संग, सान्निध्य और पत्रावली
संग में और सान्निध्य में
01. हमारे देश में जो कुछ है सो वेदान्त धर्म ही है। पाश्चात्य के साथ तुलना करने से यह कहना ही पड़ता है कि हमारी सभ्यता उसके पासंग भर भी नहीं है, परन्तु धर्म के क्षेत्र में यह सार्वभौमिक वेदान्तवाद ही नाना प्रकार के मतावलम्बियों को समान अधिकार दे रहा है। इसके प्रचार से पाश्चात्य सभ्य संसार को विदित होगा कि किसी समय में भारतवर्ष में कैसे आश्चर्यजनक धर्म-भाव का स्फुरण हुआ था और वह अब तक वर्तमान है। (विवेकानन्द जी के संग में, पृष्ठ-3)
02. हिन्दुओं के बारह महीनों में कितने ही पर्व होते हैं और उनका उद्देश्य यही है कि धर्म में जितने बड़े बड़े भाव है उनको सर्वसाधारण में फैलायें। परन्तु इसमें एक दोष भी है। साधारण लोग इनका यथार्थ भाव न जान उत्सवों में ही मग्न हो जाते हैं और उनकी पूर्ति होने पर कुछ लाभ न उठा ज्यों के त्यों बने रहते हैं। इस कारण ये उत्सव धर्म के बाहरी वस्त्र के समान धर्म के यथार्थ भावों को ढांके रहते हैं। (विवेकानन्द जी के संग में, पृष्ठ-27)
03. अवतार तुल्य महापुरुष लोग समाधि अवस्था से जब “मैं“ अैर “मेरा“ राज्य में लौट आते हैं तब वे प्रथम ही नाद का अनुभव करते हैं। फिर नाद के स्पष्ट होने पर आंेकार का अनुभव करते हैं। ओंकार के पश्चात् शब्दमय जगत् का अनुभव कर अन्त में स्थूल पंच भौतिक जगत् को प्रत्यक्ष देखते हैं। किन्तु साधारण साधक लोग अनेक कष्ट सहकर यदि किसी प्रकार से नाद के परे पहुंचकर ब्रह्म की साक्षात् उपलब्धि करे भी, तो फिर जिस अवस्था में स्थूल जगत का अनुभव होता है वहां वे उतर नहीं सकते-ब्रह्म में ही लीन हो जाते हैं-“क्षीरे नीरवत्“। (विवेकानन्द जी के संग में, पृष्ठ-63)
04. मन में ऐसे भाव उदय होते हैं कि यदि जगत् के दुःख दूर करने के लिए मुझे सहस्त्रों बार जन्म लेना पड़े तो भी मैं तैयार हूँ। इससे यदि किसी का तनिक भी दुःख दूर हो, तो वह मैं करूंगा और ऐसा भी मन में आता है कि केवल अपनी ही मुक्ति से क्या होगा। सबको साथ लेकर उस मार्ग पर जाना होगा। (विवेकानन्द जी के संग में, पृष्ठ-67)
05. श्रीरामकृष्ण देव के अन्तर्धान होने पर स्वामी जी ने उपनिषदादि शास्त्रों में वर्णित संन्यास लेने की पद्धतियों को मंगवाकर उनके अनुसार श्रीगुरुदेव के चित्र के सम्मुख रखकर अपने गुरु भाईयों के साथ वैदिक मत से संन्यास ग्रहण किया था। (विवेकानन्द जी के संग में, पृष्ठ-71)
06. श्रीरामकृष्ण सिद्धाईयों की बड़ी निन्दा किया करते थे। वे कहा करते थे कि इन शक्तियों के प्रकाश की ओर मन लगाये रखने से कोई परमार्थ तत्वों को नहीं पहुंचता; परन्तु मनुष्य का मन ऐसा दुर्बल है कि गृहस्थों का तो कहना ही क्या है, साधुओं में भी चैदह आने लोग सिद्धाई के उपासक होते हैं। पाश्चात्य देशों में लोग इन जादुओं को देखकर निर्वाक हो जाते हैं। सिद्धाई लाभ करना बुरा है और वह धर्मपथ में विध्न डालता है। (विवेकानन्द जी के संग में, पृष्ठ-82)
07. समस्त ब्रह्माण्ड जब नित्य आत्मा ईश्वर का ही विराट शरीर है तब विरोध-विशेष स्थानों (तीर्थस्थान) के महात्म्य में आश्चर्य की क्या बात है? विशेष स्थानों पर उनका विशेष विकास है। कहीं पर आप ही से प्रकट होते हैं और कहीं शुद्ध सत्य मनुष्य के व्याकुल आग्रह से प्रकट होते हैं। फिर भी यह तुम निश्चित जानो कि इस मानव शरीर की अपेक्षा और कोई बड़ा तीर्थ नहीं है। इस शरीर में जितना आत्मा का विकास हो सकता है उतना और कहीं नहीं। (विवेकानन्द जी के संग में, पृष्ठ-98)
08. छात्रजीवन में (स्वामी विवेकानन्द) दिन भर अपने साथियों के साथ आमोद-प्रमोद में ही रहते थे। रात को घर के द्वार बन्द कर अपना अध्ययन करते थे। दूसरे किसी को यह नहीं जान पड़ता था कि वे कब अपना अध्ययन कर लेते थे। (विवेकानन्द जी के संग में, पृष्ठ-102)
09. इस संसार में निरी दुनियादारी है जो यथार्थ, साहसी और ज्ञानी है। वह क्या ऐसी दुनियादारी से कभी घबड़ाता है? “जगत चाहे जो कहे, क्या परवाह है, मैं अपना कत्र्तव्य पालन करता चला जाऊँगा“ यह वीरों की बातें हैं। यदि “वह क्या कहता है और क्या लिखता है“ ऐसी ही बातों पर रात-दिन ध्यान रहे तो जगत् में कोई महान कार्य हो ही नहीं सकता। (विवेकानन्द जी के संग में, पृष्ठ-105)
10. बहुत दिनों तक मास्टरी करने से बुद्धि बिगड़ जाती है। ज्ञान का विकास नहीं होता। दिन रात लड़कों के बीच रहने से धीरे-धीरे जड़ता आ जाती है; इसलिए आगे अब मास्टरी न कर। (विवेकानन्द जी के संग में, पृष्ठ-126)
11. जाकर सभी को यह बात सुना “तुम्हारे भीतर अनन्त शक्ति मौजूद है, उसी शक्ति को जागृत करो।“ केवल अपनी मुक्ति प्राप्त कर लेने से क्या होगा? मुक्ति की कामना भी तो महा स्वार्थपरता है। छोड़ दे ध्यान, छोड़ दे मुक्ति की आकांक्षा-मैं जिस काम में लगा हूँ उसी में लग जा। (विवेकानन्द जी के संग में, पृष्ठ-161)
12. अतः जब कर्म करके उसे शान्ति प्राप्त नहीं होती तभी साधक कर्मत्यागी बनता है। परन्तु देह धारण करके मनुष्य को कुछ न कुछ लेकर तो रहना ही होगा-क्या लेकर रहेगा बोल? इसलिए साधक दो चार सत्कर्म करता जाता है, परन्तु उस कर्म के फलाफल की आशा नहीं रखता, क्योंकि उस समय उसने जान लिया है कि उस कर्मफल में ही जन्म मृत्यु के नाना प्रकार के अंकुर भरे पड़े हैं। इसलिए ब्रह्मज्ञ व्यक्ति सारे कर्म त्याग देते हैं-दिखाने के दो चार कर्म करने पर भी उनमें उनके प्रति आकर्षण बिल्कुल नहीं रहता। ये ही लोग शास्त्र में निष्काम कर्मयोगी बताये गये हैं। (विवेकानन्द जी के संग में, पृष्ठ-193)
13. निष्क्रियता, हीनबुद्धि और कपट से देश छा गया है। क्या बुद्धिमान लोग यह देखकर स्थिर रह सकते हैं? रोना नहीं आता? मद्रास, बम्बई, पंजाब, बंगाल-कहीं भी तो जीवनी शक्ति का चिन्ह दिखाई नहीं देता। तुम लोग सोच रहे हो, “हम शिक्षित हैं“ क्या खाक सीखा है? दूसरों की कुछ बातों को दूसरी भाषा में रटकर मस्तिष्क में भरकर, परीक्षा में उत्तीर्ण होकर सोच रहे हो कि हम शिक्षित हो गये हैं। धिक्धिक्, इसका नाम कहीं शिक्षा है? तुम्हारी शिक्षा का उद्देश्य क्या है? या तो? क्लर्क बनना या एक दुष्ट वकील बनना, और बहुत हुआ तो क्लर्की का ही दूसरा रूप एक डिप्टी मजिस्टेªट की नौकरी यही न? इससे तुम्हे या देश को क्या लाभ हुआ? (विवेकानन्द जी के संग में, पृष्ठ-196)
14. सर्वेश्वर कभी भी विशेष व्यक्ति नहीं बन सकते। जीव है व्यष्टि; और समस्त जीवों की समष्टि है, ईश्वर। जीव में अविद्या प्रबल है; ईश्वर विद्या और अविद्या की समष्टि रूपी माया को वशीभूत करके विराजमान है और स्वाधीन भाव से उस स्थावर-जंगमात्मक जगत को अपने भीतर से बाहर निकाल रहा है। परन्तु ब्रह्म उस व्यष्टि-समष्टि से अथवा जीव-ईश्वर से परे है। ब्रह्म का अशंाश भाग नहीं होता। (विवेकानन्द जी के संग में, पृष्ठ-207)
15. मुख्य बात है मन को एकनिष्ठ बनाना। एक विषय में निष्ठा होने से मन की एकाग्रता होती है अर्थात् मन की अन्य वृत्तियाँ शान्त होकर एक विषय में ही केन्द्रित हो जाती है। बहुतों का बाहर की नियमनिष्ठा या विधि निषेध के झंझट में ही सारा समय बीत जाता है, फिर उसके बाद आत्मचिंतन करना नहीं होता। दिन रात विधि निषेधों की सीमा से आबद्ध रहने से आत्मा का प्रकाश कैसे होगा? जो आत्मा का जितना अनुभव कर सका उसके विधि निषेध उतने ही शिथिल हो जाते हैं। (विवेकानन्द जी के संग में, पृष्ठ-227)
16. सच्चे मनुष्य वही हैं जो इस सुख-दुख के द्वन्द्व-प्रतिघातों से तंग आकर भी विवेक के बल पर उन सभी को क्षणिक मान आत्मप्रेम में मग्न रहते हैं। मनुष्य तथा दूसरे जीव-जानवरों में यही भेद है जो चीज जितनी निकट होती है, उसकी उतनी ही कम अनुभूति होती है। आत्मा निकट से निकट है, इसलिए असंयत चंचल चित्त जीव उसे समझ नहीं पाते। (विवेकानन्द जी के संग में, पृष्ठ-246)
17. आखिर इस उच्च शिक्षा के रहने या न रहने से क्या बनता बिगड़ता है? यह कहीं ज्यादा अच्छा होगा कि यह उच्च शिक्षा प्राप्त कर नौकरी के दफ्तरों को खाक छानने के बजाय लोग थोड़ी सी यान्त्रिक शिक्षा प्राप्त करे जिससे काम-धन्धे में लगकर अपना पेट तो भर सकेंगे। (विवेकानन्द जी के सान्निध्य में, पृष्ठ-5)
18. पर ब्राह्मण का पुत्र सर्वदा ब्राह्मण ही नहीं होता, यद्यपि उसके ब्राह्मण होने की सम्भावना अवश्य रहती है। जाति से ब्राह्मण होना और गुणों से ब्राह्मण होना-ये दो भिन्न बातें हैं। भारत वर्ष में ब्राह्मण कुल मंे जन्म लेने से कोई ब्राह्मण कहलाने लगता है, पर पश्चिम में यदि कोई ब्राह्मण गुण युक्त हो तो उसे ब्राह्मण ही मानना चाहिए। यह स्पष्ट है कि मनुष्य के लिए एक जाति से दूसरी जाति में चला जाना सम्भव है। यदि नहीं है तो विश्वामित्र ब्राह्मण कैसे बन सके और परशुराम क्षत्रिय कैसे बन सके? (विवेकानन्द जी के सान्निध्य में, पृष्ठ-34)
पत्रावली
01. ब्रह्म ज्ञानी को भोजन किसी परिश्रम के बिना अपने आप मिल जाता है। वह जहाँ पाता है पानी पी लेता है, वह स्वेच्छानुसार सर्वत्र विचरण करता है-वह निर्भय, कभी जंगल में और कभी श्मशान में सो जाता है और जिस मार्ग पर जाने से वेद भी शेष हो जाते है, वहाँ वह संचरण करता है। वह बालको की तरह दूसरों की इच्छानुसार परिचालित होता है, कभी नंगा, कभी वस्त्रालंकारमण्डित रहता है। और कभी कभी तो उसका आच्छादन ज्ञान मात्र रहता है, कभी अबोध बालक की भाँति, कभी उन्मत्त के समान और कभी पिशाचवत् व्यवहार करता है। (पत्रावली भाग-1, पृष्ठ-40)
02. मैं व्याख्यान देते देते और इस प्रकार के निरर्थक वाद से थक गया हूँ। सैकड़ों प्रकार के मानवी पशुओं से मिलते-मिलते मेरा मन अशान्त हो गया है। मैं मेरी मनोनुकूल बात आपको बतलाता हूँ। मैं लिख नहीं सकता, मैं बोल नहीं सकता, परन्तु मैं गम्भीर विचार कर सकता हूँ और जब मुझे स्फुर्ति आ जाती है तो अग्निरूपी वचन बोल सकता हूँ। परन्तु यह होना चाहिए कुछ चुने हुए, केवल चुने हुये लोगों के सामने ही। वे यदि चाहे तो मेरे विचारों को ले जाकर चारों और फैला दे-परन्तु यह मैं नहीं कर सकता। यह तो कर्म का ठीक ही बंटवारा है, एक ही आदमी सोचने में और विचारों के प्रसार करने में सफल नहीं हो सकता। इस तरह के दिये हुए विचारों का मूल्य कुछ नहीं होता। सोचने वाले मनुष्य को अन्य कार्यों से मुक्त होना चाहिए, विशेषतः जबकि विचार आध्यात्मिक हो। (पत्रावली भाग-1, पृष्ठ-117)
03. पूर्णता का मार्ग यह है कि स्वयं पूर्ण बनने का प्रयत्न करना तथा कुछ थोड़े से स्त्री-पुरुषों को पूर्ण बनाने का प्रयत्न करना। “भला करने“ का मेरा यह अर्थ है कि कुछ असाधारण योग्यता के मनुष्यों का विकास, न कि “भैंस के आगे बीन बजाकर“ समय, स्वास्थ्य और शक्ति का नाश करना। (पत्रावली भाग-1, पृष्ठ-118)
04. मेरा जी चाहता है कि कुछ वर्षों तक मैं चुप हो जाऊँ और बिल्कुल न बोलूं। मैं स्वभाव से ही स्वप्न के राज्य में विचरण करने वाला और कर्मविमुख हूँ। भौतिक वस्तुओं का स्पर्श मेरी दृष्टि को अस्थिर कर देता है और मुझे दुःखी बनाता है। परन्तु हरि-इच्छा पूर्ण हो! (पत्रावली भाग-1, पृष्ठ-118)
05. जिस देश में करोड़ांे मनुष्य महुए के फूल खाकर दिन गुजारते हैं, और दस बीस लाख साधु और दस बारह करोड़ ब्राह्मण उन गरीबों का खून चूसकर पीते हैं और उनकी उन्नति के लिए कोई चेष्टा नहीं करते, क्या वह देश है या नरक? क्या वह धर्म है या पिशाच का नृत्य? भाई, इस बात को गौर से समझो-मैं भारत वर्ष को घूमघाम कर देख चुका और इस देश को भी देखा-क्या बिना कारण के कहीं कार्य होता है? क्या बिना पाप के सजा मिल सकती है। (पत्रावली भाग-1, पृष्ठ-123)
06. मैंने एक योजना सोची तथा उसे कार्यान्वित करने का मैंने दृढ़ सकल्प किया। कन्याकुमारी में माता कुमारी के मन्दिर में बैठकर, भारतवर्ष की अन्तिम चट्टान पर बैठकर, मैंने सोचा कि हम जो इतने संन्यासी घूमते फिरते हैं और लोगों को दर्शनशास्त्र की शिक्षा दे रहे हैं, यह सब निरा पागलपन है। क्या हमारे गुरुदेव नहीं कहा करते थे कि खाली पेट से धर्म नहीं होता? (पत्रावली भाग-1, पृष्ठ-124)
07. हमारी जाति अपनी स्वतंत्र सत्ता खो बैठी है और यही भारत की सारी आपत्ति का कारण है। हमें जाति को उसकी खोई हुई स्वतंत्र सत्ता वापस देनी ही होगी और निम्न जातियों को उठाना होगा। हिन्दू, मुसलमान, ईसाई सभी ने उनको पैरो तले रौंदा है। उनका उठाने वाली शक्ति भी अन्दर से अर्थात् सनातनमार्गी हिन्दुओं से ही आयेगी। प्रत्येक देश में बुराइयां धर्म के कारण नहीं, बल्कि धर्म को न मानने के कारण ही विद्यमान रहती है। अतः धर्म का कोई दोष नहीं, दोष मनुष्य का है। (पत्रावली भाग-1, पृष्ठ-124)
08. वह हार प्रेम का हार है और वह धागा धनीभूत प्रेम का भावरूप अपूर्व धागा है। मूर्ख तुम इस रहस्य को नहीं जानते हो कि वह असीम तत्व प्रेम के बन्धन में फंसकर मेरी मुट्ठी के अन्दर आ चुका है। क्या तुम्हे यह पता नहीं है कि वे जगन्नाथ प्रेमडोर से बंध जाते हैं-क्या तुम यह नहीं जानते हो कि इस विशाल विश्व के संचालक वृन्दावन की गोपियों की नूपुरध्वनि के साथ नाचते फिरते थे। (पत्रावली भाग-1, पृष्ठ-140)
09. यह तो तुम्हंे पता ही है कि रूपया रखना, यहाँ तक कि रूपया छूना भी मेरे लिए कठिन है। इसे मैं अत्यन्त कष्टदायक कार्य समझता हूँ और इससे मन अधोगामी बन जाता है। अतः कार्य संचालन तथा आर्थिक मामलों की व्यवस्था के लिए तुम लोगों को संगठित होकर किसी समिति की स्थापना करनी ही होगी। यहाँ पर जो मेरे मित्र हैं-आर्थिक मामलों की व्यवस्था वे ही करते हैं। अर्थ-विषयक इस भयानक झंझट से मुक्ति मिलने पर ही मैं सुख के श्वास ले सकूँगा। अतः तुम लोग जितना शीघ्र संगठित होकर मन्त्री तथा कोषाध्यक्ष बनकर मेरे मित्र तथा सहायकों से स्वयं पत्र व्यवहार कर सको, उतना ही तुम्हारे तथा मेरे लिए मंगल है। (पत्रावली भाग-1, पृष्ठ-164)
10. आलासिंगा (एक मद्रासी मित्र), यह निश्चित जानना कि भविष्य में तुमकों अनेक महान कार्य करने होंगे। यदि तुम उचित समझो तो कुछ बड़े आदमियों को राजी कर समिति के कार्यकत्र्ताओं के रूप में उनका नाम प्रकाशित करना-उनके नाम से बहुत कुछ कार्य होंगे, किन्तु वास्तव में कार्य तुमको ही करना होगा। (पत्रावली भाग-1, पृष्ठ-165)
11. हम ठीक वैसे ही हैं। गुलाम कीड़े-पैर उठाकर रखने की भी ताकत नहीं-बीबी का आंचल पकड़े ताश खेलते और हुक्का गुड़गुड़ाते हुए जिन्दगी पार कर देते हैं, और अगर उनमें से कोई एक कदम बढ़ जाता है तो सब के सब उसके पीछे पड़ जाते हैं-हरे हरे! (पत्रावली भाग-1, पृष्ठ-234)
12. सैकड़ों युगों के उद्यम से चरित्र का गठन होता है। निराश न होओ। सत्य का एक शब्द भी लोप नहीं हो सकता। वह दीर्घकाल तक चाहे कूड़े के नीचे भले ही दबा पड़ा रहे, परन्तु शीघ्र हो या देर से हो, वह प्रकट होगा ही। सत्य अनश्वर है, पवित्रता अनश्वर है। मुझे सच्चे मनुष्य की आवश्यकता है, मुझे शंख-ढपोल चेले नहीं चाहिए। (पत्रावली भाग-1, पृष्ठ-241)
13. परन्तु वही महात्मा काम कर सकता है जो दूसरों में परमाणु के बराबर गुण देखकर उसे पर्वत के समान मानता है और जिसे जगत् की भलाई छोड़कर कोई भी इच्छा नहीं है-“परगुणपरमाणु पर्वतीकृत्य“ इसलिए जिनकी मन्द गति है, जिनकी बुद्धि अज्ञान में डूबी हुई है और जो अनात्मा को ही सर्वस्व मानते हैं उन्हें अपनी बाल-क्रीड़ा करने दो। जब वे प्रबल कष्ट का अनुभव करेंगे तब वे उसी क्षण छोड़ देंगे। उन्हें चन्द्रमा पर थूकने दो, वह थूक उलटकर उन्हीं पर पड़ेगी। (पत्रावली भाग-1, पृष्ठ-256)
14. मैं बराबर न्यूयार्क और बोस्टन के बीच यात्रा करता रहा। इस देश के ये दो ही बड़े केन्द्र है, जिनमें से बोस्टन की मस्तिष्क से तुलना की जा सकती है और न्यूयार्क की जेब से। दोनों स्थानों में आशातीत सफलता प्राप्त हुई है। मैं समाचार पत्रों के वर्णन से उदासीन हूँ, इसलिए तुम यह आशा मुझसे न करो कि उनमें से किसी के उल्लेख मैं तुम्हे भेजूंगा। काम आरम्भ करने के लिए थोड़े से शोर की आवश्यकता थी, वह जरूरत से अधिक हो चुका है। (पत्रावली भाग-1, पृष्ठ-273)
15. मुझे चुपचाप शान्ति से काम करना अच्छा लगता है और प्रभु हमेंशा मेरे साथ हैं। यदि तुम मेरे अनुगामी बनना चाहते हो तो सम्पूर्ण निष्कपट होओ, पूर्णरूप से स्वार्थ त्याग करो,. . . और सबसे अधिक पूर्णरूप से पवित्र बनो। मेरा आशीर्वाद हमेंशा तुम्हारे साथ है। इस अल्पायु में परस्पर प्रशंसा का समय नहीं है। संग्राम के बाद किसने क्या किया इसकी तुलना करेंगे और एक दूसरे की यथेष्ट प्रशंसा करेंगे। (पत्रावली भाग-1, पृष्ठ-275)
16. अगले जाड़े में मैं लौट रहा हूँ। दुनिया में आग फूंक दूंगा, जो मेरे साथ चाहे आये, उसका भाग्य अच्छा है; जो न आयेगा, इहकाल तथा परकाल वह पड़ा ही रह जायेगा, उसे पड़े रहने दो। कुछ परवाह नही, तुम लोगों के मुंह तथा हाथों पर बागदेवी का अधिष्ठान होगा, हृदय में अनन्तवीर्य श्री भगवान अधिष्ठित होंगे-तुम लोगों से ऐसे कार्य सम्पादित होंगे कि जिन्हें देखकर दुनिया आश्चर्यचकित हो उठेगी। (पत्रावली भाग-1, पृष्ठ-281)
17. मुझे संसार से मधुर व्यवहार करने का समय नहीं है, और मधुर बनने का प्रत्येक यत्न मुझे कपटी बनाता है। चाहे स्वदेश हो या विदेश, परन्तु इस मूर्ख संसार की प्रत्येक आवश्यकता पूरी करने की अपेक्षा तथा निरन्तर स्तर का आसार जीवन व्यतीत करने की अपेक्षा मैं सहस्त्र बार मरना अच्छा समझता हूँ। (पत्रावली भाग-1, पृष्ठ-291)
18. अन्तः प्रेरणा से मनुष्य को काम करना चाहिए और यदि वह काम शुभ और कल्याणप्रद है तो अपनी मृत्यु के पश्चात्, शताब्दियों के बाद, समाज की भावना में परिवर्तन अवश्य ही उत्पन्न होगा। मन, प्राण और शरीर से हमें काम में लग जाना चाहिए। और जब तक हम एक और एक ही आदर्श के लिए अपना सर्वस्व त्यागने को तैयार न रहेंगे तब तक हम कदापि आलोक नहीं देख पायेंगे। जो मनुष्य जाति की सहायता करना चाहते हैं उन्हें उचित है कि अपना सुख और दुःख, नाम और यश और सब प्रकार के स्वार्थ की एक पोटली बनाकर समुद्र में फेंक दे और तब वे ईश्वर के समीप आये। सब गुरुजनों ने यही कहा और किया है। (पत्रावली भाग-1, पृष्ठ-300)
19. मैं आपकी पत्रिका सम्बन्धी विचार से पूरी तरह सहमत हूँ, परन्तु यह सब करने के लिए व्यवसाय बुद्धि का मुझमें पूरा अभाव है। मैं शिक्षा और उपदेश दे सकता हूँ और कभी कभी लिख सकता हूँ, परन्तु सत्य पर मुझे श्रद्धा है। प्रभु मुझे सहायता देंगे और मेरे साथ काम करने के लिए मनुष्य भी वही देंगे। मैं पूर्णतः शुद्ध, पूर्णतः निष्कपट और पूर्णतः निःस्वार्थ रहूं-यही मेरी एकमेंव इच्छा है। (पत्रावली भाग-1, पृष्ठ-309)
20. श्रीरामकृष्ण की कृपा से किसी व्यक्ति के चेहरे की ओर देखते ही मैं अपने स्वाभाविक संस्कार के द्वारा तत्काल ही भांप लेता हूं कि वह व्यक्ति कैसा है और मेरी धारणा प्रायः ठीक हुआ करती है। (पत्रावली भाग-1, पृष्ठ-313)
21. हर काम को तीन अवस्थाओं में से गुजरना होता है-उपहास, विरोध और फिर स्वीकृति। जो मनुष्य अपने समय से आगे विचार करता है, लोग उसे निश्चय ही गलत समझते हैं, इसलिए विरोध और अत्याचार हम सहर्ष स्वीकार करते हैं। (पत्रावली भाग-1, पृष्ठ-335)
22. मैं बराबर यह देख रहा हूँ कि मानव जब वेदान्त के महान गौरव की उपलब्धि करने लगता है, तब मन्त्रतन्त्रादि अपने आप छूट जाते हैं। जिस समय मनुष्य को सत्य के किसी उच्चतर अवस्था विशेष का आभास मिलता है, तत्काल ही तद्विषयक निम्नतर अवस्था स्वतः ही विलुप्त हो जाती है। संख्या बाहुल्य का कोई महत्व नहीं है। असंगठित जनता सौ वर्ष में भी जिस कार्य को नहीं कर सकती, कुछ थोड़े से निष्कपट, संगठित तथा उत्साही युवक एक वर्ष के अन्दर उससे कहीं अधिक कार्य कर सकते हैं। एक देह की ताप उसके निकटवर्ती अन्यान्य देहों में भी संक्रमित होता है-प्रकृति का यही नियम है।(पत्रावली भाग-1, पृष्ठ-337)
23. यदि हम इतिहास को देखें तो विदित होगा कि जो विचारधारा सर्वश्रेष्ठ होगी वही जीवित रहेगी, और निष्कलंक चरित्र के समान अन्य ऐसी कौन सी शक्ति है जो मनुष्य को यथार्थ योग्यता प्रदान कर सकती है? विचारशील मनुष्य जाति का ही भविष्य धर्म-अद्वैत होगा, इसमें सन्देह नहीं। और सब सम्प्रदायों में उन्हीं की विजय होगी जो अपने जीवन में सब से अधिक चरित्र का उत्कर्ष दिखा सकेंगे-चाहे वे सम्प्रदाय कितने ही दूर भविष्य में क्यों न जन्म लें। (पत्रावली भाग-1, पृष्ठ-339)
24. रामानुज का मत है कि बद्ध आत्मा या जीव की पूर्णता उसमें अव्यक्त या सूक्ष्म भाव से रहती है। जब इस पूर्णता का पुनः विकास होता है। तभी जीव मुक्त हो जाता है। परन्तु अद्वैतवादी कहता है कि ये दोनों बातें केवल भास मान होती है। न क्रमसंकोच है, न क्रमविकास। दोनों क्रियायें माया रूप है, केवल भास मान-परिदृश्यमान अवस्थामात्र। (पत्रावली भाग-1, पृष्ठ-346)
25. जगत के लिए-जिससे कि मुझे यह शरीर मिला है, देश के लिए-जिसने कि मुझे यह भावना प्रदान की है तथा मनुष्य जाति के लिए-जिसमें कि मैं अपनी गणना कर सकता हूँ-कुछ करना है। जितनी मेरी उम्र बढ़ रही है, उतना ही मैं “मनुष्य सब प्राणियों में श्रेष्ठ है“-हिन्दुओं की इस धारणा का तात्पर्य अनुभव कर रहा हूँ। मुसलमान भी यही कहते है, अल्ला न देवदूतों से आदम को प्रणाम करने के लिए कहा था। इवलिस ने ऐसा नहीं किया, इसलिए वह शैतान बना। यह पृथ्वी सब स्वर्गों से ऊँची है। सृष्टि का यही सर्वश्रेष्ठ विद्यालय है। केवल मनुष्य ही ईश्वर बन सकता तथा अन्य लोगों को पुनः मनुष्य जन्म मिलने के बाद फिर ईश्वरत्व की प्राप्ति हो सकती है। (पत्रावली भाग-1, पृष्ठ-348)
26. तुम्हारे सामने एक भयानक दलदल है-उससे सावधान रहना; सब कोई उस दलदल में फंसकर खतम हो जाता है। वर्तमान हिन्दुओं का धर्म न तो वेद में है और न पुराण में, न भक्ति में है और न मुक्ति में. . . धर्म तो भोजन पात्र में समा चुका है।. . . यही वह दलदल है। वर्तमान हिन्दू धर्म न तो विचार प्रधान ही है और न ज्ञान प्रधान, “मुझे न छुना, मुझे न छुना“ इस प्रकार की अस्पृश्यता ही उसका एक मात्र अवलम्बन है, बस इतना ही। (पत्रावली भाग-1, पृष्ठ-405)
27. श्रीरामकृष्ण देव की एक अत्यन्त संक्षिप्त जीवनी अंग्रेजी में लिखकर मैं भेज रहा हूँ। उसके बंगानुवाद के साथ छपवाकर महोत्सव में बेचना, वितरण करने से लोग प्रायः नहीं पढ़ते हैं, इसलिए कुछ मूल्य रखना चाहिए। खूब धूमधाम के साथ महोत्सव करना। (पत्रावली भाग-1, पृष्ठ-400)
28. कल रात मैंने खुद भोजन बनाया था। केशर, गुलाबजल, जावित्री, जायफल, दालचीनी, लौंग, इलायची, मक्खन, नींबू का रस, प्याज, किसमिस, बदाम, काली मिर्च, तथा चावल. . . ये सब मिलाकर ऐसी स्वादिष्ट खिचड़ी बनायी थी कि मैं स्वयं ही उसे गले से नीचे नहीं उतार सका। घर पर हींग नहीं थी, नहीं तो कुछ हींग मिला देने पर कम से कम निगलने में सुविधा होती। (पत्रावली भाग-1, पृष्ठ-445)
29. मेरे पिताजी यद्यपि वकील थे, फिर भी मेरी यह इच्छा नहीं कि मेरे परिवार में कोई वकील बने। मेरे गुरुदेव इसके विरोधी थे एवं मेरा भी यह विश्वास है कि जिस परिवार के कुछ लोग वकील हो उस परिवार में अवश्य ही कुछ न कुछ गड़बड़ी होगी। हमारा देश वकीलों से छा गया है-प्रतिवर्ष विश्वविद्यालयों से सैकड़ों वकील निकल रहे हैं। हमारी जाति के लिए इस समय कर्मतत्परता तथा वैज्ञानिक प्रतिभा की आवश्यकता है। (पत्रावली भाग-1, पृष्ठ-449)
30. बीस वर्ष की अवस्था में मैं ऐसा असहिष्णु और कट्टर था कि किसी से सहानुभूति नहीं कर सकता था। कलकत्ता मेंे रास्तों के जिस किनारे पर थियेटर है, उस किनारे से ही नहीं चलता था। अब तैंतीस वर्ष की उम्र में मैं वेश्याओं के साथ एक ही मकान में ठहर सकता हूँ-उनसे तिरस्कार का एक शब्द कहने का विचार भी मेरे मन में नहीं आयेगा। क्या यह अधोगति है? अथवा मेरा हृदय बढ़ता हुआ मुझे उस अनन्त प्रेम की ओर ले जा रहा है जो साक्षात् भगवान है। लोग कहते हैं कि वह मनुष्य जो अपने चारों ओर होने वाली बुराईयों को नहीं देख पाता, अच्छा काम नहीं कर सकता-वह एक तरह का अदृष्टवादी बना बैठा रहता हैं मैं तो ऐसा नहीं देखता हूँ। वरन् मेरी कार्य करने की शक्ति प्रचण्ड वेग से बढ़ रही है और साथ ही असीम सफलता भी मिल रही है। (पत्रावली भाग-2, पृष्ठ-4)
31. मैं प्रभु से प्रार्थना करता हूँ कि सैकड़ों वेश्याएं आये और उनके (श्रीरामकृष्ण) चरणों में अपना सिर नवाये और यदि एक भी सज्जन न आये तो भी कोई हानि नहीं। आओ वेश्याआंे, आओ शराबियों, आओ चोरों, सब आओ, श्री प्रभु का द्वार सबके लिए खुला है-“धनवान के ईश्वर के राज्य में प्रवेश करने की अपेक्षा ऊँट का सूई के छिद्र में घुसना सहज है।“ (पत्रावली भाग-2, पृष्ठ-24)
32. किसी मत विशेष का समर्थन किया जा रहा हो, ऐसी एक भी बात उसके सम्पादकीय लेख में नहीं रहनी चाहिए और सदा यह ख्याल रखना कि केवल भारत को नहीं, अपितु समग्र जगत् को सम्बोधित कर तुम बातें कह रहे हो और तुम जो कुछ कहना चाहते हो, जगत् उसके बारे में सम्पूर्ण अज्ञ है। (पत्रावली भाग-2, पृष्ठ-58)
33. आप तो अच्छी तरह से जानती हैं कि बाधा जितनी अधिक होती है, मेरे अन्दर की भावना भी उतनी ही जागृत हो उठती है। (पत्रावली भाग-2, पृष्ठ-66)
34. मैं यहाँ बहुत अच्छा हूँ क्योंकि शहरों में मेरा जीवन कष्टप्रद सा हो गया था। यदि राह में मेरी झलक भी दिख जाती थी तो तमाशा देखने वालों का जमघट लग जाता था। विख्याति में केवल दूध और शहद घुला हुआ नहीं मिलता। अब मैं बड़ी सी दाढ़ी बढ़ाने वाला हूँ जिसके बाल तो अब सफेद हो ही रहे हैं। इससे रूप पूज्यनीय हो जाता है और वह मुझे अमेंरिकन निन्दा करने वालांे से भी बचाती है। हे श्वेतकेश, तुम कितना क्या न छुपा सकते हो, धन्य हो तुम! (पत्रावली भाग-2, पृष्ठ-81)
35. बिस्तरे पर लेटने के साथ ही साथ मुझे कभी नींद नहीं आती थी-घण्टे दो घण्टे तक मुझे इधर-उधर करवट बदलनी पड़ती थी। इधर-उधर करवट बदलने की मेरी वह पुरानी आदत पुनः वापस लौट आयी है तथा रात्रि में भोजन के बाद गर्मी लगने लगती है। दिन में भोजन के बाद कोई खास गर्मी का अनुभव नहीं होता। हाँ एक बात और है, मैं सहज ही में मलेरिया ग्रस्त हो जाता हूँ। (पत्रावली भाग-2, पृष्ठ-92)
36. मुझे अपने बारे में बहुत कुछ कहना पड़ा, क्योंकि मुझे तुमको कैफियत देनी थी। मैं जानता हूँ कि मेरा कार्य समाप्त हो चुका-अधिक से अधिक तीन या चार वर्ष आयु के और बचे हैं। (चिरशान्ति में लीन के 4 वर्ष 11 माह 25 दिन पूर्व एक पत्र में लिखित) (पत्रावली भाग-2, पृष्ठ-115)
37. कुछ लोग किसी के नेतृत्व में सर्वोत्तम काम करते हैं। हर मनुष्य का जन्म पथ-प्रदर्शन के लिए नहीं होता है। परन्तु सर्वोत्तम नेता वह है जो “शिशुवत् मार्ग दर्शन करता है“। शिशु स्व पर आश्रित रहते हुए भी घर का राजा होता है। कम से कम मेरे विचार से यही रहस्य है--बहुतों को अनुभव होता है, पर प्रकट कोई-कोई ही कर सकते हैं। (पत्रावली भाग-2, पृष्ठ-153)
38. महान कठिनाई यह है: मैं देखता हूँ कि लोग प्रायः अपना सम्पूर्ण प्रेम मुझे देते हैं। परन्तु इसके बदले में मैं किसी को अपना पूरा-पूरा प्रेम नहीं दे सकता, क्योंकि उसी दिन कार्य का सर्वनाश हो जायेगा। परन्तु कुछ लोग ऐसे हैं जो ऐसा बदला चाहते हैं, क्योंकि उनमें व्यक्ति निरपेक्ष सर्वव्यापक दृष्टि का अभाव होता है। कार्य के लिए यह परमाआवश्यक है कि अधिक से अधिक लोगों का मुझसे उत्साहपूर्ण प्रेम हो परन्तु मैं स्वयं बिल्कुल निःसंग व्यक्ति-निरपेक्ष होऊं। नहीं तो ईष्र्या और झगड़ों में कार्य का सर्वनाश हो जायेगा। नेता को व्यक्तिनिरपेक्ष निःसंग होना चाहिए। (पत्रावली भाग-2, पृष्ठ-153)
39. तुम्हें मुसलमान लड़कों को भी लेना चाहिए परन्तु उनके धर्म को कभी दूषित न करना। तुम्हें यही करना होगा कि उनके भोजन आदि का प्रबन्ध अलग कर दो और उन्हें शुद्धाचरण, पुरुषार्थ और परहित में श्रद्धापूर्वक तत्परता की शिक्षा दो। यह निश्चय ही धर्म है। सब धर्मों के लड़कों को लेना हिन्दू, मुसलमान, ईसाई या कुछ भी हो, परन्तु धीरे-धीरे आरम्भ करना। (पत्रावली भाग-2, पृष्ठ-155)
40. चाहे और कुछ भी क्यों न हो, रूपये-पैसे, मठ-मन्दिर, प्रचारादि की सार्थकता ही क्या है? क्या समग्र जीवन का एकमेंव उद्देश्य शिक्षा नहीं है? शिक्षा के बिना धन-दौलत, स्त्री-पुरुषों की आवश्यकता ही क्या है? इसलिए रूपयों का नाश हुआ अथवा हार हुई-मैं इन बातों को न तो समझ ही पाता हूँ और न समझना ही चाहता हूँ। (पत्रावली भाग-2, पृष्ठ-162)
41. मेरा स्वास्थ्य ठीक है। रात में प्रायः उठना नहीं पड़ता, सुबह-शाम भात, आलू, चीनी जो कुछ मिलता है खा लेता हूँ। दवा किसी काम की नहीं है-ब्रह्म ज्ञानी के शरीर पर दवा का कोई असर नहीं होता! वह हजम हो जायेगी. . . कोई डर की बात नहीं है। (पत्रावली भाग-2, पृष्ठ-197)
42. साथ ही मेरी आयु भी समाप्त हो रही है-खासकर इस बात को सत्य मानकर ही मुझे चलना होगा। (चिरशान्ति में लीन के 2 वर्ष 11 माह 20 दिन पूर्व एक पत्र में लिखित) (पत्रावली भाग-2, पृष्ठ-206)
43. यूरोपियनों के साथ मैं भोजन करता हूँ इसलिए मुझे एक पारिवारिक देव-मंदिर से निकाल दिया गया था। मैं चाहता हूँ कि मेरी गठन इस प्रकार की हो कि प्रत्येक व्यक्ति अपनी इच्छानुसार मुझे मोड़ सके। किन्तु यह दुर्भाग्य की बात है कि मुझे ऐसा व्यक्ति देखने को नहीं मिलता जिससे कि सब कोई संतुष्ट हो। खासकर जिसे अनेक स्थलों में घूमना पड़ता है, उसके लिए सब को संतुष्ट करना संभव नहीं है। (पत्रावली भाग-2, पृष्ठ-211)
44. अपनी ओर से मैं अपने स्वभाव तथा नीति पर अवलम्बित हूँ-एक बार जिसको मैंने अपने मित्र रूप में माना है, वह सदा के लिए मेरा मित्र है। इसके अलावा भारतीय रीति के अनुसार बाहरी घटनाओं के कारणों का आविष्कार करने के लिए मैं भीतर की ओर ही देखता हूँ; मैं यह जानता हूँ कि मुझ पर चाहे जितनी भी विद्वेष व घृणा की तरंगे उपस्थित क्यों न हो, उसके लिए मैं जिम्मेंदार हूँ एवं यह जिम्मेंदारी एकमात्र मुझपर ही है। ऐसा न होकर उसका और कोई रूपान्तर होना संभव नहीं है। (पत्रावली भाग-2, पृष्ठ-212)
45. मेरे जीवन में मैंने अनेक गलतियां की है; किन्तु उसमें प्रत्येक का कारण रहा है अत्यधिक प्यार। अब प्यार से मुझे द्वेष हो गया है! हाय! यदि मेरे पास वह बिल्कुल न होता! भक्ति की बात आप कह रही है! हाय, यदि मैं निर्विकार और कठोर वेदान्ती हो सकता! जाने दो, यह जीवन तो समाप्त ही हो चुका। अगले जन्म में प्रयत्न करूंगा। (पत्रावली भाग-2, पृष्ठ-219)
46. मेरे लिए कार्य करना तभी संभव होता है, जबकि मुझे पूर्णतया अपने पैरों पर ही खड़ा होना पड़ता है। निःसंग दशा मंे मेरी शक्ति का विकास अधिक होता है। (पत्रावली भाग-2, पृष्ठ-227)
47. मुझे यह दिखायी दे रहा है कि वक्तृता-मंच से अब वाणी प्रचार करना मेरे लिए सम्भव नहीं है। इससे मैं आनन्दित ही हूँ। मैं विश्राम चाहता हूँ। मैं थक गया हूँ ऐसी बात नहीं है; किन्तु अगला अध्याय होगा-वाक्य नहीं, किन्तु अलौकिक स्पर्श, जैसा कि श्रीरामकृष्ण देव का था। (पत्रावली भाग-2, पृष्ठ-229)
48. मेरे अन्दर एक विराट परिवर्तन की सूचना दिखाई दे रही है-मेरा मन शान्ति से परिपूर्ण होता जा रहा है। मैं जानता हूँ कि माँ ही सब कुछ उत्तरदायित्व ग्रहण करेगी। मैं एक संन्यासी के रूप में ही मृत्यु को अलिंगन करूंगा। (पत्रावली भाग-2, पृष्ठ-247)
49. हम अपनी सारी शक्तियों को किसी एक विषय की ओर लगा देने के फलस्वरूप उसमें आसक्त हो जाते हैं तथा उसकी और भी एक दिशा है, जो नेतिवाचक होने पर भी उसके सदृश ही कठिन है-उस ओर हम बहुत कम ध्यान देते हैं-वह यह है कि क्षण भर में किसी विषय से अनासक्त होने की, उससे अपने को पृथक कर लेने की शक्ति। आसक्ति और अनासक्ति, जब दोनों शक्तियों का पूर्ण विकास होता है, तभी मनुष्य महान एवं सुखी हो सकता है। (पत्रावली भाग-2, पृष्ठ-248)
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