Friday, April 10, 2020

व्यवसाय संगठनों के स्वरूप

व्यवसाय संगठनों के स्वरूप

व्यावसायिक संगठनों के अनेक स्वरूप हैं, जिन पर आप अपनी कंपनी के लिए विचार कर सकते हैं। इन विभिन्न स्वरूपों की जानकारी देने से पहले हम नीचे कुछ कारकों का उल्लेख कर रहे हैं, जिन पर आपको व्यावसायिक संगठन का स्वरूप चुनते समय विचार करना चाहिए।
व्यवसाय की प्रकृति-आपके व्यवसाय का संगठन आपके व्यवसाय की प्रकृति पर निर्भर होगा।
परिचालनों की मात्रा-व्यवसाय की मात्रा तथा बाजार क्षेत्र का आकार प्रमुख पहलू हैं। बड़े बाजार परिचालनों के लिए सार्वजनिक या निजी कंपनियाँ बेहतर रहती हैं। छोटे परिचालनों के लिए साझेदारी या प्रोप्राइटरशिप का गठन किया जाता है।
नियंत्रण की मात्रा-यदि आप सीधा नियंत्रण रखना चाहें, तो प्रोप्राइटरशिप अच्छा विकल्प है। व्यवसाय के लिए कंपनी बनाने से स्वामित्व और प्रबंधन का पृथक्करण हो जाता है।
पूँजी की राशि-जब संसाधनों की जरूरत बढ़ती है तो स्वरूप में परिवर्तन करना पड़ता है, जैसे साझेदारी फर्म को कंपनी बनाना पड़ता है। 
जोखिमों और देयताओं की मात्रा-यह देखना होगा कि मालिक किस सीमा तक जोखिम उठाने को तैयार हैं। पूर्ण स्वामित्व वाली कंपनी में ऊँचा जोखिम रहता है, जबकि सार्वजनिक या निजी कंपनी में मालिकों के लिए जोखिम कम होता है, क्योंकि विधिक संस्था और उसके मालिक अलग-अलग होते हैं।
तुलनात्मक कर देयता-आपकी कंपनी की कर देयता आपके चुने हुए संगठन के स्वरूप के अनुसार होंगी।
व्यावसायिक संगठनों के विभिन्न रूपों की चर्चा आगे के खंडों में की गई है।
अ. पूर्ण स्वामित्व प्रतिष्ठान
ब. साझेदारी प्रतिष्ठान
स. सीमित देयता साझेदारी (एलएलपी)
द. निजी (प्राइवेट) लिमिटेड कंपनी
य. सार्वजनिक (पब्लिक) लिमिटेड कंपनी

अ. पूर्ण स्वामित्व प्रतिष्ठान
यह कारोबार का सबसे पुराना तथा सबसे सामान्य स्वरूप है। इस स्वरूप की प्रमुख विशेषताएँ इस प्रकार हैं-गठन में आसानी (कोई विस्तृत विधिक औपचारिकताएं नहीं), पूँजी स्वयं मालिक द्वारा प्रदान की जाती है, पूर्ण नियंत्रण, स्वामित्व का कोई पृथक्करण नहीं, असीमित देयता, निरंतरता का अभाव-यदि मालिक मर जाए तो कारोबार समाप्त, पूंजी जुटाने में कठिनाई, लाभ, हानि, गठन में आसानी, सीमित पूंजी, मालिक को अच्छा कार्य करने के लिए प्रोत्साहन, सीमित प्रबंधकीय क्षमता, शीघ्र निर्णय तथा लोचशीलता, सीमित जीवन, व्यवसाय की गोपनीयता, असीमित देयता। निम्नलिखित के लिए उपयुक्त-
1. मध्यम जोखिम वाले व्यवसायों के लिए
2. छोटे वित्तीय संसाधन तथा छोटी पूँजी आवश्यकताएं

ब. साझेदारी प्रतिष्ठान
जब दो या दो से अधिक व्यक्ति किसी ऐसे व्यवसाय के लाभ का साझा करने के लिए सहमत होते हैं, जो उन सभी के द्वारा अथवा उन सभी की ओर से उनमें से किसी एक के द्वारा चलाया जाए, तो उन व्यक्तियों के बीच के संबंध को साझेदारी कहा जाता है। इस स्वरूप की मुख्य विशेषताएँ हैं-गठन में आसानी ;कोई विस्तृत कानूनी गतिविधियाँ नहींद्ध, न्यूनतम साझेदार-2, अधिकतम साझेदार-10 बैंकिंग मेंद्ध, 20;अन्य सभी व्यवसायों मेंद्ध, विधिक अस्तित्व का कोई पृथक्करण नहीं, प्रत्येक साझेदार के लिए संपत्ति का स्वामित्व परस्पर एक दूसरे के लिए प्रबंध का अधिकार देता है।, साझेदारों की देयता असीमित, हितों के अंतरण पर प्रतिबंध, सीमित जीवन काल ;यदि एक भी साझेदारी इसे कायम रखने में समर्थ नहीं है तो इसे समाप्त किया जाना चाहिएद्ध, पूंजी के लिए बड़ी राशि जुटाने में कठिनाई
भारतीय साझेदारी अधिनियम, 1932 द्वारा शासित, लाभ, हानि, गठन में आसानी, अंतिम प्राधिकारी की अनुपस्थिति, अपेक्षाकृत अधिक पूँजी तथा ऋण संसाधन, अन्य साझेदारों के कार्यों के लिए देयता, बेहतर निर्णय तथा अधिक प्रबंधकीय गतिविधि, सीमित जीवन, असीमित देयता। उपयुक्तता-मझोले आकार के कारोबार जिनमें सीमित पूंजी की जरूरत हो।

स. सीमित देयता साझेदारी (एलएलपी)
सीमित देयता साझेदारी (एलएलपी) को एक वैकल्पिक निगमित व्यवसाय साधन के रूप में देखा जाता है, जो सीमित देयता के लाभ देती हैं किंतु इसके सदस्यों को यह लचीलापन उपलब्ध होता है कि वे अपनी आंतरिक संरचना को परस्पर सहमत करार पर आधारित साझेदारी के रूप में गठित कर सकें। एलएलपी स्वरूप के परिणामस्वरूप किसी भी प्रकार की सेवाएँ प्रदान करने वाले अथवा वैज्ञानिक और तकनीकी विषयों से संबंधित काम करने वाले उद्यमी, प्रोफेशनल तथा उद्यम अपनी आवश्यकताओं के अनुरूप वाणिज्यिक रूप से कार्यकुशल साधन गठित कर सकते हैं। इसके ढाँचे और परिचालन में लचीलेपन के फलस्वरूप, एलएलपी लघु उद्यमों के लिए तथा उद्यम पूंजी द्वारा निवेश के लिए भी उपयुक्त होगा। यह सीमित देयता साझेदारी अधिनियम, 2008 के प्रावधानों से शासित होता है।
प्रमुख विशेषताएं
1. पृथक विधिक अस्तित्व, सतत विद्यमानता, साझेदार की मृत्यु (अथवा जारी रख पाने में उसकी असमर्थता) के बावजूद भी इसका अस्तित्व बना रहता है। साझेदारी करार तैयार करने में लचीलापन रहता है। नामित साझेदारों के कर्तव्य और दायित्व सीमित देयता साझेदारी अधिनियम, 2008 के अनुसार होंगे साझेदार दूसरे साझेदारों के कार्यों के लिए जवाबदेह नहीं। देयता एलएलपी में उनके अंशदान तक सीमित। शेयर अंतरण प्रतिबंधित, एलएलपी के गठन के लिए न्यूनतम 2 साझेदार चाहिए। अधिकतम 50। वार्षिक लेखा रख-रखाव की बाध्यता, केंद्र सरकार को जाँच का अधिकार, कोई फर्म, प्राइवेट कंपनी या कोई गैर-सूचीबद्ध सार्वजनिक कंपनी खुद को एलएलपी में रूपांतरित कर सकती है। कंपनी अधिनियम, 1956 के प्रावधान भी शामिल किए जा सकते हैं। भारतीय साझेदारी अधिनियम, 1932 लागू नहीं होगा।
2. सीमित दायित्व भागीदारी (एलएलपी)-विधिक पहलू-एलएलपी का एक मुख्य पहलू है कि इसके लिए लाभ का उद्देश्य होना आवश्यक है। इस प्रकार यह दानार्थ संगठनों हेतु उपलब्ध नहीं है। 
3. एलएलपी की मूलभूत विशेषताएं-संयुक्त संरचना, भागीदारी एवं कंपनी का समन्वय है। असीमित दायित्व की कमियों एवं कंपनी कानून के प्रावधानों की कठोरता को दूर करता है।, सीमित दायित्व, शाश्वत संरचना, स्वामित्व को पृथक करना सुनिश्चित करता है, इससे दायित्व फर्म तक सीमित रहता है और भागीदारों पर लागू नहीं होता।, परिचालनों में लचीलापन, आंतरिक प्रबंधन, भागीदारों को पारिश्रमिक, प्रबंध शक्ति व कुछ भागीदारों को वीटो शक्ति जैसी विशिष्ट शक्तियों के संबंध में अधिकतम लचीलापन है। ये अपने नाम पर संपत्ति भी रख सकती है।
4. एलएलपी में भागीदार-एक भागीदार अन्य भागीदारों के लिए बाध्यकारी नहीं हो सकता। कौन भागीदार हो सकता है? एक कंपनी, एलएलपी, विदेशी एलएलपी एवं विदेशी कंपनी एलएलपी के भागीदार हो सकते हैं तथापि, फेमा प्रावधानों में कोई संशोधन होने तक, लाभों या पूंजी के प्रत्यावर्तन में समस्घ्याएं होंगी, न्यूनतम दो भागीदार होने चाहिए, कोई अधिकतम संख्या नहीं है। भागीदारियों पर कोई प्रतिबंध नहीं। एक व्यक्ति कितनी भी एलएलपी में भागीदार बन सकता है।
5. पदनामित भागीदार-न्यूनतम दो भागीदारों को ”पदनामित भागीदार“ के रूप में नामित किए जाने चाहिए, जो एलएलपी अधिनियम के अंतर्गत सांविधिक दायित्वों को पूर्ण कर सकें। अन्य भागीदारों को, सिवाय धोखाधड़ी के मामले के, सामान्यतः उत्तरदाई नहीं ठहराया जाएगा।
एलएलपी करार
1. करार की आवश्यकता-एलएलपी अधिनियम, 2008 में काफी परिचालनगत लचीलापन है। तकनीकी रूप से, एलएलपी करार अनिवार्य नहीं है। कोई एलएलपी करार न होने की स्थिति में, एलएलपी की प्रथम अनुसूची में दिए गए प्रावधान स्वतः लागू होंगे व्यवहार्यतः, प्रथम अनुसूची के प्रावधान अधिकतम स्थितियों में स्वीकार्य नहीं होते हैं। अतः प्रत्येक एलएलपी में एलएलपी करार होना अपेक्षित हो जाता है। एलएलपी का एक मानक प्रारूप होना न तो संभव है और न ही ऐसी सलाह दी जाती है। प्रस्तावित एलएलपी की जरूरतों व संरचना को ध्यान में रखते हुए एलएलपी करार का प्रारूप तैयार किया जाना चाहिए।
2. करार का निष्पादन-करार का निष्पादन एलएलपी के निगमन के पहले अथवा बाद में किया जा सकता है। चूंकि यह भागीदारों के बीच एक करार है, अतः इसके निष्पादन के संबंध में कुछ लचीलापन है। यह करार कितनी भी बार संशोधित भी किया जा सकता है। 
3. स्टांप ड्यूटी का ई भुगतान-कंपनी अधिनियम के अंतर्गत स्टांप ड्यूटी के ईभुगतान के प्रावधान किए गए हैं। जब तक एलएलपी अधिनियम के अंतर्गत इसके समानांतर प्रावधान नहीं बनाए जाते, तब तक भौतिक स्टांप एवं दस्तावेजों का भौतिक प्रस्तुतीकरण जारी रहेगा। 
एलएलपी करार पर सामान्य टिप्पणियां
1. करार को सावधानीपूर्वक तैयार करना-ऐसा कोई मानक एलएलपी करार नहीं हो सकता है, जो सभी प्रकार की एलएलपी की जरूरतों हेतु उपयुक्त हो। अतः ये अद्वितीय होता है। उदाहरण के लिए, कुछ एलएलपी परिवार भागीदारियों के रूप में तो कुछ संयुक्त उद्यमों के रूप में हो सकते हैं। करार को यथासंभव लचीला होना चाहिए। यह करार जितना कठोर होगा, उतना ही अधिक परिचालनगत समस्याएं होंगी। सभी पक्षों की जरूरतों को ध्यान में रखा जाना चाहिए। 
2. भागीदारों के प्रकार-भारतीय भागीदारी अधिनियम के अनुसार, भागीदार किसी फर्म में परस्पर एजेंट होते हैं। तथापि, एलएलपी अधिनियम के अंतर्गत, भागीदारों का प्राधिकार एलएलपी करार के माध्यम से सीमित किया जा सकता है। 
3. वीटो शक्ति-करार में एक या अधिक भागीदारों को वीटो शक्ति के प्रावधान होने चाहिए। यदि आप एलएलपी के एक भागीदार के रूप में निर्णय प्रक्रिया को नियंत्रित करना चाहते हों, तो यह उपयोगी होगा। 
4. कार्यपालक प्रबंध समिति-भागीदारों की बड़ी संख्या के मामले में, बेहतर होगा कि प्रबंधन के संचालन हेतु वरिष्ठ भागीदारों की एक समिति बनाई जाए। 
5. भागीदारों की संख्या-एलएलपी करार निष्पादित करने हेतु न्यूनतम कानूनी आवश्यकता 2 भागीदारों की है। तथापि, यदि भागीदारों की संख्या अधिक हो, तो बेहतर होगा कि कंपनी का निगमन 2 भागीदारों के साथ किया जाए तथा बाद में अन्य भागीदारों को शामिल किया जाए। 
6. फार्म 3 के अनुरूप एलएलपी करार बनाना-फार्म 3 के स्तंभ 7 से 20 तक, एलएलपी करार संबंधी सूचना के बारे में होते हैं। बेहतर होगा कि यदि एलएलपी करार को यथासंभव इसी अनुसार बनाया जाए, जिससे फार्म 3 प्रस्तुत करने और कंपनी रजिस्ट्रार द्वारा इसकी जांच करने में सुविधा होंगी। 
एलएलपी को आरंभ करने हेतु कदम 
1. एक डी पिन (पदनामित भागीदार पहचान संख्या) प्राप्त करें. इसके आवेदन हेतु फार्म 7 का उपयोग करें और बाद में फार्म की भौतिक प्रति भेजें। 
2. डिजिटल हस्ताक्षर-पदनामित भागीदारों को किसी प्रमाणन एजेंसी ;सीएद्ध से, श्रेणी-2 या इससे ऊपर का एक डिजिटल हस्ताक्षर प्रमाणपत्र (डीएससी) प्राप्त करना चाहिए।
3. एलएलपी वेबसाइट पर डी पिन एवं डीएससी को रजिस्टर करें। 
4. भागीदारों के बारे में सूचना प्रस्तुत करना-फार्म 3 (एलएलपी करार की सूचना) एवं फार्म 4 (भागीदार पदनामित भागीदार की नियुक्ति की सूचना)। ये फार्म फार्म 2 के साथ ही अथवा निगमन के 30 दिनों के भीतर जमा किए जा सकते हैं। 
5. एलएलपी करार की विधिवत स्टांपयुक्त एक मूल प्रति भेजें। 
एलएलपी को चलाना 
1. गठन-एलएलपी के निगमन की प्रक्रियाएं, कंपनी के निगमन के समान हैं। निगमन दस्तावेज (ज्ञापन के समान) और एलएलपी करार (संस्था के अंतर्नियमों के समान) इलेक्ट्रानिक रूप से फाइल किया जाना अपेक्षित होता है। 
2. औपचारिकताएं-एलएलपी चलाने हेतु अत्यंत कम औपचारिकताएं हैं। उदाहरण हैं-बोर्ड बैठकों, सामान्य बैठकों, प्रभारों के पंजीकरण, प्रबंधस्तरीय पारिश्रमिक की सीमाएं, शेयरों के जारी करने व अंतरण, निदेशकों के चयन, बोर्ड की शक्तियों पर प्रतिबंध आदि जैसी कोई औपचारिकताएं नहीं हैं। 
3. लेखे और रिटर्नों की ई फाइलिंग-लेखों का संधारण आवश्यक है, किंतु एलएलपी लेखापरीक्षण प्रावधानों से मुक्त है। इलेक्ट्रानिक रूप से रिटर्न फाइल करते समय लेखा व शोधन क्षमता की विवरणी अपेक्षित है। यह अर्हता के अधीन है, जो पण्यावर्त एवं योगदान पर आधारित है। 
4. भागीदारों होल्डिंग आउट में परिवर्तन-कानूनन भागीदारों में बदलाव के 30 दिनों के भीतर अधिसूचना आवश्यक है। ”होल्डिंग आउट“ का प्रावधान भी रखा गया है ;यदि कोई गैर भागीदार ऐसा संकेत देता है कि वह फर्म में किसी बाहरी के लिए भागीदार है, तो ऐसा गैर भागीदार भी भागीदार के समान ही उत्तरदायी ठहराया जाएगा। 
5. पुनर्गठन समामेलन-पुनर्गठन, समामेलन व समझौतों, समापन, निरीक्षण एवं जांच के प्रावधान कंपनी अधिनियम के समान ही हैं। 
6. मौजूदा कंपनी फर्मों का रूपांतरण-मौजूदा कंपनियां, निजी व गैरसूचीकृत कंपनियां, एलएलपी में रूपांतरित हो सकती है, बशर्ते, यदि आयकर अधिनियम की धारा 47(ग्.प्प्.इ) में दी गई शर्तें पूर्ण होती हों, तो ऐसे रुपांतरण से कंपनी या इसके शेयरधारकों को कोई पूंजीगत लाभ नहीं होंगे केवल ऐसी छोटी कंपनियां रूपांतरित हो सकती हैं, जिनका पण्यावर्त 60 लाख से कम हो। 
7. एलएलपी का कराधान-एलएलपी का कराधान, एक भागीदारी के समान ही होगा। अपवाद यह है कि किसी भागीदारी फर्म का भागीदार फर्म के आयकर दायित्वों हेतु वैयक्तिक तौर से उत्तरदाई होंगी। एलएलपी के मामले में, सभी भागीदार संयुक्त रूप से और अलग अलग आयकर दायित्वों हेतु उत्तरदायी हैं, किंतु कोई भागीदार इस उत्तरदायित्व से बच सकता है यदि वह ऐसा साबित कर सके कि गैर वसूली, उसकी ओर से किसी गंभीर लापरवाही या कर्तव्य की अवहेलना के कारण नहीं हुई है।
एलएलपी हेतु अपेक्षित विवरणियां एवं अभिलेख 
1. कार्यवृत्त पुस्तिका-भागीदारों के साथ एवं भागीदारों की प्रबंधकार्यपालक समिति के साथ हुई बैठकों के कार्यवृत्त दर्ज करने हेतु। 
2. भागीदारों में परिवर्तन-भागीदार पदनामित भागीदार में हुए किसी भी परिवर्तन को ऐसे बदलाव के 30 दिनों के भीतर ईफार्म 3 का उपयोग करते हुए इलेक्ट्रानिक रूप से फाइल किया जाना चाहिए। 
3. पूरक एलएलपी करार-ऐसे स्वीकरण एवं समाप्ति भागीदारों के परस्पर अधिकारों एवं कर्तव्यों को बदल देंगी। अतः पूरक एलएलपी करार आवश्यक होगा, जिसे परिवर्तन के 30 दिनों के भीतर ई फार्म 3 में सशुल्क भरा जाना होगा (इससे बचने हेतु एलएलपी करार उपयुक्त रूप से तैयार किया जा सकता है)। 
4. लेखा एवं शोधन क्षमता की विवरणी-यह विवरण प्रतिवर्ष ईफार्म 8 में ;शुल्क सहितद्ध भरी जारी होती है। इसे प्रति वित्त वर्ष की समाप्ति के 6 माह के भीतर अर्थात् 30 अक्टूबर तक भरा जाना चाहिए। 
5. वार्षिक रिटर्न-यह वित्त वर्ष की समाप्ति के 60 दिनों के भीतर कंपनी रजिस्ट्रार को ईफार्म 11 में भरा जाना चाहिए। इस रिटर्न में हुए विलंब पर प्रतिदिन 100 रुपए की दर से दंड लगता है। 
6. दस्तावेजों का निरीक्षण-निगमन दस्तावेज (फार्म 2), वार्षिक रिटर्न (फार्म 11), एसएएस (फार्म 8) एवं भागीदारों के नाम व कोई बदलाव (फार्म 3) जनता के निरीक्षण हेतु सशुल्क उपलब्ध कराए जाते हैं। तथापि, एलएलपी करार, जनता के निरीक्षण हेतु उपलब्ध नहीं होता है।
सीमित देयता साझेदारी (एलएलपी) का पंजीकरण
किसी भारतीय सीमित देयता भागीदारी के पंजीकरण के लिए, आपको पहले मनोनीत भागीदार पहचान संख्या (डीपिन) के लिए आवेदन करना जरूरी है। ऐसा आवेदन निदेशक पहचान संख्या (डिन) या डीपीआईएन (डीपिन) प्राप्त करने का ई-फॉर्म भरकर किया जा सकता है। उसके बाद आपको डिजिटल हस्ताक्षर प्रमाणपत्र प्राप्त करने की आवश्यकता होंगी और उसे पोर्टल पर पंजीकृत करना होगा। तत्पश्चात् आपको सीमित देयता भागीदारी का नाम मंत्रालय से अनुमोदित कराना होगा। सीमित देयता भागीदारी का नाम अनुमोदित होने के बाद, आप स्थापना का फॉर्म भरकर सीमित देयता भागीदारी का पंजीकरण करा सकते हैं।
चरण 1-डिन या डीपिन के लिए आवेदन करना
प्रस्तावित सीमित देयता भागीदारी के सभी मनोनीत भागीदार “मनोनीत भागीदार पहचान संख्या (डीपिन)” प्राप्त करेंगे आपको डीआईएन (डिन) या डीपीआईएन (डीपिन) प्राप्त करने के लिए ई-फॉर्म डिन-1 भरने की जरूरत होंगी। यदि आपके पास पहले से डिन (निदेशक पहचान संख्या) है, तो उसे डीपिन के रूप में प्रयोग किया जा सकता है।
चरण 2-डिजिटल हस्ताक्षर प्रमाणपत्र प्राप्त करना/पंजीकृत करना
इलेक्ट्रॉनिक रूप से दाखिल किए गए दस्तावेजों की सुरक्षा एवं प्रामाणिकता सुनिश्चित करने के लिए, सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम, 2000 में यह प्रावधान किया गया है कि इलेक्ट्रॉनिक रूप में प्रस्तुत दस्तावेजों पर डिजिटल हस्ताक्षरों का प्रयोग किया जाए। यही केवल सुरक्षित एवं प्रामाणिक उपाय है, जिसके माध्यम से कोई दस्तावेज इलेक्टॉनिक रूप से प्रस्तुत किया जा सकता है। वैसे भी, सीमित देयता भागीदारों को सभी दस्तावेज इलेक्ट्रॉनिक रूप से और दस्तावेजों पर हस्ताक्षर करने के लिए प्राधिकृत व्यक्तियों के डिजिटल हस्ताक्षरों का प्रयोग करते हुए किए जाने हैं।
अ. डिजिटल हस्ताक्षर प्रमाणपत्र प्राप्त करना-कोई अनुज्ञप्ति-प्राप्त प्रमाणन प्राधिकारी डिजिटल हस्ताक्षर जारी करता है। प्रमाणन प्राधिकारी से तात्पर्य उस व्यक्ति से है, जिसे भारतीय सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम 2000 की धारा 24 के अंतर्गत डिजिटल हस्ताक्षर जारी करने के लिए अनुज्ञप्ति प्रदान की गई है।
ब. डिजिटल हस्ताक्षर प्रमाणपत्र पंजीकृत करना-रोल चेक तभी किया जा सकता है, जब हस्ताक्षरकर्ताओं ने सीमित देयता भागीदारी के आवेदनपत्र के साथ अपने डिजिटल हस्ताक्षर प्रमाणपत्र पंजीकृत किए हों। 
चरण 3-नए प्रयोक्ता का पंजीकरण
सीमित देयता भागीदारी पोर्टल पर ई-फॉर्म भरने या कोई सशुल्क सेवा का उपयोग करने के लिए, आपको पहले संबंधित प्रयोक्ता श्रेणी, जैसे पंजीकृत और व्यवसाय प्रयोक्ता, के अंतर्गत स्वयं को प्रयोक्ता के रूप में पंजीकृत करना होगा। 
चरण 4-सीमित देयता भागीदारी की स्थापना
सीमित देयता भागीदारी (एलएलपी) के पंजीकरण के लिए फॉर्म 1 (नाम के आरक्षण या नाम परिवर्तन के लिए आवेदनपत्र) भरकर उसके पंजीकृत किए जाने वाले नाम के लिए आवेदन करें। उसके बाद, प्रस्तावित सीमित देयता भागीदारी के अनुरूप, स्थापना का अपेक्षित फॉर्म 2 (स्थापना दस्तावेज एवं अभिदाता का वक्तव्य) दाखिल करें। जब मंत्रालय के संबंधित अधिकारी फॉर्म अनुमोदित कर देंगे, तब आपको उसकी सूचना का मेल संदेश आपको प्राप्त होगा और फॉर्म की स्थिति बदलकर अनुमोदित हो जाएगी। 
चरण 5-सीमित देयता भागीदारी का करार दाखिल करना
सीमित देयता भागीदारी की स्थापना के बाद, सीमित देयता भागीदारी की स्थापना के 30 दिन के अंदर सीमित देयता भागीदारी का आरंभिक करार दाखिल किया जाना होता है। प्रयोक्ता को फॉर्म 3 (सीमित देयता भागीदारी के करार से संबंधित और यदि उसमें कोई परिवर्तन किया गया हो, तो उससे संबंधित सूचनाएँ) में सूचनाएँ दाखिल करनी होती हैं।
किसी भिन्न संगठनात्मक स्वरूप में रूपांतर-
1. क्या आप मौजूदा भागीदारी फर्म को सीमित देयता भागीदारी में रूपांतरित करना चाहते हैं?
2. यदि कोई मौजूदा भागीदारी फर्म सीमित देयता भागीदारी में रूपांतरित होना चाहती है, तो उसे फॉर्म 17 (किसी फर्म के सीमित देयता भागीदारी में रूपांतरण के लिए आवेदनपत्र एवं विवरण) के माध्यम से आवेदन करना होगा। फॉर्म 17 को फॉर्म 2 (स्थापना दस्तावेज एवं अभिदाता का वक्तव्य) के साथ दाखिल किया जाना जरूरी है।
3. क्या आप मौजूदा प्राइवेट कंपनी असूचीबद्ध पब्लिक कंपनी को सीमित देयता भागीदारी में रूपांतरित करना चाहते हैं?
4. यदि कोई मौजूदा प्राइवेट कंपनी असूचीबद्ध पब्लिक कंपनी सीमित देयता भागीदारी में रूपांतरित होना चाहती है, तो उसे फॉर्म 18 (किसी प्राइवेट कंपनी असूचीबद्ध पब्लिक कंपनी के सीमित देयता भागीदारी में रूपांतरण के लिए आवेदनपत्र एवं विवरण) के माध्यम से आवेदन करना होगा। फॉर्म 18 को फॉर्म 2 (स्थापना दस्तावेज एवं अभिदाता का वक्तव्य) के साथ दाखिल किया जाना जरूरी है।

द. निजी (प्राइवेट) लिमिटेड कंपनी
प्राइवेट लिमिटेड कंपनी को न्यूनतम 2 और अधिकतम 50 सदस्यों के ऐसे स्वैच्छिक संगठन के रूप में परिभाषित किया जाता है, जिसकी देयता सीमित होती है, जिसके शेयरों का हस्तांतरण सीमित होता है और जिसे अपने शेयरों अथवा डिबेंचरों में अभिदान करने के लिए सामान्य जनता को आमंत्रित करने की अनुमति नहीं होती। प्रमुख विशेषताएं हैं-स्वतंत्र विधिक अस्तित्व, गठन और परिचालन कम बोझिल होता है क्योंकि इसे ऐसे अनेक नियमों तथा विनियमों से छूट मिली होती है, जिनका पालन करना पब्लिक लिमिटेड कंपनी के लिए आवश्यक होता है। उनमें से कुछ हैं-1. स्वतंत्र विधिक अस्तित्व, 2. प्रॉस्पेक्टस दाखिल करने की जरूरत नहीं, 3. कारोबार शुरू करने के लिए प्रमाणपत्र प्राप्त करने की जरूरत नहीं।, 4. सांविधिक साधारण बैठक आयोजित करने तथा सांविधिक रिपोर्ट दाखिल करने की जरूरत नहीं, 5. पब्लिक लिमिटेड कंपनी के निदेशकों पर लागू प्रतिबंध इसके निदेशकों पर लागू नहीं होते।, 6. इसके सदस्यों की देयता सीमित होती है।, 7. आवंटित शेयर सदस्यों के बीच स्वतंत्र रूप से अंतरणीय नहीं होते।, 8. सतत अस्तित्व, 9. पंजीकृत कार्यालय और नाम की आवश्यकता, 10. संस्था के अंतर्नियम और संस्था के बहिर्नियम हस्ताक्षरित रूप में होने आवश्यक, 11. लाभ, 12. हानि, 13. सतत अस्तित्व, 14. शेयर स्वतंत्र रूप से हस्तातंरणीय नहीं, 15. सीमित देयता, 16. शेयरों में अभिदान के लिए सामान्य जनता को आमंत्रित करने की इजाजत नहीं, 17. कम वैधानिक प्रतिबंध
उपयुक्तता-जो लोग सीमित देयता का लाभ उठाना चाहते हैं पर साथ ही कारोबार पर नियंत्रण सीमित दायरे में ही रखना चाहते हैं और अपने कारोबार की निजता बनाए रखना चाहते हैं, उनके लिए यह स्वरूप उपयुक्त है।
निजी (प्राइवेट) लिमिटेड कंपनी का पंजीकरण 
भारत में एक नए व्यवसाय शामिल करने के लिए आवश्यक कदम
1. अपनी व्यवसाय संस्था का नामकरण करना-व्यवसाय का अच्छा नाम अद्वितीय और यादगार होता है यह मुख्य व्यवसाय दर्शाता है और यह किसी अन्य कंपनी के नाम के समान नहीं होना चाहिए।
2. कंपनी का नाम प्रतीक-चिन्ह एवं नाम संबंधी प्रावधानों का उल्लंघन न करता हो। (अनुचित प्रयोग निवारण अधिनियम 1950) कंपनी का प्रस्तावित नाम उपलब्ध है या नहीं, इसकी जाँच करने के लिए-कंपनी पंजीयक (रजिस्ट्रार) को कम से कम एक उपयुक्त या अधिकतम छह नामों की सूची उपलब्ध कराएँ। कंपनी पंजीयक नामों की उपलब्धता की जाँच करेगा। 
3. एमसीए पोर्टल पर ई-फाइलिंग के लिए पंजीकरण करना-इसके लिए पहला कदम कॉर्पोरेट कार्य मंत्रालय (एमसीए) की वेबसाइट पर प्रयोक्ता के रूप में पंजीकरण कराना है। एमसीए पोर्टल पर ई-फॉर्म भरने या कोई सशुल्क सेवा का उपयोग करने के लिए, संबंधित प्रयोक्ता श्रेणी, जैसे पंजीकृत और व्यवसाय प्रयोक्ता, के अंतर्गत स्वयं को प्रयोक्ता के रूप में पंजीकृत करें।
4. निदेशक पहचान संख्या के लिए आवेदन करना-कंपनी के सभी मौजूदा एवं होने वाले निदेशकों को अधिसूचना के अनुरूप निर्धारित समय-सीमा के अंदर निदेशक पहचान संख्या (डिन) प्राप्त करनी है। डिन प्राप्त करने के लिए ई-फॉर्म डिन-1 भरा जा सकता है। आवेदनपत्र पर प्रवर्तक(कों) के प्रतिहस्ताक्षर अपेक्षित होते हैं। प्रक्रिया समय-आवेदन के प्रस्तुतीकरण के बाद 5 से 7 कार्यदिवस
5. डिजिटल हस्ताक्षर प्रमाणपत्र प्राप्त करना-एमसीए वेबसाइट पर डिजिटल हस्ताक्षर प्रमाणपत्र का पंजीकरण करना। डिजिटल हस्ताक्षर प्रमाणपत्र प्राप्त करने के बाद, कॉर्पोरेट कार्य मंत्रालय की वेबसाइट पर डिजिटल हस्ताक्षर प्रमाणपत्र का पंजीकरण कराएँ।
6. कंपनी के नाम के अनुमोदन के लिए आवेदन करना-किसी कंपनी की स्थापना के पहले, कंपनी के निदेशकों को निदेशक पहचान संख्या प्राप्त करना और कॉर्पोरेट कार्य मंत्रालय में कंपनी पंजीयक द्वारा कंपनी के प्रस्तावित नाम का अनुमोदन किया जाना अनिवार्य है। कंपनी के पंजीकृत किए जाने वाले नाम के पंजीकरण के लिए ई-फॉर्म-1ए में आवेदन करें। इस फॉर्म पर किसी एक प्रवर्तक के डिजिटल हस्ताक्षर आवश्यक होते हैं। इस फॉर्म में अंकित किए जाने वाले कुछ महत्त्वपूर्ण विवरण निम्नवत् हैं-
अ. प्रस्तावित कंपनी की प्राधिकृत पूँजी
ब. प्रस्तावित कंपनी के मुख्य उद्देश्य
स. प्रस्तावित कंपनी की अवस्थिति (स्थान)
द. ट्रेडमार्क आवेदनपत्र प्रमाणपत्र की प्रति (यदि लागू हो)
य. यदि ट्रेडमार्क के साथ कोई प्रतीक-चिन्ह (लोगो) भी जुड़ा हो, तो उसकी छवि
र. पिछले 2 वर्ष का तुलनपत्र (यदि लागू हो) और आयकर विवरणियाँ
यदि कंपनी पंजीयक (कॉर्पोरेट कार्य मंत्रालय) प्रस्तावित नाम का अनुमोदन कर देता है, तो प्रस्तावित नाम की स्वीकृति दर्शाते हुए पत्र जारी किया जाता है। यदि नाम अस्वीकार कर दिया जाता है, तो अभ्यर्थी को कंपनी के नाम के अनुमोदन के लिए फिर से आवेदन करना होता है। प्रक्रिया समय-प्रस्तुतीकरण के बाद 7 कार्यदिवसों के अंदर।
7. महत्त्वपूर्ण टिप्पणी-नाम के अनुमोदन के बाद, आवेदक नई कंपनी के पंजीकरण के लिए अपेक्षित फॉर्म (अर्थात् फॉर्म 1, 18 तथा 32) भरकर नाम के अनुमोदन के 60 दिन के अंदर आवेदन कर सकता है, अन्यथा आवेदक को कंपनी के नाम के लिए फिर से आवेदन करना होगा।
संस्था के बहिर्नियम तैयार करना (MoA)
संस्था के बहिर्नियम वे उद्देश्य होते हैं, जिनके लिए कंपनी का गठन किया जाता है। कोई कंपनी ऐसी कोई गतिविधि चलाने के लिए कानूनी रूप से पात्र नहीं होती है, जो इस खंड में अंकित उद्देश्यों से परे हो। किसी कंपनी के पंजीकरण के लिए विधिवत् प्रारूपित, सत्यापित, मुद्रांकित(स्टाम्पित) और हस्ताक्षरित संस्था का बहिर्नियम होना आवश्यक होता है। संस्था के बहिर्नियम में निम्नलिखित भाग होते हैं-
1. मुख्य उद्देश्य-यद्यपि उप-खंड में यह स्पष्ट रूप से भले ही न कहा गया हो, किंतु जो कार्य कंपनी के मुख्य उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए या तो अनिवार्य हो या प्रासंगिक हो, उसे वैध माना जाता है।
2. अन्य उद्देश्य-जिन उद्देश्यों का मुख्य उद्देश्यों में उल्लेख न किया गया हो, उनका वर्णन इसके अधीन किया जा सकता है। तथापि, यदि कोई कंपनी इस उप-खंड में शामिल कोई व्यवसाय करना चाहती हो, तो उसे या तो विशेष संकल्प पारित करना होगा या साधारण संकल्प पारित करना होगा और उसके लिए केंद्रीय सरकार का अनुमोदन लेना होगा।
3. पंजीकृत कार्यालय संबंधी खंड-उस राज्य का नाम और पता उपलब्ध कराएँ, जहाँ कंपनी स्थित है। इस चरण में पंजीकृत कार्यालय का सही-सही पता देना अपेक्षित नहीं है, किंतु उसकी सूचना कंपनी की स्थापना के तीस दिन के अंदर पंजीयक को अवश्य दी जानी चाहिए।
4. पूँजी संबंधी खंड-वह अधिकतम पूँजी विनिर्दिष्ट करना, जिसे कंपनी शेयर जारी कर जुटाने के लिए अधिकृत होंगी। इसके साथ ही, उन शेयरों की संख्या भी विनिर्दिष्ट की जानी है, जिनमें वह पूँजी विभाजित की जाएगी।
5. सहभागिता खंड-संस्था के बहिर्नियम के हस्ताक्षरकर्ता कंपनी के साथ सहभागिता का अपना आशय और शेयर खरीदने की सहमति अंकित करते हैं।
संस्था के बहिर्नियम किसी अधिवक्ता या सनदी लेखाकार के मार्गदर्शन से सरलतापूर्वक तैयार किए जा सकते हैं। संस्था के बहिर्नियम के बारे में अधिक जानकारी क-कंपनी अधिनियम, 1956 तथा ख-द लीगल सर्विसेज ऑफ इंडिया से प्राप्त की जा सकती है।
संस्था के बहिर्नियम और संस्था के अंतर्नियम पर हस्ताक्षर
कंपनी के पंजीकरण के लिए संस्था के बहिर्नियम और संस्था के अंतर्नियम की स्टाम्पित और हस्ताक्षरित प्रतियाँ जमा करने की जरूरत पड़ेगी। 
1. संस्था के बहिर्नियम और संस्था के अंतर्नियम के समर्थन के लिए कम से कम दो समर्थनकर्ताओं की जरूरत होती है। हर समर्थनकर्ता के बारे में निम्नलिखित जानकारी होनी चाहिए-
क. पिता का नाम
ख. पिता का व्यवसाय
ग. स्थायी पता
घ. अभ्यर्थी द्वारा अभिदत्त शेयरों की संख्या
2. हस्ताक्षर प्रक्रिया में कम से कम एक प्रोफेशनल ;वकील, सीए या अधिवक्ताद्ध को बतौर गवाह होना चाहिए।
3. सुनिश्चित करें कि संस्था के बहिर्नियम और संस्था के अंतर्नियम स्टाम्पिंग की तारीख के बाद निष्पादित और हस्ताक्षरित हों।
संस्था के अंतर्नियम तैयार करना (Articles of Association)
संस्था के अंतर्नियम किसी कंपनी के आंतरिक प्रबंध से संबंधित नियम होते हैं। ये नियम संस्था के बहिर्नियम के अधीनस्थ होते हैं और इसलिए संस्था के बहिर्नियम में जो कहा गया है ये उसके विरोधी या उससे परे नहीं होने चाहिए। किसी कंपनी के पंजीकरण के लिए विधिवत् प्रारूपित, सत्यापित, मुद्रांकित(स्टाम्पित) और हस्ताक्षरित संस्था का अंतर्नियम होना आवश्यक होता है। 
सारणी-ए वह दस्तावेज (विस्तृत विवरण के लिए कंपनी अधिनियम, 1956 देखें) है, जिसमें कंपनी के आंतरिक प्रबंध के लिए नियम और विनियम शामिल होते हैं। यदि कंपनी सारणी ए अपनाती है, तो उसे अलग से संस्था के अंतर्नियम बनाने की आवश्यकता नहीं है। जो कंपनिया सारणी-ए नहीं अपनाती हैं, उन्हें पंजीकरण के लिए मुद्रांकित;स्टाम्पितद्ध और संस्था के बहिर्नियम पर हस्ताक्षर करने वाले हस्ताक्षरकर्ताओं द्वारा विधिवत् हस्ताक्षरित संस्था के अंतर्नियम की प्रति प्रस्तुत करना आवश्यक होता है। 
संस्था के अंतर्नियम किसी अधिवक्ता या सनदी लेखाकार के मार्गदर्शन से सरलतापूर्वक तैयार किए जा सकते हैं। संस्था के अंतर्नियम के बारे में अधिक जानकारी क-कंपनी अधिनियम, 1956 तथा ख-द लीगल सर्विसेज ऑफ इंडिया से प्राप्त की जा सकती है।
संस्था के अंतर्नियम का सत्यापन, स्टाम्पन और हस्ताक्षर
पंजीकरण के लिए जमा करने से पहले संस्था के अंतर्नियम की ध्यान से और बारीकी से जाँच ;वेटिंगद्ध कर लेने में समझदारी है, क्योंकि उसमें कारोबार का इरादा और उसकी सीमा परिभाषित रहती है। 
1. संस्था के बहिर्नियम और अंतर्नियम में कारोबार की भावी संभावनाओं का उल्लेख होना चाहिए, ताकि बाद में संशोधन करने से बचा जा सके।
2. वेटिंग प्रक्रिया के लिए कंपनियों के रजिस्ट्रार से सलाह ली जा सकती है।
3. कंपनियों के रजिस्ट्रार से सत्यापन के बाद संस्था के बहिर्नियम और अंतर्नियम को छपवा लें।
4. संस्था के बहिर्नियम और संस्था के अंतर्नियम की स्टांपिंग
5. संस्था के बहिर्नियम और संस्था के अंतर्नियम को अंतिम रूप देने का बाद, उसपर स्टाम्प्स के रजिस्ट्रार के यहाँ स्टाम्प लगवाने की जरूरत होती है।
6. स्टाम्प शुल्क कंपनी की प्राधिकृत शेयर पूँजी पर निर्भर करती है, जो संस्था के बहिर्नियम और संस्था के अंतर्नियम में दी गई है।
कंपनी के निगमन के लिए अपेक्षित फॉर्म
कंपनी को पंजीकृत करने के लिए फॉर्म जमा कराने से पहले कतिपय पूर्वापेक्षाएं (निदेशक पहचान संख्या, डिजिटल हस्ताक्षर प्रमाणपत्र, फॉर्म-1ए, संस्था के बहिर्नियम और अंतर्नियम) अवश्य पूरी होनी चाहिए।
निगम की प्रक्रिया शुरू करने के लिए फॉर्म (फॉर्म 1, फॉर्म 18 और फॉर्म 32) तथा अपेक्षित दस्तावेज कॉर्पोरेट मामलों के मंत्रालय तथा कंपनियों के रजिस्ट्रार के पास अवश्य जमा किए जाने चाहिए। 
फॉर्म 1-यह कंपनी के निगमन का आवेदन अथवा उसकी घोषणा है। यह बताता है कि पंजीकरण के संबंध में कंपनी अधिनियम 1956 और उसके अधीन बने सभी नियमों की सभी अपेक्षाओं का अनुपालन कर लिया गया है यह फॉर्म निदेशक अथवा कंपनी के निर्माण में लगा कोई भी अन्य विनिर्दिष्ट व्यक्ति (वकील, सीए, अधिवक्ता आदि) भर सकता है।
फार्म 18-यह पंजीकृत कार्यालय की लोकेशन अथवा उसकी लोकेशन बदलने का नोटिस है। यह कंपनी के निदेशकों में से किसी एक को भरना होता है। इसमें कंपनियों के रजिस्ट्रार को प्रस्तावित कंपनी के पंजीकृत कार्यालय की जानकारी दी जाती है।
फॉर्म 32-इस फॉर्म में प्रस्तावित कंपनी के निगमन की तारीख से निदेशक मंडल में प्रस्तावित निदेशकों की नियुक्ति की बात कही जाती है और इस पर प्रस्तावित निदेशकों में से किसी एक के हस्ताक्षर होते हैं।
उपर्युक्त फॉर्म (फार्म 1, 18 और 32) में डिजिटल हस्ताक्षर अटैच करने और अपेक्षित फाइलिंग व रजिस्ट्रेशन फीस जमा करने के बाद कॉर्पोरेट मामलों के मंत्रालय (एमसीए) पोर्टल पर जमा करें।
कंपनियों के रजिस्ट्रार के पास निम्नलिखित की फिजिकल प्रतियाँ भेजें
1. संस्था के बहिर्नियम व अंतर्नियम की 3 स्टांपित और हस्ताक्षरित प्रतियाँ कंपनियों के रजिस्ट्रार के पास
2. कंपनियों के रजिस्ट्रार द्वारा जारी किया गया नाम-उपलब्धता पत्र
3. संस्था के बहिर्नियम को स्वीकार करनेवाले सभी व्यक्तियों द्वारा हस्ताक्षरित शपथपत्र, जिसमें निगमन के लिए और निगमन प्रमाणपत्र प्राप्त करने के उद्देश्य से उनकी और से किसी एक स्वीकर्ता अथवा किसी अन्य व्यक्ति को अधिकृत किया गया हो।
4. संस्था के बहिर्नियम और अंतर्नियम में उल्लिखित कोई करार।
5. प्रबंध निदेशक अथवा पूर्णकालिक निदेशक नियुक्त किए जाने के लिए किसी व्यक्ति के साथ किया जानेवाला प्रस्तावित करार।
मंत्रालय के संबंधित अधिकारी द्वारा फॉर्म अनुमोदित किए जाने के पश्चात् उसके बारे में आपको एक ईमेल मिलेगा और फॉर्म की स्थिति बदलकर अनुमोदित हो जाएगी।
निगमन प्रमाणपत्र
फॉर्मों के अनुमोदन और सत्यापन के बाद कॉर्पोरेट आइडेंटिटी नंबर जनरेट होता है और कंपनी को निगमन प्रपमाणपत्र जारी किया जाता है। प्राइवेट कंपनी प्रमाणपत्र मिलने के तुरन्त बाद अपना कारोबार आरंभ कर सकती है।

पब्लिक लिमिटेड कंपनी का निगमन (अतिरिक्त कदम)
किन्तु पब्लिक कंपनी को कारोबार आरंभ करने के लिए निगम प्रमाणपत्र के साथ-साथ, प्रमाणपत्र की भी जरूरत पड़ती है। पब्लिक लिमिटेड कंपनी के निगमन के लिए कुछ अतिरिक्त फॉर्म और दस्तावेज होते हैं जो कॉर्पोरेट मामलों के मंत्रालय और सचिवों के रजिस्ट्रार के पास जमा करने होते हैं।
निदेशक अथवा कंपनी सचिव। यह एक घोषणा है जिसमें शेयरों की राशि और कंपनी की शेयर पूँजी का उल्लेख होता है और कहा जाता है कि कंपनी ने ऐसा प्रोस्पेक्टस जारी नहीं किया है, जिसमें आम जनता को उसके शेयर खरीदने के लिए आमंत्रित किया गया हो।
कंपनियों के रजिस्ट्रार के पास जमा करने के लिए प्रोस्पेक्टस के स्थान पर विवरणी
कंपनियों के रजिस्ट्रार के समक्ष प्रत्येक निदेशक का शपथपत्रप, जिसमें कहा गया हो कि कंपनी ने व्यवसाय आरंभ नहीं किया है। कंपनियों के रजिस्ट्रार के पास जमा करने के लिए प्राथमिक खर्चों, पहले लेखा-परीक्षकों की नियुक्ति के अनुमोदन के लिए बोर्ड ज्ञापन (उनका सहमति पत्र भी संलग्न करें)।
अथवा
eForm-19 में घोषणा दाखिल करें और उसके साथ प्रोस्पेक्टस संलग्न करें (कंपनी अधिनियम 1956 की अनुसूची)। 
eForm-19 शेयर पूँजी की राशि संबंधी घोषणा है जो कंपनी द्वारा जनता को प्रस्तावित की जाती है।
कंपनियों के रजिस्ट्रार के समक्ष प्रत्येक निदेशक का शपथपत्रप, जिसमें कहा गया हो कि कंपनी ने व्यवसाय आरंभ नहीं किया है।
कंपनियों के रजिस्ट्रार के पास जमा करने के लिए प्राथमिक खर्चों, पहले लेखा-परीक्षकों की नियुक्ति के अनुमोदन के लिए बोर्ड ज्ञापन (उनका सहमति पत्र भी संलग्न करें)। तत्पश्चात् कंपनियों का रजिस्ट्रार दस्तावेजों पर कार्रवाई करेगा और यदि सभी दस्तावेज सही हों तो वह व्यवसाय आरंभ करने का प्रमाणपत्र जारी करेगा।

य. सार्वजनिक (पब्लिक) लिमिटेड कंपनी
सार्वजनिक लिमिटेड कंपनी सदस्यों का एक स्वैच्छिक संगठन है, जो निगमित होता है और इसलिए जिसका एक पृथक विधिक अस्तित्व होता है और जिसके सदस्यों की देयता सीमित होती है। प्रमुख विशेषताएं हैं-पृथक विधिक अस्तित्व, भारतीय कंपनी अधिनियम, 1956 द्वारा शासित, न्यूनतम 7 सदस्य, अधिकतम की सीमा नहीं , शेयर के जरिए पूंजी जुटाती है, शेयर मुक्त रूप से हस्तांतरणीय होते हैं और इसके लिए कंपनी को पहले से कोई नोटिस नहीं देना होता, कंपनी के सदस्य की देयता उसके द्वारा धारित शेयरों के अंकित मूल्य तक सीमित होती है।, शेयरधारकों को प्रबंधन अधिकार नहीं होते। इससे स्वामित्व और प्रबंधन का पृथक्करण सुनिश्चित होता है।. निर्णय करने की शक्ति निदेशक मंडल को दी जाती है।, शेयरधारकों के दिवालियापन या मृत्यु से कंपनी के अस्तित्व को खतरा नहीं होता।, लाभ, हानि, सतत अस्तित्व, पूंजी की अपेक्षाकृत बड़ी राशि, निर्देश की एकता, अन्य व्यवसाय स्वरूपों की तुलना में इस पर अधिक विनियमन लागू हो सकता है।, दक्ष प्रबंधन, सीमित देयता।



No comments:

Post a Comment