्ञानिक या लेखक आदि बन जाते हैं। इस तरह वे अपनी व्यक्तिगत रूचि के अनुसार अपनी अदम्य ऊर्जा को एक अथवा अनेक कठिन कार्यों में लगा देते है। (योग क्या है?, पृष्ठ-30)
02. यह कहना सर्वथा अनुचित होगा कि ऐसे फुर्तीले व्यक्ति ईश्वर के राज्य से बाहर होते है क्योंकि वे ईश्वर की विधिवत् पूजा नहीं करते। इनमें से कई उच्च आदर्शों द्वारा प्रेरित होते हैं और वे ईमानदार, लगनशील और आत्मत्यागी होते हैं। कभी-कभी उनमें ऐसा गुण पाया जाता है कि प्रत्येक धार्मिक व्यक्ति केवल उनकी प्रशंसा ही नहीं करता, बल्कि स्वयं भी वैसा ही होना चाहता है। (योग क्या है?, पृष्ठ-31)
03. केवल संकीर्ण और पागल व्यक्ति ही ऐसा कहने का दावा करेगा कि जो व्यक्ति धार्मिक परम्पराओं से परे है, उससे किसी प्रकार की आशा नहीं करनी चाहिए। हमारी प्रत्येक क्रिया चाहे वह अनजाने ही क्यों न हो, उसी महत् सत्य तक पहुंचने का प्रयास है। (योग क्या है?, पृष्ठ-31)
04. कोई भी व्यक्ति संसार से सारे कष्टों को दूर नहीं कर सकता। आप एक क्षेत्र से कष्ट दूर कर सकते हैं-अगर आप कर सकें-तो यह दूसरे क्षेत्र में प्रगट होता है। मानवता के उषाकाल से ही मानव इस धरती के कष्टों को दूर करने का प्रयास करता रहा है, लेकिन वह कहाँ तक सफल हुआ है? फिर भी मनुष्य अवश्य काम करेगा। वह एक क्षण भी बिना काम के नहीं रह सकता। अगर वह बाहरी क्रियाओं को बन्द करेगा, तो उसकी भीतरी क्रियाएं चलती ही रहेगी। (योग क्या है?, पृष्ठ-32-32)
05. ऐसा कहा जाता है कि जो मनुष्य एकान्त में अधिक समय तक सुखपूर्वक रह पाता है वह या तो संत है या फिर पशु! औसत आदमी तो, जो इन दोनों में से कुछ भी नहीं होता, एक साधारण आदमी होता है और उसके साथ उसकी सारी कमजोरियां होती है।
06. कर्मयोग मनुष्य को कर्म का रहस्य बतलाता है कि वह किस प्रकार काम करें जिससे उसे अधिकतम उपलब्धि हो, नैराष्य के दुःख से वंचित रहे साथ ही जीवन के आध्यात्मिक उद्देश्य को भी प्राप्त कर सके। इस मार्ग का उद्देश्य केवल बाहरी सफलता को प्राप्त करना न होकर, दासता से मुक्ति पाना और स्वार्थ रहित होने की सीख लेना है। अगर कोई मनुष्य वास्तविक सुख चाहता है, तो उसे अवश्य ही स्वार्थरहित होना होगा। जितना ही कोई मनुष्य दूसरों के कल्याण के लिए अपने सुख का त्याग करेगा उतना ही उसे अपने जीवन में अधिक सुख प्राप्त होगा। यद्यपि यह विरोधाभास-सा लगता है। (योग क्या है?, पृष्ठ-34)
07. “कर्मयोग“ कहता है कि पूरी शक्ति एवं तीव्रगति से काम करो, किन्तु उसकी सफलता और असफलता के बारे में मत सोचों। सफलता की स्थिति में अहंकार का और विफलता की स्थिति में दुःख और नैराश्य का त्याग करो क्योंकि सफलता और असफलता का भाव स्वार्थपरत और अहंकार का परिचायक होता है जो अन्ततोगत्वा दुःख की ओर ले जाता है। (योग क्या है?, पृष्ठ-34)
08. बहुत कम लोग ऐसा समझ सकते है कि जो व्यक्ति अपने कार्यों को पुरे दिलो-दिमाग से, किन्तु निरासक्त भाव से करते हैं, वे उनकी तुलना में अधिक कुशल होते हैं जो परिणाम की चिन्ता किये हुए अपने कार्यों को सम्पन्न करते हैं। (योग क्या है?, पृष्ठ-35)
09. आध्यात्मिक जीवन में मूल्यांकन का एक सही मापदण्ड उस व्यक्ति की निःस्वार्थपरता है। आध्यात्मिकता के क्षेत्र में जो जितना ही विकास करता है वह उतना ही स्वार्थरहित होता है। एक पशु सामान्यतया अपने ही भोजन और आराम के बारे में व्यस्त रहता है किन्तु एक मनुष्य अपने परिवार, पड़ोसी और देश के बारे में सोचता है; एक संत बिना किसी जातिगत, विश्वासगत और राष्ट्रगत भेदभाव के सम्पूर्ण मानवता को समानरूप से देखता है, वह सम्पूर्ण विश्व को ईश्वर की सृष्टि समझकर प्यार करता है। (योग क्या है?, पृष्ठ-36)
10. कुछ राष्ट्र दूसरे राष्ट्रों को विनष्ट कर विकास करना चाहते हैं और इस प्रकार के युद्ध नायक की प्रशंसा की जाती है तथा उसे एक महान नायक समझकर प्रशस्ति भी दी जाती है जबकि वह वास्तव में निम्नकोटि का जीव होता है। (योग क्या है?, पृष्ठ-36)
11. एक कर्मयोगी जो दिन प्रतिदिन निःस्वार्थी होने की चेष्टा करता है वह अपने अनजाने ही धर्म के उच्चतम पथ पर अग्रसर हो जाता है। वह दर्शन और आध्यात्मिक समस्याओं पर बिना किसी प्रकार की बहस किये ही दिव्य सत्य की अनुभूति करने लगता है। (योग क्या है?, पृष्ठ-37)
12. किसी भी दशा में एक सच्चे कर्मयोगी का आध्यात्मिक महत्व किसी भी भक्त से अगर अधिक नहीं है तो कम भी नहीं है। (योग क्या है?, पृष्ठ-38)
13. एक भक्त मन्दिर में फूल और अगरबत्ती लेकर ईश्वर की पूजा करता है। ठीक इसी तरह एक कर्मयोगी विस्तृत संसार में विभिन्न कर्मों को ईश्वरीय पूजा समझकर ही करता है। (योग क्या है?, पृष्ठ-38-39)
14. अगर कर्मयोगी एक सच्चे भक्त की मुद्रा में अपने प्रतिदिन के कार्यों को सम्पन्न करता है, तब वह निश्चय ही अनुभव करेगा कि उसकी व्यक्तिगत इच्छा धीरे-धीरे दैवी इच्दा में परिणत हो रही है। जब यह भावना अन्त में वास्तविक अनुभूति में बदल जाती है, तो उस शान्ति का अनुभव करता है जिसे विश्व की कोई शक्ति भंग नहीं कर सकती। (योग क्या है?, पृष्ठ-40)
15. वे कर्मयोगी जो दार्शनिक विचार के है, उनके लिए गीता की राय यह है कि वे स्वयं को आत्मा के रूप में स्मरण करें। वे यह भी याद रखंे कि अतीत की प्रवृत्तियों और इच्छाआंे से प्रेरित इन्द्रियाँ ही काम करती है। (योग क्या है?, पृष्ठ-40)
16. उदात्त और परिपक्व विचार पहले कल्पना में ही आता है, लेकिन जब कर्मयोगी इसे व्यवहार में परिणत करता है, तब उसकी कल्पना अनुभूति में बदल जाती है और आत्मतत्व का अनुभव करने लगता है। (योग क्या है?, पृष्ठ-41)
17. वे व्यक्ति जो सांसारिक वासना के गुलाम है, प्रायः बड़े ही मधुर ढंग से भ्रमवश इस बात पर जोर देते हैं कि वे कर्मयोग का अभ्यास कर रहे हैं। वह यह नहीं अनुभव करते कि कर्मयोगी का पथ सचमुच में बड़ा कठिन होता है। एक व्यक्ति दूसरे को धोखा दे सकता है, वह अपने आप को भी धोखा दे सकता है, लेकिन वह ईश्वर को कभी धोखा नहीं दे सकता है। जीवन के दूसरे क्षेत्रों में चतुराई से विश्वास पैदा करके सफलता प्राप्त की जा सकती है, किन्तु आध्यात्मिक क्षेत्र में यह कदापि सम्भव नहीं है। (योग क्या है?, पृष्ठ-41)
18. सच्चे कर्मयोगी बनने के पहले साधक को अपने सूक्ष्मातिसूक्ष्म अहंकार को दूर करना होगा और इसके लिए सतर्कता और साधना की अपेक्षा होती है। (योग क्या है?, पृष्ठ-42)
19. कर्मयोग के कठिन पथ पर चलने वाले साधक के लिए सबसे बड़ा खतरा गुण का गर्व और दूसरों की कमजोरियों को न सह पाने की क्षमता आदि होता है जिसके प्रति उसे सतर्क रहना चाहिए। (योग क्या है?, पृष्ठ-46)
20. जहाँ भक्त ज्ञानी और राजयोगी मानव संसार को भूलने में समर्थ होते हैं, वहां कर्मयोगी निरंतर विश्व में रहता है, किन्तु उसका नहीं होता। (योग क्या है?, पृष्ठ-46)
21. ज्ञानातीत भूमि में पहुंचकर जो कुछ दिया जाता है, वह ठीक-ठीक ही होता है। वे सब काम जीवन और जगत के लिए होते हैं। क्योंकि उस समय कर्ता का मन फिर स्वार्थबुद्धि द्वारा अथवा अपने लाभ-हानि के विचार द्वारा दूषित नहीं होता। ईश्वर ने सदा ज्ञानातीत भूमि में रहकर ही इस जगत्रूपी विचित्र सृष्टि को बनाया हैं इसलिए इस सृष्टि में कुछ भी अपूर्ण नहीं पाया जाता। इसलिए कह रहा था कि अत्यज जीवन के, फलकामना से शून्य कर्म आदि कभी अंगहीन अथवा असम्पूर्ण नहीं होते-उनसे जीव और जगत् का यथार्थ कल्याण ही होता है। (विवेकानन्द जी के संग में, पृष्ठ-194)
22. हम वर्तमान जीवन में जो कुछ हैं, वह हमारे पूर्व जीवन के कर्मों और विचारों का फल है, और हम जो कुछ भविष्य में होंगे, वह हमारे अभी के कर्मों और विचारों का फल होगा। पर, हम स्वयं ही अपना भाग्य निर्माण कर रहे हैं, बल्कि अधिकतर स्थलों में तो इस प्रकार की सहायता नितान्त आवश्यक होती है। (भक्तियोग, पृष्ठ-26)
23. देह तो स्थूल है-यह मरकर पंचभूतों में मिल जाती है; परन्तु संस्कारों की गठरी अर्थात् मन शीघ्र नहीं मरता। बीज की भांति कुछ दिन रहकर वृक्ष रूप में परिणत होता है; फिर स्थूल शरीर धारण करके जन्म मृत्यु के पथ में आया जाया करता है। जब तक आत्मज्ञान नहीं हो जाता है तब तक यही क्रम चलता रहता है इसलिए कहता हूँ।-ध्यान, धारणा और विचार के बल पर मन को सच्चिदानंद-समुद्र में डुबो दे। मन के मरते ही सभी गया समझ -बस फिर तू ब्रह्मंस्थ हो जायेगा। (विवेकानन्द जी के संग में 210)
24. हाँ, एक बात और है और वह यह कि गीता में फलाकांक्षा छोड़कर कार्य करने का यथार्थ उपाय क्या है, उससे ठीक ठीक मानसिक अभ्यास का यथार्थ उपाय क्या है-यह मैंने अनिष्कृत कर लिया है। ध्यान, मन, संयोग तथा एकाग्रता के साधन के सम्बन्ध में मुझे ऐसा ज्ञान प्राप्त हुआ है कि उसके अभ्यास से सब प्रकार के कष्ट-उद्वेगों से हम छुटकारा पा सकते है। मन को अपनी इच्छानुसार किसी स्थल पर केन्द्रित कर रखने के कौशल के सिवाय यह और कुछ नहीं है। (पत्रावली भाग-2, पृष्ठ-222)
25. शास्त्र में जिस अवस्था को समाधि कहा गया है, वह अवस्था तो सहज में हर एक को प्राप्त नहीं होती, और किसी को हुई भी तो अधिक समय तक टिकती नहीं है। तब बताओ वह किस प्रकार समय बितायेगा? इसलिए शास्त्रोक्त अवस्था लाभ के बाद साधक प्रत्येक भूत में आत्मदर्शन कर अमिन्न ज्ञान से सेवा परायण बनकर अपने प्रारब्ध को नष्ट कर देते हैं। इस अवस्था को शास्त्रकर जीवन्मुक्त अवस्था कह गये हैं। (विवेकानन्द जी के संग में, पृष्ठ-91)
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