गुलाम का अर्थ व दास प्रथा (पाश्चात्य)
गुलाम का अर्थ
1. मोल लिया या खरीदा हुआ नौकर या दास।
2. बहुत ही तुच्छ सेवाएँ करने वाला नौकर।
3. ताश का वह पत्ता जिस पर गुलाम की आकृति बनी रहती है।
4. गंजीफे के पत्तों में, एक प्रकार का रंग।
बलपूर्वक श्रम गुलामी में किसी व्यक्ति को धोखे से या डरा धमका कर बिना वेतन या जिंदा रहने भर के नाम मात्र वेतन पर काम करने के लिए बाध्य किया जाता है। आज के जमाने के गुलाम पत्थर खादानों, चावल की मिलों, ईट भठ्ठों, मछली उद्योग तथा अन्य उद्योगों में काम करते हुए, एक अत्यंत परेशानी भरा जीवन जीते हैं। गुलामी के पीड़ितों को अधिकांशतः अपने काम के स्थान, जहाँ पर वह काम करने को बाध्य होते हैं, को छोड़ कर अन्य कहीं जाने की मना ही होती है तथा वे कहीं और रोजगार की तलाश नहीं कर पाते। ये अक्सर शारीरिक व यौन शोषण के शिकार भी होते हैं।
बंधुआ, ऋण पीड़ित को गुलामी में फंसाने का आम तरीका है। इस गैर कानूनी योजना में मालिक मजदूर को एक छोटा ऋण देने का वादा इस शर्त के साथ करता है कि वह ऋण मालिक के यहाँ काम करके चुका दिया जायेगा। बुरी नीयत वाला कर्ज दाता ब्याज दर, को हद से ज्यादा बढ़ाकर, झूूठी दरें बढाकर, ऋण की स्थिति के बारे में जानकारी न दे कर यह सुनिश्चिित करता है कि ऋण की अदायगी असम्भव हो जाये। मजदूर को काम की जगह से कहीं और जाने की मना ही होती है, जब तक ऋण चुकता न हो जाए। नौकरी देने वाला मजदूर का मालिक बन जाता है और ऋण की शर्तें अक्सर पड़ित के परिवार को भी शामिल कर लेती हैं। यहाँ तक कि बच्चे भी एक झूठे और हमेशा बढ़ते ऋण को चुकाने के लिए काम करने को मजबूर होते हंै।
दास प्रथा (पाश्चात्य)
मानव समाज में जितनी भी संस्थाओं का अस्तित्व रहा है उनमें सबसे भयावह दासता की प्रथा है। मनुष्य के हाथों मनुष्य का बड़े पैमाने पर उत्पीड़न इस प्रथा के अंतर्गत हुआ है। दास प्रथा को संस्थात्मक शोषण की पराकाष्ठा कहा जा सकता है। एशिया, यूरोप, अफ्रीका, अमरीका आदि सभी भूखंडों में उदय हाने वाली सभ्यताओं के इतिहास में दासता ने सामाजिक, राजनीतिक तथा आर्थिक व्यवस्थाओं के निर्माण एवं परिचालन में महत्वपूर्ण योगदान किया है। जो सभ्यताएँ प्रधानतया तलवार के बल पर बनीं, बढ़ीं और टिकी थीं, उनमें दासता नग्न रूप में पाई जाती थी।
पश्चिमी सभ्यता के विकास के इतिहास में दास प्रथा ने विशिष्ट भूमिका अदा की है। किसी अन्य सभ्यता के विकास में दासों ने संभवतः न तो इतना बड़ा योगदान दिया है और न अन्यत्र दासता के नाम पर मनुष्य द्वारा मनुष्य का इतना व्यापक शोषण तथा उत्पीड़न ही हुआ है। पाश्चात्य सभ्यता के सभी युगों में-यूनानी, रोमन, मध्यकालीन तथा आधुनिक-दासों ने सभ्यता की भव्य इमारत को अपने पसीने और रक्त से उठाया है।
यूनान
यूनानी इतिहास के प्राचीनतम स्रोतों में दास व्यवस्था के अस्तित्व का वर्णन प्राप्त होता है। यूनान के आदिकवि होमर (ई.पू.900 के करीब) के महाकाव्यों-ओडिसी तथा इलियड-में दासता के अस्तित्व तथा उससे उत्पन्न नैतिक पतन का उल्लेख है। ई.पू.800 के पश्चात् यूनानी उपनिवेशों की स्थापना तथा उद्योगों के विकास के कारण दासों की माँग तथा पूर्ति में अभिवृद्धि हुई। दासों की प्राप्ति का प्रधान स्रोत था युद्ध में प्राप्त बंदी किंतु माता-पिता द्वारा संतान विक्रय, अपहरण तथा संगठित दास बाजारों से क्रय द्वारा भी दास प्राप्त होते थे। जो ऋणग्रस्त व्यक्ति अपना ऋण अदा करने में असमर्थ हो जाते थे, उन्हें भी कभी-कभी इसकी अदायगी के लिए दासता स्वीकार करनी पड़ती थी। एथेंस, साइप्रस तथा सेमोस के दास बाजारों में एशियाई, अफ्रीकी अथवा यूरोपीय दासों का क्रय विक्रय होता था। घरेलू कार्यों अथवा कृषि तथा उद्योग धंधों संबंधी कार्यों के लिए दास रखे जाते थे। दास अपने स्वामी की निजी सपत्ति समझा जाता था और संपत्ति की भाँति ही उसका क्रय-विक्रय हो सकता था। कभी-कभी स्वामी प्रसन्न होकर स्वेच्छा से दास को मुक्त भी कर देते थे और यदा-कदा दास अपनी स्वतंत्रता का क्रय स्वयं भी कर लेता था।
यूनान में दास बहुत बड़ी संख्या में थे और ऐसा अनुमान है कि एथेंस में दासों की संख्या स्वतंत्र नागरिकों से भी अधिक थी। दासों तथा नागरिकों के भेद का आधार प्रजाति न होकर सामाजिक स्थिति थी। प्रायः सभी यूनानी विचारकों ने दासता पर अपने मत प्रकट किए हैं। अरस्तू के अनुसार-”दासता स्वामी तथा दास दोनों के लिए हितकर है“ किंतु अफलातून ने दासता का विरोध किया था क्योंकि इसे वह अनैतिक समझता था।
रोम
रोम के उत्थान के साथ दास व्यवस्था भी अपने पूर्णत्व को प्राप्त हुई। दासता का सबसे अधिक सबंध युद्ध विजय से रहा है। विजेताओं द्वारा अपनी सेवा के लिए पराजितों का उपयोग करना युद्ध की स्वाभाविक परिणति रही है। रोमन साम्राज्य का अभ्युदय एवं प्रसार सैन्य बल पर हुआ। अतः रोम में दास प्रथा का प्रचलन अत्यधिक हुआ। रोमन गणराज्य के उत्तरार्ध (ई.पू. तीसरी एवं दूसरी सदी) में जब अधिकांश स्वस्थ रोमन नागरिकों को कार्थेजी युद्धों में संलग्न होना पड़ा तो भूस्वामियों ने युद्धबंदियों को कृषि कार्यों के लिए दासों के रूप में क्रय करना प्रारंभ किया। इन युद्धों के कारण रोम में दासता का अभूतपूर्व प्रसार हुआ। प्रकार का अनुमान इससे लगाया जा सकता है कि उस समय डेलोस द्वीप के एक प्रमुख दास बाजार में एक दिन में 10,000 दासों का क्रय-विक्रय साधारण बात थी। कहते हैं कि आगस्टस के समय में जब एक नागरिक की मृत्यु हुई तो अकेले उसके अधिकार में ही उस समय चार हजार दास थे। शीघ्र ही इतालवी ग्राम समुदायों में दासों का बहुमत हो गया। नगरों में भी दासों का घरेलू कार्यों के लिए रखा जाता था। रोमन नागरिकों के मनोरंजनार्थ दास योद्धाओं-ग्लैडियेटर्स-को कवचहीन स्थिति में शस्त्र युद्ध करना पड़ता था। इस युद्ध में मृत्यु हो जाना साधारण घटना थी।
जब रोमन साम्राज्य में बहुसंख्यक दासों पर होने वाला दुस्सह अत्याचार पराकाष्ठा पर पहुँच गया तो इटली तथा सिसली के ग्रामीण क्षेत्रों में दास विद्रोहों का सिलसिला शून्य डिग्री हो गया। सबसे प्रबल दास विद्रोह ई.पू.73 के करीब ग्लैडियेटर्स के वीर नेता स्पार्टाकस के नेतृत्व में हुआ। विद्रोही दास सेनाओं का आकार निरंतर बढ़ता गया और एक समय तो समस्त दक्षिणी इटली दासों के हाथ में चला गया था। रोमन साम्राज्य के अंतिम चरण में जब साम्राज्य प्रसार रुक गया तो नए दासों का प्राप्त होना बंद हो गया। फलतः रोमन दासों की स्थिति भी सुधरने लगी। दासता के स्थान पर अर्ध-दासता बढ़ने लगी। रोमन साम्राज्य तथा व्यवस्था की अस्थिरता एव पतन का एक प्रधान कारण दास प्रथा थी। बहुसंख्यक दासों का अपने शोषण और उत्पीड़न पर खड़ी व्यवस्था से कोई लगाव न होना स्वाभाविक था। ऐसी स्थिति में रोमन व्यवस्था की जड़ें सामाजिक दृष्टि से अधिक पुष्ट न हो सकीं।
यूरोपीय देश
दासता को निर्ममता के शिखर पर पहुँचाने वाले रोमन साम्राज्य के विघटन के उपरांत यूरोप में दास प्रथा की कठोरता में कुछ कमी आई। अब यूरोपीय देशों को अधिकतर दास ”स्लाव क्षेत्र“ से प्राप्त होते थे। दास शब्द के अंग्रेजी, यूरोपीय भाषाओं के पर्याय ”स्लेव“ शब्द की व्युत्पत्ति इसी से हुई है। यूरोप में 10वीं तथा 14वीं सदी के बीच दास प्रथा सामान्य रूप में चलती रही। 14वीं सदी के आस-पास पूर्वी यूरोप तथा पश्चिमी एशिया पर होने वाले आक्रमणों से पश्चिमी यूरोप को पुनः युद्धबंदियों की प्राप्ति होने लगी। मध्ययुग के अंतिम चरण में राष्ट्रवाद और कट्टर धार्मिकता के सम्मिश्रण से युद्धबंदियों के प्रति असहिष्णुता बरती गई। गैर ईसाई बंदियों को ”यीशु के शत्रु“ घोषित कर दासों के रूप में उन्हें क्रय करने का धर्मादेश एक बार सर्वोच्च धर्मगुरु पोप ने स्वयं जारी किया था। पादरियों की सेवा के लिए रखे जाने वाले गिरजाघर के दासों की स्थिति कुछ मानों में घरेलू दासों से भी बदतर थी। युद्धबंदियों की प्राप्ति से एक बार फिर इतालवी दास व्यापारियों का भाग्य चमक उठा। मनुष्यों के यह व्यापारी तुर्की से सीरियाई, आर्मीनीयाई तथा स्लाव दासों को लाकर भूमध्यसागरीय देशों की माँग पूरी करते थे। इसी काल से ओटोमन तुर्कों के इस्लामी साम्राज्य प्रसार ने भी दासता को बढ़ाया।
15वीं शती के मध्य के करीब पुर्तगाली नाविकों ने हब्शी दास व्यापार में अरबों का एकाधिकार समाप्त कर दिया। पहली बार अफ्रीकी दासों का व्यापार समुद्री मार्ग से प्रारंभ हुआ। पुर्तगाल में दासों की माँग निरंतर बढ़ती जा रही थी क्योंकि मूर युद्धों एवं औपनिवेशिक प्रसार के कारण पुर्तगाली जनसंख्या घटती जा रही थी। दासों का आयात इतना बढ़ा कि 16वीं शती में पुर्तगाल के अनेक क्षेत्रों में श्वेतों की अपेक्षा हब्शियों की संख्या अधिक हो गई थी। चूँकि दासता में रंगभेद प्रबल नहीं था अतएव मुक्त रूप से रक्त संमिश्रण होता था। पुर्तगालियों की धमनियों में आज भी हब्शी रक्त तथा श्वेत रक्त साथ-साथ बहता है। पुर्तगाल के अलावा स्पेन में भी काले दास रखे जाते थे।
नई दुनिया
पश्चिमी सभ्यता के आधुनिक युग में पदार्पण करने पर एक बार फिर रोमन युग की तरह दासता का प्रसार तब बढ़ा जब साहसिक यूरोपीय नाविकों ने अमेरीकी महाद्वीपों की खोज की तथा उपनिवेशों की नींव रखी। नई दुनिया के पश्चिमी द्वीप समूह, मैक्सिका, पेरू, ब्राजील आदि देशों में उत्पादित गन्ने, कपास, तंबाकू जैसी वस्तुओं की माँग यूरोप में होने लगी। इन वस्तुओं का सबसे सस्ता उत्पादन दास की मेहनत के आधार पर होता था। स्पेन के तत्वावधान में सर्वप्रथम नई दुनिया की खोज करनेवाले कोलंबस ने स्वयं ही पश्चिमी द्वीप समूहों के मूलवासियों को दास बनाना प्रारंभ किया था। तदुपरांत इन यूरोपीय उपनिवेशों की धरती के पुत्रों की जो दुर्दशा दासों के रूप में की गई उसका कुछ अनुमान इससे लगाया जा सकता है कि स्पेन के औपनिवेशिक युग का अंत होते-होते पश्चिमी द्वीप समूहों के कैरिबी मूल निवासियों का नामोनिशान मिट चुका था। उधर दक्षिणी अमरीका के ब्राजील आदि देशों में पुर्तगालियों ने बड़े पैमाने में व्यापार चलाया। ख्रिस्तानी यूरोपीय ”सभ्यों“ के अनुसार ”असभ्य“ मूल निवासियों को ”सच्चे धर्म“ में दीक्षित कर सभ्य बनाने का एकमात्र मार्ग उन्हें दास बना लेना था और सभ्य बनाने की इस प्रक्रिया में सब कुछ क्षम्य था।
हब्शी दासता
1510 ई. के करीब जब अफ्रीकी हब्शी दासों से लदा पहला जहाज नई दुनिया पहुँचा तो दासता के इतिहास में एक नया मोड़ आया। मूल निवासी दास कभी-कभी अपनी विद्रोही गतिविधियों के कारण श्वेत महाप्रभुओं का सरदर्द बन जाते थे और साथ ही स्पेन एवं पुर्तगाल के राजा तथा धर्मगुरु भी उन दासों के प्रति सहिष्णुता बरतने की चर्चा करने लग जाते थे। मूल निवासी दासों की तुलना में ये नए हब्शी दास अधिक आज्ञाकारी तथा कठोर श्रमी थे जिसका प्रधान कारण इन हब्शियों का अपनी अफ्रीकी मातृभूमि से दूर सात समूद्र पार रहना था। अतः हब्शियों की माँग बढ़ने लगी। गन्ने, कपास के खेतों में और खादानों में दास श्रम पहले से भी अधिक उपयोगी हो गया। फलतः हब्शियों का आयात इतना बढ़ा कि शीघ्र ही पश्चिमी द्वीप समूहों में उनका बहुमत हो गया। लालची यूरोपीय शक्तियों के तत्वावधान में दास व्यापार की निजी कंपनियों में ऐसी घोर प्रतिस्पर्धा चली कि 18वीं सदी के प्रारंभ तक हब्शी दास व्यापार पराकाष्ठा पर पहुँच गया। अंग्रेज तो इस काम में रानी एलिजाबेथ के काल में ही निपुण हो चुके थे क्योंकि रेले, गिलबर्ट, हाकिंस तथा ड्रेक जैसे व्यक्ति अपहरण, लूटमार आदि तरीकों से दास व्यापार चलाकर इंग्लैंड को समृद्ध बना रहे थे।
हब्शियों को वस्तुओं के बदले प्राप्त कर और जहाजों में जानवरों की तरह ठूँसकर अटलांटिक पार अमेरीका ले जाया जाता था। वहाँ उन्हें बेचकर चीनी, कपास, चावल तथा सोने से लदे जहाज यूरोप लौटते थे। वास्तव में इंग्लैंड, अमेरीका तथा यूरोपीय पूँजीवाद का एक प्रमुख आधार दास व्यापार है। एक अनुमान के अनुसार सन् 1680-1786 के बीच लाख हब्शियों को अटलांटिक पार ले जाया गया। इन दासों को अपने विभिन्न यूरोपीय स्वामियों की भाषा तथा धर्म को भी ग्रहण करना पड़ता था क्योंकि उन्हें उस नरक में अपनी सांस्कृतिक विरासत को जीवित रखने के अवसर ही कहाँ प्राप्त हो सकते थे। आत्महत्या या पलायन के आलावा मुक्ति के कोई मार्ग न थे। हब्शी दास श्वेत स्त्रियों के साथ संपर्क की कल्पना भी नहीं कर सकते थे जब कि श्वेत स्वामी हब्शियों के साथ यौन संबंध कर लेते थे। किंतु वर्णसंकर संतानें कुछ अपवादों को छोड़कर दासता का ही स्तर प्राप्त करती थीं। हब्शी दासों के आवास अत्यंत दयनीय तथा भोजन निकृष्टतम होता था। दास झुंडों के श्वेत निरीक्षक खेतों या खादानों में काम कराते समय उन पर चाबुकों का खुलकर प्रयोग करते थे।
उत्तरी अमेरीका तथा विशेषकर संयुक्त राज्य अमरीका के इतिहास में हब्शी दासता तथा तज्जनित स्थितियों का प्रारंभ से लेकर आज तक विशेष महत्व रहा है। दास प्रथा के कारण ही वहाँ तंबाकू, कपास आदि की कृषि में आश्चर्यजनक प्रगति हुई तथा भूमि से अप्रत्याशित खनिज संपत्ति निकाली गई। दास व्यवस्था ने ही संयुक्त राज्य को पूँजीवादी तथा औद्योगिक प्रगति में विश्व का अगुआ बनने में सबसे अधिक सहायता दी है, तथा दास प्रथा ने ही संयुक्त राज्य के राजनीतिक इतिहास में सबसे महत्वपूर्ण प्रभाव डाला है क्योंकि दासता के प्रश्न पर उक्त राष्ट्र भीषण गृहयुद्ध से गुजरकर विभाजित होते-होते बचा है। यद्यपि संयुक्त राज्य में दासता पहले अवैधानिक करार दी जा चुकी थी तथापि आज भी वहाँ की सबसे बड़ी राष्ट्रीय समस्या हब्शी समस्या है जिसका पूर्ण समाधान दृष्टिगत नहीं हो रहा है। यह उन्हीं हब्शियों की समस्या है जिनके पूर्वज श्वेत महाप्रभुओं के क्रीतदास थे।
संयुक्त राज्य में 18वीं सदी में जब हब्शियों के विद्रोहों की कुछ संभावना होने लगी तो वैधानिक रूप से हब्शियों के लिए शस्त्रधारण, ढोल नगाड़े रखना तथा रात्रि में सड़कों पर निकलना वर्जित कर दिया गया। जब वर्जिनिया में, जो संयुक्त राज्य में काले दासों का प्राचीनतम तथा विशालतम केंद्र था, नेट टर्नर नामक दास पादरी के नेतृत्व में एक छोटा विद्रोह हुआ तो दास राज्यों में हब्शियों को पढ़ना-लिखना सिखाना भी अवैधानिक घोषित कर दिया गया। संयुक्त राज्य में दास प्रथा की प्रधान विशेषता रंगभेद रही है।
यद्यपि प्रारंभ में दासों पर भयावह अत्याचार होते थे और उन्हें असहनीय कष्ट उठाने पड़ते थे, फिर भी धीरे-धीरे उनके प्रति अधिक उदारतापूर्ण व्यवहार किया जाने लगा। एथेंस में यदि किसी दास के साथ कष्टकर दुव्र्यवहार होता था तो वह किसी दूसरे स्वामी के हाथ बेच दिए जाने की माँग कर सकता था। उसके स्वामी को यह अधिकार न था कि जब इच्छा हो तब उसके प्राण ले ले। मालिक के परिवार के किसी व्यक्ति की हत्या कर देने पर भी उसके स्वामी को यह अधिकार न था। सामान्यतयाः न्यायालय में मुकदमा चलाए बिना उसे प्राणदंड नहीं दिया जा सकता था। रोम में उनकी स्थिति सुधारने में अधिक समय लगा। वहाँ दास के प्राण ले लेने की पूरी छूट स्वामी को थी। उसे विवाह करने का अधिकार न था। बहुत से दासों को अक्सर रात में जंजीरों से बाँधकर रखा जाता था। क्रमशः इस स्थिति में थोड़ा सुधार होता गया। कुछ मालिकों ने अपने बच्चों की अच्छी तरह देखभाल करने पर दासों को स्वतंत्र कर देने का आश्वासन देना शून्य डिग्री किया और कुछ ने उन्हें निर्धारित अवधि तक कड़ी मेहनत करने पर छोड़ देने का वचन दिया। कानून के अनुसार बच्चों को गुलाम के रूप में बेचने की मुमानियत कर दी गई और कर्ज चुकाने के लिये भी किसी को दास बनाने पर रोक लगा दी गई।
दास प्रथा का उन्मूलन
पश्चिम में दास प्रथा उन्मूलन संबंधी वातावरण 18वीं सदी में बनने लगा था। अमेरीकी स्वतन्त्रता युद्ध का एक प्रमुख नारा मनुष्य की स्वतंत्रता था और फलस्वरूप संयुक्त राज्य के उत्तरी राज्यों में सन् 1804 तक दासता विरोधी वातावरण बनाने में मानवीय मूल अधिकारों पर घोर निष्ठा रखनेवाली फ्रांसीसी राज्य क्रांति का अधिक महत्व है। उस महान क्रांति से प्रेरणा पाकर सन् 1821 में सांतो दोमिंगो में स्पेन के विरुद्ध विद्रोह हुआ और हाईती के हब्शी गणराज्य की स्थापना हुई। अमरीकी महाद्वीपों के सभी देशों में दासता विरोधी आंदोलन प्रबल होने लगा।
संयुक्त राज्य अमेरीका के उदारवादी उत्तर राज्यों में दासता का विरोध जितना प्रबल होता गया उतनी ही प्रतिक्रियावादी दक्षिण के दास राज्यों में दासों के प्रति कठोरता बरती जाने लगी तथा यह तनाव इतना बढ़ा कि अंततः उत्तरी तथा दक्षिणी राज्यों के बीच गृहयुद्ध छिड़ गया। इस युद्ध में अब्राहम लिंकन के नेतृत्व में दास विरोधी एकतावादी उत्तरी राज्यों की विजय हुई। सन् 1888 के अधिनियम के अनुसार संयुक्त राज्य में दासता पर खड़े पुर्तगाली ब्राजील साम्राज्य का पतन हुआ। शनैः शनैः अमरीकी महाद्वीपों के सभी देशों से दासता का उन्मूलन होने लगा। 1890 में ब्रसेल्स के 18 देशों के सम्मेलन में हब्श दासों के समुद्री व्यापार को अवैधानिक घोषित किया गया। 1919 के सैंट जर्मेन सम्मेलन में तथा 1926 के लीग आॅफ नेशंस के तत्वावधान में किए गए सम्मेलन में हर प्रकार की दासता तथा दास व्यापार के संपूर्ण उन्मूलन संबंधी प्रस्ताव पर सभी प्रमुख देशों ने हस्ताक्षर किए। ब्रिटिश अधिकृत प्रदेशों में सन् 1833 में दास प्रथा समाप्त कर दी गई और दासों को मुक्त करने के बदले में उनके मालिकों को दो करोड़ पौंड हरजाना दिया गया। अन्य देशों में कानूनन इसकी समाप्ति इन वर्षों में हुई-भारत 1846, स्विडेन 1859, ब्राजिल 1871, अफ्रिकन संरक्षित राज्य 1897, 1901, फिलिपाइन 1902, अबीसीनिया 1921। इस प्रकार 20वीं सदी में प्रायः सभी राष्ट्रों ने दासता को अमानवीय तथा अनैतिक संस्था मानकर उसके उन्मूलनार्थ कदम उठाए। संभवतः अफ्रीका में अंगोला जैसे पुर्तगाली उपनिवेशों की तरह के दो एक अपवादों को छोड़कर इस समय कहीं भी उस भयावह दास व्यवस्था का संस्थात्मक अस्तिव नहीं है जो आज की पाश्चत्य सभ्यता की समृद्धि तथा वैभव का एक प्रधान आधार रही है।
गुलाम प्रथा-दुनिया की हाट में बिकते हैं इंसान
दुनियाभर में आज भी अमानवीय गुलाम प्रथा जारी है और जानवरों की तरह इंसानों की खरीद-फरोख्त की जाती है। इन गुलामों से कारखानों और बागानों में काम कराया जाता है। उनसे घरेलू काम भी लिया जाता है। इसके अलावा गुलामों को वेश्यावृति के लिए मजबूर भी किया जाता है। गुलामों में बड़ी तादाद में महिलाएं और बच्चे भी शामिल हैं।
संयुक्त राष्ट्र संघ की एक रिपोर्ट के मुताबिक मादक पदार्थ और हथियारों के बाद तीसरे स्थान पर मानव तस्करी है। एक अन्य रिपोर्ट में कहा गया है कि दुनियाभर में करीब पौने तीन करोड़ गुलाम हैं। एंटी स्लेवरी इंटरनेशनल की परिभाषा के मुताबिक वस्तुओं की तरह इंसानों का कारोबार, श्रमिक को बेहद कम या बिना मेहनताने के काम कराना, उन्हें मानसिक या शारीरिक तौर पर प्रताड़ित कर काम कराना, उनकी गतिविधियो पर हर वक्त नजर रखना गुलामी माना जाता है। 1857 में संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन गुलामी की चरम अवस्था ”किसी पर मालिकाना हक जताने“ को मानता है। फिलहाल दासता की श्रेणियों में जबरन काम कराना, बंधुआ मजदूरी, यौन दासता, बच्चों को जबरने सेना में भर्ती करना, कम उम्र में या जबरन होने वाले विवाह और वंशानुगत दासता शामिल है।
अमेरिका में करीब 60 देशों से लाए गए करोड़ों लोग गुलाम के तौर पर जिन्दगी गुजारने को मजबूर हैं। ब्राजील में भी लाखों गुलाम हैं। हालांकि वहाँ के श्रम विभाग के मुताबिक इन गुलामों की तादाद करीब 50 हजार है और हर साल लगभग सात हजार गुलाम यहाँ लाए जाते हैं। पश्चिमी यूरोप में भी गुलामों की तादाद लाखों में है। एक रिपोर्ट के मुताबिक वर्ष 2003 में चार लाख लोग अवैध तौर पर लाए गए थे। पश्चिमी अफ्रीका में भी बड़ी तादाद में गुलाम हैं, जिनसे बागानों और उद्योगों में काम कराया जाता है। सोवियत संघ के बिखराव के बाद रूस और पूर्वी यूरोप में गुलामी प्रथा को बढ़ावा मिला।
पूर्वी अफ्रीका के देश सूडान में गुलाम प्रथा को सरकार की मान्यता मिली हुई है। यहाँ अश्वेत महिलाओं और बच्चों से मजदूरी कराई जाती है। युगांडा में सरकार विरोधी संगठन और सूडानी सेना में बच्चों की जबरन भर्ती की जाती है। अफ्रीका से दूसरे देशों में गुलामों को ले जाने के लिए जहाजों का इस्तेमाल किया जाता था। इन जहाजों में गुलामों को जानवरों की तरह ठूंसा जाता था। उन्हें कई-कई दिनों तक भोजन भी नहीं दिया जाता था, ताकि शारीरिक और मानसिक रूप से वे बुरी तरह टूट जाएं और भागने की कोशिश न करें। अमानवीय हालात में कई गुलामों की मौत हो जाती थी और कई समुद्र में कुदकर अपनी जान दे देते थे। चीन और म्यामार (बर्मा) में भी गुलामों की हालत बेहद दयनीय है। उनसे जबरन कारखानों और खेतों में काम कराया जाता है। इंडोनेशिया, थाइलैंड, मलेशिया और फिलीपींस में महिलाओं से वेश्यावृति कराई जाती है। उन्हें खाड़ी देशों में वेश्यावृति के लिए बेचा जाता है।
दक्षिण एशिया खासकर भारत, पाकिस्तान और नेपाल में गरीबी से तंग लोग गुलाम बनने पर मजबूर हुए। भारत में भी बंधुआ मजदूरी के तौर पर गुलाम प्रथा जारी है। हालांकि सरकार ने 1975 में राष्ट्रपति के एक अध्यादेश के जरिए बंधुआ मजदूर प्रथा पर प्रतिबंध लगा दिया था, मगर इसके बावजूद सिलसिला आज भी जारी है। यह कहना गलत न होगा कि औद्योगिकरण के चलते इसमें इजाफा ही हुआ है। सरकार भी इस बात को मानती है कि देश में बंधुआ मजदूरी जारी है। भारत के श्रम व रोजगार मंत्रालय की वार्षिक रिपोर्ट के मुताबिक देश में 19 प्रदेशों से 31 मार्च तक देशभर में दो लाख 86 हजार 612 बंधुआ मजदूरों की पहचान की गई और मुक्त उन्हें मुक्त कराया गया। नवंबर तक एकमात्र राज्य उत्तर प्रदेश के 28 हजार 385 में से केवल 58 बंधुआ मजदूरों को पुनर्वासित किया गया, जबकि 18 राज्यों में से एक भी बंधुआ मजदूर को पुनर्वासित नहीं किया गया। इस रिपोर्ट के मुताबिक देश में सबसे ज्यादा तमिलनाडु में 65 हजार 573 बंधुआ मजदूरों की पहचान कर उन्हें मुक्त कराया गया। कनार्टक में 63 हजार 437 और उड़ीसा में 50 हजार 29 बंधुआ मजदूरों को मुक्त कराया गया। रिपोर्ट में यह भी बताया गया कि 19 राज्यों को 68 करोड़ 68 लाख 42 हजार रुपए की केंद्रीय सहायता मुहैया कराई गई, जिसमें सबसे ज्यादा सहायता 16 करोड़ 61 लाख 66 हजार 94 रुपए राजस्थान को दिए गए। इसके बाद 15 करोड़ 78 लाख 18 हजार रुपए कर्नाटक और नौ कराड़ तीन लाख 34 हजार रुपए उड़ीसा को मुहैया कराए गए। इसी समयावधि के दौरान सबसे कम केंद्रीय सहायता उत्तराखंड को मुहैया कराई गई। उत्तर प्रदेश को पांच लाख 80 हजार रुपए की केंद्रीय सहायता दी गई। इसके अलावा अरुणाचल प्रदेश, बिहार, छत्तीसगढ़, दिल्ली, गुजरात, हरियाणा, झारखंड, कर्नाटक, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, मणिपुर, उड़ीसा, पंजाब, राजस्थान, तमिलनाडु, उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड को 31 मार्च 2006 तक बंधुआ बच्चों का सर्वेक्षण कराने, मूल्यांकन अध्ययन कराने और जागरूकता सृजन कार्यक्रमों के लिए चार करोड़ 20 लाख रुपए की राशि दी गई।
भारत में सदियों से किसान गाँवों के साहूकारों से खाद, बीज, रसायनों और कृषि उपकरणों आदि के लिए कर्ज लेते रहे हैं। इस कर्ज के बदले उन्हें अपने घर और खेत तक गिरवी रखने पड़ते हैं। कर्ज से कई गुना रकम चुकाने के बाद भी जब उनका कर्ज नहीं उतर पाता। यहाँ तक कि उनके घर और खेत तक साहूकारों के पास चले जाते हैं। इसके बाद उन्हें साहूकारों के खेतों पर बंधुआ मजदूर के तौर पर काम करना पड़ता है। हालत यह है कि किसानों की कई नस्लें तक साहूकारों की बंधुआ बनकर रह जाती हैं।
बिहार के गाँव पाईपुरा बरकी में खेतिहर मजबूर जवाहर मांझी को 40 किलो चावल के बदले अपनी पत्नी और चार बच्चों के साथ 30 साल तक बंधुआ मजदूरी करनी पड़ी। करीब तीन साल पहले यह मामला सरकार की नजर में आया। मामले के मुताबिक 33 साल पहले जवाहर मांझी ने एक विवाह समारोह के लिए जमींदार से 40 किलो चावल लिए। उस वक्त तय हुआ कि उसे जमींदार के खेत पर काम करना होगा और एक दिन की मजदूरी एक किलो चावल होंगे। मगर तीन दशक तक मजदूरी करने के बावजूद जमींदार के 40 किलो का कर्ज नहीं उतर पाया। एंटी स्लेवरी इंटरनेशनल के मुताबिक भारत में देहात में बंधुआ मजदूरी का सिलसिला बदस्तूर जारी है। लाखों पुरुष, महिलाएं और बच्चे बंधुआ मजदूरी करने को मजबूर हैं। पाकिस्तान और दक्षिण एशिया के अन्य देशों में भी यही हालत है।
देश में ऐसे ही कितने भठ्ठे व अन्य उद्योग धंधे हैं, जहाँ मजदूरों को बंधुआ बनाकर उनसे कड़ी मेहनत कराई जाती है और मजदूरी की एवज में नाम मात्र पैसे दिए जाते हैं, जिससे उन्हें दो वक्त भी भर पेट रोटी नसीब नहीं हो पाती। अफसोस की बात तो यह है कि सब कुछ जानते हुए भी प्रशासन इन मामले में मूक दर्शक बना रहता है, लेकिन जब बंधुआ मुक्ति मोर्चा जैसे संगठन मीडिया के जरिये प्रशासन पर दबाव बनाते हैं तो अधिकारियों की नींद टूटती है और कुछ जगहों पर छापा मारकर वे रस्म अदायगी कर लेते हैं। श्रमिकों के अनुसार मजदूरों को ठेकेदारों की मनमानी सहनी पड़ती है। उन्हें हर रोज काम नहीं मिल पाता इसलिए वे काम की तलाश में ईंट भठ्ठों का रुख करते हैं, मगर यहाँ भी उन्हें अमानवीय स्थिति में काम करना पड़ता है। अगर कोई मजदूर बीमार हो जाए तो उसे दवा दिलाना तो दूर की बात उसे आराम तक करने नहीं दिया जाता।
दास प्रथा की शुरुआत कई सदी पहले हुई थी। बताया जाता है कि चीन में 18-12वीं शताब्दी ईसा पूर्व गुलामी प्रथा का जिक्र मिलता है। भारत के प्राचीन ग्रंथ मनु स्मृति में दास प्रथा का उल्लेख किया गया है। एक रिपोर्ट के मुताबिक 650 ईस्वी से 1905 के दौरान पौने दो करोड़ से ज्यादा लोगों को इस्लामी साम्राज्य में बेचा गया। 15वीं शताब्दी में अफ्रीका के लोग भी इस अनैतिक व्यापार में शामिल हो गए। 1867 में करीब छह करोड़ लोगों को बंधक बनाकर दूसरे देशों में गुलाम के तौर पर बेच दिया गया।
गुलाम प्रथा के खलिाफ दुनियाभर में आवाजें बुलंद होने लगीं। इस पर 1807 में ब्रिटेन ने दास प्रथा उन्मूलन कानून के तहत अपने देश में अफ्रीकी गुलामों की खरीद-फरोख्त पर पाबंदी लगा दी। 1808 में अमेरिकी कांग्रेस ने गुलामी के आयात पर प्रतिबंध लगा दिया। 1833 तक यह कानून पूरे ब्रिटिश साम्राज्य में लागू कर दिया। कहने को तो भारत में बंधुआ मजदूरी पर पाबंदी लग चुकी है, लेकिन हकीकत यह है कि आज भी यह अमानवीय प्रथा जारी है। बढ़ते औद्योगिकरण ने इसे बढ़ावा दिया है। साथ ही श्रम कानूनों के लचीलेपन के कारण मजदूरों के शोषण का सिलसिला जारी है। शिक्षित और जागरूक न होने के कारण इस तबके की तरफ किसी का ध्यान नहीं गया। संयुक्त राष्ट्र संघ को चाहिए कि वह सरकारों से श्रम कानूनों का सख्ती से पालन कराए, ताकि मजदूरों को शोषण से निजात मिल सके। संयुक्त राष्ट्र संघ और मानवाधिकार जैसे संगठनों को गुलाम प्रथा के खलिाफ अपनी मुहिम को और तेज करना होगा। साथ ही गुलामों को मुक्त कराने के लिए भी सरकारों पर दबाव बनाना होगा। इस बात में कोई दो राय नहीं है कि विभिन्न देशों में अनैतिक धंधे प्रशासनिक अधिकारियों की मिलीभगत से ही होते हैं, इसलिए प्रशासनिक व्यवस्था को भी दुरुस्त करना होगा, ताकि गुलाम भी आम आदमी की जिन्दगी बसर कर सकें।
गुलामी की आधुनिक परिभाषा
गुलामी की आधुनिक परिभाषा के अनुसार यह सूची ऑस्ट्रेलिया की अधिकारों के लिए काम करने वाली संस्था ”वॉक फ्री फाउंडेशन“ ने तैयार की है। इसमें कर से संबंधित बंधुआ मजदूरी, जबरन शादी और मानव तस्करी शामिल हैं। डब्लूएफएफ के प्रमुख कार्यकारी अधिकारी निक ग्रोनो ने समाचार एजेंसी एएफपी से कहा, ”हमारी बात बहुत सी सरकारें सुनना नहीं चाहेंगी“ इस संस्था द्वारा दुनिया भर में 2 करोड़ 90 लाख 8 हजार गुलाम होने का अनुमान आधुनिक गुलामी के बारे में किए गए अन्य आकलन से काफी ज्यादा है। इंटरनेशनल लेबर ऑर्गेनाइजेशन के अनुसार दुनिया में 2 करोड़ 10 लाख लोग जबरन मजदूरी के शिकार हैं।
भारत में हैं सबसे ज्यादा गुलाम
भारत में विश्व में सबसे अधिक 1 करोड़ 40 लाख लोग गुलामों जैसा जीवन बिता रहे हैं, ये दावा किया गया है ग्लोबल स्लेवरी इंडेक्स में। इस सूची के अनुसार दुनिया भर में करीब तीन करोड़ लोग गुलामों की जिंदगी जी रहे हैं। हालांकि जनसंख्या प्रतिशत के अनुसार सर्वाधिक, करीब चार प्रतिशत, आधुनिक गुलाम अफ्रीकी देश मॉरीतानिया में हैं। 162 देशों की स्थिति बताने वाले ग्लोबल स्लेवरी इंडेक्स-2013 की नई वैश्विक सूची में यह बात सामने आई है। लेकिन इस सूची में यह भी कहा गया है कि कुल जनसंख्या के अनुपात के हिसाब से यह आंकड़ा मॉरीतानिया में सबसे ज्यादा है। यहाँ की चार प्रतिशत आबादी गुलामों जैसी जिंदगी जी रही है। रिपोर्ट तैयार करने वालों का कहना है कि इससे संबंधित देशों की सरकारों को गुलामी की ”छिपी हुई समस्या“ से निपटने में सहायता मिलेगी।
इस कल्याणकारी संस्था का कहना है कि भारत, चीन, पकिस्तान और नाइजीरिया में सबसे ज्यादा गुलाम हैं। यदि इन देशों में पाँच अन्य देशों के आधुनिक गुलामों की संख्या जोड़ दी जाए तो विश्व में आधुनिक गुलामी के कुल अनुमान का तीन चैथाई आंकड़ा हो जाता है। रिपोर्ट में बताया गया है कि भारत को लोगों की संख्या के आधार पर मिला गुलामी में पहला स्थान देश के भीतर ही लोगों का शोषण होने के कारण हो सकता है।
गुलामी मिली पुरखों से
सबसे अधिक अनुपात के हिसाब से मॉरीतानिया को पहला स्थान इसलिए मिला क्योंकि वहाँ बहुत से लोगों को गुलामी अपने पुरखों से विरासत में मिलती है। सूची में मॉरीतानिया के बाद हैती को दूसरा और पकिस्तान को तीसरा स्थान दिया गया है। इस सर्वेक्षण को अमेरीका की पूर्व विदेश मंत्री हिलेरी क्लिंटन और पूर्व ब्रितानी प्रधानमंत्री टोनी ब्लेयर का समर्थन हासिल है। समाचार एजेंसी एपी के अनुसार हिलेरी क्लिंटन ने कहा, ”हालांकि यह सूची पूरी तरह से ठीक नहीं है लेकिन यह एक शुरुआत का मौका देती है“ उन्होंने कहा, ”मैं विश्व के नेताओं से अपील करती हूँ कि वे इस सूची को देखें और इस अपराध से निपटने के लिए अपना ध्यान केंद्रित रखें”
हम गुलाम क्यों हैं-स्वामी विवेकानंद
इस बात को हमेशा ध्यान रखो कि राष्ट्र झोपड़ियों में बसता है। किसान, जूते बनाने वाले, मेहतर, और भारत के ऐसे ही निचले वर्गों में तुमसे कहीं ज्यादा काम करने और स्वावलंबन की क्षमता है। वे लोग युग-युग से चुपचाप काम करते रहे हैं। वे ही हैं, जो इस देश की समस्त संपदा के उत्पादक हैं। फिर भी उन्होंने कभी शिकायत नहीं की। ऐसा दिन शीघ्र ही आने वाला है, जब उनका दर्जा तुमसे ऊपर होगा। धीरे-धीरे पूँजी उनके हाथों में आ रही है। आधुनिक शिक्षा ने तुम लोगों का फैशन ही बदल दिया है। कितनी ही संपदा अनखोजी पड़ी हुई है, क्योंकि तुममें उसके अन्वेषण की क्षमता नहीं है। तुम लोगों ने अब तक इस जनता को दबाया है, अब उनकी बारी है और तुम लोग रोजगार की तलाश में भटकते-भटकते नष्ट हो जाओगे, क्योंकि यही तुम्हारे जीवन का सर्वस्व बन गया है। जब भी मैं गरीबों के बारे में सोचता हूँ तो मेरा हृदय पीड़ा से कराह उठता है। बचने या ऊपर उठने का उनके पास कोई अवसर नहीं है। वे लोग हर दिन नीचे, और-और नीचे धँसते जाते हैं। वे निर्दयी समाज के वारों को निरंतर झेलते जाते हैं। वे यह भी नहीं जानते कि उन पर कौन वार कर रहा है, कहाँ से वार हो रहे हैं। वे यह भी भूल चुके हैं कि वे स्वयं भी मनुष्य हैं। इन सबका परिणाम है-गुलामी।
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