समर नीति और समन्वयाचार्य राम कृष्ण ”परमहंस“
मेरी समर नीति
01. जो मनुष्य अपने जीवन के चैदह वर्षों तक लगातार उपवास का मुकाबला करता रहा हो, जिसे यह भी न मालूम रहा हो कि दूसरे दिन का भोजन कहाँ से आयेगा, सोने के लिए स्थान कहाँ मिलेगा, वह इतनी सरलता से धमकाया नहीं जा सकता। जो मनुष्य बिना कपड़ों के और बिना यह जाने कि दूसरे समय भोजन कहाँ से मिलेगा, उस स्थान पर रहा हो, जहाँ का तापमान शून्य से भी तीस डिग्री कम हो, वह भारतवर्ष में इतनी सरलता से नहीं डराया जा सकता। यही पहली बात है जो में उनसे कहूंगा-मुझमें अपनी थोड़ी दृढ़ता है, मेरा थोड़ा निज का अनुभव भी है, और मुझे संसार को कुछ संदेश देना है और यह सन्देश मैं बिना किसी डर के, बिना किसी प्रकार भविष्य की चिन्ता किये सब के समक्ष घोषित करूंगा। (मेरी समर नीति, पृष्ठ-12)
02. सुधारकों से मैं कहूंगा कि मैं स्वयं उनसे कहीं बढ़कर सुधारक हूँ। वे लोग इधर-उधर थोड़ा सुधार करना चाहते हैं-और मैं चाहता हूँ आमूल सुधार। हम लोगों का मतभेद है केवल सुधार की प्रणाली में। उनकी प्रणाली विनाशात्मक है और मेरी संघटनात्मक। मैं सुधार में विश्वास नहीं करता, मैं विश्वास करता हूँ स्वाभाविक उन्नति में। (मेरी समर नीति, पृष्ठ-13)
03. सामाजिक व्याधि का प्रतिकार बाहरी उपायों द्वारा नहीं होगा; हमें उसके लिए भीतरी उपायों का अवलम्बन करना होगा-मन पर कार्य करने की चेष्टा करनी होगी। चाहे हम कितनी ही लम्बी चैड़ी बातें क्यों न करें, हमें जान लेना होगा कि समाज के दोषों को दूर करने के लिए प्रत्यक्ष रूप से नहीं वरन् शिक्षादान द्वारा परोक्ष रूप से उसकी चेष्टा करनी होगी। (मेरी समर नीति, पृष्ठ-15)
04. हम मानते हैं कि यहाँ बुराईयाँ हैं पर बुराई तो हर कोई दिखा सकता है। मानव-समाज का सच्चा हितैषी तो वह है, जो इन बुराईयों को दूर करने का उपाय बताये। कोई एक दार्शनिक एक डुबते हुए लड़के को गंभीर भाव से उपदेश दे रहा था, तो लड़के ने कहा-“पहले मुझे पानी से बाहर निकालिए, फिर उपदेश दीजिए“। बस ठीक इसी तरह भारतवासी भी कहते हैं, “हम लोगों ने बहुत व्याख्यान सुन लिए, बहुत सी संस्थायें देख ली, बहुत से पत्र पढ़ लिये, अब तो हमें ऐसा मनुष्य चाहिए, जो अपने हाथ का सहारा दे, हमें इन दुःखों के बाहर निकाल दे। कहाँ है वह मनुष्य जो हमसे वास्तविक प्रेम करता है, जो हमारे प्रति सच्ची सहानुभूति रखता है?“ बस उसी आदमी की हमें जरूरत है। यहीं पर मेरा इन समाज सुधार आन्दोलनों से सर्वथा मतभेद है। आज सौ वर्ष हो गये, ये आन्दोलन चल रहे हैं, पर सिवाय निन्दा और विद्वेषपूर्ण साहित्य की रचना के इनसे और क्या लाभ हुआ है? (मेरी समर नीति, पृष्ठ-17)
05. प्रत्येक भारतीय भाषा में ऐसे साहित्य की रचना हो गयी है, जो जाति के लिए, देश के लिए कलंकस्वरूप है। क्या यही सुधार है! क्या इसी तरह देश गौरव पथ पर बढ़ेगा। यह है किसका दोष? (मेरी समर नीति, पृष्ठ-18)
06. भारतवर्ष में हमारा शासन सदैव राजाओं द्वारा हुआ है, राजाओं ने ही हमारे सब कानून बनाये हैं। अब वे राजा नहीं है, और इस विषय में अग्रसर होने के लिए हमें मार्ग दिखाने वाला अब कोई नहीं रहा। सरकार साहस नहीं करती। वह तो सर्वसाधारण के विचारों की गति देखकर ही अपनी कार्यप्रणाली निश्चित करती है। अपनी समस्याओं को हल कर लेने वाला एक कल्याणकारी और प्रबल लोकमत स्थापित करने में समय लगता है-काफी लम्बा समय लगता है, इस बीच हमें प्रतीक्षा करनी होगी। अतएव सामाजिक सुधार की सम्पूर्ण समस्या यह रूप लेती है-कहाँ हैं वे लोग, जो सुधार चाहते हैं। (मेरी समर नीति, पृष्ठ-18)
07. मुट्ठी भर लोग, जो सोचते हैं कि कतिपय बातें दोषपूर्ण हैं, राष्ट्र को गति नहीं दे सकते। राष्ट्र में आज गति क्यों नहीं है? क्यों वह जड़भावापन्न है? पहले राष्ट्र को शिक्षित करो, अपनी निजी विधायक संस्थाएं बनाओ, फिर तो नियम आप ही आप आ जायेंगे। जिस शक्ति के बल से, जिसके अनुमोदन से विधान का गठन होगा, पहले उसकी सृष्टि करो। आज राजा नहीं रहे; जिस नयी शक्ति से, जिस नये दल की सम्मति से नयी व्यवस्था गठित होगी, वह लोकशक्ति कहाँ है? (मेरी समर नीति, पृष्ठ-19)
08. आजकल विशेषतः दक्षिण में बौद्ध धर्म और उसके अज्ञेयवाद की आलोचना करने की एक प्रथा सी चल पड़ी है। यह उन्हें स्वप्न में भी ध्यान नहीं आता कि जो विशेष दोष आजकल हमारे समाज में विद्यमान है, वे सब बौद्ध धर्म द्वारा ही छोड़े गये हैं। (मेरी समर नीति, पृष्ठ-20)
09. बौद्ध धर्म के इतने विस्तार का कारण था-गौतम बुद्ध द्वारा प्रचारित अपूर्व नीति और उनका लोकोत्तर चरित्र। भगवान बुद्धदेव के प्रति मेरी यथेष्ट श्रद्धा-भक्ति है। पर मेरे शब्दों पर गौर कीजिए। बौद्ध-धर्म का विस्तार उक्त महापुरुष के मत एवं अपूर्व चरित्र के कारण उतना नहीं हुआ, जितना बौद्धों द्वारा निर्माण किये गये बड़े-बड़े मन्दिरों एवं भव्य प्रतिमाओं के कारण, समग्र देश के सन्मुख किये गये भड़कीले उत्सवों के कारण। पर अन्त में इन सब क्रियाकलापों में भारी अवनति हो गयी। -ऐसी अवनति कि उसका वर्णन भी श्रोताओं के सामने नहीं किया जा सकता। (मेरी समर नीति, पृष्ठ-20)
10. क्या भारतवर्ष में कभी सुधारकों का अभाव था? क्या तुमने भारत का इतिहास पढ़ा है? रामानुज, शंकर, नानक, चैतन्य, कबीर और दादू कौन थे? ये सब बड़े बड़े धर्माचार्य, जो भारत-गगन में अत्यन्त उज्ज्वल नक्षत्रों की नाई एक के बाद उदित हुये, फिर अस्त हो गये, कौन थे? क्या रामानुज के हृदय में नीच जाति के लिए प्रेम नहीं था? क्या उन्होंने अपने सारे जीवन भर चाण्डाल तक को अपने सम्प्रदाय में ले लेने का प्रयत्न नहीं किया? क्या नानक ने मुसलमान और हिन्दू दोनों से समानभाव से परामर्श कर समाज में एक नयी अवस्था लाने का प्रयत्न नहीं किया? इन सभी लोगों ने प्रयत्न किया, और उनका काम आज भी चल रहा है। भेद केवल इतना है कि वे आज के समाज-सुधारकों की तरह दाम्भिक नहीं थे; वे इनके समान अपने मुँह से कभी अभिशाप नहीं उगलते थे। उनके मुँह से केवल आशीर्वाद ही निकलता था। उन्होंने यह नहीं कहा-“पहले तुम दुष्ट थे, और अब तुम्हे अच्छा होना होगा।“ उन्होंने यही कहा, “पहले तुम अच्छे थे, अब और अच्छे बनो।“ ये दो बातें जमीन आसमान का फर्क पैदा कर देती है। (मेरी समर नीति, पृष्ठ-25)
11. मेरी नीति है-प्राचीन आचार्यों के उपदेशों का अनुसरण करना। मैंने उनके कार्य का अध्ययन किया है, और जिस प्रणाली से उन्होंने कार्य किया, उसके अविष्कार करने का मुझे सौभाग्य मिला। वे सब महान समाज संस्थापक थे। बल पवित्रता और जीवन शक्ति के वे अद्भुत आधार थे। उन्होंने सब से अद्भुत कार्य किया-समाज में बल, पवित्रता और जीवन शक्ति संचारित की। हमें भी सबसे अद्भुत कार्य करना है। आज अवस्था कुछ बदल गयी है, इसलिए कार्य-प्रणाली में कुछ थोड़ा-सा परिवर्तन करना होगा; बस इतना ही, इससे अधिक कुछ नहीं। (मेरी समर नीति, पृष्ठ-27)
12. किसी देश में-जैसे इंग्लैण्ड में-राजनीतिक सत्ता ही उसकी जीवन-शक्ति है। कला कौशल की उन्नति करना किसी दूसरे राष्ट्र का प्रधान लक्ष्य है। ऐसे ही और दूसरे देशों का भी समझिये। किन्तु भारतवर्ष में धार्मिक जीवन ही राष्ट्रीय जीवन का केन्द्र है और वही राष्ट्रीय जीवन रूपी संगीत का प्रधान स्वर है। (मेरी समर नीति, पृष्ठ-28)
13. यदि तुम धर्म को फंेककर राजनीति, समाजनीति अथवा अन्य किसी दूसरी नीति को अपनी जीवन-शक्ति का केन्द्र बनाने में सफल हो जाओ, तो उसका यह फल होगा कि तुम्हारा नामोनिशान तक न रह जाएगा। यदि तुम इससे बचना चाहो, तो अपनी जीवन-शक्तिरूपी धर्म के भीतर से ही तुम्हें अपने सारे कार्य करने होंगे-अपनी प्रत्येक क्रिया का केन्द्र इस धर्म को ही बनाना होगा। (मेरी समर नीति, पृष्ठ-28)
14. जो भी व्यक्ति अपने शास्त्र के महान सत्यों को दूसरों को सुनाने में सहायता पहुँचाएगा, वह आज एक ऐसा कर्म करेगा, जिसके समान दूसरे कोई कर्म नहीं। महर्षि मनु ने कहा है-“इस कलियुग में मनुष्यों के लिए एक ही कर्म शेष है। आजकल यज्ञ और कठोर तपस्याओं से कोई फल नहीं होता। इस समय दान ही अर्थात् एकमात्र कर्म है।“ और दानों में धर्मदान, अर्थात् आध्यात्मिक ज्ञान का दान ही सर्वश्रेष्ठ है। दूसरा दान है विद्यादान, तीसरा प्राणदान और चैथा अन्नदान। (मेरी समर नीति, पृष्ठ-30)
15. राजनीति सम्बन्धी विद्या का विस्तार रणभेरियों और सुसज्जित सेनाओं के बल पर किया जा सकता है। लौकिक एवं समाज सम्बन्धी विद्या का विस्तार उगलती तोपों पर चमचमाती तलवारों के बल पर हो सकता है। पर आध्यात्मिक विद्या का विस्तार तो शान्ति द्वारा ही सम्भव है। जिस प्रकार चक्षु-कर्ण गोचर न होता हुआ भी मृदु ओस-बिन्दु गुलाब की कलियों को विकसित कर देता है, वह वैसा ही आध्यात्मिक ज्ञान क विस्तार के सम्बन्ध में भी समझिए। यही एक दान है, जो भारत दुनिया को बार-बार देता आया है। जब कभी भी कोेई दिग्विजयी जाति उठी, जिसने संसार के विभिन्न देशों को एक साथ ला दिया और आपस में लेन देन की सुविधा कर दी, त्योंहि भारत उठा और संसार की उन्नति में अपना भी आध्यात्मिक ज्ञान का हिस्सा दे दिया। (मेरी समर नीति, पृष्ठ-32)
16. आवश्यकता है वीर्यवान, तेजस्वी, श्रद्धासम्पन्न और दृढ़विश्वासी, निष्कपट नवयुवकों की। ऐसे सौ मिल जाय, तो संसार का कायाकल्प हो जाय! इच्छाशक्ति संसार में सब से अधिक बलवती है। उसके सामने दुनिया की कोई चीज नहीं ठहर सकती, क्योंकि वह भगवान-साक्षात् भगवान से आती है। विशुद्ध और दृढ़ इच्छाशक्ति सर्वशक्तिमान है। क्या तुम इसमें विश्वास नहीं करते? सब के समक्ष अपने धर्म के महान सत्यों का प्रचार करो; संसार इनकी प्रतीक्षा कर रहा है। (मेरी समर नीति, पृष्ठ-34)
17. हमें ऐसे धर्म की आवश्यकता है, जिससे हम मनुष्य बन सकें। हमें ऐसे सिद्धान्तों की आवश्यकता है, जिससे हम मनुष्य हो सकें। हमें ऐसी सर्वांगसम्पन्न शिक्षा चाहिए, जो हमें मनुष्य बना सके और यह रही सत्य की कसौटी-जो भी तुम्हे शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक दुर्बलता लाए, उसे जहर की भांति त्याग दो; उसमें जीवन-शक्ति नहीं है, वह कभी सत्य नहीं हो सकता। सत्य तो बलप्रद है, वह पवित्रता स्वरूप है, ज्ञान स्वरूप है। सत्य तो वह है जो शक्ति दे, जो हृदय के अन्धकार को दूर कर दे, जो हृदय में स्फूर्ति भर दें। (मेरी समर नीति, पृष्ठ-36)
18. मैं अपने देश से प्रेम करता हूँ; मैं तुम्हें और अधिक पतित, और ज्यादा कमजोर नहीं देख सकता। अतएव तुम्हारे कलयाण के लिए, सत्य के लिए और जिससे मेरी जाति और अधिक अवनत न हो जाए इसलिए, मैं जोर से चिल्लाकर कहने के लिए बाध्य हो रहा हूँ-बस ठहरो! अवनति की ओर न बढ़ो। जहाँ तक गये हो, बस उतना ही काफी हो चुका। (मेरी समर नीति, पृष्ठ-37)
19. सत्य जितना ही महान होता है, उतना ही सहज, बोधगम्य होता है-स्वयं अपने अस्तित्व क समान सहज! जैसे अपने अस्तित्व को प्रमाणित करने के लिए और किसी की आवश्यकता नहीं होती, बस वैसा ही! उपनिषद् के सत्य तुम्हारे सामने है। इनका अवलम्बन करो, इनकी उपलब्धि कर इन्हें कार्य में परिणत करो-बस देखोगे भारत का उद्धार निश्चित है। (मेरी समर नीति, पृष्ठ-37)
20. लोग देश भक्ति की चर्चा करते हैं। मैं भी देश भक्ति में विश्वास करता हूँ और देशभक्ति के सम्बन्ध में मेरा भी एक आदर्श है। बड़े काम करने के लिए तीन बातों की आवश्यकता होती है। पहला है-हृदय-अनुभव की शक्ति। बुद्धि या विचारशक्ति में क्या धरा है? वह तो कुछ दूर जाती है और बस वहीं रूक जाती है। पर हृदय-हृदय तो महाशक्ति का द्वार है; अन्तःस्फूर्ति वहीं से आती है। प्रेम असम्भव को भी सम्भव कर देता है। यह प्रेम की जगत के सब रहस्यों का द्वार है। अतएव, ऐ मेरे भावी सुधारकों, मेरे भावी देशभक्तों-तुम हृदयवान बनो। (मेरी समर नीति, पृष्ठ-38)
समन्वयाचार्य श्रीरामकृष्ण
01. स्वामी विवेकानन्द ने जिस समय कहा था-एक विश्व, एक मानव, एक धर्म, एक ईश्वर, तब लोगों ने इस बात का उपहास किया था, लोगों ने इस प्रकार की संभावना पर संदेह प्रकट किया था, लोग स्वीकार नहीं कर पाये थे। किन्तु आज सभी लोग संयुक्त राष्ट्र संघ (UNO) की ओर दौडे़ चले जा रहे हैं। जाओ, जाओ की अवस्था ने मानो उनको दबोच लिया है। (समन्वयाचार्य श्रीरामकृष्ण, पृष्ठ-22)
02. श्रीरामकृष्ण के जीवन में जो धर्म साकार हुआ है उसका नयापन यही है कि इसमें जो है वह सभी के लिए, सभी देशों के लिए अपने सभी काल के लिए आवश्यक है। इसी कारण इसे “सार्वभौमिक“ या यूनिवर्सल कहा जा सकता है। (समन्वयाचार्य श्रीरामकृष्ण, पृष्ठ-25)
03. यह मतवाद जो द्वैत, अद्वैत एवम् अन्यान्य मतों के बीच समन्वय स्थापित करता है, समन्वयवादी वेदान्त है। यह वेदान्त जिस प्रकार ब्रह्म को सगुण और निर्गुण दोनों ही रूपों में स्वीकार करता है, वैसे ही (ब्रह्म को) साकार और निराकार रूप में भी स्वीकार करता है। इस दृष्टि से यह शंकर के परम्परागत अद्वैत से भिन्न है। (पृष्ठ-26)
04. निष्काम कर्म के साथ ज्ञान, भक्ति आदि सब मिलकर एक योग बनेगा। इस योग को यदि “रामकृष्णयोग“ कहा जाय तो भी कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। (समन्वयाचार्य श्रीरामकृष्ण, पृष्ठ-32)
05. ब्रह्म को छोड़कर शक्ति का और शक्ति को छोड़कर ब्रह्म का चिन्तन भी नहीं किया जा सकता। नित्य को छोड़कर लीला के बारे में और लीला को छोड़कर नित्य के बारे में सोचा भी नहीं जा सकता। इसीलिये उनके लिए काली ही ब्रह्म है और ब्रह्म ही काली है। वस्तु एक ही है; ब्रह्म जब निष्क्रिय है-सृष्टि स्थिति-प्रलय की क्रिया में भाग नहीं लेते तो वे ब्रह्म कहलाते हैं और जब वे ये कार्य करते हैं तब वे काली, शक्ति कहलाते हैं। (समन्वयाचार्य श्रीरामकृष्ण, पृष्ठ-51)
06. जिस समय जो अवतारी पुरुष आये, उनमें से प्रत्येक ने एक आदर्श प्रस्तुत किया। निश्चिय ही उनमें अन्य कोई आदर्श नहीं था ऐसा नहीं; उनमें भी सभी आदर्श थे; परन्तु उनके जीवन मेंे एक भाव विशेषरूप से प्रकाशित हुआ था। यह इस प्रकार है कि श्रीकृष्ण ने सभी धर्मों, सभी दर्शनों, सभी प्रथाओं और मतवादों का समन्वय कर दिया है; उन्होंने दिखला दिया है कि कर्म, योग, ज्ञान और भक्ति एक ही महायोग के एक एक अंग है। यही सिद्ध करने के लिए उनका स्वयं का जीवन निष्काम कर्म द्वारा निर्मित था। निष्काम कर्म से चित्तशुद्धि होती है और चित्तशुद्धि होने पर वैराग्य उत्पन्न होता है वैराग्य के उपरान्त त्याग। त्याग का आदर्श लेकर आये बुद्धदेव। स्वयं के लिए कुछ भी नहीं, मुक्ति भी नहीं, सब कुछ जीवों के लिए। जीवों की मुक्ति का पथ नहीं खोज सका ऐसा कहकर रोने लगे थे। त्याग के पश्चात् ज्ञान जिसे लेकर आये शंकर।. . . इसी ज्ञान के बाद पे्रम। इसी प्रेमामृत का पान करने के लिए आगमन हुआ पे्रमावतार महाप्रभु श्री चैतन्य का। किन्तु भारत ने सोचा कि ये सभी एक दूसरे के परस्पर विरोधी हैं। यह विरोध दूर हुआ है सर्व-धर्म-समन्वय के मूर्तरूप श्रीरामकृष्ण देव के आगमन से। इस अविराम साधना प्रवाह की परि-समाप्ति हुई है श्रीरामकृष्ण रूपी समन्वय सागर में। (समन्वयाचार्य श्रीरामकृष्ण, पृष्ठ-42)
07. घृणित वेश्या में भी वे माँ जगदम्बा को देखते थे। इसीलिये श्रीरामकृष्ण के जीवन में जिस प्रकार नरेन्द्र, राखाल, शशि, शरत आदि शुद्ध सत्व बालक, गिरीश, राम, सुरेन, कालिपद आदि गृहस्थ भक्त, साधक, आचार्य, और पण्डित आते थे; उसी प्रकार शिक्षक, अध्यापक, पत्रकार, चित्रकार, गायक, वादक, डाक्टर, वैद्य, वकील, मुंशी, जमींदार, पिछड़े लोग, उपेक्षित वर्ग के लोग (जैसे रसिक मेंहतर, भर्तृहरि माली, शम्भु कुम्हार, मधु युगी) रसोइया, दरबान, पहलवान, मन्मथ गुण्डा, डकैत, वागदी पाठक, शराबी, पागल, गाड़ीवाला, हलवाई, किसान, मारवाड़ी, व्यवसायी, वैश्या, लुहारिन, धाप, नौकरानी, पगली रंगशाला के अभिनेता-अभिनेत्रियां (जैसे अमृत सेन, नीलमाधव, महेन्द्र, विनोदिनी, वनहारिनी, गंगामणि, किरनबाला आदि) आदि भी उनके जीवन में स्थान पाते हैं। श्रीरामकृष्ण, विभिन्न स्तरों के विभिन्न व्यवसायों के, विभिन्न जाति के, विभिन्न विचारों के, विभिन्न अवस्थाओं के मनुष्यों को एक सूत्र में बांधकर जगत को एक अत्यन्त सुसज्जित मनोरम, मानवत्व का हार दे गये हैं। इस प्रकार का अतुलनीय समन्वय पहले कभी नहीं देखा गया है। (समन्वयाचार्य श्रीरामकृष्ण, पृष्ठ-60)
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