Wednesday, April 15, 2020

समाज

समाज

01. विज्ञान और आध्यात्मिकता
01. यदि हम अपने व्यक्तिगत एवं सामूहिक जीवन में वैज्ञानिक चेतना सम्पन्न एवं आध्यात्मिक एक साथ न हो पाए, तो मानवजाति का अर्थपूर्ण अस्तित्व ही संशय का विषय हो जाएगा। (विज्ञान और आध्यात्मिकता, पृष्ठ-9)
02. अवश्य, सदाचार बहुत महत्वपूर्ण है। यह सही है कि अपने विचारों एवं भावनाओं को अनुशासित किये बिना मनुष्य धर्म के लक्ष्य तक नहीं पहुँच सकता, लेकिन आचार किसी भी अर्थ में धर्म का अन्तिम लक्ष्य नहीं है। (विज्ञान और आध्यात्मिकता, पृष्ठ-17)
03. अन्त में देश-काल की सीमाओं में बद्ध ज्ञान का महामिलन उस ज्ञान से होगा जो इन दोनों से परे है, जो मन तथा इन्द्रियों के पहुँच से परे है-जो निरपेक्ष है, असीम है, अद्वितीय है। (विज्ञान और आध्यात्मिकता, पृष्ठ-36)
04. विज्ञान सहज निर्धारण एवं उसे प्राप्त करने की प्रेरणा लक्ष्यों एवं प्रेरणाओं की सिद्धि के उपायों के बारे में धर्म, परोक्ष या अपरोक्ष रूप से विज्ञान से बहुत कुछ सीख सकता है। विज्ञान यह बता सकता है कि अमुक लक्ष्य कैसे प्राप्त किया जाय। लेकिन वह यह नहीं बता सकता कि उसे कौन सा लक्ष्य प्राप्त करना चाहिए। (विज्ञान और आध्यात्मिकता, पृष्ठ -55)
05. अनुभव ही ज्ञान का एक मात्र स्रोत है। विश्व में केवल धर्म ही ऐसा विज्ञान है जिसमें निश्चयत्व का अभाव है, क्योंकि अनुभव पर आश्रित विज्ञान के रूप में उसकी शिक्षा नहीं दी जाती। ऐसा नहीं होना चाहिए। परन्तु कुछ ऐसे लोगों का एक छोटा समूह भी सर्वदा विद्यमान रहता है, जो धर्म की शिक्षा अनुभव के माध्यम से देते हैं। ये लोग रहस्यवादी कहलाते हैं। और वे हरेक धर्म में, एक ही वाणी बोलते हैं। और एक ही सत्य की शिक्षा देते हैं। यह धर्म का यथार्थ विज्ञान है। जैसे गणित शास्त्र विश्व के किसी भी भाग में भिन्न-भिन्न नहीं होते। वे सभी एक ही प्रकार के होते है तथा उनकी स्थिति भी एक ही होती है। उन लोगों का अनुभव एक ही है और यही अनुभव धर्म का रूप धारण कर लेता है। (विज्ञान और आध्यात्मिकता, पृष्ठ-70)
06. धर्म तात्त्विक (आध्यात्मिक) जगत के सत्यों से उसी प्रकार सम्बन्धित है, जिस प्रकार रसायन शास्त्र तथा दूसरे भौतिक विज्ञान भौतिक जगत के सत्यों से। रसायन शास्त्र पढ़ने के लिए प्रकृति की पुस्तक पढ़ने की आवश्यकता है। धर्म की शिक्षाप्राप्त करने के लिए तुम्हारी पुस्तक अपनी बुद्धि तथा हृदय है। सन्त लोग प्रायः भौतिक विज्ञान से अनभिज्ञ ही रहते हैं। क्योंकि वे एक भिन्न पुस्तक अर्थात् आन्तरिक पुस्तक पढ़ा करते हैं; और वैज्ञानिक लोग भी प्रायः धर्म के विषय में अनभिज्ञ ही रहते हैं क्योंकि वे भी भिन्न पुस्तक अर्थात् वाह्य पुस्तक पढ़ने वाले हैं। (विज्ञान और आध्यात्मिकता, पृष्ठ-71)
07. काल प्रवाह में सुसंगत परिवर्तन लाने के लक्ष्य को प्राप्त करना ऐसा आसान कार्य नहीं है जो इने गिने मुट्ठी भर उत्साही लोगों द्वारा चन्द दिनों में किया जा सके। यह कार्य लाखों लोगों के युग-युगान्तर तक किये गये साग्रह एवं निष्ठापूर्ण प्रयास द्वारा ही सम्भव है। इसके लिए हमारी शिक्षा पद्धति को पुनर्गठित करना होगा जिससे मानव के विचारों, आदर्शों एवं कार्यों को नई दिशा प्रदान की जा सके। (विज्ञान और आध्यात्मिकता, पृष्ठ-78)
08. सम्भवतः ऐसा समय आ रहा है जब इस भौतिकवादी समाज में एक नयी भावना का उदय होगा और वह यह कि ईश्वर-दर्शन प्रत्येक व्यक्ति के लिए सम्भव है; तब सभी के उस दिशा में संघर्ष न करने पर भी जो ईश्वर का प्रत्यक्ष प्रयोगात्मक अनुभव करना चाहंेगे उन्हें युग-चेतना से उपहास एवं संदेह के बदले, प्रोत्साहन प्राप्त होगा। (विज्ञान और आध्यात्मिकता, पृष्ठ-100)

02. प्राच्य और पाश्चात्य
01. हिन्दू शास्त्र कहते हैं कि धर्म की अपेक्षा मोक्ष बहुत ही बड़ा है, किन्तु पहले धर्म करना होगा। बौद्धों ने इसी स्थान पर भ्रम में पड़कर, अनेक उत्पात खड़े कर दिये। अहिंसा ठीक है, निश्चय बड़ी बात है, कहने में बात तो अच्छी है, पर शास्त्र कहते हैं, तुम गृहस्थ हो, तुम्हारे गाल पर यदि कोई एक थप्पड़ मारे, और यदि उसका जवाब तुम दस थप्पड़ों से न दो, तो तुम पाप करते हो। “आततापिनमायान्तम्“ इत्यादि, हत्या करने के लिए यदि कोई आये तो ऐस ब्रह्मवध भी पाप नहीं है। ऐसा मनुस्मृति में लिखा है। यह ठीक बात है, इसे भूलना न चाहिए। वीरभोग्या वसुन्धरा-वीर्य प्रकाशित कीजिये, पृथ्वी का भोग कीजिए, तब आप धार्मिक होेंगे और गाली-गलौज सहकर चुपचाप घृणित जीवन बिताने से यहाँ नरक भोगना होगा और परलोक में भी वही होगा। यही शास्त्र मत है। (प्राच्य और पाश्चात्य, पृष्ठ-8)
02. जिस अवस्था में सत्वगुण की प्रधानता होती है उस अवस्था में निष्क्रिय हो जाता है तथा परम ध्यानावस्था को प्राप्त होता है। जिस अवस्था में रजोगुण की प्रधानता होती है। उस अवस्था में वह अच्छे-बुरे काम करता है तथा जिस अवस्था में तमोगुण की प्रधानता होती है, उस अवस्था में फिर वह निष्क्रिय, जड़ हो जाता है। (प्राच्य और पाश्चात्य, पृष्ठ-11)
03. केवल वैदिक धर्म में ही इन चारों वर्गों के साधन का उपाय है-धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष। (प्राच्य और पाश्चात्य, पृष्ठ-14)
04. बौद्ध धर्म और वैदिक धर्म का उद्देश्य एक ही है। पर बौद्ध के उपाय ठीक नहीं है, यदि उपाय ठीक होता तो हमारा यह सर्वनाश कैसे होता? “समय ने सब कराया“ क्या यह कहने से काम चल सकता है? समय तथा कार्य-कारण के सम्बन्ध को छोड़कर काम कर सकेगा? (प्राच्य और पाश्चात्य, पृष्ठ-14)
05. अंग्रेजों के चरित्र में व्यवसाय बुद्धि तथा आदान-प्रदान की प्रधानता है। अंग्रेजों की आवश्यक विशेषता है समान भाग, न्याय विभाग। अंग्रेज राजा और कुलीन जाति के अधिकार को नतमस्तक होकर स्वीकार कर लेते हैं, परन्तु गांठ में से पैसा बाहर करना हो तो वे हिसाब मांगते हैं। (प्राच्य और पाश्चात्य, पृष्ठ-18)
06. देवता आस्तिक थे-उन्हें आत्मा में विश्वास था, ईश्वर और परलोक में विश्वास करते थे। असुरों का कहना था कि इस जीवन को महत्व दो, पृथ्वी का भोग करो, इस शरीर को सुखी रखो। इस समय हम इस बात पर विचार नहीं कर रहे कि देवता अच्छे थे या असुर। पर पुराणों को पढ़ने से पता चलता है कि असुर ही अधिकतर मनुष्यों की तरह के थे, देवता तो अनेक अंशों में हीन थे। (प्राच्य और पाश्चात्य, पृष्ठ-32)
07. हिन्दुओं का सिद्धान्त है कि यज्ञस्थल को छोड़कर किसी दूसरे स्थान पर जीव हत्या करना पाप है, किन्तु यज्ञ करके सुख से मांस भोजन किया जा सकता है। इतना ही नहीं, गृहस्थों के लिए ऐसे अनेक नियम है कि अमुक, अमुक स्थान पर हत्या न करने से पाप होगा-जैसे श्राद्धादि। उन सब स्थानों पर निमंत्रित होकर मांस न खाने से पशु जन्म होता है-ऐसा मनु ने लिखा है। जैन और बौद्ध कहते हैं कि हम तुम्हारा शास्त्र नहीं मानते, हत्या किसी प्रकार की भी नहीं की जा सकती। बौद्ध सम्राट अशोक की आज्ञा थी-“जो यज्ञ करेगा व निमंत्रण देकर मांस खिलायेगा वह दण्डित होगा“। आधुनिक वैष्णव कुछ और ही असमंजस में पड़े हैं उनके देवता राम और कृष्ण मद-मांस आदि उड़ा रहे हैं-यह रामायण और महाभारत में लिखा है। (रामायण, उत्तर 52, अयोध्या 33, महाभारत आदिपर्व) सीता देवी ने गंगा जी को मांस, भात और हजार कलशी मद्य चढ़ाने की मनौती मानी थी। वर्तमान काल में लोग शास्त्र की बातें भी नहीं मानते और महापुरुष का कहा हुआ है, ऐसा कहने से भी नहीं सुनते। (प्राच्य और पाश्चात्य, पृष्ठ-41)
08. सब पक्षों की राय जान-सुनकर मेरी तो यही राय होती है कि हिन्दू ही ठीक रास्ते पर है। अर्थात् हिन्दुओं की यह जो व्यवस्था है कि जन्म-कर्म के भेद से आहार आदि में भिन्नता होगी, यही ठीक सिद्धान्त है। मांस खाना अवश्य असभ्यता है। निरामिष भोजन ही पवित्र है। जिनका उद्देश्य, धार्मिक जीवन है, उनके लिए निरामिष भोजन अच्छा है और जिसे रात दिन परिश्रम करके प्रतिद्वन्द्विता के बीच में जीवन नौका खेनी है। उसे मांस खाना ही होगा। जितने दिन “बलवान की जय“ का भाव मानव समाज में रहेगा, उतने दिन मांस खाना ही पड़ेगा अथवा किसी दूसरे प्रकार की मांस जैसी उपयोगी चीजें खाने के लिए ढूंढ निकालनी होगी। (प्राच्य और पाश्चात्य, पृष्ठ-43)
09. ज्ञान का अर्थ है-बहु के भीतर एक को देखना। जो वस्तुएं अलग-अलग हैं, जिनमें अन्तर मालूम होता है, उनमें भी एक ऐक्य है। वह विशेष सम्बन्ध जिससे मनुष्य को इस एकत्व का पता लगाना है, “नियम“ कहलाता है। इसी को प्राकृतिक नियम भी कहते हैं। (प्राच्य और पाश्चात्य, पृष्ठ-81)
10. यूरोपीय पण्डितों का यह कहना कि आर्य लोग कहीं से घूमते फिरते आकर भारत में जंगली जाति को मार-काटकर और जमीन छीनकर यहाँ बस गये। केवल अहमको की बात है। आश्चर्य तो इस बात का है कि हमारे भारतीय विद्वान भी उन्हीं के स्वर में स्वर मिलाते हैं और वही सब झूठी बात हमारे बाल बच्चों को पढ़ाई जाती है-यही घोर अन्याय है। (प्राच्य और पाश्चात्य, पृष्ठ-96)
11. यूरोप का उद्देश्य है-सब को नाश करके स्वयं अपने को बचाये रखना। आर्यों का उद्देश्य था-सब को अपने समान करना अथवा अपने से भी बड़ा करना। (प्राच्य और पाश्चात्य, पृष्ठ-99)

03. जाति, संस्कृति और समाजवाद
01. संस्कृत में “जाति“ का अर्थ है वर्ग या श्रेणी विशेष। यह सृष्टि के मूल में ही विद्यमान है। विचित्रता अर्थात् जाति का अर्थ ही सृष्टि है। “एकोऽहं बहुस्याम्“-मैं एक हूँ अनेक हो जाऊँ। विभिन्न वेदों में इस प्रकार की बात पायी जाती है। सृष्टि के पूर्व एकत्व रहता है, सृष्टि हुई कि विचित्रता शुरु हुई। अतः यदि यह विचित्रता बन्द हो जाय तो सृष्टि का ही लोप हो जायेगा। जब तक कोई जाति शक्तिशाली और क्रियाशील रहेगी, तब तक वह विचित्रता अवश्य पैदा करेगी। ज्यांेहि उसका ऐसी विचित्रता उत्पादन करना बन्द होता है या बन्द कर दिया जाता है त्योंहि वह जाति नष्ट हो जाती है जाति का मूल अर्थ था एवं सैकड़ो वर्ष तक यही अर्थ प्रचलित था-प्रत्येक व्यक्ति को अपनी प्रकृति को, अपने विशेषत्व को प्रकाशित करने की स्वाधीनता। आधुनिक शास्त्र ग्रन्थों में भी जातियों का आपस में खाना-पीना निषिद्ध नहीं हुआ है और न किसी प्राचीन ग्रन्थ में अनका आपस में ब्याह-शादी करना मना है। तो फिर भारत के अधःपतन का कारण क्या था?-जाति सम्बन्धी इस भाव का त्याग। जैसे गीता कहती है-जाति नष्ट हुई कि संसार भी नष्ट हुआ। यह हमें सत्य ही प्रतीत होता है कि इस विचित्रता का नाश होते ही जगत का भी नाश हो जायेगा। आजकल का वर्ण विभाग यथार्थ जाति नहीं है, बल्कि जाति की प्रगति में वह एक रुकावट ही है (पत्रावली भाग-1, पृष्ठ-269)
02. प्रत्येक दास जाति का मुख्य दोष ईष्र्या होती है। ईष्र्या और मेंल का अभाव ही पराधीनता उत्पन्न करता है और उसे स्थायी बनाता है। जितना ही कोई राष्ट्र निर्बल या कायर होगा, उतना ही यह अवगुण अधिक प्रकट होगा। (पत्रावली भाग-1, पृष्ठ-239)
03. तुमने मांस खाने वाले क्षत्रियों की बात उठाई है। क्षत्रिय लोग चाहे मांस खाये या ना खाये, वे ही हिन्दू धर्म की उन सब वस्तुओं के जन्मदाता हैं जिनको तुम महत और सुन्दर देखते हो। उपनिषद् किसने लिखे थे? राम कौन थे? श्रीकृष्ण कौन थे? बुद्ध कौन थे? जैनों के तिर्थंकर कौन थे? जब कभी क्षत्रियों ने धर्म का उपदेश दिया, उन्होंने सभी को धर्म पर अधिकार दिया। और जब कभी ब्राह्मणों ने कुछ लिखा उन्होंने औरों को सब प्रकार के अधिकारों से वंचित करने की चेष्टा की। गीता और व्यास सूत्र पढ़ो या किसी से सुन लो। गीता में मुक्ति की राह पर सभी नर-नारियों, सभी जातियों और सभी वर्णों को अधिकार दिया गया है, परन्तु व्यास गरीब शूद्रों को वंचित करने के लिए वेद की मनमानी व्याख्या कर रहे हैं। क्या ईश्वर तुम जैसा मूर्ख है कि एक टुकड़े मांस से उसकी दया रुपी नदी में बाधा खड़ी हो जायेगी? अगर वह ऐसा ही है तो उसका मोल एक फूटी कौड़ी भी नहीं। (पत्रावली भाग-1, पृष्ठ-115)
04. हमारी अपनी भिन्न-भिन्न जातियों के होते हुए भी और एक जाति के अन्तर्गत उपजातियों में ही विवाह करने की हमारी वर्तमान प्रथा के रहते हुए भी (यद्यपि यह प्रथा सर्वत्र नहीं है) हमारा यह मानववंश हर तरह से मिश्रित वंश ही कहा जा सकता है। (जाति, संस्कृति और समाजवाद, पृष्ठ-5)
05. भारतवर्ष में यदि कोई उच्चतर जाति में उठना चाहता है, तो उसे पहले अपनी समग्र जाति को उन्नत करना होगा, और फिर उसकी उन्नति के मार्ग में रोकने वाला कुछ भी नहीं रहता। भारतवर्ष की सामाजिक व्यवस्था का आधार क्या है? वह है जाति-नियम, में जाति के लिए जन्म लेता है और जाति के लिए ही जीता है। जाति में जन्म लेने पर जाति के नियमों के अनुसार ही सम्पूर्ण जीवन बिताना होगा। या आधुनिक भाषा में इसे हम यों कह सकते हैं कि. . . पाश्चात्य मनुष्य मानों वैयक्ति रूप से जन्म लेता है और हिन्दू सामाजिक रूप में। (जाति, संस्कृति और समाजवाद, पृष्ठ-6)
06. हमारी जातियां और हमारी संस्थाएं हमें एक राष्ट्र के रूप में सुरक्षित रखने के लिए आवश्यक रही हैं और जब इस आत्मरक्षा की आवश्यकता नहीं रहेगी, तब ये स्वाभाविक रूप से नष्ट हो जायेंगी। (जाति, संस्कृति और समाजवाद, पृष्ठ-7)
07. ऊँची श्रेणी वालों को नीचे खींचने से समस्या हल नहीं हो सकती, बल्कि नीचे की श्रेणीवालों को उपर उठाने से ही वह हल होगी। और यही कार्य-प्रणाली हम अपने सभी ग्रन्थों में पाते हैं। (जाति, संस्कृति और समाजवाद, पृष्ठ-8)
08. यहाँ सहस्त्रों जातियां हैं, और कुछ जातियां तो ब्राह्मण-वर्ग में भी प्रवेश पा गयी है। कारण, किसी भी जाति वालों को “हम ब्राह्मण हैं“ ऐसी घोषणा करने से कौन रोक सकता है? इस प्रकार अपनी समस्त कठोरता के साथ, जाति निर्माण इसी तरह होता रहा है। मान लो, यहाँ ऐसी अनेक जातियां हैं, जिनमें प्रत्येक में दस हजार मनुष्य है। अगर ये लोग एकमत होकर कहें कि “हम अपने को ब्राह्मण कहेंगे“ तो उनके रोकने वाला कौन है? शंकराचार्य आदि शक्तिमान युग प्रवर्तक गण महान जाति-निर्माता थे। ((जाति, संस्कृति और समाजवाद, पृष्ठ-9-10)
09. भारत की यही योजना है कि प्रत्येक व्यक्ति को ब्राह्मण बनाया जाय; क्योंकि ब्राह्मण ही मानवता का आदर्श है। ऐसी जातियां हैं, जो ऊपर उठ चुकी हैं और बहुत सी जातियां ऊपर उठेंगी, जब तक कि सभी ब्राह्मण नहीं बन जाती। यही योजना है किसी को नीचे गिराये बिना हमेंे उनको ऊपर उठाना है। हमारे पूर्वर्जों का आदर्श पुरुष ब्राह्मण था। (जाति, संस्कृति और समाजवाद, पृष्ठ-10)
10. भारतवर्ष में. . . तुम्हारी जाति सब से ऊँची तब गिनी जायेगी, जब तुम किसी ऋषि से पूर्वज का सम्बन्ध जोड़ सको, अन्यथा नहीं। “ब्राह्मण आदर्श“ से मेरा मतलब क्या है? मेरा मतलब है-आदर्श ब्राह्मणत्व, जिसमें संसारी भाव बिल्कुल नहीं और यथार्थ ज्ञान प्रचुर मात्रा में हो। ब्राह्मण-जाति और ब्राह्मण-गुण दो भिन्न बातें हैं। भारत-वर्ष में मनुष्य अपनी जाति के कारण ब्राह्मण माना जाता है। पर पाश्चात्य देशों में तो वह ब्राह्मण गुणों के कारण ही ब्राह्मण माना जा सकेगा। (जाति, संस्कृति और समाजवाद, पृष्ठ-11)
11. भारतवर्ष में भी ब्राह्मण है, पर उन्होंने अपने भयंकर अत्याचार के कारण देश को नष्ट प्राय कर दिया है और फलतः जो कुछ उनमें स्वभाविक गुण थे, वे क्रमशः नष्ट होते जा रहे हैं। मेरे शिष्य सब ब्राह्मण हैं!. . . ब्राह्मण का पुत्र सदा ब्राह्मण ही होता है ऐसा नहीं। यद्यपि हर तरह सम्भावना तो यही है कि वह ब्राह्मण ही हो, फिर भी हो सकता है कि वैसा न भी हो। (जाति, संस्कृति और समाजवाद, पृष्ठ-13)
12. जब वह वेतन के लिए दूसरे की सेवा करने में लगा है, तब वह शूद्र है; जब वह अपने लाभ के लिए कोई व्यापार कर रहा है, तब वैश्य है, अत्याचार के विरूद्ध जब वह लड़ रहा है, तब उसमें क्षत्रिय के गुण प्रकट होते हैं; और जब वह परमेंश्वर का ध्यान करता है या अपना समय ईश्वरसम्बन्धी वार्तालाप में बिताता है, तब वह ब्राह्मण है, अतएव यह स्पष्ट है कि एक जाति दूसरी जाति में परिवर्तित हो जाना बिल्कुल सम्भव है। अन्यथा, विश्वामित्र ब्राह्मण और परशुराम क्षत्रिय कैसे हुए। (जाति, संस्कृति और समाजवाद, पृष्ठ-13)
13. हम पढ़ते हैं कि सत्ययुग में केवल एक ही जाति थी वह थी ब्राह्मण। हम महाभारत में पढ़ते हैं-प्रारम्भ में सारे संसार में केवल ब्राह्मण ही बसते थे और जैसे-जैसे उनकी अवनति होती गयी, उनकी भिन्न-भिन्न जातियां बनती गयी; और जब चक्र घुमेंगा, तब वे पुनः मूल स्थान ब्राह्मणत्व को प्राप्त होंगे। यह चक्र अब घूम रहा है-इसी बात की ओर मैं तुम्हारा ध्यान आकर्षित करना चाहता हूँ। (जाति, संस्कृति और समाजवाद, पृष्ठ-20)
14. आधुनिक प्रतिस्पर्धा के प्रचलित होने से देखो, जाति का कितना शीघ्र लोप हो रहा है। अब उसे मिटाने के लिए किसी धर्म की आवश्यकता नहीं है। उत्तर भारत में ब्राह्मण जाति के लोग दूकानदारी करते हुए तथा जूते और शराब बनाते हुए अनेक पाये जाते हैं ऐसा क्यों हुआ? प्रतिस्पर्धा के कारण वर्तमान राजशासन में किसी भी मनुष्य की अपनी आजीविका के लिए वह चाहे जो करे, स्वतंत्रता है। (जाति, संस्कृति और समाजवाद, पृष्ठ-26)
15. जाति प्रथा तो वेदान्त धर्म के विरूद्ध है। जाति एक सामाजिक रूढ़ी है और हमारे सभी महान आचार्य उसे तोड़ने का प्रयत्न करते आये हैं। बौद्ध धर्म से लगाकर सभी पंथों ने जाति के विरूद्ध प्रचार किया है, किन्तु प्रत्येक समय वह श्रृंखला दृढ़ होती ही। जाति तो केवल भारत वर्ष की राजनीतिक संस्थाओं से निकली हुई है; वह एक परम्परागत व्यावसायिक संस्था है। धर्म में कोई जाति नहीं होती, जाति तो केवल एक सामाजिक रूढ़ि है। (जाति, संस्कृति और समाजवाद, पृष्ठ-32)
16. कोई भी व्यक्ति, चाहे वह शूद्र हो या चाण्डाल, ब्राह्मण को भी तत्वज्ञान की शिक्षा दे सकता है। सत्य की शिक्षा अत्यन्त नीच व्यक्ति से भी ली जा सकती है-वह व्यक्ति किसी भी जाति या पन्थ का क्यों न हो। हमारे अधिकांश उपनिषद् क्षत्रियों के लिखे हुए हैं। भारतवर्ष में हमारे मध्य आचार्य अधिकतर क्षत्रिय ही थे और उनके उपदेश सदा सार्वभौमिक रहे हैं।. . . राम, कृष्ण, बुद्ध-जिनकी पूजा अवतार मानकर की जाती है-ये सब क्षत्रिय ही थे। (जाति, संस्कृति और समाजवाद, पृष्ठ-33)
17. उन लोगों को समाज पुरोहितों के अधिकार से तुरन्त वंचित कर देता है। उन तथाकथित ब्राह्मणों के ब्राह्मणत्व पर समाज की कोई श्रद्धा नहीं है, जो शिखा रखने के बदले बालों को संवारते हैं, जो अपने पुरातन आचारों और पूर्वजों की रूढ़ियों को त्यागकर अर्ध-यूरोपियन पोशाक पहनते हैं तथा परिश्रम से आये हुए रीति-रिवाजों का दोगले ढंग से पालन करते हैं। (जाति, संस्कृति और समाजवाद, पृष्ठ-41)
18. जो लोग पुरोहित-वर्ग के अधिपत्य को नष्ट करने की चेष्टा का दोष अन्य किसी एक व्यक्ति या जनसमूह के माथे मढ़ना चाहते हैं, उन्हें यह जान लेना चाहिए कि प्रकृति के अटल नियम के वशीभूत होकर ही ब्राह्मण जाति अपने ही हाथों अपनी कब्र खोद रही है; और यही होना भी चाहिए। उच्च घराने में जन्म लेने वाले और विशेष अधिकार रखने वाले प्रत्येक जाति के लोग अपने ही हाथों अपनी चिता तैयार करना अपना मुख्य कर्तव्य बना लें, यहीं अच्छा और उपयुक्त है। (जाति, संस्कृति और समाजवाद, पृष्ठ-42)
19. पुरोहिती दल भारतवर्ष के लिए अभिशाप स्वरूप है। क्या कोई मनुष्य अपने भाई को नीचे गिराकर स्वयं अपने को नीचे गिरने से बचा सकता है? क्या कोई स्वयं को चोट पहुंचाये बिना दूसरे को चोट पहुंचा सकता है। ब्राह्मणों और क्षत्रियों के अत्याचार अब स्वयं उन्हीं के सिरों पर चक्रवृद्धि ब्याज सहित टूट पड़े हैं और कर्मफल के अटल नियमानुसार उन्हें एक सहस्त्र वर्ष तक दासत्व और अधःपतन भोगना पड़ रहा है। (जाति, संस्कृति और समाजवाद, पृष्ठ-40-42)
20. मुझे इस बात का खेद है कि वर्तमान काल में जातियों के बीच इतना विवाद (विरोध) है। यह तो अवश्य बन्द होना चाहिए। यह दोनों ओर से निरर्थक है, विशेषकर उच्च जाति-वालों (ब्राह्मणों) की ओर से, क्योंकि अब इन अधिकारों और विशेष हकों के दिन बीत गये। समाज के प्रत्येक उच्च पदाधिकारों का कर्तव्य है कि वह अपने विशेषाधिकरों की कब्र आप ही खोदे और जितना शीघ्र हो, उतना ही सब के लिए बेहतर होगा। जितनी देर होगी, उतना ही वह सड़ेगा और उतनी ही बुरी मौत वह मरेगा। इसीलिए भारतवर्ष में ब्राह्मण का यह कर्तव्य है कि वह शेष मानव जाति की मुक्ति के लिए कर्मशील बने। यदि वह ऐसा करता है और जब तक वह ऐसा करता है तभी तक वह ब्राह्मण है; पर जब वह केवल पैसा कमाने में लग जाता है तब वह ब्राह्मण नहीं है। (जाति, संस्कृति और समाजवाद, पृष्ठ-50)
21. रक्षा का एक ही उपाय, अपनी स्थिति सुधारने का एक मात्र मार्ग, जो तुम निम्न जातिवालों को मैं बतलाता हूँ, वह है संस्कृत का अध्ययन। उच्च जातियों के साथ लड़ना-भिड़ना, उनके विरूद्ध लेख लिखना और कुड़कुड़ाना सब व्यर्थ है। उसमें कोई भलाई नहीं, उससे तो लड़ाई-झगड़े ही पैदा होते हैं; और इस राष्ट्र में जहाँ दुर्भाग्यवश पहले से ही फूट फैली हुई है, और भी अधिक फूट फैल जायेगी। जातियों को समतल करने का एक ही मार्ग है-उस संस्कृति को, उस शिक्षा को अपनाना, जो उच्चतर जातियों का बल है। इतना कर लेने पर तुम अपनी इष्ट वस्तु को प्राप्त कर लोगे। (जाति, संस्कृति और समाजवाद, पृष्ठ-69)
22. कोई भी व्यक्ति, जो ब्राह्मण होने का दावा करता है, अपने इस दावे को, पहले तो अपनी आध्यात्मिकता प्रकट कर और तत्पश्चात् दूसरों को भी उसी श्रेणी में उठाकर, प्रभावित करें। पर दिखायी यह देता है कि उनमें से अधिकतर ऐसे हैं, जो केवल जन्म के कारण मिथ्या अभिमान कर रहे हैं। ब्राह्मणों! सावधान! यह मृत्यु के लक्षण हैं! उठकर खड़े हो जाओ और अपने आस-पास के अ-ब्राह्मणों को उन्नत बनाकर अपना मनुष्यत्व, ब्राह्मणत्व दिखाओ। यह कार्य न तो स्वामी भाव से करो, और न ही इस कार्य में पूर्व तथा पश्चिम के अन्धविश्वास एवं कपट व्यवहार-युक्त घृणास्पद अहंभाव ही हो; यह कार्य तो केवल सेवा की भावना में किया जाय। कारण, यह निश्चित सत्य है कि जो सेवा करना जानता है, वही शासन करना भी जानता है। यदि कोई ब्राह्मण समझता है कि उसमें आध्यात्मिक संस्कृति के लिए विशेष योग्यता है, तो उसे खुले क्षेत्र में शूद्र के साथ उतर आने में क्या डर है? क्या बढ़िया घोड़ा अड़ियल टट्टू के साथ घुड़दौड़ करने में डरेगा? (जाति, संस्कृति और समाजवाद, पृष्ठ-71-73)
23. यदि शूद्र जाति में कोई असाधारण बुद्धि और योग्यता वाला मनुष्य पैदा हो जाय, तो समाज के प्रभावशाली उच्च वर्गवाले व्यक्ति तुरन्त उस पर पदवियों द्वारा सम्मान की वृष्टि करके उसे स्वयं अपने वर्ग में उठा लेते थे। इस प्रकार उसकी सम्पत्ति और बुद्धि की शक्ति का उपयोग अन्य जाति के लाभ के लिए हो जाता है, जब कि उसकी अपनी जाति वाले उसके गुणों से कोई लाभ नहीं उठा पाते थे। वशिष्ठ, नारद, सत्यकाम, जाबाल, व्यास, कृप, द्रोण, कर्ण तथा अन्य दूसरे, जिनके माता-पिता के सम्बन्ध में निश्चित जानकारी नहीं है, विशेष विद्वान या पराक्रमी होने के कारण ब्राह्मण या क्षत्रिय पद पर प्रतिष्ठित कर दिये गये थे; पर देखना यह है कि इस प्रकार उनके ऊपर चढ़ जाने से वेश्या, दासी, ढीमर या सूत जाति को क्या लाभ हुआ? फिर, इसके विपरीत, ब्राह्मण, क्षत्रिय या वैश्य वर्गों के पतित मनुष्य सदैव शूद्रों के पद पर नीचे उतार दिये जाते थे। (जाति, संस्कृति और समाजवाद, पृष्ठ-79)
24. ऐ भाइयों! सब लोग उठो! जागो! अब और कितनी देर तक सोते रहोगे?. . . अब तक ब्राह्मणों ने धर्म पर एकाधिपत्य कर रखा है; पर वे जब काल के प्रबल तरंग के विरूद्ध अपना एकाधिपत्य नहीं रख सकते, तब चलो, और ऐसे प्रयत्न करो कि देश भर में प्रत्येक को वह धर्म प्राप्त हो जाय। उनके मन में यह बैठा दो कि ब्राह्मणों के समान उनका भी धर्म पर वही अधिकार है। (जाति, संस्कृति और समाजवाद, पृष्ठ-85)
25. भारत की उच्च जातिवालों, तुम चाहे जितना भी अपने को आर्य पूर्वजों की संतान कहने का प्रदर्शन करो, चाहे जितना भी प्राचीन भारत के वैभव का रात दिन गुणगान करो और अपने जन्म के अभिमान में अकड़ते रहो-पर क्या तुम ऐसा समझते हो कि तुम सजीव हो? तुम तो दस सहस्त्र वर्षों से सुरक्षित रखे हुए मृत देह जैसे ही हो! भारतवर्ष में जो थोड़ी बहुत जीवन-शक्ति अभी भी है, वह उन्हीं में मिलेगी; जिन्हें तुम्हारे पूर्वज “चलते-फिरते, सड़े-गन्दे, मांस पिण्ड“ मानकर घृणा करते थे और यथार्थ में “चलते हुए मुर्दे“ तो तुम लोग हो। तुम्हारे घर-द्वारा, तुम्हारे साज-समान ऐसे निर्जीव और पुराने हैं कि वे अजायब-घर के नमूनों के समान दिखाई देते हैं और तुम्हारे रीति-रिवाज, चाल-ढ़ाल और रहन-सहन को देखकर कोई भी यही सोचेगा कि “नानी की कहानी“ सुन रहा है। (जाति, संस्कृति और समाजवाद, पृष्ठ-85)
26. अब ब्रिटिश राज-शासन में प्रतिबन्धरहित शिक्षा एवं ज्ञान प्रसार के दिनों में, उन सब वस्तुओं को अपने उत्तराधिकारियों को सौंप दो। यह बात यथा सम्भव शीघ्र कर डालो। तुम अपने को शून्य में लीन करके अदृश्य हो जाओ और अपने स्थान में “नव-भारत“ का उदय होने दो। उसका उदय हल चलाने वाले किसान की कुटिया से, मछुए, मोचियों और मेंहतरों की झोपड़ियों से हो। बनिये की दुकान से, रोटी बेचने वाले की भट्टी के पास से वह प्रकट हो। कारखानों, हाटों और बाजारों से वह निकले। वह “नव भारत“ अमराइयों और जंगलों से, पहाड़ों और पर्वतों से प्रकट हो। ये साधारण लोग सहस्त्रों वर्षों से अत्याचार सहते आये हैं-बिना कुड़बुड़ाये उन्होंने यह सब सहा है और परिश्रम में उन्होंने आश्चर्यकारक धैर्य शक्ति प्राप्त कर ली है। वे सतत् विपत्ति सहते रहे हें, जिससे उन्हें अविरल जीवन शक्ति प्राप्त हो गयी है। मुट्ठी भर अन्न से पेट भरकर वे संसार को कँपा सकते हैं। उनमें “रक्तबीज“ की अक्षय जीवनशक्ति भरी है। इसके अतिरिक्त उनमें पवित्र और नीतियुक्त जीवन से आने वाला वह आश्चर्यजनक बल है जो संसार में अन्यत्र नहीं मिलता। ऐसी शक्ति, ऐसा संतोष, ऐसा प्रेम और चुपचाप सतत् कार्य करने की ऐसी शक्ति और कार्य के समय इस प्रकार सिंह बल प्रकट करना-यह सब तुम्हे अन्यत्र कहाँ मिलेगा? भूतकाल के कंकाल! देखो तुम्हारे सामने तुम्हारे उत्तराधिकारी खड़े हैं-भावी भारत वर्ष खड़ा है। अपने अदृश्य होते ही तत्काल तुम पुनर्जात भारतवर्ष का वह प्रथम उद्घोष सुनोगे, जिसकी करोड़ो गर्जनाओं से सारे विश्व में यही पुकार गूँजती रहेगी-“वाह गुरु की फतह!“ (जाति, संस्कृति और समाजवाद, पृष्ठ-86-87)

04. समाज नीति
01. सभी कालों में प्राचीन रितियों को नये ढंग में परिवर्तित करने से ही उन्नति हुई है। भारत में प्रचीन युग में भी धर्म प्रचारकों ने इसी प्रकार काम किया था। केवल बुद्ध देव के धर्म ने ही प्राचीन रिति और नीतियों का विध्वंस किया था भारत से उसके निर्मूल हो जाने का यहीं कारण है। (विवेकानन्द जी के संग में, पृष्ठ-19)
02. तथाकथित समाज-सुधार के विषय में हस्तक्षेप न करना क्योंकि पहले आध्यात्मिक सुधार हुये बिना अन्य किसी भी प्रकार का सुधार हो नहीं सकता (पत्रावली भाग-1, पृष्ठ-296)
03. लोगों को यदि आत्मनिर्भरषील बनने की शिक्षा नहीं दी जाय तो जगत के सम्पूर्ण ऐश्वर्य पूर्ण रुप से प्रदान करने पर भी भारत के एक छोटे से छोटे गाँव की भी सहायता नहीं की जा सकती। शिक्षा प्रदान हमारा पहला काम होना चाहिए, चरित्र एवं बुद्धि दोनो।के ही उत्कर्ष साधन के लिए शिक्षा विस्तार आवश्यक है (पत्रावली भाग-2, पृष्ठ-125)
04. मेरे भाई बिना अवरोध के कोई भी अच्छा काम नहीं हो सकता। जो अन्त तक प्रयत्न करते हैं उन्हें सफलता प्राप्त होती है। मेरा विस्वास है कि जब एक जाति, एक वेद, शान्ति और एकता होंगी तब सतयुग आयेगा। वह सतयुग का विचार ही भारत को पुनः जीवन प्रदान करेगा। विस्वास रखो। (पत्रावली भाग-1, पृष्ठ-127)
05. पिछले महापुरुष अब कुछ प्राचीन हो चले हैं। अब नवीन भारत है जिसमें नवीन ईश्वर, नवीन धर्म और नवीन वेद है। हे भगवान भूतकाल पर निरन्तर ध्यान लगा रखने की आदत से हमारा देश कब मुक्त होगा? अच्छा, अपने मत में थोड़ी कट्टरता भी आवश्यक है परन्तु दूसरे की ओर हमें विरोध भाव नहीं रखना चाहिए (पत्रावली भाग-1, पृष्ठ-442)
06. हमेशा यूरोप से सामाजिक तथा एशिया से आध्यात्मिक शक्तियों का उद्भव होता रहा है एवं इन दोनों शक्तियों के विभिन्न प्रकार के सम्मिश्रण से ही जगत का इतिहास बना है। वर्तमान मानवेतिहास का एक और नवीन पृष्ठ धीरे-धीरे विकसित हो रहा है एवं चारो ओर उसी का चिन्ह दिखाई दे रहा है। कितनी ही नवीन योजनाओं का उद्भव तथा नाश होगा, किन्तु योग्यतम वस्तु की प्रतिष्ठा सुनिश्चित है-सत्य और शिव की अपेक्षा योग्यतम वस्तु और हो ही क्या सकती है? (पत्रावली भाग-1, पृष्ठ-310)
07. बौद्ध धर्म और नव हिन्दू धर्म के सम्बन्ध में मेरे विचारों में क्रांतिकारी परिवर्तन हुआ है। उन विचारों को निश्चित रुप देने के लिए कदाचित मैं जिवित न रहूँ परन्तु उसकी कार्यप्रणाली का संकेत मैं छोड़ जाऊँगा और तुम्हें और तुम्हारे भ्रातृगणों को उस पर काम करना होगा (पत्रावली भाग-2, पृष्ठ-310)

05. भारत का ऐतिहासिक क्रम विकास और अन्य प्रबन्ध
01. जाति समस्या का सूत्रपात था एवं भारत में कर्मकाण्ड, दर्शन तथा जड़वाद के मध्य उस त्रिभुजात्मक संग्राम का मूल भी यही था। जिसका समाधान हमारे इस युग तक सम्भव नहीं हो पाया है। इस समस्या के समाधान का प्रथम प्रयास था-सर्वसमन्वय के सिद्धान्त का उपयोग, जिसने आदिकाल से ही मनुष्य को अनेकत्व में भी विभिन्न स्वरूपों में लक्षित एक ही सत्य के दर्शन की शिक्षा दी। इस सम्प्रदाय के महान नेता क्षत्रिय वर्ग के स्वयं श्रीकृष्ण एवम् उनकी उपदेशावली गीता ने, जैनियों, बौद्धों एवम् इतर जन सम्प्रदायों द्वारा लायी गयी उथल-पुथल के फलस्वरूप विविध क्रान्तियों के बाद भी अपने को भारत का “अवतार“ एवम् जीवन का यथार्थतम् दर्शन सिद्ध किया। यद्यपि थोड़े समय के लिए तनाव कम हो गया, लेकिन उसके मूल में निहित सामाजिक अभावों का-जाति परम्परा में क्षत्रियों द्वारा सर्वप्रथम होने का दावा एवम् पुरोहितों के विशेषाधिकार की सर्वविदित असहिष्णुता का-जो अनेक कारणों से दो थे-समाधान इससे नहीं हो सका। जातिभेद एवम् लिंगभेद को ठुकराकर कृष्ण ने आत्मज्ञान एवम् आत्मसाक्षात्कार का द्वार सब के लिए समान रूप से खोल दिया, लेकिन उन्होंने इस समस्या को सामाजिक स्तर पर ज्यों का त्यों बना रहने दिया। पुनः यह समस्या आज तक चली आ रही है। (भारत का ऐतिहासिक क्रम विकास और अन्य प्रबन्ध, पृष्ठ-6)
02. भारत के इतिहास में साधारणतः देखा गया है कि धार्मिक उथल-पुथल के बाद सदा ही एक राजनीतिक एकता स्थापित हो जाती है, जो न्यूनाधिक रूप से समस्त देश में व्याप्त हो जाती है। इस एकता के फलस्वरूप उसको जन्म देने वाला धार्मिक दृष्टिकोण भी शक्तिशाली बनता है। (भारत का ऐतिहासिक क्रम विकास और अन्य प्रबन्ध, पृष्ठ-14)
03. भौतिकीकरण की अर्थात् यान्त्रिक क्रिया-कलाप के स्तर की ओर अधिकाधिक खिंचते जाने की इच्छाएं-पशु मानव की है। इन्द्रियों के इन समस्त बन्धनों का निराकरण कर देने की इच्छा उत्पन्न होने पर ही मनुष्य के हृदय में धर्म का उदय होता है। इस प्रकार हम देखते हैं कि धर्म का समग्र अभिप्राय मनुष्य को इन्द्रियों के बन्धनों में फंसने से बचाना और अपनी स्वतंत्रता को सिद्ध करने में उसकी सहायता करना है। उस लक्ष्य की ओर निवृत्ति की इस शक्ति के प्रथम प्रयास को नैतिकता कहते हैं। समग्र नैतिकता का अभिप्राय इस अधःपतन को रोकना और इस बन्धन को तोड़ना है। समस्त नैतिकता को विधायक और निषेधात्मक तत्वों में विभक्त किया जा सकता है। (भारत का ऐतिहासिक क्रम विकास और अन्य प्रबन्ध, पृष्ठ-18)
04. प्रकृति तीन रूपों में प्राप्त होती है-ईश्वर, चेतन और अचेतन अर्थात् ईश्वर, व्यक्तितायुक्त आत्माएं और अचेतन प्राणी। इन सब की वास्तविकता ब्रह्म है, यद्यपि माया के कारण वह विविध प्रतीत होता है। किन्तु ईश्वर का दर्शन वास्तविकता के निकटतम और उच्चतम है। (व्यक्तितायुक्त) सगुण ईश्वर की धारणा मनुष्य के लिए सर्वोच्च सम्भव विचार है। ईश्वर में आरोपित समस्तगुण उसी अर्थ में सत्य है, जिसमें प्रकृति के गुण सत्य है। फिर भी हमें यह कभी नहीं भूलना चाहिए कि सगुण ईश्वर माया के माध्यम से देखा जाने वाला ब्रह्म ही है। (भारत का ऐतिहासिक क्रम विकास और अन्य प्रबन्ध, पृष्ठ-34)
05. जिस किसी जाति में शस्त्र-बल आता है, वह क्षत्रिय हो जाती है; जिस किसी जाति में ज्ञान-बल आता है, वह ब्राह्मण हो जाती है और जिस किसी जाति में धन-बल आता है, वह वैश्य हो जाती है। (भारत का ऐतिहासिक क्रम विकास और अन्य प्रबन्ध, पृष्ठ-38)
06. क्षत्रियत्व-ब्राह्मण बनने के लिए यह सोपान पार करना होगा। अतीत में कुछ ने पार कर लिया होगा, पर वर्तमान के लोगों को तो प्रत्यक्ष दिखाना होगा। (भारत का ऐतिहासिक क्रम विकास और अन्य प्रबन्ध, पृष्ठ-56)
07. इसलिए सब से बड़ी समस्या है इन विविध तत्वों का बिना उनका विशिष्ट व्यक्तित्व नष्ट किये हुये, समन्वय करना-उन्हें एक सूत्र में बांध देना। (भारत का ऐतिहासिक क्रम विकास और अन्य प्रबन्ध, पृष्ठ-56)
08. यही अद्वैत दर्शन की महिमा है जो एक तत्व का उपदेश देता है, व्यक्ति का नहीं; और फिर भी लौकिक और अलौकिक, दोनों ही प्रकार के व्यक्तियों को कार्य करने का पूर्ण अवसर देता है। (भारत का ऐतिहासिक क्रम विकास और अन्य प्रबन्ध, पृष्ठ-56)
09. भविष्य में यह होने जा रहा है। यदि शेष समस्त समुदायों के श्रम का उपयोग करने वाली एक जाति की शक्ति की अभिव्यक्ति कम से कम एक विशेष अवधि में आश्चर्यजनक फल उत्पन्न कर सकती है। तो फिर यहाँ उन समस्त जातियों का संचयन और केन्द्रीकरण होने जा रहा है, जिनके विचारों का और रक्त का सम्मिश्रण मन्द गति से, पर अनिवार्य रूप से होता आ रहा है। और मैं अपने मानस-चहुओं से उस भावी विराट-पुरुष को धीरे-धीरे परिपक्व होता देख रहा है-धरती के समस्त राष्ट्रों में कनिष्ठतम, सर्वाधिक महिमामण्डित और ज्येष्ठतम भारत का भविष्य। (भारत का ऐतिहासिक क्रम विकास और अन्य प्रबन्ध, पृष्ठ-57)
10. कलियुग में दान ही एकमात्र कर्म है। जब तक कर्म द्वारा शुद्ध न हो तब तक किसी को ज्ञान की प्राप्ति नहीं होती। आध्यात्मिक और लौकिक ज्ञान का दान। राष्ट्र की पुकार-त्याग, त्यागी पुरुष। (भारत का ऐतिहासिक क्रम विकास और अन्य प्रबन्ध, पृष्ठ-57)
11. सुदूर भविष्य में देख सकने की विचार-शक्ति और वर्तमान में अतीत पुनः प्रस्तुत कर सकने वाली स्मरण शक्ति हमारे लिए स्वर्गिक जीवन सुलभ बना देती है; वही हमें नरक का जीवन बिताने को भी विवश कर देती है। (भारत का ऐतिहासिक क्रम विकास और अन्य प्रबन्ध, पृष्ठ-67)
12. नियम कभी घटनाचक्र से, सिद्धान्त कभी व्यक्ति से भिन्न नहीं होता। अपनी सीमा के भीतर, पृथक पदार्थ की, क्रिया अथवा निष्क्रिय सम स्थिति की विधि ही नियम कही जाती है। (भारत का ऐतिहासिक क्रम विकास और अन्य प्रबन्ध, पृष्ठ-68)
13. नियम पदार्थों की यथास्थिति में है-इस विधि से कि पदार्थ एक दूसरे के प्रति कैसे क्रियमान होते हैं; न कि कैसे उन्हें होना चाहिए। (भारत का ऐतिहासिक क्रम विकास और अन्य प्रबन्ध, पृष्ठ-68)
14. आध्यात्मिक नियम, नैतिक नियम, सामाजिक नियम, राष्ट्रीय नियम-तभी नियम है जब वे प्रस्तुत आत्मिक और मानव इकाईयों के अंग हो और इन नियमों से शासित मानी जाने वाली प्रत्येक इकाई को कर्म की अनिवार्य अनुभूति हो। (भारत का ऐतिहासिक क्रम विकास और अन्य प्रबन्ध, पृष्ठ-68)
15. हमारा निर्माण नियम द्वारा और हमारे द्वारा नियम का निर्माण-यह चक्र चलता है। कुछ विशिष्ट परिस्थितियों में मनुष्य अनिवार्यतः क्या करता है, इस सम्बन्ध में सामान्य निष्कर्ष-एक उन परिस्थितियों के सम्बन्ध में मनुष्य पर लागू होने वाला नियम है। अचल, सार्वभौम मानवीय व्यापार ही मनुष्य का नियम है, जिससे कोई भी व्यक्ति बच नहीं सकता-किन्तु यह भी सत्य है कि अलग-अलग व्यक्तियों के कार्यों का योग ही सार्वभौम नियम है। पूर्ण योग या सार्वभौम अथवा असीम ही व्यक्ति का निर्माण कर रहा है और व्यक्ति अपने क्रिया से उस विधान को सजीव बनाये हुए है। इस अर्थ में नियम सार्वभौम का ही दूसरा नाम है। सार्वभौम व्यक्ति पर निर्भर है, व्यक्ति सार्वभौम पर निर्भर है। यह अनन्त शान्त अंशों से निर्मित है। (भारत का ऐतिहासिक क्रम विकास और अन्य प्रबन्ध, पृष्ठ-69)
16. आध्यात्मिक और नैतिक नियम प्रत्येक मनुष्य की क्रिया पद्धति नहीं है। शीलाचार, नैतिकता, और राष्ट्रीय नियमों के पालन की अपेक्षा इनका उल्लंघन ही अधिक किया जाता है। यदि ये सब नियम होते तो भंग कैसे किये जा सकते। (भारत का ऐतिहासिक क्रम विकास और अन्य प्रबन्ध, पृष्ठ-70)
17. प्रकृति के नियमों के विपरीत जाने की सामथ्र्य किसी भी व्यक्ति में नहीं है। तो फिर ऐसा क्यों है कि हम सर्वदा मनुष्य द्वारा नैतिक और राष्ट्रीय नियमों के भंग किये जाने की शिकायत सुनते हैं? (भारत का ऐतिहासिक क्रम विकास और अन्य प्रबन्ध, पृष्ठ-70)
18. राष्ट्रीय नियम, अपने सर्वोत्कृष्ट रूप में, राष्ट्र के बहुमत की इच्छा के मूर्त रूप है-सर्वदा एक अन्य स्थिति, न कि यथार्थ स्थिति। इस प्रकार प्राकृतिक नियमों के सम्बन्ध में प्रयुक्त “नियम“ शब्द का अर्थ सामान्यतः नीतिशास्त्र और मानव क्रियाओं की भूमिका में बहुत बदल जाता है। (भारत का ऐतिहासिक क्रम विकास और अन्य प्रबन्ध, पृष्ठ-70)
19. संसार के नैतिक नियमों का विश्लेषण करने पर और यथार्थ स्थिति से उनकी तुलना करने पर दो नियम सर्वोपरि ठहरते हैं। एक है अपने से प्रत्येक वस्तु के विकर्षण का नियम-हर व्यक्ति से अपने को पृथक करना जिसका परिणाम होता है, अन्ततः दूसरों की सुख-सुविधा की बलि देकर भी अपने अभ्युदय की सिद्धि। दूसरा है आत्म-बलिदान का विधान-अपनी चिन्ता से सर्वथा मुक्ति7सर्वदा केवल दूसरों का ध्यान करना। संसार में महान और सत्पुरुष वे हैं जिनमें यह दूसरी क्षमता प्रबल होती है। फिर भी ये दोनों शक्तियाँ साथ साथ संयुक्त रूप से काम कर रही है; प्रायः प्रत्येक व्यक्ति में वह मिली हुई पायी जाती है, एक या दूसरी प्रमुख होती है। चोर, चोरी करता है; पर शायद, किसी दूसरे के लिए जिसे वह प्यार करता है। (भारत का ऐतिहासिक क्रम विकास और अन्य प्रबन्ध, पृष्ठ-70)
20. मुक्ति ही विश्व की प्रेरक है और मुक्ति ही इसका लक्ष्य है। प्रकृति के नियम में ऐसी पद्धतियाँ हैं जिनके द्वारा हम जगदम्बा के निर्देशन में, उस मुक्ति तक पहुँचने का संघर्ष करते हैं। मुक्ति के लिए इस विश्वव्यापी संघर्ष की सर्वोच्च अभिव्यक्ति मनुष्य में मुक्त होने की सजग अभिलाषा के रूप में होती है। यह मुक्ति तीन प्रकार से प्राप्त होती है-कर्म, उपासना और ज्ञान से। कर्म-दूसरों की सहायता करने और दूसरों को प्रेम करने का सतत अविरत प्रयत्न। उपासना-प्रार्थना-वन्दना, गुणगान और ध्यान। ज्ञान-जो ध्यान से उत्पन्न होता है। (भारत का ऐतिहासिक क्रम विकास और अन्य प्रबन्ध, पृष्ठ-73)


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