वैश्विक बौद्धिक विकास के साथ बदला गुलामी का स्वरूप
किसी कार्य को सम्पन्न करने के लिए मुख्यतः दो कर्ताओं की आवश्यकता सदैव से पड़ती रही है। कार्य कराने वाला और कार्य करने वाला। मनुष्य अपने अस्तित्व और विकास के लिए या तो कर्म करने वाला बना या कर्म कराने वाला बना। कर्म कराने के लिए वह पहले पशुओं का प्रयोग किया फिर पशु की भाँति मनुष्य का भी प्रयोग आरम्भ हुआ। आवश्यकता रही हो या अविकसित बौद्धिक क्षमता रही हो, पशु की भाँति ही मनुष्य को गुलाम बनाकर कार्य के लिए उपयोग में लाया जाने लगा। और पशु की ही भाँति क्रय-विक्रय व लूट-पाट कर प्रयोग किया जाने लगा।
कर्म करते-करते ज्ञान-बुद्धि का विकास, कार्य कराने वाले और कार्य करने वाले दोनों में होता रहा और आजिविका के लिए पारिश्रमिक के स्वरूप में भी बदलाव आते गये।
1. प्रारम्भ में कार्य करने के लिए मनुष्य पूर्ण रूप से पशु की भाँति पूर्ण रूप से गुलाम था और पशु की भाँति ही उनके रहने-खाने की व्यवस्था भी हुआ करती थी। पारिश्रमिक के रूप में सिर्फ भोजन ही हुआ करता था।
2. फिर, मनुष्य को थोड़ी स्वतन्त्रता देते हुये उन्हें उनके परिवार के साथ लेकिन कार्य कराने वाले के संरक्षण में ही रखा जाने लगा।
3. आजिविका के लिए जितनी मजबूरी कार्य कराने वाले की थी ठीक उतनी ही मजबूरी कार्य करने वाले की भी थी इसलिए उन्हें और स्वतन्त्रता देते हुये कार्य स्थल के आस-पास कहीं भी रह कर समयानुसार कार्य पर आने का नियम बना। जिसे मजदूरी, नौकरी इत्यादि कहा जाने लगा। कार्य अवधि के अनुसार पारिश्रमिक दिया जाने लगा।
4. कार्य की विभिन्नता के अनुसार कार्य के लिए योग्य मनुष्य की कमी आने से अंशकालिन (पार्ट टाइम) सेवा का भी अवसर मिलने लगा और उस अनुसार ही पारिश्रमिक।
5. कार्य कराने वाले के यहाँ से कार्य करने वाला योग्य व्यक्ति कहीं और न जाये इसलिए अनेक प्रकार की अन्य सुविधाएँ भी प्रदान की जाने लगीं जैसे- आवास, बिजली, यातायात, स्वास्थ्य, मनोरंजन, शिक्षा, देशाटन इत्यादि।
6. यहाँ तक कि सेवा समाप्ति के बाद भी पेशंन, स्वास्थ्य सुविधा इत्यादि।
इस प्रकार श्रम के बदले पारिश्रमिक द्वारा आर्थिक स्वतन्त्रता का सफर शारीरिक गुलामी से चलकर शारीरिक स्वतन्त्रता से होता हुआ वेतन और पेशन तक पहुँचा है। बढ़ते वैश्विक बौद्धिक विकास से यह सफर समय के उपयोग के लिए पूर्ण शारीरिक और समय की गुलामी से चलकर पूर्ण शारीरिक स्वतन्त्रता के साथ मात्र समय की गुलामी तक आ चुका है। और नाम गुलाम से बदलकर नौकरी/सेवा हो गया।
मनुष्य समाज व सरकार में व्यापार के प्रणाली से रायल्टी शब्द का जन्म हुआ है जो किसी व्यक्ति/संस्था के मौलिक खोज/कृति इत्यादि के प्रति उसकी रक्षा व व्यापारीकरण के लिए उसे धनराशि के रूप में भुगतान का अधिकार देता है। रायल्टी संपत्ति, पेटेंट, काॅपीराइट किए गए कार्य या मताधिकार (फ्रैन्चाइजी) के कानूनी मालिक को उनके द्वारा भुगतान किया जाता है जो इसका उपयोग करना चाहते हैं। ज्यादातर मामलों में, रायल्टी संपत्ति के उपयोग के लिए मालिक की भरपाई करने के लिए दिया जाता हैं, जो कानूनी तौर पर बाध्यकारी हैं।
इस संसार में प्रत्येक जीव का अपना मौलिक कर्म-इच्छा है और वह उसी अनुसार कर्म कर रहा है। ईश्वर और पुनर्जन्म के सार्वभौम सत्य-सिद्धान्त के अनुसार हम यह पाते हैं कि हम जो भी कर्म-इच्छा करते हैं वह हमें उस अनुसार जन्म-जन्मान्तर तक कर्म-इच्छा के परिणाम/फल के रूप में प्राप्त होता रहता है।
इस ब्रह्माण्ड में जिस प्रकार उत्प्रेरक सार्वभौम आत्मा की उपस्थिति में समस्त क्रिया का संचालन चल रहा है उसी प्रकार मानव समाज में उत्प्रेरक मुद्रा की उपस्थिति में मानव के समस्त व्यापार चल रहे हैं।
जिस प्रकार हमारे सभी कर्म-इच्छा का परिणाम/फल रायल्टी के रूप में सार्वभौम आत्मा द्वारा प्रदान किये जा रहे है। उसी प्रकार मानव समाज के वस्तुओं से सम्बन्धित व्यापार में भी उसके साथ किये गये कर्म के भी परिणाम/फल रायल्टी के रूप में प्राप्त होनी चाहिए। मौलिक खोज/आविष्कार के साथ रायल्टी का प्राविधान बढ़ते बौद्धिक विकास के साथ तो है ही परन्तु यदि किसी कम्पनी के उत्पाद का प्रयोग हम करते हैं तो ये उस कम्पनी के साथ किया गया हमारा कर्म भी रायल्टी के श्रेणी में आता है क्योंकि हम ही उस कम्पनी के विकास में योगदान देने वाले हैं। रायल्टी का सीधा सा अर्थ है-हमारे कर्मो का परिणाम/फल हमें मिलना चाहिए। जिस प्रकार ईश्वर हमें जन्म-जन्मान्तर तक परिणाम/फल देता है, उसी प्रकार मनुष्य निर्मित व्यापारिक संस्थान द्वारा भी हमें उसका परिणाम/फल मिलना चाहिए।
वर्तमान समय में स्थिति यह है कि भले ही कच्चा माल (राॅ मैटिरियल) ईश्वर द्वारा दी गई है लेकिन उसके उपयोग का रूप मनुष्य निर्मित ही है और हम उससे किसी भी तरह बच नहीं सकते। जिधर देखो उधर मनुष्य निर्मित उत्पाद से हम घिरे हुए हैं। हमारे जीवन में बहुत सी दैनिक उपयोग की ऐसी वस्तुएँ हैं जिनके उपयोग के बिना हम बच नहीं सकते। बहुत सी ऐसी निर्माता कम्पनी भी है जिनके उत्पाद का उपयोग हम वर्षो से करते आ रहे हैं लेकिन उनका और हमारा सम्बन्ध केवल निर्माता और उपभोक्ता का ही है जबकि हमारी वजह से ही ये कम्पनी लाभ प्राप्त कर आज तक बनी हुयी हैं, और हमें उनके साथ इतना कर्म करने के बावजूद भी हम सब को रायल्टी के रूप में कुछ भी प्राप्त नहीं होता। जबकि स्थायी ग्राहक बनाने के लिए रायल्टी देना कम्पनी के स्थायित्व को सुनिश्चित भी करता है।
जबकि होना यह चाहिए कि कम्पनी द्वारा ग्राहक के खरीद के अलग-अलग लक्ष्य के अनुसार छूट (डिस्काउन्ट) का अलग-अलग निर्धारित प्रतिशत हो। और एक निर्धारित खरीद लक्ष्य को प्राप्त कर लेने के बाद कम्पनी द्वारा उस ग्राहक को पीढ़ी दर पीढ़ी के लिए रायल्टी देनी चाहिए।
और ऐसा नहीं है लेकिन कुछ कम्पनी ऐसी हैं जो ऐसा कर रहीं है और अनेक देशों में उनका व्यापार कम समय में तेजी से बढ़ा हैं, वहीं उनके उत्पाद भी वैश्विक गुण्वत्ता स्तर के भी हैं।
अपने जीवकोपार्जन के लिए शारीरिक गुलामी से चला आर्थिक स्वतन्त्रता का सफर अभी पेंशन तक ही पहुँचा है। जब हम रायल्टी तक पहुँच जायेंगे, तब हम सभी सत्य आर्थिक स्वतन्त्रता के अन्तिम लक्ष्य को प्राप्त कर लेंगे।
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