Wednesday, April 15, 2020

वेद, ईश्वर, अवतार, गुरू और मरणोत्तर जीवन

वेद, ईश्वर, अवतार, गुरू और मरणोत्तर जीवन


01. वेद
01. वेद का अर्थ अनादि सत्यों का समूह है। वेदज्ञ ऋषियों ने इन सत्यों को प्रत्यक्ष किया था। बिना अतिन्द्रिय दृष्टि के साधारण दृष्टि से ये सत्य प्रत्यक्ष नहीं होते। इसी से वेद में ऋषि का अर्थ मन्त्रार्थ दर्शी है, यज्ञोपवीतधारी ब्राह्मण नहीं। ब्राह्मण आदि जाति विभाग वेद के बाद हुआ था। वेद शब्दात्मक अर्थात् भावात्मक है अथवा अनन्त भाव राशि की समष्टि को ही वेद कहते हैं। “शब्द“ इस पद का वैदिक प्राचीन अर्थ सूक्ष्म भाव है, जो फिर आगे स्थूल रुप से अपने को व्यक्त करता है इसलिए प्रलय काल में भावी सृष्टि का सूक्ष्म बीज समूह वेद में ही संपुटित रहता है। इसी से पुराण में पहले-पहल मीनावतार से वेद का उद्धार दिखाई देता है। प्रथमावतार से ही वेद का उद्धार हुआ। (विवेकानन्द जी के संग में, पृष्ठ-61)
02. भारत में यह सर्वसम्मत है कि “वेद“ शब्द में तीन भाग सम्मिलित हैं-संहिता, ब्राह्मण और उपनिषद्। इनमें से पहले दो भाग कर्म काण्ड सम्बन्धी होने के कारण अब लगभग एक ओर कर दिये गये हैं। सब मतों के निर्माताओं तथा तत्व ज्ञानियों ने केवल उपनिषदों को ही ग्रहण किया है। केवल संहिता ही वेद है, यह स्वामी दयानन्द का शुरु किया हुआ विल्कुल नया विचार है और पुरातनमतावलम्बी या सनातनी जनता में इसको मानने वाला कोई नहीं है। इस मतावलम्बन का कारण यह था कि स्वामी दयानन्द समझते थे कि संहिता की एक नई व्याख्या के अनुसार वे पुरे वेद का एक सुसंगत सिद्धान्त निर्माण कर सकेंगे। परन्तु कठिनाइयाँ कुछ कम न हुई, केवल वे अब ब्राह्मण (वेदो के एक भाग का नाम) भाग के सम्बन्ध में उठ खड़ी हुई और अनेक व्याख्याओं तथा प्रक्षिप्तता की कल्पनाओं का सहारा लेने पर भी बहुत कुछ कठिनाइयाँ शेष ही रह गयीं। अब यदि यह सम्भव है कि संहिता के आधार पर एक समन्वयपूर्ण धर्म का निर्माण किया जाये तो यह सहस्त्र गुना अधिक सम्भव है कि एक समन्वयपूर्ण और सामंजस्य युक्त मत उपनिषदों के आधार पर बन सकता है, फिर इसमें पहले से प्राप्त राष्ट्रीय सम्मति के विपरीत न जाना पड़ेगा। यहाँ भूतकाल के सब आचार्य तुम्हारा साथ देंगे तथा उन्नति के नये मार्गों का विशाल क्षेत्र तुम्हारे सामने खुला है। निस्सन्देह गीता हिन्दुओं की बाइबिल बन चुकी है और यह इस मान के सर्वथा योग्य भी है। परन्तु श्रीकृष्ण का व्यक्तित्व काल्पनिक कथाओं के झुण्ड में ऐसा आच्छादित हो गया है कि उनके जीवन से जीवनदायिनी स्फूर्ति प्राप्त करना असम्भव सा जान पड़ता है दूसरे, वर्तमान युग में नई विचार प्रणाली और नवीन जीवन की आवश्यकता है (पत्रावली भाग-2, पृष्ठ-97)
03. स्मृति और पुराण-सीमित बुद्धि वाले व्यक्तियों की रचनाएँ हैं और भ्रम, प्रमाद, भेद तथा द्वेष भाव से परिपूर्ण है। उनके कुछ अंश जिनमें मन की उदारता और प्रेम का आविर्भाव है, ग्रहण करने योग्य है और शेष सब का त्याग कर देना चाहिए। उपनिषद् और गीता सच्चे शास्त्र हैं, और राम, श्रीकृष्ण, बुद्ध, चैतन्य, नानक, कबीर आदि सच्चे अवतार हैं, क्योंकि उनके हृदय आकाश के समान विशाल थे। ओर इन सब में श्रेष्ठ हैं-रामश्रीकृष्ण। रामानुज, शंकर इत्यादि संकीर्ण हृदय वाले केवल पंडित मालूम होते हैं। वह प्रेम कहाँ है, वह हृदय जो दूसरों का दुःख देखकर द्रवित हो? पंडितों का शुष्क विद्याभिमान-जैसे-तैसे केवल अपने आप को मुक्त करने की इच्छा। परन्तु महाशय क्या यह सम्भव है़? क्या इसकी कभी सम्भावना थी या हो सकती है? क्या अहम भाव का अल्पांश भी रहने से किसी चीज की प्राप्ति हो सकती है? (पत्रावली भाग-2, पृष्ठ-95)
04. सभी देशों में, सभी काल में कर्मकाण्ड, सामाजिक रीति-नीति सदा ही परिवर्तित होते रहते हैं। एक मात्र ज्ञान काण्ड ही परिवर्तित नहीं होता। वैदिक युग में भी देख, कर्मकाण्ड धीरे-धीरे परिवर्तित हो गया, परन्तु उपनिषद् का ज्ञान प्रकरण आज तक भी एक ही भाव से मौजूद है, सिर्फ उसकी व्याख्या करने वाले अनेक हो गये। (विवेकानन्द जी के संग में, पृष्ठ-259)

02. वेदान्त
01. समग्र धर्म वेदान्त में ही है अर्थात् वेदान्त दर्शन के द्वैत, विशिष्टाद्वैत और अद्वैत। इन तीन स्तरों या भूमिकाओं में है और ये एक के बाद एक आते हैं तथा मनुष्य की आध्यात्मिक उन्नति के क्रम से तीन भूमिकाएं हैं। प्रत्येक भूमिका आवश्यक है। यहीं सार रुप से धर्म है भारत के नाना प्रकार के जातीय आचार व्यवहारों और धर्म मतों में वेदान्त के प्रयोग का नाम है-हिन्दू धर्म। यूरोप की जातियों के विचारों नें उसकी पहली भूमिका अर्थात् द्वैत का प्रयोग है-ईसाई धर्म। सेनेटिक जातियों में उसका ही प्रयोग है-इस्लाम धर्म। अद्वैतवाद ही अपनी योगानुभूति के आकार में हुआ-बौद्ध धर्म। इत्यादि, इत्यादि। धर्म का अर्थ है वेदान्त, उसका प्रयोग विभिन्न जातियों के विभिन्न प्रयोजन, पारिपार्शिवक अवस्था एवं अन्यान्य अवस्थाओं के अनुसार विभिन्न रुपों में बदलता ही रहेगा। मूल दार्शनिक तत्व एक होने पर भी तुम देखोगे कि शैव, शाक्त आदि हर एक ने अपने विशेष धर्ममत और अनुष्ठान पद्धति में उसे रुपान्तरित कर लिया है (पत्रावली भाग-1, पृष्ठ-318)
02. एक श्रेणी के वेदान्त वादियों का ऐसा ही मत है-वे कहते हैं “व्यष्टि की मुक्ति, मुक्ति का वास्तविक स्वरुप नहीं है। इस समष्टि की मुक्ति ही मुक्ति है।“ हाँ, इस मत के दोष-गुण अवश्य दिखाए जा सकते हैं (विवेकानन्द जी के संग में, पृष्ठ-255)

03. ईश्वर
01. जिस प्रकार मानवी शरीर एक व्यक्ति है और उसका प्रत्येक सूक्ष्म भाग जिसे हम “कोश“ कहते हैं एक अंश है। उसी प्रकार सारे व्यक्तियों का समष्टि ईश्वर है, यद्यपि वह स्वयं भी एक व्यक्ति है। समष्टि ही ईश्वर है, व्यष्टि या अंश जीव है। इसलिए ईश्वर का अस्तित्व जीवों के अस्तित्व पर निर्भर है जैसे कि शरीर का उसके सूक्ष्म भाग पर और सूक्ष्म भाग का शरीर पर। इस प्रकार जीव और ईश्वर परस्परावलम्बी हैं। जब तक एक का अस्तित्व है तब तक दूसरे का भी रहेगा। और हमारी इस पृथ्वी को छोड़कर अन्य सब उँचे लोकों में शुभ की मात्रा अशुभ से अधिक होती है। इसलिए वह समष्टि स्वरुप ईश्वर शिव स्वरुप, सर्वशक्तिमान और सर्वज्ञ कहा जा सकता है। ये गुण प्रत्यक्ष प्रतीत होते हैं। ईश्वर से सम्बद्ध होने के कारण उन्हें प्रमाण करने के लिए तर्क की आवश्यकता नहीं होती। ब्रह्म इन दोनों से परे है और वह कोई विशिष्ट अवस्था नहीं है वह एक ऐसी वस्तु है जो अनेकों की समष्टि से नहीं बनी है। वह एक ऐसी सत्ता है जो सूक्ष्मातित-सूक्ष्म से लेकर ईश्वर तक सब में व्याप्त है और उसके बिना किसी का अस्तित्व नहीं हो सकता सभी का अस्तित्व उसी सत्ता या ब्रह्म का प्रकाश मात्र है। जब मैं सोचता हूँ “मैं ब्रह्म हूँ“ तब मेरा यथार्थ अस्तित्व होता है ऐसा ही सबके बारे में है विश्व की प्रत्येक वस्तु स्वरुपतः वहीं सत्ता है (पत्रावली भाग-2, पृष्ठ-18)
02. सबका स्वामी (परमात्मा) कोई व्यक्ति विशेष नहीं हो सकता, वह तो सबकी समष्टि स्वरुप ही होगा। वैराग्यवान मनुष्य आत्मा शब्द का अर्थ व्यक्तिगत “मैं“ न समझकर, उस सर्वव्यापी ईश्वर को समझता है जो अन्तर्यामी होकर सबमें वास कर रहा हो। वे समष्टि के रुप में सब को प्रतीत हो सकते हैं ऐसा होते हुए जब जीव और ईश्वर स्वरुपतः अभिन्न हैं, तब जीवों की सेवा और ईश्वर से प्रेम करने का अर्थ एक ही है। यहाँ एक विशेषता है। जब जीव को जीव समझकर सेवा की जाती है तब वह दया है, किन्तु प्रेम नहीं। परन्तु जब उसे आत्मा समझकर सेवा करो तब वह प्रेम कहलाता है। आत्मा ही एक मात्र प्रेम का पात्र है, यह श्रुति, स्मृति और अपरोक्षानुभूति से जाना जा सकता है। भगवान चैतन्यदेव ने इसलिए यह ठीक कहा था-“ईश्वर से प्रेम और जीवों पर दया“ वे द्वैतवादी थे, इसलिए उनका अन्तिम निर्णय जिसमें वे जीव और ईश्वर में भेद करते हैं उनके लिए ठीक है परन्तु हम अद्वैत वादी हैं हमारे लिए जीव को परमात्मा से पृथक करना बन्धन का कारण है इसलिए मूल तत्व दया न होना चाहिए परन्तु प्रेम। हमारा धर्म करुणा नहीं वरन् सेवा धर्म है और सब में आत्मा ही को देखना है। (पत्रावली भाग-2, पृष्ठ-109)
03. “स ईशोऽनिर्वचनीयप्रेमस्वरुपः“-ईश्वर अनिर्वचनीय प्रेम स्वरुप है। नारद द्वारा वर्णन किया हुआ ईश्वर का यह लक्षण स्पष्ट है और सब लोगों को स्वीकार है। यह मेरे जीवन का दृढ़ विश्वास है। बहुत सेे व्यक्तियों के समूह कांे समष्टि कहते हैं और प्रत्येक व्यक्ति, व्यष्टि कहलाता है आप और मैं दोनों व्यष्टि हैं, समाज समष्टि है आप और मैं-पशु, पक्षी, कीड़ा, कीड़े से भी तुक्ष प्राणी, वृक्ष, लता, पृथ्वी, नक्षत्र और तारे यह प्रत्येक व्यष्टि है और यह विश्व समष्टि है जो कि वेदान्त में विराट, हिरण गर्भ या ईश्वर कहलाता है। और पुराणों में ब्रह्मा, विष्णु, देवी इत्यादि। व्यष्टि को व्यक्तिशः स्वतन्त्रता होती है या नहीं, और यदि होती है तोे उसका नाम क्या होना चाहिए। व्यष्टि को समष्टि के लिए अपनी इच्छा और सुख का सम्पूर्ण त्याग करना चाहिए या नहीं, वे प्रत्येक समाज के लिए चिरन्तन समस्याएँ हैं सब स्थानों में समाज इन समस्याओं के समाधान में संलग्न रहता है ये बड़ी-बड़ी तरंगों के समान आधुनिक पश्चिमी समाज में हलचल मचा रही हैं जो समाज के अधिपत्य के लिए व्यक्तिगत स्वतन्त्रता का त्याग चाहता है वह सिद्धान्त समाजवाद कहलाता है और जो व्यक्ति के पक्ष का समर्थन करता है वह व्यक्तिवाद कहलाता है। (पत्रावली भाग-2, पृष्ठ-288)
04. यन्त्र कभी नियम को उल्लंघन करने की कोई इच्छा नहीं रखता। कीड़ा नियम का विरोध करना चाहता है और नियम के विरुद्ध जाता है चाहे उस प्रयत्न में वह सिद्धि लाभ करे या असिद्धि, इसलिए वह बुद्धिमान है। जिस अंश में इच्छाशक्ति के प्रकट होने में सफलता होती है उसी अंश में सुख अधिक होता है और जीव उतना ही उँचा होता है परमात्मा की इच्छा शक्ति पूर्ण रुप से सफल होती है इसलिए वह उच्चतम है। (पत्रावली भाग-2,  पृष्ठ-290)
05. ईश्वर उस निरपेक्ष सत्ता की उच्चतम अभिव्यक्ति है, या यों कहिए, मानव मन के लिए जहाँ तक निरपेक्ष सत्य की धारणा करना सम्भव है, बस वहीं ईश्वर है। सृष्टि अनादि है और उसी प्रकार ईश्वर भी अनादि है (भक्ति योग, पृष्ठ-13)
06. यह सारा झगड़ा केवल इस “सत्य“ शब्द के उलटफेर पर आधारित है। “सत्य“ शब्द से जितने भाव सूचित होते हैं वे समस्त भाव “ईश्वर भाव“ में आ जाते हैं। ईश्वर उतना ही सत्य है जितनी विश्व की कोई अन्य वस्तु। और वास्तव में, “सत्य“ शब्द यहाँ पर जिस अर्थ में प्रयुक्त हुआ है, उससे अधिक “सत्य“ शब्द का कोई अर्थ नहीं। यहीं हमारी ईश्वर सम्बन्धी दार्शनिक धारण है। (भक्ति योग, पृष्ठ-21)

 04. गुरु, शिष्य, अवतार और मन्त्र
01. जिस व्यक्ति की आत्मा से दूसरी आत्मा में शक्ति का संचार होता है वह गुरु कहलाता है और जिसकी आत्मा में यह शक्ति संचारित होती है उसे शिष्य कहते हैं (भक्ति योग, पृष्ठ-27)
02. “यथार्थ धर्म गुरु“ में अपूर्व योग्यता होनी चाहिए, और उसके शिष्य को भी कुशल होना चाहिए। जब दोनों ही अद्भुत और असाधारण होते हैं तभी अद्भुत आध्यात्मिक जागृति होती है अन्यथा नहीं (भक्ति योग, पृष्ठ-27)
03. सत्य स्वयं ही प्रमाण है उसे प्रमाणित करने के लिए किसी दूसरे साक्षी की आवश्यकता नहीं, वह स्व प्रकाश है। वह हमारी प्रकृति के अन्तः स्थल तक प्रवेश कर जाता है और उसके समक्ष सारी दुनियाँ उठ खड़ी होती है और कहती है-“यहीं सत्य है“ जिन आचार्यों के हृदय में सत्य और ज्ञान सूर्य के समान दैदिप्यमान होते हैं, वे संसार में सर्वोच्च महापुरुष हैं और अधिकांश मानव जाति द्वारा उनकी उपासना ईश्वर के रुप में होती है (भक्ति योग, पृष्ठ-31)
04. शिष्य के लिए यह आवश्यक है कि उसमें पवित्रता, सच्ची ज्ञान पिपासा और अध्यवसाय हो। अपवित्र आत्मा कभी यथार्थ धार्मिक नहीं हो सकती। धार्मिक होने के लिए तन, मन और वचन की शुद्धता नितान्त आवश्यक है (भक्ति योग, पृष्ठ-31)
05. गुरु के सम्बन्ध में यह जान लेना आवश्यक है कि उन्हें शास्त्रो का मर्म ज्ञान हो। वैसे तो सारा संसार ही बाइबिल, वेद, पुराण पढ़ता है, पर वे तो केवल शब्द राशि है। धर्म की सूखी ठठरी मात्र है। जो गुरु शब्दाडंबर के चक्कर में पड़ जाते हैं, जिनका मन शब्दों की शक्ति में बह जाता है, वे भीतर का मर्म खो बैठते हैं। जो शास्त्रों के वास्तविक मर्मज्ञ हैं, वे ही असल में सच्चे धार्मिक गुरु हैं (भक्ति योग, पृष्ठ-32)
06. संसार के प्रधान आचार्यों में से कोई भी शास्त्रों की इस प्रकार नानाविध व्याख्या करने के झमेंले में नहीं पड़ा। उन्होनें श्लोकों के अर्थ में खींचातानी नहीं की। वे शब्दार्थ और भावार्थ के फेर मंे नहीं पड़े। फिर भी उन्होंने संसार को बड़ी सुन्दर शिक्षा दी। इसके विपरीत, उन लोगों ने जिनके पास सिखाने को कुछ भी नहीं, कभी एकाध शब्द को ही पकड़ लिया और उस पर तीन भागों की एक मोटी पुस्तक लिख डाली, जिसमें सब अनर्थक बातें भरी हैं (भक्ति योग, पृष्ठ-33)
07. धर्म ही सर्वोच्च ज्ञान है-वहीं सर्वोच्च विद्या है। वह पैसों से नहीं मिल सकता और न पुस्तकों से ही। तुम भले ही संसार का कोना-कोना छान डालो, जब तक गुरु का आगमन नहीं होता, जब जक तुम धर्म को कहीं ना पाआंगे। और ये विधाता-निर्दिष्ट गुरु प्राप्त हों जाय जो उनके निकट बालकवत विश्वास और सरलता के साथ अपना हृदय खोल दो और साक्षात ईश्वर ज्ञान से उनकी सेवा करो। जो लोग इस प्रकार प्रेम और श्रद्धा सम्पन्न होकर सत्य की खोज करते हैं, उनके निकट सत्य स्वरुप भगवान सत्य, शिव और सौन्दर्य के अलौकिक तत्वों को प्रकट कर देते हैं (भक्ति योग, पृष्ठ-38)
08. वह भक्त सचमुच ही भाग्यशाली है जिसे ऐसा गुरु मिलता है जिये साक्षात्कार हो गया हो या परम पुरुष हो क्योंकि ऐसे गुरु केवल शिक्षा ही नहीं देते बल्कि अपने शिष्यों में शिक्षा के पालन हेतु शक्ति का संचार भी करते हैं। ऐसे आध्यात्मिक आचार्यों के शब्दों में दृढ़ विश्वास रहता है जो दूसरे साधनों से प्राप्त नहीं हो सकता और शिष्य ऐसे गुरु से दीक्षित होकर कभी अंधेरे में भटकता नहीं है बल्कि कठिन से कठिन पथ पर अग्रसर होता है। ऐसे आध्यात्मिक शिक्षक से एक बार सम्पर्क हुआ नहीं कि साधक की मंजिल प्राप्ति का विकास निश्चित हो जाता है। इसका अभिप्राय यह नहीं कि वह अपने उद्देश्य के लिए संघर्ष नहीं करेगा, बल्कि उसका संघर्ष सौ गुना कम हो जायेगा (योग क्या है, पृष्ठ-24)
09. दो प्रकार के लोग ईश्वर की मनुष्य रुप में उपासना नहीं करते। एक तो नर पशु, जिसे धर्म का कोई ज्ञान नहीं और दूसरे परमहंस, जो मानव जाति के सारी दुर्बलताओं के उपर उठ चुके हैं और जो अपनी मानवी प्रकृति की सीमा के भी उस पार चले गये हैं। उनके लिए सारी प्रकृति आलस्यरुप हो गयी है। वे ही भगवान को उनके असल स्वरुप में भज सकते हैं। (भक्ति योग, पृष्ठ-42)
10. साधारण गुरुओं से श्रेष्ठ एक और श्रेणी के गुरु होते हैं, और वे हैं-इस संसार में ईश्वर के अवतार। वे केवल स्पर्श से, यहाँ तक कि इच्छा मात्र से ही आध्यात्मिकता प्रदान कर सकते हैं। उनकी इच्छा मात्र से पतित से पतित व्यक्ति क्षण मात्र में साधु हो जाता है। वे गुरुओं के भी गुरु हैं-नरदेहधारी भगवान हैं। (भक्तियोग, पृष्ठ-39)
11. अवतार का अर्थ है जीवनमुक्त अर्थात् जिन्होंने ब्रह्मत्व प्राप्त किया है। अवतार विषयक और कोई विशेषता मेरी दृष्टि में नहीं है। ब्रह्मादिस्तम्यपर्यत्त सभी प्राणी समय आने पर जीवनमुक्ति को प्राप्त करेंगे, उस अवस्था विशेष की प्राति में सहायक बनना ही हमारा कर्तव्य है। इस सहायता का नाम धर्म है बाकी कुधर्म है। इस सहायता का नाम कर्म है। बाकी कुकर्म है। (पत्रावली भाग-1, पृष्ठ-328)
12. जिस आत्मा की इतनी महिमा शास्त्रों से जानी जाती है वह आत्मा का ज्ञान जिनकी कृपा से एक मुहूर्त में प्राप्त होता है, वे ही हैं सचल तीर्थ-अवतार पुरुष। वे जन्म से ही ब्रह्मज्ञ हैं और ब्रह्म तथा ब्रह्मज्ञ में कुछ भी अन्तर नहीं है-“ब्रह्म वेद ब्रह्मेव भवति“। आत्मा को तो फिर जाना नहीं जाता क्योंकि यह आत्मा ही जानने वाला और जनन करने वाला बना हुआ है यह बात पहले ही मैंने कही है। अतः मनुष्य का जानना उसी अवतार तक है जो आत्मस्थ है। मानव बुद्धि ईश्वर के सम्बन्ध में जो सबसे उच्च भाव ग्रहण कर सकती है, वह वहीं तक है। इसके बाद और जानने का प्रश्न नहीं रहता। उस प्रकार के ब्रह्मज्ञ कभी-कभी ही जगत में पैदा होते हैं। उन्हें कम लोग ही समझ पाते हैं। वे ही शास्त्र वचनों के प्रमाण स्थल हैं भव सागर के आलोक स्तंभ हैं। (विवेकानन्द जी के संग में, पृष्ठ-214)
13. बुद्ध अवतार में भगवान कहते हैं कि आधि भौतिक दुःख का कारण भेद ही है अर्थात् जन्मगत, गुणगत या धनगत। सब तरह का भेद इन दुखों का कारण है। आत्मा में लिंग, वर्ण या आश्रम या इस प्रकार का कोई भेद नहीं होता और जैसे कीचड़ के द्वारा कीचड़ नहीं धोया जाता उसी तरह से भेद भाव से अभेद साबित होना असम्भव है। श्रीकृष्ण अवतार में वे कहते हैं कि सब दुखों का मूल अविद्या है और निष्काम कर्म चित्त को शुद्ध करता है परन्तु “कर्म क्या है और अकर्म क्या है“ इसका निर्णय करने में महात्मा भी मोह में पड़ जाते हैं। जिस कर्म के द्वारा इस आत्मा भाव का विकास होता है वही कर्म है और जिसके द्वारा अनात्म भाव का विकास होता है वही अकर्म है। अतएव कर्म या अकर्म का निर्णय व्यक्तिगत, देशगत और कालगत परिस्थिति के अनुसार होना चाहिए। यज्ञ इत्यादि कर्म प्राचीन काल में उपयोगी थे तथा जातिगत कर्म भी। परन्तु वर्तमान काल के लिए वैसा नहीं है। रामश्रीकृष्ण अवतार में नास्तिक विचार ज्ञान रुपी तलवार से नष्ट होंगे और सम्पूर्ण जगत भक्ति और प्रेम से एक रुप होगा। दूसरे शब्दों में, उसका जीवन धन्य है जो इस अवतार के उपदेश को व्यवहार में लाये चाहे वह उन्हें स्वयं माने या न माने (पत्रावली भाग-1, पृष्ठ-373)
14. भगवान मनुष्य की दुर्बलताओं को समझते हैं और मानवता के कल्याण के निए नर देह धारण करते हैं। भगवान श्रीकृष्ण ने अवतार के सम्बन्ध में गीता में कहा है, “जब-जब धर्म की ग्लानि होती है और अधर्म का अभ्युत्थान होता है, तब-तब मैं अवतार लेता हूँ। साधुओं की रक्षा और दुष्टों के नाश के लिए तथा धर्म संस्थापनार्थ मैं युग-युग में अवतीर्ण होता हूँ।“ (गीता 4/7-9) मूर्ख लोग मुझ जगदीश्वर के यथार्थ रुप को न जानने के कारण मुझ नरदेह धारी की अवहेलना करते हैं। (गीता 9/11) (भक्ति योग, पृष्ठ-43)
15. भगवान श्री राम कृष्ण कहते थे-“जब एक बहुत बड़ी लहर आती है, तो छोटे-छोटे नाले और गड्ढे अपने आप ही लबालब भर जाते हैं। इसी प्रकार जब एक अवतार जन्म लेता है, तो समस्त संसार मंे आध्यात्मिकता की एक बड़ी बाढ़ आ जाती है और लोग वायु के कण कण में धर्मभाव का अनुभव करने लगते हैं।“ (भक्ति योग, पृष्ठ-43)
16. मतों आदि के बारे में मुझे यहीं कहना है कि कोई श्रीरामश्रीकृष्णदेव को अवतार आदि को स्वीकार करे तो अच्छा है, यदि न करे तो भी ठीक है। परन्तु सच बात तो यह है कि चरित्र के विषय में श्रीरामश्रीकृष्णदेव सबसे आगे बढ़े हुए हैं। उनके पहले जो अवतारी महापुरुष हुए हैं उनसे वे अधिक उदार, अधिक मौलिक और अधिक उन्नतशील थे, परन्तु इस नये अवतार या आचार्य की शिक्षा यह है कि योग, भक्ति, ज्ञान और कर्म के सर्वोच्च भावों का सम्मिलन होना चाहिए जिससे एक नये समाज का निर्माण हो सके। प्राचीन आचार्य निःसन्देह अच्छे थे परन्तु यह इस युग का नया धर्म है-अर्थात् योग, ज्ञान, भक्ति और कर्म का समन्वय-आयु और लिंग भेद के बिना, पतित से पतित तत्व में ज्ञान और भक्ति का प्रचार। पहले के अवतार ठीक थे, परन्तु श्रीरामश्रीकृष्ण के व्यक्तित्व में अच्छा समन्वय हो गया है। (पत्रावली भाग-1, पृष्ठ-441)
17. उन्हें (सिद्ध गुरुवों) मंत्र द्वारा शिष्यों में आध्यात्मिक ज्ञान का बीजारोपड़ करना पड़ता है। ये मंत्र क्या हैं? भारतीय दर्शन के अनुसार नाम और रुप ही इस जगत की अभिव्यक्ति के कारण हैं। मानवीय अन्तर्जगत में एक भी ऐसी चित्तवृत्ति नहीं रह सकती, जो नाम-रुपात्मक न हो। (भक्ति योग, पृष्ठ-44)
18. बृहत् ब्रह्माण्ड में भी ब्रह्मा, हिरण्यगर्भ या समष्टि महत् ने पहले अपने आप को नाम के, और फिर बाद में रुप के आकार में अर्थात् इस परिदृश्यमान जगत के आकार में अभिव्यक्त किया। (भक्ति योग, पृष्ठ-44)
19. यह सारा व्यक्त इन्द्रियग्राह्य जगत रुप है, और इसकें पीछे है अनन्त अव्यक्त स्फोट। स्फोट का अर्थ-समस्त जगत की अभिव्यक्ति का कारण शब्द-ब्रह्म है। समस्त नामों अर्थात् भावों की नित्य समवायी उपादान स्वरुप यह नित्य स्फोट ही वह शक्ति है, जिससे भगवान इस विश्व की सृष्टि करते हैं। यहीं नहीं बल्कि भगवान पहले स्फोट रुप में परिणत हो जाते हैं और तत्पश्चात् अपने को उससे भी स्थूल इस इन्द्रियग्राह्य जगत केे रुप में परिणत कर लेते हैं। (भक्ति योग, पृष्ठ-45)
20. इस स्फोट का एक मात्र वाचक शब्द है-“ऊँ“। और चूँकि हम किसी भी उपाय से शब्द को भाव से अलग नहीं कर सकते, इसलिए यह “ऊँ“ भी इस नित्य स्फोट से नित्य संयुक्त है। (भक्ति योग, पृष्ठ-45)
21. एकमेंव यह “ऊँ“ ही इस प्रकार सर्वभावाव्यापी वाचक शब्द है, अन्य कोई भी इसके समान नहीं। स्फोट ही सारे भावों का उपादान है, फिर भी वह स्वयं पूर्ण रुप से विकसित कोई विशिष्ट भाव नहीं है। अर्थात् यदि उन सब भेदों को, जो एक भाव को दूसरे से अलग करते हैं, निकाल दिया जाय, तो जो कुछ बचा रहता है, वहीं स्फोट है। इसलिए इस स्फोट को “नादब्रह्म“ कहते हैं। (भक्ति योग, पृष्ठ-45)
22. जो वाचक शब्द उसे सब से कम विशेषभावापन्न करेगा, पर साथ ही उसके स्वरुप को यथासम्भव पूरी तरह प्रकाशित करेगा, वहीं उसका सबसे सच्चा वाचक होगा। और यह वाचक शब्द है-एकमात्र “ऊँ“ क्योंकि ये तीनों अक्षर अ, उ और म्, जिनका एक साथ उच्चारण करने से “ऊँ“ होता है, समान शब्दों के सधारण वाचक के तौर पर लिये जा सकते हैं। (भक्ति योग पृष्ठ, पृष्ठ-46)
23. अक्षर “अ“ सारे अक्षरों में सबसे कम विशेषभावापन्न है। इसीलिए भगवान श्रीकृष्ण गीता में कहते हैं-“अक्षरों में मैं “अ“ कार हूँ।“ (गीता,10/33) स्पष्ट रुप से उच्चारित जितने भी शब्द हैं, उनकी उच्चारण क्रिया मुख में जिह्वा के मूल से आरम्भ होती है और ओठों में आकर समाप्त हो जाती है। “अ“ जिह्वा मूल अर्थात् कण्ठ से उच्चारित होता है, और “म“ ओठों से होने वाला अन्तिम शब्द है। और “उ“ उस शक्ति का सूचक है, जो जिह्वा मूल से आरम्भ होकर मुँह भर में लुढ़कती हुई ओठों में आकर समाप्त हो जाजी है। यदि “ऊँ“ का उच्चारण ठीक ढंग से किया जाय, तो इसके शब्दोच्चारण की सम्पूर्ण क्रिया सम्पन्न हो जाती है-दूसरे किसी भी शब्द में यह शक्ति नहीं। (भक्ति योग, पृष्ठ-46)
24. जिस प्रकार अल्पतम् विशेष भावात्मक तथा सार्वभौमिक वाचक शब्द “ऊँ“ के सम्बन्ध में वाच्य और वाचक आपस में अभेद्य रुप से सम्बद्ध हैें उसी प्रकार वाच्य और वाचक का यह अविच्छिन्न सम्बन्ध भगवान और विश्व के विभिन्न खण्ड भावों पर भी लागू है, अतएव उनमें से प्रत्येक का एक विशिष्ट वाचक शब्द होना आवश्यक है। (भक्ति योग, पृष्ठ-47)
25. ये वाचक शब्द ऋषियों की गम्भीरतम आध्यात्मिक अनुभूति से उत्पन्न हुए हैं और वे भगवान तथा विश्व के जिन विशेष-विशेष खण्ड भाव के वाचक हैं, उन विशेष भावों को यथासम्भव प्रकाशित करते हैं। जिस प्रकार “ऊँ“ अखण्ड ब्रह्म का वाचक है, उसी प्रकार अन्यान्य मंत्र भी उसी परम पुरुष के खण्ड-खण्ड भावों के वाचक हैं। ये सभी ईश्वर के ध्यान और प्रकृत ज्ञान की प्राप्ति में सहायक हैं। (भक्ति योग, पृष्ठ-47)

05. मरणोत्तर जीवन
01. यदि प्रवृत्ति बारम्बार किये हुये कर्म का परिणाम है, तो जिन प्रवृत्तियों को साथ लेकर हम जन्म धारण करते है, उनको समझने के लिए उस कारण का भी उपयोग करना चाहिए। यह तो स्पष्ट है कि वे प्रवृत्तियाँ हमें इस जन्म में प्राप्त हुई नहीं हो सकती; अतः हमें उनका मूल पिछले जन्म में ढूंढना चाहिए। अब यह भी स्पष्ट है कि हमारी प्रवृत्तियों में से कुछ तो मनुष्य के ही जान-बूझकर किये हुए प्रयत्नों के परिणाम है, और यदि यह सच है कि हम उन प्रवृत्तियों को अपने साथ लेकर जन्म लेते हैं, तब तो बिल्कुल यही सिद्ध होता है कि उनके कारण गतजन्म में जान-बूझकर किये हुये प्रयत्न ही है-अर्थात् इस वर्तमान जन्म के पूर्व हम उसी मानसिक भूमिका में रहे होंगे, जिसे हम मानव भूमिका कहते हैं। (मरणोत्तर जीवन, पृष्ठ-25)
02. पुनर्जन्मवादी लोग यह मानते हैं कि सभी अनुभव प्रवृत्तियों के रूप में अनुभव करने वाली जीवात्मा में संगृहीत रहते हैं और उसे अविनाशी जीवात्मा के पुनर्जनम द्वारा संक्रमित किये जाते हैं; भौतिकवाद वाले मस्तिष्क को सभी कर्मों के आधार होने के और बीजाणुओं के द्वारा उनके संक्रमण का सिद्धान्त मानते हैं। यदि बीजाणुओं द्वारा आनुवंशिक संक्रमण समस्या को हल करने के लिए पूर्णतः पर्याप्त है, तब तो भैतिकता ही अपरिहार्य है और आत्मा के सिद्धान्त की कोई आवश्यकता नहीं है। यदि वह पर्याप्त नहीं है, तो प्रत्येक आत्मा अपने साथ इस जन्म में अपने भूतकालिक अनुभवों को लेकर आती है, यह सिद्धान्त पूर्णतः सत्य है। पुनर्जन्म या भौतिकता-इन दो में से किसी एक को मानने के सिवा और कोई गति नहीं है। प्रश्न यह है कि हम किसे मानें? (मरणोत्तर जीवन, पृष्ठ-26)



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