सफलता का पैमाना
”सफलता“, एक ऐसा शब्द, जिसके लिए प्रत्येक मनुष्य संघर्ष करता है। यह अलग-अलग व्यक्ति के लिए अलग-अलग होता है या एक ही। यह यह एक विचारणीय प्रश्न है। और यदि यह अलग-अलग है तो किसे सफल माना जाये? इसका निर्धारण तो तभी हो सकता है जब उसका कोई पैमाना हो। ठोस, द्रव, गैस इत्यादि का तो हमें पैमाना प्राप्त है जिससे हम यह कह देते हैं कि ये वस्तु इतनी है परन्तु ये कैसे निर्धारित हो कि कोई व्यक्ति अपने जीवन में कितना सफल हुआ या सबसे अधिक सफल कौन हुआ?
प्रतियोगिता से भरे वर्तमान समय में व्यक्ति का व्यक्ति से मूल्यांकन करने में इस सफलता शब्द का प्रयोग बहुत होने लगा है और उसके मूल्यांकन का आधार मुख्य रूप से धन अर्जित करना के अर्थो में ही लिया जाता है। क्या सभी मनुष्यों का लक्ष्य धन अर्जित करना ही होता है? यदि कोई व्यक्ति ऐसा सोच रखता है तो शायद उस व्यक्ति का ज्ञान संकुचित ही हो क्योंकि वे उन व्यक्तियों को नहीं जान पाये जो धन को मात्र साधन रूप में ही प्रयोग किये, धन को कभी अपना अन्तिम लक्ष्य नहीं बनाया। सीधे रूप में अगर इस प्रकार समझा जाये कि ऐसे व्यक्ति जिनका लक्ष्य धन रहा था वे अपने धन के बल पर अपनी मूर्ति अपने घर पर ही लगा सकते हैं परन्तु जिनका लक्ष्य धन नहीं था, उनका समाज ने उन्हें, उनके रहते या उनके जाने के बाद अनेकों प्रकार से सम्मान दिया है ये सार्वजनिक प्रमाणित है।
”सफलता“ का क्या अर्थ है? सामान्यतः व्यक्ति के इच्छा युक्त मन के लक्ष्य की प्राप्ति ही सफलता है। इस प्रकार किसी बच्चे का लक्ष्य मिठाई प्राप्त करना हो और वह उसे प्राप्त करे ले तो उसे सफल माना जायेगा। अब अगर दो बच्चों की तुलना की जाये जिनका लक्ष्य मिठाई ही प्राप्त करना हो। यदि दोनों प्राप्त करते हैं तो दोनों सफल। यदि एक ही प्राप्त करता है तो एक सफल और दूसरा असफल। लेकिन दोनों के यदि लक्ष्य अलग-अलग हों और दोनों प्राप्त करें तो दोनों सफल। यदि एक ही प्राप्त करता है तो एक सफल और दूसरा असफल। लेकिन यहाँ एक बात और आती है कि यदि दोनों का लक्ष्य अलग-अलग हैं तो दोनों में कोई प्रतियोगिता नहीं हो सकती और दोनों के सफल होने में समय सीमा भी अलग-अलग होंगी।
सभी व्यक्ति का सफल होने का लक्ष्य एक ही होता है या अलग होते हैं या उम्र के साथ लक्ष्य सदैव बदलते रहते हैं, इस पर भी विचार करना आवश्यक है। बचपन से लेकर मरने तक जब उम्र के साथ इच्छायें बदलती रहती हैं तब लक्ष्य एक कैसे हो सकता है इस प्रकार यह भी सिद्ध है कि अनेक इच्छाओं में मनुष्य सफल भी होता है और असफल भी। वह मनुष्य सदैव अपने जीवन को भ्रम में ही रखता है जो अपनी किसी लक्ष्य के सफल हो जाने पर अपने को संसार का सबसे सफल व्यक्ति मानने लगे और ऐसे व्यक्ति से भी अपनी तुलना करने लगे जो उसके लक्ष्य के विषय से सम्बन्धित भी नहीं था।
उदाहरण स्वरूप, किसी युवा का लक्ष्य एक लड़की को पाना हो सकता है। और उसे पा ले तो अपने को संसार का सबसे सफल व्यक्ति समझने लगता है। ऐसे उदाहरण भी मिलते हैं कि लक्ष्य न प्राप्त करने पर आत्महत्या तक हुयी है। जबकि भगवान श्री कृष्ण तक ने भी शारीरिक प्रेम को जीवन में साथ उतारने को अन्तिम लक्ष्य नहीं माना। मनुष्य की छोटी-छोटी इच्छाएँ बनती रहती है और उसको प्राप्त करने में सफलता और असफलता होती रहती हैं। परन्तु जो मनुष्य दूरदर्शी होते हैं वे अपने पूरे वर्तमान जीवन का एक लक्ष्य निर्धारित करते हैं। और उस एक लक्ष्य के सामने कोई भी लक्ष्य नहीं होता न ही कोई इच्छा।
सफल होने के बाद क्या होता है? यह भी जानने योग्य है। इस स्थिति का अनुभव लेने के लिए यह जानना जरूरी है कि पहाड़ के सबसे ऊँचे स्थान पर पहुँचने के बाद क्या हो सकता है? व्यक्ति वहीं रहे या वहीं से गिर कर घायल हो जाये या मर जाये या नीचे उतर कर निष्क्रिय सामान्य जीवन जीये या नीचे उतर कर उस अंहकार या घमण्ड में जीवन भर रहे कि वह वहाँ तक पहुँच चुका है और वह सबसे सफल है क्योंकि उस लक्ष्य रूपी ऊँचाई के बाद अब कोई लक्ष्य नहीं होता।
क्या मनुष्य का व्यक्तिगत लक्ष्य के अलावा कोई सामूहिक लक्ष्य भी होता है? इस पर भी विचार करना आवश्यक है। सनातन और पुनर्जन्म सिद्धान्त से इस संसार की सभी गति तंरगाकार होते हुए भी एक चक्र में चल रहा है। इस प्रकार उस चक्र में मनुष्य का क्षणिक जीवन एक कड़ी मात्र है। ये शरीर जो दिख रहा है उसे स्थूल शरीर कहा जाता है और मृत्यु के उपरान्त इच्छा युक्त मन को सूक्ष्म शरीर तथा इच्छा मुक्त मन को आत्मीय शरीर कहते हैं। आत्मीय शरीर केन्द्र है और सूक्ष्म व स्थूल उसके चक्र हैं। मनुष्य योनि का विकास उध्र्व गति की ओर हुआ है अर्थात् जल से थल, थल से शरीर, फिर संसाधन/अर्थ, फिर मानसिक, और पूर्ण और अन्तिम में आध्यात्मिक केन्द्रित मन। यही वह पैमाना है जिससे स्वयं की तुलनाकर जाना जा सकता है कि मैं कितना सफल हुँ? ये वह मार्ग है जिसे तय करने का सार्वभौम नियम है चाहे मनुष्य को इसका ज्ञान हो या न हो। जो जितना इस मार्ग में बढ़ता है वह उतना ही सफल है और जो नीचे गिरता है वह उतना ही असफल होता है। सफल होने से ही अच्छे समाज का विकास और असफल होने से खराब समाज का विकास होता है क्योंकि पुनर्जन्म तो सूक्ष्म शरीर का ही होता है। शरीर पालना और पीढ़ी आगे बढ़ाना तो सभी जीवों का काम है। फिर उनमें और मनुष्य में क्या अन्तर? अगर ऐसी बात नहीं तो पं0 दीनदयाल उपाध्याय जी के इस विचार-”मनुष्य पशु नहीं है केवल पेट भर जाने से वह सुखी और संतुष्ट हो जायेगा। उसकी जीवन यात्रा ”पेट“ से आगे ”परमात्मा“ तक जाती है। उसके मन उसकी बुद्धि और उसकी आत्मा का भी कुछ तकाजा है।“ का क्या अर्थ होगा?
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